प्रथमं काण्डम् .. (८) २-मनुष्य अपनी अनन्त चित्त वृत्तियों को कुमार्ग से रोक कर सुमार्ग में चलावें ॥२॥ परि वः सितावती धनू हुत्यक्रमीत् । तिष्ठने लयत्ता सु कम् ॥ ४ ॥ परि। वः । विकता-वती। धनूः । बृहुती । अक्रमीत् । तिष्ठत । दुलयत । सु । कुम् । __ भाषार्थ--(सिकतायती) सेचन खभाव [कोमल रखने वाली] वालू आदि से भरी हुई (बृहती) बड़ी धनूः पट्टी ने (वः) तुम [नाड़ियों को (परि अक्रमीत्) लपेट लिया है । (तिष्ठत) ठहर जाओ, सु) अच्छे प्रकार (कम् ) सुख से (इल- यन) चलो ॥ ४ ॥ भावार्य, १-(धनू :) अर्थात् धनु चार हाथ परिमाण को कहते हैं। इसी प्रकार की पट्टी से जो सूक्ष्म चूर्ण चालू से वा वालू के समान राल आदि औषध से युक्त होवे चिकित्सक घाव को बांध देवे कि रक्त वहने से ठहर जाये और घाव पुरकर सब नाड़ियां यथा नियम चलने लगे, मन प्रसन्न और शरीर पुष्ट दो। मध्यमाः । म०२। मध्यभवाः । साकम् । युगपत् । अन्ताः । अम गती-तन् । अन्तिमाः,अवशिष्टाः सर्वा नाडयः । अरंसत । रमु क्रीडायाम-लुलर यथापूर्व रमन्ते स्म, चेष्टां कृतवत्यः॥ ४-वः । युष्मान , नाड़ीः । सिकतावती। पृपिरञ्जिभ्यां कित् । उ०३१ १११ । इनि सिक सेचने-अतच टाप् । सेचनवती, कोमलखभावयुक्ता। थालुयुक्ता । धनः । कृपिचमितनिधनिसर्जिखर्जिभ्य नियाम् । उ०११० इति धन धान्योत्पादने,रवेच-ऊ। धनुः चतुर्हस्तपरिमाणम् । तत्परिमाणवस्त्र- पद्दी । वृहती। वर्तमाने पृपबृहन्महज्जगच्छतृवच्च । उ० २।८४ । इति घृह वृद्धौ-अति । डीप् । महती। अक्रमीत् । क्रमु पादविक्षेपे-लुङ । क्रा- . __12 - -