पृष्ठम्:नारदसंहिता.pdf/१४०

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भाषाटीकास -अ० २४. ( १ ३३ ) अतीव बलवांश्चैव वेदवेदांगपारगः ॥ परमोच्चमते जीवे शाखेशेवाथवा सिते ॥ १८ ॥ व्रती शिशुर्धनाढ्यश्च वेदशास्त्रविशारदः । मित्रराशिगते जीवे तदंशे वा स्वराशिगे ॥ १९॥ अत्यंत बलवान् वेदवेदांगके पारको जाननेवाला पुरुष हो बृहस्पति, शुक्र, शाखेश इनमेसे कोई परम उच्च अंशोंमेिं प्राप्त होवे तो व्रती बालक धनाढ्य तथा वेदपाठी होवे बृहस्पति मित्रराशिपर हो अथवा तिसराशिके नवांशकमें हो अथवा अपनी राशिपर होय ! ३८ ॥ ३९ ॥ शुक्रे वाचार्यसंयुक्ते तदा तत्र व्रती शिशुः ॥ स्वस्वमित्रगृहस्थे वा तस्योच्चस्थे तदंशके ।। २० शुक्र, बृहस्पति एक राशिपर स्थित होवें तब उपनयन कराना शुभ है बृहस्पति शुक्र शाखेश ये ग्रह अपने २ मित्रोंके धर्में स्थित हों अथवा मित्रग्रहकी उच्चराशिपर स्थित होवें अथवा उच्चरा शिके नवांशकमें स्थित होवें तव उपनयन करवावे तो विद्या धन धान्यसे संयुक्त होवे ॥ २० ॥ गुरौ भृगौ वा शाखेशे विद्याधनसमन्वितः । शाखाधिपतिवारश्च शाखाधिपबलं शिशोः ॥ शाखाधिपतिलग्नं च दुर्लभं त्रितयं व्रते ।। २१ ॥ शाखाधिपति ग्रहका वार, बालकको शाखाधिपतिका बल और शाखाधिपतिके राशिका लग्न ये तीन वस्तु उपनयन कर्ममें दुर्लभ हैं अर्थात् बड़ी उत्तम हैं ।। २१ ।।