सामग्री पर जाएँ

ताजिकनीलकण्ठी (महीधरकृतभाषाटीकासहिता)

विकिस्रोतः तः
ताजिकनीलकण्ठी (महीधरकृतभाषाटीकासहिता)
[[लेखकः :|]]

॥ श्रीः ॥
ताजिकनीलकण्ठी
ज्योतिर्विद्वारिष्ट श्रीनीलकण्ठ विरचित
-
पण्डितमहीवरकृतभाषाढी कासमलङ्कृत ।
जिसको
लोकोपकारार्थ
खेमराज श्रीकृष्णदासनेष्टिने
मुंबई
निज “श्रीवेङ्कटेश्वर” स्टीम्-मुद्रणालय में
मुद्रितकर प्रकाशित की ।
संवत् १९६४, शके १८२९.
इस ग्रंथका रजिस्टरी हक " श्रीवेङ्कटेश्वर " यंत्रालयाधीशने
स्वाधीन रक्खा है.

भूमिका ।

अहो ! ईश्वरने ज्योतिषशास्त्र संसार में कैसा अद्वितीय रत्न दिया है जिसके प्रभावसे मनुष्य पुराकृत और अर्वाक्तन जो अपने कृतकर्म और उनका परिणाम है संपूर्ण जान सकते हैं. इस अपार संसार में समस्त वस्तुमात्र उद्यमी मनुष्यके हस्तंगत हैं. ऐसा कोई पदार्थ नहीं कि, जिससे बुद्धिबलवाला मनुष्य न जान सके वा न करंसके. केवल जन्म और मरण मनुष्यके अगोचर हैं इसीसे ईश्वरकी ईश्वरता विदित होती है. परंत ज्योतिषशास्त्र ऐसा अनमोलमणि है

किं, जिसकी सलाई नेत्रों में देनेसे परोक्षीय जन्ममरणभी प्रत्यक्ष दिखाई

देते हैं. ब्रह्माजीने जब वेदके चार भाग कर दिये तब उसके अंग "शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द,ज्योतिष" ये छः-शास्त्र बनायें इनमें से प्रत्यक्ष तात्पर्य और चमत्कृत होने से ज्योतिष शिरोमणि गिना जाता है. अब ऐसा समय आया कि, वह ऐसा अद्वितीय रत्न शिरोमणि कैसा गिरता पड़ता दूर भागता जाता है. कोई इसे पूछताभी नहीं कि, आप कहांके और कौन हैं. कदाचित् किसीने पहचान लिया तो भर्त्सना करता है कि हां ! + तू वही है जिसने हमारे पितृपितामहादिकों को अपने चमत्काररूपी प्रपंच में लुभाकर समस्त धन तन दान धर्म्मादि व्यर्थ कायोंमें व्ययकरायके उन्हें अधोगामी और हमारे तिरस्कार योग्य करदिया, तेरे प्रपंचमें वे नहीं • फँसते तो उनका उपार्जित द्रव्य सब हमहींको अनायास मिलनाथा. हमें अनेक प्रकार के परिश्रम आजीवनार्थ क्यों करने पडते. अब हम तो तेरा आदर क्या करेंगे. बाप दादे अज्ञान हुये तो हुये अब हम तो कभी न भूलेंगे, जाइये अपनी इज्जत बचाइये "कुछआगेबढ़कर" एक और महाशय मिले. देख- कर बोल उठे कि, अजी साहब ! अलग ही अलग चले जाइये अपना परछावां हमारे ऊपर न पड़ने दीजिये तुम अमंगली हो: हमने सुना है कि, हमारे माताके विवाहपूर्व तुम्हारे अंजन नेत्रवाले किसीने कहाया किं. इस कन्याके वैधव्ययो- ग है अकस्मात विवाहोत्तर अल्पकाल में बैसाही होगया. उपरांत उसी वैधव्य 'योगवालीके गर्भसे हम ऐसे हृष्ट पुष्ट और शास्त्रज्ञ पैदा हैं कि, को कभी विध(४) ताजिकनीलकण्ठी - भा० टी० । वा नहीं मानते संसारमें सभी पुरुष ईश्वरके अंश हैं स्त्रियोंको पुरुषों की कमी नहीं है. इन अपला बिचारियोंका जीवित वैधव्यरूपमें क्यों व्यर्थ करावें. हमारी माताको केवल तेरे दुर्वचनसे कुछ दिनों वैधव्य मानना पडा फिर तो ईश्वर कृपासे ऐसा सौभाग्य हवा कि, जिसके प्रतापसे हम ऐसे पंडित भंड संसारमें अवतरित हैं. अब कहिये ! हमारी याताके वैधव्ययोग है वा सौभाग्य ? तुम झूठे तुम्हारे पाठक झूठे हायरे कलियुग तुझे अपना अधिकार प्रथम क्या इसी अद्भुत रत्नपर करना था, क्या इसीके साथ तेरी मुख्य शत्रुता थी. हां ! तेरा यह प्रयोजन अग्रेसरहै कि, प्रथम शिरोमणि शास्त्रको आक्रमण करूं तो और सभी अंतर्गत होजायँगे परंतु यह अनादि शास्त्र सहसा तेरे आक्रमणमें आक्रमित इस दशा में भी नहीं होनेका कुछ दिन समय प्रभाव सार्थक करनेके लिये ज्योतिष रत्नराज पक्षसंकोच किये प्रतीक्षु हैं परिणाममें रत्नरत्नही है. इस समय में ज्योतिपकी प्रभुता न्यूनहोनेके कारण यह है कि, ज्योतिपियोंके कहे फल पूरे ठीक नहीं लगते क्योंकि कलिराजने प्रथमावेश ज्योति- पियोंसेही आरंभ उठाया. पूर्व ऋपिलोग यमनियमादि तप और मिताहारी और अप्रतिग्राही, योगाभ्यासी, सर्वशास्त्रज्ञ वेदाभ्यासी और नित्य अग्निहो- त्री थे. इससे भूत, भविष्य वर्त्तमान, समाधि, अर्थात् एकाग्र विचारसे कहतेथे. अब ज्योतिषी लोग यमनियमादिक स्थानमें दंभलोभादि और मिताहारके स्थान में अग्निसम और अप्रतिग्राही के स्थान में सर्वग्राही, योगा- भ्यासके स्थानमें द्रव्यार्जन, प्रपंच शास्त्र, वेदाभ्यासके स्थानमें वेदविक्रय, तप और जितेंद्रियताके स्थान में स्त्रीलोलुपता, अग्निहोत्रके स्थानमें तम्बाकू. एवं प्रकारके सांप्रतीय ऋषि होगये तो सर्व शास्त्रज्ञताके योग्य बुद्धि कहांसे हो ? बिना बहुज्ञता और बिना दमादिकोंके चमत्कार फल क्योंकर कहसकें. त्रा ण सर्वस्व गायत्रीके उपदेश मात्रसे दक्षिणा निमित्त जप विक्रय और यथेच्छा प्रतिग्रह ग्रहण करने लगे तो बुद्धि निर्मल और कही बात सच्ची क्यों होवे. कदाचित् किसीने कुछ परिश्रम पठनपाठनमें किया और कुछ शा ज्ञता पाईभी तो दंभ और मत्सरमें परिपूर्ण होजाते हैं. ज्योतिषमें अधिकांश गुरुलक्ष्यस्थान हैं उन युक्तियोंके दूसरेकी प्रभुताका मत्सर, , भूमिका । (५) मानकर किसीको नहीं बतलाते. पुनः आगे वियाका प्रचार कैसे बढे ? ऐसे २ आचरणोंसे यह अद्वितीयशास्त्र लोप होता २इस दशाको प्राप्त होगया. सर्वसाधारणको इस अद्भुत रत्नके उन्नतिका यत्न सर्व प्रकारसे करना योग्य है. फिर ऐसा अमूल्यमणि मिलना असंभव है. विशेषतः ज्योतिषी लोगोंको इसकी उन्नतिका उद्यम करना चाहिये कि, उनका यह आजीवन पूर्वसे और पश्चात्‌के लियेभी उपयोगी है. इसमें अतिशयश्रम पठन पाठनसे करना योग्य है जिससे लोक प्रत्ययकारक ठीक फल कहसकें. दोखये ! पहिलेके महात्मा आचायने सर्व साधारण के भूति और प्रत्ययके लिये कितना श्रम उठायके यह शाखप्रचार किया कि, जिसे अब बहुधा लोग कहते हैं कि, ज्योतिषशास्त्र कुछ वस्तु नहीं न ग्रहोंकोही शुभाशुभ देनेकी सामर्थ्य है जैसा जिसका कर्म वैसा अवश्य होगा. इस अवसर में कोई नास्तिक कहते हैं कि, यह तो ब्राह्मणोंने केवल अपनी अज्ञान और अल्पश्रमी संतानके उपकारार्थ यह प्रपंच किया है. अब इसमें वक्तव्य यह है कि पूर्व लिखित दशा जब इस प्रत्यक्ष शास्त्र की होगई तो जनश्रुतिभी ऐसी होनी आध्वर्य तो नहीं तथापि इस शास्त्रका मूल तात्पर्य उन्हें विदित नहीं है नहीं तो सहसा कभी ऐसा न कह सकते. भोक्तव्य तो कर्मफल है यह बोध नहीं कि, वह क्या है और उसका परिणाम कब और क्या होगा इसका विचारद्वारा पूर्वाचायने जन्मसमय इष्ट मानकर ऐसे हि- साब बनाये कि, जिससे वह अलक्ष्यकर्म फल हित प्रत्यक्ष होजाता है. उन हिसाबों के नाम सूर्य्यादि नवग्रह और मेषादि १२ राशि तिथ्यादि पंचांग स्थापन करदिये ग्रह आप न तो कुछ देते न कुछ अशुभ कर सकते जैसा जिसका कर्म उपार्जित होने वैसा ही फल होगा, परन्तु ग्रहरूपी हिसाबके द्वारा वह अलक्ष्य लक्ष्य होजाताहै. अब इसमें ऐसा आभास हुआ कि यह असमर्थ हैं फल कर्मानुसार भोक्तव्यही है तो ग्रहाचन दानादिभी निष्प्रयोजन है परंतु यह स्थूल विचार "शृंगग्राहिन्याय" है. प्रयोजन उसका कैसा उत्तम है कि, हमने पूर्व ऐसा कर्म किया था, कि जिसका परिणाम हमको अरिष्ट धन ना- शादि मिलना है यह कर्म और फल तो अदृश्य था परंतु सूर्य वा कोई ग्रहके दशा कष्टी होनेसे हमको आरेष्ट ज्ञात हुवा. यह कर्मफलबोधक एक हिसाब (६) ताजिकनीलकण्ठी - भा० टी० । सूर्य्य हुवा अब वह कर्म हमें पहलेही ज्ञात होता तो उसका प्रतीकार करते.. केवल ज्ञापक यहां सूर्य्य है तो हमको सूर्य्यही के द्वारा कर्मनिहारोपाय सूर्य्यकी वेदबोधित शांत्यादि करनी चाहिये यह शांति सूर्य्यकी क्या उस उपार्जित. दुष्कर्मकी है? जैसे सूर्य्यद्वारा कर्मफल ज्ञात हुवा ऐसे सूर्खही के द्वारा प्रती- कार करना योग्य है इसमें दोप्रकार शुभत्व होगा कि एक तो अति प्रयत्नोंसे जो द्रव्य उपार्जन किया है उसके अकस्मात व्यय होजानेमें कष्ट अपनेही हाथसे होगया सूर्यदशाबोधित कर्मफल मिलगया और अपने हाथके व्यय करनेसे - पश्चात्ताप न होगा. दूसरा लाभ यह है कि वेदबोधित और शास्त्रसंमत विधिसे जो कुछ शांत्यादि करी जाती हैं उनके कर्मनिहार और चितानंदता और पारि- कशुभत्व और सदचय गणनामें होगा विधिसे न करेंगे तो असद्दचय ( जिसमें फेर कभी काम नहीं आता) और इस समय में चित्त संताप करनेवाला होगा जैसे वैयको देनेमें वा दंडमें वा चोरी वा अग्नि जलादि प्रातमें व्यय होजानेसे कर्मफल तो मिलेगाही. कर्मसे कर्मनिहार होता है इसमें चित्तशुद्धि मुख्य है कर्मवासना पुनर्जन्म भी फलभोग के लिये देती है सांप्रत में साधारण की बुद्धि ' ऐसी ससंभ्रम होरही है कि, जन्म देहादि न पहिले था न फिर होगा केवल पंचतत्त्व अपने २ स्थानों में मिलजायँगे. जन्म फिर कौन लेता है. मरेमें कोई हटकर किसी प्रकार न आया पहिले जन्म भयाथा पीछे जन्म होगा यह भ्रांति. मिथ्या है प्राण नाम वायुका है वहभी वायुमें मिलजाता है जन्म लेनेको स्थूल दृष्टिसे तो कुछभी अवशेष नहीं रहता परन्तु मूलज्ञान यह है कि जिस कर्मके अभ्यासमें शरीर रहता है उसकी वासना बीज मात्र स्थित रहती है उसीके अनुसार कर्मफल भोगनेको दूसरा प्रपंच पंचतत्वकी वासना बलसे उत्पन्न होजाता है इसके बहुतसे प्रमाण हैं और बहुत कुछ वक्तव्य हैं विशेष विस्तार इस विषयका पुनः किसी औरग्रंथके अनुवाद व्याजसे लिखने की इच्छा है “ज्योतिषामयनं चक्षुर्निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते । छंदः पादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पः प्रचक्षते ॥ यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा । तद्वद्वेदांगश ाणां ज्यो- तिषं मूर्द्धनिस्थितम्”॥ प्रथम श्रुतिनेत्र ज्योतिष शास्त्रका एक स्कन्ध जन्मफल . भूमिका । (७) बोधक जातकोत्तम बृहज्जातककी भाषाटीका सर्वसाधारणमें थोडा कुछ ज्यो- तिषका मार्ग जिन्होंने देखा है और बड़े ग्रंथ संहितादिकोंमें, गति नहीं है ऐसे. बालकोंके सुगम बोध निमित्त और गुरुजनोंके पाठन में अल्प अमके निमित्त • मैंने करी. उपरान्त इच्छा हुई कि, जातकके फल स्थलकालीन और बहुश्रमी हैं अर्थात् प्रथम सर्वग्रहोंके पड्डल दृष्टि बलेष्ट कष्टबल निसर्गादि बल गणितसे दशांतर्दशा मिलती है इसमें सिद्धांत मतसे सूक्ष्म विचार किया तो बहुश्रमसे स्थूलकाल फल मिलता है जैसे माहेश्वरी दशा में शुक्रके २० वर्ष निसर्ग दशामें शनिके५० वर्ष और उच्चादिबल पूर्ण होने में चन्द्रमाके १ ५ वर्ष दशा है ऐसेही अंतर्दशाभी ५। ६ वर्ष से कम न होंगी तो जातकोतफल तो एकही है क्या समस्त अंतर्दशा ५५१६ वर्ष पर्यंत एकसाही फल होगा इसनिमित्त ब्रह्मादि अष्टादश आचार्योंके उपदेष्टा श्रीसूर्य्यने ताजिकशास्त्र बनाया जिससे वर्ष प्रवेश मासप्रवेश दिनप्रवेश पर्य्यत गिननेसे दिन २ पर्यंत फल ज्योतिषी कहसकते हैं अतएव बृहज्जातकके अनुवाद करने उपरान्त ऐसाही कुछ ताजिक ग्रंथकाभी अनुवाद करना चाहिये ताजिक ग्रंथों में मुख्य जीर्णवाजिक है उसीकी सारणी नीलकंठ दैवज्ञ विरचित नीलकंठी है. यहग्रंथ पाठमें थोडा अर्थ बहुत और संमत होनेसे इसकी भाषाटीका सर्व साधारणके बोंधन योग्य डी बोली में परमकारुणिक श्रीबदरीशमूर्ति गढवाल राज्याधीश श्री ५ महाराजा कीर्तिशाहसाहबकी आज्ञानुसार करताहूं. इस ताजिक शास्त्र में कोई धर्मशास्त्र के वचन "नावदे यावनी भाषां नगच्छेज्जैनमंदिरम् | हस्तिना पीढयमानोपि प्राणैः कंठगतैरपि ” ॥ इत्यादिसे दोषारोपण करते हैं कि, इसमें इकवाल इस्सराफ, इत्थशालादि बहुतसे फारसीके शब्दहैं इससे बा णोंको पाठयोग्य नहीं है" किंतु उनका स्थूल विचार है किं, ऐसे अन्य जातिके भाषा अवाच्य हैं तो प्रथम अमरकोश • पांडित्यमूलही दूषित होता है और ज्योतिष के अष्टादश संहिता कारक "पिता- मह, व्यास, वसिष्ठ, अत्रि, पराशर, कश्यप, गर्ग, मरीचि, मनु, अंगिरा, लोमश पुलस्य, गुरु, शौनक इत्यादि हैं" इन्हीं से ज्योतिषशास्त्र प्रवृत्त भयाहै, यवना- ..चार्ग्य कृत यवनजातक भी सर्वसंमत प्रमाणग्रंथ है और यवनाचार्य्यने कुछ अपनीही कल्पना नहीं करी किंतु गुरुपदिष्ट वैसाहीथा उक्तंच रोमकेण- • (८). तांजिकनीलकण्ठी-भा० टी० ।. "ब्रह्मणागदितं भानोभनुना यवनाय तत् । यवनेनच यत्प्रोक्तं ताजिकं तत्प्रचक्षते " इति और टोडरानंद, खत खुत रोमक हिल्लाज घिषणा दुर्मुखाचार्य, इतने ताजि काचार्य्य हैं येभी तो ब्राह्मणहीथे इत्यादि प्रमाणसे ताजिकमें पारशीयशब्दोंका दूषण नहीं है कदाचित कोई कहै कि "नवदेद्यावनीं भाषां" इस धर्मशास्त्रोक वाक्यका खंडन होगया है तो मैंने खंडन नहीं किया. यह श्लोक तो सत्यही है परंच उसकी घटना काव्यालंकारादि विषयोंमें है पारशीयशब्दपक्ष में यहां तो “फले प्राप्ते मूले किं प्रयोजनम् ” यह न्याय है. आम खानेसे काम है न कि वृक्षगणनासे, जैसे पंकोद्भव कमल देवपूजाही और विषधर सर्प मस्तको द्धतमणि मुकुटयोग्य होता है ऐसाही यहां भी शास्त्र के प्रयोजन से प्रयोजन है. जाति द्वेष फलित शास्त्र में क्या ताजिकशास्त्र इस समयमें तात्पर्य फल बतलानेवाला है और गर्ग वचन है कि, "म्लेच्छा हि यवनास्तेषु सम्प शा मिदस्थितम् । ऋषिवत्तेपि पूज्यंते किंपुनर्वेद विद्विजाः” । और ग्रंथांतरीय कथानक है कि, किसीकालमें ज्योतिष शास्त्र के अनुसार ज्योतिप लोग भूत, भविष्य, वर्त्तमानकी बातें कहकर ईश्वरकी ईश्वरताको स्पर्द्धा करने लगे. यह दशा देख ब्रह्माजीने उन शास्त्रों के चमत्काररूपी किरणोंको शापानलसे छादित करदिया. इस दशा में श्री वसिष्ठादि मुनियोंने अपने प्रकाशित शा के योतन निमित्त ताजिकशास्त्रापेक्षा औरभी चमत्कृत बनाया. जिसको अष्टादश संहिताकारक आचायने अनेक प्रकारके ग्रंथ उन्हीं पारशीय शब्दोंको संस्कृत शब्द मणियोंमें ग्रथनकर प्रगट करदिया और मूल इसकाभी जन्मसमय प्रथमस्वासा लेने काही क्षण है. इसका विस्तार बृहज्जात- कानुवाद "महोघरी भाषा" के सूतिकाध्याय प्रारंभ में मैंने लिखा है अब इस ग्रंथ के सब प्रकारके हक हम अपनी प्रसन्नता से लोकहितार्थ प्रकाशित करनेको सेठ खेमराज श्रीकृष्णदासजी “श्रीवेंकटेश्वर"यन्त्रालयाध्यक्षकोसमर्पण किये हैं। . " आपका कृपाभिलाषी- टिहरीनिवासी ज्योतिर्विद् पं० महीधर शर्म्मा.. ॥ श्रीः॥ अ ताजिकनीलक ठी भाषाटीकासमेता । शिवं शिवकरं शिवायुतमजं घालावितं समातृगुरु रूपिणं निखिलभैरवैः सेवितम् ॥ प्रणम्य शिरसा मुदा सर- भसा परं दैवतं सहस्रदलकर्णिकांतरगतं गभीरं महः ॥ १॥ मही- धरधरासुरो विबुधधर्म्मदत्तात्मजो विधाय खलु जातके ह- ति भाषया व्याकृतिम् ॥ तनोति किल ताजिके त्रिगणनील कंठ्याह्वये शुभां विवृतिमत्र वै नरगिरा हि माहीधरीम् ॥ २ ॥ भाषाकार निर्विन्त्रतापूर्वक ग्रंथसमात्यर्थ परब्रह्म गुरुरूपी शिवको प्रणाम सहित स्वकर्म प्रकाश कर्ता है। मंगल मूर्ति, सर्वथा श्रेय करनेवाला,. सशक्तिक अर्थात् उमासहित शंकर, स्वतःसिद्ध, सहस्रदल कमल कर्णिकांड तर्गत अतिरहस्य अलख अगोचर स्थानमें परमामृतसे प्लावित प्रसन्नवदन बैठा हुवा, चतुःषष्टि मातृका और समस्त भैरवोंसे समंतात्परिवेष्टित, यद्दा मातृका स्वर, भैरव व्यंजन इनसे सेवित प्रणवरूप परमदेवता गुरुरूपी ईश्वर को ( ससंघम ) आनन्दपूर्वक सशिरस्क प्रणाम करके विबुध धर्म- दत्तात्मज महीधरनामा ब्राह्मण, बृहज्जातककी भाषाटीका करने उपरांत सांप्रत में इसी ज्योतिष प्रकरण "ताजिकनीलकंठी" तीनों तंत्रकी सुगम सरल भाषामें माहीघरी टीका विस्तारित कर्त्ता है ॥ १ ॥ २ ॥ ग्रंथकत्ती आचार्य मुनिश्रेष्ठ गर्गवंशावतंस समस्त विदैवज्ञमुकुटमणि त्रिस्कंध ज्योतिश्शाश्चनिबंध कत्ती चिंतामणि ज्योतिर्विद् पौत्र अनंत ज्यो- तिर्वित्पुत्र श्रीनीलकंठ ज्योतिर्विद जीर्ण ताजिक शास्त्र के संज्ञातंत्र, वर्षतंत्र, प्रअतंत्र, तीन प्रकरणों के निर्माणोत्सुक होकर प्रथम संज्ञाविवेक नामक A (२) ताजिकनीलकण्ठी ! . प्रथम तंत्रारंभमें निर्विघ्नता सहित ग्रंथसमाप्त्यर्थ गणेश सूर्य पितृ चरणकमल, को नमस्कार तथा विषय प्रयोजन संबंध उपजाति छन्दसे कहता है ॥ उपजातिच्छंद:- प्रणम्य हेरम्बमथो दिवाकरं गुरोरनंतस्य तथा पदाम्बुजम् ॥ श्रीनीलकंठो विविनक्ति सूक्तिभिस्तत्ता- जिकं सूरिमनःप्रसादकृत् ॥ १ ॥ • श्रीनीलकंठनामा दैवज्ञ गणेश और सूर्यनारायण तथा अपने पिता अ- नंतनामा दैवज्ञ गुरुके चरणकमलको प्रणाम करके जीर्ण ताजिकग्रंथको विचार के इंद्रवज्रा रथोंद्धतादि सुन्दर छन्दोंमें बडेबडे ताजिक ग्रंथों के प्रयोजन स्वल्पतरग्रंथसे बोधननिमित्त विद्वान् ज्योतिषियोंके मन प्रसन्न करनेवाली नीलकंठी नामक ताजिक प्रकट करता है ॥ १ ॥ मे उपजा० - पुमांश्चरो : दृढचतुष्पाद्रक्तोष्णपित्तोतिरवोद्रिरुत्रः । पीतो दिनं प्राग्विषमो दयोल्पसंगप्रजो रूक्षनृपः समोजः ॥ २ ॥ • प्रकरण में प्रथम राशिस्वरूप वर्णन करते हैं; यथा - मेष मेंढाका आकार, पुरुष राशि, चरसंज्ञा, अग्नितत्त्व, बलवान्, चौपाया, रक्तवर्ण, सोष्ण अर्थात् तमदेह, पित्त प्रकृति, बडाशब्द करनेवाला, पर्वतचारी, वनचारी ब्रा, क्रूरस्वभाव, पीतवर्ण [ यहां रक्त पीत दो वर्ण कहनेसे दोनों रंग मिलकर पाटल वर्ण शरीर ] दिवा बली, पूर्वदिशा, अल्प स्त्रीसंगकरनेवाला, और अल्पमजा, रूक्षक्रांति, क्षत्रियजाति और राशिसंख्यागणनामें विषम है किंतु का यह राशि सम काम देती है इसकारण यहां संज्ञा ही है इतने गुण मेषके हैं ॥ २ ॥ उपजा० - वृषः स्थिरः क्षितिशतरूक्ष याम्ये सुभूर्वा निशाचतुष्पात् ॥ वेतोतिशब्दो विपमोदयश्च मध्यप्रजा.. संगशुभो हि वैश्यः ॥ ३ ॥ वृष, बैलका आकार, स्थिरसंज्ञा स्त्रीराशि, भूमितत्त्व, रूक्षकान्ति, शीतस्वभाव, दक्षिण दिशा, सरलभूमिचारी, वातप्रकृति, रात्रिबली, चारचरण, श्वेतवर्ण,बडा शब्दकरनेवाला, विषमलन, न, तो अतिकामी न अल्पकाम, सौम्य राशि, वैश्यजाति, दृढांग, बलवान् शरीर इतने लक्षण वृषराशिके हैं ॥ ३ ॥ भाषाटीकासमेता । (३) इन्द्रवज्रा- त्यक्समीर: शुकभा द्विपान्ना द्वंद्वं द्विमूर्तिर्विषमोदयोष्णः॥ मध्यप्रजासंगवनस्थशूद्रो दीर्घस्वनः स्निग्धदिनेद् तथोत्र ॥४॥ एकखी एक पुरुषके द्वंद्वको मिथुन कहते हैं. ऐसाही आकारभी है और यह राशि पश्चिमदिशाकी स्वामी, वायुतत्त्व, ( वायुप्रकृति), शुकपक्षीकासा हरितरंग, दोचरण, सौम्य, पुरुषरूप, द्विस्वभाव, पूर्वार्जस्थिरस्वभाव और उत्तरार्द्धका 'चरस्वभाव, विषमराशि उष्ण, स्वभाव, स्त्रीसंगमें मध्यम, संतान भी बहुत अल्प, वनचर, शूत्रजाति, दीर्घ शब्दवालाग्घि (चिकना) शरीर, दिनमें . बलेवान, क्रूरसंज्ञा, दृढ शरीर इतने लण मिथुन राशिके हैं ॥ ४ ॥ उपेंद्रव० -ब जासंगपदः कुलीरश्चरोंगनापाटलहीनशब्दः ॥ शुभः कफी स्निग्धजलांबुचारी समोदयी विप्रनिशोत्तरेशः ॥ ५ ॥ कर्कराशि: कीटाकार अतिस्त्रीसंगी, बद्धचरण, चरराशि, स्त्रीजाति, पाटल अर्थात् श्वेतरंग, शब्दरहित, सौम्य, कफप्रकृति, स्निग्ध ( चिकना) शरीर, जलतत्त्व, जलचारी, समसंज्ञक ब्राह्मणजाति रात्रिबली उत्तरदिशाका स्वामी, इंढशरीर, इतने लक्षण फेंके हैं ॥ ५ ॥ उपजा ० - मान्स्थिरोग्निर्दिनपित्तरूक्षः पीतोष्णपूर्वेशदृढश्चतुष्पात्।। समोदयो दीर्घखोल्पसंगप्रजो हरिः शैलनृपोमधूम्रः ॥ ६ ॥ सिंहाकार पुरुष, स्थिरसंज्ञा, अग्नितत्त्व, दिनवली, पित्तप्रकृति रूक्ष शरीर, पीला- रंग, उष्णस्वभाव, पूर्वदिशाकास्वामी, बलवान् अंगप्रत्यंग, चारचरण, समसंज्ञा, दीर्घशब्द, स्वल्पनीसंगी, अल्पही संतान, पर्वतचारी, नृपति, धूम्रवर्ण यहांभी दारंग कहेगये हैं, प्रयोजन मेषवत् है कि पूर्वार्द्ध इस्का पीत उत्तरार्द्ध धूत्र धूवें कासा रंग है इतने लक्षण सिंह राशिके हैं ॥ ६ ॥ उपजा० - पां द्विपात्स्त्रीद्रित र्यमाश नेशामरुच्छीतसमोदया क्ष्मा।. कन्यार्द्धशब्दा भभूमिवैश्या रूक्षाल्पसंगप्रसवा शुभा च ॥ ७ ॥ कुमारीरूप, पांडु ( पिंगल ) वर्ण, दोचरण, स्त्री राशि, द्विस्वभाव (मि(४) ताजिकनीलकण्ठी । थुनवत् ) पूर्वार्द्ध स्थिर, उत्तरार्द्ध चर, दक्षिणदिशा स्वामी, रात्रिवली, वा युवतत्त्व, शीतप्रकृति, समलन इसका भूमितत्त्व भी है और आधाशब्दवाली, सरलभूमिचारी, वैश्यजाति, रूक्ष शरीर, अल्पस्त्रीसंगी, अल्पसंतति, समराशि, इतने लक्षण कन्या राशि के हैं ॥ ७ ॥ उपजा० - मांश्चरश्चित्रसमोदयोष्णःप्रत्यङ्मरुत्स्निग्धखो न वन्यः || स्वल्पप्रजासंगमशूद्र उग्रस्तुलोधुवीय द्विपदः समानः ॥ ८ ॥ तुला; तराजूकासा रूप, पुरुषराशि, चरसंज्ञा, चित्रवर्ण, समलग्न, गरम, पश्चिमदिशाका स्वामी, वायुतत्त्व, स्निग्ध (चिकना) शरीर, शब्दरहित, वनचारी क्रूर, अल्पखीसंगी, अल्पसंतान, शूद्रजाति, दिवा बली, दोचरण, बलवान अंग इतने लक्षण तुलाराशिके हैं ॥ ८ ॥ ●- उपजा - स्थिरः सितःस्त्रीजलमुत्तरेशनिशाखो नो बहुपात्कफी च।। समोदयो वारिचरोऽतिसंगप्रजः भः स्निग्धतनुर्द्विजोऽलिः ॥ ९ ॥ ु बीछूकासा रूप, स्थिरसंज्ञा, श्वेतरंग, स्त्रीराशि, जलतत्त्व, उत्तर दिशा पति, रात्रिचर, शब्दरहित, बहुपाद, कफप्रकृति, समलग्न, जलचारी, अतित्रीसंगी, बहुतसंतति, शुभराशि, स्त्रिग्ध (चिकना) शरीर, ब्राह्मण जाति, स्थूल अंग ये लक्षण वृश्चिक राशिके हैं ॥ ९ ॥ उपजा० - ना स्वर्णभाः शैलसमोदयोतिशब्दो दिनंप्राग्हढरूक्षपीतः ॥ राजोष्णपित्तो धनुरल्पसूतिसंगोद्विमूर्ति द्विपदोऽग्रुिः ॥ १० ॥ धनुषाकार, पुरुष, सुवर्णसमानकान्ति, पर्वतचारी, समलग्न, अति शब्दवान्, दिनबली, पूर्वदिशाका स्वामी, बलवान् शरीर, रूक्षतनु, पीलारंग, क्षत्रिय जाति, गरम, पित्तप्रकृति, अल्पसंतान, अल्पस्वीसंगी, द्विस्वभावराशि, पूर्वार्द्ध स्थिर, उत्तरार्द्ध चर, दोचरण, अग्नितत्त्व, करसंज्ञा, इसके भी दोरंग और दो रूप हैं जैसे पूर्वाई सुवर्णवर्ण और उत्तरार्द्ध पीतवर्ण और कटि ऊपर मनुष्य और नीचे घोडा ये लक्षण धनराशिके हैं ॥ १० ॥ भाषाटीकासमेता । उपजा० - मृगश्चरः ६मार्द्धरवो यमाशास्त्रीपिंगरूक्षः शुभ- भूमिशीतः ॥ स्वल्पप्रजासंगसमीररात्रिरादौ चतुष्पा- द्विषमोदयो `टू ॥ ११ ॥ . आकार तो नाकुका परंतु मुख मृगकासा, चरसंज्ञा, भूमितत्त्व, अर्द्धस्वरवान, दक्षिणदिशापति, स्त्रीराशि, पिंगल वर्ण, रूक्षशरीर, सौम्य, भूमिचारी, शीतप्रकृति, अल्पस्त्रीसंगी, अल्पप्रजावान्, वायुतत्त्व बली, पूर्वार्द्ध (चतुष्पाद) पशु, और उत्तराई जलचर पादरहित, विषम लग्न और वैश्यजाति ये लक्षण मकरके हैं ॥ ११ ॥ रात्रि 7. उपजा० कुंभोऽपदो ना दिन ध्यसंग सुः स्थिरः बुर वन्यवायुः ॥ स्निग्धोष्णखण्डस्वरतुल्यधातुः शूद्रः प्रतीची विषमोदये :॥ १२॥ कुंभ, कलशका आकार, पादरहित, पुरुष, दिवाबली, अल्पस्त्रीसंगी, अल्पसंतान, स्थिरसंज्ञा, विचित्ररंग, वनचारी, वायुतत्त्व, चिकना शरीर, संतत देह, अर्द्धस्वरवान, तुल्यधातु ( वात पित्त कफ तीनों प्रकृति ), शूद्रजाति, पश्चिम दिशापति, विषमलग्न, दृढ अंगप्रत्यंग इतने लक्षण कुंभके हैं ॥ १२ ॥ उपजा० - मीनोपदः कफवारिरात्रिनिःशब्दबधुद्वित- - नुर्जलस्थः || स्निग्धोऽतिसंगप्रसवोपि विप्रः भोत्तराशेट् विषमोदयश्च ॥ १३ ॥ - मीन राशिका आकार परस्पर एकके मुखपर दूसरीका पुच्छ ऐसी दो मछली और स्त्रीराशि, कफप्रकृति, जलतत्त्व, रात्रिबली, शब्दरहित, पिंग ल, भूरारंग, द्विस्वभाव, पूर्वार्द्ध स्थिरवत, उत्तरार्द्ध चरतुल्य, जलचारी, चि- कनाशरीर, अति स्त्रीसंगी, बहु संतति, ब्राह्मणजाति, शुभराशि, उत्तरदिशा पति और समलग्न इतने इसके लक्षण हैं ॥ १३ ॥ उपजा ० - घरांबुनोरग्निसमीरयोश्च वगै सुहृत्त्वं परतोऽरिभावः ॥ चापांत्यभागस्य चतुष्पदत्वं ज्ञेयं मृगांत्यस्य जले चर- त्वम् ॥ १४ ॥ (६) ताजिकनीलकण्ठी | पूर्व जो तत्त्व कहे गये हैं उनके प्रयोजन कहे जाते हैं, कि -- तत्त्व और वर्गीकी त्रीति स्त्री पुरुषमेलमें स्वामिसेवक में और गुरु शिष्यादिमें विचार- नी चाहिये, जैसे पृथ्वीतत्त्व और जलतत्त्वकी तथा अग्निवायुकी परस्पर प्रीतिहै, भूमि अग्नि और जल वायुकी परस्पर शत्रुता है, पूर्वोक्त स्त्री पुरुषा दिकोंके राशि एकही तत्त्व होनेमें अधिक प्रीति है, धनुराशिका उत्तरार्द्ध चौपाया है, पूर्वार्द्ध द्विपदहै, मकर उत्तराई जलचारी पादरहित और पूर्वाई द्विपद स्थलचारी है ॥ १४ ॥ इंद्रवज्रा०-~-पित्तानिलौ धातुसमः कफश्च त्रिर्मेषतः सूरिभिरू हनीयाः ॥ राजन्यविशूद्रधरासुराश्च सर्वे फलं राश्य- नुसारतः स्यात् ॥ १५ ॥ धातु और जाति गिननेकी युक्ति सुगम प्रकारसे कहते हैं, कि पित्त वायु समधातु अर्थात् तीनों धातु और कफ इतने मेपादि राशि तीन आवृत्ति करके जानना. जैसे मेष सिंह और धनका पित्त धातु, वृष कन्या मकरका वायु, मिथुन तुला कुंभका समधातु अर्थात् बात पित्त कफ .तीनों मिलकर होताहै; एवं कर्क वृथ्विक मीनका कफ धातु है. इसी क्रमसे जाती भी जानी जाती हैं, जैसे- मेष सिंह और धन क्षत्रियजाति, वृषकन्या व मकर वैश्य जाति, मिथुन तुला व कुंभ शुद्रजाति कर्क वृश्चिक व मीन ब्राह्मणजाति है. राशियोंके गुण जाति धात्वादि जितने कहेहैं. जन्म वर्ष प्रवेश और प्रश्नादि विचारोंमें जैसे जिनके नामहैं वैसेही फल विचारके कहना. जैसे क्रूर राशिसे क्रूरस्वभाव, सौम्यसे सौम्य और चरराशिसे चरता, स्थिरसे स्थिरता, द्विस्वभाषसे दोनों मिलाकर ऐसेही सम्पूर्ण राशिगुणोंका फल जन्म वर्ष और प्रश्नादिकों में बुद्धिसे कहना | शा बुद्धिका सहायक है. विशेष विस्तारराशिगुणोंका बृहज्जातक की महीधरीभापाटीकामें स्पष्ट- तर लिखाहै ॥ १५ ॥ भाषाटीकासमेता । (७) अनुष्टुप् ०-गताः समाः पादयुताः कृतिघ्नसमागणात् ॥ खवे - दाप्तघटीयुक्ता जन्मवारादिसंयुताः || अब्दप्रवेशे वारादि सप्ततोत्र निर्दिशेत् ॥ १६ ॥ ग्रहोंके चालन और ग्रह गणितैक्य स्थापनमें प्रथम वर्षेष्टकाल आवश्यक है. यह गणित आचाम्योंने वर्षतन्त्रमें लिखा है. यहांभी अपेक्षित होनेसे वही यह श्लोक है कि जन्म शककाल, वर्ष शककालमें घटायके शेष गतवर्ष होते हैं उनमें उन्हीं का चतुर्थीश जोड़ देना पुनः वही गतवर्ष २१ से गुनाकर चा- राशिगुणादिचकम् । संज्ञा: | मेष | वृष | मिथुन | कर्क | सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धन. |मकर. | कुंभ | भीन. | १ पुंखी | पुरुष. स्त्री. पुरुप. स्त्री. पुरुप. स्त्री. पुरुष. स्त्री पुरुष स्त्री. पुरुष. स्त्री. र चरस्थि द्विस्व द्विस्व- चर, स्थिर, चर. स्थिर, चर. स्थिर. द्विस्व. द्विस्व शदि भाव. भाव. चर, स्थिर, भाव. ३ जल. अग्नि. पृथ्वी. वायु. जल. अभि. पृथ्वी वायु, जल. ४ कृश. दृढ. दृढ. दृठ. दृढ, भाव तत्त्व. अनि. पृथ्वी. वायु. पुष्टकृश दृढ. दृढ. मृदु. मृदु. दृढ. कृश, दृढ, संज्ञा. चतुष्प. चतुप्प. द्विपद. अपद, चतुष्प. द्विपद. द्विपद. वऋपद. द्विपद. चतुष्प. अपद, अपद. ६ पाटल वर्ण. श्वेत. हरित रक्क. पाटल. धूम्र. पांडुर. विचित्र श्वेत. वर्ण: २ पीत. कर्बुर. धूम्र. ७ गुण. तेतह, शीत, तप्त. शीत. उष्ग. वायु. उष्ण. वायु. उष्ण. शीत. उष्ण. शीत. ट धातु. पित्त. वायु. वायु. कफ, पित्त. जल, पित्त. कफ, पित्त, वायु. वायु. कफ, शब्द शब्द. अतिरव अतिरव दीर्घश. हीनश. दीर्घश. अर्द्ध. शब्दर. रहित. अति अति खंड शब्द शब्द शब्द. रहित होन. चार सम पर्वत वनचर, जलचर पर्वत शुभ वन चर. भूमि. चारी. जलचर पर्वत वन न्चर. चर. भूमि, स्थान. भूमि. जलचर 91 कुरादि उप्र. सौम्य. उग्र. सौम्य. उम्र. सौम्य. उम्र. सौम्य. उग्र. सौम्य, उम्र. सौम्य. १२ दिनादि दिवा. रात्रि. दिन. संध्या. दिवा. रात्रि. दिवा. रात्रि. दिन. रात्रि. दिन. रात्रि. १३ चल वली. समवि- विपम. सम विपम. सम विषम सम विषम सम विषम सम. विपम. सम. १४ षम. दिशा. पूर्व. दक्षिण पश्चिम उत्तर पूर्व, दक्षिण पश्चिम, उत्तर. पूर्व. दक्षिण पश्चिम उत्तर. १५ स्त्रीसंग अल्प. मध्य. अति. १६ मत. १० अल्प. मध्य. मध्य. बहु. अल्प, अल्प. अल्प. अति. अल्प. कांति. रूक्ष. रूक्ष, स्निग्ध, स्निग्ध, रूक्ष, रूक्ष, स्निग्ध, स्निग्ध रूक्ष. रूक्ष. सिग्ध, निग्ध. १७ जाति, क्षत्रि. वैश्य, शुद्र ब्राह्मण, क्षत्रि. वैश्य. शद, ब्राह्मण, क्षत्रि. चैश्य. शूद्र. ब्राह्मण. १८ समादि सम विपम. विषम. सम सम सम. सम. सम सम विषम विषम विषम १९ (८) ताजिकनीलकण्ठी | लीससे भाग देकर लब्धि स्वचतुर्थांश युक्त राशिके दूसरे स्थानमें स्थापन कर- ना. शेष ६० से गुनकर ४० से भाग देना, लब्धि तीसरे स्थान में स्थापन कर- ना. ये तीन अंक वार, घटी, पल इनमें जन्मके वार इष्ट घटी पला यथाक्रमसे जोड़ने घटी पल ६० से अधिक हों तो ६० से शेषित करके लब्धि ऊपरकी राशिमें जोड़देना. वारकी राशि ऊपरका अंक जो गतवर्ष चतुर्थांश युक्तहै वह ७ से ऊपर हो तो ७ ही से तष्ट करदेना. यही प्रयोजन दूसरे प्रकार यह है कि 'सपदा दलिता सदला' अथवा ( वर्ष सवाया आधा ड्योढ ) अर्थात् गत- वर्ष ' सपाद ' उसकी चौथाई उसीमें जोड़के बार हुवा, फिर ' दलिता' उसका आधा करके घटिका हुई फिर उसका आधा उसीमें जोड़के पला हुई, जन्मवार इष्ट घटीपल क्रमसे जोड़ दिया तो वर्षका ध्रुवक बाघटी पल होते हैं. उहाहरण - इसका प्रथम श्लोकोक्तमकार तो यह है कि जैसे जन्म संवत् १९०६ वर्षप्रवेश संवत् १९४३ में घटाया, शेष ३७वह जन्मशक १७७१ वर्षशक १८०८ घटाया शेष ३७ गतवर्ष हुआ, इसमें इसीका चतु- थश ९ । १५ जोड़दिया तो बार ४६ घटी १५ हुई, उपरांत गतवर्ष ३७ गुणक २१ से गुणना किया तो ७७७ हुये, इसमें ४० से भाग लिया, लब्धि १९ घटी मिली वार राशि ४६ के नीचे घटिकाकी राशि १५ में जोड़ दिया ३४ घटी हुई शेष अंक ६० गुणकर ४० से भाग दिया लब्धि २५ पला और ३० विपला मिली, इन्हमें जन्म वारादि २ ३९२९ जोड़दि- या तो वर्ष वारादि होगया. सरा प्रकार यह है कि गतवर्ष सवाया ४६ दि. १५ घ. गतवर्ष आधा घ. १८५. ३० तीसरे गतवर्ष ड्योढा प. ५५ वि. ३० सबको यथाक्रम स्वस्वजातियोंमें मिलाय दिया. जैसे विपल तो ३० रहे पल ३० और ५५ जोड़के ८५ यह ६० से उद्धृत करदिया तो पल २५रही लब्धि १ घटी १८ । १५ तीनों जोडके ३४ घटी मिली, वह ४६ ही हैं इन वारादि ४६|३४|२५|३०१ में जन्मवार २ घटी३९ पल २९ जोड़ दिये तो चार ७ घटी १३ पल ५४।३० यह वर्षेष्ट हुवा ॥ अन्यप्रकार १ । १५ । ३१ | ३ | को गतवर्षसे पृथक् २ गुणदिया. यथाक्रम बारादि ध्रुक्क होजा- ता है इसके और प्रकारभी बहुत हैं इसकी उत्पत्ति यह है कि सूर्यके पूरी १२ भाषाटीकासमेता । (९) राशिमें एक सौरवर्ष होता है, जन्मसमयमें सूर्य्य स्पष्ट जितना राश्यादिहै उत- नाही पूरा पूरा जिस समयपर हो वह काल पुनर्वर्ष प्रवेशका है सावनमास से दिन ३६५ घटी १५५० ३१ विपल ३० में सूर्य उसी स्पष्टपर आजाता है इससे यह क्षेपक नियत है इसक्षेपक को पृथक् २ चारों स्थानों में गतवर्षसे गुनाकर स्वस्वजातिकें पूर्ण अंकोंसे ऊपर ऊपर चढायके आयुके सावन चर्षादि होते हैं, जैसे १ | १५ | ३१ | ३० गतवर्ष ३७ से गुनदिये ३७॥ ५५५ । ११४७ । १११० इनको घटी पल विपल ६० से उद्धृत कर- दिये ३७ वर्ष ४६ दिन ३४ घटी २५ पलं ३० विपल० सावन माससे गत हुये. यही रीति सर्वत्र जाननी. यहां वही ४६ आदिकोंमें जन्म वारादि जोड़नेसे वर्ष प्रवेश वारादि होगा ॥ १६ ॥ (अनु.) शिवनोब्दः स्वखाद्रींदुलवाढ्यः खा शेषितः ॥ जन्मतिथ्यन्वितस्तत्र तिथावन्दप्रवेशनम् ॥ १७ ॥ पूर्वोक्त विधिसे वर्षप्रवेश वारादि ज्ञातहुये में यह वर्षप्रवेश किसति- थिको होगा इसनिमित्त तिथ्यानयन प्रकार यह है कि गतवर्ष ११ ग्यारह से गुनदिया दो स्थानों में स्थापन करके एक में १७० का भाग देकर लब्धि दूसरे स्थानकी राशिमें जोड़ दिया, उपरांत ३० तीससे भाग देकर जो शेष रहै उसमें जन्मतिथि शुक्लप्रतिपदादिकमसे जोड़नेसे वर्षप्रवेश तिथि मिलती है. उदाहरण गतवर्ष ३७ | ११ से गुनदिये ४०७ दो स्थानोंमें स्थापन करके एक जगह १७० से भाग लिया लब्धि २ दूसरे में जोड़ दिया ४०९ इसमें जन्मतिथि ९ जोड़दी तो ४१८ हुये ३० से तष्ट करके शेष २८ कृष्ण त्रयोदशी के दिन वर्षप्रवेश हुआ. इसमें भी तिथि एकदिन आगे पीछे हो जाती है. गणितागत तिथिके पहिले वा पिछले वा उसी दिन वर्ष- गत वार जिस दिन मिले वही ठीक होती है. यहां वारकी मुख्यता है तिथिकी आवश्यकता वारको निश्चय करने निमित्त है कि एक महीने में एकवार ४ । ५ आवृत्ति करता है तो उनमेंसे तिथि एकको निश्चय कर देती है. जैसे इस उदाह- रण में २८ कृष्णत्रयोदशी मिली है और वर्षप्रवेश द्वादशी के दिन शनिवार होने (१० ) ताजिकनीलकण्ठी । से वर्षप्रवेश होगया. अथवा जन्मके ( सूर्य्याशतुल्य ) सूर्य्याशदिन वह चार मिलनेपर वर्षप्रवेश दिन निश्चय होता है किसी किसी देशों में संक्रांतिदिन गि- नती मानतेहैं उन्हें गत प्रविष्टा और पैठ कहते हैं उस प्रविष्टाके दिन अथवा एकदिन आगे पीछे उक्त वार मिलनेसेभी दिन निश्चय होताहै ॥ १७ ॥ गतैष्यदिवसाद्येन गतिर्निघ्नी खषड्हृता | · लब्धमंशादिकं शोध्यं योज्यं स्पो भवेद्रहः ॥ १८ ।। फल स्पष्ट ग्रहाधीन है. वह गणित सिद्धांत और ग्रहलाघवादि लघुकर- णोंसे साधन करने में श्रम बाहुल्य है, यहां आचार्ग्य ने सुगमोपाय ग्रहस्पष्टका इसप्रकार कहा है कि, पंचांगस्थित अवधिकी गति इस समय से स्पष्टा- वधिपर्यंत दिनोंसे गुनकर अवधि स्पष्ट में संस्कार करना तात्कालिक स्पष्ट सिद्ध होजाता है. उदाहरण संवत् १९४३ वैशाख वदि द्वादशी शनिवार इटघटी १३ | ५४ में वर्षप्रवेश है. और वैशाख वदि अष्टमी सोमवारके दिन ग्रहलाघवीय प्रातःकालीन स्पष्टावधि पंचांग में स्थापित है अब स्पष्टावधि प्रातःकालसे ५ दिन १३ घंटी ५४ पल इष्टकालपर्यंत अधिक है. एप्यदिन हुये उस अवधिके सूर्य्य, स्पष्ट० | १३ | ३७ । ५२ रा- श्यादि और गति ५८ । १४ है. एष्यदिनादि ५ | १३ | ५४ से गति गोमूत्रिका क्रमसे वा भिन्न गुणन विधि से गुनदिया ५ | ४ । ३९ अंशादि हुये. अवधि स्पष्ट ० | १३ | ३७ | ५२ अवधिसे उत्तरदिन होनेसे एप्प हुवा. जोड़ देनेसे ० | १८ | ४२ | ३१ यह तत्काल सूर्य स्पष्ट होगया. यही रीति भौमादि सभी ग्रहों की जाननी. दूसरा प्रकार विना ही अवधि स्पष्ट केवल पंचांगीय ग्रह चालक से यह स्पष्ट करनेका यह है कि वर्षप्रवेश दिनसे पहला जो नक्षत्र चरण पर ग्रह चालक है और इष्टदिनसे जो पुनः अंत्यचरण पर चालक है इनका अन्तर करके नैराशिक करना कि अन्तरीय अमुक संख्यांक दिनोंमें ३ | २० अंशकला स्पष्ट होता है तो पूर्व इष्टसमय पर्यन्त अन्तरांकमें कितना होगा. जो उत्तर मिले उसमें राशिसंबंधि नक्षत्रोंके जितने चरण ग्रहके भुक्त करलिये उतने ३ | २० | जोड़ते जा भाषाटीकासमेता । (११ ) जहांतक इष्टदिन समय का पूर्व चालक मिलता है. जितना समय हो उसमें बैराशिकका गत फल जोड़देना यह स्पष्ट होजाता है. इतना स्मरण इसमें मुख्य चाहिये कि ९ चरण नक्षत्रों से एक राशि होती है, एक चरण नक्षत्र भोग में ३ अंश २० कला स्पष्ट होता है, एवं ६ । ४० में दो चरण १० |० में तीन चरन १३ | २० में चार चरण १६ । ४० में पांच चरण २०1० में छः चरण २३ | २० में ७ सात चरण । २६ । ४० में आठ ३० १० में नौ चरण पूरे नवांशक क्रमभी है, एकचरण अर्थात् ३।२० अंशकी २०० कला होती हैं, ये सभी अंक त्रैराशिक में काम आता है. उदाहरण - संवत् १९४३ वैशाखवाद द्वादशी शनिवार १३ घटी ५४ पला में वर्षप्रवेश है। इसके पूर्वदिन शुक्रवार ४१ घटी ४६ पलोंमें रेवतीके तीसरे चरणपर चालक है, और चतुर्दशी सोमवार को ५३ घंटी ३ पलोंमें रेवतीके चौथे चरणपर चालक है, इनका अंतर ३ दिन ११ घ०१७ पल हुवा. प्रथम चालक से इष्ट समय पर्यंत,०दिन । ३२ घंटी ८ पल अंतर हुवा अब त्रैराशिक है कि ३ | ११ | १७ दिनादि अंतर में ३ अंश २० कला स्पष्ट हुवा, तो अंतर दिनादि ० । ३२ |८ में कितना होगा ३१२० से ० १ ३२२८ गुनाहै ३ | ११ | १७ से भाग देना है गुणन भाजनक्रम गोमूत्रिका और भिन्नकी रीतिसे है. सुगमतासे समझने के लिये वह विधि ऐसी भी है कि ३ अंशको ६० से गुनदिया २० कला जोडू दी २०० कला पिंड गुणक हुवा, दूसरी राशि ० | ३२ । ८ शून्यके स्थानः में कुछ अंक होता तो ६० से गुनकर ३२ जोड़ना था यहां शून्य ही में ३२ से ७ गये अब ३२ को ६० से गुनकर १९२० में आठ जोड़दिये १९२८ गुणक हुवा. गुण्यगुणक को परस्पर गुण देने से ३८५६०० हुवा इसमें ३ ।११।१७ के पिंड ११४७७ से भागदिया. ३३ कला मिलीं, शेष अंक- को ६० से गुणकर भाग हारसे भाग देकर लब्धि उसके ऊपर अंश होते शेष कला रहती यहाँ ३३ साठसे न्यून है तो यही कला रही अंश • | इसमें अब विचार है कि खेती के तीसरे चरण में ० । ३३ । ३६ अंशादि • ० ७. ( १२ ) ताजिकनीलकण्ठी । स्पष्ट दुधका हुवा इसके पूर्व एक चरण पूर्वाभाद्रपदका ४ चरण उत्तराभाद्रपदका दो चरण- रेवतीका यह सब सात चरण भुक्तहुयेमें २३ अंश २० कला स्पष्ट भुक्त हुवा अब शेष रेवती तृतीय चर- णके अनुपातागत अंशादि • | ३३ | ३६ जोड़दिये २३ | ५३|३६ अंशादि स्पष्ट हुवा, बुध मीनका होनेसे राशिके स्थानमें ११ लिखना योग्यहै ११॥ २३ | ५३ | ३६ राश्यादि धका तत्काल स् होगया यही रीति और की भी जानना यह दोनों प्रकार सुगमता निमित्त स्थूलतर कहे हैं- स्थूल कार्ग्य इनसें साधन करते ही हैं सूक्ष्म विचार तो ग्रहलाघव महादेवी मकरंद रामविनोदादि करणसारणियोंके होते हैं और इनसे भी सूक्ष्म सिद्धांतों से होता है ऐसी ही विधि चंद्रस्पष्टकी भी है सो आगे है ॥ १८ ॥ . (भुजंगप्रयातम्) खषड्' भयातं भभोगोद्धृतं तत्वतर्कघ्न- धिष्ण्ये तं द्विनिघ्नम् ॥ नवा शशी भागपूर्वस्तु खखाभ्राष्टवेदा भभोगेन भक्ताः ॥ १९ ॥

जिस दिनका चंद्र स्पष्ट करना हो उसदिन नक्षत्र का इष्ट कालमें भुक्तभो ग्य सर्वभोग्य करलेना. रीति यह है कि इष्टसमयपर्यंत उक्त नक्षत्र जितनाघटी पलभुक्तहुवा उसे भुक्त कहते हैं, जितना बाकी रहा उसे भोग्य और दोनों को मिलाकर सर्व भोग्य होता है. भुक्तको ६० से गुनकर सर्व भोग्यके भाग लेनेसे जो मिले उसे पष्टि प्रमाण भुक्त कहते हैं वर्त्तमान नक्षत्रसे पूर्व अश्विन्यादि जितने नक्षत्र व्यतीत हुये उतनी संख्याको ६० साठसे गुणाकर वर्त्तमान नक्षत्रकी भभोगके भागसे मिली हुई घट्यादि जोड देनी सभी अतीत घटिका हुई उपरांत दोसे गुणाकर नौ ९ से भाग लेना लब्धि अंश होते हैं, शेष साठसे गुनाकर नौसे भाग देना लाभ कला होती हैं. पुनः शेष साठसे गुणाकर नौसे भाग देना लाभ विकला मिलती हैं, अंश ३० तीससे अधिक हो तो तीस हीसे भाग देना लाभ राशि शेष अंश होते हैं, यह चंद्रमा स्पष्ट सिद्धि होजाती है, उदाहरण- संवत् १९४३ वैशाख वदि द्वादशी शनिवार इष्ट घटी १३ पल ५४ इस समय पर उत्तराभाद्र नक्षत्रको भुक्तघटी ५४ पला १३ भोग्यघटी १० पला ४१ सर्व भोग्यघटी ६४ पला ५४ षटिप्रमाण भुक्त भाषार्टाकासमेता । घटी ५० १० ८ अश्विनीसे पूर्वाभाद्रपर्यंत २५ नक्षत्र भुक्त हुये, इस अंकको ६० साठसे गुना किया १५०० हुए वर्त्तमान उत्तराभाद्रपछि मान भुक्त ५० । ८ जोड़दिया १५५०।८ इस्को दुगुना किया ३१०० | १६ नौसे भाग लिया लाभ ३४४ अंश हुये शेष ४ आठसे गुनाकर अव- शिष्ट १६ जोड़दिये २५६ नौसे भाग लिया लाभ २८ कलाहुई शेप ४ पुनःसाठसे गुनाकर २४० नौसे भाग लिया; लाभ २६ विकला हुई. अंशा- दिचंद्र स्पष्ट ३४४ । २८ । २६ हुआ अंशस्थानमें अंक तीससे अधिक होनेसे ३० से भागलिया. लाभ ११ राशि शेष १४ अंश हुये ११|१४|२८| २६ यह चन्द्र स्पष्ट होगया. दूसरे प्रकार उदाहरण यह है कि, अश्विनी से पूर्वा माद्रपदाके तीन चरणपर्यंत ग्यारह राशि पूरी भुक्त होगयीं, शेष पूर्वाका चतुर्थ चरण और उत्तराभाद्रके ४५ घटी षष्टिमान भुक्त पर्यन्त तीन चरण मुक्त होजानेसे १३ अंश २० कला मुक्त होगयीं अर्थात् उत्तराभाद्रके ४५ घटी भुक्त पर्यन्त चन्द्रस्पष्ट ११ १३।२०।० होगया, अब उत्तरा भाद्रके ५ घटी ८ पल अवशेष भुक्तमें हैं इसका त्रैराशिक यह है कि १५घटी भुक्तमें ३ | २० अंश स्पष्ट होता है तो ५ घ. ८ प में कितना होगा ? ५ । ८ घटीके पिंड ३०८ को ३।२० के पिंड २०० • से गुनाकिया६ १६० इसमें १५ घटीके पलात्मक पिंड ९०० से भागदिया, लाभ ६८ कला हुई शेष ४०० को साठसे गुनाकर २४००० भाग हार ९०० से भाग लिया लाभ २६ विकला हुई. यहां कला ६० से ऊपर होनेसे साठहीसे भागदिया लाभ १ अंश शेष ८ कला रहीं, ११ ८/२६ इस समलन लाभको पूर्वागत ११ । १३ । २०३० जोड़ दिया ११ । १४ । २६ यह चन्द्र स्पष्ट होगया, दोनहूं प्रकार एकही स्पष्ट यहां दूसरा उदाहरण पूर्व लिखा है ( अब चन्द्रमाकी गति बनानेकी रीति ) एक नक्षत्रका स्पष्ट १३ अंश २० कला हैं इसकी कला ८०० को साठसे गुनाकर ४८००० विकलापिंड होता है, इसमें नक्षत्रके सर्व भोग्यसे भागलेना जो मिले वह चंद्रमाकी स्पष्टगति होती है. उदाहरण - ४८००० में 00 ● में २८ । मिलता है . ● (१४ ) ताजिकनीलकण्ठी | उत्तराभाद्रके सर्वभोग्य ६४ । ५४ का पलात्मक पिंड ३८९४ से भाग देनेके लिये, इस्को ६० से गुनाकर पला पिंड किया तो भाज्य भी ६० से गुणदिया २८८०००० भागहार ३८९४ से भागलेकर ७३९ लब्धि+शेष २३३४ को ६० से गुनाकर भागहारसे भागलिया लब्धि ३५ यह ७३९ । ३५ चंद्रमाकी गति होगई ॥ १९ ॥ ( उ० जा० ) पूर्व नतं स्याद्दिनरात्रिखंडं दिवानिशोरिष्टघटीविहीनम् । दिवानिशोरिष्टघटीषु शुद्धं द्युरात्रिखंडं त्वपरं नतं स्यात् ॥ २० ॥ ग्रहस्पष्टके उपरांत भाव स्पष्टके फलके निमित्त आवश्यकता है, लग्नदशम स्पष्टसे भाव स्पष्ट होते हैं, प्रथम दशम स्पष्टसाधनार्थ नतसाधन कहते हैं कि अर्द्ध रात्रिसे उपरांत दिनार्द्धपर्यंत पूर्वनत और मध्याह्नसे उपरांत सायंकालपर्यन्त दिवापश्चिमनत होता है. सूर्य्यास्तसे अर्द्धरात्र पर्यन्तरात्रिका पूर्व नत होता है- अर्द्ध रात्रि के बाद सूर्य्योदय पर्यन्त रात्रिका पश्चिमनत होता है. मध्याह्नके भीतरका इष्टकाल हो तो दिनार्थ में इष्टकाल घटा देना. शेष दिवा पूर्वनत होगा मध्याह्नके बाद सूर्यास्त तक इष्टकाल होतो इष्टकालमें दिनार्द्ध घटा देना, शेष दिवा पश्चिमनत होगा. सूर्य्यास्त के बाद अर्द्धरात्र तक इष्टकाल हो तो रात्रप में इष्टकाल को घटा देना शेष रात्रिका पूर्वनत होताहै, और अर्द्धरात्र के बाद सूर्योदय तक इष्टकाल हो तो इष्टकाल में राज्यई घटा देना, शेष रात्रिका पश्चिमनत होगा. यहाँ १५ में नत घटाने से उन्नत होताहै परंच उन्नत का कोई प्रयोजन नहीं है इस लिये उन्नत का नाम नहीं लिखाहै. इन नतोंका प्रयोजन दशम स्पष्ट में लगेगा. उदाहरण- यहां इष्टकाल घ.१३ १.५४३, दिनाई घ.१६५.३१ है, दिनार्द्ध में इष्टकाल घटाया तो शेष रहा घ. २ प.३७ यह दिनका पूर्वनत हुवा ॥ २० ॥ ( अनु० ) तत्काले सायनार्कस्य भुक्तभोग्यांशसंगुणात् । स्वोदया त्खाग्निलब्धं यद्भुक्तं भोग्यं वेस्त्यजेत् ॥ २१ ॥ इष्टनाडीपलेभाषाटीकासमेता । (१५) भ्यश्च गतगम्यान्निजोदयात् ॥ शेषं खत्र्याहतं भक्तमशुद्धेन लवादिकम् ॥ २२ ॥ अशुद्धशुद्धमे हीनं युक्तनुर्व्यनां शकम् ॥ एवं लंकोदयैर्भुक्त भोग्यं शोध्यं पलीकृतात् ॥२३॥ तात्कालिक सूर्य स्पष्टमें अयनांश जोड़ना जो अंकराशिका है, उसके आगेकी राशि स्वोदय हुवा शेष अंशादि भुक्त हुये, तीसमें घटायके भोग्यांश होते हैं इन भोग्यांशादिकोंको वा भुक्तांशादिकोंको स्वोदय अर्थात् जिस राशिका अंशादि था उसी संख्याका स्वदेशीय लमखंडसे तीनों स्थानोंमें पृथक २ गुनाकर तीससे भाग लेना लब्धिपलादि सूर्य्यके मुक्त वा भोग्य होते हैं अर्थात् भुक्त/शादिकोंसे स्वोदयको गुनते हैं तो ३० तीसका लाभ भुक्तसंज्ञक हो ताहै और भोग्यसे किये हैं तो भोग्यसंज्ञक होताहै इन पलादिकोंको इष्टघटीकी पलाओंमें घटाय देना जो शेष रहै उसमें स्वोदयकी राशिसे नीचे अथवा उपरांत जितने लग्नखंड घंटें एक एक करके घटाते जाना जो लग्नखंड न घंटे उस्की अशुद्ध संज्ञा हुई घटानेसे जो शेष रहा उसे ३ ० तीससे गुनदेना. अशुद्ध- संज्ञक लमखंडसे भाग लेना लाभ अंशादि हुये स्वोदयसे लेकर जितने लग्नखंड पूर्व घटाये उतनी संख्याकी राशि उन लब्ध अंशादिकोंके पूर्व में स्थापन करनी यह भोग्य रीतिका क्रम है, भुक्त रीतिमें अशुद्ध में घटादेना उपरांत अयनांश घटाय देना यह लम्र स्पष्ट होजाता है. उदाहरण संवत् १९४३ वैशाख कृष्ण द्वादशी शनिवार इष्टघटी ३३ पला ५४ सूर्य्य स्पष्ट० | १८ | ४२।३१ अयनांश २२।४४ जोडदिया. १|११|२६|३१ यह सायन सूर्य्य हुवा इसमें १राशि है यह वृषस्वोदय हुवा शेष अंशादि ११।२६।३१भुक्तहुये ३० तीस में घटायके १८।३३।२९ ये भोग्यांशादि हुये अब इनको स्वोदय खंडोंसे गुनदेनाहै. लग्नखंडोंकी रीति यह है कि लंकोदप २७८/२९९।३२३ क्रमसे और यही उत्क्रमसे ३२३।२९९ । २७८ हैं इनमें अभीष्ट देशके चर- खंडोंको एक आवृत्ति तीनोंमें जोडदेना दूसरी आवृत्ति तीनों में घटाय देना- लग्नखंड होते हैं, जैसे श्रीनगरके पलमा ७ । ० ( त्रिष्ठा हवाः स्युर्दशभिर्भुजंगै(१६) ताजिकनीलकण्ठी । दिंग्भिश्वराद्धानि गुणोद्धृतांत्या ) इस विधिकरके ७० | ५६ । २३ चर- खंडहैं इनको एक आवृत्तिमें घटाय दिया तो मीन मेषके २०८ वृषकुंभके २४३ मिथुन मकरके ३०० और दूसरी आवृत्तिमें चरखंड जोड़ दिया तो कर्क धनके ३४६ सिंह वृथ्विकके ३५५ कन्यातुलाके ३४८ ये श्रीनगरके लग्नखंड हुये, यहां स्वोदय वृष २४३ से भोग्यांश गुनदिये ४३७४।८०१९ | ७०४७ नीचेके दो अंक ६० से चढायदिये तो ४५०९ | ३६ । २७हुये ३० से भागलिया लाभ १५०/१९/१२ भोग्य कालहुवा ऐसी ही रीति भुक्तांशादिसे भी होतीहै. अब इष्ट घटी १३ | ५४ की पलाओंमें ८३४ भाग्यांश १५० । १९ । १२ घटाय दिये ६८३ । ४० । ४८ हुये अब इसमें स्वोदय वृषसे उपरांत मिथुन ३०० घटाया ३८३ इसमेंभी कर्क ३४६ घटाया तो ३७४०४८ इसमें सिंह ३५५ घटाना था नहीं घटता तो इसकी अशुद्ध संज्ञा हुई शेष ३७ १४० । ४० को पृथक् तीससे गुन- दिया११३० । २४ । ० इसमें अशुद्ध ३५५ से भाग लिया लाभ ३ ॥११॥ ३ अंशादि हुये कर्क पर्यंत घटगये इससे ४ राशिके स्थानमें स्थापन कर दिया ४ | ३ । ११ । ३ इसमें अयनांश २२ | ४४ घटादिया तो ३ | १० | २७ । ३ यह लग्न स्पष्ट होगया, जब स्वोदय न घंटे तो, इष्टको ३० से गुनाकर सायन सूर्यके लग्नखंडसे भाग लेना तो अंशादि मिले वह सूर्योदय से पूर्वका इष्टकाल होय तो सायन सूर्यमें घटायके और परका होय तो जोड़के अयनांश घटायके लग्न स्पष्ट होजाताहै ॥ २१ - २३ ॥ ( अनुष्टुप् ) पूर्वपश्चान्नतादन्यत्प्राग्वत्तद्दशमं भवेत् । सषड्भे ल खे जायातुय्य लग्नो न तुर्य्यतः ॥ २४ ॥ षष्टांशयुक्तनुः संघिरग्रे पष्ठांशयोजनात् ॥ त्रयः ससंधयो भावाः पष्ठांशो नैक- युक्सुखात् ॥ २५ ॥ अग्रे त्रयः षडेवं ते भाईयुक्ताः परेपि- षट् ॥ खेटे भावसमे पूर्ण फलं संधिसमे तु खम् ॥ २६ ॥ अब दशम लग्न स्पष्टकी विधि कहते हैं, कि पूर्वोक प्रकारसे नतोन्नत भाषाटीकासमेता । (१७) सूर्य तात्कालिक स्पष्ट सायन स्वोदयगुणित भुक्त भोग्यांश ऋणसंज्ञकलन क्रमसे करके भोग्य भुक्तका पलात्मक सूर्घ्य स्पष्ट करके लगस्पष्ट में इष्टकालकी पलावों में घटाया, यहां नत वा उन्नतको इष्ट मानकर उसकी वटिकाकी पलाओं में घटाना और विधि सभी लश स्पष्टोक्तवत् करनेसे दशम लग्न स्पष्ट होता है. जैसे पूर्व लग्न स्पष्ट करनेमें तात्कालिक सूर्य्ये स्पष्ट लियागपा, वही यहांभी लिया जाता है. उनका भुक्तांशादिकोंसे उसीके राशिसंख्यक लमखंड गुनके वीससे भाग लेनेसे लाभ पलादि सूर्य्यकी होंगी, पश्चात् उन्नत पलाओंको इष्ट- काल मानकर इनमें सूर्य्यके पलादि बटाय देना, उपरांत सूर्य्यराशि लग्न- .खंड घटाना, यदि न घंटे तो शेष पलादिकोंको तीससे गुनकर पूर्व अशुद्ध लग्नखंड से भाग देना, लग्धि अंशादि हुये . अशुद्ध लग्न राशिमें घटायके अय- नांश घटाय देना वह लग्नस्पट राश्यादि होजायगा, इस प्रकार देशम होता है यह ऋणसंज्ञक विधिहै यहां वही तत्काल सूर्य्य स्पष्ट के अंशादि ३० में घटायके स्वोदय में गुनना ३० से भाग लेकर लब्धि पलादि सूर्य्यका भोग्य हुवा इसे पश्चिम नत जो इष्ट माना है उसके पलावों में घटाय देना. जो न घंटे तो शेष ३० से गुनाकर अशुद्ध लग्नखंडसे भाग लेना लाभ अंशादि राश्यादि यथाक्रमसे योजित करके अयनांश घटाय देना, राश्यादि दशम लग्न स्पष्ट हो जाता है यह धनसंज्ञक विधि है इस प्रकार लग्न दशम स्पष्ट करके लग्न स्पष्ट में छः राशि जोडके सप्तम भाव स्पष्ट होताहै. ये ४ भाषेके स्पष्ट होगये. और भावसंधियोंकी रीति इस प्रकार है कि चतुर्थभावस्पष्ट में लनस्पष्ट घटाय देना. शेषमें छः से भाग लेनेसे लाभ षष्ठांश हुवा. यह लग्नमें जोडनेसे तनुधनकी संधि होती है इस संधिमें जोडनेसे द्वितीय भाव होता है. ऐसेही द्वितीय भाव जोडनेसे २| ३ की सांधे, इसमें जोडनेसे तृतीय भाव और इसमें भी जोडनेसे ३ | ४ की संधि होगी इस संधिमें जोडनेसे सुखभाव जो दशममें६ राशि जो डके बनाहै वही मिल जायगा. उपरांत पूर्वानीत षष्ठांशको एक राशिमें घटा- यके जो क्षेपकहो वह चतुर्थभावमें जोडनेसे ४ । ५ की संधि होगी. संधिमें २ ( १८ ) ताजिकनीलकण्ठी | . जोडनेसे पंचमभाव और इस भाव जोडनेसे ५१६ की संधि संधिमें जो- डनेसे पष्टभाव. इसमें जोडनेसे सप्तमभाव जो लग्नमें ६ राशि जोडकर हुई. वही मिलजायगी. अब सप्तमभावसे उपरांत लग्नादिकोंमें राशि जोडते जाना. सप्तमादि स्पष्ट होजायँगे, जैसे लग्नमें ६ जोडनेसे सप्तमभाव हुवा है, लग्न धन- संधिमें जोडनेसे सप्तमाष्टमभावकी संधि होगी. एवं द्वितीयभावसे अष्टमभाव, संधिमें सन्धि तृतीयसे नबम सन्धिसे संधि चतुर्थसे दशम संधिसे सन्धि पंचम भावसे लाभभाव सं० से सं॰ छठेमें बारहवां सं से सं० इस प्रकार बारह भावोंके स्पष्ट सन्धियोंसहित होते हैं. अति सुगम होनेसे उदाहरण न लिखा. इन भाव- स्पटोंका प्रयोजन यह है कि ग्रहस्पष्ट जिस भावस्पष्टपर मिले वह यह उसी भावका फल देता है. सन्धिगत यह मिश्रित फल दोनों भावोंका देता है. परंतु यह फल युक्तिसिद्ध है. ग्रंथकर्त्ताकी उक्ति तो यह है कि जो यह स्पष्ट जिस भावस्पष्टके तुल्य है वह उस भावका फल पूर्ण देता है. सन्धिगत ग्रह फल नहीं देता इनके फल अगले तंत्रमें हैं ॥ २४ ॥ २५ ॥ २६ ॥ शालिनी०- युक्तं भोग्यं स्वेष्टकालान्त्रशुद्धेत्रिंशन्निघ्नात्स्वोदय - तं लवाद्यम् ॥ हीनं युक्तं भास्करे तत्तनुः स्याद्रात्रौ लग्नं भाई- युक्ताद्रवेस्तु ॥ २७ ॥ जब इष्टकाल सूर्योदयसे पूर्व वा पश्चात् दो घटी हो अर्थात् लग्न और सूर्य एक राशिमें हों तो पूर्वोक्त विधिसे सूर्यके भुक्त वा भोग्य पला बना कर इष्टकाल पलाओंमें घटे तो घटाय देना. न घंटे तो अल्पेष्टकाल पलाओं को तीससे गुनाकर स्वोदयसे भाग लेना, फल अंशादि तत्काल सू स्पष्ट पूर्वोक्त ऋण धन क्रमसे हीन वा युक्त जैसा संभव हो करना, उपरांत अयनांश घटायके लनस्पष्ट होता है. ऐसे ही दशमं लग्नके लिये नष्ट - काल पलाओंसे करना. रात्रिका इष्टकाल हो तो सूर्य्य स्पष्टमें ६ राशि जोडके पूर्वोक्तविधि करनी. हेतु इसका यह है कि उदयकालिक सूर्य्यसे रात्रि इटकालपर्यंत बहुत लग्नखंड घंटाये जाते हैं इसमें न कुछ . भाषाटीकासमेतां । (१९) अंतर हो जाताहै छः राशि जोड़नेसे बहुत लमखंड नं घटेंगे अंतर भी नहीं पड़ेगा सुगमता भी है ॥ २७ ॥ अनुष्ट खेटे संधिद्रयांतःस्थे फलं तद्भावजं भवेत् ॥ हीनेऽधिके द्विसंधिभ्यां भावे पूर्वीपरे फलम् ॥ २८ ॥ दो संधियोंके अन्तर्गत जो ग्रह है वह वही भावका फल देता है, और भावकी पूर्वसंधिमें ग्रह घंटै तो पूर्वभावका फल देता है और ग्रहस्पष्ट में परसंधिस्पष्ट चटे तो परभावका फल देता है ॥ २८ ॥ अनु० - ग्रहसंध्यंतरं कायै विंशत्या गुणितं भजे || भावसंध्यन्तरेणाप्तं फलं विंशोपकाः स्मृताः ॥ २९ ॥ ब्रहस्पष्ट जिस भाव में या उसके परसंधिमें हो तो उसी संधि और ग्रहसे अंशादि अंतर करना. उस अंतरको २० से गुनकर भाव और संधिके अंतरसे भाग देकर जो मिले वह विंशोपका बल होता है बलशून्य होने में फलशून्य, चलमध्यममें मध्यम और पूर्णबल में पूर्णफल ग्रह भावका देताहै, ॥ २९ ॥ उपजा० - भौमोशनः सौम्यशशीन वित्सितारेज्यार्किमंदांगिरसो गृहेश्वराः ॥ आद्याः जाद्या रवितोपि सध्यमाः सितातृतीयाः क्रियतो दृ ण : ॥ ३० ॥ 7. दर्षेश के निमित्त बलाबल विचारना चाहिये इसलिये स्वगृह उच्च हद्दा त्रैराशिक मुशलह: पंचवर्गी बलगणनामें प्रथम राशिस्वामी का स्वामी कहते हैं. कि, मेषका स्वामी मंगल, वृषका उशना ( शुक्र, ) मिथुनका बुध, कर्कका चंद्रमा, सिंहका सूर्य, कन्याका बुध, तुलाका शुक्र, वृथ्विक का मंगलं धनका बृहस्पति, मकरका शनि, कुंभका शनि और मीनका बृहस्पति ये राशिस्वामी हैं. द्रेष्काण विभाग को कहते हैं. एकराशिके ३० अंश होते हैं दश दश अंशका एक एक द्रेष्काण होता है. लग्न ग्रहस्पष्ट प्रथम ० १ ० अंश के भीतर हो तो मंगलसे गिनना, १० अंश ऊपर २० के भीतर दूसरा द्रेष्काण हो तो मंगल से छठा मूर्खसे और २० अंश ऊपर ३० के भीतर तीसरा द्रेष्काण हो तो सर्थ्यसे छठा शुक्र से गिनना प्रगट चक्रमें लिखा है ॥ ३० ॥ (२०) ताजिकनीलकण्ठो | २/३/४/५/६/७/८/९/१०/११/१२/ राशि बु बृ शु श सृ चं नंबु बृ शु श अंश शु श र चं मं बु बृ अंश सृ. चं मं शु श स चं मं बु बृ शु श सृचं मं! अंश लवैः स्युः ॥ इंद्रवज्रा - सूर्य्यादितुंगक्षेमजोक्षनक्रकन्याकुलीरांत्यतुला दिग्भिर्गुणैरष्टयमैः शरैकैर्भूतैर्भसंख्येन॑खसंमितैश्च ॥ ३१ ॥ सूर्यका उच्च मेषके दश अंशपर, चंद्रमा का वृषके ३ अंशपर, एवं मंगल का मकर के २८ पर, बुधका कन्याके १५ अंशपर, बृहस्पतिका कर्केके ५. पर, शुक्रका, मीनके २७ अंशपर, शनिका तुलाके २० अंशपर परमोच्च है ॥ ३१ ॥ यहाः सु. चं. 'O ९ १० ३ २८ ३ नीच. बु. ३ ५ ११ १५ बृ. ३ ५ ९ ५ शु. श. ९१ ७६ २७ २० ५ २७२० ० १० "पंजा० -तत्सप्तमं नीचमनेन होनो यहोऽधिक श्चेद्रसभा- द्विशोध्यः || चक्रात्तदंशाङ्कलवो बलं स्यात्क्रियेणतौलींदु- भतो नवांशाः ॥ ३२ ॥ उच्चराश्यंशक पूर्व लोकमें कहे गये उससे सप्तम नीच होता है. उच्चराश्वंश- कमें ६ राशि जोडनेसे नीचराश्वंश परम होता है. उच्च बलकी विधि कहते हैं ग्रहके नीच स्पष्टको तत्काल स्पष्ट ग्रहमें घटा देना न घंटे तो ग्रहस्पष्ट में १२ जोडके घटाना, शेष ६ राशिसे ऊपर हो तो १२ में घटाके षड्भाल्प कर लेना, फिर उसका अंशादि करके ९ का भाग देना, लब्धि उबबल होता है. उदाहरण संवत् १९४३ वैशाखकृष्ण द्वादशी शनिवारको इष्ट घटी १३ पल ५४ सूर्यस्पष्ट ००।१८।४२१३१ सूर्य्यका उच्चस्पष्ट १०।०।० नीचस्पष्ट ६ । १० १० १० को रविस्पष्ट में घटाया शेष ६ । ८ । २ । ३१ इसको १२ में घटाके षड्भाल्प किया ५ | २१ । १७ । २९ भाषाटीकासमेता । (२१ ): अब यही ५। २१ १ १७ । २९ के राशिको ३० से गुनाकर १५० अंश इसमें २१ जोड़दिये १७१।१७ २९ हुये इसमें ९ से भाग लेकर १९३१० ५६।३३।२० यह उच्चबल हुवा ऐसेही सभी ग्रहोंके उच्चबलकी रीतिहै ॥ मुशलह नवांशको कहते हैं. - एक राशि ३० अंश नौभाग ये हैं. 3 33 ६ ७ ३|२०|६|४०/१०/०|१३|२०|१६|४०/२०/०|२३|२०|२६|२०|३०/० ? २ ३ मेष सिंह धनके नवांश मेषसे गिनना. वृष कन्या मंकरके मकरसे. मिथुन तुला कुम्भके तुलासे, और कर्क वृश्विक मीनके कर्कसे यह नवांशक 'मुश- ल्लृह' की रीतिहै ॥ ३२ ॥ उपजा० - मेषेंगतर्काष्टिशरेषु भागा जीवास्फुजिज्ज्ञारशनैश्चराणाम् ।। वृपेष्टषणनागशरानलांशाः शुक्र जीवार्किकुजेशहद्दाः ॥ ३३ ॥ हृद्दा के स्वामी कहते हैं- मेषके ६ अंश पर्यन्त बृहस्पति की हद्दा ६ से १२ लौं शुक्रकी ३२ से वीस २० लौं बुधकी २० से २५ तक मंगल की २५ से ३० लौं शनैश्वर की, वृषके ८ अंशपर्यन्त शुक्रकी ८ से १४ लौं बुधकी १४ से २२ लौं बृहस्पति की २२ से २७ लौं शनिकी २७ से ३० तक मंगलकी ‘हद्दा' होतीहै ॥ ३३ ॥ J उपजा० - ग्मे षडंगे नगांगभागाः सौम्यार जिज्जीवकुजार्किहद्दाः ॥ ककेंद्रित कगिनगाब्धिभागाः कुजास्फुजिज्ज्ञेज्यशनैश्चराणाम् ॥ ३ ॥ S मिथुनके ६ अंश पर्यंत बुधकी ६ से १२ लौं शुक्रकी १२ से १७ लौं बृहस्पतिकी १७ से २४ लौं मंगलकी २४ से ३० लौं शनिकी; के ७ अंश पर्य्यन्त मंगलकी ७ से १३ लौं शुक्रकी १३ से १९ लौं धृ की ३९ से २६ लौं बृहस्पतिकी २६ से ३० लौंशनिकी 'हद्दा' होती है ॥ ३४ ॥ उपजा ० – सिंहेंगभूताद्विरसांगभागा देवेज्यशुक्राकिंबुधारहदाः ॥ स्त्रिया नगाशाब्धिनगाक्षिभागाः सौम्योशनोजीवकुजार्किनाथाः ॥ ३५॥ (२२ ) ताजिकनीलकण्ठी | · सिंहके ६ अंश पर्यन्त बृहस्पतिकी ६ से ११ लौं शुक्रकी ११ से १८ लौं शनिकी १८ से २४ लौं बुधकी २४ से ३० लौं मंगलकी, और क न्याके ७ अंश पर्यन्त बुधकी ७ से १७ लौं शुक्रकी १७ से २१ लौं बृहस्प- तिकी २१ से २८ लौं मंगलकी २८ से ३० लौं शनिको 'हद्दा' होती है ॥ ३५॥ उपजा० -तुले रसाष्टाद्रिनग क्षभागाः कोणज्ञजीवास्फुजिदारनाथाः।। कीटे नगान्ध्य शरांगभागा भौमास् जिज्ज्ञेज्यशनैश्चराणाम् ॥ ३६॥ तुलाके ६ अंश पर्म्यन्त शनिकी ६ से १४ लों बुधको १४ से २१ लों बृहस्पतिकी २१ से २८ तक शुक्रकी २८ से ३० लों मंगलकी; और वृश्चिकके ७ अंश पर्यन्त मंगलकी ७ से ११लों शुक्रकी ११ से १९ लों बुधकी १९ से २४ लों बृहस्पतिकी २४ से ३० लों शनिको ॥ ३६ ॥ पजा०-चापे रवीष्वंबुधिपंचवेदा जीवास्फुजिज्ज्ञारशनैश्चराणाम् ॥ मृगे नगाब्ध्य युगश्रुतीनां सौम्येज्य कार्किकुजेशहद्दाः ॥ ३७॥ . धनके १२ अंश पर्यंत बृहस्पतिकी १२ से १७ लों शुक्रकी १७ से २१ लों बुधकी २१ से २६ लों मंगलकी २६ से ३० लोंशनिकी और मकरके ७ अंश पर्यन्त बुधकी ७ से १४ लों बृहस्पतिकी १४ से २२ लों शुक्रकी २२ से २६ पर्यंत शनिकी २६ से ३० तक मंगलकी 'हद्दा' होतीहै ३७॥ उपजा० - भेनगांगाद्विशरेषुभागाः ज्ञशुक्रजीवारशनैश्चराणाम् ॥ मीनेकवेदानलनंदपक्षाः सितेज्यसौम्यारशनैश्चराणाम् ॥ ३८ ॥ ^ कुंभके ७ अंश पर्यन्त बुधकी ७ से १३ लों शुक्रकी १३ से २० लों बृह- स्पतिकी २० से २५ लों मंगलकी २५ से ३० लों शनिकी, और मीनके १२ अंश पर्यन्त शुक्रकी १२ से १६ लों बृहस्पतिकी १६ से १९ लों बुधकी १९ से २८ लों मंगलकी २८ से ३० लों शनिकी 'हद्दा' होतीहै ॥ ३८ ॥ उपजा० - त्रिंशत्स्वभे विंशतिरात्मतुंगे हद्देक्षचंद्रा दशकं हकाणे | मुंशद्धहे पञ्चलवा: प्रदिष्टा विंशोपका वेदलवैः प्रकल्प्याः ॥ ३९ ॥ 1. भाषाटीकासमेता । (२३) - पंचवर्गी बलके न्यास इस प्रकारहैं, कि, गृहबलमें ३० विश्वेबल पाता है, उच्चबलमें २० विश्वे, हद्दामें १५ विश्वे, द्रेष्काणमें १० विश्वे और मुशल्ल - हमें ५ विश्वे; इन सबमें मिले हुये जोड़के ४ भाग देनेसे लब्ध विशोषक बल होताहै ॥ ३९ ॥ हद्दाचक्रम् । मे वृ |मिक | सिंक | तु | वृ | ध | म कुं| मी राशयः शु बु मंबू बुश मं बृ बु बु ६७ ७ 1 low w kw| 100V 1-1555-2 to wo: शु शु वुभ्र बृ बु श ८५ शमं श km) Foru E 1210 30 5 199 20 59 JH. oc (24 to our w 25 10 9 20 "क" x 24 624 6 16 aur 1 20 10 Janw9 ९ शश मंश श ४४५२ ग्रहाः अंशाः तथा तथा तथा तथा इंद्रवज्रा - स्वस्वाधिकारोक्तबलं हृद्धे पादोनम समभेरिभेङ्गिः ॥ एवं समानीय बलं तदैक्ये वेदोद्धृते हीनबलः शरोनः ॥ ४० ॥ - । O पूर्वश्लोकोक्त पंचवर्गी बलका नियम है कि, यह अपने गृहादि अधिकारों में पूर्ण बल और मित्रकेमें चौथाई कम, समग्रहके में आधा, शत्रुके अधिकार में चतुर्थांश बल पाताहै. जैसे पहिले स्थानवलमें अपनी राशिका ग्रह पूरे ३०।० बल और मित्र राशिमें पादोन २२ । ३० समकी राशिमें आधा १५ । • शत्रु राशिमें चौथाई ७ । ३० पाता है. दूसरे उच्चबलमें परमोच्चपर पूरे २० १० और परम नीचमें ● | ० बीचके राशियों में अंतर करनेसे मिलता है. उसकी विधि ( ३२ ) श्लोक (तत्सतमं नीचमनेन होने- त्यादि ) में कहागयाहै ( तीसरे ) हद्दाबलमें अपनी हद्दाका ग्रह १५ । ० पूरा और मित्रहद्दामें पादोन ११ | १५ में आधा ७ | ३० शत्रुमें चौ थाई ३ | ४५ बल पाता है. चौथे द्रेष्काण बलमें अपने द्रेष्काणका ग्रह पूरे और मित्रद्रेष्काणमें पादोन ७ | ३० सम आधा ५ | ० शत्रुमें १०।० ( २४ ) ताजिकनीलकण्ठी | चौथाई २ । ३० पांचवाँ ( सुशह ) नवांश अपने नवांशका पूरे ५ । ० वल मित्रका पादोन ३ | ४५ सममें आधा २ । ३० शत्रुनवांश में चौथाई १ | १५ बल पाता है. इस प्रकार पांचों बल लेकर सबका ऐक्य एक जुदे ( कोठमें स्थापन करना, उसमें ४ से भाग लेकर लाभ विंशोपका- मल होता है. उसे भी जुदे जुदे स्थानों में स्थापन करता ग्रह ५

अंक पर्यन्त निकट बल ५ से

  • १० पर्यन्त हीनबल १० से१५

0 मित्र सम ३० २० 0 ० २२ उच्च | हृद्दा | द्रेष्का./नवांश | १५ ७ उपरांत अनुपात से 202293 ११ 0 ७ (2) D' ० na-a २ ३० 6

शत्रु ४५ लों मध्य बल १५ से २० लों पूर्ण बली कहाता है, जैसा जिसका बल वैसा ही फलभी देता है ॥ ४० ॥ शालिनी क्षेत्र होरा व्यब्धिपंचांगसप्तवस्वंकांशेशाकंभागास्सुधीभिः॥ विज्ञातव्या लग्नसंस्थाः शुभान वर्गाः श्रेष्ठाः पापवर्गास्त्वनिष्टाः॥४१॥ अब द्वादशवर्गी बल कहते हैं. राशि १ होरा २ द्रेष्काण ३ चतुर्थांश ४ पंचमांश षष्ठांश ६ सप्तमांश ७ अष्टमांश ८ नवमांश ९ दशमांश १० एका- दशांश ११ द्वादशांश १२ ये द्वादश वर्ग हैं. पापवर्ग और शुभ वर्ग अलग करके देखना, शुभवर्ग अधिक पापवर्ग हीन हो तो वह वर्ष शुभ होगा, विप-

रीत होनेमें फलभी विपरीत होता है ॥ ४१ ॥

इन्द्रक० - ओज़े रवींद्रोः सम इंदुरव्योहोरे गृहार्द्धप्रमिते विचिन्त्ये ॥ देष्काणा: स्वेषु नवर्क्षनाथास्तुयशपाः स्वक्षंजकेंद्रनाथाः ॥ ४२ ॥ प्रथमवर्ग राशीश हैं. यहां आचार्य्यने पंचवर्गी प्रकरण ३० वें श्लोकमें कह दिया है. ग्रन्थांतरोंमें, "भौमशुक्रज्ञचंद्रा कंबुधशुक्रारमंत्रिणः ॥ शौरिश्शनि- स्तथा जीवो मेषादीनामधीश्वराः ॥ " ऐसा है. प्रयोजन वही है १. दुसरा बल होरा विषम राशिके १५ अंश पर्यन्त सूकी १५ उपरांत चंद्र- माकी समराशियें १५ अंश पर्यंत चंद्रमाकी १५ से ३० पर्वत सूर्यकी होरा ० भाषाटीकासमेता । (२५) १ होती है. तीसरा, द्वेष्काण प्रथम १० अंश पर्यंत उस राशिसे नवमीं राशिके स्वामीका द्रेष्काण होता है. इसीको त्रिभाग भी कहतेहैं. चौथा, चतु- अंश १ राशिके ४ चारोंभागों में ४ केंद्रोंके स्वामी जैसे ७।३० अंशप- य्यैत उसी राशि के स्वामीका ७ १३० से १५ अंश त उस राशिसे चौथी राशि स्वामीका १५ से २२ । ३० लो उससे सातवीं राशिके स्वानीका २२ । ३० से ३० ।० पर्यंत उससे दशवीं राशिके स्वामीका चतुर्थीश होताहै ॥ ४२ ॥ अनु० - ओज पंचमांशशा: कुजार्कीज्यज्ञभार्गवाः || समभे व्यत्ययाज्ज्ञेया द्वादशांशाः स्वभात्स्मृताः ॥ १३ ॥ पाँचवा, पंचमांश विषम राशिमें ६ अंश पर्यंत मंगलका ६ से १२ पु- र्यंत शनिका १२ से १८ लों बृहस्पति १८ से २४लों बुधका २४ से ३० लों शुक्रका, और समराशिमें विपरीत ६ अंशपर्यंत शुक्रका ६ से १२ लों बुधका १२ से १८ लों बृहस्पतिका १८ से २४ पर्यंत शनिका २४ से ३० लों मंगलका पंचमांश होता है. बारहवां ( द्वादशांश ) १ राशिके बारह विभाग २ अंश ३० कला होते हैं. जितने भागमें स्पष्ट स्वराशिसे उतने संख्यक राशि स्वामीका द्वादशांश होताहै ॥ ४३ ॥ उपजा॰-लवीकृतो व्योमचरोंगशैलवस्वंकदिशद्रगुणाः खरामैः।। भक्तो गतास्तर्कनगाष्टनंददिशुद्रभागाः कुयुताः क्रियात्स्युः ॥४४॥ पूर्व ६ । ७ १८ १९ | १० | ११ अंश छोडकर द्वादशांश कह दिया. अब इनके लिये यह रीति है कि लग्नादिभाव वा ग्रहस्पष्टकी - राशिको ३० से गुनाकर अंश छोडदिया. सभी अंश होगये. उपरांत षष्ठां-

