ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (दयानन्दसरस्वतीविरचिता)/२८. भाष्यकरणशङ्कासमाधानादिविषयः
अथ संक्षेपतो भाष्यकरण-शङ्कासमाधानादिविषयः
[सम्पाद्यताम्]प्रश्न - किञ्च भो नवीनं भाष्यं त्वया क्रियते आहोस्वित्पूर्वाचार्य्यैः कृतमेव प्रकाश्यते।
यदि पूर्वैः कृतमेव प्रकाश्यते , तर्हि तत् पिष्टपेषणदोषेण दूषितत्वान्न केनापि ग्राह्यं भवतीति ?
उत्तरम् - पूर्वाचार्यैः कृतं प्रकाश्यते। तद्यथा - यानि पूर्वैर्देवैर्विद्वद्भिर्ब्रह्माणमारभ्य याज्ञवल्क्य-वात्स्यायन-जैमिन्यन्तैर्ऋषिभिश्चैतरेय-शतपथादीनि भाष्याणि रचितान्यासन् , तथा यानि पाणिनि- पतञ्जलियास्कादि-महर्षिभिश्च वेदव्याख्यानानि वेदाङ्गाख्यानि कृतानि , एवमेव जैमिन्यादि- भिर्वेदोपाङ्गाख्यानि षट्शास्त्राणि , एवमुपवेदाख्यानि , तथैव वेदशाखाख्यानि च रचितानि सन्ति।
एतेषां संग्रहमात्रेणैव सत्योऽर्थः प्रकाश्यते। न चात्र किञ्चिदप्रमाणं नवीनं स्वेच्छया रच्यत इति।
प्रश्न - किमनेन फलं भविष्यतीति ?
उत्तरम् - यानि रावणोव्वटसायण-महीधरादिभिर्वेदार्थ-विरुद्धानि भाष्याणि कृतानि , यानि चैतदनुसारेणेङ्गलेण्ड-शारमण्यदेशोत्पन्नैर्यूरोपखण्डदेशनिवासिभिः स्वदेशभाषया स्वल्पानि व्याख्यानानि कृतानि , तथैवार्य्यावर्त्तदेशस्थैः कैश्चित्तदनुसारेण प्राकृतभाषया व्याख्यानानि कृतानि वा क्रियन्ते च , तानि सर्वाण्यनर्थगर्भाणि सन्तीति सज्जनानां हृदयेषु यथावत् प्रकाशो भविष्यति। टीकानामधिकदोषप्रसिद्ध्या त्यागश्च।
परन्त्ववकाशाभावात्तेषां दोषाणामत्र स्थालीपुलाकन्यायवत् प्रकाशः क्रियते। तद्यथा - यत् सायणाचार्येण वेदानां परममर्थमविज्ञाय ' सर्वे वेदाः क्रियाकाण्डतत्पराः सन्ती ' त्युक्तम् - तदन्यथास्ति। कुतः ? तेषां सर्वविद्यान्वितत्वात्। तच्च पूर्वं संक्षेपतो लिखितमस्ति। एतावतैवास्य कथनं व्यर्थमस्तीत्यवगन्तव्यम्।
(इन्द्रं मित्रं॰) अस्य मन्त्रस्यार्थोऽप्यन्यथैव वर्णितः। तद्यथा - तेनात्रेन्द्रशब्दो विशेष्यतया गृहीतो मित्रादीनि च विशेषणतया। अत्र खलु विशेष्योऽग्निशब्द इन्द्रादीनां विशेषणानां सङ्गेऽन्वितो भूत्वा , पुनः स एव सद्वस्तुब्रह्मविशेषणं भवति। एवमेव विशेष्यं प्रति विशेषणं पुनः पुनरन्वितं भवतीति , न चैवं विशेषणम्। एवमेव यत्र शतं सहस्रं वैकस्य विशेष्यस्य विशेषणानि भवेयुः , तत्र विशेष्यस्य पुनः पुनरुच्चारणं भवति , विशेषणस्यैकवारमेवेति। तथैवात्र मन्त्रे परमेश्वरेणाऽग्निशब्दो द्विरुच्चारितो विशेष्यविशेषणा-ऽभिप्रायत्वात्। इदं सायणाचार्य्येण नैव बुद्धमतस्तस्य भ्रान्तिरेव जातेति वेद्यम्। निरुक्तकारेणाप्यग्निशब्दो विशेष्यविशेषणत्वेनैव वर्णितः। तद्यथा -' इममेवाग्निं महान्तमात्मानमेकमात्मानं बहुधा मेधाविनो वदतीन्द्रं मित्रं वरुणमित्यादि॰॥ '
- निरु॰ अ॰ 7। खं॰ 18॥
स चैकस्य सद्वस्तुनो ब्रह्मणो नामास्ति। तस्मादग्न्यादीनीश्वरस्य नामानि सन्तीति बोध्यम्।
तथा च -' तस्मात्सर्वैरपि परमेश्वर एव हूयते , यथा राज्ञः पुरोहितः सदभीष्टं सम्पादयति , यद्वा यज्ञस्य सम्बन्धिनि पूर्वभागे आहवनीयरूपेणावस्थित ' मित्युक्तम्।
इदमपि पूर्वापरविरुद्धमस्ति तद्यथा - सर्वैर्नामभिः परमेश्वर एव हूयते चेत्पुनस्तेन होमसाधकम् आहवनीयरूपेणावस्थितो भौतिकोऽग्निः किमर्थो गृहीतः। तस्येदमपि वचनं भ्रममूलमेव।
कोऽपि ब्रूयात् - सायणाचार्य्येण यद्यपीन्द्रादयस्तत्र तत्र हूयन्ते , तथापि परमेश्वरस्यैवेन्द्रादिरूपेणावस्थानादविरोधः , इत्युक्तत्वाददोष इति।
एवं प्राप्ते ब्रूमः - यदीन्द्रादिभिर्नामभिः परमेश्वर एवोच्यते , तर्हि परमेश्वरस्येन्द्रादिरूपावस्थितिरनुचिता। तद्यथा -' अज एकपात् ,' ' स पर्यगाच्छुक्रमकाय ' मित्यादिमन्त्रार्थेन परमेश्वरस्य जन्मरूपवत्त्वशरीरधारणादि-निषेधात्तत्कथनमसदस्ति।
एवमेव सायणाचार्य्यकृतभाष्यदोषा बहवः सन्ति। अग्रे यत्र यत्र यस्य यस्य मन्त्रस्य व्याख्यानं करिष्यामस्तत्र तत्र तद्भाष्यदोषान् प्रकाशयिष्याम इति।
भाषार्थ - प्रश्न - क्यों जी! जो तुम यह वेदों का भाष्य बनाते हो, सो पूर्व आचार्य्यों के भाष्य के समान बनाते हो, वा नवीन। जो पूर्वरचित भाष्यों के समान है, तब तो बनाना व्यर्थ है। क्योंकि वे तो पहले से ही बने बनाये हैं। और जो नया बनाते हो तो उस को कोई भी न मानेगा। क्योंकि जो विना प्रमाण के केवल अपनी ही कल्पना से बनाना है, यह बात कब ठीक हो सकती है?
