ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (दयानन्दसरस्वतीविरचिता)/२२. राजप्रजाधर्मविषयः

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अथ राजप्रजाधर्मविषयः संक्षेपतः[सम्पाद्यताम्]

त्रीणि राजाना विदथे पुरूणि

परि विश्वानि भूषथः सदांसि।

अपश्यमत्र मनसा जगन्वान्

व्रते गन्धर्वां अपि वायुकेशान्॥1॥

-ऋ॰ अ॰ 3। अ॰ 2। व॰ 24। मं॰ 1॥

क्षत्रस्य योनिरसि क्षत्रस्य नाभिरसि।

मा त्वा हिंसीन् मा मा हिंसीः॥2॥

-य॰ अ॰ 20। मं॰ 1॥

यत्र ब्रह्म च क्षत्रं च सम्यञ्चौ चरतः सह।

तं लोकं पुण्यं यज्ञेषं यत्र देवाः सहाग्निना॥3॥

-य॰ अ॰ 20। मं॰ 25॥

भाष्यम् - एषामभि॰ - अत्र मन्त्रेषु राजधर्मो विधीयत इति।

यथा सूर्य्यचन्द्रौ (राजानौ) सर्वमूर्त्तद्रव्यप्रकाशकौ भवतस्तथा सूर्य्यचन्द्रगुणशीलौ प्रकाशन्याययुक्तौ व्यवहारौ (त्रीणि सदांसि भूषथः) भूषयतोऽलङ् कुरुतः। (विदथे) ताभिः सभाभिरेव युद्धे (पुरूणि) बहूनि विजयादीनि सुखानि मनुष्याः प्राप्नुवन्ति। तथा (परि विश्वानि) राजधर्मादि-युक्ताभिस्सभाभिर्विश्वस्थानि सर्वाणि वस्तूनि प्राणिजातानि च भूषयन्ति सुखयन्ति।

इदमत्र बोध्यम् - एका राजार्य्यसभा , तत्र विशेषतो राजकार्य्याण्येव भवेयुः। द्वितीयाऽऽर्य्यविद्यासभा , तत्र विशेषतो विद्याप्रचारोन्नती एव कार्य्ये भवतः। तृतीयाऽऽर्य्यधर्मसभा , तत्र विशेषतो धर्मोन्नतिरधर्महानिश्चोपदेशेन कर्तव्या। परन्त्वेतास्तिस्रस्सभाः सामान्ये कार्य्ये मिलित्वैव सर्वानुत्तमान् व्यवहारान् प्रजासु प्रचारयेयुरिति। यत्रैतासु सभासु धर्मात्मभिर्विद्वद्भिः सारासारविचारेण कर्तव्याकर्तव्यस्य प्रचारो निरोधश्च क्रियते , तत्र सर्वाः प्रजाः सदैव सुखयुक्ता भवन्ति। यत्रैको मनुष्यो राजा भवति तत्र पीडिताश्चेति निश्चयः। (अपश्यमत्र) इदमत्राहमपश्यम्। ईश्वरोऽभिवदति - यत्र सभया राजप्रबन्धो भवति , तत्रैव सर्वाभ्यः प्रजाभ्यो हितं जायत इति। (व्रते) यो मनुष्यः सत्याचरणे (मनसा) विज्ञानेन सत्यं न्यायं (जगन्वान्) विज्ञातवान् , स राजसभामर्हति नेतरश्च। (गन्धर्वान्) पूर्वोक्तासु सभासु गन्धर्वान् पृथिवीराजपालनादि-व्यवहारेषु कुशलान् (अपि वायुकेशान्) वायुवद्दूतप्रचारेण विदित-सर्वव्यवहारान् सभासदः कुर्य्यात्। केशास्सूर्य्यरश्मय- स्तद्वत्सत्यन्यायप्रकाशकान् , सर्वहितं चिकीर्षून् , धर्मात्मनः सभासदस्स्थापयितुमहमाज्ञापयामि , नेतरांश्चेतीश्वरोपदेशः सर्वैर्मन्तव्य इति॥1॥

(क्षत्रस्य योनिरसि) हे परमेश्वर! त्वं यथा क्षत्रस्य राजव्यवहारस्य योनिर्निमित्तमसि तथा (क्षत्रस्य नाभिरसि) एवं राजधर्मस्य त्वं प्रबन्धकर्त्तासि। तथैव नोऽस्मानपि कृपया राज्यपालन- निमित्तान् क्षत्रधर्मप्रबन्धकर्तंंश्च कुरु। (मा त्वा हिंसीन्मा मा हिंसीः) तथाऽस्माकं मध्यात् कोऽपि जनस्त्वां मा हिंसीदर्थाद्भवन्तं तिरस्कृत्य नास्तिको मा भवतु। तथा त्वं मां मा हिंसीरर्थान्मम तिरस्कारं कदाचिन्मा कुर्य्याः। यतो वयं भवत्सृष्टौ राज्याधिकारिणस्सदा भवेम॥2॥

(यत्र ब्रह्म च क्षत्रं च) यत्र देशे ब्रह्म परमेश्वरो वेदो वा , ब्राह्मणो , ब्रह्मविच्चैतत्सर्वं ब्रह्म तथा क्षत्रं शौर्य्यधैर्य्यादिगुणवन्तो मनुष्याश्चैतौ द्वौ (सम्यञ्चौ) यथावद्विज्ञान-युक्तावविरुद्धौ (चरतः सह) (तं लोकं) तं देशं (पुण्यं) पुण्ययुक्तं (यज्ञेषं) यज्ञकरणेच्छाविशिष्टं विजानीमः।

(यत्र देवाः सहाग्निना ) यस्मिन्देशे विद्वांसः परमेश्वरेणाग्निहोत्रादि-यज्ञानुष्ठानेन च सह वर्त्तन्ते , तत्रैव प्रजाः सुखिन्यो भवन्तीति विज्ञेयम्॥3॥

भाषार्थ - सब जगत् का राजा एक परमेश्वर ही है और सब संसार उस की प्रजा है। इस में यह यजुर्वेद के अठारहवें अध्याय के 29 वें मन्त्र के वचन का प्रमाण है -( वयं प्रजापतेः प्रजा अभूम) अर्थात् सब मनुष्य लोगों को निश्चय करके जानना चाहिए कि हम लोग परमेश्वर की प्रजा हैं और वही एक हमारा राजा है।

(त्रीणि राजाना) तीन प्रकार की सभा ही को राजा मानना चाहिए , एक मनुष्य को कभी नहीं। वे तीनों ये हैं - प्रथम राज्यप्रबन्ध के लिए एक ' आर्य्यराजसभा ' कि जिस से विशेष करके सब राज्यकार्य्य ही सिद्ध किये जावें। दूसरी ' आर्यविद्यासभा ' कि जिस से सब प्रकार की विद्याओं का प्रचार होता जाय। तीसरी ' आर्य्यधर्मसभा ' कि जिस से धर्म का प्रचार और अधर्म की हानि होती रहे। इन तीन सभाओं से (विदथे) अर्थात् युद्ध में (पुरूणि परिविश्वानि भूषथः) सब शत्रुओं को जीत के नाना प्रकार के सुखों से विश्व को परिपूर्ण करना चाहिए॥1॥

(क्षत्रस्य योनिरसि) हे राज्य के देनेवाले परमेश्वर! आप ही राज्यसुख के परम कारण हैं। (क्षत्रस्य नाभिरसि) आप ही राज्य के जीवनहेतु हैं , तथा क्षत्रियवर्ण के राज्य का कारण और जीवन सभा ही है। (मा त्वा हिंसीन्मा मा हिंसीः) हे जगदीश्वर! सब प्रजा आप को छोड़ के किसी दूसरे को अपना राजा कभी न माने , और आप भी हम लोगों को कभी मत छोड़िये। किन्तु आप और हम लोग परस्पर सदा अनुकूल वर्त्तें॥2॥

(यत्र ब्रह्म च क्षत्रं च) जिस देश में उत्तम विद्वान् ब्राह्मण विद्यासभा और राजसभा विद्वान् शूरवीर क्षत्रिय लोग , ये सब मिलके राजकामों को सिद्ध करते हैं , वही देश धर्म और शुभ क्रियाओं से संयुक्त हो के सुख को प्राप्त होता है। (यत्र देवाः सहाग्निना॰) जिस देश में परमेश्वर की आज्ञापालन और अग्निहोत्रादि सत्क्रियाओं से वर्त्तमान विद्वान् होते हैं , वही देश सब उपद्रवों से रहित होके अखण्ड राज्य को नित्य भोगता है॥3॥

देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्।

अश्विनोर्भैषज्येन तेजसे ब्रह्मवर्चसयाभि षिञ्चामि ।

इन्द्रस्येन्द्रियेण बलाय श्रियै यशसेऽभि षिञ्चामि॥4॥

कोऽसि कतमोऽसि कस्मै त्वा काय त्वा।

सुश्लोक सुमङ्गल सत्यराजन्॥5॥

शिरो मे श्रीर्यशो मुखं त्विषिः केशाश्च श्मश्रूणि।

राजा मे प्राणो अमृतं सम्राट् चक्षुर्विराट् श्रोत्रम्॥6॥

-य॰ अ॰ 20। मं॰ 3। 4। 5॥

भाष्यम् - ( देवस्य त्वा सवितुः) हे सभाध्यक्ष! स्वप्रकाशमानस्य सर्वस्य जगत उत्पादकस्य परमेश्वरस्य (प्रसवे) अस्यां प्रजायां (अश्विनोर्बाहुभ्यां) सूर्य्याचन्द्रमसोर्बाहुभ्यां , बलवीर्याभ्यां , (पूष्णो हस्ताभ्यां) पुष्टिकर्तुः प्राणस्य ग्रहणदानाभ्यां , ( अश्विनोर्भैषज्येन) पृथिव्यन्तरिक्षौषधिसमूहेन सर्वरोगनिवारकेण सह वर्त्तमानं त्वां (तेजसे) न्यायादिसद्गुणप्रकाशाय , ( ब्रह्मवर्चसाय) पूर्णविद्याप्रचाराय , ( अभिषिञ्चामि) सुगन्धजलैर्मूर्द्धनि मार्जयामि। तथा (इन्द्रस्येन्द्रियेण) परमेश्वरस्य परमैश्वर्य्येण विज्ञानेन च (बलाय) उत्तमबलार्थं , ( श्रियै) चक्रवर्त्तिराज्यलक्ष्मीप्राप्त्यर्थं त्वां , ( यशसे) अतिश्रेष्ठकीर्त्यर्थं च (अभि षिञ्चामि) राजधर्मपालनार्थं स्थापयामीतीश्वरोपदेशः॥4॥

(कोऽसि) हे परमात्मन्! त्वं सुखस्वरूपोऽसि , भवानस्मानपि सुराज्येन सुखयुक्तान् करोतु। (कतमोऽसि) त्वमत्यन्तानन्दयुक्तोऽसि , अस्मानपि राजसभाप्रबन्धेनात्यन्ता-नन्दयुक्तान् सम्पादय। (कस्मै त्वा) अतो नित्यसुखाय त्वामाश्रयामः तथा (काय त्वा) सुखरूपराज्यप्रदाय त्वामुपास्महे। (सुश्लोक) हे सत्यकीर्त्ते! (सुमङ्गल) हे सुष्ठुमङ्गलमय सुमङ्गलकारक! (सत्यराजन्) हे सत्यप्रकाशक सत्यराज्यप्रदेश्वर! अस्मद्राजसभाया भवानेव महाराजाधिराजोऽस्तीति वयं मन्यामहे॥5॥

सभाध्यक्ष एवं मन्येत -( शिरो मे श्रीः) राज्यश्रीर्मे मम शिरोवत्। (यशोमुखं) उत्तम- कीर्त्तिर्मुखवत्। (त्विषिः केशाश्च श्मश्रूणि) सत्यन्यायदीप्तिः मम केशश्मश्रुवत्। (राजा मे प्राणः) परमेश्वरः शरीरस्थो जीवनहेतुर्वायुश्च मम राजवत्। (अमृतं सम्राट्) मोक्षाख्यं सुखं , ब्रह्म , वेदश्च सम्राट् चक्रवर्तिराजवत्। (चक्षुर्विराट् श्रोत्रम्) सत्यविद्यादिगुणानां विविध- प्रकाशकरणं श्रोत्रं चक्षुर्वत्। एवं सभासदोऽपि मन्येरन्। एतानि सभाध्यक्षस्य सभासदां चाङ्गानि सन्तीति सर्वे विजानीयुः॥6॥

भाषार्थ - (देवस्य त्वा सवितुः) जो कोई राजा सभाध्यक्ष होने के योग्य हो उस का हम लोग अभिषेक करें और उस से कहें कि-हे सभाध्यक्ष! आप सब जगत् को प्रकाशित और उत्पन्न करने वाले परमेश्वर की (प्रसवे) सृष्टि में प्रजापालन के लिये (अश्विनोर्बाहुभ्याम्) सूर्य चन्द्रमा के बल और वीर्य से, (पूष्णो हस्ताभ्याम्) पुष्टि करने वाले प्राण को ग्रहण और दान की शक्तिरूप हाथों से, आप को सभाध्यक्ष होने में स्वीकार करते हैं। (अश्विनोर्भैषज्येन) परमेश्वर कहता है कि पृथिवीस्थ और शुद्ध वायु इन ओषधियों से दिन रात में सब रोगों से तुझ को निवारण करके, (तेजसे) सत्यन्याय के प्रकाश (ब्रह्मवर्चसाय) ब्रह्म के ज्ञान और विद्या की वृद्धि के लिए तथा (इन्द्रस्येन्द्रियेण) परमेश्वर के परमैश्वर्य्य और विज्ञान से (बलाय) उत्तम सेना, (श्रियै) सर्वोत्तम लक्ष्मी और (यशसे) सर्वोत्तम कीर्ति की प्राप्ति के लिये मैं तुम लोगों को सभा करने की आज्ञा देता हूं कि यह आज्ञा राजा और प्रजा के प्रबन्ध के अर्थ है। इस से सब मनुष्य लोग इस का यथावत् प्रचार करें॥4॥

हे महाराजेश्वर! आप (कोऽसि कतमोऽसि) सुखस्वरूप, अत्यन्त आनन्दकारक हैं, हम लोगों को भी सब आनन्द से युक्त कीजिए (सुश्लोक) हे सर्वोत्तम कीर्त्ति के देने वाले! तथा (सुमङ्गल) शोभनमङ्गलरूप आनन्द के करने वाले जगदीश्वर! (सत्यराजन्) सत्यस्वरूप और सत्य के प्रकाश करने वाले! हम लोगों के राजा तथा सब सुखों के देने वाले आप ही हैं। (कस्मै त्वा काय त्वा) उसी अत्यन्त सुख, श्रेष्ठ विचार और आनन्द के लिये हम लोगों ने आपका शरण लिया है, क्योंकि इसी से हम को पूर्ण राज्य और सुख निस्सन्देह होगा॥5॥

सभाध्यक्ष, सभासद् और प्रजा को ऐसा निश्चय करना चाहिए कि-(शिरो मे श्रीः) श्री मेरा शिरस्थानी, (यशो मुखं) उत्तम कीर्ति मेरा मुखवत्, (त्विषिः केशाश्च श्मश्रूणि) सत्यगुणों का प्रकाश मेरे केश और डाढ़ी मूंछ के समान तथा (राजा मे प्राणः) जो ईश्वर सब का आधार और जीवनहेतु है, वही प्राणप्रिय मेरा राजा, (अमृतं सम्राट्) अमृतस्वरूप जो ब्रह्म और मोक्षसुख है, वही मेरा चक्रवर्ती राजा, तथा (चक्षुर्विराट् श्रोत्रम्) जो अनेक सत्यविद्याओं के प्रकाशयुक्त मेरा श्रोत्र है, वही मेरी आंख है॥6॥

बाहू मे बलमिन्द्रियं हस्तौ मे कर्मवीर्य्यम्।

आत्मा क्षत्रमुरो मम॥7॥

पृष्ठीर्मे राष्ट्रमुदरमंसौ ग्रीवाश्च श्रोणी।

ऊरूऽअरत्नी जानुनी विशो मेऽङ्गानि सर्वतः॥8॥

-य॰ अ॰ 20। मं॰ 7। 8॥

भाष्यम् - ( बाहू मे बलं) यदुत्तमं बलं तन्मम बाहुवदस्ति (इन्द्रियं हस्तौ मे) शुद्धं विद्यायुक्तं मनः श्रोत्रादिकं च मम ग्रहणसाधनवत् (कर्म वीर्य्यं) यदुत्तमपराक्रमधारणं तन्मम कर्मवत् (आत्मा क्षत्रमुरो मम) यन्मम हृदयं तत् क्षत्रवत्॥7॥

(पृष्ठीर्मे राष्ट्रम्) यद्राष्ट्रं तन्मम पृष्ठभागवत् (उदरमंसौ) यौ सेनाकोशौ स्तस्तत्कर्म मम हस्तमूलोदरवत् (ग्रीवाश्च श्रोणी) यत्प्रजायाः सुखेन भूषितपुरुषार्थिकरणं तत्कर्म मम नितम्बाङ्गवत्। (ऊरू अरत्नी) यत्प्रजाया व्यापारे गणितविद्यायां च निपुणीकरणं तन्ममोर्वरत्न्यङ्गवदस्ति। (जानुनी विशो मेऽङ्गानि सर्वतः) यत्प्रजाराजसभयोः सर्वथा मेलरक्षणं तन्मम कर्म जानुवत्। एवं पूर्वोक्तानि सर्वाणि कर्माणि ममावयववत् सन्ति। यथा स्वाङ्गेषु प्रीतिस्तत्पालने पुरुषस्य श्रद्धा भवति तथा प्रजापालने च स्वकीया बुद्धिस्सर्वैः कार्य्येति॥8॥