शको ६ से सप्तमांशको ७ से अष्टमांशको ८ से नवमांशको ९ से दशमां- शको १० से एकादशांशको ११ से गुणाकर ३० से भाग लिया लब्धि छोडना शेष १ जोडके वर्त्तमान अंशेश होता है १२ से अधिक तो ३२ से शेष करदेना. यह टोकार्थ है. प्रकट यह है कि षष्ठांशको ३० (२६) ताजिकनीलकण्ठी | - आठवां अंशसे गुनकर ६ से भाग लिया लब्धि ५ एक भाग भया. विषम राशि हो तो मेषसे गिनना, सम राशि हो तो तुलासे गिनना. जैसे विषम राशि में ५ अंश पर्यंत मेषके स्वामी मंगलका ५ से १० लों वृषेश शुक्रका इत्यादि समराशिमें ५. अंश लों तुलेशशुक्रका ५ से १० लों वृश्चिकके मंगल का इसी प्रकार राशियोंके पष्ठांशेश जानना. सातवां सप्तमांश ३० अंशमै ७से भागदेके४।१७ १ १८ | १४ यह अंशादि सप्तमांश हुवा. विषम राशि हो तो अपनी राशि से गिनना समराशि हो तो उससे सातवीं राशिसे गिनना, जैसे विषम राशिमें ४ | १७ | १८ ३४ अंशादि पर्यंत उसीराशिके स्वामीका ८ | ३४ | १७ । ८ अंशादि तो उससे दूसरी राशि के स्वामीका और सम राशि हो तो ४ । १७ । १४ । ३४ अंशादि पर्यंत उस राशिसे सप्तमराशि के स्वामीका इससे ८ । ३४ । १७ । ८ पर्यंत इससे दूसरा अर्थात् स्पष्ट राशिस अष्टम राशिके स्वामी का सम्मांश होता है. ऐसेही सभीको जानना अष्टमांश ३० अंशमें ८ से भागलेकर ३ अंश ४५ कला होतीहैं चर राशिमें मेषसे गिनना. स्थिरमें धनसे और द्विस्वभाव में सिंहसे. जैसे- चर राशि १ । ४ । ७ ११० में ३।४५ अंशपर्यंत मेषका ७ । ३० लों वृषका. और स्थिरमें ३ | ४५लों धनका ७ | ३० लों मकरका और द्विस्वभावमें ३ | ४५ लौं सिंहका ७ । ३० लौं कन्याका इत्यादि सभी अष्टमांश जानना. नवें नवमांश. ३० अंशमें ९ से भागलेकर ३ अंश २० कला हुई, मेष, सिंह, धनका मेषसे, वृष, कन्या, मकरका मकरसे, मिथुन, तुला, कुंभका तुलासे, कर्क, वृश्विक मीनका कर्कसे, अर्थात त्रिकोण राशि विभागमें प्रथम चर -- संज्ञकसे गिनना. जैसे--मेष सिंह धनके ३ | २० लौं. मेषका ६।४० लौं वृषका और वृष कन्या मकरके ३ | २०ौं मकरका, ६ । ४० लौं कुंभका नवमांश होता है. ऐसेही सब राशियोंके नवमांश जानना दशवां दशमांश ३० में १० का भागदेनेसे ३ अंश दशमांश हुआ. मेप और .तुलाका मेषसे, वृष वृश्चिकका कुंभसे, मिथुन धनका तुलासे, कर्क मकरका . सिंहसे, सिंह कुंभका कुंभसे. कन्या मीनका मिथुनसे गिनना. जैसे- वेष और ✓ भाषाटीकासमेता ।. (२७) तुलाके ३ अंश लौं मेषका, ६ लौं वृषका, वृथ्विकके ३ लौं कुंभका ६ लौं मीनका इत्यादि जानना, ग्यारहवां एकादशांश ३० अंश में ११ से भाग लेकर २ अंश४३ कला३८ विकला होती हैं. गणना सब राशियों में प्रथम मे षका, दूसरा मीनका, तीसरा धनका, चौथा मकर का, पांचवां मिथुनका, छठा वृश्विकका, सातवां तुलाका, आठवां कन्याका, नववां सिंहका, दशमाँ कर्कका, ग्यारहवाँ वृषका एकादशांश होता है. बारहवां द्वादशांश ३० अंशमें १२ से भाग देनेसे २ अंश ३० कला हो, जिस राशिका द्वादशांश राहो प्रथम उसीसे गिनकर बारह राशिपर्यंत अढाई अढाई अंश प्रत्येक राशिस्वामीका द्वादशांश होता है. कोई २ अंश गणनाके मूल- वाक्य स्पष्टतर हैं, यहां आचार्योंने ग्रंथभूयस्त्वके कारण न लिखे. ग्रंथांतरों में ये हैं, - भौमशुक्रज्ञ चंद्रार्कबुधशुक्रारमंत्रिणः ॥ शौरिः शनिस्तथा जीवो मेषा- दीनामधीश्वराः १॥लग्नाद्धै जायते हारा सर्वलग्नेषु सर्वदा ॥ ओजराशिभवार्केन्दोः समे चंद्रार्कजा मताः॥२॥मेषादिसर्वराशीनां त्रिभागेषु यथाक्रमम् ॥ आद्यं पं- 1 • चनवेशानां द्रेष्काणा भणिता बुधैः ॥ ३ ॥ एकद्वित्रिचतुर्थेषु लम्रपादेषु च क्रमात् ॥ स्वस्वराश्यादिकेंद्रेशा पादांशनायका मताः ॥ ४ ॥ कुजार्कीज्यबुधाः शुक्रः पंचमांशेषु नायकाः॥ओजराशिषु युग्मेषु ग्रहा व्यत्ययतः स्मृताः ॥ ५॥ मेषाद्या विषमे राशौ समराशौ तुलादिकाः || विज्ञेया विधुधैरेवं राशिषष्ठांश- नायकाः ॥६॥ ओजराशौ स्वराश्यायास्समे सप्तमराशितः || सप्तांशनायकाः सर्वे विज्ञेया विबुधैः स्फुटाः॥७॥ मेषायाश्वरराशीनां चापायाः स्थिरराशिषु ॥ द्वि- स्वभावेषु सिंहाया ज्ञेयाश्चाष्टांशनायकाः ||८|| मेषमृगतुलाकर्कमुखाः स्युर्नव- मांशकाः॥मेषकेशरिधन्वादिराशिचक्रे व्यवस्थिताः ॥९॥ अजकुंभधनुस्तौलि सिंहयुग्मक्रमेण तु ॥ दशांशभावका लगे ग्रहानेवं विदुर्बुधाः ॥ १० ॥ मेषमीनघटा नक्र चापालितुलकन्यकाः॥सिंहकर्कटकामोक्षादिका रुद्रांशनायकाः ॥११॥ स्वस्वराश्यादिका ज्ञेया द्वादशांशकनायकाः ॥ एवं लभेत्र विज्ञेया बुधैर्द्वादश- वार्षिकाः ॥ १२॥ 'ये वामनोक्त श्लोक हैं.' प्रयोजन इनका पूर्व लिखा गया है इसप्रकार द्वारावर्गों जानना ॥ ४४ ॥ (२८) ताजिकनीलकण्ठी | अनु० - एवं द्वादशवर्गी स्याद्रहाणां बलसिद्धये ॥ स्वोच्चमित्रशुभाः श्रेष्ठा नीचारिक्रूरतोऽशुभाः ॥ ४५ ॥ इस प्रकार के वल सांधने के लिये द्वादशवगीं है, शुभग्रह और अपने उच्चगत ग्रह मित्र राशिस्थ ग्रह शुभ होता है, पापग्रह और नीचराशि- शत्रुराशिगत ग्रह अशुभ होता है. उच्च वा मित्र क्षेत्रगत ग्रह पाप भी शुभ पंक्ति में और नीच राशिगत शुभ भी पापपंक्ति में गिना जाता है. शुभपंक्ति अधिक होनेमें शुभ, अशुभ पंक्ति अधिक होने में अशुभ द्वादशवर्गी कहाती है. ऐसेही फल भी जानना ॥ ४५ ॥ उपजा-एवं ग्रहाणां शुभपापवर्गपंक्तिद्वयं वीक्ष्य शुभाधिकत्वे ॥ दशाफलं भावफलं च वाच्यं शुभं त्वनिष्टं त्वशुभाधिकत्वे ॥४६॥ इस प्रकार गृह होरादि द्वादश वर्ग स्थापन करके शुभ पंक्ति जुदी पाप ‘पंक्ति जुदी स्थापन करनी; शुभपंक्ति अधिक हो तो वह ग्रह दशाफल और भावफल शुभ देगा, पापपंक्ति अधिक हो तो अनिष्ट फल देगा यही विचार द्वादशव है ॥ ४६॥ उपजां०- रोपि सौम्याधिकवर्गशाली भोतिसौम्यः शुभखेच- रश्वेत्।। सौम्योपि पापाधिकवर्गयोगानेष्ट तेनिंद्यः खलु पापखेटः४ ॥ शुभग्रह शुभ वर्गाधिक हो तो अति शुभ होता है. पापवर्गाधिक होनेसे सौम्यभी निंय होता है. ऐसेही पापग्रह शुभ वर्गाधिक होनेसे शुभ और पाप वर्गाधिक होनेस अति निंय होता है. द्वादशवर्ग में भी यही विचार मुख्य है॥४७॥ उपजा ० - राशीशमित्र रिपुक्रमेण चिंत्यस्तनोस्तच्च तथैव युक्त्या || भावेषु सर्वेष्वपि वर्गचक्रं विलोक्य तत्तत्फलमूहनीयम् ॥ ४८ ॥ बहोंकी द्वादशवर्गी २ पंक्ति करके भावोंके साथ उनका संबंध देखना चाहिये. जैसे -- लग्नेश शुभग्रह शुभ राशिमें वा मित्रराशि वा उच्च राशिमें स्थित हो तो लग्न शुभवर्गाधिक भया. इससे लग्नसंबन्धी सभी शुभ फल होंगे, जो लन्न पापारिकवर्ग हो और उसका स्वामी पाप या पापराशिगत का शत्रु राशि वा नीचराशिमें हो तो लग्नसंवन्धी अनिष्ट फल अधिक होगा. . भाषाटीकासमेत्ता | ( २९ ) जहां एक प्रकार शुभ एक प्रकार अशुभ होंगे; जैसे- लग्नेश शुभ शुभराशिमें नीच वा शत्रुराशिस्थ हो अथवा लग्नेश पाप मित्रोच्च राशिस्थित हो तो मिश्र फल कहना. ऐसे ही द्वितीय तृतीय भावादिकोंसे भावसंबंधी फल • विचारना. किस भाव में कौन २ विचार चाहिये यह आगे कहते हैं ॥४८॥ अनु० - शरीरवर्णचिह्नायुर्वयोमानं सुखासुखम् || जातिः शीलं च मतिमामात्सर्वं विचितयेत् ॥ ४९ ॥ तनु १ धन २ सहज ३ सुहत ४ सुत परिपु६ जाया ७ मृत्यु ८धर्म ९ कर्म १० आय ११ | व्यय १२ ये द्वाहश भावों के नाम हैं. लग्नमें शरीरका शुभाशुभ कृशता वा पुष्टता वर्ण रक्तश्वेतादि ( रंग ) मशक तिलादि चिह्न, आयु बालं यौवनादि, अवस्था लघुदीर्घादि मान, बल (पराक्रम) सुखदुःख, ब्राह्मणादि जाति और आचरण इतने विचार करना यहां लक्षणमात्र कहा है बुद्धिमे विशेष इन्हींमें जानलेना ॥ ४९ ॥ : अनु० - सुवर्णरौप्यरत्नानि धातुव्यं सखा धने | विक्रमे भ्रातृभृत्याध्वपित्र्य स्खलितसाहसम् ॥ ५० ॥ सुवर्ण, चांदी, रत्नजात, लोहा, शीशकादि धातु, धनादि और मित्र उपलक्षणसे वस्त्र, मोती, पशु आदि धनसंज्ञक वस्तु इतनोंका विचार धनभाव से करना, और भाई, भगिनी, नाकर, मार्ग, पैत्रिक कर्मकी हानि, साहस, उपलक्षणसे व्यापार · पराक्रम, उद्यमादि इतनोंका विचार सहजभावसे करना ॥ ५० ॥ अनु० - पितृवित्तं निधि क्षेत्रं 'भूमिं च तुर्यतः ॥ . पुत्रे मंत्रधनोपाय गभविद्यात्मजेक्षणम् ॥ ५१ ॥ पितृसंबंधि वित्त शेवधि ( हँडेडा ) खेती आदि भूमि कर्म, घर उपलक्षण से जलज कर्म, भूमिशोधनादि, पाताल कर्म, माता सौख्य, मित्र बांधव, वाहन ( यानादि ) चतुर्थभावसे विचारना, और पुत्र मंत्र धन उपाय गर्भस्थिति विद्या संतान वृद्धि बंध उदरकर्म विनयादि पंचमगावसे विचारना. यहां पुत्रः आत्मज जो वाक्य एकही अर्थ के लिखे हैं इसका हेतु यह है कि दत्तकादि बारह प्रकारके पुत्र होते हैं आत्मज औरस ही होताहै ॥ ८५१ ॥ 2 ( ३० ) ताजिकनीलकण्ठी | अनु० - रिपौमातृलमांधारिचतुप्पाद्वंधभविणान् || द्यूने कलन्नवाणिज्यनष्टविस्मृतिसंकथा ॥ ५२ ॥ छठे भावमें मातुल ( माताके भाई,) रोग, शत्रु, चौपाया, पराश्रय, भय, ( व्रण ) विस्फोटकादिसे घावका दाग, और समम भावमें की व्यापार ( न- टता ) कुछ वस्तु खोयेजानेका विषय, विस्मरण, भूलका विचार करना. लममें शरीरके तुल्य सप्तममें के शरीरका विचार है, ऐसेही चतुर्थसे, मातृ- शरीर, दशमसे पिता, पंचमसे पुत्रका इत्यादि जानना ॥ ५२ ।। अनु० - हृताध्वकालमार्गादि चिंत्यं द्यूने ग्रहोऽशुभः || मृत्यौ चिरंतनं व्यं मृतवित्तं रणो रिपुः ॥ ५३ ॥ · दुर्गस्थानं तिर्नष्टंपरीवारो मनोव्यथा || सतमस्थान में और भी विचार विशेष है कि चोरीकी वस्तु, कलह, मार्ग, कामी विचार इसी भावसे होता है. और ७ में सभी ग्रह अशुभ हैं अष्टमभा- व पूर्वसंचित द्रव्य, आयु, धन, ऋण, संग्राम, शत्रु कोट दुर्गादि ( कठिन स्थान ) मृत्यु द्रव्यादि नष्ट, मानसी व्यथा इतना विचार है ॥ ५३ ॥ अनु - धर्मेरतिस्तथापन्थाधमोपायं च चिंतयेत् ॥५४ ॥ व्योम्नमुद्रां परं पुण्यं राज्यं वृद्धिं च पैतृकम् || नवम भावमें धर्मकार्य में प्रीति अप्रीति मार्ग पुण्य पाप भाग्य ऐश्वर्ण्यका विचार ॥ ५४ ॥ और दशम स्थानमें मुद्रा (मोहर) पुण्यकर्म, राज्यवृद्धि, पितृ- द्रव्य, और पितृशरीर इतने विचार करने | अनु० - आये सर्वार्थधान्यार्घकन्यामित्रचतुष्पदाः ॥ ५५ ॥ राज्ञोवित्तं परीवारलाभोपायांच भूरिशः ॥ व्ययैवैरिनिरोधार्त्तिव्ययादि परिचिंतयेत् ॥ ५६ ॥ गुप्त प्रकट धन, सुवर्ण, मणि, मुक्तादिकोंका लाभ, चतुष्पद, राजद्रव्य, मित्र, परिवार, कन्या, भूषण वस्त्रादि अनेक वस्तुओंका लाभ, हानि ग्यारहवें भावसे विचारना. बारहवें भावमें शत्रु का निरोध. पीडा. धनव्यय. नेत्र कर्ण रोगादि और नीच र्म इत्यादि विचार करना ॥ ५५ ॥ ५६ ॥ भाषाटीकासमेता । अतु०-लगांबुधूनकर्म्माणि केंद्रमुक्तं च कंटकम् || चतुष्टयं चात्र खेटो बली लो विशेषतः ॥ ५७ ॥ ( ३१ ) 1 लग्न १ चतुर्थ ४ सप्तम ७ दशम ११ इन भावों की संज्ञा केंद्रकंटक और चतुष्टय है चकारसे अनुक्त यहभी भास होता है कि केंद्रोंसे द्वितीयस्थान २ । ५ । ८ । ११ एणफर और इनसे भी दूसरे ३ । ६ । ९ । १२ ये आपोकिम कहते हैं केंद्र में जो ग्रह है वह बली होता है केंद्रों में भी लग्नका विशेष बलवान् होताहै जन्म वर्ष प्रश्न मुहूर्त्तादिकों में ऐसेही सर्वत्र करना चाहिये ॥ ५७ ॥ विचार . अनु०-लग्नकर्मास्ततुर्य्यायसुतांकस्थो बली ग्रहः ॥ यथादिमं विशेषेण सत्रिवित्ते चंद्रमाः ॥ ५८ ॥ 1 बलवान् ग्रह लग्न १ कर्म १० अस्त ७ तुर्य्य ४ आय ११ सुत ५ अंक९ इन स्थानों में अधिक बली होकर शुभफल अधिक देताहै इसमें भी विशेष यह है कि, नवम की अपेक्षा पंचम इससे ग्यारहवां ग्यारहवेंसे चतुर्थ चतुर्थ सप्तम सप्तमसे दशम दशमसे लग्नका क्रमसे अधिक बली होता है. यह नैस - र्गिक बलहै. और चन्द्रमा नवमें द्वितीय भावोंमें भी पूर्वोक्तभावों के तुल्य बली होता है इमसें भी द्वितीय से नवम विशेष है ॥ ५८ ॥ अनु० - कुजः सत्रि पृच्छायां सूतौचान्यत्रचिंतयेत् ॥ भावानवेत्थं शस्ताःस्युः स्वामिसौम्यैयुतक्षिताः ॥ ५९ ॥ .". पूर्वोक्तभावों से विशेष मंगल नवम भावमेभी बलाधिक होता है. यहवि चार प्रश्न जन्म और वर्षमुहूर्त्तादिकोमें सर्वत्र करना ये भावशुभ हैं इनमें ग्रह होकर शुभ फल अधिक देता है और अपने स्वामी व शुभ ग्रहसे युक्त जो भावहै वह अपने संबंधी फलको अच्छा देता है. स्वामी और शुभ ग्रह युक्त वा दृष्ट न हो तो अपना (फल) मध्यम न अतिशुभ न अति नेष्ट (३२) ताजिकनीलकण्ठी | देता है. जब पापग्रह और स्वामीके शत्रुग्रहसे भावयुक्त वा दृष्ट हो तो अपने फलोकों ( अनिष्ट ) बुरा करदेता है, जब स्वामीसे अन्य ग्रह कुछ शुभ और कुछ अशुभ हो तो मिश्रफल देता है जब भले या बुरे किसी ग्रहत्ते युक्त वा दृष्ट न हो तो मध्यम फल देताहै ॥ ५९ ॥ अनु० दीप्तांशातिक्रमेशस्ताइमेपीति विचिन्तयेत् ॥ ६० ॥ पूर्वोक्त स्वामी शुभग्रह योगदृष्टि में बुध बृहस्पतिके योगदृष्टि में चन्द्रमा शुक्रकी अपेक्षा से विशेष शुभ होता है. रिष्फ १२ अष्ट ८ रिपु ६ये स्थान नेष्ट हैं इनको त्रिकभी कहते हैं इसमें ग्रहबल हीन होकर अशुभ फल वि शेष देता है इनमें ग्रह अपने दीप्तांशों के भीतर उक्त फल देता है जब दीप्तांश से अधिक अंशपर पहुँच जाय तो अशुभ फल नहीं देता दीतांश सूर्य्य के १५ चन्द्रमाके १२ मंगलके ८ बुधके ७ बृहस्पति ९ शुक्रके ७ शनिके ९ इस प्रकार सर्वत्र भाव तथा ग्रहों की प्रीति विचारनी ॥ ६० ॥ उपजाति- त्रिराशिपाःसूर्यसितार्किशुका दिनेनिशीज्येंदु- बुधक्षमाजाः || मेषाच्चतुर्णी हरिभाद्विलोमं नित्यं परेप्वा- र्किकुजेज्यचंद्राः ॥ ६१ ॥ अब त्रिराशीश कहते हैं, मेवसे कर्क लौं सिंहसे वृश्चिक लौं धनसे मीन पर्येत राशिचक्र के ३ भाग हुये इससे त्रिराशीश नाम हुआ इनके स्वामी ऐसे हैं कि दिनके वर्षप्रवेशमें मेपका सूर्ण्य, वृषका शुक्र, मिथुन का शनि, कर्क का शुक्र और रात्रिवर्षप्रवेश में मेपका बृहस्पति, वृपका चंद्रमा, मिथुनका बुध, कर्कका मंगल, अब सिंहसे विपरीत अर्थात मेषादिकोंके जो दिनके वे सिंहादिकोंके रात्रिके और रात्रिवाले दिनके जैसे दिनके सिंहका गुरु, कन्याका चंद्रमा, तुलाका बुध, वृश्चिकका मंगल, उपरांत धनका शनि मक- रका मंगल, कुंभका बृहस्पति, मोनका चंद्रमा ये दिन रात्रिके वही स्वामी हैं जिसका विस्तार चक्र में भी लिखा है ॥ ६१ ॥ • भाषाटीकासमेता । . १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० १११२ शुशशु बृचं डु 11. राशि. चं दिनमें वृचं रात्रिमें ( ३३ ) वुमंसू शु श शु श ( अनु० ) वर्षेशार्थदिननिशाविभागोक्तास्त्रिराशिपाः ॥ पंचवर्गीबला द्यर्थद्रेष्काणेशान्विचितयेत् ॥ ६२ ॥ एकतो त्रिराशीश, द्रेष्काणको कहते हैं. दूसरे मेषादि दिनरात्रिविभाग- कोभी त्रिराशीश कहते हैं. इसमें कौनसा लेना इस लिये यह श्लोक है कि, दिनरात्रि विभागका त्रिराशीश तो वर्षेश निर्णयको लेना. क्योंकि पंचवर्गीमें अधिकंबली वर्षेश होताहै. परंतु पंचाधिकारियोंमें नहीं होगा तो वर्षेश नहीं होता. पंचाधिकारी जन्मलग्नेश वर्षलग्नेश मुन्थेश त्रिराशीश दिनमें सूर्य राशिपति रात्रिवर्ष प्रवेशमें चंद्रमाके राशीशये ५ होतें हैं, इन्हीके बीचका कोई जिसकी लग्नपर दृष्टि अधिक होने वह वर्षेश होता हैं. पंचवर्गी वर्गमें बली हो तो विशेष है हीनबली मध्यबळी हो तोभी पंचाधिकारियोंमेंसे लग्नपर दृष्टिवाला वर्षेश होताहै. कहीं चंद्रमा वर्षेश नहीं होता है ऐसाभी लिखा है, जहां सर्व- था चंद्रमाहीकी प्राप्ति वर्षेश होनेकी हो तो कैसे करना. इसकी व्यवस्था ऐसी है कि, चंद्रमा जिसके साथ इत्थशाल कर्त्ताहो वहवर्षेश होगा. फल चंद्रमाके तुल्य देगा. चंद्रमा स्वयं वर्षेश तोभी नहीं होता. दूसरे त्रिराशीश द्रेष्काण कोभी कहते हैं वह पंचवर्गीवलमें लेना यहां पंचाधिकारियोंमें त्रिराशीश इत्यादि. यही लेना ॥ ६२ ॥ ( शार्दूलविक्रीडित ) - श्रीगन्वयभूषणं गणितविञ्चितामणिस्त- त्सुतोऽनंतो नंतमतिर्व्यधात्खलमतध्वस्त्यैजनुः पद्धतिम् ॥ तत्सूनुः खलु नीलकंठविबुधो विद्वच्छिवानुज्ञया संतुष्टयैव्यदधाद्रहप्रकरणं संज्ञाविवेकेऽमलम् ॥ ६३ ॥ ग्रंथकर्ता अध्याय के स्थान में अपने नामादि श्लोकसे प्रकाश कतीहै कि, ३ (३४) ताजिकनीलकण्ठी | श्री शोभा विद्याविलासयुक्त गर्गाचार्ग्यके वंशका भूषण स्वरूप और गणितशास्त्रज्ञ चिंतामणि नामा आचार्यका पुत्र, अंनत नामा दैवज्ञ जिसकी ज्योतिष शास्त्र में अनंतबुद्धि थी और जिसने जनुः पद्धति ( जातक ग्रंथ ) दुष्टजनोंके मत काटनेनिमित्त रचे. इनका पुत्र नीलकंठ नामा पंडित महाभा-- प्यादि शास्त्रपारंगमने वेदशास्त्र और श्रौतमत्त कर्मानुष्ठान शील दाक्षिणात्य शिवनामाब्राह्मण के आज्ञानुसार समरसिंहोत ताजिक शास्त्रके आर्ग्या - छंदोंको दुर्योजक समझकर ' इंद्रवंशा प्रभृति अनेक छंदोंमें और ताजिक ग्रंथो का प्रकार सहित, इस संज्ञा प्रकरण में ग्रह प्रकरण बारह भाव पंचवर्गी द्वादशवर्गी प्रभृति सविस्तर कहे ॥६३॥ इति महीधरकंतायां ताजिकनीलकंठी- भाषायां राशिस्वभावनिर्माणपंचवर्गीभावकृत्यप्रकरणग्रहाध्यायः प्रथमः ॥ १ ॥ ( उपजाति ) सूर्य्योनृपोनाचतुरस्र मध्यंदिनदिक स्वर्ण चतुष्पदोशः || सत्त्वं स्थिरस्तिक्त पशुक्षितिश्च पित्तंजरन्पाटल मूलवन्यः ॥ १ ॥ अब ग्रह स्वरूप प्रकरण में प्रथम सूपका स्वरूप कहते हैं कि, जातिमें राजा ( क्षत्रिय ) पुरुष, चतुरस्र मध्याह्नबली, पूर्वदिशाका स्वामी, सुवर्ण धातु स्वामी अश्वादि चतुष्पदोंका स्वामी, पाप ( क्रूर ) सत्वप्रधान. सद्गुणवान् स्थिर प्रकृति. तिक्त ( तीता ) रसको प्रियमाननेवाला पशु भूमि - चारी पित्तप्रकृति वृद्धावस्था. वेतरक्तवर्ण मूलवस्तु वनचारी ॥ १ ॥ ( उपजातिच्छन्दः ) वैश्यः शशी स्त्रीजलभूस्तपस्वी गौरा पराह्नांबुगधातुसत्त्वम् ॥ वायव्यदिक्श्लेष्मभुजंगरूप्यस्थूलो युवाक्षा- रशुभः सिताभः ॥ २ ॥ 'चंद्रमाकां स्वरूप, वैश्यजाति वणिग्रवृत्ति स्त्रीग्रह जल भूमिचारी तपकर. नेवाला. उज्ज्वल वर्ण ( गौररंग ) अपराहूबली जलचारी गैरिकादि धातु स्वामी सत्यप्रधान वायव्यदिशाका स्वामी, श्लेष्म ( कफप्रधान ) भुजंग (सर्पों ) का स्वामी रौप्य द्रव्यका पति. स्थूल तरुणावस्था. लवणादिक्षार रसप्रधान, सौम्यग्रह शुभवर्ण. इतने रूपादि चंद्रमाके हैं ॥ २ ॥ 4 भाषाटीकासमेता ( ३५.) (उप ० ) - भौमस्तमः पित्त वोग्रवन्योमध्याह्नधातुर्यमदि, चतुष्पात् it नाराट्चतुष्कोणसुवर्णकारोदग्धावनीव्यंगकटुश्च रक्तः ॥ ३ ॥

मंगल तमोगुणी. पित्त प्रकृति युवावस्था, उग्र, पापग्रह, वनचारी, मध्या-

लंबली. धातु प्रधान. दक्षिण दिशाका स्वामी, चौपाया पुरुष ग्रह. राजा यदा क्षत्रियजाति. चौकोण रूप. स्वर्णकारादियोंका स्वामी दग्धभूमिचारी अंगहीन. कड़वारसप्रिय ताम्रवर्ण ताम्रादिद्रव्यका स्वामी. इतने • मंगलकेहैं ॥ ३ ॥ . े 1 - (उप ० ) ग्राम्यः शुभोनीलसुवर्णवृत्तः शिश्वि कोच्चः समधातुर्ज :॥ श्मशानयोषोत्तरदिक्प्रभातं शूद्रः खगः सर्वरसो रजो: ॥ ४ ॥ बुध ग्राम्य सौम्यग्रह नीलरंग सुवर्णधातुका स्वामी ( वर्तुल ) वृत्ता- कार बाल्यावस्था ईंटोंसे ऊंची भूमिका चारी, सम धांतुजीव वात पित्त कफ तीनों बराबर जीवरक्षा करनेवाला श्मशानवासी ग्रिह उत्तर दिशाका स्वामी प्रातः कालबली शुद्रवर्ण पक्षिजाति कटुकादि सर्व रसप्रधान रजोगुणी है ॥ ४ ॥ उप० - गुरुः प्रभाते नृशुभेशदिग्विजः पीतो द्विपाद्ब्राम्य त्तजीवः ॥ वाणिज्यमाधुर्य रालयेशो वृद्धः सुरत्नं समधातुसत्त्वम् ॥ ५ ॥ बृहस्पति प्रातः काल बली, पुरुष, सौम्यग्रह, ईशान दिशाका स्वामी ब्रा णवर्ण, पीतरंग, दोपैया, ग्रामांतरचारी, सुवृत्ताकृति, जीवप्रधान, वाणिज्य का स्वामी मधुर रसप्रिय देवतालय स्वामी, वृद्धावस्था, पुष्परागादि सुरत्न स्वामी, समधातु ( वातपित्तकफात्मक ) सत्त्वगुण प्रधान है ॥ ५ ॥ उपजाति - शुक्रः शुभः जिलगोपरा : श्वेतः कफी रूप्यरजोम्लमू- लम् ॥ विप्रो दिङ्मध्यवयोरतीशोजलावानः स्त्रिग्धरुचिद्विपाञ्च ॥ ६ ॥ शुक्र सौम्यग्रह स्त्री जलचारी अपराह्नवली श्वेतवर्ण कफप्रकृति रूपा धातु रजोगुणी. खट्टा रसप्रिय मूल वस्तुस्वामी ब्राह्मण वर्ण आय दिशाका स्वामी युवावस्था. रति क्रीडारसप्रियः जलमयभूमिवासी कोमल. चपु द्विपाद मनुष्यजाति है ॥ ६ ॥ ताजिकनीलकण्ठी | उपजाति–शनिर्विहंगोनिलवन्यसंध्या शूद्रांगनाधातुसमः स्थिर || .: प्रतीचीतुवरोतिवृद्धोत्करंक्षितीड् दीर्घसुनीललोहम् ॥ ७ ॥ शाने पक्षिजाति, वायु प्रकृति वनवासी संध्यावली शुद्रजाति. स्त्रीह समधातु. स्थिर क्रूर पश्चिम दिशाका स्वामी कृपाय ( काथ कांजिक आदि ) रसप्रिय. अतिवृद्धावस्था उत्कर भूमिका स्वामी दीर्घाकृति मुन्दरनी - लवर्ण लोहधातु. ऐसा रूप शनिकाहै ॥ ७ ॥ - उपजाति - राहुस्वरूपंशनिवन्निपादजातिर्भुजंगोस्थिपनैर्ऋतीशः ॥ केतुः शिखी तद्वदनेकरूपः खगस्वरूपात्फलमित्थमूह्यम् ॥ ८ ॥ (३६) राहुका स्वरूप शनिके तुल्य है. परन्तु निषाद जाति. सर्पाकार मृत हड्डियों का स्वामी नैर्ऋत्यदिशाका स्वामी इतना विशेपहे. और केतुका रूप शनि यद्वा राहुके तुल्य है. परन्तु शिखाबान और तुल्य बढस्वरूपवाला है इतना विशेष है, ग्रहस्वरूपका प्रयोजन जैसे राशि स्वरूपादि बतलानेमें, ब्राह्मणादि जाति, बाल्यादि अवस्था, ग्रामारण्यादि स्थानज्ञान, वाग्वादि प्रकृति. चतुरस्रादि आकृति पाटलादि वर्ण विचार कहते हैं अथवा कैसा शत्रु वा मित्र मिलेगा, इत्यादि प्रश्नमेंभी यही विचार है बलवान् ग्रहके सदृश मूर्ति और ताम्रादि धातु. जन्म वर्ष यात्राप्रश्नादिमें कहते हैं ॥ ८ ॥ वर्षलेखनक्रम, शक मास तिथ्यादि के उपरान्त ग्रहतात्कालस्पष्ट, भावस्पष्ट ग्रहकुंडली, तदनंतर सुन्या कुंडली, नवांश अर्थात् मुशल्लह द्रेष्काण अर्थात् द्रिकाण हद्दा और जन्म कुंडली स्थापन करके, पंचवर्गी द्वादशवर्गी चक्र स्थापन करना, तदनंतर पंचाधिकारी और पोडश योग विचारार्थ स्पष्ट दृष्टिचक्र स्थापन करना, उपरान्त सहम और दशा अन्तर दशाका न्यास होता है, यह सूक्ष्म न्यास है, विशेष वर्पपत्र में बहुत प्रकार चक्र और दशा लिखी जाती हैं, आपाटीका समेता | अथ ग्रहाणां वर्णादिच । ग्रह सूर्य चंद्रमा मंगल बुध वृहस्प शुक्र शनि राहु ति केतु वर्ण क्षत्रिय वैश्य क्षत्रिय शूद्र' ब्राह्मण ब्राह्मण निषाद शूद्र निषाद निषाद पुरुष स्त्री स्त्री पुरुष पुरुष पुंस्त्री पुरुष स्त्री पुरुष स्त्री वर्तुल चतु आकार चतुरस्र स्थूल को. वृत्त वृत्त दीर्घ दीर्घ दीर्घ | पुच्छ समय मध्या अपरा मध्याह्न प्रभात प्रभात अपरा| अपरा अपराह्न अपराह्न दिशा पूर्व वायव्य दक्षिण उत्तर ईशान आनेय पश्चिम नैर्ऋत्य नैर्ऋत्य धातु सुवर्ण रौप्य सुवर्ण कांस्यादि रसुव रौप्य होई पाद बहुपाद द्विपाद द्विपाद द्विपाद सौम्या दि पित्तादि धातु गुण सत्त्व सत्त्व तम रज सत्त्व रज चरादि स्थिर चर | द्विस्त्र भा. रस तिक्त क्षार कटुक सर्वरस मधुर अम्ल भूमि पशुप्रा वाणि. य सुराल. पित्त श्लेष्म पित्त समधा. समधा. चतु ष्पाद उग्र सौम्य उग्र शुभ शुभ शुभ अव चतु घ्पाद स्था 'धात्वा दि वृद्ध युवा युवा युवा वृद्ध युवा गौर वर्ण पाटला श्वेत चर स्थिर | चर स्थान वन जल रक्त नील पीत मूल | जीव धातु जीवं जीव भुजंग अपादा (३७) पाप पाप अपाद अपाद कषाय क्वाथ जलभू दग्ध इमशा. जलभू उत्कर ऊपर ऊपर कफ वायु शुक्र अस्थप अ० वृद्ध वृद्ध श्वेत नील नील वायु तम तमं तम पक्षी स्थिर पाप न्चर पक्षी मूल | मूलं धातु वन ग्राम ग्राम ग्राम | संधि | विवर कषाय कराय वायु वृद्ध धूम्र धातु विवर (३८) ताजिकनीलकण्ठी । ( शार्दूलवि० ) दृष्टिः स्यान्नवपञ्चमे बलवती प्रत्यक्षतः स्नेहदा पादोनाखिलकार्य्यसाधनकरी मेलापकाख्योच्यते ॥ गुप्तस्नेहकरी तृ ीयभवने कार्य्यस्यसंसिद्धिदात्र्यंशोना कथिता तृतीयभवनेषड्भा- गदृष्टिर्भवे ॥ ९ ॥ अब दृष्टिका विचार कहते हैं कि यह अपनी आक्रांत राशिसे नंबम और . पंचमस्थ ग्रह. अथवा भावको पादोन ४५ | ० दृष्टि से देखता है यह बल - वान दृष्टिहै. मेलापका इस्का नामहै परस्पर प्रीति देती है. मित्रस्वजनादियोंका सुख और धन सम्पत्ति देती है. यह प्रत्यक्ष स्नेहदृष्टि हुई सम्पूर्ण का यह भावजन्य साधन करतीहै । द्वितीय स्वकीय स्थानसे तृतीय ३ स्थानमें और ११ एकादशस्थान में कमसे तृतीयांशोन ४०।० तथा पड़भाग १०/० दृष्टि होती है इस्कानाम गुप्तस्नेहा. और सर्वत्र कार्य सिद्धि देनेवाली दृष्टि होतीहै. ये दोनहूं ३।११ दृष्टिस्नेह बढ़ावनेहारी पुत्रसुख और आयु धनको बढ़ातीहै ॥ ९ ॥ ( शार्दूल०) दृष्टिः पादमिता चतुर्थदशमे गुप्तारिभावास्मृतान्योन्यंस- समभेतथैकभवनेप्रत्यक्षवैराखिला ॥ दुह, त्रितयंक्षुताह्वयमिदं का - स्य विध्वंसकृत्संग्रामादिकलिप्रदं दृशइमाः स्युर्द्वादशांशांतरे ॥१०॥ यह अपनी आक्रांत राशिसे चतुर्थ ४ दशम १० स्थानमें चतुर्थीश १५ कलादृष्टि देखता है. इसका नाम गुप्तारि दृष्टिहै, और परस्पर सम्म ७ भावमें पूर्णदृष्टि ६० कला देखता है, इसका नाम प्रत्यक्षवैरा है, और ऐसेही एक भावस्थ ग्रहोंमे॑भी प्रत्यक्षवैरादृष्टि होती है. ये तीनों दृष्टि क्षुत संज्ञक हैं अनि- एफल देती हैं कार्ग्यका नाश करनेवाली संग्राम कलह आदि क्लेशफल करती हैं. यहां प्रत्यक्षनेहा १ गुप्ता २ गुप्तपैरों ३ प्रत्यक्षवैरा ४ और एक स्थानस्थिता अत्यन्तवैरा ५ पांच प्रकार दृष्टि कही हैं. परन्तु बारह अंशके भीतर अर्थात जो देखनेवाला है उसके स्पष्ट अंशोंसे जिसे देखता है इसके स्पष्ट अंश बारह १२ अंशके भीतर हो तो दृष्टिका उक्तफल पूर्ण देता है बारह अंशके उपरांत कुछ लक्षणमात्र उक्तफलको देता है. पूराफल नहीं देता है इसका गणित उदाहरणसहित आगे कहते हैं ॥ १० ॥ - . भाषाटीकासमेता । ( उपजाति ० ) अपास्यपश्यन्निजदृश्यखेटा देकादिशेषेध्रुवाल - प्तिकाःस्युः।। पूर्णैखवेदास्तिथयोक्षवेदा खंषष्टिरभ्रंशरवेदसंख्या।॥ ११॥ तिथ्यः खचंद्रावियदतर्काः शेषांकयातैष्याविशेषघातात् ॥ लब्धं “खर मैरधिकोन कैष्येस्वर्णध्रुवेताः स्फुटदृष्टिलिप्ताः ॥ १२ ॥ इन दोश्लोकों का युग्म होनेसे अर्थ दोनोंका इकट्ठे लिखते हैं कि, जो ग्रह देखता है वह द्रष्टा और जिसे देखता है वह दृश्य कहता है. दृश्य ग्रह राश्या- दिमें द्रष्टाग्रह राश्यादि स्पष्ट घटाय देना. शेष एक आदिक राशिमें शून्या- दि कलात्मक दृष्टि ध्रुवक होता है. जैसे एक शेष होतो दृष्टि ध्रुवक शून्य हुवा. दो शेष रहनेमें ४० तीन शेष में १५ चारमें ४५ पांचशेष में • छः में ६० सातमें • आंठमें ४५ नौमें १५ दशमें ११ ग्यारहमें ● बारहमें ६० जहां शून्यर है, जैसे ११५/७/११ में है तो दृष्टि साधन प्रकार ऐसा है कि, दोनों १ २३ ४.५६ ८/९/१०/११/१२ ०२/४०/१५४५० ६००४५ १५/१०/० ६० स्पष्टोंके अंतरसे शेष अंशादिका शेषांक नामहै तथा प्राप्त ध्रुवक और ध्रुवकको अंतरयातैष्य विशेषं नामक हैं. शेषांकको यातैष्य विशेषसे गुणना वीससे भागलेना लब्धि, पूर्वोत ध्रुवकोंमें जैसा गत गम्य है. आगेका अधिक होतो धन करना आगेका ध्रुवक पूर्व ध्रुवकसे न्यून हो तो ऋण करना. इस प्रकार दृष्टिकला सिद्ध होती है. ( उदाहरण ) भौमस्पष्ट ४ । १३ । ३७ । ९ शुक्र १ | २४ । ५२ । ४५ इनकी आपसमें चतुर्थ दशम दृष्टि है. यहां द्रष्टा शुक्र और दृश्यमंगल है. भौमस्पष्ट में शुक्रस्पष्ट घटाया शेष २|१८|४४।२४ राशिशेष रही तो २ का ध्रुवक ४० गत ध्रुवक हुवा. एष्य ध्रुवक ३ के नीचेका १५ है. इन्का अंतर २५ शेष अंशादि १८०४४। २४ गुन दिये ४६ ८/३०1० अंशके स्थानमें ३० से भाग दिया लब्धि कलादिफल १५। ३७। ० अग्रिम ध्रुवक अधिक होता तो यह गत ध्रुवकमें जोड़ देनाथा. यहां अग्रिम १५ गत ४० से न्यून होतो ४० में लब्धि घटाच दिया शेष २४।२३।० यह कलादि दृष्टि हुई जब मंगलकी दृष्टि शुक्र परगि(४० ) ताजिकनीलकण्ठी | ननी है तो द्रष्टा मंगल दृश्य शुक्र हुवा पूर्ववत् विधीसे दृष्टि १३।७।२४ होती है ऐसेही सभीका जानना ॥ ११ ॥ १२ ॥ . ( शार्दूल वि० ) – पश्यन्मित्रहशा सुहृद्विपुशा शत्रुः समास्त्वन्यथा तिथ्यकाष्टन गांकशैलखचराः सूर्य्यादिदीप्तांशकाः || चक्रेवामहगु च्यते बलवती मध्याद्यथावेश्मनीत्येकक्षैपिगुच्यतेर्थजननीत्येके विदुःसूरयः ॥ १३ ॥ नवम पंचमकी प्रत्यक्ष दृष्टि जो यह देखता है. वह तत्काल अघि- मित्र होता है. और जो तीसरे ग्यारहवेंमें गुप्त स्नेह दृष्टि देखता है. यह तात्का- लमैं मित्र है, जो ग्रह चतुर्थ दशम में गुप्त शत्रु दृष्टि देखता है वह तात्कालमें शत्रु होता है; और जो १ | ७ स्थानों में प्रत्यक्ष शत्रु दृष्टि देखता है वह अधि शत्रु होता है इनसे उपरांत २|६|८|१२स्थानों में दृष्टि तो गणितसे कियद्भाग- मात्र जैसे कही ०1० भी होजाती है, परंतु तत्कालमें पूर्णभाग दृष्टि न होनेसे वह सम कहाता है यह तात्काल मैत्री हुई और नैसर्गिक मैत्री ताजिकांतरोंसे यह है कि, "मित्राण्यारशशांकशक्रन्सचिवाः सौम्याकंदेवाचिं- ता. जीवा केक्षणदाधिपा शनिसितौ मंदज्ञशुका इमे ॥ सूर्ग्यात्स्यू रिपवन्ध ता- जिकमते शेपा बुधैश्वोदिताः” इति १ इसका अर्थ चक्रसे समझना ये नियत "नैसर्गिकमैत्रीचक्रहै | ग्रहाः सूचं मं बु बृ शु श रा मित्र शत्रु हैं. प्रयोजन कहते हैं कि जो ग्रह नैसर्गिक मैत्री और तत्का- लमेभी मित्र है वह अधिमित्र होता है, जो नैसर्गिकमें शत्रु और तात्काल भी शत्रु है वह अधिशत्रु होता है. वृह जो एक चक्रमें मित्र दूसरेमें शत्रु है वह समकहाता है. परंतु यह मत जातकोंका मुख्य है. मित्रामित्रीका विचार पूर्वोक्त पंचवर्ग्यादिविचारमें काम आता है. लग्नादि द्वादश भाव चक्रमें मित्राणि सं शत्रवः 100 109 559 55 115 ) 5-95 pre 1595 59h F 912 1395. 13929 139595 शशश मं मं में मैं -भाषाटीकासमेता 1 (४१) चाम दक्षिण दो प्रकार दृष्टि होती है. जैसे लग्नसे सप्तमपर्यंत दक्षिण दृष्टि और -सप्तमसे लग्नपर्यंत वामदृष्टि होती है, प्रयोजन यह है कि, एक भावस्थदृष्टि निर्बल और वामदृष्टिकी अपेक्षा दक्षिण दृष्टि बलवती होती है इसमें इनमें से दशमस्थ ग्रहपर सप्तमस्थके चतुर्थ होनेसे अतिबलवती होती है और किसी २ आचार्य्योका मत है कि एक स्थान स्थित ग्रहोंकी परस्पर दृष्टिमी अति चलवती अर्थात् कार्ग्य साधन करनेवाली होती है. विशेषतः शुभफल देती है. अब दीप्तांश कहते हैं- सूर्य्यके १५ अंश एवं चन्द्रमाके १२ मंगलके • बुधके ७ गुरुके ९ शुक्र के ७ शनिके ९ राहु केतु शनिवत् ९ । ९ दीप्तांश हैं, मतान्तरसे सभी ग्रहों के दीप्तांश बारह मात्र हैं, दृश्यग्रह द्रष्टाग्रहके दीतांश के भीतर होवे तो इत्थशाल तथा सम्बन्ध योगादिफल शुभ वा अशुभ पूरा देता है. दीप्तांशसे ऊपर होजानेमें फल पूरा नहीं देता. यही दीप्तांशोंका तात्पर्य है, आगे षोडश विशेष योगमें काम आवेगा ॥ १३ ॥ ( अनु० ) पुरः पृष्टेस्वदीतांशैर्विशिष्टंकूफलंग्रहः ॥ दद्यादतिक मे॒तेषांमध्यम॑ह॒क्फलं विदुः ॥ १४ ॥ इति नीलकंठ्यां ग्रहचारदृष्टि - विचाराऽध्यायो द्वितीयः ॥ २ ॥ दीप्तांशों का प्रयोजन विशेष कहते हैं कि जो ग्रह नवम पंचमादि दृष्टि देखताहै और जिसे देखता है ये दोनहूं अपने दीप्तांशों के भीतर हो तो इत्थशाल और दृष्टि आदिका नियत फल विशेष देते हैं. जो दीप्तांशोंसे अधिक अंशपर द्रष्टा दृश्य ग्रह हों तो उक्त फल साधारण देते हैं ॥ १४ ॥ इति महीधरकृतायां नीलकंठीभाषायां ग्रहचारदृष्टिविचारीध्यायद्वि० ॥२॥ अथ षोडशयोगाध्यायः । ( उपजाति ० ) प्रागिक बालोऽपरइंदुवारस्तथेत्थशालोऽपरई- - शराफः ॥ नक्तंततः स्याद्यमयामणूऊकंवूलतोगैरिकबूलमुक्तम् ॥ १ ॥ ( इंद्रवज्रा० ) खलासरं रद्दमथोदुफालिकुत्थंचदुत्थोत्थ दिवीरनामा ॥ तंवीर त्था दुरफश्च योगाः रु : षोडशैषां कथयामि लक्ष्म ॥ २ ॥ (४२) ताजिकनीलकण्ठी | अब पोडश योगाध्याय में प्रथम इनके नाम कहते हैं. पहिला इक्क-- वाल, दूसरा इंदुवार एवं इत्थशाल ३ ईशराफ ४ नक्त ५ यमया ६ मणूऊ७. • गैरिकंबूल ९ खल्लासर १० रद्द ११ दुफालिकुत्थ १२ दुत्थो-- त्थदिवीर १३ तँवीर १४ कुत्थ १५ दुरफ १६ ये संज्ञा हैं इनके लक्षण आगे कहते हैं ॥ ० ( २) कम्बूल ८ ● ( वसन्तति ० ) चेत्कंटकेपणफरेचखगाः समस्ताः स्यादिकबाल- इतिराज्यसुखाप्तिहेतुः || आपोक्किमे यदि खगाः सकिलेंदुवारो न स्याच्छुभः क्वचन ताजिकशास्त्रगीतः || ३ || जो सभी ग्रह कंटक १४ । ७ । १० और पणफर २ | ५ | ८ | ११. स्थानों में हों अर्थात् आपोक्किम ३।६।९ | १२ में कोई यह न हो.. तो इस योगका नाम, इक्कवाल है, इसका फल, राज्य सुख है, वह मनुष्यों को .कुलानुमान होता है, अथवा जिसके वर्षमें अरिष्ट योग हो, वह आरिष्टही इक्कवाल योगके फलसे भंग होजायगा, दूसरे येभी ग्रह आपोक्लिम ३ । ६ । ९ । १२ में हों अर्थात् इकवालोक्त कंटक १ । ४ । ७ १. १० पणफर २ । ५ । ८ । ११ में कोई ग्रह न हो तो इस योगका नाम इंदुवार है.. इसका फल अनिष्ट है, इन्दुवारनामहीका अर्थ शुभका विपरीत अर्थात् अशुभ है, ऐसाही फलभी है, इनका उदाहरण कुण्डलियोंमें लिखा है ॥ ३ ॥ इक्कवालयोग. इन्दुवारयोग. बृरा १२ सू २ CH ७४ 13 ५ २ ४ कुंडली. ८ शु ४ ७ बृ १२ १०ज्ञ शमंके ( इं०व० ) शीघ्रोल्पभांगर्धनभागमंदेऽग्रस्ते निजतेजउपादद्दीत || .. स्यादित्थशालोयमथोविलिप्तालिप्ताईंहीनोयदिपूर्णमेतत् ॥ ४ ॥ रा ११ मंट भाषाटीकासमेता । (४३) ४ मंदगतिग्रह बहुत अंश होके आगे बैठा हो और शीघ्र गति अल्प अंशपर हो और दृष्टि दोनों की दीप्तांशके भीतर होतो शीघ्रग्रह अपना तेज अग्रगत मंदग्रह को दे देता है इसको मुथशिलयोग कहते हैं. यह योग चार प्रकारका होता है. प्रथम वर्तमान मुथशिल १ परिपूर्ण मुथशिल २ राश्यन्त राश्यादि स्थित शीघ्र मंद ग्रहोंसे वर्त्तमान मुथशिल ३ भविष्यन्मुथशिल ४ शीघ्र और मंदगत स्पष्टसे जाननी, यहां मंदगतिका प्रयोजन नहीं है. तत्काल स्पष्टकी गतिसे शीघ्र वा मंदग्रहं समझना. और मुथशिल नाम इत्थशालका है. यहां प्रथम वर्त्तमान मुथशिल योगका उदाहरण कहते हैं. शीघ्रगतिवाला ग्रह मंद- गतिवालेसे न्यून अंशपर हो, वस्तुतः शीघ्रके दीप्तांश संख्याके भीतरहो, और दोनोंकी परस्पर. 'नवम पंचमादि उक्त दृष्टि होतो इसका नाम वर्त्तमान इत्थ शाल हुआ फल है कि शीघ्र अर्थात् पृष्ठगत ग्रह अपना तेज (सामर्थ्य ) मंद- • गति ग्रहको देदेता है इसका फल पूर्ण मुथशिलसे न्यून होता है. अब पूर्ण मुथशिलयोगका उदा- हरण कहते हैं, वर्त्तमान चं इत्थशाल के तरह दृष्टि १२ और शीघ्र और अल्प अंशा: वर्तमान मुशिल सू २० परिपूर्ण मुथशिल ११ श ४ भाग मंदग्रह बहुत अंश- पर हो परंतु शीघ्र ग्रह मंदग्रहके बराबर, अंशके पर हो केवल कला अथवा विकला मात्र न्यून हो तो इसको पूर्ण इत्यशाल कहते हैं फलभी इसका पूर्ण होता है; ५ में दो प्रकारके हुये ॥ ४ ॥ इंद्रवज्रा - शीघ्रोयदाभांत्यलवेस्थितः सन्मंदेऽन्यभस्थे निदधाति तेजः ॥ स्यादित्थशालोयमथैषशीघ्रदीप्तांशकांशैरिहमंदपृष्ठे ॥ ५॥ तदाभविष्यद्गणनीयमित्थशालं त्रिधैवं थशीलमाहुः || लग्नेश कार्य्याधिपयोर्यथैष योगस्तथा कार्यमुशंति संतः ॥ ६॥ शीघ्र ग्रह २९ अंश राश्यतमें हो अर्थात् जिस राशिसे मंदर पूर्ण (४४.) ताजिकनीलकण्ठी । दृष्टि होती है उसमें जाता हो और मंदग्रह स्वल्प अंशपर हो जैसे मंगल २९ अंश धनस्थानमें है. तीसरे स्थानमें जाना चाहता है. दूसरा मंदग्रह शनि ग्यारहवें भाव में ४ अंशपरहै यहभी वर्त्तमान मुथशिल योगहै. राश्यंत राश्या- दिस्थ वर्त्तमान, इसे कहते हैं अर्थात् मंगल तीसरे भावमें जानेको तैयार हैं वहां पहुँच कर शनिसे इत्थसालकरने वालाहै ३ चौथा शीघ्रग्रह मदग्रहसे न्यून अंशपर और पूर्ण दृष्टि परस्परहो परंतु शीघ्र ग्रहके, उक्त दीप्तांशों' के अंतर्गत मंद न हो। किंतु शीघ्र स्वदीमांशों में राश्यां- तराज्यादिस्थ वर्तमानमु शिल बु १२ २० अंतर मंदग्रह को लेना चाहता हो, जैसे तीसरे भाव में बुध १२ अंशपर और ग्यारहवेंमें बृहस्पति २० अंशपरहै तो बुधके दीप्तांश ७ से अधिक परहै 'परंतु बुध बृहस्पतिका स्वदीप्तांशांतर्गत करना चाहता है. इसको भविष्य -मुथशिल योग कहते हैं ये ४ चार उदाहरण हैं. प्रकार तो मुख्यतः तीनहीं हैं वर्त्तमान, पूर्ण, और भविष्य, परंतु वर्त्तमानके २ प्रकार होनेंसे यहां उदाहरणमें चार भेद करदिये और मुथशिल मुत्थशिल मुत्थशील मूथशील ये चारप्रकारचे नाम एक इत्थशाल केहीहैं. अब इनके फल कहते हैं कि जिस भाव संबंधी काहै उसके स्वामी और लग्नेशका इत्यशाल होनेमें उसकार्य की सिद्धि होती है. कार्घ्य भाइयोंके निमित्त तृतीयेश संतानार्थ पंचमेश राज्यार्थ. दशमेश और जायार्थ सप्तमेश इत्यादि पू- वक्त भाव कर्मोंसें कार्येश जानना जैसे संतान प्रश्नमें लग्नेश पंचमेशका इत्यशाल योग और स्त्री प्रश्नमें लंग्नेश सप्तमेशका, एवं राज्यप्रश्नमें लग्नेश दश- मेशका योग विचारना और इन ४ प्रकार के इत्थशालोंमें यह विचारमी मुख्य चाहिये कि ३ । ११ और ५२९ भाव संबंधी इत्थशाल तद्भावजन्य शुभफल करतेहैं; क्योंकि ये मित्र दृष्टिहैं और ११७तथा ४ | १० इन भाव संबंधी इत्यशाल तद्भावोक्त फलको अनिष्ट कर देते हैं. अर्थात् तद्भावोत्थ- C विष्यन्मुथाशिल भाषाटीकासमेता | (४५) कार्य्यको नाश करदेते हैं. यह शत्रुष्टिका प्रभाव है यहफलका शुभाशुभ, पूर्वदृष्टि विचार दशवें श्लोक में कहा है, इत्थशाल कर्त्ता लग्नेश काव्यशक अंशोंका अंतर करके जो शेष रहे उसे बारह १२ से गुनदेना, इतने दिनों में उस इत्थशालका फल होगा ऐसे सर्वत्र जानना ॥ ५ ॥ ६ ॥ ( उपजा० ) लग्नेशकार्य्याधिपतत्सहायायत्रस्युरस्मिन्पतिसौ म्यदृष्टे ॥ तदाबलाढ्यैकथयंतियोगं विशेषतः स्त्रेहदृशापिसंतः ॥७॥ लग्नेश और कार्येशके मित्र ग्रहभी उन्हींके सदृश फलदेते हैं परंतु, लग्ने- शादियुक्त ग्रह जिस भाव में हैं वह अपने स्वामी और शुभग्रहोंसे दृष्ट हों तो पूर्वोक्त योग बलवान होताहै उक्तग्रह इत्थशालके फलोंको ( उत्कृष्ट ) विशेष करदेते हैं, पण्डित लोग खेहदृष्टि से फलकी विशेषता कहते हैं, इत्थशाल हुये में इतना विचार और भी चाहिये कि इत्थशाली मन्दग्रह वक हो तो उक्त- फल अधिक होगा, यह विचार युक्तिसिद्ध है ॥ ७ ॥ स्त्रीमातिप्रश्. •सी भने. ५ 19 वर्तमान नुयशल 13 १२ केवलार्थप्र. 'भावेष्य' ७ ४२५ ११.८ मुथाश) 'नं१२ '१४ ल ६ मं e परिपूर्ण मुथाश' १० ल ११ १२ धनलाभप्रश्ने. ३ 'राश्यांत 1 राझ्यादि १ शु.१ स्थितव, 1 ( उपजाति ० ) स्वक्षदिसत्स्थानगतः शुभैश्चेद्युतेक्षितोभूद्भविताऽथवास्ते ॥ ता शुभंप्रागभवत्सुपूर्णमये भविष्यत्यथवर्त्त- तेच ॥ ८ ॥ इत्थशाल योग कर्ता लग्नेश और कार्य्याधीश वा दोनहूं गृह उच्च वा मित्र राशि, वा स्वहद्दा, स्वत्रिंशांश, स्वमुशहादिं सत्स्थान में प्राप्तहो, और शुभ(४६) ताजिकनीलकण्ठी | ग्रहों से युक्त वा दृष्ट हो तो, इत्थशालोक्त शुभफल तत्कालही होगा. जो स्वरा - -श्यादि शुभस्थान में प्राप्त होनेवाला हो और शुभग्रह युक्त वा दृष्ट होनेवाला हो तो, उक्तफल पीछे होगा, यदि स्वर्शादि शुभ स्थानसे दूसरे स्थानमें प्राप्त हुये, थोडाही कालबीता हो तो पूर्वोक्त फल होगयाहै, कहना. ये विचार वर्ष और प्रश्नादियों में सर्वत्र बुद्धिबलसे करना, ॥ ८ ॥ ( उपजा० ) व्यत्यस्तमस्माद्विपरीत भावेस्वेष्टर्क्षतोनिष्टगृहं प्रपन्नः ॥ अभूच्छुभं प्रागशुमंत्विदानीं संया तुकामेनचभाविवाच्यम् ॥ ९ ॥ पूर्वश्लोकमें जो स्वर्शादिस्थ इत्यशाली ग्रहोंसे भूत भविष्य वर्त्तमान का- लिक शुभफल कहेहें तैसेही शत्रुराश्यादि अनिष्टस्थान और पापग्रह योग - दृष्टि से अशुभ फलमी होता है, जैसे लग्नेश कार्येश वा दोनहूँ शत्रु वा नीच राशिमें वा शत्रुके हद्दा, मुशङहादि दुष्ट स्थानों में हों, और पापग्रहों से युक्त वा दृष्ट हों तो इत्थशालोक्त अनिष्ट फलंतत्कालही होगा, आगे पीछे शुभहोगा जो ऐसाही स्वोच्चादिराशिगत पापयुक्त दृष्ट होकर वर्त्तमान राशिमें आया हो तो उक्तफल भी पूर्वही देदेवेगा, पीछे शुभ फल देगा, जो स्वोच्चादि राशि प्राप्त और पापयुक्त दृष्ट होनेवाला हो तो उक्तफल भी आगे होगा इन योगोंमें अनिष्ट फलकी प्राप्ति होनेमें शुभाशुभ दोनों यथोक्तकालपर दोनहूं होते हैं, शुभफलकी शाप्ति में सर्वदा शुभही होता है, उदाहरणके वास्ते तीसरे मुशि - लका रूप कहते हैं कि चन्द्रमा राश्यंत २९ अंशपर है और सूर्य राश्यादि १० अंशपर है. चन्द्रमाके दीप्तांश १२ के भीतर होनेसे इत्थशाल हुवा, अब इसमें यह विचारना चाहिये कि चन्द्रमा वर्तमान कुम्भराशिमें होनेसे शत्रुराशि गत है, आगे १२ राशि मित्रराशिमें जाता है तो प्रथम अशुभ फल पीछे शुभफलं होगा, इसी प्रकार सर्वत्र गतागत वर्त्तमान कालिक फल कहना ॥ ९ ॥ ( ई० व० ) शीघ्रो यदा मंदगतेरथैकमप्यंशमभ्येतितदेशराफः ।। कार्यक्षयोमूशरिफेखलोत्थेसौम्येन हिल्लाजमतेनचित्यम् ॥ १० ॥ पूर्वोक्त इत्थशाल योगका विपरीत ईसराफ योग कहते हैं कि शीघ्रगति भाषाटीकासमेता । ' (४७) ग्रह जो मंदगति ग्रहके एक अंश भी आगे बढ जाय तो ईसराफ योग होता है. इसको मूशरिफ भी कहते हैं. यह कार्ग्यका नाश अर्थात इत्थशाल होनेमें जो कार्म्यसिद्धि होनीथी उसको विपरीत करदेता है. इसमें हिल्लाजमतसे इतना विचार है कि यह मूशरिफ पापग्रहाका हो तो कार्य्य विपरीत अर्थात् शुभके बदले अशुभ करेगा. जो उक्त योग शुभ- ग्रहों से हो तो कार्यको विपरीत तो नहीं करेगा, किंतु शुभफल जो १० ८ वृ९ यशालसे होनाथा उसे न होने देगा उदाहरण ९ लग्नमें बृहस्पति १६ अंश लग्नमें व सप्तमेश बुध मि- थुनमें १७ अंश पर है तो मंदगति बृहस्पतिसे शीघ्र गति बुध एक अंश अधिक बढगया, इसका नाम ईसराफ वा मुशरीफ हुआ, स्त्रीप्राप्ति कार्य था यह सिद्ध नहीं होगा. यह दोनों पापग्रह होते तो स्त्री प्राप्तिके बदले स्त्री संबन्धी कर्मसे अनिष्टहोता, ऐ- साही सर्वत्र जानना ॥ १० ॥ २ ४ 1 उपजा० - लग्नेशकार्य्याधिपयोर्नदृष्टिर्मिथोऽथतन्मध्यगतोपिशीघ्रः || आदाय तेजोयदिपृष्ठसंस्थान्यसेदान्ये यदि न मेितत् ॥ ११ ॥ लग्नेश और कार्य्याधीशकी परस्पर दृष्टि न हो किंतु इन दोनों के बीच किसी भावमें उन दोनोंसे शीघ्र ग्रह लग्नेश और कार्येशको भी देखता हो तो अपने पीछेवाले स्वल्पांश ग्रहको तेज लेकर आगेवाले बृहदंशको देदे - . चाहै, परंतु यह शीघ्रगति अल्पांश ग्रहसे अधिक और मंदगति, बृहदंश ग्रहसे न्यून अंशपर होवे, यह योग अन्यद्वारा कार्य्यसिद्धि करता है, इस कानाम नक्तयोग है, उदाहरण आगे कहतेहैं ॥ ११ ॥ ( उपजा० ) - लाभ च्छातनुरस्तिकन्या स्वार्म धःसिंहगतो दशशैः॥ सूर्य्याशकैर्देवगुरुः कलत्रेदृष्टिस्तयोर्नास्तिमिथोथचंद्रः ॥ १२॥ चापेवृषेचोभयदृश्यमूर्तिः शीघ्रोर्कमा गैरथवाभवांशैः ॥ आदायतेजो बुधतोददौयज्जीवायलाभः परतः स्त्रियाःस्यात् ॥ १३ ॥ १२ बु३ I ६ (४८) ताजिकनीलकण्ठी | ११ नक्कयोगका उदाहरण जैसे स्त्रीलाभ प्रश्नमें कन्या लग्न, लग्नेश शीघ्रगति बुध सिंह के दश अंशपर का शास्त्री प्रश्नहोनेसे सप्तमेश मंदगति बृहस्पति मीनराशिं के बारह अंश परहै इनकी परस्पर दृष्टि होती तो, शीघ्रोल्पभागेत्यादि इत्थशाल हो तो यहां इनकी ६ । ८ स्थानों में होनेसे दृष्टि नहीं हैं, परंतु इनके बीच धनराशि में वा वृपराशिमें लग्नेश और कार्यश अंशोंके मध्यवर्त्ती बारह वा ग्यारह अंशपर चंद्रमा दोनोंसे शीघ्रगति है, और दोनोंको नवम चतुर्थ वा लाभ चतुर्थ पूर्णदृष्टि से देखता है, इस व्यवस्था में चंद्रमा अपने पीछेवाले शीघ्रबुधका तेज लेकर अपने अग्रवती मंदगति बृह- स्पतिको देदेता है, प्रयोजन है कि बुध गुरुकी दृष्टि होती तो इत्थशाल योगसे अपनीही हाथसे स्त्रीप्राप्ति होती यहां नक्तयोग. चन्द्रमा तीसरे ग्रहते है तो स्त्रीप्राप्ति भी तीसरे किसी मध्यस्थ मनुष्य के हाथसे होगी. ऐसाही सर्वत्र जानना. यहां तेरहवें श्लोकों (शीघ्रोभागः ) के स्थान में ( शीघ्रोष्टभागैः ) ऐसा पाठहै, प्रयोजन यह है कि, चन्द्रमा ८ अंशपर होनेसे लग्नेश कार्य्यशके बीच तो न हुआ परंतु अति शीघ्र है, बुध १० अंशवालेको लाँघकर बारह अं- शवाले बृहस्पति को पहुँच सकता है, इसकारण नक्तयोग संभावना होती है, यह ताजिकांतर मतहै और यहां १० | ११ | १२ अंश इन तीनोंके उप- लक्षणार्थ लिखे हैं, दीमांशोंके भीतर किसी अंशपर कमसे हो तो नक्कयोग होजाता है, आगे बुद्धिके वलसे विचारना ॥ १२ ॥ १३ ॥ इंद्रवज्रा - अंतःस्थितोमंदगतिस्तुपश्येद्दीतांश कैद्भवथशीघ्रतस्तु ।। नीत्वामहोयच्छतिमंदगाय कार्य्यस्यसिद्ध्यैयमया प्रदिष्टः ॥ १४ ॥ १८ड १२, १२ १ २ 2 a. लग्नेश और कार्येश किसी भावों में हों उनकी परस्पर दृष्टि न हों किंतु एक शीघ्रगति एक संदगति हो और दीप्तांशोंके भीतर हो मध्यस्य स्थानग तदोनोंसे मंदगतिको ही ग्रह उक्त ग्रहको देखता हो तो ग्रहसे तेजलेकर, भाषाटी मेता । (४९ ) मंदग्रह को देदेता है. इस योगका नाम यमया है. कार्य्यकी सिद्धि दूसरेके द्वारा करता है ॥ १४ ॥ इं०व० - राज्याप्तिपृच्छातुललग्ननाथोमेषेसितस्त्वष्टलवैर्वृषस्थः ॥ चंद्रोदशांशैर्यदिराज्यनाथोदृष्टिस्तयोनास्ति रुस्तुमंदः ॥ १५ ॥ उ० वं० - दिगंशगः कर्कगतस्तुपश्यन्नुभौमहोदीप्तलवैः सचांद्रम् ॥ ददौसितायेतिपदस्यलाभोमात्येन भावीतिविमृश्यवाच्यम् ॥१६॥ यमया योगका उदाहरण, जैसे राज्यप्राप्ति प्रश्नमें तुलालग्नका स्वामी शुक्र सप्तम भावमें मेषके ९ ८ अंशपर और कार्य्य दशम स्थान सम्बन्धी होनेसे दशमेश चन्द्रमा वृषके १० अंशपर अष्टम स्थानमें है, इन लग्नेश कार्य्येशोंकी परस्पर नहीं है, दीप्तांशोंके अन्तर्गत हैं. योग होनेमें ६ ० दृष्टि ११ १०यमया४वृ. १० शु ८ १२ २चं१० केवल दृष्टिकी न्यूनता रही यह कार्य्य, तीसरा यह अर्थात् बृहस्पति सम्पा- दन कर्त्ता है कि, यह स्थान दृष्टि १० | ११ स्थानमें, शु० चंद्र० दोन हूँको देखता है तो शीघ्र चन्द्रमासे तेज़ लेकर, उससे मन्द शुक्रको देता है इस योगका नाम यमया है. फल यह है कि, लग्नेश कार्य्येका इत्यशाल होता तो आपही राज्यप्राप्ति होनीथी, यहां बृहस्पतिसे योग पूर्ण हुआ तो दूसरेके द्वारा राज्यप्राप्ति होगी, बृहस्पति देवगुरु या देवमन्त्री है इससे फल ( राज्यप्राप्ति ) पुरोहित वा अमात्यके द्वारा होगी ऐसे सभी संब- थी फल अपनी बुद्धिसे विचारके कहना, यहां राज्यप्राप्ति प्रश्न केवल उपल- क्षण मात्र है ॥ १५ ॥ १६ ॥ ( इन्द्रवज्रा ) वक्र: शनिर्वा यदि शीघ्रखेटात्पश्चात्पुरस्तिष्ठति तुर्य्यदृष्ट्या ॥ एकर्क्षस क्षभुवाहशावा पश्यंस्तथंशिर धिकोनकै- चेत् ।।. १७ ।। (उपजाति) (पूर्वार्द्ध) तेजोहरेत्कार्य्यपदेत्थशा- स्थितोपिवासौमणउःशुभो न ॥ मणऊ योगका लक्षण कहते हैं, यह नक्तयोगके तरह है परन्तु शनि वा मंगलकी ऐसी प्राप्तिमें फल विपरीत होजाता है, इसकारण यह मंणऊ नाम ४ (५०) ताजिकनीलकण्ठी । योग पृथक् है, मणउ पारशीय ( मनै) पदका पर्याय है. प्रयोजन है कि, का करनेमें (मनै ) अर्थात् विघ्न करदेता है. लक्षण यह कि, लग्नेश और इत्यशाली अर्थात् शीघ्रोल्पभाग मन्द घन भाग और परस्पर दृष्टियुक्तहों, परंतु इनके बीच मंगल वा शनि शीघ्रगति ग्रहके समीप उसके दीप्तांशोंके भीतर आगे वा पीछे हो और चतुर्थ सतम वा एकक्ष दृष्टि से उसे देखे मन्दग्रहकोभी किसी दृष्टि से देखे और इसके दीप्तांशोंके अन्तर वह मन्दग्रह होवे जो कि लग्नेश वा कार्येश है, तो शीघ्र ग्रहका तेज हरलेता है. मन्दग्रहको वह तेज नहीं देता यह मंगल शनिकी प्रकृति और शत्रुदृष्टिका फल है, इसको मणउ योग कहतेहैं इत्थशालका विरुद्धफल अर्थात् कार्य्यनाश कर्त्ता है ॥ १७ ॥ पजा० - स्त्रीलाभपृच्छातनुरस्तिकन्यात्रज्ञोदिगंशैस्तिथिभिः सुरेज्यः ॥ १८ ॥ कलत्रगःखे व निजो भवशैः पूर्णबुधो भौमद्ध- तस्वतेजाः ॥ जीवेनपश्चान्मिलतीतिलाभोनार्थ्यास्तुनो पृष्ठ- गतेथवास्मिन् ॥ १९ ॥ मणउं मणउं ५ १० १० ४ १२१५२ १५, माउं ५ ७ ज्ञ१५ ४ १० ३ २चम १३ मणउं योगका उदाहरण स्त्रीलाभ प्रश्नमें कन्या लग्न लग्नेश बुध लग्नके दश अंशपर स्त्रीलाभ कार्य होनेसे सप्तमेश सप्तम बृहस्पति मीनके १५ अंशमें हैं, इनका इत्थशाल स्त्रीलाभकारी था, परन्तु मंगल मणउं अर्थात् मनै कर- ता है कि यह दशम स्थानमें मिथुनके ग्यारह अंशपर स्थित होकर लग्नेश बुधको तुर्य्यदृष्टि अर्थात् शत्रुदृष्टि से देखता है, और बुधके अंश समीपवर्त्ती है इस हेतु बुधका तेज मंगलने हरणं किया, बुध निस्तेज होगया, अर्थात् फल देनेको सामर्थ्य इसको न रहा, मंगलने हानि अर्थात् मणउं मनै करली भाषाटीकासमेता । (५१ ) 77 है; लग्नेश कार्येश चु० बृ० के इत्थशालसे स्त्रीप्राप्ति होनीथी, मंगलके मणउं करनेसे यह कार्ग्य नहीं होगा, प्रत्यक्षतः स्त्रीसम्बन्धी हानि होगी ऐसे ही शनिसेभी मणउं योग होता है, दूसरा उदाहरण मीनलग्न मन्द लग्नेश बृह- स्पति ८ अंश सप्तमेश बुध ८ अंश सप्तम स्थानमें शनि मीनके ९ अंशपर यह एक अंश अधिक होनेपरभी मणउं योग हुवा. तीसरा उदाहरण, लाभ अश्नमें कर्क लग्नसे लग्नेश चंद्रमा वृषके दश अंशपर लाभेश शुक्रलग्नमें कर्कके ११ अंशपर इनके इत्थशाल होनेसे धनलाभ होना था, परन्तु वृषके १६ अंश पर चन्द्रमाके साथ एक भावगत शत्रुदृष्टि देखनेवाला मंगल वा शनि होनेसे मणउं योग होगया, शीघ्र चन्द्रमाके तेज मंगलने शुक्रको न देने दिया, आप- ही नाश करदिया. फल इत्थशाल होनाथा नहीं होगा प्रत्युत हानि होगी, यहां इस योगके मूल वाक्यमें, “अंशैरधिकोनकैश्चेत् ” अर्थात् मणउं करने चाला ग्रह शीघ्रसे पीछे वा आगे अंशों में समीपहो कहा है युक्तिसे यह भी विचार चाहिये कि, जो शीघ्र ग्रहसे आगे हो तो इससे भी आगे कार्येश । जो ग्रह है वह मणउं करनेवाले ग्रहसे मन्दगति हो क्योंकि यह उसको अपनी गतिसे आक्रमण करसके तो मणउं योग होगा जब मणउं करनेवालेसे आगेका लग्नेश शीघ्रसे मन्दग्रह मणउंवालेसे शीघ्र हो तो मणउं करनेवाले से, क्योंकि इसमें उसको आक्रमण नहीं कत्ती है दूसरा जब शीघ्र ग्रहसे पीछे मगउं करनेवाला मंगल वा शनि होतो यह इतना शीघ्रगति होना चाहिये कि कार्येश वा लग्नेश पूर्वोक्त शीघ्रगति ग्रहको आक्रमण करके आगेवाले योग कारक मन्द ग्रहको पहुँचसके तो मणउं ठीक होगा. जब इसकी इतनीशीघ्र गति नहीं है कि पीछेवाले शीघ्र ग्रहोंको उल्लंघनकर आगेवाले मन्दगति तीसरे ग्रहको न पहुँचसके तो माँउ योग नहीं होगा, लग्नेश कार्येशका पूर्वोत इत्थशालही रह जायगा ऐसे विचार औरभी स्वबुद्धिसे चाहिये. यहां शनि और मंगलके मणउं योग तीन तीन प्रकारके होनेसे छः भेद हुये, उपरान्त शीघ्र ग्रहके पीछे और आगे मणउँवाला ग्रह होनेसे बारह भेद हैं, शेष बुद्धि से विचारना, भाषा बहुत बढ़ जाने के कारण मैंने सूक्ष्मही लिखा है ॥ १८॥ १९ ॥ (५२). उपजा ० - भूसुतौचेत् ॥ एकर्क्षगौलंग्न निरुतौ ॥ २० ॥ पकार्य्यपौस्तस्तेजोहरौकायहरौ 1 ६ नक्तयोगका भेद औरभी है कि, जब लग्नेश कार्येशका पूर्वोक्त प्रकारसे इत्यशालहो और इनके दीप्तांशोंके भीतर आगे वा पीछे शनि मंगल दोनहूं वा एक ग्रह उन दोनोंके समीप-दीप्तांश भीतर आगे वा पीछे हो अथवा लग्नेश कार्येश में एक के साथ शनि वा मंगल उसके दीप्तांश भीतर आगे वा. पीछे हो तो यहभी मणउं योग कार्य्यनाश करनेवाला होता है. ॥ २० ॥ उपजा० - राज्याप्तिपृच्छातुललग्ननाथः कर्केसितोंशस्तिथिभि दिगंशैः ॥ वृषेशशीभूपलवैःकुजश्चहरेद्दयोभहरतेचराज्यम् ॥२१॥ - इस मणउं योगका उदाहरण राज्यप्राप्ति प्रश्नमें तुला | . लग्न लग्नेश शुक्र दशम कर्कके पंद्रह अंशपर राज्येश चंद्र- मा अष्टम वृषके दशअंशपर उच्चवर्ती तथा मंगलभी अष्टम- वृषके १६ अंशपर है और शनिभी अष्टम वृषके दश अंशपर है मंगल शनिमें से एकके होनेसेभी योग होजाता है, यहां उपलक्षणार्थ दोनहूं लिखे हैं. प्रयोजन यह है कि, लवेश कार्येशमें से एकके भी दीप्तांश भीतर आगे वा पीछे भौम शनिमें से एकभी होनेसे योग सम्पन्न होता है, यहां लगेश कार्येशके शुक्र चंद्रके इत्थशालमें राज्यप्राप्ति होनी थी मंगल शनि कार्येशके साथ उसके दीप्तांशोंके समीप होनेसे इन्होंने उसका तेज नाश करदिया इसका नामभी मणउं योग है, राज्यप्राप्ति नहीं होने देगा प्रत्युत राज्यहानि करेगा, यहभी मणउंका भेद है ॥ २१ ॥ अनुष्टुप् - लग्नकाय्यैशयोरित्थशालेजेंद्वित्थशालतः ।। कंबूलं श्रेष्टमध्यादिभेदैर्नानाविधंस्मृतम् ॥ २२ ॥ ११ १२ • लगेश कार्येशका पूर्वोक्त प्रकारसे. इत्यशालहो, और चन्द्रमा लग्नेश कार्येश वा दोनोंके साथ इत्थशाली रहे तो इसका नाम कंबूल योग ताजिकनीलकण्ठी | यदीत्थशालोस्त्युभयोःस्वदीतहीनाधिकांशैः शनि C ७ १० १५ भाषाटीकासमेता । (५३) होता है, कंबूल पारशीय पद कबूलका पर्याय है इसके श्रेष्ठ मध्य अव भेदोंसे अनेक प्रकार हैं. उच्च स्वगृहसे उत्तमाधिकार स्वहद्दा द्रेष्काण नवां- शकसे दूसरा मध्यम अधिकार शत्रु नीचगृहावस्थितिसे तीसरा अधमा- धिकार जहां इन तीनोंमेंसे एकभी अधिकारी न हो तो यह चौथा समा- धिकार है, इससेभी चन्द्रमा उत्तमाधिकारी हो और लग्नेश कार्येश से कोई प्रत्येक भेद करके चार अधिकारोंमें होनेसे चारभेद; ऐसे ही चन्द्रमा मध्यमा- धिकारी और अधम तथा समाधिकारी होनेमें उनके प्रत्येक अधिकारों करके ४ । ४ भेद होतेहैं. समस्त सोलह १६ भेद हुये, पुनः १६ भेद लग्नेशके १६ कार्येशके होनेसे संपूर्ण ३२ बत्तीस भेद होते हैं, इनके नाम उत्तमोत्तम १ उत्तम मध्यम २ उत्तम सम ३ उत्तमाधम ४ मध्यमो- त्तम १५ मध्यम मध्यम ६ मध्यमाधम ७ मध्यम सम ८ समोत्तम ९ मध्यम १० सम सम १३ समाधम १२ अधमोत्तम १३ अधममध्यम १४ अधम सम १५ अधमाधम १६ ये सोलहविकल्पोंके नाम हैं, लग्नेश कार्ये- शके प्रत्येक करके ३२ बत्तीस होते हैं, उनमें उत्तम सम और समोत्तम ये दोनों मध्यमहीके हैं. ४।४भेद सभीके होते तो ३२ सभी अधिक विकल्प होने थे किंतु यहां लगेश कार्येशकी उच्चादिकल्पना आवश्यक नहीं है, इत्थ - - शालमात्र चाहिये, केवल चन्द्रमाके उच्चादिभेद आवश्यक होनेसे यहां १६ ही भेद होतेहैं लग्नेश कार्य्यशके पृथक् गणनासे ३२ बत्तीस होते हैं ॥ २२ ॥ अनु० – यदीन्दः स्वगृहोच्चस्थस्ताहशील कार्य्यौ । इत्थशालीकवूलंतदुत्तमोत्तम च्यते ॥ २३ ॥ चन्द्रमा स्वराशि४ में अथवा अपने उच्च राशि २ में ऐसे ही स्वराशि वा स्वोच्चराशिगत लग्नेश और कार्येशभी हो लग्नेश कार्येशका इत्थशाल हो चन्द्रमा दोनों के इत्थशाली हो तो इसका नाम उत्तमोत्तम कंबूल होता है . २ यहां ग्रंथकर्त्ताने केवल उत्तमोत्तम उत्तमाधम दोनों आयन्तवालोंके उदा- १२ मसू१ ११ २१७२०/ १० चं१४, ७ ८ (५४ ) ताजिकनीलकण्ठी | हरण कहे हैं. पूरेग्रन्थ बढजानेके भयसे न लिखे, अपनी बुद्धि से समझलेना कहा है इस भाषामें और ग्रन्थ से ग्रंथकर्त्ताका अभिप्राय पुष्ट करनेको मैं उदाहरण लिखताहूं कि, "मेपेरविः कुजेवापि वृपेकर्केथवाशशी ॥ तत्रेत्थशाला - कंबूलमुत्तमोत्तमकार्य्यकृत् ॥ १ ॥” अर्थ -संतती होगी वा नहीं ऐसे प्रश्नमें मेप लग्न लग्नेशमें २० अंशपर संतानप्रश्न होनेसे पंचमेश आवश्यक है सोही पंचमेश सूर्य लग्नमें मेपके १७ अंशपर होनेसे एकराशिस्थ दृष्टि और दीमांशा- भ्यंतर होनेसे इत्थशाल हुआ. अब कम्बूल करनेवाला चन्द्रमा स्वगृही चतुर्थ स्थानमें कर्क १४ अंशपरहै लग्नेश कार्येश मं० शु० दोनहूंके साथ इत्थ - शाल करता है, यह उत्तमोत्तम कंबूल हुवा, कार्यभी उत्तमोत्तम करेगा. उत्तमोत्तम कंबूलर ११ मं१५ उ० त० कंबूल ३ १२ १मं? २८ ११ उ० त० कंबूल ४ १२ सू२२ १० इस विषय के उदाहरण तीन कुंडलियोंमें औरभी लिखेहें और लग्नेश कार्येशमेंसे एक ग्रहके साथभी चन्द्रमा मुथशिल करे तो यहभी कंबूल होता है ||२३|| अनु० - स्वीयहछ। द्रिकाणांकभागस्थेनेत्थशालतः || मध्यमोत्तमकबूलंहीनाधिकृतिनोत्तमम् ॥ २४ ॥ लग्नेश कार्येश अपने हद्दा स्वद्रेष्काण वा स्वनवांशकमें परस्पर मुथशिल कारी हो, और चंद्रमा स्वराशि वा उच्चराशिमें बैठकर उनके साथ इत्यशाल करे तो उत्तम मध्यम संज्ञक कंबूलयोग होता है. यहां ग्रंथकर्त्ताने श्लोक में छन्दोभंगके भयसे मध्यमोत्तम लिखा है. संज्ञा इसकी उत्तम मध्यम है. इसका उदाहरण भाग्यवृद्धिमें तुलालग्न लग्नेश शुक्र दशम स्थान में कर्कका भाषाटीकासमेता । १२ २ अपनी हद्दामें और भाग्यभावाधीश बुध सप्तमस्था नमें अपने हद्दा में १४ अंशपर है इनकापरस्पर मुथ शिलयोगहै अब कंबूली चन्द्रमा स्वराशिगत कर्कके८ अंशमें लगेश कार्येश दोनहूंके साथ मुथशिल करता ११ है, योगपूर्णहुवा. यह लग्नेश कार्येशके स्वहद्दामें और चन्द्रमाके स्वोच्च वा स्वराशिगत होनेसे उत्तम मध्यम कंबूलहुआ. ऐसे लग्नेश कार्येशके स्वद्रेष्काण वा स्वनवांशगत और चन्द्रमा स्वोच्च वा स्वराशिगत होनेमें उत्तम मध्यम कंबूल होते हैं, जब लग्नेश कार्येश समगृहेश हद्दा - काण नवांश में स्थित होकर परस्पर मुथारील करे और चन्द्रमा स्वगृह वा स्वोच्चगत होकर मुथशिली हो तो उत्तम सम कंबूल होता है, इसका उदाहरण राज्यप्राप्तिप्रश्नमें मिथुनलग्न लग्नेश बुध समग्रह मंगलकी राशिट में और राज्यभावेश बृहस्पति समगृह बुधके ६ राशिहै, कंबूली चन्द्रमा अपने उत्तम सम कंबूल चं२ उच्चराशि वृष में है स्वराशि कर्क में होनेसेभी यही । होता है यहां अंशकन्यांश दीप्तांशोंके अंतर मुथशिल योग होनेके योग्य चाहिये. यह उत्तम सम कंबूल हुआ, राज्यप्राप्ति उत्तम होगी ॥ २४ ॥ (५५) उत्तममध्यम कंबूल १ ६ ६वृ ७ शुट १२ १० अनुष्टु० - उत्त धमतानीचारपुगेहस्थितेनचेत् || स्वद्रेष्काणांशगश्चंद्रः स्वभोच्चस्थेत्थशालकृत् ॥ २५ ॥ C नीचराशि वा शत्रुराशिमें लग्नेश वा कार्येश परस्पर मुथशिली हों और चन्द्रमा अपने उच्च वा अपनी राशिमें बैठा दोनहूँके साथ इत्थशाल करे तो उत्तमाघम कंबूल होता है, यह योग चन्द्रमाके उत्तमाधिकारी और लग्नेश काशके निकृष्टाधिकारी होनेसे है, उदाहरण स्त्रीमाप्तिप्रश्न में तुलालन . लग्नेश शुक्र कन्याके १० अंशपर नीच राशिगत और सतमेश मंगल नीच (५६) ताजिकनीलकण्ठी । राशिगत कर्कके १५ अंशपर शुक्रके साथ इत्थशाली है. चन्द्रमा स्वराशि ४ गत ककेके १० अंशपर बैठकर शु० सं० के साथ मुथ शिली है. इस हेतु यह उत्तमाधम कंबूल हुआ, ११, स्त्री से होगी यह फल है. यह १२ १० पचीसवें श्लोकके पूर्वार्द्धका अर्थ हुआ इसके उत्तरार्द्ध और छब्बीसवेंके पूर्वार्द्ध 'मध्यमोत्तम' इसमें मध्यमोत्तमकंवल इसप्रकारका है कि चन्द्रमा अपने द्रेष्का- ण वा अपने नवांशमें स्थितहो और लग्नेश कार्येश अपने अपने स्थानों में बैठ परस्पर इत्थशाली मध्यमकंबूलके तरह यहभी है, उदाहरण स्त्रीप्रातिप्रश्न में तुलाल लमेश शुक्र लयमें सप्तमेश मंगलमेषका मध्यमोत्तम कंचूल और चन्द्रमा मकर राशि में २२ अंश अपने नवां शपर है, शुक्र मंगलका परस्पर मुथशिल और चंद्रमा दोनहूंसे मुथरिली है, यह मध्यमोत्तम | कंबूल हुआ; फल पूर्ववत् है ॥ ५२ ॥ ८ ६ ११ उत्तमाधम कंचूल ६ १० अनु० - मध्यमोत्तममेतच्चपूर्वस्मान्नविशिष्यते ॥ स्वहद्दादिपदस्थेनकंवूलंमध्यमध्यमम् ॥ २६ ॥ भं १५% ११ मं १२ इस लोकके पूर्वार्द्धका अर्थ पूर्व २५ लोकार्थ के साथ संबंधवशसे लिख दिया है, उत्तरार्द्धसे मध्यम कंबूल इसप्रकार है कि स्वहद्दा द्रेष्काण वा नवां- शकमें स्थित लगेश वा कार्यशहो दोनहूं परस्पर मुथशिली हों और चंद्र- माभी स्वद्रेष्काण वा स्वनवांश में बैठकर इनके साथ मुथाशेली हो तो मध्यममध्यम कंबूल होता है, यहां तीनहूंकी स्वगृहस्वोचराशि छोडकर स्वहद्दादि मध्यमाधिकारोंकी आवश्यकता है. उदाहरण, स्त्रीलाभ प्रश्नमें मिथुन लग्न लग्नेश बुध धनके १८ अंशपर अपने हृद्दामें सप्तमेश बृहस्पति भाषाटीकासमेता । (५७) 2 मिथुनके १६अंशपर अपने हद्दामें और चंद्रमा मीनके मध्यम मध्यम कंचूल दूसरे द्रेष्काणमें १२ अंशपर अपने द्वादशांशपर है. यहां तीनहूंकी परस्पर स्थान दृष्टि होने से एवं मुथशिल · परस्पर होनेसे मध्य मध्यम कंधूल हुवा. स्त्री प्राप्ति अति चलसे होगी यह फल है. ॥ २६ ॥ ७ ६ १६ घृ ३ १२ अनु० - मध्यमध्यमकंवूलंहीनाधिकृतखेटजम् ॥ मध्यमाधमकंवूलं नीचारिभगखेटजम् ॥ २७ ॥ स्वगृह स्वोच्च हद्दा द्रेष्काण नवांश और शत्रु नीचाधिकार रहित अर्थात् समगृह हद्दा द्रेष्काण नवांश में से किसीमें लग्नेश कार्येश हों और चंद्रमा मध्यमाधिकार अर्थात् स्वनवांश वा स्वद्रेष्काणमें हो परस्पर इत्थशाली हो तो मध्यमसम कंवल होता है. उदाहरण, संतान प्रश्न में वृप लग्न लग्नेश शुक्र मकरके चार अंशपर सम बुधकी हद्दामें मध्यम सम कंवृल और पंचमेश बुध तुलाके पांच अंशपर सम हदामें और तुलाका चंद्रमा २ अंशपर है अपने द्रेष्काणमें है. यह मध्यमसम कंचूल हुवा. संतति ६ प्राति यत्नसे होगी. और लग्नेश काम्येश नीच वा बुइँच ·· शत्रुराशिमें परस्पर मुथशिल हों, चंद्रमा अपने द्रेष्काण वा नवांशकमें बैठकर दोनोंके साथ मुथशिली हो तो मध्यमाधम कंबूल होता है. उदाहरण, मेष लग्न लग्नेश मंगल कर्कका नीच राशिमें और भाग्याधीश, मध्यमाधम कंबूल हस्पति मकर अपने नीच राशिमं चन्द्रमा तुलाके पांच अंशपर है, मंगल बृहस्पनिके अंश मुथशिल योग्य लिखने चाहियें. जैसे यहां उदाहरण कुंडली में मंगल ९ अंश बृहस्पति १० अंश लिखाहै इनका परस्पर मुथशिल हुआ और चंद्रमा दोनहूके साथ मुथशिली अपने त्रिभागमें है. यह अधमाधम कंबुल हुवा, भाग्य प्राप्ति अतिकष्टसे होगी ॥ २७ ॥ १२ .. ११ (५८) ताजिकनीलकण्ठी | अनु० - इन्दुः पदोनः स्वर्दोच्चयुतेनाप्युत्तमंतुतत् ॥ स्वहद्दादिगतेनापिपूर्ववन्मध्यमुच्यते ॥ २८ ॥ चंद्रमा अधिकाररहित होनेसे पदोन होता है. यह दोप्रकारका है, पहि- ला समग्रहके ह्रद्दा द्रेष्काण नवांशमें, और दूसरा सूक्ष्म है कि समग्रह हा द्रेष्काण नवांशोंके आदि या अंतमें संधिगत होनेमें यह दोप्रकार पदोन कहाता है, लग्नेश वा कार्येश अपनी राशि वा अपने उच्चराशिमें हों परस्पर इत्थशाली लग्नेश कार्येश हों और पदोन चंद्रमा इनसे मुथशिली हो तो समोत्तम कंबूल होता है, उदाहरण, धन लाभ प्रश्नमें तुला लग्न लग्नेश शुक्र लग्नमें (१०॥ अपने घरका धनेश मंगल अपने उच्चराशि मकरका और चंद्रमा मिथुनका समके हृद्दा में है. यहां अंश कल्पना इत्थशाल योग्य समोत्तम कंबूल १० मंट ६ ३चं शु १७ १२ करनी चाहिये. यह समोत्तम कंबूल योग हुवा. फल धनप्राति उत्तम होगी. और श्लोकोत्तरार्धसे दूसरा योग यह है कि चंद्रमा पूर्ववत् पदोन हो और लग्नेश काय्शमें से एक अथवा दोनहूं अपने हद्दा द्रेष्काण नवांशकमें हो परस्पर लग्नेश कायेशका इत्थशालहो. चंद्रमा भी इत्यशाली हो तो यह सममध्यम कंचूल होता है, उदाहरण, धनलाभ प्रश्न में तुलालन- लग्नेश शुक्र ग्यारहवां सिंहके दश अंशपर अपने हद्दामें. और धनेश दश अंशपर तीसरा और चंद्रमा मिथुनके दश अंशपर समकी हृद्दामें है, इनका परस्पर मुथशिल योग होनेसे यह समकंबूल हुवा, धनलाभ यत्नसे होगा, यह इसका फल भया ॥ २८ ॥ सम मध्यम कंचूल ६ अनुष्टु०-पदोनेनापिमध्यस्यादितियुक्तंप्रतीयते || नीचारिस्थेनेत्थशालोऽधमं कंबूलमुच्यते ॥ २९ ॥ भाषाटीकासमेता । (५९) लग्नेश और कार्येश पादोन होकर परस्पर इत्थशाली हों और चन्द्रमाभी पदोनहोकर लग्नेश और कार्येश के साथ इत्यशाली हो तो समसमाख्य मध्यम कंबूल प्रतीत होताहै "उदाहरण" धनलाभ स समसमाख्य मध्यम कं० और प्रश्न मेषलग्न लग्नेश मंगल सिंहके दश अंशपर धनाधीशशुक्र कुंभके दशअंशपर चन्द्रमा तुलाके दश अंशपर तीनहूं द्रेष्काणोंके मं१० प्रचं१ संधियों में पूर्वोक्त दूसरा प्रकार सूक्ष्म पदो- ४ ह . पूर्ववत् पदोन चंद्रमा उनसे इत्थशाली होतो समसमाख्य कंबूल होता है. उदाहरण, पुत्र प्रक्ष में मिथुनलग्न लग्नेश बुध नीचका मीनमें पुत्रभावेश शुक्र नीचका न्यामें चं द्रमा बृहस्पतिके द्रेष्काणमें है, यहांभी अंश कल्पना इत्थशालयोग चाहिये. यह तीनोंके परस्पर मुथशिल होनेसे समाधम कंबूल हुआ फल संतान प्राप्ति अल्पयत्नसे होंगी ॥२९॥ C नता हुई इन तीनहूंका परस्पर मुथशिल है, यह समसमाख्य मध्यम कंबूल हुआ फल धनलाभ मध्यम अर्थात् न बहुत अधिक न अत्यंत अल्पहोगा अथवा वही लग्नलग्नेश भौम सम और सूक्ष्म २६ अंशपर धनेश शुक्रसम शनि हद्दामें २६ अंशमें और चंद्रमा सम बृहस्पतिके द्रेष्काण में २० समासमाख्य कंबल अंश परहै ये तीस्पर मुथशिली हैं यह भी प्रका- रांतरसे समसमाख्य मध्यम कंबूल है. फलभी पूर्वोक- ही होगा. यह श्लोक पूर्वार्द्धका है अबउत्तरार्धसे १२ हृ ! मं१० चं७ ८ D समाधम कंबूलका लक्षण कहते हैं कि लग्नेश वा ६ ६ १० कार्येश नीचराशि वा शत्रु रोशिमें होकर पस्पर मुथशिली हों, और D d). 201 W 0 ORJ १२ ५ no /90 २३११ Au १० १० ८११६ समसमाख्य मंध्य ० धमाख्य कंबूल (६०) ताजिकनीलकण्ठी । अनुष्टु० --नीचशत्रुभगश्चंद्रः स्वभोच्चस्थेत्थशालकृत् || अधमोत्तमकंबूलंस्वहद्दादिगतेनचेत् ॥ ३० ॥ अघमोत्तम क० चंद्रमा नीच राशि वा शत्रु राशिमें हो. और लग्नेश वा कार्येश अपनी -राशि वा अपने उच्च राशिमें दोनहूं वा एक भी हो तो चंद्रमाके अधम और लग्नेश कायँशके उत्तमाधिकार होनेसे यह अधमोत्तम कंबूल योग होता है. . इसका फल पूर्वोक अधमोत्तम कंबूलके सदृश जानना उदाहरण; सुख प्राप्ति प्रश्नमें सिंह लग्न लग्नेश सूर्घ्य अपने उच्चमषेका और चंद्रमा अपने नीच वृद्धि कका है. यहां अंश इत्थशाल योग्य रखने चाहिये जिनसे परस्पर तीनहूंका मुथशिल होजाय. फल इसका सुख थोड़ा प्रयत्नसे ४ ८चं चं ३ मं१० १२ प्राप्त होगा. यह श्लोकके तीन चरणोंका अर्थ हुआ. अब चौथे चरण और दूसरे श्लोक पूर्वार्द्धके अर्थसे अधममध्यम कंबूल इसप्रकारका है कि जब चंद्रमा नीच वा शत्रु राशिमें हो और लग्नेश वा कार्येश वा दोऊ अपने हद्दा द्रेष्काण नवांशकमेंसे किसीमें हों परस्पर तीनहूं इत्थशाली हो जो -चंद्रमाके निकष्टाधिकार और लग्नेश कार्येशके मध्यमाधिकारी होनेसे यह मध्यममध्य कंबूल होता है. पुत्रप्राप्ति प्रश्न में कन्यालग्न लग्नेश बुध मक रके तीन अंशपर अपनी हद्दामें पुत्रभावेश शनि मीनके ५ अंश अपने द्रेष्काणमें ' और चंद्रमा वृश्चिकके तीन अंशपर है. (1 77 मध्यममध्य कं० उदाहरण ५ ११ 19 श १२. ५ ११ इनका परस्पर मुथशिल है यह अधममध्यम कंबूल हुवा. फल इसको संत तिप्राप्ति अति कष्टसे होगी. इसीमें अधमसम कंबूली है कि चंद्रमा नीच •वा शत्रु राशिमें हो और लग्नेश कार्येश दोनहूं वा एक पदोन हो ( पदोनका •अर्थ पूर्वोक्त जानना ) तो अथमसम कंबूल होता है. उदाहरण, राज्यप्राप्ति भाषाटीकासमेता । ७ प्रश्नमें वृष लग्न लग्नेश शुक्र सिंहके ६ अंशमें सूर्य एक राशिमें है, और राज्य भावेशशनि वृषके १० अंशमें और चंद्रमा नीच वृश्चिकके ३ अंशमें है सबकी परस्पर दृष्टि होनेसे इत्थशालभी है, यह अधम सम कम्बूल है, फल राज्यप्राप्ति कठिन उपायसे होगी ३० अनु० - नीचारिभस्थखेटेननीचारिभगतः शशी ॥ इत्थशालीकंबुलंतदधमाधममुच्यते ॥ ३१ ॥ अधमाधम कम्बूलका लक्षण कहते हैं कि चन्द्रमा, नीच वा शत्रु राशि में हो, और लग्नेश कार्येशभी नीच वा शत्रु राशियों में हो तो यह अधमाधम कम्बूल होता है, उदाहरण, पुत्रलाभ प्रश्नमें न लग्नेश बृहस्पति अपने नीच मकर राशिमें पुत्र भावेश मंगल अपने नीच कर्कका और चंद्रमाभी अपने नीच वृश्चिकका है, यहां अंश कल्पना इत्थशाल योग्य ११ चाहिये यहां इन तीनहूके परस्पर मुथशिल हैं, अप- १२ माधिकार होनेसे यह अधमाधम कंबूल हुवा पुत्रलाभ १ अधमाधम कं० १०बृ/ . नहीं होगा यह फल है. ऐसेही इनके शत्रु राशिगत २ ४म होने में भी निकष्टाधिकारसे यह योग है ॥ ३१ ॥ अनुष्टु० - मेषेरविः कुजेवापिवृषेक कैथवाशशी ॥ · तत्रेत्थशालात्कंबूलमुत्तमोत्तमकाय्यकृत् ॥ ३२ ॥ प्रथमं भेद उत्तमोत्तम और अंतिम भेद अधमाधम उपलक्षणार्थ पुनः : प्रकारांतर सुगमार्थ अन्योक्ति से कहते हैं कि किसी लग्नसे मेषका सूर्य्य अथवा मंगल हो और चंद्रमा उच्च वृषका वा स्वराशि कर्कका हो इनकी परस्पर दृष्टि और दीमांश इससे इत्थशाल हो तो यह उत्तमोत्तम कंबूल कार्य कर्त्ता होता है यह हेतु लग्नेश कार्येश और चंद्रमाके उत्तमाधिकार होनेका है ॥ ३२ ॥ अघमसम क ५शु६ २ श१० ८ चं ३ १२ ११ १० (६२) ताजिकनीलकण्ठी | अनुष्टु० - वृश्चिकस्थः शशीभौमः कर्केतत्रेत्थशालतः ॥ अधमाधमकंबूलंका विध्वंसदुःखदम् ॥ ३३ ॥ जो ज़न्द्रमा वृश्विकका और मंगल कर्कका हो परस्पर इत्थशाली हो तो अधमाधम कंबूल कार्य्यनाशक होता है, इसका हेतु इनके अर्धमाधिकारी होनेसे है ॥ ३३ ॥ अनु. ० – एवंपूर्वोक्तभेदानामुदाहरणयोजना || उक्तलक्षणसंबंधादूहनीयाविचक्षणैः ॥ ३४ ॥ ये भेद आदि अंत में मुख्य हैं, इनके बीचके चौदह भेद उक्त लक्षण संबंधसे जानने एवं प्रकार सोलह भेद जो प्रकट हैं, इनके तो पृथक् २ उदाहरण कहादिये हैं, उपरांत इनके बहुत भेद होते हैं बुद्धिमानोंने अपने बुद्धि बलसे उक्त लक्षणोंके आधारसे जानलेने ॥ ३४ ॥ अनुष्टु० - मेषस्थेब्जेशनीत्यादि दृष्टांतौ मंदशीघ्रयोः ॥ एकर्क्षावस्थितावित्थशालादीनपरेजगुः ॥ ३५ ॥ प्रकारांतरसे एक राशिस्थ शीघ्रमंद ग्रहोंके मुथाशल कहते हैं, कविता, “मेपस्थेब्जे शनिना कर्कस्थे भूभुवास्त्रिया | मकरस्थेन गुरुणा सहमनिस्थज्ञं न शुभं च १ " यह आर्म्याछंदका भेद समरसिंहकृत है। जिसका प्रतीक मेषस्यें ब्जेशनीत्यादि, आचार्य्यने कहा है, अर्थ इसका यह है कि, मेषके चंद्रमा और शनि परस्पर अंशोंसे मुंथशिली हो तो मध्यमाधम कंबूल अशुभ फल कर्त्ता होता है यहां चंद्रमा मेपमें स्वगृहोच्चाधिकारी भावहै, परन्तु स्वीय नवांश है और शाने नीचका हुवा ऐसे इस योगकी प्राप्ति हुई और चन्द्रमा मंगल कर्क इत्यशाली हो तो एक स्वगृह एक नीचका होने में उत्तमाधम कंबूल होता है २ तथा चंद्रमा शुक्र कन्या में परस्पर इत्थशाली हों तो शुक्र नीचका और चन्द्रमा कन्या में अपने अंशपर होनेसे यह मध्यमाधमकंबूल होता है ३ तथा चंद्रमा बृहस्पति मक रमें परस्पर मुथशिली हों तो वृहस्पति नीचका चन्द्रमा स्वनवांशका होनेसे मध्य- माधमकंबूल होता है ४ तथा चन्द्रमा बुध मीनमें इत्यशाली हो तो बुध नीचका और चन्द्रमा स्वनवांशका होनेसे मध्यम मध्यम कंबूलहोता है, ५ ये. भाषाटीकासमेता । (६३) पाचौं उदाहरण अशुभफल देनेवाले होते हैं, आचार्य्यने मेषस्थेब्जेत्यादि समर सिंहवाक्यके दृष्टांतसे शीघ्र मंदगतिग्रहोंके एकराशिस्थ होनेमें कहा इत्यादिभेद औरभी होते हैं यह अभिप्राय प्रकट किया है |॥ ३५ ॥ अनु० - तद्युक्तंनीचगस्थनीचेनरिपुणारिपोः ॥ इत्थशालंकार्य्यनाशीत्युक्तंतत्रयतः स्फुटम् ॥ ३६ ॥ लग्नेश कार्येश और चन्द्रमा नीच वा शत्रुराशिमें हो तो इत्थशाल कार्य नाशक कंबूल होता है यह पूर्वोक्तवाक्य और आचार्येतरोक्तिहै और यहां का नाराक एक राशिस्थ इत्थशाल भेदभी कहा हैं तो इसमें अतिव्याप्ति होती है. इसके शंकानिवृत्त्यर्थ आचार्य्यकृत यह श्लोक है, प्रयोजन है कि, गतग्रह नीचस्थ ग्रहसे और शत्रुराशिस्थ ग्रहसे इत्थशाली हो और चन्द्रमा नी . चशत्रुगत इत्थशाली हो तो यह अन्यत्र तो संभव है परन्तु एकराशिस्थ जो होकर अशुभफली कंबूल भेदकहेहैं उनमें अयुक्त हैं क्योंकि नीचराशि दोग्र- हकी एक नहीं होती तथा शत्रुराशि दोकी एकभी यहां असंभव है, जहां शत्रुता होगी तहां दृष्टि न होगी, दृष्टिविना इत्थशालही नहीं होता है. यद्वा लग्नेश कार्ये- शकी परस्पर दृष्टि न होनेमें बीचवाले किसी ग्रहके दोनहूके समीपांशवर्ती होनेसे 'इत्थशाल संभावना मानी जाय तो इसप्रकार होने में नक्तयोग ही होगया, यद्दा दोनहूं के बीच तीसरा एकसे तेज लेकर दूसरेको देता है, यह मानाजाय तो यह यमया योग होजाता है, ऐसी ही शनि मंगल से मणउं योगभी संभव है तो प्रथम भिन्न.राशिगत चतुर्थ सप्तम दृष्टेत्यादि स्पष्टही कहा है, अब मेषस्थे- ब्जेत्यादि दृष्टांतको अंगीकार नहीं करते तो उक्तनकादि योगोंमें व्यत्यास पढताहै तस्मात् सभी योगोंमें मुथशिल विचार भिन्न राशि वा एक राशिस्थ "हा होता ही है यह सिद्धांत हुआ ॥ ३६ ॥ अनुष्टु० - लग्नकार्य्यपयोरित्थशालेत्रैकोस्तिनीचगः || स्वर्क्षादिपदहीनोन्योऽवेंदु: कंबूलयोगकृत् ॥ ३७ || कंबूल योगकां भेद और प्रकारभी है कि प्रथम लग्नेश कार्येशमें से एकभी अपने अधिकारमें होकर स्थशिली होनेसे सम कहा, जो लग्नाधीश (६४) ताजिकनीलकण्ठी | वा कार्येश एक नीच राशिमें हो और दूसरा स्वर्शादि पदहीन अर्थात् सम द्रेष्काणादिकोंमें हों और चन्द्रमाभी पदहीन हो इन तीनहूंका परस्पर मुथशिल हो तोभी कंबूल योग होता है ॥ ३७ ॥ अनुष्टु० -तत्रकार्य्याल्पताज्ञेयायथाजात्यन्यमर्थयन् ॥ अन्यजातिपुमानर्थतथैतत्कवयोविदुः ॥ ३८ ॥ इस कंबूल भेदका फल दृष्टांत सहित कहते हैं कि, जैसे एक जाति दूसरे जातिवालेसे याचना करके स्वल्पलाभी होता है, तैसेही यह कंबूलभी स्व- ल्पलाभ देता है, प्रकट यह है जो यजमान ब्राह्मणको आपही बुलाकर देगा तो उसकी इच्छानुकूल देगा जो ब्राह्मण आपही जायकर मांगेगा तो यजमान स्वल्पही देगा, ऐसा फल इस कंबूलका कविजन कहते हैं ॥ ३८ ॥ अनुष्टु० - यस्याधिकारः स्वर्शादिशुभोवाप्यशुभोपिवा || केनाप्यदृश्यमूर्तिश्वसन्याध्वगइष्यते ॥ ३९ ॥ अब गैरिकंवूलके लक्षणके लिये प्रमम शून्य मार्गगत ग्रह लक्षण क हते हैं कि, जो ग्रह स्वगृह वा स्वोच्च वा स्वद्रेष्काण स्वनवांश में कोई भी शुभाधिकारी नहीं है तथा नीच शत्रु राश्यादि अशुभाधिकारी भी नहीं है, तथा ( पदहीन ) समद्रेष्काण हद्दा नवांशाधिकारीभी नहीं है, और उसपर पाप वा शुभ किसी ग्रहकी दृष्टि नहीं है तो वह ग्रह शून्याध्वग कहाता है ॥ ३९ ॥ अनुष्टु० - लग्नकार्येशयोरित्थशालेशून्याध्वगः शशी || उच्चादिपद् शून्यत्वान्नेत्थशालोस्यकेनचित् ॥ ४० ॥ यद्यन्य प्रविश्यैषस्व- क्षोंच्चस्थेत्थशालवान् || गैरिकंबूलमेतत्तृपदोनेनाशुभंस्मृतम् ॥ ४१ ॥ चन्द्रमा शून्य मार्ग हो और लग्नेश कार्येश एक वा दोनहूं ऐसेही शून्या ध्वग हो चन्द्रमा इनसे इत्यशाली तो नहो किंतु चन्द्रमा राश्यांतर अर्थात दूसरी ऐसी राशि में प्राप्त होनेवाला हो कि वह राशि जिसका स्वगृह वा जिसका उच्च हो वह ग्रह उसीमें बैठा हो अंशोंमें ऐसा हो कि चंद्रमा प्रवेश करतेही उस ग्रहसे इत्थशाली होजाय, इसप्रकार होनेमें गैरिकंबूल योग होता है, यहभी कंबूल भेदके तुल्य फल देता है, दूसरे जो अन्य राशिस्थ भाषाटीकासमेता । (६५) शुन्याध्वग चंद्रमा उसी राशिस्थित शून्याध्वंग ग्रहसे इत्थशाली हो तो यह गैरिकम्बूल अशुभ फल देता है, यह गैरिकम्बूल पारसीय पद ( गैरकबूल ) अंगीकार न करनेका अर्थ कबूलका विपरीत अशुभही है यहां जो कम्बूल भदेके तुल्य फलदेना एक पक्षकाहै इसमें राश्यंत राश्यादिवर्त्तमान इत्थशाल भाव प्राप्त होनेसे तद्वत् हुवा, अगैरिकम्बूल गैरकम्बूलही है, यह ताजिकवेत्ता आचायका सम्मतहै ॥ ४० ॥ ४१ ॥ अनुष्टु० - लप्स्येसुखमितिप्रश्ने सिंहल रविःक्रिये ॥ अष्टांशः खपः ‘भेभौमोशैरविभिस्तयोः ॥ ४२ ॥ इत्थशालोस्तितत्रे

