ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (दयानन्दसरस्वतीविरचिता)/९. पृथिव्यादिलोकभ्रमणविषयः
अथ पृथिव्यादिलोकभ्रमणविषयः
[सम्पाद्यताम्]अथेदं विचार्य्यते पृथिव्यादयो लोका भ्रमन्त्याहोस्विन्नेति। अत्रोच्यते - वेदादिशास्त्रोक्तरीत्या पृथिव्यादयो लोकाः सर्वे भ्रमन्त्येव। तत्र पृथिव्यादिभ्रमणविषये प्रमाणम् -
आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन्
मातरं च पुरः पितरं च प्रयन्त्स्वः॥1॥
-य॰ अ॰ 3। मं॰ 6॥
भाष्यम् - अस्याभि॰ -' आयं गौ ' रित्यादिमन्त्रेषु पृथिव्यादयो हि सर्वे लोका भ्रमन्त्येवेति विज्ञेयम्।
(आयं गौः) अयं गौः पृथिवीगोलः , सूर्यश्चन्द्रोऽन्यो लोको वा , पृश्निमन्तरिक्षमाक्रमीदाक्रमणं कुर्वन् सन् गच्छतीति तथान्येऽपि। तत्र पृथिवी मातरं समुद्रजलमसदत् समुद्रजलं प्राप्ता सती तथा (स्वः) सूर्यं पितरमग्निमयं च पुरः पूर्वं पूर्वं प्रयन्त्सन् सूर्य्यस्य परितो याति। एवमेव सूर्यो वायुं पितरमाकाशं मातरं च तथा चन्द्रोऽग्निं पितरमपो मातरं प्रति चेति योजनीयम्। अत्र प्रमाणानि -
गौः , ग्मा , ज्मेत्याद्येकविंशतिषु पृथिवीनामसु गौरिति पठितं , यास्ककृते निघण्टौ।
तथा च -
स्वः , पृश्निः , नाक इति षट्सु साधारणनामसु पृश्निरित्यन्तरिक्षस्य नामोक्तम् निरुक्ते।
गौरिति पृथिव्या नामधेयं यद् दूरं गता भवति यच्चास्यां भूतानि गच्छन्ति॥
-निरु॰ अ॰ 2। खं॰ 5॥
गौरादित्यो भवति गमयति रसान् गच्छत्यन्तरिक्षे अथ द्यौर्यत् पृथिव्या अधि दूरं गता भवति यच्चास्यां ज्योतींषि गच्छन्ति॥
-निरु॰ अ॰ 2। खं॰ 14॥
सूर्य्यरश्मिश्चन्द्रमा गन्धर्व इत्यपि निगमो भवति सोऽपि गौरुच्यते॥
-निरु॰ अ॰ 2। खं॰ 9॥
स्वरादित्यो भवति॥
-निरु॰ अ॰ 2। खं॰ 14॥
गच्छति प्रतिक्षणं भ्रमति या सा गौः पृथिवी। अद्भ्यः पृथिवीति तैत्तिरीयोपनिषदि।
यस्माद्यज्जायते सोऽर्थस्तस्य मातापितृवद् भवति , तथा स्वःशब्देनादित्यस्य ग्रहणात् पितुर्विशेषण- त्वादादित्योऽस्याः पितृवदिति निश्चीयते। यद् दूरं गता , दूरं दूरं सूर्य्याद् गच्छतीति विज्ञेयम्।
एवमेव सर्वे लोकाः स्वस्य स्वस्य कक्षायां वाय्वात्मनेश्वरसत्तया च धारिताः सन्तो भ्रमन्तीति सिद्धान्तो बोध्यः॥1॥
भाषार्थ - अब सृष्टिविद्याविषय के पश्चात् पृथिवी आदि लोक घूमते हैं वा नहीं, इस विषय में लिखा जाता है। इस में यह सिद्धान्त है कि वेदशास्त्रों के प्रमाण और युक्ति से भी पृथिवी और सूर्य आदि सब लोक घूमते हैं। इस विषय में यह प्रमाण है-
(आयं गौः॰) गौ नाम है पृथिवी, सूर्य्य, चन्द्रमादि लोकों का। वे सब अपनी अपनी परिधि में, अन्तरिक्ष के मध्य में, सदा घूमते रहते हैं। परन्तु जो जल है, सो पृथिवी की माता के समान है क्योंकि पृथिवी जल के परमाणुओं के साथ अपने परमाणुओं के संयोग से ही उत्पन्न हुई है। और मेघमण्डल के जल के बीच में गर्भ के समान सदा रहती है और सूर्य उस के पिता के समान है, इस से सूर्य के चारों ओर घूमती है। इसी प्रकार सूर्य का पिता वायु और आकाश माता तथा चन्द्रमा का अग्नि पिता और जल माता। उन के प्रति वे घूमते हैं। इसी प्रकार से सब लोक अपनी अपनी कक्षा में सदा घूमते हैं।
इस विषय का संस्कृत में निघण्टु और निरुक्त का प्रमाण लिखा है, उस को देख लेना। इसी प्रकार सूत्रात्मा जो वायु है, उस के आधार और आकर्षण से सब लोकों का धारण और भ्रमण होता है तथा परमेश्वर अपने सामर्थ्य से पृथिवी आदि सब लोकों का धारण, भ्रमण और पालन कर रहा है॥1॥