उत्तर - यह भाष्य प्राचीन आचार्य्यों के भाष्यों के अनुकूल बनाया जाता है। परन्तु जो रावण, उव्वट, सायण और महीधर आदि ने भाष्य बनाये हैं, वे सब मूलमन्त्र और ऋषिकृत व्याख्यानों से विरुद्ध हैं। मैं वैसा भाष्य नहीं बनाता। क्योंकि उन्होंने वेदों की सत्यार्थता और अपूर्वता कुछ भी नहीं जानी और जो यह मेरा भाष्य बनता है, सो तो वेद, वेदाङ्ग, ऐतरेय, शतपथब्राह्मणादि ग्रन्थों के अनुसार होता है। क्योंकि जो जो वेदों के सनातन व्याख्यान हैं, उन के प्रमाणों से युक्त बनाया जाता है, यही इस में अपूर्वता है। क्योंकि जो जो प्रामाण्याप्रामाण्यविषय में वेदों से भिन्न शास्त्र गिन आये हैं, वे सब वेदों के ही व्याख्यान हैं। वैसे ही ग्यारहसौ सत्ताईस (1127) वेदों की शाखा भी उनके व्याख्यान ही हैं। उन सब ग्रन्थों के प्रमाणयुक्त यह भाष्य बनाया जाता है।
और दूसरा इस के अपूर्व होने के कारण यह भी है कि इस में कोई बात अप्रमाण वा अपनी रीति से नहीं लिखी जाती। और जो जो भाष्य उव्वट, सायण, महीधरादि ने बनाये हैं, वे सब मूलार्थ और सनातन वेदव्याख्यानों से विरुद्ध हैं। तथा जो जो इन नवीन भाष्यों के अनुसार अंग्रेजी, जर्मनी, दक्षिणी और बंगाली आदि भाषाओं में वेदव्याख्यान बने हैं, वे भी अशुद्ध हैं।
जैसे देखो-सायणाचार्य्य ने वेदों के श्रेष्ठ अर्थों को नहीं जान कर कहा है कि 'सब वेद क्रियाकाण्ड का ही प्रतिपादन करते हैं।'
यह उन की बात मिथ्या है। इस के उत्तर में जैसा कुछ इसी भूमिका के पूर्व प्रकरणों में संक्षेप से लिख चुके हैं, सो देख लेना।
ऐसे ही (इन्द्रं मित्रं॰) सायणाचार्य्य ने इस मन्त्र का अर्थ भी भ्रान्ति से बिगाड़ा है। क्योंकि उन ने इस मन्त्र में विशेष्य विशेषण को अच्छी रीति से नहीं समझ कर, इन्द्र शब्द को तो विशेष्य करके वर्णन किया और मित्रादि शब्द उस के विशेषण ठहराये हैं। यह उन को बड़ा भ्रम हो गया, क्योंकि इस मन्त्र में अग्नि शब्द विशेष्य और इन्द्रादि शब्द उस के ही विशेषण हैं। इसलिये विशेषणों का विशेष्य के साथ अन्वय होकर पुनः दूसरे दूसरे विशेषण के साथ विशेष्य का अन्वय कराना होता है और विशेषण का एक बार विशेष्य के साथ अन्वय होता है। इसी प्रकार जहां जहां एक के सैकड़ों वा हजारों विशेषण होते हैं, वहां वहां भी विशेष्य का सैकड़ों वा हजारों वार उच्चारण होता है। वैसे ही इस मन्त्र में विशेष्य की इच्छा से ईश्वर ने अग्नि शब्द का दो वार उच्चारण किया, और अग्नि आदि ब्रह्म के नाम कहे हैं। यह बात सायणाचार्य्य ने नहीं जानी। इस से उन की यह भ्रान्ति सिद्ध है। इसी प्रकार निरुक्तकार ने भी अग्नि शब्द को विशेष्य ही वर्णन किया है-(इममेवाग्निं॰)। यहां अग्नि और इन्द्रादि नाम एक सद् वस्तु ब्रह्म ही के हैं। क्योंकि इन्द्रादि शब्द अग्नि के विशेषण और अग्नि आदि ब्रह्म के नाम हैं।
ऐसे ही सायणाचार्य्य ने और भी बहुत मन्त्रों की व्याख्याओं में शब्दों के अर्थ उलटे किये हैं। तथा उन ने-'सब मन्त्रों से परमेश्वर का ग्रहण कर रक्खा है। जैसे राजा का पुरोहित राजा ही के हित का काम सिद्ध करता है, अथवा जो अग्नि यज्ञ के सम्बन्धी प्रथम भाग में हवन करने के लिये है, उसी रूप से ईश्वर स्थित है।'
यह सायणाचार्य्य का कथन अयोग्य और पूर्वापर विरोधी होकर आगे पीछे के सम्बन्ध को तोड़ता है। क्योंकि जब सब नामों से परमेश्वर ही का ग्रहण करते हैं तो फिर जिस अग्नि में हवन करते हैं, उस को किस लिये ग्रहण किया है?
और कदाचित् कोई कहे कि-जो सायणाचार्य्य ने वहां इन्द्रादि देवताओं का ही ग्रहण किया हो तो उस से कुछ भी विरोध नहीं आ सकता।
इस का उत्तर यह है कि-जब इन्द्रादि नामों से परमेश्वर ही का ग्रहण है तो वह निराकार, सर्वशक्तिमान्, व्यापक और अखण्ड होने से जन्म लेकर भिन्न भिन्न व्यक्तिवाला कभी नहीं हो सकता। क्योंकि वेदों में परमेश्वर का एक अज और अकाय अर्थात् शरीरसम्बन्धरहित आदि गुणों के साथ वर्णन किया है। इस से सायणाचार्य का कथन सत्य नहीं हो सकता। इसी प्रकार सायणाचार्य ने जिस जिस मन्त्र का अन्यथा व्याख्यान किया है, सो सब क्रमपूर्वक आगे उन मन्त्रों के व्याख्यान में लिख दिया जायेगा।
एवमेव महीधरेण महानर्थरूपं वेदार्थदूषकं वेददीपाख्यं विवर्णं कृतं , तस्यापीह दोषा दिग्दर्शनवत्प्रदर्श्यन्ते -
भाषार्थ - इसी प्रकार महीधर ने भी यजुर्वेद पर मूल से अत्यन्त विरुद्ध व्याख्यान किया है। उस में से सत्यासत्य की परीक्षा के लिये उन के कुछ दोष यहां भी दिखलाते हैं-
गणानां त्वा गणपतिं हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपतिं हवामहे निधीनां त्वा निधिपतिं हवामहे वसो मम। आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्॥1॥
- यजुः॰ अ॰ 23। मं॰ 19॥
भाष्यम् - अस्य मन्त्रस्य व्याख्याने तेनोक्तम् - अस्मिन्मन्त्रे गणपतिशब्दादश्वो वाजी ग्रहीतव्य इति। तद्यथा महिषी यजमानस्य पत्नी यज्ञशालायां , पश्यतां सर्वेषामृत्विजामश्वसमीपे शेते। शयाना सत्याह - हे अश्व! गर्भधं गर्भं दधाति गर्भधं गर्भधारकं रेतः , अहम् आ अजानि , आकृष्य क्षिपामि। त्वं च गर्भधं रेतः आ अजासि आकृष्य क्षिपसि॥
भाषार्थ - (गणानां त्वा॰) इस मन्त्र में महीधर ने कहा है कि-गणपति शब्द से घोड़े का ग्रहण है। सो देखो महीधर का उलटा अर्थ कि 'सब ऋत्विजों के सामने यजमान की स्त्री घोड़े के पास सोवे, और सोती हुई घोड़े से कहे कि, हे अश्व! जिस से गर्भधारण होता है, ऐसा जो तेरा वीर्य है उस को मैं खैंच के अपनी योनि में डालूं तथा तू उस वीर्य को मुझ में स्थापन करनेवाला है॥
