ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (दयानन्दसरस्वतीविरचिता)/२०. विवाहविषयः

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अथ विवाहविषयः संक्षेपतः[सम्पाद्यताम्]

गृभ्णामि ते सौभगत्वाय

हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्यथासः।

भगो अर्य्यमा सविता पुरन्धिर्

मह्यं त्वादुर्गार्हपत्याय देवाः॥ 1

इहैव स्तं मा वि यौष्टं विश्वमायुर्व्यश्नुतम्।

क्रीडन्तौ पुत्रैर्नप्तृभिर्मोदमानौ स्वे गृहे॥ 2

-ऋ॰ अ॰ 8 । अ॰ 3 । व॰ 27, 28 । मं॰ 1, 2

भाष्यम् - अनयोरभि॰ - अत्र विवाहविधानं क्रियत इति।

हे कुमारि युवते कन्ये! (सौभगत्वाय) सन्तानोत्पत्त्यादि-प्रयोजनसिद्धये (ते हस्तं) तव हस्तं (गृभ्णामि) गृह्णामि , त्वया सहाहं विवाहं करोमि , त्वं च मया सह। हे स्त्रि! (यथा) येन प्रकारेण (मया पत्या) सह (जरदष्टिः) (आसः) जरावस्थां प्राप्नुयास्तथैव त्वया स्त्रिया सह जरदष्टिरहं भवेयं , वृद्धावस्थां प्राप्नुयाम्। (एवमावां सम्प्रीत्या परस्परं धर्ममानन्दं कुर्य्यावहि (भगः) सकलैश्वर्य्यसम्पन्नः , ( अर्य्यमा) न्यायव्यवस्थाकर्त्ता (सविता) सर्वजगदुत्पादकः (पुरन्धिः) सर्वजगद्धारकः परमेश्वरः (मह्यं गार्हपत्याय) गृहकार्य्याय त्वां मदर्थं दत्तवान्। तथा (देवाः) अत्र सर्वे विद्वांसः साक्षिणः सन्ति यद्यावां प्रतिज्ञोल्लङ्घनं कुर्य्यावहि तर्हि परमेश्वरदण्ड्यौ विद्वद्दण्ड्यौ च भवेवेति॥ 1

विवाहं कृत्वा परस्परं स्त्रीपुरुषौ कीदृशवर्त्तमानौ भवेतामेतदर्थमीश्वर आज्ञां ददाति। (इहैव स्तं॰) हे स्त्रीपुरुषौ! युवां द्वाविहास्मिंल्लोके गृहाश्रमे सुखेनैव सदा (वस्तम्) निवासं कुर्याताम् (मा वियौष्टं) तथा कदाचिद्विरोधेन देशान्तरगमनेन वा वियुक्तौ वियोगं प्राप्तौ मा भवेताम्। एवं मदाशीर्वादेन धर्मं कुर्वाणौ सर्वोपकारिणौ मद्भक्तिमाचरन्तौ (विश्वमायुर्व्यश्नुतम्) विविधसुखरूपमायुः प्राप्नुतम्। पुनः (स्वे गृहे) स्वकीये गृहे पुत्रैर्नप्तृभिश्च सह मोदमानौ प्राप्नुवन्तौ (क्रीडन्तौ) सद्धर्मक्रियां कुर्वन्तौ सदैव भवतम्॥ 2

इत्यनेनाप्येकस्याः स्त्रियाः एक एव पतिर्भवत्वेकस्य पुरुषस्यैकैव स्त्री चेति। अर्थादनेक-स्त्रीभिः सह विवाहनिषेधो नरस्य तथाऽनेकैः पुरुषैः सहैकस्याः स्त्रियाश्चेति। सर्वेषु वेदमन्त्रेष्वेकवचनस्यैव निर्देशात्। एवं विवाहविधायका वेदेष्वनेके मन्त्राः सन्तीति विज्ञेयम्।

