१३४४ ब्रह्मस्फुटसिद्धान्ते ग्रह होते हैं । सिद्धान्तशेखर में ‘द्रष्टा स्फुटं पश्यति मध्यतुल्यं भान्तस्थिते भावंगते च केन्द्रे' इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित इलोकों से श्रीपति ने इसी तरह कहा है । लल्ला चार्य ने पहले आर्यभटोक्त स्पष्टी करण क्रिया की उपपत्ति ही कही है । ‘मध्यमतुल्यं स्पष्टं भान्तरते भार्धगेऽपि वा केन्द्रे' इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोकों से भास्कराचार्य ने भी ‘भूमेर्मध्ये खलु भवलस्यापि मध्यं यतः स्यात्’ इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोक (एक ही) से पहले प्राचीनोक्त मध्यम ग्रह की स्पष्टता विधायक विधि को कहा । है पश्चात् विशद व्याख्या से प्रतिपादन किया है । ग्रहों के स्पष्टी करण में छेद्यक आदि की उपपत्ति में प्राचीनाचार्यों ने कक्षावृत्त-प्रतिवृत्तादियों की कल्पना क्यों की इसके सम्बन्ध में कुछ कहते हैं। किसी इष्ट बिन्दु (कल्पित भूकेन्द्र) से इष्ट त्रिज्या व्यासाधे से कक्षावृत्त संज्ञक वृत्त बनाना वस्तुत: यह वेधवलय (वेधवृत्त) है इस वृत्त के केन्द्र से तत्तत् ग्रह गोलस्थ ग्रह गत सूत्र जहां जहां इस वृत्त (कक्षावृत्त) में लगते हैं तहां तहां वे ग्रह परिणत होते हैं । वक्षा वृत्त केन्द्र (भूकेन्द्र) से कक्षावृत्त की ऊध्र्वाधर व्यास रेखा और केन्द्र से उसके ऊपर लम्बरूप तिर्यक् व्यास रेखा करनी चाहिये । ऊध्र्वाधार व्यास रेख में केन्द्र से उच्चाभिमुख वेध विदित ग्रह की अन्यफलज्या तुल्य दान देकर दानाग्र बिन्दु से उसी त्रिज्या व्यासार्ध से वृत्त बनाना यह शीघ्र प्रतिवृत्त कहलाता है । यही वृत्त मन्दस्पष्टग्रह रुमण्वृत्त हैं। इस वृत्त का भी केन्द्र भूकेन्द्र ही क्यों नहीं होता है इसका ज्ञान प्रति दिन वेषविधि से कर्ण ज्ञान द्वारा होता है । वह बिन्दु केन्द्र से कितने अन्तर पर हैं जहाँ से प्रति वृत्त की प्रत्येक बिन्दु गत रेखा बराबर होती है वेष से इसको भी समझ कर उसी बिन्दु को प्रति वृत्त के केन्द्र की कल्पना की गयी, कक्षावृत्त और प्रतिवृत्त के केन्द्र से भगोलीय मेषादिगत रेखाद्वय वृत्त द्वय (कक्षावृत्त और प्रतिवृत्त) में जहां जहां लगता है वहां वहां वृत्तद्वय में मेषादि बिन्दु होते हैं । भूकेन्द्र से प्रतिवृत्त का जो प्रदेश सब बिन्दुओं से अति दूर है वह उच्च संज्ञक है, उसके राश्यादि जानकर तत्तुल्य ही उच्च कक्षावृत्त में कल्पना कर ग्रहानयन होता है। इससे अन्यथा नहीं होता है । तथा उच्चढय के तुल्यत्व में इन दोनों रेखाओं को भगोलीय मैषादि बिन्दु में योग रहने पर भी समानान्तरत्व स्वीकार कर अनन्त दूर में जिस बिन्दु में रेखा ह्य को योग होता है वह रेखाद्वय भी समानान्तर होता है इसको प्राचीनाचार्यों ने स्वीकार किया है । वास्तव भगोल इतनी दूर पर है जहां केन्द्र से आरम्भ कर शनि कक्षानिष्ठ किसी बिन्दु से लयी गयी रेखा अनन्त होती है। प्रह गणित में केन्द्र से शनि कक्षापर्यंत ही भगोलीय बिन्दुगत रेखाढ्य का समानान्तरत्व स्वीकार किया जाता है । इसलिये भगोल का केन्द्र जहां तहां कल्पना कर सकते हैं । भूकेन्द्र से प्रतिवृत्त का कौन बिन्दु अति दूर है जो उच्च संक्षक है वृत्तद्वय केन्द्र गत रेखा ही सर्वाधिक होती हैं, इसलिये यही रेखा प्रति वृत्त की भी उच्च रेखा होती है, वस्तुतः प्रतिवृत्त ही में उच्च है, अनुपातागत रादयादि उच्च को कक्षावृत्त में दिया जाता है भूकेन्द्र से तगत रेखा ही प्रतिवृत्तीय उच्च रेखा होती है इस विलोम से प्रतिवृत्त में मेषादि ज्ञान होता है। यदि किसी रीति से प्रति धृत्तीय ग्रह ज्ञान हो तो उस स्थान से उच्च रेखा की समानान्तर रेखा कक्षावृत्त में जहाँ
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