ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (दयानन्दसरस्वतीविरचिता)/२३. वर्णाश्रमविषयः

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अथ वर्णाश्रमविषयः संक्षेपतः[सम्पाद्यताम्]

तत्र वर्णविषयो मन्त्रो ' ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् ' इत्युक्तस्तदर्थश्च। तस्यायं शेषः -

वर्णो वृणोतेः॥1॥

-निरु॰ अ॰ 2। खं॰ 3॥

ब्रह्म हि ब्राह्मणः। क्षत्रं हीन्द्रः क्षत्रं राजन्यः॥2॥

-श॰ कां॰ 5। अ॰ 1। ब्रा॰ 1॥

बाहू वै मित्रावरुणौ पुरुषो गर्तः वीर्यं वा

एतद्राजन्यस्य यद्बाहू वीर्यं वा एतदपां रसः॥

-श॰ कां॰ 5। अ॰ 4। ब्रा॰ 3॥

इषवो वै दिद्यवः॥3॥

-श॰ कां॰ 5। अ॰ 4। ब्रा॰ 4॥

भाष्यम् - वर्णो वृणोतेरिति निरुक्तप्रामाण्याद्वरणीया वरीतुमर्हा , गुणकर्माणि च दृष्ट्वा यथायोग्यं व्रियन्ते ये ते वर्णाः॥1॥

(ब्रह्म हि ब्राह्मणः) ब्रह्मणा वेदेन परमेश्वरस्योपासनेन च सह वर्त्तमानो विद्याद्युत्तमगुणयुक्तः पुरुषो ब्राह्मणो भवितुमर्हति। तथैव (क्षत्रं हीन्द्रः) क्षत्रं क्षत्रियकुलम् , यः पुरुषः इन्द्रः परमैश्वर्यवान् शत्रूणां क्षयकरणाद्युद्धोत्सुकत्वाच्च प्रजापालनतत्परः , ( राजन्यः) क्षत्रियो भवितुमर्हति॥2॥

(मित्रः) सर्वेभ्यः सुखदाता , ( वरुणः) उत्तमगुणकर्मधारणेन श्रेष्ठः इमावेव क्षत्रियस्य द्वौ बाहुवद् भवेताम्। (वा) अथवा (वीर्यं) पराक्रमो बलं चैतदुभयं (राजन्यस्य) क्षत्रियस्य बाहू भवतः। (अपां) प्राणानां , यो (रसः) आनन्दस्तं प्रजाभ्यः प्रयच्छतः क्षत्रियस्य वीर्य्यं वर्धते। तस्य (इषवः) बाणाः , शस्त्रास्त्राणामुपलक्षणमेतत् , ( दिद्यवः) प्रकाशकाः सदा भवेयुः॥3॥

भाषार्थ - अब वर्णाश्रमविषय लिखा जाता है। इस में यह विशेष जानना चाहिए कि प्रथम मनुष्य जाति सब की एक है, सो भी वेदों से सिद्ध है, इस विषय का प्रमाण सृष्टिविषय में लिख दिया है। तथा 'ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्' यह मन्त्र सृष्टिविषय में लिख चुके हैं, वर्णों के प्रतिपादन करने वाले वेदमन्त्रों की जो व्याख्या ब्राह्मण और निरुक्तादि ग्रन्थों में लिखी है, वह कुछ यहां भी लिखते हैं-

मनुष्य जाति के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये वर्ण कहाते हैं। वेदरीति से इन के दो भेद हैं-एक आर्य्य और दूसरा दस्यु। इस विषय में यह प्रमाण है कि 'विजानीह्यार्य्यान्ये च दस्यवो॰' अर्थात् इस मन्त्र से परमेश्वर उपदेश करता है, कि हे जीव! तू आर्य अर्थात् श्रेष्ठ दस्यु अर्थात् दुष्टस्वभावयुक्त डाकू आदि नामों से प्रसिद्ध मनुष्यों के ये दो भेद जान ले। तथा 'उत शूद्रे उत आर्ये' इस मन्त्र से भी आर्य ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और अनार्य अर्थात् अनाड़ी जो कि शूद्र कहाते हैं, ये दो भेद जाने गये हैं। तथा 'असुर्या नाम ते लोका॰' इस मन्त्र से भी देव और असुर अर्थात् विद्वान् और मूर्ख ये दो ही भेद जाने जाते हैं। और इन्हीं दोनों के विरोध को देवासुर संग्राम कहते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार भेद गुण कर्मों से किये गये हैं।

(वर्णो॰) इन का नाम वर्ण इसलिए है कि जैसे जिस के गुण कर्म हों, वैसा ही उस को अधिकार देना चाहिए। (ब्रह्म हि ब्रा॰) ब्रह्म अर्थात् उत्तम कर्म करने से उत्तम विद्वान् ब्राह्मण वर्ण होता है। (क्षत्रं हि॰) परम ऐश्वर्य (बाहू॰) बल वीर्य के होने से मनुष्य क्षत्रिय वर्ण होता है, जैसा कि राजधर्म में लिख आये हैं॥1-3॥

आश्रमा अपि चत्वारः सन्ति - ब्रह्मचर्य-गृहस्थ-वानप्रस्थ-संन्यासभेदात्। ब्रह्मचर्येण सद्विद्या शिक्षा च ग्राह्या। गृहाश्रमेणोत्तमाचरणानां श्रेष्ठानां पदार्थानां चोन्नतिः कार्या। वानप्रस्थेनैकान्तसेवनं ब्रह्मोपासनं विद्याफलविचारणादि च कार्यम्। संन्यासेन परब्रह्ममोक्ष-परमानन्दप्रापणं क्रियते , सदुपदेशेन सर्वस्मा आनन्ददानं चेत्यादि , चतुर्भिराश्रमैर्धर्मार्थ-काममोक्षाणां सम्यक् सिद्धिः सम्पादनीया।