भाषार्थ - (गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्तं॰) हे स्त्रि! मैं सौभाग्य अर्थात् गृहाश्रम में सुख के लिये तेरा हस्त ग्रहण करता हूं और इस बात की प्रतिज्ञा करता हूं कि जो काम तुझ को अप्रिय होगा, उस को मैं कभी न करूंगा। ऐसे ही स्त्री भी पुरुष से कहे कि जो व्यवहार आप को अप्रिय होगा, उस को मैं भी कभी न करूंगी। और हम दोनों व्यभिचारादि दोषरहित होके वृद्धावस्थापर्य्यन्त परस्पर आनन्द के व्यवहारों को करेंगे। हमारी इस प्रतिज्ञा को सब लोग सत्य जानें कि इस से उलटा काम कभी न किया जायेगा। (भगः) जो ऐश्वर्यवान् (अर्यमा) सब जीवों के पाप पुण्य के फलों को यथावत् देने वाला (सविता) सब जगत् का उत्पन्न करने और सब ऐश्वर्य का देने वाला तथा (पुरन्धिः) सब जगत् का धारण करने वाला परमेश्वर है। वही हमारे दोनों के बीच में साक्षी है तथा (मह्यं त्वा॰) परमेश्वर और विद्वानों ने मुझ को तेरे लिये और तुझ को मेरे लिये दिया है कि हम दोनों परस्पर प्रीति करेंगे, तथा उद्योगी होकर घर का काम अच्छी तरह से करेंगे, और मिथ्याभाषणादि से बचकर सदा धर्म ही में वर्त्तेंगे। सब जगत् का उपकार करने के लिए सत्यविद्या का प्रचार करेंगे, और धर्म से पुत्रों को उत्पन्न करके उन को सुशिक्षित करेंगे, इत्यादि प्रतिज्ञा हम ईश्वर की साक्षी से करते हैं कि इन नियमों का ठीक ठीक पालन करेंगे। दूसरी स्त्री और दूसरे पुरुष से मन से भी व्यभिचार न करेंगे। (देवाः) हे विद्वान् लोगो! तुम भी हमारे साक्षी रहो कि हम दोनों गृहाश्रम के लिये विवाह करते हैं। फिर स्त्री कहे कि मैं इस पति को छोड़ के मन वचन और कर्म से भी दूसरे पुरुष को पति न मानूंगी तथा पुरुष भी प्रतिज्ञा करे कि मैं इस के सिवाय दूसरी स्त्री को अपने मन, कर्म और वचन से कभी न चाहूंगा॥1॥

(इहैव स्तं) विवाहित स्त्री पुरुषों के लिए परमेश्वर की आज्ञा है कि तुम दोनों गृहाश्रम के शुभ व्यवहारों में रहो। (मा वियौष्टं) अर्थात् विरोध करके अलग कभी मत हो, और व्यभिचार भी किसी प्रकार का मत करो। ऋतुगामित्व से सन्तानों की उत्पत्ति, उन का पालन और सुशिक्षा, गर्भस्थिति के पीछे एक वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य और लड़कों को प्रसूता स्त्री का दुग्ध बहुत दिन न पिलाना, इत्यादि श्रेष्ठ व्यवहारों से (विश्वमा॰) सौ 100 वा 125 वर्ष पर्यन्त आयु को सुख से भोगो। (क्रीडन्तौ॰) अपने घर में आनन्दित होके पुत्र और पौत्रों के साथ नित्य धर्मपूर्वक क्रीड़ा करो। इस से विपरीत व्यवहार कभी न करो और सदा मेरी आज्ञा में वर्त्तमान करो॥2॥ इत्यादि विवाहविधायक वेदों में बहुत मन्त्र हैं। उन में से कई एक मन्त्र संस्कारविधि में भी लिखे हैं, वहां देख लेना।

॥इति संक्षेपतो विवाहविषयः॥20॥