पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/४२३

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४०६ ब्रह्मस्फुटसिद्धान्ते शं.पलज्या. पृदृज्या -ततः पृदृज्या त्रि'=दृघ्या. लंकोज्या. त्रि+शं पलंज्या पृदृज्या दृष्य पृदृज्या-त्रि-शु. पलंज्या। पृदृज्या=पृदृज्या (त्रि-शै.पतंज्या)=दृज्याने त्रि लंकोज्या. . : पृदृज्यालकोज्या त्रित्रिपलंज्याएतत्स्वरूपावलोकनेन सिढं यद्यदा दृज्या पृदृज्या शङ्कुदृग्लम्बनकोटिज्ययोः परमत्वं भवेत्तदैवा स्यापि परमत्वं भवितुमर्हति, पर शकीदृ ग्लम्बनकोटिज्यायाश्च परमत्वं वित्रिभस्थान एव भवत्यतो वित्रिभ एवा पवृज्य ऽस्य परमत्त्रन्नतेरपि परमत्वं सिद्धमिति, एतावत म. म. पण्डित श्रीसुखाकरोक्तसूत्रमवतरति "कुगर्भनम्रांशगुणेन भक्तः स्वपृष्ठनम्नांशगुणः फलं चेत् । महत्तमं तत्र नतिः पराभवेद् दृक्क्षपमानं बुध नो चलं चेत्” इति । पृदृज्या लंकोज्यानि अथ पूर्वसिद्धस्वरूपः =-त्रि-शरवौ शंत्रि, इज्या . पलज्याखस्वस्तिकगते = पृदृज्या त्रि.त्रि दृग्लम्बनकोज्या=त्रि, अतः खस्वस्तिके = चुंज्या fत्र--fत्र.पलज्या ॐ७५ परं खस्वस्तिकगते रवौ त्रि (त्रि-पलज्य) परमलम्बनकोद्युक्रमज्या इवा- -परं परमलं- पृदृज्या_७ या .. ४६५° ६° दृज्या ०परमलको उज्या१ पृदृज्या ० कोउज्यात्रि परमलंकोउज्या > १वा => १ इति गणित वैचित्र्यं बुधैविभावनीयमिति ॥२-३॥

अब लम्बन और नति के भावाभावस्थान को कहते हैं हि- भा.-तिथ्यन्त (गणितागत अमान्त कास) में त्रिप्रवन में कथित विधि से लग्न खाधन करना उसमें तीन राशि घटाने से वित्रिभलग्न होता है, वित्रिभलग्न के तुल्य रवि के रहने से सम्बन नहीं होता है अर्थात् सम्बनभाव होता है, वित्रिभ से रवि के अधिक और अल्प रहने से सम्बन होता है, तथा जब वित्रिभ की उत्तर कोन्तिज्या स्वदेशीय अत्रज्या के बराबर होती है तब नति का अभाव होता है, इससे अन्यथा मति होती है, अम्बन और गति के खम्भव रहने पर देवीय राश्युदयभानों से "कनस्य भोग्योऽधिकसु कुछ अध्योदयाः” बह त्रिशदलोहविषि फार के विनिम की पतघटी साधन करना'