ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (दयानन्दसरस्वतीविरचिता)/१. ईश्वरप्रार्थनाविषयः

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दयानन्दसरस्वती
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, वैबसंस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान्

अथ-ईश्वरप्रार्थनाविषयः[सम्पाद्यताम्]


मङ्गलकामना[सम्पाद्यताम्]

ओ३म् स॒ह ना॑ववतु। स॒ह नौ॑ भुनक्तु। स॒ह वी॒र्य्यं॑ करवावहै। ते॒ज॒स्वि ना॒वधीतमस्तु मा वि॑द्विषा॒वहै॑। ओ३म् शान्तिः॒ शान्तिः॒ शान्तिः॑॥१॥ (तै॰आ॰ ९.१)

(सह नाववतु) हे सर्वशक्तिमन् ईश्वर! आपकी कृपा, रक्षा और सहाय से हम लोग एक दूसरे की रक्षा करें, (सह नौ भुनक्तु) और हम सब लोग परम प्रीति से मिल के सब से उत्तम ऐश्वर्य अर्थात् चक्रवर्तिराज्य आदि सामग्री से आनन्द को आपके अनुग्रह से सदा भोगें, (सह वीर्य्यं करवावहै) हे कृपानिधे! आपकी सहाय से हम लोग एक दूसरे के सामर्थ्य को पुरुषार्थ से सदा बढ़ाते रहें, (तेजस्वि नावधीतमस्तु) हे प्रकाशमय सब विद्या के देने वाले परमेश्वर! आपके सामर्थ्य से ही हम लोगों को पढ़ा और पढ़ाया सब संसार में प्रकाश को प्राप्त हो और हमारी विद्या सदा बढ़ती रहे, (मा विद्वषावहै) हे प्रीति के उत्पादक! आप ऐसी कृपा कीजिये कि जिससे हम लोग परस्पर विरोध कभी न करें, किन्तु एक दूसरे के मित्र होके सदा वर्तें। (ओं शान्तिः शान्तिः शान्तिः) हे भगवन्! आपकी करुणा से हम लोगों के तीन ताप-एक आध्यात्मिक जो कि ज्वरादि रोगों से शरीर में पीड़ा होती है, दूसरा आधिभौतिक जो दूसरे प्राणियों से होता है, और तीसरा आधिदैविक जो कि मन और इन्द्रियों के विकार, अशुद्धि और चञ्चलता से क्लेश होता है, इन तीनों तापों को आप शान्त अर्थात् निवारण कर दीजिये, जिससे हम लोग सुख से इस वेदभाष्य को यथावत् बनाकर सब मनुष्यों का उपकार करें। यही आपसे प्रार्थना हैं, सो कृपा करके हम लोगों को सब दिनों के लिये सहाय कीजिये॥१॥


ईश्वरस्तुति[सम्पाद्यताम्]

ब्रह्मानन्तमनादि विश्वकृदजं सत्यं परं शाश्वतम्,

विद्या यस्य सनातनी निगमभृद् वैधर्म्यविध्वंसिनी।

वेदाख्या विमला हिता हि जगते नृभ्यः सुभाग्यप्रदा,

तन्नत्वा निगमार्थभाष्यमतिना भाष्यं तु तन्तन्यते॥१॥

(ब्रह्मानन्त॰) जो ब्रह्म अनन्त [अनादि, विश्व का कर्ता, अज, सत्य, सनातन] आदि विशेषणों से युक्त है, जिसकी वेदविद्या सनातन है, उसको अत्यन्त प्रेमभक्ति से मैं नमस्कार करके इस वेदभाष्य के बनाने का आरम्भ करता हूँ॥१॥

{एक हस्तलिखित प्रति में यह अर्थ लिखा है—(ब्रह्मनन्तेति॰) जो (ब्रह्म) सबसे बड़ा (अनन्त) जिसके गुण सामर्थ्य और स्वरूप का अन्त कोई भी नहीं ले सकता (अनादि) सबका आदि कारण, जिससे आदि प्रथम वस्तु कोई नहीं है, जिसका कारण कोई नहीं है (विश्वकृत्) जो सब विश्व को करता है (अजम्) जिसका माता-पिता और जन्म कोई नहीं है (सत्यम्) जो सत्यस्वरूप, अविनाशी, सत्यप्रिय, सत्यकारक, भक्तों को सुख देने वाला है। (परम्) सबसे उत्तम और सब दुःखों से परे है (शाश्वतम्) जो सबमें व्यापक सब दिन निर्विकार सनातन है (विद्या यस्येति) जिसकी सनातन विद्या विरुद्धधर्म के नाश करने वाली, निगम वेद को धारण करने वाली किं वा जो वेद को धारण और उत्पन्न करने वाली है, नित्यस्वरूप विद्या जिसकी है, जिस विद्या का नाम वेद है, जिसमें मल, दोष लेश मात्र नहीं है, सब जगत् के हित करने वाली, सब मनुष्यों को सौभाग्य प्राप्ति कराने वाली जिसकी अनन्त विद्या है, उस ब्रह्म परमात्मा को आत्मा, मन, शरीर और धन आदि से अत्यन्त प्रेमभाव, सत्यक्रिया से नमस्कार करके अत्यन्त प्रेमभाव से उसका आश्रय लेके वेदभाष्य का मैं आरम्भ करता हूँ ॥१॥}