कन्यायांचरमेशके || स्वर्शादिपदहीनस्यनेत्थशालोस्यके

नचित् ॥ ४३ ॥ स्वस्वोच्चगेनशनिनाऽन्यर्क्षस्थेनेत्थशालकृ- त् ॥ गैरिकंबूलमन्येनसहायाचाभदायकम् ॥ ४४ ॥ गैरिकम्बूलका उदाहरण, सुखप्राप्ति प्रश्नमें सिंह लग्न लग्नेश सूर्ध्य मेषके आठ अंशपर नवम स्थानमें, कार्येश मंगल सप्तम, कुम्भके १२ अंशपर है, इनका परस्पर मुथशिल है, अब इस योगमें चन्द्रमा द्वितीय भावमें, कन्याके अन्त्य २९ अंशमें पूर्वोक्त प्रकारसे शून्यमार्ग है, इसका लमेश गैरिकन्जूल, वा कार्येशसे मुथशिल नहीं है, परन्तु चन्द्रमा, होनेवालाहै, यह राशि शनिका इत्थशाल योग्य गैरिकंवूल. तुलाका उच्च शनि यहां ७ 24 अंशपर है कि, लग्नेश कार्येश सू० मं० के साथ इत्थशाली हो सकता है, अब चन्द्रमा २९ ६ ५ १२ तुलाके होनेपर शनिके साथ इत्थशाली होना चाहता है ऐसा होनेमें शनिका दोनहूके साथ इत्थशालीका प्रयोजन चन्द्रमाने ग्रहण किया. यह गैरिकम्बूल योग चन्द्रमाके प्रभावसे शनिने किया अर्थात् खप्राप्ति फल तीसरे मनु - प्यके सहायतासे होगा, यह प्रथम प्रकार हुवा पुनः लग्न और सभी यथा - चत् हैं, और तुलामें जैसा शनि पूर्व कहा था वैसा बुधादिकोही ग्रह शून्या- ५ 4 1 (६६) ताजिकनीलकण्ठी | ध्वग हो तो यह गैरिकम्बूल अशुभ फल देता है अर्थात् सुखप्राप्ति नहीं होगी इस उदाहरणमें तुलाके शनिके स्थानमें बुध जानना ॥ ४२ ॥ ॥ ४३ ॥ ४४ ॥ ६ गरिकं. ४ 2 ३ सू. ३ १० अनुष्टुप्-शून्येध्वनींदुरुभयोनेत्थशालोनवाश्रुतिः ॥ खलासरो न शुभदः कंबूलफलनाशनः ॥ ४५ ॥ चन्द्रमा शून्य मार्गमें हो और लग्नेश कार्येश के साथ इत्थशाली न हो ४ अथवा उनसे युक्तभी न हो तो यह खल्लासर कंबू- लके फलका नाशक है, यद्वा अशुभ फल देता है, खल्लासर, पारसीय खल्लासर शब्द बलवाची है, "खल्लासरयोगोदाहरण” सिंह लग लग्नेश सूर्ध्य मेष- के तीन अंशपर, पुत्र भावेश बृहस्पति कुंभके पांच अंशपर, परस्पर इनका मुथशिल है, चन्द्रमा कन्याके २० अंशमें है यह किसी के साथ इत्थशाल नहीं करता लग्नेश कार्येशसे युक्तभी नहीं है यह खल्लासर योग पुत्रप्राप्ति में बाधा करेगा यह इसका फल है ॥ ४५ ॥ १२ रथोद्धं० - अस्तनीच रिपुवक्रहीनभादुर्बलोसुथारीलंकरोतिचेत् ॥ नेतुमेपनविभुर्यतो महोते मुखेपिनसकार्य्यसाधकः ॥ ४६ ॥ रहयोगका लक्षण कहते हैं- रद्द शब्द पारसीय ( निकम्मा ) निर्बलका पर्याय है जो यह अस्त वा नीच राशिगत वा शत्रुराशिस्थ वा वक्रगतिवा ( हीनभा ) अस्त होनेवाला समीपही उदय हुवा अर्थात् बाल वा वृद्ध हो और उपलक्षणसे ( खलस्थान ) तत्काल शत्रुस्थान वा पापयुक्त वा क्रूरा- क्रांत हो यह दुर्बल कहाता है, ऐसा निस्तेज ग्रह जब किसी के साथ इत्थ- शाल करे तो आदि वा अन्तमें इत्थशालका तद्भाव जन्यफल नहीं दे सक- ता, क्योंकि यह निर्बल होनेसे न किसीका तेज आप ले सकतो न अपना तेज किसीको देसकता, इस योगका नाम रद्द योग है ॥ ४६ ॥ 1 भाषाटीकासमेता । ॥४७॥ उपजाति केन्द्रस्थ आपोक्किमगंयुनक्तिभूत्वादितोनश्यतिकार्य- मंते ॥ आपोक्किमस्थोयदिकेंद्रयातविनश्यपूर्वभवतीहपश्चात् रद्दयोगका लक्षण फलसहित प्रकारांतरसे यहभी है, कि जब पूर्वोक्त दुर्बल बहके साथ इत्यशाल कर्त्ता कार्येश ग्रह केन्द्रमें हो और लग्नेश दुर्बल कार्येशसे आपोक्किममें हो तो यह समस्त फल सर्वदा रद्दही न होगा किन्तु प्रथम वह कार्य्य सिद्ध होकर अन्तमें नष्ट हो जायगा यहां आपोक्किम कहेसे तीसरा और नवमस्थान लिये जाते हैं ६ | १२ स्थानों में दृष्टि न होनेसे इत्थशाल योगकी सम्भावनाही नहीं जो कार्येश दुर्बल होकर आपोक्किम स्थानमें बैठा केन्द्रस्थानगत लग्नेश के साथ मुथशिल कर्त्ता हो तो उक्त भावोत्थ कार्य्यको प्रथम नष्ट करके पश्चात् उस कार्यकी सिद्धि करदेगा ' रद्दयोगका प्रथमोदाहरण' मेषलग्न लग्नेश मंगल भाग्येश बृह- प्राक्शुभपश्चादशुभरह. १२ स्पति और सूर्य शनि छठे स्थान में कन्याके १० । १० अंशमें है यहां लग्नेश कार्येश अस्तं- गत और पापयुक्त तथा छठे स्थानमें होनेसे 5 २ ४ ७ . (६७) १० ८ १० रशमं यह रद्द योग हुआ, फल भाग्यप्रश्न था भाग्यनाश होगा यद्दा 'दूसरा उदाहरण' यही मेपलग्न लग्नेश बारहवां प्राशुभपश्चाच्छुभरद्द. . २ मं१० १० मंगल दुर्बल और भाग्येश बृहस्पति मुकर नोचका दश अंशमें है यहां शीघ्र मंगल

आपोक्किममें बैठकर केन्द्रस्थं मन्दगति गुरुके

साथ इत्थशाली होनेसे यह रद्दयोग प्रथम • अशुभ पश्चात् शुभ फल कर्त्ता है यद्वा तीसरा उदाहरण शीघ्र ग्रह १० १० 1 (६८) ताजिकनीलकण्ठी | निर्बली केन्द्र में कर्क के दश अंशपर नीचका मंगल और कार्येश बृहस्पति आपोक्किम बारहवें स्थान में है मंगल बृहस्पतिसे इत्थशाली है यह रद्दयोग पूर्व शुभ फल पश्चात् अशुभ फल कर्त्ता है ॥ ४७ ॥ रहोदाहरणंम्. ३१२ १० . ४ मं १० ॥ उपजाति-मंदःस्त्रभोच्चादिपदेस्थितश्चेत्पदोनशीघ्रेणकृतेत्थशालः तत्रापिकार्य्यभवतीतिवाच्यंवक्रादिनिर्वीर्यपदेन चेत्स्यात् ॥ ४८ ॥ टुप्फाली कुत्थ्योगका लक्षण कहते हैं- जब मन्दगति ग्रह अपनी नीच राशि वा उच्च वा स्वद्रेष्काण स्वहद्दा नवांशकमें हो और शीघ्रग्रह दोन अर्थात् स्वभोच्चादि शुभाधिकार रहित इत्यशाली हो तोभी कार्य्यसिद्धि कठिनसे होजायगी कहना किंतु शीघ्रग्रह अस्त नीच शत्रु वक्र और बाल- वृद्ध निर्मल स्थानस्थित होकर इत्यशाली हो तो अनिष्ट फल कहना दुष्फाली कुत्थयोग है, पारसीय दुष्फाली शब्द दुःसाध्य और कुत्थशब्द शुभ-. वाची हैं, दुष्फालीकुत्थ दुःसाध्य शुभवाचक है, उदा- हरण, सौख्य प्रश्नमें मेपलग्न लग्नेश मंगल लग्नमें ३ यह दुःफालिकुत्थ्योग. २ मेपके बारह अंशपर सुखभावेश ग्यारहवाँ कुम्भके दश अंशपर चन्द्रमा इत्यशाली है, मंगल पदयुक्त और चन्द्रमा पदहीन है, ऐसा दुप्फाली कुत्थयोग हुआ, सुखप्राप्ति यत्नसे करता है ॥ १८ ॥ 0 इंद्रव ० - वीर्य्योनितौ कार्य्यविलननाथौस्वर्क्षादिगैर्नान्यतरोयुनक्ति ॥ अन्यौयदाद्वौबलिनौतदान्यसाहाय्यतःकार्यमुशंतिसंतः ॥ ४९ ॥ दुत्थोत्यदिवीरयोगका लक्षण कहते हैं- लग्नेश फार्मेश दोनहूं बल- हीन ( अस्त नीच रिपुवकहीनभा ) इत्यादिसे हों परस्पर इत्थशालीभी हों और इनमेंसे शीघ्रग्रह अपनेसे मन्दगतिवाले किसी अन्य तीसरे स्वक्षदि बलयुक्त ग्रहसे युक्त हो, विशेषतः मुथशिलीभी हो तो अन्यद्वारा कार्ग्य- मं१२ १२.१ १२ 2 "" चं१० 99 १०. भाषाटीकासमेता । (६९): S सिद्धि होगी, अथवा अन्य कोई स्वर्शादि पदयुक्त दो ग्रह शीघ्रगति हों और लग्नेश वा कार्येश हीनबलीसे युक्त हो वा मुथशिल करें तोभी किसी औरकी सहायता का सिद्ध होगा. यह सज्जनोक्तिहै, "उदाहरण " स्त्रीलाभ प्रश्नमें सिंहलग्न लग्नेश सूर्ध्य नीचराशि तुला, कार्येश सप्तम भावका स्वामी शनि नीच राशि मेषका है, अथवा राश्यंतरमें वक्री है. तात्पर्य्य यह है कि दोनहूं निर्बलहैं इनमेंसे शनि मंगलसे युक्त है यह स्वगृही होनेसे बलवान् है, लग्नेश कार्येशके निर्बल होनेसे कार्ग्यसिद्धि नहीं होनीथी. परंतु बलवान् मंगल तीसरे ग्रहसेभी युक्त होनेसे दूसरेके सहायत दुत्थोत्थदिवीरयोग. 9 ७ र ११ स्त्रीप्राप्ति होगी कहना. १ अथवा दो शीघ्र ग्रह सूर्य्य मंगल मेषमें ४ { | अपने २ उच्च स्वगृह होनेसे बलवान् हुये शनिके. साथ दोनहूँके इत्थशाल करनेसे योग होजा- ताहै पूर्वोकही फल देता है. यहां अंश कल्पना ११ सुमुथशिल योग्य करनी. इस योगका नाम १२ दुत्थोत्थदिवीर. पारसीय शब्दहै ॥ ४९ ॥ १० अनु० - बलीराश्यंतगोन्यर्क्षगामीदीप्तांशकैर्महः ॥ दत्तेन्यस्मैकार्य्यक रस्तंबीरोलग्नकार्य्ययोः ॥ ५० ॥ तंबीरयोगके लक्षण कहते हैं. जब लग्नेश कार्येश किसी स्थानोंमें हों इनका परस्पर इत्थशाल न हो परंतु इनमें से कोई राश्यंतगत हो और जिस राशिको गंतव्यहै उसमेंसे कोई अन्यग्रह बलवान् और इत्थशाल संबंधि अंशोंपर हो. वस्तुतः इसके साथ वह भविष्य इत्थशालकारी हो तो वह तीसरेको तेज देता है यह तंबीरयोग हुवा. फल इसका कार्य साधक है. (७०) 66 ताजिकनीलकण्ठी | उदाहरण .20 17 सुखप्राप्ति प्रश्न में तुला लग्न लंग्नेश शुक्र कर्कके दश अंशमें सुख भावेश | शनि कुंभके उनतीस अंशपर है. इनका इत्यशाल नहीं है, परंतु हस्पति मीनके पांच अँशपर है। इसको शीघ्रंगति शनि कुंभके २९ अंशपर मीनको गंतव्य होनेसे और बृहस्पति के साथ भविष्य मुशिल करनेसे अपना तेज बृहस्पतिको देताहै यहभी कार्ग्यसाधक योग है. सुखप्राप्ति करेगा ॥५०॥ उपजा० - लग्नेऽथकेन्द्रेनिकटेपिवास्यविलग्नदर्शीस्वगृहोच्चहके ॥ शल्लहेस्वेनिजहद्दगोवाबलीग्रहोमंदगतिस्त्वशीघ्रः ॥ ५१ ॥ वृ१२ तंवीरयोग. ६ - ७ ४११० पंद्रहवां कुत्थ्योगका लक्षण, कुत्थ पारसीय शब्दसे बलीग्रह लिया- जाता है वह बहुत प्रकारका है. इस कारण प्रथम वलवत्ता कहते हैं कि और स्थानोंसे लग्नगत ग्रह बली. तदभावमें अन्य केंद्रगत ४ | ७ | १० बळी होता है तथापि लग्नकी अपेक्षा न्यून ही होता है इनसेभी पणफर आपोक्किम २।५।८।११।३।६।९।१२ में न्यून होता है. दुरफमें तो६।८।१२स्थानों में निर्बली कह दिया है. केंद्रपणफर आपोक्किममें क्रमसे बल न्यून होता है और लग्नदर्शी तथा स्वोच्च स्वद्रेष्काण स्वनवांश स्वहद्दामें यह बली होता है • तथामध्यगति. ( नंदाक्षा भुजगारवे: ) इत्यादि पूर्वोक मध्यगतिपर जो ग्रह हो वह बलवानू और अल्पगति उससे न्यूनबली विशेष गति अधिक बली होता है. इसमें युक्ति यह है कि लग्नगत ग्रह पूर्ण (६०) बली, पणफरमें आधा ( ३० ) आपोक्लिममें चरण ( १५ ) वीर्य्य होता है, संधिमें अनुपात करना तब लग्नदर्शी ग्रह "अपास्य पश्यन्निजदृश्यखेटेत्यादि” से पूर्ण पापहाटसे पादोन इत्यादि तथा स्वगृही ग्रह पूर्णवीर्य स्वगृहसे सप्तम में निर्वीर्य और अंतर में त्रैराशिक विधिसे बल लेना. दुरफमें स्वगृही ७भाव बल पावै इत्यादि अंतरका नैराशिक, उच्चबल विधिवत् करना. सूर्य चंद्रमा के एक गृह होनेसे भाषाटीकासमेता | (७१) यही होगया भौमादियोंके दोराशि गृह होनेसे अपने गृहसे सम्म गृह शोधके ६से न्यून हो तो वही रखना,६ से अधिक होतो बारहमें शुद्धकरलेना उपरांत उसके अंशादिमें ३० का भाग लेना लब्धिकलादि फल होगा, यह संप्रदाय युक्त है, यहभी स्मरण चाहिये कि स्वगृहारंभ में पूर्ण बल ( ६० ) और उसके सप्तम भावारंभ • अंतरमें अनुपात जैसे १ राशि षष्ठ्यंश १८० से पूर्ण ६० बल मिलता है तो अ क इष्टराशिसे कितना मिलेगा, यहां६० से अपवर्त्तन करदिया तो गुणक १ भाजक ३० हुआ इत्यादि १ उच्चबल पूर्वोत ही है २ द्रेष्काणारंभ में ५ बल और समाप्तिमें पूर्ण १० और समाप्त होही गया तो ० शून्यबल होता है. जैसे द्रेष्काण भुक्त भोग्यांशोंका अंतर अंशादि बारह से गुनकर बल मिलता है पांच अंशसे ६० है तो शेषसे कितना इत्यादि ३ ऐसाही मुशल्लहमें और हृद्दामें भी जानना. गतिबल के निमित्त सूर्य चन्द्रमा नित्य शीघ्र होनेसे गति बल तुल्य है, मौमादियों के ५ होता है इति ॥५१॥ ( ॰जा॰) - कृतोदयोमार्गगतिःशुभेन तेक्षितेः खस्यदृष्ट्या ॥ श्रुताख्ययानाधिगतोनयु : रेणसायंचसितेंदुभौमाः ॥ ५२ ॥ और प्रकारसे बलवत्ता कहते हैं, कि जो ग्रह उदय हुआहै जो मार्ग गति अर्थात् वक्र होकर मार्ग हुआ है जो शुभ ग्रहयुक्त वा है और जिसपर क्रूर ग्रहकी क्षत १० | ४ | ७ | १ दृष्टिहै तथा जो क्रूरयुक्त नहीं है, वह बलवान् होताहै, समय बलके निमित्त सायंचसितेंदुभौमा' इस पदका अर्थ आद्यश्लोकमें कहेंगे. यहां बलगणनेकी विधि यह है कि उदय बलके वास्ते उदयदिनमें पूर्ण ६० बल अस्तदिनमें • शून्यबल होता अंतर दिनोंका अनुपात करना जैसे उदय दिनसे अस्तदिन पर्यंत जितने दिन हैं उनका आधा करके जो उसमें ६० बल होताहै तो इष्ट दिनोंमें 'कितना होगा यह त्रैराशिक विधिहै १ मार्गगति ग्रहका बल पूर्ववत् ही जानना, २ शुभ युक्त बलके लिये उसके समानलिप्ता पर्यंत होतो ६० • बल, न्यूनाधिक हो तो दोनहूंका अंतर करना यह अंश ३० से न्यून होगा, { · पुनः वे अंशादि दुगुणे करनेसे बल होता हैं ३ शुभ दृष्टि बल दृश्य ग्रहकी (७२) ताजिकनीलकण्ठी | पूर्वोक प्रकार दृष्टिमें उसकी चौथाई घटायके दृष्टिबल होता है, ४ ऐसेही औरभी जानने ॥ ५२ ॥ • ( उ० जा० ) यदोद यंते पररात्रिभागेजीवार्कजावद्विनराः सवीर्याः ॥ अन्येनिशीनस्यनचैकभागे स्थिताः स्थिरक्षेच बलेनयुक्ताः ॥ ५३॥ शुक्र चंद्रमा मंगल सायंकालमें उदय हों तथा बृहस्पति शनि अर्द्ध रात्रिसे उपरांत, जिस समयमें उदय हों, तथा पुरुष ग्रह सूर्य्य भौम बृहस्पति, दिनमें स्त्री ग्रह चंद्रमा बुध शुक्र शनि रात्रिमें तथा स्थिर राशि, २ | ५ | ८ | ११ में जो ग्रहहो, इतने सभी बलवान होते हैं, बलानयन प्रकार है कि सायं समयोदयी शुक्र तो होताही नहीं चन्द्र भौमका व सूर्य स्पष्टका अंतर करके उसमें छः घटाय देना, शेपके अंश करके तीनसे भागलेना लाभबल होगा यहां भी पूर्णबल साठ ही है उत्पत्ति उच्चवल तुल्य है शुक्र के, व सूर्य के अंतर करके छः से गुनदेना पांचसे भागदेना लाभ बल शुक्रकाहोगा इसकी उपपत्ति, जो पचास अंशोंसे ६० बलमिलता है तो इष्टांशके कितना यह त्रैराशिक है, इनमें १० से अपवर्त्तन करके गुणक ६ भाजक ५ होताहै १ अपररात्रिस्थं वृहस्पति शनि बल निमित्त जब अर्द्ध- त्रोत्तर का इष्ट हो तो अर्द्धरात्रि से तीसरे शहर पर्यंत क्रम से बल पर्ण और तीसरे शहरसे क्रम करके चौथे शहर होने में बल शून्य होजाता है, अर्द्धरात्रिसे उपरांत इष्ट काल हो तो उसमें राज्यर्द्ध घटायदेना तीसरे प्रहर उपरांत हो तो रात्रिमानमें घटाय देना शेष साठसे गुनाकर प्रहर प्रमाण घट्यादिसे भागलेना लब्धि गुरुशनिका वंल होगा २ दिवाग्रहबलविधि यह है कि जो इष्टकाल प्रातः कालसे मध्याह्नके भीतर हो तो दिनंगतलेना मध्याह्नोत्तर सायंकालके अंतर हो तो दिनशेप लेना उसे ६० से गुनाकर दिनाईसे भागलेना दिवाबल ग्रहोंका बल मिलेगा उपपत्ति यह है कि जब दिनार्द्ध में६० बल मिलता है तो दिनगत वा दिनशेष अमुक संख्यासे कितना मिलेगा ३ इसी विधिसे रात्रि बली ग्रहोंका बल राज्यर्द्धसे मिलता है. ४ सूर्य्यके भावबलविधि यह है कि ग्रहमें सूर्य घटाय देना, शेप अंशादि त्रिगुना करके ६० से शुद्ध करना बल ● भाषाटीकासमेता । (७३) होता है इसमें सूर्य्यके प्रवृत्ति निवृत्तिके २० अंश हैं इनमें ६० बल मिलता . है तो पूर्वोक्त अंतरसे कितना मिलेगा, गुणक भाजकके २० से अपवर्त्तन करके गुणक तीन भाजक १ एक होता है. ५ स्थिर राशिबल यह है कि राशिके आरंभ में बलका आरंभ १५ अंशमें पूर्ण ६० पंद्रह अंशमें ३० तो शून्यबल क्रमसे घटता बढता है ग्रहराशिके पूर्वार्द्ध में हो भुक्तांश उत्तरार्द्ध में हो तो भोग्यांशलेने वही चतुर्गुणा करके बल होता है अनुपात यह है कि ३५ अंशसे पूर्ण६० बल होता है तो भुक्त वा भोग्यांशों से कितना होगा ६ किसीका मत यह है कि ग्रह राश्यादिमें पूर्ण बली मध्यमें मध्य अंत में शून्य बली क्रमसे होता है, तो ग्रहके अंशादि ३० से शुद्धकरके शेष द्विगुण करना बही बल होता है "अनुपात" जो ३० अंशसे पूर्ण बल ६० मिलता है तो ग्रह भोग्यांशों से कितना मिलेगा यहां दोनहूं में ३० से अपवर्त्तन करके शेषद्वि- गुण बल होगा, यह अर्थयुक्त है ॥ ५३ ॥ उपेंद्रव० - स्त्रियश्चतुर्थात्पुरुषावियद्भाद्भषट्कगाओजभगाः पुमांसः ॥ समेपरेस्युर्बलिनोविमृश्यविशेषमेतेषुफलंनिगद्यम् ॥ ५४ ॥ और प्रकारसे बल कहते हैं कि स्त्री ग्रह च. बु. शु. शं. चतुर्थ भावसे दशम पचैत छः स्थानमें और पुरुष ग्रह सू. मं. वृ. दशमसे चतुर्थ तबली होते हैं तथा विषम राशियों में पुरुष ग्रह सम राशियोंमें स्त्री ग्रह बली होते हैं यहां स्त्रीग्रह चतुर्थ से दशम और पुरुषग्रह दशमसे चतुर्थ पर्य्यत, सभी भावोंमें तुल्यही बल पाते हैं यही उपपत्ति है और विषम सम राशिगत पुं- स्त्री ग्रहोंका बल स्थिर राशिसंस्थ ग्रहवत् पूर्वोक्त प्रकारसे जानना इतने प्रकार बलाबल कहनेका प्रयोजन यह है कि इत्थशाल कर्त्ता वा इत्थशाल कर्ना चाहता ग्रह उक्त प्रकारोंसे जैसे में हो वैसाही फल कहना, यहां उक्त बल भेदों से किसी प्रकार बली जो इत्थशाली ग्रह है उसोको कुत्थ योग कहते हैं न कि कुत्थ शब्दसे बली ग्रह लिया जाताहे ॥ ५४ ॥ स्रग्धरा - लग्नात्पष्टांत्यर्मेत्येऽनृजुररिगृहगोनीच गोवऋगामीकरैर्युक्तो- स्तगोवा यदिचमुथशिलीक्रूरनीचारिभस्थैः ॥ क्षुदृष्ट्याकूरह (७४) ताजिकनीलकण्ठी | ष्टोव्ययरिपुमृतिगैरित्थशालंविधित्सुः कुर्वन्वानिर्बलोयंस्वगृहगन भगोराहुपुच्छास्यवर्ती ॥ ५५ ॥ उपजा ० - अनीक्षमाणस्तनुम स्तभागस्थितः स्वभोच्चादिपदैश्चशून्यः ॥ क्रूरेसराफीर्नसवीर्य्ययु क्तः कार्य्यविधातुंनविभुर्यतोसौ ॥ ५६ ॥ अब सोलहवें दुरफं योगका लक्षण कहते हैं, पारशीय दुरफ शब्द निर्बलवाची है यह निर्बलता बहुत प्रकार होती है इसलिये निर्बलप्रकार प्रथम श्लोकसे यह है कि वर्ष प्रश्न वा दिन लग्नसे जो ग्रह छठे आठवें बारहवें स्थान में हो तथा गतिरहित यद्वा शत्रुराशिस्थ नीचराशिगत वक्रगतिवाला, तथा पापयुक्त और अस्तंगत ग्रह यद्वा जो शत्रु ग्रहसे वा नीच शत्रुरा- शिगत ग्रहसे इत्थशाली हो और जिस पर पापग्रहकी क्षुत दृष्टि ४ । १० । ७ । १ हो और छठे आठवें बारहवें स्थानगत ग्रहसे जिसका इत्थशाल हो वा कर्ना चाहता हो, या अपनी राशिसे सप्तम राशिमें हो, तथा राहुके पुच्छ वा मुखमें हो राहुके भुक्तांश पुच्छ भोग्यांश मुख होता है इतने प्रकार युक्त ग्रह निर्बल होता है. इसके निर्वलांक गणितकी पूर्ववतही विधिहै जैसे शत्रु राशिगतका स्थिर राशिगत ग्रह तुल्य विधिसे करना वऋग्रह के लिये - वक्रदिनोंमें पूर्ण फिर क्रमसे पूरे दिनोंमें शून्य होताहै, मध्यदिनोंसे पूर्ण (६०) मिलताहै तो इष्टदिनोंमें कितना मिलेगा इति । तथा क्रूर युक्त ग्रह नौ अंशके भीतर शून्य उपरांत भाव फलके तुल्य बललेना, अस्तग्रहको उदित ग्रहवत् विधिसे गैराशिक, करना, उपरांत ६० से शुद्ध करके अशुभ चलमिलता है इत्यादि पूर्वोक्त विधियोंसे सभीका हीन बललेना ॥५५॥ और प्रकार अशुभ बल प्रकार कहते हैं कि जो ग्रह लग्नको नहीं देखता वह निर्बल होता है जिस भाव में जिस ग्रहकी दृष्टिका अभाव है उसमें गणितसे जो कुछ अंक पाया है वह उसके आगे के भावके अंक में घटाय देना शेष अशुभ दृष्टि होतीहै १ तथा अस्तंगत सूपं जिस नवांशक में है उससे सप्तम नवांशमें जो हो वह निर्बल होता है. पूर्वविधिसे जो बल अस्तका आता है। 4 भाषाटीकासमेता । (७५ ) उसे ६० में शुद्ध करके अशुभ बल होता है, किसीका मत है कि सूथ्य जिस राशि नवांशमें अस्त होता है उसमें वर्त्तमान ग्रह निर्बल होताहै परंतु जिस दिन सूर्ध्य उदय नवांशसे अन्यमें अस्त हो उस दिन यह विचार है. सूर्य्य तो सर्वदा उदय नवांशमें अस्त होता है कदाचित् बदलता है . २ तथा स्वगृह उच्च हद्दा द्रेष्काण नवांश संज्ञक पदोंसे रहित यह निर्बल होता है यहभी स्वगृहादियोंका शुभ बल जो पूर्व कहा गया है उसे ६० में शुद्ध करनेसे अशुभ बल होताहै और ( क्रूरेसराफी) ईसराफ योग पूर्व कहा गया है, जो ग्रह पाप ग्रह के साथ ईसराफी अर्थात् शीघ्र घन भाग मंद अल्प भाग हो तो यह अपना तेज दूसरेको नहीं देसकता इसकारण यहभी निर्बली होता है मंदग्रहसे पीछे शीघ्रग्रह स्वदीप्तांशों के अंतर हो तो शून्य बल इसके उपरांत कमसे मंदग्रहोंके अंशोंके समान होनेपर पूर्ण बली होताहै, बीच में हो तो अनुपात जैसे यदि अमुक दप्तांशोंसे पूर्ण (६०) बल मिलता है तो दीप्तांशों में भुक्त अंशोंका कितना मिलेगा ऐसाही ईसराफकीभी रीति है, इत्थशालीग्रह इत्युक्त प्रकारों में किसी प्रकारसे निर्बल हो तो इत्थशालोक्त फल नहीं देता, इसका नाम दुरफ योगहै ॥ ५५ ॥ ५६ ॥ शालि०-चंद्रः सूर्य्या द्वादशेवृश्चिकाद्येखंडेनेष्टोंतेतुलायांविशेषात् ॥ राशीशेनादृष्टमूर्त्तिनसर्वैर्दृष्टो यःशून्यमार्गः पदोनः ॥ ५७ ॥ सब ग्रहों के दुरफ कहने उपरांत केवल चद्रंमाका दुरफं कहते हैं कि जो सूर्य्यसे बारहवें स्थानमें चंद्रमा हो तो निर्बल होता है तथा वृश्चिक के पूर्वार्द्ध १५ अंशपर्यंत और तुलाके उत्तरार्द्ध १५ अंश उपरांत तद्वत् चंद्रमा जिस राशिमें है उसका स्वामी इसको न देखे, तथा चंद्रमाको कोई ग्रहनदेखे तथा शून्याध्वग जर्थात् स्वोच्चादि शुभाधिकार रहित हो तो इतने प्रकारसे चंद्रमा निर्बल होता है. ग्रंथांतरोंमें चन्द्रमाके निर्बल होनेके दश प्रकार ये हैं कि नीचगत १ नीचस्थ ग्रहसे मुथाशली २ सूर्य्यके समीप १२ अंशके अभ्यं- तर ३ ( राहुमुख ) राहुके भोग्यांशों में ४ पापग्रहके साथ १२ अंशके भीतर ५ अपनी राशिसे सप्तम मकरका ६ धन राशिमें धन नवांशका, अपनी राशीसे सप्तम राशिमें ग्रह निर्बल होता है, जो कहा वह उससे A । ( ७६ ) ताजिकनीलकण्ठी । पूर्व राशिके एक नवांशको लेकर होता है ७अस्तंगतके ८ अस्तंगतके साथ मुथशिली ९ शत्रुक्षेत्रगत १० इतने प्रकारोंसे चंद्रमा निर्बल होताहै ॥ ५७ ॥ शालि०-क्षीणोभतेनाशुभोजन्मकाले पृच्छायांवाचंद्रएवंविचित्यः ॥ शुक्केभौमः कृष्णपक्षेर्कसूनुः क्षुदृष्टचेंदुंवीक्ष्यतेनोशुभोसौ ॥ ५८ ॥ और चंद्रमा कृष्ण पक्षकी एकादशीसे शुक्लकी पंचमी पतं तथा राशिके अंत्य २६ । ४० अंशसे ऊपर अर्थात नयम नवांशक में ( क्षीण) अशुभ होता है यह विचार जन्मकाल वा प्रश्नादिमें करना तथा मंगल शत्रु दृष्टि ४ । १० । ७ १ से शुक्ल पक्षके चंद्रमाको देखे और शनि ऐसी दृष्टि से कृष्ण पक्षके चन्द्रमाको देखे तो वह चन्द्रमा संपूर्ण कार्यों में अशुभ होता है ॥ ५८ ॥ वसंततिलका ०-शुक्केदिवानृगृहगोर्कसुतः शशांकं कृष्णे कुजो- निशि समर्क्षगतःप्रपश्येत् ॥ दोषाल्पतां वितनुतेऽपरथाबहुत्वं प्रश्नेथवाजनुषिबुद्धिमतोहनीयम् ॥ ५९ ॥ जो शुक्लपक्ष और दिनमें ( पुरुष राशि ) विषम राशि में बैठा शनैश्चर चन्द्रमाको देखे तथा कृष्णपक्ष और रात्रि में ( समराशि ) स्त्री संज्ञक - राशिमें बैठा मंगल इसे देखे तो चन्द्रमाका पूर्वोक्त (दुरफ ) निर्मलताका दोष हो जाता है इसप्रकार श. मं. की दृष्टि न होनेमें दोष प्रबलही रहताहै यह विचार जन्म तथा प्रश्न उपलक्षणसे वर्षादियों में विचारना चाहिये, इन दोनहूंको ( कुत्थ) बलवान् और ( दुरफ ) निर्बल योग सभी ग्रहोंके सर्वदा विचारने चाहिये. इन दोनोंका बल उक्त प्रकारसे गिनकर इनका अंतर करना जो कुत्थ बल अधिक हो तो वह ग्रह अशुभ स्थानमेंभी शुभ देता है, वह शुभ स्थानमें अत्यन्तही शुभ देता है जो दुरफ बल अधिक हो तो वह ग्रह शुभ स्थानमेंभी अशुभ फल देता है अशुभ स्थानमें अत्यंत अशुभ देता है ग्रह बलतारतम्यसे फल सर्व विचारना. इति १६ योग स० ॥ ५९ ॥ अथ हर्षवलानयनम् । 1 उ० जा० - नंदत्रिषड्लग्नभवर्क्षपुत्रध्ययाइनाद्धर्पपदंस्वभोच्चम् ॥ भाषाटीकासमेवा । (७७) त्रिमंत्रिमंलमभतः क्रमेणस्त्रीणांनृणांरात्रिदिनेचतेषाम् ॥ ६० ॥ अब सामान्यतासे चार प्रकार हर्षस्थान कहते हैं कि सूर्य नवम • स्थान में चंद्रमा तीसरे मंगल छठेमें बुध लग्नमें बृहस्पति ग्यारहवेंमें शुक्र पंचम शनि बारहवेमें हर्षबल पाते हैं दूसरा सूर्य्यादि ग्रह अपने २ उच्च तथा अपनी २राशिमें हर्ष बली हो२तीसरा जैसे १ । २ । ३ भावोंमें स्त्री ग्रह ४ । ५ । ६ में पुरुष ग्रह तथा ७ ।८ । ९ में स्त्री ग्रह १० | ११ | १२ में पुरुष ग्रह ३ चौथे रात्रि में स्त्री ग्रह दिनमें पुरुष ग्रह बल पातेहैं ४ यह बल प्रश्न और जन्म वर्षादियों में भी विचारना. इनका न्यास चक्र बनायके, जिस स्थानमें जो ग्रह बल पावे उसके उससंज्ञाके कोष्ठ में ५ श्री० कुण्डली वर्ष. स्थान ० हर्षबलचक्रम् | चं१० वृ११ x सू १ शु१२ बुमरामु र चं मं बु बृ शु श D ० ० ० स्वरा०० ० स्वोच्च ५ ० स्त्री.पु. ० स.दि।५ ० योग. /१०० ०५१०५५ अंकलिखना और स्थानोंमें शून्य करदेना. पीछे सबका योग करना. जैसे कोई ग्रह एक स्थान में बल पावे तो५ही योगहुवा दोनोंमें बली हो तो १० तीनमें १५ चारोंमें २० योग होगा इसे हर्ष विंशोंपका बल कहते हैं इसके अनुसार फल कहना विशेष विचार यह है कि जो पूर्व कुत्य दुरुफ बल त्रैराशिकसे मिले हैं उनको और हर्षबलको त्रिगुण करके मिलायदेना शुभाधिक हो तो शुभफल विशेषहीन बलाधिक हो तो अंतर करके अशुभ फल विशेष कहना. यह ताजिक शास्त्रवेत्तायों का संप्रदायहै ॥ ६० ॥ शार्दूल० - श्रीगर्गान्वयभूषणगणितविञ्चितामणिस्तत्सुतोऽनं- तोनंतमतिर्व्यधात्खलमतध्वस्त्यैजनुः पद्धतिम् ॥ तत्सूनुः खलु नीलकंठविधोविच वानुज्ञया योगान्पोडशहर्षभा- निच तथासंज्ञाविवेकेव्यधात् ॥ ६३ ॥ ० ० ० ० ० ० ० O 8 ० ० ० ०० ५५ ०५ ० ० (७८) ताजिकनीलकण्ठी | प्रथम संज्ञा प्रकरण में आचार्य्यने स्वनाम गुणादि प्रकट किये वही इस दूसरे प्रकरणमें भी जानना इतना विशेष है कि षोडशयोग हर्षस्थान इस दूसरे प्रकरणमें कहें ॥६१ ॥ इति महीधरकृतायां ताजिकनीलकंठीभाषायां ग्रह स्वरूपदृष्टिषोडशयोगहर्षस्थानविवरणनामाध्यायः ॥ इन्द्रवज्राछन्दः– पुण्यंगुरुर्ज्ञानयशोथमित्रंमाहात्म्यमाशाच समर्थताच ॥ भ्राताततोगौरवरा जतातमातासुतोजीवितमंबु G कर्म ॥ १ ॥ ( वसंतति ० ) मांद्यंच मन्मथकलीपरतःक्षमोक्रूं शास्त्रंसबंधु सहमंत्वथबंदकंच ॥ मृत्योश्च सद्मपरदेशधनान्यदा- स्यादन्यकर्मस वणिक्त्वथकार्य्यसिद्धिः ॥ २ ॥ ( अनु० ) उद्वाह सूतिसंतापाः श्रद्धाप्रीतिर्बलंतनुः ॥ जाड्यव्यापारसहमे पानीयपतनंरिपुः ॥ ३ ॥ अनुष्टुप् ०-शौर्योपायदरिद्रत्वंगुरुताजलकर्मच ॥ . बंधनं दुहिताश्वश्चपंचाशत्सहमानिहि ॥ ४ ॥ अब सहम विचार कहते हैं ( सहम ) पारशीय पद सभवाची हैं. यह समर सिंहमतसे ४८ और यवनादियों के मतसे ५० हैं कोई अधिकभी कहते हैं यहां ५० के नाम कहे जाते हैं कि पुण्य १ गुरु २ ज्ञान ३ या ४ मित्र ५ माहात्म्य ६ आशा ७ समर्थता ८ भाता ९ गौरव १० राजा ११तात १२ माता १३ सुत १४ जीवित १५ जल १६ कर्म १७ मांय १८ कामदेव १९ कलह २० क्षमा २१ शास्त्र २२ बन्धु २३ बंदक २४ मृत्यु २५परदेश २६ न २७ अन्यदारा २८ अन्यकर्म २९ वणिक ३० कासिद्धि ३१ विवाह ३२ प्रसूति ३३ संताप ३४ श्रद्धा ३५ प्रीति ३६ बल ३७ तनु ३८ जाड्य ३९ व्यापार ४ ० पानीयपतन ४१ शत्रु४ २शौर्य ४३उपाय ४४ दरिद्र ४५ गुरुता ४६जलकर्म४ ७बन्धन ४८ दुहिता ४९ अश्व५० ये तो आचाग्य कथितहैं और इनमें परदेशही मार्ग विवाहही स्त्री ज्ञानही विद्या सहम जानना और आचार्ग्य मतसे सहम औरभी हैं कि भार्ग्या ५१ मोक्ष ५२ वसु ५३पितृव्य ५४क्लेश ५५ गमागम ५६ गज ५७ सन्मति ५८ घात ५९ कोष्ट ६० चतुष्पद ६१ व्यसन ६२ कृषि ६३ दृष्टि ६४ आखेट ६५ ● भाषाटीकासमेता । (७९ ) ॥ ५ ॥ भृत्य ६६ अंग ६७ प्राप्ति ६८ निधि ६९ ज्ञाति ७० ऋण ७१ बुद्धि ७२ आधान ७३ धैर्घ्य ७४ सत्यक ७५ इतने औरभी हैं ॥ १ ॥ २ ॥ ३ ॥४॥ इन्द्रव॰—सूर्योनचंद्रान्वितमह्निल वींद्रर्क तनिशिपुण्यसंज्ञम् ॥ शोद्व्यर्क्षशुद्धयाश्रयभांतरालेलग्नंनचेत्सैकभमेतदुक्तम् अब सहमोंकी बनाने की रीति कहते हैं प्रथम पुण्य सहमके लिये यह है कि, वर्षप्रवेश वा जन्मादि काल दिनका हो तो तात्कालिक स्पष्ट चन्द्रमामें तात्कालिक सूर्घ्य स्पष्ट घटायके तात्कालिक लग्न स्पष्ट जोडदेना, रात्रिका लग्न हो तो सूर्य्यमें चंद्रमा घटायके लग्न स्पष्ट जोडदेना, यह पुण्य- सहमका राश्यादि स्पष्ट होता है, परन्तु जिसमें संस्कार औरभी है, जो ग्रह घटाया जाता है वह शोध्य और जिसमें घटाया जाता है वहशुद्ध्याश्रय कहाता है शोध्यक्ष और शुद्ध्याश्रयकेबीच अर्थात् शोध्य ग्रहकी राशिसे शुद्ध्याश्रयग्रह स्थित राशि पर्यंत लग्न न हो तो पूर्वानीत पुण्यसहममें एक (१)राशि जोडदे- ना ऐसा न हो तो न जोडना ( उदाहरण ) सूर्य्य स्पष्ट राश्यादि ४ । ८ १० चन्द्र स्पष्ट राश्यादि ६ | १२ | १० लग्न स्पष्ट | ८ | १० | १० दिनके वर्ष प्रवेशमें सूर्य्य चन्द्रमामें घटाया शेष२ । ४ । ० लग्न जोडदिया तो १० १४। १०अब संस्कार है कि शोध्यक्ष सिंह ८ अंशसे शुद्धयाश्रय तुला १२ ..अंशकेभीतर लग्न न होनेसे एक जोडदिया तो ११॥ १४ ॥१० यह पुण्यसहम हुआ, रात्रिका वर्षप्रवेश हो तो उदाहरण सूर्य्य ८|४|१०में चन्द्रमा६।१२ १० घटाया शेष १ । २२ १० लग्न ० | १० | ० जोडदिया तो भया २|२|० सूर्य्यमें चंद्रमा घटाया इस लिये तुला १२ अंशसे धन ४ अंशप - येत लग्न न होनेसे सैक करना इससे ३ । २ । यही पुण्यसहम भया शोद्ध्याश्रय राश्यंतर लग्न न हो तो राशिमें १ जोडना यह संस्कार सभी सहमोंमें जानना ॥ ५ ॥ 0 0. उ० जा० - व्यत्यस्तमस्मा रुविद्ययोस्तुसंसाधनं पुण्यवियुक् रे - ज्यः || दिवाविलोमं निशिपूर्ववत्यशोभिवंतत्सहमंवदंति ॥ ६ ॥ (८०) ताजिकनीलकण्ठी | अब गुरुविधा और यश सहमकी विधि कहते हैं, इनमें गुरु और विद्या, सहम तो पुण्य सहमके विपरीतहै जैसे दिन में सूर्य्य में चन्द्रमा घटायके रात्रिमें चन्द्रमामें सूर्य घटायके लग्न जोडदेना 'शोद्धयक्षैत्यादि' संस्कार करके गुरु और विद्यासहम होते हैं विद्यासहमको ज्ञानभी कहते हैं ३ यश समहके लिये दिनमें बृहस्पतिमें पुण्य सहम घटायदेना रात्रिमें पुण्य सहममें बृहस्पति घटा- यदेना शोद्ध्यर्क्षेत्यादि सर्वत्रही है यह यशसहम होता है ॥ ६॥ रथोद्ध० - पुण्यसद्मगुरुसद्मतस्त्यजेव्यत्ययोनिशिसितान्वितंचतत् ॥ सैकतातनुवदुक्तरीतितोमित्रनामसहमविदुर्बुधाः ॥ ७ ॥ मित्र सहम निमित्त दिनमें गुरु सहममें पुण्यसहम घटायके शुक्र जोड देना, रात्रिको पुण्य सहममें गुरु सहम घटायके शुक्र जोडा शोद्धयर्क्ष शुद्धयाश्रय भांतराल लग्न हो तो १ जोड़देना मित्र ५सहम होताहै ॥ ७ ॥ शालिनी - पुण्याद्भौमंशोधये दुक्तवत्स्यान्माहात्म्यंतन्नक्तंमस्मादिलो- मम्॥ शुक्रंमंदादह्निनक्तं विलोममाशाख्यंस्यादुक्तवच्छेषमूह्यम् ॥ ८ ॥ माहात्म्य और आशा सहमके लिये पुण्य सहममें मंगल घटाके लग्न जोड़देना शोध्यक्षैत्यादिसे सैक प्राप्ति हो तो १ जोड़देना दिनका माहात्म्य सहम ६ होता है रात्रिको विपरीत, जैसे मंगलमें पुण्य सहम घटायके शेष पूर्ववत करना आशा सहमको शनिमें शुक्र घटायके शेष लग्न में जोड़ना एक योगकी प्राप्ति हो तो जोड़ना. दिनका आशा सहम होताहै, रात्रिको विपरीत जैसे शुक्रमें शनि, घटायके शेष पूर्ववत् करना. आशा इच्छाका नाम है ॥ ८ ॥ इन्द्रवज्रा – सामर्थ्यमारात्तनुप॑विशोध्यनक्तंविलोमंतनुपेकुजेतु ॥ जीवाद्विशुध्येत् सततं पुरावद्धातार्किहीनाद्वरुतःसदोह्यः ॥ ९ ॥ दिनको लग्नेश मंगलमें घटाना रात्रिको मंगल लग्नेशमें घटाय देना जब लग्नेश मंगलही हो तो दिन तथा रात्रिमें बृहस्पतिमें शुद्ध करना सामर्थ्य- सहम होता है तथा दिन रात्रिमें बृहस्पतिमें घटायके शेष पूर्ववत् करना यह भ्रातृसहम होताहै ॥ ९ ॥ . उपजाति - दिनेगुरो श्चंद्रमपास्यनक्तंरविंक्रमादकँविधूचदेयौ ॥ . भापाटीकासमेता । ( ८३ ) रीत्योक्तयागौरव मर्कमार्केरपास्यवामंनिशिराजतातौ ॥ १० ॥ दिनको बृहस्पतिमें चन्द्रमा घटायके शेपमें सूर्य जोड़ना, रात्रिको बृह- स्पतिमें सूर्य घटायके चन्द्रमा जोड़ना शोध्यक्षैत्यादि अन्तराल सूर्या चन्द्रमा न हो तो १ जोड़ना गौरवसहम होता है १० तथा दिनको शनिमें सूर्य घटायके और रात्रिको सूर्ग्यमें शनि घटायके पूर्ववत् लभ जोड़ना, शोध्यक्ष त्यादि संस्कार करके राजसहम होता है ११ यह पितृसहम१२ भी है ॥ ३० ॥ इंद्रव० - मातेन्दुतोपास्यसितं विलोमं नक्तंसुतोहर्निशमिंदुमीज्यात् ॥ स्याज्जीविताख्यंगुरुमार्कितोहिवाम॑निशीदंससमंवयांडु ॥ ११ ॥ दिनको चन्द्रमा में शुक्र घटायके रात्रिको शुक्रमें चन्द्रमा घटायके लन जोड़ना, मातृ और अंबु अर्थात् जलसहम होता है १३ दिनको और रात्रि- कोभी गुरुमें चन्द्रमा घटायके लग्न जोड़ना पुत्रसहम होता है १४ दिनको शनिमें बृहस्पति घटायके रात्रिको बृहस्पतिमें शनि घटायके लग्न जोड़ना जीवितसहम होता है १५ इसीको ऐश्वर्श्वसहममी कहते हैं असहम मातृ सहमही होता है सो कह चुके हैं १६ ॥ ११ ॥ इँ०व०–कर्मज्ञमारान्निशिवाममुक्तरोगारख्यमिदुतनुतः सदैव ॥ स्यान्मन्मथोलग्नपमिंदुतोह्नि वाम॑निशींढुंतनुपंसदाऽर्कात् ॥ १२ ॥ दिनको मंगलमें बुध रात्रिको बुधमें मंगल घटायके लग्न जोड़ना कर्मस- हम ३७ होता है, लनमें चन्द्रमा घटाय लग्न जोड़कें रोगसहम १८ दिनरांत्रि का होताहै,लग्नमें चन्द्रमा घटायके रात्रिको विपरीत करके लग्न जोड़ना काम- सहन ३९ होता है चन्द्रमाही लग्नेश हो तो दिन तथा रात्रि सूर्यमें चन्द्रमा घटाना ॥ १२ ॥ उ॰जा॰ - कलिक्षमेस्तोगुरुतोविशुद्धेकुजे विलो मंनिशिपूर्वरीत्या ॥ शास्त्रंदिने सौरिमपास्यजीवाद्वामं निशिज्ञस्ययुतिः परावत् ॥ १३ ॥ बृहस्पतिमें मंगल घटायके लग्न जोड़ना दिनका कलिसहम २० होता है, रात्रिको मंगलमें बृहस्पति घटायके लग्न जोड़ना क्षमासहमभी इसी प्रकारका (८२) ताजिकनीलकण्ठी । है २१ दिनको बृहस्पतिमें शनि रात्रिको शनिमें बृहस्पति घटायके शेपमें बुध जोड़ना शास्त्रसहम होता है २२ शोध्यक्षैत्यादि संस्कार सर्वत्रही है ॥ १३ ॥ ● जा० - दिवानिशंज्ञाच्छशिनंविशोध्यबंध्वाख्यमेतन्निशिबंदकं वामंदिवैतन्मृतिरष्टमक्षदिंदु विशोध्योक्तवदार्किंयोगात् ॥ १४ ॥ स्यात् दिनको बुधमें चन्द्रमा घटायके लग्न जोड़ना रात्रिकोभी यही करना बन्धुसहम होताहै २३ दिनको चन्द्रमामें बुध और रात्रिको बुधमें चन्द्रमा घटायके लग्न जोड़ना बंदकसहम होता है २४ दिन तथा रात्रिमें मृत्युभावमें चंद्रमा घटायके शनि जोड़ना मृत्युसहन २५ होता है ॥ १४ ॥ उपजा० - अहर्निशंवित्तपमर्थभावाद्विशोध्य पूर्वोक्तवदर्थसद्म ॥ देशांतराख्यंनवमाद्विशोध्यधर्मेश्वरंसंततमुक्तवत्स्यात् ॥ १५ ॥ 3 दिवा और रात्रिमेंभी धनभावमें धनभावेश घटायके लग्न जोड़ना धन- संहम २६ होता है तथा दिवा रात्रि धनभावों धर्मभावेश घटायके लग्न जोड़- ना परदेशसहम २७ होताहै ॥ १५ ॥ उपजा० - सितादपास्यार्कमथान्यदाराह्वयंसदाप्राग्वदशान्यकर्म || चन्द्राच्छनिवाममयोनिशायांशश्वद्वणिज्यंदिनबंदकोत्त्या ॥ १६ ॥ दिनरात्रि शुक्रमें सूर्य्य घटायके लग्न जोड़ना परस्त्री सहम २८ होता है, दिनको चन्द्रमामें शनि रात्रिको शनिमें चन्द्रमा पटायके लग्न जोड़ना पर- कर्म २९ सहन होता है, दिनरात्रि चन्द्रमायें बुध घटायके लग्न जोड़ना वा- णिज्य सहम ३० होता है ॥ १६ ॥ उपजा० - शनेर्दिव कैनिशिचंद्रमार्केविंशोध्य सूय्यँदभनाथयोगात् ॥ स्यात्कार्यसिद्धिः सततं विशोध्य मंदसितात्स्यात्तुविवाहसम्म ॥ १७ ॥ दिनको शनिमें सूर्ग्य घटायके सूर्यराशिनाथ जोड़ना, रात्रिको शनिमें चंद्रमा घटायके चंद्रराशिस्वामी जोड़ना कार्य्यसिद्धि ३१ सहम होता है, दिन- रात्रि शुक्रमं शनि चटायके लग्न जोड़ना विवाह सहम ३२ होता है ॥ १७ ॥ ( ८३ ) भाषाटीकासमेता । उपजा॰—गुरोर्बुधंप्रोज्यभवेत्प्रसूतिर्वांमंनिशींदुंशनितोविशोध्य ॥ पष्टंक्षिपेदुक्तदिशासदैव संतापसझार मपास्यशुक्रात् ॥ १८ ॥ दिनको बृहस्पतिमें बुध रात्रिको बुधमें बृहस्पति घटायके लग्न जोडना प्रसूतिसहम होता है ३३ दिनरात्रि शनिमें चन्द्रमा घटायके रिपुभाव जोडना संतापसहम ३४ होताहै ॥ १८ ॥ उ० जा० - श्रद्धासदाप्रोक्तदिशाथपुण्यविद्याख्यतः प्रोज्झ्यसदापुरोक्त्या प्रीत्यारख्यमुक्तंवलदेहसंज्ञेयशःसमेजाडयमपास्यभौमात् ॥ १९ ॥ दिनरात्रि शुक्रमें मंगल घटायके लग्न जोडना श्रद्धासहम ३५ होता है, दिनको रात्रिकोभी विद्यासहममें पुण्यसहम घटायके लग्न जोडना प्रीतिसहम ३६ होता है, बलसहम ३७ और देहसहम ३८ यशसहमके तुल्य जानने और दिनको मंगलमें तथा शनि रात्रि में विपरीत करके बुध जोडना जाड्य ३९ सहम होगा ॥ १९ ॥

उपजा ० - शनिविलोमंनिशिचांद्रयोगाद्वयापारमाराज्ज्ञमपास्यशश्वत् ॥

पानीयपातः शशिनंविशोध्यसैौरेर्विलो मंनिशिपूर्ववत्स्यात् ॥ २० ॥ दिनरात्रि भौममें बुध घटायके लग्न जोडदेना व्यापारसहम ४० होताहै दिनको शनिमें चन्द्रमा रात्रिको चन्द्रमामें शनेि घटायके लग्न जोडना पानीय- पतनसहम ४१ होताहै ॥ २० ॥ उपजा० - मन्दंकुजात्प्रोज्ज्ञ्य रिपुर्विलोमंरात्रौ भवेद्भौमविहीनपुण्यात् ॥ शौर्य्यविलोमंनि शिपूर्ववत्स्यादुपायईज्यंशनितोविशोध्य ॥ २१ ॥ दिनको मंगलमें शनि रात्रिको शनिमें मंगल घटायके लग्न जोडना शत्रु ४२ सहम होता है, दिनको पुण्यसहममें मंगल रात्रिको मंगलमें पुण्यसहम घटायके लग्न जोडना शौर्यसहम ४३ होता है, दिनको शनिमें बृहस्पति रात्रिको बृहस्पतिमें शनि घटायके लग्न जोडना, उपायसहम ४ ४ होताहै२१ ॥ (८४ ) ताजिकनीलकण्ठी | उपजा० - चामंनिशिज्ञंतुविशोध्य पुण्याज्जयुग्विलोमंनिशितहरिद्रम् || सूर्योच्चतः सूर्यमपास्यनक्तं चन्द्रंतदुच्चारुतापुरोक्त्या ॥ २२ ॥ · दिनको पुण्यसहममें बुध घटायके बुथ जोड़ना रात्रिको बुधमें पुण्यसहम घटायके बुध जोड़ना तो दारिद्र्यसहम ४५ होता है, दिनको सूके उच्च । १० में सूर्य्य घटायके लग्न जोड़ना, रात्रिको चन्द्रमाके उच्च १ | ३ में चन्द्रमा घटायके लग्न जोड़ना गुरुसहम ४६ होता है, शेपकर्म शोध्यक्षैत्यादिसे संस्कार सर्वत्रही देखना चाहिये || २२ ॥ अनु० - कर्कार्द्धतः शनिप्रोज्झ्यस्याज्जलाध्वान्यथानिशि ॥ पुण्याच्छनिविशोध्याह्नवामंनिशितुबंधनम् ॥ २३ ॥ दिनको कर्क आधा ३ । १५ में शनि घटायके रात्रिको विपरीत करके लग्न जोड़ना जलमार्गसहम ४७ होता है, दिनको पुण्यसहममें शनि और रात्रिको शनिमें पुण्यसहम घटायके बंधन ४८ सहम होता है ॥ २३ ॥ सं० १ २ ज्ञान | यशच ना० पुण्य गुरु विद्या लवपु दिवा लग्झ मित्र गुरु चंद्रे खो खो जावे सहम ऋण रवि चंद्र चंद्र पु. स. पु. स. भौम tė ३ ल. धन ल. धन शुक्र | ल. रा. ल. खो चंद्रे चंद्रे पुण्ये पुण्ये भौमे सहमसारणी । ५ Is is Is माहा त्म्य Iš ॠ. चंद्र रवि रवि जीवे गु. स. पु. स. शुक्र ल. पु. स. to 9 ८ ९ आशा समर्थ भ्रातृ गौरव शनौ भामे जीवे जीवे शुक्र तनुप: शनि चंद्र ल. खो शुक्रे अ , गुरो शनि भोम |शनि रवि ल. ल. सं० ११ १२ १३ माता जल. १६ १७ १८ १९ २० काल. अंबु. कर्म. रोग. काम. कांति. दे० शन. शनौ. चंद्रे. गुरौ शनौ. चंद्रे. भौमे शनौ. चंद्रे. गुरौं, धन. ना०. राज तात. सुत. जीव. दिवा लग्न. ऋण. रवि, रवि. शुक्र. चंद्र. जीव शुक्र. बुध. चंद्र. लमेश. भौमे. 18 18 18 18 ना. दिवाल. शनौ जोवे बुधे चंद्रे धन. ल. ल. ल. ल. रानौ' रखौ. रखौ. भृंगौ. गुरौ गुरौ. शुक्रे. बुधे. तनौ. लनश भौम. ऋण. शनि. शनि. चंद्र. चंद्र शनि. चंद्र. मौम. २१ २२ .२३ २४ २५ २६ क्षमा शास्त्र बंधु बंदक नृत्युं ऋण भौम शनि-चंद्र बुध घन लम वुघलन रा.ल. भौमे शनौ ऋण गुरु जीव घन. ल. बुष ल. वघे चंद्र भाषाटीकासमेवा | १४ "१५ . ल. धे चंद्र PEFEBE मृत्यु भाव to to लं. शनि ल. ल. मृत्यु भावे ल. to ल.ई. शनि ल. + ª (८५) ल. ल. ल. चंद्र. चंद्र. गुरौ. . २८ अन्य परदेश धन परकर्म वणिक् कार्य विवाद. द्वारा धर्मभा धनभा शुक्रे चंद्र चंद्रे शन शुके चंद्रः धर्मेश धनेश रवि शनि वुध सूर्य शनि 18 18 सूर्यरा- शीश धर्मभा घनभा. शुक्रे शनौ चंद्रेशनौ शुक्रे चंद्र धर्मेश धनेश रविः चंद्रः बुधः चंद्र: शनि

लः ल, ल. चंद्ररा शीश t ल. (८६) दि.ल. गुरौ शनी शुक्रे घ. सं० ना० प्रसूति संताप श्रद्धा प्रीति ॠ घ. रा.ल. दुधे शनौ शुक्रे ३३ ३४ / ३५ घ. ॠ बुध ल. रिपुभाव ल. धन गुरु सं. ना. दरिद्रः गुल्ता दिवाल. पुण्यस /०11० चंद्र : भौम toy चंद्र भौम पुण्य सहमे -2 ZELE & E! E जल मार्ग ल. ३६ ताजिकनीलकण्ठी | विद्या रावल ल. te सहमे सू.. वु. ल. रालि बुधे १॥३ शनौ श. to विद्या भाव ४७ ४८ 2,13 वल IC गुरौ पुण्यस. गुरु गुरु पु.स.पु. स. ३ पुण्य १५ सहमे श. श. चं. ३८ ३९ तनु जाडय व्यापार रिपु शौर्य उपाय पुण्य गुरौ मौमे भौमे शनौ सहमे चंद्रे शं. भौम गुरु बुध पुण्यस. पु. स. रानौ 31 ल. शनि बुध ल. बुध सू. शु. सू. पु.स. चंद्र ३११५ पुण्य चंद्र पु.स. गु. सहम ५० बंधन कन्या अश्व राज हस्त शुक्रे पु. चंद्रे चंद्रे स. आय भाव ४० → ल. to भौ. | बुध शनि कुजं पुण्यस, शनि ले. ल. | भौमे चंद्रे शनौ भामे गुरौ आ प.भा चं. श. ४१ पानी यपात शनौ कुजे Ic चं. ल. ४२ ल ल. Is ५३ ५४ ५६ ५६ मार्ग ऐचयं स्त्री देशांतर धर्म भावे श. धर्मेश गुरु जाग्रेश Is शनौ शुके धर्मेश धर्म भाव te ल, ल. ल. धर्म भाव गु. शु. धर्म भावे धर्मेश श. जायेश धर्मेश ल. अनुष्टु० - चंद्रसितादपास्योक्तं सदाकन्याख्यमुक्तवत् || पुण्यादर्कमपास्याययोगादवोन्यथानिशि ॥ २४ ॥ जाया भाव to दिन तथा रात्रिको शुक्रमें चंद्रमा घटायके लग्न जोडना कन्यासहम ४९ होताहै, दिनको पुण्यसहममें सूर्य घटायके लग्न जोडना रात्रि को सू भावाटीकासमेता । (८७) पुण्यसहम घटायके ग्यारहवां भाव जोडना अश्वसहम ५० होताहै, ये ५० सहम आचायक कहेगये. मतांतरसे जो अन्य सहम हैं उनमेंसे कोई तो इनहीमें अंतर्भाव है कोई सारणी में लिखेंगे सहमसारणी आवे है सहम विचार जिसके निमित्त करनाहै उसीके संबंधी भावसे सहमकल्पना करनी. जैसे भाइयोंके वास्ते तृतीयभावको स्त्री के निमित्त सप्तम भावको लग्न जानकर पुण्यादि सहम कल्पना करनी यहभी किसीका मत है ॥ २४ ॥ • उपजा० - स्वनाथहीनं सहमं तदंशाः स्वीयोदयघ्ना वि तांत्रिशा || तत्सद्मपाको दिवसैर्हि लब्धैः स्यात्तदशायां तदसंभवेवा ॥ २५ ॥ सहमका फल पाकसमय कहते हैं कि, सहमक़ा फल उसमें उस भावके स्वामीका स्पष्ट घटाय देना शेषके शीय लग्न खंडसे गुणना. ३०० तीनसौसे भाग लेना लब्धि उस सहमफल पाकके दिन जानना किसीका मत है कि पूर्वविधिसे जो दिन मिले हैं उनमें .३० का भागदेके लब्धि राशि जाननी तदनंतर वर्ष प्रवेशकालिक सूर्यराश्यादि कलापर्यंत में जोडदेना राशिस्थानमें १२ से अधिक होनेपर १२ से शेषकर देना यह सूर्य स्पट जिस समयपर आवे. वह समय सहम फल पाकका जानना कोई कहते हैं कि, हीनांश पात्यांश क्रमसे जब सहमेशकी दशा हो तब फल होगा, यह सर्व संमत है. इन दो मतोंमें यह निश्चय है कि, पूर्वोक्त प्रकारसे जो दिन मिले हैं, यदि उनके भीतर तत्स्वानीकी दशा हो तो दशाही में फल होजायगा. जब उक्तदिनोंसे उपरांत दशा हो तो दशाप्रारंभ दिवससे उतने दिनोंमें फल होगा. इसमें भी स्मरण चाहिये कि ऐसी विधिसे वर्षीत होजाय तो दूसरे वर्षमें फल कहना, परंतु इसमें बहुत शंका होती हैं इसलिये यादववाक्य है कि, "सहमेश्वरयोः कार्यमं- तरं पूर्वराशिकम् ॥ तयुक्तोको भवेद्यावांस्तादृक्संक्रांतिभे फलम् ॥” अर्थात जिस भावसंबंधी सहमका फल चाहता है उसके पूर्वभावसे उसका अंतर पाकसमय चाहिये अंश करके स्वदे (८८) ताजिकनीलकण्ठी। .. करके दशाप्रवेशसामयिक सूर्यस्पष्ट में जोडदे उसकें जितने अंश हों उतने सौर दिनोंमें फल होगा यह निश्चय है ॥ २५ ॥ इति महीधरकृतायां नीलकंठीभाषायां सहमाधिकारः समाप्तः । वसंततिलका - स्वोच्चादिसत्पदगतो यदिलग्नदर्शी वीर्य्या न्त्रितस्सहमपोयदिनेक्षतेंगम् ॥ नासौवलीरविशशिश्रितभेद दर्शपूर्णतलग्रपवलस्य विचारणेत्थम् ॥ २६ ॥ १ ॥ सहमेशोंका बलावल कहते हैं कि, अपने उच्चादि पूर्वोक्त शुभ स्थानों में होकर लग्नको यदा अपने सहमको सहमेश देखें तो बलवान् होते हैं. जो लग्नको न देखें तो सप्तपदगतभी निर्बल होता है और इसमें जन्मकालिक सूर्यराशीश १ जन्मकालिक चन्द्रराशीश २ जन्ममासकी पूर्णमासी जिस- लग्न में अंत हो इसका स्वामी ३ जन्ममासकी अमावास्या जिस लग्नमें अंत हो उसका स्वामी ४ इनका बलाबलभी इसी रीतिसे विचारना, इनके बलावलसे पुण्यसहमके तुल्य फल कहना ॥ २६ ॥ १ ॥ अनु० - पंचवर्गीबलेनोनो नहर्पस्थानमाश्रितः || अवलोयं लग्नदर्शी बलीस्वल्पेस्तिचेत्पदे ॥ २७ ॥ २ ॥ L जो ग्रह पंचवर्गी में ( हीन ) पाँचसे कम बली हो तथा हर्षस्थानमें न हो उपलक्षणसे लग्नदर्शी भी न हो वह निर्बल होता है जो त्रैराशिक मुसहसंज्ञक लघुस्थानमेंभी हो और लग्नको देखे तो बली होता है, स्वगृहोच " महाधि- कारी" स्वहद्दा मध्यम और स्वत्रैराशिक स्वमुसल्लह स्वल्पाधिकार कहेहैं यह सर्वत्र जानना ॥ २७ ॥ २ ॥ वसंतति● स्वस्वामिनाशुभखगैः सहितंचदृष्टं स्वामीवलीचय- दितत्सहमस्यवृद्धिः ॥ यत्स्वामिनाशुभखगैश्चनयुक्तदृष्टंतत्सं भवोनहि भवेदितिचिंत्यमादौ ॥ २८ ॥ ३ ॥ जो सहम अपने स्वामी शुभ यद्वा पापसे युक्त वा दृष्ट हो तथा शुभ ग्रहसे युक्त वा दृष्ट हो तथा सहमेश पूर्वोक्त प्रकारसे वली हो तो उस सह"" भाषाटीकासमेता । (८९ ) ॥ मकी वृद्धि होती है और जो सहम शुभग्रह तथा स्वस्वामी से युक्त दृष्ट नहो. वह सहम निर्मल होता है फल देनेकी सामर्थ्य उसको नहीं होती है ॥ २८ ॥ ३ ॥ रथोद्ध०–अष्टमाधिपतिनायुतेक्षितंपापदृग्युतमथेत्थशालितम् संभवेऽपिविलयंप्रयातितत्तेनजन्मनिपुरेदमक्ष्यिताम् ॥ २९॥४॥ जो सहम वर्षलग्नसे वा अपने स्थानसे अष्टमभावेश से युक्त वा दृष्ट हो तथा पापग्रहसे युक्त वां दृष्ट हो यद्वा पूर्वोक्त अष्टमेशसे वा पापग्रहसे सहमेश इत्थशाली हो तो पूर्वोक्त शुभफलदातृलक्षणयुक्तभी हो तोभी निर्मल कहाता है फलदेनेकी सामर्थ्य नहीं होती है जन्ममें प्रथम इसी बलको देखलेना ॥ २९ ॥ ४ ॥ अनुष्टु० - आदौजन्म निसर्वेषां सहमानांबलाबलम् || विमृश्यसंभवोयेषांतानिवर्षे विचितयेत् ॥ ३० ॥ ५ ॥ सहमोंका प्रथम बल सहम बलादि सर्वप्रकार से सहमोंका बलाबल जन्ममें तदुत्तरवर्ष में देखके जिनका बलाधिक हो फल देनेकी सामर्थ्य हो उन्हें वर्षमें स्थापन करना जिनको फल देनेकी सामर्थ्य न हो उन्हें छोड- देना ॥ ३० ॥ ५ ॥ 1 अनु० - सबलेपुण्यसहमे धर्मवृद्धिर्धनागमः ॥ : शुभस्वामीक्षितयुतेव्यत्ययेव्यत्ययंविदुः ॥ ३१ ॥ ६ ॥ अब सहमोंके फल कहे जाते हैं. प्रथम पुण्यसहमका फल यह है कि पुण्य सहम पूर्वोक्त लक्षणोंसे बलवान् हो तो धर्मकी बुद्धि धनका आगमन होता है शुभग्रह स्वस्वामियुक्त दृष्ट होनेमें भी ऐसा हीं फल है जो इनसे विपरीत पूर्वोक्त प्रकारसे बलरहित तथा पापयुत दृष्ट हो तो फल भी विपरीत अर्थात् धर्म धन हानि होगी ॥ ३१ ॥ ६ ॥ अनु० - लग्नात्पष्टाष्टरिः फस्थंधर्मभाग्ययशोहरम् || शुभंस्वामिदृशा प्रांतसुखधर्मादिसंभवः ॥ ३२ ॥ ७ ॥ जो पुण्यसहम लग्न से ६ |८ | १२ इन स्थानों में हो तो भाग्य ( ऐश्वर्य ) यशका हरण करताहै और शुभग्रह स्वस्वामीसे युक्त वा दृष्ट •. (९०) ताजिकनीलकण्ठी । हो तो सुख और धर्मादि शुभ फलका संभव करता है, स्वस्वामी वा शुभसे युक्त दृष्ट सहम वर्षके उत्तरार्द्ध अर्थात् प्रवेशसे ६ महीने पीछे सौख्यादि फल देता है, जो पापादि युक्त दृष्टसे अशुभ फल है, वह वर्ष पूर्वार्द्ध में होता है ॥ ३२ ॥ ७ ॥ || अनुष्टु०-पापयुक्छुभदृष्टंवेदशुभंप्राक्ततःशुभम् शुभयुक्तंपापदृष्टमादौशुभमसत्परे ॥ ३३ ॥ ८ ॥ संसर्गसे स्वभाव गुण बदल जाता है पुण्यादिसहम पापयुक्त और शुभ दृष्ट हो तो वर्षके पूर्वार्द्ध में अशुभ, उत्तरार्द्ध में शुभ फल देते हैं. जो शुभ युक्त और पाप दृष्ट हों तो पूर्वार्द्धमें शुभ फल उत्तरार्द्ध में अशुभ फल देते हैं जो युक्त और दृष्टमी पापहीसे हो तो समस्त वर्ष में अशुभही फल होगा; जो शुभहीसे युक्त और दृष्टभी हों तो समस्त वर्ष में शुभही फल होगा || ३३ ॥ ८ ॥ अनु० – यत्राब्देपुण्य सहमंशुभंसोऽत्रशुभावहः || अनिष्टेऽस्मिञ् भेनेतिपुण्यमादौविचारयेत् ॥ ३४ ॥ ९ ॥ जिस वर्षमें पुण्यसहम पूर्वोक्त विधिसे शुभ हो वह समस्तही शुभ होता है और सहम अशुभ भी हों तो अनिष्टफल सहसा नहीं देसकते जिसमें पुण्य सहम ( निर्बल ) अशुभ है वह वर्ष अशुभही व्यतीत होता है. और सहम शुभ भी हों तो शुभ फल नहीं देते इसकारण पुण्यसहम सभी "जन्मवर्षमें" मुख्य विचार्य्यहै ॥ ३४ ॥ ९ ॥ अनु॰—सूतौषष्ठाष्टरिःफस्थेमध्येपापहतंपुनः ॥ पुण्यंधर्मार्थसौख्यध्नंपत्यौदग्धेफलंतथा ॥ ३५ ॥ १० ॥ जन्ममें पुण्यसहम लग्नसे छठा आठवाँ वा चारहवाँ हो और वर्ष में पापयुत हो तथा सहमेश ( दग्ध ) अस्तंगत हो, तो धर्म, धन और सुखका नाश करता है ॥ ३५ ॥ १० ॥ अनु० - सहमान्य खिलानीत्थंस्तौवर्षेविचिंतयेत् ॥ मांद्यारिकलिमृत्यूनांव्यत्ययादादिशेत्फलम् ॥ ३६ ॥ ११ ॥ भाषाटीकासमेता । (९१ ) उक्त प्रकारसे सम्पूर्ण सहम जन्म तथा वर्ष में विचारने पुण्यसहमके बल- वान् होनेमें द्रव्यादिक लाभ होते हैं, परंतु रोग अरि कलि झकटक मृत्यु इन सहमोंके बलवान् होनेमें विपरीत फल, उनके नामसदृश होता है. यदि रोगादि पांच अनिष्ट सहम निर्बल अशुभफलदाता हों तो वर्षादिमें शुभ फल जानना ॥ ३६ ॥ ११ ॥ A रथोद्ध - कार्य्यसिद्धिसहमंयुतंशुमैर्दृष्टमूथ शिलगंजयप्रदम् ॥ संगरेथशुभपापदृष्टियुक्क्लेशतोजयउदीरितोबुधैः ॥३७॥१२॥ कार्य्यसिद्धि सहम शुभ ग्रहोंसे युक्त वा दृष्ट हो अथवा शुभग्रहसे मुथ- शिलकारी हो तो संग्राममें जय देता है. शुभयुत दृष्ट और शुभमुथशिली भी हो तो विशेषतर जय देता है. जो दृष्ट युक्त वा मुथशिली शुभ और पापों सेभी हो तो संग्राम में क्लेशसे जय देता है ऐसा ही विचार विवाहादिसहमों में. करना. यवा कार्य्यसिद्धि हर किसी कार्य्यकी होती है ॥ ३७ ॥ १२ ॥ मंजुभा०–कलिसद्मपापखगदृष्टिसंयुतंय दिपापमूथशिल- गंकलेर्मृतिम् ॥ अथतत्रसौम्य सहितावलोकितेजयमेतिमि श्रशिकलव्यथे ॥ ३८ ॥ १३ ॥ कलि कलह सहम पापशुभ दोनोंही से दृष्ट वा युक्त हो तथा पापग्रहसे मुथशिली हो तो कलहमें मरण होबे जो वही कलिसहम शुभग्रहसे युक्त वा दृष्ट हो तो थोडेही कलहमें जय होवे. जब पाप और शुभ ग्रहों की दृष्टि तुल्य हो वा दोनोंहीसे युक्त हो तो कलह वा व्यथा पारिश्रममात्र होती है जय वा पराजय परिणाममें कुछ भी नहीं ॥ ३८ ॥ १३ ॥ उपजा ० - विवाहसद्माधिपसौम्यदृष्टंयुतंशु भैर्मूथशिलंशुभाप्तिम् ॥ कुर्य्याद्यदामिश्रसमेत दृष्टंकष्टादरमृतीश्वरैर्न ॥ ३९ ॥ १४ ॥ विवाहसहम स्वस्वामी वा शुभ ग्रह युक्त वा दृष्ट हो और शुभग्रहके साथ मुथशिल करे तो विवाहमाप्ति करेगा जो शुभ और पाप ग्रहोंसे युग- पत् युक्त वा दृष्ट हो उपलक्षणसे मिश्रहीके साथ इत्थशाली हो तो विवाह · (९२ ) ताजिकनीलकण्ठी | प्राप्ति कष्टसे करेगा. जब पापहीसे युक्त दृष्ट और मुथशिली हो तो विवाह प्राप्ति नहीं होने देगा ॥ ३९ ॥ १४ ॥ उपजा॰—यशोधिपेनैधनगेखलेनयुतेक्षितेसघशसोविनाशः ॥ पापा जितस्यायशसोस्तिलाभोनष्टौज़सिस्यात्कुलकीर्त्तिनाशः ॥४०॥ १५॥ यशसहमाधीश अष्टम स्थान में हो और पापयुक्त वा दृष्ट हो तो अपने प्राप्ति किये यशका नाश होवे. किंच स्वयमजित महापातकों में से किसी एक पातक संबन्धी अयशंका लाभ होवे जब यही यशसहमेश अष्टम् और पापयुत दृष्ट होकर अस्तंगत भी हो तो अपने वंशसे चलाआया पितॄ पितामहादिकोंका जो यश उसे नाश करता है अर्थात् अपने सारे वंशकी कीर्ति नाशक है ॥ ४० ॥ १५ ॥ उपजा० - शुभेत्थशालेशुभहग्युतेवाबलान्वितेस्याद्यशसोभिवृद्धिः ॥ युद्धेजयोवाहनशस्त्रलाभः पापेसराफादयशोर्थनाशः ॥ ४१ ॥ १६ ॥ यशसहमेश शुभग्रहसे मुथशिली अथवा शुभदृष्ट वा युक्त हो तो यशकी वृद्धि होवे. उपलक्षणसे धर्मवृद्धि धनलाभभी होवे तथा संग्राम में, जय, अश्वादि- वाहन और धनुपादि शस्त्रोंका लाभ होवे जो यशसहमेश पापग्रहसे मुथशिली या शुभग्रह से ईसराफी उपलक्षणसे नष्टबली हो तो अपयशवृद्धि और धन- नांश होवे ॥ ४१ ॥ १६ ॥ 3 " उपजा० - आशातदीशचषडटरिःफविवर्जितः सौम्ययुतेक्षितश्च ॥ स्याद्वांछितार्थीबुवाहनादिलाभःखलेक्षायतितोतिदुःखम् ॥४२॥ १७॥ आशासहम और इसका स्वामीभी६|८|१२ स्थानों में न हों तथा शुभग्र इसे युक्त वा दृष्ट हो तो इच्छानुकूल हिरण्यादि द्रव्य वस्त्र, वाहन आदि और शस्त्रसे भूमिलाभ होता है, जो दोनोंही पूर्ववर्जित स्थानों में हों तथा पापग्रह युक्त वा दृष्ट हों तो अतिदुःख और वांछितार्थनाश होवै ॥ ४२ ॥ १७ ॥ उ० जा० - मांद्याधिपः पापयुतेक्षितश्चपापःस्वयंरोगकरोविचिंत्यः ॥ चेदित्थशालोमृतिपेनमृत्युंस्तदाभवेद्धीन बलेतिकष्टात् ॥ ४३ ॥ १८ ॥ भाषाटीका समेता । (९३ ) रोगसहमेश आप पापग्रह हो तथा पापग्रहोंसे युक्त वा दृष्ट हो तो वह रोगकर्ता जानना पुनः लग्नसे अष्टमभावेशसे इत्थशालीभी हो तो मृत्युकरे गा, इसमें हीनबल हो तो मृत्यु भी अतिकष्टसे होगी बलवान् होने में अल्प- से मृत्यु होगी, इसप्रकार कष्टाधिक्य की प्राप्ति होने में धर्मशास्त्रोक्त शांति करनी चाहिये जैसे उक्तभीहै कि "केशेषु शांविरुक्का ज्ञातव्या तत्र शास्त्रज्ञैः” इति ॥ ४३.॥ १८ ॥ उपजाः–स्वस्वामिसौम्येक्षणभाजिमांद्येनाथेस वीय्यैष्टपडेत्यवर्ज्यः ॥ रोगस्तदानैव भवेद्विमिश्रंयुतेक्षितेरुग्भयमस्तिकिंचित् ॥ ४४ ।। १९ ।। मांयसहम अपने स्वामी वा शुभग्रहों से युक्त वा दृष्ट पूर्वोक्त रीविसे हो और छठा आठवां बारहवां न हो तो रोग नहीं होगा सुखी रहेगा जो सौम्य पाप दोनहूंसे युक्त दृष्ट होतों स्वल्परोगभय होगा जो वह सहमेश वली होकर शुभ ग्रहंसे मुथशिलकारी होतो वाहनादिप्राप्ति भी होगी उपलक्षणसे रोग सहमेश का शुभग्रह मुथशिली भी ऐसाही होता है, यह रोग न होनेका योग सिद्ध होजावे तो समझना कि, पूरेतौर से रोग होगा क्योंकि पूर्व में लिख दिया है आचा- ने कि, “मान्यारिकलिमृत्यूनां व्यत्ययादादिशत्फ़लम्” ॥ ४४॥ १९ ॥ - शार्दूलवि० - अर्थाख्यंशुभनाथदृष्टिसहितंद्रव्यागमात्सौख्यदं पापैरृष्ट्युतंच वित्तविलयंकुर्य्यादथोपापयुक् ॥ संहृष्टंचशुभे- त्थशालियदितत्पूर्वधनंनाशयेत्पश्चादर्थसमुद्भवःचससुखंव्य- त्यासतोव्यत्ययः ॥ ४५ ॥ २० ॥ अर्थाख्यस हम स्वस्वामी वा शुभग्रहसे युक्त दृष्ट हो तो द्रव्यकी प्रति करके सुख देता है, जो पापग्रहों से युक्त दृष्ट हो तो द्रव्यका नाश करता है, शत्रुमहसे युक्त दृष्ट हो तो शत्रुसंबंधी कर्मसे धननाश होता है, जो पापयुक्त और शुभद्दष्ट भी हो और शुभग्रह के साथ इत्थशाली भी हो तो पूर्वसंचितद्रव्यका नाश करके पुनः अपने पुरुषार्थ से द्रव्यसंचय सुखसहित करता है, केवल पापयोग दृष्टि से सर्वथा धननाश करता है ॥ ४५ ॥ २० ॥ ताजिकनीलकण्ठी । रिपुदृष्ट्यारिपोर्भीतिस्तस्करादेर्धनक्षयः ॥ मित्र यात्रियोगाद्धनंमानोयशः सुखम् ॥४६॥२१॥ अनु० - (९४) सहमसहमेशपर शत्रुदृष्टि हो तो शत्रुभय और चोर आदिसे धनक्षय होता है, मित्रदृष्टि हो तो मित्रके संबंध से धनप्राप्ति मानोदय यशलाभ और सुख होता है || ४६ ॥ २१ ॥ इन्द्रव० सत्स्वामिदृष्ट्युतमात्मजस्यलाभंसुखंयच्छतिपुत्रसद्म ॥ पापान्वितं सौख्यखगेत्थशालीप्राग् दुःखदंपुत्रसुखाय पश्चात् ४७७२२ पुत्रसहम स्वस्वामी शुभ ग्रहयुक्त वा द्दष्ट हो तो पुत्रसुख अर्थात् पुत्रो- त्पत्ति और उत्पन्न पुत्रोंका सुख देता है, ऐसाही शुभ मुथशिलसेभी कहना. जो पुत्रसहम पापयुक्त और शुभ ग्रहसे इत्यशाली होतो प्रथम पुत्रसंबंधी दुःख पश्चात् पुत्रसौख्य देताहै; योगफल प्रथम दृष्टिफल पीछे होता है ॥४७॥२२॥ इन्द्रव॰-पापान्वितंपापकृतेसराफनाशायपुत्रस्यगतौजसीशे ॥ सृतौसुतेशः सहमेश्वरोब्देपुत्रस्यलब्ध्यैशुभमित्रदृष्टः॥४८॥२३॥ जो पुत्रसहम पापयुक्त वा दृष्ट हो और पापग्रहसे इसराफी हो तथा पुत्र- भावेश निर्बल अस्तंगत हो तो पुत्रनाश करता है, जो जन्मलग्रसे पंचमेश वर्षीमें भी पंचमेश वा पुत्रसहमाधीश हो और शुभग्रह स्वस्वामि स्वमित्र युक्त दृष्ट हो तो पुत्रप्राप्ति करताहै ॥ ४८ ॥ २३ ॥ वसंतति ०-पित्र्यंसदीक्षितयुतंपति तदृष्टं तातस्ययच्छतिध नांबरमानसौख्यम् ॥ पत्यौगतौज सिमृतौखलमूसरीफेनाशः पितुश्चरगृहे परदेशयानात् ॥ ४९ ॥ २४ ॥ पितृसहम शुभग्रह वा स्वस्वामि युक्त वा दृष्ट और शुभग्रहसे इत्थशा- ली हो तो पितृसंबंधी धन वस्त्र मान सुख देता है, जो पितृसहमेश अस्ता- दिसे निर्बल हो वा लनसे अष्टम स्थान में हो पापग्रहसे मूसरीफी हो और भाषाटीकासमेता । (९५) चरराशिमें हो तो पिता विदेशमें मरजावे, स्थिरराशिमें हो तो स्वदेशमें मरे ॥ ४९ ॥ २४ ॥ उपजा० - शुभेत्थशालेखलखेट्योगेगदप्रकोपःप्रथमंमहान्स्यात् ॥ पश्चात्सुखंविंदतिपूर्णवीर्य्येनाथेनृपान्मानयशोऽभिवृद्धिः॥५०॥२५॥ पितृसहम स्वस्वामीसे वा शुभग्रहसे इत्थशाली हो और पापग्रहसे युक्तभी हो तो वर्षके पूर्वार्द्ध में रोगवृद्धि होवेउत्तरार्द्धमें सुख होवे, जब पितृसहम स्वामी पूर्ण वीर्य्य १५ विश्वासे अधिक बल होकर शुभस्थानमें हो तो राजासे मान तथा यशकी वृद्धि होवे, मातृसहममेंभी ऐसाही जानना ॥ ५० ॥ २५ ॥ रथोद्धता बंधनाख्य सहमंयुतेक्षितंस्वामिन नहितदास्तिबंधनम् ॥ पापवीक्षित तेस्तुबंधनं पापजे सुथशिले विशेषतः ॥ ५१ ॥ २६ ॥ बन्धनसहम स्वस्वामी वा शुभग्रह युक्तं दृष्ट हो तो बंधन ( कारागार ) आदिका भय नहीं होता, पापयुक्तवीक्षितसे तथा पापेत्थशाल से बंधन होता है यहभी फल विपरीतही जानना चाहिये ॥ ५१ ॥ २६ ॥ रथोद्ध० - गौरवाख्यसहमंयुतेक्षितं स्वामिनाशुभखगैः सुखाप्तये ॥ राजगौरवयशोंबरातयः पापवीक्षणयुतेपदक्षतिः ॥ ५२ ॥ २७ ॥ गौरव सहम स्वस्वामी वा शुभग्रहसे युक्त दृष्ट हो तो सुख प्राति और राज्य गुरुता अर्थात् बडप्पन और यश तथा वस्त्रप्राप्ति होती है इत्थशाली शुभग्रहसेमी हो तो घन, वाहन, यश और सुख मिलते हैं जो पापग्रह से युक्त दृष्ट वा इत्थशाली हो तो पद ( अधिकार ) तथा धननाश सौख्य नाश करता है ॥ ५२ ॥ २७ ॥ उपजा० - शुभाशुभैर्दृष्टयुतंखलैश्चेत्कृतेत्थशालंघनमाननाशम् ॥ पूर्वैविधत्तेचर मेशुभेत्थशालेसुखंवाहनशस्त्रलाभम् ॥ ५३ ॥ २८ ॥ गौरवसहमका फल और भी कहते हैं कि जो यह शुभ पाप दोनहूं प्रका- रके ग्रहोंसे युक्त वा दृष्ट हो और पापग्रह से इत्थशाली हो तो पूर्वार्ध में धन J ( ९६ ) ताजिकनीलकण्ठी । तथा मानका नाश कर्त्ता है; उत्तरार्द्धमें शुभ फल देता है, जो पाप शुभसे दृष्ट युक्त होकर शुभ ग्रहसे इत्यशाली हो तो वर्षपूर्वार्द्ध में शुभ उत्तरार्द्ध में अशुभ फल देता है सभी प्रकार मिश्र हो तो संपूर्ण वर्ष में मिश्रही फल करता है, केवल इत्थशालीभी एक राशि साहित्य से पूर्वार्द्ध में भिन्नराशि साहित्यसे उत्त- राईमें शुभ फल सौख्य वाहन शस्त्रांदि वा वस्त्रादि लाभ देता है ( वस्खलाभम् ) ऐसा भी पाठहै ।। ५३ ॥ २८ ॥ रथोद्ध॰ - कर्मभावसहमाधिपाः शुभैः स्वामिनासुथशिलाबलान्विताः ॥ हेमवाजिगजभूमिलाभदाः पापदृष्टियुतितोऽशुभप्रदाः ॥ ५४ ॥ २९ ॥ कर्मभाव, कर्मभावेश, तथा कर्मसहम, कर्मसहमेश, ये चारों प्रागुक्त रीतिसे बलवानहों अर्थात् स्वस्वामी शुभग्रह युक्त दृष्ट तथा शुभग्रहके साथ इत्थशाली हों तो सुवर्ण घोडा हाथी भूमि इनका लाभ देते हैं जो पापयुत दृष्ट वा पापग्रहसे इत्थशाली हों तो द्रव्यंका नाशादि अशुभ फल देते हैं ॥ ५४॥ २९॥ शालि०-- दग्धावकाः कर्मवैकल्यदास्तेयुक्तांदृष्टाः सौरिणातेविशेषात् ॥ राज्यभ्रंशः कर्मनाशश्चराज कर्मेशौचेन्मूशरीफौखलेन ॥ ५५ ॥ ३० ॥ पूर्वोक्त कर्मभाव सहमाधिपति पापग्रह युक्त वा दृष्ट अथवा पापसे इत्थशाली हो तो कर्मकी विकलता ( नाश ) देता है, यद्धा शनिसे युक्त वा दृष्ट हो तो विशेष करके कर्मका नाश करता है, ऐसे ही दग्ध ( पापकर्त्त- दिसे उपद्रुत ) तथा वक्र ( विपरीत गति ) होनेमें भी फल देते हैं तथा राज्य सहमेश, कर्मभावेश, राज्यभावेश, कर्मसहमेश, जो पापग्रह से मुथशिली हों उपलक्षणसे क्रूरयुक्त दृष्ट हों तो राज्यनाश पापमूशरीफसेभी यही फलहैं तथा सुवर्णादि द्रव्यका नाश करतेहैं शुभ पापसे तुल्य योग दृष्टि वा मूशरीफ हो तो फल बलाबलके तारतम्यसे विचार के कहना इसीप्रकार माता आदि सह- मोंका विचार करना ॥ ५५ ॥ ३० ॥ 6- अनु० - उपदेष्टागुरुर्ज्ञानविद्याशास्त्रंश्रुतिस्मृती ॥ मोहोजाड्यंवलंसैन्य मंगंदेहोजलंयुतिः ॥ ५६ ॥ ३१ ॥ ' भाषाटीकासमेता । (९७ ) किसी २ सहमें के पदार्थसें अर्थ भ्रम होता है. जैसे गुरु, गौरव, कर्म, राज, बल, वपु, इत्यादि इसके सन्देह निवारणार्थ कहते हैं कि, गुरु उपदेश कर- नेवाला, विज्ञान विद्यामात्र विषयिक बुद्धि विया (वेदन ) जानना, शास्त्र श्रुति स्मृति ज्ञान, जांड्य अज्ञान ग्रन्थविस्मरणादि, बल सेना, सामर्थ्य शारीरादिक बल, देह हस्तपादादि पिंड देह, जल काति, हीरकादि मणि, कांतिवत, जलपथ जलमार्ग, इत्यादि इनके पर्याय हैं ॥ ५६ ॥ ३१ ॥ अनु०-गुरुतामंडलेशत्वंगौरवंमानशालिता | निग्रहानुग्रहविभूराजा त्रादिलिंगभाक् ॥ ५७ ॥ ३२ ॥ गुरुता, मण्डलेशत्व, सामान्यराजा गौरव, श्रेष्ठ, मानी, राजा निग्रह कारा- गार, बंधन, सामर्थ्य, तथा अल्पानल्प देश, द्रव्य, दान, सामर्थ्य, तथा छत्र चामरादि राजचिह्नधारीको राजा कहते हैं ॥ ५७ ॥ ३२ ॥ अनुष्टु० - माहात्म्यंमन्त्रगांभीर्य्यवृतिबुद्धयादिशालिता ॥ सामर्थ्यदेहजाशक्तिःशौर्य्ययत्नोरिनिग्रहे ॥ ५८ ॥ ३३ ॥ माहात्म्य मन्त्र गांभीर्य्यका नाम है धृतिनाम बुद्धिमानीका है सामर्थ्य • शरीर शक्तिको और शौर्य शूर वा वीरत्व शत्रुनिग्रहत्व सामर्थ्यको कहते हैं ॥ ५८ ॥ ३३ ॥ • अनुष्टु० - आशेच्छो मितिर्धर्म्याश्रद्धावंदः पराश्रयः ॥ पानीयपतनं वृष्टिर्जलेऽकस्माच्चमज्जनम् ॥ ५९ ॥ ३४ ॥ आशा इच्छाका नाम है दिशाकाभी नाम है, श्रद्धा, धर्म काकी मतिको कहते हैं तथा यहां विश्वासताका अर्थ लेना मुख्य है. वन्दनाम पराश्रयका है पानीयपतनका प्रयोजन वृष्ट्यादि ऊपरसे गिरनेवाला पानीका है जलमें डबनेकाभी अर्थ है ॥ ५९ ॥ ३४ ॥ अनुष्टु० - आर्धिव्याधीतापमांद्येस पिण्डाबंधवः स्मृताः ॥ सत्यालीकंवणिग्वृत्तिराधानंप्रसवः स्मृतः ॥ ६० ॥ ३५ ॥ आधि मानसी व्यथा, व्याधी रोग, ताप संताप, ये सब मांयके पर्यायहैं, (९८). 'ताजिकनीलकण्ठी । बांधव, सपिण्ड सातपुरुष पर्यन्तका नाम है, सत्यालीक वणिग्भावका पचय है प्रसव गर्भाधान सन्तानोत्पत्तिका नाम है ॥ ६० ॥ ६५ ॥ . • अनुष्टु० - दासत्वं परकर्मोक्तमन्यत्स्पष्टंस्वनामतः ॥ निरूप्याणियथायोग्यंकुलजातिस्वरूपतः ॥ ६१ ॥ ३६॥ परकर्म दासत्वका पर्याय है इतने सहमों के नाम द्वयर्थ होनेसे पर्याय कहे गये शेष सहमोंकें प्रकट नाम हैं जैसे पुण्य विवाह आदि यथायोग्य कुल, तथा जाति विचारके फल कहना ॥ ६१ ॥ ३६ ॥ अनुष्ट ० - शुभयोगेक्षणात्सौख्यं पत्युर्वीर्थ्यानुसारतः ॥ दारिद्र्यमृतिमांद्यारिकलिपुक्तोविषयँयः ॥ ६२ ॥ ३७ ॥ सम्पूर्ण सहम शुभग्रहके दृष्टेि तथा योगसे सहमेशके वीर्य्यानुसार शुभफल देते हैं परन्तु दारिद्र्य, मृत्यु, मांय, कलह ये ४ सहम विपरीत फल देतेहैं अर्थात शुभयोगेक्षण, तथा स्वामी बलवान् होनेमें भावसदृश अशुभ फल और पापयोग दृष्टि तथा सहमेशके निर्बल होनेमें नाम गुणसे विपरीत शुभ फल देते हैं ।। ६२ ।। ३७ ॥ . अनुष्टु० - प्रश्नकालेपिसहमविचार्य्यप्रष्टुरिच या || - सर्वेषामुपयोगोत्र चित्रंपृच्छतियजनाः ॥ ६३ ॥ ३८ ॥ जिसका जन्मपत्र हो तो प्रथम जन्म के तदुत्तर वर्षके सहम विचारने जन्म पत्र जिसका न हो उसके प्रश्न लग्नसे पुण्यादि सहम विचार करना ( यतः ) मटा अनेकमकार प्रश्न पूँछते हैं सहमोंसे सभी प्रकार कहदेना ॥६३॥ ३८॥ वसंत ० - आसीदसी मगुण मंण्डितपण्डिताग्योव्याख्यद्भुजं- गपदवीः श्रुतिवित्सुवृत्तः ॥ साहित्यरीतिनिपुणोगणिताग- मज्ञश्चिन्तामणिर्विपुलगर्गकुलावतंसः ॥ ६४ ॥ ३९ ॥ इस तंत्रकी समाप्तिमें ग्रंथकर्त्ता अपने नामांदि कहता है कि साधु शास्त्र पांडित्यादि निःसीम गुणोंसे भूषित तथा पंडितों में श्रेष्ठ तथा शेषनागके वाणी पातंजलादि महाभाष्य की व्याख्या करनेवाला तथा वेदज्ञान जाननेवाला तथा शुभाचरण युक्त और गणितादि ज्योतिश्शास्त्र पारंगम साहित्य का भाषाटीकासमेता । (९९) ज्यादिकी रीतिमें निपुण होरहा ऐसा चिन्तामणि नामा दैवज्ञ गर्गमहर्षिके कुलका भूषण हुआ ॥ ६४ ॥ ३९ ॥ उजा० - तदात्मजोनंतगुणोऽस्त्यनंतो योऽधोक्सदुक्तिंकिलकामधेनुम् ॥ संतुष्टयेजातक पद्धतिंचन्यरूपयद्दुष्टमतंनिरस्य ॥ ६५ ॥ ४० ॥ "तिसका पुत्र अगणित गुणशाली अनंत नामा दैवज्ञ है जिसने सुन्दर वाणीयुक्त गणितरूपी कामधेनु जैसी कामधेनुका दोहन किया, अर्थात काम- धेनुगणितकी टीकाकी तथा गुणज्ञ सज्जनोंके प्रसन्नतार्थ जन्मपद्धति सम्प्रदायके अनभिज्ञ दुष्ट जनोंके दुष्ट मतको नाश करके गणितग्रन्थविशेष जातकपद्धतिभी निर्मित करी ॥ ६५ ॥ ४० ॥ इंद्रव० - पद्मां बयासाविततोविपश्चिच नीलकंठः श्रुतिशास्त्रनिष्टः ॥ विद्वच्छिवप्रीतिकरंव्यधात्तंसंज्ञाविवेकंसहमावतंसम् ॥ ६६ ॥ ४१ ॥ ऊपर अपने पिताका नाम अनन्तज्योतिर्विद् ग्रन्थकर्त्ताने प्रकट किया पुनः पद्मानामा अपनी मातासे उत्पन्न पण्डित वेद तथा शास्त्र व्याकरण मीमांसा ज्योतिष तन्त्रादि पारंगम श्रीनीलकंठ नामा दैवज्ञने संज्ञाविवेक नामा ताजिकग्रंथका एक तंत्र जिसमें सहमरूप भूषण है ऐसा शिवनामा पाठ क पंडित महाराष्ट्रदेशीय ब्राह्मणकी प्रीति करनेवाला यद्दा, विद्वद् भूत भविष्य वर्तमान त्रिकालज्ञ सर्वोतर्यामी शिव सकलदुःखापनोदन पूर्वक कल्याण कर णशील श्रीमहादेवजी की प्रीति करनेवाला यह ग्रन्थ निर्माण किया ॥ ६६ ॥ ४१ ॥ इति महीधरकृतायां नीलकंठीभाषायां सहमविवेको नाम तृतीयं शकरणम् ॥ ३ ॥ श्रीनील कंव्याविदधान्महीधरस्संज्ञाविवेकस्यमतिप्रवर्द्धिनीम् ॥ माही घरोंसज्जनतोषकारिणीभाषाविवृत्तिंसु मनःप्रसादिनीम् ॥ ४२ ॥ श्रीनीलकंठ दैवज्ञकृत ताजिकनीलकंठीके संज्ञाविवेक नाम एक प्रथम तंत्र की बुद्धि बढानेवाली तथा सज्जनोंको संतोष करनेवाली सद्बुद्धिपाठकोंके मन प्रसन्न करनेवाली माहीधरी नाम भाषाटीका महीधरने रची ॥ ४१ ॥ इति महीधरकृतनीलकंठीभाषाटीकायां प्रथमं संज्ञातंत्रम् | श्रीगणेशायनमः । "द्वतीयतंत्र र भः . अथर्न उपेंद्रवज्राछन्दः – स्वस्वाभिलाषन हिलब्धुमीशानिर्विघमीशानमुखाः सुरौधाः ॥ विनाप्रसादंकिलयस्य नौमितं ढुंढिराजंमतिलाभहेतुम् ॥ १॥ ग्रंथकर्त्ता आचार्य नीककंठ दैवज्ञ ताजिकनीलकण्ठी द्वितीय फलतंत्र- प्रारम्भमें निर्विघ्नतार्थ गणेशजीको प्रणाम करता है कि, जिसके कृपा बिना महादेव प्रभृति देवसमूह अपने अपने अभिलाषोंको निर्विन्त्रतासे पानेको समर्थ नहीं हैं ऐसे डुंढिराज गणेशको सद्बुद्धिप्राप्ति के लिये प्रणाम करताहूं ॥ १ ॥ रथोद्धता - जातकोदितदशाफलंयतः स्थूलकालफलदंस्फुटंनृणाम् ॥ तत्रनस्फुरतिदैवविन्मतिस्तद्ववेदफलमादिताजिकात् ॥ २ ॥ जातकों में दशाफल बहुत कालपर्यंत एकही फलदाता मनुष्योंको कहेहैं यहां ज्योतिपीकी बुद्धि स्फुरित नहीं होती जैसे शुक्रकी दशा २० वर्ष पर्थ्य - तकी कही है तो इतने समय पर्यंत एकहीसा किसीकोभी नहीं रहता इस लिये सौर वर्ष मात्र समयावधिवाला सूक्ष्म फलविचार मैं प्राचीन ताजिक के अनुसार कहताहूं ॥ २ ॥ (गाथा ) तत्कालेकों जन्मकालरविणा स्याद्यतःसमः ॥ एकैकराशिवृद्ध्याचेत्तुल्योंशाद्यैर्यदारविः तदामासप्रवेशोयुप्रवेशश्चेत्कलासमः ॥ ३ ॥ ॥ . जन्म कालका सूर्य स्पष्ट राश्यादि पूरा वही जब मिले वह वर्ष प्रवेश - का समय होता है, उसी स्पष्ट में एक राशिमात्र जोडके अंशादि वही स्थापन करके मास प्रवेशका सूर्य्य स्पष्ट होता है तथा इसी स्पष्टमें एकएक अंश जोडके जिस महीनेका दिन प्रवेश करना है उसकी राशि उसी महीने लौं रखके तथाकला विकला पूर्ववतही स्थापन करके दिनप्रवेश होता है | इस सूर्य स्पष्टसे । (१०१ ) 7" 77 " लनस्पष्टसे इष्टकाल निकालनेका "उदाहरण " जन्मकालका सूर्य ० । १८ । ४२ । ३१ है; संवत् १९४३ वैशाख कृष्ण द्वादशी शनिवार इष्टघटी १३ | ५४ वर्ष प्रवेश३८ में भी सूर्य स्पष्ट यही ०।१८।४२।३१ है अब इससे लग्नस्पष्ट और लग्नस्पष्टसे इटकाल लेना है सूर्यस्पष्ट से लनस्पष्टकी विधि उदाहरणसहित प्रथम संज्ञातंत्रके २१ | २२ | २३ श्लोकके टीकामें प्रकट लिखाहै सूर्य्यस्पष्टसे इष्टकाल के लिये ग्रहलाघवका श्लोकार्प “ अर्कभोग्यस्तनोर्मुक्तकालान्वितो युक्तमध्यादयोभष्टिका लोभवेत् ॥ यह है, इसके क्रमसे लग्नस्पष्टसे इष्टघटी साधन होताहै, " उदाहरण " सूर्य स्पष्ट राश्यादि० । १८ । ४२ | ३१ लग्न स्पष्ट ३ | १० | २७ । ३ सायन सूर्य१ ।११ । २६ । ३१ अंशादि ३० में घटायके भोग्यांश १८ | में ३३ | २९ हुये, ३० से उद्धृत करनेपर भोग्य काल १५० । १९ । १२ हुवा, सायन लग्न ४ | ३ | ११ | ३३ सोदयसे गुनके ३० से भाग दिया तो भुक्तकाल ३७ | ४०/४५ हुवा, अर्क भोग्य काल १५० | १९ १२ में जोड दिया १८७ । ५९ | ५७ अब सूर्य और सायन लग्नके बीच जितने लग्नहैं उनके स्वदेशीय खंड जोडने हैं यहां मिथुन ३०० कर्क३४६ ये दो जोड दिये तो, ८३३ । ५९ । ५७ हुये इनमें ६० से भागदेकर लब्धि १३ घटी शेष ५३ पला और विशेष विपलभी ५९ । ५७ जानना अर्द्धाधिक्ये रूपम् १ के प्रमाणसे १३ । ५४ यह इष्टकाल होगया जो . किसीकारण इष्टकाल खोगया हो और लग्न स्पष्ट सूर्य स्पष्ट हो तो ऐसेही इष्ट 'निकाललेना यह प्रसंगसे लिंख दियाह्रै ॥ ३ ॥ · भावाटीकासमेता । टीकासमेत वसंतति • - तात्कालिकास्तुखचराः सुधिया विधेयाः स्प विलग्नसुखभावगणो विधेयः || वीर्य तथोक्तविधिना निखिलग्रहा णामब्दाधिपस्यविधयेकथयामियुक्तिम् ॥ ४ ॥ ग्रंथकर्त्ता कहता है कि प्रथमोक्त प्रकारसे तात्कालिक ग्रह स्पष्ट लग्नादिभाव स्पष्ट करके सद्बुद्धिमान ज्योतिषीने ग्रह तथा भावोंका बल उसप्रकार सभीका (१०२) वाजिकनीलकण्ठी । I करके वर्षेश नियत करना इसके विधिनिमित्त आगे युक्ति कहताहूं ॥ ४ ॥ रथोद्धता - जन्मलग्नपतिरब्दलग्नपो मुंथहाधिप इतित्रिराशिपः ॥' सूर्य्यराशिपतिरह्निचंद्रभाधीश्वरो निशि विमृश्यपंचकम् ॥ ५ ॥ कि जन्मलनका स्वामी १ तथा वर्ष लगका स्वामी २ मुंथाराशिका स्वामी ३ त्रिराशीश, ( त्रिराशिपाः सूर्य सिताकिं शुक्रेत्यादिसे ) ४ और दिनमें वर्ष प्रवेश हो तो सूर्य राशीश रात्रिका वर्ष प्रवेश हो तो चंद्र राशीश ५ ये पांच अधिकारी हैं इनकी विधि पूर्व संज्ञातंत्र में कही है ॥ ५॥ उपजाति - बलीयएपांतनुमीक्षमाणस्सवर्षपो लग्नमनीक्षमाणः ॥ 'नैवान्दपोदृष्टयतिरेकतः स्याद्वलस्यसाम्ये विदुरेवमायाः ॥ ६ ॥ उक्त प्रकार पंचाधिकारियोंको स्थापन करके इनका हम्बल पंचवर्गी बल देखके, जो ग्रह वलसे अधिक हो तथा लग्नकोभी देखे तो वह वर्पेश होता है, बलाधिक हो और लग्नको न देखे तो वर्षेश नहीं होता, बलाधिककी दृष्टिमी पूर्ण हो तो वही होगा इसके अभाव में इससे न्यून चली तथा इससेभी न्यूनबली दृष्टि विशेष वर्षेश होता है, जो वर्षमें सभी वा २ तुल्यवंली हों तो जिसकी दृष्टि अधिक हो वही होगा, लनपर दृष्टि जिसकी नहीं है वह बलाधिक हो तौभी वर्पेश नहीं होताहै ॥ ६ ॥ उ० जा० - हगादिसाम्येप्यथ निर्बलत्वे वर्षाधिपः स्यान्मुथहेश्वरस्तु॥ पंचापिनोचेत्तनुमीक्षमाणावीर्याधिकोन्दस्यविभुर्विचित्यः ॥ ७ ॥ जो पंचाधिकारियोंमें सभीकी दृष्टि लग्नपर बराबरहो तथा बलवानभी सभी तुल्य हों यदा (हीनचलः सरोनः)इत्यादिसे सभी हीनबल हों, तो मुंथाराशिपति वर्पेश होताहै, जो पांचोंमें कोई लग्नको न देखे तो बलाधिक ग्रह वपेश होता है जो लअपर दृष्टि पांचोंकी पूर्णही हो तो उनमेंसे बलाधिक वर्षेश जानना, कोई कहतें हैं कि, पांचोंमें बल तथा दृष्टि पूर्ण कोई न हो तो वर्ष लग्नेश राजा होता है, किसी- का मत है कि ऐसी प्राप्तिमें जिसके स्वोच्च गृह नवांश द्रेष्काण हद्दादि बहुत अधिकार हैं वह राजा होगा, किसीका मत है कि पांच अधिकारियोंमें जिसके

