( ९ ) इस श्लोक का द्वितीयचरण शुद्ध नहीं है। यह प्रकार ब्रह्मगुप्त के अधोलिखित प्रकार के अनुरूप ही है । स्फुटतिथ्यन्ताल्लम्बनमसकृत् स्थित्यर्धहीनयुक्ताद्वा । तत्स्फुटविक्षेपकृतस्थित्यधनयुततिथ्यन्तात् । तत्स्पष्टतिथिछेदान्तरे स्फुटे दिनदले विहीनयुतात् । स्वविमर्दाधनासकृदेवं स्पष्टे विमदधे ॥ सिद्धान्तशिरोमणि में भी भास्कराचार्य ने अधोलिखित शब्दों में तिथ्यन्ताद् गणितागतात् स्थितिदलेनोनाधिकाल्लम्बन तत्कालोत्थनतीषु संस्कृतिभवस्थित्यर्धहीनाधिके । दशन्तेि गणितागते धनमृष्णं वा तद्विधायासकृज्ज्ञेयौ प्रग्रहमोक्षसंज्ञसमयावेवं क्रमात् प्रस्फुटौ ॥ ब्रह्मगुप्तोक्त प्रकार का ही वर्णन किया है। इसी प्रकार सिद्धान्तशेखरे के सूर्यग्रहणा ध्याय के उपसहार म स्फुटं भवति पञ्चजीवया लम्बनं न हि यतस्ततः कृतम् । युक्तियुक्तमिति जिष्णुसूनुना तन्मयाऽपि कथितं परिस्फुटम् ।। कथित आशय ब्रह्मगुप्त की अधोलिखित उक्ति के सट्टश ही है दृग्गणितैक्यं न भवति यस्मात् पञ्चज्यया रविग्रहणे । तस्माद्यथा तदैक्य तथा प्रवक्ष्यामि तिथ्यन्ते । मध्यगत्यध्याय से ग्रन्थसमाप्ति पर्यन्त सादृश्य की यही स्थिति है । यह बात दोनों ग्रन्थों (ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त और सिद्धान्तशेखर) के अवलोकन से स्पष्ट हो जाती है। केवल श्रीपति ने ही अपने पूर्ववर्ती आचार्यो के ग्रन्थों से उनके कथित विषयों को श्लोकान्तरों द्वारा अपने ग्रन्थ में अपनी उक्ति के रूप में लिखा है, सो नहीं है अपितु उनके पूर्ववर्ती प्राचार्यो की भी यही रीति रही है । श्रीपति के परवर्ती भास्कराचार्य आदि विद्वानों ने भी उसी रीति को अपनाया है । उदाहरणार्थ भास्कराचार्य द्वारा-गणिताध्याय के मध्यमाधिकार में सिद्धान्त लक्षण-वेद के अंग ज्योति:शास्त्र का निरूपण-वेदांगों में ज्योतिःशास्त्र की प्रधानता-वेद वेदांग पढ़ने का द्विजों (ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य) का ही अधिकार-शूद्रादिकों का नहीं-भचक्रचलन-कालप्रवृत्ति-कालमानों की परिभाषाए -ग्रहों का भगणपाठ-युगों तथा मन्वादि के नाम-तथा ब्रह्मा के गत वर्षादि के प्रयोजनाभाव इत्यादि मंध्यमाधिकारोक्त सब विषयों का निरूपण श्रीपति कृत साधनाध्यायोक्त श्लोकों का श्लोकांतर मात्र है। ज्यौतिष शास्त्र के पाठकों को दोनों ग्रन्थों का अवलोकन करना
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