भाषार्थ - (बाहू मे बलं) जो पूर्ण बल है वही मेरी भुजा, (इन्द्रियं हस्तौ॰) जो उत्तम कर्म और पराक्रम से युक्त इन्द्रिय और मन हैं, वे मेरे हाथों के समान, (आत्मा क्षत्रमुरो मम) जो राजधर्म, शौर्य, धैर्य और हृदय का ज्ञान है, यही सब मेरे आत्मा के समान है॥7॥

(पृष्ठीर्मे राष्ट्रं) जो उत्तम राज्य है सो मेरी पीठ के समतुल्य, (उदरमंसौ) जो राज्य-सेना और कोश है, वह मेरे हस्त का मूल और उदर के समान तथा (ग्रीवाश्च श्रोणी) जो प्रजा को सुख से भूषित और पुरुषार्थी करना है, सो मेरे कण्ठ और श्रोणी अर्थात् नाभि के अधोभागस्थान के समतुल्य, (ऊरू अरत्नी) जो प्रजा को व्यापार और गणित विद्या में निपुण करना है, सो ही अरत्नी और ऊरू अङ्ग के समान, तथा (जानुनी) जो प्रजा और राजसभा का मेल रखना, यह मेरी जानु के समान है। (विशो मेऽङ्गानि सर्वतः) जो इस प्रकार से प्रजापालन में उत्तम कर्म करते हैं, ये सब मेरे अङ्गों के समान हैं॥8॥

प्रति क्षत्रे प्रति तिष्ठामि राष्ट्रे प्रत्यश्वेषु प्रति तिष्ठामि गोषु। प्रत्यङ्गेषु प्रति तिष्ठाम्यात्मन् प्रति प्राणेषु प्रति तिष्ठामि पुष्टे प्रति द्यावापृथिव्योः प्रति तिष्ठामि यज्ञे ॥10॥

त्रातारमिन्द्रमवितारमिन्द्रं

हवे हवे सुहवं शूरमिन्द्रम्।

ह्वयामि शक्रं पुरुहूतमिन्द्रं

स्वस्ति नो मघवा धात्विन्द्रः॥11॥

-य॰ अ॰ 20। मं॰ 10। 50॥

भाष्यम् - ( प्रतिक्षत्रे प्रतितिष्ठामि राष्ट्रे) अहं परमेश्वरो धर्मेण प्रतीते क्षत्रे प्रतिष्ठितो भवामि विद्याधर्मप्रचारिते देशे च। (प्रत्यश्वेषु) प्रत्यश्वं प्रतिगां च तिष्ठामि। (प्रत्यङ्गेषु) सर्वस्य जगतोऽङ्गमङ्गं प्रति तिष्ठामि तथा चात्मानमात्मानं प्रतितिष्ठामि। (प्रति प्राणे॰) प्राणं प्राणं प्रत्येवं पुष्टं पुष्टं पदार्थं प्रतितिष्ठामि। (प्रति द्यावापृथिव्योः) दिवं दिवं प्रति , पृथिवीं पृथिवीं प्रति च तिष्ठामि। (यज्ञे) तथा यज्ञं यज्ञं प्रतितिष्ठाम्यहमेव सर्वत्र व्यापकोऽस्मीति। मामिष्टदेवं समाश्रित्य ये राजधर्ममनुसरन्ति तेषां सदैव विजयाभ्युदयौ भवतः। एवं राजपुरुषैश्चापि प्रजापालने सर्वत्र न्यायविज्ञानप्रकाशो रक्षणीयो , यतोऽन्यायाविद्याविनाशः स्यादिति॥10॥

(त्रातारमिन्द्र॰) यं विश्वस्य त्रातारं रक्षकं , परमैश्वर्य्यवन्तं , ( सुहवंशूरमिन्द्रं) सुहवं शोभनयुद्धकारिणमत्यन्तशूरं , जगतो राजानमनन्तबलवन्तं , ( शक्रं) शक्तिमन्तं शक्तिप्रदं च , (पुरुहूतं) बहुभिः शूरैः सुसेवितं , ( इन्द्रं) न्यायेन राज्यपालकं , ( इन्द्रं हवेहवे) युद्धे युद्धे स्वविजयार्थं इन्द्रं परमात्मानं (ह्वयामि) आह्वयामि आश्रयामि। (स्वस्ति नो मघवा धात्विन्द्रः) स परमधनप्रदातेन्द्रः सर्वशक्तिमानीश्वरः सर्वेषु राज्यकार्य्येषु नोऽस्मभ्यं स्वस्ति धातु = निरन्तरं विजयसुखं दधातु॥11॥

भाषार्थ - (प्रतिक्षत्रे प्रतितिष्ठामि राष्ट्रे) जो मनुष्य इस प्रकार के उत्तम पुरुषों की सभा से न्यायपूर्वक राज्य करते हैं, उन के लिए परमेश्वर प्रतिज्ञा करता है कि-हे मनुष्यो! तुम लोग धर्मात्मा होके न्याय से राज्य करो, क्योंकि जो धर्मात्मा पुरुष हैं, मैं उन के क्षत्रधर्म और सब राज्य में प्रकाशित रहता हूं, और वे सदा मेरे समीप रहते हैं। (प्रत्यश्वेषु प्रतितिष्ठामि गोषु) उन की सेना के अश्व और गौ आदि पशुओं में भी मैं स्वसत्ता से प्रतिष्ठित रहता हूं। (प्रत्यङ्गेषु प्रतितिष्ठाम्यात्मन्) तथा सब सेना राजा के अङ्गों और उनके आत्माओं के बीच में भी सदा प्रतिष्ठित रहता हूं। (प्रतिप्राणेषु प्रतितिष्ठामि पुष्टे) उन के प्राण और पुष्ट व्यवहारों में भी सदा व्यापक रहता हूं। (प्रतिद्यावापृथिव्योः प्रतितिष्ठामि यज्ञे) जितना सूर्य्यादि प्रकाशरूप और पृथिव्यादि अप्रकाशरूप जगत् तथा जो अश्वमेधादि यज्ञ हैं, इन सब के बीच में भी मैं सर्वदा व्यापक होने से प्रतिष्ठित रहता हूं। इस प्रकार से तुम लोग मुझ को सब स्थानों में परिपूर्ण देखो। जिन लोगों की ऐसी निष्ठा है, उन का राज्य सदा बढ़ता रहता है॥10॥

(त्रातारमिन्द्रं) जिन मनुष्यों का ऐसा निश्चय है कि केवल परमैश्वर्य्यवान् परमात्मा ही हमारा रक्षक है, (अवितार॰) जो ज्ञान और आनन्द का देने वाला है, (सुहवंशूरमिन्द्रंहवे हवे) वही इन्द्र परमात्मा प्रति युद्ध में जो उत्तम युद्ध कराने वाला, शूरवीर और हमारा राजा है, (ह्वयामि शक्रं पुरुहूतमिन्द्रं) जो अनन्त पराक्रमयुक्त ईश्वर है, जिस का सब विद्वान् वेदादि शास्त्रों से प्रतिपादन और इष्ट करते हैं, वही हमारा सब प्रकार से राजा है। (स्वस्ति नो मघवा धात्विन्द्रः) जो इन्द्र परमेश्वर मघवा अर्थात् परमविद्यारूप धनी और हमारे लिए विजय आदि सब सुखों का देने वाला है, जिन मनुष्यों को ऐसा निश्चय है उनका पराजय कभी नहीं होता॥11॥

इमं देवाऽअसपत्नं सुवध्वं महते क्षत्राय महते ज्यैष्ठ्याय महते जानराज्यायेन्द्रस्येन्द्रियाय। इमममुष्य पुत्रममुष्यै पुत्रमस्यै विश एष वोऽमी राजा सोमोऽस्माकं ब्राह्मणानां राजा॥12॥

-य॰ अ॰ 9। मं॰ 40॥

इन्द्रो जयाति न परा जयाता

अधिराजो राजसु राजयातै।

चर्कृत्य ईड्यो वन्द्यश्चोपसद्यो

नमस्यो ऽ भवेह॥13॥

त्वमिन्द्राधिराजः श्रवस्युस्त्वं

भूरभिभूतिर्जर्नानाम्।

त्वं दैवीर्विश इमा विराजा

युष्मत्क्षत्रमजरं ते अस्तु॥14॥

-अथर्व॰ कां॰ 6। अनु॰ 10। व॰ 98। मं॰ 1।2॥

भाष्यम् - ( देवाः) हे देवा विद्वांसः सभासदः! (महते क्षत्राय) अतुलराजधर्माय (महते ज्यैष्ठ्याय) अत्यन्तज्ञानवृद्धव्यवहारस्थापनाय (महते जानराज्याय) जनानां विदुषां मध्ये परमराज्यकरणाय (इन्द्रस्येन्द्रियाय) सूर्य्यस्य प्रकाशवन्न्याय-व्यवहार-प्रकाशनायान्यायान्धकारविनाशाय (अस्यै विशे) वर्त्तमानायै प्रजायै यथावत्सुखप्रदानाय (इमम्) असपत्नं सुवध्वम्) इमं प्रत्यक्षं शत्रूद्भवरहितं निष्कण्टकमुत्तमराजधर्मं सुवध्वमीशिध्वमैश्वर्य्यसहितं कुरुत। यूयमप्येवं जानीत -( सोमोऽस्माकं ब्राह्मणानां राजा) वेदविदां सभासदां मध्ये यो मनुष्यः सोम्यगुणसम्पन्नः सकलविद्यायुक्तोऽस्ति स एव सभाध्यक्षत्वेन स्वीकृतः सन् राजास्तु। हे सभासदः! (अमी) ये प्रजास्था मनुष्याः सन्ति तान् प्रत्यप्येवमाज्ञा श्राव्या -( एष वो राजा) अस्माकं वो युष्माकं च ससभासत्कोऽयं राजसभाव्यवहार एव राजास्तीति। एतदर्थं वयं (इमममुष्य पुत्रममुष्यै पुत्रं) प्रख्यातनाम्नः पुरुषस्य प्रख्यातनाम्न्याः स्त्रियाश्च सन्तानमभिषिच्याध्यक्षत्वे स्वीकुर्म्म इति॥12॥