वेदभाष्य का रचनाकाल[सम्पाद्यताम्]

कालरामाङ्कचन्द्रेऽब्दे भाद्रमासे सिते दले।

प्रतिपद्यादित्यवारे भाष्यारम्भः कृतो मया॥२॥

(कालरा॰) विक्रम के संवत् १९३३ [२० अगस्त १८७६] भाद्रमास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा, रविवार के दिन इस वेदभाष्य का आरम्भ मैंने किया है॥२॥


वेदभाष्य के रचयिता[सम्पाद्यताम्]

दयाया आनन्दो विलसति परः स्वात्मविदितः,

सरस्वत्यस्याग्रे निवसति हिता हीशशरणा।

इयं ख्यातिर्यस्य प्रततसुगुणा वेदमननाऽ-

स्त्यनेनेदं भाष्यं रचितमिति बोद्धव्यमनघाः॥३॥

(दयाया॰) सब सज्जन लोगों को यह बात विदित हो कि जिनका नाम स्वामी दयानन्द सरस्वती है, उन्होंने इस वेदभाष्य को रचा है, अनघाः हे निष्पाप सज्जन लोगो! आप इस बात को जानो॥३॥


वेदभाष्य का बनाने का उद्देश्य[सम्पाद्यताम्]

मनुष्येभ्यो हितायैव सत्यार्थं सत्यमानतः।

ईश्वरानुग्रहेणेदं वेदभाष्यं विधीयते॥४॥

(मनुष्ये॰) ईश्वर की कृपा के सहाय से [सत्य अर्थ को सत्य रूप में समझते हुए] सब मनुष्यों के हित के लिये इस वेदभाष्य का विधान मैं करता हूँ॥४॥

{एक हस्तलिखित प्रति में यह अर्थ लिखा है—सब मनुष्यों के हित के लिये सत्य शास्त्र, प्रमाण और युक्ति से सत्यार्थयुक्त, ईश्वर के अनुग्रह से यह वेदभाष्य अच्छे प्रकार विस्तृत किया जाता है॥४॥}


वेदभाष्य की भाषा[सम्पाद्यताम्]

संस्कृतप्राकृताभ्यां यद् भाषाभ्यामन्वितं शुभम्।

मन्त्रार्थवर्णनं चात्र क्रियते कामधुङ्मया॥५॥

(संस्कृतप्रा॰) सो यह वेदभाष्य दो भाषाओं में किया जाता है—एक संस्कृत और दूसरी प्राकृत। इन दोनों भाषाओं में [कामनाओं का दोहन करने वाले] वेदमन्त्रों के अर्थ का वर्णन मैं करता हूँ॥५॥

{एक हस्तलिखित प्रति में यह अर्थ लिखा है—एक संस्कृतभाषा और दूसरी प्राकृतभाषा से युक्त शुभ कल्याण सुखकारक लक्षणसहित इस भाष्य में मन्त्रों के अर्थ का वर्णन मैं करता हूँ, सो यह भाष्य सुख कामना को पूर्ण करने वाला है॥५॥}


वेदभाष्य की व्याख्यापद्धति[सम्पाद्यताम्]

आर्याणां मुन्यृषीणां या व्याख्यारीतिः सनातनी।

तां समाश्रित्य मन्त्रार्था विधास्यन्ते तु नान्यथा॥६॥

(आर्याणां०) इस वेदभाष्य में अप्रमाण लेख कुछ भी नहीं किया जाता है, किन्तु जो ब्रह्मा से लेके व्यास पर्यन्त मुनि और ऋषि हुए हैं, उनकी जो व्याख्यारीति है, उससे युक्त ही यह वेदभाष्य बनाया जायेगा॥६॥

