ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (दयानन्दसरस्वतीविरचिता)/१७. ताराविद्यामूलम्

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अथ ताराविद्यामूलं संक्षेपतः[सम्पाद्यताम्]

युवं पेदवे पुरुवारमश्विना

स्पृधां श्वेतं तरुतारं दुवस्यथः।

शर्यैरभिद्युं पृतनासु दुष्टरं

चर्कृत्यमिन्द्रमिव चर्षणीसहम्॥1॥

-ऋ॰ अष्ट॰ 1। अ॰ 8। व॰ 21। मं॰ 10॥

भाष्यम् - ( अस्याभि॰) - अस्मिन् मन्त्रे तारविद्याबीजं प्रकाश्यत इति।

हे मनुष्याः! (अश्विना॰) अश्विनोर्गुणयुक्तं , ( पुरुवारं) बहुभिर्विद्वद्भिः स्वीकर्त्तव्यं बहूत्तमगुणयुक्तम् , ( श्वेतं) अग्निगुणविद्युन्मयं शुद्धधातुनिर्मितम् , ( अभिद्युं) प्राप्तविद्युत्प्रकाशम् , (पृतनासु दुष्टरं) राजसेनाकार्य्येषु दुस्तरं प्लवितुमशक्यम् , ( चर्कृत्यं) वारंवारं सर्वक्रियासु योजनीयम् , ( तरुतारं) ताराख्यं यन्त्रं यूयं कुरुत। कथम्भूतैर्गुणैर्युक्तम् ? ( शर्य्यैः) पुनः पुनर्हनन - प्रेरणगुणैर्युक्तम्। कस्मै प्रयोजनाय ? ( पेदवे) परमोत्तम - व्यवहार - सिद्धि - प्रापणाय। पुनः कथम्भूतं (स्पृधां) स्पर्द्धमानानां शत्रूणां पराजयाय स्वकीयानां वीराणां विजयाय च परमोत्तमम्। पुनः कथम्भूतं ? ( चर्षणीसहम्) मनुष्यसेनायाः कार्यसहनशीलम्। पुनः कथम्भूतं ? ( इन्द्रमिव॰) सूर्यवत् दूरस्थमपि व्यवहार - प्रकाशनसमर्थम्। (युवं) युवामश्विनौ (दुवस्यथः) पुरुषव्यत्ययेन पृथिवी - विद्युदाख्यावश्विनौ सम्यक् साधयित्वा तत्ताराख्यं यन्त्रं नित्यं सेवध्वमिति बोध्यम्॥1॥

भाषार्थ - (युवं पेदवे॰) अभिप्रा॰- इस मन्त्र से तारविद्या का मूल जाना जाता है। पृथिवी से उत्पन्न धातु तथा काष्ठादि के यन्त्र और विद्युत् अर्थात् बिजली इन दोनों के प्रयोग से तारविद्या सिद्ध होती है। क्योंकि (द्यावापृथिव्योरित्येके) इस निरुक्त के प्रमाण से इनका अश्वि नाम जान लेना चाहिए।

(पेदवे) अर्थात् वह अत्यन्त शीघ्र गमनागमन का हेतु होता है (पुरुवारम्) अर्थात् इस तारविद्या से बहुत उत्तम व्यवहारों के फलों को मनुष्य लोग प्राप्त होते हैं। (स्पृधाम्) अर्थात् लड़ाई करने वाले जो राजपुरुष हैं, उन के लिए यह तारविद्या अत्यन्त हितकारी है। (श्वेत॰) वह तार शुद्ध धातुओं का होना चाहिए। (अभिद्युम्) और विद्युत् प्रकाश से युक्त करना चाहिए (पृतनासु दुष्टरम्) सब सेनाओं के बीच में जिस का दुःसह प्रकाश होता और उल्लङ्घन करना अशक्य है। (चर्कृत्यम्) जो सब क्रियाओं के वारंवार चलाने के लिये योग्य होता है। (शर्य्यैः) अनेक प्रकार कलाओं के चलाने से अनेक उत्तम व्यवहारों को सिद्ध करने के लिये, विद्युत् की उत्पत्ति करके उस को ताड़न करना चाहिए। (तरुतारम्) जो इस प्रकार का ताराख्य यन्त्र है, उस को सिद्ध करके, प्रीति से सेवन करो। किस प्रयोजन के लिए? (पेदवे) परम उत्तम व्यवहारों की सिद्धि के लिये तथा दुष्ट शत्रुओं के पराजय और श्रेष्ठ पुरुषों के विजय के लिए तारविद्या सिद्ध करनी चाहिये। (चर्षणीसहं॰) जो मनुष्यों की सेना के युद्धादि अनेक कार्य्यों के सहन करनेवाला है। (इन्द्रमिव॰) जैसे समीप और दूरस्थ पदार्थों का प्रकाश सूर्य करता है, वैसे तारयन्त्र से भी दूर और समीप के सब व्यवहारों का प्रकाश होता है। (युवं दुवस्यथः) यह तारयन्त्र पूर्वोक्त अश्वि के गुणों ही से सिद्ध होता है। इस को बड़े प्रयत्न से सिद्ध करके सेवन करना चाहिए। इस मन्त्र में पुरुषव्यत्यय पूर्वोक्त नियम से हुआ है, अर्थात् मध्यम पुरुष के स्थान में प्रथम पुरुष समझना चाहिए॥1॥

॥इति तारविद्यामूलं संक्षेपतः॥17॥