एतेषां मुख्यतया ब्रह्मचर्येण सद्विद्यासुशिक्षादयः शुभगुणाः सम्यग्ग्राह्याः।

अत्र ब्रह्मचर्याश्रमे प्रमाणम् -

आचार्य उपनयमानो

ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः।

तं रात्रीस्तिस्र उदरे बिभर्त्ति

तं जातं द्रष्टुमभि संयन्ति देवाः॥1॥

इयं समित्पृथिवी द्यौर्द्वितीयो-

तान्तरिक्षं समिधा पृणाति।

ब्रह्मचारी समिधा मेखलया

श्रमेण लोकांस्तपसा पिपर्त्ति॥2॥

पूर्वो जातो ब्रह्मणो ब्रह्मचारी

घर्मं वसानस्तपसोदतिष्ठत्।

तस्माज्जातं ब्राह्मणं ब्रह्म

ज्येष्ठं देवाश्च सर्वे अमृतेन साकम्॥3॥

-अथर्व॰ कां॰ 11। अनु॰ 3। व॰ 5। मं॰ 3। 4। 5॥

भाष्यम् - ( आचार्य उ॰) आचार्यो विद्याध्यापको ब्रह्मचारिणमुपनयमानो विद्यापठनार्थमुपवीतं दृढव्रतमुपदिशन्नन्तर्गर्भमिव कृणुते करोति। तं तिस्रो रात्रीस्त्रिदिनपर्य्यन्तमुदरे बिभर्ति , अर्थात् सर्वां शिक्षां करोति , पठनस्य च रीतिमुपदिशति। यदा विद्यायुक्तो विद्वान् जायते , तदा तं विद्यासु जातं प्रादुर्भूतं देवा विद्वांसो द्रष्टुमभिसंयन्ति प्रसन्नतया मान्यं कुर्वन्ति। अस्माकं मध्ये महाभाग्योदयेनेश्वरानुग्रहेण च सर्वमनुष्योपकारार्थं त्वं विद्वान् जात इति प्रशंसन्ति॥1॥

(इयं समित्॰) इयं पृथिवी द्यौः प्रकाशोऽन्तरिक्षं चानया समिधा स ब्रह्मचारी पृणाति , तत्रस्थान् सर्वान् प्राणिनो विद्यया होमेन च प्रसन्नान् करोति। (समिधा) अग्निहोत्रादिना (मेखलया) ब्रह्मचर्य्यचिह्नधारणेन च (श्रमेण) परिश्रमेण , ( तपसा) धर्मानुष्ठानेनाध्यापनेनोपदेशेन च (लोकां॰) सर्वान् प्राणिनः पिपर्त्ति पुष्टान् प्रसन्नान् करोति॥2॥

(पूर्वो जातो ब्रह्म॰) ब्रह्मणि वेदे चरितुं शीलं यस्य स ब्रह्मचारी , ( घर्मं वसानः) अत्यन्तं तपश्चरन् ब्राह्मणोऽर्थाद्वेदं परमेश्वरं च विदन् , पूर्वः सर्वेषामाश्रमाणामादिमः सर्वाश्रमभूषकः , ( तपसा) धर्मानुष्ठानेन (उदतिष्ठत्) ऊर्ध्वे उत्कृष्टबोधे व्यवहारे च तिष्ठति। तस्माकारणात् (ब्रह्म ज्येष्ठं) ब्रह्मैव परमेश्वरो विद्या वा ज्येष्ठा सर्वोत्कृष्टा यस्य तं ब्रह्मज्येष्ठम् , ( अमृतेन) परमेश्वरमोक्षबोधेन परमानन्देन साकं सह वर्त्तमानं (ब्राह्मणं) ब्रह्मविदं (जातं) प्रसिद्धं (देवाः) सर्वे विद्वांसः प्रशंसन्ति॥3॥

भाषार्थ - अब आगे चार आश्रमों का वर्णन किया जाता है। ब्रह्मचर्य्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास ये चार आश्रम कहाते हैं। इन में से पांच वा आठ वर्ष की उमर से अड़तालीस वर्ष पर्य्यन्त प्रथम ब्रह्मचर्याश्रम का समय है। इसके विभाग पितृयज्ञ में कहेंगे। वह सुशिक्षा और सत्यविद्यादि गुण ग्रहण करने के लिये होता है। दूसरा गृहाश्रम जो कि उत्तम गुणों के प्रचार और श्रेष्ठ पदार्थों की उन्नति से सन्तानों की उत्पत्ति और उन को सुशिक्षित करने के लिए किया जाता है। तीसरा वानप्रस्थ जिस से ब्रह्मविद्यादि साक्षात् साधन करने के लिए एकान्त में परमेश्वर का सेवन किया जाता है। चौथा संन्यास जो कि परमेश्वर अर्थात् मोक्षसुख की प्राप्ति और सत्योपदेश से सब संसार के उपकार के अर्थ किया जाता है।

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पदार्थों की प्राप्ति के लिए इन चार आश्रमों का सेवन करना सब मनुष्यों को उचित है। इनमें से प्रथम ब्रह्मचर्य्याश्रम जो कि सब आश्रमों का मूल है, उस के ठीक-ठीक सुधरने से सब आश्रम सुगम और बिगड़ने से नष्ट हो जाते हैं। इस आश्रम के विषय में वेदों के अनेक प्रमाण हैं, उन में से कुछ यहां भी लिखते हैं-

(आचार्य्य उ॰) अर्थात् जो गर्भ में बस के माता और पिता के सम्बन्ध से मनुष्य का जन्म होता है, वह प्रथम जन्म कहाता है। और दूसरा यह है कि जिस में आचार्य्य पिता और विद्या माता होती है, इस दूसरे जन्म के न होने से मनुष्य को मनुष्यपन नहीं प्राप्त होता। इसलिये उस को प्राप्त होना मनुष्यों को अवश्य चाहिए। जब आठवें वर्ष पाठशाला में जाकर आचार्य्य अर्थात् विद्या पढ़ानेवाले के समीप रहते हैं, तभी से उन का नाम ब्रह्मचारी व ब्रह्मचारिणी हो जाता है। क्योंकि वे ब्रह्म वेद और परमेश्वर के विचार में तत्पर होते हैं। उन को आचार्य्य तीन रात्रिपर्य्यन्त गर्भ में रखता है। अर्थात् ईश्वर की उपासना, धर्म, परस्पर विद्या के पढ़ने और विचारने की युक्ति आदि जो मुख्य-मुख्य बातें हैं, वे सब तीन दिन में उन को सिखाई जाती हैं। तीन दिन के उपरान्त उन को देखने के लिये अध्यापक अर्थात् विद्वान् लोग आते हैं॥1॥