{एक हस्तलिखित प्रति में यह अर्थ लिखा है— (आर्याणाम्) जो आर्य अनुत्तमगुणयुक्त, आर्यावर्त देशवासी, परमविद्वान्, आप्त, सत्यवादी मुनि और ऋषि उनकी सनातन जो व्याख्यारीति है, उसके अनुसार उसके वचन प्रमाणों के लेख का आशयपूर्वक वेदमन्त्रों के अर्थों का विधान इस भाष्य में मैं करूँगा, अन्यथा नहीं॥६॥}

येनाधुनिकभाष्यैर्ये टीकाभिर्वेददूषकाः।

दोषाः सर्वे विनश्येयुरन्यथार्थविवर्णनाः॥७॥

(येनाधु॰) यह भाष्य ऐसा होगा कि जिससे वेदार्थ से विरुद्ध अब के बने भाष्य और टीकाओं से वेदों में भ्रम से जो-जो मिथ्या दोषों के आरोप हुए हैं, वे सब निवृत्त हो जायेंगे, उनकी निवृत्ति करने से वेदों का सत्यार्थराज्य संसार में प्रकाशित होगा॥७॥

सत्यार्थश्च प्रकाश्येत वेदानां यः सनातनः।

ईश्वरस्य सहायेन प्रयत्नोऽयं सुसिध्यताम्॥८॥

(सत्यार्थश्च॰) और इस वेदभाष्य से वेदों का जो सत्य अर्थ है सो संसार में प्रसिद्ध हो, कि वेदों के सनातन अर्थ को सब लोग यथावत् जान लें, इसलिये यह प्रयत्न मैं करता हूँ, सो परमेश्वर के सहाय से यह काम अच्छे प्रकार सिद्ध हो, यही सर्वशक्तिमान् परमेश्वर से मेरी प्रार्थना है॥८॥

{एक हस्तलिखित प्रति में यह अर्थ लिखा है—इस भाष्य से वेदों का जो ईश्वराभिप्रेत और ऐतरेय शतपथ ब्राह्मणादि ग्रन्थों में कहा जो सनातन सत्य अर्थ है सो यथावत् सब मनुष्यों के आत्माओं में प्रकाशित होय। इस इच्छा को स्वीकार अपने आत्मा में करके मैंने वेदभाष्य का आरम्भ किया है, सो यह जो मेरा प्रयत्न है, सो ईश्वर के सहाय से सिद्ध हो क्योंकि यह बड़ा महान् कृत्य है, इसको स्वबल से सिद्ध होना अत्यन्त कठिन है, परन्तु सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर की कृपाबल से यह कार्य सिद्ध होना कुछ भी कठिन नहीं, सर्वान्तर्यामी सब मनुष्यों की आत्माओं को भी कृपा से इस इस भाष्य में प्रीति और सहायकरणयुक्त करे, जिससे इस भाष्य को करने का प्रयोजन जो सब मनुष्यों को सत्य सुख का होना सो यथावत् सिद्ध हो। मेरी इस प्रार्थना को सर्वथा परमेश्वर स्वीकार करे, यही मेरी जगत्स्वामी परमेश्वर से प्रार्थना है, इसको सर्वात्मा सर्वाध्यक्ष अवश्य सिद्ध करेगा॥८॥}


वेदभाष्य की निर्विघ्नसमाप्ति के लिये प्रार्थना[सम्पाद्यताम्]

विश्वा॑नि देव सवितर्दुरि॒तानि॒ परा॑ सुव। यद्भ॒द्रं तन्न॒ आ सु॑व॥१॥ (यजु.३०.३)

हे सच्चिदानन्दानन्तस्वरूप! हे परमकारुणिक! हे अनन्तविद्य! हे विद्याविज्ञानप्रद! (देव) हे सूर्यादिसर्वजगद्विद्याप्रकाशक! हे सर्वानन्दप्रद! (सवितः) हे सकलजगदुत्पादक! (नः) अस्माकम् (विश्वानि) सर्वाणि (दुरितानि) दुःखानि सर्वान्दुष्टगुणांश्च (परा सुव) दूरे गमय, (यद्भद्रम्) यत्कल्याणं सर्वदुःखरहितं सत्यविद्याप्राप्त्याऽभ्युदयनिःश्रेयस्सुखकरं भद्रमस्ति (तन्नः) अस्मभ्यं (आ सुव) आ समन्तादुत्पादय कृपया प्रापय।