(इन्द्रो जयाति) स एवेन्द्रः परमेश्वरः सभाप्रबन्धो वा जयाति विजयोत्कर्षं सदा प्राप्नोतु। (न पराजयातै) स मा कदाचित्पराजयं प्राप्नोतु (अधिराजो राजसु राजयातै) स राजाधिराजो विश्वस्येश्वरः सर्वेषु चक्रवर्तिराजसु माण्डलिकेषु वा स्वकीयसत्यप्रकाशन्यायेन सहास्माकं मध्ये सदा प्रसिध्यताम् (चर्कृत्यः) यो जगदीश्वरः सर्वैर्मनुष्यैः पुनः पुनरुपासनायोग्योऽस्ति , ( ईड्यः) अस्माभिः स एवैकः स्तोतुं योग्यः (वन्द्यश्च) पूजनीयः (उपसद्यः) समाश्रयितुं योग्यः (नमस्यः) नमस्कर्तुं योग्योऽस्ति। (भवेह) हे महाराजेश्वर! त्वमुत्तमप्रकारेणास्मिन् राज्ये सत्कृतो भव। भवत्सत्कारेण सह वर्त्तमाना वयमप्यस्मिन् चक्रवर्त्तिराज्ये सदा सत्कृता भवेम॥13॥

(त्वमिन्द्राधिराजः श्रवस्युः) हे इन्द्र परमेश्वर! त्वं सर्वस्य जगतोऽधिराजोऽसि , श्रव इवाचरतीति , सर्वस्य श्रोता च स्वकृपया मामपि तादृशं कुरु। (त्वं भूरभिभूतिर्जनानाम्) हे भगवन्! त्वं भूः सदा भवसि। यदा जनानामभिभूतिरभीष्टस्यैश्वर्य्यस्य दातासि तथा मामप्यनुग्रहेण करोतु। (त्वं दैवीर्विश इमा वि राजाः) हे जगदीश्वर! यथा त्वं दिव्यगुणसम्पन्ना विविधोत्तमराजपालिताः , प्रत्यक्षविषयाः प्रजाः सत्यन्यायेन पालयसि तथा मामपि कुरु। (युष्मत्क्षत्रमजरं ते अस्तु) हे महाराजाधिराजेश्वर! तव यदिदं सनातनं राजधर्मयुक्तं नाशरहितं विश्वरूपं राष्ट्रमस्ति तदिदं भवद्दत्तमस्माकमस्तु , इति याचितः सन्नाशीर्ददातीदं मद्रचितं भूगोलाख्यं राष्ट्रं युष्मदधीनमस्तु॥14॥

भाषार्थ - (इमं देवा असपत्न॰) अब ईश्वर सब मनुष्यों को राज्यव्यवस्था के विषय में आज्ञा देता है कि-हे विद्वान् लोगो। तुम इस राजधर्म को यथावत् जानकर अपने राज्य का ऐसा प्रबन्ध करो कि जिस से तुम्हारे देश पर कोई शत्रु न आ जाय। (महते क्षत्राय॰) हे शूरवीर लोगो! अपने क्षत्रिय-धर्म, चक्रवर्ति राज्य, श्रेष्ठकीर्ति सर्वोत्तम राज्यप्रबन्ध के अर्थ (महते जानराज्याय) सब प्रजा को विद्वान् करके ठीक ठीक राज्यव्यवस्था में चलाने के लिए, तथा (इन्द्रस्येन्द्रियाय) बड़े ऐश्वर्य सत्य न्याय के प्रकाश करने के अर्थ (सुवध्वं) अच्छे अच्छे राज्य सम्बन्धी प्रबन्ध करो कि जिन से सब मनुष्यों को उत्तम सुख बढ़ता जाय॥12॥

(इन्द्रो जयाति) हे बन्धु लोगो! जो परमात्मा अपने लोगों का विजय कराने वाला, (न परा जयाता) जो हम को दूसरों से कभी हारने नहीं देता, (अधिराजो) जो महाराजाधिराज (राजसु राजयातै) सब राजाओं के बीच में प्रकाशमान होकर हम को भी भूगोल में प्रकाशमान करने वाला है। (चर्कृत्यः) जो आनन्दस्वरूप परमात्मा सब जगत् को सुखों से पूर्ण करनेहारा, तथा (ईड्यो वन्द्यश्च) सब मनुष्यों को स्तुति और वन्दना करने के योग्य, (उपसद्यो नमस्यः) सब को शरण लेने और नमस्कार करने के योग्य है, (भवेह) सो ही जगदीश्वर हमारा विजय करानेवाला, रक्षक, न्यायाधीश और राजा है। इसलिए हमारी यह प्रार्थना है कि हे परमेश्वर! आप कृपा करके हम सबों के राजा हूजिये। और हम लोग आप के पुत्र और भृत्य के समान राज्याधिकारी होकर, आपके राज्य को सत्यन्याय से सुशोभित करें॥13॥

(त्वमिन्द्राधिराजः श्रवस्युः) हे परमेश्वर! आप ही सब संसार के अधिराज और आप्तों के समान सत्यन्याय के उपदेशक, (त्वं भूरभिभूतिर्जनानाम्) आप ही सदा नित्यस्वरूप और सज्जन मनुष्यों को राज्य ऐश्वर्य को देने वाले, (त्वं दैवीर्विश इमा विराजाः) आप ही इन विविध प्रजाओं को सुधारने और दुष्ट राजाओं का युद्ध में पराजय कराने वाले हैं। (युष्मत्क्षत्रमजरं ते अस्तु) हे जगदीश्वर! आपका राज्य नित्य तरुण बना रहे कि जिस से सब संसार को विविध प्रकार का सुख मिले। इस प्रकार जो मनुष्य अपने सत्य प्रेम और पुरुषार्थ से ईश्वर की भक्ति और उस की आज्ञा पालन करते हैं, उन को वह आशीर्वाद देता है कि-मेरे रचे हुए भूगोल का राज्य तुम्हारे आधीन हो॥14॥

स्थिरा वः सन्त्वायुधा पराणुदे वीळू उत प्रतिष्कभे।

युष्माकमस्तु तविषी पनीयसी मा मर्त्यस्य मायिनः॥15॥

-ऋ॰ अ॰ 1। अ॰ 3। व॰ 18। मं॰ 2॥

तं सभा च समितिश्च सेना च॥16॥

-अथर्व॰ कां॰ 15। अनु॰ 2। व॰ 9। मं॰ 2॥

इमं वीरमनु हर्षध्वमुग्रमिन्द्रं

सखायो अनु सं रभध्वम्।

ग्रामजितं गोजितं वज्रबाहुं

जयन्तमज्म प्रमृणन्तमोजसा॥17॥

-अथर्व॰ कां॰ 6। अनु॰ 10। व॰ 97। मं॰ 3॥

सभ्य सभां मे पाहि ये च सभ्याः सभासदः।

त्वयेद्गाः पुरुहूत विश्वम् आयुर्व्यश्नवम्॥18॥

-अथर्व॰ कां॰ 19। अनु 7। व॰ 55। मं॰ 6॥

भाष्यम् - ( स्थिरा वः) अस्यार्थः प्रार्थनाविषय उक्तः॥15॥ (तं सभा च) राजसभा प्रजा च तं पूर्वोक्तं सर्वराजाधिराजं परमेश्वरं तथा सभाध्यक्षमभिषिच्य राजानं मन्येत। (समितिश्च) तमनुश्रित्यैव समित्या युद्धमाचरणीयम् (सेना च) तथा वीरपुरुषाणां या सेना सापि परमेश्वरं , ससभाध्यक्षां सभां , स्वसेनानीं चानुश्रित्य युद्धं कुर्य्यात्॥16॥