(इयं समित्॰) फिर उस दिन होम करके उन को प्रतिज्ञा कराते हैं, कि जो ब्रह्मचारी पृथिवी, सूर्य्य और अन्तरिक्ष इन तीनों प्रकार की विद्याओं को पालन और पूर्ण करने की इच्छा करता है, सो इन समिधाओं से पुरुषार्थ करके सब लोकों को धर्मानुष्ठान से पूर्ण आनन्दित कर देता है॥2॥

(पूर्वो जातो ब्र॰) जो ब्रह्मचारी पूर्व पढ़ के ब्राह्मण होता है, वह धर्मानुष्ठान से अत्यन्त पुरुषार्थी होकर सब मनुष्यों का कल्याण करता है (ब्रह्म ज्येष्ठं॰) फिर उस पूर्ण विद्वान् ब्राह्मण को, जो कि अमृत अर्थात् परमेश्वर की पूर्ण भक्ति और धर्मानुष्ठान से युक्त होता है, देखने के लिए सब विद्वान् आते हैं॥3॥

ब्रह्मचार्येति समिधा समिद्धः

कार्ष्णं वसानो दीक्षितो दीर्घश्मश्रुः।

स सद्य एति पूर्वस्मादुत्तरं

समुद्रं लोकान्त्संगृभ्य मुहुराचरिक्रत्॥4॥

ब्रह्मचारी जनयन् ब्रह्मापो

लोकं प्रजापतिं परमेष्ठिनं विराजम्।

गर्भो भूत्वामृतस्य योनाविन्द्रो

ह भूत्वाऽसुरांस्ततर्ह॥5॥

ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्रं वि रक्षति।

आचार्यो ब्रह्मचर्य्येण ब्रह्मचारिणमिच्छते॥6॥

ब्रह्मचर्य्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम्।

अनड्वान् ब्रह्मचर्य्येणाश्वो घासं जिगीषति॥7॥

ब्रह्मचर्य्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत।

इन्द्रो ह ब्रह्मचर्य्येण देवेभ्यः स्वराभरत्॥8॥

-अथर्व॰ कां॰ 11। अनु॰ 3। मं॰ 6 , 7 , 17 , 18 , 19॥

भाष्यम् - ( ब्रह्मचार्य्येति॰) स ब्रह्मचारी पूर्वोक्तया (समिधा) विद्यया (समिद्धः) प्रकाशितः , (कार्ष्णं) मृगचर्मादिकं (वसानः) आच्छादयन् , ( दीर्घश्मश्रुः) दीर्घकालपर्य्यन्तं केशश्मश्रूणि धारितानि येन सः , ( दीक्षितः) प्राप्तदीक्षः (एति) परमानन्दं प्राप्नोति। तथा (पूर्वस्मात्) ब्रह्मचर्य्यानुष्ठानभूतात् समुद्रात् (उत्तरं) गृहाश्रमं समुद्रं (सद्य एति) शीघ्रं प्राप्नोति। एवं निवासयोग्यान् सर्वान् (लोकान्त्सं॰) संगृह्य मुहुर्वारंवारं (आचरिक्रत्) धर्मोपदेशमेव करोति॥4॥

(ब्रह्मचारी) स ब्रह्मचारी (ब्रह्म) वेदविद्यां पठन् , ( अपः) प्राणान् , ( लोकं) दर्शनं , ( परमेष्ठिनं) प्रजापतिं (विराजं) विविधप्रकाशकं परमेश्वरं (जनयन्) प्रकटयन् , ( अमृतस्य) मोक्षस्य (योनौ) विद्यायां (गर्भो भूत्वा) गर्भवन्नियमेन स्थित्वा यथावद्विद्यां गृहीत्वा , ( इन्द्रो ह भूत्वा) सूर्य्यवत्प्रकाशकः सन् (असुरान्) दुष्टकर्मकारिणो मूर्खान् पाखण्डिनो जनान् दैत्यरक्षः- स्वभावान् (ततर्ह) तिरस्करोति , सर्वान्निवारयति। यथेन्द्रः सूर्य्योऽसुरान्मेघान् रात्रिं च निवारयति , तथैव ब्रह्मचारी सर्वशुभगुणप्रकाशकोऽशुभगुणनाशकश्च भवतीति॥5॥

(ब्रह्मचर्य्येण॰) तपसा ब्रह्मचर्येण कृतेन राजा राष्ट्रं विरक्षति , विशिष्टतया प्रजा रक्षितुं योग्यो भवति। आचार्य्योऽपि कृतेन ब्रह्मचर्य्येणैव विद्यां प्राप्य ब्रह्मचारिणमिच्छते स्वीकुर्यान्नान्यथेति॥6॥

अत्र प्रमाणम् -

आचार्य्यः कस्मादाचारं ग्राहयत्याचिनोत्यर्थानाचिनोति बुद्धिमिति वा॥

-निरु॰ अ॰ 1। खं॰ 4॥

(ब्रह्मचर्य्येण॰) एवमेव कृतेन ब्रह्मचर्य्येणैव कन्या युवतिः सती युवानं स्वसदृशं पतिं विन्दते नान्यथा , न चातः पूर्वमसदृशं वा। अनड्वान् इत्युपलक्षणं वेगवतां पशूनाम्। ते पशवोऽश्वश्च घासं यथा , तथा कृतेन ब्रह्मचर्य्येण स्वविरोधिनः पशून् जिगीषन्ति युद्धेन जेतुमिच्छन्ति। अतो मनुष्यैस्त्ववश्यं ब्रह्मचर्य्यं कर्त्तव्यमित्यभिप्रायः॥7॥

