पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/१०४

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् परिष्कृतम् अस्ति
९७
भाजप्रबन्धः


 दूसरे दिन दूसरा चरण लिखा देख मत्री ने स्वयं तीसरा चरण लिख दिया-

 'यदि वह लक्ष्मी चली जाय तो फिर क्या होगा ?' अगले दिन राजा ने

चौथा चरण लिख दिया---'उसके संग ही चला जायगा सब संचित धन ।' तो मुख्य मंत्री राजा के चरणों में गिर गया और बोला---'महाराज, मेरा यह अपराध क्षमा करें।'

 अन्यदा धाराधीश्वरमुपरि सौधभूमौ शयानं मत्वा कश्चिद्विजचोरः खातपातपूर्वं राज्ञः कोशगृहं प्रविश्य बहूनि विविधरत्नानि वैडूर्यादीनि हृत्वा तानि परलोकऋणानि मत्वा तत्रैव वैराग्यमापन्नो विचारयामास-

"यद्व्यङ्गाः कुष्ठिनश्चान्धाः पङ्गवश्च दरिद्रिणः ।
पूर्वोपाजितपापस्य फलमश्नन्ति देहिनः' ।। १६६ ।।

 और एकवार धाराधिपति को ऊपर प्रासाद में सोया जान कोई ब्राह्मण चोर सेंध लगा कर राजा के खजाने में घुस गया और बहुत से अनेक प्रकार के रत्न लहसुनिया आदि चुराकर और यह समझ कर कि यह सब परलोक में चुकाया जाने के निमित्त ऋण उसपर चढ़ गया, वैराग्य को प्राप्त हो विचारने लगा-

 अंगहीन, कोढ़ी, अंधे, लंगड़े और दरिद्री देहधारी प्राणी संचित पाप का फल भोगा करते हैं।

 ततो राजा निद्राक्षये दिव्यशयनस्थितो विविधमणिकङ्कणालडकृतं दयितवर्गं दर्शनीयमालोक्य गजतुरगरथपदातिसामग्रीं च चिन्तयन् राज्यसुखसन्तुष्टः प्रमोदभरादाह-

 'चेतोहरा युवतयः सुहृदोऽनुकूलाः

 सद्बान्धवाः प्रणयगर्भगिरश्च भृत्याः।

 वल्गन्ति दन्तिनिवहास्तरलास्तुरङ्गाः' इति चरणत्रयं राज्ञोक्तम् । चतुर्थचरणं राज्ञो मुखान्न निःसरति तदा चोरेण श्रुत्वा पूरितम्-  'सम्मीलने नयनयोर्नहि किञ्चिदस्ति' ॥ २०० ॥

 तदनंतर नींद टूटने पर दिव्य शैया पर बैठा, अनेक विध मणि जटित कंकणों से सुसज्जित अपनी प्रिया मंडली और हाथी, घोड़े, रथ और पैदल

७ भोज०