या गौर्वर्त्तनिं पर्य्येति निष्कृतं
पयो दुहाना व्रतनीरवारतः।
सा प्रब्रुवाणा वरुणाय दाशुषे
देवेभ्यो दाशद्धविषा विवस्वते॥2॥
-ऋ॰ अ॰ 8। अ॰ 2। व॰ 10। मं॰ 1॥
भाष्यम् - ( या गौर्वर्त्तनिं॰) या पूर्वोक्ता गौर्वर्त्तनिं स्वकीयमार्गं (अवारतः) निरन्तरं भ्रमती सती , पर्य्येति विवस्वतेऽर्थात् सूर्यस्य (टिप्पणी- 'सुपां सुलुगिति' सूत्रेण विवस्वत इति प्राप्ते विवस्वते चेति पदं जायते॥) परितः सर्वतः स्वस्वमार्गं गच्छति। (निष्कृतं) कथम्भूतं मार्गं ? तत्तद्गमनार्थमीश्वरेण निष्कृतं निष्पादितम्। (पयो दुहाना॰) अवारतो निरन्तरं पयो दुहानाऽनेकरसफलादिभिः प्राणिनः प्रपूरयती तथा (व्रतनीः) व्रतं स्वकीय- भ्रमणादिसत्यनियमं प्रापयन्ती (सा प्र॰) दाशुषे दानकर्त्रे वरुणाय श्रेष्ठकर्मकारिणे देवेभ्यो विद्वद्भ्यश्च हविषा हविर्दानेन सर्वाणि सुखानि दाशत् ददाति। किं कुर्वती ? प्रब्रुवाणा सर्वप्राणिनां व्यक्तवाण्या हेतुभूता सतीयं वर्त्तत इति॥2॥
भाषार्थ - (या गौर्व॰) जिस जिस का नाम 'गौ' कह आये हैं, सो सो लोक अपने-अपने मार्ग में घूमता और पृथिवी अपनी कक्षा में सूर्य के चारों ओर घूमती है। अर्थात् परमेश्वर ने जिस जिस के घूमने के लिए जो जो मार्ग निष्कृत अर्थात् निश्चय किया है, उस उस मार्ग में सब लोक घूमते हैं (पयो दुहाना॰) वह गौ अनेक प्रकार के रस, फल, फूल, तृण और अन्नादि पदार्थों से सब प्राणियों को निरन्तर पूर्ण करती है तथा अपने अपने घूमने के मार्ग में सब लोक सदा घूमते घूमते नियम ही से प्राप्त हो रहे हैं। (सा प्रब्रुवाणा॰) जो विद्यादि उत्तम गुणों का देनेवाला परमेश्वर है, उसी के जानने के लिए सब जगत् दृष्टान्त है और जो विद्वान् लोग हैं उन को उत्तम पदार्थों के दान से अनेक सुखों को भूमि देती और पृथिवी, सूर्य, वायु और चन्द्रादि गौ ही सब प्राणियों की वाणी का निमित्त भी है॥2॥
त्वं सोम पितृभिः संविदानोऽनु
द्यावापृथिवी आ ततन्थ।
तस्मै त इन्द्रो हविषा विधेम
वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥3॥
-ऋ॰ अ॰ 6। अ॰ 4। व॰ 13। मं॰ 13॥
भाष्यम् - ( त्वं सोम॰) अस्याभिप्रा॰ - अस्मिन् मन्त्रे चन्द्रलोकः पृथिवीमनुभ्रमतीत्ययं विशेषोऽस्ति।
अयं सोमश्चन्द्रलोकः पितृभिः पितृवत्पालकैर्गुणैः सह संविदानः सम्यक् ज्ञातः सन् भूमिमनुभ्रमति। कदाचित् सूर्य्यपृथिव्योर्मध्येऽपि भ्रमन् सन्नागच्छतीत्यर्थः। अस्यार्थं भाष्यकरणसमये स्पष्टतया वक्ष्यामि।
तथा ' द्यावापृथिवी एजेते ' इति मन्त्रवर्णार्था द्यौः सूर्यः पृथिवी च भ्रमतश्चलत इत्यर्थः। अर्थात् स्वस्यां स्वस्यां कक्षायां सर्वे लोका भ्रमन्तीति सिद्धम्॥3॥
॥इति पृथिव्यादिलोकभ्रमणविषयः संक्षेपतः॥
भाषार्थ - (त्वं सोम॰) इस मन्त्र में यह बात है कि चन्द्रलोक पृथिवी के चारों ओर घूमता है। कभी कभी सूर्य और पृथिवी के बीच में भी आ जाता है। इस मन्त्र का अर्थ अच्छी तरह से भाष्य में करेंगे।
तथा (द्यावापृथिवी) यह बहुत मन्त्रों में पाठ है कि द्यौः नाम प्रकाश करने वाले सूर्य आदि लोक और जो प्रकाशरहित पृथिवी आदि लोक हैं, वे सब अपनी अपनी कक्षा में सदा घूमते हैं। इस से यह सिद्ध हुआ कि सब लोक भ्रमण करते हैं॥3॥
॥इति संक्षेपतः पृथिव्यादिलोकभ्रमणविषयः॥9॥