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भोजप्रवन्धः

कमलेनास्य करकमलमवलम्ब्य स्वासनदेशं प्राप्य तं च सिंहासनमुपवेश्य स्वयं च तदाज्ञया तत्रैवोपविष्टः ।

 तब दूर पर ही उसे आता देख कर आनन्दित हो आसन से उठ कर राजा यह कहता हुआ कि हे सुकवे, मेरे प्रियतम, आज क्यों विलंब किया- 'पाँच-छः डग आगे बढ़ आया। तब संपूर्ण सभा अपने आसन से उठ खड़ी हुई। सब सभासद् चमत्कृत हो गये । वैरी जन के मुंह उतर गये । तब राजा अपने कर कमल से उसके करकमल को पकड़ कर अपने आसन स्थान पर पहुंचा और अपने सिंहासन पर उसे वैठा कर स्वयम् उसकी आज्ञा से वहीं बैठ गया।

ततो राजसिंहासनारूढे कालिदासे बाण कविर्दक्षिणं बाहुमुद्धत्य प्राह-

भोजः कलाविद्रुद्रो वा कालिदासस्य माननात् ।
विबुधेषु कृतो राजा येन दोषाकरोऽप्यसौ ॥ १४१ ॥

 ततोऽस्य विशेषेण विद्वद्भिः सह वैरानलः प्रदीप्तः ।

 तत्पश्चात् कालिदास के राज सिंहासन पर बैठ जाने पर बाण कवि ने दाहिनी भुजा उठा कर कहा-

 कालिदास का मान करने में कला मर्मज्ञ यह राजा भोज है अथवा रुद्र शिव कि इसने दोपाकर (रात्रि का करने वाला) चन्द्रमा के समान दोपाकर ( दोपों के आगार ) इस कालिदास को विद्वानों में राजा बना दिया । तो इस कारण विद्वानों के साथ कालिदास की वैराग्नि और भी दीप्त हो गयी।

 ततः कश्चिद्बुद्धिमद्भिर्मन्त्रयित्वा सर्वैरपि विद्वद्भिर्भोजस्य ताम्बूलवाहिनी दासी धनकनकादिना सम्मानिता । ते च तां प्रत्युपायमूचुः-- 'सुभगे, अस्मत्कीर्तिमसौ कालिदासो गलयति । अस्मासु कोऽपि नैतेन कलासाम्यं प्रवहते । वत्से, यथैनं राजा देशान्तरं निःसारयति तद्भवत्या कर्तव्यम्' इति । दासी प्राह-'भवद्भयो हारं प्राप्य मया युष्मत्कार्यं क्रियते । तन्मम प्रथमं हारो दातव्यः' इति । ततः सा ताम्बूलवाहिनी तैर्दत्तं हारमादाय व्यचिन्यत् । तथा हि--'बुधैरसाध्यं किं वास्ति ।'

 तत्पश्चात् कुछ बुद्धिमानों ने सलाह करके सभी विद्वानों द्वारा भोज की तांबूल वाहिका दासी का, धन मान और सुवर्ण आदि देकर संमान कराया।