हे सत्यस्वरूप! हे विज्ञानमय! हे सदानन्दस्वरूप! हे अनन्तसामर्थ्ययुक्त! हे परमकृपालो! हे अनन्तविद्यामय! हे विज्ञानविद्याप्रद! (देव) हे परमेश्वर! आप सूर्यादि सब जगत् का और विद्या का प्रकाश करने वाले हो तथा सब आनन्दों के देनेवाले हो, (सवितः) हे सर्वजगदुत्पादक सर्वशक्तिमन्! आप सब जगत् को उत्पन्न करने वाले हो, (नः) हमारे (विश्वानि) सब जो (दुरितानि) दुःख हैं, उनको और हमारे सब दुष्ट गुणों को कृपा से आप (परासुव) दूर कर दीजिये, अर्थात् हम से उन को और हमको उनसे सदा दूर रखिये, (यद्भद्रम्) और जो सब दुःखों से रहित कल्याण है, जो कि सब सुखों से युक्त भोग है, उसको हमारे लिये सब दिनों में प्राप्त कीजिये। सो सुख दो प्रकार का है—एक जो सत्यविद्या की प्राप्ति में अभ्युदय अर्थात् चक्रवर्तिराज्य इष्ट, मित्र, धन, पुत्र, स्त्री और शरीर से अत्यन्त उत्तम सुख का होना, और दूसरा जो निःश्रेयस सुख है कि जिसको मोक्ष कहते हैं और जिसमें ये दोनों सुख होते हैं उसी को भद्र कहते हैं, (तन्न आ सुव) उस सुख को आप हमारे लिये सब प्रकार से प्राप्त करिये।

अस्मिन् वेदभाष्यकरणानुष्ठाने ये दुष्टा विघ्नास्तान् प्राप्तेः पूर्वमेव परासुव दूरं गमय, यच्च शरीरबुद्धिसहायकौशलसत्यविद्याप्रकाशादि भद्रमस्ति तत्स्वकृपाकटाक्षेण हे परब्रह्मन्! नोऽस्मभ्यं प्रापय, भवत्कृपाकटाक्षसुसहायप्राप्त्या सत्यविद्योज्ज्वलं प्रत्यक्षादिप्रमाणसिद्धं भवद्रचितानां वेदानां यथार्थं भाष्यं वयं विदधीमहि। तदिदं सर्वमनुष्योपकाराय भवत्कृपया भवेत्। अस्मिन् वेदभाष्ये सर्वेषां मनुष्याणां परमश्रद्धयाऽत्यन्ता प्रीतिर्यथा स्यात् तथैव भवता कार्यमित्यो३म्॥१॥

और आपकी कृपा के सहाय से सब विघ्न हमसे दूर रहें कि जिससे इस वेदभाष्य के करने का हमारा अनुष्ठान सुख से पूरा हो। इस अनुष्ठान में हमारे शरीरों में आरोग्य, बुद्धि, सज्जनों का सहाय, चतुरता और सत्यविद्या का प्रकाश सदा बढ़ता रहे। इस भद्रस्वरूप सुख को आप अपनी सामर्थ्य से ही हमको दीजिये, जिस कृपा के सामर्थ्य से हम लोग सत्यविद्या से युक्त जो आपके बनाये वेद हैं, उनके यथार्थ अर्थ से युक्त भाष्य को सुख से विधान करें। सो यह वेदभाष्य आपकी कृपा से सम्पूर्ण होके सब मनुष्यों का सदा उपकार करने वाला हो, और आप अन्तर्यामी की प्रेरणा से सब मनुष्यों का इस वेदभाष्य में श्रद्धा सहित अत्यन्त उत्साह हो, जिससे वेदभाष्य करने में जो हम लोगों का प्रयत्न हो सो यथावत् सिद्धि को प्राप्त हो, इसी प्रकार से आप हमारे और जगत् के ऊपर कृपादृष्टि करते रहें, जिससे इस बड़े सत्य काम को हम लोग सहज से सिद्ध करें॥१॥


ईश्वरस्तुति[सम्पाद्यताम्]

यो भू॒तं च॒ भव्यं॑ च॒ सर्वं॒ यश्चा॑धि॒तिष्ठ॑ति।

स्व१॒॑र्यस्य॑ च॒ केव॑लं॒ तस्मै॑ ज्ये॒ष्ठाय॒ ब्रह्म॑णे॒ नमः॑॥१॥ (अथर्व॰१०.८.१)

(यो भूतं भव्यं च) यो भूतभविष्यद्वर्तमानान् कालान् (सर्वं यश्चाधितिष्ठति) सर्वं जगच्चाधितिष्ठति, सर्वाधिष्ठाता सन् कालादूर्ध्वं विराजमानोऽस्ति। (स्वर्यस्य च केवलम्) यस्य च केवलं निर्विकारं स्वः सुखस्वरूपमस्ति, यस्मिन् दुःखं लेशमात्रमपि नास्ति, यदानन्दघनं ब्रह्मास्ति, (तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः) तस्मै ज्येष्ठाय सर्वोत्कृष्टाय ब्रह्मणे महतेऽत्यन्तं नमोऽस्तु नः॥१॥