अथ सत्योऽर्थः - गणानां त्वा गणपतिं हवामह इति ब्राह्मणस्पत्यं , ब्रह्म वै बृहस्पतिर्ब्रह्मणैवैनं तद्भिषज्यति , प्रथश्च यस्य सप्रथश्च नामेति॥
- ऐत॰ पं॰ 1। कं॰ 21॥
प्रजापतिर्वै जमदग्निः सोऽश्वमेधः॥ क्षत्रं वाश्वो विडितरे पशवः॥ क्षत्रस्यैतद्रूपं यद्धिरण्यम्॥ज्योतिर्वै हिरण्यम्॥
- श॰ कां॰ 13। अ॰ 2। ब्रा॰ 2। कं॰ 14, 15, 16, 17॥
न वै मनुष्यः स्वर्गं लोकमञ्जसा वेदाश्वो वै स्वर्गं लोकमञ्जसा वेद॥
- श॰ कां॰ 13। अ॰ 2। ब्रा॰ 12। कं॰ 1।
राष्ट्रमश्वमेधो ज्योतिरेव तद्राष्टे दधाति॥ क्षत्रायैव तद्विशं कृतानुकरामनुवर्त्तमानं करोति॥ अथो क्षत्रं वा अश्वः क्षत्रस्यैतद्रूपं यद्धिरण्यं , क्षत्रमेव तत्क्षत्रेण समर्धयति॥ विशमेव तद्विशा समर्धयति॥
- श॰ कां॰ 13। अ॰ 2। ब्रा॰ 11। कं॰ 15, 16, 17॥
गणानां त्वा गणपतिं हवामह इति। पत्न्यः परियन्त्यपह्नुवत एवास्मा एतदतोऽन्येवास्मै ह्नुवतेऽथो धुवत एवैनं त्रिः परियन्ति , त्रयो वा इमे लोका एभिरेवैनं लोकैर्धुवते , त्रिः पुनः परियन्ति षट् सम्पद्यन्ते , षड् वा ऋतव ऋतुभिरेवैनं धुवते॥ अप वा एतेभ्यः प्राणाः क्रामन्ति , ये यज्ञे धुवनं तन्वते , नवकृत्वः परियन्ति , नव वै प्राणाः प्राणानेवात्मं धत्ते , नैभ्यः प्राणा अपक्रामन्त्याहमजानि गर्भधमात्वमजासि गर्भधमिति , प्रजा वै पशवो गर्भः प्रजामेव पशूनात्मं धत्ते॥
- श॰ कां॰ 13। अ॰ 2। ब्रा॰ 2। कं॰ 4, 5॥
भाष्यम् - ( गणानां त्वा॰) वयं गणानां गणनीयानां पदार्थसमूहानां गणपतिं पालकं स्वामिनं (त्वा) त्वां परमेश्वरं (हवामहे) गृह्णीमः। तथैव सर्वेषां प्रियाणामिष्टमित्रादीनां मोक्षादीनां च प्रियपतिं त्वेति पूर्ववत्। एवमेव निधीनां विद्यारत्नादिकोशानां निधिपतिं त्वेति पूर्ववत्। वसत्यस्मिन् सर्वं जगद्वा यत्र वसति स वसुः परमेश्वरः , तत्सम्बुद्धौ हे वसो , परमेश्वरपरत्वम्। सर्वान् कार्य्यान् भूगोलान् स्वसामर्थ्ये गर्भवद्दधातीति स गर्भधस्तं त्वामहं भवत्कृपया आजानि , सर्वथा जानीयाम्। (आ त्वमजासि) हे भगवन्! त्वं तु आ समन्ताज्ज्ञातासि। पुनर्गर्भधमित्युक्त्या वयं प्रकृतिपरमाण्वादीनां गर्भधानामपि गर्भधं त्वां मन्यामहे। नैवातो भिन्नः कश्चिद् गर्भधारकोऽस्तीति।
एवमेवैतरेयशतपथब्राह्मणे गणपतिशब्दार्थो वर्णितः - ( ब्राह्मणस्पत्यं॰) अस्मिन् मन्त्रे ब्रह्मणो वेदस्य पतेर्भावो वर्णितः। ब्रह्म वै बृहस्पतिरित्युक्तत्वात्। तेन ब्रह्मोपदेशेनैवैनं जीवं यजमानं वा सत्योपदेष्टा विद्वान् भिषज्यति रोगरहितं करोति। आत्मनो भिषजं वैद्यमिच्छतीति। यस्य परमेश्वरस्य प्रथः सर्वत्र व्याप्तो विस्तृतः , सप्रथश्च , प्रकृत्याकाशादिना प्रथेन स्वसामर्थ्येन वा सह वर्त्तते स सप्रथस्तदिदं नामद्वयं तस्यैवास्तीति। प्रजापतिः परमेश्वरो वै इति निश्चयेन , ' जमदग्निसंज्ञो ' ऽस्ति।
अत्र प्रमाणम् -
जमदग्नयः प्रजमिताग्नयो वा , प्रज्वलिताग्नयो वा , तैरभिहुतो भवति॥
- निरु॰ अ॰ 7। खं॰ 24॥
भाष्यम् - इमे सूर्य्यादयः प्रकाशकाः पदार्थास्तस्य सामर्थ्यादेव प्रज्वलिता भवन्ति। तैः सूर्य्यादिभिः कार्य्यैस्तन्नियमैश्च कारणाख्य ईश्वरोऽभिहुतश्चाभिमुख्येन पूजितो भवतीति। यः स जमदग्निः परमेश्वरः (सोऽश्वमेधः) स एव परमेश्वरोऽश्वमेधाख्य इति प्रथमोऽर्थः।
अथापरः - क्षत्रं वाश्वो विडितरे पशव इत्यादि। यथाऽश्वस्यापेक्षयेतर इमेऽजादयः पशवो न्यूनबलवेगा भवन्ति , तथा राज्ञः सभासमीपे विट् प्रजा निर्बलैव भवति। तस्य राज्यस्य , यद्धिरण्यं सुवर्णादिवस्तु ज्योतिः प्रकाशो वा न्यायकरणमेतत्स्वरूपं भवति। यथा राजप्रजालङ्कारेण राजप्रजाधर्मो वर्णितः , तथैव जीवेश्वरयोः स्वस्वामिसम्बन्धो वर्ण्यते।
न वै मनुष्यः केवलेन स्वसामर्थ्येन सरलतया स्वर्गं परमेश्वराख्यं लोकं वेद , किन्त्वीश्वरानुग्रहेणैव जानाति। अश्वो यत ईश्वरो वा अश्वः॥
- श॰ कां॰ 13। अ॰ 3। ब्रा॰ 8। कं॰ 8॥
अश्नुते व्याप्नोति सर्वं जगत्सोऽश्व ईश्वरः।
इत्युक्तत्वादीश्वरस्यैवात्राश्वसंज्ञास्तीति।
अन्यच्च (राष्ट्रं वा॰) राज्यमश्वमेधसंज्ञं भवति। तद्राष्ट्रे राज्यकर्मणि ज्योतिर्दधाति। तत्कर्मफलं क्षत्राय राजपुरुषाय भवति। तच्च स्वसुखायैव विशं प्रजां कृतानुकरां स्ववर्त्तमानामनुकूलां करोति। अथो इत्यनन्तरं क्षत्रमेवाश्वमेधसंज्ञकं भवति। तस्य यद्धिरण्यमेतदेव रूपं भवति। तेन हिरण्याद्यन्वितेन क्षत्रेण राज्यमेव सम्यग् वर्धते , न च प्रजा। सा तु स्वतन्त्रस्वभावान्वितया विशा समर्धयति। अतो यत्रैको राजा भवति , तत्र प्रजा पीडिता जायते। तस्मात् प्रजासत्तयैव राज्यप्रबन्धः कार्य्य इति।
(गणानां॰) स्त्रियोऽप्येतं , राज्यपालनाय , विद्यामयं सन्तानशिक्षाकरणाख्यं यज्ञं , परितः , सर्वतः प्राप्नुयुः। प्राप्ताः सत्योऽस्य सिद्धये यदपह्नवाख्यं कर्माचरन्ति , अतः कारणादेतदेतासामन्ये विद्वांसो दूरीकुर्वन्ति। अथो इत्यनन्तरं य एनं विचालयन्ति , तानप्यन्ये च दूरीकुर्य्युः। एवमस्य त्रिवारं रक्षणं सर्वथा कुर्य्युः। एवं प्रतिदिनमेतस्य शिक्षया रक्षणेन चात्मशरीरबलानि सम्पादयेयुः।
ये नराः पूर्वोक्तं गर्भधं परमेश्वरं जानन्ति , नैव तेभ्यः प्राणा बलपराक्रमादयोऽपक्रामन्ति। तस्मान्मनुष्यस्तं गर्भधं परमेश्वरमहमाजानि समन्ताज्जानीयामितीच्छेत्। (प्रजा वै पशवः॰) ईश्वर- सामर्थ्यगर्भात् सर्वे पदार्था जाता इति योजनीयम्। यश्च पशूनां प्रजानां मध्ये विज्ञानवान् भवति , स इमां सर्वां प्रजामात्मनि , अतति सर्वत्र व्याप्नोति तस्मिन् जगदीश्वरे वर्त्तते इति धारयति॥
