पृष्ठम्:बीजगणितम्.pdf/१७९

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बीजगणिवे, काये कि प्र आकब. द्विकव. १७२ पहिला शेष= द्विज्ये. प्रव आ. द्विक्षे १ । + . इसी प्रकार द्विज्येव. आकव. प्र १ त्रिज्ये. आक. आये द्विक. प्र २ झज्येव. द्विकव. प्र १ ' इस प्रति से गुणे हुए कनिष्ठ के वर्ग में 'आज्येव. द्विकव. प्र १ द्विकव आकव. व १ दिक्षे, आ. १' इस द्वितीय पक्तिस्थ ज्येष्ठवर्ग को दूसरा शेष द्विज्ये. आक. आज्ये. द्विक. प्र २ आक्षे. द्विक्षे रं । ये पहिले और दूसरे शेष समान हैं । अब इस शेष को यदि ज्येष्ठवर्ग में जोड़ देते हैं तो प्रकृतिगुणित क ल्पित कनिष्टवर्ग होता है। और यह भी ज्येष्ठवर्ग 'द्विज्येव ज्येव १' शोधित ज्येष्ठ वर्ग के समान है इसलिये इसमें जोड़ देने से प्रकृतिगुणित "कल्पित कनिष्ठ वर्ग हुआ द्विज्येव. आज्येव १ द्विज्ये प्रव १ . दि १ आक. आाज्ये द्विक. प्र २ आकव. द्विकव .. . प्र. द्विज्येव १ घटा देने से शेषरहा आकव विकव. प्रव. १ इस में 'आक्षे. दिक्षे १' इस क्षेपघात को जोड़ने से ज्येष्ठवर्ग हुआ द्विज्येव आञ्चेव १ द्विज्ये. किंव. प्रव १ ज्ये. कि. प्र २ इसका मूल ज्येष्ठ हुआ द्विज्ये. आज्ये १ याक. द्विक. प्र १ इससे ' लध्वोराहतिश्च प्रकृत्या क्षुणा ज्येष्ठाभ्यासयुज्येष्ठमूल म् इत्यादि सूत्र उपपन्नहुआ। इसीभांति वज्राभ्यास के अन्तर को कनिष्ठ कल्पना करके अन्तरभावना की उपपत्ति जानो । यह नवाङ्ङ्कुरकारोक्त , उपपत्ति का दिग्दर्शन है। अथवा विश्वरूपोक्त उपपत्ति । आक १ आज्ये १ आक्षे १ ( परस्पर ज्येष्ठ को इष्ट कल्पना करके द्विक १ द्विज्ये १ दि १ कथित रीति के अनुसार कनिष्ठ ज्येष्ट और क्षेप सिद्ध हुए,