२६७७] प्रणवरण [ १७७ भय नहीं खाता, जो संग और आस्रजिसे विरत है, उसे मैं श्राह्मण कहता हूँ । चतवन ( व आखण ) ३६८-छेत्वा नन्दिं वरत्व सन्दानं सहज़क्कमं । उक्खित्तपतिघं बुद्धं तमहं बूमि ब्राह्मणं ॥ १३॥ (छित्वा नन्दिं घर व सन्नं लहसुमम् । अत्क्षिप्तपरिर्धं युद्धं तमहं ब्रवीमि ब्राह्मणम् ॥१६) अनुवाद---नन्दी (=कघ ), चरखा (=तृष्णा रूपी रस्सी), सन्दान (=६३ प्रकारके मतवावरूपी मगहै ), और इज़क्रम (=ट्पर बाँधनेके जावे)को काट एर्यं परित्र (=ए )को ॐ लो डब (=शनी ) हुआ, उसे मैं ग्रहण कहता हैं। राजगृह ( वेणुवन ) । ( अफस ) भारद्वाज ३६६-अच्छोकं वधबन्धञ्च अटुट्यो यो तितिष्ठति । खन्तिबलं बलानीकं तमहं बूमि ब्राह्मणं ॥१७ (अकोन बधयंधं च अङो यस्तितिक्षति । क्षान्तिबछ चलानकं तमहं ब्रवीमि ब्रह णम् ।१ ) अनुवाद—जो बिना दूषित (चित्र ) किये गाळी, थध और थंधनको सहन करता है, क्षसा बलुई जिसके बछ(=सैन)को सेनापति है, उसे मै ब्राह्मण कहता हैं। १३
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