(यो भूतम्) जो परमेश्वर एक भूतकाल जो व्यतीत हो गया है, (च) अनेक चकारों से दूसरा जो वर्तमान है, (भव्यं च) और तीसरा भविष्यत् जो होने वाला है, इन तीनों कालों के बीच में जो कुछ होता है, उन सब व्यवहारों को वह यथावत् जानता है, (सर्वं यश्चाधिष्ठति) तथा जो सब जगत् को अपने विज्ञान से ही जानता, रचता, पालन, लय करता और संसार के सब पदार्थों का अधिष्ठाता अर्थात् स्वामी है, (स्वर्यस्य च केवलम्) जिसका सुख ही केवल स्वरूप है, जो कि मोक्ष और व्यवहार सुख का भी देने वाला है, (तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः) ज्येष्ठ अर्थात् सबसे बड़ा सब सामर्थ्य से युक्त ब्रह्म जो परमात्मा है, उसको अत्यन्त प्रेम से हमारा नमस्कार हो। जो कि सब कालों के ऊपर विराजमान है, जिसको लेशमात्र भी दुःख नहीं होता, उस आनन्दघन परमेश्वर को हमारा नमस्कार प्राप्त हो॥१॥

यस्य॒ भूमिः॑ प्र॒मान्तरि॑क्षमु॒तोदर॑म्।

दिवं॒ यश्च॒क्रे मू॒र्द्धानं॒ तस्मै॑ ज्ये॒ष्ठाय॒ ब्रह्म॑णे॒ नमः॑॥२॥ (अथर्व॰१०.७.३२)

(यस्य भूमिः प्रमा) यस्य भूमिः प्रमा यथार्थविज्ञानसाधनं पादाविवास्ति, (अन्तरिक्षम् उत उदरम्) अन्तरिक्षं यस्योदरतुल्यमस्ति, [दिवं यश्चक्रे मूर्द्धानम्] यश्च सर्वस्मादूर्ध्वं सूर्यरश्मिप्रकाशमयमाकाशं दिवं मूर्धानं शिरोवच्चक्रे कृतवानस्ति, तस्मै [ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः]॥२॥

(यस्य भूमिः प्रमा) जिस परमेश्वर के होने और ज्ञान में भूमि जो पृथिवी आदि पदार्थ हैं सो प्रमा अर्थात् यथार्थज्ञान की सिद्धि होने का दृष्टान्त है तथा जिसने अपनी सृष्टि में पृथिवी को पादस्थानी रचा है, (अन्तरिक्षमुतोदरम्) अन्तरिक्ष जो पृथिवी और सूर्य के बीच में आकाश है सो जिसने उदरस्थानी किया है, (दिवं यश्चक्रे मूर्धानम्) और जिसने अपनी सृष्टि में दिव अर्थात् प्रकाश करनेवाले पदार्थों को सबके ऊपर मस्तकस्थानी किया है, अर्थात् जो पृथिवी से लेके सूर्यलोकपर्यन्त सब जगत् को रच के उसमें व्यापक होके, जगत् के सब अवयवों में पूर्ण होके सब को धारण कर रहा है, (तस्मै) उस परब्रह्म को हमारा अत्यन्त नमस्कार हो॥२॥

यस्य॒ सूर्य॒श्चक्षु॑श्च॒न्द्रमा॑श्च॒ पुन॑र्णवः।

अ॒ग्निं यश्च॒क्र आ॒स्यंतस्मै॑ ज्ये॒ष्ठाय॒ ब्रह्म॑णे॒ नमः॑॥३॥ (अथर्व॰१०.७.३३)

(यस्य सूर्यश्चक्षुश्चन्द्रमाश्च पुनर्णवः) यस्य सूर्यश्चन्द्रमाश्च पुनः पुनः सर्गादौ नवीने चक्षुषी इव भवतः, [अग्निं यश्चक्र आस्यम्] योऽग्निमास्यं मुखवच्चक्रे कृतवानस्ति, तस्मै [ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः]॥३॥

(यस्य सूर्यश्चक्षुश्चन्द्रमाश्च पुनर्णवः) और जिसने नेत्रस्थानी सूर्य और चन्द्रमा को किया है, जो कल्प-कल्प के आदि में सूर्य और चन्द्रमादि पदार्थों को वारंवार नये-नये रचता है, (अग्निं यश्चक्र आस्यम्) और जिसने मुखस्थानी अग्नि को उत्पन्न किया है, (तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः) उसी ब्रह्म को हम लोगों का नमस्कार हो॥३॥

