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पृष्ठम्:धम्मपद (पाली-संस्कृतम्-हिन्दी).djvu/२७

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/३–चित्तवगो चाखिय पर्वत भेभिय (घेर) ३३-फन्दनं चपलं चित्तं दूरक्खं दुनिवारयं । उनु करोति मेधावी उसुकारीच तेजी ॥१॥ (स्पंदने चपळे चित्तं दृश्यं दुर्निवार्यम्। की करोति मेधावी इषुकार इव तेजसम् ॥ १॥ अनुवाद-(इस) बच, चषक, , दुनिवार्यं चित्तको मेघावी (पुरुप, उसी प्रकार ) सीधा करता है, जैसे वाण थनानै वाला वाणको। १8वारिजव थते वित्तो शोकमोकत उम्मतो । परिन्दतिंढं चित्त मारवैय्यं पहातवे ॥२॥ (वारि' इव स्थले क्षिप्त' उदकौकत उद्भूतम् । परिस्पन्दत इवं विलं भारधेयं अदातुम् ॥२॥ अनुवाद -जैसे बाशयले निकालकर स्थलपर फेंक दी गई अडी (=वारिज ) सड़फड़ाती है, ( वैसे ही ) सार (e=ाग, १६ ]