इति संक्षेपतो गणानां त्वेति मन्त्रस्यार्थो वर्णितः। अस्मान्महीधरस्यार्थोऽत्यन्तविरुद्ध एवास्तीति मन्तव्यम्।
भाषार्थ - (गणानां त्वा॰) ऐतरेय ब्राह्मण में गणपति शब्द की ऐसी व्याख्या की है कि यह मन्त्र ईश्वरार्थ का प्रतिपादन करता है। जैसे ब्रह्म का नाम बृहस्पति, ईश्वर तथा वेद का नाम भी ब्रह्म है। जैसे अच्छा वैद्य रोगी को औषध देके दुःखों से अलग कर देता है, वैसे ही परमेश्वर भी वेदोपदेश करके मनुष्य को विज्ञानरूप ओषधि देके अविद्यारूप दुःखों से छुड़ा देता है। जो कि-'प्रथ' अर्थात् विस्तृत, सब में व्याप्त, और 'सप्रथ' अर्थात् आकाशादि विस्तृत पदार्थों के साथ भी व्यापक हो रहा है। इसी प्रकार से यह मन्त्र ईश्वर के नामों को यथावत् प्रतिपादन कर रहा है। ऐसे ही शतपथ ब्राह्मण में भी-राज्यपालन का नाम 'अश्वमेध' राजा का नाम 'अश्व' और प्रजा का नाम घोड़े से भिन्न 'पशु' रक्खा है। राज्य की शोभा धन है, और ज्योति का नाम हिरण्य है।
तथा 'अश्व' नाम परमेश्वर का भी है, क्योंकि कोई मनुष्य स्वर्गलोक को अपने सहज सामर्थ्य से नहीं जान सकता, किन्तु अश्व अर्थात् जो ईश्वर है, वही उन के लिये स्वर्गसुख को जनाता और जो मनुष्य प्रेमी धर्मात्मा हैं, उन को सब स्वर्गसुख देता है।
तथा (राष्ट्रमश्वमेधः॰) राज्य के प्रकाश का धारण करना सभा ही का काम, और उसी सभा का नाम राजा है। वही अपनी ओर से प्रजा पर कर लगाती है। क्योंकि राज ही से राज्य और प्रजा ही से प्रजा की वृद्धि होती है।
(गणानां त्वा॰) स्त्री लोग भी राज्यपालन के लिए विद्या की शिक्षा सन्तानों को करती रहें। जो इस यज्ञ को प्राप्त होके भी सन्तानोत्पत्ति आदि कर्म में मिथ्याचरण करती हैं, उन के इस कर्म को विद्वान् लोग प्रसन्न नहीं करते। और जो पुरुष सन्तानादि की शिक्षा में आलस्य करते हैं, अन्य लोग उन को बांध कर ताड़ना देते हैं। इस प्रकार तीन, छः वा नव वार इस की रक्षा से आत्मा शरीर और बल को सिद्ध करें। जो मनुष्य परमेश्वर की उपासना करते हैं, उनके बलादि गुण कभी नष्ट नहीं होते। (आहमजानि॰) प्रजा के कारण का नाम 'गर्भ' है उस के समतुल्य वह सभा, प्रजा और प्रजा के पशुओं को, अपने आत्मा में धारण करे। अर्थात् जिस प्रकार अपना सुख चाहें, वैसे ही प्रजा और उस के पशुओं का भी सुख चाहें॥
(गणानां त्वा॰) जो परमात्मा गणनीय पदार्थों का पति अर्थात् पालन करने हारा है, (त्वा) उस को (हवामहे) हम लोग पूज्यबुद्धि से ग्रहण करते हैं। (प्रियाणां॰) जो कि हमारे इष्ट मित्र और मोक्षसुखादि का प्रियपति तथा हम को आनन्द में रख कर सदा पालन करने वाला है, उसी को हम लोग अपना उपास्यदेव जान के ग्रहण करते हैं। (निधीनां त्वा॰) जो कि विद्या और सुखादि का निधि अर्थात् हमारे कोशों का पति है, उसी सर्वशक्तिमान् परमेश्वर को हम अपना राजा और स्वामी मानते हैं।
तथा जो कि व्यापक होके सब जगत् में और सब जगत् उसमें बस रहा है, इस कारण से उस को 'वसु' कहते हैं। हे वसु परमेश्वर! जो आप अपने सामर्थ्य से जगत् के अनादिकारण में गर्भ धारण करते हैं, अर्थात् सब मूर्तिमान् द्रव्यों को आप ही रचते हैं, इसी हेतु से आप का नाम 'गर्भध' है।
(आहमजानि) मैं ऐसे गुणसहित आपको जानूं। (आ त्व॰) जैसे आप सब प्रकार से सब को जानते हैं, वैसे ही मुझ को भी सब प्रकार से ज्ञानयुक्त कीजिये। (गर्भधं) दूसरी वार 'गर्भध' शब्द का पाठ इसलिये है कि जो जो प्रकृति और परमाणु आदि कार्यद्रव्यों के गर्भरूप हैं, उन में भी सब जगत् के गर्भरूप बीज को धारण करनेवाले ईश्वर से भिन्न दूसरा कार्य जगत् की उत्पत्ति स्थिति और लय करनेवाला कोई भी नहीं है॥
यही अर्थ ऐतरेय, शतपथ ब्राह्मण में कहा है। विचारना चाहिए कि इस सत्य अर्थ के गुप्त होने और मिथ्या नवीन अर्थों के प्रचार होने से मनुष्यों को भ्रान्त करके वेदों का कितना अपमान कराया है। जैसे यह दोष खण्डित हुआ, वैसे इस भाष्य की प्रवृत्ति से इन सब मिथ्या दोषों की निवृत्ति हो जायेगी।
ता उभौ चतुरः पदः सम्प्रसारयाव स्वर्गे लोके प्रोणुर्वाथां वृषा वाजी रेतोधा रेतो दधातु॥2॥
- य॰ अ॰ 23। मं॰ 20॥
महीधरस्यार्थः - अश्वशिश्नमुपस्थे कुरुते वृषा वाजीति। महिषी स्वयमेवाश्वशिश्नमाकृष्य स्वयोनौ स्थापयति॥
भाषार्थ - महीधर का अर्थ-'यजमान की स्त्री घोड़े के लिङ्ग को पकड़ कर आप ही अपनी योनि में डाल देवे॥2॥
सत्योऽर्थः - ता उभौ चतुरः पदः सम्प्रसारयावेति मिथुनस्यावरुध्यै स्वर्गे लोके प्रोर्णुवाथामित्येष वै स्वर्गो लोको यत्र पशुं संज्ञपयन्ति। तस्मादेवमाह वृषा वाजी रेतोधा रेतो दधात्विति मिथुनस्यैवावरुध्यै॥
- श॰ कां॰ 13। अ॰ 2। ब्रा॰ 2। कं॰ 5॥
भाष्यम् - आवां राजप्रजे , धर्मार्थकाममोक्षान् चतुरः पदानि , सदैव मिलिते भूत्वा सम्यक् विस्तारयेवहि। कस्मै प्रयोजनायेत्यत्राह - स्वर्गे सुखविशेषे , लोके द्रष्टव्ये भोक्तव्ये , प्रियानन्दस्य स्थिरत्वाय। येन सर्वान् प्राणिनः सुखैराच्छादयेवहि। यस्मिन् राज्ये पशुं पशुस्वभावमन्यायेन परपदार्थानां द्रष्टारं जीवं विद्योपदेशदण्डदानेन सम्यगवबोधयन्ति , सैष एव सुखयुक्तो देशो हि स्वर्गो भवति। तस्मात्कारणादुभयस्य सुखायोभये विद्यादिसद्गुणानामभिवर्षकं वाजिनं विज्ञानवन्तं जनं प्रति विद्याबले सततमेव दधात्वित्याहायं मन्त्रः॥