(ब्रह्मचर्य्येण तपसा देवा॰) देवा विद्वांसो , ब्रह्मचर्य्येण वेदाध्ययनेन ब्रह्मविज्ञानेन तपसा धर्मानुष्ठानेन च , मृत्युं जन्ममृत्युप्रभवदुःखमपाघ्नत नित्यं घ्नन्ति नान्यथा। ब्रह्मचर्य्येण सुनियमेन , हेति किलार्थे , यथा इन्द्रः सूर्य्यो देवेभ्य इन्द्रियेभ्यः स्वः सुखं प्रकाशं चाभरद्धारयति , तथा विना ब्रह्मचर्य्येण कस्यापि नैव विद्यासुखं च यथावद्भवति। अतो ब्रह्मचर्य्यानुष्ठानपूर्वका एव गृहाश्रमादयस्त्रय आश्रमाः सुखमेधन्ते। अन्यथा मूलाभावे कुतः शाखाः। किन्तु मूले दृढे शाखापुष्पफलच्छायादयः सिद्धाः भवन्त्येवेति॥8॥

भाषार्थ - (ब्रह्मचार्येति॰) जो ब्रह्मचारी होता है, वही ज्ञान से प्रकाशित तप और बड़े बड़े केश श्मश्रुओं से युक्त दीक्षा को प्राप्त होके विद्या को प्राप्त होता है। तथा जो कि शीघ्र ही विद्या को ग्रहण करके पूर्व समुद्र जो ब्रह्मचर्याश्रम का अनुष्ठान है, उसके पार उतर के उत्तर समुद्रस्वरूप गृहाश्रम को प्राप्त होता है और अच्छी प्रकार विद्या का संग्रह करके विचारपूर्वक अपने उपदेश का सौभाग्य बढ़ाता है॥4॥

(ब्रह्मचारी ज॰) वह ब्रह्मचारी वेदविद्या को यथार्थ जान के प्राणविद्या, लोकविद्या तथा प्रजापति परमेश्वर जो कि सब से बड़ा और सब का प्रकाशक है, उस का जानना, इन विद्याओं में गर्भरूप और इन्द्र अर्थात् ऐश्वर्ययुक्त हो के असुर अर्थात् मूर्खों की अविद्या का छेदन कर देता है॥5॥

(ब्रह्मचर्येण त॰) पूर्ण ब्रह्मचर्य से विद्या पढ़ के और सत्यधर्म के अनुष्ठान से राजा राज्य करने को और आचार्य विद्या पढ़ाने को समर्थ होता है। आचार्य उस को कहते हैं कि जो असत्याचार को छुड़ा के सत्याचार का और अनर्थों को छुड़ा के अर्थों का ग्रहण कराके ज्ञान को बढ़ा देता है॥6॥

(ब्रह्मचर्येण क॰) अर्थात् जब वह कन्या ब्रह्मचर्याश्रम से पूर्ण विद्या पढ़ चुके, तब अपनी युवावस्था में पूर्ण जवान पुरुष को अपना पति करे। इसी प्रकार पुरुष भी सुशील धर्मात्मा स्त्री के साथ प्रसन्नता से विवाह करके दोनों परस्पर सुख दुःख में सहायकारी हों। क्योंकि अनड्वान् अर्थात् पशु भी जो पूरी जवानी पर्यन्त ब्रह्मचर्य अर्थात् सुनियम में रक्खा जाय तो अत्यन्त बलवान् हो के निर्बल जीवों को जीत लेता है॥7॥

(ब्रह्मचर्य्येण त॰) ब्रह्मचर्य्य और धर्मानुष्ठान से ही विद्वान् लोग जन्म मरण को जीत के मोक्षसुख को प्राप्त हो जाते हैं। जैसे इन्द्र अर्थात् सूर्य परमेश्वर के नियम में स्थित हो के सब लोकों का प्रकाश करने वाला हुआ है, वैसे ही मनुष्य का आत्मा ब्रह्मचर्य से प्रकाशित हो के सब को प्रकाशित कर देता है। इस से ब्रह्मचर्याश्रम ही सब आश्रमों से उत्तम है॥

॥इति ब्रह्मचर्य्याश्रमविषयः संक्षेपतः॥

अथ गृहाश्रमविषयः -

यद् ग्रामे यदरण्ये यत्सभायां यदिन्द्रिये ।

यदेनश्चकृमा वयमिदं तदव यजामहे स्वाहा॥9॥

देहि मे ददामि ते नि मे धेहि नि ते दधे।

निहारं च हरासि मे निहारं निहराणि ते स्वाहा॥10॥

गृहा मा बिभीत मा

वेपध्वमूर्जं बिभ्रत एमसि।

ऊर्जं बिभ्रद्वः सुमनाः सुमेधा

गृहानैमि मनसा मोदमानः॥11॥

येषामध्येति प्रवसन् येषु सौमनसो बहुः।

गृहानुपह्वयामहे ते नो जानन्तु जानतः॥12॥

उपहूता इह गाव उपहूता अजावयः।

अथो अन्नस्य कीलाल उपहूतो गृहेषु नः।

क्षेमाय वः शान्त्यै प्रपद्ये शिवं शग्मं शंयोः शंयोः॥13॥

- य॰ अ॰ 3। मं॰ 45 , 50 , 41 , 42 , 43॥

भाष्यम् - एषामभि॰ - एतेषु गृहाश्रमविधानं क्रियत इति।

(यद् ग्रामे॰) यद् ग्रामे गृहाश्रमे वसन्तो वयं पुण्यं विद्याप्रचारं सन्तानोत्पत्तिमत्युत्तमसामाजिक-नियमं सर्वोपकारकं , तथैवारण्ये वानप्रस्थाश्रमे ब्रह्मविचारं विद्याध्ययनं तपश्चरणं , सभासम्बन्धे यच्छ्रेष्ठं इन्द्रिये मानसव्यवहारे च यदुत्तमं कर्म च कुर्मस्तत्सर्वमीश्वरमोक्षप्राप्त्यर्थमस्तु। यच्च भ्रमेणैनः पापं च कृतं , तत्सर्वमिदं पापमवयजामह आश्रमानुष्ठानेन नाशयामः॥9॥

