पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१००

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नवमोऽध्यायः ८१ व्यतीते प्रथमे कल्पे पुराणे लोकसाधकौ । वैराजे तावुभौ लोके तेजः संक्षिप्य चाऽऽस्थितौ - १०७ तावुभौ योगधर्माणावारोप्याऽऽत्मानमात्मनि । प्रजाधर्मं च कामं च वर्तयेतां महौजसौ ॥१०८ यथोत्पन्नस्तथैवेह कुमार इति चोच्यते । तस्मात्सनत्कुमारोऽयमिति नामास्य कीर्तितम् ॥१०६ तेषां द्वादश ते वंशा दिव्या देवगुणान्विताः । क्रियावन्तः प्रजावन्तो महर्षिभिरलंकृताः ॥११० इत्येष करणोद्भूतो लोकान्त्रष्टुं स्वयंभुवः। महदादिविशेषान्तो विकारः प्रकृतेः स्वयम् ॥१११ चन्द्रसूर्यप्रभालोको ग्रहनक्षत्रमण्डितः। नदीभिश्च समुद्भश्च पर्वतैश्च समावृतः ११२ पुरैश्च विविधाकारैः प्रतैर्जनपदैस्थता । तस्मिन्ब्रह्मवनेऽव्यक्तो ब्रह्मा चरति शर्वरीस् ११३ अव्यक्तबीजप्रभवस्तस्यैवानुग्रहोत्थितः । बुद्धिस्कन्धमयश्चैव इन्द्रियाङ्कुरकोटरः ११४ महाभूतप्रशाखश्च विशेषेः पत्रवांस्तथा । धर्माधर्मसुपुष्पस्तु सुखदुःखफलोदयः ।।११५ आजीवः सर्वभूतानामयं वृक्षः सनातनः। एतदब्रह्मवनं चैव ब्रह्मवृक्षस्य तस्य ह ११६ अव्यक्तं कारणं यत्तु नित्यं सदसदात्मकम् । इत्येषोऽनुग्रहः सर्गो ब्रह्मणः प्राकृतस्तु यः ११७ मुख्यादयस्तु षट्सर्गा वैकृता बुद्धिपूर्वकाः । मैकाले समवर्तन्त ब्रह्मणस्तेऽभिमानिनः ११८ की अभिलाषा से इन दोनों महात्माओं ने अपने तेज का संयमन करके वेराज लोक में आश्रय प्राप्त किया था । महातेजस्वी और महयोगी वे दो ब्रह्मषि आत्मा से आत्मा का समघन करके प्रजाओं के घमं और काम समूह का साधन करते हुए स्थित हुए ।१०७१०८। वे जसे जनमें हैं वैसे ही हैं, इसीलिये कुमार कहे जाते है और सनत्कुमार भी इसीलिए कहे जाते हैं १०६। इन द्वादश ब्रह्मतनयों की वशवृद्धि दिव्य, देवगुणन्वितक्रियायुक्त प्रजा-समन्वित, और महंष गुणालंकृत हुई ।११०। लोक क सृष्टि करने के लिये स्वयम्भू का जो महान् से विशेष पर्यन्त प्रकृतिविकार हैं, वे ही चन्द्र, सूर्य आलोकअन्धकार ग्रह, नक्षत्र नदी, समुद्र, पर्वत, विविधाकार वाले पुर सुप्रीत जनपदादि युक्त जगत्प्रपत्र में परिवfतत हुए हैं । उस अव्यक्त ब्रह्मावन में ब्रह्मा अपना रात्रिकाल बिताते है । वह ब्रह्मवृक्ष अव्यक्त बीज से उत्पन्न और उसी के अनुग्रह से अर्थात् उत्थित बढ़ा भी है। बुद्धि उसका स्कन्ध है, इन्द्रियगण कोटर, महाभूत शाखा-प्रशाखा; विशेष (तत्त्व) पद्ध; धर्माघमें पुष्प और सुख दुःख उसके फल हैं ।१११-११५। यह सनातन वृक्ष सम्पूर्ण भूतों का आश्रय है । उस ब्रह्मवृक्ष का यह ब्रह्मावन अव्यक्त, नित्य और सदसदात्मक कारण है । यह प्राकृत सर्ग के नाम से प्रसिद्ध है । वैकृत नामक मुख्य सर्ग छः प्रकार के हैं, जो बुद्धि-पूर्वक विचारणीय हैं । ये सर्ग अभिमानी ब्रह्मा के तीनों काल में प्रवर्तत होते हैं ।११६-११८ ये सर्गे परस्पर एक दूसरे के कारण हैं ऐसा पण्डितों ने कहा है । उस ब्रह्म वृक्ष ५११ '०