पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/५४४

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ग्रहयुत्यधिकारः ५२७ (विपरीत शीघ्रफल संस्कृत पात से) सहित स्फुट ग्रह मन्द स्पष्ट ग्रह होते हैं । बुध और शुक के जो पात भगण पठिते हैं उनमें दोनों के क्षेत्र केन्द्र भगणों को जोड़ने से वास्तव पात भगण होते हैं। वहाँ लाघव के लिये स्वल्य ही पठित है, यह प्राचीनों की उक्ति है । सिद्धान्त शिरोमणि में "ये चात्र पातभगणाः पठिन ज्ञभूत्रोस्ते शीघ्र केन्द्र भगणैः" इत्यादि सं. उपपत्ति में लिखित श्लोकों से भास्कराचार्य ने अपना मत प्रदर्शित किया हैं । खुष या शुक्र के पात=पा, इसमें मध्यम शीघ्र केन्द्र को जोड़ने से वास्तव पात होता है, पा + मशीके = वास्तव पात उच्च में से मध्यमग्रह को घटाने पर मध्यम शीघ्र केन्द्र होता है, परन्तु मध्यमग्र= विपरीत मन्द फल संस्कृत मन्द स्पष्टग्र । यहाँ यदि मन्द फल को धन माना जाय तब मध्यग्रह =मुम्दस्पग्र-मन्दफ, इसलिए मध्यशीके = शीउ— मपग्र + मन्दफ इसलिये बघ और शुक्र के वास्तत्र पात = – पा + मशके = - पा +शीड-मन्दस्पग्र+मन्दफ, । अतः सपातमन्दस्पष्टग्रह =शरसाघनाथं सुजश= पा + मंदस्पग्र=पा +शीउ -मंस्पw + मन्दफ + मंस्पग्र=--पा +औ + मन्दफ== शीड --(पा-मन्दफ) = विक्षेपकेन्द्र, इससे वृघ और शुक्र का विक्षेपकेन्द्र नयन उपपन्न होता है । अतः अपने वासना भाष्य में “किंच मन्द स्फुटौनं शीघ्रोच्चं प्रतिमण्डले केन्द्रम्” यहां से “पातेऽव्यस्तं- देयम्” यहां तक संस्कृतोपपत्ति में लिखित भाष्य से’ भास्कराचार्य ने प्राचायत के सदृश ही कहा है, सूर्य सिद्धान्तकार के मत में "पाते व्यस्तंदेयम्” यह सिद होता है क्योंकि उनके मत में पात को चल (द्वादशराशि) में घटा देने से पात है इति ॥ ८ ॥ अथ गणितागतादेव पातान्मध्यमसंज्ञकाच्छरसाधनोपायमाह । मन्दफल स्फुटशशिनो विक्षपो भौमजीवरविजानाम् मन्दफलांब्यस्तस्फुटशोन्नब्बुधशुक्रयो रथवा ।। € } सु. भा–अथवा मन्दफल स्फुट शशिनो मन्दस्पष्टचन्द्रस्य तथा भौमबीबर मन्दस्पष्टकुजगुरुशनीनां ‘गतािगतात् ‘पातदेव विक्षपः साध्यः । बुधशुक्रयोश्च मन्दफलाव्यस्तस्फुटशोत्राद्यथागतमन्दफलसंस्कृतशीघ्रोच्चा- गणितागतपाताच्च शरः साध्यः । इति सर्वपूर्वं प्रदशतभास्करवचनतः स्फुटम् ॥ ६ ॥ वि. भा.-अथवा मन्दफलस्फुटशशिनः (मन्दस्पष्टचन्द्रस्य) तथा भौमजीवरविजानां (मृन्दस्वष्टभौमगुशनीमेनां). गणितागतात्पातादेव विक्ष प: (शरः) साध्यः । बुधशुक्रयोर्मन्दफलाव्यस्तस्फुटं फलव्यस्तस्फुटैशमदथद्यथातत्फल- संस्कृतशीघ्रोच्चा-गणितागतपाताच्य शरः साध्य इति ॥ ९ ॥