भी स्त्री वेष में अन्तःपुर में आता हो, यह भी संभव है । स्त्री चरित्र को कौन जानता है।
ततश्चेत्थं विचार्य राजा परेद्यु : प्रातरात्मनि कृत्रिमज्वरं विधाय शयानः कालिदासं दासीमुखेनानाय्य तदागमनानन्तरं तयैव लीलादेवीं चानाय्य देवीं प्रत्यवदत्--'प्रिये, इदानीमेव मया पथ्यं भोक्तव्यम् इति । इत्युक्ते सापि तथैव' इति पथ्यं गृहीत्वा राज्ञे रजतपात्रे दत्त्वा तत्र मुद्गदालीं प्रत्यवेषयत् ।
तत्पश्चात् ऐसा विचार कर. दूसरे दिन प्रातः कपटज्वर का बहाना करके लेटे राजा ने दासी द्वारा कालिदास को बुलवा लिया और तत्पश्चात् उसी दासी द्वारा लीला देवी को बुलवा कर देवी से कहा--'प्रिये, इस समय मैं पथ्य-भोजन ही करूँगा।' राजा के ऐसा कहने पर वह भी 'ठीक है-यह मान पथ्य लाकर राजा को चांदी पात्र में देकर मूंग की दाल परोसी ।
ततो राजापि तयोरभिप्रायं जिज्ञासमानः श्लोकार्धं प्राह-
मुद्गदाली गदव्याली कवीन्द्र वितुषा कथम् ।' इति ।
तब उन दोनों ( रानी-कालिदास ) के विचारों के जानने की आकांक्षा से राजा ने आघा श्लोक कहा--
कविराज, रोग के लिए सर्पिणी तुल्य मूंग की दाल भला क्यों छिलका रहित हुई ?'
ततः कालिदासो देव्यां समीपवर्तिन्यामप्युत्तरार्धं प्राह-- |
तब रानी के पास बैठे होने पर भी कालिदास ने श्लोक का उत्तरार्द्ध कह दिया--'अन्धा प्रिय होने के कारण इसने चोली उतार दी।
देवीतच्छ्रुत्वा परिज्ञातार्थस्वरूपा सरस्वतीव तदर्थ विदित्वा स्मेरमुखी मनागिव बभूव । राजाप्येतद् दृष्ट्वा विचारयामास--'इयं पुरा कालिदासे स्निह्यति । अनेनैतस्यां समीपवर्तिन्यामपीत्थमभ्यधायि । इयं च स्मरमुखी वभूव । स्त्रीणां चरित्रं को वेद ।
अश्व[१]अश्व प्लुतं वासवगर्जितं च स्त्रीणां च चित्तं पुरुषस्य भाग्यम् ।
अवर्षणं चाप्यतिवर्षणं च देवो न जानाति कुतो मनुष्यः । १४३ ।।
- ↑ अश्वधावनम् ।