सम्ख्या सरसभङ्गला-मेलागः (भायामालवगैरलमेलजन्यः) (आ) स ग म नि ध स (अ) स ध प म ग रेि स सरसमप्टः-देशीतालः दद्वयं तगणचैव नगणः सरसे मतः। ० ० ऽ ऽ सरसवती-मेलरागः (वाचस्पतिमेलजन्थ ( आ) स रैि म प ध स (अव) स नेि ४ म ग रेि स सरसवाहिनी-मेलरागः (कीरवाणीमेलजन्य (अ) स रिं ग र म प ध नि स . (व) स ध प म ग रि स सरसाङ्गी-मेलकर्ता (रागः) स ० रि ० ग म ० प ध ० ० नि स सरसाननं-मेलरागः (सरसाङ्गीमेलजन्यः) (आ) स रेि ग म ध नि स . सरसी-देशीतालः सरसी सरसा एव । सरसीरुट्-मेलागः (भवप्रियामेलजन्यः) (आ) (अव) स रि ग म ध नि स । स नेि ध प म ग रेि स सरस्वती-प्राकृतेमात्रावृतम् चतुम एक, द्वौ पञ्चमात्रिकौ छः गतः। मेलरागः ( इरिकाम्भोजीमेलजन्यः) ( आ ) स रि, ग म प नि ध नि स (अव) स नि प ध म ग रेि ग स प्रणः ऽ ऽ ।। ० (आ) सहस्रदुष्ट चोत्कृष्टोऽयं ग्रन्थ ० सरस्वतीहृदयालङ्कार स रेि पा म ध धुवाध्याये सूचित स् पाद्यैकस्य पुरतः सरणात्सरश्च सप्तः विशुद्धवाद्यश्कृति: सभतालकृतत्तथा ! मुरजान्पणक्षे वापि पणवान् दर्दरोऽपेि ।। यथानुयायादातोवं सरूपानुगतस्तु स एष अभिनवगुप्तपठितानुसृतरैव नामान्दरं । सर्गबन्धः-श्रव्थकाव्यम् यस्मिन्निनिहासार्थानपेशाळान्पेशलान्कविः कुश्ते । स हयग्रीवधादि प्रवन्ध इव सर्गन्धः स्यात् । निराः | मेण्ठराजविरचितं हयग्रीवधाख्यं काव्यम् । सर्पगान्धारी-मेलरागः (नभैरवीमेलजन्य:) ( आ) म रेि म प ध स ( अव ) स नि ध म ग दि स्
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