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ऋग्वेदभाष्यम् प्रथममण्डले 81-90 सूक्तानि

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ऋग्वेदभाष्ये प्रथममण्डले 81-90 सूक्तानि

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दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचितम् (डॉ॰ ज्ञानप्रकाशशास्त्रिणा सम्पादितं डॉ॰ नरेशकुमारधीमान्-द्वारा च यूनिकोडरूपेण परिवर्तितम्)

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॥ओ३म्॥ अथ प्रथमाष्टके षष्ठाध्याय आरम्भते अथ पञ्चमाध्यायारम्भः॥ विश्वा॑नि देव सवितर्दुरि॒तानि॒ परा॑ सुव। यद्भ॒द्रं तन्न॒ आ सु॑व॥ ऋ॰5.82.5॥ अथ नवर्चस्यैकाशीतितमस्य सूक्तस्य राहूगणो गोतम ऋषिः। इन्द्रो देवता। 1,7,8 विराट् पङ्क्तिः। 3-6, 9 निचृदास्तारपङ्क्तिश्छन्दः। पञ्चमः स्वरः। 2 भुरिग् बृहती छन्दः। मध्यमः स्वरः॥ अथ सभाध्यक्षगुणा उपदिश्यन्ते॥ अब अगले मन्त्र में सभाध्यक्ष के गुणों का उपदेश किया है॥ इन्द्रो॒ मदा॑य वावृधे॒ शव॑से वृत्र॒हा नृभिः॑। तमिन्म॒हत्स्वा॒जिषू॒तेमर्भे॑ हवामहे॒ स वाजे॑षु॒ प्र नो॑ऽविषत्॥1॥ इन्द्रः॑। मदा॑य। व॒वृ॒धे॒। शव॑से। वृ॒त्र॒ऽहा। नृऽभिः॑। तम्। इत्। म॒हत्ऽसु॑। आ॒जिषु॑। उ॒त। ई॒म्। अ॒र्भे॑। ह॒वा॒म॒॒हे॒। सः। वाजे॑षु। प्र। नः॒। अ॒वि॒ष॒त्॥1॥ पदार्थः—(इन्द्रः) शत्रुगणविदारयिता सेनाध्यक्षः (मदाय) स्वस्य भृत्यानां हर्षकरणाय (वावृधे) वर्धते। अत्र तुजादीनामित्यभ्यासदीर्घः। (शवसे) बलाय (वृत्रहा) मेघहन्ता सूर्य इव शत्रूणां हन्ता (नृभिः) सेनासभाप्रजास्थैः पुरुषैः सह मित्रत्वेन वर्त्तमानः (तम्) (इत्) एव (महत्सु) महाप्रबलेषु (आजिषु) संग्रामेषु (उत) अपि (ईम्) प्राप्तव्यो विजयः (अर्भे) अल्पे संग्रामे (हवामहे) आदद्मः (सः) (वाजेषु) संग्रामेषु (प्र) प्रकृष्टार्थे (नः) अस्मान्नस्माकं वा (अविषत्) रणादिकं व्याप्नोतु॥1॥ अन्वयः—वयं यो वृत्रहा सूर्य इवेन्द्रः सेनाध्यक्षो नृभिः सह वर्त्तमानः शवसे मदाय वावृधे यं महत्स्वाजिषूताप्यर्भे हवामहे तमिदीं सेनाद्यध्यक्षं स्वीकुर्य्याम स वाजेषु नः प्राविषत्॥1॥ भावार्थः—मनुष्यैर्यः पूर्णविद्यो बलिष्ठो धार्मिकः सर्वहितैषी शस्त्रास्त्रप्रहारे शिक्षायां च कुशलो भृत्येषु वीरेषु योद्धृषु पितृवद्वर्त्तमानो देशकालानुकूलत्वेन युद्धकरणाय सामयिकव्यवहारज्ञो भवेत् स सेनाध्यक्षः कर्त्तव्यो नेतरः॥1॥ पदार्थः—हम लोग जो (वृत्रहा) सूर्य्य के समान (इन्द्रः) सेनापति (नृभिः) शूरवीर नायकों के साथ (शवसे) बल और (मदाय) आनन्द के लिये (वावृधे) बढ़ता है, जिस (महत्सु) बड़े (आजिषु) संग्रामों (उत) और (अर्भे) छोटे-संग्रामों में (हवामहे) बुलाते और (तमित्) उसीको (ईम्) सब प्रकार से सेनाध्यक्ष कहते हैं (सः) वह (वाजेषु) संग्रामों में (नः) हम लोगों की (प्राविषत्) अच्छे प्रकार रक्षा करे॥1॥ भावार्थः—मनुष्यों को उचित है कि जो पूर्ण विद्वान्, अति बलिष्ठ, धार्मिक सबका हित चाहने वाला, शस्त्रास्त्र क्रिया और शिक्षा में अतिचतुर, भृत्य, वीरपुरुष और योद्धाओं में पिता के समान, देशकाल के अनुकूलता से युद्ध करने के लिये समय के अनुकूल व्यवहार जाननेवाला हो, उसी को सेनापति करना चाहिये, अन्य को नहीं॥1॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ असि॒ हि वी॑र॒ सेन्योऽसि॒ भूरि॑ पराद॒दिः। असि॑ द॒भ्रस्य॑ चिद्वृ॒धो यज॑मानाय शिक्षसि सुन्व॒ते भूरि॑ ते॒ वसु॑॥2॥ असि॑। हि। वी॒र॒। सेन्यः॑। असि॑। भूरि॑। प॒रा॒ऽद॒दिः। असि॑। द॒भ्रस्य॑। चि॒त्। वृ॒धः। यज॑मानाय। शि॒क्ष॒सि॒। सु॒न्व॒ते। भूरि॑। ते॒। वसु॑॥2॥ पदार्थः—(असि) (हि) खलु (वीर) शत्रूणां सेनाबलं व्याप्तुं शील (सेन्यः) सेनासु साधुस्सेनाभ्यो हितो वा (भूरि) बहु (पराददिः) पराञ्च्छूत्रूनादाता (असि) (दभ्रस्य) ह्रस्वस्य। दभ्रमिति ह्रस्वनामसु पठितम्। (निघं॰3.2) (चित्) अपि (वृधः) ये युद्धे वर्त्तन्ते तान् (यजमानाय) अभयदात्रे (शिक्षसि) युद्धविद्यां ददासि (सुन्वते) सुखानामभिषवित्रे (भूरि) बहु (ते) तुभ्यम् (वसु) उत्तमं द्रव्यम्॥2॥ अन्वयः—हे वीर सेनापते! यस्त्वं हि भूरि सेन्योऽसि पराददिरसि दभ्रस्य चिन्महतो युद्धस्यापि विजेतासि वृधो वीरान् शिक्षसि तस्मै सुन्वते यजमानाय ते तुभ्यं भूरि वस्वस्ति॥2॥ भावार्थः—यथा सेनापतिभिः सेना सदा शिक्षणीया पालनीया हर्षयितव्याऽस्ति, तथैव सेनास्थैः सेनापतयः पालनीयाः सन्तीति॥2॥ पदार्थः—हे वीर सेनापते! जो तू (हि) निश्चय करके (भूरि) बहुत (सेन्यः) सेनायुक्त (असि) है (भूरि) बहुत प्रकार से (पराददिः) शत्रुओं के बल को नष्ट कर ग्रहण करनेवाला है (दभ्रस्य) छोटे (चित्) और (महतः) बड़े युद्ध का जीतनेवाला (असि) है (वृधः) बल से बढ़ानेवाले वीरों को (शिक्षसि) शिक्षा करता है, उस (सुन्वते) विजय की प्राप्ति करनेहारे (यजमानाय) सुख देनेवाले (ते) तेरे लिये (भूरि) बहुत (वसु) धन प्राप्त हो॥2॥ भावार्थः—भृत्य लोग जैसे सेनापतियों से सेना शिक्षित, पाली और सुखी की जाती है, वैसे सेनास्थ भृत्यों से सेनापतियों का पालन और उनको आनन्दित करना योग्य है॥2॥ पुनरेतैः परस्परं कथं वर्त्तितव्यमित्युपदिश्यते॥ फिर इनको परस्पर कैसे वर्त्ताव रखना चाहिये, सो अगले मन्त्र में कहा है॥ यदु॒दी॑रत आ॒जयो॑ धृ॒ष्णवे॑ धीयते॒ धना॑। यु॒क्ष्वा म॑द॒च्युता॒ हरी॒ कं हनः॒ कं वसौ॑ दधो॒ऽस्माँ इ॑न्द्र॒ वसौ॑ दधः॥3॥ यत्। उ॒त्ऽईर॑ते। आ॒जयः॑। धृ॒ष्णवे॑। धी॒य॒ते॒। धना॑। यु॒क्ष्व। म॒द॒ऽच्युता॑। हरी॒ इति॑। कम्। हनः॑। कम्। वसौ॑। द॒धः॒। अ॒स्मान्। इ॒न्द्र॒। वसौ॑। द॒धः॒॥3॥ पदार्थः—(यत्) यदा (उदीरते) उत्कृष्टा जायन्ते (आजयः) संग्रामाः (धृष्णवे) दृढत्वाय (धीयते) धरति (धना) धनानि (युक्ष्व) योजय। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (मदच्युता) यौ मदान्हर्षान् च्यवेते प्राप्नुतस्तौ (हरी) रथादीनां हरणशीलावश्वौ (कम्) शत्रुम् (हनः) हन्याः (कम्) मित्रम् (वसौ) धने (दधः) दध्याः (अस्मान्) (इन्द्र) पालयितः (वसौ) धनसमूहे (दधः) दध्याः॥3॥ अन्वयः—हे इन्द्र! यद्यदाऽऽजय उदीरते तदा भवान् धृष्णवे [धना धीयते एवं मदच्युता हरी युक्ष्व कं] कञ्चिच्छत्रुं हनः कञ्चिन्मित्रं वसौ दधोऽतोऽस्मान् वसौ दधः॥3॥ भावार्थः—यदा युद्धानि कर्त्तव्यानि भवेयुस्तदा सेनापतयो यानशस्त्रास्त्रभोजनाच्छादनसामग्रीरलंकृत्य कांश्चिच्छत्रून् हत्वा कांश्चिन्मित्रान् सत्कृत्य युद्धादिकार्येषु धार्मिकान् संयोज्य युक्त्या योधयित्वा युध्वा च सततं विजयान् प्राप्नुयुः॥3॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) सेना के स्वामी! (यत्) जब (आजयः) संग्राम (उदीरते) उत्कृष्टता से प्राप्त हों तब (धृष्णवे) दृढ़ता के लिये (धना) धनों को (धीयते) धरता है सो तू (मदच्युता) बड़े बलिष्ठ (हरी) घोड़ों को रथादि में (युक्ष्व) युक्त कर (कम्) किसी शत्रु को (हनः) मार (कम्) किसी मित्र को (वसौ) धन कोष में (दधः) धारण कर और (अस्मान्) हमको (वसौ) धन में (दधः) अधिकारी कर॥3॥ भावार्थः—जब युद्ध करना हो तो तब सेनापति लोग सवारी शतघ्नी (तोप), भुशुण्डी (बंदूक) आदि शस्त्र, आग्नेय आदि अस्त्र और भोजन-आच्छादन आदि सामग्री को पूर्ण करके किन्हीं शत्रुओं को मार, किन्ही मित्रों का सत्कार कर, युद्धादि कर्मों में धर्मात्मा जनों को संयुक्त कर, युक्ति से युद्ध कराके सदा विजय को प्राप्त हों॥3॥ पुनः सेनापतिः किं कुर्यादित्युपदिश्यते॥ फिर सेनापति क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ क्रत्वा॑ म॒हाँ अ॑नुष्व॒धं भी॒म आ वा॑वृधे॒ शवः॑। श्रि॒य ऋ॒ष्व उ॑पा॒कयो॒र्नि शि॒प्री हरि॑वान् दधे॒ हस्त॑यो॒र्वज्र॑माय॒सम्॥4॥ क्रत्वा॑। म॒हान्। अ॒नु॒ऽस्व॒धम्। भी॒मः। आ। व॒वृ॒धे॒। शवः॑। श्रि॒ये। ऋ॒ष्वः। उ॒पा॒कयोः॑। नि। शि॒प्री। हरि॑ऽवान्। द॒धे॒। हस्त॑योः। वज्र॑म्। आ॒य॒सम्॥4॥ पदार्थः—(क्रत्वा) प्रज्ञया कर्मणा वा (महान्) सर्वोत्कृष्टः (अनुष्वधम्) स्वधामन्नमनुकूलम् (भीमः) बिभेति यस्मात् सः (आ) सर्वतः (वावृधे) वर्धते (शवः) सुखवर्धकं बलम् (श्रिये) शोभायै धनप्राप्तये वा (ऋष्वः) प्राप्तविद्यः (उपाकयोः) समीपस्थयोः सेनयोः (नि) नितराम् (शिप्री) शत्रूणामाक्रोशकः (हरिवान्) प्रशस्ता हरयोऽश्वा विद्यन्ते यस्य सः (दधे) धरामि (हस्तयोः) करयोर्मध्ये (वज्रम्) शस्त्रसमूहम् (आयसम्) अयोमयम्॥4॥ अन्वयः—यो हरिवान् शिप्री भीमो महानृष्वः शवः सेनापतिः क्रत्वाऽनुष्वधं निववृधे श्रिय उपाकयो-र्हस्तयोरायसं वज्रमादधे, स एव शत्रून् विजित्य राज्याधिकारी भवति॥4॥ भावार्थः—मनुष्यैर्यो बुद्धिमान् महोत्तमगुणविशिष्टः शत्रूणां भयङ्करः सेनाशिक्षकोऽतियोद्धा वर्त्तते तं सेनापतिं कृत्वा धर्मेण राज्यं प्रशासनीयम्॥4॥ पदार्थः—जो (हरिवान्) बहुत उत्तम अश्वों से युक्त (शिप्री) शत्रुओं को रुलाने (भीमः) और भय देनेवाला (महान्) बड़ा (ऋष्वः) प्राप्तविद्या सेनापति (शवः) बल (क्रत्वा) प्रज्ञा वा कर्म से (अनुष्वधम्) अनुकूल अन्न को (नि, ववृधे) अत्यन्त बढ़ाता है (श्रिये) शोभा और लक्ष्मी के अर्थ (उपाकयोः) समीप में प्राप्त हुई अपनी और शत्रुओं की सेना के समीप (हस्तयोः) हाथों में (आयसम्) लोहे आदि से बनाये हुए (वज्रम्) शस्त्रसमूह को (आदधे) धारण करके शत्रुओं को जीतता है, वही राज्याऽधिकारी होता है॥4॥ भावार्थः—मनुष्यों को योग्य है कि जो बुद्धिमान्, बड़े-बड़े उत्तम गुणों से युक्त, शत्रुओं को भयकर्त्ता, सेनाओं का शिक्षक, अत्यन्त युद्ध करनेहारा पुरुष है, उसको सेनापति करके धर्म से राज्यपालन की न्यायव्यवस्था करनी चाहिये॥4॥ अथेश्वरगुणा उपदिश्यन्ते॥ अब अगले मन्त्र में ईश्वर के गुणों का उपदेश किया है॥ आ प॑प्रौ॒ पार्थि॑वं॒ रजो॑ बद्ब॒धे रो॑च॒ना दि॒वि। न त्वावाँ॑ इन्द्र॒ कश्च॒न न जा॒तो न ज॑निष्य॒तेऽति॒ विश्वं॑ ववक्षिथ॥5॥1॥ आ। प॒प्रौ॒। पार्थि॑वम्। रजः॑। ब॒द्ब॒धे। रो॒च॒ना। दि॒वि। न। त्वाऽवा॑न्। इ॒न्द्र॒। कः। च॒न। न। जा॒तः। न। ज॒नि॒ष्य॒ते॒। अति॑। विश्व॑म्। व॒व॒क्षि॒थ॒॥5॥ पदार्थः—(आ) समन्तात् (पप्रौ) प्रपूर्त्ति (पार्थिवम्) पृथिवीमयं पृथिव्यामन्तरिक्षे विदितं वा (रजः) परमाण्वादिकं वस्तु लोकसमूहं वा (बद्बधे) बीभत्सते (रोचना) सूर्यादिदीप्तिः (दिवि) प्रकाशे (न) निषेधे (त्वावान्) त्वया सदृशः (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त परमात्मन् (कः) (चन) अपि (न) (जातः) उत्पन्नः (न) (जनिष्यते) उत्पत्स्यते (अति) अतिशये (विश्वम्) सर्वम् (ववक्षिथ) वक्षसि॥5॥ अन्वयः—हे इन्द्र! यतः कश्चन त्वावान्न जातो न जनिष्यतेऽतस्त्वं विश्वं सर्वं जगद्ववक्षिथ यो भवान् पार्थिवं विश्वं रज आ पप्रौ दिवि रोचनाऽतिबद्बधेऽतः स त्वमुपास्योऽसि॥5॥ भावार्थः—हे मनुष्या! यूयं येन सर्वं जगद्रचयित्वा व्याप्य रक्ष्यते योऽजन्माऽनुपमः येन तुल्यं किंचिदपि वस्तु नास्ति कुतश्चातोऽधिकं किंचिदपि भवेत् तमेव सततमुपासीध्वम्। एतस्मात्पृथग्वस्तु नैव ग्राह्यं गणनीयं च॥5॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययुक्त ईश्वर! जिससे (कश्चन) कोई भी (त्वावान्) तेरे सदृश (न जातः) न हुआ (न जनिष्यते) न होगा और तू (विश्वम्) जगत् को (ववक्षिथ) यथा योग्य नियम में प्राप्त करता है और जो (पार्थिवम्) पृथिवी और आकाश में वर्त्तमान (रजः) परमाणु और लोक में (आ पप्रौ) सब ओर से व्याप्त हो रहा है (दिवि) प्रकाशरूप सूर्यादि जगत् में (रोचना) प्रकाशमान भूगोलों को (अति बद्बधे) एक-दूसरे वस्तु के आकर्षण से बद्ध करता है, वह सबका उपास्य देव है॥5॥ भावार्थः—हे मनुष्यो! आप लोग जिसने सब जगत् को रचके व्याप्त कर रक्षित किया है, जो जन्म और उपमा से रहित, जिसके तुल्य कुछ भी वस्तु नहीं है, तो उस परमेश्वर से अधिक कुछ कैसे होवे! इसकी उपासना को छोड़के अन्य किसी पृथक् वस्तु का ग्रहण वा गणना मत करो॥5॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह परमात्मा कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ यो अ॒र्यो म॑र्त॒भोज॑नं परा॒ददा॑ति दा॒शुषे॑। इन्द्रो॑ अ॒स्मभ्यं॑ शिक्षतु॒ वि भ॑जा॒ भूरि॑ ते॒ वसु॑ भक्षी॒य तव॒ राध॑सः॥6॥ यः। अ॒र्यः। म॒र्त॒ऽभोज॑नम्। प॒रा॒ऽददा॑ति। दा॒शुषे॑। इन्द्रः॑। अ॒स्मभ्य॑म्। शि॒क्ष॒तु॒। वि। भ॒ज॒। भूरि॑। ते॒। वसु॑। भ॒क्षी॒य। तव॑। राध॑सः॥6॥ पदार्थः—(यः) वक्ष्यमाणः (अर्यः) सर्वस्वामीश्वरः (मर्त्तभोजनम्) मर्तेभ्यो मनुष्येभ्यो भोजनं मर्त्तानां पालनं वा (पराददाति) पूर्वं प्रयच्छति (दाशुषे) दानशीलाय जीवाय (इन्द्रः) परमैश्वर्ययुक्तः (अस्मभ्यम्) (शिक्षतु) विद्यामुपाददातु (वि) विशेषे (भज) सेवस्व (भूरि) बहु (ते) तव (वसु) वस्तुजातम् (भक्षीय) सेवय (तव) (राधसः) वृद्धिकारकस्य कार्यरूपस्य धनस्य। शेषत्वात् कर्मणि षष्ठी॥6॥ अन्वयः—हे विद्वन्! यं इन्द्रोऽर्य ईश्वरः ते दाशुषेऽस्मभ्यं भूरि वसु मर्त्तभोजनं च पराददाति तदुत्पन्नं भवानस्मभ्यं सदा शिक्षतु। तस्य तव शिक्षितस्य राधसोऽहमपि भक्षीय॥6॥ भावार्थः—यदीश्वर इदं जगद्रचयित्वा धृत्वा जीवेभ्यो न दद्यात्तर्हि न कस्यापि किंचिन्मात्रा भोगसामग्री भवितुं शक्या। यद्ययं वेदद्वारा शिक्षां न कुर्यात्तर्हि न कस्यापि विद्यालेशो भवेत्तस्माद्विदुषा सर्वेषां सुखाय विद्या प्रसारणीया॥6॥ पदार्थः—हे विद्वन्! (यः) जो (इन्द्र) परम ऐश्वर्य का देनेहारा (अर्यः) ईश्वर (ते) तुझ (दाशुषे) दाता और (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (भूरि) बहुत (वसु) धन को (मर्त्तभोजनम्) वा मनुष्य के भोजनार्थ पदार्थ को (पराददाति) देता है उस ईश्वरनिर्मित पदार्थों की आप हमको सदा (शिक्षतु) शिक्षा करो और (तव) आपके (राधसः) शिक्षित कार्यरूप धन का मैं (भक्षीय) सेवन करूं॥6॥ भावार्थः—जो ईश्वर इस जगत् को रच धारण कर जीवों को न देता तो किसी को कुछ भी भोग सामग्री प्राप्त न हो सकती। जो यह परमात्मा वेद द्वारा मनुष्यों को शिक्षा न करता तो किसी को विद्या का लेश भी प्राप्त न होता, इससे विद्वान् को योग्य है कि सबके सुख के लिए विद्या का विस्तार करना चाहिये॥6॥ पुनः स ईश्वरोपासकः कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह ईश्वर का उपासक कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ मदे॑मदे॒ हि नो॑ द॒दिर्यू॒था गवा॑मृजु॒क्रतुः॑। सं गृ॑भाय पु॒रू श॒तोभ॑याह॒स्त्या वसु॑ शिशी॒हि रा॒य आ भ॑र॥7॥ मदे॑ऽमदे। हि। नः॒। द॒दिः। यू॒था। गवा॑म्। ऋ॒जु॒ऽक्रतुः॑। सम्। गृ॒भा॒य॒। पु॒रु। श॒ता। उ॒भ॒या॒ह॒स्त्या। वसु॑। शि॒शी॒हि। रा॒यः। आ। भ॒र॒॥7॥ पदार्थः—(मदेमदे) हर्षे हर्षे (हि) खलु (नः) अस्मभ्यम् (ददिः) दाता (यूथा) समूहान् (गवाम्) रश्मीनामिन्द्रियाणां पशूनां वा (ऋजुक्रतुः) ऋजवः क्रतवः प्रज्ञाः कर्माणि वा यस्य सः (सम्) सम्यक् (गृभाय) गृहाण (पुरु) बहूनि (शता) असंख्यातानि (उभयाहस्त्या) समन्तादुभयत्र हस्तो येषु कर्मसु तानि तेषु साधूनि (वसु) वासस्थानानि (शिशीहि) शिनु। अत्र बहुलं छन्दसीति श्लुरन्येषामपीति दीर्घश्च। (रायः) विद्यासुवर्णादिधनसमूहान् (आ) समन्तात् (भर) धेहि॥7॥ अन्वयः—हे विद्वन्! ऋजुक्रतुर्ददिस्त्वमीश्वरोपासनेन मदेमदे हि नोऽस्मभ्यममुभया हस्त्या पुरु शता वसु गवां यूथा चाभर रायः सङ्गृभाय शिशीहि॥7॥ भावार्थः—हे मनुष्या! यः सर्वानन्दप्रदः सर्वसाधनसाध्योत्पादकः सर्वाणि धनानि प्रयच्छति, स एवेश्वरोऽस्माभिरुपास्यो नेतरः॥7॥ पदार्थः—हे विद्वान्! (ऋजुक्रतुः) सरल ज्ञान और कर्मयुक्त (ददिः) दाता आप ईश्वर की आज्ञापालन और उपासना से (मदेमदे) आनन्द-आनन्द में (हि) निश्चय से (नः) हमारे लिये (उभयाहस्त्या) दोनों हाथों की क्रिया में उत्तम (पुरु) बहुत (शता) सैकड़ों (वसु) द्रव्यों का (शिशीहि) प्रबन्ध कीजिये (गवाम्) किरण, इन्द्रियां और पशुओं के (यूथा) समूहों को (आभर) चारों ओर से धारण कर (रायः) धनों को (संगृभाय) सम्यक् ग्रहण कर॥7॥ भावार्थः—हे मनुष्यो! जो सब आनन्दों का देनेवाला, सब साधन-साध्य रूप पदार्थों का उत्पादक, सब धनों को देता है, वही ईश्वर हमारा उपास्य है, अन्य नहीं॥7॥ पुनः स सभेशः कीदृश स्यादित्याह॥ फिर वह सभापति कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ मा॒दय॑स्व सु॒ते सचा॒ श॑वसे शू॒र॒ राध॑से। वि॒द्मा हि त्वा॑ पुरू॒वसु॒मुप॒ कामा॑न्त्ससृ॒ज्महेऽथा॑ नोऽवि॒ता भ॑व॥8॥ मा॒दय॑स्व। सु॒ते। सचा॑। शव॑से। शू॒र॒। राध॑से। वि॒द्म। हि। त्वा॒। पु॒रु॒ऽवसु॑म्। उप॑। कामा॑न्। स॒सृ॒ज्महे॑। अथ॑। नः॒। अ॒वि॒ता। भ॒व॒॥8॥ पदार्थः—(मादयस्व) आनन्दं प्रापय (सुते) उत्पन्नेऽस्मिन् जगति (सचा) सुखसमवेतेन युक्ताय (शवसे) बलाय (शूर) दुष्टदोषान् शत्रून् वा निवारयन् (राधसे) संसिद्धाय धनाय (विद्म) विजानीमः (हि) खलु (त्वा) त्वाम् (पुरुवसुम्) बहुषु धनेषु वासयितारम् (उप) सामीप्ये (कामान्) मनोभिलषितान् (ससृज्महे) निष्पादयेम (अथ) आनन्तर्ये (नः) अस्माकमस्मान् वा (अविता) रक्षणादिकर्त्ता (भव)॥8॥ अन्वयः—हे शूर! वयं सुते पुरुवसुं त्वामुपाश्रित्याथ कामान् ससृज्महे हि विद्म च स त्वं नोऽविता भव सचा शवसे राधसे मादयस्व॥8॥ भावार्थः—मनुष्याणां सेनापत्याश्रयेण विना शत्रुविजयः कामसमृद्धिः स्वरक्षणमुत्कृष्टे धनबले परमं सुखं च प्राप्तुं न शक्यते॥8॥ पदार्थः—हे (शूर) दुष्ट दोष और शत्रुओं का निवारण करनेहारे! हम (सुते) इस उत्पन्न जगत् में (पुरुवसुम्) बहुतों को बसानेवाले (त्वा) आपका (उप) आश्रय करके (अथ) पश्चात् (कामान्) अपनी कामनाओं को (ससृज्महे) सिद्ध करते हैं (हि) निश्चय करके (विद्म) जानते भी हैं तू (नः) हमारा (अविता) रक्षक (भव) हो और इस जगत् में (सचा) संयुक्त (शवसे) बलकारक (राधसे) धन के लिये (मादयस्व) आनन्द कराया कर॥8॥ भावार्थः—मनुष्यों को सेनापति के आश्रय के विना शत्रु का विजय, काम की सिद्धि, अपना रक्षण, उत्तम धन, बल और परमसुख प्राप्त नहीं हो सकता॥8॥ अथेश्वरः कीदृश इत्याह॥ अब ईश्वर कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ ए॒ते त॑ इन्द्र ज॒न्तवो॒ विश्वं॑ पुष्यन्ति॒ वार्य॑म्। अ॒न्तर्हि ख्यो जना॑नाम॒र्यो वेदो॒ अदा॑शुषां॒ तेषां॑ नो॒ वेद॒ आ भ॑र॥9॥2॥ ए॒ते। ते॒। इ॒न्द्र॒। ज॒न्तवः॑। विश्व॑म्। पु॒ष्य॒न्ति॒। वार्य॑म्। अ॒न्तः। हि। ख्यः। जना॑नाम्। अ॒र्यः। वेदः॒। अदा॑शुषाम्। तेषा॑म्। नः॒। वेदः॑। आ। भ॒र॒॥9॥ पदार्थः—(एते) सृष्टौ विद्यमानाः (ते) तव (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद जगदीश्वर सेनाध्यक्षो वा (जन्तवः) जीवाः (विश्वम्) जगत् (पुष्यन्ति) आनन्दयन्ति (वार्यम्) स्वीकर्त्तुमर्हम् (अन्तः) मध्ये (हि) खलु (ख्यः) प्रकथयसि (जनानाम्) सज्जानानां मनुष्याणाम् (अर्यः) स्वामीश्वरः (वेदः) विदन्ति सुखानि येन तद्धनम् (अदाशुषाम्) अदातॄणाम् (तेषाम्) (नः) अस्मभ्यमस्माकं वा (वेदः) विज्ञानधनम् (आ) समन्तात् (भर) प्रापय॥9॥ अन्वयः—हे इन्द्र! यस्य ते सृष्टौ य एते जन्तवो वार्यं विश्वं पुष्यन्ति, तेषां जनानामन्तर्मध्ये वर्त्तमानामदाशुषां दानशीलतारहितानामर्यस्त्वं वेदो हि ख्यः प्रकथयसि स त्वं नोऽस्मभ्यं वेद आ भर॥9॥ भावार्थः—हे मनुष्या! य ईश्वरोऽन्तर्बहिः सर्वत्र व्याप्य सर्वमन्तर्बहिःस्थं व्यवहारं जानाति सदुपदेशान् करोति सर्वजीवानां हितं चिकीर्षति तमाश्रित्य पारमार्थिकव्यावहारिकसुखे प्राप्नुत॥9॥ अस्मिन् सूक्ते सेनापतिरीश्वरसभाध्यक्षगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम्॥ इत्येकाशीतितमं 81 सूक्तं द्वितीयो 2 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) परमेश्वर! जिस (ते) तेरी सृष्टि में जो (एते) ये (जन्तवः) जीव (वार्यम्) स्वीकार के योग्य (विश्वम्) जगत् को (पुष्यन्ति) पुष्ट करते हैं (तेषाम्) उन (जनानाम्) मनुष्य आदि प्राणियों के (अन्तः) मध्य में वर्त्तमान (अदाशुषाम्) दानादिकर्मरहित मनुष्यों के (अर्यः) ईश्वर तू (वेदः) जिससे सुख प्राप्त होता है उसको (हि) निश्चय करके (ख्यः) उपदेश करता है, वह तू (नः) हमारे लिये (वेदः) विज्ञानरूप धन का (आभर) दान कीजिये॥9॥ भावार्थः—हे मनुष्यो! जो ईश्वर बाहर-भीतर सर्वत्र व्याप्त होकर सब भीतर-बाहर के व्यवहारों को जानता, सत्य उपदेश और सब जीवों के हित की इच्छा करता है, उसका आश्रय लेकर परमार्थ और व्यवहार सिद्ध करके सुखों को तुम प्राप्त होओ॥ इस सूक्त में सेनापति, ईश्वर और सभाध्यक्ष के गुणों का वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की सङ्गति पूर्व सूक्तार्थ के साथ समझनी चाहिये॥ यह इक्यासीवाँ 81 सूक्त और दूसरा 2 वर्ग समाप्त हुआ॥