(देहि मे॰) परमेश्वर आज्ञापयति , हे जीव! त्वमेवं वद - मे मह्यं देहि , मत्सुखार्थं विद्यां द्रव्यादिकं च त्वं देहि , अहमपि ते तुभ्यं ददामि। मे मह्यं मदर्थं त्वमुत्तमस्वभावदानमुदारतां सुशीलतां च धेहि धारय , ते तुभ्यं त्वदर्थमहमप्येवं च दधे। तथैव धर्मव्यवहारं क्रयदानादानाख्यं च हरासि प्रयच्छ , तथैवाहमपि ते तुभ्यं त्वदर्थं निहराणि नित्यं प्रयच्छानि ददानि। स्वाहेति सत्यभाषणं , सत्यमानं सत्याचरणं , सत्यवचनश्रवणं च सर्वे वयं मिलित्वा कुर्य्यामेति सत्येनैव सर्वं व्यवहारं कुर्य्युः॥10॥

(गृहा॰) हे गृहाश्रममिच्छन्तो मनुष्याः! स्वयंवरं विवाहं कृत्वा यूयं गृहाणि प्राप्नुत। गृहाश्रमानुष्ठाने (मा बिभीत) भयं मा प्राप्नुत। तथा (मा वेपध्वं) मा कम्पध्वम्। (ऊर्जं बिभ्रत एमसि) उर्जं बलं पराक्रमं च बिभ्रतः , पदार्थानेमसि वयं प्राप्नुम इतीच्छत। (ऊर्जं बिभ्रद्वः) वो युष्माकं मध्येऽहमूर्जं बिभ्रत्सन् , ( सुमनाः) शुद्धमनाः , सुमेधोत्तमबुद्धियुक्तः , ( मनसा मोदमानः) प्राप्तानन्दः , ( गृहानैमि) गृहाणि प्राप्नोमि॥11॥

(येषामध्येति प्र॰) येषु गृहेषु प्रवसतो मनुष्यस्य (बहुः) अधिकः (सौमनसः) आनन्दो भवति , तत्र प्रवसन् येषां यान् पदार्थान् सुखकारकान् स (अध्येति) स्मरति , ( गृहानुपह्वयामहे) वयं गृहेषु विवाहादिषु सत्कारार्थं तान् गृहसम्बन्धिनः सखिबन्ध्वाचार्य्यादीन्निमन्त्रयामहे। (ते नः) विवाहनियमेषु कृतप्रतिज्ञानस्मान् (जानतः) प्रौढज्ञानान् , युवावस्थास्थान् स्वेच्छया कृतविवाहान् , ते (जानन्तु) अस्माकं साक्षिणः सन्त्विति॥12॥

(उपहूता इह॰) हे परमेश्वर! भवत्कृपया इहास्मिन् गृहाश्रमे गावः पशुपृथिवीन्द्रियविद्या-प्रकाशाह्लादादयः (उपहूताः) अर्थात् सम्यक् प्राप्ता भवन्तु। तथा (अजावयः) उपहूता अस्मदनुकूला भवन्तु। (अथो अन्नस्य की॰) अथो इति पूर्वोक्तपदार्थप्राप्त्यनन्तरं नोऽस्माकं गृहेष्वन्नस्य भोक्तव्यपदार्थसमूहस्य कीलालो विशेषेणोत्तमरस उपहूतः सम्यक् प्राप्तो भवतु।

(क्षेमाय वः शान्त्यै॰) वो युष्मान् , अत्र पुरुषव्यत्ययोऽस्ति , तान् पूर्वोक्तान् प्रत्यक्षान् पदार्थान् क्षेमाय रक्षणाय शान्त्यै सुखाय प्रपद्ये प्राप्नोमि। तत्प्राप्त्या (शिवं) निश्श्रेयसं कल्याणं पारमार्थिकं सुखं (शग्मं) सांसारिकमाभ्युदयिकं सुखं च प्राप्नुयाम्। शंयोः शमिति निघण्टौ पदनामास्ति। परोपकाराय गृहाश्रमे स्थित्वा पूर्वोक्तस्य द्विविधस्य सुखस्योन्नतिं कुर्म्मः॥13॥

भाषार्थ - (यद् ग्रामे॰) गृहाश्रमी को उचित है कि जब वह पूर्ण विद्या को पढ़ चुके, तब अपने तुल्य स्त्री से स्वंयवर करे और वे दोनों यथावत् उन विवाह के नियमों में चलें, जो कि विवाह और नियोग के प्रकरणों में लिख आये हैं। परन्तु उन से जो विशेष कहना है सो यहां लिखते हैं-गृहस्थ स्त्री पुरुषों को धर्म उन्नति और ग्रामवासियों के हित के लिये जो जो काम करना है, तथा (यदरण्ये) वनवासियों के साथ हित और (यत्सभायाम्) सभा के बीच में सत्यविचार और अपने सामर्थ्य से संसार को सुख देने के लिए, (यदिन्द्रिये) जितेन्द्रियता से ज्ञान की वृद्धि करनी चाहिए, सो सो सब काम अपने पूर्ण पुरुषार्थ के साथ यथावत् करें। और (यदेनश्चकृ॰) पाप करने की बुद्धि को हम लोग मन, वचन और कर्म से छोड़ कर सर्वथा सब के हितकारी बनें॥9॥

परमेश्वर उपदेश करता है कि (देहि मे॰) जो सामाजिक नियमों की व्यवस्था के अनुसार ठीक ठीक चलना है, यही गृहस्थ की परम उन्नति का कारण है। जो वस्तु किसी से लेवें अथवा देवें सो भी सत्यव्यवहार के साथ करें। (नि मे धेहि, नि ते दधे) अर्थात् मैं तेरे साथ यह काम करूंगा और तू मेरे साथ ऐसा करना ऐसे व्यवहार को भी सत्यता से करना चाहिए। (निहारं च हरासि मे नि॰) यह वस्तु मेरे लिए तू दे वा तेरे लिए मैं दूंगा, इस को भी यथावत् पूरा करें। अर्थात् किसी प्रकार का मिथ्या व्यवहार किसी से न करें। इस प्रकार गृहस्थ लोगों के सब व्यवहार सिद्ध होते हैं। क्योंकि जो गृहस्थ विचारपूर्वक सब के हितकारी काम करते हैं, उन की सदा उन्नति होती है॥10॥

