३६२ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते त्रिज्यी आयनवसनज्या (वास्तव आयनवलनच्या} पहले लाई हुई अकोज्य त्रिज्या बैंकण्यापेक्षा है, यहां आचार्य ने त्रिज्या और ड्-ज्या को बराबर स्वीकार कर त्रिज्या परि णमन को नहीं कर के सत्रिम क्रान्तिज्या तुल्य ही आयनवलनज्या स्वीकार किया है। भास् कराचार्य से प्राचीनाचार्यों ने भी यही किया है। लल्लाचार्य ने शिष्यधीवृद्धिद में ‘भुज ज्या और उसकी उत्क्रमज्या के एक ही स्थान में अभावत्व और परमत्व से बहुत विषयों के साघन उस्म ज्या ही से करते हुए बलनानयन भी उत्क्रमज्या ही से किया है। लल्लक्तसाधन को युक्तियुक्त समझ कर श्रीपति भी उन्हीं का अनुमरण करते हैं । जे से लल्लाचार्य कहते हैं "ग्राह्यात् सरादित्रितयाद् भुजया" इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित पद्य से श्रीपति भी “त्रिभवन सहितश्च ग्राह्यतो व्यस्तजीवा इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित पद्य से लल्लगत के अनु सार ही कहते हैं। इन आचार्यों ने (लल्ल और श्रीपति) आयनवलन में शर संस्कार भी किया है। जो युति शून्यत्व के कारण ठीक नहीं है। आचार्योबत आयन वलनज्या क्रान्तिज्या ही है। उसका चापांश सत्रिभग्रह की दिशा उत्तर और दक्षिण आयनवलनांश होता है, भास्कराचार्य ने सिद्धान्तशिरोमणि में "युतायनांशोडुपकोटिशिञ्जिनी” इत्यादि से लायनवसन का साधन ठीक किया है इति ॥१७ इदानीं स्पष्टवलनमाह एकान्यदिशोर्यु तिवियुतेज्य प्रग्रहणमध्यमोक्ष षु । एवं निमीलनोन्मीलनेष्टकालेष्वतोऽन्यदिशाम् ॥१८॥ सु-भा–एकदिशोरक्षजायनवलन चापयोर्तेरन्यदिशोवियुतेज्य स्पर्शमध्य मोक्षकाले वलनं स्फुटं भवति । एवं निमीलनोन्मीलनेष्टकालेषु स्फुटं वलनं साध्यम् । अतोऽस्माद्वलनादन्यदिशामानयनं कार्यम् । अर्थादेकस्माद्वत्ताद्यावद्भिरंशैरन्यवृत्तस्य पूर्वा चलति तावद्भिरंशैरन्ध्रा दिशश्च चलन्ति इति तासामानयनं सुगमम् । अथोपपत्तिः । सयोः पलोत्थायनयोः समाशय’ रित्यादिभास्करविधिना स्फुटा। तत्र भास्करेण मानैक्यार्घवृत्त स्फुट' परिणम्यते । आचार्येण च वलन त्रिज्यावृत्त यथागतं तथैव स्थापितमिति । इद स्फुट वलनं परिलेखीमुपयुक्तं । रिस्सेसबिाँध चायं वक्ष्यत्याचार्यः१८॥ वि. झा–एकदिशोरायनवलनचापयोर्तेरन्यदिशोवियुतेर्यं भवति शक्या स्पर्धा मध्यमोक्षेषु स्फुटवलनज्या भवति एवं निमीलनोन्मील नैष्टकालेषु अ' बननं साध्यः। श्रोतस्माढलनादन्यदभानधनं झार्यमद्यादेकस्म वृताद्य
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