ईश्वरः सर्वान् मनुष्यान् प्रत्युपदिशति -( सखायः) हे सखायः! (इमं वीरमुग्रमिन्द्रं) शत्रूणां हन्तारं , युद्धकुशलं , निर्भयं , तेजस्विनं प्रति राजपुरुषं तथेन्द्रं परमैश्वर्य्यवन्तं परमेश्वरं (अनु हर्षध्वं) सर्वे यूयमनुमोदयध्वम् , एवं कृत्वैव दुष्टशत्रूणां पराजयार्थम् (अनु संरभध्वं) युद्धारम्भं कुरुत। कथम्भूतं तं ? ( ग्रामजितं) येन पूर्वं शत्रूणां समूहा जिताः (गोजितं) येनेन्द्रियाणि पृथिव्यादिकं च जितं (वज्रबाहुं) वज्रः प्राणो बलं बाहुर्यस्य (जयन्तं) जयं प्राप्नुवन्तं (प्रमृणन्तमोजसा) ओजसा बलेन शत्रून् प्रकृष्टतया हिंसन्तम् (अज्म) वयं तमाश्रित्य सदा विजयं प्राप्नुमः॥17॥

(सभ्य सभां मे पाहि) हे सभायां साधो परमेश्वर! मे मम सभां यथावत् पालय। म इत्यस्मच्छब्दनिर्देशात्सर्वान् मनुष्यानिदं वाक्यं गृह्णातीति (ये च सभ्याः सभासदः) सभाकर्मसु साधवश्चतुराः सभायां सीदन्ति , तेऽस्माकं पूर्वोक्तां त्रिविधां सभां पान्तु यथावद्रक्षन्तु (त्वयेद्गाः पुरुहूत) हे बहुभिः पूजित परमात्मन्! त्वया सह ये सभाध्यक्षाः सभासद इद्गा इतं राजधर्मज्ञानं गच्छन्ति , त एव सुखं प्राप्नुवन्ति (विश्वमायुर्व्यश्नवम्) एवं सभापालितोऽहं सर्वो जनः शतवार्षिकं सुखयुक्तमायुः प्राप्नुयाम्॥18॥

भाषार्थ - (स्थिरा वः सन्त्वायुधा॰) इस मन्त्र का अर्थ प्रार्थनादिविषय में कर दिया है॥15॥

(तं सभा च) प्रजा तथा सब सभासद् सब राजाओं के राजा परमेश्वर को जान के, सब सभाओं के सभाध्यक्ष का अभिषेक करें। (समितिश्च) सब मनुष्यों को उचित है कि परमेश्वर और सर्वोपकारक धर्म का ही आश्रय करके युद्ध करें। तथा (सेना च) जो सेना, सेनापति और सभाध्यक्ष हैं, वे सब सभा के आश्रय से विचारपूर्वक उत्तम सेना को बना के सदैव प्रजापालन और युद्ध करें॥16॥

ईश्वर सब मनुष्यों को उपदेश करता है कि-(सखायः) हे बन्धु लोगो! (इमं वीरं) हे शूरवीर लोगो! न्याय और दृढ़भक्ति से अनन्त बलवान् परमेश्वर को इष्ट करके, (अनु हर्षध्वं) शूरवीर लोगों को सदा आनन्द में रक्खो। (उग्रमिन्द्रं) तुम लोग अत्यन्त उग्र परमेश्वर के सहाय से एक सम्मति होकर (अनु संरभध्वं) दुष्टों को युद्ध में जीतने का उपाय रचा करो। (ग्रामजितं) जिस ने सब भूगोल तथा (गोजितं) सब के मन और इन्द्रियों को जीत रक्खा है (वज्रबाहुं) प्राण जिस के बाहु और (जयन्तं) जो हम सब को जिताने वाला है, (अज्म) उसी को इष्ट जान के हम लोग अपना राजा मानें। (प्रमृणन्तमोजसा) जो अपने अनन्त पराक्रम से दुष्टों का पराजय करके हम को सुख देता है॥17॥

(सभ्य सभां मे पाहि) हे सभा के योग्य परमेश्वर! आप हम लोगों की राजसभा की रक्षा कीजिये। (ये च सभ्याः सभासदः) हम लोग जो सभा के सभासद हैं, सो आपकी कृपा से सभ्यतायुक्त होकर अच्छी प्रकार से सत्य न्याय की रक्षा करें। (त्वयेद्गाः पुरुहूत॰) हे सब के उपास्यदेव! (विश्वमायुर्व्यश्नवम्) हम लोग आप ही के सहाय से आप की आज्ञा को पालन करते रहैं, जिस से सम्पूर्ण आयु को सुख से भोगें॥18॥

जनिष्ठाः उग्रः सहसे तुरायेति सूक्तमुग्रवत्सहस्वत्तत्क्षत्रस्य रूपं मन्द्र ओजिष्ठ इत्योजस्वत्तत्क्षत्रस्य रूपम्॥1॥

बृहत्पृष्ठं भवति , क्षत्रं वै बृहत्क्षत्रेणैव तत्क्षत्रं समर्द्धय यथो क्षत्रं वै बृहदात्मा यजमानस्य निष्केवल्यं तद्यद् बृहत्पृष्ठं भवति॥2॥

ब्रह्म वै रथन्तरं क्षत्रं बृहद् ब्रह्मणि खलु वै क्षत्रं प्रतिष्ठितं क्षत्रे ब्रह्म॥3॥

ओजो वा इन्द्रियं वीर्य्यं पञ्चदश , ओजः क्षत्रं वीर्यं राजन्यस्तदेनमोजसा क्षत्रेण वीर्य्येण समर्द्धयति। तद्भारद्वाजं भारद्वाजं वै बृहत्॥4॥

-ऐ॰ पञ्चि॰ 8। अ॰ 1। कं॰ 2। 3॥

तानाहमनुराज्याय साम्राज्याय भौज्याय स्वाराज्याय वैराज्याय पारमेष्ठ्याय राज्याय माहाराज्यायाधिपत्याय स्वावश्यायातिष्ठायां रोहामीति॥5॥

नमो ब्रह्मणे नमो ब्रह्मणे नमो ब्रह्मण इति त्रिष्कृत्वो ब्रह्मणे नमस्करोति। ब्रह्मण एव तत्क्षत्रं वशमेति , तद्यत्र वै ब्रह्मणः क्षत्रं वशमेति तद्राष्ट्रं समृद्धं तद्वीरवदाहास्मिन् वीरो जायते॥6॥

-ऐ॰ पञ्चि॰ 8। कं॰ 6। 7।

भाष्यम् - इयं राजधर्मव्याख्या वेदरीत्या संक्षेपेण लिखिताऽतोऽग्र ऐतरेयशतपथब्राह्मणादि-ग्रन्थरीत्या संक्षेपतो लिख्यते। तद्यथा -

(जनिष्ठा उग्रः॰) राजसभायां , जनिष्ठा अतिशयेन जना विद्वांसो धर्मात्मानः , श्रेष्ठप्रकृतीन् मनुष्यान् प्रति , सदा सुखदास्सोम्या भवेयुः। तथा दुष्टान् प्रत्युग्रो व्यवहारो धार्य्य इति। कुतो यद्राजकर्मास्ति तद् द्विविधं भवत्येकं सहस्वद् , द्वितीयमुग्रवदर्थात् क्वचिद्देशकालवस्त्वनुसारेण सहनं कर्तव्यम् क्वचित्तद्विपर्य्यये राजपुरुषैर्दुष्टेषूग्रो दण्डो निपातनीयश्चैतत्क्षत्रस्य धर्मस्य स्वरूपं भवति। तथा (मन्द्र ओजिष्ठः॰) उत्तमकर्मकारिभ्य आनन्दकरो दुष्टेभ्यो दुःखप्रदश्चात्युत्तमवीर- पुरुषसेनादिपदार्थसामग्र्या सहितो यो राजधर्मोऽस्ति स च क्षत्रस्य स्वरूपमस्ति॥1॥

(बृहत्पृष्ठं॰) यत्क्षत्रं कर्म तत्सर्वेभ्यः कृत्येभ्यो बृहन्महदस्ति। तथा पृष्ठमर्थान्निर्बलानां रक्षकं सत् पुनरुत्तमसुखकारकं भवति। एतेनोक्तेन च क्षत्रराजकर्म्मणा मनुष्यो राजकर्म वर्द्धयति। नातोऽन्यथा क्षत्रधर्मस्य वृद्धिर्भवितुमर्हति। तस्मात्क्षत्रं सर्वस्मात्कर्मणो बृहद्यजमानस्य प्रजास्थस्य जनस्य राजपुरुषस्य वात्मात्मवदानन्दप्रदं भवति। तथा सर्वस्य संसारस्य निष्केवल्यं निरन्तरं केवलं सुखं सम्पादयितुं यतः समर्थं भवति , तस्मात्तत्क्षत्रकर्म सर्वेभ्यो महत्तरं भवतीति॥2॥