भाषाटीकासमेता | (१०३) ● दो तीन वा चार अधिकार मिलेही वह राजा होता है. इतने मतोंमें प्रमाणभी अन्यग्रन्थोंसे है, इनमें भी जिसका बल या दृष्टि अधिक हो वही वर्षराजा करना ॥ ७ ॥ - उपजा० - बलादिसाम्येरविराशिपोह्निनिशींदुराशीडितिकेचिदाहुः ॥ येनेत्थशालोग्दविभुःशशीसवर्षाधिपश्चंद्रमपोऽन्यथात्वे ॥ ८ ॥ किसीका मत है कि बल तथा दृष्टिके तुल्य पांचौंके होनेमें दिनका वर्ष हो तो सूर्य्यराशीश रात्रिका वर्ष हो तो चन्द्रराशीश राजा करना. पूर्वोक्त प्रकारोंसे चंद्रमा वर्षेश हो तो यह वर्षेश न करना, पांच अधिकारियों मेंसे जिसके साथ यह इत्थशाली हो उसे वर्षेश करना, जब किसीके साथ इत्थशाल भी न हो तो जिस राशिमें चन्द्रमा बैठा है उसके स्वामीको वर्षेश करना, जो चंद्रमा कर्कका हो तो चंद्रराशीश चंद्रमाही हुआ, तब तो चन्द्र- माही वर्षेश करना पड़ा इसी हेतु आचार्ग्यने आगे चंद्रमा वर्षेशके फल भी लिखे हैं.. नहीं तो चंद्रमा राजा न होता तो इसका राजत्व फलभी नहीं होनाथा ॥ ८ ॥ वसंतति ०-अब्दाधिपोव्ययषडष्टमभिन्नसंस्थो लब्धोदयोन्द जनुपोःसदृशो बलेन || निःशेषमुत्तमफलंविदधातिकायेनैरुज्य राज्यबललब्धिमती वसौख्यम् ॥ ९ ॥ अब वर्षेशका सामान्य फल कहते हैं कि, वर्षेश व्यय १२ षट् ६ वा अष्ट८ इन स्थानों में न हो तथा जन्मवर्णमें उदयी हो अस्तंगत न हो बलमें पूर्ण हो यद्वा जन्ममें तथा वर्षभी बली हो तो संपूर्ण उत्तम फल देता है तथा शरी- रमें नीरोगिता कुलानुमान राजसुख और बल तथा अतिसौख्य देता है ॥ ९ ॥ अनु० - बलपूर्णेन्दपे पूर्ण शुभं मध्येच मध्यममम् || अधमे दुःखशोकारिभयांनि विविधाः शुचः ॥ १० ॥ वर्षेश पूर्वोक्त गणितांगत बलसे पूर्ण बली हो तो शुभ फल पूर्ण देता है मध्यबली हो तो मध्यम अर्थात् शुभ न अशुभ और अधम बली हो तो (१०४ ) ताजिकनीलकण्ठी । रोगादि दुःख तथा स्वजन वियोगादि शोक शत्रुभय और नानाप्रकार चिंता उत्पन्न करता है ॥ १० ॥ • वसं तिल-सूर्येन्दपे बलिनि राज्यसुखात्मजार्थलाभः कुलोचितविभुः परिवारसौख्यम् || पुष्टं यशो गृहसुखं विविधा प्रति शत्रुविनश्यति फले जनिखेटयुक्त्या ॥ ११ ॥ सूर्य उत्तम बली होकर वर्षेश हो तो कुलानुमान राज्य तदीय सुख और पुत्र तथा धनलाभ होबै कुलानुसार प्रभुता और कुटुंबका सौख्य मिले शरीरमें पुष्टता हो यश बढे गृहसंबंधि सौख्य होवै, अनेक प्रकारकी प्रतिष्ठा बढै शत्रुनाश होवे इतने फल जन्मकेभी स्वोच्च गृहादि उत्तम बली होनेमें होता है जन्मका हीन बली हो तो फल पूरे नहीं होते, मिश्रतामें मिश्रही फलभी होते हैं ॥ ११ ॥ A ● वसं ति० - मध्ये खौ फलमिदं निखिलं तु मध्यं स्वल्पं सुखं स्वजनतोपि विवादमाहुः ॥ स्थानच्युतिर्न च सुखं कृशता ऽपि देहे भीतिर्नृपान् थाशिलोनशुभे न चेत्स्यात् ॥ १२ ॥ सूर्य मध्य बली होकर वर्षेश हो तो पूर्वोक्त उत्तम बलका फल मध्यम होता है सुख थोडा होता है और अपने मनुष्पोंसे कलहभी कराता है, तथा स्थान वा पदसे भ्रष्ट हो जाना सुख न मिलना शरीरपीडा होजाना राजासे भय होना, और इतने फल होते हैं परंतु यह सूर्य शुभग्रहसे इत्थशाली हो तो उत्तम बलोक्त फल होते हैं ॥ १२ ॥ ● वसं ति०-~-सूर्ये बलेन रहितेन्दपतौ विदेशयानं धनक्षयशुचो ऽरिभयं च तंद्रा || लोकापवादभयसु रुजोतिदुःखं पित्रादितो पिनसुखसुतमित्रभीतिः ॥ १३ ॥ सूर्ख बलरहित होकर वर्षेश ही तो विदेशगमन तथा धननाश चिंता शत्रुभय तंद्रा (आलस्य सहित अर्द्धनिद्रा) होवे, तथा संसारमें अपवाद (झूठे कलंककी भय ) होवै, उग्ररोग उत्पन्न और अति दुःख होवै पिता माता आ- दिसेभी सुख न मिलै, तथा पुत्र और मित्रोंसेभी भय होवै ॥ १३ ॥ भाषाटीकासमेता । अनुष्टु० - चंद्रेब्दपे सुथशिलं येनासा वन्दपे नचेत् || कंबूलमिन्दुना जन्म निशिवर्षं तदोत्तमम् ॥ १४ ॥ चंद्रमाकी वर्षेशप्राप्तिमें जिसके साथ यह मुथशिल करता हो वह वर्षेश होताही है परंच उसके साथ चंद्रमा यदि उत्तमादि भेदसे कंबूल करे और रात्रिका वर्षप्रवेश हो तो यह ग्रह हीनबलीभी हो तौभी वर्ष में उत्तमही फल देता है. पूर्ण बली वह ग्रह हो तो क्याही कहना पडता है अर्थात् अत्यु- तम फल देता है. जो दिनका वर्ष हो तो सामान्य फल जानना ॥ १४ ॥ व० ति० - चीर्य्यान्विते शशिनिवित्तकलत्र त्रमित्रालयादिवि - विधंसुखमाहुरार्याः ॥ स्रग्गंधमौक्तिकदुकूलसुखानि भूतिलाभः कुलोचितपदस्य पैःसखित्वम् ॥ १५ ॥ चंद्रमा जब किसी के साथ इत्थशाली न होकर वर्षेश पूर्वोक्त विधिसे होही जावै तो उत्तम बल होनेमें धन स्त्री पुत्र मित्र गृहादि अनेक प्रकारके सुख देता है ऐसे श्रेष्टजन कहते हैं तथा शृंगारी वस्तु माला चंदन मृगमदादि सुगंधिं मोती वस्त्र आदिकसे सुख देता है. ऐश्वर्य्य, लाभ तथा कुलानुमान अधिकार देताहै और राजाओंसे मैत्री होतीहै ॥ १५ ॥ , (१०५) - व ति० - वर्षाधिपे शशिनि मध्यबले फलानि मध्यान्यमूनि रिपुतासुतमित्रवर्गैः ॥ स्थानांतरे गतिरथो कृशता शरीरे श्लेष्मोद्भवश्च यदि पापकृतेसराफः ॥ १६ ॥ चंद्रमा वर्षेश मध्य बली हो तो उत्तम बलोक्त फल सभी मध्यम होते हैं तथा पुत्र और मित्रवर्गसे शत्रुता होती है एक स्थानसे दूसरे स्थानमें गमन और शरीर में पीडापन होती है. जो पापग्रहके साथ ईसराफ योगभी करता हो तो श्लेष्मविकारसे क्लेश भी देता है ॥ १६ ॥ व॰ ति० - नष्टेब्दपे शशिनिशीतकफादिरोगश्चर्य्यादिभिः स्वज- नविग्रहमप्युशंति ॥ दूरेगतिः सुतकलत्रसुखात्ययश्च स्यान्मृ त्युतुल्यमतिहीनबले शशांके ॥ १७ ॥ ( १०६ ) ताजिकनीलकण्ठी | नटबली चंद्रमा वर्षेश हो तो शीत तथा कफ आदिक रोग हों चोर ठग आदिसे भय हो और अपने मनुष्योंमें कलहभी कहते हैं दूर गमन होवै पुत्र व स्त्रीका सुख नष्ट होवै और यह अतिहीनवली हो तो शीतकफादि रोगों से मृत्यु समान कष्ट होताहै ॥ १७ ॥ व० ति० - भौमेन्द पे बलिनिकीर्त्तिजयारिनाशः सेनापतित्व- रणनायकता प्रदिष्टा ॥ लाभःकुलोचितधनस्य नमस्यता च लोकेषु मित्रसुतवित्तकलत्र सौख्यम् ॥ १८ ॥ बलवान मंगल वर्षेश हो तो कीर्त्ति बढ़ शत्रुसे जीत मिले तथा शत्रुनाश होवे सेनापतिका अधिकार तथा रणमें श्रेष्ठताभी होवै है और कुलउचित धनकी प्राप्ति होवै. संसारमें साधारण मनुष्योंसे नमस्कार प्रणाम करनेके योग्य होवे. मित्र पुत्र धन स्त्रीका सौख्य मिलै ॥ १८ ॥ व० ति० - मध्येब्दपेव निसुते रुधिरसुतिकोपोधिकोझकट शक्षितानि ॥ स्वामिस्वमात्मगणतो बलगौरवं च मध्यं सुखं निखिलमुक्तफलं विचित्यम् ॥ १९ ॥ मध्यबली मंगल वर्षेश हो तो शरीरसे किसीप्रकार रुधिर गिरै क्रोध बहुत आवै, शस्त्रकी चोट लगने से घाव होवै और अपने जनोंमें स्वामित्व तथा बल और गुरुता मिलै. सौख्य मध्यम होवे इसप्रकारका कहा हुआ फल मध्यबलमें मध्यमही विचारना ॥ १९ ॥ व ति० - हीनेन्द पेऽसृजिभयं रिपुतस्कराग्निलोकापवादद्भव मात्मधिया विनाशः ॥ कार्य्यस्य विद्यमतिरोगभयं विदेशयानं क्षयोपनयतो गुरुदृष्टयभावे ॥ २० ॥ हीनबली मंगल वर्पेश हो तो शत्रु चोर और अभिसे भय होवे. झूठा कलंक लगनेका भय होवै; और अपनीही बुद्धिसे वस्तु वा कार्यका नाश होवे. तथा कार्य में विघ्न होवे, बहुधा रोगभय तथा परदेशगमन होते. और उद्धतपनसे धन एवं कार्यादिक्षय होवे; परंतु इतने फल ऐसे मंगलपर बृह- स्पतिकी दृष्टि न होनेमें होते हैं, गुरुकी दृष्टि होनेमें सभी शुभफल कहेहैं ॥ २० ॥ भाषाटीकासमेता | (१०७) वसंतति - सौम्येन्दपे बलवति प्रतिवादलेख्यसच्छास्त्रसद्व्यव- हतौ विजयोऽर्थलाभः ॥ ज्ञानं कलागणितवैद्यभवं गुरुत्वं राजा- श्रयेण नृपता नृपमंत्रिता वा ॥ २१ ॥ बुध पूर्ण बली वर्षराजा हो तो विवादमें तथा लिखनेके कर्मसे और शुभ शास्त्र शुभ व्यवहारसे विजय तथा धनलाभ होवे. मंत्रादि कला वैद्यत्व गणित शास्त्र, इनसे गौरवंता मिले, ज्ञान होवे और राजाके आश्रयसे राज्य मिले. अथवा राजमंत्रित्व मिले ॥ २१ ॥ वसंतति • - अब्दाधिपे शशिसुते खलु मध्यवीय्यें स्यान्मध्यमं निखिलमेतदथाध्वयानम्॥ वाणिज्यवत्तनमथात्मजमित्रसौख्यं सौम्येत्थशालवशतोऽपरथानसम्यक् ॥ २२ ॥ मध्यबली बुध वर्षेश हो तो पूर्वोक्त उत्तम बलीका फल समस्त मध्यम होता है और मार्ग चलना पडता है. व्यापार तथा पुत्रमित्रोंका सुख होता है. परंतु शुभग्रहसे इत्थशाली हो तो उक्तफल है अन्यथा अशुभ फल देता है२२॥ वसंतति ०-सौम्येन्दपेऽघमबलेबलबुद्धिहानिर्द्धर्म्मक्षयः परिभवो निजवायदोषात् ॥ निक्षेपतो विपदतीव सृषैव साक्ष्यं हानिः परव्यवहृतेः सुतवित्तमित्रैः ॥ २३ ॥ अधम बली बुध वर्षेश हों तो बल तथा बुद्धिकी हानि धर्मका क्षय होवे तथा अपनेही वचनसे अपमान पावे इत्यादि निक्षेप ( निधानसे) विपत्ति बहुत होवे झूठी साक्षी ( गवाहीमें ) कठिनाई आनपड़े पराये व्यापारमें अपनी धनहानि और पुत्र मित्र धनकीभी हानि होवै ॥ २३ ॥ व ति० - जीवेऽन्दपे बलयुंते परिवारसौख्यं धर्मों णग्रहिलता धनकीर्तिपुत्राः ॥ विश्वास्यतोजगति सन्मतिविक्रमाप्तिर्लाभो निधेर्नृपतिगौरवमप्यरिघ्नम् ॥ २४ ॥ बृहस्पति उत्तम बली वर्षेश हो तो कुटुंबका सुख तथा धर्म होवे शौर्य्यादि गुणोंका आग्रह होवे अर्थात् ये गुण मिलें धन यश और पुत्र प्राप्ति होवे . (१०८) ताजिकनीलकण्ठी | संसार में सभी विश्वास माने अच्छी बुद्धि होने पराक्रमासद्धि तथा निधि 'वस्तु' मिलें राजासे गुरुता मिले, शत्रुनाश होवे ॥ २४ ॥ वसंतति ० - अब्दाधिपे सुरगुरौ किलमध्यवीय्यै स्यान्मध्यमं फलमिदं नृपसंगमश्च ॥ विज्ञानशास्त्रपरताप्यशुभेसराफे दारि यमर्थविलय चकलत्रपीडा ॥ २५ ॥ मध्यबली वृहस्पति वर्षेश हों तो पूर्वोक्त उत्तम बलके फल मध्यम होतेहैं. तथा शुभ ग्रहसे इत्थशालभी करता हों तो राजाका संगम होगा. ज्ञान तथा शास्त्र में तत्पर रहता है जो पापग्रहसे ईसराफ योग कर्त्ता हो तो दरिद्र और धननाश और स्त्रीसे कष्टभी करेगा ॥ २५ ॥ वसंतति • - जीवेन्दपेधमबले धनधर्मसौख्यहानिस्त्यजंति सुत मित्रजनाः सभार्य्याः ॥ लोकापवादमयमाकुलताऽतिक वृत्ति स्तनौ कफरुजोरिपुभीः कलिश्च ॥ २६ ॥ अधमबली वर्षेश बृहस्पति हो तो धन धर्म और सुखकी हानि होवे, तथा पुत्र मित्र लोग और स्त्री उसे त्यागदेवें. संसारमें झूठे कलंक लगनेकी डर होवे. चित्त व्याकुल रहे आजीवन बडे कष्टसे होवे. शरीरमें कफ रोग होवे. शत्रुसे भय तथा कलहमी होवेहै ॥ २६ ॥ वसंततिलकाछंद - शुक्रेब्दपेबलिनिनीरुजताविलासस स्त्ररत्न मधुराशनभोगतोषाः ॥ क्षेमप्रतापविजयावनिताविलासो हास्यंनृपाश्रयवशेन धनं सुखंच ॥ २७ ॥ करे. उत्तम बली वर्षेश शुक्र हो तो शरीर नीरोग रहै. नित्यमुखसे विलास शुभ शास्त्र तथा मिष्टान्न भोजनादि भोगों से प्रसन्नता रहे सर्वथा कुशल प्रताप बढ़े शत्रुसे जय मिले स्त्रीविलासका मुख रहै. प्रसन्नता रहे और राजा के आश्रयसे धन तथा सुख मिले ॥ २७ ॥ वसंतति :- अब्दाधिपे भृगुसुते खलुमध्यवीय्यै स्यान्मध्यमं निखिलमेतदथाल्पवृत्तिः ॥ तं च दुःखमखिलं सुनिबद्धवृत्तिः यापारिवीक्षितयुते विपदोऽर्थनाशः ॥ २८ ॥ भाषाटीकासमेता । (१०९ ) मध्यवली शुक्र वर्षेश होतो पूर्वोक्त उत्तमबलीका फल सभी मध्यम होते हैं तथा आजीवनार्थ थोडा द्रव्यादि मिलते हैं गुप्त प्रकारसे दुःख लगा रहे, वाच्य अथवा अवाच्य सुख मध्यम वृत्ति जीवनोपाय अल्प रहे; जो पापग्रह शत्रुसे युक्त दृष्ट हो तो विपत्ति होवे धननाश भी होवे ॥ २८ ॥ व॰ ति० - शुक्रेन्दपेघम बलेमन सोऽतितापो लोकोपहासविप दो निजवृत्तिनाशः|| द्वेषः कलत्रसुतमित्रजने कष्टाद शनं च विफलक्रियता न सौख्यम् ॥ २९ ॥ अघन बली शुक्र वर्षेश हो तो मनमें अति संताप रहे लोगों से उपहास होवे, अपनी आजीवनकी वृत्ति नष्ट होवे, स्त्री पुत्र मित्रजनोंसे वैर होवे, भोजन भी अति कष्टसे प्राप्त होवे जो कुछ कर्म भलाई निमित्त करै वही निष्फल होवे, सुख न मिले ॥ २९ ॥ i S व · ति० - मंदेऽब्दपे बलिनि नूतनभूमिवेश्मक्षेत्राप्तिरर्थनिचयो यवनावनीशात् ॥ आरामनिर्मितजलाशयसौख्यमंग : लोचितपदाप्ति णाग्रणीत्वम् ॥ ३० ॥ उत्तम बली शनि वर्षेश हो तो नवीन गृह भूमि ( खेती) मिले, धन बहुत- मिले, यवनावनीश ( मुसलमान आदि जाति राजा ) वा राजतुल्यसे मिले, उपवन ( बगीचा ) बनावे, जलाशय, कूप तडागादिका सुख मिले, शरीर पुष्ट रहे. अपने कुलयोग्य अधिकार मिले अपने समाजमें श्रेष्ठ रहे ॥ ३० ॥ व ति० - अब्दाधिपेरविसुते खलुमध्यवीयेंस्यान्मध्यमं नि- खिलमन्नभुजिस्तु कात् ॥ दासोष्टमाहिष लान्यरतस्तुलाभः पानं फलं भवति पापयुगीक्षणेन ॥ ३१ ॥ . O मध्यबली शनि वर्षेश हो तो पूर्वोक्त फल उत्तम सभी मध्यम होवें तथा अन्न खाने में किसी प्रकार (अपची ) अरुची, आदिसे होवे और दास: ऊंट भैंस तथा अपनेसे हीन कुलमें तत्पर रहे कहीं 'कुधान्यरत' ऐसा पाठ भी है अर्थात दुष्ट अन्न कोद्रव, साँवा, जुवार, बगड आदिमें तत्पर (११०); ताजिकनीलकण्ठी । रहे. इतनी वस्तुओंका लाभ भी होवे, और पापग्रहसे युक्त वा दृष्ट हो तो समस्त फल दुष्टही होंगे शुभ दृष्टिसे शुभं जानना ॥ ३१ ॥ व ति० - मंदबलेन रहितेऽब्दपतौ क्रियाणां वंध्यत्वमर्थविलयो विपदोरिभीतिः ॥ स्त्रीपुत्रमित्रजनवैरकदन्नमुक्तिः सौम्येत्थशा- लघुजिसौख्यमपीषदाहुः ॥ ३२ ॥ शनि होनबली वर्षेश हो तो कर्ममात्रकी वंध्यत्व ( निष्फलता ) होवे, ( कुतिअन्न ) कुलत्थ, कोद्रव, जुवार, सांबा, आदि भोजनको मिले घननांश तथा विपात, शत्रुभय और स्त्री पुत्र मित्र जनोंसे वैर होवे, जो शुभग्रहसे इत्थशाली वा युक्त हो तो थोडा सुख भी होगा ऐसा कहते हैं ॥ ३२॥ व ति वर्षेश्वरो भवति यः सदशाधिपोन्दे ज्ञेयोऽखिलोन्दज उपोर्बलमस्य चित्यम् ॥ वीर्यान्वितेच निखिलं शुभमन्दमाहु- हने त्वनिष्टफलतासमतासमत्वे ॥ ३३ ॥ पूर्वोक्त प्रकारसे जो वर्षेश हुआ वही प्रथम दशाधीश भी जानना यतः सभीदशाधीश ग्रहोंका यह राजा होता है इसका फल थोडा २ सभीके दशाओं में होता है, और वर्षेश बल जन्ममें भी पंचवर्गी कमसे वर्षतुल्य गिनना, जन्म वर्षका बल मिलायके बलाबल जानना, दोनहूं मेंसे चली होनेसे पूर्णबली कहाताहै, संपूर्ण वर्ष में शुभही फल देता है, इसी क्रमसे उत्तम मध्यम कनिष्ठ भी बल जानना, हीनबलमें मध्यम फल कनिष्ठमें अशुभ सममें समफल समस्त वर्षमें विचारसे कहना बलाबल विधि पूर्ण कही हैं ॥ ३३ ॥ उ० जा० - येनेत्थशालोब्द पतौग्रहाऽसौस्वीयस्वभावात्सुफलंददाति ॥ 'शुभेसराफे शुभमस्तिकिंचिदनिष्टमेवाशुभसूसरीफे ॥ ३४ ॥ वर्षेश जिस ग्रहके साथ इत्यशाल करता हो वह यह अपने पूर्वोक्त स्वभावानुसार शुभ फल देता है. जो शुभग्रहसे ईसराफ योग हो तो शुभ फल 'थोडा देता है, और पापग्रहसे इत्यशाल हो तो अनिष्ट फल देता है. बलाबलसे • उत्तम मध्यम व अधम फल का विचार करना ॥ ३४ ॥ भाषाटीकासमेता । अनुष्टु० - हृद्दे याहार्श यः खेटः आधत्तेत्रचयोमहः || जन्मन्यव्देचतादृक्त्वे तदात्मफलदस्त्वसौ ॥ ३५ ॥ • जन्ममें जो ग्रह जिस प्रकारकी हद्दामें होकर दूसरेका तेज ग्रहण करता हो वर्षमें भी उसी प्रकार हृद्दामें हो तो अपना फल अपने संबंधी ग्रहको दे- -ता है अर्थात् जन्ममें जिस हद्दामें यह हैं उसी हद्दामें जो कोई ग्रह हो उसके - साथ मुथशिली हो तो जन्मके उस ग्रहका तेज लेलेता है, जैसे जन्ममें राज्य भावेश मंगल मेषके २० अंश अपने हुद्दामें हैं, और शुक्रादि कोई ग्रह सुखाधीश १६ अंशपर स्थित होकर मुथशिली होनेसे तेज ग्रहण करता है. एवं वर्ष में मंगल स्वहद्दामें होकर शुकते मुथशिली हो तो शुक्र अपनी दशामें मंगलके स्वभाव तुल्य फल दशम भावसंबन्धी फल भी देगा ॥ ३५ ॥ अनुष्टु० - योजन्मनिफलं दातुं विभुर्मूसरिफोस्यचेत् ॥ अन्दलग्नाब्दपतिनातस्मिन्नन्देनतत्फलम् ॥ ३६ ॥ जो ग्रह जन्मसे शुभ वा अशुभ फल देनेको समर्थ है वह वर्ष में वर्ष - लग्नेश वा वर्षेशके साथ मूसरिफ योग करता हो तो जन्मकालोक्त फल वर्ष में नहीं होता है, जो इनके साथ ईसराफ हो तो जन्मकालोक फल वर्ष में होता है, ईशराफ, यूसरिफ कोई भी नहीं हो तो जन्मोक्तफल जन्महीमें वर्षोत वर्षहीमें फल देता है इसका उदाहरण अगले श्लोक में है ॥ ३६ ॥ इन्द्रवज्रा – पुत्राधिपो जन्मनि पुत्रभावं पश्यन्सुतंदातुमसौसम- मर्थः॥ वर्षेत्रपुत्राब्दपमूसरीफी पुत्रस्य नाशोभवतीहवर्षे ॥ ३७ ॥ जन्मकालमें पुत्रभावेश पुत्रभावको देखे "उपलक्षणसे" वा पुत्र स्थानमें हो तो अपनी दशामें इसे पुत्र देनेकी सामर्थ्य है, वर्षमें यही जन्मका पुत्रभा- वेश वर्षंलग्नेश वा वर्षेशसे वा पंचमेशसे मूसरीफ योग करें तो इस वर्ष में अवश्य पुत्रनाश करेगा यह पर्व श्लोकका उदाहरण है, ऐसेही सभी भाषका विचार करना ॥ ३७॥ · ( ११३ ) अनुष्टु० - अब्देश्वरोगुरुमित्रहद्दमित्रदृशाशशी || महोत्राधाद्य मुद्दिश्यवर्षेशस्तेनशोभनः ॥ ३८ ॥ ( ११२ ) ताजिकनीलकण्ठी | वर्षमें वर्षेश बृहस्पति हो और जन्ममें बृहस्पतिसे चन्द्रमा इत्थशाल करता हो, परन्तु बृहस्पति अपनी हद्दामें हो और वर्षमें चन्द्रमाको देखे तो जन्म में चन्द्रमा बृहस्पतिको तेज देनेसे यह वर्ष शुभफलदेनेवालाहोगा ॥ ३८ ॥ अनुष्टु० - एवमुन्नेयमन्यच्चशुभाशुभफलं धैः ॥ बलाबलविवेकेन योगत्रयविमर्शतः ॥ ३९ ॥ इतिश्रीनीलकंठदैव कृतायां नीलकंव्यांफलतंत्रे वर्पपति फलानि समातानि ॥ १ ॥ इसी प्रकार जन्मका तथा वर्षका बलाबल संबंध देखके तथा भविष्य मुथशिल वर्त्तमान मुथशिल ईसराफ तीन योगोंसे पंडितोंने विचार करना चाहिये, यह लक्षण मात्र कहा है ऐसेही औरभी विचार सर्वत्र करलेना ॥ ३९ ॥ • इति महीधरकृतायां नीलकंठीभाषायां वर्षातंत्रे वशफल- निरूपणं नाम प्रथमं प्रकरणम् ॥ १ ॥ अथ मुंथानिरूपणम् || उ०व० - स्वजन्मलग्नात्प्रतिवर्ष मे कैकराशिभोगान्मुथंहाभ्रमेण || स्वजन्मलग्नंरवितष्टयातंगताब्दयुक्तंभमुखेंथिहास्यात् ॥ १ ॥ जन्मलनका नाम मुंथाहै प्रतिवर्ष एक एक राशि भोगने के क्रमसे भ्रमण, करती है. जैसे जन्मका सिंह लग्न हो तो दूसरे वर्षमें कन्याकी तीसरेमें तुलाकी इत्यादि, पुनः तेरहवें वर्ष में जन्मलग्न सिंहकी चौदहवें में कन्याकी यही क्रम है, जन्मलग्नमें गतवर्ष जोडके बारहसे भाग करके शेष राशिमें मुंथा बर्षकी होती है, जन्मलग्नका जो स्पष्ट है वही मुंथा स्पष्ट रहताहै केवल एक एक राशिमात्र प्रतिवर्प बढती है ॥ १ ॥ अनुष्टु० - प्रत्यहंशरलिप्ताभिर्वर्द्धते सानुपाततः ॥ सार्द्धमंशद्वयंमासइत्याहुः केपिसूरयः ॥ २ ॥ मासप्रवेश दिनप्रवेश में मुंथाके लिये अनुपात त्रैराशिकसे है कि सौर- मान १ वर्ष में १ राशि भुगती है तो एक महीने में कितना एक राशिके ३० भाषाटीकासमेवा । (११३) अंश; १ अंशकी ६० कला प्रसिद्धहैं त्रैराशिक करनेसे एकमहीनेमें २ अंश ३० कला और एकदिनमें ५ कला मिलती हैं मासप्रवेशमें वर्ष मुंथाके में २ अंश ३० कला जोडके दूसरे मासकी मुंथाका स्पष्ट होता है पुनः प्रतिमास २ अंश ३० क० जोडतेरहना दिनप्रवेशमें केवल ५ कला प्रतिदिन जोडना ॥ २ ॥ अनुष्टु० - स्वामिसौम्येक्षणात्सौख्यंक्षुतदृष्टयाभयंरुजः || भावालोकनसंयोगात्फलमस्यानिरूप्यते ॥ ३ ॥ , मुंथाका फल कहते हैं कि, जिस राशिमें मुंथा है उसका स्वामी मुंथेश कहाता है मुंथा स्वस्वामी वा शुभ ग्रहके देखनेसे सुख देती है तथा शत्रु और पाप अल्पवली ग्रहके दृष्टिसे भय तथा रोग देतीहै, भाव दृष्टि और योगके अनुसार इसका फल कहा जाता है ॥ ३ ॥ I अनुष्टु० वर्षलग्नात्सुखास्तांत्यरि रंध्रेष्वशोभना || पुण्यकर्मायगाः सौख्यंदत्तेऽन्यत्रोद्यमाद्धनम् ॥ ४ ॥ मुंथा वर्षलग्नसे सुख ४ अस्त ७ अंत्य १२ रिपु ६ रंध्र ८ स्थानों में शुभ नहीं होती, पुण्य ९ कर्म १० आय ११ स्थानों में रख देनेवाली होती है इनसे उपरांत १ | २ | ३| ५ स्थानों में उद्यम करने से धन देतीहै ॥ ४ ॥ उपजा० - शत्रु यं मानसतुष्टिलाभं प्रतापवृद्धिं नृपतेः प्रसादम् || शरीर ष्टिविविधोद्यमांश्च ददातिवित्तं मुथहातनुस्था ॥ ५ ॥ - मुंथाके भावफल कहते हैं लग्न में मुंथा हो तो शत्रुक्षय होवे मन. संतुष्ट रहे प्रताप बढे राजासे प्रसाद हो शरीर पुष्ट रहे अनेक प्रकारका उद्यम होवे तथा धन देवे ॥ ५ ॥ उपजा० - उत्साहतोर्थागमनंयशश्च स्वबंधुसम्माननृपाश्रयश्च ॥ मिष्टान्नभोगोबलपुष्टिसौख्यं स्यादर्थभावेमुथहायदाब्दे ॥ ६ ॥ मुंथा द्वितीय स्थानमें हो तो उत्साह से धन आवे यश बढे ( बंधु ) स्वजातिमें सन्मान होवे तथा राजाका आश्रय मिले मीठे पदार्थ खानेको मिलें. शरीरमें बल तथा पुष्टता होवे और सुख मिले ॥ ६ ॥ ८ ु (११४) ताजिकनीलकण्ठी । उपजा ० - पराक्रमाद्वित्तयशः सुखानिसौंदर्य्यसैौख्यंद्विजदेवपूजा ॥ सर्वोपकारस्तनुपु कांतिनृपाश्रयाश्चेन्मुथहातृतीया ॥ ७ ॥ मुंथा तीसरे स्थानमें हो तो अपने पराक्रमसे धन यश और सुख होवे, सुरूपता और सौख्य होवे, देव ब्राह्मणोंकी पूजा अपनेसे होवे. सभीका उप- कार अपनेसे बने शरीर पुष्ट कांतिमान् होवे, राजाका आश्रय मिले ॥ ७ ॥ - उपजा० - शरीरपीडारि भीः स्ववर्गवैमनस्तापनिरुद्यमत्वे || स्या 'थहायांसुखभावगायां जना पवादामयवृद्धिदुःखम् ॥ ८ ॥ मुंथा चतुर्थ स्थानमें हो तो अपने समुदाय में वैर होवे मनको संताप है उद्यमहानि अर्थात् आलस्य रहे लोगों में झूठा कलंक लगे अनेक प्रकारके रोग और दुःखं बढ़ें ॥ ८ ॥ उपजा०-यदीथिहापंचमगाब्दवेशे सद्बुद्धिसौख्यात्मजवित्तलाभः॥ प्रतापवृद्धिर्विविधाविलासादेव द्विजार्चानृपतेः प्रसादः ॥ ९ ॥ मुंथा पंचम स्थान में हो तो भली बुद्धि तथा सुख पुत्र धनलाभ होवे, प्र- ठाप बढे अनेक प्रकार हर्षनाति होवे देव ब्राह्मणोंका पूजन अपनेसे होवे ॥ ९॥ उपजा० - कृशत्वमंगेषुरिषूदयश्च भयंरुजस्तस्करतानृपाद्वा || कार्य्यार्थनाशोमुथहारिगाचेहुर्बुद्धिवृद्धिः स्वकृतोतापः ॥ १० ॥ मुंथा छठे स्थान में हो तो सभी अंग मांडे होजावें शत्रु बढ़ें रोग उत्पन्न होवे चोरसे वा राजासे भय होने कार्य्य तथा धनका नाश होवे, दुष्टबुद्धि बढे अपने किये कामसे आपही पछतावे ॥ १० ॥ ●- ● उपजा० - कलत्रबन्धुव्यसनारिभीतिरुत्साहसंगोधनधर्मनाशः ॥ द्यूनोपगाचेन्मुश्रहातनौस्याद्रुजामनोमोहविरुद्धचेष्टे ॥ ११ ॥ स्त्री और बांधव पक्ष में कष्ट होवे यूतादि व्यसनसे हानि शत्रुभय उद्यम . हानि धन और धर्मका नाश होवे शरीरमें रोग होवे, मनकी अज्ञानता पा वंद्रादिसे विपरीत कर शारीरी चेष्टाओंको बिगाड देवे ॥ ११ ॥ भाषाटीकासमेता । (११५) उपजा० - भयंरिपोस्तस्करतो विनाशोधर्मार्थयो दुर्व्यसनामयश्च ॥ मृत्युस्थिताचेन्मुथहानराणां बलक्षयः स्याद्गमनंसुदूरे ॥ १२ ॥ मुंथा अष्टम भाव में हो तो शत्रुसे भय चोर धन धर्मका नाश दुष्ट व्यसन, जुवाँ चोरी वेश्या आदिमें नाश हो रोगभी पैदा हो बलहानि हो बहुत दूर गमन निरर्थक करना पड़े ॥ १२ ॥ इंद्रवं० - स्वामित्वमर्थापगमो नृपेभ्योधर्मोत्सवः पुत्रकलत्रसौख्यम् ॥ देवद्विजार्चापरमंयशश्च भाग्योदयो भाग्य गतेंथिहायाम् ॥ १३ ॥ नवम स्थानमें मुंथा हो तो सब लोगों में स्वामित्व मिले, राजासे घन आवे, धर्म संबंधी उत्साह होवे पुत्र और स्त्रीका सुख मिले, देव ब्राह्मण पूजन होवे, पूरा यश मिले ऐश्वर्य बढे ॥ १३ ॥ उपजा० - नृपप्रसादं स्वजनोपकारं सत्कर्मसिद्धिं द्विजदेवभम् ॥ यशोभिवृद्धिं विविधार्थलाभं दत्तेंवरस्था सुथहा पदाप्तिम् ॥ १४ ॥ मुंथा दशम स्थान में हो तो राजासे प्रसाद मिले अपने मनुष्योंका उपकार होवे. भले कर्म की सिद्धि तथा देवता ब्राह्मण की भक्ति अपनेसे बने यश बढे, अनेक प्रकार धन लाभभी देती है और (पदाप्तिम् ) उत्तमस्थानभी देती है १४ उपजा० – यदींथिहा लाभगता विलास सौभाग्यनैरुज्यमनःप्रसादाः ॥ भवंति राजाश्रयतो धनानि सन्मित्रपुत्राभिमतातयश्च ॥ १५ ॥ - मुंथा ग्यारहवें स्थानमें हो तो अष्ट प्रकार शृंगारका विलास और सौ- भाग्य नीरोगिता मनकी प्रसन्नता होवे, राजाके आश्रयसे धन मिले, अच्छे मित्र और पुत्र मिलें मन मानती भलाई होवे ॥ १५ ॥ उपजा० - व्ययोंधिको दुष्टजनैश्च संगो रुजातनौ विक्रमतोप्यसिद्धिः ॥ धर्मार्थहानिर्मुथहाव्ययस्था यदातदास्याज्जनतोऽपिवैरम् ॥ १६ ॥ मुंथा बारहवें स्थानमें हो तो व्यय बहुत होवे दुष्टमनुष्योंकी संगति मिले शरीरमें रोग होने पराक्रम करनेमें परिश्रम व्यर्थ जावे. धर्म और घनकी हानि होबे सज्जनोंसे वैर होवे ॥ १६ ॥ (११६) ताजिकनीलकण्ठी । अनु • - क्रूरैर्दृष्टः क्षुतदृशा योभावो थहाऽत्रचेत् || भंतद्भावजं नश्येदशुभंचापि वर्द्धते ॥ १७ ॥ मुंथाफल विशेष कहते हैं कि जो भाव पापयुक्त हो वा जिसपर क्रूरग्रहकी शत्रु दृष्टि हो उसीमें मुँथा हो तो शुभस्थानगतभी हो तो भी उस भावका शुभ फल नहीं देती है, प्रत्युत अशुभ फल बढ़ता है ॥ १७ ॥ भुजंगप्रयात - शुभस्वामियुक्तेक्षितावीर्य्ययुक्चैंथिहास्वामि- सौम्येत्यशालम्प्रपन्ना ॥ शुभंभावजंवर्द्धयन्नाशुभंसान्यथात्वे न्यथाभाव उह्यो विमृश्य ॥ १८ ॥ जो मुंथा स्वस्वामी वा शुभ ग्रहसे युक्त वा दृष्ट हो तथा स्वामी बलवान् हो. अथवा अपने स्वामी यद्दा शुभ ग्रहसे इत्थशालिनी हो तो जिस भाव में है उस भाव संबंधि शुभ फलको बढाती है अन्यथा शुभ फलको नहीं बढाती तथा अन्यथा में अन्यथा जैसे शुभ ग्रह स्वस्वामीसे युत दृष्ट न होनेसे निर्बल हो यद्दा पापग्रहसे मूसरीफ करती हो तो उस भाव संम्बंधि शुभ फल को नाशकर अशुभ फलको बढाती है ऐसे भाव संम्बंधि फलका. शुभाशुभ मुंथाके बलसे विचारके कहना ॥ १८ ॥ · ० प्र० - जनुलं तोऽस्तांत्यपण्मृत्युबंधुस्थितान्देहता रखेटे- स्तुसाचेत् ॥ विनश्येत्समयनेंथिहाभाव एवं शुभः स्वामिदृष्टौ ननाशःशुभंच॥ १९ ॥ मुंथा जन्मल से छठे आठवें वा चौथे स्थानमें हो तथा वर्षमें पाप- युक्त पापाक्रांत हो तो जिस भावमें मुंथा है उस भावको नाश करती है. जैसे द्वितीय में धनका तृतीय में भाईका इत्यादि परन्तु वर्षमें स्वस्वामी शुभग्रहसे युक्त दृष्ट हो तो यह फल नहीं होता प्रत्युत शुभ फलदेती है ॥ १९ ॥ अनुष्टु० -यदोभयत्रापिहता भावो नश्येत्ससर्वथा ॥ उभयत्रशुभत्वेतुभावोऽसौवद्धतेतराम् ॥ २० ॥ मुंथा जन्मलग्न से तथा वर्षलग्न से शुभ स्थानमें हो पापाक्रांत न हो तो उसभावसम्बंधि शुभ फल, अर्थात् वह भाव बढता है जैसे जन्मलग्नसे. भाषाटीकासमेता । (११७) वर्षलम से मुन्था पंचम शुभ ग्रह स्वस्वामियुक्त दृष्ट हो तो पुत्रवृद्धि करती है इत्यादि जो जन्म तथा वर्षलझसे अनिष्ट स्थानमें हो तथा पापयुत दृष्टवा पा- पत्थशालिनी हो वह भाव अवश्य नष्ट होगा ॥ २० ॥ अनुष्टु०-वर्षेप्यनिष्टगेहस्था यद्भावे जनुषिस्थिता ॥ ऋरोपघातात्तंभावनाशयेच्छुभयुक्छुभा ॥ २१ ॥ जन्मलनसे ४|६|८|१२ दुष्ट भावमें तथा वर्ष में ऐसेही अनिष्ट स्थानों- में हो तथा पापग्रहयुक्त वा दृष्ट स्वामीके अस्तंगतादिसे निर्बल हो तो. उस आवको नाश करती है और स्वस्वामियुक्त दृष्ट वा इत्यशालसे शुभ फल देती है ॥ २१ ॥ भुजंगप्रयात - जनुर्लग्नतस्तुर्य्यगासौम्ययुक्ताब्दवेशेपितुर्दुव्य- लाभंविधत्ते ॥ नृपाद्भीतिदापापयुक्तातिकष्टाष्टमादावपीत्थंवि मशविधेयः ॥ २२ ॥ जन्मलग्नसे मुंथा चतुर्थ भावमें शुभग्रहयुक्त हो तो पिताका द्रव्य धन भूम्यादिलाभ करती है, ऐसेही पापयुक्त हो तो राजासे भय और आजीवन अति कष्टसे होवे, ऐसेही जन्म लग्नसे अष्टमगत शुभयुक्त हो तो शुभफल तथा पापयुक्त होनेमें अनिष्ट फल देती है ऐसेही षष्ठादि स्थानों में भी बुद्धि विचारसे मुंथाका तारतम्य देखके फल कहना ॥ २२ ॥ शालिनी - यस्मिन्भावे स्वामिसौम्येक्षिताचेद्भावोजन्मन्येषय- स्तस्यवृद्धिः ॥ एवंपापैर्नाशउक्तस्तुतस्येत्यूह्यंवीर्य्याद्वर्षपस्या- स्ति सौख्यम् ॥ २३ ॥ वर्षलग्नमें मुंथा स्वस्वामी शुभग्रह दृष्ट युक्त जिस भाव में हो वह जन्म- लग्नसे जो भावमें हो उस भावकी वृद्धि करती है, जैसे वर्ष में मुंथा चतुर्थ शुभग्रह वा स्वामियुक्त वा दृष्ट है और जन्मलनगणनासे यह भाव तीसरा होता है तो इस वर्ष में भ्रातृसम्बन्धी शुभफल होगा तथा पापग्रहयुक्त वा दृष्ट जिस भावमें हो वह जन्मलग्नसे जो भाव हो उसकी हानि होती है परन्तु वर्षेश बलवान् तथा शुभग्रह हो तो मुंथा पापयुक्तका पूर्वोक्त फल न होगा ॥ २३ ॥ ॥ इति मुंथाभावफलम् ॥ ताजिकनीलकण्ठी । अथ ग्रहयुक्तदृष्ट. थाफलम् । उपजा० - यदींथिहासूर्य्यगृहे युतावा सूर्येणराज्यं नृपसंगमंच | दत्तेगुणानांपरमामवाप्तिस्थानांतरस्येतिफलंदृशोपि ॥ २ ॥ मुंथाको प्रत्येक ग्रह युक्तका फल कहते हैं सूर्यकी राशि ५ में हो अर्थात् सूर्यके साथ वा सूर्य्यसे दृष्ट हो तो कुलानुमान राज्य मिले तथा राजाकी संगति मिले, स्त्री व भूषणादि श्रेष्ठ भोग मिलें ॥ २४ ॥ उपजा० कुजेन का जभे कुजेन दृष्टा च पित्तोष्णरुजंविधत्ते ॥ शस्त्राभिघातं रुधिरप्रकोपं सौरीक्षिता सौरिगृहे विशेषात् ॥ २५ ॥ मुंथा मंगलसे युक्त वा दृष्ट हो मंगलकी राशि १ |८ में हो तो पित्त विकार उष्ण रोग देतीहै, और शस्त्र से घात रुधिर कोपसे कष्टभी करती है, ऐसी मुंथा शनिसे युक्त वा दृटभी हो यद्वा शनि राशिमें मंगलसे युक्त वा दृष्ट हो तो पूर्वोक्त फलको विशेष बढायदेती है शनि मंगलका मुन्थाके नि- मित्त परस्पर तुल्य फलहै ॥ २५ ॥ उपजा० - चंद्रेण युक्तेंदुगृहेथदृष्टेंदुनापि वा धर्मयशोभिवृद्धिम् ॥ नैरुज्यसंतोषमतिप्रवृद्धिं ददाति पापेक्षणतोऽतिदुःखम् ॥ २६ ॥ मुंथा चन्द्रमासे युक्त चन्द्रमाके राशि ( ४ ) में अथवा चन्द्रमासे हट हो तो धैर्य तथा पशकी वृद्धि करती है नीरोगिता तथा प्रसन्नताकी तो अतिही वृद्धि देती है और पापग्रहकी दृष्टि भी हो तो अतिदुःख करती है ॥ २६ ॥ उपजा० बुधेनशुक्रेणयुतेक्षितावा तद्भेपिवास्त्रीमतिलाभसौख्यम् ॥ धर्म यशश्चाप्यतुलं विधत्ते कटंच पापेक्षणयोगतः स्यात् ॥ २७ ॥ (११८) • मुंथा बुध अथवा शुक्र से युक्त वा दृष्ट अथवा इनके राशि २ । ३ । ६|७| में हो तो स्त्री तथा बुद्धिलाभ और सुख होवे तथा अनुपम धर्म और यशभी देती है इसमें पापग्रहकी दृष्टि वा योगभी हो तो कंष्ट होताहै ॥ २७ ॥ उपजा० - युतेक्षिता वा गुरुणा गुरोर्भे यदींथिहा पुत्रकलत्रसौख्यम् ॥ ददाति रत्नांबरंधर्मसौख्यं शुभेत्यशालादिहराज्यलाभः ॥ २८ ॥ भाषाटीकासमेता । (११९) . मुंथा बृहस्पतिसे युक्त वा दृष्ट तथा गुरु राशि ९ । १२ में हो तो पुत्र तथा स्त्रीका सुख और रत्न व धर्मका देती है शुभग्रह से इत्थशालि - नोभी हो तो कुलानुमान राज्य मिलता है ॥ २८ ॥ · उप० - शनेगृहेतेनयुतेक्षितावायदीथिहावात रुजंविधत्ते ॥ यानक्षयंवह्निभयंधनस्यहानिचजीवेक्षणतः भाप्तिम् ॥ २९ ॥ मुंथा शनिकी राशि १० |.११ में यद्दा शनिसे युक्त वा दृष्ट हो तो वात संबन्धि रोग उत्पन्न करती है वाहनहानि भी करती है जो इसपर बृहस्पतिकी दृष्टिभी हो तो शुभ फलभी देतीहै ॥ २९ ॥ ०व० - तमोमुखेचेन्सुथहाधनाप्तिर्यशः खंधर्मसमु तिश्च ॥ सितेज्ययोगेक्षणतः पदाप्तिः सुवर्णरत्नांबरलब्धयश्च ॥ ३० ॥ मुंथा राहुके मुखसंज्ञक अंशों में हो तो धनप्राप्ति और यश सौख्य धर्मकी उन्नति होती है. शुक्र बृहस्पतिसे युक्त वा दृष्टभी हो तो अधिकार प्राप्ति और सुवर्णरत्न वस्त्रलाभभी होते हैं ॥ ३० ॥ अनुष्टु० - भोग्याराहोलवास्तस्य मुखं पृष्टगतालवाः ॥ ततः सप्तमभे च्छंविमृश्येतिफलंवदेत् ॥ ३१ ॥ राहुके मुखपुच्छलक्षण कहते हैं राहुकी वक्रगति स्पष्टही है जो राहुके एक राशिमें भोग्य अंश हैं वह मुख और भुक्तांशको पृष्ठ कहते हैं किसी २ मत है कि मुखपृष्ठ में राहु स्थित अंशसे १५ । १५ अंश पूर्व और पीछेके लेते हैं और इससे सप्तम राशिमें केतु रहताहै यह पुच्छ कहाता है. तारतम्य विचारके फल कहना ॥ ३१ ॥ इं० व तत्पृष्ठभागेनशुभप्रदास्यात्तत्पुच भागाद्रिप्रभीतिकष्टम् ॥ पापेक्षणादर्थसुखस्यहानिश्चेज्जन्मनीत्थंगृहवित्तनाशः ॥ ३२ ॥ राहुके पृष्ठभाग अर्थात् राहुस्थित अंशसे विपरीत पूर्व पंद्रह वा राश्यंतप- र्यन्त अंशके आभ्यंतर मुन्था हो तो शुभ फल नहीं देती और पुच्छगत अर्थात् केतुयुक्त हो तो शत्रुसे भय और कष्ट देती है तथा पापग्रह दृष्टि से धन सुखकी हानि करती है ऐसेही जन्ममें मुंथा हो तो गृह और धनका नाश करती है ॥ ३२ ॥ ( १२० ) ताजिकनीलकण्ठी | उपजा० - ये जन्मकाले बलिनोन्दकालेचेद्दुर्बलास्तैरशुभं समांते ॥ विपर्ययेपूर्वमनिष्टमुक्तं तुल्यंफलंस्यादुभयत्रसाम्ये ॥ ३३ ॥ जो ग्रह जन्म लिमें बलवान् और वर्षाकालमें निर्बल हो वह वर्षके पूर्वार्द्ध में शुभ और वर्षके उत्तरार्द्ध में अशुभफल निर्बलताका देते हैं इनसे विपरीत अर्थात् जो जन्ममें निर्बल और वर्षमें बलवान् हैं वे वर्षपूर्वार्द्ध में अशुभ उत्तरार्द्ध में शुभ फल देतें हैं दोनों कालमें तुल्यही हों तो सम्पूर्ण वर्ष में तुल्यही फल देते हैं ॥ ३३ ॥ उपजा॰—षष्टेष्टमेंत्येभुविवँथिहेशोस्तगोथवको शुभदृष्टयुक्तः ॥ क्रूराच्चतुर्थास्तगतश्च भव्योनस्याद्रुजंयच्छतिवित्तनाशम् ॥ ३४ ॥ मुंथाका स्वामी छठे आठवें बारहवें वा चौथे स्थान में हो अथवा अस्तं- गत हो वा वक्री हो तथा पापग्रहसे युक्त वा दृष्ट हो अथवा क्रूर ग्रहसें चौथा वा सप्तम अर्थात् शत्रुदृष्टिमें हो तो शुभ फल देनेवाला नहीं होता है और रोगोत्पत्ति धननाशभी करता है ॥ ३४ ॥ उप० - यद्य मेशेनयुतोथह क्षुताख्यदृष्टयान भस्तद पे ॥ योगद्वयेस्यान्निधनंयदै कयोगस्तदा मृत्युसमत्वमा : ॥ ३५ ॥ जो मुंथेश वर्षलग्नसे अष्टमेश युक्त अथवा १ | ४ | ७|१० क्षुत दृष्टिसे दृष्ट हो तोभी शुभफल नहीं देता, एक योग यहहै एक योग पहिले श्लोक ( षष्ठेष्टमेंत्ये ) इत्यादिमें कहा है जिस वर्षमें ये दोनों योग होवें तो मृत्युफल देतेहैं जो एकही हो तौ भी मृत्युसमान कष्ट देता है ॥ ३५ ॥ (अनुष्ट - थहातत्पतिर्वापि जन्मनीक्षितयुक्छुभैः || वर्षांरंभेशुभंधत्तेऽब्देचेदंत्येन्यथाशुभम् ॥ ३६ इति नीलकंठयां फलतंत्रेमुथहाफलाध्यायः ॥ २ ॥ जो जन्मकालमें मंथा वा मुंथेश शुभग्रहसे युक्त वा दृष्ट हो तो पूर्वार्द्ध में . शुभ फल देता है मुन्था पुन्थेश दोनों शुभग्रहयुक्त वा दृष्ट हों तो अतिशुभ फल वर्षांपूर्वार्द्ध में देते हैं तथा बर्षकालमें मुंथा वा मुंथेश शुभग्रह युक्त वा हों तो वर्षके उत्तरार्द्ध में शुभफल देते हैं तथा मुंथा मुंथेश दोनों शुभभाषाटीकासमेता । (१२१) ग्रहयुक्त दृष्ट हों तो अति शुभफल वर्षोत्तरार्द्ध में देते हैं और ऐसेही जन्म मुंथा मुंथेशमें से एकभी पाप ग्रहयुक्त वा दृष्ट हो तो वर्षपूर्वाईमें अशुभ फल जो दोनों पापयुक्त दृष्ट हों तो अति अशुभ फल देते हैं. एवं वर्ष में मुथा मुंथेश मेंसे एकग्रह पापयुक्त दृष्ट हो तो वर्ष उत्तरार्द्ध में अशुभ फल तथा दोनों हों तो अति अशुभ फल देते हैं ॥ ३६ ॥ इति महीधरकृतायांनीलकंठीभाषाटीकायां फलतंत्रेमुंथा फलप्रकरणं द्वितीयम् २ अथ वर्षारिष्टविचारः । - अनुष्टु० - लग्नेशष्टम गेष्टेशेतनुस्थेवा कुजेक्षिते ॥ ज्ञजीवयोरस्तगयोःशस्त्राघातो विपन्मृतिः ॥ १ ॥ व्याकरणमें 'रुष रिष् हिंसायां' इसमें रिष् धातुसे अनिट् 'क्त' प्रत्ययका आदान करके रिट पद सिद्ध होता है, नन् समाससिद्ध आरष्ट पदका अर्थ विपरीत जान पढता है. परंतु ज्योतिषग्रंथों में सर्वत्र रिष्ट और अरिष्ट पढ़ तुल्यार्थवाची होते हैं. अब अरिष्टयोग कहते हैं कि वर्षलग्नका स्वामी अष्टम स्थानमें हो इसपर मंगलकी दृष्टि हो अथवा अष्टमेश लग्नमें भौमदृष्ट हो उपल- क्षणसे पापद्दष्ट हो अथवा बुध बृहस्पति अस्तंगत हों तो शस्त्रसे चोट लगे, विपत्ति होवे और मृत्यु होवे ये तीन फल निर्बलताके क्रमसे हैं, जैसे प्रथम सामान्य बलमें शस्त्राघात, हीन बलमें विपत्ति, अतिहीन बलमें मृत्यु इस क्रमसे जानना. इस श्लोकमें तीन योगहैं ॥ १ ॥ ॥ अनुष्टु॰—अब्दलग्नेशरंप्रेश।व्ययाष्टहिवकोपगौ मुंथहासंयुतौ मृत्युप्रदौ तद्धातुकोपतः ॥ २ ॥ वर्षलग्नेश वा अष्टमेश मुंथा सहित बारहवें आठवें चौथे स्थानमें हो तो उस ग्रहके पितादि धातु उक्त से मृत्युसमान कष्ट होवे, जो मुंथासहित लग्नेश अष्टमेश दोनों उक्त स्थानों में से एकमें हों तो मृत्यु देते हैं ॥ २ ॥ • अनुष्टु० - जन्मल धिपोऽवीय सतीशोलग्नपोयदा ॥ सूर्य्यदृष्टो मृतिं धत्ते एं कंडूं तथापदः ॥ ३ ॥ जन्मलग्नेश जन्म तथा वर्ष में निर्बल हो और वर्ष में अष्टमेश लममें हे ( १२२ ) ताजिकनीलकण्ठी । सूर्य्यकी दृष्टिभी हो तो मृत्यु वा कुष्ठ कंडू (खुजली) और आपत्ति देता है ।। ३ ।। अनुष्टु० - क्रूरमूसरिफोब्देशोजन्मेशः रितः शुभैः ॥ कंबूलेपि विपन्मृत्युरित्थमन्याधिक रेतः ॥ ४ ॥ वर्षेशके साथ क्रूर ग्रहका भूसरीफ हो तथा जन्मलग्नेश क्रूर होगया हो जैसे पापयुक्त वुध क्षीणचंद्रमा शुभभी कर है और चंद्रमादि शुभग्रह कंबूल योगभी करे तो विपत्ति अथवा मृत्यु होवे. ऐसेही जन्मलग्नेश वर्ष- .लग्नेश मुंथेश आदि पंचाधिकारियोंसे भी यही योग होता है, जैसे यहां वर्षेश. क्रूर मूसरीफी कहा तैसेही मुंथेशादि क्रूर मूसरीफी और कंबूल पर्वचंद्रमाका ही कहा है यहां उसी विधिसे सभी शुभ ग्रहोंका विचारना ॥ ४ ॥ अनुष्टु० - अस्तगौ मुथहालग्ननाथौ मदेक्षितौ यदा || सर्वनाशो मृतिः कष्टमाधिव्याधिभयं भवेत् ॥ ५ ॥ मुंथेश और लगेश अस्तंगत हों इनपर शनिकी दृष्टिभी हो तो स्त्री पुत्रादि सर्वनाश अथवा मृत्युतुल्य कष्ठ वा कुष्ठ और मानसीचिंता शरीर- • पीडा आदिसे भय होवे ॥ ५ ॥ अनुष्टु० - क्रूरावीयिधिकाः सौम्या निर्बला रिपुरंध्रगाः ॥ तदाधिव्याधिभीतिः स्यात्कलिनिस्तथा विपत् ॥ ६ ॥ क्रूरग्रह बलवान् अर्थात् पंचवर्गीमें १५ से अधिक बली और ३१ ६ । ११ स्थानोंमें हों तथा शुभग्रह निर्बल अर्थात् पंचवर्गीमें ५ से न्यून बल हों और ६ |८|१२ स्थानों में हों तो मानसीव्यथा और रोग भय हो. तथा कलह धनहानि और विपत्ति होवें ॥ ६ ॥ अनु ० - नीचे शुक्रो गुरुः शत्रुभागे सौख्यलवोपि न ॥ लग्रेशेऽष्टमगेष्टेश तनौ वा मृतिमादिशेत् ॥ ७ ॥ शुक्र नीचराशि ६ में और बृहस्पति शत्रुके अंशकमें हो तो उस वर्ष में सुखका अंशभी न होवे १. और लग्नेश अष्टम अष्टमेश लग्नमें हो तो मृत्यु होवें ये २ योग हैं ॥ ७॥ भाषाटीकासमेता । ( १२३ ) अनुष्टु० - निर्बलौ धर्मवित्तेशौं दुष्टखेटास्तनौस्थिताः ॥ लक्ष्मीविराजिता नश्ये दिशेपि रक्षिता ॥ ८ ॥ धर्मस्थान ९ का स्वामी तथा धन स्थान २ का स्वामी निर्बल हो और पापग्रह लग्न में हो तो इंद्र भी रक्षा करने आयें तो भी बहुत दिनोंका सचित धन नष्ट होजावे ॥ ८ ॥ · अनुष्टु० - नीचेचंद्रेस्तगास्सौम्यावियोगःस्वजनैः सह ॥ . शरीरपीडा मृत्युर्वा साधिव्याधिभयं द्रुतम् ॥ ९ ॥ चंद्रमा नीचराशि ८ में हो तथा शुभग्रह अस्तंगत हो तो अपने मनुष्यों साथ बिछोह होवे तथा शरीरपीडा वा मृत्यु अथवा मानसीव्यथा रोग- भय शीघ्र ही एकसे एक होवे ॥ ९ ॥ अ० - अब्दल जन्मलग्न राशिभ्यामष्टमं यदा || कष्टं महाव्याधिभयं मृत्युः पापयुतेक्षणात् ॥ १० ॥ वर्षलग्न जन्मलन जन्मराशिसे अष्टम हो तो कष्ट और महारोग क्षया- दिका भय होवे, ऐसे अष्टम लग्नपर पापग्रहकी दृष्टि वा पापग्रहका योग होने तो मृत्युं होवे ॥ १० ॥ अनुष्टु० - जन्मन्यष्टमगः पापो वर्षलग्ने रुगाधिदः || चंद्राब्दल पौ नष्टबलौ चेत्स्यात्तदा मृतिः ॥ ११ ॥ जन्मकालमें जो ग्रह अष्टम है वही वर्षमें लग्नका हो तो रोग तथा मान- सीव्यथा देता है, जो चंद्रमा और लग्नेश दोनों ( नष्टबल ) ५ से हीन होवें तो मृत्यु होवे ॥ ११ ॥ अनुष्ट ० - जन्माब्दलग्नपौ पाप पतितस्थितौ ॥ रोगाधिदौमृत्युकरावस्तगौ नेक्षितौ भैः ॥ १२ ॥ जन्मलग्नेश तथा वर्षलग्नेश भी पापयुक्त होकर अष्टमस्थानमें हों तो रोग और मानसीव्यथा देते हैं और अस्तंगत तथा शुभग्रह दृष्टिरहित भी हों. तो मृत्यु करते हैं ॥ १२ ॥ ताजिकनीलकण्ठी । ॥ "" व्ययांबुनिधनारिस्थाजन्मेशाब्दपमुंथहाः एक क्षेगास्तदामृत्युः पापक्षुतदृशा ध्रुवम् ॥ १३ ॥ जन्मलग्रेश वर्षेश और मुंथा तीनों बारहवें चौथे आठवें और छठे स्थानों में से किसीमें साथही हों तो मृत्युतुल्य कष्ट होवे, जो इनपर पाप, ग्रहोंकी क्षुतारूप दृष्टि भी हो तो अवश्य मृत्यु ही होगी ॥ १३ ॥ अनुष्टु० - चंद्राव्ययेशनियुतः शुक्रः षष्टोर्थनाशकृत् || चित्तवैकल्यमशुभेसराफात्रशुभेक्षणात् ॥ १४ ॥ शनिके साथ चंद्रमा बारहवाँ हो और शुक्र छठा हो तो धननाश करता है और शनि शुक्र के साथ किसी पापग्रहका ईसराफ योग हो तो चित्त विक- ल रहै, इनपर शुभग्रहकी दृष्टि न हो तो धननाश तथा चितवैकल्प दोनों फल होवें ॥ १४ ॥ ( १२४ ) अनुष्ट० - चंद्रोर्कमंडलगतोरिपुरिः फाष्टबंधुगः ॥ त्रिदोपतस्तस्यरुजाविबुधेज्यदृशा शुभम् ॥ १५ ॥ चन्द्रमा अस्तंगत होकर छठे, बारहवें, आठवे, वा चौथे, स्थानमें हो तो ( त्रिदोष ) वात पित्त कफके विकारसे सन्निपातादि रोग होवें जो इस पर बृहस्पति की दृष्टि होजाय तो परिणाममें नीरोगी होजायगा ॥ १५ ॥ अनु ० - हद्दाहायनलग्नेशौ सप्ताष्टांत्येखलान्वितौ ॥ स्वदशायां निधनदौ शुभदृष्ट्या शुभं वदेत् ॥ १६ ॥ लग्नमें जिसकी ह्रद्दा तत्काल हो वह और लग्नेश सप्तम अष्टम वा बारहवें पापयुक्त हों तो अपनी दशामें मृत्यु देते हैं इनपर शुभग्रहकी दृष्टि भी हो तो रोग भोगकर परिणाममें सुख होगा कहना ॥ १६ ॥ अनुष्ट ० -- अब्दलग्नाहज्वनृजूव्ययार्थस्थौरुजातदा || एवंवर्पाब्दलग्नेशजन्मेशैरपिबंधनम् ॥ १ ॥ वर्षलश से बारहवां मागग्रह द्वितीय स्थानमें वक्री ग्रह हो तो रोग होता है इसका नाम कर्त्तरयिोग है, ऐसेही जन्मलग्नेश वा वर्षलग्नेश वा वर्षेशसे कर्त्तरी हो तो बंधन कहना और सप्तम स्थानपर भी कर्त्तरीयोग रोग वा दुष्ट उपद्रवोंसे बंधन देता है ॥ १७ ॥ भाषाटीकासमेता । (१२५) अनुष्टु०-नीचे त्रिराशिपे पापदृष्टे कार्य्यं विनश्यति ॥ इंथिहेशेब्दपे वारिभेस्तंयाते रुजा विपत् ॥ १८ ॥ त्रिराशिपति नीच राशिमें पापदृष्ट हो तो अभिलषित कार्य्यका नाश होता है १ और मुंधेश तथा वर्षेश छठा वा उपलक्षणसे आठवाँ अस्तंगत हों तो रोगों से विपत्ति होवे'यह २ दो योगहैं ॥ १८ ॥ शार्दूलवि० - चंद्रोरिः फषड भूधुनगतो दृष्टोऽशुभैनों भैःसोरिष्टं विदधातिमृत्युमथवाभौमेक्षणाद भीः || श द्वाशनिराहुकेतु - भिररेभीतिरुजां वायुजां दारिद्र्यं रविणाशुभं भहशेज्यालो- कनादादिशेत् ॥ १९ ॥ चन्द्रमा बारहवें छठे आठवें प्रथम वा सप्तम स्थानमें हो इसपर पाप ग्रहोंकी दृष्टि हो शुभ ग्रहोंकी न हो तो आर्रष्ट वा मृत्युही देदेता है, दृष्टिवश विशेष फल यह है कि उक्तप्रकार के चन्द्रमा पर मंगलकी दृष्टि हो तो अग्निका भय वा शस्त्रसे भय देताहै शाने राहु वा केतुकी दृष्टि हो तो शत्रुभय तथा वात- रोगसे पीडा तथा सूर्य्यकी दृष्टि हो तो दरिद्रता देता है, जो शुभग्रहकी विशेष करके बृहस्पतिकी दृष्टिभी हो तो उक्तपीडा परिहार उपरांत कल्याणदेता है १९ व०ति० ॠरान्वितेक्षितयुताशनिनेंथिहाधिव्याधिप्रदाजनुषि रिःफसुखारिरंध्रे ॥ धूनेच वर्षतनुनैधनगा मृतिं सा दत्ते ले- क्षितयुतेत्यपिचित्यमाय्र्यैः ॥ २० ॥ इतिनीलकंठ्यांफलतंत्रेऽरिष्टाध्यायः ॥ ३ ॥ मुंथा क्रूरग्रहसे युक्त हो और शनि उसे देखे अनिष्टस्थान ६ । १२ १८ । ४ में हो तो मानसीव्यथा तथा शरीरमें रोग देती है । यही मुंथा जन्मकाल में अर्थात् जन्मलनसे १२ | ४ | ६ । ८ । ७ स्थानमें हो तथा वर्ष में अष्टम स्थानगत हो पापग्रहसे युक्त वा दृष्ट हो तो मृत्यु देती है इस प्रकार विद्वानोंने विचार करना ॥ २० ॥ 1 इतिमहीधरकृतायां नीलकंठीभाषाटी कायांफलतंत्रे अरिष्टविचाराध्यायस्तृतीयः ३ ( १२६ ) ताजिकनीलकण्ठी । अथारिष्टभंगाध्यायः | अनुष्ट० - लग्नाधिपोवलयुतःशुभेक्षितयुतोपिवा || केंद्रत्रिकोणगोरिष्टंनाशयेत्सुखवित्तदः ॥ १ ॥ पूर्वोक्त आरष्ट योगोंके परिहारार्थ अरिष्टभंग योग कहते हैं कि वर्षल स्वामी बलवान् पंचवर्गीमें १५ से अधिक बली हो शुभग्रहसे युक्त वा दृष्ट हो तथा केन्द्र १ । ४ । ७ ११० वा त्रिकोण ५ | ९ में हो तो पूर्वोत्त दुष्ट योगोंका आरेष्टफल नाश करके सुख और धन देता है ॥ १ ॥ • अनुष्टु० - गुरु: केंद्रे त्रिकोणेवापापा : शुभेक्षितः || लगचंद्रे थहारिष्टंविनाश्यार्थसुखं दिशेत् ॥ २ ॥ बृहस्पति केंद्र वा त्रिकोणमें शुभ ग्रहोंसे दृष्ट हो और इसपर पापग्रहको दृष्टि न हो तो लग्न चन्द्रमा और मुन्थाजन्य पूर्वोक्त अरिष्टका नाश और सुखप्राप्ति कहना ॥ २ ॥ अनुष्ट० - सुखस्वामियुतंसद्भिर्ट सौख्ययशोदम् || लग्नेतृतीयेऽथगुरुर्जन्मेट्सौख्यार्थदः सुखे ॥ ३ ॥ चतुर्थभाव अपने स्वामीसे युक्त तथा शुभग्रहसे दृष्ट वा युक्त हो तो यश और थन देता है और बृहस्पति लग्न वा तृतीय स्थानमें तथा जन्मलमेश सुख ४ स्थानमें हो तो सुखपूर्वक धन देता है ॥ ३ ॥ उपजा०-लग्नेद्युनेशस्तनुगः सुरेज्यः रैरदृष्टःशुभमित्रदृष्टः || रिप्ष्टं निहत्यर्थयशःसुखाप्तिं दिशेत्स्वपाके नृपतिप्रसादम् ||४|| सप्तमेश लग्नमें बृहस्पतिके साथ हो क्रूरग्रह इसे न देखें शुभग्रह तथा मित्र- ग्रहोंसे दृष्ट उपलक्षणसे युक्तभी होवे तो आरष्टको नाशकर धन यश और सुख देताहै तथा अपने दशामें राजप्रसादमी देगा कहना ॥ ४ ॥ उपजा० - चलान्वितौ वर्मधनाधिनाथोकरदृष्टौ तनुगौ यदास्ताम् । राज्यं गजाश्वांवररत्नपूर्णरिष्टस्यनाशोप्यतुलं यशश्च ॥ ५ ॥ नक्मेश तथा धनभावेश बलवान् और लग्नमें हों पापग्रह इन्हें न देखें त्वो हाथी बोडा बस्न रत्नोंसे पूर्ण राज्य मिले तथा अरिष्टका नाश हो और अनुपम यशभी होवे ॥ ५ ॥ भाषाटीकासमेता । (१२७) • जा० - त्रिषष्टलाभोपगतैरसौम्यैः केंद्रत्रिकोणोपगतैश्चसौम्यैः॥ रत्नांबर स्वर्णयशः सुखातिर्नाशोप्यानिष्टस्यतनोश्च ष्टिः ॥ ६ ॥ पापग्रह तीसरे छठे ग्यारहवें स्थानों में हों तथा शुभग्रह केंद्र वा त्रिकोण - गर्ने हों तो रत्न वस्त्र सुवर्ण यश और सुख मिलें और पूर्वोक्त आरेष्टका नाश होवे तथा शरीरमें पुष्टिभी होवे ॥ ६ ॥ उ० जा० - यदासवीर्य्योसुथहाधिनाथोल धिपोजन्मविलग्रपोवा || केंद्र त्रिकोणायधनस्थितास्तेसुखार्थहेमांबरलाभदाः स्युः ॥ ७ ॥ जो मुंथेश वा लग्नेश अथवा जन्मलग्नेश पूर्ण बली होकर केंद्रत्रिकोण वा ग्यारहवें वा द्वितीय स्थान में से किसीमें हों तो सुख तथा धन सुवर्ण वस्त्र देतेहैं तीनों ऐसे हों तो विशेषतर उक्त लाभ देतेहैं ॥ ७ ॥ उपजा० -तुंगेशनिर्वाभृगुजोगुरुर्वाशुभेत्थशालाद्यवनाद्धनाप्तिम् || बली जो वित्तगतोयशोथेंतेजांस्यकस्मा सुखानिदद्यात् ॥ ८ ॥ शुभग्रहसे इत्थशाली उच्चराशिका शनि वा शुक्र अथवा बृहस्पति हो तो श्रेष्ठ यवनसे धनलाभ होवे शनियोगसे और शुक्रकृत योग हों तो स्त्रीसे और गुरुकृत योग हो तो ब्राह्मणसे यवनातू के माने यवनादि ग्रहानुसार जाति- योंसे जो तीनों उक्त ग्रह उच्चवर्ती तथा शुभ ग्रहेत्थशाली हों तो यवन रा- जासे बहुत धन मिले औरनसे थोडा २ और बलबान् मंगल धनस्थान में हो तो यश धन और तेज मिलें तथा अकस्मात् सुखभी प्राप्त होवे ॥ ८ ॥ इंद्रव० - सूर्य्योज्यशक्रामिथइत्थशालं युस्तदाराज्ययशः सुखार्थाः ॥ सूर्यः जोवोपचयेददातिभद्रयशोमंगल मिथिहायाः ॥ ९ ॥ O सूर्य बृहस्पति शुक्र परस्पर इत्यशाल करें तो राज्य यश सुख और धन- मिलें १ तथा सूर्य वा मंगल मुंथासे उपचय ३।६।१०।११ स्थानमें हों तो कल्याण अतियश और मंगल देते हैं ॥ ९ ॥ अनुष्ट ० - शकज्ञचंद्राहस्वेपापारुयायगतायदि ॥ स्वबाहुबलतोहेमसुखकीर्तिनरोश्नुते ॥ १० ॥ शुक्र बुध और चन्द्रमा अपनी हद्दामें हों और पापग्रह तीसरे ग्यारहवें स्थानमें हों तो मनुष्य अपने बाहुबलसे सुवर्ण सौख्य और कीर्तियोंका भोग करता है १० वाजिकनीलकण्ठी | अनु • - बुधशुक्रौमूसरिफौ गुरुर्विक्रमभावगः || तदाराज्ययशोहेममुक्ताविद्रुमलव्धयः ॥ ११ ॥

