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भोजप्रवन्धः

 राजा अपनी पत्नी के हाथ से दीपक लेकर पत्र में लिखे उन अक्षरों को बाँचने लगा-सतयुग का अलंकारस्वरूप धरती का स्वामी मांधाता चला गया; जिसने महान् समुद्र पर पुल बना दिया, वह दशानन रावण का अंत करनेवाला (राम) भी कहाँ है ? हे धरती के मालिक, अन्य जो युधिप्ठिर आदि थे, वे भी धुलोक गये; यह बनधान्यपूर्ण वसुंधरा धरती किसी के साथ न गयी; हे मुंज, तेरे साथ जायगी।

राजा उसके अर्थ को समझकर शय्या से धरती पर गिर पड़ा।

ततश्च देवीकरकमलचालितचेलाञ्चलानिलेन ससंज्ञो भूत्वा 'देवि,

 मा मां स्पृश हा हा पुत्र घातिनम्' इति विलपन्कुरर इव द्वारपालानानाथ्य 'ब्राह्मणानानयत्त' इत्याह । ततः स्वाज्ञया समागतान ब्राह्मणान्नत्वा मया 'पुत्रो हतः, तस्य प्रायश्चित्तं वध्वम्' इति वदन्तं ते तमूचुः- 'राजन् , सहसा वह्निमाविश' इति।   तत्पश्चात् महारानी के कर कमलों द्वारा डुलाये जाते साड़ी के आँचल से उत्पन्न वायु से चैतन्य पाकर राजाने 'देवि, मुझ पुत्र के हत्यारे का स्पर्श मत करो'-इस प्रकार कुरर पक्षी की भाँति' विलाप करते हुए द्वारपालों को बुलवा कर कहा कि ब्राह्मणों को ले आओ। तत्पश्चात् अपनी आज्ञा से आये ब्राह्मणों को प्रणाम करके वोला कि मैंने पुत्र की हत्या की है, उसका प्रायश्चित्त वताओ । ऐसा कहते उससे ब्राह्मण वोले-'राजन्, तुरंत आग में प्रवेश करो।.

 ततः समेत्य बुद्धिसागरः प्राह-'यथा त्वं राजाधमः, तथैवामात्या- धमो वत्सराजः । तव किल राज्यं दत्त्वा सिन्धुलनृपेण तेन त्वगुत्सङ्ग भोजः स्थापितः । तच्च त्वया पितृव्येणान्यत्कृतम् ।

कतिपयदिवसस्थायिनि मदकारिणि यौवने दुरात्मानः ।
विदधति तथापराधं जन्मैव यथा वृथा भवति ।। ३६ ।।
सन्तस्तृणोत्सारणमुत्तमाङ्गारसुवर्ण कोट्यपणमामनन्ति ।
प्राणव्ययेनापि कृतोपकाराः खलाः परेवैरमिवोद्वहन्ति ॥४०॥
उपकारश्चापकारो यस्यव्रजति विस्मृतिम् ।
पापाणहृदयस्यास्य जीवतीत्यभिधा मुधा ।। ४१ ॥

२ भोज०