(ब्रह्म वै रथन्तरं॰) ब्रह्मशब्देन सर्वविद्यायुक्तो ब्राह्मणवर्णो गृह्यते , तस्मिन् खलु क्षत्रधर्मः प्रतिष्ठितो भवति। नैव कदाचित्सत्यविद्यया विना क्षत्रधर्मस्य वृद्धिरक्षणे भवतः। तथा (क्षत्रे ब्रह्म) राजन्ये ब्रह्माऽर्थात् सत्यविद्या प्रतिष्ठिता भवति। नैवास्माद्विना कदाचिद्विद्याया वृद्धिरक्षणे सम्भवतः तस्माद्विद्याराजव्यवहारौ मिलित्वैव राष्ट्रसुखोन्नतिं कर्तुं शक्नुत इति॥3॥

(ओजो वा इन्द्रियं॰) राजपुरुषैर्बलपराक्रमवन्तीन्द्रियाणि सदैव रक्षणीयानि अर्थाज्जितेन्द्रियतयैव सदैव वर्तितव्यम्। कुत " ओज एव क्षत्रं , वीर्य्यमेव राजन्य " इत्युक्तत्वात्। तत्तस्मादोजसा क्षत्रेण वीर्य्येण राजन्येनैनं राजधर्मं मनुष्यः समर्द्धयति , सर्वसुखैरेधमानं करोति। इदमेव भारद्वाजं भरणीयं , बृहदर्थान्महत् कर्मास्तीति॥4॥

(तानाहमनुराज्याय॰) सर्वे मनुष्या एवमिच्छां कृत्वा पुरुषार्थं कुर्युः - परमेश्वरानुग्रहेणाहमनुराज्याय सभाध्यक्षत्वप्राप्तये तथा माण्डलिकानां राज्ञामुपरिराजसत्ताप्राप्तये , ( साम्राज्याय) सार्वभौमराज्यकरणाय , ( भौज्याय) धर्मन्यायेन राज्यपालनायोत्तमभोगाय च , ( स्वाराज्याय) स्वस्मै राज्यप्राप्तये , ( वैराज्याय) विविधानां राज्ञां मध्ये महत्त्वेन प्रकाशाय , ( पारमेष्ठ्याय) परमराज्यस्थितये , ( माहाराज्याय) महाराज्यसुखभोगाय , तथा (आधिपत्याय) अधिपतित्वकरणाय , ( स्वावश्याय) स्वार्थं प्रजावशत्वकरणाय च , ( अतिष्ठायां) अत्युत्तमा विद्वांसस्तिष्ठन्ति यस्यां सा अतिष्ठा सभा , तस्यां सर्वैर्गुणैः सुखैश्च (रोहामि) वर्धमानो भवामीति॥5॥

(नमो ब्रह्मणे॰) परमेश्वराय त्रिवारं चतुर्वारं वा नमस्कृत्य राजकर्मारम्भं कुर्य्यात्। यत् क्षत्रं ब्रह्मणः परमेश्वरस्य वशमेति , तद्राष्ट्रं समृद्धं सम्यक् ऋद्धियुक्तं वीरवद् भवति। तस्मिन्नेव राष्ट्रे वीरपुरुषो जायते नान्यत्रेत्याह परमेश्वरः॥6॥

भाषार्थ - इस प्रकार वेदरीति से राजा और प्रजा के धर्म संक्षेप से कह चुके। इस के आगे वेद की सनातन व्याख्या जो ऐतरेय और शतपथब्राह्मणादि ग्रन्थ हैं, उन की साक्षी भी यहां लिखते हैं- (जनिष्ठा उग्रः॰) राजाओं की सेना और सभा में जो पुरुष हों वे सब दुष्टों पर तेजधारी, श्रेष्ठों पर शान्तरूप, सुख दुःख के सहन करनेवाले और धन के लिए अत्यन्त पुरुषार्थी हों। क्योंकि दुष्टों पर क्रुद्धस्वभाव और श्रेष्ठों पर सहनशील होना, यही राज्य का स्वरूप है। (मन्द्र ओजिष्ठः॰) जो आनन्दित और पराक्रमयुक्त होना है, वही राज्य का स्वरूप है। क्योंकि राज्यव्यवहार सब से बड़ा है। इस में शूरवीर आदि गुणयुक्त पुरुषों की सभा और सेना रख कर अच्छी प्रकार राज्य को बढ़ाना चाहिये॥2॥

(ब्रह्म वै रथन्तरं॰) ब्रह्म अर्थात् 'परमेश्वर और वेदविद्या से युक्त जो पूर्ण विद्वान् ब्राह्मण है, वही राज्य के प्रबन्धों में सुखप्राप्ति का हेतु होता है। इसलिये अच्छे राज्य के होने से ही सत्यविद्या प्रकाश को प्राप्त होती है॥ उत्तम विद्या और न्याययुक्त राज्य का नाम ओज है। जिस को दण्ड के भय से उल्लङ्घन वा अन्यथा कोई नहीं कर सकता। क्योंकि ओज अर्थात् बल का नाम क्षत्र और पराक्रम का नाम राजन्य है। ये दोनों जब परस्पर मिलते हैं, तभी संसार की उन्नति होती है। इस के होने और परमेश्वर की कृपा से मनुष्य के राजकर्म, चक्रवर्तिराज्य, भोग का राज्य, अपना राज्य, विविध राज्य, परमेष्ठिराज्य, प्रकाशरूप राज्य, महाराज्य, राजों का अधिपतिरूप राज्य और अपने वश का राज्य इत्यादि उत्तम उत्तम सुख बढ़ते हैं। इसलिये उस परमात्मा को मेरा वारंवार नमस्कार है कि जिस के अनुग्रह से हम लोग इन राज्यों के अधिकारी होते हैं॥6॥

सप्रजापतिका , अयं वै देवानामोजिष्ठो बलिष्ठः सहिष्ठः सत्तमः पारयिष्णुतम , इममेवाभिषिञ्चामहा इति तथेति तद्वैतदिन्द्रमेव॥7॥

सम्राजं साम्राज्यं भोजं भोजपितरं स्वराजं स्वाराज्यं विराजं वैराज्यं राजानं राजपितरं परमेष्ठिनं पारमेष्ठ्यं क्षत्रमजनि क्षत्रियोऽजनि विश्वस्य भूतस्याधिपतिरजनि विशामत्ताजनि पुरां भेत्ताजन्यसुराणां हन्ताजनि ब्रह्मणो गोप्ताजनि धर्मस्य गोप्ताजनीति। (ऐत॰ पं॰ 8। कं॰ 12॥) स परमेष्ठी प्राजापत्योऽभवत्॥8॥ (ऐत॰ पं॰ 8। कं॰ 14॥)

स एतेनैन्द्रेण महाभिषेकेणाभिषिक्तः क्षत्रियः सर्वा जितीर्जयति सर्वान् लोकान् विन्दति सर्वेषां राज्ञां श्रैष्ठ्यप्रतिष्ठां परमतां गच्छति साम्राज्यं भौराज्यं स्वाराज्यं वैराज्यं पारमेष्ठ्यं राज्यं माहाराज्यमाधिपत्यं जित्वास्मिँल्लोके स्वयम्भूः स्वराडमृतोऽमुष्मिन्त्स्वर्ग्गे लोके सर्वान् कामनाप्तामृतः सम्भवति यमेतेनैन्द्रेण महाभिषेकेण क्षत्रियं शापयित्वाऽभिषिञ्चति॥9॥

-ऐत॰ पं॰ 8। कं॰ 19॥

भाष्यम् - ( सप्रजापतिका॰) सर्वे सभासदः प्रजास्थमनुष्याः स्वामिनेष्टेन पूज्यतमेन परमेश्वरेणैव सह वर्तमाना भवेयुः। सर्वे मिलित्वैवं विचारं कुर्युर्यतो न कदाचित्सुखहानिपराजयौ स्याताम्। यो देवानां विदुषां मध्ये (ओजिष्ठः) पराक्रमवत्तमः , ( बलिष्ठः) सर्वोत्कृष्टबलसहितः , ( सहिष्ठः) अतिशयेन सहनशीलः , ( सत्तमः) सर्वैर्गुणैरत्यन्तश्रेष्ठः , ( पारयिष्णुतमः) सर्वेभ्यो युद्धादिदुःखेभ्योऽतिशयेन सर्वांस्तारयितृतमो विजयकारकतमोऽस्माकं मध्ये श्रेष्ठतमोऽस्तीति। वयं निश्चित्य तमेव पुरुषमभिषिञ्चाम इतीच्छेयुः। तथैव खल्वस्त्विति सर्वे प्रतिजानीयुरेवम्भूतस्योत्तमपुरुषस्याभिषेककरणं , सर्वैश्वर्यप्रापकत्वादिन्द्रमित्याहुः॥7॥

