तत्त्वार्थसूत्रम्/द्वितीयोऽध्यायः

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<poem> औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीलस्य स्वतत्त्वमौदयिक पारिणामिको च।।

द्विनवाष्टादशैकविंशातित्रिभेदा यथाक्रमम्।।

सम्यक्त्व चारित्रे।।

ज्ञानदर्शन दानलाभभोगोप भोगवीर्याणि च।।

ज्ञानाज्ञान दर्शन लब्ध्यश्चतुस्त्रि त्रिपञ्चभेदाः सम्यक्त्व चारित्र संयमासंयमाश्च।।

गतिकषायलिङ्ग मिथ्यादर्शना ज्ञानासंयता सिद्ध लेश्याश्चतुश्चतुस्त्र्येकैकैकैकषड्भेदाः।।

जीवभव्याभव्यत्वानि च।।

उपयोगो लक्षणम्।।

स द्विविधोऽष्टचतुर्भेद।।

संसारिणो मुक्ताश्च।।

समनस्कामनस्काः।।

संसारिणस्त्रसस्थावराः।।

पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः।।

द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः।।

पंचेद्रियाणि।।

द्विविधानि।।

निर्वृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्।।

लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम्।।

स्पर्शनरसन घ्राणचक्षुःश्रोत्राणि।।

स्पर्शनरसन्गन्धवर्णशब्दास्तदर्थाः।।

श्रुतमनिन्द्रियस्य।।

वनस्पत्यन्तानामेकम्।।

कृमिपिपीलिका भ्रमर मनुष्यादीनामेकैक वृद्धानि।।

संज्ञिनः समनस्काः।।

विग्रहगतौ कर्मयोगः।।

अनुश्रेणि गतिः।।

अविग्रहा जीवस्य।।

विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्भ्यः।।

एक समयाविग्रहा।।

एकं द्वौ त्रीन्वानाहारकः।।

संमूच्छंनगर्भौपरादा जन्म।।

सचित्तशीतसंवृताःसेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः।।

जरायुजाण्डजपोतानां गर्भः।।

देवनारकाणामुपपादः।।

शेषाणां संमबर्च्छनम्।।

औदारिकवैक्रियिका हारकदैजसकार्मणानि शरीराणि।।

परं परं सूक्ष्मम्।।

प्रदेशतोऽसंख्येयगुणंप्राक् तैजसात्।।

अनन्तगुणे परे।।

अप्रतीघाते।।

अनादिसंबन्धे च।।

सर्वस्य।।

तदादीनि भाज्यानियुगपदेकस्मिन्ना चतुर्भ्यः।।

निरूपभोगमन्त्यम्।।

गर्भसमबर्च्छनजमाद्यम्।।

औपपादिकं वैग्रियिकम्।।

लब्धिप्रत्ययं च।।

तैजसमपि।।

शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव।।

वानकसंमूर्च्छिनो नपुंसकानि।।

न देवाः।।

शेषस्त्रवेदाः।।

औपपादिक चरमोत्तमदेहाऽसंख्येय वर्षायुषोनवर्त्यायुषः।।

इति द्वितीयोऽध्यायः।।