भाषार्थ - (ता उभौ॰) राजा और प्रजा हम दोनों मिल के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि के प्रचार करने में सदा प्रवृत्त रहें। किस प्रयोजन के लिये? कि दोनों की अत्यन्त सुखरूप स्वर्गलोक में प्रिय आनन्द की स्थिति के लिए। जिस से हम दोनों परस्पर तथा सब प्राणियों को सुख से परिपूर्ण कर देवें। जिस राज्य में मनुष्य लोग अच्छी प्रकार ईश्वर को जानते हैं, वही देश सुखयुक्त होता है। इस से राजा और प्रजा परस्पर सुख के लिए सद्गुणों के उपदेशक पुरुष की सदा सेवा करें, और विद्या तथा बल को सदा बढ़ावें। इस अर्थ का कहने वाला 'ता उभौ॰' यह मन्त्र है। इस अर्थ से महीधर का अर्थ अत्यन्त विरुद्ध है।
यकासकौ शकुन्तिकाहलगिति वञ्चति।
आहन्ति गभे पसो निगल्गलीति धारका॥
- य॰ अ॰ 23। मं॰ 22॥
महीधरो वदति - अध्वर्य्वादयः कुमारीपत्नीभिः सह सोपहासं संवदन्ते। अङ् गुल्या योनिं प्रदेशयन्नाह , स्त्रीणां शीघ्रगमने योनौ हलहलाशब्दो भवतीत्यर्थः। भगे योनौ शकुनिसदृश्यां यदा पसो लिङ्गमाहन्ति आगच्छति , पुंस्प्रजननस्य नाम , हन्तिर्गत्यर्थः। यदा भगे शिश्नमागच्छति , तदा (धारका) धरति लिङ्गमिति धारका योनिः , निगल्गलीति नितरां गलति वीर्य्यं क्षरति , यद्वा शब्दानुकरणं गल्गलेति शब्दं करोति॥
यकोऽसकौ॰॥
- य॰ अ॰ 23। मं॰ 23॥
कुमारी अध्वर्य्युं प्रत्याह। अङ्गुल्या लिङ्गं प्रदेशयन्त्याह। अग्रभागे सच्छिद्रं लिङ्गं तव मुखमिव भासते॥
भाषार्थ - महीधर का अर्थ- यज्ञशाला में अध्वर्यु आदि ऋत्विज् लोग कुमारी और स्त्रियों के साथ उपहासपूर्वक संवाद करते हैं। इस प्रकार से कि अङ्गुली से योनि को दिखला के हंसते हैं (आहलगिति॰) जब स्त्री लोग जल्दी जल्दी चलती हैं तब उन की योनि में हलहला शब्द, और जब भगलिङ्ग का संयोग होता है तब भी हलहला शब्द होता, और योनि और लिङ्ग से वीर्य्य झरता है।
(यकोसकौ॰) कुमारी अध्वर्यु का उपहास करती है कि जो यह छिद्रसहित तेरे लिङ्ग का अग्रभाग है, सो तेरे मुख के समान दीख पड़ता है॥
अथ सत्योऽर्थः - यकासकौ शकुन्तिकेति। विड् वै शकुन्तिका हलगिति वञ्चतीति। विशो वै राष्ट्राय वञ्चन्त्याहन्ति गभे पसो निगल्गलीति धारकेति। विड् वै गभो राष्ट्रं पसो , राष्ट्रमेव विश्या हन्ति तस्माद्राष्टी विशं धातुकः॥
- श॰ कां॰ 13। अ॰ 2। ब्रा॰ 3। कं॰ 6॥
भाष्यम् - ( विड् वै॰) यथा श्येनस्य समीपेऽल्पपक्षिणी निर्बला भवति , तथैव राज्ञः समीपे (विट्) प्रजा निर्बला भवति। (आहलगिति वञ्चतीति) राजानो विशः प्रजा (वै) इति निश्चयेन राष्ट्राय राजसुखप्रयोजनाय सदैव वञ्चन्तीति। (आहन्ति॰) विशो गभसंज्ञा भवति , पसाख्यं राष्ट्रं राज्यं प्रजया स्पर्शनीयं भवति। यस्माद्राष्ट्रं तां प्रजां प्रविश्याहन्ति समन्ताद्धननं पीडां करोति , यस्माद्राष्ट्री एको राजा मतश्चेत्तर्हि विशं प्रजां घातुको भवति तस्मात्कारणादेको मनुष्यो राजा कदाच्चिन्नैव मन्तव्यः। किन्तु सभाध्यक्षः सभाधीनो यः सदाचारी शुभलक्षणान्वितो विद्वान् स प्रजाभी राजा मन्तव्यः। अस्मादपि सत्यादर्थान्महीधरस्यातीव दुष्टोऽर्थोऽस्तीति विचारणीयम्॥
भाषार्थ - (यकासकौ॰) प्रजा का नाम शकुन्तिका है कि जैसे बाज के सामने छोटी छोटी चिड़ियाओं की दुर्दशा होती है, वैसे ही राजा के सामने प्रजा की। (आहलगिति॰) जहां एक मनुष्य राजा होता है, वहां प्रजा ठगी जाती है। (आहन्ति गभे पसो॰) तथा प्रजा का नाम 'गभ' और राज्य का नाम 'पस' है। जहां एक मनुष्य राजा होता है, वहां वह अपने लोभ से प्रजा के पदार्थों की हानि ही करता चला जाता है। इसलिये राजा को प्रजा का घातुक अर्थात् हनन करनेवाला भी कहते हैं। इस कारण से एक को राजा कभी नहीं मानना चाहिये, किन्तु धार्मिक विद्वानों की सभा के आधीन ही राज्यप्रबन्ध होना चाहिए।
(यकासकौ॰) इत्यादि मन्त्रों के शतपथप्रतिपादित अर्थों से महीधर आदि अल्पज्ञ लोगों के बनाये हुए अर्थों का अत्यन्त विरोध है।
माता च ते पिता च तेऽग्रं वृक्षस्य रोहतः।
प्रतिलामीति ते पिता गभे मुष्टिमतंसयत्॥
- य॰ अ॰ 23। मं॰ 24॥
महीधरस्यार्थः - ब्रह्मा महिषीमाह - महिषि हये हये महिषि! ते तव माता च पुनस्ते तव पिता , यदा वृक्षस्य वृक्षजस्य काष्ठमयस्य मञ्चकस्याग्रमुपरिभागं रोहतः आरोहतः , तदा ते पिता गभे भगे मुष्टिं मुष्टितुल्यं लिङ्गमतंसयत्तंसयति प्रक्षिपति। एवं तवोत्पत्तिरित्यश्लीलम्। लिङ्गमुत्थानेना-लङ्करोति वा तव भोगेन स्निह्यामीति वदन्नेवं तवोत्पत्तिः॥
भाषार्थ - महीधर का अर्थ- अब ब्रह्मा हास करता हुआ यजमान की स्त्री से कहता है कि जब तेरी माता और पिता पलंग के ऊपर चढ़ के तेरे पिता ने मुष्टितुल्य लिङ्ग को तेरी माता के भग में डाला, तब तेरी उत्पत्ति हुई। उस ने ब्रह्मा से कहा कि तेरी भी उत्पत्ति ऐसे ही हुई है, इस से दोनों की उत्पत्ति तुल्य है॥
अथ सत्योऽर्थः - माता च ते पिता च त इति। इयं वै माताऽसौ पिताभ्यामेवैनं स्वर्गं लोकं गमयत्यग्रं वृक्षस्य रोहत इति। श्रीर्वै राष्ट्रस्याग्रं , श्रियमेवैनं राष्ट्रस्याग्रं गमयति। प्रतिलामीति ते पिता गभे मुष्टिमतंसयदिति। विड् वै गभो राष्ट्रं मुष्टी , राष्ट्रमेवाविश्याहन्ति , तस्माद्राष्ट्री विशं घातुकः॥5॥
- श॰ कां॰ 13। अ॰ 2। ब्रा॰ 3। कं॰ 7॥
भाष्यम् - ( माता च ते॰) हे मनुष्य! इयं पृथिवी विद्या च ते तव मातृवदस्ति। ओषध्याद्यनेकपदार्थदानेन विज्ञानोत्पत्त्या च मान्यहेतुत्वात्। असौ द्यौः प्रकाशो विद्वानीश्वरश्च तव पितृवदस्ति। सर्वपुरुषार्थानुष्ठानस्य सर्वसुखप्रदानस्य च हेतुत्वेन पालकत्वात् विद्वान् ताभ्यामेवैनं जीवं स्वर्गं सुखरूपं लोकं गमयति। (अग्रं वृक्षस्य॰) या श्रीर्विद्याशुभगुणरत्नादिशोभान्विता च लक्ष्मीः , सा राष्ट्रस्याग्रमुत्तमाङ्गं भवति। सैवैनं जीवं श्रियं शोभां गमयति , यद्राष्ट्रस्याग्रमग्र्यं मुख्यं सुखं च। (प्रतिलामीति॰) विट् प्रजा गभाख्याऽर्थादैश्वर्य्यप्रदा , ( राष्ट्रं मुष्टीः॰) राजकर्ममुष्टिः यथा मुष्टिना मनुष्यो धनं गृह्णाति , तथैवैको राजा चेत्तर्हि पक्षपातेन प्रजाभ्यः स्वसुखाय सर्वां श्रेष्ठां श्रियं हरत्येव। यस्माद्राष्ट्रं विशि प्रजायां प्रविश्य आहन्ति , तस्माद्राष्ट्री विशं घातुको भवति।