यस्य॒ वातः॑ प्राणापा॒नौ चक्षु॒रङ्गि॑र॒सोऽभ॑वन्।

दिशो॒ यश्च॒क्रे प्र॒ज्ञानी॒स्तस्मै॑ ज्ये॒ष्ठाय॒ ब्रह्म॑णे॒ नमः॑॥४॥ (अथर्व॰१०.७.३४)

(यस्य वातः प्राणापानौ) वातः समष्टिर्वायुर्यस्य प्राणापानाविवास्ति, (अङ्गिरसः) ‘अङ्गिरा अङ्गारा अङ्कना इति’ (निरु॰३.१७) प्रकाशकाः किरणाः [चक्षुः अभवन्] चक्षुषी इव भवतः, [दिशो यश्चक्रे प्रज्ञानीः] यो दिशः प्रज्ञानीः प्रज्ञापिनीर्व्यवहारसाधिकाश्चक्रे, [तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः] तस्मै ह्यनन्तविद्याय ब्रह्मणे महते सततं नमोऽस्तु॥४॥

(यस्य वातः प्राणापानौ) जिसने ब्रह्माण्ड के वायु को प्राण और अपान की नाईं किया है, (चक्षुरङ्गिरसोऽभवन्) तथा जो प्रकाश करनेवाली किरण हैं, वे चक्षु की नाईं जिसने की हैं, अर्थात् उनसे ही रूप ग्रहण होता है, (दिशो यश्चक्रे प्रज्ञानीः) और जिसने दश दिशाओं को सब व्यवहारों की सिद्धि करने वाली बनाई हैं, ऐसा जो अनन्तविद्यायुक्त परमात्मा सब मनुष्यों का इष्टदेव है, (तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः) उस ब्रह्म को निरन्तर हमारा नमस्कार हो॥४॥


ईश्वर से निर्विघ्न वेदभाष्य पूर्ण करने की प्रार्थना[सम्पाद्यताम्]

यऽ आ॑त्म॒दा ब॑ल॒दा यस्य॒ विश्व॑ऽ उ॒पास॑ते प्र॒शिषं॒ यस्य॑ दे॒वाः।

यस्य॑ छा॒याऽमृतं॒ यस्य॑ मृ॒त्युः कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम॥५॥ ( यजु॰२५.१३)

(य आत्मदाः) य आत्मदा विद्याविज्ञानप्रदः, (बलदाः) यः शरीरेन्द्रियप्राणात्ममनसां पुष्ट्युत्साहपराक्रमदृढत्वप्रदः, (यस्य विश्वे उपासते प्रशिषं यस्य देवाः) यं विश्वेदेवाः सर्वे विद्वांस उपासते यस्यानुशासनं च मन्यन्ते, (यस्य छायाऽमृतम्) यस्याश्रय एव मोक्षोऽस्ति, यस्याच्छायाऽकृपाऽनाश्रयो मृत्युर्जन्ममरणकारकोऽस्ति, (कस्मै देवाय हविषा विधेम) तस्मै कस्मै प्रजापतये ‘प्रजापतिर्वै कस्तस्मै हविषा विधेमेति’। (श॰ब्रा॰७.३.१.२०) सुखस्वरूपाय ब्रह्मणे देवाय प्रेमभक्तिरूपेण हविषा वयं विधेम, सततं तस्यैवोपासनं कुर्वीमहि॥५॥

(य आत्मदाः) जो जगदीश्वर अपनी कृपा से ही अपने आत्मा का विज्ञान देनेवाला है, [बलदाः] जो शरीर, इन्द्रिय, प्राण, आत्मा और मन की पुष्टि, उत्साह, पराक्रम और दृढ़ता का देनेवाला है (यस्य विश्वे उपासते प्रशिषं यस्य देवाः) जिसकी उपासना सब विद्वान् लोग करते आये हैं, और जिसका अनुशासन जो वेदोक्त शिक्षा है, उसको अत्यन्त मान्य से सब शिष्ट लोग स्वीकार करते हैं, (यस्य छायाऽमृतम्) जिसका आश्रय करना ही मोक्षसुख का कारण है और जिसकी अकृपा ही जन्ममरणरूप दुःखों को देनेवाली है, अर्थात् ईश्वर और उसका उपदेश जो सत्यविद्या सत्यधर्म और सत्यमोक्ष हैं उनको नहीं मानना, और जो वेद से विरुद्ध होके अपनी कपोलकल्पना अर्थात् दुष्ट इच्छा से बुरे कामों में वर्त्तता है, उस पर ईश्वर की अकृपा होती है, वही सब दुःखों का कारण है, और जिसकी आज्ञापालन ही सब सुखों का मूल है, (कस्मै देवाय हविषा विधेम) जो सुखस्वरूप और सब प्रजा का पति है, उस परमेश्वर देव की प्राप्ति के लिये सत्य प्रेमभक्तिरूप सामग्री से हम लोग नित्य भजन करें, जिससे हम लोगों को किसी प्रकार का दुःख कभी न हो॥५॥