( १२८ ) बुध शुक्रका मूसरीफ योग हो और बृहस्पति तृतीयस्थानमें हो तो राज्य यश और सुवर्ण मोती मूंगे आदि रत्न मिलें ॥ ११ ॥ अनु • - भौमोमित्रगृहेऽव्देशःकंवूलीस्वगृहादिगैः ॥ गजाश्वहेमांबरभूलाभंदत्तेसुखाधिकम् ॥ १२ ॥ मंगल वर्षेश होकर मित्रके राशिमें हो और स्वगृहादि पदस्थित किसी ग्रहसे मुथशिली तथा चन्द्रमासे कंबूलीभी हो तो हाथी घोडे सुवर्ण वस्त्र भमि का लाभ और अधिक सुख देते हैं ॥ १२ ॥ अनु० - इत्थंजन्म निवपेंचयोगकर्तुर्बलाबलम् || विमृश्यकथयेगाजयोगंत गंगमेवच ॥ १३ ॥ इस प्रकार जन्म तथा वर्षमें योग करनेवाले ग्रहोंका बलावल विचारके राजयोग तथा राजयोगभंग कहना. जैसे योगकर्त्ता ग्रह उच्चादि पदस्थ वा पूर्णचली हो तो राज्यप्राप्ति निर्बल होनेमें राज्यादिहानि इत्यादि ॥ १३ ॥ उ० जा० - अव्हेंथिहेशादिखगाःखलैश्चेद्युतेक्षिताह्यस्तगनीचगावा ॥ सौम्यावलोनानृपयोगभंगंत दाभ वेद्वित्तसुखक्षयश्च ॥ १४ ॥ वर्ष में मुंथेशादि ग्रह जो पापयुक्त वा पापदृष्ट वा अस्तंगत नीचगत हों. तथा शुभग्रह बलरहित हों तो राजयोगभी हो तो भी भंग होगा और धन तथा सुखकाभी क्षय कहना ॥ १४ ॥ • शा०वि०–श्रीगर्गान्वयभूपणंगणितविञ्चितामणिस्तत्सुतोऽनंतोनंत- मतिर्व्यधात्खलमतध्वस्त्यैजनुः पद्धतिम् ॥ तत्सूनुःखलुनीलकंठविबुधों विद्वच्छिवानुज्ञयाऽवोचद्वर्पपंथहा फलमथारिष्टादिसद्योगयुक् ॥ १५॥ इस लोकका अर्थ पूर्वोक्तही है विशेष यह है कि वर्षेश मुंथाफल अरिष्ट - योग अरिष्टभंग राजयोग इस अध्याय में ग्रंथ कर्त्ताने कहेहैं ॥ १५ ॥ इति महीधरकृतायां नीलकंठीभापाटीकायां फलतंत्रे अरिष्टभंगराजयोग- राजयोगभंगकथनं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥ भाषाटीकासमेता । (१२९ ) अथ भावविचारेषु तावत्प्रथमभावविचारः | अनुष्टु० - योयोभावःस्वामिसौम्यैर्दृष्टोयुक्तोयमेधते ॥ पापदृष्टयुतेनशोमिश्र मिश्रफलंवदेत् ॥ १ ॥ जो जो भाव अपने स्वामी वा शुभ ग्रह से युक्त वा दृष्ट हो उस भावकी वृद्धि और जो भाव पापग्रहसे युक्त वा दृष्ट हो उसकी हानि होती है, शुभ पाप दोनोंसे युक्त वा दृष्ट वा एक प्रकारसे युक्त दूसरे प्रकारसे दृष्ट हो तो मिश्रफल कुछ शुभ कुछ अशुभ कहना, सभी भावोंमें यह विचार है ॥ १ ॥ इंद्रव - लग्नाधिपेवीर्य्ययुते खानिनैरुज्यमर्थागमनविलासः ॥ स्यान्मध्यवीय्यँल्पसुखार्थलाभःक्केशाधिकत्वंविपदल्पवय्यें ॥२॥ लग्नेश पूर्वोक्त प्रकारसे बलवान् हो तो सौख्य तथा नीरोगता धनप्राप्ति और हास विलासादि सुख होवें. जो मध्यवीर्य्य हो तो सौख्य और धनलाभ थोड़ा थोड़ा होते हैं जो अल्प वा हीनवीर्य्य हो तो अधिक क्लेश और विपत्ति होती है ॥ २ ॥ · शार्दूलवि० - जन्माब्दांगपतींथिहापतिसमानाथाद्यधीकारवा- न्मूर्य्यो नष्टबलस्त्वगक्षिविलयंकुर्य्यान्निरुत्साहताम् ॥ नीचत्वं पितृमातृतोऽप्यभिभवश्चंद्वेक्षिकार्य्यक्ष योदारिद्र्धंचपराभवोगृह- कलिर्व्याध्यादिभीतिस्तथा ॥ ३ ॥ 'अधिकारी ग्रहोंके निर्बलतामें प्रत्येक के फल कहते हैं कि जन्मलमेश वा वर्षलग्नेश वा मुंथेश अथवा वर्षेश नष्टबली पंचवर्गीमें ५ से न्यून होनेमें यह फल है कि, सूर्य्य हो तो नेत्ररोगसे दृष्टिहानि कुष्ठ दुनु आदि त्वचारोग उत्साहभंग होवें तथा नीचकर्म करने पड़ें माता पितासे "पराभव” अधि- कारहानि होवे चन्द्रमा हो तो नेत्रक्षय कार्य्यहानि दरिद्र अपमान घरमें कलह मानसीव्यथा रोगभय होते हैं ॥ ३ ॥ - 'अनुष्टु० - भौमेऽबलत्वं भीरुत्वं बुधे मोहपराभवौ ॥ जीवे धर्मक्षयः कष्टफलाजीवनवृत्तयः ॥ ४ ॥ पूर्वोक्त प्रकारसे मंगल बलहीन अधिकारी हो तो शरीरमें निर्बलता और ९ (१३०) ताजिकनीलकण्ठी । यय प्राप्त होते. बुध हो तो. मूर्च्छा वा अज्ञान और अपमान होवे बृहस्पति हो तो धर्मक्षय और जीविका कष्टसे होवे ॥ ४ ॥ • अनु - शुक्रेविलाससौख्यानां नाशः स्त्रीभिः समं कलिः ॥ सौरो भृत्यजनाद्दुःखं रुजो वातप्रकोपतः ॥ ५ ॥ ऐसाही शुक्र हो तो हास विलास सुखका नाश और स्त्रियोंसे कलह होवे शनि हो तो भृत्यमनुष्यसे दुःख और वात रोपसे रोग होवे ॥ ५ ॥ 'अनुष्टु०-ल पापयतं सौम्यैरदृष्टसहितं नृणाम् ॥ विवादंवञ्चनंदुष्टमशनंच पे विंदति ॥ ६ ॥ लग्न पापग्रहसे युक्त हो तथा शुभ ग्रहोंसे दृष्ट युक्त वा न हो तो मनुष्यों- को कलह होबे कोई ठगलेवे दुष्ट वस्तु खाने को मिले इतने फल होते हैं ॥६॥ शार्दूलवि●- जन्माब्दांग परंध्रपाब्दमुथहानाथाबलाढ्यास्तदा • रम्यंवर्षमुशंतिसर्वमतुलं सौख्यंयशोथंगमः ॥ पष्ठाष्टांत्यगता नचेदिहपुनस्तेदुःखभीतिप्रदानिर्वीय दिवर्षमेतदशुभवाच्यं शुभेक्षांविना ॥ ७ ॥ जन्मलग्नेश वर्षलग्नेश अष्टमेश वर्षेश और मुंथेश बलवान् हों तथा छठे आठवें बारहवें स्थानों में न हों तो सम्पूर्ण वर्षमें दैवज्ञ शुभही फल कहते हैं और अगणित सुख तथा यश और धनागमभी होते हैं जो उक्त ग्रह बलरहित हों और इनपर शुभ ग्रहोंकी दृष्टि भी न हो तो दुःख तथा भय देते हैं और सम्पूर्ण अशुभ फलही देते हैं, यदि निर्बल अशुभद्दष्ट ६।८ | १२ में भी हों उक्त ग्रह तो मृत्युही देते हैं ॥ ७ ॥ अनुष्टु-सूतौधनप्रदःखेटोधनाधीश चतौयदि || वर्षेनष्टौचित्तनाशान्यनिक्षेपापवाददौ ॥ ८ ॥ जन्ममें जो ग्रह धन देनेवाला है वह और जन्महीका धनभावेश वर्षमें नष्टबली हो तो धननाश तथा ( अपवाद ) कि मैंने इसको कुछ धन धरो- हर दियाथा इसने चुरालिया ऐसा कलंक लगे, जो उक्त दोनों बलवान हों तो धन देते हैं ॥ ८ ॥ ०. अनु… • ~ एवंसमस्तभावानां सूतौनाथाचपोषकाः ॥ अब्दैनष्टबलास्तेषां नाशायोह्याविचक्षणैः ॥ ९ ॥ भाषाटीकासमेता । (१३१ ) इसी प्रकार सम्पूर्ण भावोंके स्वामी जन्ममें बलवान् वर्षमेंभी बलवान् हो तो उस भावको पालते हैं जो भावेश जन्ममें तथा वर्षमें भी निर्बल हों तो बुद्धिमानोंने उस भावका नाश कहना ॥ ९ ॥ इति महीधरकृतायां नीलकंठीभाषाटी कायां वर्षतन्त्रे प्रथमभावफलाघ्यायः ॥ १ ॥ अथ धनभावविचारः । उपजा ० - वित्ताधिपोजन्मनिवित्तगोब्देजीवोयदालग्नपतीत्थशाली ॥ •तदाधनाप्तिः सकलेपिवर्षे क्रूरेसराफे धनधान्यहानिः ॥ १ ॥ जो जन्मका धन भावाधीश बृहस्पति वर्ष में धनभावगत हो और लग्नेश के साथ इत्थशाली हो तो सम्पूर्ण वर्षमें धनप्राप्ति होवे, जो उक्त बृहस्पति पापग्रह से ईसराफी हो तो धन तथा अन्नका नाश करे ॥ १ ॥ अनुष्टु० - जन्मन्यर्थावलोकीज्योऽब्देन्देशोबलवान्यदा ॥ तदा धनतिर्बहुलाविनायसेनजायते ॥ २ ॥ • जन्ममें धनस्थानको बृहस्पति देखे और वर्ष में वर्षेश होजावे बलवान् भी होवे तो विना परिश्रम बहुत धनप्राप्ति होवे ॥ २ ॥ अनुष्टु० - एवंयद्भाव पोजन्मन्य देतद्भावगोगुरुः || लळे शेनेत्यशाली चेत्तद्भावज खंभवेत् ॥ ३ ॥ ऐसेही जन्ममें जिस भावका स्वामी बृहस्पति है वर्षमें उसी स्थानमें हो और उपलक्षणसे वर्षेश हो जावे, लग्नेशसे इत्थशाली हो तो उस भावका सुख होता है जैसे जन्ममें तृतीयेश बृहस्पति वर्ष में तीसरा वा वर्षेश होकर लग्नेशसे . इत्यशाली हो तो भातृसुख होगा ऐसेही संपूर्ण भावों में विचार करना ॥३ अनुष्टु० - तथाजनुषियंपश्येद्भावमब्देदपो तदातद्भावजंसौख्यमुक्तंताजिकवेदिभिः ॥ ४ ॥ रुः || जैसे पूर्व कहा गया ऐसेही बृहस्पति वर्षमें वर्षेश हो और जन्ममें वह जिस भावको देखे उस भावजन्य सुख देता है ताजिकशास्त्र जाननेवालोंका यह मत है ॥ ४ ॥ अनुष्ट ० - जन्मषष्ठाधिप धपष्टोदेस्वल्पलाभदः ॥ पापार्दिते रौरभेऽथैवादंडः पतेद्ध्रुवम् ॥ ५ ॥ (१३२') ताजिकनीलकण्ठी । जन्ममें बुध पठ्ठेश हो और वर्षमें छठे स्थानमें हो तो थोड़ा लाभ देता है: चार प्रकारके ग्रहयुद्धसे पापपीडित बृहस्पति अष्टम वा धनस्थानमें हो तो निश्चय राजासे दंड पडे ॥ ५ ॥ अनुष्टु०-गुरुर्वित्तेशु भैर्दृष्टोयुतोवाराजसौख्यदः ॥ जन्मन्यन्देचमुथहाराशिंपश्यन्विशेषतः ॥ ६ ॥ बृहस्पति धनस्थान में शुभग्रहोंसे युक्त वा दृष्ट हो तो राजासे सुख देता है. जन्म और वर्ष में भी मुंथा राशिको बृहस्पति देखे तो विशेष राजमुख देताह्रै ॥ ६ ॥ अ. ० - एवंसितेन्दपेभूरिद्रव्यंधान्यंचजायते ॥ वित्तलळेशसंयोगो वित्तसौख्यविनाशदः ॥ ७ ॥ बृहस्पतिके तरह शुक्र धनस्थानमें शुभग्रहों से युक्त वा दृष्ट हो और वर्पे- शभी शुक्रही हो तो बहुतसा धन तथा अन्न होता है और धनेश लग्नेश एकही स्थानमें हों तो धन सुखका नाश करते हैं, इसमें भी विचार है कि, इनका इत्थशाल हो तो धनसुख होता है "ईसराफ हो तो धन सुखका नाश होता है" और इत्थशाल वा ईसराफ न हो केवल संयोगमात्र हो तो भी धन सुख होता है यह अर्थ बहुत संमत है ॥ ७ ॥ 'अनुष्ठ० - एवंबुधेसवीय्यैस्यापि मैनम् || जन्मलग्नगताः सौम्यावर्षेर्थेधनलाभदाः ॥ ८ ॥ ऐसेही बुध बलवान् वर्षेश धनस्थानमें शुभ युक्त दृष्ट हो तो लिखनेके काम तथा ज्ञान शास्त्र और उद्यम ( व्यवसाय ) से धन मिले और जन्म में जो शुभग्रह लग्न में हैं वही वर्षमें धनस्थान में हों तो धनलाभ देते हैं ॥ ८ ॥ अनुष्ट ० - मालसद्मनिवित्ते वा बुधेज्यसितसंयुते ॥ तैर्वादृष्टेधनंभूरि स्व लेराज्यमाप्नुयात् ॥ ९ ॥ पारसीय भाषा में ( माल ) धनको कहते हैं मालस्थानमें वा मालसहममें बुध बृहस्पति और शुक्र हों वा ये तीनों उसे देखें तो बहुत धन तथा अपने कुलका राज्य मिले ॥ ९॥ भाषाटीकासमेता । ( १३३) ०. अनुष्टु० - अर्थार्थसहमेशौ चेच्छु भैमित्रहशेक्षितौ ॥ बलिनौसुखतोलाभप्रदौयत्नादरेईशा ॥ १० ॥ धनभावेश और धनसहमेश पर शुभ ग्रहोंकी मित्रदृष्टि हो तथा बल- चान्भी हो तो पूर्वक धनलाभ होवे, जो इन्हें शुभ ग्रह शत्रुदृष्टि से देखें तो यत्नसे धनलाभ देते हैं ॥ १० ॥ अ·० - मित्रदृष्ट्यामुथशिले गयोः खतोधनम् तयोर्मूसरिफेवित्तनाशदुर्नयभीतयः ॥ ११ ॥ लग्नेश धनेशका मित्रदृष्टिसे मुथशिल योग हो तो अनायाससे धन मिले जो इनका शरिफ योग हो तो धननाश तथा दुर्नय (त्र ) भय होवे ॥ ११ ॥ अ० •- जन्मनी ज्योस्तियद्राशौसराशिर्वर्षल : ॥ भस्वामीक्षितयुतो नैरुज्यस्वाम्यवित्तदः ॥ १२ ॥ बृहस्पति जन्ममें जिस राशिका होवे वह राशि वर्षमें लग्न हो शुभग्रह तथा स्वस्वामियुक्त दृष्ट हो तो नीरोगता अपने देशका स्वामित्व और धन देता है ॥ १२ ॥ 7 अनुष्टु० -सुतौलग्नेरविर्वर्षे धनस्थोधनसौख्यदः ॥ शनौवित्तेकार्य्यनाशोलाभोल्पोऽथधनव्ययः ॥ १३ ॥ जन्ममें सूर्य्य लग्नका और वर्ष में धनस्थानका हो तो धनका है. ऐसाही शनि धनस्थानमें कार्य्यनाश थोडा लाभं बहुत धनहानि करता है ॥ १३ ॥ देता अनु तृसौख्यंगुरुयुतेभूतयःस्थुः भेक्षणात् ॥ : ऋरयोगेक्षणात्सर्वं विपरीतं फलं भवेत् ॥ १४ ॥ परंतु यह उक्त प्रकार शनि बृहस्पतियुक्त तथा शुभ ग्रहसे, दृष्ट हो तो ऐश्वर्ण्य और भाइयोंका देता है. क्रूर ग्रहोंके योग तथा दृष्टिसे उक्त शुभ फल संपूर्ण विपरीत होता है ॥ १४ ॥ अनु· · – वित्तेशोजन निगुरुर्वर्षे वर्षेशतांदधत् ॥ यद्भावगस्तमाश्रित्य लाभदोल आत् नः ॥ १५ ॥ · ( १३४ ) ताजिकनीलकण्ठी | 4 जन्ममें बृहस्पति धनभावका स्वामी हो और वर्षमें वर्षेश हो जाय तो जिस भाव में बैठा हो उस संबंधी लाभ देता है, जैसे उक्त बृहस्पति लग्नमें हो तो अपने पुरुषार्थ से लाभ देता है और आत्मनः- शरीरको सुख देता है ॥ १५॥ अनु. ० - वित्ते सुवर्णरूप्यादेर्भ्रात्रादेः सहजक्षेगः ॥ पितृमातृक्षमादिभ्योवित्तंसुहृदि पंचमे ॥ १६ ॥ उक्त कार बृहस्पति धन स्थानमें हो तो सुवर्ण रौप्यादि लाभ हो ती- सरा हो तो भ्रातादिकोंसे, चौथा हो तो पिता माता वा उनके सदृशोंसे 'पंचमे' इसका अर्थ दूसरे लोकार्थ में है ॥ १६ ॥ • अनुष्टु० - सुहृत्तनयतः पष्टेरिवर्गाद्धानिभीतिदः || स्त्रीभ्योद्यूनेष्टमेमृत्युरर्थहेतस्तथांकगे ॥ १७ ॥ और पंचम होने मित्र वा मित्रपुत्र वा आत्मपुत्रसे धनलाभ और छठा हो तो शत्रुवर्गसे धनहानि और भय देता है. सातवें हो तो स्त्रियोंसे धन देता है, आठवें हो तो मृत्युतुल्य धनक्लेश देता है, नववें हो तो अनेक प्रकारसे धन देता है ॥ १७ ॥ 1 अनुष्टु० - खेनृपादेर्नृपकुलादायेंत्येव्ययदो भवेत् || इत्थंविमृश्यसुधियावाच्यमित्यपरेजगुः ॥ १८ ॥ दशवें हो तो राजा मंत्री आदिकोंसे ग्यारहवां हो तो राजकुलसे धन देता है. बारहवां हो तो व्यय देता है. बुद्धिमानोंने इस प्रकार विचारके फल कहना, ऐसा और आचार्य्यभी कहते हैं ॥ १८ ॥ ० इति महीधरकृतायां नीलकंठीभाषाटीकायां फलतंत्रे वनभावविचाराध्यायः २ ॥ अथ सहजभावविचारः । अनु· ० - अब्देशकैसितेवापि सबलेपापवर्जिते । सौख्यंमिथः सोदराणां व्यत्ययाद्वयत्ययंवदेत् ॥ १ ॥ वर्षेश सूर्य्य अथवा शुक्र जलवान हो तथा पापग्रहों से युक्त न हो तो परस्पर भाइयोंका सुख होवे. जो पापग्रहयुक्त होतो विपरीत फल कहना अर्थात् भाइयों के साथ परस्पर कलहादि उपद्रव होवें ॥ १ ॥ ● भाषाटीकासमेता । - वसं ० ति० - दग्धेकलिः सहजपेन्दपतौतयोवजीवेबलेनरहिते सहजेसहोत्थैः ॥ वैरंतृतीय भवनाधिपतीसराफेमांद्यंकलिस्व- जनसोदरतश्चविंदेत् ॥ २ ॥ तृतीय स्थानका स्वामी ( दग्ध ) दुष्टस्थान अस्तंगतादि दोषसहित हो तो भाइयोंके साथ कलह होवे; शुक्र वा सूर्य्य दग्ध हो तो भी यही फल है और बृहस्पति बलरहित तृतीयस्थान में हो तौभी यही फल होताहै. तथा आकुलता भी उनको होती है ( बलवान् बृहस्पति तृतीय भातृसुख देता है ) और वर्षेश तथा तृतीयेशका ईसराफ योग हो तो भाई तथा अपने मनुष्योंसे कलह और उनके शरीरमें कष्टभी जानना ॥ २ ॥ · उपजा० - यदेत्थशालःसहजेश्वरेण गुरुस्तृतीये सहजात्सुखाप्तिः ॥ सारेविधौस्यात्कलहस्तृतीयेदृष्टौयुतौनोगुरुणायदातौ ॥ ३ ॥ "यदि निर्बलभी बृहस्पति तृतीयमें हो पर तृतीयेश से शुभ दृष्टिका इत्थ- शाल करता हो तो भाईसे सुख कहना सबल होके ३ में इत्थशालके विना भी भ्रातृसुख देता है, यह पूर्वसिद्ध है, मंगलसहित चंद्रमा तीसरे स्थान में हो तो भाइयोंके साथ कलह होवे परन्तु इनपर बृहस्पतिकी दृष्टि न हो तो यह फल है गुरु दृष्टिसे शुभ फल होजाताहै ॥ ३ ॥ अनुष्टु० - सहजेसहजाधीशेधिकारिणिसमापतेः ॥ लग्नपेवामुथशिलेमिथःसौख्यंसहोत्थयोः ॥ ४ ॥ तृतीयेश तृतीय स्थानमें हो और अधिकारयुक्त हो तथा वर्षे मुथशिली हो तो परस्पर भातृसौख्य होवे ॥ ४ ॥ 0- अनुष्ट - रेसराफेकलहःशनौभौमझेंगेरुजः ॥ क्षैभौमेनुजेमांद्यंवदेत्सहजगेस्फुटम् ॥ ५ ॥ तृतीयेशसे पापग्रहोंका ईसराफ योग हो तो भाइयोंसे कलह होवे. शनि मंगलकी राशि १ । ८ में तीसरा हो तो भाइयोंको रोग उत्पन्न होवे तथा बुधकी राशि ६ |३ में मंगल तीसरा हो तो भाईयोंको क्लेशी कहना ॥ ५ ॥ अनुष्टु० - मंद गेसृजिब्रुधेकुज सहजेशुभैः ॥ युतेक्षितेसोदराणांमिथःसौख्यंसुखंबहु ॥ ६ ॥ . (१३५) (१३६) ताजिकनीलकण्ठी । शनिकी राशि १० | ११ का मंगल तृतीय स्थानमें यद्दा मंगलकी राशि ११८ का बुध तीसरा हो शुभ ग्रहसे युक्त वा दृष्ट हों तो भाइयोंका परस्पर बहुत सुख होवे ॥ ६ ॥ वसन्तति॰-जन्माब्दपौबुधसितौसबलौतृतीयेसोदर्यबंधुगण - सौख्यकरौगुरुश्च ॥ वीर्य्यान्वितेंदुगृहगोभृगुजोधिकारी सत्य- ब्दयोः सहजबंधुगणस्य वृद्धयै ॥ ७ ॥ जन्म तथा वर्षलयेश बुध यद्वा शुक्र बलवान् होकर तृतीय स्थानमें हो तो सहोदर भाई तथा और बंधुगणका सुख करते हैं, इस प्रकार बृहस्पतिभी उक्त फल देता है और अधिकारी शुक्र जन्म तथा वर्षीमें बलवान हो तथा चंद्रमाकी राशि ४ में हो तो भाई तथा बंधुगणकी वृद्धि करता है ॥ ७ ॥ वसन्तन्ति ० - पापान्वितेतुसहजेस हमेशभावनाथेक्षणेनरहिते सहजस्य दुःखम् ॥ एवंसहोत्थसहमोपिवदेत्तदीशौ दग्धौयदा सहजनाशकरौ विचित्यौ ॥ ८ ॥ - तृतीय भाव पापग्रह युक्त हो तथा तृतीयेश वा सहजेश सहजसहमेशकी दृष्टि इसपर न हो तो भाईको दुःख मिले, इसी प्रकार सहोत्थ सहममेंभी कहना और तृतीयभावेश तथा सहज सहमेश दग्ध ( दुष्ट स्थानगत ) अस्तंगतादि दोष सहित हों तो भाइयों के नाश करनेवाले जानना शुभ युक्त दृष्ट हों तो भाईयोंको शुभ जानना ॥ ८ ॥ उपजा: तृतीयपादब्दपतौद्युनस्थे लग्नेश्वरेवासहजैर्विवादः ॥ तृतीयपोजन्मनितादृगब्दे शुभेक्षितस्तत्रसहोत्थतुष्टयै ॥ ९ ॥ तृतीयभावेशसे वर्षेश वा वर्षलग्नेश सप्तम हो तो भाइयोंसे लह होवे और जन्म तथा वर्षमेंभी तृतीयेश तृतीयगत हो शुभ ग्रह की दृष्टिभी इसपर हो तो परस्पर भाइयोंका आनंद देनेवाला होताहै ॥ ९ ॥ इति श्रीमहीधरकृतायां नीलकंठीभापाटीकायां वर्षतंत्रेतृतीयभावविचारः ॥ ३ ॥ अथ खभावविचारः ।, उपजा - तुय्यैरवीन्द्रपितृमातृपीडापापान्वितौपापनिरीक्षितौच ॥ 0- जन्मस्थ सूर्य्यर्क्षग तेर्कपुत्रेऽवमानता वैरकलीचपित्रा ॥ १ ॥ भाषाटीकासमेवा । (१३७) चतुर्थ स्थानमें पापयुक्त वा पापदृष्ट सूर्य्य हो तो पिताको और ऐसाही चंद्रमा हो तो माताको पीड़ा करता है. जो सूर्य्य चंद्रमा साथही चतुर्थ हों चा सूर्य्य चंद्रमा पापयुक्त दृष्ट हों तो पिताको पीडा देते हैं और जन्ममें सूर्य जिस राशिकाहै वर्ष में उस राशिका शनि हो तो अपमान होवे तथा पिताके -साथ कलह वैर होवें ॥ १ ॥ उपजा० - चंद्रेजनन्येवसुशंतिबंधौसुखाधिपे ीतिसुखानिपित्रोः ॥ तुर्य्याधिपेल पतीत्थशालेवयिन्वितेसौख्यमुशंतिपित्रोः ॥ २ ॥ जन्ममें चंद्रमा जिस राशिमें है वर्षमें उस राशिका शनि हो तो मातासे वैर तथा कलह होबे, चतुर्थ स्थानका स्वामी चतुर्थहीमें हो तो मातापिताके साथ श्रीति तथा उनका सुख कहते हैं, उपलक्षणसे पितृ वा मातृ सहम भी चतुर्थ होनेमें यही फल देता है तथा चतुर्थेश चतुर्थभावको देखे तो पितृ मातृ- · सुख देता हैं और बलवान् चतुर्थेश लग्नेशसे इत्थशाली हो तो पितृ मातृ सुख होवे उपलक्षणसे लग्नेश चतुर्थेशका योगभी उक्तफल देनेवाला होता है ॥ २ ॥ व०ति० - सौख्याधिपोजनुषिनष्टबलोब्दसूत्योः पित्रोरनि दथोसहमेशयोस्तु ॥ दग्धेतुरीयगृहगेचयदींथिहायांनाशस्तयोः सहमयोरपिदग्धयोः स्यात् || ३ || - जन्मका चतुर्थभावेश वर्ष तथा जन्ममें बलहीन हो तो माता पिताको अशुभ फल करता है ऐसाही मातृपितसहममें भी विचारना तथा इन सह- मोंमें दग्ध पापग्रह हों और मुंथासे चतुर्थ पड़ें तो पिता माताका नाश होवै तथा मातृ पितृ सहमोंके स्वामी नष्टबल वा पापाक्रांत और अस्तंगत हो तो यही फल देते हैं सुखेश वा उक्त सहमेश बली हों तो मातापिताको शुभ फल देतेहैं ॥ ३ ॥ अनुष्टु - जन्मन्यंबुगृहंयञ्चतत्पतिस्तत्पदोपगौ || शन्यारौक्केशदौपित्रोर्नचेत्सौम्यनिरीक्षितौ ॥ ४ ॥ जन्ममें चतुर्थभाव और चतुर्थेश के आश्रितराशियोंमें शनि और मंगल बैठे होंय तो माता पिता को लेश करते हैं पापदृष्ट भी हों तो अधिक श (१३८). ताजिकनीलकण्ठी । करते हैं, शुभ दृष्ट हों तो नहीं क्लेश देते हैं अथवा चतुर्थेशके साथ शनि मंगल हों तो पूवात फल देतेहैं. जो ये शनि मंगल सुखमें वा सुखेशके साथ हों और शुभग्रह भी साथ हों वा देखें तो पिताको कष्टहोकर परिणाममें सुखभी होता है ४ ॥ वसन्तति - मातुः पितुश्च सहमेतनुपेत्थशालेतुय्र्य्यो पिचेत्थमव- गच्छसुखानिपित्रोः ॥ चेदष्टमाधिपतिनाकृतमित्थशालंपि- त्रोर्विपद्भयमनिष्टकृतेसराफे ॥ ५ ॥ मातृपितृसहममें वर्ष लग्नेशका इत्थशाल हो तो माता पिता का सुख जानना ऐसेही चतुर्थभावमें वर्षलग्नके स्वामीके इत्थशालसे भी मातापि- ताको सुख जानना और मातृ पितृ सहम वा सुखभाव में वर्षलझसे अष्टम- भावेशका इत्थशाल हो तथा अशुभफल दाता ग्रहसे ईसराफ योग हो तो मातापिताको विपत्ति तथा भय जानना ॥ ५ ॥ इति श्रीमहीधरकृतायां नीलकंठीभाषाटी कार्यावर्षतंत्रे चतुर्थभावविचारः ॥ ४ ॥ अथ सुतभावविचारः । उपजा० - पुत्रायगोवर्षपतिर्गुरुश्चेत्सूय्यरसौम्योशनसोऽथ वेत्थम् ॥ सत्पुत्रसौख्यायखलार्दितास्तेदुःखप्रदाः पुत्रतएवचित्याः ॥ १ ॥ वर्षेश: बृहस्पति पंचम वा ग्यारहवें स्थानमें हो अथवा सूर्य मंगल बुध शुक्रमेंसे कोई वर्षेश होकर पांचवां वा ग्यारहवां हो तो सत्पुत्रसे सुख मिले और यही ग्रह उक्तप्रकार होकर पापपीडित भी हों तो पुत्रजनित अस्वा- स्थ्य कलहादि क्लेश विचारना ॥ १ ॥ वसन्तति ० - पुत्रेसुतस्यसहमे सबलेताप्तिः सौम्येक्षितेप्यति सुखयदितत्रवपैट् ॥ सौम्येक्षितःशुभगृहेसकुजोबुधश्चेत्पुत्रा- यगः सुतसुखंविबलाः सुतार्तम् ॥ २ ॥ पंचमभाव वा पुत्रसहम बलसहित हो तो पुत्रप्राप्ति होती है. शुभग्रह- की दृष्टि भी उसपर हो तो अति सुख पुत्रसंबंधी होता है, जो वपैश भी पंचम हो तो उक्त फल देता है और शुभ ग्रहोंकी राशिमें मंगलके साथ बुध पंचम बा ग्यारहवाँ हो शुभ ग्रह भी इन्हें देखें तो पुत्रसुख देते हैं ऐसा निर्बल बुध पंचम वा ग्यरहवां हो तो पुत्रंको पीढ़ा करता है || २ || भाषाटी समेता । (१३९ ) अनुष्टु० - जीवोजन्मनियद्राशावब्दसौ तगोबली || पुत्रसौख्यायभौमोज्ञोवर्षेशोत्र सुताप्तिदः ॥ ३ ॥ जन्मकालमें बृहस्पति जिस राशिमें है वह राशि वर्षमें पंचम हो तथा बलवान् वह राशि हो तो पुत्रप्राप्ति सौख्य देता है और मंगल वा बुध वर्षेश होकर जन्मकी गुरु राशिमें पंचमस्थानगत हों तो वे भी पुत्रप्राप्ति करते हैं ॥ ३ ॥ हर्षिणी- यत्रेज्यो जनुषिगृहेविलसमेतत्पुत्रात्यै बुधसितयो- रपत्थिमूह्यम् ॥ यद्राशौ जनुषिशनिः कुजश्चसोब्दे पुत्रार्तित - नुसुतगः करोतिनूनम् ॥ ४ ॥ जन्मकालमें बृहस्पति जिस राशिमें है वह वर्ष में लग्न हो तो पुत्रप्राप्ति करता है ऐसेही बुध शुक्रका फलभी जानना जैसे बुध और शुक्र जन्मके जिस राशिमें हों वह राशि लग्नमें होनेसे पुत्रप्राप्ति कहना, और जन्ममें जिस राशिका शनि वा मंगल हो वह राशि वर्षलग्न में वा पंचम में हो तो पुत्रकष्ट करता है, यहां शनिकी राशि लग्नमें मंगलकी राशि पंचम होनेमें यह योग होता है यह निकृष्टफल है ॥ ४ ॥ अनुष्टु ० -- पुत्रेसुतस्य सहमे त्रात्यैशुभदृष्टियुक् ।। ल पुत्रेश्वरौ पुत्रे पुत्रदौबलिनौयाद ॥ ५ ॥ - चंद्रोजीवोथवा ऋःस्वोच्चगः सुतःसुते ॥ वक्रीभौमः सुतस्थश्चेदुत्पन्नसुतनाशनः ॥ ६॥ जो लग्नसे पंचमभावमें तथा पुत्रसहममें शुभ ग्रह हों वा इनकी दृष्टि हों तो पुत्रप्राप्ति करते हैं और लग्नेश पुत्रभावेश बलवान् होकर पंचममें हों तो भी पुत्रप्राप्ति करते हैं ॥ ५ ॥ तथा चंद्र बृहस्पति वा शुक्र अपनी उच्चराशि उपलक्षणसे उच्चांशकका पंचम वा लग्न में हो तो पुत्र देते हैं और वक्रगति मंगल पंचम हों तो पुत्रनाश करता है ॥ ६ ॥ • जा० सुताधिपोजन्मनिभार्गवोब्दपत्रेविल धिपतीत्थशाली ॥ त्र दो मंदपदस्थपुत्रे पापाधिकारीक्षितआत्मजार्त्तिः ॥ ७ ॥ (१४०) ताजिकनीलकण्ठी । जन्मकाल में पंचमेश शुक्र हो वर्षमें बलवान् होकर पंचममें हो तथा लग्नेशसे इत्थशाली हो तो पुत्र देता है और जन्मका शनि जिस राशिमें हो वह वर्षमें पंचम हो तथा कोई अधिकारी पापग्रह उसे देखे वा पंचम हो तो पुत्रको पीडा देता है ॥ ७ ॥ अनुष्ट ० -- यद्राशिगोग्रहः सूतौसराशिस्तत्पदाभिधः || वलीजन्मोत्थसौख्याय वर्षॆतद्दुःखदोन्यथा ॥ ८ ॥ जन्मकालमें जो ग्रह जिस राशिका है वह उसका पद कहाता है वह यदसंज्ञक वर्षराशिमें उसी भावमें हो, यद्वा वह ग्रह उसी पदमें हो तथा वह ग्रह उसी भावमें हो तो बलवान् होने में तद्भावसंबंधी शुभ फल देता है इसमें विचार बहुत हैं सभी भावोंमें बुद्धिवलसे विचारना || ८ || इति श्रीमहीधरकतायां • नी० भा० पंचमभावफलानि ॥ ५ ॥ अथ षष्टभावविचारः। व॰ति०-मंदेव्दपेनृजुगते पतितेरुजार्तिः स्यात्सन्निपातभव- भीररित्रशूलम् || गुल्माक्षिरोगविषमज्वर भीगुरौतु पापार्दिते- निलरुजोपिकंवूलशून्ये ॥ १ ॥ वर्षेश शनि वक्रगति होकर छठे स्थान में हो तथा पापाकांतभी हो तो बातसंबंधी रोगसे पीडा तथा सन्निपात (वात पित्त कफ) तीनोंके साथही कोप होनेसे भय तथा शूलरोग पेटमें गुल्मरोग नेत्ररोग और विपम ज्वरका भय होवे, जो बृहस्पति वचग्गति पापाक्रांत छठे स्थानमें हो और चंद्रमासे कंबूल योग न हो तो वातरोग कमलवातादि तथा नेत्ररोगभी होवे ॥ १ ॥ व०ति० - स्यात्कामलाख्यरुगपीत्थमसृज्यसृग्भीः पित्तंचरि- प्फगरवौदृशिशूलरोगः ॥ पित्तंपुनारिपुगृहेत्रभृगौतृभेरौश्लेष्मा- भयेक्षिततेपिकफोरिगेंदौ ॥ २ ॥ मंगल वक्रगति होकर छठे स्थानमें पापपीडित हो और वर्षेशभी हो तो · रुधिरविकारसे रोग होवे. पित्तरोग भी होवें ( इस श्लोक में कामलाख्य रोग पूर्वोको योगका संबंधी है ) और ऐसाही सूर्य्य छठा हो तो नेत्रशूलादि भाषाटीकासमेता । (१४१) अक्षिरोग होवें तथा ऐसाही शुक्र छठे स्थानमें हो तो पित्तरोग होवे, जो पुरुष राशिका शुक्र छठा हो और षष्ठेशकी दृष्टिभी इस पर हो तो श्लेष्मरोग. होवे और ऐसाही चन्द्रमा छठा हो तो कफसंबंधी रोग होवे ॥ २ ॥ इं०व० - एवं बुधेपापयुतेब्द पेऽरौवातोत्थरोगोजनिलग्ननाथः ॥ पापोब्दपेनक्षुत दृष्टिदृष्टो रोग दोमृत्युकरःसपापः ॥ ३ ॥ जो वर्षेश बुध पापयुक्त वक्रगति होकर छठे स्थानमें हो तो वातप्रधान रोग होवे, जो जन्मलनका स्वामी पाप हो और वर्षेश इसे क्षुतदृष्टि से देखे तो रोग देनेवाला होताहै जो वही पाप जन्मलग्नेश और पापयुक्त भी हो तो मृत्युतुल्य कष्ट फल देताह्रै ॥ ३ ॥ • अनुष्टु०-सूत्यार्किमेल गतेरूक्षशीतोष्णरुग्भयम् || शनी तेयाप्यतास्यात्सपापेमृत्युमादिशेत् ॥ ४ ॥ जन्ममें जिस राशिका शनि है वह राशि वर्षका लग्न हो तो रूक्ष एवं शीतपित्तके द्वंद्व व रोगका भय होवे इस पर शनिकी दृष्टिभी होवे तो और नियरोग होवे और वही जन्मकी शनि राशि वर्षलय में हो शनिकी दृष्टि और पापयुक्त भी होवे तो मृत्युभय होवे ॥ ४ ॥ अनुष्टु० - एवं भौमेक्षुतदृशारक्तपित्तरुजोग्निभीः ॥ ततोन्येबदुलारोगाः शुभदृष्टक्षैरुजाल्पता ॥ ५ ॥ ऐसेही जन्मकालीन मंगलकी राशि वर्षलग्न में हो पापग्रह क्षुतदृष्टिसे देखें तो र एवं पित्तरोग तथा अग्निभय होवे, जो यही जान्मिक मंगल राशिवर्षमें होकर इसीमें मंगलभी हो यद्दा मंगलकी दृष्टि भी उस पर हो तो उक्तरोग अल्पही होवें ॥ ५॥

वसंतति॰-लाधिपाब्दपतिषष्ठपतीत्थशालोरोगप्रदःखचर- धातुविकारतः स्यात् ॥ स्मारोगदोजनिसितांश्रितभाजिसू- य्यैषष्ठे सितेपततिरुक्सहमं सपापम् ॥ ६॥ लग्नेश वा वर्षेशसे षष्ठेशका इत्थशाल हो तो वातादि धातुमें जो उस (१४२) ताजिकनीलकण्ठी । ग्रहका धातु संज्ञाप्रकरण में कहा है उसके विकारसे रोग होने और जन्ममें जिस भावका शुक्र है उसमें वर्षकालका सूर्य्य हो तो धातुविकारसे रोग होवे, यहां श्लोक में जन्मकी शुक्रराशिका सूर्य ऐसा अर्थ प्रकट होता है, परन्तु जन्ममें सूर्य्य जिस राशिका है वर्षमें भी उसी राशिका होगा शुक्रकी राशि में कैसे जानना संभव है, जो सूर्य शुक्र एकही राशिमें किसी के साथ हों तब यह सम्भावना है तो उसके नित्यही यह योग होगा इससे यह अर्थ वर्ष में योग्य नहीं है, इसलिये शुक्रभावका सूर्य्य होना प्रमाणहै. जो जन्ममें सूर्य्यशुक्र एक राशिमें हों और वर्षमें शुक्र छठे पडजाय तो स्माररोग ( कामविकार ) रोग होताहै रोगसहम सपाप हो तो विशेषसे कहना ॥ ६॥ सु०प्र० - सपापेगुरौरंध्रगे लग्नआरेसतंद्रास्ति मूच्छौगनाशः सचंद्रे ॥ खलाः सूतिकेंद्रेव्दलग्नेरुगाप्त्यैकफोद्वयंत्रिगैरीक्ष्यमाणे सितेस्यात् ॥ ७ ॥ पापयुक्त बृहस्पति अटम और मंगल लग्नमें हों तो तन्द्रा ( आलस्य सहित मूर्छा) होवे, जो चन्द्रमायुक्त: अष्टम बृहस्पति और लममें मंगल हों तो किसी रोगसे किसी अंगका नाश ( अति पीडा ) होवे, जो पापग्रह जन्मके केन्द्रमें हों और वर्षमें लग्नके हों तो रोगोत्पत्ति करते हैं. यथा नरराशिमें बैठे हुये पापग्रहों से शुक्र क्षतदृष्टि से देखा जाय तो वर्षमें कफरोग होताहै ॥ ७ ॥ सु०प्र० - दिनेब्दप्रवेशोविलग्नेन्दसूत्योर्यदाहक हद्दागृहाद्योधिकारः ॥ रखेर्वाकुजस्यात्रपीड ज्वरात्स्यादृशासौम्य खेटोत्थया वैसुखाप्तिः ॥ ८ ॥ दिनका वर्पप्रवेश हो और जन्म तथा वर्षकालके लग्नमें सर्थ्य वा मंगलका स्वगृह हद्दा द्रेष्काण आदि कोई अधिकार हो तो उस वर्षमें ज्वरसे कष्ट होवे, जो लग्नपर शुभ ग्रहकी दृष्टि भी हो तो परिणाममें सुख होगा ॥ ८ ॥ अनुष्टु० - निशिसुतौवर्द्धमानेचन्द्रेभौमेत्थशालतः ॥ रुग्नश्येदेधतेमंदेत्थशालाद्वयत्ययोन्यथा || ९ रात्रिका जन्म हो तथा चन्द्रमा वर्द्धिष्णु ( शुक्लपक्षका ) हो और वर्षमें मंगलके साथ मुथशिली हो तो रोगनाश होवे और ऐसाही चन्द्रमा शनिसे > भाषाटीकासमेता । (१४३) मुथशिली हो तो रोग बढताहै, विपरीत में फलभी विपरीत जानना, जैसे दिनका जन्म हो और कृष्णपक्षका चन्द्रमा मंगलसे मुथशिली हो तो रोग करता है, ऐसाही चन्द्रमा शनिसे मुथशिली हो तो, रोगनाश करता है ॥ ९ ॥ अ०-ख दृशिवित्केतुयुतेब्दनिखिलंगदाः || अधिकारीबलीसूतावब्देकेतुज्ञयु था ॥ १० ॥ ऐसाही सूर्य मंगल वा शनिके साथ मुथशिली तथा बुध केतुयुक्तभी होवे तो सम्पूर्ण वर्षमें रोग रहे तथा जन्मकालका अधिकारी बुध वर्षमें केतुयुत हो तो वही फल देता है ॥ १० ॥ 0. अनु ~ चतुर्थेस्तेच मुथहाक्षुत चाशनीक्षिता ॥ शूलंपापखगै तच्छ्रलंपरिणामजम् ॥ ११ ॥ चतुर्थ वा सप्तम स्थान में मुंथा हो शनिसे युक्त वा शत्रुदृष्टि से दृष्ट हो तो शूलरोग होता है तथा चतुर्थ सप्तममें मुंथा किसी पापग्रहसे युक्त वा ऋष्ट हो तो किसी कर्म वा किसी रोगसे शूल उत्पन्न होवे ॥ ११ ॥ वसंततिल - जन्मस्थजीवसितराशिगते महीजेसूर्य्याशुगेपि - टकशीतलिकादिमां म् || शीतोष्णगंडभवरुक्सबुधेचसेंद •ष्टंभगंदररुजोपि सगंडमालाः ॥ १२ ॥ जन्ममें जिस राशिका बृहस्पति वा शुक्र हो उसी राशिका वर्ष में मंगल अस्तंगत हो तो पिटका ( फुन्शी ) शीतला, दनु आदि रोग तथा शीतपित्त और गंडमाला आदि रोग होवें और जन्मका बृहस्पति शुक्रकी राशिका बुध वर्षमें चन्द्रमा सहित हों तो कुष्ठादि रोग होवें ॥ १२ ॥ अनुष्टु० - जन्मलप्रेंथिहानाथौष पापान्वितेक्षितौ । निर्बलौज्वरपीडांगवैकल्याद्यतिकष्टदौ ॥ १३ ॥ जन्मलङ्गेश एवं मुंथेश छठे स्थानमें पापयुक्त वा पापदृष्ट और निर्बल हों तो ज्वरपीडा तथा किसी अंगकी विकलतासे अति कष्ट देते हैं ॥ १३॥ अनुष्टु० - मुथहालमत थाः पापांतः स्थास्तुरोगदाः ॥ पशेपष्टगेसौम्येत्रियःप्राप्तिरितीते ॥ १४ ॥ (१४४) ताजिकनीलकण्ठी | मुंथा और मुंथेश लग्न और लग्नेश ये चारों पापग्रहों के बीच हों तो रोगोत्पत्ति करते हैं. यहां एक वा दो के पापांतःस्थ होनेमें रोग, चारोंसे मृत्युतुल्य कष्ट जानना, और षष्ठेश शुभग्रह छठेही स्थानमें हो तो स्त्रीप्राप्ति होती है, परन्तु कन्या मिथुन तुलाका शुक्र छठे कफरोग करता है यह ताजिकांतर- मृत है ॥ १४ ॥ अनुष्टु० - रोगकर्त्तायत्रराशावंशेस्यादनयोर्वेली ॥ तत्स्थानंतस्यरोगस्यवाच्यंराशिस्वरूपतः ॥ १५ ॥ उक्तयोगोंसे रोगकर्त्ता ग्रह जानकर रोगका स्थान जाननेकी यह विधि है कि वह ग्रह जिस राशिमें एवं जिस नवांशकमें है उनमेंसे जो अधिक बली उसका कालांग राशिस्वरूपमें जो स्थान है उसमें रोग उत्पन्न करता है बुद्धिसे बलावल विचारके कहना ॥ १५ ॥ अनुष्ट ० - जन्मषष्ठाधिपेभौमे वर्षेपष्टगतेरुजः || क्रूरेत्थशालेविपुलःशुभदृग्योगतस्तनुः ॥ १६ ॥ जन्मका पष्टेश मंगल वपेमें छठाही हो तो रोग करता है, इसमें भी विशेष विचार है कि, इसके साथ पापग्रहका इत्थशाल हो तो रोग बहुत, शुभग्रह का हो तो अल्परोग होता है ॥ १६ ॥ इति श्रीमहीधरकृतायां ता० नीलकंठीमापाटी • पृष्ठभावफलाध्यायः॥६॥ अथ सप्तमभावविचारः ॥ उपजा० - बलीसितोव्दाधिपतिःस्मरस्थः स्त्रीपक्षतः सौख्यकरो विचित्यः ॥ ईज्येक्षितोत्यंतसुखं कुजेनाधिकारिणाप्रीतिकरो मिथः स्यात् ॥ १ ॥ वर्षेश शुक्र बली होकर सप्तमस्थान में हो तो स्त्रीपक्षसे सुख करता है, और बृहस्पतिकी दृष्टिभी इस पर हो तो अत्यंतही स्त्रीसुख करता है, जो ऐसे शुक्रपर अधिकारी मंगलकी दृष्टि हो तो स्त्रीपुरुपकी परस्पर प्रीति बढाता है, ( जो शुक्र सप्तम निर्बल नष्ट दग्ध हो तो स्त्रीसे कष्ट देता है ) ॥ १ ॥ अनुष्टु० - घेक्षितेजारतास्याकृष्च्यामंदेनवृद्धया || गुरुदृष्टयानवाभार्य्या संततिस्त्वरितंततः ॥ २॥ • भाषाटीकासमेता | (१४५ ) वही वषश शुक्र यदि अधिकारी बुधसे देखा जाय तो ( लघव्या ) थोडी अवस्थाकी परस्त्री वारखीसे जारता उक्त शुक्र अनधिकारी शनिसे देखा जाय तो वृद्धा परस्त्रीसे जारता होवे - उक्त शुक्र पर अधिकारी अनधिकारी गुरुकी दृष्टि होने से विवाहिता नवीन भार्थ्यांसे संयोग तथा शीघ्र सन्तानोत्पत्ति होती है, इस श्लोकमें 'गुरुदृष्टया' यह पाठ प्रमादसे है, क्योंकि पूर्व पयमें निरुक्त है यहां 'गुरुयोगात्' ऐसा पाठ होना चाहिये, उक्त भी है ताजिकसुधानिधिमें 'गुरुयुतेऽपि च नतनवल्लभा भवति तत्र च सन्तति राशु हि” ॥ २ ॥ अनुष्टु० - जन्मलग्नाधिपेऽस्तस्थेदारसौख्यंबलान्विते || जन्मशुक्रर्क्षमस्तेब्दे "लाभायसितेन्दपे ॥ ३ ॥ जन्मलग्नेश वर्षकालमें सप्तम बलवान् हो तो स्त्रीसुख होता है, जन्मकी शुक्रराशि वर्ष में सप्तम हो और शुक्रही वर्षेश हो तो स्त्रीलाभ होवे ॥ ३॥ अनुष्टु० - जन्मलग्नाधिपेवर्षं लग्नात्स मगेसति || उदितेस बले चैवदारसौख्यंप्र॒जायते ॥ ४ ॥ जन्मलग्नेश वर्षलग्नेश सप्तम हो और उदित तथा बलवान हो तो स्त्रीसौख्य होवे ॥ ४ ॥ O अनुष्टु • -शुक्रोजन्मनियद्राशौवषैलग्नेश्वरोयदि ॥ तद्राशौसप्तमस्थेपिपुंसः परिणयस्तदा ॥ ५ ॥ जन्मका शुक्र जिस राशिमें है उसमें वर्षलग्नेश हो, अथवा वह राशि सप्तममें हो तो पुरुषका इस वर्ष में विवाह होगा, यह योग ताजिकसारमें "शुक्रस्प लग्नपतेर्विवाहः" अर्थात् शुक्रकी राशिका लगेश हो ऐसा लिखा है यह भी प्रमाणही है ॥ ५ ॥ अनुष्टु० – नष्टेंदौशुक्रपदगेमैथुनंस्वल्पमादिशेत् ॥ जन्म शुक्रर्क्षगोभौमः सुखोत्सवकूद्वली ॥ ६ ॥ जन्मकी शुक्रराशिमें वर्ष में क्षीण चन्द्रमा हो तो इस वर्ष में मैथुनसुख थोडा होवे, जो जन्मकी शुक्रराशिमें वर्षका बलवान् मंगल हो तो स्त्रीसुख उत्सवकारीं होवे ॥ ६ ॥ १० . (१४६ ) ताजिकनीलकण्ठी । व०ति ० - जन्मास्तपेव्दपसितेनयुगीक्षितेस्यात्स्त्रीसंग सोवहुवि लाससुखप्रधानः || केन्द्रत्रिकोणगगुरोजनिशुक्र भस्थेस्त्रीसौ- ख्यमुक्तमितिहद्दविवाहयोश्च ॥ ७ ॥ जन्मका सप्तमेश वर्ष में शुक्रसे युक्त या दृष्ट किसी स्थानमें हो तो स्त्रीसं- गम बहुत विलास हास सुखपूर्वक होवे १, जन्मको शुक्र जिस राशिमें हो उसमें वर्षका बृहस्पति लग्नसे केन्द्र वा त्रिकोण हो तो स्त्रीमुख होवे २, वर्षलग्नकी हद्दाका स्वामी जन्मकी शुक्रराशिमें वर्पलग्नसे केन्द्र त्रिकोण में हो तो स्वीसौख्य होवे ३, ऐसा ही वर्षका विवाहसहमस्वामी, जन्मके शुक्रराशिका वर्षलग्नसे केन्द्रनिकोणमें हो तो स्वीमाप्ति होवे ये चार योग हैं ॥ ७ ॥ अनुष्टु० - अधिकारिपदस्थेस्त्रीभ्योव्याकुलतानिशम् || इथिहाधिकृतस्थानेगुरुदृष्ट्याविवाहकृत् ॥ ८ ॥ पंचाधिकारियोंमेंते किसीकी राशि सूर्य हो तो स्त्रियोंसे नित्य व्याकुलता रहे, एवं मुंयेशकी राशिका बृहस्पति हो वा मुंथाकी राशिमें बृहस्पति हो वा मुंथा राशिको बृहस्पति देखें तो विवाहयोग कहा है ॥ ८ ॥ अनुष्टु० - इंथिहार्कारयुग्नेॠरितेसहमेलियाः ॥ स्त्रीपुत्रेभ्यो भवेत्कष्टं पापष्टया विशेषतः ॥ ९ ॥ सूर्य्य मंगलके साथ युंथा सतम स्थान में हो तथा स्त्रीसहम पापाक्रांत होवे तो स्त्रीसे एवं पुत्रसे कष्ट होवे पापग्रहकी दृष्टि भी उसपर हो तो स्त्रीपुत्रोंसे अधिक ही कष्ट होगा ॥ ९ ॥ अनुष्टु॰—सूतौद्यूनाधिपः शुक्रोदेनेवलवान्भवेत् || लग्नेशेनेत्यशालश्रेस्त्रीलासंकुरुते सुखम् ॥ १० ॥ जन्मका सप्तमेश शुक्रवर्षमें बलवाव होकर सप्तम स्थानमें हो तथा लग्ने सके साथ इत्थशालीभी हो तो पूर्वी होवे ॥ १० ॥ अनुष्टु० - भौसेव्दपेसितदृशाशुक्रव्देशेकुजेक्षया || तहटेदारसहमेस्ट्रीलाभो भवतिभुवम् ॥ ११ ॥ भाषाटीकासमेता । (१४७) वर्षेश मंगलपर शुक्रकी दृष्टि हो तो स्त्रीलाभ होता है तथा वर्वेश शुक्रपर मंगलकी दृष्टि हो तो यही फल होता है. इन दोनों योगोंके भेद हैं कि शुक्रकी दृष्टि में मंगल हो तो विवाह होगा १, मंगलकी दृष्टि में शुक्र हो तो भी विवाह होगा २, और जन्म की स्त्रीसहम राशिपर वर्ष में मंगल शुक्रकी दृष्टि हो तो निश्चय विवाहयोग होता है ॥ ११ ॥ अनुष्टु० - सूतौवादारसं हमेतदृष्टेयोषिदाप्यते ॥ स्वामिदृष्टीसह मंशऋदृष्टंविवाहकृत् ॥ १२ ॥ 1 जन्मके वा वर्षके स्त्रीसहममें मंगल शुक्रकी दृष्टि हो तो विवाहमाप्ति होती है और स्त्रीसहमपर शुक्र तथा सहमेशकी दृष्टिसे यही फल है ॥ १२ ॥ अनुष्टु० - सूतौद्यूनाधिपेवर्षे सहमेशस्त्रियाः सुखम् || जन्मास्तपेंथिहानाथवर्षेशाः खेद्युनेतथा ॥ १३ ॥ जन्मका सप्तमेश वर्ष में स्त्रीसहमका स्वामी हो तो बीसे सुख मिले और जन्मका सप्तमेश मुंथेश तथा वर्षेशभी दशम वा सप्तम हो तो स्त्रीसे सुख होवे ॥ १३ ॥ अनुष्टु० - मुथहातोद्यूनसंस्थः स्वगृहोच्चगतःशशी || विदेशगमनंकुर्य्यात्क्लेशः पापेक्षणाद्भवेत् ॥ १४ ॥ चंद्रमा अपने गृह वा अपने उच्चका भुंथासे सप्तम हो तो विदेशगमन करता है, इस पर पापग्रहकी दृष्टि हो तो विशेष कष्टसे गमन अन्यथा सुखसे होताहै ॥ १४ ॥ इति श्रीमहीधरकृतायां नीलकंठी भाषाटी कायाँ सप्तम भावफलाध्यायः ॥ ७ ॥ अथाष्टमभावविचारः | अनुष्टु० - सौमेन्दपे क्रूरहतेऽयसाघातोबलोज्झिते || अग्निभी रनिभेक्कनराराद्विपद मृतिः ॥ १ ॥ वर्षेश मंगल बलरहित और पापपीडित हो तो लोहाके शमसे किसी अंगपर क्षत होवे, अंगकी निश्चयता द्रेष्काणवशते संज्ञाध्याय में कही है तथा अग्निराशि मेष सिंह धन १ । ५ । ९ में यह होने तो अन्निभय होवे. (१४८) ताजिकनीलकण्ठी । और यही मंगल द्विपद मिथुन कन्या तुला और धनके पूर्वार्द्ध में हो तो चौरादि दुष्ट मनुष्यसे मृत्यु हो ॥ १ ॥ अनुष्टु० - वियत्यवनिपामात्य रिपुतस्करतोभयम् ॥ तुय्यैमातुः पितृव्याद्वामातुलात्पितृतो गुरोः ॥ २ ॥ इसी प्रकार वर्षेश मंगल निर्बल तथा पापपीडित होकर दशम स्थानमें हो तो राजा वा राजमंत्री वा शत्रु वा चोरसे भय होवे और ऐसा ही मंगल चहुर्थस्थानमें हो तो माता वा ताऊ वा चाचा वा मामा वा पितासे भय होवे ॥ २ ॥ व॰ति ॰ - लग्नेंथिहापतिसमापतयोमृतीशाश्वेदित्यशालिनइमे निधनप्रदाःस्युः ॥ चेत्पाकरिष्टसमये मृतिरेव तत्र सार्के कुजे नृपभयं दिवसेऽन्दवेशे ॥ ३ ॥ लग्नेश मुंथेश और वर्पेश अष्टमेश इत्थशाली हों तो मृत्युफल कहाहै, परंतु जिस वर्ष में यह योग है उससे मारक दशा वा दशारिष्ट किसी प्रकार- काभी हो तो मृत्यु होती है. केवल उक्त इत्थशाल ही हो तो मरणतुल्य कष्टमात्रही होताहै और दिनके वर्षप्रवेशसे वर्षेश मंगल सूर्य्यसहित होतो राजासे भय होवे ॥ ३ ॥ ● शार्दूलवि०-सूर्य्येमूसरिफेसितेनजननेवर्षेधिकारीतथा केंद्रेरा जगदाद्भ्यं चरुगसृक्स्थानेधिकारीदुजे ॥ सौम्येक्रूरदृशाकुज- स्यरुगसृक्दोषादिनांशुस्थिते दग्धेबंधमृतीविदेशतइतिप्राहुर्बुध तादृशे ॥ ४ ॥ जन्ममें सूर्य शुक्रसे मूसरिफ कर्त्ता हो तथा वर्ष में पंचाधिकारियों से किसी अधिकारवाला होकर केंद्र में हो तो राजरोग ( क्षयरोग ) का भय होवे १ और जन्मके भौमराशिस्थितमें अधिकारी बुध वर्षमें हो तो यही फल देताहै २ तथा अधिकारी बुधपर मंगलकी क्रूर दृष्टि हो तो रुधिर दोपसे रोग होवे ३ तथा अधिकारी बुध अस्तंगत और मंगलयुत दग्ध हो तो. विदेशमें बंधनसे मृत्यु होवे ॥ ४ ॥ भाषाटीकासमेता । (१४९) अनुष्टु०-भौमस्थाने धिकारीदो तंनृपभयंरुजः || मंदोधिकारीखेलोहहतेपीडाकरः स्मृतः ॥ ५ ॥ जन्मकी मंगलस्थित राशिमें वर्षका अधिकारी चंद्रमा हो तो गुप्त ( अनजाने ) में राजभय होवे एवं रोगभय भी होवे १. और अधिकारी शनि दशम स्थान में हो तो लोहाके प्रहार से पीडा करनेवाला कहा है ॥५॥ अनु ० - भौ मे भयं वह्नेः प्रहारोवानृपाद्भयम् || आरेखस्थेचतुष्पद्भचःपातोदुःखंरुजोसृजा ॥ ६ ॥ अधिकार रहित मंगल अष्टम हो तो अग्निका भय अथवा श देसे चोट और राजासे भय होने, और अधिकारी मंगल दशम हो तो घोडा आदि चौपाया से पतन तथा `श और रुधिरसंबंधि रोग होवे ॥ ६ ॥ अनुष्टु० - वित्तेष्टगेज्योधनहा यद्यब्देशोऽशुभेक्षितः ॥ "देद्यूनेदुर्वचनापवादकलिभर्त्सनम् ॥ ७ ॥ वर्षेश बृहस्पति पापग्रहदृष्ट द्वितीय तथा अष्टम हो तो धननाश होने और शनि सप्तम हो तो बुरे वचन झूठाकलंक कलह और झिडकन मिले ॥ ७ ॥ अनुष्टु०-पतितज्ञेवरहंशाऽऽरेत्थशालेमृतिवदेत् || कुज हद्दास्थितेनाशः सौम्यदृष्ट्याशुभं वदेत् ॥ ८ ॥ बुध पापाक्रांत हो और मंगलके साथ क्रूर दृष्टिसे इत्यशाल करता हो तो मृत्यु होवे तथा बुध मंगलकी हद्दामें पापदृष्ट हो तो अश्व आदि द्रव्यका नाश होने और इसपर शुभग्रहकी दृष्टि हो तो शुभफल देता है ॥ ८ ॥ अनुष्टु०-लग्नाधिपेनष्टदग्धेयोषिद्वादोऽशुभान्विते || जन्मन्यष्ट गोर्जोनाधिकारीकलिः ॥ ९ ॥ लग्नेश पापयुत बलहीन और अस्तंगत हो तो किसी से कलह होवे, और जन्ममें बृहस्पति अष्टम हो वर्षमें अधिकाररहित हो तो बडा कलह होवे ॥९॥ अनुष्टु० - जयः शुक्रेक्षणादु : प्रत्युत्तरखशेनतु || भौमत्यगेधने सुय्यवादाते शंविर्निर्द्दिशेत् ॥ १० ॥ (१५०) ताजिकनीलकण्ठी ।. जन्मका बृहस्पति अष्टम वर्ष में अधिकाररहित हो और शुक्र इसे देखे तो विवादमें प्रत्युत्तर देनेसे जय होवे और मंगल बारहवें स्थानमें सूर्य द्वितीय स्थानमें हों तो विवादसे क्लेश होगा. कहना ॥ १० ॥ 71 अनुष्टु० - रिपुगोत्रकलिभतिः संख्येकुजहतेव्द पे || दग्धोजन्मांगपोव पैष्टमोरोगकली दिशेत् ॥ ११ ॥ वश भौमसे पीडित हो तो शत्रुवोंसे और अपने कुलकेभी शत्रुवोंसे कलह होवे तथा संग्राम में भय होवे और जन्मलगेश अस्तंगत हो वर्ष में अष्टम हो तो रोग तथा कलह होने कहना ॥ ११ ॥ अनु० - सूत्यव्दयोरधिकृतौ भौमस्थानेगुरुर्हतः || पापैर्वादःस्फुटोप्येवंतादृशींदौशनेः पदे ॥ १२ ॥ बृहस्पति जन्मकाल और वर्षकालका अधिकारी होके जन्मकालिक मंगलके आक्रांत राशिमें हो पापग्रह से हत होय तो लोगों के साथ बहुत कलह होगा और जन्मकालिक शनिराशिके जन्म और वर्षकालका अधिकारी चंद्र पापग्रहले हत होय तो ऐसाही फल जानना ॥ १२ ॥ अनुष्टु० - सूत्यव्दयोरधिकृतेचंद्रेवुधपदेहते ॥ रैर्विदेशगमनंवादः स्याद्विमनस्कता ॥ १३ ॥ जन्म तथा वर्षका अधिकारी चंद्रमा जन्मके बुधकी राशिमें पाप- पीडित हो तो विदेशगमन कलह और मानसी, क्लेश होवे ॥ १३ ॥ अनुष्टु०-मेपेसिंहेधनुष्यारेव्दपेरंध्रेऽसितोभयम् || मृत्यौष्मृतीशलग्नेशौमृत्युदौपापग्युतौ ॥ १४ ॥ मेष सिंह धनका मंगल वर्षेश होकर अष्टममें हो तो तलवारसे भय होवे और अष्टगेश एवं लग्नेश अष्टम स्थानमें पापग्रहोंसे युक्त वा दृष्ट हो तो मृत्यु देते हैं ॥ १४ ॥. अनुष्टु० - यत्रक्षैजन्मनिकुजःसोन्दलश्नोपगोयदा || बुधोवर्पपतिर्नष्टवलस्तत्र नशोभनम् ॥ १५ ॥ भाषाटीकासमेता । (१५३ ) जिस राशिमें जन्मका मंगल है वही वर्षका लग्न हो और वर्षेश बुध भी नष्टवल होवें तो वह वर्ष अच्छा नहीं होगा ॥ १५ ॥ अनुष्टु०-सार्केशनौ भौमथुतेखाष्टस्थेवाहनाद्भयम् || सार्के भौमेष्टमस्थेतु पतनं वाहनाद्भवेत् ॥ १६ ॥ शाने सूर्य्य मंगल सहित दशम वा अष्टममें हो तो वाहन (सवारी ) से भव्य होने और सर्ग्य सहित मंगल अष्टम हो तो वाहनसे पतन होवे ॥ १६ ॥ अनुष्टु० - सारेन्द पेष्ट मेमृत्युश्चंद्रेत्यारिभृतौमृतिः ॥ उदितेमृतिसद्मशेनिर्वलेजीवितेमृतिः ॥ १७ ॥ वर्षेश मंगल सहित अष्टम हो तो मृत्यु फल देता है तथा चन्द्रमा भौम युक्त छठा आठवां वारहवां हो तो भी मृत्यु देता है और मृत्युसहमेश उदय हो जीवितसहमेश निर्बल हो तो मृत्यु होता है ॥ १७ ॥ अनुष्टु --- पुण्यसद्मेश्वरः पुण्यसहमाष्टमोयदा || सूत्यष्टमेशः पुण्यस्थो मृतिदः पापढग्युतः ॥ १८ ॥ पुण्यसहमेश पुण्यसहमसे अष्टम हो पापग्रहसे युक्त वा दृष्ट भी हो तथा जन्मका अष्टमभावेश पुण्यसहम राशिमें पापयुक्त वा दृष्ट हो तो मृत्यु देताहै ॥ १८ ॥ अनुष्टु० - सूत्यष्टमगतोराशिः पुण्यसद्मनिनाथयुक || अब्दलग्नाष्टमक्षैवाचे दित्थंस्यान्मृतिस्तदा ॥ १९ ॥ जन्मकी अष्टमभावराशि वर्ष में पुण्यसहम होके निजनाथसे युक्त हो तथा वर्षलग्नसे अष्टमेश अष्टमगत हो तो मृत्यु होती है ॥ १९ ॥ ० 'अनुष्टु० - पुण्यसद्माशुभाक्रांतंमृतीशोंत्यारिंध्रगः ॥ सुथहेशोन्दपोवापिमृत्युंतत्रविनिर्दिशेत् ॥ २० ॥ पुण्यसहममें पापग्रह हों और अष्टमेश त्रिकस्थान ६ |८|१२ में हो तो मृत्यु होवे और वर्णेश वा मुंथेश पापाकांत त्रिकस्थान ६ । ८६ | १२ में हो तो मृत्यु कहना ॥ २० ॥ (१५२ ) ताजिकनीलकण्ठी | युक् ॥ अनुष्टु०–सक्रूरेजन्मपेमृत्यौमृतिथि सौमक्षुतेक्षणेतत्रमृत्युः स्यादात्मघाततः ॥ २१ ॥ जन्मलमेश वा जन्मराशीश पापग्रहयुक्त वर्षलग्न से अटम हो तो मृत्यु होती है और मंथा भी कहीं बैठी होय पर शनैश्चरके साथ होय और जो इसपर मंगलकी शत्रुदृष्टि भी हो तो आत्मघात ( अपनेही हाथसे ) मृत्यु होवे ॥२१॥ अनुष्टु० - मंदोष्टमोमृतीशेत्यशालान्मृत्युकरः स्मृतः ॥ शुभेत्यशालात्सर्वेपियोगाना शुभदायकाः ॥ २२ ॥ - अष्टम शनि अष्टमेशसे इत्थशाली हो तो मृत्यु देनेवाला कहा है और जो यह उक्त योगोंमेंसे मृत्युफल करनेवाले हैं वे किसी शुभग्रह से इत्थशाल करते हों तो मृत्यु नहीं होती प्रत्युत शुभफल देते हैं ॥ २२ ॥ अनुष्टु० - सूतिरंभ्रपतिमैदोष्टमोब्देलग्नपेनचेत् || इत्थशालीक्रूरदृशातत्कालेमृत्युदायकः ॥ २३ ॥ जन्मका अष्टमेश शनिवर्षमें अष्टम हो तथा लग्नेशसे क्रूरदृष्टिका इत्थशा- ल करता हो तो वर्षप्रवेशहीमें मृत्यु देताहै ॥ २३ ॥ स्थोद्धता - पुण्यमद्मनिविषुस्तनौतथास्तेखलोमृतिरथार्थरिःफगौ || मृत्युदौखलखगावथोजनुर्वर्षवेशतनुपौमृतौमृतिः ॥ २४ ॥ पुण्यसहममें वा लग्नमें चन्द्रमा और इससे समम पापग्रह हो तो मृत्युतुल्य कष्ट देता है तथा लग्नसे दूसरे बारहवें पापग्रह हों तो भी यही फल देते हैं, पुण्य सहम और चन्द्रराशिसे भी द्वितीय द्वादश पापग्रह होनेमें यही फल है, इसमें पापकर्त्तरी विशेषहै. और ऐसाही विचार जन्मलग्न वर्षलग्न पुण्यसहम चन्द्रराशिका भी करना और वर्षलग्नेश वा वर्षेश और अष्टमेश अष्टम हो तो मृत्यु देता है ॥ २४ ॥ इति श्रीमहीधरकृतायां नीलंकट भापाटकिायाम सभावाध्यायः ॥ ८ ॥ अथ नवमभावविचारः । अनुष्टु० - भौमेन्दपेत्रिनवगेकरायुक्तेबलान्विते || गुणावहस्तदामार्गश्चरंकाय्यैस्थिरंततः ॥ १ ॥ भाषाटीकासमेता । (१५३ ) वर्षेश मंगल तृतीय वा नवम स्थानमें बलवान हो और पापयुक्त न हो तो मार्गे अर्थात् सफर गुणदायक होवे. चरकार्ग्य भी स्थिर होजावे अर्थात जलकर्म नहर आदिसे शुभत्व होवे ॥ १ ॥ अनुष्टु० - त्रिधर्मस्थोब्दपः सूर्य्यःकंबूलीमार्गसौख्यदः || अन्यप्रेषणयानंस्यात्सचेन्नाधिकृतोभवेत् ॥ २ ॥ वर्षेश सूर्य्य तृतीय वा नवम स्थानमें अधिकारयुक्त हो और चन्द्रमारो कंबूली भी हो तथा स्वगृहोच्चादिमें होवे तो अपनी इच्छासे मार्ग चलना पड़े, मार्गमें सुखभी होवे, जो वह सूर्य्य स्वग्रहादि अधिकारयुक्त न हो तो दूसरेके प्रेषणसे गमन होवे मार्ग में सुख भी न होवे ॥ २॥ अनुष्टु० - शुक्रेन्दपेत्रिनवगे मार्गसौख्यंविलोमगे || अस्तेवाकुगतिः सौम्येदेवयात्रातथाविधे ॥ ३ ॥ वर्षेश शुक्र तीसरे वा नवम स्थान में क्रूररहित हो बलवान् भी हो और वक्रगतिमें हो तो गमन होनेमें मार्गमें सौख्य होवे, जो यह अस्तंगत होकर उक्तस्थानों में हो तो कुगति इच्छासे विरुद्ध गमन होवे, और वर्षेश बुध पापरहित बलवान् तीसरे नवम स्थानमें वक्री हो तो तीर्थ वा देवता- संबंधी यात्रा होवे ॥ ३ ॥ ' 0 अनुष्ट - ॠरार्दिकुयानंस्याद्वरावेवविचिंतयेत् || इत्थशालेलग्न वर्मपत्योर्यात्रास्त्यचिंतिता ॥ ४ ॥ पूर्वोक्त बुधके सदृश वर्षस्वामी बृहस्पति पापग्रहरहित ३ । ९ स्थानों में होनेसे तीर्थ देवसंबंधी यात्रा देता है. जो हीनवली वा क्रूर पीडितादि हों तो कुयान अनिष्टगमन देता है, और लग्नेश नवमेशका परस्पर इत्थशाल हो तो अकस्मात् गमन होवे, जहांका स्मरण नहीं गमन संभावनाभी नहीं ऐसा गमन होता है ॥ ४ ॥ अनुष्टु० - लग्नेशोधर्मपंयच नस्वमहश्चिंतिताध्वदः || एवंलग्नाब्दयोर्योोंगे मुथहांगपयोरपि ॥ ५ ॥ लग्नेश अपना तेज नवमेशको देवे अर्थात् लग्नेश शीघ्रगति अल्पांश और नवमेश अधिकांश मंदगति हो, दोनों दीघांशोंके भीतर हों तो पूर्वनिश्चित (१५४ ). ताजिकनीलकण्ठी । यात्रा होने और नवमेश अपना तेज लग्नेशको देता हो तो अचिंतित यात्रा होवे, ऐसे ही वर्पलमेश वर्पेशका तथा लग्नेश मुंथेशका योग भी फल देता है ॥ ५ ॥ अनुष्टु० - गुरुस्थाने कुजे धर्मेसद्यात्राभृत्य वित्तदा ॥ ज्ञस्थाने लगपाद्भौमोदृष्टः सद्यानसौख्यदः ॥ ६ ॥ जन्मकालमें बृहस्पति जिस राशिका है उसीमें वर्चका मंगल नवमस्थान में हो तो गमनमें मृत्यु और धनकी प्राप्ति होवे, और जन्मका बुध जिस राशि में है उसी राशिमें वर्षका मंगल हो और लमेशकी दृष्टि उसपर हो तो गमन में सौख्य होवे ॥ ६ ॥ अनुष्टु० - स्वस्थानगोवावलवाँलग्रदर्शीसुयानदः || जन्माधिकारीज्ञोमंदस्थाने क्रूरतोयदा ॥ ७ ॥ पंथारिपोर्झकटकाद्वरुर ध्वेंदुजीक्योः || धर्मेशनिर्वाधिकारीपंथानमशुभ॑वदेत् ॥ ८ ॥ जन्मका मंगल अपनी राशि १ |८ में हो वर्षमेंभी अपनी राशिका नवमस्थान में हो और सावयव दृष्टि स्पष्टसे भावानुसार लगको देखता हो तो गमनमें खुशी होवे, शुभकाय संबंधी गमन होवे १ और जन्मका अधिकारी बुध शनिकी राशिमें होवे और वर्षमें पापयुक्त नवम स्थानमें हो तो शत्रुकलह सम्बन्धी मार्ग चलना होवे. ऐसेही चन्द्रमा और बृहस्पति का भी जन्ममें शनि सहित और वर्ष में पापयुक्त नवम स्थानमें हो तो विना प्रयोजन दीर्घमार्ग चलना होवे, मंगलसे भी ऐसा योग होता है, और अधिकार रहित शनि वर्षमें नवम स्थानगत हो तो चौरादि उपद्रवयुक्त मार्गमें गमन होवे ॥ ७ ॥ ८ ॥ अनुष्टु० - इत्थंगुरौदूरयात्रानृपसंगस्ततोगुणः ॥ कुजेन्दपेनष्टब लेस्वजनादूरतोगतिः ॥ ९ ॥ ऐसेही बृहस्पति अधिकार रहित नवम स्थान में हो तो दूरगमन और राजाका संग तथा लाभादि गुण होवें तथा मंगल बलरहित होकर नवम स्थानमें हों तो अपने बन्धुजनोंसे दूर गमन होवे ॥ ९ ॥ ( १५५ ) भाषाटीका समेता | अनुष्टु०-धूनेंथिहा धर्मइंदौ संबलेऽध्वा विदेशजः || वर्षेशोबलवान्पापायुतः केंद्रेधिकारवान् ॥ १० ॥ जो मुन्था सप्तम और चन्द्रमा बलवान होकर नवमस्थानमें हो तो विदेशसंबंधी मार्ग चलना होवे और वर्षेश बलवान् किसी पापसे युक्त न होके केंद्र में हो तो परदेशमें अधिकार मिलनेसे गमन होवे अथवा सेनापति होकर विदेशगमन करे ॥ १० ॥ अनुष्टु० - अधिकारेगतिः संख्येसेनापत्येपिवावदेत् ॥ एवंबुधेकुजे जीवसुतेर्कान्निर्गते पुनः ॥ ११ ॥ पूर्वार्द्ध लोकका अर्थ पूर्वश्लोकके अर्थ में लिखागया है, उत्तरार्द्धका प्रयो- जन यह है कि, बृहस्पतिके तरह बुध वा मंगल केंद्रवत्ति बलवान् अधिकार- - वान् और उदयी तथा बृहस्पति युक्त हो तो जय यश और सुख देनेवाली यात्रा होवे ॥ ११ ॥ अनुष्टु० - परसैन्योपरिगतिर्जयख्यातिसुखावहा || जीवान्नव सगे भौमेशुभायात्रानृणां भवेत् ॥ १२ ॥ इस श्लोकके पूर्वार्द्धका प्रयोजन सम्बन्धवशसे पूर्व ११ वें श्लोकके साथ लिखाहै उत्तरार्द्धसे यह है कि बृहस्पतिसे नवम मंगल बलवान् हो तो मनु- - प्योंकी शुभ यात्रा होवे ॥ १२ ॥ इति श्रीमहीधरकृतायां नीलकंठीभाषाटीकायां नवमभावफलाध्यायः ॥९॥ अथ दशमभावविचारः। अनुष्टु० -सबलेब्द पतौखस्थेराज्यार्थसुखकीर्त्तयः ॥ स्थानांतराप्तिरन्यस्मिन्केन्द्रेगृहसुखाप्तयः ॥ १ ॥ बलवान् वर्षेश दशम स्थानमें हो तो कुलानुमान राज्य तथा धन सुख और कीर्ति मिले जो अन्य केंद्र लग्न चतुर्थ सप्तम में हो तो गृहसम्बन्धी सुख मिले ॥ १ ॥ अनुष्टु० - इत्थंबलीरविर्भूस्थः पूर्वार्जितपदाप्तिकृत् || .एकादशेस्मिन्सख्यंस्यापामात्यगणोत्तमैः ॥ २ ॥ ताजिकनीलकण्ठी । वर्षेश सूर्य बलसहित चतुर्थ स्थानमें हो तो पितृपितामहादिकोंका उपा- जिंत राज्य वा कोई अधिकार मिले, जो ऐसाही सूर्य ग्यारहवाँ हो तो राजाके उत्तम अमात्य ( वजीर ) आदिकोंसे मैत्री होवे ॥ २ ॥ || अनुष्टु० - रविस्थानेंथिहालग्नेखेवाराज्याप्तिसौख्यदा नीचेकः पापसंयुक्तोभूपाधवधंदिशेत् ॥ ३ ॥ जन्मके सूर्य्यस्थित राशिकी सुन्था वर्षके लग्न वा दशम स्थानमें हो तो राज्यप्राति और सुख देती है, और वर्षेश, सूर्य्य नीच राशिका दशम स्थानमें पापयुक्त हो तो राजासे मृत्यु वा बंधन कैद होना कहना ॥ ३ ॥ अनुष्टु ० -- सिंहेरविर्बलीखस्थःस्थानलाभोनृपाश्रयः || स्थानांतराधिकप्राप्तिरिन्दुरारपदेवली ॥ ४ ॥ जन्मका सूर्य्यं सिंहराशिमें हो और वर्ष बलवान होकर दशम स्थानमें - हो तो नवीन स्थानप्राप्ति और राजाका आश्रयमी होवे और जन्मको मंगल स्थित राशिका वर्षमें चन्द्रमा हो तो अन्य स्थान में अधिकारप्राप्ति चा राज्यप्राप्ति होवे ॥ ४ ॥ . अनुष्टु०-खेशलग्नेशवर्षेशेत्थशालोराज्यदायकः || वर्षेशेराजसहमे ऽर्केथशालोमहान्नृपः ॥ ५ ॥ दशमेश लग्नेश और वर्षशका परस्पर इत्यशाल हो तो राज्य देता है और चर्पेश राजसहममे होकर सूपसे इत्थशाली हो तो महाराजा होवे ॥ ५ ॥ अनुष्टु० - शनिस्थानेकुजः पश्यन्मुथहांपापकर्मतः || नृपभीतिवित्तनाशंदद्यादशमगोयदि ॥ ६ ॥ जन्मकी शनिस्थित राशि वर्षका मंगल दशमस्थान में हो और मुन्थाको देखे तो कुकर्मसे राजभीति और धननाश होवे ॥ ६ ॥ अनुष्टु० - ईहशेत्रिनवस्थेस्मिन्दग्धनष्टेऽघसंचयः ॥ मन्दोऽव्दपोऽधिकारीत्रिधर्मंगोधर्मवृद्धिदः ॥ ७ ॥ जन्मकी शन्याक्रांत राशिमें वर्षका मंगल तीसरे वा नवम स्थानमें नष्टबल दग्ध वा अस्तंगत हो तो पुण्यनाशद्वारा पापवृद्धि होवे और

  • भाषाटीकासमेता ।

(१५७ ) वर्षेश शनि अधिकारी होकर तीसरे वा नौवें स्थानमें हो तो पापनाशद्वारा धर्मवृद्धि होवे ॥ ७ ॥ अनुष्टु० - अस्मिन्दग्धेविनष्टेचपापकृद्धर्मनिंदकः ॥ ईदृशीहक्फलंयँगुरावित्थंनयार्थभा ॥ ८ ॥ तथा अधिकारी वर्षेश शनि दग्ध वा नष्ट हो तो इस वर्ष में पाप करने वाला तथा धर्मकी निंदा करनेवाला होवे ऐसा ही वर्षेश सूर्य अधिकारी वर्ष में तीसरे वा नवम स्थान में हो तो ऐसाही फल होताहै, और ऐसेही वर्षेश बृहस्पति अधिकारवान् ३ | ९ स्थानमें नट वा दग्ध हो तो न्यायसे द्रव्यप्राप्ति होती है ॥ ८ ॥ अनुष्टु० -तत्रस्थासुथहा ण्यागमंपापंखलाश्रयात् || सतौखेशेर वौखस्थेवर्षेमुथशिलंयदि ॥ ९ ॥ मुंथा तीसरे नववें स्थानमें पुण्यागम करती है और इन्हीं स्थानों में पापयुक्त मुंथा हो तो पापकी प्राप्ति करती है और जन्मका दशमेश सूर्य्य वर्षमें दशम हो बलवान् भी हो तथा ( मंदगामी ) लग्नेशसे इत्थशाली भी हो तो अपने बलके अनुसार राज्यप्राप्ति करता है ॥ ९ ॥ · अनुष्टु० - ल घेपेनराज्यातिरुक्ता वीर्य्यनुमानतः ॥ धर्मकर्माधिपौदग्धौधर्मराजक्षयावहौ ॥ १० ॥ ·लमेश बलवान् होने में इसके बलानुसार राज्यप्राप्ति होती है और नवमेश एवं दशमेश दग्ध वा पापपीडित हो तो धर्म तथा राज्यको क्षय करते हैं. यहां दशमभाव राज्यसहम कर्मसहम और लग्न तथा इनके स्वामी बलवान् और शुभग्रहों के साथ होनेमें शुभ फल तथा वकदग्धादि निर्बल और पापयुक्त होनेसे अशुभ फल देते हैं यह विचार विशेष है ॥ १० ॥ इतिश्रीमहीधरकृतायां नीलकंठीभाषाटीकायां दशमभावकलाध्यायः ॥ १० ॥ अथ भावविचारः । अनुष्टु० - अब्दपे थेगेलाभो वाणिज्याच् भहग्युते || सथिहेसि ते लाभः पठनलेखनात् ॥ १ ॥ ( १५८ ) ताजिकनीलकण्ठी । वर्षेश बुध धनस्थान में शुभ ग्रहों से युक्त वा दृष्ट हो तो अन्नादि द्रव्यके व्यापारसे धनलाभ होवे जो यही बुध मुंथासहित लममें हो तो पढने लिखनेसे लाभ होवे ॥ १ ॥ अनुष्टु० - अस्मिन्पष्टाष्टांत्यगतेसक्रूरेनचिकर्मकृत् ॥ रेक्षणेनलाभोस्तंगतेनलिखनादितः ॥ २ ॥ a वर्षेश बुध छठे आठवें वा बारहवें स्थानमें पापग्रह सहित हो तो नीच कर्म कराता है, जो इस पर पापग्रह की दृष्टि हो तो श्रम करनेमें भी लाभ न होवे जो यह अस्तंगत हो तो लिखने पढनेमें व्यर्थ श्रम होवै लाभ न होवे ॥ २ ॥ अनुष्टु० - लग्नेन्दपेकरहते लग्नेहानिर्भयंलपात् || अस्मिन्नधिकृते व्यवहारानातयः ॥ ३ ॥ लग्नेश वा वर्षेश पापपीड़ित होकर लशमें हो तो राजासे भय होवे यही. अधिकारी, सप्तम स्थान में हो तो व्यवहारसे धनप्राप्ति होवे ॥ ३ ॥ अनुष्टु० - लग्नायेशेत्थशालेल्याहाभः स्वजनगौरवम् || सर्वेलाभेच वित्ताध्यै सवला निर्बला न तु ॥ ४ ॥ लामेश लग्नेशका इत्यशाल हो तो बडा लाभ होवे, अपने मनुष्योंसे गौरवता भी मिले तथा कोई भी यह ग्यारहवें स्थान में बलवान् हो निर्बल न हों तो धनप्राप्ति करते हैं ॥ ४ ॥ अनुष्टु० - सवीयज्ञः ससुथहोलग्नेर्थसहसे शुभाः ॥ तदाखनितद्रव्यस्यलाभःपापहशानतु ॥ ५ ॥ बलवान् बुध मुंथाके साथ लनमें हो और अर्थसहममें शुभग्रह हो तथा लग्नपर शुभग्रहों की दृष्टि हो तो खान ( धात्वादि भूमि ) संबंधी द्रव्या लाभ होवे लग्न में पापदृष्टि हो तो उक्तलाभ नहीं होगा ॥ ५ ॥ इति श्रीमहीधरकृतायां नीलकंठी भाषाटीकायां लाभभावकलाध्यायः ॥ ११ ॥ अथ व्ययभावविचारः । 10- वसन्तति ० - लग्नाब्दपौहतबलौव्यय पण्कृतिस्यौयाशिगौतदनु सारिफलंविचित्यम् ॥ पटेव्द पे भृमुसुतेथविन द्ववीय्यै हटेखलैःश्रुतह, शाद्विपदर्क्षसंस्थे ॥ १ ॥ भृत्यशतिस्तुरगहाचतुरंत्रिभस्थेन्यस्मिन्नआपाटीकासमेता । पोदमुदितंफलमदनाथे || खस्थेकुजेशशियुतेतुरयादिनाशः कुलत्वमशुभोपहतेव्ययेवा ॥ २ ॥ लग्नेश तथा वर्पेश बलहीन छठे आठवें बारहवें स्थानमें चतुष्पदादि जैसी राशिमें हो उसके सदृश फल देते हैं. जैसे चतुप्पदराशि उक्त स्थानों में हो तो चौपायाका वा उससे नाश होवे यह इस भावका सामान्य विचार है. और विशेष शुक्र नष्ट बल छठे स्थानमें पापग्रहों से क्रूरदृष्टि दृष्ट हो तथा मनुष्यराशिमें हो तो सेवकोंकी हानि होवे तथा ऐसाही शुक्र चतुष्पदराशिमें हो तो हाथी घोडे आदि चौपायोंकी हानि करता है ऐसेही वर्देशके अष्टम द्वादश स्थानगत होने में फल कहना और वर्षेश मंगल चंद्रया सहित दशम स्थानमें हो तो घोडे आदिकोंका नाश करता है तथा मनमें व्याकुलता भी करता, तथा पापपीडित मंगल छठे होनेसे भी यही फल देता है ॥ १ ॥२॥ व ति० - षष्ठेरवौखलहते चतुरंत्रिभस्थेभृत्यैः समंकलिरथा- ष्टमरिष्फगेपि ॥ मंदेब्दपेबलयुतेरिपुरिष्फ संस्थेभूवासनंदु- मजलाशयनिर्मितिश्च ॥ ३ ॥ वर्षेश सूर्य्य स्थानमें पापपीडित और चतुष्पदराशि में हो तो अपने नौकरोंके साथ कलह होवे तथा आठवाँ और बारहवाँ होनेमें भी यही फल होता है. और वर्षेश शनि बलयुक्त छठा वा बारहवाँ हो तो त्याग करीहुई भूमिमें नवीन वसती बनानेसे आजीवन होवे तथा वृक्षारोपण, जल- स्थान, कप, तलाव, धारा आदिकोंका निर्माण होवे ॥ ३ ॥ उपजा ० - स्वर्शोच्चगेकर्माणिसूर्य नैरुज्यमर्थाधिगमश्चजीवे ॥ सूर्येनृपाद्वाहुबलात्कुजेर्थोबुधेभिषग्ज्योतिषकाव्यशिल्पैः ॥ ४ ॥ 9 ( १५९ ) स्वाठ्या- वषश शनि अपनी राशि १० | ११ का वा उच्च ७ का दशमस्थान में हो तो शरीर नीरोग रहै तथा धनागम भी होवे जो ऐसाही बृहस्पति वर्षेश अपनी राशि ९ । १२ वा उच्च ४ का दशम हो तो यही फल देता है तथा वर्षेश सूर्य्य स्वराशि ५ वाउच्च १ का दशम हो तो राजासे धन मिले तथा वर्पेश मंगल स्वराशि १ । ८ वा उच्च १० का दशम हो तो अपने बाहुबलसे धनागम ( १६० ) ताजिकनीलकण्ठी | होवे, तथा वर्षेश बुध स्वराशि ३ | ६ उच्चका दशम हो तो वैद्यक ज्योतिष और शिल्प ( कारीगरी ) से लाभ हो ॥ ४ ॥ अनु· · - मंदे दपेगतब लेनैराश्यं दौस्स्थ्यमादिशेत् || सूर्येन्देशेशशिस्थानेम॑देब्दजनु॒पोहि॑ते ॥ ५ ॥ वर्षेश शनि निर्बल पापाक्रांत हो तो नैराश्य ( प्राप्तिका ) नाश होवे तथा एकजगह स्थिति न होवे जो वर्षेश सूर्य्य हो और जन्मके चन्द्रमाकी राशिका वर्ष में शनि हो तथा जन्मकाल वर्षकालमें पापात्रांत निर्बल शनि हो तो संपूर्ण शुभ कर्मों में विकलता ( असिद्धि ) होवे . और ऐसाही शनि वक्र वा अस्तंगत हो तो उक्तफलही होता है ॥ ५ ॥ अनुष्ट ० - सर्वकर्मसुवैकल्यंवक्रेस्तेचतथापुनः ॥ कर्मकर्मेशसह मनाथाः शनियुतेक्षिताः ॥ ६ ॥ इस श्लोक पूर्वार्द्धका अर्थ पूर्व ५ श्लोकोंमें लिखाहै उत्तरार्द्धका यह है. दशमस्थान तथा दशमेश और कर्मेश और कर्म सहमेश शनिसे युक्त वा दृष्ट हो तो ( कर्मवैकल्प ) कार्यहानि व्यर्थपरिश्रम होवे ॥ ६ ॥ अनुष्टु० - षडष्टव्ययगेब्देशे कर्मेशेचबलोज्झिते || सूतावन्देचनशुभंतत्राब्देमृतिपेतथा ॥ || 1 वर्षश छठा आठवाँ वा बारहवाँ होवे तथा जन्म और वर्षका दशम भावश निर्बल हो वर्षका अष्टमेशभी ६ | ८ | १२ स्थानमें हो तो इस वर्ष में शुभ फल नहीं होगा ॥ ७ ॥ अनुष्ट ० - यत्रभावेशुभफलोदुष्टोवाजन्मनिग्रहः ॥ वर्षेतद्भावगस्तादृक्तत्फलंयच्छतिध्रुवम् ॥ ८ ॥ जन्ममें जो ग्रह जिस भाव में शुभ वा अशुभ देनेवाला है वर्षमेंभी वह ग्रह उसी स्थान में हो तो निश्चय वही फल विशेषतासे देता है ॥ ८ ॥ इंद्रव॰ – येजन्मनिस्युःसबलाविवीर्यावर्षेसुखप्राक्चरमेत्वनिष्टम् दद्युर्विलोमं विपरीततायांतुल्यंफलंस्यादुभयत्रसाम्ये ॥ ९ ॥ जो ग्रह जन्ममें बलवान् और वर्षमें निर्बल है वह वर्षके पूर्वार्ध में शुभफल O ॥ · भाषाटीकासमेता । (१६१ ) और उत्तराईमें अशुभ फल देते हैं जो जन्ममें निर्बल और वर्ष में बलवान हैं वे वर्षके पूर्वार्द्ध में अशुभ उत्तरार्द्ध में शुभ फल देते हैं दोनों कालमें (तुल्प ) बली हों तो समान फल देते हैं ॥ ९ ॥ इति श्रीमही • व्ययभावफलाध्यायः ॥ १२ ॥ शाई:-श्रीगर्गान्वयभूषणं गणितविञ्चितामणिस्तत्सुतोनंतोऽनं तमतिर्व्यधात्खलमतध्वस्त्यैज पद्धतिम् ॥ तत्सूनुःखलुनी- लकंठवि धोविद्विचि वानु यासन्तुष्टचैन्यदधाद्विवेचनमिदं 'भावे सत्ताजिकात् ॥ १० ॥ इति ताजिकनीलकंठयां द्वादशभावविचारः | यह श्लोक अध्यायका है इसका अर्थ पूर्ववतही है इतना विशेष है कि अच्छे ताजिकग्रन्थोंके मतसे भावफलविवेचना इस अध्यायमें रक्खी है ॥ १०॥ इति श्रीमहीधरकृतायां नीलकंठीभाषाटीकायां भावफलप्रकरणं पंचमम् ॥५॥ अथ वर्षदशाक्रमविचारः । उपजा० - स्पष्टान्सल न्खचरान्विधायराशीन्विनात्यल्पलवंतुपूर्वम् || निवेश्यतस्मादधिकाधिकांशक्रमादयंस्यात्तुदशाक्रमोन्दे ॥ १ ॥ पात्यांशी दशाका क्रम कहते हैं. प्रथम लमसहित सभी ग्रहोंको स्पष्ट करके राशियोंको छोड देना अंशादि दशाक्रमसे स्थापन करना उसका क्रम यह है कि सबसे अल्प अंशवाला यह पाहले और उससे अधिकांश उससे आगे फिर अधिक अधिक अंशवाले का क्रमसे आगे आगे स्थापन करते जाना, अन्त में सबसे अधिकांश ग्रह आवेगा,यह दशाका स्थापनक्रम है उदाहरण चक्र है ॥ १ ॥ ४ स्पष्टाः र चं मं बु | बृ शु श / ल ३९ ८४३४ ९२८ १९ २१९१६२१ ८ २३६१६५७ १८२३४४५७ ५७ १९७३१८२८/३७ २६३ २ १५७३२४/७५८१३७ ७ ३१३०/५४/३६/३२५२/० ० ११ अंशादयः राचं मं| वुं बृ शु श ल ९/२८१९/२१९/१६२१ ८ ३६ १६५७ १८२३४४५७ ५७ ५७३१, ८ / २८३७/२६ ३/२ ( १६२) बु. वाजिकनीलकण्ठी । हीनांशादिक्रमः वृ. सू.. शु. ८ ९ १६ २ २८ २. मै.. | श.' १९.१९२१ ५७ ५७ ८ ३ २३ ३६ ४४ २६ चं २८ १६ ० ० · उ॰जा॰ - न्यूनविशोध्याधिकतःक्रमेणांशांद्यंविशुद्धांशकशेषकैक्यम् ॥ सर्वाधिकांशोन्मितमेवतत्स्यादनेनवर्षस्यमितिस्तुभाज्या ॥ २ ॥ सभीसे न्यूनांश जो ग्रह है वह उससे अधिकांशमें घटावना, नः वह अधिकांशभी उससे अधिकांशमें घटावना, ऐसेही सभी घटायके अंत्यमें जो ग्रह सभीसे अधिकांश है उसके तुल्य सब हीनांशोंका योग होगा, तब ठीक समझना. उदाहरण- सबसे हीनांश बुध २ | १८ |२८ अंशादि है यह यथा - स्थित रहा, इसके आगे इससे अधिकांश लग्न ८ | ५७ । २ है इसमें बुध घटाया तो ६ । ३८ । ३४ यह लग्नके पात्यांश हुये, अब इसके आगे सूर्य्य ९ । ३६ । ५७ है इसमें लयांश ८॥५७ १२ घटाया, शेष ९ । ३९ । ५५ यह सूर्य्य हुआ, ऐसेही सभीको पात्यांश करके अत्यमें सर्वाधिकांश चन्द्रमा २८ | १६ | ३१ है इतनाही सभीका योगभी है, यह निश्वयार्थ पात्यांशाः युक्ति है-हीनांश करके भी चन्द्रमा सर्वाधिकांशही. बु. ल. सू. शु. बृ. म. श. चं रहता है और पात्यांश करके सब अंशादिकोंके २७ २ ० १ ६ योगसे सर्वाधिकांशही होता है, अंत्यके सर्वाधिक ३४/५५२९/११/३२५५२८ शसे वर्षकी मिति सौरकी ३६० वा सावनकी ३६५।१५। ३१। ३० से भाग देना जो लाभ हो वह वर्षमें लब्धध्रुवांक C ३८ ३९७ ३९३३५९ १९ हागा ॥ २ ॥ उपजा० -शुद्धांशकाँस्तान्गुणयेदनेनलब्धध्रुवांकेन भवेदशायाः ॥ मांनंदिनाघंखलुतद्ब्रहस्य फलान्यथासांनिगदेत्तशास्त्रात् ॥ ३ ॥ उक्त प्रकारके लब्ध ध्रुवांकसे प्रत्येक ग्रहके पात्यांशादि गोमूत्रिका क्रमसे वा हीनजाति पिंड करके गुणना, दिन घटी पलात्मक ३ अंक. · भाषाटीकासमेता । (१६३) रखना यह उसी ग्रहके नीचे स्थापन करना दिनादि दशा होती है ऐसेही सभी ग्रहों की दशा दिनादि निश्चय करके प्रथमवाले ग्रहके दिनादि सूर्य्यके अंशा- दिकोंमें जोडकर आगेके ग्रह यथाक्रम जोड़ने और उसके नीचे लिखते जाना अन्त्यमें अगले वर्षका सूर्य्य स्पष्ट ठीक मिल जायगा अथवा वर्षप्रवे- शके दिनघटीपलाओंमें प्रथम दशामान जोडके क्रमसे सभी जोड़ने अंत्यमें अगले वर्षके दिन घटी पला ठीक मिलेगीं, ऐसेही सावनक्रम तिथ्यादि जोडनेसे अग्रिम वर्ष के तिथ्यादि मिलते हैं, उदाहरण - सब पात्यांशोंका जोड़ २८ | १६ | ३१ यही अंत्यवाले चंद्रमाके अंशादि हैं, अब इससे वर्षकी मितीमें भाग लेनाहै. प्रथम योगको एकजाति करना, जैसे २८ को ६० से गुना १६८० कला १६ जोडदी १६९६ हुवा, इसे भी ६० से गुना १०१७ ६० हुवा विकला ३१ जोडदिया १०१७९१ यह सवर्णित भाजक हुवा, इसीप्रकार भाज्य ३६० को भी दोवार ६० से गुनाकर १२९६००० यह सवर्णित भाज्य हुवा, इसमें उक्त भाजकसे लव १२ मिला, फिर शेष ७४५०८ को ६० से गुनाकर भाजकसे भाग लिया ४ ३ मिला, फिर ऐसाही · करनेसे ५५ मिला यह ११ | ४३ | ५५ ध्रुवांक हुवा इससे सभी ग्रहों के अंशादि गोमूत्रिका क्रमसे प्रत्येक गुणके प्रत्येक के दिनादि दशा होती है, उपरांत प्रथम दशावालेके दिनादि वर्षप्रवेश समय के सूर्य्य स्पष्टमें जोडने; फिर उसमें • ★ • उसके आगेवाली दशा जोडना ऐसे क्रमसे सभोंको जोड़कर अंत्यमें अगले वर्ष प्रवेशसमयका सूर्य स्पष्ट मिलेगा, अथवा प्रथम दशा वालेके दिनादि को वर्पप्रवेशसमयके गत दिन पैट वा प्रविष्टा और घटी पला जोड़के फिर उक्तक्रमसे सभको जोड़ना, अंत्यमें अगले वर्ष प्रवेशका दिन घटी पला आवेंगे. उदाहरण - - वर्षप्रवेश सर्म्य स्पष्ट ३ | ९ । ३६ | ५७ इसी समय में बुधकी दशा प्रारंभ हुई, बुधके पूर्वक्रमसे दिन २९ घटी २२ पला ६ हैं, सूर्य्य स्पष्ट में जोडकर ४ । ८ । ५९ । ३ इतने सूर्य्यस्पष्ट पर्यत बुधकी दशा पहुँची, उपरांत दूसरे लग्नकी दशा प्रवेश हुई, विशेष उदाहरणार्थ पाकदिनादि और सूर्यस्पष्ट चक्रमें लिखेहैं, ऐसे संक्रांतिमान के दिनादि जोड़नेसे संक्रांतिक्रम दिनादि मिलते हैं ॥ ३ ॥ १६४) ताजिकनीलकण्ठी ।. ग्रह बु ल सू शु वृ / मं श च | योग २९८३ ९९०३३ ७२५८० ३६० दशापाक दिन २२४४ १९४२४६६२६३१ ० घटी ६२८३४१७४३४४/४६२२ ० पला सू सू सू सू सू सू सू सू सू | सूर्यः स्पष्ट १३ ४७ ७१०११११० ३ ८ २ १२/१२१६२३१९ ९ ३६९९४३ ३४५३२३८ ५ ३६ राश्यादि ९७३/३१५२२५४९३५५७ · उपजा० -शद्धांशसाम्येवलिनोदशाद्यावलस्यसाम्येल्पगतेस्तपूर्वा || साम्येविलग्नस्यखगेनचिंत्या वलादिकालमपतेर्विचित्या ॥ ४ ॥ दशाक्रमहीनांश प्रथम उससे अधिक उसके आगे लिखना कहाहै, यदि अंशादि दो आदियोंके तुल्य ही हों तो उन्मेंसे जो अधिक बलीहै वह प्रथम दशेश होगा, यहां 'शुद्धांशसाम्ये' यह पाठ अनुचितहै किंतु 'हीनांशसाम्ये' यह पाठ उचित है; जब बलभी समान हो तो मन्द गतिवाला प्रथम शीघ्र गतिवा- ला उपरांत लिखना, यह और लग्नके अंशादि साम्य होनेपर लग्नेशसे बलादि- कका विचार करके जिसकी प्रथम हो उसकी दशा प्रथम लिखनी, यही क्रम है || ४ || अन्तदशाके लिये ग्रन्थान्तरका श्लोक है कि, "शुद्धां- शयोगेन भजेत्स्वकीयदशादिनायं स्वलवैर्निहन्यात् || शुद्धांशकांशानिजतः क्रमेण चांतर्दशाथो विदशापि चैव ॥ १ ॥” अर्थात् जिस ग्रहकी अन्तर्दशा करनी है उसके शुद्धांशको पहिले उसी के शुद्धांरासे गुणना फिर जिन २ की अन्तर्दशा लानी हैं उन्हउन्हके शुद्धांश से गुणना तथा सर्वाधिकांशसे भाग लेना लब्धभाजक जात्यनुसार अन्तरदशा- मान होता है अथवा ( प्रकारांतर ) उसके मासादिसे जिसकी दशामें अन्त.. देशा करनी हो उसके मासादि गुन देने और हीनांशयोग जो सर्वाधिकाश है उससे भागदेना, लब्धिदिनादि अन्तर्दशा होती है, ऐसेही प्रत्येक ग्रहमें सभी की . भाषाटीकासमेता । (१६५) अंतर्दशा होती है उदाहरण-लनकी दशादिनादि ८३ | ४४ | २८ इसमें सबहीकी अंतर्दशा करनी है प्रथम बुध है इसके दिनादि २९ । २२ । ६ सभी ग्रहों के दशाका योग दिनादि ३६० | ०1० है तो गोमंत्रिका क्रम करके बुधसे लग्न गुनदिया २५०९ | २० | १३ हुआ इसमें ३६० से भाग दिया तो ६ । ५८ | १३ दिनादि लग्नदशामें बुधकी अंतर्दशा हुई ऐसेही और ग्रहों की भी अंतर्दृशा लेनी सबका योग जिसकी अंतर्दशाहै उसके दिनादि पर ठीक मिले तो सत्य जानना, मासप्रवेशमेंभी दशाका यही क्रमहै, जैसे " पात्यांशयोगेन भजेद्रतैष्यमासांतर॑स्याद्वणकोत्थितेन ॥ पात्यां शकाः संगुणितादशाः स्युरुक्तकमान्मासफलेदशानाम् ॥ १ ॥ ” मासमिति - ३० ग्रहं पात्यांशों से गुनाकर पात्यांश योगसे भाग लेना प्रत्येक ग्रह पात्यां- शसे ऐसेही रीतिसे प्रत्येककी दशा होती है. गौरीमतसे प्रथम दशेशके लिये मासप्रवेशदिननक्षत्र में जो ग्रह दशेश आवै कृतिका उत्तरा फाल्गुनी उत्तरा- • पाढसे आ० चं० कु० रा० जी० श० बु० के० शु० ये तीन आवृत्तिसे हैं. यही प्रथम दशाधीश होगा इन सबके दिनादिमान यह है ऐसेही दिन चं मं रा बृ श बु के शु १॥ २॥ १॥॥ ४॥ ७४ ४॥ ४। १॥ ५ प्रवेशमें दिननक्षत्रसे जानना, और जैसे जातककी मुख्यदशा दशहैं ऐसेही - वर्षकीभी पात्यांश १ तासीर २ भावतासीर ३ स्थलभावतासीर ४ काल- होरादशा ५ ह्रद्दादशा ६ नैसर्गिकदशा ७ तनुभावदशा ८ मुद्दादशा ९ बल-

राममतींदशा १० दश दशा हैं. यहां ग्रन्थभूयस्त्वभयसे ग्रंथकर्त्ताने मुख्य

पांत्यांशीही स्थित करीहैं तथापि सर्व साधारणमें जैसे जातककी महादशा ऐसे वर्ष में भी उसी छायासे मुद्दादशा प्रमाण प्रचलित और फलमें अनुभव करी है, इसलिये इस दशाका क्रम लिखताहूं. “ जन्मर्क्षसंख्यासहिता गताब्दा 'हगूनितानंदहतावशेषाः ॥ आ. चं. कु. रा. जी. श. बु. के. शु. पूर्वा ग्रहा दंशास्वामिन इत्थुमब्दे ॥ १ ॥” जन्मनक्षत्रमें गतवर्ष जोडके दो घटायदेना शेष ९ से भाग देकर जो शेष रहैं वह आ. चं. कु. रादि क्रमसे दशेश जानना.. (१६६) ताजिकनीलकण्ठी । 0 जैसे जन्मनक्षत्र रोहिणी ४ गतवर्ष ८ जोडके १२ हुये दो घटाये ३० रहे ९ से भाग देकर १ शेष रहा तो सूर्यकी दशा प्रथम हुई २ शेपमें चंद्रमा ३ में मंगल ? में राहु ५ में बृहस्पति ६ में शनि ७ में बुध ८ में केतु ९ में शुक्रकी दशा होती है उपरांत ग्रहोंके जो जातकोत दशावर्षं सू. ६ चं. १० मं. ७ राहु. १८ बृ. १६ श. १९ बु. १७ के. ७ शु. २० है इन्है तीनसे गुनाकर वर्षके दिन होतेहैं. जैसे सूर्य्यके १८ चंद्रमाके ३० मंगल २१ रा. ५४ वृ. ४८श. ५७ बु. ५१ के. २१ शु. ६० दिन होते हैं. अब इसकी अन्तर्दशा के लिये सुगम रीति है कि “वेदा ४ नागाः ८ शराः ५ सप्त ७ दिग् १० रसां ६ ९ शरा ५रसाः ६ ॥ यादीनां च गुणकास्तैनिघ्नास्वदशामितिः॥१॥पष्टचाप्तांतर्दशास्तस्यजायतेऽति- सुद्दादशाक्रमः । श ति सू 150 to to d. कृ रो उ चं उ श्र रा बृ मृ आ पु स्वा श सं ইট ny toto चि उ स्वा ३ ३ ३ ३० २१ ५४ २॥ १॥४॥ ५ ९ पू ज्ये ४ ३ ४८ 37 30 al In or to? S बु ३ श्ले ज्ये रे आ ३ १८ १॥ ३ ॥ परिस्फुटा || यस्यवर्षेभवेत्तस्य प्रथमांतर्दशा भवेत् ॥ २ ॥ अन्यास्तदग्रिमस्था- नाज्जायतेंतर्दशाअपि ॥ ३ ॥” इन क्षेपकोंसे प्रत्येक ग्रहके दशादिन गुननेसे प्रत्येककी अंतर्दशा होतीहै | जैसे गु० सूर्यके दिन १८ से गुने ७२ साठसे भाग दिया १ । १२ यह सूर्य्यकी दशा में सूर्य्यका अंतर हुवा उपरांत चंद्रमाका गुणक ८ से सू० १८ गुना १४४ हुवा ६० से भाग दिया तो २१२४यह • सूर्य्यमें चंद्रमांकी अंतर्दशा दिनादि हुई ऐसेही सभी ग्रहों को जानना प्रकटताको चक्रमें लिखेहैं ॥ ४ ॥ w by म

  1. F5

३ मृ शु ग्रहाः पू नक्षत्र पू नक्षत्र अ भ sto mo D ३ ३ २१ ६० हिनयो३० ४|| ४१ १॥ ५ योग ३० ९॥ ८॥ ३|| | १० | योग ६० नक्षत्र आर्द्रादि क्रमः चंभौ १८ ३० २१ १८ ४८ ४ ८ to v सू चं भौ १।१२१/१२४१०१।४५ भौ रा ११/३० |३|३० रा tortomom 2109 2 रा वृ न्चं भौ १२।२४ २३० २।२७ ९/० श बृ ३१३०५/२४ २ ६९ १२३ ७ श बृ श ५० २१६ रा श बु ब्बु के ११४ ४१३० के ३० ३० ३४ ४३० ग्र के शु बु ८/६ शु ११४५५२४ आ २१४२१३०- २१६ | ३३६ आ चं के शु १११३० ३१० ११२४७७१२ भाषाटीकासमेता । अंतर्दशाक्रमः । बृ 6 24 के ४०