(सम्राजं॰) एवम्भूतं सार्वभौमराजानं , ( साम्राज्यं) सार्वभौमराज्यं , ( भोजं) उत्तमभोगसाधकं , ( भोजपितरं) उत्तमभोगानां रक्षकं , ( स्वराजं) राजकर्मसु प्रकाशमानं , सद्विद्यादिगुणैस्स्वहृदये देदीप्यमानं , ( स्वाराज्यं) स्वकीयराज्यपालनं (विराजं) विविधानां राज्ञां प्रकाशकं , ( वैराज्यं) विविधराज्यप्राप्तिकरं (राजानं) श्रेष्ठैश्वर्य्येण प्रकाशमानं , ( राजपितरं) राज्ञां रक्षकं , ( परमेष्ठिनं) परमोत्कृष्टे राज्ये स्थापयितुं योग्यं , ( पारमेष्ठ्यं) परमेष्ठिसम्पादितं सर्वोत्कृष्टं पुरुषं वयमभिषिञ्चामहे। एवमभिषिक्तस्य पुरुषस्य सुखयुक्तं (क्षत्रमजनि) प्रादुर्भवतीति। अजनीति ' छन्दसि लुङ्लङ्लिटः ' इति वर्त्तमानकाले लुङ्। (क्षत्रियोऽजनि) तथा क्षत्रियो वीरपुरुषः , ( विश्व॰) सर्वस्य प्राणिमात्रस्याधिपतिः सभाध्यक्षः (विशामत्ता॰) दुष्टप्रजानामत्ता विनाशकः (पुरां भे॰) शत्रुनगराणां विनाशकः , ( असुराणां हन्ता) दुष्टानां हन्ता हननकर्त्ता (ब्रह्मणो॰) वेदस्य रक्षकः , ( धर्मस्य गो॰) धर्मस्य च रक्षकोऽजनि प्रादुर्भवतीति॥ (स परमेष्ठी प्रा॰) स राजधर्मः सभाध्यक्षादिमनुष्यैः (प्राजापत्यः॰) अर्थात् परमेश्वर इष्टः करणीयः। न तद्भिन्नोऽर्थः केनचिन् मनुष्येणेष्टः कर्तुं योग्योऽस्त्यतः सर्वे मनुष्याः परमेश्वरपूजका भवेयुः॥8॥

यो मनुष्यो राज्यं कर्तुमिच्छेत्स (एतेनैन्द्रेण॰) पूर्वोक्तेन सर्वैश्वर्य्यप्राप्तिनिमित्तेन (महाभिषेकेणा॰) अभिषिक्तः स्वीकृतः , ( क्षत्रियः) क्षत्रधर्मवान् , ( सर्वान्) सर्वेषु युद्धेषु जयति , सर्वत्र विजयं तथा सर्वानुत्तमांल्लोकाँश्च विन्दति प्राप्नोति। (सर्वेषां राज्ञां॰) मध्ये श्रैष्ठ्यं सर्वोत्तमत्वं , पूर्वोक्तामतिष्ठां , या परेषु शत्रुषु विजयेन हर्षनिमित्ता तथा परेषां शत्रूणां दीनत्वनिमित्ता सा परमत्ता सभा , तां वा गच्छति प्राप्नोति। तया सभया पूर्वोक्तं साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं वैराज्यं पारमेष्ठ्यं महाराज्यमाधिपत्यं राज्यं च जित्वाऽस्मिन् लोके चक्रवर्तिसार्वभौमो महाराजाधिराजो भवति। तथा शरीरं त्यक्त्वाऽमुष्मिन्स्वर्गे सुखस्वरूपे लोके परब्रह्मणि (स्वयम्भूः) स्वाधीनः , ( स्वराट्) स्वप्रकाशः , ( अमृतः) प्राप्तमोक्षसुखः सन् सर्वान् कामानाप्नोति। (आप्तामृतः) पूर्णकामोऽजरामरः सम्भवति। (यमेतेनैन्द्रेण॰) एतेनोक्तेन सर्वैश्वर्येण (शापयित्वा) प्रतिज्ञां कारयित्वा यं सकलगुणोत्कृष्टं क्षत्रियं (महाभिषे॰) अभिषिञ्चन्ति सभासदः सभायां स्वीकुर्वन्ति। तस्य राष्ट्रे कदाचिदनिष्टं न प्रसज्यत इति विज्ञेयम्॥9॥

भाषार्थ - जो क्षत्र अर्थात् राज्य परमेश्वर आधीन और विद्वानों के प्रबन्ध में होता है, वह सब सुखकारक पदार्थ और वीर पुरुषों से अत्यन्त प्रकाशित होता है। (सप्रजापतिका॰) और वे विद्वान् एक अद्वितीय परमेश्वर के ही उपासक होते हैं। क्योंकि वही एक परमात्मा सब देवों के बीच में अनन्त विद्यायुक्त और अपार बलवान् है। तथा अत्यन्त सहनस्वभाव और सब से उत्तम है। वही हम को सब दुःखों के पार उतार के सब सुखों को प्राप्त करानेवाला है। उसी परमात्मा को हम लोग अपने राज्य और सभा में अभिषेक करके अपना न्यायकारी राजा सदा के लिए मानते हैं तथा जिस का नाम इन्द्र अर्थात् परमैश्वर्य्ययुक्त है।

वही हमारा सम्राट् अर्थात् चक्रवर्ती राजा और वही हम को भी चक्रवर्ती राज्य देनेवाला है। जो पिता के सदृश सब प्रकार से हमारा पालन करनेवाला, स्वराट् अर्थात् स्वयं प्रकाशस्वरूप और प्रकाशरूप राज्य का देनेवाला है। तथा जो विराट् अर्थात् सब का प्रकाशक, विविध राज्य का देनेवाला है, उसी को हम राजा और सब राजाओं का पिता मानते हैं। क्योंकि वही परमेष्ठी सर्वोत्तम राज्य का भी देने वाला है। उसी की कृपा से मैंने राज्य को प्रसिद्ध किया, अर्थात् मैं क्षत्रिय और सब प्राणियों का अधिपति हुआ। तथा प्रजाओं का संग्रह, दुष्टों के नगरों का भेदन, असुर अर्थात् चोर डाकुओं का ताड़न, ब्रह्म अर्थात् वेदविद्या का पालन और धर्म की रक्षा करनेवाला हुआ हूं॥

जो क्षत्रिय इस प्रकार के गुण और सत्य कर्मों से अभिषिक्त अर्थात् युक्त होता है, वह सब युद्धों को जीत लेता है। तथा सब उत्तम सुख और लोकों का अधिकारी बन कर सब राजाओं के बीच में अत्यन्त उत्तमता को प्राप्त होता है। जिस से इस लोक में चक्रवर्ति राज्य और लक्ष्मी को भोग के मरणानन्तर परमेश्वर के समीप सब सुखों को भोगता है। क्योंकि ऐन्द्र अर्थात् महा ऐश्वर्ययुक्त अभिषेक से क्षत्रिय को प्रतिज्ञापूर्वक राज्याधिकार मिलता है। इसलिए जिस देश में इस प्रकार का राज्यप्रबन्ध किया जाता है, वह देश अत्यन्त सुख को प्राप्त होता है॥9॥

क्षत्रं वै स्विष्टकृत्॥ क्षत्रं वै साम। साम्राज्यं वै साम॥

-श॰ कां॰ 12। अ॰ 8। ब्रा॰ 2॥

ब्रह्म वै ब्राह्मणः क्षत्रं राजन्यस्तदस्य ब्रह्मणा च क्षत्रेण चोभयतः श्रीः परिगृहीता भवति॥ युद्धं वै राजन्यस्य वीर्य्यम्॥

-श॰ कां॰ 13। अ॰ 1। ब्रा॰ 5॥

राष्ट्रं वा अश्वमेधः॥

-श॰ कां॰ 13। अ॰ 1। ब्रा॰ 6॥

राजन्य एव शौर्य्यं महिमानं दधाति तस्मात्पुरा राजन्यः शूर इषव्योऽतिव्याधी महारथो जज्ञे॥

-श॰ कां॰ 13। अ॰ 1। ब्रा॰ 9॥

भाष्यम् - ( क्षत्रं वै॰) क्षत्रमर्थाद्राजसभाप्रबन्धेन यद्यथावत्प्रजापालनं क्रियते , तदेव स्विष्टकृदर्थादिष्टसुखकारि , ( क्षत्रं वै साम) यद्वै दुष्टकर्मणामन्तकारि तथा सर्वस्याः प्रजायाः सान्त्वप्रयोगकर्त्तृ च भवति। (साम्राज्यं वै॰) तदेव श्रेष्ठं राज्यं वर्णयन्ति॥

(ब्रह्म वै॰) ब्रह्मार्थाद्वेदं परमेश्वरं च वेत्ति स एव ब्राह्मणो भवितुमर्हति। (क्षत्रं॰) यो जितेन्द्रियो विद्वान् शौर्य्यादिगुणयुक्तो महावीरपुरुषः क्षत्रधर्मं स्वीकरोति , स राजन्यो भवितुमर्हति। (तदस्य ब्रह्मणा॰) तादृशैर्ब्राह्मणै राजन्यैश्च सहास्य राष्ट्रस्य सकाशादुभयतः श्री राज्यलक्ष्मीः परितः सर्वतो गृहीता भवति। नैवं राजधर्मानुष्ठानेनास्याः श्रियः कदाचिद्ध्रासान्यथात्वे भवतः। (युद्धं वै॰) अत्रेदं बोध्यम् - युद्धकरणमेव राजन्यस्य वीर्य्यं बलं भवति। नानेन विना महाधन- सुखयोः कदाचित्प्राप्तिर्भवति। कुतः ? निघं॰ अ॰ 2। खं॰ 17॥ संग्रामस्यैव महाधनसंज्ञत्वात्। महान्ति धनानि प्राप्तानि भवन्ति यस्मिन्स महाधनः संग्रामो , नास्माद्विना कदाचिन् महती प्रतिष्ठा महाधनं च प्राप्नुतः॥