अस्मादर्थान्महीधरस्यार्थोऽत्यन्तविरुद्धोऽस्ति , तस्मात्स नैव केनापि मन्तव्यः॥5॥
भाषार्थ - सत्य अर्थ- (माता च ते॰) सब प्राणियों की पृथिवी और विद्या माता के समान सब प्रकार के मान्य करानेवाली, और सूर्यलोक विद्वान् तथा परमेश्वर पिता के समान हैं। क्योंकि सूर्यलोक पृथिवी के पदार्थों का प्रकाशक और विज्ञानदान से पण्डित तथा परमात्मा सब के पालन करनेवाला है। इन्हीं दोनों कारणों से विद्वान् लोग जीवों को नाना प्रकार का सुख प्राप्त करा देते हैं। (अग्रं वृक्षस्य॰) श्री जो लक्ष्मी है, सो ही राज्य का अग्रभाग अर्थात् शिर के समान है। क्योंकि विद्या और धन ये दोनों मिल के ही जीव को शोभा और राज्य के सुख को प्राप्त कर देते हैं। (प्रतिलामीति॰) फिर प्रजा का नाम 'गभ' अर्थात् ऐश्वर्य की देनेवाली और राज्य का नाम 'मुष्टि' है। क्योंकि राजा अपनी प्रजा के पदार्थों को मुष्टि से ऐसे हर लेता है, कि जैसे कोई बल करके किसी दूसरे के पदार्थ को अपना बना लेवे। वैसे ही जहां अकेला मनुष्य राजा होता है, वहां वह पक्षपात से अपने सुख के लिए जो जो प्रजा की श्रेष्ठ सुख देनेवाली लक्ष्मी है, उस को ले लेता है, अर्थात् वह राजा अपने राजकर्म में प्रवृत्त होके प्रजा को पीड़ा देनेवाला होता है। इसलिए एक को राजा कभी मानना न चाहिए। किन्तु सब लोगों को उचित है कि अध्यक्ष सहित सभा की आज्ञा ही में रहना चाहिए। इस अर्थ से भी महीधर का अर्थ अत्यन्त विरुद्ध है॥
ऊर्ध्वमेनामुच्छ्रापय गिरौ भारं हरन्निव।
अथास्यै मध्यमेधतां शीते वाते पुनन्निव॥6॥
- य॰ अ॰ 23। 26॥
महीधरस्यार्थः - यथा अस्यै अस्या वा वाताया मध्यमेधतां योनिप्रदेशो वृद्धिं यायात् यथा योनिर्विशाला भवति , तथा मध्ये गृहीत्वोच्छ्रापयेत्यर्थः। दृष्टान्तान्तरमाह - यथा शीतले वायौ वाति पुनन्धान्यपवनं कुर्वाणः कृषीवलो धान्यपात्रं ऊर्ध्वं करोति तथेत्यर्थः॥
यदस्या अंहु भेद्याः कृधु स्थूलमुपातसत्।
मुष्काविदस्या एजतो गोशफे शकुलाविव॥
- य॰ अ॰ 23। मं॰ 28॥
यत् यदा अस्याः परिवृक्तायाः कृधु ह्रस्वं च शिश्नमुपातसत् उपगच्छत् , योनिं प्रति गच्छेत् , तंस उपक्षये , तदा मुष्कौ वृषणौ इत् एव अस्याः योनेरुपरि एजतः कम्पेते। लिङ्गस्य स्थूलत्वाद्योनेरल्पत्वाद् वृषणौ बहिस्तिष्ठत इत्यर्थः। तत्र दृष्टान्तः - गोः शफे जलपूर्णे गोखुरे शकुलौ मत्स्याविव , यथा उदकपूर्णे गोः पदे मत्स्यौ कम्पेते ' ॥7॥
भाषार्थ - महीधर का अर्थ-पुरुष लोग स्त्री की योनि को दोनों हाथ से खैंच के बढ़ा लेवें। (यदस्या अंहु॰) परिवृक्ता अर्थात् जिस स्त्री का वीर्य निकल जाता है, जब छोटा वा बड़ा लिङ्ग उस की योनि में डाला जाता है, तब योनि के ऊपर दोनों अण्डकोश नाचा करते हैं, क्योंकि योनि छोटी और लिङ्ग बड़ा होता है। इस में महीधर दृष्टान्त देता है कि-जैसे गाय के खुर के बने हुए गढ़े के जल में दो मच्छी नाचें तथा जैसे खेती करनेवाला मनुष्य अन्न और भुस अलग अलग करने के लिए चलते वायु में एक पात्र में भर के ऊपर को उठा के कंपाया करता है, वैसे ही योनि के ऊपर अण्डकोश नाचा करते हैं॥
अथ सत्योऽर्थः - ऊर्ध्वमेनामुच्छ्रापयेति। श्रीर्वै राष्ट्रमश्वमेधः श्रियमेवास्मै राष्ट्रमूर्ध्वमुछ्रयति। गिरौ भारंहरन्निवेति। श्रीर्वै राष्ट्रस्य भारः , श्रियमेवास्मै राष्ट्रं संनह्यत्यथो श्रियमेवास्मिन् राष्ट्रमधिनिदधाति॥ अथास्यै मध्यमेधतामिति। श्रीर्वै राष्ट्रस्य मध्यं श्रियमेव राष्ट्रे मध्यतोऽन्नाद्यं दधाति॥ शीते वाते पुनन्निवेति। क्षेमो वै राष्ट्रस्य शीतं क्षेममेवास्मै करोति॥
- शं॰ कां॰ 13। अ॰ 2। ब्रा॰ 3। कं॰ 1। 2॥
भाष्यम् - ( ऊर्ध्वमेना॰) हे नर! त्वं श्रीर्वै राष्ट्रमश्वमेधो यज्ञश्चास्मै राष्ट्राय श्रियमुच्छ्रापय , सेव्यामुत्कृष्टां कुरु। एवं सभया राज्यपालने कृते राष्ट्रं राज्यमूर्ध्वं सर्वोत्कृष्टगुणमुच्छ्रयितुं शक्यम्।
(गिरौ भारं हर॰) कस्मिन्किमिव , गिरिशिखरे प्राप्त्यर्थं भारवद्वस्तूपस्थापयन्निव। कोऽस्ति राष्ट्रस्य भार , इत्यत्राह -' श्रीर्वै राष्ट्रस्य भार ' इति। सभाव्यवस्थयास्मै राष्ट्राय श्रियं सन्नह्य सम्बध्य राष्ट्रमनुत्तमं कुर्य्यात्। अथो इत्यनन्तरमेव कुर्वन् जनोऽस्मिन्संसारे राष्ट्रं श्रीयुक्तमधिनिदधाति सर्वोपरि नित्यं धारयतीत्यर्थः। (अथास्यै॰) किमस्य राष्ट्रस्य मध्यमित्याकांक्षायामुच्यते -' श्रीर्वै राष्ट्रस्य मध्यं तस्मादिमां पूर्वोक्तां श्रियमन्नाद्यं भोक्तव्यं वस्तु च राष्ट्रे राज्ये महतो राज्यस्याऽऽभ्यन्तरे दधाति , सुसभया सर्वां प्रजां सुभोगयुक्तां करोति। कस्मिन् किं कुर्वन्निव , शीते वाते पुनन्निवेति राष्ट्रस्य क्षेमो रक्षणं शीतं भवत्यस्मै राष्ट्राय क्षेमं सुसभया रक्षणं कुर्य्यात्। अस्मादपि सत्यादर्थान् महीधरस्य व्याख्यानमत्यन्तं विरुद्धमस्तीति॥
