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ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (दयानन्दसरस्वतीविरचिता)/७. वेदोक्तधर्मविषयः

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अथ वेदोक्तधर्मविषयः संक्षेपतः

[सम्पाद्यताम्]

अथ वेदोक्तधर्मविषयः संक्षेपतः प्रकाश्यते

ब्रह्म च क्षत्रं च राष्ट्रं च विशश्च
त्विषिश्च यशश्च वर्चश्च द्रविणं च॥12॥
आयुश्च रूपं च नाम च कीर्तिश्च
प्राणश्चापानश्च चक्षुश्च श्रोत्रं च॥13॥
पयश्च रसश्चान्नं चान्नाद्यं च ऋतं च
सत्यं चेष्टं च पूर्तं च प्रजा च पशवश्च॥14॥
--अथर्व॰ कां॰ 12। अनु॰ 5। मं॰ 8। 9। 10॥

भाष्यम् - इत्याद्यनेक-मन्त्रप्रमाणैर्धर्मोपदेशो वेदेष्वीश्वरेणैव सर्वमनुष्यार्थमुपदिष्टोऽस्ति। (ब्रह्म च) ब्राह्मणोपलक्षणं सर्वोत्तमविद्यागुणकर्मवत्वं सद्गुणप्रचारकरणत्वं च ब्राह्मणलक्षणं तच्च सदैव वर्धयितव्यम् (क्षत्रं च) क्षत्रियोपलक्षणं विद्या-चातुर्य्य-शौर्य-धैर्य-वीरपुरुषान्वितं च सदैवोन्नेयम् (राष्ट्रं च) सत्पुरुषसभया सुनियमैः सर्वसुखाढ्यं शुभ-गुणान्वितं च राज्यं सदैव कार्य्यम् (विशश्च) वैश्यादिप्रजानां व्यापारादिकारिणां भूगोले ह्यव्याहतगति-सम्पादनेन व्यापाराद्धनवृद्ध्यर्थं संरक्षणं च कार्य्यम् (त्विषिश्च) दीप्तिः शुभगुणानां प्रकाशः सत्यगुणकामना च शुद्धा प्रचारणीयेति (यशश्च) धर्मान्वितानुत्तमा कीर्तिः संस्थापनीया (वर्चश्च) सद्विद्याप्रचारं सम्यगध्ययनाध्यापनप्रबन्धं कर्म सदा कार्य्यम् (द्रविणं च) अप्राप्तस्य पदार्थस्य न्यायेन प्राप्तीच्छा कार्य्या प्राप्तस्य संरक्षणं रक्षितस्य वृद्धिर्वृद्धस्य सत्कर्मसु व्ययश्च योजनीयः एतच्चतुर्विधपुरुषार्थेन धनधान्योन्नतिसुखे सदैव कार्य्ये॥12॥

(आयुश्च) वीर्य्यादिरक्षणेन भोजनाच्छादनादि-सुनियमेन ब्रह्मचर्य्य-सुसेवनेनायुर्बलं कार्य्यम् (रूपं च) निरन्तर-विषयासेवनेन सदैव सौन्दर्य्यादि-गुणयुक्तं स्वरूपं रक्षणीयम् (नाम च) सत्कर्मानुष्ठानेन नामप्रसिद्धिः कार्य्या यतोऽन्यस्यापि सत्कर्मसूत्साहवृद्धिः स्यात् (कीर्तिश्च) सद्गुणग्रहणार्थमीश्वरगुणानामुपदेशार्थं कीर्त्तनं स्वसत्कीर्त्तिमत्वं च सदैव कार्य्यम् (प्राणश्चापानश्च) प्राणायामरीत्या प्राणापानयोः शुद्धिबले कार्य्ये शरीराद् बाह्यदेशं यो वायुर्गच्छति स प्राणः , बाह्याद्देशाच्छरीरं प्रविशति स वायुरपानः , शुद्धदेशनिवासादिनैनयोः प्रच्छर्दन-विधारणाभ्यां बुद्धिः शारीरबलं च सम्पादनीयम् (चक्षुश्च श्रोत्रं च) चाक्षुषं प्रत्यक्षं श्रौत्रं शब्दजन्यं , चादनुमानादीन्यपि प्रमाणानि यथावद्वेदितव्यानि , तैः सत्यं विज्ञानं च सर्वथा कार्य्यम्॥13॥

(पयश्च रसश्च) पयो जलादिकं रसो दुग्धघृतादिश्चैता वैद्यकरीत्या सम्यक् शोध यित्वा भोक्तव्यौ (अन्नं चान्नाद्यं च) अन्नमोदनादिकमन्नाद्यं भोक्तुमर्हं शुद्धं संस्कृतमन्नं सम्पाद्यैव भोक्तव्यम् (ऋतं च सत्यं च) ऋतं ब्रह्म सर्वदैवोपासनीयम् , सत्यं प्रत्यक्षादिभिः प्रमाणैः परीक्षितं यादृशं स्वात्मन्यस्ति तादृशं सदा सत्यमेव वक्तव्यं मन्तव्यं च (इष्टं च पूर्त्तं च) इष्टं ब्रह्मोपासनं सर्वोपकारकं यज्ञानुष्ठानं च , पूर्त्तं तु यत्पूर्त्यर्थं मनसा वाचा कर्मणा सम्यक् पुरुषार्थेनैव सर्ववस्तुसम्भारैश्चोभयानुष्ठानपूर्त्तिः कार्येति (प्रजा च पशवश्च) प्रजा सन्तानादिका राज्यं च सुशिक्षा-विद्यासुखान्विता हस्त्यश्वादयः पशवश्च सम्यक् शिक्षान्विताः कार्य्याः। बहुभिश्चकारैरन्येऽपि शुभगुणा अत्र ग्राह्याः॥14॥

