पृष्ठम्:अथर्ववेदभाष्यम् भागः १.pdf/२७

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सू० १ मयमं काण्डम् - { YA ) द अच्छे प्रकारफेस, (६च) जैसे (वभे) क्षेनों (आना) धनुषकोटियें (ज्यया) जय के साधन, चिज्ञाके साथ तिन जाती हैं] (चाचप्पति:) वाणी का स्वामी DDDL D DBDBuSDl LDu D DuuDD SkDBkD DBD DB (मयि) भुझ में (एच) ही (अस्तु) रहे ॥३॥ भावार्य-जैसे संग्राम में शर वीर धनुए की दोनों कोटियों की डोरी में चढ़ा कर वाण से रक्षा करता है उसी प्रकार आदिगुरु परमेश्वर अपने कृपायुकदोनौं छार्थी फो [अर्थात् अशान की हानि और विहान की चुद्धि को] इस मुझ ग्रह्मचारी पर फैला कर रक्षा करे और नियम पालन में दृढ़ करके परमछधदायक ब्रह्मविद्या का दम्न करे और विशान का पूरा स्मरण मुझमें रहे ॥३॥ भगवान्थास्क के अनुसार-निष्किe । १७ (ज्य) शब्द का अर्थ जीतने चाली थद्वा आय घटाने वाली अथवा वार्षों को छोड़ने वाली यस्त है। उर्षहूती वाचस्पतिरुपुस्मान् बुाचस्पर्तिहृयताम् । सं श्रुतेन' गमेमहुि भा श्रुतेनुं विराँधिषि ॥ ४ ॥ उर्ध्म-हृतः । द्वाचः पर्त्तिः; उर्पं यस्मृष्ट्वाचः पतिँ ह्यु युद्ध्रास् सश् बुतेन। गुझे महैि। मा। श्रुतेर्न। fè t f n : A भाषार्य-(वाचस्पति) धाणीफा स्वामी, परमेश्वर (उपहुतः) समीप घुमाया गया है. (वाचस्पति) वाणी का स्वामी (अस्मान्) इम को उपहुय


س--س---س--------س--س----سس---------------س- व्यभितः सर्वश्वः । वितनु ! तष्ठ चित्तारे-लॊद् अकर्मकः । वित्तमुद्दि, धितन्यस्ल विस्तुतोमय। उभे । ईद्देदू द्विवचन प्रयुहम। पo १ । १} ११ ! इतेि प्रशू’ टाम।छये। आर्नो । आछ+ऋमती-किन्भकारोपसर्जनम्। पूर्वचदमग्नुझम आर्नो, धनुष्कोटी, श्रटन्यौ धनु प्रान्ते । आर्ती अर्तन्यौ बारण्यौ यारियएयौ धा मिश्० & ।। ३& ॥ ळथथा ॥ ज्ञा जयतेर्वा ञ्जिनातेर्धां प्रज्ञाचयतीनिति वा। निरु० 81 १७1थव्न्यादयश्व। उ० ४ ॥ ११२ । इति जि जये,वा, ज्या वयोहानी णिच-वा, ढ रहन्ति गती, खिच्-या। निपातनाए साधु । या । अन्मेस्वपि इश्यते। पा० ३ । ६ ।। १०१ ! इति ज्यु गत्याम यद्धा, ज्था चयोहानी,खिच्दै । टाप् । चतुर्गुणेन्, मौर्व्या । वाच्च+पत्तिः भ४१ || वारण्याः स्वामी' नि+ স্বাক্ষরান্ত । निष्थमन्यः, नियमे रक्षतु । अन्यत् सुगमं व्याख्यातं च । g一5°+罚 1 उप +हअआद्वाने-क । समीप छतावाहन, छीं