(गृहा मा बिभीत॰) हे गृहाश्रम की इच्छा करनेवाले मनुष्य लोगो! तुम लोग स्वयंवर अर्थात् इच्छा के अनुकूल विवाह करके गृहाश्रम को प्राप्त हो और उस से डरो व कंपो मत। किन्तु उस से बल, पराक्रम करनेवाले पदार्थों को प्राप्त होने की इच्छा करो। तथा गृहाश्रमी पुरुषों से ऐसा कहो कि मैं परमात्मा की कृपा से आप लोगों के बीच पराक्रम, शुद्ध मन, उत्तम बुद्धि और आनन्द को प्राप्त होकर गृहाश्रम करूं॥11॥

(येषामध्येति॰) जिन घरों में वसते हुए मनुष्यों को अधिक आनन्द होता है, उन में वे मनुष्य अपने सम्बन्धी मित्र बन्धु और आचार्य आदि का स्मरण करते हैं और उन्हीं लोगों को विवाहादि शुभ कार्यों में सत्कार से बुलाकर उन से यह इच्छा करते हैं कि ये सब हम को युवावस्थायुक्त और विवाहादि नियमों में ठीक ठीक प्रतिज्ञा करने वाले जानें अर्थात् हमारे साक्षी हों॥12॥

(उपहू॰) हे परमेश्वर! आपकी कृपा से हम लोगों को गृहाश्रम में पशु, पृथिवी, विद्या, प्रकाश, आनन्द, बकरी और भेड़ आदि पदार्थ अच्छी प्रकार से प्राप्त हों तथा हमारे घरों में उत्तम रसयुक्त खाने पीने के योग्य पदार्थ सदा बने रहें। (वः) यह पद पुरुषव्यत्यय से सिद्ध होता है। हम लोग उक्त पदार्थों को उन की रक्षा और अपने सुख के लिये प्राप्त हों। फिर उस प्राप्ति से हम को परमार्थ और संसार का सुख मिले। 'शंयोः' यह निघण्टु में प्रतिष्ठा अर्थात् सांसारिक सुख का नाम है॥13॥

॥इति गृहाश्रमविषयः संक्षेपतः॥

अथ वानप्रस्थविषयः संक्षेपतः -

त्रयो धर्मस्कन्धा यज्ञोऽध्ययनं दानमिति प्रथमस्तप एव द्वितीयो ब्रह्मचार्याचार्यकुलवासी तृतीयोऽत्यन्तमात्मानमाचार्य-कुलेऽवसादयन् सर्व एते पुण्यलोका भवन्ति॥

-छान्दोग्य॰ प्र॰ 2। खं॰ 23॥

भाष्यम् - ( त्रयो धर्म॰) अत्र सर्वेष्वाश्रमेषु धर्मस्य स्कन्धा अवयवास्त्रयः सन्ति। अध्ययनं यज्ञः क्रियाकाण्डं , दानं च। तत्र प्रथमे ब्रह्मचारी तपः सुशिक्षाधर्मानुष्ठानेनाचार्यकुले वसति। द्वितीयो गृहाश्रमी। तृतीयोऽत्यन्तमात्मानमवसादयन् हृदये विचारयन्नेकान्तदेशं प्राप्य सत्यासत्ये निश्चिनुयात् , स वानप्रस्थाश्रमी। एते सर्वे ब्रह्मचर्य्यादयस्त्रय आश्रमाः पुण्यलोकाः सुखनिवासाः सुखयुक्ता भवन्ति , पुण्यानुष्ठानादेवाश्रमसंख्या जायते॥

ब्रह्मचर्य्याश्रमेण गृहीतविद्यो धर्मेश्वरादि सम्यङ् निश्चित्य , गृहाश्रमेण तदनुष्ठानं तद्विज्ञानवृद्धिं च कृत्वा , ततो वनमेकान्तं गत्वा , सम्यक् सत्यासत्यवस्तुव्यवहारान्निश्चित्य , वानप्रस्थाश्रमं समाप्य संन्यासी भवेत्। अर्थात् ब्रह्मचर्य्याश्रमं समाप्य गृही भवेत् , गृही भूत्वा वनी भवेद्वनी भूत्वा प्रव्रजेद् इत्येकः पक्षः। (यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेद्वनाद्वा गृहाद्वा) अस्मिन् पक्षे वानप्रस्थाश्रममकृत्वा गृहाश्रमानन्तरं संन्यासं गृह्णीयादिति द्वितीयः पक्षः। ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेत् सम्यग्ब्रह्मचर्याश्रमं कृत्वा गृहस्थवानप्रस्थाश्रमावकृत्वा संन्यासाश्रमं गृह्णीयादिति तृतीयः पक्षः।

सर्वत्रान्याश्रमविकल्प उक्तः , परन्तु ब्रह्मचर्याश्रमानुष्ठानं नित्यमेव कर्तव्यमित्यायाति। कुतः ब्रह्मचर्याश्रमेण विनाऽन्याश्रमानुत्पत्तेः।

भाषार्थ - (त्रयो धर्म॰) धर्म के तीन स्कन्ध हैं-एक विद्या का अध्ययन, दूसरा यज्ञ अर्थात् उत्तम क्रियाओं का करना, तीसरा दान अर्थात् विद्यादि उत्तम गुणों का देना तथा प्रथम तप अर्थात् वेदोक्त धर्म के अनुष्ठानपूर्वक विद्या पढ़ाना दूसरा आचार्यकुल में वस के विद्या पढ़ना और तीसरा परमेश्वर का ठीक ठीक विचार करके सब विद्याओं को जान लेना। इन बातों से सब प्रकार की उन्नति करना मनुष्यों का धर्म है॥