शान्तिपूर्वक वेदभाष्य करने की प्रार्थना[सम्पाद्यताम्]

द्यौः शान्ति॑र॒न्तरि॑क्ष॒ꣳ शान्तिः॑ पृथि॒वी शान्ति॒रापः॒ शान्ति॒रोष॑धयः॒ शान्तिः॑। वन॒स्पत॑यः॒ शान्ति॒र्विश्वे॑ दे॒वाः शान्ति॒र्ब्रह्म॒ शान्तिः॒ सर्व॒ꣳ शान्तिः॒ शान्ति॑रे॒व शान्तिः॒ सा मा॒ शान्ति॑रेधि॥६॥ (यजु॰३६.१७)

(द्यौः शान्तिः०) हे सर्वशक्तिमन् परमेश्वर! त्वद्भक्त्या त्वत्कृपया च द्यौरन्तरिक्षं पृथिवी जलमोषधयो वनस्पतयो विश्वे देवाः सर्वे विद्वांसो ब्रह्म वेदः सर्वं जगच्चास्मदर्थं शान्तं निरुपद्रवं सुखकारकं सर्वदाऽस्तु। अनुकूलं भवतु नः। येन वयं वेदभाष्यं सुखेन विदधीमहि। हे भगवन्! एतया सर्वशान्त्या विद्याबुद्धिविज्ञानारोग्यसर्वोत्तमसहायैर्भवान् मां सर्वथा वर्धयतु तथा सर्वं जगच्च॥६॥

(द्यौः शान्तिः) हे सर्वशक्तिमन् भगवन्! आपकी भक्ति और कृपा से ही ‘द्यौः’ जो सूर्यादि लोकों का प्रकाश और विज्ञान है, यह सब दिन हमको सुखदायक हो तथा जो आकाश में पृथिवी जल औषधि वनस्पति वट आदि वृक्ष, जो संसार के सब विद्वान्, ब्रह्म जो वेद, ये सब पदार्थ और इनसे भिन्न भी जो जगत् है, वे सब सुख देनेवाले हमको सब काल में हों कि सब पदार्थ सब दिन हमारे अनुकूल रहें, जिससे इस वेदभाष्य के काम को सुखपूर्वक हम लोग सिद्ध करें। हे भगवन्! इस सब शान्ति से हमको विद्या, बुद्धि, विज्ञान, आरोग्य और सब उत्तम सहाय को कृपा से दीजिये तथा हम लोगों और सब जगत् को उत्तम गुण और सुख के दान से बढ़ाइये॥६॥

यतो यतः स॒मीह॑से॒ ततो॑ नो॒ अभ॑यं कुरु।

शन्नः॑ कुरु प्र॒जाभ्योऽभ॑यं नः प॒शुभ्यः॑॥७॥ (यजु॰३६.१७, २२)

(यतो यतः समीहसे) हे परमेश्वर! यतो यतो देशात् त्वं समीहसे, जगद्रचनपालनार्थां चेष्टां करोषि, [ततो नो अभयं कुरु] ततस्ततो देशान्नोऽस्मानभयं कुरु, यतः सर्वथा सर्वेभ्यो देशेभ्यो भयरहिता भवत्कृपया वयं भवेम। [शन्नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः] तथा तत्रस्थाभ्यः प्रजाभ्यः पशुभ्यश्च नोऽस्मानभयं कुरु। एवं सर्वेभ्यो देशेभ्यस्तत्रस्थाभ्यः प्रजाभ्यः पशुभ्यश्च नोऽस्मान् शं कुरु, धर्मार्थकाममोक्षादिसुखयुक्तान् स्वानुग्रहेण सद्यः संपादय॥७॥