  1. 5

१७१ २२८ २७९ ३०० 160 न्वं ६।२४ बु ५१ २१ के महाः योग ५ गुणक श बु के शु ग्रहः ८/० ५/४२ ७१३९१/४५ गुणक ६।१८ श बु के ४|४८ ८३३४|१५|२१६ | ४११ बु के ७/१२ ४|१५| ५/६ (१।२४ शु आ न्चं कळgtavitkr austosits 109 शु| आ न्वं भौ रा व (२११४८/२२० २१४८ ४३० ५१३६ ९/३१ | ५६ झु रा रा भौ ४४५ ५/५७/३/३० बृ भौ रा बृ ४1० |६|३० ८३० | २६ ३६० ६ शु आ ४१४८३१४८३१४८ ११४५ शु आ चं भौ ४|४८ ३१४८/६४८ ११४५ भौ आ न्वं ३।१२ ६२४५१५२।२७।१०।० श ३९ न्वं ८/० भौ ७/० बृ ६।० ९० (१६७) ५/० ० . 0 ० ० 0 ० ० 3. अथ दशाफलानि । अनु० -- हेममुक्ताफलद्रव्यलाभमारोग्यमुत्तमम् ॥ कुरुतेस्वामिसम्मानंदशालग्नस्यशोभना ॥ ५ ॥ लग्नकी उत्तम दशाका फल – सुवर्ण, मोती, द्रव्य, इनका लाभ, उत्तम आरोग्य और स्वामीसे सन्मान देती है ॥ ५ ॥ लाभंदिष्टेनवित्तस्यमानहीनस्यसेवनम् ॥ मनसोविकृति र्याद्दशाल स्यमध्यमां ॥ ६ ॥ लनकी ध्यम दशा का फल ऐसा है कि लनकी मध्यम दशा दिष्टेन (भा (१६८) ताजिकनीलकण्ठी | ग्यसे ) द्रव्यका लाभ मानहीनकी सेवा मनका और विकार करती है "दिष्टं दैवं भागधेयमित्यमरः” ॥६॥ विदेशगमन केशबुद्धिनाशंकव्ययम् ॥ मानहानिकरीत्येवंक लग्नदशाफलम् ॥ ७ ॥ कष्टालनदशाका फल-विदेशमें जाना क्लेश बुद्धिका नाश युद्ध व्यय और मानकी हानि कष्टालग्नदशा करती है यह कष्टालग्नदशाका फल है ॥ ७॥ रल दशामध्या सौख्यं स्वल्पंधनव्ययम् || अंगपीडांत्व ष्टिंचकुरुतेमृत्युविग्रहम् ॥ ८ ॥ क्रूर लग्नकी दशा मध्यम रहती है. वह स्वल्प सौख्य धनका व्यय अंगमें पीडा कृशता मृत्यु और झगडा ये करती है ॥ ८ ॥ उपजा० - दशावेः पूर्णबलस्यलाभं गजाश्वहेमांबररत्नपूर्णम् ॥ मानोदयभूमिपतेर्ददाति यशश्चदेवद्विजपूजनादेः ॥ ९ ॥ अब ग्रहदशाका फल कहते हैं- पूर्णवली सूपकी दशा हो तो हाथी घोडे सुवर्ण रत्नादिसे पूर्ण लाभ होवे तथा राजासे मानोदय और देवता ब्रा- ह्मण पूजनादिसे यश देता है ॥ ९ ॥ उपजा ० - दशारवेर्मध्यबलस्य सर्वमिदंफलंमध्यममेवदत्ते ॥ ग्रामाधिकारव्यवसाय धैर्यैः कुलानुमानाच्चसुखादिलाभः ॥ १० ॥ जो सूयं मध्यबली हो तो अपनी दशा में पूर्वोक्त फल मध्यम और कुला- नुमान यानादियोंका अधिकार व्यवसाय धीरतासे सुखादिलाभ देता है ॥ १० ॥ उपजा० - दशारवेरल्पबलस्यपुंसांददातिदुःखंस्त्र जनैर्विवादात् ॥ मतिभ्रमंपित्तरुजंस्वतेजोविनाशनंघर्षणमप्यरिभ्यः ॥ ११ ॥ अल्पबली सूर्ण्य अपनी दशामें अनेक प्रकार दुःख तथा अपने मनुष्यों के साथ विवाद बुद्धिभ्रम पित्तरोग धनहानि और शत्रुसे पराभव ( हार ) भी देताहै ॥ ११ ॥ उपजा ० - दशारवेर्नष्टबलस्यपुंसांनृपाद्रिपोर्वाभयमर्थनाशम् || • स्त्रीपुत्र मित्रादिजनैर्विवादं करोतिबुद्धिभ्रममामयंच ॥ १२ ॥ भाषाटीकासमेता । ( १६९) नष्टबली सूर्य्य अपनी दशामें पुरुषोंको राजासे भय धननाश स्त्रीपुत्रमि- बोंसे धनसंबंधी विवाद बुद्धिभ्रम और रोगभी करता है ॥ १२ ॥ उपजा० - लग्नाद्रविःषत्रिदशायसंस्थोनिद्योपिदत्तेशुभमर्द्धमेव ॥ मध्यत्वसूनःशुभतांचमध्योयातीत्थमत्यंत शुभःशुभः स्यात् ॥ १३ ॥ जो सूर्य्य लग्नसे६।३।१०।११ स्थान में हो तो निर्बलभी हो तो भी आधा फल शुभ देताही आर हीनवली होके पूर्वोक्त स्थानोंपर हो तो मध्यत्वका फल देता है और मध्यबली हो के होय तो पूर्णबलका फल देता है तथा उत्तमबली होके होय तो अत्यंत शुभ फल देता है ॥ १३ ॥ उपजा० - इंदोर्दशापूर्ण बलस्यदत्तेशक्कांब रस्रङ्मणिमौक्तिकाद्यम् || स्त्रीसंगमराज्यसुखंचभूमिलाभंयशः कांतिबलाभिवृद्धिम् ॥ १४ ॥ पूर्णबली चंद्रमाके दशामें श्वेत वस्त्र माला मणि मोती आदिकोंका लाभ होवे और स्त्रीसंगमसे तथा राज्यसे सुख भूमिलाभ और यश कांति बल बढै १४ इंदोर्दशामध्यबलस्य सर्वमिदंफलंमध्यममेवदत्ते ॥ वाणिज्यमित्रांबरगेहसौख्यं धर्मे मतिंकर्षणतोन्नलाभम् ॥ १५ ॥ मध्यवली चंद्रमा अपनी दशामें पूर्वोक्त संपूर्ण फल मध्यम देता है तथा व्या- पारसे लाभ मित्र वस्त्र घरका सुख धर्मकी वृद्धि और कृषिकार्य में लाभ देताहै १५ इंदोर्दशास्वल्पबलस्यदत्तेकफामयंकांतिविनाशमाहुः ॥ मित्रादिवैरंजन नंकुमार्थ्याधर्मार्थनाशंसुखमल्पमत्र ॥ १६ ॥ अल्पबली चंद्रमाकी दशा कफरोग तथा शरीरकी कांतिका नाश मित्रादि कोंसे वैर कन्याका जन्म धर्म धनका नाश और सुख अल्प देतीहै ॥ १६ ॥ . इंदोर्दशा नष्टबलस्यलोकापवाद भीतिधनधर्मनाशम् || शीतामयंस्त्रीसुतमित्रवैरंदौःस्थ्यंचदत्तेविरसानमुक्तिम् ॥ १७ ॥ नष्टबली चंद्रमाकी दशा शीतरोग पुत्रमित्रोंसे वैर और शरीरका अस्वास्थ्य स्वादरहित अन्नके भोजन झूठा कलंक और धन तथा धर्मका नाश करती है १७ षष्टमांत्येतरराशिसंस्थोनिंद्योपिदत्तेर्द्धसुखंदशायाम् ॥ मध्यत्वमूनःशुभंतांचमध्यो यातीत्थ मिंदुःशुभगःशुभः स्यात् ॥ १८ ॥ जो चंद्रमा६।८।१२स्थानोंमें न हो तो हीनबलभी आधा शुभ फल देता (१७०) ताजिकनीलकण्ठी | है, हीन बल उक्त भिन्न स्थानोंपर हो तो मध्यबलका फल देता है और मध्य- बली हो तो शुभ फल देता है और उत्तमबली हो तो अत्यंत शुभफल देता है १८ दशापतिः पूर्णबलोमहीजः सेनापतित्वंतनुतेनराणाम् ॥ जयंरणेविद्रुमहेमरत्नवस्त्रादिलामंप्रियसाहसत्वम् ॥ १९॥ दशापति मंगल पूर्ण बली हो तो मनुष्योंको सेनापतित्व, बहुतोंका अग्र गण्य करताहै तथा संग्राममें जय मूँगा सुवर्ण रत्न वस्त्रोंका लाभ और साह - सभी देता है ॥ १९ ॥ दशापतिर्मध्यबलोमहीजः कुलानुमानेनधनंददाति || गजाधिकारोप्यथतत्परत्वं तेजस्वितांकांति बलाभिवृद्धिम् ॥ २० ॥ दशापति मध्यबली मंगल कुलानुमान धन देताहै तथा हाथियोंका अधिकार और हाथी की सवारीमें प्रसन्न रहै तथा तेजस्वित्व कांति और बलकी वृद्धि देताहै ॥ २० ॥ उपजा ० - दशापतिः स्वल्पवलोमही जोददातिपित्तोष्णरुजंशरीरे || रिपोर्भयंबंधनमास्यतोसृक्त्रवचस्ववशत् ॥ २१ ॥ दशापति मंगल अल्पबली हो तो अपनी दशामें पित्त और गरमीके विकारसे शरीर में रोग देता है तथा शत्रुभय यद्वा बंधन तथा मुखसे रुधिर- स्राव और अपने मनुष्यों के साथ निरंतर वैर होवे ॥ २१ ॥ उपजा ० - दशाप तिर्नष्टवलोमही जो विवादमुग्रंजनयेद्रांवा || चौराद्भर्यरक्तरुजंज्वरंचविपत्तिमरूपस्वहतिंचरखर्जूम् ॥ २२ दशापति मंगल नष्टबल हो तो उत्कट कलह अथवा रणही करदेता है तथा चोरसे भय रुधिरसंबंधि रोग, विपत्ति, थोडी धनहानि और खुजली का रोग करताहै ॥ २२ ॥ -- अनुष्टु० - त्रिपष्टायगतोभौमोनष्टवीर्य्यः भादः || मध्योहीनः शुभोमध्यः शुभोत्यंतंशुभावहः ॥ २३ ॥ मंगल दशापति ३/६/११ स्थानमें नटबली हो तो शुभफल आधा देता है, हीनबली हो तो मध्यबलीका फल देता है और मध्यबली होके शुभ फल देता है और उत्तम बली हो तो अत्यंत शुभ फल देता है और भावोंका उक्तही जानना ॥ २३ ॥ भाषाटीकासमेता । (१७१) उपजा० - दशापतिः पूर्णबलोबुधश्चेद्यशोभिवृद्धिगणितात ' शिल्पात || तनोतिसेवांसफलांनृपादेर्दूत्यंच वैदूष्यगुणोदयंच ॥ २४ ॥ दशापति बुध पूर्णबली हो तो गणित एवं शिल्पविद्यासे यश बढे राजादि- कोंकी सेवा सफल होवे दूतत्व मिले और निर्दोष गुणोंका उदय होवे ॥ २४॥ उपजा० - दशापतिर्मध्यबलोबुधश्चेद्वरोस्सुहृद्धयोलिपिकाव्यशिल्पैः ॥ धनाप्तिदोथोसुतमित्रबंधुसमागमान्मध्यममेवसौख्यम् ॥ २५ ॥ दशापति बुध अल्पबली हो तो गुरुजन मित्रजन एवं लिखने पढने और शिल्पविद्यासे धनप्राप्ति होवे, और पुत्र मित्र बंधुजनोंका समागम होवे सुख मध्यम होवे ॥ २५ ॥ - उपजा० - दशापतावल्पबलेवुधेस्यान्मानस्यनाशः स्वजनापवादः ॥ अकार्य्यकोपस्खलनाद्यनिष्टंधनव्ययंरोगभयंचविद्यात् ॥ २६ ॥ दशापति बुध अल्पचली हो तो माननाश अपने जनोंसे झूठा कलंक विना प्रयोजनका कोप अपनी वाणी चकजानेसे बुरा धन खर्च और रोगभय भी जानना ॥ २६ ॥ उपजा० - दशापतौहीनबलेवुधेस्यात्स्व द्विनाशोवधबंधभीतिः ॥ दूरेगतिर्वातकफामयार्त्तिर्निखातवित्तस्य चनापिलाभः ॥ २७ ॥ हीनबली बुधके दशापति होने में अपनी बुद्धिका नाश और बंधन, वा वध, कार्य्यसंबंधी भय, दूरगमन वातकफसंभव रोगसे पीडा होवे और अपना ही स्थापित द्रव्य नहीं मिले ॥ २७ ॥ अनुष्टु० - षडष्टांत्येतरर्क्षस्थोनष्टोज्ञोर्द्धशुभप्रदः ॥ मध्योहीनःशुभोमध्यःशुभोत्यंतसुखावहः ॥ २८ ॥ दशापति बुध ६।८।१२ स्थानोंसे रहित और किसी स्थानमें हो तो नष्टबलीभी आधा शुभ फल देता है, जो षडष्टांत्य भिन्नस्थानों में नष्टबल बुध मध्यबलका फल और मध्यबली शुभ फल देता है, उत्तमबली अत्यंत शुभ- फल देता है ६|८|१२ स्थानों में उत्तमबली भी अशुभ हीनबली अत्यंत अ- शुभ फल देता है ॥ २८ ॥ उपजा० - गुरोर्दशापूर्णबलस्यदत्तेमानोदयंराजसुहृद्वरुभ्यः ॥ ताजिकनीलकण्ठी । कांत्यर्थलाभोपचयंसुखानिराज्येसुत तेंरि रोगनाशम् ॥ २९ ॥ पूर्णबली बृहस्पतिकी दशा राजा मित्र और गुरुजनोंसे मान देती है तथा कांति बढती है धनलाभ बहुत राज्यका सुख पुत्रप्राप्ति शत्रु और रोगका नाश होता है २९ ॥ उपजा० - गुरोर्दशांमध्यबलस्यधम्मैम तिसखित्वं नृपमंत्रिवर्गैः ॥ तनोतिमानार्थसुखाभिलाभंसिद्धिंसदुत्साह बलातिरेकाम् ॥ ३० ॥ मध्यबली बृहस्पतिकी दशा में राजासे मित्रता पुत्र स्त्री सुख और मित्र व धर्मके लाभ होते हैं ॥ ३० ॥ (१७२) दशागुरोरल्पबलस्यदत्तेरोगंदारिद्रत्वमथारिभीतिम् || कर्णामयंधर्मधनप्रणाशंवैराग्यमर्थच णंच किंचित् ॥ ३१ ॥ अल्पबली बृहस्पतिकी, दशा रोग दारेद्रत्व और शत्रुभय देती है तथा कानोंमें रोग धर्म तथा धनका नाश होताहै परंच चित्तमें वैराग्य और थोडा धनागम और स्वल्प गुणभी देती है ॥ ३१ ॥ उपजा० - दशागुरोर्नष्टबलस्य सांदद तिदुःखानि रुजंकफार्तिम् || कलत्र त्रस्वजनादिमीतिधर्मार्थनाशंतनपीडनंच ॥ ३२ ॥ अल्पबली बृहस्पतिकी दशा पुरुषोंको अनेक दुःख एवं रोग कफवि- कारसे कष्ट और स्त्री पुत्र एवं अपने मनुष्यादिकोंको भय धर्म और धनका नाश तथा शरीरपीडा देती है ॥ ३२ ॥ अनुष्टु० - पडष्टरिष्फेतरगोगुरुर्नियोर्द्धसत्फलः ॥ मध्योहीनःशुभामध्यः शुभोत्यंतशुभावहः ॥ ३३ ॥ दशापति बृहस्पति ६।८।१२ भावोंसे अन्य स्थानों में हो तो नष्टबली भी शुभफल आधा देता है और हीनबली मध्यफल और मध्यवली शुभ फल देता है और पूर्णबली अत्यंत शुभफल देता है ६ |८|१२ स्थानों में उत्तमबली भी शुभफल पूर्ण नहीं देता ॥ ३३ ॥ उपजी०-दशाभृगोः पूर्णबलस्यसौख्यंत्रग्गंध वेश्मांबरकामिनीभ्यः ॥ हयादिलाभः सुतकीर्तितोपानरुज्यगांधर्वरतिः पदाप्तिः ॥ ३४ ॥ 'पर्णचली शुक्रकी दशा, माला सुगंधि वस्तु गृह व बीजनोंसे सुख देभाषाटीकासमेता । (१७३) तीहै तथा घोडा आदि वाहनलाभ पुत्रसुख कीर्ति नीरोगता गायनादि आनंद और पदलाभ देती है ॥ ३४ ॥ उपजा० - दशाभृगोर्मध्यबलस्यदत्तेवाणिज्यतोर्थागमनंकृषेश्च ॥ • मिष्टा पानांबरभोगलाभंमित्राणिश्चयोषित्सुत सौख्यलाभम् ॥ ३५॥ मध्यबली शुक्रकी दशामें व्यापारसे तथा कृषिकर्मसे धनलाभ और मीठा अन्न सवारी वस्त्रादि भोगलाभ और मित्र पुत्र स्त्रीसे सुख मिले ॥ ३५॥ उपजा० - दशाभृगोरल्पबलस्यदत्ते मतिभ्रमंज्ञानयशोर्थनाशम् ॥ कदन्नभोज्यंव्यसनामयात्तिस्त्रीपक्ष वैरंकलिमप्यरिभ्यः ॥ ३६ ॥ अल्पबली शुक्रकी दशा बुद्धिभ्रम ज्ञान यश और धनका नाश करती है तथा जुंवार बाजरा आदिक अन्न भोजन व्यसनवृद्धि रोगपीडा स्त्रीपक्षसे वैर शत्रुसे कलह होताहै ॥ ३६॥ • ॥ उपजा॰—दशाभृगोर्नष्टबलस्यदत्तेविदेशयानंस्वजनैर्विरोधम् पुत्रार्थ भार्यांविपदो रुजश्चमतिभ्रमोपिव्यसनंमहच्च ॥ ३७ ॥ नष्टबली शुक्रकी दशा विदेशगमन अपने मनुष्योंसे विरोध पुत्र धन स्त्री आदिकी विपत्ति और रोग बुद्धिभ्रम तथा बडा व्यसन देतीहै ॥ ३७ ॥ अनुष्टु० - षडष्टरिष्फेतरगोभृगुर्निधोईसत्फलः ॥ मध्योहीनःशुभोमध्यःशुभोत्यंतशुभावहः ॥ ३८ ॥ दशापति शुक्र ६ । ८ । १२ से अन्य स्थानों में नष्टबलीभी शुभ फल आधा देताही है और हीनबली मध्य फल मध्यबली शुभ फल देता है, उत्तम- बली अत्यंत शुभ फल देताहै६ | ८ | १२ स्थानों में शुमभी अशुभ देता है ॥ ३८॥ उपजा० - दशाशनेः पूर्णबलस्यदत्ते नवी नवें श्मांबरभूमिसौख्यम् ॥ आरामतोयाश्रयनिर्मितिश्चम्ले सिंगान्नृपतेनाप्तिः ॥ ३९ ॥ पूर्णबली शनिकी दशा नये घर वस्त्र भूमिका सुख देती है वा जलस्थान निर्माण और म्लेच्छसे तथा राजासे धनप्राप्ति होती है ॥ ३९ ॥ उपजा ० दशाशने मध्यबलस्यदत्ते खरोष्टपाखंडजतोधनाप्तिम् ॥ वृद्धांगनासंग मदुर्गरक्षाधिकार चिंता विरसान्नभोगः ॥ ४० ॥ मध्यबली शनिकी दशा गंधा ऊंट एवं उढदआदि अन्न और (पाखंडज) (१७४) ताजिकनीलकण्ठी | मिथ्या धर्मसंचारसे धनप्राप्ति होवे तथा वृद्धावीका संगम होवे किलाआदि की रक्षा अधिकारकी चिंता होवे रसरहित अन्न भोजनको मिले ॥ ४० ॥ उपजा०–दशाशनेःस्वल्पबलस्यपुंसांतनोतिदुःखरिपुतस्करेभ्यः ॥ दारिद्यमात्मीयजना पवादरोगंचशीतानिलकोपमुग्रम् ।। ४१ ॥ अल्पवली शनिकी दशा पुरुषोंको शत्रु और चौरोंसे दुःख देती है तथा दरिद्रता अपने मनुष्यसे झूठा कलंक और शीत तथा वातके कोपसे उम्र- -रोग उत्पन्न होवे ॥ ४१ ॥ उपजा ० - दशाशनेर्नष्टबलस्यपुंसामनेकधा दुर्व्यसनानिंदत्ते || •- स्त्रीपत्र मित्रस्वजनैविरोधरोगादिवृद्धिंमरणेनतुल्याम् ॥ ४२ ॥ 'नष्टबली शनिकी दशा पुरुषोंको अनेक व्यसन देती है तथा पुत्रमित्रादि अपने मनुष्योंसे विरोध रोगादिकोंकी वृद्धि मरणतुल्य करती है ॥ ४२ ॥ अनुष्ट ० - त्रिष लाभोपगतोमंदोनिंद्योर्द्धसत्फलः ॥ 0- मध्योहीनःशुभोमध्यःशुभोत्यंतशुभावहः ॥ ४३ || शनि ३ । ६।११ स्थानोंमें नष्टबली भी आधा शुभफल देताही है तथा होनबली मध्य मध्यवली शुभ फल देता है उत्तमबली अत्यंतही शुभ फल देता है ॥ ४३ ॥ उपेन्द्रव० - दशातनोः स्वामिबलेनतुल्यंफलंददातीत्यपरोविशेषः ॥ 1 चरेशुभामध्यफलाघमा चद्विसूर्त्तिभेस्याद्विपरीताम् ॥ १४ ॥ लग्नकी दशा अपने स्वामिबल के सदृश फल देती है. जैसे उदित स्वगृहा- दिगत लग्नेश हो तो उसका उत्तमबली दशोक्तफल और अस्त नीच होनेमें होनबलोक्त स्वदशा फल देता है इसमें यह विशेष है कि चरलग्न में प्रथम द्रेष्का- ण हों तो दशा शुभ दूसरे द्रेष्काणमें मध्यबलोक्त और तीशरे द्रेष्काणमें हीनबंलोक्त दशा फलं देतीहै द्विस्वभाव राशि में चरसे विपरीत अर्थात् प्रथम द्रेष्काणमें अधम, द्वितीयमें मध्यम तृतीयमें उत्तम बलीका फल देती है ॥४४॥ उपें०व० - अनिष्टमिष्टंच समंस्थिर क्षैकमाहकाणैः फलमुक्तमाद्यैः ॥ सत्स्वामियोगेक्षणतः सुखंस्यात्पापेक्षणात्कष्टफलंचवाच्यम् ॥४५॥ स्थिरराशिमें प्रथम द्रेष्काण हो तो हीनबलीका दूसरा हो तो उत्तमवली भाषाटीकांसमेता । (१७५) . का तीसरां हो तो मध्यमबलीका फल देता है. इसप्रकार पूर्वाचायने लग्नदशा का फल द्रेष्काणवशसे कहाहै तथा लग्नपर लग्नेशकी दृष्टि हो वा लगने लग्नेश हो तो सु और पापयोग पापदृष्टिसे कटफलभी कहना ॥ ४५ ॥ अथांतर्दशाप्रकारः । अ० - दशामानंसमामानंप्रकल्प्योक्तेनवर्त्मना || अंतर्दशाः साधनीयाः प्राक्पात्यांशवशेनतु ॥ ४६ ॥ अंतदशाकी रीति कहते हैं कि, पहिले जिस विधि से पात्यांशी दशा कही वही इसकीभी है और सावनवर्षमितिका जहां काम है वहां दशेशकी दशा दिनादि लेने यही विशेष है, जैसे पहिले हीनांशवशसे पात्यांश लियेहैं वहां पात्यांश- योगसे सौर वा सावन दिनादि दशांमिति भाजनेसे मिले हैं, वही अंतर्दशामेंभी ध्रुवक जानना उसीसे सभी पात्यांश गुनाकर प्रत्येकेकी अंतर्दशा मिलती है. शुक्रान्तदशादिनोंदाहरणम् । शु. वृ. मं. शं. चं ल. सू.या. अ. २२७ १६२० २१२९० ५१५१४७२४,१७,२४ १८४७४२ १६३७३०३९ १४९३० १७१७ १८२९५० ५७४१३३४८२४०० सौरसावनाहानि ७ ८ ४ ८ ८ ९९ १० १० १२४१२१४/२०१११८९१२ ३५४४५३३५८ १५३९५८४५ ५२१५८ २९ ९ २४३३ ४ २२ २०१८४७३७३४१५४८३६०० उदाहरण - शुक्रदशादिनादि ९० । ४२ । १७ सेवर्ण करके पहिलोंका साधा सवर्णित पात्यांश योगसे भाग लिया तो लब्धिं ३ | १२ | २८ ध्रुवक हुवा इससे प्रत्येकके पात्यांश गुनाकरके प्रत्येककी अंतर्दशा होती है उपरांत सूर्य्य स्पष्ट वा संक्रांतिदिनोंसे पूर्ववत् जोडकरना ॥ ४६ ॥ अनुष्टु० - आदावंतर्दशापाकपतेस्तत्क्रमतोपराः ॥ a सौरा: प्रवेशार्का: भेक्षणान्वयान्मैत्र्यातत्फलंपरिकल्पयेत् ॥ ४७ ॥ ( १७६). ताजिकनीलकण्ठी । अंतर्दशा में प्रथम दशापति अर्थात् जिसका अंतर है तदनंतर जिसक्रमसे उक्त दशाका न्यास है वैसेही सभी ग्रह लिखने अंतर्दशा स्वामीकाभी चारप्रकारका बल देखके फल कहना, जैसे अंतर्दशापतिसे शुभग्रहोंकी दृष्टि वा योग हो उसके अनुसार स्थान उच्चनीचास्तोदय में दशेशका फल शुभाशुभ कहना ऐसेही पापयोग दृष्टिसेमी अंतदशाका फल जानना ॥ १७ ॥ अनुष्टु० - चंद्रारजीवाः सौम्येज्यशुको विविधुस्तयाँ || मंदेज्य शुक्राः सूयँ दुभौमाः सौम्येज्यसूजाः ॥४८॥ जीव शुक्रा: सूर्य्यादेः शुभाअं देशाइमाः || अन्येषामशुभाज्ञेया इति वामनभाषितम् ॥ ४९ ॥ सुपंकी दशा में चंद्रमा मंगल बृहस्पति चंद्रमाकीमें बुध बृहस्पति शुक्र, मंगलमें सूर्य्यं चंद्रमा बुधमें शनि बृहस्पति शुक्र बृहस्पतिमें सूर्य चंद्रमा मंगल शुक्रमें बुध बृहस्पति शनि और शनिमें बृहस्पति बुध शुक्रकी अंतर्दशा शुभ फल देती है. यह बामनाचार्य ने कहा है, परंतु ऐसा फल वर्तमान में यथार्थ मिलता नहीं है, शुभाशुभ ग्रहोंका बलावल विचारसे फल यथार्थ मिलता है ॥ ४८ ॥ १९ ॥ इति महीधरकृतायां नीलकंठीमा ० दशाफलाध्यायः ॥१३॥ अथ ग्रहाणां भावफलानि । उपजा ० - सूर्य्यारमंदा स्तनुगाज्वरार्तिधनक्षयंपाप गिंदुरित्थम् ॥ शुभान्वितःपुष्टतनुश्चसौख्यंजीवज्ञशुका धनराज्यलाभम् ॥ ५० ॥ अब ग्रहोंके भावफल कहते हैं कि सूर्ध्य मंगल शनि प्रत्येक वा सभी लग्नमें हों तो ज्यर संबंधी पीडा धनहानि करते हैं. पापयुक्त चंद्रमाभी लग्नमें यही फल देता है जो पूर्ण और शुभयुक्त हो तो सुख देता है पर अल्पमें अल्प अधि कमें अधिक ऐसा बुद्धिसे समझ लेना तथा बृहस्पति बुध शुक्र लग्न में धन और कुलानुमान राज्यसुख देते हैं, बुध लमका केवल वा सशुभ हो तो हर्ष देता है ॥ ५० ॥ O ० उपजा० - चंद्रज्ञ जीवास्फुजितोधनस्थाधनागमंराज्य सुखचदधुः ॥ पापाघनस्थाधनहानिदाः स्युनृपाद्भयंकार्य्यविघातमार्किः ॥ ५१ ॥ धनस्थान में चंद्रमा बुध बृहस्पति और शुक्र धनागम तथा राज्यसुख भाषाटीका समेतां । (१७७) · देते हैं पूर्ण चन्द्रमा शुभयुक्तभी यही फल देता है और पापग्रहयुक्त चन्द्रमा धनस्थान में धनहानि देता है विशेषतः शमि तो राजासे भय और कार्य- नाशमी करता है ॥ ५१ ॥. वसन्तति • दुश्चिक्यगाः खलखगा धनधर्मराज्यलाभप्रदा ब. लयुताः क्षितिलाभदाः स्युः ॥ सौम्याः सुखार्थव लाभयशो- विलासलाभाय हर्षमतुलं किल तत्र चन्द्रः ॥ ५२ ॥ तृतीयभावमें पापग्रह धन धर्म और राज्यसुख देते हैं बलवान् हों तो भूमिलाभभी करते हैं शुभग्रह सुख धनलाभ कार्म्यसिद्धि यश विलासादि सौख्य करते हैं और चन्द्रमा अनुपम हर्ष देता है पूर्ण क्षीणका यहां उपचय होनेसे अपेक्षा नहीं है ॥ ५२ ॥ 0- वसन्तति • - चन्द्रः सुखेख लयुतोव्यसनंरुजंचपुष्टश्शुभेनसहितः सुखमातनोति ॥ सौम्यः सुखंविविधमत्रखलाः सुखार्थनाशंरुजं व्यसनमप्यतुलंभयं वा ॥ ५३ ॥ चतुर्थभाव में चंद्रमा सुख देता है पापयुक्त हो तो द्यूतादि व्यसन और • रोग करता है शुभयुक्त पूर्ण हो तो सुख देता है और शुभग्रह अनेक प्रकार सुख देते हैं, पापग्रह सुख और धनका नाश तथा रोग व्यसन वा अनुपम भय देतेहैं ॥ ५३ ॥ स्थोद्ध० - त्रवित्तसुखसंचयंशुभाः पुत्रगा भृ सुतोतिहर्षदः ॥ पुत्रवित्तधनबुद्धिहारकास्तस्करामयकलिप्रदाः खलाः ॥ ५४ ॥ पंचम भाव में शुभग्रह पूर्ण चन्द्रमा पुत्र धन और सुख बढ़ाते हैं शुक्र तो . अतिही हर्ष देता है पापग्रह पुत्र मित्र धन तथा बुद्धिहरण और चौरसंबंधि व्यसन रोग कलह करते हैं ॥ ५४ ॥ शालिनी-पष्टेपापावित्तला भंसुखाप्तिंभौमोत्यंतहर्षदः शत्रुनाशम् || सौम्या भीतिवित्तनाशंकलिंचचंद्रोरोगं पापयुक्तः करोति ॥ ५५ ॥ छठे भावमें पापग्रह धनलाभ सुखप्राप्ति करते हैं मंगल अतिहर्ष तथा श त्रुनाश करता है शुभग्रह भय धननाश कलह करते हैं पापयुक्त चन्द्रमा रोगो- त्पत्ति करताहै ॥ ५५ ॥ (१७८) ताजिकनीलकण्ठी । थुजंगप्र०-सपापःशशीस मोन्य घेभीतिखलाः स्त्रीविना- शंकलिंभृत्य भीतिम् ॥ शुभाः कुर्वतेवित्तला भंसुखाप्तिय- शोराजमानोदयबंधुसौख्यम् ॥ ५६ ॥ सप्तमभाव में पापयुक्त चन्द्रमा रोग भय तथा पापग्रह स्त्रीहानि कलंह भृत्यसंबंधी भय करते हैं, शुभग्रह धनलाभ सुखलाभ यश राजमान अभ्युदय और बंधुसुख करतेहै ॥ ५६ ॥ O वसन्तति -चंद्रोष्टमेनिधनदुः खलखेटयुक्तः पापैश्चतत्रमृतितु - ल्यफलं च विद्यात् || सौम्याः स्वधातुवशतोरुजमर्थनाशं मानार्यमुथशिलेशुभजेशुभंच ॥ ५७ ॥ अष्टमभाव में पापयुक्त चन्द्रमा मृत्यु पापग्रह मृत्युतुल्य कष्ट फलदेते हैं शुभ- ग्रह अपने उक्त धातुके वशसे रोग तथा धननाश मानहानि करते हैं ॥ ५७ ॥ द्रुतविलंबि• - तपसिसोदर भी पशुपीड़नंखलखगेति, दोरविरत्रचेत् || शुभखगाधनधान्यविवृद्धिदाः खलखगे पिशुभान्य परेजगुः ॥५८॥ नवमभाव में प्रापग्रह भाइयोंको क्लेश तथा पशुसंबंधि पीडा देते हैं परन्तु • सूर्य तो अति हर्षही देता है तथा शुभग्रह धन अन्न वढाते हैं किसी आ चार्यके मृतसे पापग्रह भी शुभ फल देते हैं, यह बलाधीन है ॥ ५८ ॥ द्रुतविलंबित - गगनगोरविजः पशुवित्तहारविकुजौव्यवसायपराक्रमौ ॥ धनसुखानिपरेचधनात्मजाव निपसंगसुखानिवितन्वते ॥ ५९॥ • दशम भाव में शनि पशु धननाश करता है सूर्य मंगल व्यवसाय तथा पराक्रमसे अनेक सुख करते हैं शुभग्रह धन पुत्र और राजसंबंधि सुख करतेहैं ॥ ५९ ॥ वसन्तति • - लाभेधनोपचय सौख्ययशोभिवृद्धिसन्मित्रसंग - पुष्टिकराव सर्वे || कूराबलेनरहिताः सुतवित्तबुद्धिनाशं. शुभास्तुशुभतांस्वफलस्यकुः ॥ ६० ॥ ● ग्यारहवें भावमें सभी ग्रह यशकी वृद्धि भलेमित्रोंका संग शरीरमें बल पुष्टि करते हैं, बलहीन पापग्रह पुत्र धन बुद्धिसंबंधि हानि और शुभग्रह अपने उक्त शुभ फलकी शुभता बढाते हैं ॥ ६०॥ .. भाषाटीकासमेता । निधनानांनृपतस्करादेः ॥ इंद्रव ० - पापाव्ययेनेकरुजविवादंह सौम्याव्य यंस व्यवहारमार्गे कुर्युः शनिर्हर्षविवृद्धिमत्र ॥ ६१ ॥ व्ययभावमें पापग्रह अनेक रोग कलह धनहानि राजा तथा चौरादिसे करते शुभग्रह शुभव्यय या शुभ मार्गमें धनव्यय और शनि हर्षवृद्धि करता है ॥६१॥ शार्दूल० - श्रीगंर्गान्वयभूषणोगणित विञ्चितामणिस्तत्सुतोऽ- नंतोऽनन्तमतिर्व्यधात्खलमतध्वस्त्यैजनुः पद्धतिम् ॥ तत्सूनुः खलुनीलकंठ विबुधोविद्वान वानुज्ञयाभावस्थग्रहपाकदौस्स्थ्य- सुखतायुक्तंफलंसोव्यधात् ॥ ६२ ॥ इति भावफलध्या यस्तृतीयः ॥ ३ ॥ इस श्लोकका अर्थ पूर्ववतही है विशेष इतना है कि दशाका शुभाशुभ फल और ग्रहभावफल इस अध्याय में आचार्यने कहे ॥ ६२ ॥ इति श्रीमहीधरकृतायां नीलकंठी भाषाटीकायां ग्रहभावफलाध्यायः ॥ १४ ॥ अथ मासदिनप्रवेशानयनं तत्फलानि च । अनुष्टु० - मासार्कस्ययदासन्नपंक्त्यर्केणसहांतरम् || कली कृत्यार्कगत्याप्तं दिनाद्येनयुतोनितम् ॥ १ ॥ तत्पंक्तिस्थंवारपूर्वमा सार्केविकहीनके || तद्वाराद्येमासवेशोयुवेशोप्येवमेवहि ॥ २ ॥ 7 करना अब मासप्रवेश दिनप्रवेशकी रीति कहते हैं कि, जन्मकालका तात्कालिक स्पष्ट सूर्य सबही वर्षप्रवेशमें तुल्यही होता है जितने मासका प्रवेश उतनी संख्या में १घटायके वर्षप्रवेशकी राशिमें जोड देना जैसे दूसरे मासप्रवेश में १ तीसरेमें २ इत्यादि जोडके मांसप्रवेशका- लीन सूर्ध्वं स्पष्ट होता है ऐसेही दिन प्रवेश में १ अंश जोडना इस सूर्ध्य स्पष्टके समीपकी स्पष्टावधि पंचांग में देखके उस अवधिमें जो सूर्य स्पष्ट है वह पंक्त्यर्क हुआ. मासप्रवेशका जो सूर्य्य स्पष्ट है वह मासार्क हुआ इन 'दोनोंका अंतर करना उपरांत कला करके गतिसे भाग देना बारादि ३ अंक लेने इस लब्धिको मासार्ककालीन वार घटी पलाओंमें न्यूनाधिक करना. जैसे मासार्कमें पंक्त्यर्क घटाया हो तो अवधिस्थ वारादिमें यह जोडदेना पं- ऋत्यर्कमें मासार्क घटाया हो तो घटाय देना यह मासप्रवेशका बार घटी पला. (१७९) ( १८० ) ताजिकनीलकण्ठी | मिलेंगी ऐसेही दिनप्रवेशभी जानना इसकी युक्ति इसी तंत्र के प्रथमाध्याय तीसरे श्लोककी टीकामेभी लिखीहै, उदाहरण - पूर्वलिखित जन्मकालीन सूर्य्यस्पष्ट ० । १८ । ४२ । ३१ है संवत् १९४३ वैशाख कृष्ण द्वादशी शनिवार इष्टघटी १३ । ५४ वर्षप्रवेश ३८ में भी सूर्य स्पष्ट ० | १८ । ४२ । ३१ मासप्रवेश के लिये इसमें एक जोड़के १ | १८ | ४२ | ३१ मांसप्रवेशका - लीन सूर्य्य स्पष्ट हुआ इसीका नाम मासार्क है, दूसरे महीने ज्येष्टकी कृष्ण- द्वादशीके समीप ज्येष्ठकृष्णषष्ठी सोमवार के दिन पंचांगमें अवधि उदयकाल - की है यह हाल २ । ०।० वारादि जानना इस दिन उदयकालिक सूर्य्य स्पष्ट १ । १० । ३५ । ३ गति ५७ | २७ है यह पंक्त्यर्क हुआ, इनका अन्तर करनाहै मासार्क १ । १८४२ । ३१ अधिक होनेसे इसमें पंतत्यर्क १ | १० | ३५ । ३ घटायके ० १८१७ | २८ रहा इसकी कला ४८७ | २८ हुई. गति ५७। २७ ३५७ को ६० से गुनाकर २७ जोड़- दिये ३४४७ हुये, कला ४८७ को ६० से गुनाकर २८ जोड़ दिये २९२४८ हुये गतिपिंड ३४४७ से कलापिंड २९२४८ में भाग लिया लब्धि ८ दिन हुये शेष १६७२ को ६० से गुनाकर १००३२० भागहार ३४४७ से भाग लिया लाभ २९ घटी हुई शेष ३५७ को ६० से गुनाकर २१४२० भागहारसे भागलिया लाभ ६ यह ८ | २९ । ६ वारादि पंक्त्यर्क कालिक वारादि २।० । ० में न्यूनाधिक करना है यहां मासार्क में पंक्त्यर्क घटाया गया इस लिये ८ । २९ । ६ वारको ७ से शेषकरके १ | २९ । ६ पंक्ति • वारादिमें जोड़ दिया तो मासप्रवेशका वारादि हुआ ३ | २९ । ६ज्येष्ठकृष्ण चतुर्दशीको मंगलवारहै इस दिन २९ घटी ६ पलामें द्वितीय मासप्रवेश हुआ ऐसेही दिनप्रवेशभी जानना इसकी कल्पित रीति उदाहरण सहित इसी तंत्रके प्रथमाध्याय तीसरे श्लोककी टीकामें लिखीहै दोनों प्रकार सिद्धहैं. विशेष बोधके लिये जगह २ लिखाहै ॥ १ ॥ २ ॥ अनुष्ट :- मासप्रवेशकालेपिग्रहान्भावांसाधयेत ॥ तत्रमासतनोर्नाथोसन्थेशोजन्मपस्तथा ॥ ३ ॥ त्रिराशिपोदिननिशोरखींदुभपतिस्तथा ॥ अन्दप्रवेशलग्नेश एषांवीयधिकस्तनुम् ॥ ४ ॥ भाषाटीकासमेता । अनु० - पश्यन्मासपतिर्ज्ञेयस्ततोवाच्यं भा भम् || अपरेमासल शंमासांधिपतिमूचिरे ॥ ५ ॥ ( १८१ ) जैसे वर्ष प्रवेशमें वर्षेशके लिये पंचाधिकारी हैं तैसेही मासप्रवेशमें मा- सेशके लिये पडधिकारी ये हैं कि प्रथम मासप्रवेशके तत्कालीन ग्रह स्पष्ट करके प्रथम मासलमेश १ उससे उपरांत माससंख्या ढाई २।३० अंशसे गुना- कर वर्षकी मुंथा स्पष्ट में योग करनेसे मासकी मुंथा होती है इसका स्वामी २ • जन्मराशिस्वामी ३ त्रिराशीश “त्रिराशिपाः सूर्य्यसितार्किशुकाः” इत्यादिसे पूर्वोत्तही ४ दिनमें सूर्य्य राशिस्वामी रात्रिमें चंद्रराशिस्वामी ५ वर्षप्रवे- श लमस्वामी ६ ये षडधिकारी होते हैं इन छहोंमेंसे जो बलाधिक और लग्नको देखता हो वह मासाधिपति होता है. कोई कोई आचार्य मासप्र- वेश लग्नेशकोही मासेश मानते हैं उनके मतसे पडधिकारियोंकाभी प्रयोज- न नहीं है स्वामीका निर्णय पूर्ववतही है ॥ ३ ॥ ४ ॥ ५ ॥ . O अनुष्टु -- दिनेशं दिनलग्नेशं तथाप्रोचुर्विचक्षणाः ॥ मासघस्त्रेशयोर्वाच्यं फलं वर्षेशवदुधैः ॥ ६ ॥ " दिनेश दिनप्रवेशके लग्नेशकोही बुद्धिमान् कहते हैं. फल इसका वर्षे शके समान वलावल विचारसे शुभाशुभ बुद्धिमानोंने कहना ॥ ६ ॥ शार्दूलवि० - लग्नांशाधिपतिर्विलग्नपनवांशशेनमैत्रीदृशादृष्टो. व सहितः शशीच यदितौ मैत्रीदृशालोकते || तस्मिन्मासितनौ- सुखं बहुविधं नैरुज्यमित्थंफलंतावद्यावाद मेस्युरित्थमथता संचार्य्यवाच्यंफलम् ॥ ७ ॥ मासप्रवेश लम्रके नवांशका स्वामी लग्नेशसे वा उसके स्थित नवांश- स्वामीसे मित्रदृष्टि हो वा दोनों एक साथ हों तथा चंद्रमा उन दोनोंको मिनदृष्टि से देखे तो उस महीने में मासप्रवेशवालेके शरीरमें बहुत प्रकारके सुख और नीरोगता जबलौं यह मासप्रवेश है तबलौं रहे ऐसेही गणितव- शसे ग्रहोंका बलाबल दृष्टियोग विचारके फल कहना ॥ ७ ॥ ( १८२) ताजिकनीलकण्ठी । शार्दूलवि० - तौचेच्छन्नुहशा मिथञ्चशशिना दृष्टौ मनोदुःखदौ रोगाधिक्यकरौच कश्चिदनयोनीचेस्तगोवायदि ॥ कष्टात्सौं- ख्यमिहद्वयं यदिएननचास्तगंस्यान्मृतिः सूत्यन्दोद्भव रेष्टतो स्मृतिसमंस्यादन्यथेत्यूचिरे ॥ ८ ॥ जो वही लांशेश और लग्नेश्वरांशेश परस्पर शत्रुदृष्टि से देखते होंवा चंद्र- माभी शत्रुदृष्टि से देखे तो मानसी दुःख देते हैं जो लग्नेश और लग्नेश्वरांशेश मेंसे कोई नीच वा अस्तंगत हो तो वडा कष्ट भोगकर सुख पावें जो लग्नांश- नाथ लग्नेश्वरांशनाथ नीच एवं अस्तंगत हों और चंद्रमा शत्रुदृष्टि से देखे तो मृत्यु देते हैं, परन्तु इसी महीनेमें जन्म तथा वर्षकाभी अरिष्ट हो तो मृत्यु होतीहै अन्यथा मृत्युतुल्यं कष्ट होता है जो जन्मका अरिजिस महीने में हो वर्षका न हो तो मासपूर्वार्द्ध में मृत्युतुल्य कष्ट और वर्षका अरिष्ट हो जन्मका उस महीनेमें न हो तो मासोतरार्द्धमें उक्त अरिष्ट मिलता है यह कोई आचार्य कहते हैं ॥ ८ ॥ शार्दूलवि० - भावांशाधिपतिः स्वभानपनवशिशेनमैत्रीदृशा दृष्टोवासहितः शशीचयदितौ मैत्रीदृशालोकते ॥ तद्भावो- त्थसुखंविलोममथतद्वयत्यासतः कीर्तितं नीचास्तादिफलं चलनवदिदेविद्वद्भिरूह्यंधिया ॥ ९ ॥ ऐसेही संपूर्ण भावोंका विचार है कि जिस भावका नवांशस्वामी तथा भावनाथनवांशस्वामी परस्पर मित्रदृष्टि से देखें तथा चंद्रमाभी इन्हें मित्र- दृष्टि से देखे तो इस महीने में उस भावसंबंधि शुभफल मिलता है जो उक्त ग्रह परस्पर शत्रुदृष्टि से देखें अथवा युक्त हों तथा चंद्रमाभी इन्हें शत्रुदृष्टि से देखे तो तद्भानसंबंधि कष्टफल अवश्य मिलता है ऐसेही नीच वा अस्तंगत एक वा दोनो हों तोभी कष्टफल मिलता है विद्वानोंने लग्नके सदृश सबही भावों में ऐसा विचार करना ॥ ९ ॥ इंद्रव० -लग्गेशमासशसमेश्वरांशनाथायदंशाधिपमित्रदृष्टया || दृष्टायुतावाशशिनाचतद्वद्भावोत्थसौख्यायनचेदनि म् ॥१०॥ लग्नेश मासेरा वर्षेश और भाषाटीकासमेता ।' ( १८३ ) लग्नांशनाथ ये चारो वा इनमेंसे कोई जिस भावनवांशस्वामीसे मित्रदृष्टि से देखे वा युक्त हों तथा चंद्रमाभी मित्र- दृष्टि से देखे वा युक्त हो तो उस भावसंबंधी सुख देता है. ऐसे योगमें जो जन्मकाल योग उससे उस भाव संबंधी अनिष्ट फल हो तो यहां मध्यम फल जानना. जो जो जन्मसेभी शुभफली हों तो यहां अधिक शुभ जानना ऐसेही निर्बल और शत्रुदृष्टिसें अनिष्ट फल होता है फल तारतम्यसे कहना १० अनुष्टु० - निर्बलाव्ययषष्ठाष्टपतयःशुभदायकाः || अन्येसवीर्य्याः शुभदाव्यत्ययेव्यत्ययःस्मृतः ॥ ११ ॥ बारहवें छठे आठवें भावके स्वामी तथा इनके नवांशस्वामी निर्बल और भावोंके स्वामी सबल हों तो शुभ फल देते हैं और ६/८/१२ भावोंके स्वामी सबल और भावोंके अबल कष्टफल देते हैं ॥ ११ ॥ उपजा ०-लगेशमासेशसमेशमंथाधिपाः षडष्टोपगताःसपापाः ॥ दृष्टाः खलः शत्रुशात्रमा सेव्याध्यादिविद्विड्भय दुःखदाः स्युः ॥ १२॥ लग्नेश मासेश वर्षेश और मुंथेश ६ | ८ | १२ भावों में हों पापयुक्तभी हों और पापग्रह शत्रुदृष्टि से देखते हों तो इस मासमें रोगादि क्लेश तथा शत्रु घातादि दुःख देते हैं ॥ १२ ॥ इंद्रव० - केंद्र त्रिकोणायगतास्तुलनमासान्दपावीर्य्ययुतानराणाम् || नैरुज्यशत्रुक्षयराज्यलाभमानोदयादद्भुतकीर्त्तिदाः स्युः ॥ १३ ॥ लग्नेश मासेश और वर्षेश वलवान् हों तथा केंद्र त्रिकोण और ग्यारहवें हों तो नीरोगवा शत्रुक्षय कुलानुमान राज्यलाभ मान उदय अद्भुत कीर्ति देतेहैं ॥ १३ ॥ अनुष्ट ० - इंथिहालग्रयोराशियबलीतत्रहद्दपाः ।। दशेशाः स्वांशतुल्याहैरित्युक्त कैश्चिदागमात् ॥ १४ ॥ यह सामान्य मासफल कहे हैं इसमें भी सूक्ष्म दशा और अंतर्दशासे जान- ना पात्यांशी दशाकी विधि पूर्ववतही है, जहां सौर वा सावन दिन३६० का (१८४) ताजिकनीलकण्ठी । कार्य है तहां मासदिन ३० से कार्य करना अन्यत् उसी रीतिसे मास प्रवेशकी दशा होती है,इसका प्रकट विवरण दशांविधिमें प्रथम लिखा है. तैसेही अंतर्दशा गिननी चाहिये इनके अनुसार उच्च नीचादि बलाबल विवेकसे फल हना दशाभी अनेक प्रकारकी हैं, जैसे प्रात्यांशी १ मुद्दा २ देवकीर्तिमत हृद्दादशा ३ अनेक भेदसहित तासीरदशा ४ निसर्गदशा ५ कालहोरा ६ लग्नादि राश्यादि. ग्रहदशा ७ भोग्यांशदशा ८ महादेवमतदशा ९ बलभद्रमताख्या १० गौरी- मताख्या ११ राममताख्या १२इन विशेष विस्तार ताजिक मुक्तावलीमें है. यहां ग्रंथभ्यस्त्व भयसे केवल प्रधान अंशदशाही आचार्ग्यने कही है. मास- दशादिनादिज्ञानार्थ उपाय यह है कि मुंथा और मासलग्नमें से जो बलवान हो उस राशिमें जो भौमादि हृद्दास्वामी हैं वे अपने अपने अंशतुल्य दिन पाते हैं, जैसे वर्षलग्र स्पष्ट देखना 'मेपेंगतर्का •' इत्यादिसे जो हृद्देश हैं वह प्रथम दशास्वामी तदनंतर क्रमसे होंगे, जैसे राशिक ३० अंश हैं इन्हें १२ से गुनाकर ३६० होते हैं ये सौरदशा दिन हैं तदवही जितने ह्रद्दांशहों उन्हें १२ से गुनाकर भौमादिकों के दशादिनादि होते हैं प्रथम दशेशके भुक्तांश और ओग्यांश पृथक् १२ से गुनाकर भुक्त और योग्य दशादिनादि होते हैं भुक्तदिनादि दशाके अंत्यमें आवेंगे यह देवकीर्तिमतसे हृद्दादशा प्रकार है इसी रीतिसे दिनप्रवेशमेंभी करना पात्यांश दशा उसीके उक्तकारसे है ॥ १४ " अनुष्टु० - रवींद्रोरसमावेशान्नैतद्युक्तंपरेजः ॥ दशांतरदशाब्देशफलमाब्दंत युज्यते ॥ १५ ॥ जो किसीके मतसे सूपं चंद्रसा और लग्नकी छोड़ दीहै यह प्रमाण नहीं है दशांतरदशाओंका फल वर्षोकही है तो यह भी दशामें होनेही चाहिये इसलिये पात्यांश मुद्दही मुख्य है ॥ १५ ॥ इति श्रीमहीधरकृतायां नीलकंठीभाषाटीकायां मासप्रकरणम् ॥१५॥ अनुष्टु० - दिनप्रवेशकालेपिग्रहान्भावांश्चसाधयेत् ॥ चंद्रलमांशकाभ्यांतुफलंतञवदेदुधः ॥ १६ ॥ दिनप्रवेश के लिये वर्षके तात्कालिक सूर्य स्पष्टमें जितना संख्याक 1 भाषाटीकासमेता । ( १८५ ) दिनका दिनप्रवेश हो उसमें 1 न्यून करके जोडदेना, कला विकला वही रहेंगी यही दिनप्रवेशका सूर्य स्पष्ट होगा इष्टकाल निकालनेकी युक्ति पूर्वो- क्त ही है. उपरांत इस यके ग्रहस्पष्ट भावस्पष्ट करके चंद्रमा और उनके नवांशवशसे मासप्रवेशतुल्य फल पंडितोंने कहना ॥ १६ ॥ अनुष्टु० - चतुष्कमिथिहेशादिदिनमासाब्दलग्नपाः ।। एषांबलीतनुंपश्यन्दिनेशः परिकीर्तितः ॥ १७ ॥ मुंथेश १ त्रिराशीश २ जन्मलग्नेश ३ दिनका सूर्य्यराशीश रात्रिका चंद्रराशीश ४ दिनलग्नश ५ मासलग्नेश ६ वर्षलग्नेश ७ ये दिनप्रवेशमें अधिकारी हैं इनमेंसे लग्न देखनेवाला दिनेश होता है विचारके पूर्वोतही फल कहना ॥ १७ ॥ उपजा ० - त्रिकोणकेन्द्राय गताशुभाश्चेचंद्रात्तनोर्वा बलिनःखलास्तु || षत्र्यायगास्तत्रदिनेसुखानिविलासमानार्थयशोयुतानि ॥ १८ ॥ दिनप्रवेशके फल कहते हैं कि, शुभ ग्रह बलवान् लय वा चंद्रमासे केंद्र १ | ४|७|१० वा त्रिकोण ५१९ में हों तथा पापग्रह ३ | ६ | ११ स्थानों में हों तो इस दिनमें विलास सन्मान धन और यशसहित सुख होये १८ ॥ उपजा ० - पडष्टरिः ष्फोपगतादिनाब्दमार्सेथिहेशाःखलखेटयुक्ताः || गद्प्रदामानयशोहराश्च केंद्रात्रकोणायगताः सुखात्यै ॥ १९ ॥ दिनेश वर्षेश मासेश और मुंथेश पापयुक्त ६/८ | १२ स्थानों में हों तो इस दिन रोग देते हैं मान तथा यशकी हानि करते हैं जो केंद्र त्रिकोण और ग्यारहवें हों तो सुख देते हैं ॥ १९ ॥ इंद्रव ·- लग्नांशकः सौम्यरवगैः समेतोदृष्टोपिवामित्रदृशेंदुनापि ॥ नैरुज्यराज्यादिशरीरपुष्टिर्मासोक्तिवद्दुःखमतोन्यथात्वे ॥२०॥ लग्नका अंश वा उसका स्वामी शुभग्रहोंसे युक्त वा दृष्टहों तथा चंद्रमा उसे मित्रदृष्टि से देखे तो नीरोगता राजप्रबंधादि सुख शरीरकी पुष्टि होवे जो वे निर्बल बा६।८।१२ स्थानों में हों तो मासोक्त तुल्य दुःख होवे ऐसेही सभी भावोंके अंशोंसे प्रत्येक भावोक्त शुभाशुभ कहना ॥ २० ॥ ( ३८६ ) ताजिकनीलकण्ठी | ॥ इंद्रव० - यदंशकः सोम्ययुतेक्षितोवास्त्रिग्वेक्षणाद्भावजसौख्यकृत्सः दुःखप्रदः प्रोक्तवदन्यथात्वेभावेसर्वेष्वियमेवरीतिः ॥ २१ ॥ यहां नवांशविचार सभी भावोंमें तुल्य है जिस भाव में जो भाव स्पटका नवांश है वह शुभग्रह वा मित्रग्रहों से युक्त वा दृष्ट तथा चंद्रमासे भी मित्र- दृष्टि से देखाजावे तो उक्त भावसंबंधि सुख होवे यदि वह पापग्रहों से युक्त वा दृष्ट तथा चंद्रमासे शत्रुदृष्टि करके देखा जावे तो उक्तभावसंबंधि क्लेश देता है यही रीति सभी भावोंकी है ॥ २१ ॥ अनु० - षष्टांशकः सौम्ययुतो रोगदः पापयुक्छुभः ॥ व्ययांश शुभयुम्दृष्टे सद्ययः पापतस्त्वसत् ॥ २२ ॥ किसी भावों में विचार औरतरहमी है जैसे छठे भावका नवांश शुभ- ग्रहों से युक्त वा दृष्ट हो तो रोग करता है पापग्रहों से युक्त वा दृष्ट हो तो शुभ अर्थात् नीरोगता देता है ऐसेही बारहवें भावका अंश शुभ युक्त दृष्ट हो तो ( सद्व्ययः ) देवता ब्राह्मण आदिके कार्ग्य में व्यय और पापयुक्त दृष्टसे चोरी दंड आदिसे व्यय होवे ॥ २२ ॥ अनुष्टु० - जायांशः सौम्ययुग्दृष्टः स्वस्त्रीसौख्य विलासकृत् ॥ पाप हैः कलिर्दुःखं पापांतःस्थे मृतिं वदेत् ॥ २३ ॥ सप्तम भावांश शुभग्रहों से युक्त वा दृष्ट हो तो अपनी स्वीसे विलासादि सौख्य करता है पापग्रहसे युक्त वा दृष्ट हो तो स्त्रियोंसे कलह, स्त्रीसंबंधी दुःख होवे. जो वह नवांश पापोंके बीच हो तो स्त्रीमरण होवे, जो पाप ग्रह सप्तम भावमें होवें तो अन्यत्वीसंगम होवे शुभग्रहों से बहुत स्त्रीसौख्य होवे ॥ २३ ॥ अनुष्टु० - शुभमध्यस्थितेत्र्यंशे बहुलंकामिनीसुखम् || स्वस्या रतिर्गुर। वन्यखगेन्यासुरतिं वदेत् ॥ २४ ॥ सप्तम भावांश जो शुभग्रहों के बीच हो तो कामिनीसुख बहुत होवे. वृहस्पति से युक्त वा दृष्ट हो तो अपनी स्वीसे, अन्य शुभग्रहोंसे हो तो अन्यस्त्रियों से रति होवे ॥ २४ ॥ · भाषाटीकासमेता । अनुष्टु० - मृत्यंशे मृत्युगे सौम्यैर्युग्दृष्टेमरणरणे ॥ मिश्रमिश्रंखलैः सौख्यंवर्षलग्नानुसारतः ॥ २५ ॥ अष्टमभाव वा अष्टमभावनवांशक में जो शुभ ग्रह हों वा देखें तो संग्राम में मरण देते हैं जो शुभग्रह तथा पापग्रहोंसेभी युक्त वा दृष्ट हों तो युद्धमें जय वा नीरोगता होवे जो केवल पापग्रह अष्टमभाव तथा अष्टमभावनवांशमें हों तो युद्धभी न होबे मरणभी न होबे अर्थात् नैरुज्य रहे ॥ २५ ॥ अनुष्ट ० - द्विदशेखलाहानिव्ययेसौम्बाः शुभंव्ययम् || कर्त्तरीपापजारोगंकरोतिशुभजाशुभम् ॥ २६ ॥ दूसरे बारहवें स्थान में पापग्रह हानि और धन स्थानमें शुभ ग्रह धनलाभ बारहवें शुभव्यय करते हैं यदि लग्न में पापग्रहोंकी कर्त्तरी हो तो रोगादि दुःख देती है शुभ ग्रहोंकी कर्त्तरी हो तो शुभ फल देतीहै ॥ २६ ॥ अनुष्टु० - लग्नेष्टमेवाक्षीणेंदुर्मृत्युदः पापढग्युतः ॥ रोगोवाग्रहणवापिरिपुतःशस्त्रभीरपि ॥ २७ ॥ लग्नसे अष्टम स्थानमें क्षीण चन्द्रमा पापयुक्त वा दृष्ट हो तो मृत्यु देता है अथवा रोग वा बंधन और शत्रुसे शस्त्रका भय होवे ॥ २७ ॥ उपजा० - चंद्रेस भौमेनिधनारिसंस्थेनृणां भयंशस्त्रकृतंपशोर्वा ॥ पापैःसुखस्थैःपतनंगजाश्वयानात्तनौस्याद्वहुलाचंपीडा ॥२८॥ चंद्रमा मंगल सहित छठा वा आठवां हो तो मनुष्योंको शस्त्रसे वा (पशु) व्याघ्रादिसे भय होवे जो पापग्रह चतुर्थस्थानमें हों तो हाथी घोडा पालकी आदि वाहनसे पतन होवे तथा शरीरमें बहुतसी पीडाभी होवे ॥ २८ ॥ अनुष्टु० - शुभाधूनेविजयदाद्यूतादथसुखावहाः || नवमेधर्म भाग्यार्थराजगौरवकीर्त्तयः ॥ २९ ॥ (१८७) शुभग्रह सप्तम स्थानमें जय करते हैं जुवांमें धनलाभ तथा सुखभी करते हैं नवम स्थानमें शुभग्रह ऐश्वर्य धन राजासे गुरुता और कीर्ति बढ़ाते हैं ॥ २९ ॥ (१८८) ताजिकनीलकण्ठी | O अनुष्ट ० - दिनप्रवेशेस्तिविधुरवस्थायांतुयादृशि ॥ तदवस्थातुल्यफलमसौदत्तेनसंशयः ॥ ३० ॥ दिनप्रवेशमें चन्द्र जिस प्रकारकी प्रवासादि अवस्थामें होवे उसी अवस्था के तुल्य फल देता है मासप्रवेशमेंभी निस्संदेह ऐसाही विचार करना ॥ ३० ॥ अनुष्टु० - विहायराशींश्चंद्रस्यभागाद्विघ्नाःशरोद्धृताः ॥ लब्धंगताअवस्थाः स्युभग्यायाः फलमादिशेत् ॥ ३१ ॥ अवस्था के लिये तत्काल चन्द्रमाके स्पष्ट राशिको छोड़कर शेष अंशा- दिको दोसे गुनाकर पांचसे भागलेना जो मिले वह भुक्त अवस्था हुई उससे आगेकी भोग्या जो हो उसके अनुसार फल कहना अवस्थाओंके नाम. प्रवास, नाश, मरण, जय, हास्य, रति, क्रीडित, सुत, भुक्ति, ज्वराख्य, कंप, स्थिर, यह १२ हैं मेषके प्रवाससे वृषके नाशसे मिथुनके मरणसे ऐसेही मीनके स्थिरसे गिनतीका क्रम है अवस्था बारहही हैं यहां इनमें से प्रत्येक राशिके पांचपांच ही लिये हैं कोई सभी राशियों में प्रवासहीसे गिनते हैं सो पक्षांतर है ॥३१॥ सुजंग० - प्रवासः प्रवासोपगे रात्रिनाथेऽर्थनाशस्तुनष्टोप गेमृत्युभीतिः ॥ मृतावस्थिते स्याज्जयायांजयस्तुविलासस्तुहास्योपगेकामिनीभिः॥३२॥ चंद्रमाकी अवस्थाओंका फल कहते हैं कि प्रवास अवस्था में चंद्रमा प्रवासही करता है तथा नाशमें धननाश मरणमें मृत्युभव जयामें विजय हास्यमें स्त्रियोंसे विलास देताहै ॥ ३२ ॥ सु० - रतौस्याद्वतिः क्रीडितासौख्यदात्रीप्रसुप्तापिनिद्रांक लिंदेहपीडाम् ॥ भयंतापहानीसुर्खस्युस्तुभुक्ताज्वराकंपितासुस्थितासुक्रमेण ॥ ३३ ॥ रतिमें ( प्रीति ) प्रसन्नता क्रीडितमें सुख सुप्तामें निद्रा और कलह और देहपीडा भुक्तामें भय और ज्वरायें संताप और कंपामें हानि स्थिरामें सुख ये कमसे अवस्थाओंके फल हैं यथार्थ मिलते हैं परन्तु चन्द्रमा अष्टम हो तो विपरीत फल देताहै ॥ ३३ ॥ इति श्रीमहीधरकृतायां नीलकंठीभाषाटीकायां दिनप्रवेशप्रकरणम् ॥१६॥ भाषाटीकासमेता । अथ मृगयाविचारः | भु० ० - सवीय्यौकुजज्ञौनृपाखेट सिद्ध्यै नसिद्ध्यैयदावीर्य्य- हीनाविमौस्तः ॥ जलाखेटमा :सवीय्यै ग्रह क्षैर्जलाख्यैनंगा- ख्यैर्नगाखेटमाहुः ॥ ३४ ॥ दिनप्रवेश लग से जो मंगल बुध बलवान् विहित स्थान में हों तो इस दिन. प्रष्टा राजाकी सिकार खेलनेमें कार्य्यसिद्धि होगी जो उक्त ग्रह बलहीन हों तो सिकार नहीं मिलेगी पूर्व संज्ञाप्रकरण में जलचर पर्वतचर, राशि और ग्रहभी कहे हैं उनके अनुसार फल कहना जैसे जलचर राशि एवं ग्रह बलवान्हों तो जलचर जीवोंकी सिकार होगी जो पर्वतचर राशिग्रह बल- वान् हों तो वनचरमृगया होगी विशेषतः दिनप्रवेश लग्न जलचर राश्यादि जैसे स्वभावका हो तथा जैसे स्वभावके ग्रहोंसे युक्त वा दृष्ट हों वैसी ही मृगया मिलती है, मिश्रितमें फलमी मिश्रितही कहना ॥ ३४ ॥ अनुष्ट० - लग्नास्तनाथौकेन्द्रस्थौनिर्बलौक्लेशदायिनी ॥ मृगयोक्ताशुभफलाबलाढ्यौयदितौपुनः ॥ ३५ ॥ लग्नेश सप्तमेश केंद्र में हों तथा बलवान् हों तो खसे और उक्त ग्रह निर्बल हों तो क्लेशं देनेवाली मृगया होगी ॥ ३५ ॥ अथ भोजनचिंता । लग्नाधिपोभोज्यदातासुखेशोभोज्यमीरितम् || बुभुक्षामदपः कर्मपतिभक्तेति चिंतयेत् ॥ ३६ ॥ दिनप्रवेश लग्नसे वा प्रश्नलनसे लग्नस्वासी भोजनदेनेवाला चतुर्थेश भो जनयोग्य अन्न सप्तमेश भोजनकी इच्छा अर्थात् भूख वा रुचि और द- शमेश भोजन करनेवाला जानना इनके बलाबलसे उक्त कामोंकी प्राप्ति अ-. प्राप्ति कहनी जैसे लग्नेश शुभस्थानगत बलवान् हो तो भोजन देनेवाला भो - जन श्रद्धासे देवे निर्बल हो तो वह ( अश्रद्धा ) कोपादिसे देवे ऐसेही चतुर्थेश बलवान् हो तो भोज्य अन्न अच्छा मिलेगा निर्बल होनेमें न मिले वा निंय 4 ( १८९ ) (१९०) ताजिकनीलकण्ठी । अन्न मिले सप्तमेश बलवान् हो तो रुचि भोजनमें अच्छी होगी, निर्बलहो तो क्षुधामंद अरुचि आदि होंगी, दशमेश बली हो तो खानेवाला प्रसन्नतापूर्वक भोजन करेगा निर्बल हो तो भोजनमें किसी प्रकारका विघ्न होजायगा ॥३६॥ अनुष्टु०-लग्नेलाभेचसत्खेटयुत सुभोजनम् || जीवेलग्नेसितेवापि भोज्यंदुःस्थितावपि ॥ ३७ ॥ लग्न तथा लाभस्थानमें शुभग्रह हों अथवा इन्हें देखें तो सुभोजन दूध दही घृत मीठा आदि मिलेंगे तथा लग्न में बृहस्पति वा शुक्रहों तो क्लेशनिवा- समें भी सुभोजन मिले ॥ ३७ ॥ अनुष्टु० - मंदेतमसिवालग्ने सूर्येणालोकितेथुते || लभ्यतेभोजनंनात्र शस्त्राङ्गीतिस्तदा कचित् ॥ ३८ ॥ शनि वा राहु लग्न में हो सूर्य्यकी दृष्टि भी हो तो यत्न करनेसे भी भोजन इस दिन प्राप्त न होवे कहीं शत्रका भय तो होवे ॥ ३८ ॥ अनुष्टु० - रविदृष्टंयुतंवापि लग्नंयदिनतत्रहि ॥ - उपवासस्तदावाच्योनक्तं वाविरसाशनम् ॥ ३९ ॥ जो लग्न सूर्य्यसे युक्त वा दृष्टभी न हो तो प्रथम तो निराहारही होवे अथवा रात्रिको निरस भोजन रूखा सूखा मिले ॥ ३९ ॥ अनुष्टु० - चन्द्रे कर्मगतेभोज्यमुष्णशीतसुखेकुजे ॥ तुर्यस्थखेटवशतो भोज्यान्नरसमादिशेत् ॥ ४० ॥ जो दिन वा पृच्छा लग्नसे चन्द्रमा दशम हो तो ( उष्ण ) गर्मागर्म भोजन मिले जो मंगल दशम हो तो ( शीत ) ठंढावासी भोजन मिले और चतुर्थ - स्थान में जो ग्रह हो उसके उक्त रसानुसार मिले जैसे सूर्य से कडुआ चन्द्रमासे सलोना, मंगलसे तीखा, बुधसे मिलाहुआ. बृहस्पतिसे मीठा शुक्रसे खढा शनिसे ( कषाय ) क्वाथ कांजी सिरका आदि बहुत दिनका संपादित मिलते हैं ॥ ४० ॥ अनुष्टु० - स्निग्धम सितेतुय्येंतैल संस्कृतमर्कज ॥ नीचोपगेकदशनंविर [न्नमसंस्कृतम् ॥ ११ ॥ भाषाटीकासमेता । (१९१) शुक्र चतुर्थ हो तो घीके पकवान शनि चतुर्थ हो तो तेलके पकवान तथा सरस मिलें, जो चतुर्थमें नीचगत ग्रह हो तो निकम्मा स्वादरहित कच्चा पदार्थ भोजन मिले ॥ ४१ ॥ उपजा०-सूर्य्यादिभिर्लग्रगतैः सवीर्ये राजादिगेहे भुजिमामनंति ॥ सुखेसुखेशेसबलेसुभोज्यं चरादिकेस्या दसकृत्सकृद्धिः ॥ ४२ ॥ सूर्यादिकोंगें जो उच्चादि बलयुक्त लग्नगत हो उसके जातिअनुसार राजादिके घरमें भोजन होवे जैसे सूर्य्यसे राजगृह चंद्रमासे वैश्य मंगलसे क्षत्रिय बुधसे शूद्र बृहस्पतिसे ब्राह्मण शुक्रसेभी ब्राह्मण और शनिसे शूद्रके, जो चतुर्थेश बलवान् चतुर्थहीमें हो तो अनेक पकवान युक्त भोजन मिले जो चतुर्थमें दुष्ट ग्रह हो तो कष्टसे मिले जो लग्नमें चरराशि हो तो अनेक- वार, स्थिरराशि हो तो एकवार मिले द्विस्वभाव हो तो दोवार ॥ ४२ ॥ अनुष्ट ० - मूलत्रिकोणगेखेटेलग्नेपितृगृहेशनम् || • मित्रालये मित्रभस्थे शत्रुहरिगेहगे ॥ ४३ ॥ लग्नगत ग्रह अपने मूलत्रिकोणमें हो तो पिताके वा अपने घरमें मित्ररा- शिका हो तो मित्रके शत्रुराशिका हो तो शत्रुके घरमें भोजन होवे लग्नमें कोई ग्रह न हो तो जिसकी पूर्ण दृष्टि लग्नपरहो उसके अनुसार भोजनगृह कहना४३ शुभेक्षितेयतेलग्नेबलाढये स्वगृहेभुजिः || ग्रह राशिस्वभावेन यत्नादन्यत्रचिंतयेत् ॥ ४४ ॥ लग्न शुभ ग्रहसे युक्त वा दृष्ट हो बलवान् भी हो तो अपने घरमें भोजन होवे ऐसेही ग्रहकी राशि स्वभावके अनुसार यत्नसे औरचरभी भोजनके कहना ४४ उपजा० - तिला मर्के हिमगौसुतंडुला भौमे मसूराश्चणकाश्चभोज्यम् || बुधे समुद्राः खलु राजमाषा गुरौ सगोधूमभुजिः सवय्यें ॥ ४५ ॥ लग्नगत जो बलवान हो तथा लग्नमें न हो तो दृष्टिवालेसे अन्न कहना जैसे सूÆसे तिल चंद्रमासे चावल मंगलसे मसूर और चना, बुधसे मूंग तथा राजमाप ( खांश ) बृहस्पतिसे गेहूं ॥ ४५ ॥ ●- उपजाति • - Jक्रेयवाबाजरिकायुगंधराःशनौकुलित्यादिसमाषम म् ॥ भोज्यंतुषान्नशिखिराहुवीर्य्यच्छुभंग्रहालोकनतःसहर्षम् ॥ ४६॥ (१९२ ) ताजिकनीलकण्ठी । शुक्रसे जौ, बाजरा आदि शनिसे कुलत्य कैथ नक्का खिसरी उड़द आदि राहु केतुसे कोदों कांगनी सामा आदि भूसी सहित (. बेछाँटे ) अन्न मिले ये प्रधान अन्न हैं. उक्तान्न आदि भोजन मिलेंगे कहना. उस ग्रह- पर शुभग्रहकी दृष्टि हो तो शीसे पापयुत दृष्टि हो तो सकोप ( कलहा- दिसे ) भोजन होवे ॥ ४६॥ 9 सूर्येमूलंपुष्पमिन्दौकुजेस्यात्पत्रंशाखाचापिशाकंसवीर्ये ॥ शुक्रेज्यज्ञैव्यंजनंभूरिभेदमन्देनेत्थंसामिषंराहुकेत्त्वोः ॥ ४७ ॥ भोज्यरूप सूर्घ्य हो तो मूल ( जडका ) शाक चन्द्र हो तो पुष्प कुज हो तो पत्ता और डार शुक्र गुरु निष्पाप बुध हों तो अनेक तरहके व्यंजन शनि राहु केतु हो तो मांस वा तेलकी बनी तरकारी मिलै ॥ ४७ ॥ अथ स्वप्नचिन्ता | शालिनी०- लग्नांशगेकै तनुगेपिवास्मिन्दुःस्वप्नमीक्षेतयथार्कविवम् ॥ रक्तांबरं वह्निमथापि चंद्रे शुभ्राश्वरत्नांबरपुष्पवत्रम् ॥ १८ ॥ अब स्वमविचार दिनप्रवेश वा प्रश्नलव से कहते हैं कि जो सूर्य लग्न वा -लग्ननवशांकमें हो तो इस दिन दुःस्वम देखेगा जैसे स्वममें सूर्ग्यबिंब रक्त वस्त्र अथवा अग्नि देखे चंद्रमा हो तो श्वेत रंग घोड़ा वच पुप्प हीराआदि देखे४८ उपजा: - स्त्रियः सुरूपाश्च कुजे सुवर्ण रक्तांबरखपशुविद्रुमाणि ॥ बुहयः स्वर्गतिधर्मवार्ता गुरोरतिर्धर्मकथा सुरेक्षा ॥ ४९ ॥ चंद्रमा हो तो सुरूप स्त्री भी देखे. मंगल हो तो सुवर्ण रक्तवत्र रक्तपुष्प मुर्ख रंगके पशु और मूंगा आदि. बुध हो तो थोडा और स्वर्गगमन वा स्वर्ग- सम सुख तथा धर्मसंबंधि वार्ता बृहस्पति हो तो अपने प्रीत्यनुसार वस्तु धर्मसंबंधि कथा और देवताओंका दर्शन देखे ॥ ४९ ॥ उपजा० सांबुसंगश्च सितेजलानां पारेगतिर्देवरतिर्विलासः ॥ शनावरण्याद्विगतिश्चनीचैः संगश्च राहौ शिखिनीत्थमेव ॥ ५० ॥ शुक्र हो तो सुबांधवोंका संगम तथा जलोंको तिरके पारगति देवताओंसे प्रीति विलासादि सुख देखे. शनि हो तो वन पर्वत गमन नोचजन संगति होवे राहु केतुकाभी ऐसाही फल है ॥ ५० ॥ भाषाटीकासमेवा | ( १९३ ) सहजधीमदनायरिपुस्थितो यदि शशी रुभानुसितेक्षितः ॥ नवमकेन्द्रंगते शुभेषुचस्वबलयामनुजोरमतेतदा ॥ ५१ ॥ चन्द्रमा ३ । ५ । ७ । ११ । ६ इन स्थानों में हो और बृहस्पति सूर्य्य शुक्रसे देखा जाताहो और ९|१|४|७|१० इन स्थानों में सबमें वा कोई भी शुभ ग्रह हों तो मनुष्य स्वनमें अति सुन्दरीबी से रमण करताहै ॥ ५१ ३ वसंतति - आसीदसीमगुणमंडितपंडिताग्यो व्याख्यद्भुजंगप- गवी श्रुतिवित्सुवृत्तः ॥ साहित्यरीतिनि णोगणितागमज्ञश्चिंता- मणिर्वि लगर्गकुलावतंसः ॥ ५२ ॥ 6- आचार्य स्वनामधेय प्रकट करता है कि अगणित गुणोंसे भषित पंडितों में मुख्यतम भुजंगपगवी अर्थात् शेषभाव्यको पढ़ावनेवाला वेदका जानने- वाला साहित्यशास्त्र परिपाटी निपुण गणितादि समस्त ज्योतिषशास्त्र पारंगम, गर्गकुलमें उत्पन्न चिंतामणि दैवज्ञ हुए ॥ ५२ ॥ उपजा० - तदात्मजोनंतगुणोस्त्यनंतो योऽधोक् सदुक्तिं किल काम- धेनुम् || संतुष्टयेजातकपद्धतिचन्यरूपयदुष्टमर्तनिरस्य ॥ ५३ ॥ चिंतामणि दैवज्ञका पुत्र असंख्यगुणयुक्त अनंतनामा हुवा जिसने काम- धेनु गणितकी टीका करी तथा सदैवज्ञोंको संतुष्ट करनेके लिये जन्मपद्धति संप्रदायानभिज्ञोंका दुष्ट मत निराकरण करके जिसने जातकपद्धति बनाई ५३ उपजा ० - पद्मांबयासाविततो विपश्चिच्छ्रीनीलकंठः श्रुतिशास्त्रनिष्ठः ॥ विद्वच्छिवीतिकव्यधासीत्समाविवेकंमृगयावतंसम् ॥ ५४ ॥ शाके नन्दा १५०९ भ्रवाणेन्दुमित अश्विनमासके|| शुळेऽष्टम्यांसमातं- नीलकंठबुधोऽकरोत् ॥५५॥ इतिश्रीगर्गवंशो • नील • वर्षतंत्रंसमाप्तम् ॥ अनन्त दैवज्ञका पुत्र जिसकी माताका नाम पद्मावती है विद्वान् वेदशा-. स्त्रज्ञ श्रीनीलकंठ दैवज्ञ हुआ जिसने समाविवेकनामक ज्योतिषका एक प्रकरण. वर्षफल सूचक शिवप्रीतिकारक बनाया ॥ ५४ ॥ ५५ ॥ इति श्रीमहीधरकृतायां नीलकंठीभाषाटीकायां फलतन्त्रे दिनंप्रवेश- भोजनस्वमचिंताकथनं नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥ १३ श्रीगणेशाय नमः अथ नीलकंठीप्रश्नतंत्रः प्रारभ्यते भूमिका | नीलकंठदैवज्ञकृत नीलकंठी तीन तंत्र की प्रथा है परन्तु तीसरा मश्चतन्त्र केवल नीलकंठाचार्य्यकृत सांगत में समय प्रभाव के कारणांतरोंसे दुष्णाप्य है, जन्मविचारवैपयिक ग्रंथ बृहज्जातक एवं वर्षपयिक ताजिकनीलकंठी दो तंत्रोंके भापाटीका सर्वसाधारणके प्रसन्नतानिमित्त यथामति बनाये उपरांत तदनुगामी प्रश्नप्रकरण जो कि, जातक ताजिक ग्रन्थ देखनेवालोंको अवश्यही उपयोगी है. यद्यपि उक्तजातक ताजिकों में बहुधा यही विचार प्रश्नमें भी करना लिखनेसे प्रश्नग्रंथका अंतर्भाव अर्थात् प्रश्नग्रंथका प्रयोजन उन्हीमें आलिया, तथापि पूर्वाचार्यो में शिष्टाचार एवं प्रकटताके लिये अनेकानेक ग्रन्थ नीलकंट- मतानुसारी होनेसे नीलकंटीनाम भया है, चमत्कारी प्रश्नमंथकी भाषाटीका यथामति करताहूं सज्जनजन स्वीय सौजन्यतासे अंगीकार करें, संस्कृत विद्या अद्वितीय है कोई वस्तुमात्र इससे रहित नहीं है जो रहित हो वह चतुर्दश भुवनमें हैही नहीं परन्तु भारतवर्ष में विद्या के नाश होनेका मुख्य कारण यही है कि जो लोग कोई अनूठी विद्या वा कला एवं औषधि मन्त्र आदि चमत्कृत जानते हैं वे दूसरे को सिखलानेमें मत्सरी होकर प्रकट नहीं बतलाते, उनके देहांत समय में वह उन्हीके साथ गई आगे विचा कहांसे बढ़े ! इस वातको विचार मैंने बृहज्जातक एवं नीलकंठी तीनहूं तंत्रों में ज्योतिषशास्त्र में जो बहुधा संकेत रहते हैं वे यथावकाश प्रकटही करदिये हैं । अनुष्टु० - दैवज्ञस्यहि दैवेन सदसत्फलवां या || अवश्यं गोचरे मर्त्यः सर्वः समुपनीयते ॥ १ ॥ प्राक्तन कर्मको देव कहते हैं जैसा मनुष्यने कर्म किया वैसेही फलभी अ- • • वश्य पावैगा उसके शुभाशुभ परिपाक के जानने की इच्छा दैवज्ञकी हो तो यह गोचर अर्थात यहचारसे सम्पूर्ण कहसकता है ॥ १ ॥ भाषाटीकासमेता । ( १९५ ) अनुष्टु० - अश्रौषीञ्च पुराविष्णोर्ज्ञानार्थं समुपस्थितः ॥ वचनं लोकनाथोपि ह्या प्रश्नादिनिर्णयम् ॥ २ ॥ पहिले किसी कालमें लोकनाथ ब्रह्मा कर्मपरिपाकके जाननेके लिये विष्णुके पास गये उनसे प्रश्न स्वर शकुनादिकोंके निर्णयवचन सुनकर संसा- रमें ज्योतिषद्वारा प्रकटकिया ॥ २ ॥ वसन्त ० - तस्मान्नृपः कुसुमरत्नफलाग्रहस्तः प्रातः प्रणम्य वरयेदपि प्राङ्मुखस्थः ॥ होरांगशास्त्रकुशलान्हितकारिणश्च संहृत्य दैवगणकान्सकृदेव पृच्छेत् ॥ ३ ॥ तस्मात् प्रश्न पूछनेवाला राजा- [यहां राजा उपलक्षणार्थ कहा गया] पुष्प रत्न फल आदि मंगल वस्तु दाहिने हाथ में लेकर प्रातःकाल प्रणामपूर्वक ज्योतिषीका वरण प्रश्ननिमित्त करे; तदनन्तर होरानामक ज्योतिषश रंगीभू- तके जाननेवाले हितकारी गणकोंको इकट्ठा करके स्वल्पाक्षरोंसे एकहीवार प्रश्न पूछे ॥ ३ ॥ आर्ग्या-दशभेदं ग्रहगणितं जातकमवलोक्य निरवशेषमपि ॥ यः कथयति शुभमशुभं तस्य न मिथ्या भवेद्वाणी ॥ ४ ॥ प्रश्न पूछने उपरांत जो गणक दशप्रकार स्पष्टभाव बलाबलस्थानादि ग्रहग- णित एवं जातक मत सम्पूर्ण देखकर शुभाशुभ फल कहता है उसकी वाणी मिथ्या नहीं होती ॥ ४ ॥ अथादौ प्रष्टुः परीक्षा | आर्या-ऋजुरयमनृजुवयंपूर्व परीक्ष्य लनबलात् ॥ गणकेन फलं वाच्यं दैवं तच्चित्तगं स्फुरति ॥ १ ॥ पूछनेवालेका चित्त सरल वा वह कैसा है इस विचारमें गणकने ल - लसे प्रथम परीक्षा करके फल कहना. मष्टाके चित्तानुवर्ती दैव प्राक्तन कर्म- पाक लग्नविचार द्वारा गणकको स्फुरण होजाताहै ॥ १ ॥ आर्या-लझस्थे शशिनि शनी केंद्रस्थेज्ञे दिनेशरश्मिगते ॥ भौमज्ञयोः समदृशा लग्नगचंद्रेऽनृजुः प्रष्टा ॥ २ ॥ जैसे लग्न में चंद्रमा केंद्र में शनि और बुध अस्तंगत हो तथा लयमें चन्द्रमा (१९६). ताजिकनीलकण्ठी | I मंगल बुधकी पूर्ण दृष्टिसे दृष्ट हो तो प्रष्टा कुटिल जानना ॥ २ ॥ आर्या लग्नेशुभग्रहयुते सरलःक्रूरान्विते भवेत्कुटिलः || लग्नेस्ते सौम्यदृशा विधुगुरुदृष्ट्या च सरलोयम् ॥ ३॥ लग्न में शुभग्रह हों तो सरल और पापग्रह हों तो कुटिल तथा लग्न और सप्तम स्थानमें शुभ ग्रहोंकी दृष्टि हो वा चन्द्रमापर बुध बृहस्पतिकी दृष्टि हो तो सरलचित जानना ॥ ३ ॥ आर्या - यदिगुरुबुधयोरेकः पश्यत्यस्ताधिपंचरिपुदृ या ॥ तत्कुटिलः प्रष्टा खल्वनयोः सौम्यदृष्टितः साधुः ॥ ४॥ जो बुध बृहस्पति सप्तमेशको शत्रुदृष्टि से देखें तो कुटिल और इनकी उसपर मित्रदृष्टि हो तो सरलचित्त प्रष्टा जानना ॥ ४ ॥ ॥ आर्या- सम्यग्विचार्य्यलयात्प्रशंसकृद्यथाशास्त्रम् यस्त्वेकंत्रतेसौतस्यनमिथ्याभवेद्वाणी ॥ १ ॥ ज्योतिषी भले प्रकार लग्नविचार के थोडे प्रश्नको शास्त्रकी आज्ञानुसार जो एक प्रश्न कहता है उसकी वाणी मिथ्या नहीं होती अर्थात् एक लग्नमें बहुत प्रश्न सत्योत्तर नहीं होते ॥ १ ॥ बहुप्रश्लेविषये - अनु० - बहून्प्रश्चानथो प्रष्टा युगपद्यदि पृच्छति ॥ तत्रतेषां विधिवक्ष्येशास्त्रतोलोकतुष्टये ॥ २ ॥ जब प्रष्टा एकहीवार बहुत प्रश्न पूछता है तो उनके उत्तरके कहनेकी विधि लोकोंकी तुष्टिको शास्त्रसे कहताहूं ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ आर्या आदिमंलग्नतोज्ञानं चन्द्रस्थानाहितीयकम् ॥ सूर्य्यस्थानातृतीयंस्यात्तुर्य्यजीवगृहाद्भवेत् धभृग्वोबलीयः स्यात्तहात्पंचमंपुनः ॥ राश्यानुरूपंकथयेत्संज्ञाध्यायोक्तवद्र्धः ॥ ४ ॥ पहिला प्रश्न लग्नसे दूसरा चन्द्रस्थानसे तीसरा सूर्ग्य स्थानसे चौथा बृह स्पतिकी राशिसे पांचवां बुध शुक्रमेंसे जो बलवान हो उसकी राशि के अनुसार जो राशियोंका धातु रूप रंग आकार गुण संज्ञाध्याय में कहे हैं उनके प्रभाव से प्रश्न कहना, वह विस्तार आगे लिखा जायगा ॥ ३ ॥ ४॥ भापाटीकासमेता | (१९७) अथावस्था | O- अनुष्टु ० - दीप्तोदीनो सुदितः स्वस्थः सुप्तोनिपीडितः ॥ मुषितः परिहीन श्वसुवीर्य्यश्चाधिवीर्यकः ॥ १ ॥ ग्रहों के दश भेदोंके नाम दीप्त, दीन, मुदित, स्वस्थ, सुप्त, पीडित, मुषित, पारहीन, सुवीर्य और अधिवीर्य ये दशभेद हैं ॥ १ ॥ अनुष्टु० - स्वोच्चेदीप्तः समाख्यातोनीचेदीनः प्रकीर्तितः ॥ मुदितोमित्र गेहस्थःस्वस्थश्च स्वगृहे स्थितः ॥ २ ॥ शत्रुगे स्थितः सुप्तोजितो- न्येननिपीडितः ॥ नीचाभिमुखगोहीनोमुषितोऽस्तंगतोप्रहः ॥३॥ सुवीर्यः कथितः प्राज्ञैः स्वो |भिमुखसंस्थितः || अधिवीय निगदितः सुरश्मिः शुभवर्गगः ॥ ४ ॥ . अपने उच्चराशिका ग्रह दीप्त, नीचका दीन, मित्रराशिका मुदित, अपनी राशिका स्वस्थ, शत्रुराशिका सुप्त, अन्यपापसे आक्रांत पीडित, नीचाभि- लाषी हीन, अस्तंगत मुषित, उच्चाभिलाषी सुवीर्य्य और रश्मि अधिक तथा शुभांशकमें अधिक अधिवीर्य्य कहता है ॥ २ ॥ ३ ॥ ४ ॥ अनुष्ट ० - दीप्तेसिद्धिश्च कार्य्याणां दीनेदुःखसमागमः ॥ स्वस्थेकी- तिस्तथालक्ष्मीरानंदोमुदितेमहान् ॥ ५ ॥ सुप्तेरिपुभयंदुःखं धनहानिर्निपीडिते ॥ मुदितेपरिहीने चकार्य्यनाशार्थसंक्षयः ॥ ॥ ६ ॥ गजाश्वकनकावाप्तिः सुवीर संपदः ॥ अधिवीर्ये राज्यलब्धियँहै मित्रार्थसंगमः ॥ ७ ॥ अवस्थाओंके फल कहते हैं कि दीप्त अवस्थामें ग्रह कार्य्यासिद्धि करता है, तथा दीनमें दुःखागम, स्वस्थमें कीर्ति और लक्ष्मी, मुदितमें बड़ा आनंद, सुप्तमें शत्रुभय तथा दुःख, पीडितमें धनहानि, मुफ्ति और परिहीनमें कार्य्यनाश धननाश, सुवीर्यमें हाथी घोडे सुवर्ण और रत्नोंकी संपत्ति, अधि- वीर्य्यमें राज्यलाभ, तथा मित्र और धनका संगम होता है ॥ ५॥ ६ ॥ ७ ॥ अथ ग्रहस्वरूपम् । अ टु० - पूर्वः सत्त्वंनृपस्तातःक्षत्रंग्रीष्मोऽरुण लः ॥ मधुहक्पैत्तिकोधातुःशुरःसूक्ष्मकचोरविः ॥ १ ॥ ( १९८) •ताजिकनीलकण्ठी । 7 पूर्वदिशाका स्वामी, सत्वगुण, राजा, पिता, क्षत्रिय जाति, ग्रीष्मऋतु, रक्त- वर्ण, चपलस्वभाव, शहतके रंग सदृश नेत्र, पितधातु शूरमा और बारीक केश ये रूप गुण सूर्य्यके हैं ॥ १ ॥ कफोवर्षामृदुर्मातापयो गौरश्वसात्त्विकः ॥ जीववैश्यश्चरोवृत्तोमारुताशोविधुः सुदृ ॥ २ ॥ " कफ धातु, वर्षा ऋतु, कोमल शरीर, मातास्थान, जलतत्त्व, गौरवर्ण, सत्वगुण, प्राणदाता, वैश्यजाति, चरस्वभाव, गोलाकार, वायव्य दिशाका स्वामी, सुहावने नेत्र ये रूप गुण चंद्रमाके हैं ॥ २ ॥ ग्रीष्मःक्षत्रतमोरक्कोयाम्यः सेनाग्रणीश्वरः || युवा धातुश्चपिंगाक्षःऋरः पित्तंशिखीकुजः ॥ ३ ॥ ग्रीष्मऋतु क्षत्रियजाति तमोगुण रक्तवर्ण दक्षिण दिशाका स्वामी सेनापति चरस्वभाव, युवावस्था शुक्रधातु पीले नेत्र क्रूरप्रकृति पित्तप्रधान, अग्नि ये रूप गुण मंगलके हैं ॥ ३ ॥ ! शरदीशोहरिदीर्घः पंढामूलंकुमारकः ॥ लिपिज्ञउत्तरेशश्चशुद्रः सौम्यंस्त्रिधातुकः ॥ ४ ॥ शरदऋतु हरितरंग लंबा शरीर नपुंसक मूलंबस्तुका स्वामी कुमार अवस्था लिपि ( शिल्पविद्या जाननेवाला ) उत्तरदिशाका स्वामी शुद्रजाति सौम्य प्रकृति वातादि तीनों धातु ये रूप गुण बुधकेंहैं ॥ ४॥ सत्त्वंपीतोहिमः श्लेष्मादी घमंत्रीद्विजोनरः ॥ मध्वैशानीफोजीवोमधुगिलहक्तथा ॥ ५ ॥ सत्वगुण, पीलारंग, हिमस्वभाव, श्लेष्मप्रकृति, लंबा शरीर, मंत्रज्ञ, ब्राह्मण जाति, पुरुष, मधुरप्रिय, ईशानदिशाका स्वामी, कफधांतु, शहतसे नेत्रोंका रंग ये गुण बृहस्पतिके हैं ॥ ५ ॥ अनुष्टु० - शुक्रःशांतो द्विजोनारीवैश्यो मंत्री चरः सितः ॥ आग्नेयी दिकूकफञ्चाम्लः कुटिलासित र्द्धजः ॥ ६ ॥ 6 भाषाटीकासमेता ( १९९ ) शांतस्वभाव ब्राह्मणजाति स्त्रीवेषधारी मंत्रज्ञ चरस्वभाव श्वेतरंग आग्नेय- दिशापति कफप्रधान खट्टारस श्याम और कुंचित केश ये गुण शुक्रके हैं ॥ ६ ॥ कृष्णस्तमःकृशोवृद्धःषंढोमूलांत्यजोऽलसः ॥ शिशिरः पवनःरःपश्चिमो वातुलःशनिः ॥ ७ ॥ कृष्णरंग तमोगुण कृशअंग वृद्धावस्था नपुंसक मूलवस्तु चांडालेश आलसी_शिशिरऋतुका स्वामी वायुधातु करस्वभाव पश्चिम दिशाका स्वामी वाचाल ये रूप गुण शनिके हैं ॥ ७ ॥ राहुर्धातुः शिखीमूलं शेषमन्यच्चमंदवत् || चिंतनीयं विलग्नेशात्केंद्रगाद्वाबलाधिकात् ॥ ८ ॥ राहु धातुप्रधान जटाधारी मलवस्तु है, शेष गुण शनिके तुल्य जानना , केतु भी ऐसाही जानना, लग्न वा लग्नेश अथवा जो ग्रह सर्वोत्तम बली है उसके अनुसार प्रश्नमें ल ग कहने विशेष गुण तथा राशियों के गुण प्रथम- तंत्रसंज्ञाध्याय में चकन्यास सहित प्रकट लिखे हैं ॥ ८ ॥ अथ भावनिर्णयः । सौख्यमायुर्वयोजातिरारोग्यंलक्षणं णम् || केशाकृती रूपवर्ण स्तनोयिं विचक्षणैः ॥ १ ॥ ख, आयु, अवस्था, जाति, नैरुज्य, शरीरलक्षण, गुण, केश, आकृति, रूप और रंग इतने विचार लग्नभाव में विचक्षणोंको विचारणीय हैं ॥ १ ॥ मुक्ताफलंचमाणिक्यरत्नधातुधनांबरम् || हयकार्य्याध्वविज्ञानं वित्तस्थानाद्विलोकयेत् ॥ २॥ मोती मांणिक आदि रत्न, सुवर्णादि धातु वत्र अश्वका मार्ग संबंधी ज्ञान इतने वस्तुके विचार दूसरे भावसे करना ॥ २ ॥ भगिनी आतृभृत्यानांदा सकर्मकृतामपि ॥ कुर्वीतवीक्षणं विद्वान सम्यग्दुश्चक्यवेश्मतः ॥ ३ ॥ बहिन भाई, नौकर दास और कार्य करनेवाला उपलक्षणसे व्यापार पराक्रम भी विद्वानोंको तीसरे भावसे विचार करना योग्य है ॥ ३ ॥ . (२००) ताजिकनीलकण्ठी | वाटिकाखलकक्षेत्रमहौषधिनिधीनपि ॥ विवरादिप्रवेशंच पश्येत्पातालतोबुधः ॥ ४ ॥ बावडी, खरिहान खेती औषधि अन्नादि निधि ( उत्तमवस्तु ) भूमिगत द्रव्यादि और रंध्र कंदरा सुरंग आदिकों में प्रवेश, इतने चतुर्थ भाव से देखने ॥४॥ गर्भापत्यविनेयानां मन्त्रसन्धानयोरपि ॥ विद्या बुद्धिप्रबंधानां सुतस्थाने विनिर्णयः ॥ ५ ॥ गर्भधारण, सन्तान, नम्रता, बुद्धि, मन्त्रका सन्धान, मसोदा आदि विद्या तथा बुद्धिका प्रबन्ध इत्यादि पंचम भावसे विचारना ॥ ५ ॥ अनु० - चौरभीरिपुसंग्रामखरोष्टक्रूरकर्मणाम् || मातुलातंकभृत्यानां रिपुस्थानाद्विनिर्णयः ॥ ६ ॥ चौरभीति, शत्रु संग्राम, और खर, ऊंट तथा क्रूरकर्म, मातुलपक्ष, रोग, चाकर, इनका विचार छठे स्थानसे करना ॥ ६ ॥ वाणिज्यं व्यवहारंच विवादंचसमंपरैः ॥ u गमागमकलत्राणि पश्येत्प्राज्ञः कलत्रतः ॥ ७ ॥ व्यापार वणिग्वृत्ति अन्य के साथ विवाद वा संधि तथा गमन आगमन स्त्री इतने विचार सप्तमभावसे करने ॥ ७ ॥ नछुत्तारेध्ववैषम्ये दुर्गे चश संकटे ॥ नष्टेदुष्टेरणेव्याघौछिद्रे छिद्रंनिरीक्षयेत् ॥ ८ ॥ 1 नयादितारण, मार्गविचार, विषमस्थान, किला, शस्त्रसंकट आदि कठि- नाई, तथा नष्टता, दुष्टता, रणरोग, छिद्रता, गृहच्छिद्र वा विवरादि इतने विचार अष्टम भावसे देखना ॥ ८ ॥ ● वापीकूपतडागादि प्रपादेवगृहाणिच || दीक्षांयात्रांमठंघ मै धर्मान्निचित्यकर्त्तियेत् ॥ ९ ॥ - बावडी, कूप, तालाव आदि जलाशय, तथा प्रपा ( पाउ ) देवमंदिर, उप- देश, यात्रा, मठ, और धर्मकार्ग्य नवमस्थानसे विचारके कहना ॥ ९ ॥ 7 भाषाटीकासमेता । (२०१) I राज्यमुद्रांपरंपुण्यंस्थानंतातं प्रयोजनम् || वृष्यादिव्योमवृत्तांतंव्योप्रस्थानान्निरीक्षयेत् ॥ १० ॥ राज्य, मुद्राआदिचिह्न और पुण्य, निवासस्थान, पिता तथा प्रयोजन, वर्षाआदि आकाशका वृत्तांत, दशमभावसे देखना ॥ १० ॥ गजाश्वयानवस्त्राणि सस्यकांचनकन्यकाः || विद्वान् विद्यार्थयोर्लाभं लक्षयेल्लाभभावतः ॥ ११ ॥ हाथी घोडे डोली आदि सवारी वस्त्र अन्न सुवर्ण कन्या विद्या तथा धनका लाभ पांडित्य ग्यारहवें स्थानसे देखना ॥ ११ ॥ त्यागभोगविवादेषु दानेष्ट षिकर्मसु । व्यवस्थाने सर्वे विद्धि विद्वन्व्ययं व्ययात् ॥ १२ ॥ त्याग भोग कलह दान दुष्टवस्तु कृषिकर्म, व्ययके सबस्थान विद्वान् व्ययभावसे जानैं ॥ १२ ॥ षटूपंचाशिकायाम् । इं०व० योयोभावःस्वामिदृष्टोयुतोवासौम्यैवस्यात्तस्यतस्यास्तिवृद्धिः पापैरेवंतस्यभवस्यहानिनिर्देष्टव्या पृच्छतां जन्मतोवा ॥ १३ ॥ जो जो भाव अपने स्वामीसे वा शुभग्रहोंसे युक्त वा दृष्ट हो उन २ की वृद्धि और जो पापोंसे युक्त दृष्ट हो उसकी हानि होती है यह विचार प्रश्न तथा जन्ममें भी सर्वत्र विचारना ॥ १३ ॥ उपजा० - सौ`विलग्नेयदिवास्ववर्गेशीर्षोदयेसिद्धिमुपैतिकार्य्यम् ॥ अतो विपर्यस्तमसिद्धिहेतुः कृच्छ्रेणसंसिद्धिकरं विमिश्रम् ॥ १४ ॥ सौम्यराशि लग्न में हो यद्दा अपने अंशपर हो वा शीर्षोदय हो तो कार्य्य- सिद्धि होतीहै, इससे विपरीत अर्थात् क्रूर लग्न सत्वादि अंश पृष्टोदय लन हो तो कार्यसिद्धि नहीं होती. जो कुछ शुभ कुछ अशुभ मिश्रित हो तो बड़े श्रमसे कार्य्यसिद्धि होवे ॥ १४ ॥ भुवनप्रदीपे । आय-लग्नपतिर्यदिल कार्य्याधीशश्वीकार्य्यम् ॥ लग्नाधीशः कार्य्यकार्येशः पश्यतिविलग्नम् ॥ १५ ॥ ( २०२ ) ताजिकनीलकण्ठी | ॥ लग्नेशः काय्र्येशविलोकयेल्लग्नपंतुकाय्र्येशः शीतगुदृष्टौ सत्यांपरिपूर्णाकार्य्य संसिद्धिः ॥ १६ ॥ जो लग्नेश लग्नको देखे १ कार्येश कार्यस्थानको देखे २ लग्नेश कार्य्यस्थानको देखे ३ कार्येश लग्नको दखे ४ लग्नेश कार्येशको देखे ५ कार्येश लग्नेशको देखे ६ ये छः प्रकार हैं; इनमें यदि चंद्रमा की दृष्टि हो तो एकही योग पूर्ण कार्घ्य सिद्धि करलेता है ॥ १५ ॥ १६ ॥ || • आर्या ० -कथयंतिपादयोगंपश्यतिसौम्योनलग्नपोलग्नम् लग्नाधिपंचपश्यतिशुभग्रहार्द्धयोगोऽत्र ॥ १७ ॥ जो लग्नेश तो लग्नको न देखे किंच शुभ ग्रह देखे तो चौथाई योग कहाता है तथा केवल लग्नेशको शुभ ग्रह देखे और छहों में से कोईभी योग न हो तो आधा योग होता है फल भी ऐसाही जानना ॥ १७ ॥ , आर्या - एकःशुभग्रहोयदिपश्यतिलग्नाधिपंविलगंवा || पादोनयोगमाहुस्तदावधाःकार्य्यसंसिद्धये ॥ १८ ॥ एक शुभ ग्रह जो लग्न वा लग्नेशको देखे तो उसे बुधजन पान योग कहते हैं यह कार्य्यसिद्धि करता है ॥ १८ ॥ || आ०-लग्नपतौदर्शनेसतिशुभग्रहाद्रौत्रयोथवालग्नम् पश्यंतियदितदानीमाहुर्योगं त्रिभागोनम् ॥ १९ ॥ लग्नेशको दो वा तीन शुभग्रह देखें अथवा लग्नको देखें तो इस योगको त्रिभागोन कहते हैं कार्म्यसिद्धि देता है ॥ १९ ॥ क्रूरावेक्षणवर्ज्यश्चंद्रः सौम्योवालग्नपंचलमंच || पश्यंतः पूर्णत द्योगंकार्य्यस्यसंसिद्धये ॥ २० ॥ पापग्रहदृष्टिरहित चन्द्रमा और शुभ ग्रह लंग्न तथा लग्नेशको देखें तो - पूर्ण योग कार्य्यसिद्धि देनेवाला होताहै ॥ २० ॥ O अनुष्ट - ऋक्रांतःकरतःकरदृष्टश्चयोग्रहः ॥ विरश्मितांप्रपन्नश्चसोनिष्टफलदायकः ॥ २१ ॥ जो कार्यकर्त्ता ग्रह पापाक्रांत वा पापयुक्त पापदृट हो वा रश्मिरहित हो तो अनिष्ट फल कार्य्यनाश करता है ॥ २१ ॥ भाषाटीकासमेता । समरासिंहे । (२०३ ) आय-अमुकंवदेतिकायैकदा भविष्यत्यमुत्रपृच्छायाम् ॥ 'ल'लग्नाधिपतिः कार्यकाधिपः पश्येत् ॥ २२ ॥ ल स्थ:कार्येशः पश्यतिचे ग्रपंतदेवभवेत् ॥ तत्कायैयद्यन्यः स्थितःसत्वरंतदानस्यात् ॥ २३ ॥ जब कोई पूछे कि हमारा अमुक कार्य्य कब होगा तो इस प्रश्नके में कार्येश कार्य्यको देखे अथवा लग्नेश लग्नको देखे तो कार्य शीघ्र होगा कहना जो काम्पैश लग्न में हो लग्नेशको देखे तौभी शीघ्र होगा, जो. लग्नेश अन्यत्र हो तो शीघ्र न होगा ॥ २२ ॥ २३ ॥ पश्यतियदाचल द्रक्ष्यतिचंद्रोविलग्नंपंचयदा || लग्नेकार्ये चयदा द्वयोश्चयोगेतदासिद्धिः ॥२४॥ यदि लग्नपोनपश्यंतिकार्य्याधीशोवि- ल थतस्य || कार्य्यस्यहानिरुक्तालग्नमृतेकिमपिनोवाच्यम् ॥ २५॥ जो चन्द्रमा लग्नको तथा लग्नेशको देखे अथवा लग्नेश काय्र्येश एकही स्थानों में हों तो क़ार्म्यसिद्धि होगी ॥ २४ ॥ जो लग्नेश कार्येशको न देखे यद्वा कार्य्यस्थानको भी न देखे तो कार्य्यहानि कही है, लग्नको छोड़कर और भावोंसे भी विचार न कहना ॥ २५ ॥ न्थान्तरे प्रकीर्णकम् । अ ० - लग्नपोमृत्युपश्चादिमृत्यौस्यातामुभौयदि ॥ - स्थितौद्रेष्काणएकस्मिन् लभस्तदा ध्रुवम् ॥ २६ ॥ जो लग्नेश और अष्टमेश दोनों अष्टम स्थानमें एकही द्रेष्काण में हों तो पूछनेवालेको निश्चय लाभ होगा ॥ २६ ॥ एवंद्वादश भावेषु द्वेष्काणैरेवकेवलम् ॥ बुधोविनिश्चयंत्र्या द्योगेष्वन्ये निस्पृहः ॥ २७ ॥ • ऐसेही समस्त भावोंका विचार केवल द्रेष्काणोंसे पंडितने निश्चय करके कहना और योगोंसे यही बली रहताहै ॥ २७ ॥ अनुष्टु० - लकालेसौम्यवर्गो लग्नेयद्यधिकोभवेत् ॥ ग्रहभावानपेक्षेण दाख्येयंशुभंफलम् ॥ २८ ॥ (२०४ ) ताजिकनीलकण्ठी । प्रश्नकालमें जो लग्नमें शुभवर्ग अधिक हो तो ग्रहभावफलकी अपेक्षा न कर शुभ फलही कहना, भावफलसे वर्गफल बली फलमें होता है ॥ २८ ॥ लग्नाधिपश्चलाभस्याधीशश्चदायकोभवेत् ॥ . लग्नाधिपस्ययोगोवालाभाधीशेनलाभदः ॥ २९ ॥ लग्नेश और लाभेश धनदाता हैं इनका योग लाभ देनेवाला होता है २९ ॥ आर्य्या - भवतिपरमलाभकरस्तदैवसयदिचंद्रहग्लाभे ॥ योगाः सर्वेष्वफलाश्चंद्रमृतेव्यक्तसेवच ॥ ३० ॥ जो लग्नेश वा लाभेश ग्यारहवें स्थान में चन्द्रमासे दृष्ट हों तो परमलाभ कर- ताहै चंद्रमाके दृष्टि वा योगविना सभी योग निष्फल होते हैं यहता प्रकटही है ३० आर्य्या कर्माधीशेनवं कर्माधीशेन वृत्त्यधीशेन || मृत्युपतिनाचयोगेलाभाधीशस्यवक्तव्यम् ॥ ३१ ॥ ऐसेही दशमेशकाभी विचार करना, क्योंकि वह आजीवन भाव है. और लाभेश अष्टमेशयुत हो तो लाभ न होवे ॥ ३१ ॥ तत्तत्स्थानेक्षणतःपुण्यविवृद्धिश्चकर्मवृद्धिश्च ॥ विबुधैस्तदा निवृत्तिमृत्युर्भावापरेप्येवम् ॥ ३२ ॥ चन्द्रमा जिस स्थानको देखे उसकी वृद्धि जैसे नवममें पुण्यवृद्धि दशममें कर्मवृद्धि करता है जो अष्टम भाव वा अष्टमेशपर चंद्रमाकी दृष्टि चा योग हो तो विपरीत फल कहना ऐसेही सभी भावोंमें विचारना ॥ ३२ ॥ ल शोयदिष: स्वयमेवरिपुर्भवत्यात्मा || मृत्युकृदष्टमगोसौव्ययगः सततंव्ययं कुरुते ॥ ३३ ॥ लग्नेश छठा हो तो अपनी आत्मा भी शत्रु होती है अन्योंकी क्या कथा? जो लग्नेश अष्टम हो तो मृत्यु और बारहवां हो तो बहुत व्यय करताहै ३३ लग्नस्थं चंद्रजंचंद्रः क्रूरोवायदिपश्यति ॥ धनलाभोभवत्याशुकिंत्वनथपिपृ० तः ॥ ३४ ॥ 1. लग्नस्थित बुधको चंद्रमा वा पापग्रह देखें तो धनलाभ तो शीघ्र होवे किंच प्रष्टको कोईप्रकार अनर्थभी होवे ॥ ३४ ॥ (२०५ ) भाषाटीकासमेता । तामान्यभाव विचारे । अनु० - इंदुः सर्वत्रबीजाभो लगं च कसुमप्रभम् || फलेनसदृशोंशश्च भावः स्वादुसमप्रभः ॥ ३५ ॥ यह विचारमें सर्वत्र चंद्रमा बीजके लग्न पुष्पके अंश फलके और भाव- स्वादके समान हैं ॥ ३५ ॥ अथ लाभादौ कालनिर्णयः । · आर्या - उदयोपगतराशिंतत्कालीकृत्यालि कांगुणयेत् ॥ यांगुलञ्चकुर्य्यात्वामुनिभिस्ततः शेषः ॥ ३६ ॥ गणयित्वैवं ग्वद्धृत्वासौम्यस्यभवेदुदयः ॥ कायंप्राप्तिः ए॒वं व्यानेतरै हैर्भवति ॥ ३७ ॥ लाभादि समस्त प्रश्नमें समय जाननेके लिये तत्काल लग्नका लिप्तापिंड करके उस समयमें द्वादशांगुलकी छायाके अंगुलोंसे गुनाकर चौदहसे भाग- देना जो शेष रहै वह मेषादि राशि जाननी, वह जो शुभग्रहकी राशि हो तो कार्य प्राप्ति और पापकी हो तो कार्य्यहानि कहनी ॥ ३६ ॥ ३७ ॥ ग्रहगुणकारोज्ञेयोदेवविदा पंच ५ विंशतिः सैकः २१ ॥ मनवो १४ ङ्का ९ टौ८त्रितयं३भवाः ११ सूर्य्यादितोज्ञेयः॥३८॥ णकारैक्यविभक्तःसूर्य्यादिगुणकसंशुद्धः ॥ यस्यनशद्धयतिवर्गोविळे यस्तद्वशात्कालः ॥ ३९ ॥ सूर्यके ५ चंद्र २१ मं० १४बु० ९ बृ० ८ शु० ३शनिके ११ये ग्रहोंके गुणक हैं इनका योग ७१ से पूर्वोक्त जो तत्काल लनका कलापिंड छायाँ - गुलोंसे गुणा है उसमें भागलेना लब्धिमें सूर्य्यादिकोंके गुण एकएक करके घटाबै जहांतक घरें घटातेजाना जिसका गुणकांक न घंटे उससे समय कहना वह आगे कहते हैं ॥ ३८ ॥ ३९ ॥ आरदिवाकरशेषेदिवसापक्षाञ्चभृगुशशिनोः ॥ गुर्ववशेषे मासो ऋतवः सौम्येशनैश्चरेब्दाः स्युः ॥ ४० ॥ आधाथप्राप्तौगमनागमने पराजये विजये | रिपुनाशेवाकालं यां निश्चितंत्र्यात् ॥ ४१ ॥ उक्त क्रमसे, जो सूर्य्य वा मंगलका गुणक न घंटे तो उतने दिन, शुक्र • ( २०६ ) ताजिकनीलकण्ठी । चंद्रमासे पक्ष हस्पतिसे महीने बुधसे ऋतु शनि से वर्ष जानने आधानके असव वा धनांदिप्राप्ति तथा गमन आगमन जयपराजय, शत्रुनाशादि कार्यो को इसप्रकार समय निश्चय करके कहना ॥४०॥ ४१ ॥ अकचटतपयशवर्गारविकुजसितसौम्यजीवसौराणाम् ॥ चंद्रस्य चनिर्दिष्टास्तैः थमोद्भवैर्वर्णैः ॥ ४२ ॥ ज्ञात्वातस्माल्लमं विज्ञायशुभाशुभंचवदेत् ॥ वर्गादिमध्यांत्यैर्वर्णैः प्रश्नोद्भवै विषमराशिः ॥ ४३ ॥ लाज्ञानेप्रवदेत्पृच्छायुग्मंकुजज्ञजीवा - नाम् ॥ सितरविजयोश्चनैकंरविशशिनोरेकराशित्वात् ॥ ४४ ॥ तस्मात्प्राग्वत्प्रवेदत्पृच्छासमयेशुभाशुभंसर्वम् || कालस्य विज्ञानादतञ्चित्यंबहुप्रश्ने ॥ ४५ ॥ अवर्गका स्वामी सूर्य्य एवं क का मंगल च का शुक्रट का बुध. त का हस्पति. प का शनि. य का चंद्रमा शकाभी चंद्रमा ये वर्गीके स्वामी हैं. जहां लग्नज्ञान न होसके वा २ | ३ आदि बहुत प्रश्न एक ही लग्नमें हों तो वर्गेशसे लग्न इसप्रकार लेनां कि, प्रश्न के प्रथमाक्षर वर्गके जो स्वामी हैं उनकी राशिलग्न जानना. उसलग्न से उक्तप्रकार योगादि विचारके शुभाशुभ फल कहना. प्रत्येक ग्रहकी २ | २ राशि हैं इनमें राशि जानना जैसे मंगल वर्गेश हो तो मेष समझना. चंद्रमाकी एकही है वह वही जाननी. जहां बहुत प्रश्न हों तो प्रथम प्रश्नमें प्रश्नाक्षरके प्रथम वर्ण दूसरे में मध्यवर्ण तीसरे अंत्यवर्ण से लग्न जानना तथा मंगल बुध बृहस्पतिके राशि लग्न ज्ञात हो तो दो प्रश्न जानना. शुक्रशनिसे अनेक. और सूर्य चंद्रमासे एक राशि होनेसे एकही प्रश्न जानना बहुत प्रश्नों में इसप्रकार लग्नसे शुभाशुभ फल तथा वर्गेश ग्रहके गुणकसे पूर्वोक्त क्रम में विचारकर सभी कहनां ॥ ४२ ॥ ४३ ॥ ४४ ॥ ४५ ॥ प्रश्नवस्तज्ञाने । ● स्वांशेविल यदिवात्रिकोणेस्वांशस्थितः पश्यतिधातुचिंताम् || परांशकस्थश्चकरोतिजीवंसूलंपरांशोपगतः परांशम् ॥ ४६॥ भाषाटीकासमेता । (२०७). मुष्टि वा मूकमश्नमें जो लग्नेश वा चन्द्रमा अपने अंशमें वा लग्न में यात्रि- कोण ९॥५ में हो अथवा और किसी स्थानमें हो किंतु अपने अंशमें होकर लग्नको देखे तो धातुचिंता तथा शत्रु वा समांश कमें होकर लग्नचन्द्रमाको देखे तो जीवचिंता और परांशकमें बैठकर परांशकी ग्रहों को देखे वा लग्नेश चंद्रमा परांशकी हों लग्नमें कोई ग्रह परांशकी हो तो मूलवस्तुसंबंधी प्रश्न कहना४६ धातुर्मूलंजीव मित्योजराशौयुग्मे विद्यादेतदेवप्रतीपम् || लग्नेयोंशस्तत्क्रमाद्वण्य एवं संक्षेपोयं विस्तरात्तत्प्रभेदाः ॥ ४७ ॥ विषम राशि लग्न में हो तो प्रथम नवांशमें धातु दूसरेमें मूल तीसरेमें जीव चौथेमें धातु पांचवेंमें यूल छठेमें जीव सातवेंमें धातु आठवेंमें मूल नववेंमें जीव चिंताकहनी, जो समराशि लग्न में हो तो विपरीत, जैसे ११४१७ में जीव ३/५१८ में मूल ३१६१९ में धातुचिंता कहनी ॥ ४७ ॥ बलिनौकेंद्रोपगतौर विभौमौधातुकरौप्रश्ने ॥ 'बुधसौरीमूलकरौशशिगुरुशुकाः स्मृताजीवाः ॥ ४८ ॥ जो सर्थ्य वा मंगल बलवान् और केंद्रगत हों तो धातु, बुध शनि हों, तो मूल, चन्द्रमा बृहस्पति शुक्र हो तो प्रश्नमें जीवचिंता जाननी ॥ ४८ ॥ मेपालिसिंहलग्नेकुजार्कयुक्तेनिरीक्षितेप्यथवा || धातोधितांप्रवदेगघटकन्यागतैर्लेमैः ॥ ४९ ॥ बुधरविजयुतैर्मूलंवृषतुलाहरिमीनचापकर्कटकैः || चन्द्रगुरुशुकयुतैर्दृष्टेजवोविनिर्देश्यः ॥ ५० ॥ लग्न में १. |८|५राशि हो और मंगल वा शनिसे युक्त वा दृष्ट हों तो धातु, तथा ३ । ११ । ६ राशि बुध शनि युक्त दृष्ट हो तो मूल और २ । ७।५।१२ ९॥४राशि चन्द्रमा वृहस्पति शुक्रसे युक्त दृष्ट हों तो जीवमश्न कहना ॥४९॥५० भावप्रश्नज्ञानम् । लग्नलाभपयोः प्राणीतयोर्यद्भावगः शशी ॥ तस्यभावस्ययाचिंताप्रष्टुः साहदिवर्तते ॥ ५१ ॥ एवंलग्राधिकाञ्चंद्रालग्रनाथोयतः स्थितः || दैवज्ञेनविनिणैयःप्रश्नस्तद्भावसंभवः ॥ ५२ ॥ ( २०८ ) ताजिकनीलकण्ठी । लग्नेश वा लाभेशमें जो बलवान हो अथवा इनके अंशेशोंसे जितने भावमें चन्द्रमा हो उसभावसंबंधी प्रश्न जानना जिस भावमें जो विचार चाहिये वह प्रथम कहा गया है, ऐसेही बलाधिक चन्द्रमासे लग्नेश जितनेमें हो उसके संबंधी प्रश्न पूछनेवालेके हृदयमें ज्योतिषीने जानकर आय. विचार करना ॥५१॥५२॥ आत्मसमंल गतैस्तृतीयगैर्भ्रातरः तं तंगैः ॥ मातावाभगिनी वाचतुर्थगैः शत्रुगैःशत्रुः ॥ ५३ ॥ जायासप्तमसंस्थैर्नवमेधर्माि तो गुरुर्दशमे || स्वांशः पतिमित्रशत्रुषुतथैववाच्यंबलयुतेषु॥५४॥ सर्वोत्तम बलीग्रह वा तत्काल लग्नका नवांशेश लग्न में हो तो अपने शरीर- संबन्धी, तीसरा हो तो भातृसंबन्धी एवं पंचममें पुत्र संबन्धी चतुर्थमें माता बहिनके विषय, छठा हो तौ शत्रुसंबंधी सप्तम में स्त्रीसंबंधी नवममें धर्मसं- बन्धी दशममें गुरु वा राजसंबंधी प्रश्न कहना, तथा बली ग्रहका बल लग्न- का अंशेश मित्र राशि में हो तो मित्रसंबंधी, शत्रुराशिमें हो तो शत्रु- संबंधी जानना इतनोंमें जो बलवान् हो उससे प्रश्न कहना ॥५३॥५४॥ चरलग्ने चरभागे मध्याद्रष्टे वासिचितास्यात् || भ्र : स मभवनात्पुनर्नवृत्तो यदि न वी ॥ ५५ पूर्वोक्त ग्रह चरराशि चरनवांशकमें दशम स्थानसे ऊपर १०1११।१२ में हो तो प्रवासिसंबंधी प्रश्न कहना तथा चरराशिनवांश में सप्तमाधिक ७ ८ । ९ में हो तो उसका निवृत्ति के ( लौटने ) विषय में जानना यदि वह वक्री 'न हो, जो वक्री हो तो उक्तसे विपरीत जानना ॥ ५५ ॥ अस्तेरविसितवकैः परजायां स्वां गुरौ घे वेश्याम् || चंद्रेचवयः शशिवत् प्रवदेत्सौरेंत्यजातीयाम् ॥ ५६ ॥ सप्तम स्थान में सर्थ्य शुक्र वा मंगल बली हों तो परस्त्री बृहस्पति हो तो अपनी स्त्री बुध हो तो वेश्या चन्द्रमा हो तो भी वेश्या तत्काल चन्द्रमाके सदृश अवस्था कहना और शनि हो तो हीन जाति प्रष्टाके मनमें चिंतितहै५६ कुमारिकांबालशशीबुधश्चवृद्धांशनिः सूर्य्यगुरूप्रसूताम् ॥ स्त्रोकर्कशांभौमसितौचधत्तएवंवयः स्यात् रुषेषुचैवम् ॥ ५७॥ भाषाटीकासमेता । (२०९ ) ● बाल चन्द्रमा वा बुध हो तो कुमारी कन्या शनिसे वृद्ध स्त्री सूर्ध्य तथा बृहस्पतिसे प्रसूतवती मंगल शुक्रसे कठोर स्वभावकी स्त्री प्रश्नसंबन्धी कहनी तथा पुरुषकी अवस्थदिभी ऐसेही विचारसे कहनी ॥ ५७ ॥ इति महीधरकृतायां प्रश्नतंत्रभाषाटीकायां संज्ञाप्रकरणम् ॥ १ ॥ यह प्रकरण समस्त आर्य्याछंदमें है | प्रथमलग्नभावप्रश्न कहते हैं । भूतंभवद्भविष्यन्मम किं कथयेतिजातपृच्छायाम् ॥ लम्रपतेः शशिनोवाबलमन्वेष्यंबलाभावे ॥ १ ॥ दृष्ट्वानवांशकबलंशुभ- दृग्योगंच सर्वकार्येषु प्रष्टुःशुभमादेश्यविपरीतंव्यत्ययादेव ||२|| जो कोई पूछे कि मेरा भूत वा भविष्य क्या हुवा वा होगा तो इस प्रश्नमें लग्नेश तथा चन्द्रमाका बल देखना. जो ये बली न हों तो नवांश बल देखना बलाधिक्य और शुभग्रह दृष्टि योगसे प्रष्टाके समस्त कार्यो में शुभ इससे विपरीत हो तो अशुभ कहना ॥ १ ॥ २ ॥ लो शोमूसरिफो यस्मात्तस्मादतीतमाख्येयम् || येनयुतस्तस्माद्भवदेष्ययेनेक्ष्यते तस्मात् ॥ ३ ॥ लग्नेशका जिस ग्रहसे मूसरिफ हो उसके अनुसार जैसे मूसरिफ होकर ईसराफ होगया हो तो कार्ग्य होगया और इत्थशाल हो तो कार्य्यं होताहै कहना और दृष्टिसे होनेवाला कहना, इत्थशालोंके भेद पहिले कह्रदियेहैं ॥ ३ ॥ भूत कहना यदि लग्नेलग्नपतिःसौम्ययुतोवाविलोकितःसौम्यैः ॥ तत्प्रष्टुर्व्याकुलताशरीरदोषाविनश्यंति ॥ ४ ॥ जो लग्नेश लग्नमें शुभग्रहों से युक्त वा दृष्ट हो तो प्रेष्टाके मन व्याकुलता और शरीर के समस्त दोष नाशहोते हैं ॥ ४ ॥ पापोयदिल पतिस्तदाकलिव्याधिधननाशाः ॥ सौम्येनिर्वृतिबुद्धिर्द्रव्याप्तिः सौख्यमतुलंच ॥ ५ ॥ १४ (२१० ) तांजिकनीलकण्ठी | जो लग्नेश पापग्रह हो वा लंग्यमें पाप हो तो कलह रोग धनहानि हो; जो शुभग्रह हो तो बुद्धि निर्मल धनलाभ और अतुल सुख मिले ॥ ५ ॥ इति श्रीमहीधरकृतायांनीलकंठी भाषाटी कायां लग्नभावप्रश्ननिरूपणम् ॥ १ ॥ अथ द्वितीयभावफलम् ॥ घनलाभस्यप्रश्नेलग्नेशेनेंदुनाथधननाथौ || कुरुतोयदीत्थशालंशुभ तिहग्भ्यांभवेल्लाभः ॥ ६ ॥ धनलाभप्रश्नमें लग्नेशसे चन्द्रराशीश तथा धनभावेश इत्यशाल करें शुभ- ग्रहों से युक्त दृष्टभी हो तो धनलाभ होगा ॥ ६ ॥ कर हैर्धनस्थैर्दूरेलाभोऽन्यदप्यशुभम् || क्रूरथशिलेधनेशेप्रष्ट।म्रियतेथवाविलगेशे ॥ ७ ॥ जो पापग्रह धनस्थानमें हों तो लाभ बहुत कालमें हो और कु अशुभ भी होवे धनेश वा लग्नेश पापसे इत्थशाली हो तो प्रष्टा आरिष्ट पावे ॥ ७ ॥ "धनधनपेयथेत्थशालो दगतिर्यत्रभावानाम् || तनुधनसहजादीनांप्रष्टुस्तहारतोलाभः ॥ ८ ॥ धनेश मंदगामी तनु धन सहजेशादिकों में से जिससे इत्यशाली हो उस भावसंबंधी जनके द्वारा धनलाभ होवे ॥ ८ ॥ · अनुष्टु० - प्रश्नचतुर्थाधिपतिस्त॒त्रस्थोवावलोकते ॥ अवश्यंवर्त्ततेतत्रधनंचंद्रेथवावदेत् ॥ ९ ॥ स्थापित वा चौरादि धनकी भांतिमें चतुर्थेश चतुर्थभावमें हो वा उसे देखे अथवा चन्द्रमा चतुर्थ हो तो धन अवश्य तहां होगा यह कहना ॥ ९॥ .. वित्तेशेधनगेबंधौवास्तित धनंबहु || पापेतुर्यगतेद्रव्यंस्थितंतूर्णैनलभ्यते ॥ १० ॥ धनेश धनभाव में चतुर्थ हो तो प्रश्नस्थान में बहुत घन है जो पापग्रह भी चतुर्थं हो तो धन तो है किंतु शीघ्र नहीं मिले ॥ १० ॥ । भौमेसप्ताष्टराशिस्थेधनमन्यत्रनाप्यते || लग्नेतमोरविच्छिद्रेत- दाद्रव्यंनलभ्यते ॥ सताष्टदशपातालेधन दौचन्द्रमागुरुः ॥ ११ ॥ जो मंगल सप्तम वा अष्टम हो तो धन औरस्थानमें है नहीं मिलेगा, जो भाषाटीकासमेता । (२११) लग्नमें राहु अष्टम सूर्य्य हो तो द्रव्य नहीं मिले; ७ | ८ | १० । ४स्थानोंमें चंद्रमा और बृहस्पति हों तो चिंतित धन देतेहैं ॥ ११ ॥ लग्नेश्वरेद्यूनगतेविल जायेश्वरेनष्टधनस्यलाभः ॥ जायेशल धिपतीत्थशालेधूने विनष्टंधन मेतिमर्त्यः ॥ १२ ॥ लग्नेश सप्तम सप्तमेश लग्नमें हों वा लग्नेश सप्तमेशका इत्यशाल हो तो नष्ट वा विस्मृत धन प्रष्टा पावे ॥ १२ ॥ लग्नेशजायाधिपतीत्थशालेल वरंयच्छतितस्करोर्थम् ॥ सूय्यँविलग्नेस्तमितेशशांकनलभ्यतेयद्रविणंविनम् ॥ १३ ॥ लग्नेश सममेशका इत्यशाल हो तो चोर आपही धन देदेगा, जो सूर्य लग्न में चन्द्रमा सप्तम में हों तो नष्टधन न मिले ॥ १३ ॥ कर्मेशलग्नाधिपतीत्थशाले चौरः स्वमादायपुरात्पलायते ॥ चंद्रे तपेचार्ककरप्रविष्टेतलभ्यतेनटधनंसतस्करम् ॥ १४ ॥ दशमेश और लग्नेश इत्यशाली हों तो चोर धन लेकर नगरसे भागगया; चंद्रमा और सप्तमेश अस्तंगत हों तो धनसहित चोर पकड़ा जायगा ॥१४॥ अस्तेश्वरे केंद्रगते स्तिचौरस्तत्रैवन/न्यत्रपुरा द्विनिर्गतः || धर्मेशदुश्चिक्यपतीत्थशालेजायेश्वरेन्यत्रगतःसचौरः ॥ १५ ॥ सप्तनेश केंद्र में हो तो चोर तहाँही है नगरसे अन्यत्र नहीं गया, नवमेश दशमेशसे इत्यशाली सप्तमेश हों तो अन्यत्र चलागया ॥ १५ ॥ कर्मेशलग्नाधिपतीत्थशालेतलभ्यते राजकुलाच चौर्य्यम् ॥ त्रिधर्मपद्यनपतीत्थशालेत्वन्यत्रदेशाद्रमनेतदाप्तिः ॥ १६ ॥ दशनेश लग्नेशका इत्यशाल हो वो राजकुलसे चोर पकडा जावे; तृतीय नवमके स्वामी सप्तमेशसे इत्थशाली हों तो और देशमें पकडा जावेगा ॥१६॥ शुभेत्थशालेहिमगौविलश्लेखस्थेथवानष्टधनस्यलाभः ॥ सुत्रेहदृष्ट्या रविणाशुभेनदृष्टेविलग्नेहिमगौचलाभः ॥ १७॥ चंद्रमा शुभग्रहसे इत्यशाली लग्न वा दशम में हो तो नष्टधन मिले; जो लग्न- गत चंद्रमाको सूर्य्य तथा शुभग्रह मित्र दृष्टि से देखें तौभी वही फलकहना १७॥ 1 ( २१२ ) ताजिकनीलकण्ठी | ॥ ● स्थिरोदये स्थिरांशेवावेत्तमगतेपिवा स्थितं तत्रैव तद्रव्यंस्वकीयेनैवचोरितम् ॥ १८ ॥ लनमें स्थिर राशि वा स्थिर नवांश अथवा वर्गोत्तमांश हो तो वह धन वहीं है किन्तु अपनेही मनुष्यने चोरी करी ॥ १८ ॥ आदिमध्यावसानेषुद्रेष्काणे विल तः || रदेशेथवामध्येगृहान्तेचवदेद्धनम् ॥ १९ ॥ लग्न में प्रथम द्रेष्काण हो तो घरके द्वारसमीप वस्तु है, मध्य द्रेष्काण हो तो घरके बीचमें और तीसरा द्रेष्काण हो तो घरके पीछे होगा ॥ १९ ॥ पतितधनस्यप्रश्नेमिथोगृहस्थौविल सप्तेशौ ॥ . यदि थशिलंतयोः स्यात्तदाशुतत्रैववदंतिधनम् || २० || नष्ट द्रव्यके प्रश्नमें लग्नेश सप्तम सप्तमेश लग्नमें वा इनका मथशिल हो तो वह धन वहाँही है शीघ्र मिलेगा ॥ २० ॥ नष्टंकंदिशिप्राप्यं पृच्छायांलग्नगेविधौ च्याम् || खस्थानेयाम्यायामस्तेवारुण्यांवा भुव्युदीच्याम् ॥ २१ ॥ नष्टवस्तु कहां मिलेगी ऐसे प्रश्नमें चंद्रमा लग्नका हो तो पूर्वदिशामें दशम हो तो दक्षिण, सप्तम हो तो पश्चिम, चतुर्थ हो तो उत्तरमें मिलेगी ॥२१॥ यदिनेंदुः केन्द्रेतच्चत्वारिंशांशकैश्चपंचयुतैः ।। भागोदिक्कमउक्तोवह्न चवनीवायुवारिराशौवा ॥ २२ ॥ जो चन्द्रमा केन्द्रमें न हो तो चन्द्रस्थित अंशकते ४५ वें अंशमें जो वें राशि है उसकी जो दिशा वा उपदिशा अथवा अग्नि, पृथ्वी, वायु, जलमेंसे जो उस राशिका तत्त्वहै उसमें नष्ट द्रव्य कहना ॥ २२ ॥ नष्टहृतवित्तलग्धेःप यांचौरसप्तमंततोलाभः ॥ हिबुकंद्रव्यस्थानंल चंद्रश्वधननाथः ॥ २३ ॥ . नष्ट वा चोरित धनलाभ प्रश्नमें सप्तम स्थानसे चोर चतुर्थ से उसकी प्राप्ति, लग्नसे द्रव्य और चन्द्रमा धनका स्वामी जानना ॥ २३ ॥ भाषाटीकासमेता लग्नेशोस्तेस्तपतिनाचेन्सुथाशलीततोलाभः || यद्यष्टेशोलग्ने॒तदास्वयंतस्करोर्पयति ॥ २४ ॥ लग्नेश सप्तममें जो सप्तमेशसे मुथाशली हो तो हृतद्रव्यका लाभ होवे. जो अष्टमेश लग्नमें हो तो चोर आप ही धन देदेवे ॥ २४ ॥ { ( २१३ ) रविरश्मिगेधनेशेवास्तमितेतस्करस्यलाभः स्यात् ॥ लग्ने- शदशमपत्योर्मुथशिलतः प्राप्यतेर्थवाँचौरः || लग्नेशदृष्ट्य- भावेचौरः सहमात्रयायाति ॥ २५ ॥ 1 धनेश सूर्म्पके साथ वा अस्तंगत ही हो तो चोर एकडा जावे, लमेश दशमेशका इत्थशाल हो तो वनसहित चोर मिले जो लग्नेशकी दृष्टि सप्तम पर न हो तो चोर धनसहित आवेगा ॥ २५ ॥ ॥ २६ ॥ अस्ताधिपतौदग्धेरविरश्मिगतेथलभ्यतेचौरः ॥ लग्न पकृतेत्थशालेराजभयानमिदंस्वयंदत्ते सप्तमेश दग्ध चा अस्तंगत हो तो चोर पकडा जावे, लग्नेशसे सममेश इत्थशाली हो तो राजाके भयसे चोर आपही धन देदेवे ॥ २६ ॥ लग्नास्तपयोर्नस्याद्यदिदृष्टिलग्नपस्तथाविकलः तत्तस्करःस्वहस्ताद्ददातिचौर्य्योहिराजकुले ॥ २७ ॥ || लग्नेश सप्तमेशकी दृष्टि न हो तथा लग्नेश कलाहीन हो तो चोर अपने हाथसे राजसभायें धन चोरीका देदेवे ॥ २७ ॥ लग्नपमध्यपयोगेराजकुलंप्राप्यलभ्यतेचौर्य्यम् || रंधंचोरस्यधनंधनपेतत्राथसप्तमेनाप्तिः ॥ २८ ॥ लग्नेश दशमेश साथही हों तो राजद्वारसे चोरी मिले, अष्टमस्थान चोरका धंन होता है धनेश इसमें वा सप्तम हो तो धन न मिले ॥ २८ ॥ रंध्रपतौधनपस्यतुमुथशिलयोगे तुप्राप्यतेवित्तम् ॥ रंध्रपतौदशमपतेर्मुथशिलगेचौरपक्षकृपः ॥ २९ ॥ अष्टमेश धनेशका इत्थशाल हो तो धन मिले अष्टमेश दशमेशका मथाशिल हो तो राजा चोरका पक्षपात करे ॥ २९ ॥ 1 ( २१४ ). • ॥ ३१ ॥ ताजिकनीलकण्ठी | चौरस्थानज्ञानम् | चौरज्ञानप्रश्नेलग्नेरविशशिदृशास्वगृहचौरः || अनयोरेकहशागृहसमीपवर्त्तीवसत्येषः ॥ ३० ॥ चौर कहां है पर सूर्य चंद्रमाकी दृष्टि हो तो प्रष्टाके घरहीमें और इनमेंसे एककी दृष्टि हो तो पढोसमें रहता है ॥ ३० ॥ लग्नस्थेलग्नपतावस्तपयुक्तेचगृहगतश्चौरः || अस्ताधिपतावंत्येसहजेवास्वीयभृत्योयम् लग्नेश लग्नमें सप्तमेशयुक्त हो वो चोर प्रष्टाके घरही में रहताहै, जो सप्तमेश बारहवाँ वा तीसरा हो तो चौर अपनाही नौकर है ॥ ३१ ॥ अस्तेशेतुंगस्थेस्वगृहेवातस्करः प्रसिद्धः स्यात् ॥ लग्नदशमा- स्तभावाः कमेणवीक्ष्याः स्वतुंगभवनादौ ॥ ३२ ॥ यःखेटः स्याद्व- लवान्स ज्ञेयस्तस्करस्यबली || लग्नादिषुयोग्रहः स्वोच्चादिब- लीसयज्जातिः ॥ एवंयोगंतुविनाघ्नेशस्यैवबलमभिग्राह्यम् ॥३३॥ सप्तमेश उच्चमें वा स्वगृहमें हो तो वह चोर नामी है कहना तथा १ ॥१०॥ ७ भाव क्रमसे देखने इनमें जो कोई उच्चादि बली हो वह चोरका बल जानना और उनके अनुसार फल कहना. जब ये योग न हों तो सप्तमही केवल लेना, बली ग्रहकी जातिरूपवाला चोर होगा वा चोरकी सहाय करेगा ३२|३३ इत्थंचौर [नेचौरः सूर्येगृहेश्वरस्यपिता || चंद्रेमाताशुक्रेमा- देसुतोभवे चे ॥ ३४ ॥ जीवेगृहप्रधानं भौमे त्रोथवा भ्राता ॥ `स्वजनोमित्रंवाज्ञात्वेत्थंपुण्यसहममावेश्यम् ॥ ३५ ॥ उक्त प्रकारोंसे चोर जाननेके और ज्ञान हैं कि वह योगकर्ता सूर्य्य हो तो उसघरके स्वायीका पिता चोरहै; एवं चन्द्रमासे माता, शुक्रसे स्त्री शनिसे पुत्र वा दास बृहस्पति घरका श्रेष्ठ मंगलसे पुत्र भाई बुध से, मित्र होगा ऐसा जानकर पुण्यसहम देखना ॥ ३४ ॥ ३५ ॥ तस्मिन्क्रूराहष्टेपुरानचौरोस्तपेपुरापिस्यात् ॥ अस्तेशान्मूसरिफेभौमेचौरः पुरापिनिगृहीतः || ३६ || पुण्यसहम क्रूर दृष्ट न हो तो यह पहिले चोर नहीं था, सप्तमेश पाप- / भाषाटीकासमेवा | (२१५) दृष्ट हो तो पहिले भी चोरथा. सप्तमेशसे मंगलका मूसरिफ हो तो यह चोर पहिले भी चोरीमें पकडा गया था ॥ ३६ ॥ सप्तमगेर विपुत्रेचंद्रदृशातस्करोहिपाखंडी ॥' वोविलोक्यलोकं भौमेखातेनतालकंभंक्त्वा ॥ ३७ ॥ शनि सप्तम चंद्रदृष्ट हो तो चोर पाखंडी होगा, बृहस्पति उसे देखे तो चोर लोकविदित होवे. सप्तम मंगल चंद्रदृष्ट हो तो कुम्हल वाला जंजीर आदि तोडकर चोरने चोरी करीहै ॥ ३७ ॥ . प्रतिकुंचिकयापहृतंसितेतिथिज्ञेप्रपंचकरः।।चौरस्यवयोज्ञाने सितेयुवा ज्ञेशिशुर्गुरौमध्यः ॥ तरुणो भौमे मदेवृद्धो कैस्यादतिस्थविरः ॥३८॥ सप्तममें शुक्र चंद्रदृष्ट हो तो दूसरी कुंची ( चाबी) से खोलकर चोरी भई तथा बुष हो तो अपूर्व मनुष्य प्रपंची चोर है और चारकी अवस्थाके ज्ञानमें शुक्रसे युवा. बुधसे बालक बृहस्पतिसे मध्य अवस्था मंगलसे तरुण. शनिसे बूढा. सूर्य्यसे अतिबूढा जानना ॥ ३८ ॥ त नभसोः स्वमंदिरेस्मरभूम्योर्भूमिलाभयोर्मध्यम् || चरतिरखौनवमध्यमवृद्धवयोतीतकाः क्रमशः ॥ ३९ ॥ सूर्य्य १ | १० स्थानके बीच अपनी राशिमें हो तो नया जवान ७१४ स्थानों के बीच स्वराशिका हो तो मध्यमावस्थ, ४ । ११ के बीच हो तो बूढा, इतनी अवस्था क्रमसे व्यतीत जाननी ॥ ३९ ॥ नष्टस्थानप्रश्नतुय्यभूम्यग्निवायुजलमध्यात् ॥ योभवतिराशिरस्मात्स्थानंज्ञेयंगतधनस्य ॥ ४० ॥ चौरीका द्रव्यस्थानके प्रश्नमें चतुर्थ स्थानमें भूमि वायु जलमेंसे जिस तत्त्वकी राशि हो उसका विशेष स्थान कहना ॥ ४० ॥ अथचतुर्थगृहेतुर्येश्वरोथयःस्याग्रहस्ततोज्ञेयम् ॥ मंदेमलिनस्थानेनिंगी पतौसुरारामे ॥ ४१ ॥ भौमेव हिसमीपरवौगृहाधीश्वरासनस्थाने ॥ तल्पेशुक्रेसौम्येपुस्तकवित्तान्नयानपाच ॥ ४२ ॥