तथा संन्यासाश्रम के तीन पक्ष हैं-उन में एक यह है कि जो विषय भोग किया चाहे वह ब्रह्मचर्य्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ इन आश्रमों को करके संन्यास ग्रहण करे। दूसरा 'यदहरेव प्र॰' जिस समय वैराग्य अर्थात् बुरे कामों से चित्त हटाकर ठीक ठीक सत्यमार्ग में निश्चित हो जाय, उस समय गृहाश्रम से भी संन्यास हो सकता है, और तीसरा जो पूर्ण विद्वान् होकर सब प्राणियों का शीघ्र उपकार किया चाहे तो ब्रह्मचर्य्याश्रम से ही संन्यास ग्रहण कर ले।

ब्रह्मसंस्थोऽमृतत्वमेति॥

-छान्दो॰ प्रपा॰ 2। खं॰ 23॥

तमेतं वेदानुवचनेन विविदिषन्ति। ब्रह्मचर्य्येण तपसा श्रद्धया यज्ञेनानाशकेन चैतमेव विदित्वा मुनिर्भवत्येतमेव प्रव्राजिनो लोकमीप्सन्तः प्रव्रजन्ति॥ एतद्ध स्म वै तत्पूर्वे ब्राह्मणा अनूचाना विद्वांसः प्रजां न कामयन्ते किं प्रजया करिष्यामो येषां नाऽयमात्मायं लोक इति। ते ह स्म पुत्रैषणायाश्च वित्तैषणायाश्च लोकैषणायाश्च व्युत्थायाथ भिक्षाचर्य्यं चरन्ति। या ह्येव पुत्रैषणा सा वित्तैषणा या वित्तैषणा सा लोकैषणोभे ह्येते एषणे एव भवतः॥

-श॰ का॰ 14। अ॰ 7। ब्रा॰ 2॥

भाष्यम् - ( ब्रह्मसंस्थः॰) चतुर्थो ब्रह्मसंस्थः संन्यासी (अमृतत्वम्) (एति) प्राप्नोति॥ (तमेतं वेदा॰) सर्व आश्रमिणो विशेषतः संन्यासिमतमेतं परमेश्वरं सर्वभूताधिपतिं वेदानुवचनेन तदध्ययनेन तच्छ्रवणेन तदुक्तानुष्ठानेन च वेत्तुमिच्छन्ति। (ब्रह्मचर्येण॰) (ब्रह्मचर्येण , तपसा ध र्मानुष्ठानेन , श्रद्धयाऽत्यन्तप्रेम्णा , यज्ञेन नाशरहितेन विज्ञानेन धर्मक्रियाकाण्डेन चैतं परमेश्वरं विदित्वैव मुनिर्भवति। प्रव्राजिनः संन्यासिन एनं यथोक्तं लोकं द्रष्टव्यं परमेश्वरमेवेप्सन्तः प्रव्रजन्ति संन्यासाश्रमं गृह्णन्ति। (एतद् ब्रह्म॰) य एतदिच्छन्तः सन्तः पूर्वे अत्युत्तमा ब्राह्मणा ब्रह्मविदोऽनूचाना निश्शङ्काः पूर्णज्ञानिनोऽन्येषां शङ्कानिवारका विद्वांसः प्रजां गृहाश्रमं न कामयन्ते , नेच्छन्ति , ( ते ह स्म॰) हेति स्फुटे , स्मेति स्मये , ते प्रोत्फुल्लाः प्रकाशमाना वदन्ति वयं प्रजया किं करिष्यामः , किमपि नेत्यर्थः। येषां नाऽस्माकमयमात्मा परमेश्वरः प्राप्यो लोको दर्शनीयश्चास्ति।

एवं ते (पुत्रैषणायाश्च) पुत्रोत्पादनेच्छायाः (वित्तैषणायाश्च) जडधनप्राप्त्यनुष्ठानेच्छायाः (लोकैषणायाश्च) लोके स्वस्य प्रतिष्ठास्तुतिनिन्देच्छायाश्च (व्युत्थाय) विरज्य (भिक्षाचर्य्यं च॰) संन्यासाश्रमानुष्ठानं कुर्वन्ति। यस्य पुत्रैषणा पुत्रप्राप्त्येषणेच्छा भवति तस्यावश्यं वित्तैषणापि भवति , यस्य वित्तैषणा तस्य निश्चयेन लोकैषणा भवतीति विज्ञायते। तथा यस्यैका लोकैषणा भवति तस्योभे पूर्वे पुत्रैषणावित्तैषणे भवतः। यस्य च परमेश्वरमोक्षप्राप्त्येषणेच्छास्ति , तस्यैतास्तिस्रो निवर्त्तन्ते। नैव ब्रह्मानन्दवित्तेन तुल्यं लोकवित्तं कदाचिद् भवितुमर्हति। यस्य परमेश्वरे प्रतिष्ठास्ति तस्यान्याः सर्वाः प्रतिष्ठा नैव रुचिता भवन्ति। सर्वान् मनुष्याननुगृह्णन् सर्वदा सत्योपदेशेन सुखयति , तस्य केवलं परोपकारमात्रं सत्यप्रवर्त्तनं प्रयोजनं भवतीति।