भाषार्थ - श्री नाम विद्या और धन का तथा राष्ट्रपालन का नाम 'अश्वमेध' है। ये ही श्री और राज्य की उन्नति कराते हैं। (गिरौ भारंहरन्निव) राज्य का भार श्री है, क्योंकि इसी से राज्य की वृद्धि होती है। इसलिये राज्य में विद्या और धन की अच्छी प्रकार वृद्धि होने के अर्थ उस का भार अर्थात् प्रबन्ध श्रेष्ठ पुरुषों की सभा के ऊपर धरना चाहिए कि (अथास्यै॰) श्री राज्य का आधार और वही राज्य में शोभा को धारण करके उत्तम पदार्थों को प्राप्त कर देती है। इस में दृष्टान्त यह है कि-(शीते वाते॰) अर्थात् राज्य की रक्षा करने का नाम 'शीत' है, क्योंकि जब सभा से राज्य की रक्षा होती है, तभी उसकी उन्नति होती है।
प्र॰ - राज्य का भार कौन है? उ॰ - (श्रीर्वै राष्ट्रस्य भारः॰) श्री, क्योंकि वही धन के भार से युक्त करके राज्य को उत्तमता को पहुंचाती है। (अथो॰) इस के अनन्तर उक्त प्रकार से राज्य करते हुए पुरुष देश अथवा संसार में श्रीयुक्त राज्य के प्रबन्ध को सब में स्थापन कर देते हैं। (अथास्यै॰) प्र॰- उस राज्य का मध्य क्या है? उ॰- प्रजा की ठीक ठीक रक्षा, अर्थात् उस का नियमपूर्वक पालन करना, यही उस की रक्षा में मध्यस्थ है। गिरौ भारं हरन्निव) जैसे कोई मनुष्य बोझ उठाके पर्वत पर ले जाता है, वैसे ही सभा भी राज्य को उत्तम सुख को प्राप्त कर देती है॥
यद्देवासो ललामगुं प्रविष्टीमिनमाविषुः।
सक्थ्ना देदिश्यते नारी सत्यस्याक्षि भुवो यथा॥8॥
- य॰ अ॰ 23। मं॰ 29॥
महीधरस्यार्थः - ( यत्) यदा (देवासः) देवाः दीव्यन्ति क्रीडन्ति देवाः होत्रादयः ऋत्विजो , ( ललामगुं) लिङ्गं (प्र आविशुः) योनौ प्रवेशयन्ति , ललामेति सुखनाम , ललाम सुखं गच्छति प्राप्नोति ललामगुः शिश्नः , यद्वा ललामपुण्ड्रं गच्छति ललामगुः लिङ्गं , योनिं प्रविशदुथितं पुण्ड्राकारं भवतीत्यर्थः। कीदृशं ललामगुं (विष्टीमिनं) शिश्नस्य योनिप्रदेशे क्लेदनं भवतीत्यर्थः।
यदा देवाः शिश्नक्रीडिनो भवन्ति ललामगुं योनौ प्रवेशयन्ति , तदा नारी (सक्थ्ना) ऊरुणा ऊरुभ्यां (देदिश्यते) निर्दिश्यते अत्यन्तं लक्ष्यते। भोगसमये सर्वस्य नार्य्यग्स्य नरेण व्याप्तत्वादूरुमात्रं लक्ष्यते इयं नारीतीत्यर्थः॥8॥
भाषार्थ - महीधर का अर्थ- (यद्देवासो॰) जब तक यज्ञशाला में ऋत्विज लोग ऐसा हंसते और अण्डकोश नाचा करते हैं, तब तक घोड़े का लिङ्ग महिषी की योनि में काम करता है, और उन ऋत्विजों के भी लिङ्ग स्त्रियों की योनि में प्रवेश करते हैं, और जब लिङ्ग खड़ा होता है, तब कमल के समान हो जाता। जब स्त्री पुरुष का समागम होता है, तब पुरुष ऊपर और स्त्री नीचे होने से थक जाती है।
अथ सत्योऽर्थः -( यद्देवासो॰) यथा देवा विद्वांसः प्रत्यक्षोद्भवस्य सत्यज्ञानस्य प्राप्तिं कृत्वेमं (विष्टीमिनं) विविधतया आर्द्रीभावगुणवन्तं (ललामगुं) सुखप्रापकं विद्यानन्दं (प्राविशुः) प्रकृष्टतया समन्ताद्व्याप्नुवन्ति , तथैव तैस्तेन सह वर्त्तमानेयं प्रजा देदिश्यते। यथा नारी वस्त्रैराच्छाद्यमानेन सक्थ्ना वर्त्तते , तथैव विद्वद्भिः सुखैरियं प्रजा सम्यगाच्छादनीयेति॥
भाषार्थ - जैसे विद्वान् लोग प्रत्यक्ष ज्ञान को प्राप्त होके जिस शुभगुणयुक्त सुखदायक विद्या के आनन्द में प्रवेश करते हैं, वैसे ही उसी आनन्द से प्रजा को भी युक्त करते हैं। विद्वान् लोगों को चाहिये कि जैसे स्त्री अपने जङ्घा आदि अङ्गों को वस्त्रों से सदा ढांप रखती है, इसी प्रकार अपने सत्योपदेश, विद्या धर्म और सुखों से प्रजा को सदा आच्छादित करें।
यद्धरिणो यवमत्ति न पुष्टं पशु मन्यते।
शूद्रा यदर्य्यजारा न पोषाय धनायति॥
- य॰ अ॰ 23। मं॰ 30॥
भाष्यम् - महीधरस्यार्थः - क्षत्ता पालागलीमाह - शूद्रा शूद्रजातिः स्त्री यदा अर्य्यजारा भवति , वैश्यो यदा शूद्रां गच्छति , तदा शूद्रः पोषाय न धनायते , पुष्टिं न इच्छति , मद्भार्या वैश्येन भुक्ता सती पुष्टा जातेति न मन्यते , किन्तु व्यभिचारिणी जातेति दुःखितो भवतीत्यर्थः। (यद्धरिणो॰) पालागलीक्षत्तारमाह - यत् यदा शूद्रः अर्य्यायै अर्य्याया वैश्याया जारो भवति , तदा वैश्यः पोषं पुष्टिं नानुमन्यते , मम स्त्री पुष्टा जातेति नानुमन्यते , किन्तु शूद्रेण नीचेन भुक्तेति क्लिश्यतीत्यर्थः॥
भाषार्थ - महीधर का अर्थ-(यद्धरिणो॰) क्षत्ता सेवकपुरुष शूद्रदासी से कहता है कि-जब शूद्र की स्त्री के साथ वैश्य व्यभिचार कर लेता है, तब वह इस बात को नहीं विचारता कि मेरी स्त्री वैश्य के साथ व्यभिचार करने से पुष्ट हो गई, किन्तु वह इस बात को विचार के दुःख मानता है कि मेरी स्त्री व्यभिचारिणी हो गई। (यद्धरिणो॰) अब वह दासी क्षत्ता को उत्तर देती है कि-जब शूद्र वैश्य की स्त्री के साथ व्यभिचार कर लेता है, तब वैश्य भी इस बात का अनुमान नहीं करता कि मेरी स्त्री पुष्ट हो गई, किन्तु नीच ने समागम कर लिया, इस बात को विचार के क्लेश मानता है।
अथ सत्योऽर्थः - यद्धरिणो यवमत्तीति। विड् वै यवो राष्ट्रं हरिणो विशमेव राष्ट्रयाद्यां करोति तस्माद्राष्ट्री विशमत्ति। न पुष्टं पशु मन्यत इति। तस्माद्राजा पशून्न पुष्यति। शूद्रा यदर्य्यजारा न पोषाय धनायतीति। तस्माद्वैशीपुत्रं नाभिषिञ्चति॥
- श॰ कां॰ 13। अ॰ 2। ब्रा॰ 3। कं॰ 8॥
भाष्यम् - ( यद्धरिणो॰) विट् प्रजेव यवोऽस्ति। राज्यसम्बन्ध्येको राजा हरिण इव उत्तमपदार्थहर्त्ता भवति। यथा मृगः क्षेत्रस्थं सस्यं भुक्त्वा प्रसन्नो भवति , तथैवैको राजापि नित्यं स्वकीयमेव सुखमिच्छति। अतः स राष्ट्राय स्वसुखप्रयोजनाय विशं प्रजामाद्यां भक्ष्यामिव करोति। यथा मांसाहारी पुष्टं पशुं दृष्ट्वा तन्मांसभक्षणेच्छां करोति , नैव स पुष्टं पशुं वर्धयितुं जीवितुं वा मन्यते , तथैव स्वसुखसम्पादनाय प्रजायां कश्चिन् मत्तोऽधिको न भवेदितीच्छा सदैव रक्षति। तस्मादेको राजा प्रजां न पुष्यति नैव रक्षयितुं समर्थो भवतीति। यथा च यदा शूद्रा अर्य्यजारा भवति , तदा न स शूद्रः पोषाय धनायति , पुष्टो न भवति तथैको राजापि प्रजां यदा न पुष्यति तदा सा नैव पोषाय धनायति , पुष्टा न भवति। तस्मात्कारणाद्वैशीपुत्रं भीरुं शूद्रीपुत्रं मूर्खं च नाभिषिञ्चति नैवैतं राज्याधिकारे स्थापयतीत्यर्थः। अस्माच्छतपथ-ब्राह्मणोक्तादर्थान्महीधर - कृतोऽर्थोऽतीव विरुद्धोऽस्ति॥