अथ षडर्चस्य द्व्यशीतितमस्य सूक्तस्य राहूगणो गोतम ऋषिः। इन्द्रो देवता। 1,4 निचृदास्तारपङ्क्तिः। 2,3,5 विराडास्तारपङ्क्तिश्छन्दः। पञ्चमः स्वरः। 6 विराड् जगती छन्दः। निषादः स्वरः॥ पुनस्तदुपासकः सेनेशः कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर परमात्मा का उपासक सेनापति कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ उपो॒ षु शृ॑णु॒ही गिरो॒ मघ॑व॒न्मात॑था इव। य॒दा नः॑ सू॒नृता॑वतः॒ कर॒ आद॒र्थया॑स॒ इद्योजा॒ न्वि॑न्द्र ते॒ हरी॑॥1॥ उ॒पो इति॑। सु। शृ॒णु॒हि। गिरः॑। मघ॑ऽवन्। मा। अत॑थाःऽइव। य॒दा। नः॒। सू॒नृता॑ऽवतः। करः॑। आत्। अ॒र्थया॑से। इत्। योज॑। नु। इ॒न्द्र॒। ते॒। हरी॒ इति॑॥1॥ पदार्थः—(उपो) सामीप्ये (सु) शोभने (शृणुहि) (गिरः) वाणीः (मघवन्) प्रशस्तगुणप्रापक (मा) निषेधे (अतथाइव) प्रतिकूल इव। अत्राऽऽचारे क्विप् तदन्ताच्च प्रत्ययः। (यदा) यस्मिन् काले (नः) अस्माकम् (सूनृतावतः) सत्यवाणीयुक्तान् (करः) कुरु (आत्) आनन्तर्य्ये (अर्थयासे) याचस्व (इत्) एव (योज) युक्तान् कुरु (नु) शीघ्रम् (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रापक सेनाध्यक्ष (ते) तव (हरी) हरणशीलौ धारणाकर्षणगुणावुत्तमाश्वौ वा॥1॥ अन्वयः—हे इन्द्र! यौ ते तव हरी स्तस्तौ त्वं नु योज प्रियवाणीवतो विदुषोऽर्थयासे याचस्व। हे मघवँस्त्वं नोऽस्माकं गिर उपो सुशृणुह्यान्नोऽतथा इवेन्मा भव यदा वयं त्वां सुखानि याचामहे तदा त्वं नोऽस्मान् सूनृतावतः करः॥1॥ भावार्थः—मनुष्यैर्यथा राजा सुसेवितजगदीश्वरात् सेनापतेर्वा सेनापतिना सुसेविता सेना वा सुखानि प्राप्नोति यथा च सभाद्यध्यक्षाः प्रजासेनाजनानामानुकूल्ये वर्त्तेरंस्तथैवैतेषामानुकूल्ये प्रजासेनास्थैर्भवितव्यम्॥1॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) सेनापते! जो (ते) आपके (हरी) धारणाऽऽकर्षण के लिये घोड़े वा अग्नि आदि पदार्थ हैं, उनको (नु) शीघ्र (योज) युक्त करो, प्रियवाणी बोलनेहारे विद्वान् से (अर्थयासे) याञ्चा कीजिये। हे (मघवन्) अच्छे गुणों के प्राप्त करनेवाले! (नः) हमारी (गिरः) वाणियों को (उपो सु शृणुहि) समीप होकर सुनिये (आत्) पश्चात् हमारे लिये (अतथाइवेत्) विपरीत आचरण करनेवाले जैसे ही (मा) मत हो (यदा) जब हम तुमसे सुखों की याचना करते हैं, तब आप (नः) हमको (सूनृतावतः) सत्य वाणीयुक्त (करः) कीजिये॥1॥ भावार्थः—मनुष्यों को योग्य है कि जैसे राजा ईश्वर के सेवक या सेनापति वा सेनापति से पालन की हुई सेना सुखों को प्राप्त होती है। जैसे सभाध्यक्ष प्रजा और सेना के अनुकूल वर्त्तमान करें, वैसे उनके अनुकूल प्रजा और सेना के मनुष्य को आचरण करना चाहिये॥1॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अक्ष॒न्नमी॑मदन्त॒ ह्यव॑ प्रि॒या अ॑धूषत। अस्तो॑षत॒ स्वभा॑नवो॒ विप्रा॒ नवि॑ष्ठया म॒ती योजा॒ न्वि॑न्द्र ते॒ हरी॑॥2॥ अक्ष॑न्। अमी॑मदन्त। हि। अव॑। प्रि॒याः। अ॒धू॒ष॒त॒। अस्तो॑षत। स्वऽभा॑नवः। विप्राः॑। नवि॑ष्ठया। म॒ती। योज॑। नु। इ॒न्द्र॒। ते॒। हरी॒ इति॑॥2॥ पदार्थः—(अक्षन्) शुभगुणान् प्राप्नुवन्तु (अमीमदन्त) आनन्दन्तु (हि) खलु (अव) विरुद्धार्थे (प्रियाः) प्रीतियुक्ताः सन्तः (अधूषत) शत्रून् दुःखानि वा दूरीकुरुत (अस्तोषत) स्तुत (स्वभानवः) स्वकीया भानवो दीप्तयो येषां ते (विप्राः) मेधाविनः (नविष्ठया) अतिशयेन नूतनया (मती) बुद्ध्या (योज) योजय (नु) शीघ्रम् (इन्द्र) सभाध्यक्ष (ते) (हरी)॥2॥ अन्वयः—हे इन्द्र! यौ ये तव हरी वर्त्तेते तावस्मदर्थं नु योज। हे स्वभानवो विप्रा! भवन्तः सूर्यादय इव नविष्ठया मती सह सर्वेषां प्रिया भवन्तु सर्वाणि शास्त्राणि ह्यस्तोषत शत्रून् दुःखान्यवाधूषताक्षन्नमीमदन्ता-स्मानपीदृशान् कुर्वन्तु॥2॥ भावार्थः—मनुष्यैरुत्तमगुणकर्मस्वभावयुक्तस्य सर्वथा प्रशंसिताचरणस्य सेनाद्यध्यक्षस्योपदेशकस्य वा गुणप्रशंसनाऽनुकरणाभ्यां नवीनौ विज्ञानपुरुषार्थौ वर्धयित्वा सर्वदा प्रसन्नतयाऽऽनन्दो भोक्तव्यः॥2॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) सभापते! जो (ते) तेरे (हरी) धारण-आकर्षण करनेहारे वाहन वा घोड़े हैं उनको तू हमारे लिये (नु योज) शीघ्र युक्त कर, हे (स्वभानवः) स्वप्रकाशस्वरूप सूर्यादि के तुल्य (विप्राः) बुद्धिमान् लोगो! आप (नविष्ठया) अतिशय नवीन (मती) बुद्धि के सहित होके (प्रियाः) प्रिय हूजिये, सबके लिये सब शास्त्रों की (हि) निश्चय से (अस्तोषत) प्रशंसा आप किया करिये, शत्रु और दुःखों को (अवाधूषत) छुड़ाइये, (अक्षन्) विद्यादि शुभगुणों में व्याप्त हूजिये, (अमीमदन्त) अतिशय करके आनन्दित हूजिये और हमको भी ऐसे ही कीजिये॥2॥ भावार्थः—मनुष्यों को योग्य है कि श्रेष्ठ गुण-कर्म्म-स्वभावयुक्त सब प्रकार उत्तम आचरण करनेहारे सेना और सभापति तथा सत्योपदेशक आदि के गुणों की प्रशंसा और कर्मों से नवीन-नवीन विज्ञान और पुरुषार्थ को बढ़ाकर सदा प्रसन्नता से आनन्द का भोग करें॥2॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ सु॒सं॒दृशं॑ त्वा व॒यं मघ॑वन् वन्दिषी॒महि॑। प्र नू॒नं पू॒र्णब॑न्धुरः स्तु॒तो या॑हि॒ वशाँ॒ अनु॑ योजा॒ न्वि॑न्द्र ते॒ हरी॑॥3॥ सु॒ऽसं॒दृश॑म्। त्वा॒। व॒यम्। मघ॑ऽवन्। व॒न्दि॒षी॒महि॑। प्र। नू॒नम्। पू॒र्णऽब॑न्धुरः। स्तु॒तः। या॒हि॒। वशा॑न्। अनु॑। योज॑। नु। इ॒न्द्र॒। ते॒। हरी॒ इति॑॥3॥ पदार्थः—(सुसंदृशम्) एकीभावेन सर्वकर्मणां द्रष्टारम् (त्वा) त्वां सेनाद्यध्यक्षं वा (वयम्) (मघवन्) प्रशस्तगुणधनप्रापक (वन्दिषीमहि) नमस्कुर्मः (प्र) प्रकृष्टे (नूनम्) निश्चये (पूर्णबन्धुरः) पूर्णैः सत्यैः प्रेमबन्धनैर्युक्तः (स्तुतः) प्रशंसितः सन् (याहि) प्राप्नुहि (वशान्) शमदमादियुक्तान् धार्मिकान् जनान् (अनु) अर्वाक् (योज) योजय (नु) शीघ्रम् (इन्द्र) दुःखविदारक (ते) (हरी)॥3॥ अन्वयः—हे मघवन्निन्द्र! यथा वयं सुसंदृशं त्वा वन्दिषीमहि तथाऽस्माभिर्नूनं पूर्णबन्धुरः स्तुतः संस्त्वं येऽस्माकं शत्रवस्तान्नु वशान् कुरु यौ ते तव हरी स्तस्तावनु योज विजयाय प्रयाहि॥3॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदा मनुष्याः सर्वद्रष्टः परमेश्वरस्य स्तोतारं सभेशमाश्रयन्ति तदैतानरीन् सद्यो निगृह्णन्ति॥3॥ पदार्थः—हे (मघवन्) परमपूजित धनयुक्त (इन्द्र) सुखप्रद! जैसे (वयम्) हम (सुसंदृशम्) कल्याणदृष्टियुक्त (त्वा) आपको (वन्दिषीमहि) प्रशंसित करें, वैसे हमसे सहित होके (पूर्णबन्धुरः) समस्त सत्य प्रबन्ध और प्रेमयुक्त (स्तुतः) प्रशंसा को प्राप्त होके आप जो प्रजा के शत्रु हैं, उन को (नु) शीघ्र (वशान्) वश में करो, जो (ते) आपके (हरी) सूर्य के धारणाकर्षणादिगुणवत् सुशिक्षित अश्व हैं, उनको (अनुयोज) युक्त करो, विजय के लिये (नूनम्) निश्चय करके (प्रयाहि) अच्छे प्रकार जाया करो॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब मनुष्य सबके द्रष्टा परमेश्वर की स्तुति करनेहारे सभापति का आश्रय लेते हैं, तब इन शत्रुओं का शीघ्र निग्रह कर सकते हैं॥3॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ स घा॒ तं वृष॑णं॒ रथ॒मधि॑ तिष्ठाति गो॒विद॑म्। यः पात्रं॑ हारियोज॒नं पू॒र्णमि॑न्द्र॒ चिके॑तति॒ योजा॒ न्वि॑न्द्र ते॒ हरी॑॥4॥ सः। घ॒। तम्। वृष॑णम्। रथ॑म्। अधि॑। ति॒ष्ठा॒ति॒। गो॒ऽविद॑म्। यः। पात्र॑म्। हा॒रि॒ऽयो॒ज॒नम्। पू॒र्णम्। इ॒न्द्र॒। चिके॑तति। योज॑। नु। इ॒न्द्र॒। ते॒। हरी॒ इति॑॥4॥ पदार्थः—(सः) विद्वान् वीरः (घ) एव (तम्) (वृषणम्) शत्रूणां शक्तिबन्धकम् (रथम्) ज्ञानम् (अधि) उपरि (तिष्ठाति) तिष्ठतु (गोविदम्) गां भूमिं विन्दति येन तम् (यः) (पात्रम्) पद्यते येन तत् (हारियोजनम्) हरयोऽश्वा युज्यन्ते यस्मिंस्तत् (पूर्णम्) समग्रशस्त्रास्त्रसामग्रीसहितम् (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रापक (चिकेतति) जानाति (योज) अश्वैर्युक्तं कुरु (नु) शीघ्रम् (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रापक (ते) तव (हरी) हरणशीलौ वेगाकर्षणाख्यावश्वौ॥4॥ अन्वयः—हे इन्द्र! यो भवान् हारियोजनं पूर्णं पात्र रथं चिकेतति, स त्वं तस्मिन् रथे हरी नु योज। हे इन्द्र! यस्ते तं वृषणं गोविदं रथमधितिष्ठाति स घ कथं न विजयते॥4॥ भावार्थः—सेनाध्यक्षेण पूर्णशिक्षाबलहर्षितां हस्त्यश्वरथशस्त्रादिसामग्रीपरिपूर्णां सेनां सम्पाद्य शत्रवो विजेयाः॥4॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) परमविद्याधनयुक्त! (यः) जो आप (हारियोजनम्) अग्नि वा घोड़ों से युक्त किये इस (पूर्णम्) सब सामग्री से युक्त (पात्रम्) रक्षा निमित्त (रथम्) रथ को बनाना (चिकेतति) जानते हो (सः) सो उस रथ में (हरी) वेदादिगुणयुक्त घोड़ों को (नु योज) शीघ्र युक्त कर। हे (इन्द्र) सेनापते! जो (ते) आप के (वृषणम्) शत्रु के सामर्थ्य का नाशक (गोविदम्) जिससे भूमि का राज्य प्राप्त हो (तम्) उस रथ पर (अधितिष्ठाति) बैठे, (घ) वही विजय को प्राप्त क्यों न होवे॥4॥ भावार्थः—सेनापति को योग्य है कि शिक्षा बल से हृष्ट-पुष्ट हाथी, घोड़े रथ, शस्त्र-अस्त्रादि सामग्री से पूर्ण सेना को प्राप्त करके शत्रुओं को जीता करे॥4॥ पुनः स कथं कुर्यादित्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसे करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ यु॒क्तस्ते॑ अस्तु॒ दक्षि॑ण उ॒त स॒व्यः श॑तक्रतो। तेन॑ जा॒यामुप॑ प्रि॒यां म॑न्दा॒नो या॒ह्यन्ध॑सो॒ योजा॒ न्वि॑न्द्र ते॒ हरी॑॥5॥ यु॒क्तः। ते॒। अ॒स्तु॒। दक्षि॑णः। उ॒त। स॒व्यः। श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो। तेन॑। जा॒याम्। उप॑। प्रि॒याम्। म॒न्दा॒नः। या॒हि॒। अन्ध॑सः। योज॑। नु। इ॒न्द्र॒। ते॒। हरी॒ इति॑॥5॥ पदार्थः—(युक्तः) कृतयोजनः (ते) तव (अस्तु) भवतु (दक्षिणः) एको दक्षिणपार्श्वस्थः (उत) अपि (सव्यः) द्वितीयो वामपार्श्वस्थः (शतक्रतो) शतधाक्रतुः प्रज्ञाकर्म वा यस्य तत्सम्बुद्धौ (तेन) रथेन (जायाम्) स्वस्त्रियम् (उप) समीपे (प्रियाम्) प्रीतिकारिणीम् (मन्दानः) आनन्दयन् (याहि) गच्छ प्राप्नुहि वा (अन्धसः) अन्नादेः (योज) (नु) शीघ्रम् (इन्द्र) (ते) (हरी)॥5॥ अन्वयः—हे इन्द्र! शतक्रतो तव यौ सुशिक्षितौ हरी स्त एतौ रथे त्वं नु योज, यस्य ते तव रथस्यैकोऽश्वो दक्षिणपार्श्वे युक्त उतापि द्वितीयः सव्यो युक्तोऽस्तु तेन रथेनाऽरीन् जित्वा प्रियां जायां मन्दानस्त्वमन्धस उपयाहि प्राप्नुहि द्वौ मिलित्वा शत्रुविजयार्थं गच्छेताम्॥5॥ भावार्थः—राज्ञा स्वपत्न्या सह सुशिक्षितैरश्वैर्युक्ते याने स्थित्वा युद्धे विजयो व्यवहारे आनन्दः प्राप्तव्यः। यत्र यत्र युद्धे क्वचिद् भ्र्रमणार्थं वा गच्छेत्, तत्र तत्र सुशिल्पिरचिते दृढे रथे स्त्रिया सहितः स्थित्वैव यायात्॥5॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) सबको सुख देनेहारे (शतक्रतो) असंख्य उद्यम बुद्धि और क्रियाओं से युक्त! (ते) आपके जो सुशिक्षित (हरी) घोड़े हैं, उनको रथ में तू (नु योज) शीघ्र युक्त कर, जिस (ते) तेरे रथ के (एकः) एक घोड़ा (दक्षिणः) दाहिने (उत) और दूसरा (सव्यः) बांई ओर (अस्तु) हो (तेन) उस रथ पर बैठ शत्रुओं को जीत के (प्रियाम्) अतिप्रिय (जायाम्) स्त्री को साथ बैठा (मन्दानः) आप प्रसन्न और उसको प्रसन्न करता हुआ (अन्धसः) अन्नादि सामग्री के (उप याहि) समीपस्थ होके तुम दोनों शत्रुओं को जीतने के अर्थ जाया करो॥5॥ भावार्थः—राजा को योग्य है कि अपनी राणी के साथ अच्छे सुशिक्षित घोड़ों से युक्त रथ में बैठ के युद्ध में विजय और व्यवहार में आनन्द को प्राप्त होवें। जहाँ-जहाँ युद्ध में वा भ्रमण के लिये जावें, वहाँ-वहाँ उत्तम कारीगरों से बनाये सुन्दर रथ में स्त्री के सहित स्थित हो के ही जावें॥5॥ पुनर्भुत्याः किं कुर्य्युस्तेन स किं कुर्यादित्याह॥ फिर उसके भृत्य क्या करें और उस रथ से वह क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ यु॒नज्मि॑ ते॒ ब्रह्म॑णा के॒शिना॒ हरी॒ उप॒ प्र या॑हि दधि॒षे गभ॑स्त्योः। उत्त्वा॑ सु॒तासो॑ रभ॒सा अ॑मन्दिषुः पूष॒ण्वान् व॑ज्रि॒न्त्समु॒ पत्न्या॑मदः॥6॥3॥ यु॒नज्मि॑। ब्रह्म॑णा। के॒शिना॑। हरी॒ इति॑। उप॑। प्र। या॒हि॒। द॒धि॒षे। गभ॑स्त्योः। उत्। त्वा॒। सु॒तासः॑। र॒भ॒साः। अ॒म॒न्दि॒षुः॒। पू॒ष॒ण्ऽवान्। व॒ज्रि॒न्। सम्। ऊ॒म् इति॑। पत्न्या॑। अ॒म॒दः॒॥6॥ पदार्थः—(युनज्मि) युक्तौ करोमि (ते) तव (ब्रह्मणा) अनादिना सह (केशिना) सूर्यरश्मिवत्प्रशस्त-केशयुक्तौ (हरी) बलिष्ठावश्वौ (उप) सामीप्ये (प्र) (याहि) गच्छाऽऽगच्छ (दधिषे) धरसि (गभस्त्योः) हस्तयोः। गभस्ती इति बाहुनामसु पठितम्। (निघं॰2.5) (उत्) उत्कृष्टे (त्वा) त्वाम् (सुतासः) विद्याशिक्षाभ्यामुत्तमाः सम्पादिताः (रभसाः) वेगयुक्ताः (अमन्दिषुः) हर्षयन्तु (पूषण्वान्) अरिशक्तिनिरोधकैर्वीरैः सह (वज्रिन्) प्रशस्तास्त्रयुक्त (सम्) सम्यक् (उ) वितर्के (पत्न्या) युद्धादौ सङ्गमनीये यज्ञे संयुक्तया स्त्रिया (अमदः) आनन्दः॥6॥ अन्वयः—हे वज्रिन् सेनाध्यक्ष! यथाऽहं ते तव ब्रह्मणा युक्ते रथे केशिना हरी युनज्मि यत्र स्थित्वा त्वं गभस्त्योरश्वरशनां दधिषे उपप्रयाहि यथा रभसाः सुतासः सुशिक्षिता भृत्या यं त्वा उ उदमन्दिषुरानन्दयेयुस्तथैतानानन्दय। पूषण्वान् स्वकीयया पत्न्या सह सममदः सम्यगानन्द॥6॥ भावार्थः—मनुष्यैर्येऽश्वादिसंयोजका भृत्यास्ते सुशिक्षिता एव रक्षणीयाः स्वस्त्र्यादयोऽपि स्वानुरक्ता एव करणीयाः स्वयमप्येतेष्वनुरक्तास्तिष्ठेयुः सर्वदा युक्तः सन् सुपरीक्षितैरेतैर्धर्म्याणि कार्याणि संसाधयेत्॥ अत्र सेनापतिरीश्वरगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम्॥ इति द्व्यशीतितमं 82 सूक्तं तृतीयो 3 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—हे (वज्रिन्) उत्तम शस्त्रयुक्त सेनाध्यक्ष! जैसे मैं (ते) तेरे (ब्रह्मणा) अन्नादि से युक्त नौका रथ में (केशिना) सूर्य की किरण के समान प्रकाशमान (हरी) घोड़ों को (युनज्मि) जोड़ता हूं, जिसमें बैठ के तू (गभस्त्योः) हाथों में घोड़ों की रस्सी को (दधिषे) धारण करता है, उस रथ से (उप प्र याहि) अभीष्ट स्थानों को जा। जैसे बलवेगादि युक्त (सुतासः) सुशिक्षित (भृत्याः) नौकर लोग जिस (त्वा) तुझको (उ) अच्छे प्रकार (उदमन्दिषुः) आनन्दित करें, वैसे इनको तू भी आनन्दित कर और (पूषण्वान्) शत्रुओं की शक्तियों को रोकनेहारा तू अपनी (पत्न्या) स्त्री के साथ (सममदः) अच्छे प्रकार आनन्द को प्राप्त हो॥6॥ भावार्थः—मनुष्यों को योग्य है कि जो अश्वादि की शिक्षा सेवा करनेहारे और उनको सवारियों में चलानेवाले भृत्य हों, वे अच्छी शिक्षायुक्त हों और अपनी स्त्री आदि को भी अपने से प्रसन्न रख के आप भी उनमें यथावत् प्रीति करे। सर्वदा युक्त होके सुपरीक्षित स्त्री आदि में धर्म कार्यों को साधा करें॥6॥ इस सूक्त में सेनापति और ईश्वर के गुणों का वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ संगति समझनी चाहिये॥ यह 82 बियासीवाँ सूक्त और 3 तीसरा वर्ग पूरा हुआ॥

अथ षडर्च्चस्य त्र्यशीतितमस्य सूक्तस्य राहूगणो गोतम ऋषिः। इन्द्रो देवता। 1,3-5 निचृज्जगती। 2 जगती छन्दः। निषादः स्वरः। 6 त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥ पुनः स कीदृशे रथे तिष्ठन्कार्याणि साधयेदित्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसे रथ में बैठा हुआ कामों को सिद्ध करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अश्वा॑वति प्रथ॒मो गोषु॑ गच्छति सुप्रा॒वीरि॑न्द्र॒ मर्त्य॒स्तवो॒तिभिः॑। तमित्पृ॑णक्षि॒ वसु॑ना॒ भवी॑यसा॒ सिन्धु॒मापो॒ यथा॒भितो॒ विचे॑तसः॥1॥ अश्व॑ऽवति। प्र॒थ॒मः। गोषु॑। ग॒च्छ॒ति॒। सुप्र॒ऽअ॒वीः। इ॒न्द्र॒। मर्त्यः॑। तव॑। ऊ॒तिऽभिः॑। तम्। इत्। पृ॒ण॒क्षि॒। वसु॑ना। भवी॑यसा। सिन्धु॑म्। आपः॑। यथा॑। अ॒भितः॑। विऽचे॑तसः॥1॥ पदार्थः—(अश्वावति) संबद्धा अश्वा यस्मिंस्तस्मिन् रथे (प्रथमः) आदिमो भूमिगमनार्थो रथः (गोषु) पृथिवीषु (गच्छति) चलति (सुप्रावीः) सुष्ठु प्रजारक्षाकर्त्ता (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रापकसेनापते! (मर्त्यः) सुशिक्षितो धार्मिको भृत्यो मनुष्यः (तव) (ऊतिभिः) रक्षणादिभिः (तम्) (इत्) एव (पृणक्षि) संयुनक्षि (वसुना) प्रशस्तेन धनेन (भवीयसा) यदतिशयितं भवति तेन (सिन्धुम्) समुद्रं नदीं वा (आपः) जलानि (यथा) येन प्रकारेण (अभितः) सर्वतः (विचेतसः) विगतं चेतः संज्ञानं याभ्यस्ताः॥1॥ अन्वयः—हे इन्द्र! यो मर्त्त्यस्तवोतिभिः सह वर्त्तमानो भृत्योऽश्वावति रथे स्थित्वा गोषु युद्धाय प्रथमो गच्छति तेन त्वं प्रजाः सुप्रावीस्तमिद्यथा विचेतस आपोऽभितः सिन्धुमाप्नुवन्ति यथा भवीयसा वसुना सह प्रजाः पृणक्षि संयुनक्षि तथैव सर्वे संयुजन्तु॥1॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। सेनाध्यक्षादिभी राजपुरुषैर्ये भृत्याः स्वस्वाऽधिकृतेषु कर्मसु यथावन्न वर्त्तेरन् तान् सुदण्ड्य ये चानुवर्त्तेरंस्तान् सुसत्कृत्य बहुभिरुत्तमैः पदार्थैः सत्कारैः सह योजितानां संतोषं सम्पाद्य राजकार्याणि संसाधनीयानि नहि कश्चिद्यथापराधिने दण्डदानेन सुकर्मानुष्ठानाय पारितोषेण च विना यथावद्राजव्यवस्थां संस्थापयितुं शक्नोत्यत एतत्कर्म सदानुष्ठेयम्॥1॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) सबकी रक्षा करनेहारे राजन्! जो (मर्त्यः) अच्छी शिक्षायुक्त धार्मिक मनुष्य (तव) तेरी (ऊतिभिः) रक्षा आदि से रक्षित भृत्य (अश्वावति) उत्तम घोड़ों से युक्त रथ में बैठ के (गोषु) पृथिवी विभागों में युद्ध के लिये (प्रथमः) प्रथम (गच्छति) जाता है, उससे तू प्रजाओं को (सुप्रावीः) अच्छे प्रकार रक्षा कर (तमित्) उसी को (यथा) जैसे (विचेतसः) चेतनता रहित जड़ (आपः) जल वा वायु (अभितः) चारों ओर से (सिन्धुम्) नदी को प्राप्त होते हैं, जैसे (भवीयसा) अत्यन्त उत्तम (वसुना) धन से तू प्रजा को (पृणक्षि) युक्त करता है, वैसे ही सब प्रजा और राजपुरुष पुरुषार्थ करके ऐश्वर्य से संयुक्त हों॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। सेनापति आदि राजपुरुषों को योग्य है कि जो भृत्य अपने-अपने अधिकार के कर्मों में यथायोग्य न वर्त्तें, उन-उन को अच्छे प्रकार दण्ड और जो न्याय के अनुकूल वर्त्तें, उनका सत्कार कर शत्रुओं को जीत प्रजा की रक्षा कर पुरुषों को प्रसन्न रखके राजकार्यों को सिद्ध करना चाहिये। कोई भी पुरुष अपराधी के योग्य दण्ड और अच्छे कर्मकर्त्ता के योग्य प्रतिष्ठा किये विना यथावत् राज्य की व्यवस्था को स्थिर करने को समर्थ नहीं हो सकता, इससे इस कर्म का अनुष्ठान सदा करना चाहिये॥1॥ पुनर्विद्वांसः किं कुर्वन्तीत्युपदिश्यते॥ फिर विद्वान् लोग क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ आपो॒ न दे॒वीरुप॑ यन्ति हो॒त्रिय॑म॒वः प॑श्यन्ति॒ वित॑तं॒ यथा॒ रजः॑। प्रा॒चैर्दे॒वासः॒ प्र ण॑यन्ति देव॒युं ब्र॑ह्म॒प्रियं॑ जोषयन्ते व॒राइ॑व॥2॥ आपः॑। न। दे॒वीः। उप॑। य॒न्ति॒। हो॒त्रिय॑म्। अ॒वः। प॒श्यन्ति॒। विऽत॑तम्। यथा॑। रजः॑। प्रा॒चैः। दे॒वासः॑। प्र। न॒य॒न्ति॒। दे॒व॒ऽयुम्। ब्र॒ह्म॒ऽप्रिय॑म्। जो॒ष॒य॒न्ते॒। व॒राःऽइ॑व॥2॥ पदार्थः—(आपः) व्याप्तिशीलानि (न) इव (देवीः) देदीप्यमानाः (उप) सामीप्ये (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (होत्रियम्) दातव्यादातव्यानामिदम् (अवः) रक्षणादिकम् (पश्यन्ति) प्रेक्षन्ते (विततम्) विस्तृतम् (यथा) येन प्रकारेण (रजः) सूक्ष्मं सर्वलोककारणं परमाण्वादिकम् (प्राचैः) प्राचीनैर्विद्वद्भिः (देवासः) प्रशस्ता विद्वांसः (प्र) (नयन्ति) प्राप्नुवन्ति (देवयुम्) आत्मानं देवमिच्छन्तम् (ब्रह्मप्रियम्) ईश्वरो वेदो वा प्रियो यस्य तम् (जोषयन्ते) प्रीतयन्ति (वराइव) यथा प्रशस्तविद्याधर्मकर्मस्वभावाः॥2॥ अन्वयः—ये देवासो मेघमापो न देवीरुपयन्ति तथा प्राचैः सह विततं रजो होत्रियमवः पश्यन्ति वराइव ब्रह्मप्रियं देवयुं प्रणयन्ति जोषयन्ते ते सततं सुखिनः कथं न स्युः॥2॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। केन हेतुनेमे विद्वांस इमेऽविद्वांस इति विवेचनीयमित्यात्राह जलवच्छान्ता, प्राणवत्प्रियाः, धर्म्यादिदिव्यक्रियाः कुर्युः, सर्वेषां शरीरात्मनोः यथार्थरक्षणं जानीयुः, भूगर्भादिविद्याभिः प्राचीनवेदविद्विद्वद् वर्त्तेरन्, वेदद्वारेश्वरप्रणीतं धर्मं प्रचारयेयुस्ते विद्वांसो विज्ञेयाः, एतद्विपरीताः स्युस्तेऽविद्वांसश्चेति निश्चिनुयुः॥2॥ पदार्थः—जो (देवासः) विद्वान् लोग मेघ को (आपो न) जैसे जल प्राप्त होते हैं, वैसे (देवीः) विदुषी स्त्रियों को (उपयन्ति) प्राप्त होते हैं और (यथा) जैसे (प्राचैः) प्राचीन विद्वानों के साथ (विततम्) विशाल और जैसे (रजः) परमाणु आदि जगत् का कारण (होत्रियम्) देने-लेने के योग्य (अवः) रक्षण को (पश्यन्ति) देखते हैं (वराइव) उत्तम पतिव्रता विद्वान् स्त्रियों के समान (ब्रह्मप्रियम्) वेद और ईश्वर की आज्ञा में प्रसन्न (देवयुम्) अपने आत्मा को विद्वान् होने की चाहनायुक्त (प्रणयन्ति) नीतिपूर्वक करते और (जोषयन्ते) इसका सेवन करते औरों को ऐसा कराते हैं, वे निरन्तर सुखी क्यों न हो॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। किस हेतु से विद्वान् और अविद्वान् भिन्न-भिन्न कहाते हैं, इसका उत्तर-जो धर्मयुक्त शुद्ध क्रियाओं को करें, सबके शरीर और आत्मा का यथावत् रक्षण करना जानें और भूगर्भादि विद्याओं से प्राचीन आप्त विद्वानों के तुल्य वेदद्वारा ईश्वरप्रणीत सत्यधर्म मार्ग का प्रचार करें, वे विद्वान् हैं और जो इनसे विपरीत हों वे अविद्वान् हैं, इस प्रकार निश्चय से जानें॥2॥ पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अधि॒ द्वयो॑रदधा उ॒क्थ्यं वचो॑ य॒तस्रु॑चा मिथु॒ना या स॑प॒र्यतः॑। असं॑यत्तो व्र॒ते ते॑ क्षेति॒ पुष्य॑ति भ॒द्रा श॒क्तिर्यज॑मानाय सुन्व॒ते॥3॥ अधि॑। द्वयोः॑। अ॒द॒धाः॒। उ॒क्थ्य॑म्। वचः॑। य॒तऽस्रु॑चा। मि॒थु॒ना। या। स॒प॒र्यतः॑। अस॑म्ऽयत्तः। व्र॒ते। ते॒। क्षे॒ति॒। पुष्य॑ति। भ॒द्रा। श॒क्तिः। यज॑मानाय। सु॒न्व॒ते॥3॥ पदार्थः—(अधि) उपरिभावे (द्वयोः) स्वात्मपरात्मनोः प्रियम् (अदधाः) धेहि (उक्थ्यम्) वक्तुमर्हम् (वचः) सत्यं वचनम् (यतस्रुचा) यता नियताः स्रुचः साधनानि याभ्यामुपदेशाभ्यां तौ (मिथुना) विरोधं विहाय मिलितौ (या) यौ (सपर्यतः) परिचरतः (असंयत्तः) अजितेन्द्रियोऽपि (व्रते) सत्यभाषणादिलक्षणे व्यवहारे (ते) तव (क्षेति) निवसति (पुष्यति) पुष्टो भवति (भद्रा) कल्याणकारिणी (शक्तिः) समर्थता (यजमानाय) उपदेश्याय पालकाय वा (सुन्वते) ऐश्वर्यमिच्छुकाय प्राप्ताय वा॥3॥ अन्वयः—हे मनुष्य! यथा या यतस्रुचा मिथुना द्वयोर्यदुक्थ्यं वचः सपर्यतस्तथैतौ त्वमदधाः। यो संयतोऽपि ते व्रते क्षेति तस्मिन् भद्रा शक्तिरधि निवसति स पुष्यति पुष्टो भवति तर्हि तस्मै सुन्वते यजमानाय सुखं कथं न वर्द्धेत॥3॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः परोपकारबुद्ध्या सर्वेषां शरीरात्मनोर्मध्ये पुष्टिविद्याबले ज्ञात्वा विरोधं त्यक्त्वा धर्म्यं व्यवहारं सेवित्वा सततं सर्वान् मनुष्यान् सत्ये व्यवहारे प्रवर्त्तयन्ति, ते मोक्षमाप्नुवन्ति नेतर इति वेद्यम्॥3॥ पदार्थः—हे मनुष्य! जैसे (या) जो (यतस्रुचा) साधनोपसाधनयुक्त पढ़ाने और उपदेश करनेहारे (मिथुना) दोनों मिलके (द्वयोः) अपना और पराया कल्याण करके जो (उक्थ्यम्) प्रशंसा के योग्य (वचः) वचन को (सपर्यतः) सेवते हैं, वैसे इसका तू (अदधाः) धारण कर। जो (असंयत्तः) अजितेन्द्रिय भी (ते) तेरे (व्रते) सत्यभाषणादि नियम पालन में (क्षेति) निवास करता है, उसमें (भद्रा) कल्याण करनेहारी (शक्तिः) सामर्थ्य (क्षेति) बसती है और वह (पुष्यति) पुष्ट होता है, तब (सुन्वते) ऐश्वर्यप्राप्ति होनेवाले (यजमानाय) सबको सुखके दाता के लिये निरन्तर सुख कैसे न बढ़े॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य परोपकारी बुद्धि से सबके शरीर और आत्मा के मध्य पुष्टि और विद्याबल को उत्पन्न कर विरोध छोड़के धर्मयुक्त व्यवहार को सेवन करके निरन्तर सब मनुष्यों को सत्यव्यवहार में प्रवृत्त करते हैं, वे मोक्ष को प्राप्त होते हैं॥3॥ पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ आदङ्गि॑राः प्रथ॒मं द॑धिरे॒ वय॑ इ॒द्धाग्न॑यः॒ शम्या॒ ये सुकृ॒त्यया॑। सर्वं॑ प॒णेः सम॑विन्दन्त॒ भोज॑न॒मश्वा॑वन्तं॒ गोम॑न्त॒मा प॒शुं नरः॑॥4॥ आत्। अङ्गि॑राः। प्र॒थ॒मम्। द॒धि॒रे॒। वयः॑। इ॒द्धऽअ॑ग्नयः। शम्या॑। ये। सु॒ऽकृ॒त्यया॑। सर्व॑म्। प॒णेः। सम्। अ॒वि॒न्द॒न्त॒। भोज॑नम्। अश्व॑ऽवन्तम्। गोऽम॑न्तम्। आ। प॒शुम्। नरः॑॥4॥ पदार्थः—(आत्) अनन्तरम् (अङ्गिराः) प्राण इव प्रियो वत्सः। अत्र जसः स्थाने सुः। अङ्गिरस इति पदनामसु पठितम्। (निघं॰5.5) (प्रथमम्) आदिमं ब्रह्मचर्यार्थम् (दधिरे) दधति (वयः) जीवनम् (इद्धाग्नयः) इद्धाः प्रदीप्ता मानसब्राह्माग्नयो यैस्ते (शम्या) शान्तियुक्तक्रियया। शमीति कर्मनामसु पठितम्। (निघं॰2.1) (ये) (सुकृत्यया) शोभनानि कृत्यानि कर्माणि यस्यां तया (सर्वम्) अखिलम् (पणेः) स्तुत्यस्य व्यवहारस्य (सम्) सम्यक् (अविन्दन्त) विन्दन्ते प्राप्नुवन्ति (भोजनम्) पालनं भोग्यमानन्दं वा (अश्वावन्तम्) प्रशस्ता अश्वा विद्यन्ते यस्मिंस्तम् (गोमन्तम्) बह्व्यो गावः सन्त्यस्मिंस्तम् (आ) समन्तात् (पशुम्) स्वमातरम् (नरः) नेतारः॥4॥ अन्वयः—हे इद्धाग्नयो ये नरो मनुष्या यया सुकृत्यया शम्या पणेः प्रथमं वयो ब्रह्मचर्यार्थमादधिरे सर्वतो दधति ते सर्वं भोजनं समविन्दन्त प्राप्नुवन्त्वाद्यथाऽङ्गिराः अश्वावन्तं गोमन्तं राज्यं प्राप्यानन्दितः पशुं लब्ध्वानन्दी भवति तथा भवन्तु॥4॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। केचिदपि मनुष्या ब्रह्मचर्यसेवनेन विना साङ्गोपाङ्गविद्याः प्राप्तुं न शक्नुवन्ति, विद्याशक्तिभ्यां विना राज्यऽधिकारं लब्धुं नार्हन्ति, न चैतद्विरहा जनाः सत्यानि सुखानि प्राप्तुमर्हन्ति॥4॥ पदार्थः—हे (इद्धाग्नयः) अग्निविद्या को प्रदीप्त करनेहारे (ये) (नरः) नायक मनुष्यो! आप जैसे (सुकृत्यया) सुकृतयुक्त (शम्या) कर्म और (पणेः) प्रशंसनीय व्यवहार करनेवाले के उपदेश से (प्रथमम्) पहिले (वयः) उमर को ब्रह्मचर्य के लिये (आदधिरे) सब प्रकार से धारण करते हैं वे (सर्वम्) सब (भोजनम्) आनन्द को भोग और पालन को (समविन्दन्त) अच्छे प्रकार प्राप्त होते हैं (आत्) इससे अनन्तर जैसे (अङ्गिराः) प्राणवत् प्रिय बछड़ा (पशुम्) अपनी माता को प्राप्त होके आनन्दित होता है, वैसे आप (अश्वावन्तम्) उत्तम घोड़ों से युक्त (गोमन्तम्) श्रेष्ठ गाय और भूमि आदि से सहित राज्य को प्राप्त होके आनन्दित हूजिये॥4॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। कोई भी मनुष्य ब्रह्मचर्य से विद्या पढ़े विना साङ्गोपाङ्ग विद्याओं को प्राप्त होने को समर्थ नहीं हो सकते और विद्या सत्कर्म के विना राज्याधिकार को प्राप्त होने योग्य नहीं होते, उक्त प्रकार से रहित मनुष्य सत्य सुख को प्राप्त नहीं हो सकते॥4॥ पुनस्ते केन किं संगच्छन्त इत्युपदिश्यते॥ फिर वे किससे किसको प्राप्त होते हैं, यह विषय कहा है॥ य॒ज्ञैरथ॑र्वा प्रथ॒मः प॒थस्त॑ते॒ ततः॒ सूर्यो॑ व्रत॒पा वे॒न आज॑नि। आ गा आ॑जदु॒शना॑ का॒व्यः सचा॑ य॒मस्य॑ जा॒तम॒मृतं॑ यजामहे॥5॥ य॒ज्ञैः। अथ॑र्वा। प्र॒थ॒मः। प॒थः। त॒ते॒। ततः॑। सूर्यः॑। व्र॒त॒ऽपाः। वे॒नः। आ। अ॒ज॒नि॒। आ। गाः। आ॒ज॒त्। उ॒शना॑। का॒व्यः। सचा॑। य॒मस्य॑। जा॒तम्। अ॒मृत॑म्। य॒जा॒म॒हे॒॥5॥ पदार्थः—(यज्ञैः) विद्याविज्ञानप्रचारैः (अथर्वा) अहिंसकः (प्रथमः) प्रख्यातो विद्वान् (पथः) मार्गम् (तते) तनुते। अत्र बहुलं छन्दसीति विकरणस्य लुक्। (ततः) विस्तृतः। अत्र तनिमृङ्। (उणा॰3.86) अनेन तन्प्रत्ययः किच्च। (सूर्यः) यथा सविता तथा (व्रतपाः) सत्यनियमरक्षकः (वेनः) कमनीयः (आ) अभितः (अजनि) जायते (आ) समन्तात् (गाः) पृथिवीः (आजत्) अजत्याकर्षणेन प्रक्षिपति वा (उशना) कामयिता (काव्यः) यथा कवेः पुत्रः शिष्यो वा (सचा) विज्ञानेन (यमस्य) सर्वनियन्तुः (जातम्) प्रसिद्धिगतम् (अमृतम्) अधर्मजन्मदुःखरहितं मोक्षसुखम् (यजामहे) सङ्गच्छामहे॥5॥ अन्वयः—यथा प्रथमोऽथर्वा पथस्तते यथा वेनो व्रतपा आजनि समन्ताज्जायते यथा ततः सूर्यो गा आजदजति यथा काव्य उशना विद्वान् विद्याः प्राप्नोति तथा वयं यज्ञैर्यमस्य सचा जातममृतमायजामहे॥5॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदि मनुष्यैः सन्मार्गे स्थित्वा सत्क्रियाभिर्विज्ञानेन च परमेश्वरं विज्ञाय मोक्षसुखमिष्यते तर्ह्यवश्यं ते मुक्तिमश्नुवते॥5॥ पदार्थः—जैसे (प्रथमः) प्रसिद्ध विद्वान् (अथर्वा) हिंसारहित (पथः) सन्मार्ग को (तते) विस्तृत करता है, जैसे (वेनः) बुद्धिमान् (व्रतपाः) सत्य का पालन करनेहारा सब प्रकार (आजनि) प्रसिद्ध होता है, जैसे (ततः) विस्तृत (सूर्यः) सूर्यलोक (गाः) पृथिवी में देशों को (आजत्) धारण करके घुमाता है, जैसे (काव्यः) कवियों में शिक्षा को प्राप्त (उशना) विद्या की कामना करनेवाला विद्वान् विद्याओं को प्राप्त होता है, वैसे हम लोग (यज्ञैः) विद्या के पढ़ने-पढ़ाने सत्संयोगादि क्रियाओं से (यमस्य) सब जगत् के नियन्ता परमेश्वर के (सचा) साथ (जातम्) प्राप्त हुए (अमृतम्) मोक्ष को (आयजामहे) प्राप्त होवें॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि सत्य मार्ग में स्थित होके सत्य क्रिया और विज्ञान से परमेश्वर को जान के मोक्ष की इच्छा करें, वे विद्वान् मुक्ति को प्राप्त होते हैं॥5॥ पुनः स कथं कि कुर्यादित्युपदिश्यते॥ फिर वह किस प्रकार से क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ ब॒र्हिर्वा॒ यत्स्व॑प॒त्याय॑ वृ॒ज्यते॒ऽर्को वा॒ श्लोक॑मा॒घोष॑ते दि॒वि। ग्रावा॒ यत्र॒ वद॑ति का॒रुरु॒क्थ्यस्तस्येदिन्द्रो॑ अभिपि॒त्वेषु॑ रण्यति॥6॥4॥ ब॒र्हिः। वा॒। यत्। सु॒ऽअ॒प॒त्याय॑। वृ॒ज्यते॑। अ॒र्कः। वा॒। श्लोक॑म्। आ॒ऽघोष॑ते। दि॒वि। ग्रावा॑। यत्र॑। वद॑ति। का॒रुः। उ॒क्थ्यः॑। तस्य॑। इत्। इन्द्रः॑। अ॒भि॒ऽपि॒त्वेषु॑। र॒ण्य॒ति॒॥6॥ पदार्थः—(बर्हिः) विज्ञानम् (वा) समुच्चयार्थे। वेत्यथापि समुच्चयार्थे। (निरु॰1.4) (यत्) यस्मै। अत्र सुपां सुबिति ङेर्लुक्। (स्वपत्याय) शोभनान्यपत्यानि यस्य तस्मै (वृज्यते) त्यज्यते (अर्कः) विद्यमानः सूर्यः (वा) विचारणे। (निरु॰1.4) (श्लोकम्) विद्यासहितां वाचम् (आघोषते) विद्याप्राप्तय उच्चरति (दिवि) आकाश इव दिव्ये विद्याव्यवहारे (ग्रावा) मेघः। ग्रावेति मेघनाम। (निघं॰1.10) (यत्र) यस्मिन्देशे (वदति) उपदिशति (कारुः) स्तुत्यानां शिल्पकर्मणां कर्त्ता। कारुरहमस्मि स्तोमानां कर्त्ता। (निरु॰6.6) (उक्थ्यः) उक्थेषु वक्तव्येषु व्यवहारेषु साधु (तस्य) (इत्) एव (इन्द्रः) परमैश्वर्यप्रदो विद्वान् (अभिपित्वेषु) अभितः सर्वतः प्राप्तव्येषु व्यवहारेषु। अत्र पदधातोर्बाहुलकादौणादिक इत्वन् प्रत्ययो डिच्च। (रण्यति) उपदिशति। अत्र विकरणव्यत्ययः॥6॥ अन्वयः—यत्र दिव्युक्थ्यः कारुरिन्द्रोऽभिपित्वेषु यद्यस्मै स्वपत्याय बर्हिर्वृज्यतेऽर्को वा श्लोकमाघोषते ग्रावा वदति रण्यति तत्र तस्येदेव विद्या जायते॥6॥ भावार्थः—विद्वद्भिर्यथा जलं विच्छिद्यान्तरिक्षं गत्वा वर्षित्वा सुखं जनयति तथैव कुव्यसनानि छित्त्वा विद्यामुपगृह्य सर्वे जनाः सुखयितव्याः। यथा सूर्योऽन्धकारं विनाश्य प्रकाशं जनयित्वा सर्वान् प्राणिनः सुखयति दुष्टान् भीषयते, तथैव जनानामज्ञानं विनाश्य ज्ञानं जनयित्वा सदैव सुखं सम्पादनीयम्। यथा मेघो गर्जित्वा वर्षित्वा दौर्भिक्ष्यं विनाश्य सौभिक्ष्यं करोति तथैव सदुपदेशवृष्ट्याऽधर्मं विनाश्य धर्मं प्रकाश्य जनाः सर्वदाऽऽनन्दयितव्याः॥6॥ अत्र सेनापत्युपदेशकयोः कृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम्॥ इति त्र्यशीतितमं 83 सूक्तं चतुर्थो 4 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—(यत्र) जिस (दिवि) प्रकाशयुक्त व्यवहार में (उक्थ्यः) कथनीय व्यवहारों में निपुण प्रशंसनीय शिल्प कामों का कर्त्ता (इन्द्रः) परमैश्वर्य को प्राप्त करनेहारा विद्वान् (अभिपित्वेषु) प्राप्त होने योग्य व्यवहारों में (यत्) जिस (स्वपत्याय) सुन्दर सन्तान के अर्थ (बर्हिः) विज्ञान को (वृज्यते) छोड़ता है (अर्कः) पूजनीय विद्वान् (श्लोकम्) सत्यवाणी को (वा) विचारपूर्वक (आघोषते) सब प्रकार सुनाता है (ग्रावा) मेघ के समान गम्भीरता से (वदति) बोलता है (वा) अथवा (रण्यति) उत्तम उपदेशों को करता है, वहाँ (तस्येत्) उसी सन्तान को विद्या प्राप्त होती है॥6॥ भावार्थः—विद्वान् लोगों को योग्य है कि जैसे जल छिन्न-भिन्न होकर आकाश में जा वहाँ से वर्षा से सुख करता है, वैसे कुव्यसनों को छिन्न-भिन्न कर विद्या को ग्रहण करके सब मनुष्यों को सुखी करें। जैसे सूर्य अन्धकार का नाश और प्रकाश करके सब प्राणियों को सुखी और दुष्ट चोरों को दुःखी करता है, वैसे मनुष्यों के अज्ञान का नाश विज्ञान की प्राप्ति करा के सबको सुखी करें। जैसे मेघ गर्जना कर और वर्ष के दुर्भिक्ष को छुड़ा सुभिक्ष करता है, वैसे ही सत्योपदेश की वृष्टि से अधर्म का नाश धर्म के प्रकाश से सब मनुष्यों को आनन्दित किया करें॥6॥ इस सूक्त में सेनापति और उपदेशक के गुणों का वर्णन करने से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति समझनी चाहिये॥ यह त्र्यासीवां 83 सूक्त और चौथा 4 वर्ग समाप्त हुआ॥

अथ विंशत्यृचस्य चतुरशीतितमस्य सूक्तस्य राहूगणो गोतम ऋषिः। इन्द्रो देवता। 1,3-5 निचृदनुष्टुप्। विराडनुष्टुप्। गान्धारः स्वरः। 6 भुरिगुष्णिक्। 7-9 उष्णिक् छन्दः। ऋषभः स्वरः। 10,12 विराडास्तारपङ्क्तिः। 11 आस्तारपङ्क्तिः। 20 पङ्क्तिश्छन्दः। पञ्चमः स्वरः। 13-15 निचृद्गायत्रीछन्दः। षड्जः स्वरः। 16 निचृत् त्रिष्टुप् छन्दः। 17 विराट् त्रिष्टुप् छन्दः। 18 त्रिष्टुप् छन्दः॥ पुनः सेनाध्यक्षकृत्यमुपदिश्यते॥ अब चौरासीवें सूक्त का आरम्भ किया जाता है। इसके प्रथम मन्त्र में सेनापति के गुणों का उपदेश किया है॥ असा॑वि॒ सोम॑ इन्द्र ते॒ शवि॑ष्ठ धृष्ण॒वा ग॑हि। आ त्वा॑ पृणक्त्विन्द्रि॒यं रजः॒ सूर्यो॒ न र॒श्मिभिः॑॥1॥ असा॑वि। सोमः॑। इ॒न्द्र॒। ते॒। शवि॑ष्ठ। धृ॒ष्णो॒ इति॑।। आ। ग॒हि॒। आ। त्वा॒। पृ॒ण॒क्तु॒। इ॒न्द्रि॒यम्। रजः॑। सूर्यः॑। न। र॒श्मिभिः॑॥1॥ पदार्थः—(असावि) उत्पाद्यते (सोमः) उत्तमोऽनेकविधरोगनाशक ओषधिरसः (इन्द्र) सर्वैश्वर्यप्राप्तिहेतो (ते) तुभ्यम् (शविष्ठ) बलिष्ठ (धृष्णो) प्रगल्भ (आ) आभिमुख्ये (गहि) प्राप्नुहि (आ) समन्तात् (त्वा) त्वाम् (पृणक्तु) सम्पर्कं करोतु (इन्द्रियम्) मनः (रजः) लोकसमूहम् (सूर्यः) सविता (न) इव (रश्मिभिः) किरणैः॥1॥ अन्वयः—हे धृष्णो शविष्ठेन्द्र! ते तुभ्यं यः सोमोऽस्माभिरसावि यस्ते तवेन्द्रियं सूर्यो रश्मिभी रजो नेव प्रकाशयेत् तं त्वमागहि समन्तात् प्राप्नुहि स च त्वा त्वामापृणक्तु॥1॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। प्रजासेनाशालासभास्थैः पुरुषैः सुपरीक्ष्य सूर्यसदृशं प्रजासेनाशालासभाध्यक्षं कृत्वा सर्वथा स सत्कर्त्तव्य एवं सभ्या अपि प्रतिष्ठापयितव्याः॥1॥ पदार्थः—हे (धृष्णो) प्रगल्भ (शविष्ठ) प्रशंसित बलयुक्त (इन्द्र) परमैश्वर्य देनेहारे सत्पुरुष (ते) तेरे लिये जो (सोमः) अनेक प्रकार के रोगों को विनाश करनेहारी औषधियों का सार हमने (असावि) सिद्ध किया है, जो तेरी (इन्द्रियम्) इन्द्रियों को (सूर्यः) सविता (रश्मिभिः) किरणों से (रजः) लोकों का प्रकाश करने के (न) तुल्य प्रकाश करे उसको तू (आगहि) प्राप्त हो, वह (त्वा) तुझे (आ पृणक्तु) बल और आरोग्यता से युक्त करे॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। प्रजा, सेना और पाठशालाओं की सभाओ में स्थित पुरुषों को योग्य है कि अच्छे प्रकार सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष को प्रजा, सेना और पाठशालाओं में अध्यक्ष करके सब प्रकार से उसका सत्कार करना चाहिये, वैसे सभ्यजनों की भी प्रतिष्ठा करनी चाहिये॥1॥ पुनस्तं कथं सत्कुर्युरित्युपदिश्यते॥ फिर उसका सत्कार किस प्रकार करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ इन्द्र॒मिद्धरी॑ वह॒तोऽप्र॑तिधृष्टशवसम्। ऋषी॑णां च स्तु॒तीरुप॑ य॒ज्ञं च॒ मानु॑षाणाम्॥2॥ इन्द्र॑म्। इत्। ह॒री इति॑। व॒ह॒तः॒। अप्र॑तिधृष्टऽशवसम्। ऋषी॑णाम्। च॒। स्तु॒तीः। उप॑। य॒ज्ञम्। च॒। मानु॑षाणाम्॥2॥ पदार्थः—(इन्द्रम्) प्रजासेनापतिम् (इत्) एव (हरी) दुःखहरणशीलौ (वहतः) प्राप्नुतः (अप्रतिधृष्टशवसम्) न प्रतिधृष्यते शवो बलं यस्य तम् (ऋषीणाम्) मन्त्रार्थविदाम् (च) समुच्चये (स्तुतीः) प्रशंसाः (उप) सामीप्ये (यज्ञम्) सर्वैः सङ्गमनीयम् (च) समुच्चये (मानुषाणाम्) मानवानाम्॥2॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यूयं यमप्रतिधृष्टशवसमृषीणां स्तुतीः प्राप्तं महाशुभगुणसम्पन्नं च मानुषाणामन्येषां प्राणिनां च विद्यादानसंरक्षणाख्यं यज्ञं पालयन्तमिन्द्रं हरी उपवहतस्तमित्सदा स्वीकुरुत॥2॥ भावार्थः—नहि प्रशंसितपुरुषैः सत्कृतैरधिष्ठातृभिर्विना प्राणिनां सुखं भवितुं शक्यम्। न खलु सत्क्रियया विना चक्रवर्त्तिराज्यादिप्राप्तिरक्षणे च भवितुं शक्येते तस्मात् सर्वैरेतत्सर्वदाऽनुष्ठेयम्॥2॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! तुम जिस (अप्रतिधृष्टशवसम्) अहिंसित अत्यन्त बलयुक्त (ऋषीणाम्) वेदों के अर्थ जाननेहारों की (स्तुतीः) प्रशंसा को प्राप्त (च) महागुणसम्पन्न (मानुषाणाम्) मनुष्यों (च) और प्राणियों के विद्यादान संरक्षण नाम (यज्ञम्) यज्ञ को पालन करनेहारे (इन्द्रम्) प्रजा, सेना और सभा आदि ऐश्वर्य को प्राप्त करानेवाले को (हरी) दुःखहरण स्वभाव, श्री, बल, वीर्य, नाम, गुण, रूप, अश्व (उप वहतः) प्राप्त होते हैं, उसको (इत्) ही सदा प्राप्त हूजिये॥2॥ भावार्थः—जो प्रशंसा सत्कार अधिकार को प्राप्त है उनके विना प्राणियों को सुख नहीं हो सकता तथा सत्क्रिया के विना चक्रवर्त्तिराज्य आदि की प्राप्ति और रक्षण नहीं हो सकते, इस हेतु से सब मनुष्यों को यह अनुष्ठान करना उचित है॥2॥ पुनः सेनाध्यक्षः स्वभृत्यान् प्रति किं किमादिशेदित्युपदिश्यते॥ फिर सेनापति अपनी सेना के भृत्यों को क्या-क्या आज्ञा देवे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ आ ति॑ष्ठ वृत्रह॒न् रथं॑ यु॒क्ता ते॒ ब्रह्म॑णा॒ हरी॑। अ॒र्वा॒चीनं॒ सु ते॒ मनो॒ ग्रावा॑ कृणोतु व॒ग्नुना॑॥3॥ आ। ति॒ष्ठ॒। वृ॒त्र॒ऽह॒न्। रथ॑म्। यु॒क्ता। ते॒। ब्रह्म॑णा। हरी॒ इति॑। अ॒र्वा॒चीन॑म्। सु। ते॒। मनः॑। ग्रावा॑। कृ॒णो॒तु॒। व॒ग्नुना॑॥3॥ पदार्थः—(आ) अभितः (तिष्ठ) (वृत्रहन्) मेघं सवित इव शत्रुमतिविच्छेत्तः (रथम्) विमानादियानम् (युक्ता) सम्यक् सम्बद्धौ (ते) तव (ब्रह्मणा) अन्नादिसामग्र्या सह वर्त्तमानेन शिल्पिना सारथिना वा (हरी) हरणशीलावग्निजलाख्यौ तुरङ्गौ वा (अर्वाचीनम्) अधस्ताद् भूमिजलयोरुपगन्तारम् (सु) शोभने (ते) तव (मनः) विज्ञानम् (ग्रावा) मेघ इव विद्वान् यो गृणाति सः (कृणोतु) करोतु (वग्नुना) वाण्या। वग्नुरिति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं॰1.11)॥3॥ अन्वयः—हे वृत्रहन् शूरवीर! ते तव यस्मिन् ब्रह्मणा चालितौ हरी युक्ता स्तस्तमर्वाचीनं रथं त्वमातिष्ठ ग्रावेव वग्नुना वक्तृत्वं सुकृणोत्वित्थं ते मनो वीरान् सुष्ठूत्साहयतु॥3॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। सभाध्यक्षैः सेनायां द्वावध्यक्षौ रक्ष्येतां तयोरेकः सेनापतिर्योधयिता द्वितीयो वक्तृत्वेनोत्साहायोपदेशकः। यदा युद्धं प्रवर्त्तेत तदा सेनापतिर्भृत्यान् सुपरीक्ष्योत्साह्य शत्रुभिः सह योधयेद्यतो ध्रुवो विजयस्स्याद् यदा युद्धं निवर्त्तेत तदोपदेशकः सर्वान् योद्धॄन् परिचारकांश्च शौर्यकृतज्ञता धर्म्मकर्मोपदेशेन सूत्साहयुक्तान् कुर्यादेवं कर्तॄणां कदाचित् पराजयो भवितुन्न शक्यते इति वेद्यम्॥3॥ पदार्थः—हे (वृत्रहन्) मेघ को सविता के समान शत्रुओं के मारनेहारे शूरवीर! (ते) तेरे जिस (ब्रह्मणा) अन्नादिसामग्री से युक्त शिल्पि वा सारथि के चलाये हुए (हरी) पदार्थ को पहुंचाने वाले जलाग्नि वा घोड़े (युक्ता) युक्त हैं, उस (अर्वाचीनम्) भूमि, जल के नीचे-ऊपर आदि को जाने वाले (रथम्) रथ में तू (आतिष्ठ) बैठ (ग्रावा) मेघ के समान (वग्नुना) सुन्दर मधुर वाणी में वक्तृत्व को (सुकृणोतु) अच्छे प्रकार कर, उससे (ते) तेरा (मनः) विज्ञान वीरों को अच्छे प्रकार उत्साहित किया करे॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सभापतियों को योग्य है कि सेना में दो प्रकार के अधिकारी रक्खें। उनमें एक सेना को लड़ावे और दूसरा अच्छे भाषणों से योद्धाओं को उत्साहित करे। जब युद्ध हो तब सेनापति अच्छी प्रकार परीक्षा और उत्साह से शत्रुओं के साथ ऐसा युद्ध करावे कि जिससे निश्चित विजय हो और जब युद्ध बन्द हो जाये, तब उपदेशक योद्धा और सब सेवकों को धर्मयुक्त कर्म के उपदेश से अच्छे प्रकार उत्साहित करें, ऐसे करनेहारे मनुष्यों का कभी पराजय नहीं हो सकता॥3॥ पुनः स किमादिशेदित्युपदिश्यते॥ फिर वह क्या आज्ञा करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ इ॒ममि॑न्द्र सु॒तं पि॑ब॒ ज्येष्ठ॒मम॑र्त्यं॒ मद॑म्। शु॒क्रस्य॑ त्वा॒भ्य॑क्षर॒न्धारा॑ ऋ॒तस्य॒ साद॑ने॥4॥ इ॒मम्। इ॒न्द्र॒। सु॒तम्। पि॒ब॒। ज्येष्ठ॑म्। अम॑र्त्यम्। मद॑म्। शु॒क्रस्य॑। त्वा॒। अ॒भि। अ॒क्ष॒र॒न्। धाराः॑। ऋ॒तस्य॑। सद॑ने॥4॥ पदार्थः—(इमम्) प्रत्यक्षम् (इन्द्र) शत्रूणां विदारयितः (सुतम्) निष्पादितम् (पिब) (ज्येष्ठम्) अतिशयेन प्रशस्तम् (अमर्त्यम्) दिव्यम् (मदम्) हर्षम् (शुक्रस्य) पराक्रमस्य। (त्वा) त्वाम् (अभि) आभिमुख्ये (अक्षरन्) चालयन्ति (धाराः) वाचः। धारेति वाङ् नामसु पठितम्। (निघं॰1.11) (ऋतस्य) सत्यस्य (सदने) स्थाने॥4॥ अन्वयः—हे इन्द्र! यं त्वा या धारा ऋतस्य शुक्रस्य सदन अभ्यक्षरंस्ताः प्राप्येमं सुतं सोमं पिब तेन ज्येष्ठममर्त्यं मदं प्राप्य शत्रून् विजयस्व॥4॥ भावार्थः—कश्चिदपि विद्यासुभोजनैर्विना वीर्यं प्राप्तुं न शक्नोति, तेन विना सत्यस्य विज्ञानं विजयश्च न जायते॥4॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) शत्रुओं को विदारण करनेहारे! जिस (त्वा) तुझे जो (धाराः) वाणी (ऋतस्य) सत्य (शुक्रस्य) पराक्रम के (सदने) स्थान में (अभ्यक्षरन्) प्राप्त करती हैं, उनको प्राप्त होके (इमम्) इस (सुतम्) अच्छे प्रकार से सिद्ध किये उत्तम ओषधियों के रस को (पिब) पी, उससे (ज्येष्ठम्) प्रशंसित (अमर्त्यम्) साधारण मनुष्य को अप्राप्त दिव्यस्वरूप (मदम्) आनन्द को प्राप्त होके शत्रुओं को जीत॥4॥ भावार्थः—कोई भी मनुष्य विद्या और अच्छे पान-भोजन के विना पराक्रम को प्राप्त होने को समर्थ नहीं और इसके विना सत्य का विज्ञान और विजय नहीं हो सकता॥4॥ पुनस्तं कीदृशं सभाध्यक्षं सत्कुर्युरित्युपदिश्यते॥ फिर किस प्रकार के सभाध्यक्ष का सत्कार करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ इन्द्रा॑य नू॒नम॑र्चतो॒क्थानि॑ च ब्रवीतन। सु॒ता अ॑मत्सु॒रिन्द॑वो॒ ज्येष्ठं॑ नमस्यता॒ सहः॑॥5॥5॥ इन्द्रा॑य। नू॒नम्। अ॒र्च॒त॒। उ॒क्थानि॑। च॒। ब्र॒वी॒त॒न॒। सु॒ताः। अ॒म॒त्सुः॒। इन्द॑वः। ज्येष्ठ॑म्। न॒म॒स्य॒त॒। सहः॑॥5॥ पदार्थः—(इन्द्राय) अत्यन्तोत्कृष्टाय (नूनम्) निश्चितम् (अर्चत) सत्कुरुत (उक्थानि) वक्तव्यानि वचनानि (च) समुच्चये (ब्रवीतन) उपदिशत (सुताः) निष्पादिताः (अमत्सुः) हर्षयेयुः (इन्दवः) सोमाः (ज्येष्ठम्) प्रशस्तम् (नमस्यत) पूजयत (सहः) बलम्॥5॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यूयं यं सुता इन्दवोऽमत्सुहर्षयेयुर्यं ज्येष्ठं सहः प्राप्नुयात् तस्मा इन्द्राय नमस्यत तं मुख्यकार्येषु नियोज्य नूनमर्चतोक्थानि ब्रवीतन तस्मात् सत्कारं च प्राप्नुत॥5॥ भावार्थः—मनुष्यैर्यः सर्वान् सत्कुर्याच्छरीरात्मबलं प्राप्य परोपकारी भवेत् तं विहायान्यः सेनाद्यधिकारे कदाचिन्नैव संस्थाप्यः॥5॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! तुम जिसको (सुताः) सिद्ध (इन्दवः) उत्तम रसीले पदार्थ (अमत्सुः) आनन्दित करें, जिसको (ज्येष्ठम्) उत्तम (सहः) बल प्राप्त हो उस (इन्द्राय) सभाध्यक्ष को (नमस्यत) नमस्कार करो और उसको मुख्य कामों में युक्त करके (नूनम्) निश्चय से (अर्चत) सत्कार करो (उक्थानि) अच्छे-अच्छे वचनों से (ब्रवीतन) उपदेश करो, उससे सत्कारों को (च) भी प्राप्त हो॥5॥ भावार्थः—मनुष्यों को योग्य है कि जो सबका सत्कार करे, शरीर और आत्मा के बल को प्राप्त होके परोपकारी हो, उसको छोड़ के अन्य को सेनापति आदि अधिकारों में कभी स्थापन न करें॥5॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ नकि॒ष्ट्वद्र॒थीत॑रो॒ हरी॒ यदि॑न्द्र॒ यच्छ॑से। नकि॒ष्ट्वानु॑ म॒ज्मना॒ नकिः॒ स्वश्व॑ आनशे॥6॥ नकि॑ः। त्वत्। र॒थिऽत॑रः। हरी॒ इति॑। यत्। इ॒न्द्र॒। यच्छ॑से। नकि॑ः। त्वा॒। अनु॑। म॒ज्मना॑। नकि॑ः। सु॒ऽअश्वः॑। आ॒न॒शे॒॥6॥ पदार्थः—(नकिः) प्रश्ने (त्वत्) (रथीतरः) अतिशयेन रथयुक्तो योद्धा (हरी) अश्वौ (यत्) यः (इन्द्र) सेनेश (यच्छसे) ददासि (नकिः) (त्वा) त्वाम् (अनु) आनुकूल्ये (मज्मना) बलेन (नकिः) न किल (स्वश्वः) शोभना अश्वा यस्य सः (आनशे) व्याप्नोति॥6॥ अन्वयः—हे इन्द्र! यस्त्वं रथीतरस्स हरीर्यच्छसे त्वा त्वां मज्मना कश्चित् किं नकिरन्वानशे त्वदधिकः कश्चित् स्वश्वः किं नकिर्विद्यते तस्मात् त्व सर्वैरङ्गैर्युक्तो भव॥6॥ भावार्थः—हे मनुष्या! यूयं सेनेशमेवमुपदिशत किं त्वं सर्वेभ्योऽधिकः? किं त्वया सदृश एव नास्ति? किं कश्चिदपि त्वां विजेतुं न शक्नोति? तस्मात् त्वया समाहितेन वर्त्तितव्यमिति॥6॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) सेना के धारण करनेहारे सेनापति! (यत्) जो तू (रथीतरः) अतिशय करके रथयुक्त योद्धा है सो (हरी) अग्न्यादि वा घोड़ों को (नकिः) (यच्छसे) क्या रथ में नहीं देता अर्थात् युक्त नहीं करता? क्या (त्वा) तुझको (मज्मना) बल से कोई भी (नकिः) (अन्वानशे) व्याप्त नहीं हो सकता? क्या (त्वत्) तुझसे अधिक कोई भी (स्वश्वः) अच्छे घोड़ों वाला (नकिः) नहीं है? इससे तू सब अङ्गों से युक्त हो॥6॥ भावार्थः—हे मनुष्यो! तुम सेनापति को इस प्रकार उपदेश करो कि क्या तू सब से बड़ा है? क्या तेरे तुल्य कोई भी नहीं है? क्या कोई तेरे जीतने को भी समर्थ नहीं है? इससे तू निरभिमानता से सावधान होकर वर्त्ता कर॥6॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ य एक॒ इद्वि॒दय॑ते॒ वसु॒ मर्ता॑य दा॒शुषे॑। ईशा॑नो॒ अप्र॑तिष्कुत॒ इन्द्रो॑ अ॒ङ्ग॥7॥ यः। एक॑ः। इत्। वि॒ऽदय॑ते। वसु॑। मर्ता॑य। दा॒शुषे॑। ईशा॑नः। अप्र॑तिऽस्कुतः। इन्द्रः॑। अ॒ङ्ग॥7॥ पदार्थः—(यः) एक असहायः (इत्) अपि (विदयते) विविधं दापयति (वसु) द्रव्यम् (मर्त्ताय) मनुष्याय (दाशुषे) दानशीलाय (ईशानः) समर्थः (अप्रतिष्कुतः) असंचलितः (इन्द्रः) सभाद्यध्यक्षः (अङ्ग) मित्र॥7॥ अन्वयः—हे अङ्ग मित्र मनुष्य! य इन्द्र एक इद् दाशुषे मर्त्ताय वसु विदयते ईशानोऽप्रतिष्कुतोऽस्ति, तमेव सेनायामधिकुरुत॥7॥ भावार्थः—हे मनुष्या! यूयं यः सहायरहितोऽपि निर्भयो युद्धादपलायनशीलोऽतिशूरो भवेत्, तमेव सेनाध्यक्षं कुरुत॥7॥ पदार्थः—हे (अङ्ग) मित्र मनुष्य! (यः) जो (इन्द्रः) सभा आदि का अध्यक्ष (एकः) सहायरहित (इत्) ही (दाशुषे) दाता (मर्त्ताय) मनुष्य के लिये (वसु) द्रव्य को (विदयते) बहुत प्रकार देता है और (ईशानः) समर्थ (अप्रतिष्कुतः) निश्चल है, उसी को सेना आदि में अध्यक्ष कीजिए॥7॥ भावार्थः—हे मनुष्यो! तुम लोग जो सहायरहित भी निर्भय होके युद्ध से नहीं हटता तथा अत्यन्त शूर है, उसी को सेना का स्वामी करो॥7॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ क॒दा मर्त॑मरा॒धसं॑ प॒दा क्षुम्प॑मिव स्फुरत्। क॒दा नः॑ शुश्रव॒द् गिर॒ इन्द्रो॑ अ॒ङ्ग॥8॥ क॒दा। मर्त॑म्। अ॒रा॒धस॑म्। प॒दा। क्षुम्प॑म्ऽइव। स्फु॒र॒त्। क॒दा। नः॒। शु॒श्र॒व॒त्। गिरः॑। इन्द्रः॑। अ॒ङ्ग॥8॥ पदार्थः—(कदा) कस्मिन् काले (मर्त्तम्) मनुष्यम् (अराधसम्) धनरहितम् (पदा) पदार्थप्राप्त्या (क्षुम्पमिव) यथा सर्प्पः फणम् (स्फुरत्) संचालयेत् (कदा) (नः) अस्माकम् (शुश्रवत्) श्रुत्वा श्रावयेत् (गिरः) वाणीः (इन्द्रः) सभाद्यध्यक्षः (अङ्ग) शीघ्रकारी। यास्कमुनिरिमं मन्त्रमेवं समाचष्टे। क्षुम्पमहिच्छत्रकं भवति यत् क्षुभ्यते कदा मर्त्तमनाराधयन्तं पादेन क्षुम्पमिवावस्फुरिष्यति। कदा नः श्रोष्यति गिर इन्द्रो अङ्ग। अङ्गेति क्षिप्रनाम। (निरु॰5.16)॥8॥ अन्वयः—हे अङ्ग क्षिप्रकारिन्निन्द्रो! भवान् पदा क्षुम्पमिवाराधसं मर्त्तं कदा स्फुरत् कदा नोऽस्मान् पदा क्षुम्पमिव स्फुरत् कदा नोऽस्माकं गिरः शुश्रवदिति वयमाशास्महे॥8॥ भावार्थः—हे मनुष्या! यूयं यो दरिद्रानपि धनाढ्यानलसान् पुरुषार्थयुक्तानश्रुतान् बहुश्रुतांश्च कुर्यात्, तमेव सभाध्यक्षं कुरुत। कदायमस्मद्वार्त्तां श्रोष्यति कदा वयमेतस्य वार्त्तां श्रोष्याम इत्थमाशास्महे॥8॥ पदार्थः—(अङ्ग) शीघ्रकर्त्ता (इन्द्रः) सभा आदि का अध्यक्ष (पदा) विज्ञान वा धन की प्राप्ति से (क्षुम्पमिव) जैसे सर्प्प फण को (स्फुरत्) चलाता है, वैसे (अराधसम्) धनरहित (मर्त्तम्) मनुष्य को (कदा) किस काल में चलावोगे (कदा) किस काल में (नः) हमको उक्त प्रकार से अर्थात् विज्ञान वा धन की प्राप्ति से जैसे सर्प्प फण को चलाता है, वैसे (गिरः) वाणियों को (शुश्रवत्) सुन कर सुनावोगे॥8॥ भावार्थः—हे मनुष्यो! तुम लोग में से जो दरिद्रों को भी धनयुक्त, आलसियों को पुरुषार्थी और श्रवणरहितों को श्रवणयुक्त करे, उस पुरुष ही को सभा आदि का अध्यक्ष करो। कब यहाँ हमारी बात को सुनोगे और हम कब आपकी बात को सुनेंगे, ऐसी आशा हम करते हैं॥8॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ यश्चि॒द्धि त्वा॑ ब॒हुभ्य॒ आ सु॒तावाँ आ॒विवा॑सति। उ॒ग्रं तत्प॑त्यते॒ शव॒ इन्द्रो॑ अ॒ङ्ग॥9॥ यः। चि॒त्। हि। त्वा॒। ब॒हुऽभ्यः॑। आ। सु॒तऽवा॑न्। आ॒ऽविवा॑सति। उ॒ग्रम्। तत्। प॒त्य॒ते॒। शवः॑। इन्द्रः॑। अ॒ङ्ग॥9॥ पदार्थः—(यः) (चित्) अपि (हि) खलु (त्वा) त्वाम् (बहुभ्यः) मनुष्येभ्यः (आ) समन्तात् (सुतावान्) प्रशस्तोत्पन्नपदार्थयुक्तः (आविवासति) समन्तात् परिचरति (उग्रम्) उत्कृष्टम् (तत्) (पत्यते) प्राप्यते (शवः) बलम् (इन्द्रः) सभाद्यध्यक्षः (अङ्ग) क्षिप्रकारी सर्वसुहृद्॥9॥ अन्वयः—हे अङ्ग! त्वं यः सुतावानिन्द्रो बहुभ्यस्त्वा त्वामाविवासति य उग्रं शवश्चित्तदा पत्यते, तं हि खलु राजानं मन्यध्वम्॥9॥ भावार्थः—हे मनुष्या! यूयं यः शत्रूणां बलं हत्वा युष्मान् दुःखेभ्यो वियोज्य सुखिनः कर्त्तुं शक्नोति, यस्य भयपराक्रमाभ्यां शत्रवो निलीयन्ते, तं किल सेनापतिं कृत्वानन्दत॥9॥ पदार्थः—हे (अङ्ग) मित्र! तू जो (सुतावान्) अन्नादि पदार्थों से युक्त (इन्द्रः) परमैश्वर्य का प्रापक (बहुभ्यः) मनुष्यों से (त्वा) तुझको (आविवासति) सेवा करता है, जो शत्रुओं का (उग्रम्) अत्यन्त (शवः) बल (तत्) उसको (चित्) भी (आपत्यते) प्राप्त होता है (तम्) (हि) उसी को राजा मानो॥9॥ भावार्थः—हे मनुष्यो! तुम लोग जो शत्रुओं के बल का हनन करके तुमको दुःखों से हटाकर सुखयुक्त करने को समर्थ हो तथा जिसके भय और पराक्रम से शत्रु नष्ट होते हैं, उसे सेनापति करके आनन्द को प्राप्त होओ॥9॥ पुनः स कीदृशः स्यादित्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ स्वा॒दोरि॒त्था वि॑षू॒वतो॒ मध्वः॑ पिबन्ति गौ॒र्यः॑। या इन्द्रे॑ण स॒याव॑री॒र्वृष्णा॒ म॑दन्ति शो॒भसे॒ वस्वी॒रनु॑ स्व॒राज्य॑म्॥10॥6॥ स्वा॒दोः। इ॒त्था। वि॒षु॒ऽवतः॑। मध्वः॑। पि॒ब॒न्ति॒। गौ॒र्यः॑। याः। इन्द्रे॑ण। स॒ऽयाव॑रीः। वृष्णा॑। मद॑न्ति। शो॒भसे॑। वस्वीः॑। अनु॑। स्व॒राज्य॑म्॥10॥ पदार्थः—(स्वादोः) स्वादयुक्तस्य (इत्था) अनेन हेतुना (विषुवतः) प्रशस्ता विषुर्व्याप्तिर्यस्य तस्य (मध्वः) मधुरादिगुणयुक्तस्य (पिबन्ति) (गौर्यः) शुभ्रा किरणा इव उद्यमयुक्ताः सेनाः (याः) (इन्द्रेण) सूर्य्येण सह वर्त्तमानाः (सयावरीः) याः समानं यान्ति ताः (वृष्णा) बलिष्ठेन (मदन्ति) हर्षन्ति (शोभसे) शोभितुम् (वस्वीः) पृथिव्यादिसंबन्धिनीः (अनु) आनुकूल्ये (स्वराज्यम्) स्वकीयराष्ट्रम्॥10॥ अन्वयः—हे इन्द्र! वृष्णेन्द्रेण सयावरीर्वस्वीगौर्यः (किरणाः) स्वराज्यं शोभसेऽनुमदन्ती इत्था स्वादोर्विषुवतो मध्वः पिबन्तीव त्वमपि वर्त्तस्व॥10॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। नहि स्वसेनापतिभिर्वीरसेनाभिश्च विना स्वराज्यस्य शोभारक्षणे भवितुं शक्ये इति। यथा सूर्यस्य किरणाः सूर्येण विना स्थातुं वायुना जलाकर्षणं कृत्वा वर्षितुं च नु शक्नुवन्ति तथा सेनापतिना राज्ञा चान्तरेण प्रजाश्चानन्दितुं न शक्नुवन्ति॥10॥ पदार्थः—जैसे (वृष्णा) सुख के वर्षाने (इन्द्रेण) सूर्य के साथ (सयावरीः) तुल्य गमन करनेवाली (वस्वीः) पृथिवी [आदि से सम्बन्ध करनेवाली] (गौर्यः) किरणों से (स्वराज्यम्) अपने प्रकाशरूप राज्य के (शोभसे) शोभा के लिये (अनुमदन्ति) हर्ष का हेतु होती हैं, वे (इत्था) इस प्रकार से (स्वादोः) स्वादयुक्त (विषुवतः) व्याप्ति वाले (मध्वः) आदि गुण को (पिबन्ति) पीती हैं, वैसे तुम भी वर्त्ता करो॥10॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। अपनी सेना के पति और वीरपुरुषों की सेना के विना निज राज्य की शोभा तथा रक्षा नहीं हो सकती। जैसे सूर्य की किरण सूर्य के विना स्थित और वायु के विना जल का आकर्षण करके वर्षाने के लिये समर्थ नहीं हो सकती, वैसे सेनाध्यक्ष और राजा के विना प्रजा आनन्द करने को समर्थ नहीं हो सकती॥10॥ पुनस्तत्सम्बन्धिगुणा उपदिश्यन्ते॥ अब फिर उससे सम्बन्धित गुणों का उपदेश किया है॥ ता अ॑स्य पृशना॒युवः॒ सोमं॑ श्रीणन्ति॒ पृश्न॑यः। प्रि॒या इन्द्र॑स्य धे॒नवो॒ वज्रं॑ हिन्वन्ति॒ साय॑कं॒ वस्वी॒रनु॑ स्व॒राज्य॑म्॥11॥ ताः। अ॒स्य॒। पृ॒श॒न॒ऽयुवः॑। सोम॑म्। श्री॒ण॒न्ति॒। पृश्न॑यः। प्रि॒याः। इन्द्र॑स्य। धे॒नवः॑। वज्र॑म्। हि॒न्व॒न्ति॒। साय॑कम्। वस्वीः॑। अनु॑। स्व॒ऽराज्य॑म्॥11॥ पदार्थः—(ताः) उक्ता वक्ष्यमाणाश्च (अस्य) (पृशनायुवः) आत्मनः स्पर्शमिच्छन्त्यः। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वेति सलोपः। (सोमम्) पदार्थरसमैश्वर्यं वा (श्रीणन्ति) पचन्ति (पृश्नयः) याः स्पृशन्ति ताः। अत्र घृणिपृश्नि॰ (उणा॰4.54) अनेनायं निपातितः। (प्रियाः) तर्पयन्ति ताः (इन्द्रस्य) सूर्यस्य वा सेनाध्यक्षस्य वा (धेनवः) किरणा गावो वाचो वा (वज्रम्) तापसमूहं किरणसमूहं वा (हिन्वन्ति) प्रेरयन्ति (सायकम्) स्यन्ति क्षयन्ति येन तम् (वस्वीः) पृथिवीसम्बन्धिन्यः (अनु) (स्वराज्यम्)॥11॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यूयमस्येन्द्रस्य याः पृशनायुवः पृश्नयः प्रिया धेनवः सोमं श्रीणन्ति सायकं वज्रं हिन्वन्ति वस्वीः स्वराज्यमनुभवन्ति ताः प्राप्नुत॥11॥ भावार्थः—यथा गोपालस्य धेनवो जलं पीत्वा घासं जग्ध्वा सुखं वर्धित्वाऽन्येषामानन्दं वर्धयन्ति, तथैव सेनाध्यक्षस्य सेनाः सूर्यस्य च किरणा ओषधीभ्यो वैद्यकशास्त्रसम्पादितं परिपक्वं वा रसं पीत्वा विजयं प्रकाशं वा कृत्वानन्दयन्ति॥11॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! तुम लोग (अस्य) इस (इन्द्रस्य) सूर्य वा सेना के अध्यक्ष की (पृशनायुवः) अपने को स्पर्श करनेवाली अर्थात् उलट-पलट अपना स्पर्श करना चाहती (पृश्नयः) स्पर्श करती और (प्रियाः) प्रसन्न करनेहारी (धेनवः) किरण वा गौ वा वाणी (सोमम्) ओषधि रस वा ऐश्वर्य को (श्रीणन्ति) सिद्ध करती और (सायकम्) दुर्गुणों को क्षय करनेहारे ताप वा शस्त्रसमूह को (हिन्वन्ति) प्रेरणा देती है (वस्वीः) और वे पृथिवी से सम्बन्ध करनेवाली (स्वराज्यम्) अपने राज्य के (अनु) अनुकूल होती है, उनको प्राप्त होओ॥11॥ भावार्थः—जैसे गोपाल की गौ जल रस को पी, घास को खा, निज सुख को बढ़ाकर, औरों के आनन्द को बढ़ाती है, वैसे ही सेनाध्यक्ष की सेना और सूर्य की किरण औषधियों से वैद्यकशास्त्र के अनुकूल वा उत्पन्न हुए परिपक्व रस को पीकर विजय और प्रकाश को करके आनन्द कराती हैं॥11॥ पुनरेताः किं कुर्वन्तीत्युपदिश्यते॥ फिर वे क्या करती हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ ता अ॑स्य॒ नम॑सा॒ सहः॑ सप॒र्यन्ति॒ प्रचे॑तसः। व्र॒तान्य॑स्य सश्चिरे पु॒रूणि॑ पू॒र्वचि॑त्तये॒ वस्वी॒रनु॑ स्व॒राज्य॑म्॥12॥ ताः। अ॒स्य॒। नम॑सा। सहः॑। स॒प॒र्यन्ति॑। प्रऽचे॑तसः। व्र॒तानि॑। अ॒स्य॒। स॒श्चि॒रे॒। पु॒रूणि॑। पू॒र्वऽचि॑त्तये। वस्वीः॑। अनु॑। स्व॒ऽराज्य॑म्॥12॥ पदार्थः—(ताः) (अस्य) प्रतिपादितस्य (नमसा) अन्नेन वज्रेण वा (सहः) बलम् (सपर्यन्ति) सेवन्ते (प्रचेतसः) प्रकृष्टं चेतो विज्ञानं यासां ताः (व्रतानि) नियमानुगतानि धर्म्याणि कर्माणि (अस्य) (सश्चिरे) गच्छन्ति (पुरूणि) बहूनि (पूर्वचित्तये) पूर्वेषां संज्ञानाय संज्ञापनाय वा (वस्वीः) (अनु) (स्वराज्यम्) इति पूर्ववत्॥12॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यूयं यथा स्वराज्यमर्चन् न्यायाधीशः सर्वान् पालयति, तथाऽस्य नमसा सह वर्त्तमानाः प्रचेतसः सेनाः सहः सपर्यन्ति, या अस्य पूर्वचित्तये पुरूणि व्रतानि सश्चिरे ता वस्वीरनुमोदितुं सेवध्वम्॥12॥ भावार्थः—मनुष्यैर्नहि सामग्र्या बलेन नियमैर्विनाऽनेकानि राज्यादीनि सुखानि सम्पद्यन्ते तस्माद् यमनियमानामानुयोग्यमेतत्सर्वं संचिन्त्य विजयादीनि कर्माणि साधनीयानि॥12॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! तुम लोग जैसे (स्वराज्यम्) अपने राज्य का सत्कार करता हुआ न्यायाधीश सबका पालन करता है, वैसे (अस्य) इस अध्यक्ष के (नमसा) अन्न वा वज्र के साथ वर्त्तमान (प्रचेतसः) उत्तम ज्ञानयुक्त सेना (सहः) बल को (सपर्यन्ति) सेवन करती हैं (याः) जो (अस्य) सेनाध्यक्ष के (पूर्वचित्तये) पूर्वज्ञान के लिये (पुरूणि) बहुत (व्रतानि) सत्यभाषण नियम आदि को (सश्चिरे) प्राप्त होती हैं (ताः) उन (वस्वीः) पृथिवी सम्बन्धियों को देशों के आनन्द भोगने के लिये सेवन करो॥12॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि सामग्री बल और अच्छे नियमों के विना बहुत राज्य आदि के सुख नहीं प्राप्त होते, इस हेतु से यम-नियमों के अनुकूल जैसा चाहिये, वैसा इसका विचार करके विजय आदि धर्मयुक्त कर्मों को सिद्ध करें॥12॥ पुनस्तस्य कृत्यमुपदिश्यते॥ फिर उस राजा के कृत्य का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ इन्द्रो॑ दधी॒चो अ॒स्थभि॑र्वृ॒त्राण्यप्र॑तिष्कुतः। ज॒घान॑ नव॒तीर्नव॑॥13॥ इन्द्रः॑। द॒धी॒चः। अ॒स्थऽभिः॑। वृ॒त्राणि॑। अप्र॑तिऽस्कुतः। ज॒घान॑। न॒व॒तीः। नव॑॥13॥ पदार्थः—(इन्द्रः) सूर्यलोकः (दधीचः) ये दधीन् वाय्वादीनञ्चन्ति तान् (अस्थभिः) अस्थिरैश्चञ्चलैः किरणचलनैः। अत्र छन्दस्यपि दृश्यते। (अष्टा॰7.1) अनेनानङादेशः। (वृत्राणि) वृत्रसंबन्धिभूतानि जलानि (अप्रतिष्कुतः) असंचलितः (जघान) हन्ति (नवतीः) नवतिसंख्याकाः (नव) नव दिशामवयवाः॥13॥ अन्वयः—हे सेनेश! यथाप्रतिष्कुत इन्द्रोऽस्थभिर्नवनवतीर्दधीचो वृत्राणि कणीभूतानि जलानि जघान हन्ति तथा शत्रून् हिन्धि॥13॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः स एव सेनापतिः कार्यो यः सूर्यवच्छत्रूणां हन्ता स्वसेनारक्षकोऽस्तीति वेद्यम्॥13॥ पदार्थः—हे सेनापते! जैसे (अप्रतिष्कुतः) सब ओर से स्थिर (इन्द्रः) सूर्यलोक (अस्थभिः) अस्थिर किरणों से (नव नवतीः) निन्नानवें प्रकार के दिशाओं के अवयवों को प्राप्त हुए (दधीचः) जो धारण करनेहारे वायु आदि को प्राप्त होते हैं, उन (वृत्राणि) मेघ के सूक्ष्म अवयव रूप जलों को (जघान) हनन करता है, वैसे तू अनेक अधर्मी शत्रुओं का हनन कर॥13॥ भावार्थः—यहाँ वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। वही सेनापति होने के योग्य होता है, जो सूर्य के समान दुष्ट शत्रुओं का हन्ता और अपनी सेना का रक्षक है॥13॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ इ॒च्छन्नश्व॑स्य॒ यच्छिरः॒ पर्व॑ते॒ष्वप॑श्रितम्। तद्वि॑दच्छर्य॒णाव॑ति॥14॥ इ॒च्छन्। अश्व॑स्य। यत्। शिरः॑। पर्व॑तेषु। अप॑ऽश्रितम्। तत्। वि॒द॒त्। श॒र्य॒णाऽव॑ति॥14॥ पदार्थः—(इच्छन्) (अश्वस्य) आशुगामिनः (यत्) (शिरः) उत्तमाङ्गम् (पर्वतेषु) शैलेषु मेघावयवेषु वा (अपश्रितम्) आसेवितम् (तत्) (विदत्) विद्यात् (शर्यणावति) शर्यणोऽन्तरिक्षदेशस्तस्यादूरभवे। अत्र मध्वादिभ्यश्च। (अ॰। 4.2.83) अनेन मतुप्॥14॥ अन्वयः—यथेन्द्रोऽश्वस्य यच्छर्यणावति पर्वतेष्वपश्रितं शिरोऽस्ति तज्जघान हन्ति तद्वच्छत्रुसेनाया उत्तमाङ्गं छेत्तुमिच्छन् सुखानि विदल्लभेत्॥14॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्योऽन्तरिक्षमाश्रितं मेघं छित्त्वा भूमौ निपातयति, तथैव पर्वतदुर्गाश्रितमपि शत्रुं हत्वा भूमौ निपातयेत् नैवं विना राज्यव्यवस्था स्थिरा भवितुं शक्या॥14॥ पदार्थः—जैसे (इन्द्रः) सूर्य (अश्वस्य) शीघ्रगामी मेघ का (यत्) जो (शर्यणावति) आकाश में (पर्वतेषु) पहाड़ वा मेघों में (अपश्रितम्) आश्रित (शिरः) उत्तमाङ्ग के समान अवयव है, उसको छेदन करता है, वैसे शत्रु की सेना के उत्तमाङ्ग के नाश की (इच्छन्) इच्छा करता हुआ सुखों को सेनापति (विदत्) प्राप्त होवे॥14॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य आकाश में रहनेहारे मेघ का छेदन कर भूमि में गिराता है, वैसे पर्वत और किलों में भी रहनेहारे दुष्ट शत्रु का हनन करके भूमि में गिरा देवे, इस प्रकार किये विना राज्य की व्यवस्था स्थिर नहीं हो सकती॥14॥ अथ राज्ञः सूर्यवत्कृत्यमुपदिश्यते॥ अब राजा का सूर्य के समान करने योग्य कर्म का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ अत्राह॒ गोर॑मन्वत॒ नाम॒ त्वष्टु॑रपी॒च्य॑म्। इ॒त्था च॒न्द्रम॑सो गृ॒हे॥15॥7॥ अत्र॑। अह॑। गोः। अ॒म॒न्व॒त॒। नाम॑। त्वष्टुः॑। अ॒पी॒च्य॑म्। इ॒त्था। च॒न्द्रम॑सः। गृ॒हे॥15॥ पदार्थः—(अत्र) अस्मिञ्जगति (अह) विनिग्रहे (गोः) पृथिव्याः (अमन्वत) मन्यन्ते (नाम) प्रसिद्धं रचनं नामकरणं वा (त्वष्टुः) मूर्तद्रव्यछेदकस्य (अपीच्यम्) येऽप्यञ्चन्ति प्राप्नुवन्ति तेषु साधुम् (इत्था) अनेन हेतुना (चन्द्रमसः) चन्द्रलोकादेः (गृहे) स्थाने॥15॥ अन्वयः—हे राजादयो मनुष्या! यूयं यथाऽत्रनाम गोश्चन्द्रमसस्त्वष्टुरपीच्यमस्तीत्थामन्वत तथाऽह न्यायप्रकाशाय प्रजागृहे वर्त्तध्वम्॥15॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्ज्ञातव्यमीश्वरविद्यावृद्ध्योर्हानिर्विपरीतता भवितुं न शक्या, सर्वेषु कालेषु सर्वासु क्रियास्वेकरससृष्टिनियमा भवन्ति। यथा सूर्यस्य पृथिव्या सहाकर्षणप्रकाशादिसम्बन्धाः सन्ति, तथैवान्यभूगोलैः सह सन्ति। कुत ईश्वरेण संस्थापितस्य नियमस्य व्यभिचारो न भवति॥15॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! तुम लोग जैसे (अत्र) इस जगत् में (नाम) प्रसिद्ध (गौः) पृथिवी और (चन्द्रमसः) चन्द्रलोक के मध्य में (त्वष्टुः) छेदन करनेहारे सूर्य का (अपीच्यम्) प्राप्त होनेवालों में योग्य प्रकाशरूप व्यवहार है (इत्था) इस प्रकार (अमन्वत) मानते हैं, वैसे (अह) निश्चय से जाके (गृहे) घरों में न्यायप्रकाशार्थ वर्त्तो॥15॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को जानना चाहिये कि ईश्वर की विद्यावृद्धि की हानि और विपरीतता नहीं हो सकती। सब काल सब क्रियाओं में एकरस सृष्टि के नियम होते हैं। जैसे सूर्य का पृथिवी के साथ आकर्षण और प्रकाश आदि सम्बन्ध हैं, वैसे ही अन्य भूगोलों के साथ। क्योंकि ईश्वर से स्थिर किये नियम का व्यभिचार अर्थात् भूल कभी नहीं होती॥15॥ पुनः सेनापतेः कृत्यमुपदिश्यते॥ फिर सेनापति के योग्य कर्म का उपदेश करते हैं॥ को अ॒द्य यु॑ङ्क्ते धु॒रि गा ऋ॒तस्य॒ शिमी॑वतो भा॒मिनो॑ दुर्हृणा॒यून्। आ॒सन्नि॑षून् हृ॒त्स्वसो॑ मयो॒भून् य ए॑षां भृ॒त्यामृ॒णध॒त् स जी॑वात्॥16॥ कः। अ॒द्य। यु॒ऽङ्क्ते॒। धु॒रि। गाः। ऋ॒तस्य॑। शिमी॑ऽवतः। भा॒मिनः॑। दुः॒ऽहृ॒णा॒यून्। आ॒सन्ऽइ॑षून्। हृ॒त्सु॒ऽअसः॑। म॒यः॒ऽभून्। यः। ए॒षा॒म्। भृ॒त्याम्। ऋ॒णधत्॑। सः। जी॒वा॒त्॥16॥ पदार्थः—(कः) (अद्य) इदानीम् (युङ्क्ते) युक्तो भवति (धुरि) शत्रुहिंसने युद्धे (गाः) भूमिः (ऋतस्य) सत्याचारस्य (शिमीवतः) प्रशस्तकर्मयुक्तान् (भामिनः) शत्रूणामुपरिक्रोधकारिणः (दुर्हृणायून्) शत्रुभिर्दुर्लभं हृणं प्रसह्यकरणं येषां ते दुर्हृणास्त इवाचरन्तीति दुर्हृणायवस्तान् यन्त्यत्र क्याच्छन्दसीत्युः प्रत्ययः। (आसन्निषून्) आसने प्राप्ता बाणा यैस्तान् (हृत्स्वसः) ये हृत्स्वस्यन्ति बाणान् तान् (मयोभून्) मयः सुखं भावुकान् (यः) (एषाम्) (भृत्याम्) भृत्येषु साध्वीं सेनाम् (ऋणधत्) समृध्नुयात् (सः) (जीवात्) चिरञ्जीवेत्॥16॥ अन्वयः—कोऽद्यर्तस्य शिमीवतो भामिनो दुर्हृणायूनासन्निषून् हृत्स्वसो मयोभून् सुवीरान् धुरि युङ्क्ते य एषां भृत्यां गा ऋणधत् स चिरञ्जीवात्॥16॥ भावार्थः—सर्वाध्यक्षो राजा सर्वान् प्रसिद्धामाज्ञां दद्यात् सर्वान् सेनास्थवीरान् सत्याचारेण युञ्जीत सदैषां जीविकां वर्द्धयित्वा स्वयं दीर्घायुः स्यात्॥16॥ पदार्थः—(कः) कौन (अद्य) इस समय (ऋतस्य) सत्य आचरण सम्बन्धी (शिमीवतः) उत्तम क्रियायुक्त (भामिनः) शत्रुओं के ऊपर क्रोध करने (दुर्हृणायून्) शत्रुओं को जिनका दुर्लभ सहसा कर्म उनके समान आचरण करने (आसन्निषून्) अच्छे स्थान में बाण पहुंचाने (हृत्स्वसः) शत्रुओं के हृदय में शस्त्र प्रहार करने और (मयोभून्) स्वराज्य के लिये सुख करनेहारे श्रेष्ठ वीरों को (धुरि) संग्राम में (युङ्क्ते) युक्त करता है वा (यः) जो (एषाम्) इनकी जीविका के निमित्त (गाः) भूमियों को (ऋणधत्) समृद्धियुक्त करे (सः) वह (जीवात्) बहुत समय पर्यन्त जीवे॥16॥ भावार्थः—सबका अध्यक्ष राजा सबको प्रकट आज्ञा देवे। सब सेना वा प्रजास्थ पुरुषों को सत्य आचरणों में नियुक्त करे। सर्वदा उनकी जीविका बढ़ाके आप बहुत काल पर्यन्त जीवे॥16॥ अथ प्रश्नोत्तरै राजधर्ममुपदिश्यते॥ अब अगले मन्त्र में प्रश्नोत्तर से राजधर्म का उपदेश किया है॥ क ई॑षते तु॒ज्यते॒ को बि॑भाय॒ को मं॑सते॒ सन्त॒मिन्द्रं॒ को अन्ति॑। कस्तो॒काय॒ क इभा॑यो॒त रा॒येऽधि॑ ब्र॒वत् त॒न्वे॒ को जना॑य॥17॥ कः। ई॒ष॒ते॒। तु॒ज्यते॑। कः। बि॒भा॒य॒। कः। मं॒स॒ते॒। सन्त॑म्। इन्द्र॑म्। कः। अन्ति॑। कः। तो॒काय॒। कः। इभा॑य। उ॒त। रा॒ये। अधि॑। ब्र॒व॒त्। त॒न्वे॑। कः। जना॑य॥17॥ पदार्थः—(कः) कश्चित् (ईषते) युद्धमिच्छेत् (तुज्यते) हिंस्यते (कः) (बिभाय) बिभेति (कः) (मंसते) मन्यते (सन्तम्) राजव्यवहारेषु वर्त्तमानम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यकारकम् (कः) (अन्ति) समीपे (कः) (तोकाय) सन्तानाय (कः) (इभाय) हस्तिने (उत) अपि (राये) उत्तमश्रिये (अधि) अध्यक्षतया (ब्रवत्) ब्रूयात् (तन्वे) शरीराय (कः) (जनाय) प्रधानाय॥17॥ अन्वयः—हे सेनापते! सेनास्थभृत्यानां मध्ये कः शत्रूनीषते? कः शत्रुभिस्तुज्यते? को युद्धे बिभाय? कः सन्तमिन्द्रं मंसते? कस्तोकायान्ति वर्त्तते? क इभाय शिक्षते? उतापि को राये प्रवर्त्तेत? कस्तन्वे जनाय चाधिब्रवदिति? त्वं ब्रूहि॥17॥ भावार्थः—ये दीर्घब्रह्मचर्येण सुशिक्षयान्यैः शुभैर्गुणैर्युक्तास्ते सर्वाण्येतानि कर्म्माणि कर्त्तुं शक्नुवन्ति, नेतरे। यथा राजा सेनापतिं प्रति सर्वां स्वसेनाभृत्यव्यवस्थां पृच्छेत् तथा सेनाध्यक्षः स्वाधीनान्नध्यक्षान् स्वयमेतां पृच्छेत्। यथा राजा सेनापतिमाज्ञापयेत् तथा स्वयं सेनाध्यक्षान्नाज्ञापयेत्॥17॥ पदार्थः—हे सेनापते! सेनाओं में स्थित भृत्यों में (कः) कौन शत्रुओं को (ईषते) मारता है। (कः) कौन शत्रुओं से (तुज्यते) मारा जाता है (कः) कौन युद्ध में (बिभाय) भय को प्राप्त होता है (कः) कौन (सन्तम्) राजधर्म में वर्त्तमान (इन्द्रम्) उत्तम ऐश्वर्य के दाता को (मंसते) जानता है (कः) कौन (तोकाय) सन्तानों के (अन्ति) समीप में रहता है (कः) कौन (इभाय) हाथी के उत्तम होने के लिये शिक्षा करता है (उत) और (कः) कौन (राये) बहुत धन करने के लिए वर्त्तता और (तन्वे) शरीर और (जनाय) मनुष्यों के लिये (अधिब्रवत्) आज्ञा देवे, इसका उत्तर आप कहिये॥17॥ भावार्थः—जो अड़तालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य, उत्तम शिक्षा और अन्य शुभ गुणों से युक्त होते हैं, वे विजयादि कर्मों को कर सकते हैं। जैसे राजा सेनापति को सब अपनी सेना के नौकरों की व्यवस्था को पूछे, वैसे सेनापति भी अपने अधीन छोटे सेनापतियों को स्वयं सब वार्त्ता पूछे। जैसे राजा सेनापति को आज्ञा देवे, वैसे (सेनापति स्वयं) सेना के प्रधान पुरुषों को करने योग्य कर्म की आज्ञा देवे॥17॥ पुनस्तदेवोपदिश्यते॥ फिर भी उक्त विषय का उपदेश किया है॥ को अ॒ग्निमी॑ट्टे ह॒विषा॑ घृ॒तेन॑ स्रु॒चा य॑जाता ऋ॒तुभि॑ध्रुर्॒वेभिः॑। कस्मै॑ दे॒वा आ व॑हाना॒शु होम॒ को मं॑सते वी॒तिहो॑त्रः सुदे॒वः॥18॥ कः। अ॒ग्निम्। ई॒ट्टे॒। ह॒विषा॑। घृ॒तेन॑। स्रु॒चा। य॒जा॒तै॒। ऋ॒तुऽभिः॑। ध्रु॒वेभिः॑। कस्मै॑। दे॒वाः। आ। व॒हा॒न्। आ॒शु। होम॑। कः। मं॒स॒ते॒। वी॒तिऽहो॑त्रः। सु॒ऽदे॒वः॥18॥ पदार्थः—(कः) (अग्निम्) पावकमाग्नेयाऽस्त्रं वा (ईट्टे) ऐश्वर्यहेतुं विदधाति (हविषा) होतव्येन विज्ञानेन धनादिना वा (घृतेन) आज्येनोदकेन वा (स्रुचा) कर्मणा (यजातै) यजेत (ऋतुभिः) वसन्तादिभिः (ध्रुवेभिः) निश्चलैः कालावयवैः (कस्मै) (देवाः) विद्वांसः (आ) (वहान्) समन्तात् प्राप्नुयुः (आशु) सद्यः (होम) ग्रहणं दानं वा (कः) (मंसते) जानाति (वीतिहोत्रः) प्राप्ताप्तविज्ञानः (सुदेवः) शुभैर्गुणकर्मस्वभावै-र्देदीप्यमानः॥18॥ अन्वयः—हे ऋत्विक्! त्वं को वीतिहोत्रो हविषा घृतेनाऽग्निमीट्टे स्रुचा ध्रुवेभिर्ऋतुभिर्यजाते देवाः कस्मै होमाऽऽश्वावहान् कः सुदेव एतत्सर्वं मंसत इति ब्रूहि॥18॥ भावार्थः—हे विद्वन्! केन साधनेन कर्मणा वाऽग्निविद्याऽस्मान् प्राप्नुयात्? केन यज्ञः सिध्यते? कस्मै प्रयोजनाय विद्वांसो विज्ञानयज्ञं तन्वते?॥18॥ पदार्थः—हे विद्वान्! (कः) कौन (वीतिहोत्रः) विज्ञान और श्रेष्ठ क्रियायुक्त पुरुष (हविषाः) विचार और (घृतेन) घी से (अग्निम्) अग्नि को (ईट्टे) ऐश्वर्य प्राप्ति का हेतु करता है, (कः) कौन (स्रुचा) कर्म से (ध्रुवेभिः) निश्चल (ऋतुभिः) वसन्तादि ऋतुओं में (यजातै) ज्ञान और क्रियायज्ञ को करे, (देवाः) विद्वान् लोग (कस्मै) किसके लिये (होम) ग्रहण वा दान को (आशु) शीघ्र (आवहान्) प्राप्त करावें, कौन (सुदेवः) उत्तम विद्वान् इस सबको (मंसते) जानता है, इस का उत्तर कहिये॥18॥ भावार्थः—हे विद्वन्! किस साधन वा कर्म से अग्निविद्या को प्राप्त हों? और किससे क्रियारुप यज्ञ सिद्ध होवे? किस प्रयोजन के लिये विद्वान् लोग यज्ञ का विस्तार करते हैं?॥18॥ पुनरीश्वरसभाद्यध्याक्षौ कीदृशौ जानीयादित्युपदिश्यते॥ फिर ईश्वर और सभा आदि के अध्यक्षों को कैसे जानें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ त्वम॒ङ्ग प्र शं॑सिषो दे॒वः श॑विष्ठ॒ मर्त्य॑म्। न त्वद॒न्यो म॑घवन्नस्ति मर्डि॒तेन्द्र॒ ब्रवी॑मि ते॒ वचः॑॥19॥ त्वम्। अ॒ङ्ग। प्र। शं॒सि॒षः॒। दे॒वः। श॒वि॒ष्ठ॒। मर्त्य॑म्। न। त्वत्। अ॒न्यः॒। म॒घ॒ऽव॒न्। अ॒स्ति॒। म॒र्डि॒ता। इन्द्र॑। ब्रवी॑मि। ते॒। वचः॑॥19॥ पदार्थः—(त्वम्) (अङ्ग) मित्र (प्र) (शंसिषः) प्रशंसे (देवः) दिव्यगुणः (शविष्ठ) अतिबलयुक्त (मर्त्यम्) मनुष्यम् (न) निषेधे (त्वत्) (अन्यः) भिन्नः (मघवन्) परमधनप्रापक (अस्ति) (मर्डिता) सुखप्रदाता (इन्द्र) दुःखविदारकं (ब्रवीमि) उपदिशामि (ते) तुभ्यम् (वचः) धर्म्यं वचनम्॥19॥ अन्वयः—हे अङ्ग शविष्ठ! यतस्त्वं देवोऽसि तस्मान् मर्त्यं प्रशंसिषः। हे मघवन्निन्द्र! यतस्त्वदन्यो मर्डिता सुखप्रदाता नाऽस्ति तस्मात् ते वचो ब्रवीमि॥19॥ भावार्थः—मनुष्यैः प्रशंसितकर्मणानुपमेन सततं सुखप्रदेन धार्मिकेण मनुष्येण सहैव मित्रतां कृत्वा परस्परं हितोपदेशः कर्तव्यः॥19॥ पदार्थः—हे (अङ्ग) मित्र (शविष्ठ) परम बलयुक्त! जिससे (त्वम्) तू (देवः) विद्वान् है, उससे (मर्त्यम्) मनुष्य को (प्र शंसिषः) प्रशंसित कर। हे (मघवन्) उत्तम धन के दाता (इन्द्र) दुःखों का नाशक! जिससे (त्वम्) तुझसे (अन्यः) भिन्न कोई भी (मर्डिता) सुखदायक (नास्ति) नहीं है, उससे (ते) तुझे (वचः) धर्म्मयुक्त वचनों का (ब्रवीमि) उपदेश करता हूँ॥19॥ भावार्थः—मनुष्यों को योग्य है कि उत्तम कर्म करने, असाधारण सदा सुख देनेहारे धार्मिक मनुष्यों के साथ ही मित्रता करके एक-दूसरे को सुख देने का उपदेश किया करें॥19॥ पुनः स सभाध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह सभाध्यक्ष कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ मा ते॒ राधां॑सि॒ मा त॑ ऊ॒तयो॑ वसो॒ऽस्मान् कदा॑ च॒ना द॑भन्। विश्वा॑ च न उपमिमी॒हि मा॑नुष॒ वसू॑नि चर्ष॒णिभ्य॒ आ॥20॥8॥13॥ मा। ते॒। राधां॑सि। मा। ते॒। ऊ॒तयः॑। व॒सो॒ इति॑। अ॒स्मान्। कदा॑। च॒न। द॒भ॒न्। विश्वा॑। च॒। नः॒। उ॒प॒ऽमि॒मी॒हि। मा॒नु॒ष॒। वसू॑नि। च॒र्ष॒णिऽभ्यः॑। आ॥20॥ पदार्थः—(मा) निषेधे (ते) (राधांसि) धनानि (मा) (ते) (ऊतयः) रक्षणादीनि कर्माणि (वसो) सुखेषु वासयित (अस्मान्) (कदा) (चन) कस्मिन्नपि काले (दभन्) हिंस्युः (विश्वा) सर्वाणि (च) समुच्चये (नः) अस्मान् (उपमिमीहि) श्रेष्ठैरुपमितान् कुरु (मानुष) मनुष्यस्वभावयुक्त (वसूनि) विज्ञानादिधनानि (चर्षणिभ्यः) उत्तमेभ्यो मनुष्येभ्यः (आ) अभितः॥20॥ अन्वयः—हे वसो! ते राधांस्यस्मान् कदाचन मा दभन्। त ऊतयोऽस्मान् मा हिंसन्तु। हे मानुष! यथा त्वं चर्षणिभ्यो विश्वा वसूनि ददासि तथा च नोऽस्मान् उपमिमीहि॥20॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। त एव धार्मिका मनुष्या सन्ति येषां तनुर्मनो धनानि च सर्वान् सुखयेयुः। त एव प्रशंसिता भवन्ति ये च जगदुपकाराय प्रयतन्त इति ॥20॥ अस्मिन् सूक्ते सेनापतिगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्॥ इति चतुरशीतितमं 84 सूक्तमष्टमो 8 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—हे (वसो) सुख में वास करनेहारे! (ते) आपके (राधांसि) धन (अस्मान्) हमको (कदाचन) कभी भी (मा दभन्) दुःखदायक न हों (ते) तेरी (ऊतयः) रक्षा (अस्मान्) हमको (मा) मत दुःखदायी होवे। हे (मानुष) मनुष्यस्वभावयुक्त! जैसे तू (चर्षणिभ्यः) उत्तम मनुष्यों को (विश्वा) विज्ञान आदि सब प्रकार के (वसूनि) धनों को देता है, वैसे हमको भी दे (च) और (नः) हमको विद्वान् धार्मिकों की (आ) सब ओर से (उपमिमीहि) उपमा को प्राप्त कर॥20॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। वे ही धार्मिक मनुष्य हैं जिनका शरीर, मन और धन सबको सुखी करे, वे ही प्रशंसा के योग्य हैं जो जगत् के उपकार के लिये प्रयत्न करते हैं॥20॥ इस सूक्त में सेनापति के गुण-वर्णन होने से इस सूक्तार्थ की संगति पूर्व सूक्तार्थ के संग जाननी चाहिये॥ यह चौरासीवां 84 सूक्त और आठवाँ 8 वर्ग समाप्त हुआ॥