भाषार्थ - (तमेतं॰) जो कि वेद को पढ़ के परमेश्वर को जानने की इच्छा करते हैं, (ब्रह्मसंस्थः) वे संन्यासी लोग मोक्ष को प्राप्त होते हैं, तथा (ब्रह्मच॰) जो सत्पुरुष ब्रह्मचर्य, धर्मानुष्ठान, श्रद्धा, यज्ञ और ज्ञान से परमेश्वर को जान के मुनि अर्थात् विचारशील होते हैं, वे ही ब्रह्मलोक अर्थात् संन्यासियों के प्राप्तिस्थान को प्राप्त होने के लिये संन्यास लेते हैं। जो उन में उत्तम पूर्ण विद्वान् हैं, वे गृहाश्रम और वानप्रस्थ के विना ब्रह्मचर्य आश्रम से ही संन्यासी हो जाते हैं। और उन के उपदेश से जो पुत्र होते हैं, उन्हीं को सब से उत्तम मानकर (पुत्रैषणा) अर्थात् सन्तानोत्पत्ति की इच्छा (वित्तैषणा) अर्थात् धन का लोभ, (लोकैषणा) अर्थात् लोक में प्रतिष्ठा की इच्छा करना, इस तीन प्रकार की इच्छा को छोड़ के वे भिक्षाचरण करते हैं अर्थात् सर्वगुरु सब के अतिथि होके विचरते हुए संसार को अज्ञानरूपी अन्धकार से छुड़ा के सत्य विद्या के उपदेश रूप प्रकाश से प्रकाशित कर देते हैं।

प्राजापत्यामिष्टिं निरूप्य तस्यां सर्ववेदसं हुत्वा ब्राह्मणः प्रव्रजेद्॥ इति शतपथे श्रुत्यक्षराणि॥

यं यं लोकं मनसा संविभाति

विशुद्धसत्त्वः कामयते यांश्च कामान्।

तं तं लोकं जायते तांश्च कामां-

स्तस्मादात्मज्ञं ह्यर्चयेद् भूतिकामः॥

-मुण्डकोपनि॰ मुण्डके 3। खं॰ 1। मं॰ 10॥

भाष्यम् - ( प्राजापत्या॰) स च संन्यासी प्राजापत्यां परमेश्वरदेवताकामिष्टिं कृत्वा , हृदये सर्वमेतन्निश्चित्य , तस्यां (सर्ववेदसं॰) शिखासूत्रादिकं हुत्वा , मुनिर्मननशीलः सन् , प्रव्रजति संन्यासं गृह्णाति।

परन्त्वयं पूर्णविद्यावतां रागद्वेषरहितानां सर्वमनुष्योपकारबुद्धीनां संन्यासग्रहणाधिकारो भवति , नाल्पविद्यानामिति। तेषां संन्यासिनां प्राणापानहोमो , दोषेभ्य इन्द्रियाणां मनसश्च सदा निवर्त्तनं , सत्यधर्मानुष्ठानं चैवाग्निहोत्रम्। किन्तु पूर्वेषां त्रयाणामेवाश्रमिणामनुष्ठातुं योग्यं , यद्बाह्यक्रिया- मयमस्ति , संन्यासिनां तन्न। सत्योपदेश एव संन्यासिनां ब्रह्मयज्ञः। देवयज्ञो ब्रह्मोपासनम्। विज्ञानिनां प्रतिष्ठाकरणं पितृयज्ञः। ह्यज्ञेभ्यो ज्ञानदानं , सर्वेषां भूतानामुपर्य्यनुग्रहोऽपीडनं च भूतयज्ञः। सर्वमनुष्योपकारार्थं भ्रमणमभिमानशून्यतासत्योपदेशकरणेन सर्वमनुष्याणां सत्कारानुष्ठानं चातिथियज्ञः। एवं लक्षणाः , पञ्चमहायज्ञा विज्ञानधर्मानुष्ठानमया भवन्तीति विज्ञेयम्। परन्त्वेकस्या- द्वितीयस्य सर्वशक्तिमदादिविशेषगुणयुक्तस्य परब्रह्मण उपासना सत्यधर्मानुष्ठानं च सर्वेषा- माश्रमिणामेकमेव भवतीत्ययं विशेषः॥

(विशुद्धस॰) शुद्धान्तःकरणो मनुष्यः (यं यं लोकं मनसा) ध्यानेन संविभाति इच्छति , ( कामयते यांश्च कामान्) यांश्च मनोरथानिच्छति , ( तं तं लोकं तांश्च कामान्) (जायते) प्राप्नोति। तस्माद् कारणाद् (भूतिकामः) ऐश्वर्यकामो मनुष्यः , ( आत्मज्ञं) आत्मानं परमेश्वरं जानाति तं संन्यासिनमेव सर्वदार्चयेत् सत्कुर्य्यात्। तस्यैव सङ्गेन सत्कारेण च मनुष्याणां सुख्रप्रदा लोकाः कामाश्च सिद्धा भवन्तीति तद्भिन्नान् मिथ्योपदेशकान् स्वार्थसाधनतत्परान् पाखण्डिनः कोऽपि नैवार्चयेत्। कुतः ? तेषां सत्कारस्य निष्फलत्वाद् दुःखफलत्वाच्चेति॥

भाषार्थ - (प्राजापत्या॰) अर्थात् इस इष्टि में शिखा सूत्रादि का होम करके, गृहस्थ आश्रम को छोड़ के, विरक्त होकर संन्यास ग्रहण करें॥

(यं यं लोक॰) वह शुद्ध मन से जिस जिस लोक और कामना की इच्छा करता है, वे सब उस की सिद्ध हो जाती हैं। इसलिये जिस को ऐश्वर्य की इच्छा हो, वह आत्मज्ञ अर्थात् ब्रह्मवेत्ता संन्यासी की सेवा करे।

ये चारों आश्रम वेदों और युक्तियों से सिद्ध हैं। क्योंकि सब मनुष्यों को अपनी आयु का प्रथम भाग विद्या पढ़ने में व्यतीत करना चाहिए और पूर्ण विद्या को पढ़कर उस से संसार की उन्नति करने के लिए गृहाश्रम भी अवश्य करें। तथा विद्या और संसार के उपकार के लिये एकान्त में बैठकर सब जगत् का अधिष्ठाता जो ईश्वर है, उस का ज्ञान अच्छी प्रकार करें और मनुष्यों को सब व्यवहारों का उपदेश करें। फिर उन के सब सन्देहों का छेदन और सत्य बातों के निश्चय कराने के लिये संन्यास आश्रम भी अवश्य ग्रहण करें। क्योंकि इस के विना सम्पूर्ण पक्षपात छूटना बहुत कठिन है।

॥इत्याश्रमविषयः संक्षेपतः॥23॥