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अष्टाधिकशततमोऽध्यायः

अष्टाधिकशततमोऽध्यायः


गायनमहात्म्यम्

सनत्कुमार उवाच

वक्ष्ये शिलया महारम्यं शृणु नारद मुक्तिदम् । यस्या गायन्ति देवाश्च माहात्म्यं सुनिपुंगवाः ॥१
शिला स्थिता पृथिव्यां सा देवरूपाऽतिपावनी । विचित्राख्यं शिलातीर्थं त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् ॥२
तस्याः संस्पर्शनाल्लोकाः सर्वे हरिपुरं ययुः। शून्ये लोकत्रये जाते शून्या यमपुरी ह्यभूत् ॥३
यम इन्द्रादिभिर्गत्वा ऊचे ब्रह्माणमद्भुतम् । अधिकारं गृहणाथ यमदण्डं पितामह ॥४
यममूचे ततो ब्रह्मा स्वगृहे धारयस्व ताम् । ब्रह्मोक्तो धर्मराजस्तु गृहे तां समधारयत् ॥५
यमोऽधिकारं स्वं च पापिनां शासनादिकम् । एवंविधा गुरुतरा शिला जगति विश्रुता ॥६
यथा ब्रह्मा यथा विष्णुर्यथा देवो महेश्वरः। ब्रह्माण्डे च यथा मेरुस्तथेयं देवरूपिणी ।।७


अध्याय १०८

सनत्कुमार बोले-नारदजी ! अब इसके उपरान्त उक्त शिला का माहात्म्य वर्णन कर । रहा हैं, जिसका गान बड़ेबड़े सुनिगण एवं देवतागण किया करते हैं, जिसके श्रवण करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है, सुनिये । वह परम पवित्र शिला पुथ्वी पर देव स्वरूप से स्थित हुई। वह विचित्र नामक शिला तीर्थं तीनों लोकों में विख्यात हुई उसके स्पर्श मात्र करने से सभी लोकों के निवासी विष्णुपुरु को प्राप्त हुए । इस प्रकार जब तीनों लोक सुनसान हो गयेयमपुरी भी सूनी हो गई ।१-३। तव यमराज इन्द्र प्रभृति प्रमुख देवगणों के साथ अद्भुत कर्मणाली भभवान् ब्रह्मा के पास गये और बोले, पितामहआप यमदण्ड एवं उसके अधिकारों को अब स्वयं ग्रहण कीजिए । ब्रह्मा ने यमराज से कहा कि उस शिला को तुम अपने घर पर स्थापित करो । ब्रह्मा के आदेशानुसार धमैराज ने उसे अपने घर स्थापित किया । और पप कमियों के शासनादि को अपनी व्यवस्था पूर्ववत् परिचालित की । इस प्रकार वह महान् गुरु शिला समस्त संसार में विख्यात हुई जिस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर का प्रया समस्त संसार में व्याप्त है, निखिल ब्रह्माण्ड में जिस प्रकार सुमेरु की महिमा प्रसिद्ध है, उसी प्रकार यह देवस्वरूपिणी शिला भी संसार में अपने माहात्म्य से विख्यात थी । अपने भारीपन् ।