पृष्ठम्:धम्मपद (पाली-संस्कृतम्-हिन्दी).djvu/८९

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७८ धम्मपदं [ १३५ १६७-घन्मं चरे सुचरित न तं दुश्चरितं चरे । धम्मचारी मुखं सेति अभिमं लोके परम्हि च ॥३॥ (धर्म चरेत् शुचरितं न तं दुश्वरितं चरेत् । धर्मचारी सुखं शेतेऽस्लिम् लोके परत्र चे ॥३) अनुवाद--उत्साही बने, आरुसी न यने, सुचरित धर्मका आचरण रे, धर्मचारी ( पुरुष ) इख कोक और परछमें सुख पूर्वेक सोता है। सुचरित धर्मका आचरण करे, छुवरित फर्म (=धर्मे ) का सेवन न करे । धर्मचारी (पुरुप )० जैतवन पाँच सौ शानी ( मिश्च ) १७०–यथा बुब्बूलकं पस्से यया पस्से मरीचिकं । एवं लोकं अवेक्खन्तं मच्चुराला न पतति ॥५॥ ( यथा वुलुदकं पश्येद् यथापश्येमरीचिकाम्। एवं लोकमवेक्षमाणं मृच्युरालो न पश्यति ॥ ) अनुवाद-जैसे बुडीको देखता है, जैसे ( मह)मरीचिकाको देखता है, छकको घेरे ही (जो सुरूप) देता है, उसकी ओर यमराज ( आंख उठाकर ) नहीं देन्न सकता। राजगृह (वेणुवन ) १४१-एथय पस्सयिमं लोकं चित्त' रानपयूपर्ण । थत्य वाला विसीदन्ति, नथि सद्म विज्ञानतं ॥१॥ (एनत पक्यतेमं लोकं चित्रं राजपथोपाम् । यश बाळ विषीदन्ति नास्ति संगो विजानताम् ।) अभय राजकुमार