अथ द्वादशर्च्चस्य पञ्चाशीतितमस्य सूक्तस्य राहूगणो गोतम ऋषिः। मरुतो देवताः। 1,2,6,11 जगती। 3,7,8 निचृज्जगती। 4,9,10 विराड्जगती छन्दः। निषादः स्वरः। 5 विराट् त्रिष्टुप्। 12 त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥ पुनस्ते सेनाध्यक्षादयः कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वे सेनाध्यक्ष आदि कैसे हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ प्र ये शुम्भ॑न्ते॒ जन॑यो॒ न सप्त॑यो॒ याम॑न् रु॒द्रस्य॑ सू॒नवः॑ सु॒दंस॑सः॥ रोद॑सी॒ हि म॒रुत॑श्चक्रि॒रे वृ॒धे मद॑न्ति वी॒रा वि॒दथे॑षु॒ घृष्व॑यः॥1॥ प्र। ये। शुम्भ॑न्ते। जन॑यः। न। सप्त॑यः। याम॑न्। रु॒द्रस्य॑। सू॒नवः॑। सु॒ऽदंस॑सः। रोद॑सी॒ इति॑। हि। म॒रुतः॑। च॒क्रि॒रे। वृ॒धे। म॑दन्ति। वी॒राः। वि॒दथे॑षु। घृ॒ष्व॑यः॥1॥ पदार्थः—(प्र) प्रकृष्टे (ये) वक्ष्यमाणाः (शुम्भन्ते) शोभन्ते (जनयः) जायाः (न) इव (सप्तयः) अश्वा इव। सप्तिरित्यश्वनामसु पठितम्। (निघं॰1.14) (यामन्) यान्ति यस्मिन् मार्गे तस्मिन्। अत्र सुपां सुलुगिति ङेर्लुक्। सर्वधातुभ्यो मनिन्नित्यौणादिको मनिन् प्रत्ययः। (रुद्रस्य) शत्रूणां रोदयितुर्महावीरस्य (सूनवः) पुत्राः (सुदंससः) शोभनानि दंसांसि कर्माणि येषां ते। दंस इति कर्मनामसु पठितम्। (निघं॰2.1) (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (हि) खलु (मरुतः) तथा वायवस्तथा (चक्रिरे) कुर्वन्ति (वृधे) वर्धनाय (मदन्ति) हर्षन्ति। विकरणव्यत्ययेन श्यः स्थाने शप्। (वीराः) शौर्यादिगुणयुक्ताः पुरुषाः (विदथेषु) संग्रामेषु (घृष्वयः) सम्यग् घर्षणशीलाः। कृविधृष्वि॰। (उणा॰4.57) घृषु संघर्ष इत्यस्माद्विन् प्रत्ययः॥1॥ अन्वयः—ये रुद्रस्य सूनवः सुदंससो घृष्वयो वीरा हि यामन्मार्गेऽलङ्कारैः शुम्भमाना अलंकृता जनयो नेव सप्तयोऽश्वा इव गच्छन्तो मरुतो रोदसी इव वृधे विदथेषु विजयं चक्रिरे ते प्रशुम्भन्ते मदन्ति तैः सह त्वं प्रजायाः पालनं कुरु॥1॥ भावार्थः—अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा सुशिक्षिता पतिव्रता स्त्रियः पतीन् वा स्त्रीव्रताः पतयो जायाः सेवित्वा सुखयन्ति। यथा शोभमाना बलवन्तो हयाः पथि शीघ्रं गमयित्वा हर्षयन्ति तथा धार्मिका वीराः सर्वाः प्रजा मोदयन्ति॥1॥ पदार्थः—(ये) जो (रुद्रस्य) दुष्टों के रुलाने वाले के (सूनवः) पुत्र (सुदंससः) उत्तम कर्म करनेहारे (घृष्वयः) आनन्दयुक्त (वीराः) वीरपुरुष (हि) निश्चय (यामन्) मार्ग में जैसे अलङ्कारों से सुशोभित (जनयः) सुशील स्त्रियों के (न) तुल्य और (सप्तयः) अश्व के समान शीघ्र जाने-आनेहारे (मरुतः) वायु (रोदसी) प्रकाश और पृथ्वी के धारण के समान (वृधे) बढ़ने के अर्थ राज्य का धारण करते (विदथेषु) संग्रामों में विजय को (चक्रिरे) करते हैं, वे (प्र शुम्भन्ते) अच्छे प्रकार शोभायुक्त और (मदन्ति) आनन्द को प्राप्त होते हैं, उनसे तू प्रजा का पालन कर॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे अच्छी शिक्षा और विद्या को प्राप्त हुई पतिव्रता स्त्रियां अपने पतियों का अथवा स्त्रीव्रत सदा अपनी स्त्रियों ही से प्रसन्न ऋतुगामी पति लोग अपनी स्त्रियों का सेवन करके सुखी और जैसे सुन्दर बलवान् घोड़े मार्ग में शीघ्र पहुंचा के आनन्दित करते हैं, वैसे धार्मिक राजपुरुष सब प्रजा को आनन्दित किया करें॥1॥ पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ त उ॑क्षि॒तासो॑ महि॒मान॑माशत दि॒वि रु॒द्रासो॒ अधि॑ चक्रिरे॒ सदः॑। अर्च॑न्तो अ॒र्कं ज॒नय॑न्त इन्द्रि॒यमधि॒ श्रियो॑ दधिरे॒ पृश्नि॑मातरः॥2॥ ते। उ॒क्षि॒तासः॑। म॒हि॒मान॑म्। आ॒श॒त॒। दि॒वि। रु॒द्रासः॑। अधि॑। च॒क्रि॒रे॒। सदः॑। अर्च॑न्तः। अ॒र्कम्। ज॒नय॑न्तः। इ॒न्द्रि॒यम्। अधि॑। श्रियः॑। द॒धि॒रे॒। पृश्नि॑ऽमातरः॥2॥ पदार्थः—(ते) पूर्वोक्ताः (उक्षितासः) वृष्टिद्वारा सेक्तारः (महिमानम्) उत्तमप्रतिष्ठाम् (आशत) व्याप्नुवन्ति। अत्र बहुलं छन्दसीति श्नोर्लुक्। (दिवि) दिव्यन्तरिक्षे (रुद्रासः) वायवः (अधि) उपरिभावे (चक्रिरे) कुर्वन्ति (सदः) स्थिरम् (अर्चन्तः) सत्कुर्वन्तः (अर्कम्) सत्कर्त्तव्यम् (जनयन्तः) प्रकटयन्तः (इन्द्रियम्) धनम्। इन्द्रियमिति धननामसु पठितम्। (निघं॰2.10) (अधि) उपरिभावे (श्रियः) चक्रवर्त्यादिराज्यलक्ष्मीः (दधिरे) धरन्ति (पृश्निमातरः) पृश्निरन्तरिक्षं माता येषां वायूनां ते॥2॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यथोक्षितासः पृश्निमातरः ते रुद्रासो वायवो दिवि सदो महिमानमध्याशत वाधिचक्रिर इन्द्रियं दधिरे तथार्कमर्चन्तो यूयं श्रियो जनयन्त आनन्दत॥2॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा वायवो वृष्टिहेतवो भूत्वा दिव्यानि सुखानि जनयन्ति तथा सभाध्यक्षादयो विद्यया सुशिक्षिताः परस्परमुपकारिणः प्रीतिमन्तो भवन्तु॥2॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! जैसे (उक्षितासः) वृष्टि से पृथ्वी का सेचन करनेहारे (पृश्निमातरः) जिनकी आकाश माता है (ते) वे (रुद्रासः) वायु (दिवि) आकाश में (सदः) स्थिर (महिमानम्) प्रतिष्ठा को (अध्याशत) अधिक प्राप्त होते और उसी को (अधिचक्रिरे) अधिक करते और (इन्द्रियम्) धन को (दधिरे) धारण करते हैं, वैसे (अर्कम्) पूजनीय का (अर्चन्तः) पूजन करते हुए आप लोग (श्रियः) लक्ष्मी को (जनयन्तः) बढ़ा के आनन्दित रहो॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे वायु वृष्टि का निमित्त होके उत्तम सुखों को प्राप्त कराते हैं, वैसे सभाध्यक्ष लोग विद्या से सुशिक्षित हो के परस्पर उपकारी और प्रीतियुक्त होवें॥2॥ पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ गोमा॑तरो॒ यच्छु॒भय॑न्ते अ॒ञ्जिभि॑स्त॒नूषु॑ शु॒भ्रा द॑धिरे वि॒रुक्म॑तः। बाध॑न्ते॒ विश्वम॑भिमा॒तिन॒मप॒ वर्त्मा॑न्येषा॒मनु॑ रीयते घृ॒तम्॥3॥ गोऽमा॑तारः। यत्। शु॒भय॑न्ते। अ॒ञ्जिऽभिः॑। त॒नूषु॑। शु॒भ्राः। द॒धि॒रे॒। वि॒रुक्म॑तः। बाध॑न्ते। विश्व॑म्। अ॒भि॒ऽमा॒तिन॑म्। अप॑। वर्त्मा॑नि। ए॒षा॒म्। अनु॑। री॒य॒ते॒। घृ॒तम्॥3॥ पदार्थः—(गोमातरः) गौः पृथिवीव माता मानप्रदा येषां वीराणां ते (यत्) ये (शुभयन्ते) शुभमाऽऽचक्षते (अञ्जिभिः) व्यक्तैर्विज्ञानादिगुणनिमित्तैः (तनूषु) विस्तृतबलयुक्तेषु शरीरेषु (शुभ्राः) शुद्धधर्माः (दधिरे) धरन्ति (विरुक्मतः) प्रशस्ता विविधा रुचो दीप्तयो विद्यन्ते येषु ते (बाधन्ते) (विश्वम्) सर्वम् (अभिमातिनम्) शत्रुगणम् (अप) विरुद्धार्थे (वर्त्मानि) मार्गान् (एषाम्) सेनाध्यक्षादीनाम् (अनु) आनुकूल्ये (रीयते) गच्छति (घृतम्) उदकम्॥3॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यद्ये गोमातरो विरुक्मतः शुभ्रा वीरा यथा मरुतस्तनूष्वञ्जिभिः शुभयन्ते विश्वमनुदधिर एषां सकाशाद् घृतं रीयते वर्त्मानि यान्ति तथाऽभिमातिनमपबाधन्ते तैः सह यूयं विजयं लभध्वम्॥3॥ भावार्थः—यथा वायुभिरनेकानि सुखानि प्राणबलेन पुष्टिश्च भवति, तथैव शुभगुणयुक्तविद्याशरीरात्म-बलान्वितसभाध्यक्षादिभिः प्रजाजना अनेकानि रक्षणानि लभन्ते॥3॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! (यत्) जो (गोमातरः) पृथिवी समान मातावाले (विरुक्मतः) विशेष अलंकृत (शुभ्राः) शुद्ध स्वभावयुक्त शूरवीर लोग जैसे प्राण (तनूषु) शरीरों में (अञ्जिभिः) प्रसिद्ध विज्ञानादि गुणनिमित्तों से (शुभयन्ते) शुभ कर्मों का आचरण कराके शोभायमान करते हैं, (विश्वम्) जगत् के सब पदार्थों का (अनुदधिरे) अनुकूलता से धारण करते हैं, (एषाम्) इनके संबन्ध से (घृतम्) जल (रीयते) प्राप्त और (वर्त्मानि) मार्गों को जाते हैं, वैसे (अभिमातिनम्) अभिमानयुक्त शत्रुगण का (अपबाधन्ते) बाध करते हैं, उनके साथ तुम लोग विजय को प्राप्त हो॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे वायुओं से अनेक सुख और प्राण के बल से पुष्टि होती है, वैसे ही शुभगुणयुक्त विद्या, शरीर और आत्मा के बलयुक्त सभाध्यक्षों से प्रजाजन अनेक प्रकार के रक्षणों को प्राप्त होते हैं॥3॥ पुनस्ते किं किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते॥ फिर वे क्या-क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ वि ये भ्राज॑न्ते॒ सुम॑खास ऋ॒ष्टिभिः॑ प्रच्या॒वय॑न्तो॒ अच्यु॑ता चि॒दोज॑सा। म॒नो॒जुवो॒ यन्म॑रुतो॒ रथे॒ष्वा वृष॑व्रातासः॒ पृष॑ती॒रयु॑ग्ध्वम्॥4॥ वि। ये। भ्राज॑न्ते। सुऽम॑खासः। ऋ॒ष्टिऽभिः॑। प्र॒ऽच्य॒वय॑न्तः। अच्यु॑ता। चि॒त्। ओज॑सा। म॒नः॒ऽजुवः॑। यत्। म॒रु॒तः॒। रथे॑षु। आ। वृष॑ऽव्रातासः। पृष॑तीः। अयु॑ग्ध्वम्॥4॥ पदार्थः—(वि) विशेषार्थे (ये) सभाद्यध्यक्षादयः (भ्राजन्ते) प्रकाशन्ते (सुमखासः) शोभनाः शिल्पसंबन्धिनः संग्रामा यज्ञा येषान्ते (ऋष्टिभिः) यन्त्रचालनार्थैर्गमनागमननिमित्तैर्दण्डैः (प्रच्यावयन्तः) विमानादीनि यानानि प्रचालयन्तः सन्तः (अच्युता) क्षेतुमशक्येन (चित्) इव (ओजसा) बलयुक्तेन सैन्येन सह वर्त्तमानाः (मनोजुवः) मनोवद्गतयः (यत्) याः (मरुतः) वायवः (रथेषु) विमानादियानेषु (आ) समन्तात् (वृषव्रातासः) वृषाः शस्त्रास्त्रवर्षयितारो व्रातासो मनुष्या येषान्ते (पृषतीः) मरुत्सम्बन्धिनीरपः (अयुग्ध्वम्) योजयत॥4॥ अन्वयः—हे प्रजासभामनुष्या! ये मनोजुवो मरुतश्चिदिव वृषव्रातासः सुमखास ऋष्टिभिरच्युतौजसा शत्रुसैन्यानि प्रच्यावयन्तः सन्तो व्याभ्राजन्ते तैः सह येषु रथेषु यत् पृषतीरयुग्ध्वं तैः शत्रून् विजयध्वम्॥4॥ भावार्थः—मनुष्यैर्मनोजवेषु विमानादियानेषु जलाग्निवायून् संप्रयुज्य तत्र स्थित्वा सर्वत्रभूगोले गत्वागत्य शत्रून् विजित्य प्रजाः सम्पाल्य शिल्पविद्याकार्याणि प्रवृध्य सर्वोपकाराः कर्त्तव्याः॥4॥ पदार्थः—हे प्रजा और सभा के मनुष्यो! (ये) जो (मनोजुवः) मन के समान वेगवाले (मरुतः) वायुओं के (चित्) समान (वृषव्रातासः) शस्त्र और अस्त्रों को शत्रुओं के ऊपर वर्षानेवाले मनुष्यों से युक्त (सुमखासः) उत्तम शिल्पविद्या सम्बन्धी वा संग्रामरूप क्रियाओं के करनेहारे (ऋष्टिभिः) यन्त्र कलाओं को चलानेवाले दण्डों और (अच्युता) अक्षय (ओजसा) बल पराक्रम युक्त सेना से शत्रु की सेनाओं को (प्रच्यावयन्तः) नष्ट-भ्रष्ट करते हुए (व्याभ्राजन्ते) अच्छे प्रकार शोभायमान होते हैं, उनके साथ (यत्) जिन (रथेषु) रथों में (पृषतीः) वायु से युक्त जलों को (अयुग्ध्वम्) संयुक्त करो, उनसे शत्रुओं को जीतो॥4॥ भावार्थः—मनुष्यो को उचित है कि मन के समान वेगयुक्त विमानादि यानों में जल, अग्नि और वायु को संयुक्त कर, उसमें बैठ के, सर्वत्र भूगोल में जा-आके शत्रुओं को जीतकर, प्रजा को उत्तम रीति से पाल के, शिल्पविद्या कर्मों को बढ़ा के सबका उपकार किया करें॥4॥ पुनस्ते किं कुर्युरित्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ प्र यद्रथे॑षु॒ पृष॑ती॒रयु॑ग्ध्वं॒ वाजे॒ अद्रिं॑ मरुतो रं॒हय॑न्तः। उ॒तारु॒षस्य॒ वि ष्य॑न्ति॒ धारा॒श्चर्मे॑वो॒दभि॒र्व्यु॑न्दन्ति॒ भूम॑॥5॥ प्र। यत्। रथे॑षु। पृष॑तीः। अयु॑ग्ध्वम्। वाजे॑। अद्रि॑म्। म॒रु॒तः॒। रं॒हय॑न्तः। उ॒त। अ॒रु॒षस्य॑। वि। स्य॒न्ति॒। धाराः॑। चर्म॑ऽइव। उ॒दऽभिः॑। वि। उ॒न्द॒न्ति॒। भूम॑॥5॥ पदार्थः—(प्र) प्रकृष्टार्थे (यत्) येषु (रथेषु) विमानादियानेषु (पृषतीः) अग्निवायुयुक्ता अपः (अयुग्ध्वम्) संप्रयुग्ध्वम् (वाजे) युद्धे (अद्रिम्) मेघम्। अद्रिरिति मेघनामसु पठितम्। (निघं॰1.10) (मरुतः) वायवः (रंहयन्तः) गमयन्तः (उत) अपि (अरुषस्य) अश्वस्येव। अरुष इति अश्वनामसु पठितम्। (निघं॰1.14) (वि) विशेषार्थे (स्यन्ति) कार्याणि समापयति (धाराः) जलप्रवाहान् (चर्मेव) चर्मवत् काष्ठादिनाऽऽवृत्य (उदभिः) उदकैः (वि) (उन्दन्ति) क्लेदन्ति (भूम) भूमिम्। अत्र सुपां सुलुगिति सुप्लुगिकारस्य स्थानेऽकारश्च॥5॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यूयं यथा विद्वांसः शिल्पिनो यद्येषु रथेषु पृषतीः प्रयुग्ध्वं संप्रयुग्ध्वमुताद्रिं रंहयन्तो मरुतोऽरुषस्य वाजे चर्मेवोद्भिर्धारा विष्यन्ति भूम भूमिं व्युन्दन्ति तैरन्तरिक्षे गत्वागत्य श्रियं वर्द्धयत॥5॥ भावार्थः—अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। हे मनुष्या! यथा वायुर्घनान् संधत्ते गमयति तथा शिल्पिनः सुशिक्षयाऽग्न्यादेः संप्रयोगेण स्थानान्तरं प्रापय्य कार्याणि साध्नुवन्ति॥5॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! तुम जैसे विद्वान् शिल्पी लोग (यत्) जिन (रथेषु) विमानादि यानों में (पृषतीः) अग्नि और पवनयुक्त जलों को (प्रयुग्ध्वम्) संयुक्त करें (उत) और (अद्रिम्) मेघ को (रंहयन्तः) अपने वेग से चलाते हुए (मरुतः) पवन जैसे (अरुषस्य) घोड़े के समान (वाजे) युद्ध में (चर्मेव) चमड़े के तुल्य काष्ठ धातु और चमड़े से भी मढ़े कलाघरों में (उद्भिः) जलों से (धाराः) उनके प्रवाहों को (विष्यन्ति) काम की समाप्ति करने के लिये समर्थ करते और (भूम) भूमि को (व्युन्दन्ति) गीली करते अर्थात् रथ को चलाते हुए जल टपकाते जाते हैं, वैसे उन यानों से अन्तरिक्ष मार्ग से देश-देशान्तर और द्वीप-द्वीपान्तर में जा-आ के लक्ष्मी को बढ़ाओ॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो! जैसे वायु बादलों को संयुक्त करता और चलाता है, वैसे शिल्पि लोग उत्तम शिक्षा और हस्तक्रिया अग्नि आदि अच्छे प्रकार जाने हुए वेगकर्त्ता पदार्थों के योग से स्थानान्तर को प्राप्त हो के कार्यों को सिद्ध करते हैं॥5॥ पुनस्ते किं कुर्वन्तीत्युपदिश्यते॥ फिर वे क्या करते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ आ वो॑ वहन्तु॒ सप्त॑यो रघु॒ष्यदो॑ रघु॒पत्वा॑नः॒ प्र जि॑गात बा॒हुभिः॑। सीद॒ता ब॒र्हिरु॒रु वः॒ सद॑स्कृ॒तं मा॒दय॑ध्वं मरुतो॒ मध्वो॒ अन्ध॑सः॥6॥9॥ आ। वः॒। व॒ह॒न्तु॒। सप्त॑यः। र॒घु॒ऽस्यदः॑। र॒घु॒ऽपत्वा॑नः। प्र। जि॒गा॒त॒। बा॒हुऽभिः॑। सीद॑त। आ। ब॒र्हिः। उ॒रु। वः॒। सदः॑। कृ॒तम्। मा॒दय॑ध्वम्। म॒रु॒तः॒। मध्वः॑। अन्ध॑सः॥6॥ पदार्थः—(आ) समन्तात् (वः) युष्मान् (वहन्तु) देशान्तरं प्रापयन्तु (सप्तयः) संयुक्ताः शीघ्रं गमयितारोऽग्निवायुजलादयोऽश्वाः (रघुस्यदः) ये मार्गान् स्यन्दन्ते ते। गत्यर्थाद् रघिधातोर्बाहुलकादौणादिक उः प्रत्ययो नकारलोपश्च। (रघुपत्वानः) ये रघून् पथः पतन्ति ते। अत्रान्येभ्योऽपि दृश्यन्त इति वनिप् प्रत्ययः। (प्र) उत्कृष्टार्थे (जिगात) स्तुत्यानि कर्माणि कुरुत (बाहुभिः) हस्तक्रियाभिः (सीदत) देशान्तरं गच्छत (आ) सर्वतः (बर्हिः) अन्तरिक्षम् (उरु) बहु (वः) युष्माकम् (सदः) स्थानम्। अत्र छन्दसि वा अतः कृकमिकंसकुम्भपात्रकुशाकर्णीष्वनव्ययस्य। (अष्टा॰8.3.46) अनेन सूत्रेण विसर्जनीयस्य सत्वम्। (कृतम्) निष्पादितम् (मादयध्वम्) आनन्दं प्रापयत (मरुतः) वायव इव ज्ञानयोगेन शीघ्रं गन्तारो मनुष्याः (मध्वः) मधुरगुणयुक्तानि (अन्धसः) अन्नानि॥6॥ अन्वयः—हे मनुष्या! ये रघुस्यदो रघुपत्वानो मरुत इव सप्तयोऽश्वा वो युष्मान् वहन्तु तान् बाहुभिः प्राऽऽजिगात तैरुरुबर्हिरासीदत यैर्वो युष्माकं सदस्कृतं भवेत् तैर्मध्वोऽन्धसः प्राप्यास्मान् मादयध्वम्॥6॥ भावार्थः—सभाद्यध्यक्षादयो मनुष्याः क्रियाकौशलेन शिल्पविद्यासिद्धानि कार्याणि कृत्वा संभोगान् प्राप्नुवन्तु, नहि केनचिदस्मिन् जगति पदार्थविज्ञानक्रियाभ्यां विनोत्तमा भोगाः प्राप्तुं शक्यन्ते तस्माद् एतन्नित्यमनुष्ठेयम्॥6॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! जो (रघुस्यदः) गमन करने-करानेहारे (रघुपत्वानः) थोड़े वा बहुत गमन करनेवाले (मरुतः) वायुओं के समान (सप्तयः) शीघ्र चलनेहारे अश्व (वः) तुमको (वहन्तु) देश-देशान्तर में प्राप्त करें, उनको (बाहुभिः) बल पराक्रमयुक्त हाथों से (प्राजिगात) उत्तम गतिमान् करो उनसे (उरु) बहुत (बर्हिः) उत्तम आसन पर (आसीदत) बैठ के आकाशादि में गमनागमन करो। जिनसे तुम्हारे (सदः) स्थान (कृतम्) सिद्ध (भवेत्) होवे, उनसे (मध्वः) मधुर (अन्धसः) अन्नों को प्राप्त हो के हमको (मादयध्वम्) आनन्दित करो॥6॥ भावार्थः—सभाध्यक्षादि मनुष्य लोग क्रियाकौशल से शिल्पविद्या से सिद्ध करने योग्य कार्यों को करके अच्छे भोगों को प्राप्त हों, कोई भी मनुष्य इस जगत् में पदार्थविज्ञान क्रिया के विना उत्तम भोगों को प्राप्त होने में समर्थ नहीं होता। इससे इस काम का नित्य अनुष्ठान करना चाहिये॥6॥ पुनस्ते किं कुर्युरित्युपदिश्यते॥ फिर वे क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ ते॑ऽवर्धन्त॒ स्वत॑वसो महित्व॒ना नाक त॒स्थुरु॒रु च॑क्रिरे॒ सदः॑। विष्णु॒र्यद्धाव॒द् वृष॑णं मद॒च्युतं॒ वयो॒ न सी॑द॒न्नधि॑ ब॒र्हिषि॑ प्रि॒ये॥7॥ ते। अ॒व॒र्ध॒न्त॒। स्वऽत॑वसः। म॒हि॒ऽत्व॒ना। आ। नाक॑म्। त॒स्थुः। उ॒रु। च॒क्रि॒रे॒। सदः॑। विष्णुः॑। यत्। ह॒। आव॑त्। वृष॑णम्। म॒द॒ऽच्युत॑म्। वयः॑। न। सी॒द॒न्। अधि॑। ब॒र्हिषि॑। प्रि॒ये॥7॥ पदार्थः—(ते) मनुष्याः (अवर्धन्त) वर्धन्ते (स्वतवसः) स्वं स्वकीयं तवो बलं येषां ते (महित्वना) महिम्ना। महित्वेनेति प्राप्ते वा च्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति विभक्तेर्नादेशः। अत्र सायणाचार्येण व्यत्ययेन नाभावः कृतः सोऽशुद्धः। (आ) समन्तात् (नाकम्) सुखविशेषं स्वर्गम् (तस्थुः) तिष्ठन्तु (उरु) बहु (चक्रिरे) कुर्वन्ति (सदः) सुखस्थानम् (विष्णुः) शिल्पविद्याव्यापनशीलो मनुष्यः (यत्) यम् (ह) किल (आवत्) रक्षणादिकं कुर्यात् (वृषणम्) अग्निजलवर्षणयुक्तं यानसमूहम् (मदच्युतम्) यो मदं हर्षं च्योतति तम् (वयः) पक्षी (न) इव (सीदन्) गच्छन् (अधि) उपरिभावे (बर्हिषि) अन्तरिक्षे (प्रिये) प्रीतकरे॥7॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यथा विष्णुः प्रिये बर्हिषि वृषणमधिसीदन् वयो न यन्मदच्युतं शत्रुनिरोधकमावत् स्वतवसस्ते ह महित्वना (अवर्धन्त) वर्धन्ते ये विमानादियानेन तस्थुरुरुसदः गच्छन्त्याऽऽगच्छन्ति ते नाकं चक्रिरे॥7॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा पक्षिण आकाशे सुखेन गत्वाऽऽगच्छन्ति, तथैव ये प्रशस्ताशिल्पविद्याविद्भ्योऽध्यापकेभ्यः साङ्गोपाङ्गां शिल्पविद्यां साक्षात्कृत्य तया यानानि संसाध्य सम्यग्रक्षित्वा वर्धयन्ति, त एवोत्तमां प्रतिष्ठां प्रशस्तानि धनानि च प्राप्य नित्यं वर्धन्त इति ॥7॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! जैसे (विष्णुः) सूर्यवत् शिल्पविद्या में निपुण मनुष्य (प्रिये) अत्यन्त सुन्दर (बर्हिषि) आकाश में (वृषणम्) अग्नि-जल के वर्षायुक्त विमान के (अधिसीदन्) ऊपर बैठ के (वयो न) जैसे पक्षी आकाश में उड़ते और भूमि में आते हैं, वैसे (यत्) जिस (मदच्युतम्) हर्ष को प्राप्त दुष्टों को रोकनेहारे मनुष्यों की (आवत्) रक्षा करता है, उसको जो (स्वतवसः) स्वकीय बलयुक्त मनुष्य प्राप्त होते हैं (ते ह) वे ही (महित्वना) महिमा से (अवर्धन्त) बढ़ते हैं और जो विमानादि यानों में (आतस्थुः) बैठ के (उरु) बहुत सुखसाधक (सदः) स्थान को जाते-आते हैं, वे (नाकम्) विशेष सुख (चक्रिरे) करते हैं॥7॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे पक्षी आकाश में सुखपूर्वक जाके आते हैं, वैसे ही साङ्गोपाङ्ग शिल्पविद्या को साक्षात् करके उससे उत्तम यानादि सिद्ध करके अच्छी सामग्री को रख के बढ़ाते हैं, वे ही उत्तम प्रतिष्ठा और धनों को प्राप्त होकर नित्य बढ़ा करते हैं॥7॥ पुनस्ते वायवः कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वे वायु कैसे हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ शूरा॑इ॒वेद्युयु॑धयो॒ न जग्म॑यः श्रव॒स्यवो॒ न पृत॑नासु येतिरे। भय॑न्ते॒ विश्वा॒ भुव॑ना म॒रुद्भ्यो॒ राजा॑नइव त्वे॒षसं॑दृशो॒ नरः॑॥8॥ शूराः॑ऽइव। इत्। युयु॑धयः। न। जग्म॑यः। श्र॒व॒स्यवः॑। न। पृत॑नासु। ये॒ति॒रे॒। भय॑न्ते। विश्वा॑। भुव॑ना। म॒रुत्ऽभ्यः॑। राजा॑नःऽइव। त्वे॒षऽसं॑दृशः। नरः॑॥8॥ पदार्थः—(शूराइव) यथा शस्त्राऽस्त्रप्रक्षेपयुद्धकुशलाः पुरुषास्तथा (इत्) एव (युयुधयः) साधुयुद्धकारिणः। उत्सर्गश्छन्दसि सदादिभ्यो दर्शनात्। (अष्टा॰वा॰3.2.171) अनेन वार्तिकेनाऽत्र युधधातोः किन् प्रत्ययः। (न) इव (जग्मयः) शीघ्रगमनशीलाः (श्रवस्यवः) आत्मनः श्रवोऽन्नमिच्छन्तः (न) इव (पृतनासु) सेनासु (येतिरे) प्रयतन्ते (भयन्ते) बिभ्यति। अत्र बहुलं छन्दसीति शपः स्थाने श्लुर्न व्यत्ययेनात्मनेपदं च। (विश्वा) विश्वानि सर्वाणि (भुवना) भुवनानि लोकाः (मरुद्भ्यः) वायूनामाधारबलाकर्षणेभ्यः (राजानइव) यथा सभाध्यक्षास्तथा (त्वेषसंदृशः) त्वेषं दीप्तिं पश्यन्ति ते सम्यग्दर्शयितारः (नरः) नेतारः॥8॥ अन्वयः—ये वायवः शूरा इवेदेव वृत्रेण सह युयुधयो नेव जग्मयः पृतनासु श्रवस्यवो नेव येतिरे। राजान इव त्वेषसंदृशो नरः सन्ति येभ्यो मरुद्भ्यो विश्वा भुवना प्राणिनो भयन्ते बिभ्यति तान् सुयुक्त्योपयुञ्जत॥8॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा निर्भयाः पुरुषाः युद्धान्न निवर्त्तन्ते, यथा यौद्धारो युद्धाय शीघ्रं धावन्ति, यथा बुभुक्षवोऽन्नमिच्छन्ति तथा ये सेनासु युद्धमिच्छन्ति, यथा दण्डाधीशेभ्यः सभाद्यध्यक्षेभ्योऽन्यायकारिणो जना उद्विजन्ते, तथैव वायुभ्योऽपि सर्वे कुपथ्यकारिणोऽन्यथा तत्सेविनः प्राणिन उद्विजन्ते स्वमर्यादायां तिष्ठन्ति॥8॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! तुम लोग जो वायु (शूराइव) शूरवीरों के समान (इत्) ही मेघ के साथ (युयुधयो न) युद्ध करने वाले के समान (जग्मयः) जाने-आनेहारे (पृतनासु) सेनाओं में (श्रवस्यवः) अन्नादि पदार्थों को अपने लिये बढ़ानेहारे के समान (येतिरे) यत्न करते हैं (राजान इव) राजाओं के समान (त्वेषसंदृशः) प्रकाश को दिखानेहारे (नरः) नायक के समान हैं, जिन (मरुद्भ्यः) वायुओं से (विश्वा) सब (भुवना) संसारस्थ प्राणी (भयन्ते) डरते हैं, उन वायुओं का अच्छी युक्ति से उपयोग करो॥8॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे भयरहित पुरुष युद्ध से निवर्त्त नहीं होते, जैसे युद्ध करनेहारे लड़ने के लिये शीघ्र दौड़ते हैं, जैसे क्षुधातुर मनुष्य अन्न की इच्छा और जैसे सेनाओं में युद्ध की इच्छा करते हैं, जैसे दण्ड देनेहारे न्यायाधीशों से अन्यायकारी मनुष्य उद्विग्न होते हैं, वैसे ही कुपथ्यकारी, [वायुओं का] अच्छे प्रकार उपयोग न करनेहारे मनुष्य वायुओं से भय को प्राप्त होते और अपनी मर्यादा में रहते हैं॥8॥ पुनस्ते सभाध्यक्षादयः कीदृशा इत्युपदिश्यते॥ फिर वे सभाध्यक्ष आदि कैसे हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ त्वष्टा॒ यद्वज्रं॒ सुकृ॑तं हिर॒ण्ययं॑ स॒हस्र॑भृष्टिं॒ स्वपा॒ अव॑र्तयत्। ध॒त्त इन्द्रो॒ नर्यपां॑सि॒ कर्त॒वेऽह॑न् वृ॒त्रं निर॒पामौ॑ब्जदर्ण॒वम्॥9॥ त्वष्टा॑। यत्। वज्र॑म्। सुऽकृ॑तम्। हि॒र॒ण्यय॑म्। स॒हस्र॑ऽभृष्टिम्। सु॒ऽअपाः॑। अव॑र्तयत्। ध॒त्ते। इन्द्रः॑। नरि॑। अपां॑सि। कर्त॑वे। अह॑न्। वृ॒त्रम्। निः। अ॒पाम्। औ॒ब्ज॒त्। अ॒र्ण॒वम्॥9॥ पदार्थः—(त्वष्टा) दीप्तिमत्त्वेन छेदकः। त्विषेर्देवतायामकारश्चोपधाया अनिट्त्वं च। (अष्टा॰वा॰3.2.135) अनेन वार्त्तिकेन त्विषधातोस्तृन्। (यत्) यम् (वज्रम्) किरणसमूहजन्यं विद्युदाख्यम् (सुकृतम्) सुष्ठु निष्पन्नम् (हिरण्ययम्) ज्योतिमर्यम्। ऋत्व्यवा॰। (अष्टा॰6.4.175) अनेन सूत्रेण मयट् प्रत्ययस्य मकारलोपो निपात्यते (सहस्रभृष्टिम्) सहस्रमसंख्याता भृष्टयः पाका यस्मात्तम् (स्वपाः) सुष्ठु अपांसि कर्माणि यस्मात् (अवर्त्तयत्) वर्त्तयति (धत्ते) धरति (इन्द्रः) सूर्यः (नरि) नीतिमार्गे मनुष्ये (अपांसि) कर्माणि (कर्त्तवे) कर्त्तुम् (अहन्) हन्ति (वृत्रम्) मेघम् (निः) नितराम् (अपाम्) उदकानाम् (औब्जत्) उब्जति सरलीकरोति (अर्णवम्) समुद्रम्॥9॥ अन्वयः—प्रजासेनास्थाः पुरुषा यथा स्वपास्त्वष्टेन्द्रः सूर्यः कर्त्तवेऽपांसि यत् सुकृतं हिरण्ययं सहस्रभृष्टं वज्रं प्रहृत्य वृत्रमहन् अपामर्णवं निरौब्जत् तथा दुष्टान् पर्यवर्त्तयच्छत्रून् हत्वा नर्याऽऽधत्ते स राजा भवितुमर्हेत्॥9॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यो मेघं धृत्वा वर्षयित्वा प्रजाः पालयति तथा राजादयोऽविद्याऽन्याययुक्तान् दुष्टान् हत्वा सर्वहिताय सुखसागरं साध्नुवन्तु॥9॥ पदार्थः—प्रजा और सेना में स्थित पुरुष जैसे (स्वपाः) उत्तम कर्म करता (त्वष्टा) छेदन करनेहारा (इन्द्रः) सूर्य (कर्त्तवे) करने योग्य (अपांसि) कर्मों को और (यत्) जिस (सुकृतम्) अच्छे प्रकार सिद्ध किये (हिरण्ययम्) प्रकाशयुक्त (सहस्रभृष्टिम्) जिससे हजारह पदार्थ पकते हैं, उस (वज्रम्) वज्र का प्रहार करके (वृत्रम्) मेघ का (अहन्) हनन करता है, (अपाम्) जलों के (अर्णवम्) समुद्र को (निरौब्जत्) निरन्तर सरल करता है, वैसे दुष्टों को (पर्यवर्त्तयत्) छिन्न-भिन्न करता हुआ शत्रुओं का हनन करके (नरि) मनुष्यों में श्रेष्ठों को (आधत्ते) धारण करता है, वह राजा होने को योग्य होता है॥9॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य मेघ को धारण और हनन कर वर्षा के समुद्र को भरता है, वैसे सभापति लोग विद्या न्याययुक्त प्रजा के पालन व धारण करके, अविद्या अन्याययुक्त दुष्टों का ताड़न करके, सबके हित के लिये सुखसागर को पूर्ण भरें॥9॥ पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ ऊ॒र्ध्वं नु॑नुद्रेऽव॒तं त ओज॑सा दादृहा॒णं चि॑द्बिभिदु॒र्वि पर्व॑तम्। धम॑न्तो वा॒णं म॒रुतः॑ सु॒दान॑वो॒ मदे॒ सोम॑स्य॒ रण्या॑नि चक्रिरे॥10॥ ऊ॒र्ध्वम्। नु॒नु॒द्रे॒। अ॒व॒तम्। ते। ओज॑सा। द॒दृ॒हा॒णम्। चि॒त्। बि॒भि॒दुः॒। वि। पर्व॑तम्। धम॑न्तः। वा॒णम्। म॒रुतः॑। सु॒ऽदान॑वः। मदे॑। सोम॑स्य। रण्या॑नि। च॒क्रि॒रे॒॥10॥ पदार्थः—(ऊर्ध्वम्) उत्कृष्टमार्गं प्रति (नुनुद्रे) नुदन्ति (अवतम्) रक्षणादियुक्तम् (ते) मनुष्याः (ओजसा) बलपराक्रमाभ्याम् (दादृहाणम्) दंहितुं शीलम् (चित्) इव (बिभिदुः) भिन्दन्तु (वि) विविधार्थे (पर्वतम्) मेघम् (धमन्तः) कम्पयमानाः (वाणम्) वाणादिशस्त्रास्त्रसमूहम् (मरुतः) वायवः (सुदानवः) शोभनानि दानानि येषां ते (मदे) हर्षे (सोमस्य) उत्पन्नस्य जगतो मध्ये (रण्यानि) रणेषु साधूनि कर्माणि (चक्रिरे) कुर्वन्ति॥10॥ अन्वयः—यथा मरुत ओजसाऽवतं दादृहाणं पर्वतं मेघं बिभिदुरूर्ध्वं नुनुद्रे तथा ये वाणं धमन्तः सुदानवः सोमस्य मदे रण्यानि विचक्रिरे ते राजानश्चिदिव जायन्ते॥10॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्या अस्य जगतो मध्ये जन्म प्राप्य विद्याशिक्षां गृहीत्वा वायुवत् कर्माणि कृत्वा सुखानि भुञ्जीरन्॥10॥ पदार्थः—जैसे (मरुतः) वायु (ओजसा) बल से (अवतम्) रक्षणादि का निमित्त (दादृहाणम्) बढ़ाने के योग्य (पर्वतम्) मेघ को (बिभिदुः) विदीर्ण करते और (ऊर्ध्वम्) ऊंचे को (नुनुद्रे) ले जाते हैं, वैसे जो (वाणम्) बाण से लेके शस्त्रास्त्र समूह को (धमन्तः) कंपाते हुए (सुदानवः) उत्तम पदार्थ के दान करनेहारे (सोमस्य) उत्पन्न हुए जगत् के मध्य में (मदे) हर्ष में (रण्यानि) संग्रामों में उत्तम साधनों को (विचक्रिरे) करते हैं (ते) वे राजाओं के (चित्) समान होते हैं॥10॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्य लोग इस जगत् में जन्म पा, विद्या शिक्षा का ग्रहण और वायु के समान कर्म्म करके सुखों को भोगें॥10॥ पुनस्ते कस्मै किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते॥ फिर वे किसके लिये क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ जि॒ह्मं नु॑नुद्रेऽव॒तं तया॑ दि॒शासि॑ञ्च॒न्नुत्सं॒ गोत॑माय तृ॒ष्णजे॑। आ ग॑च्छन्ती॒मव॑सा चि॒त्रभा॑नवः॒ कामं॒ विप्र॑स्य तर्पयन्त॒ धाम॑भिः॥11॥ जि॒ह्मम्। नु॒नु॒द्रे॒। अ॒व॒तम्। तया॑। दि॒शा। असि॑ञ्चन्। उत्स॑म्। गोत॑माय। तृ॒ष्णऽजे॑। आ। ग॒च्छ॒न्ति॒। ई॒म्। अव॑सा। चि॒त्रऽभा॑नवः। काम॑म्। विप्र॑स्य। त॒पर्॒य॒न्त॒। धाम॑ऽभिः॥11॥ पदार्थः—(जिह्मम्) कुटिलम् (नुनुद्रे) प्रेरयन्ति (अवतम्) निम्नदेशस्थम् (तया) अभीष्टया (दिशा) (असिञ्चन्) सिञ्चन्ति (उत्सम्) कूपम्। उत्स इति कूपनामसु पठितम्। (निघं॰3.23) (गोतमाय) गच्छतीति गौः सोऽतिशयितो गोतमस्तस्मै भृशं मार्गे गन्त्रे जनाय (तृष्णजे) तृषितुं शीलाय। स्वपितृषोर्नजिङ्। (अष्टा॰3.2.172) अनेन सूत्रेण तृषधातोर्नजिङ् प्रत्ययः। (आ) समन्तात् (गच्छन्ति) यान्ति (ईम्) पृथिवीम् (अवसा) रक्षणादिना (चित्रभानवाः) आश्चर्यप्रकाशाः (कामम्) इच्छासिद्धिम् (विप्रस्य) मेधाविनः (तर्पयन्त) तर्प्पयन्ति (धामभिः) स्थानविशेषैः॥11॥ अन्वयः—यथा दातारोऽवतं जिह्ममुत्सं खनित्वा तृष्णजे गोतमाय जलेन ईमसिञ्चन् तया दिशा पिपासां नुनुद्रे चित्रभानवः प्राणा इव धामभिर्विप्रस्यावसा कामं तर्पयन्त सर्वतः सुखमागच्छन्ति तथोत्तमैर्मनुष्यैर्भवितव्यम्॥11॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्याः कूपं सम्पाद्य क्षेत्रवाटिकादीनि संसिच्य तत्रोत्पन्नेभ्योऽन्नफलादिभ्यः प्राणिनः सन्तर्प्य सुखयन्ति तथैव सभाध्यक्षादयः शास्त्रविशारदान् विदुषः कामै-रलंकृत्यैतैर्विद्यासुशिक्षाधर्मान् सम्प्रचार्य प्राणिन आनन्दयन्तु॥11॥ पदार्थः—जैसे दाता लोग (अवतम्) निम्नदेशस्थ (जिह्मम्) कुटिल (कुत्सम्) कूप को खोद के (तृष्णजे) तृषायुक्त (गोतमाय) बुद्धिमान् पुरुष को (ईम्) जल से (असिञ्चन्) तृप्त करके (तया) (दिशा) उस अभीष्ट दिशा से (नुनुद्रे) उसकी तृषा को दूर कर देते हैं, जैसे (चित्रभानवः) विविध प्रकाश के आधार प्राणों के समान (धामभिः) जन्म, नाम और स्थानों से (विप्रस्य) विद्वान् के (अवसा) रक्षण से (कामम्) कामना को (तर्पयन्त) पूर्ण करते और सब ओर से सुख को (आगच्छन्ति) प्राप्त होते हैं, वैसे उत्तम मनुष्यों को होना चाहिये॥11॥ भावार्थः—जैसे मनुष्य कूप को खोद खेत वा बगीचे आदि को सींचके उसमें उत्पन्न हुए अन्न और फलादि से प्राणियों को तृप्त करके सुखी करते हैं, वैसे ही सभाध्यक्ष आदि लोग वेदशास्त्रों में विशारद विद्वानों को कामों से पूर्ण करके इनसे विद्या, उत्तम शिक्षा और धर्म का प्रचार कराके सब प्राणियों को आनन्दित करें॥11॥ पुनस्तेभ्यो मनुष्यैः किं किमाशंसनीयमित्युपदिश्यते॥ फिर उनसे मनुष्यों को क्या-क्या आशा करनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ या वः॒ शर्म॑ शशमा॒नाय॒ सन्ति॑ त्रि॒धातू॑नि दा॒शुषे॑ यच्छ॒ताधि॑। अ॒स्मभ्यं॒ तानि॑ मरुतो॒ वि य॑न्त र॒यिं नो॑ धत्त वृषणः सु॒वीर॑म्॥12॥10॥ या। वः॒। शर्म॑। श॒श॒मा॒नाय॑। सन्ति॑। त्रि॒ऽधातू॑नि। दा॒शुषे॑। य॒च्छ॒त॒। अधि॑। अ॒स्मभ्य॑म्। तानि॑। म॒रु॒तः॒। वि। य॒न्त॒। र॒यिम्। नः॒। ध॒त्त॒। वृ॒ष॒णः॒। सु॒ऽवीर॑म्॥12॥ पदार्थः—(या) यानि (वः) युष्माकम् (शर्म) शर्माणि सुखानि (शशमानाय) विज्ञानवते। शशमान इति पदनामसु पठितम्। (निघं॰4.3) (सन्ति) वर्त्तन्ते (त्रिधातूनि) त्रयो वातपित्तकफा येषु शरीरेषु वाऽयः सुवर्णरजतानि येषु धनेषु तानि (दाशुषे) दानशीलाय (यच्छत) दत्त (अधि) उपरिभावे (अस्मभ्यम्) (तानि) (मरुतः) मरणधर्माणो मनुष्यास्तत्सम्बुद्धौ (वि) (यन्त) प्रयच्छत। अत्र यमधातोर्बहुलं छन्दसीति शपो लुक्। (रयिम्) श्रीसमूहम् (नः) अस्मान् (धत्त) (वृषणः) वर्षन्ति ये तत्सम्बुद्धौ (सुवीरम्) शोभना वीरा यस्मात्तम्॥12॥ अन्वयः—हे सभाद्यध्यक्षादयो मनुष्या! यूयं मरुत इव वो या त्रिधातूनि शर्म शर्माणि सन्ति तानि शशमानाय दाशुषे यच्छतास्मभ्यं वि यन्त हे वृष्णो! नोऽस्मभ्यं सुवीरं रयिमधिधत्त॥12॥ भावार्थः—सभाद्यध्यक्षादिभिः सुखदुःखावस्थायां सर्वान् प्राणिनः स्वात्मवन्मत्वा सुखधनादिभिः पुत्रवत् पालनीयाः। प्रजासेनास्थैः पुरुषैश्चैते पितृवत्सत्कर्त्तव्या इति ॥12॥ अत्र वायुवत्सभाद्यध्यक्षराजप्रजाधर्मवर्णनादेतदर्थेन सह पूर्वसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्॥ इति पञ्चाशीतितमं 85 सूक्तं दशमो 10 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—हे सभाध्यक्ष आदि मनुष्यो! तुम लोग (मरुतः) वायु के समान (वः) तुम्हारे (या) जो (त्रिधातूनि) वात, पित्त, कफयुक्त शरीर अथवा लोहा, सोना, चांदी आदि धातुयुक्त (शर्म) घर (सन्ति) हैं (तानि) उन्हें (शशमानाय) विज्ञानयुक्त (दाशुषे) दाता के लिये (यच्छत) देओ और (अस्मभ्यम्) हमारे लिये भी वैसे घर (वि यन्त) प्राप्त करो। हे (वृषणः) सुख की वृष्टि करनेहारे! (नः) हमारे लिये (सुवीरम्) उत्तम वीर की प्राप्ति करनेहारे (रयिम्) धन को (अधिधत्त) धारण करो॥12॥ भावार्थः—सभाध्यक्षादि लोगों को योग्य है कि सुख-दुःख की अवस्था में सब प्राणियों को अपने आत्मा के समान मान के, सुख धनादि से युक्त करके पुत्रवत् पालें और प्रजा सेना के मनुष्यों को योग्य है कि उनका सत्कार पिता के समान करें॥12॥ इस सूक्त में वायु के समान सभाध्यक्ष राजा और प्रजा के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्तार्थ की संगति पूर्व सूक्तार्थ के साथ समझनी चाहिये॥ यह पिचासीवाँ 85सूक्त और दसवाँ 10 वर्ग समाप्त हुआ॥

अथ दशर्चस्य षडशीतितमस्य सूक्तस्य राहूगणो गोतम ऋषिः। मरुतो देवताः। 1,4,8,9 गायत्री। 2,3,7 पिपीलिका मध्या निचृद्गायत्री। 5,6,10 निचृद्गायत्री च छन्दः। षड्जः स्वरः॥ पुनः स गृहस्थः कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह गृहस्थ कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ मरु॑तो॒ यस्य॒ हि क्षये॑ पा॒था दि॒वो वि॑महसः। स सु॑गो॒पात॑मो॒ जनः॑॥1॥ मरु॑तः। यस्य॑। हि। क्षये॑। पा॒थ। दि॒वः। वि॒ऽम॒ह॒सः॒। सः। सु॒ऽगो॒पात॑मः। जनः॑॥1॥ पदार्थः—(मरुतः) प्राणा इव प्रिया विद्वांसः (यस्य) (हि) खलु (क्षये) गृहे (पाथ) रक्षका भवथ। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (दिवः) विद्यान्यायप्रकाशकाः (विमहसः) विविधानि महांसि पूज्यानि कर्माणि येषां तत्सम्बुद्धौ (सः) (सुगोपातमः) अतिशयेन सुष्ठु स्वस्यान्येषां च रक्षकः (जनः) मनुष्यः॥1॥ अन्वयः—हे विमहसो! दिवो यूयं मरुतो यस्य क्षये पाथ स हि खलु सुगोपातमो जनो जायेत॥1॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा प्राणेन विना शरीरादिरक्षणं न सम्भवति, तथैव सत्योपदेशकेन विना प्रजारक्षणं न जायते॥1॥ पदार्थः—हे (विमहसः) नाना प्रकार पूजनीय कर्मों के कर्त्ता! (दिवः) विद्यान्यायप्रकाशक तुम लोग (मरुतः) वायु के समान विद्वान् जन (यस्य) जिसके (क्षये) घर में (पाथ) रक्षक हो (सः हि) वही (सुगोपातमः) अच्छे प्रकार (जनः) मनुष्य होवे॥1॥ भावार्थः—जैसे प्राण के विना शरीरादि का रक्षण नहीं हो सकता, वैसे सत्योपदेशकर्त्ता के विना प्रजा की रक्षा नहीं होती॥1॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ य॒ज्ञैर्वा॑ यज्ञवाहसो॒ विप्र॑स्य वा मती॒नाम्। मरु॑तः शृणु॒ता हव॑म्॥2॥ य॒ज्ञैः। वा॒। य॒ज्ञ॒ऽवा॒ह॒सः॒। विप्र॑स्य। वा॒। म॒ती॒नाम्। मरु॑तः। शृ॒णु॒त। हव॑म्॥2॥ पदार्थः—(यज्ञैः) अध्ययनाध्यापनोपदेशनाऽऽदिभिः (वा) पक्षान्तरे (यज्ञवाहसः) यज्ञान् वोढुं शीलं येषान्ते (विप्रस्य) मेधाविनः (वा) पक्षान्तरे (मतीनाम्) विदुषां मनुष्याणाम् (मरुतः) परीक्षका विपिश्चितः (शृणुत) (हवम्) परीक्षितुमर्हमध्ययनमध्यापनं वा॥2॥ अन्वयः—हे यज्ञवाहसो! यूयं मरुत इव स्वकीयैर्यज्ञैः परकीयैर्वा विप्रस्य मतीनां वा हवं शृणुत॥2॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्विज्ञानविज्ञापनाख्यैः क्रियाजन्यैर्वा यज्ञैः सह वर्त्तमाना भूत्वाऽन्यान् मनुष्यानेतैर्योजयित्वा यथावत्सुपरीक्ष्य विद्वांसो निष्पादनीयाः॥2॥ पदार्थः—हे (यज्ञवाहसः) सत्सङ्गरूप प्रिय यज्ञों को प्राप्त करानेवाले विद्वानो! तुम लोग (मरुतः) वायु के समान (यज्ञैः) अपने (वा) पराये पढ़ने-पढ़ाने और उपदेशरूप यज्ञों से (विप्रस्य) विद्वान् (वा) वा (मतीनाम्) बुद्धिमानों के (हवम्) परीक्षा के योग्य पठन-पाठनरूप व्यवहार को (शृणुत) सुना कीजिये॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि जानने-जनाने वा क्रियाओं से सिद्ध यज्ञों से युक्त होकर, अन्य मनुष्यों को युक्त करा, यथावत्परीक्षा करके विद्वान् करना चाहिये॥2॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ उ॒त वा॒ यस्य॑ वा॒जिनोऽनु॒ विप्र॒मत॑क्षत। स गन्ता॒ गोम॑ति व्र॒जे॥3॥ उ॒त। वा॒। यस्य॑। वा॒जिनः॑। अनु॑। विप्र॑म्। अत॑क्षत। सः। गन्ता॑। गोऽम॑ति। व्र॒जे॥3॥ पदार्थः—(उत) अपि (वा) विकल्पे (यस्य) (वाजिनः) प्रशस्तविज्ञानयुक्ताः (अनु) पश्चादर्थे (विप्रम्) मेधाविनम् (अतक्षत) अतिसूक्ष्मां धियं कुर्वन्ति (सः) (गन्ता) (गोमति) प्रशस्ता गाव इन्द्रियाणि विद्यन्ते यस्मिँस्तस्मिन् (व्रजे) व्रजन्ति जना यस्मिंस्तस्मिन्॥3॥ अन्वयः—हे वाजिनो! यूयं यस्य क्रियाकुशलस्य विदुषो वाऽध्यापकस्य सकाशात् प्राप्तविद्यं विप्रमन्वतक्षत, स गोमति व्रज उत गन्ता भवेत्॥3॥ भावार्थः—तीव्रया बुद्धया शिल्पविद्यया च सिद्धैर्विमानादिभिर्विना मनुष्यैर्देशदेशान्तरे सुखेन गन्तुमागन्तुं वा न शक्यते, तस्मादतिपुरुषार्थेनैतानि निष्पादनीयानि॥3॥ पदार्थः—(वाजिनः) उत्तम विज्ञानयुक्त विद्वानो! तुम (यस्य) जिस क्रियाकुशल विद्वान् (वा) पढ़ानेहारे के समीप से विद्या को प्राप्त हुए (विप्रम्) विद्वान् को (अन्वतक्षत) सूक्ष्म प्रज्ञायुक्त करते हो (सः) वह (गोमति) उत्तम इन्द्रिय विद्या प्रकाशयुक्त (वज्रे) प्राप्त होने के योग्य मार्ग में (उत) भी (गन्ता) प्राप्त होवे॥3॥ भावार्थः—तीव्रबुद्धि और शिल्पविद्या सिद्ध विमानादि यानों के विना मनुष्य देश-देशान्तर में सुख से जाने-आने को समर्थ नहीं हो सकते, उस कारण अति पुरुषार्थ से विमानादि यानों को यथावत् सिद्ध करें॥3॥ पुनस्तै शिक्षितैः किं जायत इत्युपदिश्यते॥ फिर उन शिक्षित मनुष्यों से क्या होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अ॒स्य वी॒रस्य॑ ब॒र्हिषि॑ सु॒तः सोमो॒ दिवि॑ष्टिषु। उ॒क्थं मद॑श्च शस्यते॥4॥ अ॒स्य। वी॒रस्य॑। ब॒र्हिषि॑। सु॒तः। सोमः॑। दिवि॑ष्टिषु। उ॒क्थम्। मदः॑। च॒। श॒स्य॒ते॒॥4॥ पदार्थः—(अस्य) (वीरस्य) विज्ञानशौर्य्यनिर्भयाद्युपेतस्य (बर्हिषि) उत्तमे व्यवहारे कृते सति (सुतः) निष्पन्नः (सोमः) ऐश्वर्यसमूहः (दिविष्टिषु) दिव्या इष्टयः सङ्गतानि कर्माणि सुखानि वा येषु व्यवहारेषु तेषु (उक्थम्) शास्त्रप्रवचनम् (मदः) आनन्दः (च) विद्यादयो गुणाः (शस्यते) स्तूयते॥4॥ अन्वयः—हे विद्वांसो! भवच्छिक्षितस्यास्य वीरस्य सुतः सोमो दिविष्टिषूक्थं बर्हिषि मदो गुणसमूहश्च शक्यते नेतरस्य॥4॥ भावार्थः—विदुषां शिक्षया विना मनुष्येषूत्तमा गुणा न जायन्ते तस्मादेतन्नित्यमनुष्ठेयम्॥4॥ पदार्थः—हे विद्वानो! आपके सुशिक्षित (अस्य) इस (वीरस्य) वीर का (सुतः) सिद्ध किया हुआ (सोमः) ऐश्वर्य (दिविष्टषु) उत्तम इष्टिरूप कर्मों से सुखयुक्त व्यवहारों में (उक्थम्) प्रशंसित वचन (बर्हिषि) उत्तम व्यवहार के करने में (मदः) आनन्द (च) और सद्विद्यादि गुणों का समूह (शस्यते) प्रशंसित होता है, अन्य का नहीं॥4॥ भावार्थः—विद्वानों की शिक्षा के विना मनुष्यों में उत्तम गुण उत्पन्न नहीं होते। इससे इसका अनुष्ठान नित्य करना चाहिये॥4॥ पुनस्ते किं कुर्युरित्युपदिश्यते फिर वे क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अ॒स्य श्रो॑ष॒न्त्वा भुवो॒ विश्वा॒ यश्च॑र्ष॒णीर॒भि। सूरं॑ चित्स॒स्रुषी॒रिषः॑॥5॥11॥ अ॒स्य। श्रो॒ष॒न्तु॒। आ। भुवः॑। विश्वाः॑। यः। च॒र्ष॒णीः। अ॒भि। सूर॑म्। चि॒त्। स॒स्रु॒षीः॑। इषः॑॥5॥ पदार्थः—(अस्य) सुशिक्षितस्य मनुष्यस्य (श्रोषन्तु) शृण्वन्तु। अत्र विकरणव्यत्ययेन लेटि सिप्। (आ) सर्वतः (भुवः) भूमयः (विश्वाः) सर्वाः (यः) (चर्षणीः) मनुष्यान् (अभि) आभिमुख्ये (सूरम्) प्रेरयितारमध्यापकम् (चित्) इव (सस्रुषीः) प्राप्तव्याः (इषः) इष्टसाधकाः किरणाः॥5॥ अन्वयः—हे मनुष्या! भवन्तोऽस्य सुशिक्षितस्येषश्चिदिव विश्वाः सस्रुषीराभुवश्चर्षणीः प्रजाः किरणाः सूरमिवाभिश्रोषन्तु॥5॥ भावार्थः—यो मनुष्यः सुशिक्षितः सुपरीक्षितः शुभलक्षणः सर्वविद्यो दृढिष्ठो बलिष्ठोऽध्यापकः सुसहायः पुरुषार्थी धार्मिको विद्वानस्ति, स एव पूर्णान् धर्मार्थकाममोक्षान् प्राप्तः सन् प्रजाया दुःखानि निवार्य परां विद्यां श्रुत्वा प्राप्नोति नातो विरुद्धः॥5॥ पदार्थः—हे मनुष्यो आप लोग (अस्य) इस सुशिक्षित विद्वान् के (इषः) इष्टसाधक किरणों के (चित्) समान (विश्वाः) सब (सस्रुषीः) प्राप्त होने के योग्य (आभुवः) सब ओर से सुखयुक्त (चर्षणीः) मनुष्यरूप प्रजा को जैसे किरणें (सूरम्) सूर्य को प्राप्त होती हैं, वैसे (अभि श्रोषन्तु) सब ओर से सुनो॥5॥ भावार्थः—जो मनुष्य अच्छी शिक्षा से युक्त, अच्छे प्रकार परीक्षित, शुभलक्षणयुक्त, सम्पूर्ण विद्याओं का वेत्ता, दृढ़ाङ्ग, अतिबली, पढ़ानेहारा, श्रेष्ठ सहाय से सहित, पुरुषार्थी धार्मिक विद्वान् है, वही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त होके प्रजा के दुःख का निवारण कर पराविद्या को सुनके प्राप्त होता है, इससे विरुद्ध मनुष्य नहीं॥5॥ सर्वे वयं मिलित्वा किं कुर्य्यामेत्युपदिश्यते॥ सब हम मिल के क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ पू॒र्वीभि॒र्हि द॑दाशि॒म श॒रद्भि॑र्मरुतो व॒यम्। अवो॑भिश्चर्षणी॒नाम्॥6॥ पू॒र्वीभिः॑। हि। द॒दा॒शि॒म। श॒रत्ऽभिः॑। म॒रु॒तः॒। व॒यम्। अवः॑ऽभिः। च॒र्ष॒णी॒नाम्॥6॥ पदार्थः—(पूर्वीभिः) पुरातनीभिः (हि) खलु (ददाशिम) दद्याम (शरद्भिः) शरदादिभिर्ऋतुभिः (मरुतः) सभाद्यध्यक्षादयः (वयम्) सभाप्रजाशालास्थाः (अवोभिः) रक्षणादिभिः (चर्षणीनाम्) मनुष्याणाम्॥6॥ अन्वयः—हे मरुतो! यथा यूयं पूर्वीभिः शरद्भिः सर्वैर्ऋतुभिरवोभिश्चर्षणीनां सुखाय प्रवर्त्तध्वम्। तथा वयमपि हि खलु युष्मदादिभ्यः सुखानि ददाशिम॥6॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा ऋतुस्था वायवः प्राणिनो रक्षित्वा सुखयन्ति तथा विद्वांसः सर्वेषां सुखाय प्रवर्त्तेरन्, न किल कस्यचिद् दुःखाय॥6॥ पदार्थः—हे (मरुतः) सभाध्यक्ष आदि सज्जनो! जैसे तुम लोग (पूर्वीभिः) प्राचीन सनातन (शरद्भिः) सब ऋतु वा (अवोभिः) रक्षा आदि अच्छे-अच्छे व्यवहारों से (चर्षणीनाम्) सब मनुष्यों के सुख के लिये अच्छे प्रकार अपना वर्त्ताव वर्त्त रहे हो, वैसे (हि) निश्चय से (वयम्) हम प्रजा, सभा और पाठशालास्थ आदि प्रत्येक शाला के पुरुष आप लोगों को सुख (ददाशिम) देवें॥6॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सब ऋतु में ठहरने वाले वायु प्राणियों की रक्षा कर उनको सुख पहुंचाते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग सबके सुख के लिये प्रवृत्त हों, न कि किसी के दुःख के लिये॥6॥ तैः पालितः शिक्षितो जनः कीदृशो भवतीत्युपदिश्यते॥ उनकी रक्षा और शिक्षा पाया हुआ मनुष्य कैसा होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ सु॒भगः॒ स प्र॑यज्यवो॒ मरु॑तो अस्तु॒ मर्त्यः॑। यस्य॒ प्रयां॑सि॒ पर्ष॑थ॥7॥ सु॒ऽभगः॑। सः। प्र॒ऽय॒ज्य॒वः॒। मरु॑तः। अ॒स्तु॒। मर्त्यः॑। यस्य॑। प्रयां॑सि। पर्ष॑थ॥7॥ पदार्थः—(सुभगः) शोभनो भगो धनमैश्वर्य्यं वा यस्य सः। भग इति धननामसु पठितम्। (निघं॰2.10) (सः) (प्रयज्यवः) प्रकृष्टा यज्यवो येषाम् तत्सम्बुद्धौ (मरुतः) सभाध्यक्षादयः (अस्तु) भवतु (मर्त्यः) मनुष्यः (यस्य) यस्मै। अत्र चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसीति षष्ठीप्रयोगः। (प्रयांसि) प्रीतानि कान्तानि वस्तूनि (पर्षथ) सिञ्चत दत्त॥