भाषार्थ - (ब्रह्म च) सब से उत्तम विद्या और श्रेष्ठ कर्म करने वालों को ही ब्राह्मण वर्ण का अधिकार देना, उन से विद्या का प्रचार कराना और उन लोगों को भी चाहिए कि विद्या के प्रचार में ही सदा तत्पर रहें। (क्षत्रं च) अर्थात् सब कामों में चतुरता, शूरवीरपन, धीरज, वीरपुरुषों से युक्त सेना का रखना, दुष्टों को दण्ड देना और श्रेष्ठों का पालन करना इत्यादि गुणों के बढ़ाने वाले पुरुषों को क्षत्रियवर्ण का अधिकार देना। (राष्ट्रञ्च) श्रेष्ठ पुरुषों की सभा के अच्छे नियमों से राज्य को सब सुखों से युक्त करना और उत्तम गुण सहित होके सब कर्मों को सदा सिद्ध करना चाहिए (विशश्च) वैश्य आदि वर्णों को व्यापारादि व्यवहारों में भूगोल के बीच में जाने आने का प्रबन्ध करना और उन की अच्छी रीति से रक्षा करनी अवश्य है, जिस से धनादि पदार्थों की संसार में बढ़ती हो (त्विषिश्च) सब मनुष्यों में सब दिन सत्य गुणों ही का प्रकाश करना चाहिए। (यशश्च) उत्तम कामों से भूगोल में श्रेष्ठ कीर्ति को बढ़ाना उचित है। (वर्चश्च) सत्यविद्याओं के प्रचार के लिए अनेक पाठशालाओं में पुत्र और कन्याओं का अच्छी रीति से पढ़ने पढ़ाने का प्रचार सदा बढ़ाते जाना चाहिए। (द्रविणं च) सब मनुष्यों को उचित है कि पूर्वोक्त धर्म से अप्राप्त पदार्थों की प्राप्ति की इच्छा से सदा पुरुषार्थ करना प्राप्त पदार्थों की रक्षा यथावत् करनी चाहिये। रक्षा किये पदार्थों की सदा बढ़ती करना और सत्य विद्या के प्रचार आदि कामों में बढ़े हुए धनादि पदार्थों का खरच यथावत् करना चाहिए। इस चार प्रकार के पुरुषार्थ से धनधान्यादि को बढ़ा के सुख को सदा बढ़ाते जाओ॥12॥

(आयुश्च) वीर्य्य आदि धातुओं की शुद्धि और रक्षा करना तथा युक्तिपूर्वक ही भोजन और वस्त्र आदि का जो धारण करना है, इन अच्छे नियमों से उमर को सदा बढ़ाओ। (रूपं च) अत्यन्त विषय-सेवा से पृथक् रह के और शुद्ध वस्त्र आदि धारण से शरीर का स्वरूप सदा उत्तम रखना। (नाम च) उत्तम कर्मों के आचरण से नाम की प्रसिद्धि करनी चाहिए, जिस से अन्य मनुष्यों का भी श्रेष्ठ कर्मों में उत्साह हो। (कीर्तिश्च) श्रेष्ठ गुणों के ग्रहण के लिए परमेश्वर के गुणों का श्रवण और उपदेश करते रहो, जिस से तुम्हारा भी यश बढ़े (प्राणश्चापानश्च) जो वायु भीतर से बाहर आता है उसको 'प्राण' और जो बाहर से भीतर जाता है, उसको 'अपान' कहते हैं। योगाभ्यास, शुद्ध देश में निवास आदि और भीतर से बल करके प्राण को बाहर निकाल के रोकने से शरीर के रोगों को छुड़ा के बुद्धि आदि को बढ़ाओ (चक्षुश्च श्रोत्रं च) प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, ऐतिह्य, अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव, इन आठ प्रमाणों के विज्ञान से सत्य का नित्य शोधन करके ग्रहण किया करो॥13॥

(पयश्च रसश्च) जो पय अर्थात् दूध, जल आदि और जो रस अर्थात् शक्कर, ओषधि और घी आदि हैं, इन को वैद्यकशास्त्रों की रीति से यथावत् शोध के भोजन आदि करते रहो। (अन्नं चान्नाद्यं च) वैद्यकशास्त्र की रीति से चावल आदि अन्न का यथावत् संस्कार करके भोजन करना चाहिए (ऋतं च सत्यं च) ऋत नाम जो ब्रह्म है, उसी की सदा उपासना करनी। जैसा हृदय में ज्ञान हो सदा वैसा ही भाषण करना और सत्य को ही मानना चाहिये। (इष्टं च पूर्तं च) इष्ट जो ब्रह्म है उसी की उपासना और जो पूर्वोक्त यज्ञ सब संसार को सुख देने वाला है, उस इष्ट की सिद्धि करने की पूर्ति और जिस-जिस उत्तम कामों के आरम्भ को यथावत् पूर्ण करने के लिये जो-जो अवश्य हो सो-सो सामग्री पूर्ण करनी चाहिए (प्रजा च पशवश्च) सब मनुष्य लोग अपने सन्तान और राज्य को अच्छी शिक्षा दिया करें, और हस्ती तथा घोड़े आदि पशुओं को भी अच्छी रीति से सुशिक्षित करना उचित है। इन मन्त्रों में अनेक चकारों का यह भी प्रयोजन है कि सब मनुष्य लोग धर्म के अन्य भी शुभ लक्षणों का ग्रहण करें॥14॥