( २१६.

ताजिकनीलकण्ठी । चतुर्थमें चतुर्थेश वा जो ग्रह बली हो उससे चोरी द्रव्यका स्थान कहना; जैसे शानसे मैलास्थान चंद्रमासे जलाशय वा हाथ पैर धोवने के स्थान बृहस्पतिसे देवससीप वा बगीचा, मंगलसे अग्नि समीप, सूर्म्यसे गृहपतिके बैठने के स्थान, शुक्रसे शयनस्थान, बुधसे पुस्तक धन अन्न वा डोली आदि सवारीके समीप कहना ॥ ४१ ॥ ४२ ॥ चौरोयमथनवेति रेंद्रोर्मुथशिलेचचौरः स्यात् ॥ सौम्यशशिमुथशिलेखलुन भवति चौरः प्रवक्तव्यम् ॥ ४३ ॥ यह चौर है वा नहीं ऐसे प्रश्नमें चंद्रमा पापग्रहमें सुथशिली हो तो चोर होगा. जो शुभसे मुथशिंली हो तो चोर नहीं है कहना ॥ ४३ ॥ किमनेनतस्करत्वंकदापिविहितंनवेतिपृच्छायाम् ॥ लग्नपशशिनोरकस्मादपिम्सरिफेस्तपेविहितम् ॥ १४ ॥ इसने कभी चोरी करो वा नहीं ऐसे प्रश्नमें लग्नेश वा चंद्रमासे सप्तमेश मूसरिफी हो तो पहिले भी चोर ॥ ४४ ॥ / चोरःस्त्री रूपोवापृच्छायामस्तपेस्त्रियोराशौ ॥ 'स्त्रीखेटेस्त्री चौरः स्त्रीव्यत्ययात्पुरुषः ॥ ४५ ॥ चोरे स्त्री वा पुरुष कौन होगा ऐसे प्रश्नमें सतमेश स्त्रीराशि में और स्त्री- ग्रह वा स्त्रीग्रहदृष्ट हो तो चोर स्त्री होगी जो पुरुष राशिमें सप्तमेश पुरुषह पुरुषष्ट होतो पुरुष चोर होगा ॥ ४५ ॥ . लेशे नवमांशतोवयःप्रमाणजायतेज्ञेयः ॥ चौराय मिहानंतशास्त्रं कथिता यमुद्देश ॥ ४६॥ लग्न वा लग्नेशके नवांशवशसे चोरकी अवस्थाका प्रमाण जातिरंग आ- दि और द्वेष्काणसे उसका रूप कहना. शेष विचारको शास्त्र अनंत है यहा बुद्धिमानोंको उद्देशमात्र कहा है ॥ १६ ॥ इति श्रीमहीधरकृतायां नील प्रश्नतंत्रभा पाटीकार्याधनभावप्रश्ननि० ॥ २ ॥ अथ तृतीयभावप्रश्नः । सहजपतियदि सहजं पश्यतिचेदयंश भैदृष्टम् ।। तद्धांतरों गतरुजःस्वस्थाः रेक्षितेवामम् ॥ १ ॥ भाषाटीकासमेता । ( २१७ ) तृतीयेश तृतीय भावको देखे तथा तृतीयभाव और तृतीयेशको शुभग्रह देखें तो भाई सुखी सावधान और पाप दृष्टि योगसे रोगी वा अस्वस्थ कहना ॥ १ ॥ यदि सहजपतिः षष्ठेतत्पतिना सुथशिलेऽथतन्मांद्यम् || षष्ठेशे सहजस्थे सहजपतरि वापि ॥ सूर्य्यस्यरश्मिसंस्थेभयावहं प्रष्टुरादेश्यम् ॥ २ ॥ तृतीयेश छठा वा आठवां होकर षष्ठेशसे इत्थशाली हो तो भाई मांदे कहने, वा षष्ठेश तीसरा वा तृतीयेश पापयुक्त हो तो भी यही फल है, जो अस्तंगत हो तो प्रष्टाको भय देताहै ॥ २ ॥ 1 षष्टमभावेशौ यद्भावेशेनेत्थशालिनौस्याताम् || पीडांतस्य प्रवदेत्ष [ष्टमभावगे वापि ॥ ३ ॥ 'छठे आठवें भावके स्वामी जिस भावेशके साथ इत्थशाली हो वा जिस भावमें हों अथवा जिस भावका स्वामी ६ | ८ स्थानमें हो उस भावसंबंधी पीडा कहनी ॥ ३ ॥ एवं सर्वेपि यथॉपित्रोस्तुय्सुतानांच || पंचमभावे भृत्यचतुष्पदस्त्रियाः हृदकः सप्तमे ॥ ४ ॥ ऐसे सभी भावोंमें विचार करना जैसे चतुर्थेशसे षष्ठेश वा अष्टमेशका इत्थशालहो, यद्वा इन भावोंके स्वामी चतुर्थ वा चतुर्थेश इन भावों में हो तो माता पिताको पीडा होवे, ऐसा पंचम भावसे पुत्रों को सप्तमसे भृत्य, स्त्री चतुष्पद इत्यादि जानना ॥ ४ ॥ अथ क्रयविक्रयौग्रन्थान्तरे । अनु० -क्रेता लग्नपतिर्ज्ञेयो विक्रेतायपतिःस्मृतः ॥ गृह्णाम्यहमिदंवस्तुप्रश्न एवंविधेसति ॥ ५ ॥ बलशालि विलग्नंचेगृह्यतेतत्क्रयाणकम् ॥ तस्मात्क्रयाणकाल्लाभःप्रष्टुर्भवति निश्चितम् ॥ ६ ॥ मैं यह सौदा करताहूं इसमें लाभ हानि क्या होगी ऐसे प्रश्नमें लेनेवाला लग्नेश बेचनेवाला लाभेश होता है, इनके बलावलसे विचार कहना, जैसे लग्न लग्नेश बलवान् हों तो यह द्रव्य लेना इसमें मष्टाको निश्चयलाभ होगा ॥ ५॥ ६ ॥ ताजिकनीलकण्ठी । विक्रीणाम्यमुकं वस्तुप्रश्न एवंविधेसति || आयस्थाने बलवति विक्रेतव्यं ऋयाणकम् ॥ ७॥ मैं यह वस्तु बेचताहूं कैसा होगा ऐसे प्रश्नमें आयस्थान वा तत्त्वामी बलवान् हो तो इस विकीमें लाभ अन्यथा हानि होगी ॥ ७ ॥ ७ इति श्रीमहीधरकृतायां प्रश्नतंत्रभापाटीकायां तृतीयभावप्रश्ननिरूप० ॥३॥ अथ चतुर्थस्थानप्रश्नः | (२१८) लग्नपतींदुचतुर्थपतिमुथशिलमथवागृहे गमनम् ॥ प्र : पृथ्वीलाभदम सौख्यदृग्योगतोनैव ॥ १ ॥ लग्नेश चन्द्रमा और चतुर्थेश परस्पर इत्थशाली वा एकही स्थान में होंतो प्रष्टाको भूमिलाभ होवे पापग्रहों से युक्त वा दृष्ट हों तो लाभ नहीं होगा, विशेष बलाबलसे फल कहना ॥ १ ॥ - यदि पृच्छति कृषिको मेक्षेत्राल्लाभो भवेन्नवा || लग्गंकृषिकस्तुय्यै भूमिद्यूनंच कृपिस्तरुदेशमम् ॥ २ ॥ खेतीवाला जो पूछे कि मेरी खेतीसे लाभ होगा वा नहीं तो लग्नं कृषि- कर्त्ता चतुर्थ भूमि सप्तम कृषि दशम अन्न वृक्षादि होते हैं इन भावोंके बला- बल निरूपण करके उक्त कामों में शुभाशुभ कहना ॥ २ ॥ लग्नेरोपगते स्यान्चौरोपद्रवस्तुकृषिकर्त्तुः ॥ वक्रातिचारवज्यैकरे चौरस्यकृषिलाभः ॥ ३ ॥ लग्नमें पापग्रह हों तो कृषिकर्त्ताको चौरादि उपद्रव होंगे जो वह पापग्रह वॅकी वा अतिचारी न हों तो चौरसे फिरभी लाभ होवे ॥ ३ ॥ 1 लग्नस्थे शुभखेटेसाफल्यंकर्षकस्य कृषितः स्यात् || भूमि प्रयात्येषः ॥ ४ ॥ लग्नमें शुभग्रह हों तो खेतीवालेको खेतीमें अच्छा लाभ होगा जो चौथा. पापग्रह हो तो समयपर खेती छोडकर भागजायगा ॥ ४ ॥ चूने च शुभोपगते शुभंकृपेस्त्वन्यथातुविपरीतम् ॥ दशमे दशमपतौ वा शुभयुतदृष्टेशुभा वृक्षाः ॥ ५ ॥ भाषाटीकासमेता । (२१९ ) सप्तम स्थानमें शुभग्रह हो तो कृषी अच्छी होगी पापग्रह हो तो अनादि अच्छा नहीं लगेगा तथा दशमेश दशममें शुभग्रहों से युक्त वा दृष्ट हो तो वृक्ष अन्न आदि अच्छे होंगे ॥ ५ ॥ भूभाटकपृच्छायां प्रष्टा च भाटकं धूने ॥ तस्योत्पत्तिदेशमे तथावसानं चतुर्थं स्यात् ॥ ६ ॥ भूमिसंबंधी महसूल किराया किस्त आदिके प्रश्नमें लग्नसे प्रष्टा सप्तमसे किराया उसकी उत्पत्ति दशमसे और उसका परिणाम वा क्षय चतुर्थ स्थानसे विचारके कहना ॥ ६ ॥ . लग्नस्य लग्नपस्यच शुभयोगेशुभमशोभन॑वामे || द्यूनेक्रोपगते यस्मादपि भाटकस्ततोनर्थः ॥ ७ ॥ लग्न तथा लग्नेश शुभग्रह युक्त दृष्ट हों तो भाडाविषयक समस्त शुभ, पापग्रहयोग दृष्टि हों तो सर्व अशुभ फल जानना, जो सप्तममें भी पापग्रहही हों तो भाडामें किसी प्रकार अनर्थ होगा ॥ ७ ॥ दशमे क्रूरोपगते नोत्पत्तिर्त्रहुतराभवेत्प्रष्टुः || ऋरार्दितेतु तुय्यैस्यादवसाने शुभंनास्य ॥ ८ ॥ दशमस्थान में पापग्रह योग दृष्टि हो तो प्रष्टाको भाडा बहुत न मिले, चतुर्थ । स्थानमें पाप हो तो भाडेका परिणाममें कारखाना डूबजायगा |॥ ८ ॥ · ग्रन्थांतरे नौकाप्रश्नः । नौर्लाभदास्यान्ममनेतिप्रश्ने केंद्रेशुभाश्चेदितरेषुपापाः ॥ बलोज्झिताक्षेमजयार्थदानौ भावीतिवाच्यं विदुषा विमृश्य ॥ ९॥ नाव ( जहाज ) आदिके काम में लाभ होगा या नहीं ऐसे प्रश्नमें केंद्रोंमें बलवान् शुभग्रह अन्यस्थानों में निर्बल पापग्रह हों तो नाव लाभ देगी, विशेष तारतम्यसे विद्वानोंने विचारकरके फल कहना ॥ ९ ॥ लग्नाधिपेवक्रिणिचास्यनाथेव्यावृत्यनौरैतिचः मार्गतः स्यात् ॥ चेत्सौम्यदृष्टः शलेन पापैर्दृष्टस्तदावस्तुविनेति वाच्यम् ॥ १० ॥ (२२०) ताजिकनीलकण्ठी । लग्नेश वक्रगति और उसके स्थानका स्वामी वा चतुर्थेश शुभयुत दृष्ट हो तो नाव मार्गसे कुशलपूर्वक हटि आवेगी; जो पापग्रहसे युत वा दृष्ट हो तो वस्तु विनाही लौट आवे ॥ १० ॥ विलग्नरंध्राधिपतीस्वगेहेप्रवेक्ष्यतश्चेद्रयवहारलाभः || यदाष्टमेसौम्यखगांबलाढ्यास्तदातरीलीभसुखदास्यात् ॥ ११ ॥ लग्नेश और अष्टमेश अपने २ राशिमें हों वा अपने भावोंको देखें तो नावव्यवहारमैलाभ होवे. जो बलवान् शुभग्रह अष्टम हो तो नाव लाभ और सुख देगी ॥ ११ ॥ कुशलायातिपृच्छायांमृत्युयोगेसमागते ॥ तदानौरेतिशीघेणलाभाद्यंचान्ययोगतः ॥ १२ ॥ , नाव कुशलसे आवेगी, ऐसे प्रश्नमें जो मृत्यु फल देनेवाला योग प्रश्न लग्नमें हो तो नाव शीघ्र अपने स्थान में आवेगी जो कोई आरेष्टदायक योग हो तो लांभ अच्छा होगा, जो और काममें बुरे योगहैं उनमें से कोईभी हो सों यहां शुभदायक है ॥ १२ ॥ लग्नेशचंद्रनाथंवाचंद्र॑वामृत्युपोयदि ॥ तदायानस्यवक्तव्यनि- श्चितंमज्ज नंबुधैः॥ तावुभौसप्तमस्थैौचेजलेवापतितांवदेत् ॥ १३ ॥

लग्नेश वा चंद्रराशीश वा चंद्रमाको अष्टमेश देखे वा युक्त हो विशेषतः

इत्थशाली हो तो नाव द्रव्यसहित डूबजायगी ऐसा निश्चय कहना, जो वे दोनहूं सप्तमस्थान में हों तौभी नावका द्रव्य डूब जायगा नाव मात्र बचेगी कहना ॥ १३ ॥ लग्नचंद्रपतीक्रूरदृष्टयान्योन्यंयदीक्षितौ ॥ • तदापोतजनानांचमिथः कलहमादिशेत् ॥ १४ ॥ लग्नेश और चन्द्रमा परस्पर शत्रुदृष्टि से देखें तो नाववाले मनुष्योंका परस्पर कलह होवे ॥ १४ ॥ इति श्रीमहीधरकृतायां प्रश्नतंत्रभाषाटीकायां चतुर्थभावप्रश्ननिरूपणम् ॥ ४ ॥ भाषाटीकासमेता । (२२१ ) अथ पंचमस्थानप्रश्नः । यदिपृच्छत्येतस्याः योभवेन्मे जानवाकात्रि || लग्नेशेंद्रोः सुतपतिनामुथशिलभावेप्रसूतिः स्यात् ॥ १ ॥ जो प्रष्टा पूँछे कि, मेरी स्त्री प्रसूती होगी वा नहीं तो लग्नेश चंद्रमा पंच- मेश परस्पर इत्थशाली हों तो संतती होगी ॥ १ ॥ • यदि तपतिर्विलग्नेलग्नपचंद्रौसुतेथवास्याताम् ॥ सत्वरित मेववाच्यासविलंबनक्तयोगेन ॥ २ ॥ || जो पंचमेश लग्नमें वा लग्नेश और चंद्रमा पंचमहों तो शीघ्र होगी, जो इनका नक्तयोग हो तो विलंबसे होगी ॥ २ ॥ द्विशरीरेचविलग्नेशुभयुतपुत्रेद्रयपत्ययोगोस्ति यदि लग्नपपुत्रंपतीपुंराशीतत्सुतोगर्भे ॥ ३ ॥ लग्नमें द्विस्वभाव राशि शुभग्रहसे युक्त वा दृष्ट हो तो, गर्भमें दो अपत्य होंगे, जो लग्नेश पुत्रेश पुरुषराशिमें हों तो गर्भमें पुत्र होगा खीराशिमें हों तो कन्या होगी ॥ ३ ॥ १ अथचंद्रः पुराशौ ग्रहकृतमुथशिलस्तदापिसुतः ॥ अथवाविवरपराह्नेसूर्य्यात्पृष्टेतदास्त्रीस्यात् ॥ ४ ॥ जो चंद्रमा पुरुष राशि में पुरुष ग्रहसे युक्त वा मुथशिली हो तो गर्भ में पुत्र होगा अथवा चंद्रमा अपरा समयका वा कृष्णपक्षका तथा सूर्य्यसे पीछे हो तो गर्भमें स्त्री होगी ॥ ४ ॥ हारास्वामीपुरुषः पुराशौचेत्तथापिसुतंगर्भः ॥ तुंगेंदुसौम्ययुक्तंगर्भेदीर्घायुः त्रसंभृतिः ॥ ५ ॥ लग्नेश पुरुषग्रह पुरुष राशिमें हो तौभी गर्भमें पुत्र होगा जो उच्चका चंद्रमा शुभग्रहों से युक्त दृष्ट पंचम हो तो दीर्घायु पुत्र होगा ॥ ५ ॥ एषागर्भवतीकिल नवा प्रमाणं प्रयाति गर्भोयम् || लग्नपशशिनोः सुतस्थयोर्भवत्येव ॥ ६ ॥ जो प्रश्न हो कि यह स्त्री गर्भवती है या नहीं तो प्रश्नमें लग्नेश और चंद्रमा पंचम हो वा उसे देखे तो गर्भवती है ॥ ६ ॥ 4 ताजिकनीलकण्ठी | 'यद्येतयोर्मुथशिलंकेंद्रेसुतपेनगर्भिणीतदपि ॥ आपोक्किमेत्यशालादनीक्षणाटमपुत्रयोनवम् ॥ ७ ॥ जो लग्नेश और चंद्रमाका केंद्र में सुथशिल हो तोभी गर्भिणी है जो इत्यशाल आपोक्किममें हो यद्वा लग्नेश पुत्रभाव वा पुत्रेश परस्पर न देखें तो गर्भवती नहीं है ॥ ७ ॥ चरलनेरेंद्रोथशिलभावे विनश्यतिहिगर्भः ॥ लग्नपशशिनोस्तत्पतितत्रस्थेवकमुत्थ शिलेपितथा ॥ ८ ॥ चरलग्नमें पापग्रह चंद्रमासे मुथशिली हो तो गर्भ नष्ट हो जायगा. लग्नेश तथा चंद्रमाका नीच।दि पतित वा चक्रो ग्रहसे मुथशिली हो तोभी गर्भनष्टहोगाट जीवितमरणप्रश्नेबालानामंत्यपेशुमैर्दृष्टे || केंद्रस्थे सितपक्षे शुभयुक्तत्ये विधौजीवेत् ॥ ९ ॥ बालकके जीवित और यरण प्रश्नमें जो व्ययेश केंद्र में शुभ ग्रह दृष्ट हो तथा शुक्कुपक्षका चंद्रमा शुभ युक्त वारहवां हो तो वालक बचेगा ॥ ९ ॥ क्रूरैश्चेदंत्यपतिदग्धश्चापोक्किमेयुतःक्रूरैः ॥ दृष्टश्चजातमात्रो म्रियतेबालोऽथवागर्भे ॥ १० ॥ जो व्ययेश पापग्रह दग्ध तथा आपोक्किम स्थानमें पापयुक्त दृष्ट हो तो बालक जन्ममें वा गर्भहीमें मरजावे ॥ १० ॥ ( २२२ ) प्रसवज्ञानप्र मुक्त लांशकान् परित्यज्य || भोग्याद्विचिंत्यशेषाननुमित्येवंवदे दिवसान् ॥ ११ ॥ प्रसवदिन ज्ञान प्रश्नमें लग्नके भुक्तांशकोंके तुल्य गर्भके भुक्त मास भोग्यां- शोंसे शेपदिन अनुमान करके कहना ॥ ११ ॥ लग्नाद्यतमेस्थाने शुक्रस्तावद्देन्मासम् ॥ यदिधर्मादूर्द्धस्थस्तद्वदेत्पंचमस्थानात् ॥ १२ ॥ लग्नसे शुक्र जितनवें स्थान में हो उतने महीनेका गर्भहै कहना. जो नवम स्थानसे ऊपर शुक्र हो तो पंचम भावसे शुक्रपत भाव गिनके गर्भ मास कहना ॥ १२ ॥ भाषाटीकासमेता । ( २२३ ) लग्नांतर्दिनराशिर्दिवाग्रहो लग्नपञ्चदिनराशौ || तद्दिवसे जन्मस्याद्विपरीतेव्यत्ययश्चैषाम् ॥ १३ ॥ जो लग्न दिवाबली और लग्नेश भी दिवाबली राशिमें हों तो दिनमें और ये रात्रिमें बली हों तो रात्रिमें जन्म होगा ॥ १३ ॥ 'तत्काले द्विरसांशश्चन्द्रमसस्तत्समेचन्द्रे ॥ गर्भस्यप्रसवः स्यादनुपातःशास्त्रतः कार्य्यः ॥ १४ ॥ प्रश्न वा आधान कालमें चन्द्रमा जिस द्वादशांशमें हो उसीके तुल्यराशिस्थ चन्द्रमामें नवम वा दराम महीने में जन्म होगा. इसका अनुपात अन्य शास्त्रों में विशेष प्रकट कहा है, बृहज्जातक महीधरीभाषामेंभी विशेष विस्तार है ॥ १४ ॥ अस्मिन्वर्षेऽपत्यंभविताविलग्नपंचमाधीशौ ॥ भजतो यदीत्थशालंतत्रैवाब्दे भवेन्नूनम् ॥ १५ ॥ . इससालमें मेरे संतान होगी वा नहीं ऐसे प्रश्नमें जो लग्नेश पंचमेश इत्थ- शाली हों तो निश्चय संतान होगी. ईसराफसे न होगी ॥ १५ ॥ यदिवा मिथोगृहगतौस्यातामे तौच संत तिस्तदपि || . वाच्या तस्मिन्वर्षे शुभयोगादन्यथान पुनः ॥ १६ ॥ अथवा लग्नेश पंचमेश एकही स्थानमें वा एककी राशिमें दूसरा दूसरेकीमें एक हो तथा शुभयुक्त हो तो संतान होगी. इतने मेंसे कोईभी योग न हो तो संतान नहीं होगी ॥ १६ ॥ सूताप्रसूतयुवतिज्ञाने तपोथषष्ठपःसूर्य्यात्॥निंर्गत्योदयमायात्ततः प्रसूतेचनारीयम् ॥ अथजीवभौमशुका आकाशउदयिनस्तथाप्ये- वम् ॥ १७ ॥ यह स्त्री प्रसववती होगी वा नहीं ऐसे प्रश्नमें पंचमेश वा षष्ठेश सूर्य्यंके साथसे उदय होगया हो अथवा बृहस्पति मंगल शुक्र दशम स्थानमें हों तो प्रसूति होगी ॥ १७ ॥ ग्रंथांतरे । लग्नेश्वरेणाथनिशाकरेणय दीत्थशालंकुरुतेसुतेशः ॥ · भःशुमैः संयुतईक्षितः स्यात्सत्संतति टुरसौविदयात् ॥ १८ ॥ (२२४ ) ताजिकनीलकण्ठी । जो पंचमेश लग्नेश वा चन्द्रमासे इत्यशाल करे तथा पंचमेश शुभ ग्रह हो शुभग्रहसे युक्त वा दृष्टभी हो तो टाको संतति देता है ॥ १८ ॥ पुंस्त्रीग्रहाः पुत्रगृहविलनात्पश्यंतियावंतइहातिवीर्य्याः ॥ तत्संख्यकाः स्युस्तनयाञ्चकन्याःशुभेशयोगात्सुतभांशतुल्याः॥ १९॥ . जितने पुरुष ग्रह अतिबली होकर पंचम भावको देखें उतने पुत्र तथा जितने स्त्रीग्रह अतिबली होकर देखें उतनी कन्या होंगी वा पंचममें जितने भुक्त नवांशक हों उतने होंगे किंतु ये संख्या पूर्वोक्त इत्यशाल हुयेमें और स्वस्वामी शुभयुक्त पंचम होनेमें होती हैं ॥ १९ ॥ लेशपुत्राधिपती परस्परंनपश्यतचेदुदयंचपंचमम् || पापेत्थशालौसुतलग्नपौचप्रष्टुस्तदासंततिनास्तितांवदेत् ॥ २० ॥ लग्नेश और पंचमेश परस्पर न देखें तथा लग्न और पंचमकोभी न देखें वा लग्नेश पंचमेश पापेत्थशाली हों तो संतति नहीं है कहना ॥ २० ॥ पुत्रालयेसिंहवृषालिकन्याः प्रश्नोदयाज्जन्मभतस्तथेंदोः ॥ • अल्पप्रजःसंततिपृच्छकः स्यात्पापैःसुतक्षैसहितेक्षितेवा ॥ २१ ॥ पंचमेश ५ | २ | ८ | ६ राशि प्रश्न वा जन्मलग्न अथवा चन्द्रमासे हों तो प्रष्टाको अल्प संतान होगी, पापग्रहोंसे पंचमस्थान युक्त दृष्ट होने भी यही फल है ॥ २१ ॥ 4 स्वक्षैस्थितौरंध्रगतौयमाप्रष्टुत्रियंसंदिशतश्ववंध्याम् || छिद्रस्थितौचंद्रवुधौस दो पांवाका कवन्ध्यांतनयाप्रसूतिम् ॥ २२ ॥ अष्टम स्थानमें शनि सूर्ध्य ५ | १० | ११ राशिमें हो तो टाकी स्त्री वंध्या है जो चन्द्रमा बुध अष्टम हों तो उसपर किसी देवताभूतप्रेतादिका दोपहै, अथवा १ संतान होकर वंग्या होवे वा कन्याही होवे इसमें विशेष विचार यह है कि, उनमें से चन्द्रमा बली हो तो कन्याप्रजा होगी यदि उसपर पुरुष ग्रह की दृष्टि हो तो काकवंध्या, जो बुध वली हो तो धंध्या होवे ॥ २२ ॥ ( (२२५) || भाषाटीकासमेता | मृतप्रजाछिद्गगयोःसितेज्ययोर्गर्भस्रवाभूमिसुतेष्टमर्क्षे द्वेश्वरेछिद्रगतिवीर्येपुष्पंन विंदत्यबलासुतप्रदम् ॥ २३ ॥ जो शुक्र बृहस्पति अष्टम हों तो मृतप्रजा अर्थात् जितने संतान हों मरतेही रहें मंगल अष्टम हो तो गर्भ गलते रहें जो अष्टमेश अष्टम भाव में बलवान् हो तो पुत्र देनेवाला पुष्प ( रज ) भी उस स्त्रीका न होवे ॥ २३ ॥ शुक्रार्कयोरष्टमसंस्थयोर्वाक्ररेर्द्धवांत्याष्टमराशिसंस्थैः ॥ जातापुरस्तान्त्रियतेप्रजावैप्रष्टुर्नचायेशुभसंततिः स्यात् ॥ २४ ॥ शुक्र सूर्य्य अष्टम हों तथा दूसरे और बारहवें पापग्रह हों तो सन्तान होतेही मरजाया करें, आगेभी शुभ सन्तति न होवे ॥ २४ ॥ रिष्फेश्वरेकेन्द्वगतेचसौम्यैर्युतेक्षितेजीवतिबालकश्च ॥ आपूर्णमासेशुभयुक्तइंदौकेंद्रेशिशुर्जीवतिदीर्घकालम् ॥ २५ ॥ अष्टमेश शुभ ग्रहों से युक्त वा दृष्ट केन्द्र में हो तो बालक बचजायगा, शुपक्षका चन्द्रमा शुभयुक्त केन्द्र में हो तो पुत्र दीर्घायु होगा ॥ २५ ॥ पंचमेशोथल शोविषमस्थानगौयदा | पुत्रजन्मप्रदो यौ कन्यानां समराशिगौ ॥ २६ ॥ " पुत्रवान् योग प्राप्तहुयेमें विशेष विचारहै कि पंचमेश वा लग्नेश विषम स्थानमें हो तो पुत्र और सम राशिमें हो तो कन्या देता है ॥ २६ ॥ युग्मराशिगते लग्ने यदातत्रशुभग्रहाः || गर्भेपत्ययं वाच्यं दैवन विपश्चिता ॥ २७ ॥ लग्न द्विस्वभाव राशिहो उसमें शुभग्रह हों तो चतुरज्योतिषीने गर्भमें दो बालक कहने ॥ २७ ॥ विषमोपगतो लग्नाच निः पुत्रसुखप्रदः || समभेयोषितांजन्मविशेषोजातकोक्तिवत् ॥ २८ ॥ लग्नसे शनि विषम स्थानमें पुत्र और सप्तममें कन्या देता है विशेष विचार जातकोतही यहांभी जानना ॥ २८ ॥ १५ ( २२६ ) ताजिकनीलकण्ठी । और विषमक्षै विषमनवांशसंस्थिता गुरुशशांकल कः ॥ पुंजन्मकराः समभेषु योषितां नृराश्यंशाः ॥ २९ ॥ बृहस्पति चन्द्रमा लग्न और सूर्य विषम राशि विषम नवांश में पुत्र समराशि नवांश अर्थात् पुरुषराशि नवांशकोंमें कन्या देते हैं ॥ २९ ॥ इति श्रीमहीघरकृतायां ता नी०मा पञ्चमस्थानमश्चनिरूपणम् ॥ ५ ॥ अथ षष्ठस्थान नः | • O रोगादय, त्थास्यति नवेतिलग्नंभिषग्धूनम् ॥. व्याधिदेशमं रोगीहिवुकंभेषजमिहाद्दुराचार्य्याः ॥ १ ॥ रोगी मनुष्य रोगसे आराम होगा या नहीं, ऐसे प्रश्नमें लग्नसे वैद्य सत रोग दशमसे रोगी चतुर्थसे औषधी आचार्ग्य कहते हैं ॥ १ ॥ ू क्रूरार्दिते विलग्ने वैद्यान्नगुणास्तदौषधाद्रोगः ॥ वृद्धिमुपयाति दशमे क्रूरैर्निजबुद्धितोप्यगुणः ॥ २ ॥ लम पापाक्रांत हो तो वैद्यसे गुण न होवे उसकी औषधिसे रोग बढ़ेगा दुराम में पापग्रह हों तो अपनीही चूक ( गलती ) से रोग बढ़े ॥ २ ॥ अस्तेचक्रूरयुक्ते मांद्यान्मांद्यंतथौषधाद्वंधौ || सौम्योपगतैरे तैररोगिता रोगिणो भवति ॥ ३ ॥ सतममें पाप हों तो रोग में रोग खडा होवे, चतुर्थमें हों तो औषधी से रोग वृद्धि होवे. इन १ । १० । ७ १ ४ स्थानों में शुभग्रह हों वा ये भाव बली हों तो नीरोगता होगी ॥ ३ ॥ लग्नेशेंद्रोः सौम्येत्थशालतो रोगनाशनं वाच्यम् || वक्रेतुतखेटे भूयोपिगदः समुपयाति ॥ ४ ॥ लग्नेश तथा चन्द्रमांका शुभग्रहसे इत्थशाल हो तो रोगनाश होवे ईस- राफ हो वा चक्रगति हो तो फेरफेर रोग उत्पन्न होवै ॥ ४ ॥ भूमिस्थे लग्ननाथेशशिमुथशिले भवेन्मृत् ॥ लग्नस्थेरंध्रपती लग्नपशशिनोर्विनाशेवा ॥ ५ ॥