7॥ अन्वयः—हे प्रयज्यवो मरुतो! यूयं यस्य प्रयांसि पर्षथ स मर्त्यः सुभगोऽस्तु॥7॥ भावार्थः—येषां जनानां सभाद्यध्यक्षादयो विद्वांसो रक्षकाः सन्ति, ते कथं न सुखैश्वर्य्यं प्राप्नुयुः॥7॥ पदार्थः—हे (प्रयज्यवः) अच्छे-अच्छे यज्ञादि कर्म करनेवाले (मरुतः) सभाध्यक्ष आदि विद्वानो! तुम (यस्य) जिसके लिये (प्रयांसि) अत्यन्त प्रीति करने योग्य मनोहर पदार्थों को (पर्षथ) परसते अर्थात् देते हो (सः) वह (मर्त्यः) मनुष्य (सुभगः) श्रेष्ठ धन और ऐश्वर्य्ययुक्त (अस्तु) हो॥7॥ भावार्थः—जिन मनुष्यों के सभाध्यक्ष आदि विद्वान् रक्षा करनेवाले हैं, वे क्योंकर सुख और ऐश्वर्य्य को न पावें?॥7॥ मनुष्यैस्तेषां सङ्गेन किं विज्ञातव्यमित्युपदिश्यते॥ उनके सङ्ग से मनुष्यों को क्या जानना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ श॒श॒मा॒नस्य॑ वा नरः॒ स्वे॑दस्य सत्यशवसः। वि॒दा काम॑स्य॒ वेन॑तः॥8॥ श॒श॒मा॒नस्य॑। वा॒। न॒रः॒। स्वेद॑स्य। स॒त्य॒ऽश॒व॒सः॒। वि॒द। काम॑स्य। वेन॑तः॥8॥ पदार्थः—(शशमानस्य) विज्ञातव्यस्य। अत्र सर्वत्र अधिगर्थ इति शेषत्वविवक्षायां षष्ठी। (वा) अथवा (नरः) सर्वकार्यनेतारो मनुष्यास्तत्सम्बुद्धौ (स्वेदस्य) पुरुषार्थेन जायमानस्य (सत्यशवसः) नित्यदृढबलस्य (विद) वित्थ। द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (कामस्य) (वेनतः) सर्वशास्त्रैः श्रुतस्य कमनीयस्य। अत्र वेनृधातोर्बाहुलकादौणादिकोऽतन् प्रत्ययः॥8॥ अन्वयः—हे नरो! यूयं सभाद्यध्यक्षादीनां सङ्गेन स्वपुरुषार्थेन वा शशमानस्य सत्यशवसो वेनतः स्वेदस्य कामस्य विद विजानीत॥8॥ भावार्थः—नहि कश्चिद्विदुषां सङ्गेन विना सत्यान् कामान् सदसद्विज्ञातुं च शक्नोति, तस्मादेतत् सर्वैरनुष्ठेयम्॥8॥ पदार्थः—हे (नरः) मनुष्यो! तुम सभाध्यक्षादिकों के संग (वा) पुरुषार्थ से (शशमानस्य) जानने योग्य (सत्यशवसः) जिसमें नित्य पुरुषार्थ करना हो (वेनतः) जो कि सब शास्त्रों से सुना जाता हो तथा कामना के योग्य और (स्वेदस्य) पुरुषार्थ से सिद्ध होता है, उस (कामस्य) काम को (विद) जानो अर्थात् उसको स्मरण से सिद्ध करो॥8॥ भावार्थः—कोई पुरुष विद्वानों के संग विना सत्य काम और अच्छे-बुरे को जान नहीं सकता। इससे सबको विद्वानों का संग करना चाहिये॥8॥ अथेतरमनुष्यैस्ते सभाध्यक्षादयो मनुष्याः कथं प्रार्थनीया इत्युपदिश्यते॥ अब और मनुष्यों को उन सभाध्यक्ष आदि मनुष्यों से कैसे प्रार्थना करनी चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ यू॒यं तत्स॑त्यशवस आ॒विष्क॑र्त महित्व॒ना। विध्य॑ता वि॒द्युता॒ रक्षः॑॥9॥ यू॒यम्। तत्। स॒त्य॒ऽश॒व॒सः॒। आ॒विः। क॒र्त॒। म॒हि॒ऽत्व॒ना। विध्य॑त। वि॒ऽद्युता॑। रक्षः॑॥9॥ पदार्थः—(यूयम्) (तत्) (सत्यशवसः) नित्यं बलं येषान्तत्सम्बुद्धौ (आविः) प्रकटीभावे (कर्त्त) कुरुत। विकरणस्यात्र लुक्। (महित्वना) महिम्ना (विध्यता) ताडनकर्त्रा (विद्युता) विद्युन्निष्पन्नेनास्त्रसमूहेन (रक्षः) दुष्टकर्मकारी मनुष्यः॥9॥ अन्वयः—हे सत्यशवसः सभाद्यध्यक्षादयो! यूयं महित्वना तत्काममाविष्कर्त येन विद्युता रक्षो विध्यता मया सर्वे कामाः प्राप्येरन्॥9॥ भावार्थः—मनुष्यैः परस्परं प्रीत्या पुरुषार्थेन विद्याः प्राप्य दुष्टस्वभावगुणमनुनिवार्य कामसिद्धिर्नित्यं कार्येति॥9॥ पदार्थः—हे (सत्यशवसः) नित्यबलयुक्त सभाद्यध्यक्ष आदि सज्जनो! (यूयम्) तुम (महित्वना) उत्तम यश से (तत्) उस काम को (आविः) प्रकट (कर्त्त) करो कि जिससे (विद्युता) बिजुली के लोहे से बनाये हुए शस्त्र वा आग्नेयादि अस्त्रों के समूह से (रक्षः) खोटे काम करनेवाले दुष्ट मनुष्यों को (विध्यता) ताड़ना देते हुए मेरी सब कामना सिद्ध हों॥9॥ भावार्थः—मनुष्यों को चाहिए कि परस्पर प्रीति और पुरुषार्थ के साथ विद्युत् आदि पदार्थविद्या और अच्छे-अच्छे गुणों को पाकर दुष्ट स्वभावी और दुर्गुणी मनुष्यों को दूर कर नित्य अपनी कामना सिद्ध करें॥9॥ पुनस्ते किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते॥ फिर वे क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ गूह॑ता॒ गुह्यं॒ तमो॒ वि या॑त॒ विश्व॑म॒त्रिण॑म्। ज्योति॑ष्कर्ता॒ यदु॒श्मसि॑॥10॥12॥ गूह॑त। गुह्य॑म्। तमः॑। वि। या॒त॒। विश्व॑म्। अ॒त्रिण॑म्। ज्योतिः॑। क॒र्त॒। यत्। उ॒श्मसि॑॥10॥ पदार्थः—(गूहत) आच्छादयत। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (गुह्यम्) गोपनीयम् (तमः) रात्रिवदविद्याऽन्धकारम् (वि) विगतार्थे (यात) गमयत (विश्वम्) सर्वम् (अत्रिणम्) परसुखमत्तारम्। अदेस्त्रिनिश्च। (उणा॰4.69) अनेन सूत्रेणाऽदधातोस्त्रिनिः प्रत्ययः। (ज्योतिः) विद्याप्रकाशम् (कर्त्त) कुरुत। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (यत्) (उश्मसि) कामयामहे॥10॥ अन्वयः—हे सत्यशवसः सभाद्यध्यक्षादयो! यूयं यथा स्वमहित्वना गुह्यं गूहत विश्वं तमोऽत्रिणं वियात विनष्टं कुरुत तथा वयं यज्ज्योतिर्विद्याप्रकाशमुश्मसि तत्कर्त्त॥10॥ भावार्थः—मरुतः सत्यशवसो महित्वनेति पदत्रयमनुवर्त्तते। सभाद्यध्यक्षादिभिः। परमपुरुषार्थेन सततं राज्यं रक्ष्यमविद्याऽधर्मान्धकारः शत्रवश्च निवारणीयाः। विद्याधर्मसज्जनसुखानि प्रचारणीयानीति॥10॥ अत्र यथा शरीरस्थाः प्राणवायवः प्रियाणि साधयित्वा सर्वान् रक्षन्ति तथैव सभाध्यक्षादिभिः सर्वं राज्यं यथावत् संरक्ष्यमत एतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥ इति षडशीतितमं 86 सूक्तं द्वादशो 12 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—हे (सत्यशवसः) नित्यबलयुक्त सभाध्यक्ष आदि सज्जनो! जैसे तुम (महित्वना) अपने उत्तम यश से (गुह्यम्) गुप्त करने योग्य व्यवहार को (गूहत) ढांपो और (विश्वम्) समस्त (तमः) अविद्या रूपी अन्धकार को जो कि (अत्रिणम्) उत्तम सुख का विनाश करनेवाला है, उस को (वि यात) दूर पहुंचाओ तथा हम लोग (यत्) जो (ज्योतिः) विद्या के प्रकाश को (उश्मसि) चाहते हैं, उसको (कर्त्त) प्रकट करो॥10॥ भावार्थः—इस मन्त्र में (मरुतः, सत्यशवसः, महित्वना) इन तीनों पदों की अनुवृत्ति है। सभाध्यक्षादि को परम पुरुषार्थ से निरन्तर राज्य की रक्षा करनी तथा अविद्यारूपी अन्धकार और शत्रुजन दूर करने चाहिये तथा विद्या, धर्म और सज्जनों के सुखों का प्रचार करना चाहिये॥10॥ इस सूक्त में जैसे शरीर में ठहरनेहारे प्राण आदि पवन चाहे हुए सुखों को सिद्ध कर सबकी रक्षा करते हैं, वैसे ही सभाध्यक्षादिकों को चाहिये कि समस्त राज्य की यथावत् रक्षा करें। इस अर्थ के वर्णन से इस सूक्त में कहे हुए अर्थ की उस पिछले सूक्त के अर्थ के साथ एकता जाननी चाहिये॥ यह छियासीवां 86 सूक्त और बारहवां 12 वर्ग पूरा हुआ॥

अथास्य षडृचस्य सप्ताशीतितमस्य सूक्तस्य राहूगणपुत्रो गोतम ऋषिः। मरुतो देवताः। 1,2,5 विराड् जगती। 3 जगती। 6 निचृज्जगती छन्दः। निषादः स्वरः। 4 त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥ पुनस्ते सभाध्यक्षादयः कीदृशा इत्युपदिश्यते॥ अब सतासीवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में पूर्वोक्त सभाध्यक्ष कैसे होते हैं, यह उपदेश किया है॥ प्रत्व॑क्षसः॒ प्रत॑वसो विर॒प्शिनोऽना॑नता॒ अवि॑थुरा ऋजी॒षिणः॑। जुष्ट॑तमासो॒ नृत॑मासो अ॒ञ्जिभि॒र्व्या॑नज्रे॒ के चि॑दु॒स्राइ॑व॒ स्तृभिः॑॥1॥ प्रऽत्व॑क्षसः। प्रऽत॑वसः। वि॒ऽर॒प्शिनः॑। अना॑नताः। अवि॑थुराः। ऋ॒जी॒षिणः॑। जुष्ट॑ऽतमासः। नृऽत॑मासः। अ॒ञ्जिऽभिः॑। वि। आ॒न॒ज्रे॒। के। चि॒त्। उ॒स्राःऽइ॑व। स्तृऽभिः॑॥1॥ पदार्थः—(प्रत्वक्षसः) प्रकृष्टतया शत्रूणां छेत्तारः (प्रतवसः) प्रकृष्टानि तवांसि बलानि सैन्यानि येषान्ते (विरप्शिनः) सर्वसामग्र्या महान्तः (अनानताः) शत्रूणामभिमुखे खल्वनम्राः (अविथुराः) कम्पभयरहिताः। अत्र बाहुलकादौणादिकः कुरच् प्रत्ययः। (ऋजीषिणः) सर्वविद्यायुक्तः उत्कृष्टसेनाङ्गोपार्जकाः (जुष्टतमासः) राजधर्मिभिरतिशयेन सेविताः (नृतमासः) अतिशयेन नायकाः (अञ्जिभिः) व्यक्तैरक्षणविज्ञानादिभिः (वि) (आनज्रे) अजन्तु शत्रून् क्षिपन्तु। व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (के) (चित्) अपि (उस्राइव) यथा किरणास्तथा (स्तृभिः) शत्रुबलाच्छादकैर्गुणैः। स्तृञ् आच्छादन इत्यस्मात् क्विप् वा च्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति तुगभावः॥1॥ अन्वयः—हे सभाध्यक्षादयो! भवत्सेनासु ये केचित्स्तृभिरञ्चिभिः सह वर्त्तमाना उस्रा इव प्रत्वक्षसः प्रतवसो विरप्शिनोऽनानता अविथुरा ऋजीषिणो जुष्टतमासो नृतमासश्च शत्रुबलानि व्यानज्रे व्यजन्तु प्रक्षिपन्तु ते भवद्भिर्नित्यं पालनीयाः॥1॥ भावार्थः—यथा किरणास्तथा प्रतापवन्तो मनुष्या येषां समीपे सन्ति, कुतस्तेषां पराजयः। अतः सभाध्यक्षादिभिरेतल्लक्षणाः पुरुषाः सुपरीक्ष्य सुशिक्ष्य सत्कृत्योत्साह्य रक्षणीयाः। नैवं विना केचिद्राज्यं कर्त्तुं शक्नुवन्तीति॥1॥ पदार्थः—हे सभाध्यक्ष आदि सज्जनो! आप लोगों को (के) (चित्) उन लोगों की प्रतिदिन रक्षा करनी चाहिये जो कि अपनी सेनाओं में (स्तृभिः) शत्रुओं को लञ्जित करने के गुणों से (अञ्जिभिः) प्रकट रक्षा और उत्तम ज्ञान आदि व्यवहारों के साथ वर्त्ताव रखते और (उस्रा इव) जैसे सूर्य की किरण जल को छिन्न-भिन्न करती हैं, वैसे (प्रत्वक्षसः) शत्रुओं को अच्छे प्रकार छिन्न-भिन्न करते हैं तथा (प्रतवसः) प्रबल जिनके सेनाजन (विरप्शिनः) समस्त पदार्थों के विज्ञान से महानुभाव (अनानताः) कभी शत्रुओं के सामने न दीन हुए और (अविथुराः) न कँपे हो (ऋजीषिणः) समस्त विद्याओं को जाने और उत्कर्षयुक्त सेना के अङ्गों को इकट्ठे करें (जुष्टतमासः) राजा लोगों ने जिनकी बार-बार चाहना करी हो (नृतमासः) सब कामों को यथायोग्य व्यवहार में अत्यन्त वर्त्तानेवाले हों (व्यानज्रे) शत्रुओं के बलों को अलग करें, उनका सत्कार किया करो॥1॥ भावार्थः—जैसे सूर्य की किरणें तीव्र प्रतापवाली हैं, वैसे प्रबल प्रतापवाले मनुष्य जिनके समीप है, क्योंकर उनकी हार हो। इससे सभाध्यक्ष आदिकों को उक्त लक्षणवाले पुरुष अच्छी शिक्षा, सत्कार और उत्साह देकर रखने चाहिये, विना ऐसे किये कोई राज्य नहीं कर सकते हैं॥1॥ सभाध्यक्षस्य भृत्यादयः किं कुर्युरित्युपदिश्यते॥ सभाध्यक्ष के कामवाले मनुष्य क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ उ॒प॒ह्व॒रेषु॒ यदचि॑ध्वं य॒यिं वय॑इव मरुतः॒ केन॑ चित्प॒था। श्चोत॑न्ति॒ कोशा॒ उप॑ वो॒ रथे॒ष्वा घृ॒तमु॑क्षता॒ मधु॑वर्ण॒मर्च॑ते॥2॥ उ॒प॒ऽह्व॒रेषु॑। यत्। अचि॑ध्वम्। य॒यिम्। वयः॑ऽइव। म॒रु॒तः॒। केन॑। चि॒त्। प॒था। श्चोत॑न्ति। कोशाः॑। उप॑। वः॒। रथे॑षु। आ। घृ॒तम्। उ॒क्ष॒त॒। मधु॑ऽवर्णम्। अर्च॑ते॥2॥ पदार्थः—(उपह्वरेषु) उपस्थितेषु कुटिलेषु मार्गेषु (यत्) यम् (अचिध्वम्) संचिनुत (ययिम्) प्राप्तव्यं विजयम् (वयइव) यथा पक्षिणस्तथा (मरुतः) सभाद्यध्यक्षादयो मनुष्याः (केन) (चित्) अपि (पथा) मार्गेण (श्चोतन्ति) रक्षन्तु संचलन्तु (कोशाः) यथा मेघाः। कोश इति मेघनामसु पठितम्। (निघं॰1.10) (उप) (वः) युष्माकम् (रथेषु) विमानादियानेषु (आ) समन्तात् (घृतम्) उदकम् (उक्षत) सिञ्चत। अत्रान्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (मधुवर्णम्) यन्मधुरं च वर्णोपेतं च तत् (अर्चते) सत्कर्त्रे सभाद्यध्यक्षप्रियाय॥2॥ अन्वयः—हे मरुतो भृत्यादयो! यूयमुपह्वरेषु रथेषु स्थित्वा वय इव केनचित्पथा यद्यं ययिमचिध्वं संचिनुत तमर्चते दत्त ये वो युष्माकं रथाः कोशा इवाकाशे श्चोतन्ति तेषु मधुवर्णं घृतमुपोक्षत। अग्निवायुकलागृहसमीपे सिञ्चत॥2॥ भावार्थः—अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्यैर्विमानादियानानि रचयित्वा तत्राग्निवायुजलस्थानानि निर्माय तत्र तत्र तानि स्थापयित्वा कलाभिः संचाल्य वाष्पादीनि संनिरुद्ध्यैतान्युपरि नीत्वा पक्षिवन्मेघवच्चाकाशमार्गेण यथेष्टं स्थानं गत्वागत्य व्यवहारेण युद्धेन विजयं राज्यधनं वा प्राप्यैतैः परोपकारं कृत्वा निरभिमानिनो भूत्वा सर्वानन्दान् प्राप्नुयुरेते सर्वेभ्यः प्रापयितव्याश्च॥2॥ पदार्थः—हे (मरुतः) सभा आदि कामों में नियत किये हुए मनुष्यो! तुम (उपह्वरेषु) प्राप्त हुए टेढ़े-सूधे भूमि आकाशादि मार्गों में (रथेषु) विमान आदि रथों पर बैठ (वयइव) पक्षियों के समान (केनचित्) किसी (पथा) मार्ग से (यत्) जिस (ययिम्) प्राप्त होने योग्य विजय को (अचिध्वम्) सम्पादन करो, जाओ-आओ उसको (अर्चते) जिसका सत्कार करते और सभा आदि कामों के अधीश जिसको प्यारे हैं, उसके लिये देओ, जो (वः) तुमहारे रथ (कोशाः) मेघों के समान आकाश में (श्चोतन्ति) चलते हैं, उनमें (मधुवर्णम्) मधुर और निर्मल (घृतम्) जल को (उप+आ+उक्षत) अच्छे प्रकार उपसिक्त करो अर्थात् उन रथों की आग और पवन के कलघरों के समीप अच्छे प्रकार छिड़को॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को चाहिये कि विमान आदि रथ रचकर उनमें आग, पवन और जल के घरों को बनाकर, उनमें आग, पवन, जल धर कर कलों से उनको चलाकर उनकी भाप रोक रथों को ऊपर ले जायें, जैसे कि पखेरू वा मेघ जाते हैं, वैसे आकाश मार्ग से अभीष्ट स्थान को जा-आकर व्यवहार से धन और युद्ध सर्वथा जीत वा राज्यधन को प्राप्त होकर उन धन आदि पदार्थों से परोपकार कर निरभिमानी होकर सब प्रकार के आनन्द पावें और उन आनन्दों को सबके लिये पहुँचावें॥2॥ पुनस्ते किं कुर्युरित्युपदिश्यते॥ फिर वे क्या करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ प्रैषा॒मज्मे॑षु विथु॒रेव॑ रेज॒ते भूमि॒र्यामे॑षु॒ यद्ध॑ यु॒ञ्जते॑ शु॒भे। ते क्री॒ळयो॒ धुन॑यो॒ भ्राज॑दृष्टयः स्व॒यं म॑हि॒त्वं प॑नयन्त॒ धूत॑यः॥3॥ प्र। ए॒षा॒म्। अज्मे॑षु। वि॒थु॒राऽइ॑व। रे॒ज॒ते॒। भूमिः॑। यामे॑षु। यत्। ह॒। यु॒ञ्जते॑। शु॒भे। ते। क्री॒ळयः॑। धुन॑यः। भ्राज॑त्ऽऋष्टयः। स्व॒यम्। म॒हि॒ऽत्वम्। प॒न॒य॒न्त॒। धूत॑यः॥3॥ पदार्थः—(प्र) (एषाम्) सभाध्यक्षादीनां रथाऽश्वहस्तिभृत्यादिशब्दैः (अज्मेषु) सङ्ग्रामेषु। अज्म इति सङ्ग्रामनाम। (निघं॰2.17) (विथुरेव) शीतज्वरव्यथितोद्विग्ना कन्येव (रेजते) कम्पते (भूमिः) (यामेषु) यान्ति येषु मार्गेषु तेषु (यत्) ये (ह) खलु (युञ्जते) (शुभे) शुभ्यते यस्तस्मै शुभाय विजयाय। अत्र कर्मणि क्विप्। (ते) (क्रीळयः) क्रीडन्तः (धुनयः) शत्रून् कम्पयन्तः (भ्राजदृष्टयः) प्रदीप्तायुधाः (स्वयम्) (महित्वम्) महिमानम् यथास्यात्तथा (पनयन्त) पनं व्यवहारं कुर्वन्ति। अत्र बहुलं छन्दस्यमाङ्-योगेऽपीत्यडभावः। अत्र तत्करोति तदाचष्ट इति णिच्। (धूतयः) धूयन्ते युद्धक्रियासु ये ते॥3॥ अन्वयः—यद्ये क्रीडयो धुनयो भ्राजदृष्टयो धूतयो वीराः शुभेऽज्मेषु प्रयुञ्जते ते महित्वं यथा स्यात्तथा स्वयं ह पनयन्त। एषां यामेषु गच्छद्भिर्यानादिर्भिूमिर्विथुरेव रेजते॥3॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा शीघ्रं गच्छन्तो वायवो वृक्षतृणौषधिभूमिकणान् कम्पयन्ति, तथैव वीराणां सेनारथचक्रप्रहारैः पृथिवी शस्त्रप्रहारैर्भीरवश्च कम्पन्तो यथा च व्यापारवन्तो व्यवहारेण धनं प्राप्य महान्तो धनाढ्या भवन्ति, तथैव सभाद्यध्यक्षादयः शत्रुर्विजेयन स्वमहत्त्वं प्रख्यापयन्ति॥3॥ पदार्थः—(यत्) जो (क्रीळयः) अपने सत्य चालचलन को वर्त्तते हुए (धुनयः) शत्रुओं को कंपावें (भ्राजदृष्टयः) ऐसे तीव्र शस्त्रोंवाले (धूतयः) जो कि युद्ध की क्रियाओं में विचरके वे वीर (शुभे) श्रेष्ठ विजय के लिये (अज्मेषु) संग्रामों में (प्र+युञ्जते) प्रयुक्त अर्थात् प्रेरणा को प्राप्त होते हैं (ते) वे (महित्वम्) बड़प्पन जैसे हो वैसे (स्वयम्) आप (ह) ही (पनयन्त) व्यवहारों को करते हैं (एषाम्) इनके (यामेषु) उन मार्गों में कि जिनमें मनुष्य आदि प्राणी जाते हैं, चलते हुए रथों से (भूमिः) धरती (विथुरा+इव+रेजते) ऐसे कम्पती है कि मानो शीतज्वर से पीड़ित लड़की कंपे॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे शीघ्र चलनेवाले पवन वृक्ष, तृण, ओषधि और धूलि को कंपाते हैं, वैसे वीरों की सेना के रथों के पहियों के प्रहार से धरती और उनके शस्त्रों की चोटों से डरनेहारे मनुष्य कंपा करते हैं और जैसे व्यापारवाले मनुष्य व्यवहार से धन को पाकर बड़े धनाढ्य होते हैं, वैसे ही सभा आदि कामों के अधीश शत्रुओं को जीतने से अपना बड़प्पन और प्रतिष्ठा विख्यात करते हैं॥3॥ पुनः सेनायुक्तः सेनापतिर्वीरः कीदृशो भवतीत्युपदिश्यते॥ फिर सेनायुक्त सेना का अधीश वीर कैसा होता है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ स हि स्व॒सृत्पृष॑दश्वो॒ युवा॑ ग॒णो॒या ई॑शा॒नस्तवि॑षीभि॒रावृ॑तः। असि॑ स॒त्य ऋ॑ण॒यावाने॑द्यो॒ऽस्या धि॒यः प्रा॑वि॒ताथा॒ वृषा॑ ग॒णः॥4॥ सः। हि। स्व॒ऽसृत्। पृष॑त्ऽअश्वः। युवा॑। ग॒णः। अ॒या। ई॒शा॒नः॒। तवि॑षीभिः। आऽवृ॑तः। असि॑। स॒त्यः। ऋ॒ण॒ऽयावा॑। अने॑द्यः। अ॒स्याः। धि॒यः। प्र॒ऽअ॒वि॒ता। अथ॑। वृषा॑। ग॒णः॥4॥ पदार्थः—(सः) (हि) यतः (स्वसृत्) यः स्वान् सरति प्राप्नोति सः (पृषदश्वः) पृषदिव वेगवन्तस्तुरङ्गा यस्य सः (युवा) प्राप्तयुवास्थः (गणः) गणनीयः (अया) एति जानाति सर्वा विद्या यया प्रज्ञया तया। अत्र सुपां सुलुगित्याकारादेशः। (ईशानः) पूर्णसामर्थ्ययुक्तः (तविषीभिः) पूर्णबलयुक्ताभिः सेनाभिः (आवृतः) युक्तः (असि) (सत्यः) सत्सु साधुः (ऋणयावा) य ऋणं याति प्राप्नोति सः (अनेद्यः) प्रशस्यः। अनेद्य इति प्रशस्यनामसु पठितम्। (निघं॰3.8) (अस्याः) (धियः) प्रज्ञायाः कर्मणो वा (प्राविता) रक्षणादिकर्त्ता (अथ) आनन्तर्ये (वृषा) सुखवर्षणसमर्थः (गणः) मरुतां समूह इव॥4॥ अन्वयः—हे सेनापते! त्वं ह्यया वृषा गणः स्वसृत्पृषदश्वो युवा गण ईशानः सत्य ऋणयावाऽनेद्योऽस्या धियः प्राविता समस्तविषीभिरावृतोऽस्याथेत्यनन्तरमस्माभिः सत्कर्त्तव्योऽप्यसि॥4॥ भावार्थः—ब्रह्मचर्येण विद्यया पूर्णशरीरात्मबलः स्वसेनया रक्षितः सेनापतिः स्वसेनां सततं रक्ष्य शत्रून् विजित्य प्रजां पालयेत्॥4॥ पदार्थः—हे सेनापते! (सः) (हि) वही तू (अया) जिससे सब विद्या जानी जाती हैं, उस बुद्धि से युक्त (वृषाः) शीतल मन्द सुगन्धिपन से सुखरूपी वर्षा करने में समर्थ (गणः) पवनों के समान वेग बलयुक्त (स्वसृत्) अपने लोगों को प्राप्त होनेवाला (पृषदश्वः) वा मेघ के वेग के समान जिसके घोड़े हैं (युवा) तथा जवानी को पहुंचा हुआ (गणः) अच्छे सज्जनों में गिनती करने के योग्य (ईशानः) परिपूर्णसामर्थ्य युक्त (सत्यः) सज्जनों में सीधे स्वभाव वा (ऋणयावा) दूसरों का ऋण चुकानेवाला (अनेद्यः) प्रशंसनीय और (अस्याः) इस (धियः) बुद्धि वा कर्म की (प्राविता) रक्षा करनेहारा (तविषीभिः) परिपूर्णबलयुक्त सेनाओं से (आवृतः) युक्त (असि) है (अथ) इसके अनन्तर हम लोगों के सत्कार करने योग्य भी है॥4॥ भावार्थः—ब्रह्मचर्य और विद्या से परिपूर्ण शारीरिक और आत्मिक बलयुक्त अपनी सेना से रक्षा को प्राप्त सेनापति सेना की निरन्तर रक्षा करके शत्रुओं को जीतके प्रजा का पालन करे॥4॥ पुनस्ते किं कुर्युरित्युपदिश्यते॥ फिर वे क्या करते हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ पि॒तुः प्र॒त्नस्य॒ जन्म॑ना वदामसि॒ सोम॑स्य जि॒ह्वा प्र जि॑गाति॒ चक्ष॑सा। यदी॒मिन्द्रं॒ शम्यृक्वा॑ण॒ आश॒तादिन्नामानि य॒ज्ञिया॑नि दधिरे॥5॥ पि॒तुः। प्र॒त्नस्य॑। जन्म॑ना। व॒दा॒म॒सि॒। सोम॑स्य। जि॒ह्वा। प्र। जि॒गा॒ति॒। चक्ष॑सा। यत्। ई॒म्। इन्द्र॑म्। शमि॑। ऋक्वा॑णः। आश॑त। आत्। इत्। नामा॑नि। य॒ज्ञिया॑नि। द॒धि॒रे॒॥5॥ पदार्थः—(पितुः) पालकस्य जनकस्य (प्रत्नस्य) पुरातनस्याऽनादेः (जन्मना) शरीरेण संयुक्ताः (वदामसि) वदामः (सोमस्य) उत्पन्नस्य जगतः (जिह्वा) रसनेन्द्रियं वाग्वा (प्र) (जिगाति) प्रशंसति (चक्षसा) दर्शनेन वा (यत्) यानि (ईम्) प्राप्तव्यम् (इन्द्रम्) विद्युदाख्यमग्निम् (शमि) कर्मणि। शमीति कर्मनामसु पठितम्। (निघं॰2.1) (ऋक्वाणः) प्रशस्ता ऋचः स्तुतयो विद्यन्ते येषां ते (आशत) प्राप्नुत (आत्) अनन्तरे (इत्) एव (नामानि) जलानि (यज्ञियानि) शिल्पादियज्ञार्हाणि (दधिरे) धरन्तु॥5॥ अन्वयः—ऋक्वाणो वयं प्रत्नस्य पितुर्जगदीश्वरस्य व्यवस्थया कर्माऽनुसारतः प्राप्तेन मनुष्यदेहधारणाख्येन जन्मना सोमस्य चक्षसा यानि यज्ञियानि नामानि च प्रवदामसि भवतः प्रत्युपदिशमो वा यदीमिन्द्रं जिह्वा प्रजिगाति तानि यूयमाऽऽशत प्राप्नुतादिद् दधिर एवं धरन्तु॥5॥ भावार्थः—मनुष्यैरिमं देहमाश्रित्य पितृभावेन परमेश्वरस्याज्ञापालनरूपप्रार्थनां कृत्वोपास्योपदिश्य जगत्पदार्थगुणविज्ञानोपकारान् सङ्गृह्य जन्मसाफल्यं कार्य्यम्॥5॥ पदार्थः—(ऋक्वाणः) प्रशंसित स्तुतियों वाले हम लोग (प्रत्नस्य) पुरातन अनादि (पितुः) पालनेहारे जगदीश्वर की व्यवस्था से अपने कर्म्म के अनुसार पाये हुए मनुष्य देह के (जन्मना) जन्म से (सोमस्य) प्रकट संसार के (चक्षसा) दर्शन से जिन (यज्ञियानि) शिल्प आदि कर्मों के योग्य (नामानि) जलों को (वदामसि) तुम्हारे प्रति उपदेश करें वा (यत्) जो (ईम्) प्राप्त होने योग्य (इन्द्रम्) बिजुली अग्नि के तेज को (शमि) कर्म के निमित्त (जिह्वा) जीभ वा वाणी (प्रजिगाति) स्तुति करती है, उन सब की तुम लोग (आशत) प्राप्त होओ और (आत+इत्) उसी समय इनको (दधिरे) सब लोग धारण करो॥5॥ भावार्थः—मनुष्यों को चाहिये कि इस मनुष्य देह को पाकर पितृभाव से परमेश्वर की आज्ञापालन रूप प्रार्थना, उपासना और परमेश्वर का उपदेश, संसार के पदार्थ और उनके विशेष ज्ञान से उपकारों को लेकर अपने जन्म को सफल करें॥5॥ पुनस्ते किं कुर्युरित्युपदिश्यते॥ फिर वे क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ श्रि॒यसे॒ कं भा॒नुभिः॒ सं मि॑मिक्षिरे॒ ते र॒श्मिभि॒स्त ऋक्व॑भिः सुखा॒दयः॑। ते वाशी॑मन्त इ॒ष्मिणो॒ अभी॑रवो वि॒द्रे प्रि॒यस्य॒ मारु॑तस्य॒ धाम्नः॑॥6॥13॥ श्रि॒यसे॑। कम्। भा॒नुभिः॑। सम्। मि॒मि॒क्षि॒रे॒। ते। र॒श्मिभिः॑। ते। ऋक्व॑ऽभिः। सु॒ऽखा॒दयः॑। ते। वाशी॑ऽमन्तः। इ॒ष्मिणः॑। अभी॑रवः। वि॒द्रे। प्रि॒यस्य॑। मारु॑तस्य। धाम्नः॑॥6॥ पदार्थः—(श्रियसे) श्रयितुम् (कम्) सुखम् (भानुभिः) दिवसैः (सम्) सम्यक् (मिमिक्षिरे) मेढुमिच्छन्ति (ते) (रश्मिभिः) अग्निकिरणैः (ते) (ऋक्वभिः) प्रशस्ता ऋचः स्तुतयो विद्यन्ते येषु कर्मसु तैः (सुखादयः) सुष्ठु खादयो भोजनादीनि येषां ते (ते) (वाशीमन्तः) प्रशस्ता वाशी वाग् विद्यते येषां ते (इष्मिणः) प्रशस्तविज्ञानगतिमन्तः (अभीरवः) भयरहिताः (विद्रे) विन्दन्ति लभन्ते। छन्दसि वा द्वे भवतः। (अष्टा॰वा॰6.1.8) अनेन वार्त्तिकेन द्विर्वचनाभावः। (प्रियस्य) प्रसन्नकारकस्य (मारुतस्य) कलायन्त्रवायोः प्राणस्य वा (धाम्नः) गृहात्॥6॥ अन्वयः—ये भानुभि कं श्रियसे प्रियस्य मारुतस्य धाम्नो विद्यां जलं वा संमिमिक्षिरे ते शिल्पविद्याविदो भवन्ति। ये रश्मिभिरग्निकिरणैः कं श्रियसे कलाभिर्यानानि चालयन्ति ते शीघ्रं स्थानान्तरप्राप्तिं विद्रे लभन्ते। ऋक्वभिर्ये कं श्रियसे सुखादयो भवन्ति, ते आरोग्यं लभन्ते। ये वाशीमन्त इष्मिणोऽभीरवः प्रियस्य मारुतस्य धाम्नो युद्धे प्रवर्त्तन्ते ते विद्रे विजयं लभन्ते॥6॥ भावार्थः—ये मनुष्याः प्रतिदिनं सृष्टिपदार्थविद्यां लब्ध्वाऽनेकोपकारान् गृहीत्वा तद्विद्याध्ययनाऽध्यापनैर्वाग्मिनो भूत्वा शत्रून् शुद्धाचारे वर्त्तन्ते त एव सर्वदा सुखिनो भवन्तीति॥6॥ अत्र राजप्रजापुरुषाणां कर्त्तव्यानि कर्माण्युक्तान्यत एतत्सूक्तार्थेन सह पूर्वसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥ इति सप्ताशीतितमं 87 सूक्तं त्रयोदशो 13 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—जो (भानुभिः) दिन-दिन से (कम्) सुख को (श्रियसे) सेवन करने के लिये (ते) वे (प्रियस्य) प्रेम उत्पन्न करानेवाले (मारुतस्य) कला के पवन वा प्राणवायु के (धाम्नः) घर से विद्या वा जल को (सम्+मिमिक्षिरे) अच्छे प्रकार छिड़कना चाहते हैं (ते) वे शिल्पविद्या के जाननेवाले होते हैं तथा जो (रश्मिभिः) अग्निकिरणों से सुख के सेवन के लिये कलाओं से यानों को चलाते हैं, वे शीघ्र एक स्थान से दूसरे स्थान का (विद्रे) लाभ पाते हैं (ऋक्वभिः) जिनमें प्रशंसनीय स्तुति विद्यमान है, उनसे जो सुख के सेवन करने के लिये (सुखादयः) अच्छे-अच्छे पदार्थों के भोजन करनेवाले होते हैं (ते) वे आरोग्यपन को पाते हैं (वाशीमन्तः) प्रशंसित जिनकी वाणी वा (इष्मिणः) विशेष ज्ञान है वे (अभीरवः) निर्भय पुरुष प्रेम उत्पन्न करानेहारे प्राणवायु वा कलाओं के पवन के घर से युद्ध में प्रवृत्त होते हैं, वे विजय को प्राप्त होते हैं॥6॥ भावार्थः—जो मनुष्य प्रतिदिन सृष्टिपदार्थविद्या को पा अनेक उपकारों को ग्रहण कर उस विद्या के पढ़ने और पढ़ाने से वाचाल अर्थात् बातचीत में कुशल हो और शत्रुओं को जीतकर अच्छे आचरण में वर्त्तमान होते हैं, वे ही सब कभी सुखी होते हैं॥6॥ इस सूक्त में राजा प्रजाओं के कर्त्तव्य कहे हैं, इस कारण इस सूक्त के अर्थ से पिछले सूक्त के अर्थ की संगति है, यह जानना चाहिये॥ यह सत्तासी 87 वां सूक्त और तेरह 13वाँ वर्ग भी पूरा हुआ॥