भाषार्थ - (यद्धरिणो॰) यहां प्रजा का यव और राष्ट्र का नाम हरिण है, क्योंकि जैसे मृग, पशु पराये खेत में जवों को खाकर आनन्दित होते हैं, वैसे ही स्वतन्त्र एक पुरुष राजा होने से प्रजा के उत्तम पदार्थों को ग्रहण कर लेता है। अथवा (न पुष्टं पशु मन्यत॰) जैसे मांसाहारी मनुष्य पुष्ट पशु को मार के उस का मांस खा जाता है, वैसे ही एक मनुष्य राजा होके प्रजा का नाश करनेहारा होता है। क्योंकि वह सदा अपनी ही उन्नति चाहता रहता है। और शूद्र तथा वैश्य का अभिषेक करने से व्यभिचार और प्रजा का धनहरण अधिक होता है। इसलिए किसी एक मूर्ख वा लोभी को भी सभाध्यक्षादि उत्तम अधिकार न देना चाहिए। इस सत्य अर्थ से महीधर उलटा ही चला है॥
उत्सक्थ्या अव गुदं धेहि समञ्जिं चारया वृषन्।
यस्त्रीणां जीवभोजनः॥
- य॰ अ॰ 23। मं॰ 21॥
महीधरस्यार्थः - यजमानोऽश्वमभिमन्त्रयते। हे वृषन्! सेक्तः अश्व! उत् उर्ध्वं सक्थिनी ऊरू यस्यास्तस्या महिष्या , गुदमव गुदोपरि रेतो धेहि , वीर्य्यं धारय। कथम् ?, तदाह अञ्जिं लिङ्गं सञ्चारय योनौ प्रवेशय योऽञ्जिः स्त्रीणां जीवभोजनः। यस्मिन् लिङ्गे योनौ प्रविष्टे स्त्रियो जीवन्ति भोगांश्च लभन्ते तं प्रवेशय।
भाषार्थ - (उत्सक्थ्या॰) इस मन्त्र पर महीधर ने टीका की है कि-यजमान घोड़े से कहता है, हे वीर्य के सेचन करनेवाले अश्व! तू मेरी स्त्री के जंघा ऊपर को करके उस की गुदा के ऊपर वीर्य डाल दे, अर्थात् उस की योनि में लिङ्ग चला दे। वह लिङ्ग किस प्रकार का है, कि जिस समय योनि में जाता है, उस समय उसी लिङ्ग से स्त्रियों का जीवन होता है, और उसी से वे भोग को प्राप्त होती हैं। इस से तू उस लिङ्ग को मेरी स्त्री के योनि में डाल दे॥
अथ सत्योऽर्थः - ( उत्सक्थ्या॰) हे वृषन् सर्वकामानां वर्षयितः प्रापक ससभाध्यक्षविद्वन्! त्वमस्यां प्रजायामञ्जिं ज्ञानसुखन्यायप्रकाशं सञ्चारय सम्यक् प्रकाशय। (यः स्त्रीणां जीवभोजनः) कामुकः सन् नाशमाचरति तं त्वमवगुदमधःशिरसं कृत्वा ताडयित्वा कालग्रहे धेहि। यथा स्त्रीणां मध्ये या काचित् उत्सक्थी व्यभिचारिणी स्त्री भवति , तस्यै सम्यग्दण्डं ददाति , तथैव त्वं तं जीवभोजनं परप्राणनाशकं दुष्टं दस्युं दण्डेन समुच्चारय॥
भाषार्थ - (उत्सक्थ्या॰) परमेश्वर कहता है कि हे कामना की वृष्टि करनेवाले उस को प्राप्त करानेवाले सभाध्यक्षसहित विद्वान् लोगो! तुम सब एक सम्मति होकर इस प्रजा में ज्ञान को बढ़ाके न्यायपूर्वक सब को सुख दिया करो। तथा जो कोई दुष्ट (जीवभोजनः) स्त्रियों में व्यभिचार करनेवाला, चोरों में चोर, ठगों में ठग, डाकुओं में डाकू प्रसिद्ध दूसरों को बुरे काम सिखाने वाला इत्यादि दोषयुक्त पुरुष तथा व्यभिचार आदि दोषयुक्त स्त्री को ऊपर पग और नीचे शिर करके उस को टांग देना, इत्यादि अत्यन्त दुर्दशा करके मार डालना चाहिए, क्योंकि इससे अत्यन्त सुख का लाभ प्रजा में होगा।
एतावतैव खण्डनेन महीधरकृतस्य ' वेददीपा ' ख्यस्य खण्डनं सर्वैर्जनैर्बोद्धव्यमिति। यदा मन्त्रभाष्यं मया विधास्यते , तत्रास्य महीधरकृतस्य भाष्यस्यान्येऽपि दोषाः प्रकाशयिष्यन्ते। यदि ह्यार्य्यदेशनिवासिनां सायणमहीधरप्रभृतीनां व्याख्यास्वेतादृशी मिथ्यागतिरस्ति , तर्हि यूरोपखण्ड- निवासिनामेतदनुसारेण स्वदेशभाषया वेदार्थव्याख्यानानामनर्थगतेस्तु का कथा। एवं जाते सति ह्येतदाश्रयेण देशभाषया यूरोपदेशभाषया कृतस्य व्याख्यानस्याशुद्धेस्तु खलु का गणनास्ति , इति सज्जनैर्विचारणीयम्।
नैवैतेषां व्याख्यानानामाश्रयं कर्तुमार्य्याणां लेशमात्रापि योग्यता दृश्यते। यदाश्रयेण वेदानां सत्यार्थस्य हानिरनर्थप्रकाशश्च। तस्मात्तद्व्याख्यानेषु सत्या बुद्धिः केनापि नैव कर्त्तव्या। किन्तु वेदाः सर्वविद्याभिः पूर्णाः सन्ति , नैव किञ्चित्तेषु मिथ्यात्वमस्ति। तदेतच्च सर्वे मनुष्यास्तदा ज्ञास्यन्ति , यदा चतुर्णां वेदानां निर्मितं भाष्यं यन्त्रितं च भूत्वा सर्वबुद्धिमतां ज्ञानगोचरं भविष्यति। एवं जाते खलु नैव परमेश्वरकृतया वेदविद्यया तुल्या द्वितीया विद्याऽस्तीति सर्वे विज्ञास्यन्तीति बोध्यम्।
आगे कहां तक लिखें, इतने ही से सज्जन पुरुष अर्थ और अनर्थ की परीक्षा कर लेवें। परन्तु मन्त्रभाष्य में महीधर आदि के और भी दोष प्रकाश किये जायेंगे, और जब इन्हीं लोगों के व्याख्यान अशुद्ध हैं, तब योरोपखण्डवासी लोगों ने जो उन्हीं की सहायता लेकर अपनी देशभाषा में वेदों के व्याख्यान किये हैं, उन के अनर्थ का तो क्या ही कहना है? तथा जिन्होंने उन्हीं के अनुसारी व्याख्यान किये हैं? इन विरुद्ध व्याख्यानों से कुछ लाभ तो नहीं देख पड़ता, किन्तु वेदों के सत्य अर्थ की हानि प्रत्यक्ष ही होती है।
परन्तु जिस समय चारों वेदों का भाष्य बन और छपकर सब बुद्धिमानों के ज्ञानगोचर होगा, तब सब किसी को उत्तम विद्या पुस्तक वेद का परमेश्वर रचित होना भूगोलभर में विदित हो जावेगा, और यह भी प्रकट हो जावेगा कि ईश्वरकृत सत्य पुस्तक वेद ही है। वा कोई दूसरा भी हो सकता है।
ऐसा निश्चय जान के सब मनुष्यों की वेदों में परमप्रीति होगी। इत्यादि अनेक उत्तम प्रयोजन इस वेदभाष्य के बनाने में जान लेना।
॥ इति भाष्यकरणशङ्कासमाधानविषयः समाप्तः॥28॥