J

लग्नेश चतुर्थ हो चंद्रमाके साथ मुथशिली हो तो मृत्यु होवे, वा लग्नम

अष्टमेश और लग्नेश एवं चन्द्रमा अष्टम हों तौभी मृत्यु होवे ॥ ५ ॥ भाषाटीकासमेता । (२२७ ) लग्नाधिपतिः सूर्य्यश्चंद्रः सप्तेशमुथशिलविधायी || सप्तेशे षष्ठस्थे तन्मरणं रोगिणो वाच्यम् ॥ ६ ॥ लग्नेश चतुर्थ हो तथा चन्द्रमा सप्तमसे मुथशिली हो वा सप्तमेश [ हो तो रोगीकी मृत्यु होगी ऐसा कहना ॥ ६ ॥ रंध्रेशे न विनष्टे नास्तमिते नापिकेन्द्रस्थे ॥ लग्नेशस्यमुथशिलेमृत्युःस्याद्रोगपृच्छायाम् ॥ ७ ॥ अष्टमेरा अस्त वा नष्ट बली होकर केंद्र में हो लग्नेशसे मुथंशिल करता हो तो रोगप्रश्नमें मृत्यु होगी कहना ॥ ७ ॥ अथवातयोञ्चकेन्द्रे सुथशिलतःक्रूरपीडितेमरणम् || यदिकेन्द्रे क्रूरग्रहस्तदापिपीडाष्टमेशेपि ॥ ८ ॥ जो लग्नेश अष्टमेशका केंद्र में मुथशिल हो क्रूर पीडितभी हो तो मृत्यु होवे जो केंद्र में पापग्रह वा अष्टमेश हो तो रोगपीडा होवे ॥ ८ ॥ सूर्य्यद्वादशभागे प्रविष्टेलग्नेश्वरेप्येवम् ॥ तनुमृत्युभावनाथावन्योन्याश्रयगतौमरणम् ॥ ९ ॥ लग्नेश सूर्ग्यके द्वादशांशमें हो तो मृत्यु होने वा लश्नेश अष्टम अष्टमेश लग्न वा परस्पर दृष्ट हों तौभी मृत्यु होवे ॥ ९ ॥ लग्नेचरेचरोगीक्षणेक्षणेस्यादरुक् सरुक्चापि ॥ द्विशरीरे पररोगः स्थिरैर्गदस्यैकरूपत्वम् ॥ १० ॥ लग्न चरराशि हो तो क्षणमें सुखा क्षणमें दुःखी होतारहै, द्विस्वभाव हो तो एकरोगसे दूसरा रोग होवे, स्थिर हो तो आद्य अंतमें एकही रोग रहै ॥ १० ॥ शशिनो वक्रमुथशिले स्थिररोगोमंदमुथशिलेपूर्वम् || मूत्रनिरोधाद्रोगोत्पत्तिज्ञेयाकृते ॥ ११ ॥ चन्द्रमा वक्री ग्रहसे मुथशिली हो तो रोग स्थिर रहै, शनिसे मुशिली हो तो अपूर्व रोग होने तथा मूत्रके बंद होनेसे रोगोत्पत्ति होवे ॥ ११ ॥ अथ पृच्छायाः पूर्वे सप्ताहानिच विलोक्यचत्वारि ॥ यदितेषुशशांकरवी भयुतदृष्टौसदाशस्तम् ॥ १२ ॥ ( २२८ ) ताजिकनीलकण्ठी । प्रश्नके पहिले ७ वा ४ दिनमें सूर्य्य चन्द्रमा शुभग्रहसे युक्त दृष्ट हों तो रोगीको शुभ होगा ॥ १२ ॥ "दोयमथनवेति प्रश्नेलग्नेश्वरोथचंद्रोवा ॥ षष्ठेश थशिलीस्यादस्तमितोवातदामंदः ॥ १३ ॥ यह रोगी होगावा नहीं ऐसे प्रश्नमें लग्नेश वा चन्द्रमा षष्ठेशसे मुथशिली हों वा अस्तंगत हों तो रोगी होगा ॥ १३ ॥ स्वामिभृत्यचतुष्पदप्रश्ने । ईशोन्यो ममभवितानवेतिलग्नेश्वरस्ययदिकेन्द्रे || नोभवति थशिलंषष्ठांत्यपतिभ्यां तदानान्यः ॥ १४ ॥ मेरा और स्वामी होगा या नहीं अर्थात् और जगे नोकरी लगेगी वा नहीं, ऐसे प्रश्नमें जो लग्नेशका केन्द्रमें षष्ठेश तथा व्ययेशसे मुथशिल न हो • तो और स्वामी नहीं होगा ॥ १४ ॥ वक्रीवान्येनसमंलग्नपतिः सहजनवमसंस्थेन ॥ रुते यदीत्थशालं तदान्यनाथो भवेत्प्रष्टुः ॥ १५ ॥ जो लग्नेश वक्री और किसी तृतीयनवमस्थानस्थ ग्रहसे इत्थशाली हो तो और स्वामी होगा ॥ १५ ॥ ल पतौकेन्द्रस्थे रिपुदृष्ट्याक्रूरवीक्षितेसुखपे ॥ रविरश्मिगतेथभवेद्यावज्जीवनचान्यपतिः ॥ १६ ॥ लग्नेश केन्द्रमें हो तथा चतुर्थेश पर पापग्रहकी शत्रुदृष्टि हो एवं लग्नेश अस्त हो तो जीवितपर्यंत औरपति नहीं होगा ॥ १६ ॥ अयमीशोभद्रोमे पृच्छायां लग्नपस्यकंबूले || स्वामी स एव भव्योद्यूनेशस्यचशुभोन्येशः ॥ १७ ॥ यही स्वामी अच्छा होगा वा अन्य ऐसे प्रश्नमें लग्नेश शुभ ग्रहसे कंबू- ली हो तो उसी स्वामीसे शुभ होगा, जो सप्तमेशका कम्बूल शुभ ग्रहसे हो. तौ अन्यस्वामीसे शुभ होगा ॥ १७ ॥ गृहभूमिस्थानानां चलनप्रने पुरोक्त एवविधिः ॥ सम्यग्विचायवाच्यं भमशुभं पृच् तःस्वधिया ॥ १८ ॥ भाषाटीकासमेता । ( २२९ ) गृहभूमि जगहके स्थिर रहने वा चलायमान होनेमें भी ऐसाही विचार अच्छे प्रकारसे करके अपनी बुद्धिसे शुभाशुभ मष्टाको कहना ॥ १८ ॥ भृत्यचतुष्पदलाभप्रश्नेलग्रेशशीतगूषष्टे | षष्ठेशमुथशिलो वा लग्नेषवरोथतल्लाभः ॥ १९ ॥ भृत्य तथा चौपाया के लाभमें लग्नेश एवं चन्द्रमा छठे हों वा षष्ठेशसे मुथशिली हों अथवा षष्ठेश लयमें हो तो उनका लाभ होगा ॥ १९ ॥ भृत्यस्यवाहनस्यचयद्वाप्रश्नेचल लग्नपती || अर्थीदातासप्तमसप्तमपौतद्वलात्प्राप्तिः ॥ २० ॥ भृत्य और सवारी के प्रश्नमें लन और लग्नेश लेनेवाले तथा सप्तम और सप्तमेश देनेवाले, इनका बलाबलसे प्राप्ति अप्राप्ति कहनी जैसे लग्नेशका सप्तमसे सप्तमेशका लग्नसे, वा लग्नेश सप्तमेशका परस्पर मुथशिल संबंध हो तो भृत्य वाहनकी प्राप्ति, इनके ईसराफ वा असंबंध से निर्बलतासे अप्राप्ति होगी ॥ २० ॥ थांतरे कलहः । ņ क्रूरःखचरोल' विवादपृच्छासुजयतिविवादंतम् || सर्वावस्थासुपरंनीचेस्तेजयतिनद्विषतः ॥ २१ ॥ विवादप्रश्नमें क्रूर ग्रह लग्न में बलवान हो तो विवाद में प्रष्टा जीतेगा जो नीच वा अस्तंगत हो तो विवाद में शत्रुसे जीत नहीं सकेगा ॥ २१ ॥ लग्नद्यूनेतुयदापरस्परं रयोर्झकटदृष्टी ॥ विवदेत्तद्वादि गं तच्छुरिकाभ्यांप्रहरतितदैवम् ॥ २२ ॥ लग्न तथा सप्तम में क्रूरग्रह शत्रुदृष्टिदृष्ट होनेमें वादी प्रतिवादी परस्पर विवादमें छूरी आदि चलाय बैठेंगे ॥ २२ ॥ लग्नेद्यूनेचयदिक्रूरःखचरोविवादिनोनतदा || कलहनिवृत्तिःकालेजयतिहिबलवान्गतबलंतु ॥ २३ ॥ लग्न में तथा सप्तममें पापग्रह हों तो लडनेवालोंका झगडा निवृत्त नहीं होवे (२३० ) ताजिकनीलकण्ठी । इनमें जो बलवान हो वह निर्बलको दाबलेताहै यहा लन्न प्रष्टा सप्तम प्रतिवादी जानना ॥ २३ ॥ लेशःसुतगः सौम्याः केंद्रसंधिर्नचान्यथा ॥ लग्नद्यूनेशषष्ठेशारित्वेप्यन्योन्यविग्रहः ॥ २४ ॥ पंचममें लग्नेश और केंद्रों में शुभग्रह हों तो वादी प्रतिवादियोंका मेल होगा अन्यथा न होगा. लग्न सप्तम छठे भावोंके स्वामी परस्पर तत्काल वा नैसर्गिक शत्रु हों तो कलह बढेगा ॥ २४ ॥ · गृहमागतो नयदासौकिंबद्धः किमथवाहतः प्रश्ने ॥ मूर्तीकरोयदिसनिहतोबद्धोधचापुरुषः ॥ २५ ॥ कलही वा कोई अन्य घरमें नहीं आया, मारागया वा कहीं बंधन में पढगया, ऐसे प्रश्नमें लग्नमें पाप ग्रह हो तो मारागया वा बंधनमें पडगया ॥ २५॥ त्रिकोणचतुरस्रास्तस्थितःपापग्रहोयदि ॥ ग्रनरीक्षितः पानूनबंधनसादिशेत् ॥ २६ ॥ े पापग्रह ९ । ५ ।८ १७ में हों तथा लग्नेशकोभी पापग्रह देखें तो निश्वय बंधन होगया कहना ॥ २६ ॥ सप्तमगो मगोवाचेत्क्रूरतद्धतोपिवाबद्धः ॥ - मूर्तौचसप्तमेवायद्वाल ेष्टमेषिभवेत् ॥ २७ ॥ सप्तम वा अष्टम पापग्रह हों तो हत वा बद्ध कहना और लग्नमें वा सप्तम में तथा लग्न और अष्टम पापग्रह युगपत् हों तौभी वही फल है ॥ २७ ॥ बद्धमोक्षे । बद्धोस्तितत्किं भवतीतिप्रश्नेविमुच्यते सौखलमृत्युयोगे || कदाविसुंचेदितिपृच्छ्यमानेशुभंकदाभाविचतैर्मृतिः स्यात् ॥ २८ ॥ बँधाहुवा मनुष्य कैसा होगा कब छूटेगा, ऐसे प्रश्नमें जो मृत्यु - दायक योग कोईभी हो तो बंधनसे छूट जायगा. उक्त योगका परिणाम समय जबहो तब टनेका समय कहना, दीर्घायु योग हों तो नहीं छूटेगा वा बंधनही मरजायगा ॥ २८ ॥ • भाषाटीकासमेता । (२३१ ) मुक्ति श्रेयदाकेंद्रेकेंद्रेशाः स्युर्नमोक्षदाः ॥ तस्मिन्वथलग्ने शः पतितः केंद्रगेनच ॥ २९ ॥ संबंधेप्सुःसचेत रोमृतीशः स्यात्तदामृतिः॥ लग्नेशेस्तमितेंदुस्थेकुजदृष्टेत दामृतिः ॥३०॥ बद्धमोक्ष प्रश्नमें केंद्रेश केंद्रोंमें हों तो बंधनसे न छूटे, जो केंद्रगत पतित ग्रहसे संबंधी लमेश हो तो इसी वर्षमें छूटेगा और अष्टमेश क्रूर, लग्नेश कर, ॠरसे संबंधी हों तो मृत्यु होवे ॥ २९ ॥ ३० ॥ चन्द्रश्चांबुगपापेन मृत्युनाथेनयोगकृत् ॥ तदा गुप्त्यांमृतिश्चंद्रः केंद्रेमंदयुगीक्षितः ॥ ३१ ॥ अष्टमेश पापग्रह चतुर्थ होकर चन्द्रमासे युक्त वा संबंधी इत्थशाली हो वा केंद्रगत चन्द्रमा शनिसे युक्त दृष्ट हो तो कैदहीमें मृत्यु होवे ॥ ३१ ॥ दीर्घपीडाथ भौमेन युग्दृष्टौबंधताडने ॥ 1 दृश्या लग्नपश्चेत्स्याययपेनेत्थशालवान् ॥ ३२ ॥ केंद्रगत चन्द्रमा मंगलसे युक्त वा दृष्ट हो तथा लग्नेशके दृश्यार्द्ध में व्ययेशस्त्रे इत्थशाली हो तो बंधन होगा और ताडन हो(वेत कुर्रा आदिमी लगें ॥ ३२ ॥ पलायतेतदाबद्धो व्ययगेल गेपिवा || तृतीयनवमस्वामीव्ययगोलग्नपेनच ॥ ३३ ॥ यदीत्थशालयोगेप्सुस्तदापिचपलायते ॥. लग्नेश व्ययभाव में हो तो बद्ध मनुष्य भाग जावे अथवा ३ | ९ भावोंका स्वामी बारहवां होकर लग्नेशसे इत्यशाल चाहताहो तौभी भाग जायगा ३३ ॥ दृश्यार्द्धेछुपचारेण चन्द्रोमुथाशलस्तदा ॥ ३४ ॥ बंधमोक्षस्त्रिधर्मेशः सग्रहःशीत्रमोक्षकृत् ॥ लग्नेशके दृश्यार्द्ध में चन्द्रमा मुथशिली हो तो बद्धमोक्ष करताहै तथा तृती- येश वा नवमेशसे भी चन्द्रमा मुथशिंली हो तो शीघ्र बद्धमोक्ष करता है ३४ पतितेंदुस्त्रिधर्मस्थग्रहसंबंधकृत्तदा ॥ ३५ ॥ केंद्रस्थस्त्रिभवेशेनयोगेप्सुश्चेत्तदाचिरात् ।। तीसरे वा नवम स्थानगत ग्रह से क्षीण चन्द्रमा संबंधी हो ३ वा ११ ( २३२ ) ताजिकनीलकण्ठी । भावका स्वामी जो केंद्र में हो उसको मिलना चाहता हो तो बंधनसे शीघ्रही छूट जावे ॥ ३५ ॥ यावच्छुक्रोबलील तावत्कर्त्ता बलाधिकः ॥ ३६ ॥ अस्तंगतेतनौशु केबद्धमोक्षादिसंभवः ॥ यतेयेनयोगेनतेनयोगेन च्यते ॥ ३७ ॥ ु शुक्र लग्नमें हो तो वह शुक्र गोचरमें जबलौं उस राशिमें रहे इतनेही वीचळूट जावे जो शुक्र लग्नमें अस्तंगत हो तो वद्धमोक्ष होना संभव है वा जिसयोगसे मृत्यु होती है उससे बद्ध भी मोक्ष होता है ॥ ३६ ॥ ३७ ॥ मेषेतुलेचशीघ्रंस्यात् कॅनक्रेसकष्टता ॥ स्थिरेचिराधिदेहस्थेमोक्षोमध्यमकालतः ॥ ३८ ॥ लग्नमें शुक्र१ । ७ का हो तो शीघ्र तथा ४|१० का हो तो कष्टसे स्थिर राशिका हो तो बहुत दिनों में द्विस्वभावका हो तो मध्यमकालमें छूटे शुक्र न हो तो लग्नहीसे यह फल कहना ॥ ३८ ॥ रोगप्रश्ने विशेषः । विलग्नेषष्टपः पापोजन्मराशिनिरीक्षते ॥ रोगिणस्तस्यमरणं निश्चयेनवदुधः ॥ ३९ ॥ षष्ठेश पापग्रह लग्नमें होकर जन्मराशिको देखे तो रोगीकी मृत्यु नि य पंडितने कहनी ॥ ३९ ॥ चतुर्थाष्टमगेचंन्द्रेपापमध्यगतेपित्रा || मृतिः स्याद्वलसंयुक्तेसौम्यदृष्टयाचिरात्सुखम् ॥ ४० ॥ चन्द्रमा ४ वा ८ में हो तथा पापग्रहोंके बीच हो तो रोगीकी मृत्यु हो वे जो उसे बली शुभग्रह देखें तो शीघ्र सुखी होजावे ॥ ४० ॥ विधौलग्नेस्मरभानौरोगीयातियमालयम् || नेकुरग्रहेलमेरोग वृद्धिश्चिकित्सकात् ॥ ४१ ॥ चन्द्रमा लग्नमें सूर्य्य सप्तम हों तो रोगी यमालय पहुँचे जो प्र में पापग्रह लग्नमें हो तो वैद्यसे रोगं बढे ॥ ४१ ॥ प्र (२३३ ) भाषाटीका समेता | तथालग्नगतेसौम्येवैद्योक्तममृतंवचः ॥ ल वै नंव्याधिःखंरोगीतुर्य्य मौषधम् ॥ ४२ ॥ जो लग्नमें शुभग्रह हो तो वैद्यका वचन अमृततुल्य होने, लग्नसे वैद्य · सप्तमसे रोग दशमसे रोगी चतुर्थ से औषधी जाननी ॥ ४२ ॥ रोोगणोभिषजोमैत्रीमैत्रेभेषजरोगयोः ॥ व्याघेरुपशमोवाच्यः प्रकोपः शात्रवेतयोः ॥ ४३ ॥ रोगी और वैद्य अर्थात् दशमेश लग्नेशकी तथा औषधी और रोग अर्थात ४ । ७ भावोंके स्वामी परस्पर मित्र हो वा अन्योन्य इत्थशाली हों तो रोग शांत होवे, जो उक्तग्रहोंकी परस्पर शत्रुता वा इसराफ हो तो रोग औरभी कोपको प्राप्त होगा ॥ ४३ ॥ / लग्ननाथेचसबलेकेंद्रसंस्थेशुभग्रहे ॥ उच्चगेवात्रिकोणेवारोगीजीवतिनिश्चयम् ॥ ४४ ॥ लग्नेश बलवान् हो केंद्रमें शुभग्रह उच्चका हो अथवा त्रिकोणमें हो तो निश्चय रोगसे बचजायगा ॥ ४४ ॥ एक: भोबलीलग्नेत्रायतेरोगपीडितम् || सौम्याधर्मारिलाभस्थास्तृतीयस्थागदापहाः ॥ ४५ ॥ एकभी बलवान् शुभग्रह लग्नमें हो तो रोगीकी रक्षा करता है, शुभग्रह ९ । ६ । ११ । ३ स्थानोंमें हों तो रोग नाश करते हैं ॥ ४५ ॥ देवदोषज्ञानम् । वह्नयंकद्वादशेषष्ठेलग्नात्पापग्रहोयदि ॥ हतोगदैर्जलैश्शस्त्रैस्तस्यदोषःकुलोद्भवः ॥ ४६ ॥ रोगीके वा संततिबाधादिमें देवदोष ज्ञानमें से ३ । ९ । १२ । ६ स्थानों में जो पापग्रह हों तो रोगी वा जलशस्त्रादिसे पीडितको अपने कुलपू- जिंत देवताका दोष कहना. उसके पूजनेसे नीरोग होगा ॥ ४६ ॥ देवस्यमेषेगविपितृपक्षआकाशदेव्यामिथुनेथकर्के | स्याच्छा- किनी क्षेत्रपतिस्तुसिंहेस्त्रियांकुलार्हाचतुलेतुमातुः ॥ ४७ ॥ ( २३४ ) 'ताजिकनीलकण्ठी | नागस्त्वलौयक्षपतिर्धनुष्येनकें देव्यास्तुघटेतुयक्षी | झषे लोपासितदैवतस्यदोषंभवेद्धर्मबहिष्कृताय ॥ १८ ॥ जो मनुष्य धर्मी नहीं है उन्हें ये दोष लगते हैं कि मेप लग्न प्रश्नका हो तो अपना इष्ट देवताका एवं वृषसे पितरोंका, मिथुनसे आकाशदेवी मातृका परी आदियोंका,कर्कसे शाकिनी डाकिनी आदि, सिंहसे भूमिपाल देवता, कन्यासे, कुलपूजित देवता, तुलासे मातुलपक्षका देवता, वृश्चिकसे नाग, देवता धनसे यक्षपति महादेव नारसिंह भैरव आदि मकरसे, जलदेवी, कुंभसे यक्षिणी पिशाच आदि, मीनसे कलदेवता का दोष जानना ॥४७॥ ४८ ॥ प्रेताश्चराहौपितरः सुरेज्येचंद्रेबुदेव्यास्तपनेपिदेव्यः || स्वगोत्रदेव्यश्वशंनौबुधेचभवंतिभूताव्ययरंध्रसंस्थे ॥ ४९ ॥ राहु ८ । १२ स्थानों में हो तो प्रेतदोष, तथा बृहस्पति हो तो पितरोंका, चंद्रमा हो तो जलदेवी, सूर्य्य हो तो देवी, शनिबुध से अपने कुलकी पूज्य देवीका दोष कहना ॥ ४९ ॥ शाकिन्यआरेभृगुजेंबुदेव्योगृहंतिमयैविमुखमुकुंदात् || स्वर्दोच्चगेवीर्य्ययुतेचसाध्या धंद्रेचनी चेविबलेनसाध्याः ॥ ५० ॥ मंगल८।१२ में हो तो शाकिनी डाकिनी और शुक्र हो तो जलदेवी- का दोष होवे. जो मनुष्य इश्वरसे विमुख हैं उनको ये दोष होतेहैं. उक्तग्रह जिससे दोष ज्ञात भया वह यदि अपनी राशि वा उच्चादिमें हो तो उपायोंसे दोष साध्य होगा. जो चंद्रमा बृहस्पति निर्बल हों तो असाध्य जानना ॥ ५० ॥ • केंद्रस्थैर्बलिभिः पापैरसाध्यादेवतागणाः ॥ सौम्यग्र है व केंद्रस्थैः साध्यामंत्रस्तवार्चनैः ॥ ५१ ॥ 'केंद्र में बलवान् पापग्रह हों तो वे देवता असाध्य और शुभ ग्रह केंद्र में हों तो मंत्र स्तोत्र पूजनादिसे साध्य जानना ॥ ५१ ॥ 1 कंटकाष्टत्रिकोणस्थाःशुभाउपंचयेशशी ॥ लग्नेचशुभसंदृष्टेरोगीरोगाद्विमुच्यते ॥ ५२ ॥ भाषाटीकासमेता । (२३५ ) केंद्र त्रिकोण और अष्टममें शुभग्रह तथा चंद्रमा उपचयमें हों और लग्नको शुभग्रह देखें तो रोगी रोगसे छूटे ॥ ५२ ॥ . स्त्रीलाभस्य इति महीधरकृतायां नीलकंठी भाषाटीकायां षष्ठभावप्रश्ननिरूपणम् ॥ ६ ॥ अथ सप्तमस्थानप्रश्नः । प्रश्नेस्मराधिपेलग्नपेनशशिनावा || कृतमुथशिलेयुक्त्याअयाचितायाभवे [भः ॥१॥ स्त्रीलाभके प्रश्नमें सप्तमेशका लग्नेश वा चंद्रमासे इत्थशाल हो तो स्त्री विना मांगेभी मिले ॥ १ ॥ यदिलग्न पोविधुर्वाधूनेतदयाचितांस्त्रियंलभते ॥ लग्नेशान्मूसरिफे चंद्रेस्तपमुथाशले स्वयंलाभः ॥ २ ॥ जो लग्नेश वा बलवान् चंद्रमा सप्तम हो तथा लग्नेशका सप्तम भावसे मूसरिफ और चंद्रमाका सप्तमेशसे मुथशिल हो तो भी बिना ही प्रयास स्त्रीलाभ होवे ॥ २ ॥ येनसमंमुथशिलंतत्रविनष्टेचपापयुतदृष्टे | निकटीभूतं तदाकिलविनश्यतिस्त्रीगतंकार्य्यम् ॥ ३ 11 जिसके साथ मुथशिल हो वह नष्ट वा पापयुक्त वा दृष्ट हो तथा सप्तम- में नष्टबली वा पापग्रह हो तो स्त्रीप्राप्ति संबंधि कार्य्य समीप भी आयगया हो तौभी नष्ट होजायगा ॥ ३ ॥ पापेत्ररंध्रनाथेस्त्रीजातेरेवविघटतेकाम् ॥ सहजपतौ भ्रातृभ्यस्तुय्यैशे पितृभ्यएवनान्येभ्यः ॥ सौम्यकृत- युक्तिहग्भ्यांपूर्वोक्तस्थानतःशुभवाच्यम् ॥ ४ ॥ सप्तममें पापग्रह वा अष्टमेश हो तो स्त्रीसंबंधि कार्ग्य, तृतीयेशसे संबंध हो तो भाइयोंस, चतुर्थेशसे हो तो पितासे ऐसे और जिसभावेशका संबंध हो उसके द्वारा कार्यहानि होवे जो सप्तम वा सप्तमेशपर शुभग्रहका योग वा दृष्टि हो तो उक्त संबंधवान्से स्त्रीलाभ होवे ॥ ४ ॥ जामित्रधनोपचयोपगतःशशीजीववीक्षितः || कुरुते लाभंपापयुतोवलोकितोवापितन्नाशम् ॥ ५॥ (२३६) ताजिकनीलकण्ठी । सप्तम द्वितीय और उपचय ३ | ६ | १० | ११ स्थानों में चंद्रमा जो बृहस्पतिसे दृष्ट हो तो स्त्रीलाभ, पापयुक्त दृष्ट हो तो स्त्रीहानि करता है ॥५॥ दुश्चिक्यतनयसप्तमलाभगतः शशीविल क्षत् || गुरुरविसौम्यै विवाहदः स्यात्तथासौम्याः ॥ ६ ॥ लग्नसे चंद्रमा ३/५/७।११ स्थानमें बृहस्पति सर्थ्य बुधसे दृष्ट हो तो विवाह देता है तथा शुभग्रह भी ऐसे होने में यही फल देते हैं ॥ ६ ॥ केंद्रत्रिकोणसंस्थाः सप्तमभवनंशुभग्रहस्ययदि || शय्यायांलभतेसौपापक्षैविगतरूपाच ॥ ७ ॥ केंद्र १।४।७।१० त्रिकोण ९ । ५ और सप्तममें शुभग्रहकी राशि तथा शुभग्रह हो तो शय्यामें स्त्रीत्राप्ति होने, पापराशि उक्तस्थानोमें हो तो मिलेतो सही परंतु कुरूपा मिलै ॥ ७ ॥ अथ स्त्रीनेहः | प्रीतिस्थानप्रश्नेस्मरपतिलग्नेशमुशिले हः || सझकटककःशञ्चदृशाशशिकंबूलेतुसापिशुभा ॥ ८ ॥ स्त्रकिी प्रीतिके प्रश्नमें सप्तमेश लग्नेशका मुथशिल हो तो उससे प्रीति शत्रु- दृष्टि उनकी हो तो उससे कलह और चंद्रमा कंबूल भी करता हो तो खी सरल स्वभाव होगी ॥ ८ ॥ यदि मंदोलनेशः केंद्रेचस्यात्तदाबलीप्रष्ट || अस्तेश्वरेचमंदेकेंद्रेप्रतिवादिनोस्तिबलम् ॥ ९ ॥ जो लग्नेश और शनि केंद्र में हो तो स्त्री विवादमें पूछनेवाला बली रहेगा. जो सतमेश और शनि केंद्रमें हो तो प्रतिवादी बली रहेगी ॥ ९ ॥ उभयोरेकस्थितयोज्ञीतव्यासझकटकंतयोः प्रीतिः ॥ . सूय्यॆनशुभविवलेनरस्यशुक्रेतयोद्वितययोः ॥ १० ॥ लग्नेश सप्तमेश पापयुत एकही स्थान में हों तो स्त्री पुरुष लडाई उपरान्त श्रीतिमान् होंगे जो सूर्य्य युक्त हों तो कलहमात्र होगा जो निर्बल उक्त -योगकर्ता हों तो दोनहूं रुष्टही रहेंगे ॥ १० ॥ भाषाटीकासमेता । रुष्टागमने । ममगृहिणी रुष्टापुनरेष्यतिवाथभूम्यधःस्थरखौ || भूपरिंगतेचशुक्रेनैतिपुनर्वक्रितेभ्येति ॥ ११ ॥ मेरी स्त्री रुष्ट होकर गयी फिर आवेगी वा नहीं ऐसे प्रश्नमें लग्नेश चतुर्थ- पचैत सूर्य्य वा शुक्र हो तो नहीं आवेगी, शुक्र वक्री हो तो आवेगी, लग्नसे चतुर्थपर्यंत स्त्रीके हर्षस्थान हैं, चतुर्थसे सप्तमपर्यंत पुरुषके हर्षस्थान, इनमें स्त्री पुरुष ग्रहोंके वरासे फल कहना ॥ ११ ॥ सूर्य्यान्निर्गत शुक्रेवक्रेपिसमेतिचान्यथारुष्टा ॥ क्षीणेंदोबहुदिवसैः पूर्णविधौचद्रुतमुपैति ॥ १२ ॥ शुक्र समीपही उदय भयाहो अथवा वक्र हो तो रुष्ट स्त्री आपही लौट आवेगी, जो क्षीण चंद्रमा इससे संबंध करे तो बहुत दिनोंमें, पूर्ण चंद्रमा संबंध करे तौ शीघ्रही आवेगी ॥ १२ ॥ अथकन्यापरीक्षा | {२३७) एषा मारिकाकिलनिर्दोषाकिनवेतिया || लग्नेस्थिरेस्थिर क्षैलग्नपशशिनोश्वनिर्दोषा ॥ १३ ॥ यह कन्या निर्दोष होगी वा कैसी इस प्रश्नमें लग्न तथा लग्नेश और चन्द्रमा स्थिर राशियोंमें हों तो निर्दोष होगी ॥ १३ ॥ चरराशिगतैरेतैरियं मार्य्यपिचजातदोषास्यात् ॥ द्विशरीरस्थेचंद्रेचरलग्नेस्वल्पदोषास्यात् ॥ १४ ॥ जो लग्न लग्नेश और चंद्रमा चरराशिमें हों तो कन्या सदोषा और चं- जमा द्विशरीर राशिमें लग्न चरराशिमें हो तो अल्पदोषा होगी ॥ १४ ॥ शनि भौमावेक क्षैस्थिरवर्जेतत्परेणगुप्तमियम् || रमिताशनिचंद्रमसोर्लग्नगयोःकटसुपभुक्ता ॥ १५ ॥ जो शनि मंगल एक स्थानमें स्थिरराशिवाजत हों तो यह कन्या किसीने गुप्त रमीहै, जो शाने चंद्रमा लगमें हों तो प्रकट भोगी है ॥ १५ ॥ (२३८ ) ताजिकनीलकण्ठी | यदि भौमशनीकेंद्रेवि दृष्टौवृश्चिकेथशुक्रः स्यात् || तद्वेष्काणेऽथतदानिश्री तंजातदोषैषा ॥ १६ ॥ जो मंगल शनि केंद्र में चन्द्रमासे दृष्ट हों अथवा शुक्र वृश्चिकका वा वृश्चिक द्रष्काण में हो तो निस्संदेह सदोपा होगी ॥ १६ ॥ ! अथ प्रसूतिज्ञानम् || एषाकिलप्रसूतासिते घटेज्ञेहरौचनोसूता ॥ अनयोरलिवृपगतयोः सूतानारीपरिज्ञेया ॥ १७ ॥ यह स्त्री प्रसूती हुई वा नहीं ऐसे प्रश्न में जो शुक्र कुंभका वा बुध सिंहका हो तो प्रसूती नहीं भई, जो शुक्र वृश्चिकका वा बुध वृपका हों तो प्रसूती भई है जाननी ॥ १७ ॥ भौमबुधशुऋचंद्राद्विशरीरेचापवर्जितेचेत्स्युः ॥ अग्रेस्तितत्प्रसूतिश्चापेनाग्रेनष्पृष्टतःसूता ॥ १८ ॥ मंगल बुध शुक्र और चंद्रमा धनरहित द्विस्वभाव राशियों में हो तो प्रसूति आगे होगई धनक हो तो प्रसूति हुई न होगी ॥ १८ ॥ चरश्चेच्चरराशौपरतःस्तास्थिरेतुनिजपर: ॥ मिश्रेतुमिअमूहह्यंजात कसंदेहपृच्छायाम् ॥ १९ ॥ प्रसूतीके संदेहमें लगेश वा पंचमेश पापग्रह चरराशि में हो तो परपुरुपसे, स्थिर राशिमें हों तो अपने पति से प्रसूती होगी. लयेश वा पंचमेश पापग्रह से मुथशिली हो तो भी परपुरुपसे जानना, मिश्रित हो तो व्यभिचारिणी कहना. शुभग्रह योग दृष्टि वा मुथशिलसे अपने पतिसे गर्भ जानना ॥१९॥ अथ पातिव्रत्यपरीक्षा । ,टिलासतीयमथवेतिलग्नपतिश्चंद्रमाञ्चभौमेन || एकांशमुथशिलकृत्तथैकंभवनेभजत्यन्यम् ॥ २० ॥ यह स्त्री पतिव्रता होगी वा नहीं, इस प्रश्न में लग्नेश तथा चन्द्रमासे मंगल एकांश समीप मुथशिली हो तो परपुरुषरता होगी ॥ २० ॥ भाषाटीकासमेता । यदिनिजगृहगोभौमस्तदान्यदेशप्रया रविणेतिमुथशिलेसत्युपभुक्ताराज तिजारकृते || रुषेण ॥ २१ ॥ जो लग्नेश चन्द्रमासे मुथशिली मंगल अपनी राशिमें हो तो जारके साथ परदेश चली जायगी, जो सूर्य्यसे मुथशिल उनका हो तो यह स्त्री राजकीय पुरुषने रमी है ॥ २१ ॥ सौम्येन लेखकवणिङ् निजभेशुक्रेणयोषयैवस्त्री || एतैर्योगैरसतीविपरीते सुचरितेतिविळे यम् ॥ २२ ॥ पूर्वोक्कमकार मंगल बुधसे इत्थशाली हो तो लि नेवालेसे वा बनि- येंसे रमी. जो शुकसे हो तो स्त्री समान पुरुषने भोगी है ॥ २२ ॥ लग्नपतिनाथशशिनामूसरिफेभूसुते भवेज्जारः ॥ (२३९) त्यक्तः पुनर्गुरुहशापुत्रभयाद्रविशाचराजभयात् || २३ || लग्नेश वा चन्द्रमासे मंगलका मूसरिफ हो तो जाररता होवे जो उसपर बृहस्पतिकी दृष्टिभी हो तो पुत्रके भय से सूर्य्य की दृष्टि हो तो राजभयसे जारता त्यागकरे ॥ २३ ॥ सितदृष्ट्यापरनारीभयात्सितज्ञैकराशिगतदृष्ट्या || जारस्यस्थविरत्वालज्जित्वात्यजतिजारंसा ॥ २४ ॥ " जो उक्त मंगलपर शुक्रकी दृष्टि हो तो जारके स्त्रीके भयसे स्त्री जारको • त्यागे. जो शुक्र बुधकी एकराशि दृष्टि हो तौ जारके बूढे होनेसे लज्जा मान कर स्त्री जारको छोड़ देवे ॥ २४ ॥ ● ग्रन्थांतरेसुरतप्रश्नाः | भेत्थशाले हिमगौचतुष्टयेसौख्यातिरेकः स विलासहासः ॥ करेत्यशाले हिमगौसरोषःऋरान्विते भूत्कलहोनृवध्वोः ॥ २५ ॥ चन्द्रमा केंद्र में शुभग्रहसे इत्यशाली हो तो संभोग विलासहासादियुक्त और पापग्रह से इत्थशाली हो तो कोपसहित होवे. जो चन्द्रमा पापयुक्त हो तो स्त्री पुरुष कलही होवें ॥ २५ ॥ ! (२४० ) ताजिकनीलकण्ठी । पीडाथवासीत्सुरतेयुक्त्यारजोयथास्तर्क्षमुपैतितद्वत् || लग्नेसुरेज्येभृगुजेकलत्रेतुय्यँहिमांशौसविलासहासः ॥ २६ ॥ जो पापग्रह समम हो तो सुरतमें स्त्री को क्लेश रजोदोषादिपीडासे होवे, लग्नमें बृहस्पति सप्तम शुक्र चतुर्थ चंद्रमा हों तो सुरत विलासहाससे होवे,. जैसा सप्तम स्थानहो उसके अनुसार सुरत कहना ॥ २६ ॥ शुभग्रहोत्थेचकंबूलयोगेयुतोरजःपुष्पसुगंधियुक्तम् || स्वक्षॊच्चगेहर्म्यरतंनिगद्यंस्थितेद्विदेहेवनितास्वकीया ॥ २७ ॥ शुभग्रहों का कंबल योग लग्नेश वा सप्तमेशसे हो तो रजपुष्पकी सुगंधि- "युक्त पाप कंबूलसे दुर्गेधि होगा, उक्त ग्रह स्वराशि वा उच्चमें हो तो अच्छे वरमें अन्यथा सामान्य स्थानमें तथा नीचादिमें होनेसे मार्ग ऊपर कंटकादि- प्राय स्थान में सुरत हो, तथा द्विस्वभाव राशिमें हो तो अपनी स्त्रीसे स्थिर हो तो वेश्यादिसे संभोग कहना ॥ २७ ॥ चरोदयेसारमतेपरस्त्रीकेंद्रेशनौसासरजादिवारतिम् || निशोदयेरात्रिखगेचरात्रौदिवानिशंतद्विदले द्विखेट्योः ॥ २८ ॥ चरराशि लग्नमें हो तो परस्त्री से भोग होवे, शाने केंद्र में हो तो रजोवतीसे होवे, लम दिवाबली हो तो दिनमें रात्रिबली हो तो रात्रिमें और संध्याबली से संध्या कालमें द्विस्वभावसे दिन तथा रात्रिमेंभी सुरत कहना ॥ २८ ॥ . इति श्रीमहीधर नी प्रश्नतंत्रभाषाटीकायां सप्तमभावप्रश्ननिरूपणम् ॥ ७ ॥ अथाष्टमस्थानप्रश्नः । नृपसंग्रामप्रश्नेविलग्नलग्नेशसंस्थितात्खेटात् || • O शशिमूसरिफात्प्रष्टास्तास्त पसंस्थेंदुमुथंशिलाच्छचुः ॥ १ ॥ राजाके संग्रामप्रश्नमें लन तथा लमेश प्राप्तग्रहसे चंद्रमाके मूसरिफादि होने में और सप्तम सप्तमेशके चन्द्र मुथशिलसे शत्रुका जय पराजय कहना लग्न .लग्नेश संबंधी शुभयोग में अपना जय सप्तम सप्तमेश संबंधी से शत्रुजय इत्यादि १ ॥ अथवाशनिकुजजीवाःशीप्रेभ्योबलयुताउपरिचराः || बुधसितचंद्रास्तेभ्यश्चदुर्बलाधश्चराध्वसंचित्याः ॥ २ ॥ ● भाषाटीकासमेता । (२४१) अथवा शनि बृहस्पति बलवान् अधिकांश तथा बुध शुक्र चन्द्रमा उनसे हीनबली अल्पांश हों अर्थात् "शीघ्रोल्पभागे घनभागमंदे" इत्यादि इत्थ- हो तो शत्रुसे जय इससे विपरीत ईसराफ हो तो शत्रुकी जय होगी ॥ २॥ पतावस्तपतेःषत्रिदृशाथमुथशिले द्वयोः स्नेहः ॥ वर्गद्वयमध्याधः पतितः सोन्येन द्धः स्यात् ॥ ३॥ लयेश सप्तमेशकी द्वेष्काण दृष्टिसे मुथशिली हो तो अन्योन्य स्नेह हो जावे, जो छठे वा बारहवें हो तो शत्रुको कोई अन्य बांध लेवे ॥ ३ ॥ वर्गद्वयाधिपानांमूसरिफेऽस्तंगतेनरणदैर्घ्यम् ॥ लग्नस्वा निर्मदेवूउपरिगेजयः ष्टुः ॥ ४ ॥ योद्धा प्रतियोद्धाके बगैस्वामी मूसरिफी तथा अस्तंगत हो तो दीर्घेरण नहीं होगा, लग्नेश मंद अधिकांश और सप्तमेश शीघ्र स्वल्पांश बली हों तो भ्रष्टाकी जय होवे ॥ ४ ॥ एवंगुणेतुतस्मिन्विप्रविनष्टेस्तपतितनीचस्थे ॥ केंद्रेस्तेवास्तपतौप्रष्टहनिःप्रवक्तव्या ॥ ५ ॥ जो मंदग्रह अधिकांश शीघ्र अल्पांश चन्द्रमासे मुथशिली अस्तंगत नीच- गत हो. वा सप्तमेश केंद्र में इसी प्रकार अस्त वा नीचगत हो तो रणमें प्रष्टाकी हानि कहनी ॥ ५ ॥ लग्नादधःशुभेसत्युपरिचमंदे भःसहायः स्यात् ॥ पतौरंध्रस्थेरंध्रपसुथशिलेहतिःप्रष्टुः ॥ ६ ॥ लके अधः अर्थात् दशमसे लमपर्यंत शुभग्रह और लमसे ऊपर भं से ४ स्थान पर्यंत शनि हों तो युद्धमें सहाय अच्छा मिलेगा. जो लग्नेश अष्टमहो वा अष्टमेशसे मुथशिली हो तो प्रष्टा हारेगा ॥ ६ ॥ • लग्नेशेधनसंस्थेधनेशकृतमुथशिलेरिपोनशः ॥ लग्नेशदशमपत्योर्मुथशि तः पृच्छकस्यजयोवीर्ये ॥ ७ ॥ सप्तमेश धन स्थानमें, धनेशसे यशिली हो तो शत्रुनाश होवे, लग्नेश. दशमेशका मुथशिल हो बलीभी हों तो शत्रुसे जय होघे ॥ ७ ॥ १६ तांजिकनीलकण्ठी । तुर्य्यास्तपयोरेवंशत्रोयेंगेजयो यः ॥ भयवर्गोपि केंद्रेतत्पतिकृतमुथशिलेबलंज्ञेयम् ॥ ८ ॥ सप्तमेश चतुर्थेशका मुथशिल हो वा योग हो तो शत्रुकी जयहो, दोना- के वर्गस्वामीमें जो केंद्र में स्थानेशसे मुथशिली हो उसका पक्ष बलवान् रहेगा ॥ ८ ॥ ( २४२.) .चरराशौसबलत्वंजित्वाप्रांतेविनाशस्तु ॥ लग्नपतावत्य स्थेप्रष्टानश्यतिपरोस्तपेषष्ठे ॥ ९ ॥ जिसका वर्गेश चरराशि में बलवान्हो वह प्रथमं क्षय हो जायगा, जो लग्नेश बारहवां हो तो छठा हो तो शत्रुनाश होगा ॥ ९ ॥ खपतौलग्नेप्रष्टुस्तुय्यैशेस्तेरिपोःसहायबलम् ।। यन्मुथशिलौवींदूतस्यबलंमूसरिफेहानिः ॥ १० ॥ . दशमेश लग्नमें वा चतुर्थेश छठा हो तो शत्रुकी सेना अपनी सहाय करे सूर्य चन्द्रमा मुथशिली वा मूसरिफी जिसके वर्गेशसे हों उसकी सेना की हानि होवे ॥ १० ॥ शत्रुको जीतकर आपभी नष्ट होगा. जो सप्तमेश परचक्रागमपृच्छाग्रंथांतरे | मार्गान्निवर्त्तते शत्रुः पापैःशत्रुगृहाश्रितैः ॥ चतुर्थगैरपि प्राप्तः शत्रुर्भो निवर्त्तते ॥ ११ ॥ शत्रुके आगमप्रश्नमें पापग्रह छठे हों तो शत्रु मार्गसे हट जावेगा जो चतु- धमें पापग्रह हों तो शत्रु पहुंचभी गयाहो तोभी भागकर हटजायगा ॥११॥ झपालि 'भकर्कटारसातलेयदास्थिताः ॥ ● रिपोः पराजयस्तदा चतुष्पदैः पलायते ॥ १२ ॥ चतुर्थ स्थानमें १२ | ८ | ११ | ४ राशि होतो शत्रुकी हार होवें और चतुष्पदो सहित वा उनकी सवारीमें भाग जावे ॥ १२ ॥ मेघ: सिंहवृषायद्युदयस्थाभवंति हिब्रुकेवा ॥ शत्रोर्निवर्त्तनकराग्रहयुक्तावावियुक्तावा ॥ १३ ॥ भाषाटीकासमेता । S लग्न वा चतुर्थमें१ । ९ । ५ |२ राशि ग्रहसहित लौट जावै ॥ १३ ॥ ( २४३ ) रहित हों तो शत्रु " नागच्छतिपरच 'यदार्कचंद्रौचतुर्थभवन स्थौ || गुरुबुधशाहबुकेयदातदाशीमायाति ॥ १४ ॥ जो सूर्य्य चन्द्रमा चतुर्थ हों तो शत्रुसेना नहीं आवेगी, जो बृहस्पति बुध शुक्र चतुर्थ हों तो शत्रुसेना शीघ्रही आवेगी ॥ १४ ॥ स्थिरोदयेजीवशनैश्चरेस्थिते गमागमौनैववदेत्तपृच्छतः ॥ त्रिपंचषष्टारिपुसंगमायपापाश्चतुर्थाविनिवर्त्तनाय ॥ १५ ॥ स्थिर राशि में बृहस्पति और शनि हों तो गमन तथा आगमनभी न होगा कहना, पापग्रह ३ । ५ | ६ स्थानोंमें हों तो शत्रुसे संगम होगा, चतुर्थमें पाप हों तो शत्रु हट जायगा ॥ १५ ॥ दशमोदयसप्तमगाः सौम्यानगराधिपस्यविजयकराः ॥ आरार्कि सिताः प्रभंगदाविजयदानवमे ॥ १६ ॥ शुभ ग्रह १० । १ । ७ स्थानोमें नगरेशकी जय करते हैं और नवममें मंगल शनि उसकी हार बुध बृहस्पति शुक्र जीत करते हैं ॥ १६ ॥ उदयक्षञ्चन्द्र क्षैभवतिचयावद्दिनैश्चतावद्भिः ॥ आगमनंस्याच त्रोर्यादिमध्येनग्रहःकश्चित् ॥ १७ ॥ लग्नसे चन्द्रमा जितने राशिपरहो उतने दिनोंमें शत्रु आवे यदि उनके बीचमें कोई ग्रह न हो ॥ १७ ॥ जयपराजये। दैत्येज्यवाचस्पतिसोमपुत्रैरेकर्क्षगैलंग्य गतैर्बलाढयैः ॥ द्वाभ्यामथेज्येभृगुजेथलग्नेहन्याद्रणेयायिनृपपुरेशः ॥ १८ ॥ शुक्र बृहस्पति और चन्द्रमा एक राशिमें हों विशेषतः बलवान् वा गत दोनहूं हो वा बृहस्पति शुक्रमें एकभी हो तो जानेवाला राजाको पुर वा किलेमें बैठा राजा जीते ॥ १८ ॥ सूय्र्यैदुभौमार्कजसैहिकेयैः सर्वैश्चतुर्भिस्त्रिभिरेवलनगैः ॥ हन्यात्तदास्थायिनमाशुयायीद्यूनस्थितैर्यायिनृपपुरेशः ॥ १९ ॥ (२४४) ताजिकूनीलकण्ठी । > सूर्य चन्द्रमा मंगल शनि-राहु सभी वा इनमेंसे तीन लयमें हों तो अपने स्थानस्थितं राजाको गमन करनेवाला राजा मारे, जो उक्त यह सप्तम हों तो स्थानस्थित राजा गमन करनेवालेको मारे ॥ १९ ॥ शुक्रेज्यशीतांशुबुधाः सुरेज्यैः सर्वैस्त्रिभिर्यूनगतैर्बलाढ्यैः ॥ हन्याद्रणेस्थायिनंमाशुयायीसुखास्पदस्थैश्च शुभैः सुसंधिः ॥ २० ॥ शुक्र बृहस्पति चन्द्रमा बुध सभी बृहस्पति सहित उक्तोंमेंसे तीन शुभग्रह बलवान् तथा सप्तममें हों तो जानेवाला स्थानस्थ राजाको रणमें मारे, जो उक्त ग्रह चतुर्थ हों तो शीघ्र मिलाप होजावे ॥ २० ॥ कुजेत्थशालेहिमग वेलनेबन्धौचमृत्युर्युधिनागरस्य || भौमेत्थशालेचविधौकलत्रेबन्धंमृतिवालभतेत्रयायी ॥ २१ ॥ चन्द्रमा लग्न वा चतुर्थमें मंगलसे इत्थशाली हो तो युद्ध में स्थायी राजाकी मृत्यु होवे, जो ऐसेही चन्द्रमा सप्तम हो तो यायी राजाका मृत्यु वा बंधन होवै, स्थाई अपने किलामें बैठा है यायी दूसरेपर जाता है, ये संज्ञा ॥२१॥ लग्नेशजामित्रपयोश्चमध्येभवेद्ब्रहोयःस्वगृहोच्चसंस्थः || तद्वर्गमर्त्यानृपयोश्चसंधिर्ज्ञेयोबुधेलेखकपंडिताभ्याम् ॥ २२ ॥ लग्नेश सप्तमेशसे जो ग्रह स्वगृह वा उच्चमें हो तो उसके पक्षके मनुष्योंसे संधि ( मैत्री ) करावेगा, यदि बुध स्वगृहोच्चमें हो तो लेखक या पंडितों के द्वारा मैत्री होवे, “वर्ग सू० चं० राजा, मं० सेनापति, बुध युवराज, बृ०धु०. मन्त्री, श० दास" ये जानने ॥ २२ ॥ क्रूरेकलत्रेह्युदयेशुभग्रहोयच्छेद्धनंयायिनृपायनागरः ॥ विपर्ययाद्यायिनृपःपुरेश्वरंदुर्गाद्धिनिष्कास्यददातिवास्पदम् ॥ २३ ॥ सप्तम में पाप लग्नमें शुभग्रह हों तो यायी राजाको स्थायीराजा धन देके. शांत करावे, जो लग्नमें पाप सप्तममें शुभ ग्रह हों तो यायीराजा स्थायीको किलासे निकालकर फिर स्थान देवे ॥ २३ ॥ रवीत्थशालेशशिजे गुप्ताश्चराभवेयुश्च जेसराफात् || ग्रहाच्छशांकेनयुताश्चतस्मिन्येयेन्यवेषाश्च भवंतिचाराः ॥ २४ ॥ • भाषाटीकासमेता । (२४५) बुध सूर्य्यसे इत्थशाली हो तो चार पुरुष जासूस अति रहैं, जो बुषसे अँगल का ईसराफ हो चन्द्रमासे युक्त भी हो तो वे और वेष रक्खें ॥२४॥ दुर्गप्रश्ने । लेविलग्नेक्रूरेवादुर्गभंगोनजायते ॥ शेषतो भूमिपुत्रेराहौवामूर्तिसति ॥ २५ ॥ प्रश्नलनमें पापग्रह हो विशेषत: मंगल राहु हो तो किला नहीं टूटेगा २५ सप्तमे सिंहिकासूनु गैशीत्रेणलभ्यते || जामि॒त्रोदयगेक्रूरे रिष्फगेलग्ननायके ॥ २६ ॥ द्वितीयेवाष्टमेषष्ठेतदादुर्गनल भ्यते ॥ सकूरोलग्नपोवकीयुद्धदः केंद्रसंस्थितः ॥ २७ ॥ सप्तममें राहु हो तो किला शीघ्र लियाजायगा, जो सप्तम तथा लग्नमें पाप- ग्रह और लग्नेश बारहवां हो यद्वा२।६।८में हो तो किला नहीं लियाजायगा, जो लग्नेश वक्री और पापयुक्त तथा केंद्र में हो तो युद्धही होवे ॥२६॥२७॥ षष्ठाधिपघूनगतेपापेवायुद्धमादिशेत् ॥ · पृच्छायांकेंद्रगैः करैः कोटेदुर्गेवधोनृणाम् ॥ २८ ॥ षष्ठेश सप्तममें वा पापग्रह सप्तम हों तो युद्ध होवे, तथा प्रश्न से केंद्रों में पापग्रह हों तो किलामें मनुष्य मारे जावें ॥ २८ ॥ भौमाष्टमेशावेकञददतोनिधनंनृणाम् || स्वायपुत्रस्थितेजीवेकोटमध्ये भयंनहि ॥ २९ ॥ मंगल तथा अष्टमेश एकही भावमें हों तो प्रष्टाकी सेनामें बहुत मनुष्य अरेंगे २।११।५ भाव में बृहस्पति हो तो किलामें भय न होगा ॥ २९ ॥ शनौ भौमेच केंद्रस्थेबहूनांवधबंधनम् ॥ ३० ॥ शनि मंगल केंद्र में हों तो बहुत मनुष्य मारेजायेंगे तथा बांधे जायँगे ३० लग्नगतोयदिपापःपापेनयुतेक्षितोजयेद्वात्र || लग्नात्पूर्वापर गौपापौयुद्धंतदाघरम् ॥ ३१ ॥ लग्नमें पापग्रह पापहीसे युक्त वा दृष्ट हों अथवा दूसरे बारहवें पा ह हों तो घोर युद्ध होगा ॥ ३१ ॥ इति श्रीमहीधरकतायां प्रश्नतंत्रभाषाटीकायामष्टम भावप्रश्ननिरूपणम् ॥ ८ ॥ ( २४६ ) ताजिकनीलकण्ठी । अथ नवमभावप्रश्नः । ममगमनंभवितानवेतिलग्नेश्वरेथवाचंद्रे || नवमेशमुथशिलेसतिनवमेवास्याद्भवेद्गमनम् ॥ १ ॥ मेरा गमन होगा वा नहीं ऐसे प्रश्नमें लग्नेश वा चन्द्रमासे नवमेशका मुथ- शिल हो वा लग्नेश नवम हो तो गमन होगा ॥ १ ॥ लग्नस्थेनवमपतौल धिपमुथशिलेचसंचारात् || रहितोयातिपुनर्नानवमदृशावर्जितेयोगे ॥ २ ॥ . नवमेश लग्नमें लग्नेशसे मुथशिली हो तो चलता फिरता रहे जो. लग्नेश वा नवमेशका नवमस्थानमें दृष्टि न हो तो गमन भी न होवे ॥ २ ॥ लग्नपतौकेंद्रस्थेसहजेश थारीलेचविक्रूरे ॥ गमनंस्यादस्मिन्वाकेंद्रेकरेचनास्तिगतिः ॥ ३ ॥ लग्नेश केंद्र में तृतीयेशसे मुथशिली निष्पाप हो तो गमन होवे, जो केंद्रों में क्रूरग्रह हों तो गमन नहीं होगा ॥ ३ ॥ अस्तेक्रूरेचयत्कायै॑निर्यातिविघ्नमतएंव ॥ आकाशस्थेपापेराजकुलाज्ज्येष्ठतोनिजाद्वापि ॥ ४ ॥ जो सप्तम स्थानमें पापग्रह हों तो जिस कार्ग्यके लिये गमन करे उसमें विघ्न होवे जो दशममें पाप हों तो राजकुलसे वा अपने ज्येष्ठ से वा अपने- हीसे विघ्न होवे ॥ ४ ॥ नवमेशे¸ थशिलगेलग्नाधीशनपा परिषुदृष्टे | गमनेवसानतः स्यात्प्रष्टुःकष्टंक्षयोर्थस्य ॥ ५ ॥ लग्नेशसे नवमेशका मुथशिल हो किंतु पापयुत और शुक्रदृष्ट हो तो गमन तो होबे किंतु अंतमें कष्ट और वनहानि होवे ॥ ५ ॥ लग्नेशेनवमेशेमुथशिलकृतिरंअसत मेकष्टम् ॥ उदितेस्मिन्यायायाद्विनिःसृतिः स्यात्सुखकरः पंथाः ॥ ६ ॥ जो लग्नेश नवमेशका मुथशिल सप्तम वा अष्टमस्थानमें हो तो गमन: होवे, जो वह अस्तसे उदय होगया हो तो मार्ग खकारी होगा ॥ ६ ॥ (२४७) भाषाटीकासमेता । लग्नान्मार्गानुभवोव्योम्नः कार्य॑स्मराद्गतिस्थानम् || भूमेः कार्य्यपरिणतिरेवंलग्नेशरीरसुखम् ॥ ७ ॥ लग्न जैसा दीर्घ वा ह्रस्व हो वैसाही मार्ग कहना, तथा दशमसे कार्ग्य, सप्त- मसे गति, चतुर्थसे गमनका परिणाम, और लग्नसे शरीरसुख जैसे इनका बला- तथा स्वभावादि संज्ञाप्रकरणोक्त हों वैसेही इनके लक्षण कहे ॥ ७ ॥ दशमेशुभेचसिद्धिःकार्य्यस्यास्ते यातियत्स्थाने || तत्रशुभेचचतुर्थेपरिणामः सुंदरः काय् ॥ ८ ॥ ु दशममें शुभग्रह हों तो कार्थ्यसिद्धि, सप्तममें हों तो गमन से, चतुर्थ हो तो कार्यका परिणाम शुभ होगा ॥ ८ ॥ लग्नेशंशशिनंवायःक्रूरस्तुदतितत्र नुजों ॥ मनुजत्रिराशिकेवातदाभयंद्विपदतोगंतुः ॥ ९ ॥ लग्नेश वा चंद्रमाको जो पापग्रह पीडित करे वह पुरुषराशि वा पुरुष ड्रेष्काणमें हो तो गमनबालेको दोपैरवालेसे भय होवे ॥ ९ ॥ जलराशौवारिभयंचतुष्पद तथा श्वादेः || घटचापेमकंटकभयंहरौव्या सिंहादेः ॥ १० ॥ जो उक्तग्रह जलराशिमें हो तो जलसे, चतुष्पद राशिमें हो तो चतुष्पद घोडा आदिसे, धन कुंभका हो तो वृक्ष कंटकादिसे, सिंहका हो तो व्याघ्र सिंहा- दिसे भय होवे ॥ १० ॥ नगरप्रवेशतोस्मान्फलमस्तिनव वेशलनमिह || तस्मिन्धनपेक्त्रेनोरहणंकार्य्य सिद्धिव ॥ ११ ॥ उक्त जो फल हैं ये नगरसे गमन और पुनः नगर प्रवेशपर्यंत हैं, जो धनेश वक्री हो तो स्थिति न होवे वा कार्य्य धन न होवे ॥ ११ ॥ अतिचरितेबहुदिवसरहणनोकार्य्यासिद्धिरीषदपि ॥ नवमतृतीयगेस्मिन्कार्य्यकृत्वाशुनिजपुरंयाति ॥ १२ ॥ जो धनेश अतिचारी हो तो बहुत दिन सफरमें रहना पड़े कार्य सिद्धि- भी न होवे जो धनेश नवम वा तृतीय स्थानमें हो तो कार्य करके शीघ्र अपने नगरमें आवेगा ॥ १२ ॥ ताजिकनीलकण्ठी । लग्ने कर्मण्याये धनपयुतेशोभनंज्ञेयम् || सक्रूरसप्तमस्थेपथिविघ्नाञ्झटकचतुर्थस्थे ॥ १३ ॥ लग्न दशम वा ग्यारहवें में नवमेश धनेश युक्त हों तो यात्रा शुभ होगी, जो धनेश वा नवमेश पापयुक्त सप्तममें हों तो मार्गमें विघ्न, तथा चतुर्थमें सपाप हों तो कलह होवे ॥ १३ ॥ ( २४८ ) ग्रंथांतरेपांथागमनम् | आगमनेपृच्छायांलग्नेशेलग्नमध्यसंस्थेन || कृतमुथशिलेसमेतिहिसुखमस्ततुरीयगेकष्टात् ॥ १४ ॥ पथिकके आगमनमश्र में लग्नेशसे लग्नस्थित ग्रह इत्यशाली हो वह सुखसे तथा ४ । ७ स्थानमें हो तो कष्टसे आवेगा ॥ १४ ॥ स्थानाच्चलित प्रश्नेलग्नपतौसहजनवमगृहसंस्थे ॥ लग्नस्थेनसुथाशलेपंथानंवहतिपथिकोयम् ॥ १५ ॥ स्थानसे मार्गको चला वा नहीं ऐसे प्रश्न में तृतीयेश ३ वा ९ स्थानमें होकर लग्नस्थ किती ग्रहसे मुथशिली हो तो पांथ मार्ग में है ॥ १५ ॥ रंध्रेथधनेतस्मिन्नाकाशसंस्थेनथशिलेप्येवम् || केंद्रस्थितेत्थशाललग्नेक्षणवर्ज्यमेतिनकदापि ॥ १६ ॥ लग्नेश अष्टम वा धनस्थानमें होकर दशमस्थ किसी ग्रहसे मुथशिली हो तो भी मार्ग चलताहै कहना. केंद्र में होकर दशमेशसे इत्थशाली हो तोभी यही फल है. जो लगेश लनको न देखे तो पांथ नहीं आवेगा कहना ॥ १६ ॥ लग्नाधिपतौवकेलग्नंपश्यत्यसुत्रचंद्रेवा || वक्रगसुथाशलेसतिसमेतिपथिकः सुखंशीघ्रम् ॥ १ ॥ लग्नेश वक्र होकर लग्नको देखे अथवा चन्द्रमा वक्री ग्रहसे मुथशिली हो तो पथिक शीघ्र आवेगा ॥ १७ ॥ अंत्यस्थितलग्नपतौशशिनाकृतमु शिलेद्रुतमुपैति || लग्नाद्वापि चतुर्थाच्छुभावितीयतृतीयगावापि ॥ १८ ॥ लग्नेश बारहवां चंद्रमासे मुथशिली हो तो पांथ शीघ्र आवेगा लग्रसे चतुर्भसे दूसरे तीसरे शुभग्रह हों तोभी शीघ्र आवेगा ॥ १८ ॥ 1 (२४९ ) भाषाटीकासमेवा | कथयतिनष्टलाभंप्रवासिनश्चगमंत्वरितम् ॥ १९ ॥ • इन दो योगोंमें सीका शीघ्र आगमन तथा नष्टवस्तुका शीघ्र लाभ. होता है पथिकका आगमन वा रोधके योग द्रव्यके लाभालाभमें भी मिलते हैं ॥ १९ ॥ शुभ शुभेषष्ठेथ जामित्रेवाक्पतिःकंटके स्थितः ॥ पथिकाग नंतेसितेज्ञेवात्रिकोणगे ॥ २० ॥ वत हो तथा स्पति केन्द्र में हो अथवा शुक्र वा बुध त्रिकोण ९ । ५ में हो तो पथिक शीघ्र आवेगा ॥ २० ॥ षष्ठोदयेपापदृष्टे महग्वर्जितंबुधः ॥ लग्नात्पष्ठेयदापापायातुश्चनिधनंवदेत् ॥ २१ ॥ षष्ठ तथा लग्नस्थान में पापग्रहोंकी दृष्टि हो शुभग्रहोंकी न हो तथा ल- असे छठे स्थानमें पापग्रह हों तो पंडितने जानेवालेकी मृत्यु कहनी ॥ २१ ॥ यदाकूरास्तृतीयस्थादेशाद्देशांतरंगतः ॥ चौरेणैवहत स्वश्चपथिकः केंद्रगायदि ॥ २२ ॥ जो पापग्रह तीसरे हो तो पथिक एक देशसे दूसरे देशको चलागया ज सभी केन्द्रोमें पाप हों तो उस चोरॉन लूट लिया ॥ २२ ॥ पापैः त्रिलाभस्थैःकंटकस्यैःशुभग्रहैः ॥ वासी खमायाति दूरस्थोपिसुनिश्चितम् ॥ २३ ॥ पापग्रह ६ | ३ | ११ में और शुभग्रह केन्द्रोंमें हों तो पथिक दूर भी हो तोभी निश्चय करके खपूर्वक घर आवेगा ॥ २३ ॥ चतुरस्रेत्रिकोणेवापापगेहस्थितःशनिः || पापा श्चनियतंबंधनंयातुरादिशेत् ॥ २४ ॥ केन्द्र वा त्रिकोणोंमें पापग्रह तथा पापराशिमें पापदृष्ट शनि हो तो अवश्य पथिक बंधनमें पड़गया है ॥ २४ ॥ शुभ स्थिरेलग्नेस्थिरे बंधश्चरेऽन्यथा || द्वितनौ सौम्यसं तेबंधमोक्षौक्रमेणतु ॥ २५ ॥ स्थिर लग्न शुभयुक्त उक्तयोगों में हो तो बंधन स्थिर होगा. चर हो तो - नाममात्र और द्विस्वभाव हो तो बंधनसे छटगया है ॥ २५ ॥ ताजिकनीलकण्ठी ।.. पापास्त्रिकोण जामित्रेविलग्नेपृष्ठकोदये ॥ श. भिवक्ष्यमाणेचयातःकष्टंवदेत्सुधीः ॥ २६ ॥ त्रिकोण तथा सप्तम में पापग्रह और लग्न पृष्टोदय हो शत्रुसे देखा भी जावे तो पांथको बुद्धिमानने कष्ट कहना ॥ २६ ॥ मार्गस्थानगतैः सौम्यैर्मार्गतस्यशुभंवदेत् ॥ क्रूरैर्दुःखविलग्नस्थैःपापैःक्के॒शमवाप्नुयात् ॥ २७ ॥ मार्गस्थान में शुभग्रह हों तो पांथको मार्ग सुखकारी और पाप हों तो दुःखकारी होगा, तथा लग्नमें पाप हों तो पांथको क्लेश होगा ॥ २७ ॥ चरलग्नेचरांशेवाचतुर्थेचंद्रमाः स्थितः ॥ ( २५० ) प्रवासी सुखमायातिकृतकार्य्यश्चवेश्मनि ॥ २८ ॥ चरराशि लग्न में तथा चरराशि चरांशकमें चन्द्रमा चौथा हो तो प्रवासी कार्य करके सुखसे अपने घर शीघ्र आवेगा ॥ २८ ॥ कंटकैः सौम्यसंयुक्तैः पापग्रहविवर्जितैः ॥ प्रवासीसुखमायातिनिधनस्थेनिशाकरे ॥ २९ ॥ केंद्रों में शुभ ग्रह हों पाप ग्रह न हों अथवा चन्द्रमा अष्टम हो तो प्रवासी सुखसे घरमें आवेगा ॥ २९ ॥ गमागमौतुनस्यातांयोगेदुरुधराकृते ॥ शुभैःशुभकृतोरोधः पापैस्तस्करतोभयम् ॥ ३० ॥ जो दुरुधरा योग अर्थात् चन्द्रमासे दूसरे बारहवेंभी कोई ग्रह हों तो गमन तथा आगमनभी न होवे, जो यह योग शुभ ग्रहों से हो तो शुभ कार्य में अटकाव पापोंसे चोर आदिसे हानियें होवें ॥ ३० ॥ गमाग तुनस्यातांस्थिर राशौविलग्नगे ॥ नरोगोपशमोनाशोद्रव्याणांनपराभवः ॥ ३१ ॥ स्थिर राशि लग्नमें हो तो गमन रोग, शांति वा वृद्धि और हारजीत द्रव्य नाश वा लाभ कोईभी शुभ एवं अशुभ न होवे ॥ ३१ ॥ . विपरीतं चरेवाच्यंफलंमिश्रंद्विमूर्तिषु ॥ स्थिरवत्प्रथमेर्खडेपराचरराशिवत् ॥ ३२ ॥ भाषाटीकासमेता | ( २५१ ) F चरराशि लग्नमें हो तो पूर्वोक्त फल विपरीत जानना जो द्विस्वभाव हो. तो पूर्वार्द्ध में चरराशिके और उत्तरार्द्धमें स्थिरके तुल्य फल कहना ॥३२॥ प्रवासीसुख यातिगुरु त्रिवित्तगौ ॥ चतुर्थस्थानगावे शीघ्रमायातिकार्यकृत् ॥ ३३ ॥ बृहस्पति शुक्र तीसरे वा दूसरे हों तो प्रवासी सुखसे आवेगा जो यही चतुर्थमें हों तो कार्य करके शीघ्रही आवेगा ॥ ३३ ॥ इंदु: मगोलग्नात्पथिकंवक्तिमार्गगम् ॥ गधिपश्चराश्यर्द्धात्पर भागेव्यवस्थितः ॥ ३४ ॥ चन्द्र लमसे सतम हो तो प्रवासी मार्ग में है कहना, मार्गस्थान ९ का स्वामी राशिके उत्तरार्द्धमें हो तोभी यही फल कहना ॥ ३४ ॥ कार्कजीवसौम्यानामेकोपिस्याद्यदायगः ॥ तदाशुगमनंब्रूतेष्टुर्नगमनंव्यये ॥ ३५ ॥ शुक्र सर्थ्य बृहस्पति बुधर्मेसे एकभी ग्यारहवां हो तो प्रवासी शीघ्र आवे जो बारहवाँ हो तो गमागम नहीं होंगे ॥ ३५ ॥ लग्नाद्यावतिथस्थानेबलीखेटोव्यवस्थितः ॥ ब्रयात्तावतिथेमासेपथिकस्यनिवर्त्तनम् ॥ ३६॥ ल^ जितने स्थानमें बलाधिक ग्रह हो उतनी संख्याके महीनों में प्रवासी लौटेगा यहां मास स्थानमें दिन वा वर्ष बुद्धिसे देशकाल देखके कहना ॥ ३६ ॥. एवंकालंचरांशस्थेद्विगुणंचस्थिरांशके ॥ द्विस्वभावांश गेखेटेत्रिगुणंचितयेत्सुधीः ॥ ३७ ॥ यह बली ग्रह चरांशकमें हो तो वह समयही ठीक है जो स्थिरांशकमें हो तो द्विगुण द्विस्वभाव में हो तो त्रिगुण समय कहना ॥ ३७ ॥ यातुवि मित्रभवनाधिपतिर्यदा || करोतिवक्रमावृत्तेः कालंतंब्रुवतेपरे ॥ ३८ ॥ - 1 ( २५२ ) ताजिकनीलकण्ठी । गमन रनेवालोंको गमन वा प्र लयसेः सप्तमेश जब वक्र होवे तब हटने का समय हना यह किसीका मत है ॥ ३८ ॥ चतुर्थदश वापियदिसौम्यग्रहोभवेत् || •तदानगमनरस्त स्थैर्ग नंभवेत् ॥ ३९ ॥ ● चतुर्थ वा दशममें शुभग्रह हो तो गमन न होवे हो तो गमनहोता है ॥ ३९ ॥ द्वालगनाथाद्वायत्सं रखेचराः ॥ नवमेद्वादशेवापितत्संख्याः स्युरुपद्रवाः ॥ ४० ॥ लग्न वा लग्नेशसे नवम वा बारहवें स्थान में जितने पाप ग्रह हों उतने उपद्रव गमनमें होवेंगे कहना ॥ ४० ॥ 0 लग्नाद्वालग्ननाथाद्वायावंतःसौम्यखेचराः ॥ मार्गेतत्रोदयावाच्याः स्थानेस्थानेविचक्षणैः ॥ ४१ ॥ लभ लग्नेशसे जितने शुभग्रह नवग्रहों उतने स्थानों में पांथका उदय हर्ष होगा यह द्वानोंने विचारसे कहना ॥ १ ॥ रयुक्तक्षितो 'द: महग्योगवर्जितः ॥ धर्मस्थस्तनुतेव्याधिप्रोषितस्याष्टगो मृतिम् ॥ ४२ ॥ नवम स्थानमें शनि पापग्रहयुक्त दृष्ट हो शुभग्रहकी दृष्टि योग रहित हो तो पथिकको व्याधि और अष्टममें होतो मृत्यु होवें ॥ ४२ ॥ जामित्रस्यशुभोत्थेयातानायातिदुरुधरायोगे ॥ मित्रस्वामिनिषेधात्पापोत्थेशत्रुरुक्चौरात् ॥ ३ ॥ . सप्तममें शुभ ग्रहोंसे दुरुघरा योग हो तो जानेवाला मित्र अथवा स्वामीके मना करनेसे फिर आवे नहीं जो पापोंसे हो तो शत्रु वा रोग और चौरसे मृत्यु वा मृत्युतुल्यप पावे ॥ ४३ ॥ चंद्रार्कयोशि द्गयोर्यमेनसंदृष्टयोः स्यात्पथिशस्त्रभीतिः ॥ रंप्रेसितेज्ञेचसुख तरारे देभयंपापयुगीक्षितध्वनि ॥ ४ ॥ चन्द्रमा सूर्प्य अष्टम हो शनि उन्हें देखे तो मार्गमें शस्त्रभय होवे, अष्टम - स्थानमें शुक्र बुध हों तो सुख मिले, मंगल शनि पयुक्त वा दृष्ट अष्टम हो तो मार्गमें भय होवे ॥ ४४ ॥ x भाषाटीकासमेवा । दूरस्थजीवितमृत श्ने । ( २५३.) "वरेशीतकरेथषष्ठेतुर्येष्टमेवाप्यतिनीचगेवा || अस्तंगतेच्छिद्रपतीत्थशालेयु ऽशुभैर्दूरगतोमृतः स्यात् ॥ ४५ ॥ प्रवासी जीवित है वा मरगया ऐसे प्रश्नमें लग्नेश तथा चंद्रमा छठे हों अथवा चतुर्थ अ में अति नीचराशिस्थ अस्तंगत हों और अष्टमेशसे इत्थशाली और पाप युक्त हों तो प्रवासी दूर पहुँचकर मरगया होगा ॥ ४५ ॥ भूमेरधःस्थेनचवक्रगेनयदीत्थशालकुरुतेशशांकः || सौम्यैरदृष्टेमरणंप्रकुर्य्याद्दूरस्थितस्यापिविदेशगस्य ॥ ४६॥ लग्नसे चतुर्थके बीच स्थित किसी ग्रहसे चंद्रमा इत्थशाल करे तथा शुभग्रह उसे न देखें तो दूरदेशस्थकी मृत्यु होती है ॥ ४६ ॥ सौम्यैः 'त्यरंध्रस्थैर्विबलैश्चशुभेक्षितैः ॥ पापयुक्तौशशांकाकौतदादूरस्थितोमृतः ॥ ४७ ॥ शुभग्रह ६ | ८ | १२ | स्थानों में निर्बल शुभ ग्रहों से दृष्ट तथा पापग्रहों से युक्त हों और सूर्य चंद्रमा पापयुक्त हों तो दूरस्थित जन मर- गया है ॥ ४७ ॥ सौम्यैरदृष्टैः पृष्ठोदयेपापयुतेत्रिकोणकेंद्राष्टषष्टोपगतैश्चपापैः ॥ परदेशसंस्थोमृतोगदात्तनवमेचसूर्य्यं ॥ ४८ ॥ पृष्ठोदय १ । २ । ४ । ९ राशिमें पापग्रह त्रिकोण केंद्र और अष्टम स्थानमें हों शुभग्रह उन्हें न देखें तो परदेशमें रोगी मरगया है, जो नवम सूर्य्य हो तोभी यही फल कहना ॥ १८ ॥ तुर्य्योपरिस्थेनखगेनचंद्रमायदीत्थशालंकुरुतेशुभेक्षितः ॥ सौम्यैर्युतोवापरदेशसंस्थितःसुखीचजीवेत्पथिसौख्यमेति ॥४९॥ चतुर्थसे सप्तमके भीतर किसीग्रहशे चंद्रमा इत्थशाल करे शुभग्रहसे दृष्ट वा युतभी हो तो परदेशवाला खी जीताजागता है मार्गमेंभी सुखसे आवेगा४९ इति श्रीमहीधर • ता० नी० मा० नवमस्थान प्रश्न नि० ॥ ९ ॥ ताजिकनीलकण्ठी । || अथ दशमस्थानप्रश्नः । राज्याप्तिप्रश्नलग्नेलग्नेशेशशिनिवानभःपतिना तमुथशिलेवरहशाराज्यंरूपक्रमाद्भवति ॥ १ ॥ राज्यलाभ प्रश्नमें लग्नेश वा चंद्रमा दशमेशसे मुथशिली हो मित्रदृष्टि भी हो तो कुलानुमान राज्य ख मिले ॥ १ ॥ अन्योन्यभवनगमनाःक्रूराभावेथचिंतितप्राप्तिः ॥ लग्नेशेनान्येनचसौम्येनांबरस्थमुथशिलेप्येवम् ॥ २ ॥ लग्नेश दशम दशमेश लग्नमें पापरहित हों तो चिंतित राज्य सुख मिले, . तथा नेशसे किसी दशमस्थ शुभग्रहका मुथशिल हो तौभी यही फल होगा २ मंदग्रहे बलवतिक्रूरवियुक्तोयदाशशीविबलः || मँदेबलिनिभ्रमणाद्वाज्यप्राप्तिर्भवेत : ॥ ३ ॥ योगकर्त्ताओंमें मन्दगति ह व वान् पापरहित चंद्रमा भी निर्बल हो शनि बलवान् हो तो भ्रमणसे प्रश्नवालेको राज्यसुख मिले ॥ ३ ॥ लग्नाधिपतौस्वगृहेलाभोराज्यस्यतुंगगेभोमे ॥ । लग्नांबराधिपौयदिकंबूलौकेंद्रगेंदुमुथशिलतः ॥ ॥ अपनी राशिमें लग्नेश और अपने उच्चमें मंगल हों तो राज्यलाभ होवे. जो लग्नेश और दशमेश मुथशिली केंद्र में चंद्रमासे कंबूली हों तो वही फल हना ४ उत्तमराज्याप्तिः स्वक्षच्चइंदुतोविपुला ॥ यत्र क्षैलग्नेशस्तत्पतिर भेगृहेतदाकार्य्यम् ॥ ५ ॥ नस्यादस्तेक दिशमहशाकटुकताकार्ये ॥ राज्यप्राप्तौसत्यांय दिपृच्छतिकोपिपरिणतिचतदा ॥ ६ ॥ लग्नेश दशमेशके इत्यशालमें चंद्रमा स्वराशि वा उच्चगत कंबूली अर्थात् उत्तमोत्तम कंबूल हो तो राज्यप्राप्ति उत्तम और बहुत होवे जिस राशिमें लग्नेश है उसका स्वामी अशुभ राशिमें हो तो राज्यसंबंधी कार्ग्य न होवे जो वह अस्तंगत हो तो कष्टसे होगा जो शत्रुदृष्टिसे दृष्ट हो तो कार्य में कोई प्रकार कडुवाई आवेगी ॥ ५ ॥ ६ ॥ . ( २५ ) 1 भाषाटीकासमेता । ल’ शरीरकार्य्यगृहकार्मास्तंनभश्चराज्यार्थम् लाभोमि स्यार्थेचतुर्थकंकर्मणोवसतयेच ॥ ७ ॥ ॥ जो कोई राज्यकृत्यप्राप्ति हुयेमें उसका परिणाम पूँछे तो लग्यसे शरीरका - र्थ्य, सप्तमसे गृहकार्ग्य, दशमसे राज्यकृत्य, लाभसे लाभ चतुर्थ से तथा मित्रसंबंधी कार्य्य और दशमसे निवासके विषयमेंभी विचार करना ॥ ७ ॥ द्र्व्यंधनायसहजंभृत्येभ्योरिपुश्चवैरिभ्यः ॥ (२५५) एतैः शुभैःशुभंस्थादशुभेवामंचसर्वकार्य्याणाम् ॥ ८॥ दूसरे भावसे धन कार्ग्य, तीसरेसे भृत्य, छठेसे वैरी संबंधी कार्य्य विचारना, यदि इनपै शुभग्रह हों वा इनके स्वामी बली होंतो यथोक्त कार्य शुभ अन्यथा अशुभ होगा ॥ ८ ॥ वित्तस्वामिनिभौमेऽनौचित्येपारदारिकेव्ययकृत् ॥ जीवेधर्मायरिपौगुरुपूजायैसितेविलासाय ॥ ९ ॥ धनेश मंगल लग्नेशसे मूथशिली हो तो अनुचितकर्मोमें तथा परस्त्री संबंधी व्यय करे धनेश बृहस्पति हो तो धर्ममें सूर्य्य हों तो गुरु ब्राह्मण की पूजामें शुक्र हो तो विलासादि खमें धनव्यय होवे ॥९॥ वाणिज्यायन थशिंलिनिचान्यथान्यार्थम् ॥ लग्नपतौपतितस्थे विबलेराज्यात्ययस्तुकंवले ॥ कोपि गुणः स्यात्पापाक्रांतरशुभंच्युतौभवति ॥ १० ॥ जो उक्त प्रकार बुध हो तो वाणिज्यमें धनव्यय होवे चन्द्रमा सुथ शिली भी हो तोभी व्यापारमें व्यय होवे जो मुथशिली लग्नेशसे न हो तो अन्यकोल- ये वाणिज्यकरे तथा ललेश पतित स्थान में तथा निर्बल हो तो कंबलीमें कुछ गुणभी होताहै पापाक्रांत हो तो राज्य नाशही होताहै ॥ १० ॥ नरपतिसचिवस्नेहप्र नेकंबूलेलझसप्तपयोः ॥ · मथाशलयोः शुभदृष्ट्याशुभताराज्येमिथः स्नेहः ॥ ११ ॥ राजा और राजमंत्री के स्नेहप्रश्नमें लग्नेश सप्तमेशका कंबूलसहित, मुथशिल हो तो परस्पर स्नेह रहे शुभदृष्टिभी हो तो राज्यमेभी शुभता रहै ॥ १३ ॥ ( २५६) ताजिकनीलकण्ठी । • राज्यंचरंस्थिरंवालग्नपगगनेशयोः सहयोः ॥ यद्येकोमंदःस्यात्केंद्रेतत्स्थितमथोन्यथावाच्यम् ॥ १२ ॥ यह राज्य चर वा स्थिर कैसा होगा ऐसे प्रश्नमें लग्नेश दशमेश साथही केन्द्रमें हों उनमेंसे एक मन्दगति उपलक्षणसे अल्पांश हो तो राज्य स्थिर होगा अन्यथा अस्थिर कहना ।। १२ ।। यदिवासवाममार्गेभूमे प्रच्युतिर्भवेत्पूर्वम् ॥ कंबूलेसतिलभतेशीघ्रंमूसरिफेतुनपुनः ॥ १३ ॥ जो उक्तग्रह वक्री हो तो प्रथम राज्यकी हानि पीछे उन्नति होगी, कंब- ली हो तो शीघ्र राज्यलाभ और मूसरिफी हो तो लाभ नहीं होवे ॥१३॥ ग्रन्थांतरेस्वामिभृत्यप्रश्नः | शीषदयेसौम्ययुतेक्षितेवासौम्यैर्द्वितीया मसप्तमस्थैः || तृतीयलाभारिंगतैश्चपापैःसौख्यार्थलाभोनृपसेवकस्य ॥ १४ ॥ स्वामी भृत्य प्रश्नमें शुभग्रह शीर्षोदय राशिमें शुभग्रहों से युक्त दृष्ट २।८।७ में और३।१ १।६स्थानोंमें पाप हों तो राजसेवीको सुख तथा धनलाभ होवे १४ लग्नाद्दितीयेमदनेष्टमक्षैवित्तक्षयंसंभ्रममार्तिमृत्युम् ॥ कुर्वीतपापाः क्रमशोनरेंद्राद्धृत्यस्यतस्मात्परिवर्जयेत्तम् ॥ १५ ॥ लझसे दूसरे हों तो भृत्यका राजासे धनक्षय होवे जो सप्तम हों तो संभ्रम और अष्टम हों तो मृत्यु होवे तस्मात् इन स्थानों में पाप हों तो स्वाभीसेवा न करनी ॥ १५ ॥ लग्नाद्वितीयाष्टमसप्तमस्थाः पापाःप्रणाशंनृपभृत्ययोईयोः ॥ कुवैतितेष्वेवगताश्चसौम्याः कुर्युर्धनारोग्यसुखानिचोभयोः ॥ १६ ॥ लग्नसे २१८/७ स्थानोंमें पापग्रह स्वामी सेवक दोनहूंका नाश और शु- भग्रह दोनहूंको धन आरोग्य और सुख करतेहैं ॥ १६ ॥ शशांकसौम्यैरुदयास्तभावौदृष्टौयुतौवासबलैर्नपापैः ॥ प्रष्टुस्तदास्तोहृ दिपार्थिवस्यस्नेहप्रसादावकृपाप्रतीपात् ॥ १ ॥ भाषाटीकासमेता । (२५७ ) के लिये बलवान् चंद्रमा और बलवान् शुभग्रह करके लन तथा सप्तमभाव देखा जाय और उक्त स्थानोंपर पापग्रह की युति दृष्टि न हो तो राजाके हृदय में स्नेह तथा कृपा रहे, यही योग विपरीतभी है कि, शुओंके स्थानमें पाप हों तो विपरीत फल कहना ॥ १७ ॥ अन्यस्वामिप्रश्नः । केंद्रयदीत्थशालंकुरुतेविलयपः ॥ षष्ठेश्वरेणव्ययपेन प्रष्टुस्तदान्यःप्रभुरर्थदः स्यादतःप्रतीपंनभवेत्परःप्रभुः ॥ १८ ॥ षष्ठेशसे वा व्ययेशसे जो केन्द्र में इत्थशाल लग्नेश करे तो प्रष्टाको और स्वाश्री धन देनेवाला होगा, विपरीत में अन्य प्रभु न होवे ॥ १८ ॥ लग्नेश्वरेस्वर्क्षगतेस्वतुंगकेंद्रस्थितेशीतकरेत्थशाले ॥ शुभ हैदृष्ट तेबलान्वितेप्रष्टुर्नजस्वाम्यमितार्थलाभः ॥ १९ ॥ लग्नेश अपनी राशि वा उच्च में केन्द्रस्थित होकर चन्द्रमासे इत्थशाली हो तथा शुभ ग्रहोंसे युक्त दृष्ट और बलवान् हो तो प्रष्टाको अपनेही स्वामी से अगणित धन मिले ॥ १९ ॥ जायेश्वरेस्वोच्चनिजर्क्षसंस्थेकेंद्रस्थितेशीतकरेत्थशालगे ॥ भगर्दृष्टयुतेबलोत्कटैः प्रष्टुस्तदान्यप्रभुरर्थदोभवेत् ॥ २० ॥ सप्तमेश अपनी राशि वा उच्चका केन्द्रगत चन्द्रमासे इत्थशाली हो तथा बलवान् शुभग्रहों से युक्त वा दृष्ट हो तो प्रष्टाको अन्य स्वामी धनदेवे ॥२०॥ इदंगृहंवाशुभमन्यदालयंस्थानंत्विदवाशुभमन्यदेवमे || समात्र भद्रंगमनात्तु तत्रवापृष्ठोदयेत्थंविधिनाविभृश्य ॥ २१ ॥ प्रष्टा पूँछे कि, मुझको यह घर शुभहोगा वा अन्य, तथा यह स्थान शुभ वा अन्य, और हमको यहां शुभ है या गमनमें वहां शुभ होगा इतने प्रश्नों में इतने ही भावोंसे कार्येश जानके इत्थशाल इसराफ आदि योगोंसे विचार करना २१ १७ अथ स्व प्रश्नः । लग्नेकनृपतिवह्निशस्त्रपश्यंतिलोहितम् ॥ वेतंपुष्पंसितंवस्त्रं गंध नारींचशीतगौ ॥ २२ ॥ ( २५८ ) ताजिकनीलकण्ठी । लग्नमें सूर्य्य हो तो राजा, अग्नि, श और लाल रंग देखे, चन्द्रमा हो तो श्वेत रंगके पुष्प, व, चंदन और दे ॥ २२ ॥ रक्तंमांसंप्रवालंच सुवर्णधरणीसुते ॥ घेखेगमनंजीवेधनंबधुसमागमम् ॥ २३ ॥ मंगल हो तो रुधिर मांस मूंगा वर्ण, बुध हो तो आकाश पर्वतशृंगादिमें गमन, हस्पतिसे धन तथा बंधुसंमेलन ॥ २३ ॥ जलावगाहनंशुक्रेशनौतुंगावरोहणम् ॥ लग्नलग्नांशपवशात्स्व `वाच्याथवाबुधैः ॥ २४ ॥ शुक्र हो तो जलक्रीडा शनि हो तो ऊंचे स्थानारोहण होवे अथवा लग्न तथा लग्ननवांश पतिसे पंडितोंने स्वम कहना ॥ २४ ॥ सर्वोत्तमबलाद्वापिखेटाहुयाविचिंतयेत् ॥ बलसाम्येफलंमिश्रंदुःस्वप्नोनिर्बलैः खगैः ॥ २५ ॥ अथवा र्वोत्तम बलीग्रहसे बुद्धिसे विचार करना जो बहुतोंका बल मान हो तो फल मिश्रित और निर्बलसे दुःस्वम होवे ॥ २५ ॥ रविर्लग्नेशशिदृष्टेरविशाशसमेतविलग्नाद्वा ॥ स्वप्नंदृष्टंप्रवदेत्प्रष्टर्लग्नांतरात्कालः ॥ २६ ॥ सूर्ण्य लयमें चन्द्रमासे दृष्ट हों वा सूर्य्य चंद्रमा लग्नमें हों तो स्वम देखा है और स्थानों में हो तो देखेगा कहना ॥ २६ ॥ अथाखेटकः । • लग्नेशजामित्रपतीत्थशालेसुस्नेहदृष्टयात्वन योर्द्वयोश्च ॥ आखे- टकः स्यात्सफलोरिदृष्ट्यास्यान्निष्फलो वाल्पफलोतिकष्टात् ॥ २ ॥ - लग्नेश सप्तमेशका इत्थशाल मित्रदृष्टि से हो तो आखेटक ( शिकार ). फूल होगी उनकी शत्रुदृष्टि हो तो निष्फल वा बहुत कष्टसे अल्पफली होवे २७ लग्नेश्वरद्यूनगतेविलग्नेजायेश्वरेस्यान्मृगयाप्रभूता || यामित्रनाथेहिवुकेनभःस्थेचाखेटकः स्वल्पतरोपिनस्यात् ॥ २८॥ भाषाटीकासमेता । ( २५९ ). लग्नेश सप्तममें सप्तमेश लग्नमें हो तो शिकार बहुत मिले, जो सप्तमेश चतुर्थमें वा दशममें हो तो शिकार थोडाभी न होवे ॥ २८ ॥ . भौमौसबलौसिद्धिरस्तांशमृगयाच्युतिः ॥ लग्नघूनेतत्पतीचहेतुस्तैर्जलजादिंगैः ॥ २९ ॥ बुध मंगल बलवान् हों तो मृगयासिद्धि होवे जो वे सप्तम राश्यंशमें हों तो शिकार हाथसे छूटजावे; लग्न और सप्तम राशि वा उनके पति स्थल जला- काश जैसी राशियोंमें वा जैसे स्वभावके हों वैसीही शिकार भी कहनी ॥२९॥ ऋराक्रांतानियावंतिमन्येभानींदुल योः ॥ तावंतःप्राणिनोवाच्याद्वित्रिप्राः स्वांशकादिषु ॥ ३० ॥ लग्न और चन्द्रमाके बीच जितनी राशि पापग्रहोंसे दबी हों उतने प्राणी शिकारमें मिलेंगे जो वे अपने अंश वा उच्च मित्रांशकोंमें हों तो द्विगुण त्रि.. गुण और वर्गोत्तम में बहुतगुना कहना ॥ ३० ॥ अथ किंवदंती । श्रुतिस्तुलग्नेश्वरशीतगूद्यैःशुभान्वितैः केंद्रगतैस्तुसत्या || पापान्वितैःपापनिरीक्षितैश्च त्रिकस्थितैर्वाभवतीहमिथ्या ॥ ३१ ॥ लग्न, लग्नेश और चंद्रमा शुभयुक्त केन्द्रगत हों तो जनश्रुति सच्ची और पापयुक्त दृष्ट वा त्रिक ६।८ | १२ में हों तो मिथ्या कहनी, लोगोंमें अफवाह कहावत को जनश्रुति वा किंवदंती कहते हैं ॥ ३१ ॥ शुभदृग्योगतः सौम्यांवात्तीसत्यांविनिर्दिशेत् ॥ पापढग्योगतोदुष्टावार्त्तासत्येतिकीर्त्त्यते || लग्नेश्वरेभाविवकेमिथ्यावार्त्ताभविष्यति ॥ ३२ ॥ लग्न लग्नेश और चन्द्रमापर शुभग्रहोंकी दृष्टि वा योग हो तो सौम्य वार्चा सत्य क्रूरवार्चा हो तो असत्य जानना. पापदृष्टि योगसे क्रूर वार्त्ता सत्य, सौम्यवार्त्ता हो तो असत्य जानना और लग्नेश वक्र होनेवाला हो तो सभी वार्त्ता मिथ्या होवें ॥ ३२ ॥ इति श्रीमही • नी • प्रश्नतंत्रभाषाटीकायां दशमभावप्रश्ननिरूपणम् ॥ १० ॥ ताजिकनीलकण्ठी । अथ एकाशस्थानप्रश्नः । नृपतेर्गौरवलाभाशादिममस्यान्नवेतिपृच्छायाम् ॥ आयेशलग्नपत्योः स्नेहदृशा अशिलेद्रुतंभवति ॥ १ ॥ राजासे गौरव तथा धनादिलाभ मेरे होंगे वा नहीं ऐसे प्रश्नमें लाभेश लग्नेशकी स्नेहदृष्टिसे इत्थशाल हो तो शीघ्र लाभ होगा ॥ १ ॥ रह चाबहु दिवस: केंद्रे चायेशचंद्रकंबूले ॥ वाच्या पूर्णैवाशाचरस्थिरद्विस्वभावगेस्वनामफलम् ॥ २ ॥ जो उनके परस्पर शत्रुदृष्टि से इत्थशाल हो तो बहुत दिनोंमें लाभ होगा जो लग्नेश लाभेशका इत्थशाल केन्द्र वा लाभंस्थानमें चन्द्रमाके कंबूल सहि - त हो तो आशा पूर्ण होगी कहना, परंतु वह जैसी राशिमें हों वैसा राशि - नामसदृश फलभी देते हैं जैसे चरखें चर स्थिरमें स्थिर इत्यादि ॥ २ ॥ लाभेशे रहते भृत्वाशाशुप्रणाशमुपयाति ॥ ●रायुक्तेशुभयुज्यधिकारवशेनलघ्व्याशा ॥ ३ ॥ ( २६० ) · जो लाभेश अस्त वा पापपीडित हो तो आशा पूर्ण होकर फिर नष्ट होजावे. पापरहित शुभयुक्त हो तो अधिकारके सदृश लघु वा बृहत् आशापूर्ति कहनी ॥ ३ ॥ मित्रेणसह प्रीतिर्भवितालग्नेश्वरायपत्योश्च || प्रियदृष्ट्यामुथशिलतःप्रीतिर्वान्योन्यगृहयानात् ॥ ४ ॥ मित्रसे प्रीति होगी वा नहीं ऐसे प्रश्नमें लग्नेश लाभेशकी मित्र दृष्टि सुन् शिल हो अथवा लग्नेश लाभमें लाभेश लग्नमें हों तो भीति बढेगी ॥४॥ केंद्रस्थितयोरनयोर्मैत्रीकिलपूर्वजातैव ॥ पणफरगतौपुरस्तादापोक्किमतोमहाश्रीतिः ॥ ५ ॥ ( लाभेश लग्नेश केन्द्रमें हों तो मैत्री उनकी पहिलेहीसे होरही है, जो पुणफर २ | ५ | ८ | ११ में हों तो आगे होगी आपोक्किम ३।६।९।१२ में हों तो प्रीति बहुत बढेगी ॥ ५ ॥ भाषाटीकासमेता । गुप्तंकार्य्यमिदमेसिद्धयतिलग्नेश्वरेथचंद्रमास ॥ भमुशिल केंद्रेत कटेवाथसिद्धिः स्यात् ॥ ६ ॥ मेरा गुप्त कार्य्य सिद्ध होगा वा नहीं, ऐसे प्रश्नमें लग्नेश तथा चंद्रमा शुभ ग्रहसे मुथशिली केंद्र में वा उसके समीप हों तो गुप्त कार्य सिद्ध होगा ॥ ६ ॥ ग्रंथांतरेसमर्घचिंता । (२६१ ) मेषे षेचमिथुनेशुभयुक्तदृष्टेनग्रैष्मिकंतुसुलभंभवतिपृथिव्याम् ॥ सौम्यै नुमृग घटेषुचशारदीयं यत्समम शुभैः सहितोमहर्घम् ॥ ७॥ शुभ ग्रह युक्त दृष्ट १ । २।३ राशि हों तो ग्रीष्म ऋतुकी फसल, और ९ | १० | ११ में हों तो शरद् ऋतुकी फसल अच्छी होगी. लग्न लग्नेश और चंद्रमा शुभयुक्त दृष्ट हों तो सुकाल ( समय अच्छा ) होगा और अशुभ ग्रहोंसे युक्त हो तो महर्घता होवे ॥ ७ ॥ लग्नेबलाढ्येनिजनाथसौम्यैर्युक्तेक्षितेकेंद्रगतैः भैश्च || सर्वैः समर्घं विबलैर्विलोकेंद्रे पापैः सकलंत्वनर्धम् ॥ ८ ॥ लग्न बलवान् स्वस्वामि शुभयुक्त दृष्ट हो केंद्रोंमें शुभ ग्रह हों तो सुकाल, जो लग्न निर्बल केंद्रों में पाप हों तो अन्नका काल होवे इस भाव में लाभ विषय- विचार विशेष है वह धनभाव में कहा है वही यहां भी जानना ॥ ८ ॥ इति श्रीमही • नीलकण्ठीभा० लाभभावप्रश्ननिरूपणम् ॥ ११ ॥ अथ द्वादशस्थानप्रश्नः । र विग्रहपृच्छायांबलवतिषष्ठेरि : सबलः || द्वादशपेशुभदृष्टेबलवतिवाच्यं भंप्रष्टुः ॥ १ ॥ शत्रुसे युद्धके प्रश्नमें छठास्थान बलवान् हो तो शत्रु बलवान् होवे जो व्ययेश शुभदृष्ट तथा बलवान् हो तो प्रष्टाको शुभ होगा ॥ १ ॥ .. शुभयुतदृष्टेसद्व्ययोऽशुभेक्षणयोगतोव्ययमनर्थात् ॥ एवंभावेष्वखिलेषूह्यं सदसत्फलंसुधिया ॥ २ ॥ व्ययेश शुभग्रहसे युक्त दृष्ट हो तो शुभकार्य्य में पापयुक्त दृष्ट हो तो अशुभ कामें अनर्थ व्यय होगा. इसीप्रकार समुद्धिवालोंने समस्त भावोंका शुभा- शुभ फल कहना ॥ २ ॥ ताजिकनीलकण्ठी । अथ ग्रंथांतरे भोजनचिता । कटुकोलवणस्तिक्कोमिश्रितो मधुरोरसः || आम्लः कषायः कथितः सूर्य्यादीनांक्रमासाः ॥ ३ ॥ सूर्यका कडुवा चंद्रमाका सलौना मंगलका तीता बुधका मिश्रित बृह- स्पतिका मीठा शुक्रका खट्टा शनिका कपाय ( क्वाथ कांजिकादि) रसहैं ॥ ३ ॥ लग्नंपश्यतियःखेटस्तस्ययःकथितोरसः ॥ भोजनेसौरसोवीर्य्यक्रमाद्वाच्याः परेरेसाः ॥ ४ ॥ जो ग्रह लग्नको देखे वा सबसे बलवान् जो ग्रह हो उस्का जो रसहै वह भोजनप्रश्नादिमें कहना ॥ ४ ॥ " ( २६२ ) चंद्रस्ययेनमुथाशलस्तस्यविशेपंवदेद्भुक्तौ ॥ भोजनविधौविशेषंकथितं स्पष्ट॑द्वितीय तंत्रेस्य ॥ ५ ॥ चंद्रमा जिससे मुथशिली हो उसका रस भोजनमें विशेष कहना और भोजन प्रश्नका विचार विशेष स्पष्टतर इसग्रंथ (नीलकंठीके दूसरे तंत्र ) में कहाहै ॥ ५ ॥ इति श्रीमही • नी० प्रश्नतंत्रभाषाटीकायांव्ययभावप्रश्ननिरूपणम् ॥ १२ ॥ ग्रंथांतरेविशेषेणसमर्घादिचिंता । महर्घस्यविचारंतुह्या दौसर्वैर्विचार्यते ॥ तस्मान्मयाविशेषोत्रकथ्यतेशास्त्रचोदितः ॥ १ ॥ महर्थ समर्थका विचार पहिले सब लोग विचारते हैं तस्मात् विशेष विचार शास्त्रोक्त यहां कहा जाता है ॥ १ ॥ राकाकुहूशशपभास्वदजप्रवेशेलग्नेश्वराः शुभखगैर्युतवीक्षिता - श्वेत् ॥ तद्वत्सरेजगतिसौख्यमलंप्रकुर्य्यः पापार्छितागदनरेंद्र - भयंप्रजानाम् ॥ २ ॥ जिस वर्ष में प्रथम पूर्णा प्रथम अमावास्या के प्रवेशकालके लग्नेश्वर तथा चन्द्रमाके प्रथम मेष प्रवेशकालके लग्नेश्वर और मेषार्क प्रवेश समयके लग्ने- श्वर यदि शुभग्रह युत दृष्ट हों तो उस वर्ष में प्रजाको पूर्ण सुख होताहै जो पापयुत दृष्ट हों तो रोग और राजाका भय होताहै ॥ २ ॥ भाषाटीकासमेता । (२६३) भानोमे॑षप्रवेशोदयभवनपतिः सहः स्वोच्चसंस्थः स्वक्षस्थोवा- पिकेंद्रेशुभगगनचरैर्दृष्टयुक्तोबलाढ्यः ॥ तस्मिन्वषैर्विदध्याज- गति भ खंभूरिसस्यंसुवृष्टिः क्रूरः क्रूरार्दितोवादिशतिनृपभयं कष्टमन्त्रंमहर्घम् ॥ ३ ॥ सूर्य्यमेषप्रवेश लग्नका वा प्रश्नलनका स्वामी शुभग्रह हो तथा उच्च स्वराशिका केंद्र में शुभग्रहोंसे दृष्टयुक्त और बलवान् हो तो इस सालमें संसा- रमें संपूर्ण सौख्य शुभ अन्न बहुत उत्तम वर्षा होवे जो उक्त लग्नेश पापग्रह पापाक्रांत बलरहित हो तो राजभय अन्न थोडा भाव महँगा (अकरा ) होवे ॥ ३ ॥ भानोरजप्रवेशेर्केस्तस्मा भग्रहा तैिः । बलवाद्भःसौम्यैर्वानिरीक्षितैर्यैष्मिकावृद्धिः ॥ ४ ॥ सूर्य्यके मेषप्रवेशमें वा प्रश्नलग्नमें केंद्रों में बलवान् शुभग्रह शुभद्दष्ट हो तो ग्रीष्म ऋतुका अन्न बहुत होवे ॥ ४ ॥ अष्टमराशिगत र्केगुरुशशिनोः कुंभसिंहसंस्थितयोः || सिंहघटस्थितयोवनिष्पत्तिष्मसस्यस्य ॥ ५ ॥ उक्त लग्नंसे सूर्य अष्टम हो तथा बृहस्पति कुंभका चंद्रमा सिंहका वा बृहस्पति सिंहका चंद्रमा कुंभका हो तो ग्रीष्मकी फसल अच्छी होवे ॥ ५ ॥ अर्कोत्सिते द्वितीयेबुधेथवायुगपदेवसंस्थितयोः || व्ययगतयोर्वातद्वन्निष्पत्तिरतीवगुरुदृष्ट्या ॥ ६ ॥ सूर्च्चसे शुक्र वा बुध अथवा दोनहूं दूसरे स्थानमें वा बारहवें अथवा दोनहूं स्थानोंमें हों बृहस्पतिकी दृष्टि हो तो फसल अच्छी होवे ॥ ६ ॥ शुभमध्येलिनिसूर्य्याद्वरुशशिनोः सप्तमेपरासंपत् || अल्पाद्विस्थेसवितरिगुरौद्वितीयेनिष्पत्तिः ॥ ७ ॥ मेषार्क वा प्रश्नलग्नसे सूर्ध्य शुभग्रहों के बीच हो तथा सूयंसे सप्तम बह- स्पति चंद्रमा हों तो फसल बहुत और सूर्य्य पाप शुभ दोनोंके मध्य हो तो अल्प तथा बृहस्पति भी दूसरा हो तो आधी फसल हाथ आवेगीं ॥ ७ ॥ ( २६४ ) ताजिकनीलकण्ठी | || लाहिबुकार्थयुक्तैः सूर्य्यादथवासितेंदुशशिपुत्रैः ॥ सस्यस्यपरासंपत्कर्मणि जोवेथवाचापे ॥ ८ ॥ प्रश्नलयसे वा सूर्य्यसे ११ । ४ । २ स्थानों में शुक्र चंद्रमा दुध हों तो अन्न अच्छे होवें धनका बृहस्पति दशम हो तो भी यही फल है ॥ ८ ॥ कुंभेगुरुर्गविशशीसूर्य्योलिसुखेकुजार्कजौमकरे निष्पत्तिरस्तिमहतीपश्चात्परचक्ररोगभयम् ॥ ९ ॥ कुंभका बृहस्पति वृषका चंद्रमा वृथ्विकका सूर्य और मंगल शनि मकर के हों तो अन्न अच्छे हों परंतु पीछेसे परचक वा रोगोंका भयभी होवे ॥९॥ मध्ये पापग्रहयोः सूर्य्यः सस्यविनाशयत्यलिगः ॥ पापः सप्तमराशौजातंजातंविनाशयति ॥ १० ॥ वृश्चिकका सूर्य्य पापोंके बीच तथा सप्तम में पापग्रह हों तो हुवहुये भी अन्ननाश होजावें ॥ १० ॥ अर्थस्थानेकुरः सौम्यैरनीक्षितःप्रथमजातम् || सस्यनिहंतिपश्चादुप्तनिष्पादयद्रयक्तम् ॥ ११ ॥ दूसरे स्थान में पापग्रह शुभदृष्टिरहित हों तो पहिली बोई हुई खेती नारा हो दूसरे बारकी जुती हुईसे अन्न उत्पन्न होवें ।। ११ ।। जामित्र केंद्र संस्थौकरी सूर्य्यस्य वृश्चिकस्थस्य || सस्यविपत्ति कुरुतः सौम्यै टेन सर्वत्र ॥ १२ ॥ सप्तम केन्द्र में वृथ्विक सूर्ग्यसे दो पापग्रह हों तो फसल नष्ट होवे जो शुभ ग्रहों की दृष्टि भी हो तो कहीं कहीं अच्छी भी होगी ॥ १२ ॥ वृश्चिकसंस्थादर्कात्सप्तमषष्ठोपगौयदाकूरौ || भवतितदानिष्पत्तिः सस्यानामघंपरिहानिः ॥ १३ ॥ वृश्चिक के सूर्ग्युसे ६ । ७ स्थानों में पापग्रह हों तो अन्न तो होंगे परंतु आव घटेगा |॥ १३ ॥ विधिनानेनैव रविवृषप्रवेशेशरत्समुत्थान्नम् || विज्ञेयः सस्थानांनाशायशिवायवातज्ज्ञैः ॥ १४ ॥ भाषाटीकासमेता । (२६५) जो योग वृथ्विकके सूर्य्यसे कहे हैं वे तो ग्रीष्मकी फसलके हैं वैसेही वृषके -सूर्य्यमें शरदकी फसलका विचार शुभाशुभ करना ॥ १४ ॥ त्रिषुसेव्यादिषुसूर्यः सौम्यैर्युक्तोनिरंतरविचरेत् ॥ ग्रैष्मिक सस्यं कुरुतेसम भयोपयोगंच ॥ १५ ॥ सूर्य्य ५ । ६ । ७ राशियों में निरंतर शुभग्रहसे युक्तही रहे तो ग्रीष्मकी फसल बहुत होगी भावभी सस्ता होगा ॥ १५ ॥ कार्मुकमृग घटसंस्थःशारदसस्यस्यतद्वदेवरविः ॥ संग्रहकालेज्ञेयोविपर्य्ययः रहयोगात् ॥ १६ ॥ ● सूर्य्य ९ | १० | ११ राशियों में निरंतर शुभयुक्त रहे तो शरदकी फसल बहुत, भाव सस्ता होगा. जो पापयुक्त दृष्ट रहे तो दोन हूं योगों में अन्न अल्प भाव तेज होगा, यह विचार विशेष संग्रह समयमें करना चाहिये ॥ १६ ॥ अथ वर्षाज्ञानम् । प्रश्नलग्नात्तोयराशिर्यदिलनातृतीयगः || तोयसंज्ञोग्रहस्तत्रभवत्येवजलप्रदः ॥ १७ ॥ प्रश्नलश्न से जलराशि ४ । १० । ११ । १२ तीसरी तथा उसीमें जल संज्ञक ग्रह चन्द्रमा शुक्र हों तो वर्षा शीघ्र होगी ॥ १७ ॥ बुधशुक्र योर्मध्यगतः सूर्य्यः स्याजलशोषकः ॥ तयोर्यंदिसमीपस्थोतदाबहुजलप्रदः ॥ १८ ॥ सूर्य बुध शुक्रके वीच हो तो जल सूखता है जो इनके समीपही हो तो बहुत जल देता है ॥ १८ ॥ अग्रेयातियदाभौमः पञ्चाञ्चलतिभास्करः ॥ तत्रवृष्टिर्नविपुलाजायतेनात्र संशयः ॥ १९ ॥ मैगलके पीछे सूर्य्य हो तो वर्षां नाममात्र और आगे हो तो बहुत होती है ५९ वर्षाप्रशशिन्योराशिगेल गेपिवा || केंद्रगेवाशकृपक्षेचातिवृष्टिःशुभेक्षिते ॥ २० ॥ वर्षाप्रश्नमें चन्द्रमा जलराशिमें वा लग्नमें हो अथवा शुक्लपक्षका चंद्रमा जलराशिका केंद्र में शुभदृष्ट हो तो अतिवृष्टि होवे ॥ २० ॥ . ताजिकनीलकण्ठी । अल्पवृष्टिःपापदृष्टेप्रावृट्कालेविशेषतः चंद्रवद्भार्गवेसर्वमेवंविधगुणान्विते ॥ २१ ॥ ॥ उक्त चंद्रमापर पापदृष्टिभी हो तो अल्पवृष्टि होवें वर्षाकालमें यह योग हो तो बहुत दिनोंमें वृष्टि होवे ऐसेही शुक्र से भी जानना ॥ २१ ॥ प्रावृषदुःसितात्सप्तराशिगःशुभवीक्षितः ॥ मंदाति कोणसप्तस्थोयदिवावृष्टिकृद्भवेत् ॥ २२ ॥ वर्षाकालमें चंद्रमा शुक्से सप्तम में शुभदृष्ट हो अथवा शनिसे त्रिकोण वा सप्तम हो तो वर्षा शीघ्र होवे ॥ २२ ॥ (२६६) सद्योवृष्टिकरःशुक्रोयदाबुधसमीपगः ॥ योर्मध्यगतेभानौतदावृष्टिविनाशनम् ॥ २३ ॥ जो शुक्र बुधके समीप हो तो तत्काल वृष्टि करे जो बुध शुक्रके बीच सूपं हो तो वर्षाका नाश होवे ॥ २३ ॥ मघादिपंचधिष्ण्यस्थःपूर्वेस्वातिपरत्रये ॥ प्रवर्षणंभृगुः कुर्य्याद्विपरीतनवर्षणम् ॥ २४ ॥ पूर्वोदयी शुक्र मघादि पांच नक्षत्रों में एक नक्षत्रसे दूसरेपर गमन करे तथा पश्चिमोदयी स्वातीसे तीनपर गमन करे तो वर्षा होवे जो ऐसाही वक्रगती करे तो वर्षा न होवे ॥ २४ ॥ पुरतः पृ तोभानोर्ग्रहाय दिसमीपगाः ॥ तदावा प्रकुवैतिनचेत्तेप्रतिलोमगाः ॥ २५ ॥ सूर्यके आगे और पीछे मार्गीग्रह समीपही हों तो वर्षा करते हैं. कोई वक्रीभी हों तो अवर्षण करते हैं ॥ २५ ॥ सौम्यमार्गगतःशुक्रोवृष्टिकृन्नतुयाम्यगः ॥ उदयास्तव: स्याद्भानोरार्द्राप्रवेशने ॥ २६ ॥ सूर्ग्यसे शुक्र उत्तरापथग हो तो वृष्टि; दक्षिणापथग हो तो अनावृष्टि कर ता है तथा शुक्र के उदयास्त एवं आद्रप्रिवेश में भी वर्षा होती है ॥ २६ ॥ भाषाटीकासमेता । गुरोः सप्तमराशिस्थःप्रत्यग्रोभृगुजोयदा तदातिवर्षणंभूरिप्रावृट्कालेबलोज्झिते वर्षाकालके प्रश्नमें बृहस्पतिके सप्तममें पूर्वोदयी शुक्र हो तो वर्षाकालमें अतिवृष्टि होवे ॥ २७ ॥ ॥ ॥ २७ ॥ आसन्नंरविशशिनोःपरिवेषगतोत्तरा ॥ ( २६७ ) विद्युत्प्रपूर्णमण्डूकास्त्वनावृष्टिर्भवेत्तदा ॥ २८ ॥ सूर्य चन्द्रमाके समीप उत्तरसर परिवेप ( सौंडल वा परिधि) तथा बिजु- ली वा बादलमें छोटी चमक हो मंडूक बोलें तो अवर्षण होवे ॥ २८ ॥ नखैलिखंतोमार्जाराश्चावनिलोहिताभवेत् || रथ्यायसितुबंधाः स्युर्बालानांवृष्टिहेतवः ॥ २९ ॥ मार्जार अपने नखसे भूमि वा काष्ठ आदि खोदें तथा भूमि रक्तवर्ण हो और मार्गमें बालक खेलसे पुल बांधें तो शीघ्र वर्षा होवे ॥ २९ ॥ पिपीलिश्रेण्यवच्छिन्नासंयतावहवस्तदा || द्रुमादिरोहःसर्पाणांप्रतींदुर्वृष्टिसूचकाः ॥ ३० ॥ पिपीलिका ( छोटी मकोडी ) बहुत इकट्ठी एक पंक्तिसे चलें तथा सर्प वृक्षोंमें चढें और आकाशमें चन्द्रमाका प्रतिबिंबसा दीखे तो वृष्टि होतीहै ॥ ३० ॥ उदयास्तमयेकालेविवणकोथवाशशी ॥ मधुवर्णोतिवायुश्चेदति वृष्टिर्भवेत्तदा ॥ ३१ ॥ उदय तथा अस्तसमय में सूर्य्य वा चन्द्रमा वर्णरहित यदा शहद समान रंगके हों और अविषायु चले तो वर्षा होवे ॥ ३१ ॥ आर्द्रद्रव्यंस्पृशतियदिवावारितत्संज्ञकंवा तोयासन्नोभवतियदिवातोयकार्योन्मुखो प्रष्टावाच्यः सलिलमचिरादस्तिनिःसंशयेन पृच्छाकालेसलिलमितिवाश्रूयतेयत्रशब्दः ॥ ३२ ॥ जो प्रश्न समयमें प्रष्टा गोली वस्तु वा जल और जलसम्बन्धी वस्तुको वा || (२६८ ) ताजिकनीलकण्ठी । स्पर्श करे अथवा जलके समीप पूँछे अथवा जलसंबन्धी कार्ग्य करता हो तथा प्रश्नकाल में जलका शब्द जलका नाम सुना जावे तो निःसन्देह शीघ्र वर्षा होवे ॥ ३२ ॥ काकांडा- विरसमुदकंगो नेत्राभंवियद्विमलादिशोवियतिविकृतं भयदाचभवेन्नभः॥पवनविगमः श्रूयंतैवैझषाःस्थलगामिनोरस- नमसकृन्मंडूकानांजलागमहेतवः ॥ ३३ ॥ जलका रस स्वाद जाता रहै गौके नेत्र समान आकाश हो दिशा निर्म- ल हों तथा कौवेंके अंडाकासा रंग आकाश हो वायु शब्दवान् होने वायु गरम चले मछली स्थलमें आवे सुना जावे और मेण्डक बोलें तो शीघ्र वर्षा होवे ॥ ३३ ॥· गिरयोंजनवर्णसन्निभाय दिवाबाष्पनिरुद्धकंदराः || कृकवा कनिलोचनोपमाः परिवेषाः शशिनश्च वृष्टिदाः ॥ ३४ ॥ पर्वत श्यामरंग दीखें या कन्दरामें जल टपकके भर जावे ककवाक पक्षके नेत्र सदृश परिवेषं चन्द्रमापर हों तो शीघ्र वर्षा होती है ॥ ३४ ॥ प्रायोग्रहाणामुदयास्तकालेसमागमेमंडलसंक्रमेच || पक्षक्षयेतीक्ष्णकरायनांतेवृष्टिंगतेकैनियतेनचाम् ॥ ३५ ॥ विशेषतः ग्रहोंके उदय और अस्त समयमें तथा उनके संक्रम में पक्षक्षयम 'सूर्म्पके अयन चलनेमें आर्द्रा प्रवेशमें वर्षा होती है ॥ ३५ ॥ समागमेपततिजलंज्ञशुक्रयोईजी वयोर्गुरुसित योश्च संगमे || यमारयोः पवन हुताशजंभयंह्यदृष्टयोः सहितयोश्च सहैः ॥ ३६॥ बुध शुक्र तथा बुध बृहस्पति और बृहस्पति शुक्रके एक राशिमें प्राप्त होनेसे वर्षा होती है, शनि मंगलके साथ होनेमें जो शुभ ग्रहोंसे युक्त वा दृष्ट न हों तो वायु तथा अग्निकी भय होती है | ३६ ॥ अथ सस्यनिष्पत्तिः । दिशिकस्यांभवेत्सस्यनिष्पत्तिःवचसानहि।, कस्यदेशस्यभंगोहिक्कदिशिकचतन्नहि ॥ ३७ ॥ भाषाटीकासमेता । (२६९) किस दिशा में सुकाल कहां अन्नकाल और किसका भंग किसकी वृद्धि होगी ऐसे प्रश्नमें ॥ ३७॥ ľ चतुर्णांमपिकेन्द्राणांमध्येयत्रशुभग्रहः || तस्यांचसस्यनिष्पत्तिःस्वास्थ्यचैव भविष्यति ॥ ३८ ॥ प्रश्नलन वा जगत्लग्न अर्थात् मेषार्कसामयिक लनसे जिस केन्द्र में शुभ ग्रह वा जिसका स्वामी बली हो उसके अनुसार दिशामें अन्न बहुत होगा, ' रागाादे उपद्रवभी नहीं होवेंगे, जहां पाप वा स्वामी निर्बल हो वहां उसके अनु- सार दुर्भिक्ष रोगादि होंगे, लमसे पूर्व चतुर्थ से दक्षिण सप्तमसे पश्चिम और दशमसे उत्तर जानना ॥ ३८ ॥ 1 यस्यांदिशिशनिःपापैर्युतोवाप्यवलोकितः ॥ दिशितस्यांच स्वास्थ्यंदुर्भिक्षंचभविष्यति ॥ ३९ ॥ जिस दिशा में शनि पापयुक्त वा पापदृष्ट हो उसमें रोगादि उपद्रव और दुर्भिक्षभी होंगे ॥ ३९ ॥ दिशियस्यांरविस्त धान्यनाशोनृपाद्भवेत् ॥ यत्रापिमंगलस्तत्रधान्यनाशोनिभीस्तथा ॥ ४० ॥ जिस दिशा में सूर्य्य पापयुत दृष्ट हों तहां राजासे अन्नका नाश होवे, जहा वैसाही मंगल हो तहां अन्नका नाश और अग्निभयभी होवे ॥ ४० ॥ यस्यांदिशिशुभाःखेटाः समस्तबलशालिनः ॥ निष्पन्नासैवविज्ञेयासस्यस्वास्थ्यंचतत्रहि ॥ ४१ ॥ जिस दिशामें शुभग्रह समस्त बलयुत हों तहां सब अन्न अच्छे होंगे और स्थ्य भी अच्छा रहेगा, बलहीन शुभग्रहोंसे अनिष्ट बलवान् पापोंसे कुछ प्रकार शुभ और मिश्रितमें मिश्रफल कहना ॥ ४१ ॥ केन्द्रे सर्वतः पापाः समस्तबलसंयुताः || देशस्त दाविनष्टोसौज्ञातव्यः शास्त्रकोविदः ॥ ४२ ॥ सभी केंद्रों में पाप बलसहित हों तो सभी देश नष्टप्राय होंगे विशेष शाख:- ज्ञोंने उनका बलाबल और संबंधादि विचारके कहना ॥ ४२ ॥ ताजिकनीलकण्ठी । समघैवामहघैवावस्तुमेकथयामुकम् ॥ : पृच्छाययेनखेटेनशुभत्वं प्रतिपाद्यते ॥ ४३ ॥ खेटोसौयावतोमासांस्तस्यल स्यसौम्यताम् || विधत्तेतावतोमासान्समर्धेब्रुवतेबुधाः ॥ ४४ ॥ सुकाल वा अकाल कौन २ अन्नका कब २ होगा ऐसे प्रश्नमें जिस ग्रहसे पूर्वोक्त क्रममें उस अनादिके नाम राशिसे शुभता पाई है, वह जितने मही- नोंमें दूसरी राशिको प्राप्त हो सकता है उतने महीनोंपर्यंत समर्प रहेगा पंडित ऐसा विचारते हैं ॥ ४३ ॥ ४४ ॥ अथोसावशुभचित्यंकियद्भिवसरैरयम् सौम्यभावविलग्नस्थंविधास्यतिविनिश्चितम् ज्ञातव्यादिवसामासामासैस्तावद्भिरस्यच महर्घतावस्तु नो हिप्रतिपाद्याविचक्षणैः ॥ ४६ ॥ जब कोई अशुभके शुभ होनेका समय पूँछे तो लग्नमें जितनी संख्या सौ- म्यभाव उन्हें निश्चय करके दिन वा महीने जहां जैसा संभव हो बुद्धिसे विचार करके समर्थ और महर्ष विद्वानोंने कहना ॥ ४५ ॥ ४६ ॥ ॥ ॥ अघि तुर्बलंज्ञेयंलग्नेस्वामिविवर्जिते ॥ (२७०) ॥ ४५ ॥ बलहीनेत्वधिष्ठायततः स्वामिब्लेबलम् ॥ ४७ ॥ जिस कार्य्य वा वस्तुका जो अधिष्ठाता है, उसके लिये उसीका बल प्रथम जानकर उसके बलानुसार हानि वृद्धि कहनी, लग्नमें अधिष्ठाता ग्रह बली होता है यदि लग्नेश बलहीन हो, जो अधिष्ठाता बलहीन हो तो सदा लग्ने - शका बल देखना अधिष्ठाता आगे कहते हैं ॥ ४७ ॥ रविस्त कामणिहेमताम्रक्षौमा स्वरदाराणाम् || मुक्तेक्षुशंखद्रववस्तुरूप्यक्षितीश्वराणांलवणस्य चेन्दुः ॥४८॥ मसूरताम्राकणघातुशस्त्र प्रवाल का नामधिपः कुजः स्यात् || •सुगंधवस्त्र द्विदलान्न पक्षिहरिन्मणीनांप्रभुरिन्दुजः स्यात् ॥ ४९ ॥ सिद्धार्थ गोधूमय वैक्षवानां सर्वान्जि कर्पूरगवांगुरुश्च ॥ स्नेहाथका श्वान्नविचित्रवस्त्ररूप्यांबुजानांस्फटिकस्य शुक्रः ॥ ५० ॥ ऊर्णेमनीलीबल चर्मकृष्णवस्त्रायसां वैमहिषस्यचार्किः ॥ ५१ ॥ भाषाटीकासमेता । (२७१) j वस्तुवोंके अधिष्ठाता - मोती, चुन्नी, सुवर्ण, तांबा, रेशम, अस्त्र शस्त्र, कवच, परस्त्री आदिका स्वामी सूर्य्य, मोती, ऊख, शंख, रसकी वृस्तु, नारियल, आम आदि और चाँदी, राजे, लवण इनका स्वामी चंद्रमा मसूर, तांबा, सिंगरफ, हरताल आदि धातु, वस्त्र, मूंगाका अधिष्ठाता मंगल. सुगंधि द्रव्य, वस्त्र, द्विदल, अन्न, पक्षी, पन्ना इनका बुध. राई, सरसौ, राडा आदि और गेहूं, जौ, ईखका विकार और भिस्, सिंगाडे, कसेरू आदि जलोत्पन्न वस्तु तथा कर्पूरका बृहस्पति. इतर फुलेल आदि सुगंधित वस्तुका और अन्न, विचित्र वस्त्र, चांदी, जलज वस्तु, स्फटिकका शुक्र. ऊन, पशमीना, नील, चर्मजात, कृष्णवस्त्र, लोहा, भैंस आदिकोंका अधिष्ठाता शनि है. विशेष ग्रहस्वभावतुल्य बुद्धिबलसे जानना ॥ ४८ || ४९ ॥ ५० ।। ५१ ॥ इति श्रीमहीधरकृतायां ताजिकनीलकण्ठीप्रश्न तंत्रभाषाटीकायां समर्धा- नर्घवृष्टिसुभिक्षादिप्रश्ननिरूपणम् ॥ समाप्तोयं ग्रंथः । श्रीनीलकंठःशर दांफलोत्तरप्रश्नाख्यतंत्र्यदकारिपूर्वम् || तत्सांप्रतं पूर्णतरंन लभ्यते ह्यावश्यकंप्रश्नफलंहिमन्ये ॥ १ ॥ तस्मादिदंभूरिगु- णंसुसंग्रहंसर्वोपकारायमहधिरेण ॥ शास्त्रांतरीयंसहभाषयामयाद्विज - न्मनाकारिकृतंहिपूर्वैः ॥ २ ॥ श्रीकीर्तिशाहनृपतेःख राज्यवेशोद्ध- लाब्धिशून्यनवसंमत १८०८ शालिवाहे ॥ गढवालदेशटिहरी नगरे बृहत्कसज्जातकस्य विवृतेःशुभभाषयते ॥ ३ ॥ तंत्राणांत्रितयंस्यपा- ठसरला श्रीनीलकण्ठ्याः कृताभाषायन्ममचापलंकिमपितत्सन्तःक्षमध्वं धाः ॥ बालानां खबोधसंततिकरींज्योतिष्फलोद्योतिनीलोकानासु- पकारिणींसुविशदां वर्तमाहीघरीम् ॥ ४ ॥ छिद्रान्वेषणतत्पराः पर- कृतेर्विध्वंसकाढूषकामात्सर्येणपरार्थनाशनपरादुर्बुद्धयो मानिनः ॥ सत्कार्येशिथिलाः कुकर्मसुखिनोनिदंतुनंदंतुवा मेकृत्यंसुकृतंपरोपकृत- ये वैतुदुर्मत्सराः ॥ ५ ॥ चन्द्राविस्विन्दु १८३१ शकेतुभाद्रेशुक्के नवम्यांचगुरावशोधीत् ॥ अनेकसंलेखवशादशुद्धांमाहीघरींरामभरो- सशर्म्मा ॥ ६॥ ( २७२ ) ताजिकनीलकण्ठी । विज्ञापनम् । 'श्रीनीलकंठ दैवज्ञने वर्षफल दो तंत्रोंके उपरान्त जा प्रश्नत्तत्र दनाया था वह इस समय में संपूर्ण नहीं मिलता और प्रश्नविद्या प्रत्यक्षफला है तथा यहां जातक में बृहज्जातक ताजिकमें नीलकंठी सर्व साधारण के अर्थ भाषा होगई तो प्रश्नभी अवश्य होना चाहिये ॥ १ ॥ इसकारण पूर्वाचायका सुन्दर संग्रहीत बहुत गुणवान् जिसमें सभी प्रकारके प्रश्न अनेक शाखाक हैं सब पाठकोंके हितार्थ महीधरनामा ब्राह्मण जिला गढवाल राजधानी' टीहरी निवासीने इसे भाषासहित करदिया ॥ २ ॥ श्रीमान् महाराजा टीहरी गढवालके अधीशं श्री १०८ कीर्तिशाह साहब बहादुरके राज्यप्रवेश ९०४ द्विगुण अर्थात् १८०८ केशालमें बृहज्जातक भाषाटीका रचनाके उपरान्त उक्त नगरमें ॥ ३ ॥ नीलकंठी तीनहूं तंत्रोंकी पाठ सरल ( ज्यो- तिष ) तारा विचार सम्बन्धि फलोंका स्फुरण करनेवाली नीलकं- ठीके अनभिज्ञों (बालकों ) को सहजहीमें बोधरूपा सन्ततीकी सृष्टि उत्पन्न करनेवाली सर्वजनोंका उपकार करनेवाली माहीधरी इस भाषाटीकाको सज्जन पुरुष पण्डित भलेप्रकार प्रकाश करें तथा इसमें जो कुछ मेरी अन- 'भिज्ञता एवं घृष्टता हो उसे क्षमा करें || ४ || और जो लोग पराये छिद्र (दूषण) ढूँढनेमें तत्पर हैं, पराये किये सत्कमका नाश करनेवाले एवं मत्सरी ( परायी ) भलाईसे विनाही आग जलभुन जानेसे पराये प्रयोजनको भंग करने में तत्पर, तथा शुभकयों में शिथिल अर्थात् जिनसे शुभ कर्म अपने हाथसे कुछ नहीं होसकता प्रत्युत बुरे कामोंसे सुख माननेवाले "घमंडखोर" दुर्बुद्धि हैं ये मेरे परोपकारार्थ इस परिश्रम को देखकर निंदा करें अथवा आनं- दित होकर प्रशंसा किया करते रहैं, किंतु जो विज्ञ महाशय निर्मत्सरी, पराये सुकृत्यसे आनंद माननेवाले एवं दुष्कृत्य से चिंता करनेवाले हैं, वे इस कृत्यको सुकृत करें ॥ ५ ॥ खेमराज श्रीकृष्णदास पुस्तक मिलनेका ठिकाना- "श्रीवेइटेश्वर" स्टीम् प्रेस बंबइ.