पृष्ठम्:नारदसंहिता.pdf/१०९

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् परिष्कृतम् अस्ति

(१०२) नारदसंहिता। वामवेधविधानेनाप्यशुभोपि ग्रहो शुभः । अतस्तान्विविधान्वेधान्विचार्याथ वदेत्फलम् ॥ ८ ॥ और वामवेधके विधानसे अशुभ ग्रह भी शुभदायक होजाता है। अर्थात् जैसे १२ सूर्य अशुभ है तहां जन्मराशिसे छठे स्थानमें स्थित हुए ग्रहोंकरके वेधको प्राप्त होजाय तो शुभहै इसी प्रकार विपरीततासे वेध होनेको वाम वेध कहते हैं इसलिये तिन अनेक प्रकारके वेधोंको विचारकर फल कहना चाहिये ॥ ८ ॥ अज्ञात्वा विविधान्वेधान्यो ग्रहज्ञो फलं वदेत् । स मृषावचनाभाषी हास्यं याति नरः सदा ॥ ९॥ जो ज्योतिषी अनेकप्रकारके वेधोंको जाने बिना फल कहता है वह झठा वचन कहनेवाला है हास्यको प्राप्त होता है । ॥ ९ ॥ सौम्येक्षितो नेष्टफलः शुभदो पापवीक्षितः।

निष्फलौ तौ ग्रहौ स्वेन शत्रुणा च विलोकितः॥ १०॥

अशुभ दायक ग्रह भी शुभग्रहोंकरके देखागया हो तो शुभफल करताहै और शुभदायक ग्रह पापग्रहोंसे दृष्टहो तथा शत्रुग्रहसे देखागया हो तो ये दोनोंही यह निष्फल कहेहैं ।। १० ॥ नीचराशिगतः स्वस्य शत्रुक्षेत्रगतोपि वा । शुभाशुभफलं नैवं दद्यादस्तमितोपि वा ।। ११ ।। नीचंराशिपर स्थित हुआ अथवा अपने शत्रुके घरमें प्राप्त हुआ तथा अस्तहुआ ग्रह कुछ भी शुभअशुभ फल नहीं देता है ।।११॥ ग्रहेषु विषमस्थेषु शांतिं यत्नात्समाचरेत् ॥ हानिर्वृद्धिर्ग्रहाधीना तस्मान्पूज्यतमा ग्रहाः ॥ १२ ॥