(यतो यतः समीहसे) हे परमेश्वर! आप जिस-जिस देश से जगत् के रचना और पालन के अर्थ चेष्टा करते हैं (ततो नो अभयं कुरु) उस-उस देश से हमको भय रहित करिये, अर्थात् किसी देश से हम को किञ्चित् भी भय न हो, (शन्नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः) वैसे ही सब दिशाओं में जो आपकी प्रजा और पशु हैं, उनसे भी हम को भयरहित करें तथा हमसे उनको सुख हो और उनको भी हमसे भय न हो तथा आपकी प्रजा में जो मनुष्य और पशु आदि हैं, उन सबमें जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पदार्थ हैं उनको आपके अनुग्रह से हम लोग शीघ्र प्राप्त हों, जिससे मनुष्यजन्म के धर्मादि जो फल हैं, वे सुख से सिद्ध हों॥७॥

यस्मि॒न्नृचः॒ साम॒ यजू॑षि॒ यस्मि॒न् प्रति॑ष्ठिता रथना॒भावि॑वा॒राः।

यस्मिं॑श्चि॒त्तꣳ सर्व॒मोतं॑ प्र॒जानां॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु॥८॥ (यजु॰३४.५)

(यस्मिन्नृचः साम यजूंषि) हे भगवन् कृपानिधे! यस्मिन्मनसि ऋचः सामानि यजूंषि च प्रतिष्ठितानि भवन्ति, [यस्मिन् प्रतिष्ठिता] यस्मिन् यथार्थमोक्षविद्या च प्रतिष्ठिता भवति, (यस्मिंश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानाम्) यस्मिंश्च प्रजानां चित्तं स्मरणात्मकं सर्वमोतमस्ति सूत्रे मणिगणवत्प्रोतमस्ति। कस्यां क इव? [रथनाभाविवाराः] रथनाभौ अरा इव। [तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु] तन्मे मम मनो भवत्कृपया शिवसंकल्पं कल्याणप्रियं सत्यार्थप्रकाशं चास्तु, येन वेदानां सत्यार्थः प्रकाश्येत।

(यस्मिन्नृचः) हे भगवन् कृपानिधे! (ऋचः) ऋग्वेद (साम) सामवेद (यजूᳬषि) यजुर्वेद और इन तीनों के अन्तर्गत होने से अथर्ववेद भी, ये सब जिसमें स्थित होते हैं तथा (यस्मिन् प्रतिष्ठिता) जिसमें मोक्षविद्या अर्थात् ब्रह्मविद्या और सत्यासत्य का प्रकाश होता है, (यस्मिंश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानाम्) जिसमें सब प्रजा का चित्त, जो स्मरण करने की वृत्ति है, सो सब गँठी हुई है, जैसे माला के मणिये सूत्र में गँठे हुए होते हैं, और (रथनाभाविवाराः) जैसे रथ के पहिये के बीच भाग में आरे लगे होते हैं कि उस काष्ठ में जैसे अन्य काष्ठ लगे रहते हैं, (तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु) ऐसा जो मेरा मन है सो आपकी कृपा से शुद्ध हो तथा कल्याण जो मोक्ष और सत्यधर्म का अनुष्ठान तथा असत्य के परित्याग करने का संकल्प जो इच्छा है, इससे युक्त सदा हो। जिस मन से हम लोगों को आपके किये वेदों के सत्य अर्थ का यथावत् प्रकाश हो॥८॥

हे सर्वविद्यामय सर्वार्थविन्! मदुपरि कृपां विधेहि, यया निर्विघ्नेन वेदार्थभाष्यं सत्यार्थं पूर्णं वयं कुर्वीमहि, भवद्यशो वेदानां सत्यार्थं विस्तारयेमहि। यं दृष्ट्वा वयं सर्वे सर्वोत्कृष्टगुणा भवेम। ईदृशीं करुणामस्माकमुपरि करोतु भवान्। यत इदं सर्वोपकारकं कार्यं सिद्धं भवेत्।

हे सर्वविद्यामय सर्वार्थवित् जगदीश्वर! हम पर आप कृपा धारण करें, जिससे हम लोग विघ्नों से सदा अलग रहें, और सत्य अर्थ सहित इस वेदभाष्य को संपूर्ण बना के आपके बनाए वेदों के सत्य अर्थ की विस्ताररूप जो कीर्ति है, उसको जगत् में सदा के लिये बढ़ावें, और इस भाष्य को देख के वेदों के अनुसार सत्य का अनुष्ठान करके हम सब लोग श्रेष्ठ गुणों से युक्त सदा हों। इसलिये हम लोग आपकी प्रार्थना प्रेम से सदा करते हैं। इसको आपकी कृपा से शीघ्र सुनें। जिससे यह जो सबका उपकार करनेवाला वेदभाष्य का अनुष्ठान है, सो यथावत् सिद्धि को प्राप्त हो॥

॥इतीश्वरप्रार्थनाविषयः॥