(राष्ट्रं वा अश्वमेधः) राष्ट्रपालनमेव क्षत्रियाणामश्वमेधाख्यो यज्ञो भवति। नाश्वं हत्वा तदङ्गानां होमकरणं चेति॥

(राजन्य एव॰) पुरा पूर्वोक्तैर्गुणैर्युक्तो राजन्यो यदा शौर्य्यं महिमानं दधाति , तदा सार्वभौमं राज्यं कर्तुं समर्थो भवति। तस्मात्कारणाद्राजन्यः शूरो युद्धोत्सुको निर्भयः (इषव्यः) शस्त्रास्त्रप्रक्षेपणे कुशलः , ( अतिव्याधी) अत्यन्ता व्याधाः शत्रूणां हिंसका योद्धारो यस्य , ( महारथः) महान्तो भूजलान्तरिक्षगमनाय रथा यस्येति। यस्मिन् राष्ट्रे ईदृशो राजन्यो (जज्ञे) जातोऽस्ति , नैव कदाचित्तस्मिन् भयदुःखे सम्भवतः॥13॥

भाषार्थ - (क्षत्रं वै॰) राजसभाप्रबन्ध से जो यथावत् प्रजा का पालन किया जाता है, वही स्विष्टकृत् अर्थात् अच्छी प्रकार चाहे हुए सुख का करनेवाला होता है। (क्षत्रं वै सा॰) जो राजकर्म दुष्टों का नाश और श्रेष्ठों का पालन करनेवाला है, वही साम्राज्यकारी अर्थात् राजसुखकारक होता है। (ब्रह्म वै॰) जो मनुष्य ब्रह्म अर्थात् परमेश्वर और वेद का जाननेवाला है, वही ब्राह्मण होने के योग्य है। (क्षत्रं॰) जो इन्द्रियों का जीतनेवाला, पण्डित शूरतादिगुणयुक्त, श्रेष्ठ, वीरपुरुष क्षत्रधर्म को स्वीकार करता है सो क्षत्रिय होने के योग्य है। (तदस्य ब्रह्मणा॰) ऐसे ब्राह्मण और क्षत्रियों के साथ न्यायपालक राजा को अनेक प्रकार से लक्ष्मी प्राप्त होती है और उस के खजाने की हानि कभी नहीं होती (युद्धं वै॰) यहां इस बात को जानना चिाहए कि जो राजा को युद्ध करना है, वही उस का बल होता है। उस के विना बहुत धन और सुख की प्राप्ति कभी नहीं होती। क्योंकि निघण्टु में संग्राम ही का नाम 'महाधन' है। सो उसको महाधन इसलिए कहते हैं कि उस से बड़े बड़े उत्तम पदार्थ प्राप्त होते हैं, क्योंकि विना संग्राम के अत्यन्त प्रतिष्ठा और धन कभी नहीं प्राप्त होता। और जो न्याय से राज्य का पालन करना है, वही क्षत्रियों का 'अश्वमेध' कहाता है। किन्तु घोड़े को मार के उसके अङ्गों का होम करना यह अश्वमेध नहीं है।

(राजन्य एव॰) पूर्वोक्त राजा जब शूरतारूप कीर्ति को धारण करता है, तभी सम्पूर्ण पृथिवी के राज्य करने को समर्थ होता है। इसलिये जिस देश में युद्ध को अत्यन्त चाहनेवाला, निर्भय, शस्त्र-अस्त्र चलाने में अतिचतुर और जिस का रथ पृथिवी, समुद्र और अन्तरिक्ष में जाने आनेवाला हो, ऐसा राजा होता है, वहां भय और दुःख नहीं होते।

श्रीर्वै राष्ट्रम्॥ श्रीर्वै राष्ट्रस्य भारः॥ श्रीर्वै राष्ट्रस्य मध्यम्॥ क्षेमो वै राष्ट्रस्य शीतम्॥ विड्वै गभो राष्ट्रं पसो राष्ट्रमेव विश्या हन्ति तस्माद्राष्ट्री विशं घातुकः॥ विशमेव राष्ट्रायाद्यां करोति तस्माद्राष्ट्री विशमत्ति न पुष्टं पशुं मन्यत इति॥ शत॰ कां॰ 13। अ॰ 2। ब्रा॰ 3॥

भाष्यम् - ( श्रीर्वै राष्ट्रम्) या विद्याद्युत्तमगुणरूपा नीतिः सैव राष्ट्रं भवति। (श्रीर्वै राष्ट्रस्य भारः) सैव राज्यश्री राष्ट्रस्य सम्भारो भवति (श्रीर्वै राष्ट्रस्य मध्यम्) राष्ट्रस्य मध्यभागोऽपि श्रीरेवास्ति। (क्षेमो वै रा॰) क्षेमो यद्रक्षणं तदेव राष्ट्रस्य शयनवन्निरुपद्रवं सुखं भवति। (विड्वै गभः) विड् या प्रजा सा गभाख्यास्ति (राष्ट्रं पसो॰) यद्राष्ट्रं तत्पसाख्यं भवति , तस्माद्यद्राष्ट्रसम्बन्धिकर्म तद्विशि प्रजायामाविश्य तामाहन्त्यासमन्तात्करग्रहणेन प्रजाया उत्तमपदार्थानां हरणं करोति , ( तस्माद्राष्ट्री॰ वि॰) यस्मात् सभया विनैकाकी पुरुषो भवति तत्र प्रजा सदा पीडिता भवति , तस्मादेकः पुरुषो राजा नैव कर्त्तव्यः , नैकस्य पुरुषस्य राजधर्मानुष्ठाने यथावत् सामर्थ्यं भवति , तस्मात्सभयैव राज्यप्रबन्धः कर्तुं शक्योऽस्ति। (विशमेव राष्ट्राया॰) यत्रैको राजास्ति तत्र राष्ट्राय विशं प्रजामाद्यां भक्षणीयां भोज्यवत्ताडितां करोति। यस्मात् स्वसुखार्थं प्रजाया उत्तमान् पदार्थान् गृह्णन् सन् प्रजायै पीडां ददाति तस्मादेको राष्ट्री विशमत्ति , ( न पुष्टं पशुं म॰) यथा मांसाहारी पुष्टं पशुं दृष्ट्वा हन्तुमिच्छति , तथैको राजा न मत्तः कश्चिदधिको भवेदितीर्ष्यया नैव प्रजास्थस्य कस्यचिन्मनुष्यस्योत्कर्षं सहते। तस्मात्सभाप्रबन्धयुक्तेन राज्यव्यवहारेणैव भद्रमित्येवं राजधर्मव्यवहारप्रतिपादका मन्त्रा बहवः सन्तीति॥

भाषार्थ - (श्रीर्वै राष्ट्रं) श्री जो है लक्ष्मी वही राज्य का स्वरूप, सामग्री और मध्य है तथा राज्य का जो रक्षण करना है, वही शोभा अर्थात् श्रेष्ठभाग कहाता है। राज्य के लिए एक को राजा कभी नहीं मानना चाहिए। क्योंकि जहां एक को राजा मानते हैं, वहां सब प्रजा दुःखी और उस के उत्तम पदार्थों का अभाव हो जाता है। इसी से किसी की उन्नति नहीं होती।

इसी प्रकार सभा करके राज्य का प्रबन्ध आर्यों में श्रीमन्महाराज युधिष्ठिरपर्यन्त बराबर चला आया है, कि जिस की साक्षी महाभारत के राजधर्म आदि ग्रन्थ तथा मनुस्मृत्यादि धर्मशास्त्रों में यथावत् लिखी है। उन में जो कुछ प्रक्षिप्त किया है उसको छोड़ के बाकी सब अच्छा है, क्योंकि वह वेदों के अनुकूल है। और आर्यों की यह एक बात बड़ी उत्तम थी कि जिस सभा वा न्यायाधीश के सामने अन्याय हो, वह प्रजा का दोष नहीं मानते थे, किन्तु वह दोष सभाध्यक्ष, सभासद् और न्यायाधीश का ही गिना जाता था। इसलिए वे लोग सत्य न्याय करने में अत्यन्त पुरुषार्थ करते थे, जिस से आर्यावर्त्त के न्यायघर में कभी अन्याय नहीं होता था। और जहां होता था वहां उन्हीं न्यायाधीशों को दोष देते थे। यही सब आर्यों का सिद्धान्त है। अर्थात् इन्हीं वेदादि शास्त्रों की रीति से आर्यों ने भूगोल में करोड़ों वर्ष राज्य किया है, इस में कुछ सन्देह नहीं।

इति संक्षेपतो राजप्रजाधर्मविषयः॥22॥