अथास्य षडृचस्याष्टाशीतितमस्य सूक्तस्य राहूगणपुत्रो गोतम ऋषिः। मरुतो देवताः। 1 पङ्क्तिः। 2 भुरिक्पङ्क्तिः। 5 निचृत्पङ्क्तिश्छन्दः। पञ्चमः स्वरः। 3 निचृत् त्रिष्टुप्। 4 विराट् त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः। 6 निचृद् बृहती छन्दः। मध्यमः स्वरः॥ पुनः पूर्वोक्तसभाध्यक्षादिपुरुषाणां कृत्यमुपदिश्यते॥ अब छः मन्त्रोंवाले अठासीवें सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र से फिर भी सभाध्यक्ष आदि का उपदेश किया है॥ आ वि॒द्युन्म॑द्भिर्मरुतः स्व॒र्कै रथे॑भिर्यात ऋष्टि॒मद्भि॒रश्व॑पर्णैः। आ वर्षि॑ष्ठया न इ॒षा वयो॒ न प॑प्तता सुमायाः॥1॥ आ। वि॒द्युन्म॑त्ऽभिः। म॒रु॒तः॒। सु॒ऽअ॒र्कैः। रथे॑भिः। या॒त॒। ऋ॒ष्टि॒मत्ऽभिः॑। अश्व॑ऽपर्णैः। आ। वर्षि॑ष्ठया। नः॒। इ॒षा। वयः॑। न। प॒प्त॒त॒। सु॒ऽमा॒याः॒॥1॥ पदार्थः—(आ) अभितः (विद्युन्मद्भिः) तारयन्त्रादिसंबद्धा विद्युतो विद्यन्ते येषु तैः (मरुतः) सभाध्यक्षप्रजा मनुष्याः (स्वर्कैः) शोभना अर्का मन्त्रा विचारा वा देवा विद्वांसो येषु तैः। (रथेभिः) विमानादिभिर्यानैः (यात) गच्छत (ऋष्टिमद्भिः) कलाभ्रामणार्थयष्टिशस्त्रास्त्रादियुक्तैः (अश्वपर्णैः) अग्न्यादीनामश्वानां पतनैः सह वर्त्तमानैः (आ) समन्तात् (वर्षिष्ठया) अतिशयेन वृद्धया (नः) अस्माकम् (इषा) उत्तमान्नादिसमूहेन (वयः) पक्षिणः (न) इव (पप्तत) उत्पतत (सुमायाः) शोभना माया प्रज्ञा येषान्ते॥1॥ अन्वयः—हे सुमाया मरुतः सभाध्यक्षप्रजापुरुषा! यूयं नोऽस्माकं वर्षिष्ठयेषा पूर्णैः स्वर्कैर्ऋष्टिमद्भिरश्वपर्णै-र्विद्युन्मद्भी रथेभिर्वयो न पप्ततापप्तत यातायात॥1॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा पक्षिण उपर्यधः सङ्गत्याऽभीष्टं देशान्तरं सुखेन गच्छन्त्यागच्छन्ति तथैव सुसाधितैस्तडित्तारयन्त्रैर्विमानादिभिर्यानैरुपर्यधः समागमनेनाभीष्टान् समाचरान् वा देशान् सुखेन गत्वागत्य स्वकार्य्याणि संसाध्य सततं सुखयितव्यम्॥1॥ पदार्थः—हे (सुमायाः) उत्तम बुद्धिवाले (मरुतः) सभाध्यक्ष वा प्रजा पुरुषो! तुम (नः) हमारे (वर्षिष्ठया) अत्यन्त बुढ़ापे से (इषा) उत्तम अन्न आदि पदार्थों (स्वर्कैः) श्रेष्ठ विचारवाले विद्वानों (ऋष्टिमद्भिः) तारविद्या में चलाने अर्थ डण्डे और शस्त्रास्त्र (अश्वपर्णैः) अग्नि आदि पदार्थरूपी घोड़ों के गमन के साथ वर्तमान (विद्युन्मद्भिः) जिनमें कि तार बिजली हैं, उन (रथेभिः) विमान आदि रथों से (वयः) पक्षियों के (न) समान (पप्तत) उड़ जाओ (आ) उड़ आओ (यात) जाओ (आ) आओ॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जैसे पखेरू ऊपर-नीचे आके चाहे हुए एक स्थान से दूसरे स्थान को सुख से जाते हैं, वैसे अच्छे प्रकार सिद्ध किये हुए तारविद्या प्रयोग से चलाये हुए विमान आदि यानों से आकाश और भूमि वा जल में अच्छे प्रकार जा-आके अभीष्ट देशों को सुख से जा-आके अपने कार्य्यों को सिद्ध करके निरन्तर सुख को प्राप्त हों॥1॥ तैस्ते किं प्राप्नुवन्तीत्युपदिश्यते॥ उक्त कामों से वे क्या पाते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ ते॑ऽरु॒णेभि॒र्वर॒मा पि॒शङ्गैः॑ शु॒भे कं या॑न्ति रथ॒तूर्भि॒रश्वैः॑। रु॒क्मो न चि॒त्रः स्वधि॑तीवान् प॒व्या रथ॑स्य जङ्घनन्त॒ भूम॑॥2॥ ते। अ॒रु॒णेभिः॑। वर॑म्। आ। पि॒शङ्गैः॑। शु॒भे। कम्। या॒न्ति॒। र॒थ॒तूःऽभिः॑। अश्वैः॑। रु॒क्मः। न। चि॒त्रः। स्वधि॑तिऽवान्। प॒व्या। रथ॑स्य। ज॒ङ्घ॒नन्त॒। भूम॑॥2॥ पदार्थः—(ते) शिल्पविद्याविचक्षणाः (अरुणेभिः) आरक्तवर्णैरग्निप्रयोगजैः (वरम्) श्रेष्ठम् (आ) आभिमुख्ये (पिशङ्गैः) अग्निजलसंयोगजैर्वाष्पैः पीतैः (शुभे) श्रेष्ठाय व्यवहाराय (कम्) सुखम् (यान्ति) गच्छन्ति (रथतूर्भिः) ये रथान् विमानादियानानि तूर्वन्ति शीघ्रं गमयन्ति तैः (अश्वैः) आशुगमनहेतुभिरग्नि-जलकलागृहरूपैरश्वैः (रुक्मः) देदीप्यमानः (न) इव (चित्रः) शौर्यादिगुणैरद्भुतः (स्वधितीवान्) स्वधितिः प्रशस्तो वज्रो विद्यते यस्य (पव्या) वज्रतुल्यया चक्रधारया (रथस्य) विमानादियानसमूहस्य (जङ्घनन्त) अत्यन्तं घ्नन्ति। लडर्थे लङ्। छन्दस्युभयथेति आर्द्धधातुसंज्ञयाऽकारयकारयोर्लोपः अडभावश्च। (भूम) भवेम। अत्र लुङ्यडभावश्च॥2॥ अन्वयः—यथा शिल्पविदो विद्वांसः शुभे अरुणेभिः पिशङ्गै रथतूर्भिरश्वै रथस्य पव्या स्वधितीवान् रुक्मश्चित्रो नेव जङ्घनन्त ते वरं कमायान्ति प्राप्नुवन्ति तथा वयमपि भूम॥2॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा शूरवीरः सुशस्त्रवान् पुरुषो वेगेन गत्वागत्य शत्रून् हन्ति, तथैव मनुष्या वेगवत्सु यानेषु स्थित्वा देशदेशान्तरं गत्वा शत्रून् विजयन्ते॥2॥ पदार्थः—जैसे कारीगरी को जाननेहारे विद्वान् लोग (शुभे) उत्तम व्यवहार के लिये (अरुणेभिः) अच्छे प्रकार अग्नि के ताप से लाल (पिशङ्गैः) वा अग्नि और जल के संयोग की उठी हुई भाफों से कुछेक श्वेत (रथतूर्भिः) जो कि विमान आदि रथों को चलानेवाले अर्थात् अति शीघ्र उनको पहुंचाने के कारण आग और पानी की कलों के घररूपी (अश्वैः) घोड़े हैं, उनके साथ (रथस्य) विमान आदि रथ की (पव्या) वज्र के तुल्य पहियों की धार से (स्वधितीवान्) प्रशंसित वज्र से अन्तरिक्ष वायु को काटने (रुक्मः) और उत्तेजना रखनेवाले (चित्रः) शूरता, धीरता, बुद्धिमता आदि गुणों से अद्भुत मनुष्य के (न) समान मार्ग को (जङ्घनन्त) हनन करते और देश-देशान्तर को जाते-आते हैं (ते) वे (वरम्) उत्तम (कम्) सुख को (आयान्ति) चारों ओर से प्राप्त होते हैं, वैसे हम भी (भूम) इसको करके आनन्दित होवें॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे शूरवीर अच्छे शस्त्र रखनेवाला पुरुष वेग से जाकर शत्रुओं को मारता है, वैसे मनुष्य वेगवाले रथों पर बैठ देश-देशान्तर को जा-आ के शत्रुओं को जीतते हैं॥2॥ अथ सभाध्यक्षाद्युपदेशमाह॥ अब सभाध्यक्षादिकों को उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ श्रि॒ये कं वो॒ अधि॑ त॒नूषु॒ वाशी॑र्मे॒धा वना॒ न कृ॑णवन्त ऊ॒र्ध्वा। यु॒ष्मभ्यं॒ कं म॑रुतः सुजातास्तुविद्यु॒म्नासो॑ धनयन्ते॒ अद्रि॑म्॥3॥ श्रि॒ये। कम्। वः॒। अधि॑। त॒नूषु॑। वाशीः॑। मे॒धा। वना॑। न। कृ॒ण॒व॒न्ते॒। ऊ॒र्ध्वा। यु॒ष्मभ्य॑म्। कम्। म॒रु॒तः॒। सु॒ऽजा॒ताः॒। तु॒वि॒ऽद्यु॒म्नासः॑। ध॒न॒य॒न्ते॒। अद्रि॑म्॥3॥ पदार्थः—(श्रिये) विद्याराज्यशोभाप्राप्तये (कम्) सुखम् (वः) युष्माकम् (अधि) आधेयत्वे (तनूषु) शरीरेषु (वाशीः) वेदविद्यायुक्ता वाणीः (मेधा) पवित्रकारिका प्रज्ञा। केचिद् भ्र्रान्ताः ‘मेधा’ इत्यत्र ‘मेध्या’ इति पदमाश्रित्याद्युदात्तेन मेध्यपदार्थायै तत्पदमिच्छन्ति। तच्चासमञ्जसमेव। कुतः? ‘मेधा’ इत्यन्तोदात्तस्य दर्शनात्। भट्टमोक्षमूलरोऽपि ‘मेधा’ इति सविसर्गं पदं मत्वा बुद्धिपदार्थायैनत् पदं विवृणोति तच्चाप्यसमञ्जसमेव। कुतः? ‘मेधा’ इति निर्विसर्जनीयस्य पदस्य जागरूकत्वात्। (वना) वनानि (न) इव (कृणवन्ते) कुर्वन्ति। व्यत्ययेनात्रात्मनेपदम्। (ऊर्ध्वा) उत्कृष्टसुखप्रापिकाः (युष्मभ्यम्) (कम्) कल्याणम् (मरुतः) (सुजाताः) शोभनेषु विद्यादिगुणेषु प्रसिद्धाः (तुविद्युम्नासः) तुवीनि बहूनि द्युम्नानि विद्याप्रकाशनानि येषान्ते (धनयन्ते) धनं कुर्वन्ति (अद्रिम्) पर्वतमिव॥3॥ अन्वयः—हे मरुतो! ये वस्तनूषूर्ध्वा वाशीर्मेधा वना नोच्छ्रितवनवृक्षसमूहानि वाधिकृणवन्ते तदाचरणायाधिकारं ददति। हे सुजातास्तुविद्युम्नासो महान्तो! युष्मभ्यं कं यथा स्यात् तथाद्रिं धनयन्ते पर्वतसदृशं महान्तं धनं कुर्वन्ति ते युष्माभिः सदा सेवनीयाः॥3॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा मेघेन कूपोदकेन वा सिक्ताः वनान्युपवनानि वा निजफलैः प्राणिनः सुखयन्ति, तथैव विद्वांसो विद्यासुशिक्षा जनयित्वा निजपरिश्रमफलेन सर्वान् मनुष्यान् सुखयन्तीति॥3॥ पदार्थः—हे (मरुतः) सभाध्यक्षादि सज्जनो! जो (वः) तुम्हारे (तनूषु) शरीरों में (श्रिये) लक्ष्मी के लिये (कम्) सुख (ऊर्ध्वा) अच्छे सुख को प्राप्त करनेवाली (वाशीः) वेदवाणी (मेधा) शुद्ध बुद्धियों को (वना) ऊंचे-ऊंचे बनैले पेड़ों के (न) समान (अधि कृणवन्ते) अधिकृत करते हैं अर्थात् उनके आचरण के लिये अधिकार देते हैं। हे (सुजाताः) विद्यादि श्रेष्ठ गुणों में प्रसिद्ध उक्त सज्जनो! जो (तुविद्युम्नासः) बहुत विद्या प्रकाशों वाले महात्मा जन (युष्मभ्यम्) तुम लोगों के लिये (कम्) अत्यन्त सुख जैसे हो वैसे (अद्रिम्) पर्वत के समान (धनयन्ते) बहुत धन प्रकाशित कराते हैं, वे तुम लोगों को सदा सेवने योग्य हैं॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे मेघ वा कूप जल से सिंचे हुए वन और उपवन, बाग-बगीचे अपने फलों से प्राणियों को सुखी करते हैं, वैसे विद्वान् लोग विद्या और अच्छी शिक्षा करके अपने परिश्रम के फल से सब मनुष्यों को सुखसंयुक्त करते हैं॥3॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर भी उक्त विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ अहा॑नि॒ गृध्राः॒ पर्या व॒ आगु॑रि॒मां धियं॑ वार्का॒र्यां च॑ दे॒वीम्। ब्रह्म॑ कृ॒ण्वन्तो॒ गोत॑मासो अ॒र्कैरु॒र्ध्वं नु॑नुद्र उत्स॒धिं पिब॑ध्यै॥4॥ अहा॑नि। गृध्राः॑। परि॑। आ। वः॒। आ। अ॒गुः॒। इ॒माम्। धिय॑म्। वा॒र्का॒र्याम्। च॒। दे॒वीम्। ब्रह्म॑। कृ॒ण्वन्तः॑। गोत॑मासः। अ॒र्कैः। ऊ॒र्ध्वम्। नु॒नु॒द्रे॒। उ॒त्स॒ऽधिम्। पिब॑ध्यै॥4॥ पदार्थः—(अहानि) दिनानि (गृध्राः) अभिकाङ्क्षन्तः (परि) सर्वतः (आ) आभिमुख्ये (वः) युष्मभ्यम् (आ) समन्तात् (अगुः) प्राप्तवन्तः (इमाम्) (धियम्) धारणवतीं प्रज्ञाम् (वार्कार्य्याम्) जलमिव निर्मलां सम्पत्तव्याम् (च) अनुक्तसमुच्चये (देवीम्) देदीप्यमानाम् (ब्रह्म) धनमन्नं वेदाध्यापनम् (कृण्वन्तः) कुर्वन्तः (गोतमासः) अतिशयेन ज्ञानवन्तः (अर्कैः) वेदमन्त्रैः (ऊर्ध्वम्) उत्कृष्टभागम्। (नुनुद्रे) प्रेरते (उत्सधिम्) उत्साः कूपा धीयन्ते यस्मिन् भूमिभागे तम् (पिबध्यै) पातुम्॥4॥ अन्वयः—हे मनुष्या! ये गृध्रा गोतमासो ब्रह्म कृण्वन्तः सन्तोऽर्कैरहान्यूर्ध्वं पिबध्या उत्सधिमिवानुनुद्रे ते वो युष्मभ्यं वार्कार्यामिमां देवीं धियं धनं च पर्यागुस्ते सदा सेवनीयाः॥4॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे जिज्ञासवो मनुष्या! यथा पिपासानिवारणादिप्रयोजनायातिश्रमेण जलाशयं निर्माय स्वकार्याणि साध्नुवन्ति, तथैव भवन्तोऽतिपुरुषार्थेन विदुषां सङ्गेन विद्याभ्यासं यथावत् कृत्वा सर्वविद्याप्रकाशां प्रज्ञां प्राप्यां तदनुकूलां क्रियां साध्नुवन्तु॥4॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! जो (गृध्राः) सब प्रकार से अच्छी काङ्क्षा करनेवाले (गोतमासः) अत्यन्त ज्ञानवान् सज्जन (ब्रह्म) धन, अन्न और वेद का पठन (कृण्वन्तः) करते हुए (अर्कैः) वेदमन्त्रों से (अहानि) दिनोंदिन (ऊर्ध्वम्) उत्कर्षता से (पिबध्यै) पीने के लिये (उत्सधिम्) जिस भूमि में कुएं नियत किये जावें, उसके समान (आ+नुनुद्रे) सर्वथा उत्कर्ष होने के लिये (वः) तुम्हारे सामने होकर प्रेरणा करते हैं वे (वार्कार्य्याम्) जल के तुल्य निर्मल होने के योग्य (देवीम्) प्रकाश को प्राप्त होती हुई (इमाम्) इस (धियम्) धारणवती बुद्धि (च) और धन को (परि+आ+अगुः) सब कहीं से अच्छे प्रकार प्राप्त हो के अन्य को प्राप्त कराते हैं, वे सदा सेवा के योग्य हैं॥4॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे ज्ञान गौरव चाहनेवालो! जैसे मनुष्य पिआस के खोने आदि प्रयोजनों के लिये परिश्रम के साथ कुंआ, बावरी, तालाब आदि खुदा कर अपने-अपने कामों को सिद्ध करते हैं, वैसे आप लोग अत्यन्त पुरुषार्थ और विद्धानों के संग से विद्या के अभ्यास को जैसे चाहिये वैसा करके समस्त विद्या से प्रकाशित उत्तम बुद्धि को पाकर उसके अनुकूल क्रिया को सिद्ध करो॥4॥ विद्वान् मनुष्यान् प्रति किं किं शिक्षेतेत्युपदिश्यते॥ विद्वान् मनुष्यों को क्या-क्या शिक्षा दे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ ए॒तत्त्यन्न योज॑नमचेति स॒स्वर्ह॒ यन्म॑रुतो॒ गोत॑मो वः। पश्य॒न् हिर॑ण्यचक्रा॒नयो॑दंष्ट्रान् वि॒धाव॑तो व॒राहू॑न्॥5॥ ए॒तत्। त्यत्। न। योज॑नम्। अ॒चे॒ति॒। स॒स्वः। ह॒। यत्। म॒रु॒तः॒। गोत॑मः। वः॒। पश्य॑न्। हिर॑ण्यऽचक्रान्। अयः॑ऽदंष्ट्रान्। वि॒ऽधाव॑तः। वराहू॑न्॥5॥ पदार्थः—(एतत्) प्रत्यक्षम् (त्यत्) उक्तम् (न) इव (योजनम्) योक्तुमर्हं विमानादियानम् (अचेति) संज्ञाप्यते। चिती संज्ञाने। लुङि कर्मणि चिण्। (सस्वः) उपदिशति। स्वृधातोर्लङि प्रथमैकवचने बहुलं छन्दसीति शपःस्थाने श्लुः। हल्ङ्याब्भ्य इति तलोपः। (ह) खलु (यत्) (मरुतः) मनुष्याः (गोतमः) विद्वान् (वः) युष्मभ्यं जिज्ञासुभ्यः (पश्यन्) पर्य्यालोचमानः (हिरण्यचक्रान्) हिरण्यानि सुवर्णादीनि तेजांसि चक्रेषु येषां विमानादीनां तान् (अयोदंष्ट्रान्) अयोदंष्ट्रायो दंसनानि येषु तान् (विधावतः) विविधान् मार्गान् धावतः (वराहून्) वरमाह्वयतः शब्दायमानान्॥5॥ अन्वयः—हे मरुतो! यूयं यद्यो गोतमो न वो योजनं हिरण्यचक्रानयोदंष्ट्रान् वराहून् विधावतो रथानेतत्पश्यन् ह सस्वस्त्यदचेति तं विज्ञाय सत्कुरुत॥5॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः हे मनुष्या! यथा परावरज्ञो विद्वान् सुक्रियाः कृत्वाऽऽनन्दं भुङ्क्ते, तथैव भवन्तोऽपि विद्वत्सङ्गेन विद्यासिद्धाः क्रियाः कृत्वा सुखानि भुञ्जीरन्॥5॥ पदार्थः—हे (मरुतः) मनुष्यो! तुम (गोतमः) विद्वान् के (न) तुल्य (वः) विद्या का ज्ञान चाहनेवाले तुम लोगों को (यत्) जो (योजनम्) जोड़ने योग्य विमान आदि यान (हिरण्यचक्रान्) जिनके पहियों में सोने का काम वा अति चमक दमक हो, उन (अयोदंष्ट्रान्) बड़ी लोहे की कीलों वाले (वराहून्) अच्छे शब्दों को करने (विधावतः) न्यारे-न्यारे मार्गों को चलनेवाले विमान आदि रथों को (एतत्) प्रत्यक्ष (पश्यन्) देख के (ह) ही (सस्वः) उपदेश करता है, (त्यत्) वह उसका उपदेश किया हुआ तुम लोगों को (अचेति) चेत करता है, उसको तुम जान के मानो॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! जैसे अगली-पिछली बातों को जाननेवाला विद्वान् अच्छे-अच्छे काम कर आनन्द को भोगता है, वैसे आप लोग भी विद्या से सिद्ध हुए कामों को करके सुखों को भोगो॥5॥ पुनर्जिज्ञासुरेतेषु कथं वर्त्तित्वा किं गृह्णीयादित्युपदिश्यते॥ अब विद्या ज्ञान चाहनेवाला पुरुष उनमें कैसे वर्त्त कर, क्या ग्रहण करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ ए॒षा स्या वो॑ मरुतोऽनुभ॒र्त्री प्रति॑ ष्टोभति वा॒घतो॒ न वाणी॑। अस्तो॑भय॒द् वृथा॑सा॒मनु॑ स्व॒धां गभ॑स्त्योः॥6॥14॥ ए॒षा। स्या। वः॒। म॒रु॒तः॒। अ॒नु॒ऽभ॒र्त्री। प्रति॑। स्तो॒भ॒ति॒। वा॒घतः॑। न। वाणी॑। अस्तो॑भयत्। वृथा॑। आ॒सा॒म्। अनु॑। स्व॒धाम्। गभ॑स्त्योः॥6॥ पदार्थः—(एषा) उक्तविद्या (स्या) वक्ष्यमाणा (वः) युष्मान् (मरुतः) (अनुभर्त्री) अनुगतसुखधारणस्वभावा (प्रति) प्रतिबन्धेन (स्तोभति) बध्नाति (वाघतः) ऋत्विक् (न) इव (वाणी) (अस्तोभयत्) बन्धयति (वृथा) (आसाम्) विद्यया क्रियमाणानाम् (अनु) (स्वधाम्) स्वकीयां धारणशक्तिम् (गभस्त्योः) बाह्वोः॥6॥ अन्वयः—हे मरुतो! वो युष्माकं यैषा स्यानुभर्त्री वाणी वाघतो नेव विद्याः प्रतिष्टोभत्यासां गभस्त्योरनु स्वधां प्रतिष्टोभति वृथा व्यवहारानस्तोभयदेतां भवद्भ्यो वयं प्राप्नुयाम॥6॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा ऋत्विजो वाक्यज्ञकार्याणि प्रकाश्य दोषान् निवारयन्ति, तथैव विदुषां वाणी विद्याः प्रकाश्याऽविद्यां निवारयति। अत एव सर्वैर्विद्वत्सङ्गः सततं सेवनीयः॥6॥ अत्र मनुष्याणां विद्यासिद्धयेऽध्ययनाऽध्यापनरीतिः प्रकाशितैतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोद्धव्यम्॥ इति अष्टाशीतितमं 88 सूक्तं चतुर्दशो 14 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—हे (मरुतः) मनुष्यो! तुम लोगों की जो (एषा) यह कही हुई वा (स्या) कहने को है, वह (अनुभर्त्री) इष्ट सुख धारण करानेहारी (वाणी) वाक् (वाघतः) ऋतु-ऋतु में यज्ञ करने-करानेहारे विद्वान् के (न) समान विद्याओं का (प्रति+स्तोभति) प्रतिबन्ध करती अर्थात् प्रत्येक विद्याओं को स्थिर करती हुई (आसाम्) विद्या के कामों को (गभस्त्योः) भुजाओं में (अनु) (स्वधाम्) अपने साधारण सामर्थ्य के अनुकूल प्रतिबन्धन करती है तथा (वृथा) झूंठ व्यवहारों को (अस्तोभयत्) रोक देती है, इस वाणी को आप लोगों से हम सुनें॥6॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे ऋतु-ऋतु में यज्ञ करानेवाले की वाणी यज्ञ कामों का प्रकाश कर दोषों को निवृत्त करती है, वैसे ही विद्वानों की वाणी विद्याओं का प्रकाश कर अविद्या को निवृत्त करती है, इसीसे सब मनुष्यों को विद्वानों के संग का निरन्तर सेवन करना चाहिये॥6॥ इस सूक्त में मनुष्यों को विद्यासिद्धि के लिये पढ़ने-पढ़ाने की रीति प्रकाशित की है, इस कारण इसके अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति है, यह जानना चाहिये॥ यह अठासीवाँ 88 सूक्त और चौदहवाँ 14 वर्ग पूरा हुआ॥

अथास्यैकोननवतितमस्य दशर्चस्य सूक्तस्य राहूगणपुत्रो गोतम ऋषिः। विश्वे देवा देवताः। 1,5 निचृज्जगती। 2,3,7 जगती छन्दः। निषादः स्वरः। 4 भुरिक् त्रिष्टुप्। 8 विराट् त्रिष्टुप्। 9,10 त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः। 6 स्वराड् बृहती छन्दः। मध्यमः स्वरः॥ सर्वे विद्वांसः कीदृशा भवेयुर्जगज्जनैः सह कथं वर्त्तेरंश्चेत्युपदिश्यते॥ अब नवासीवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र से सब विद्वान् लोग कैसे हों और संसारी मनुष्यों के साथ कैसे अपना वर्त्ताव करें, यह उपदेश किया है॥ आ नो॑ भ॒द्राः क्रत॑वो यन्तु वि॒श्वतोऽद॑ब्धासो॒ अप॑रीतास उ॒द्भिदः॑। दे॒वा नो॒ यथा॒ सद॒मिद् वृ॒धे अस॒न्नप्रा॑युवो रक्षि॒तारो॑ दि॒वेदि॑वे॥1॥ आ। नः॒। भ॒द्राः। क्रत॑वः। य॒न्तु॒। वि॒श्वतः॑। अद॑ब्धासः। अप॑रिऽइतासः। उ॒त्ऽभिदः॑। दे॒वाः। नः॒। यथा॑। सद॑म्। इत्। वृ॒धे। अस॑न्। अप्र॑ऽआयुवः। र॒क्षि॒तारः॑। दि॒वेऽदि॑वे॥1॥ पदार्थः—(आ) समन्तात् (नः) अस्मान् (भद्राः) कल्याणकारकाः (क्रतवः) प्रशस्तक्रियावन्तः शिल्पयज्ञधियो वा (यन्तु) प्राप्नुवन्तु (विश्वतः) सर्वाभ्यो दिग्भ्यः (अदब्धासः) अहिंसनीयाः (अपरीतासः) अवर्जनीयाः (उद्भिदः) उत्कृष्टतया दुःखविदारकाः (देवाः) दिव्यगुणाः (नः) अस्माकम् (यथा) येन प्रकारेण (सदम्) विज्ञानं गृहं वा (इत्) एव (वृधे) सुखवर्द्धनाय (असन्) सन्तु। लेट्प्रयोगः। (अप्रायुवः) न विद्यते प्रगतः प्रणष्ट आयुर्बोधो येषान्ते। जसादिषु छन्दसि वा वचनमिति गुणविकल्पात् इयङुवङ्प्रकरणे तन्वादीनां छन्दसि बहुलमुपसङ्ख्यानम् (अष्टा॰वा॰6.4.77) इति वार्तिकेनोवङादेशः। (रक्षितारः) (दिवेदिवे) प्रतिदिनम्॥1॥ अन्वयः—यथा ये विश्वतो भद्राः क्रतवोऽदब्धासोऽपरीतास उद्भिदोऽप्रायुवो देवाश्च नः सदमायन्तु, तथैते दिवे नोऽस्माकं वृधे रक्षितारोऽसन् सन्तु॥1॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा श्रेष्ठं सर्वर्तुकं गृहं सर्वाणि सुखानि प्रापयति, तथैव विद्वांसो विद्याः शिल्पयज्ञाश्च सर्वसुखकारकाः सन्तीति वेदितव्यम्॥1॥ पदार्थः—(यथा) जैसे जो (विश्वतः) सब ओर से (भद्राः) सुख करने और (क्रतवः) अच्छी क्रिया वा शिल्पयज्ञ में बुद्धि रखनेवाले (अदब्धासः) अहिंसक (अपरीतासः) न त्याग के योग्य (उद्भिदः) अपने उत्कर्ष से दुःखों का विनाश करनेवाले (अप्रायुवः) जिनकी उमर का वृथा नाश होना प्रतीत न हो (देवाः) ऐसे दिव्य गुणवाले विद्वान् लोग जैसे (नः) हम लोगों को (सदम्) विज्ञान व घर को (आ+यन्तु) अच्छे प्रकार पहुंचावें, वैसे (दिवेदिवे) प्रतिदिन (नः) हमारे (वृधे) सुख के बढ़ाने के लिये (रक्षितारः) रक्षा करनेवाले (इत्) ही (असन्) हों॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सब श्रेष्ठ सब ऋतुओं में सुख देने योग्य घर सब सुखों को पहुँचाता है, वैसे ही विद्वान् लोग, विद्या और शिल्पयज्ञ सुख करनेवाले होते हैं, यह जानना चाहिये॥1॥ सर्वैर्मनुष्यैस्तेभ्यः किं प्रापणीयमित्युपदिश्यते॥ सब मनुष्यों को विद्वानों से क्या-क्या पाना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ दे॒वानां॑ भ॒द्रा सु॑म॒तिर्ऋ॑जूय॒तां दे॒वानां॑ रा॒तिर॒भि नो॒ नि व॑र्तताम्। दे॒वानां॑ स॒ख्यमुप॑ सेदिमा व॒यं दे॒वा न॒ आयुः॒ प्र ति॑रन्तु जी॒वसे॑॥2॥ दे॒वाना॑म्। भ॒द्रा। सु॒ऽम॒तिः। ऋ॒जु॒ऽय॒ताम्। दे॒वाना॑म्। रा॒तिः। अ॒भि। नः॒। नि। व॒र्त॒ता॒म्। दे॒वाना॑म्। स॒ख्यम्। उप॑। से॒दि॒म॒। व॒यम्। दे॒वाः। नः॒। आयुः॑। प्र। ति॒र॒न्तु॒। जी॒वसे॑॥2॥ पदार्थः—(देवानाम्) विदुषाम् (भद्रा) कल्याणकारिणी (सुमतिः) शोभना बुद्धिः (ऋजूयताम्) आत्मन ऋजुमिच्छताम् (देवानाम्) दिव्यगुणानाम् (रातिः) विद्यादानम्। अत्र मन्त्रे वृषेषपचमनविदभूवीरा उदात्तः। (अष्टा॰3.3.16) अनेन भावे क्तिन् स चान्तोदात्तः। (अभि) आभिमुख्ये (नः) अस्मभ्यम् (नि) नित्यम् (वर्त्तताम्) (देवानाम्) दयया विद्यावृद्धिं चिकीर्षताम् (सख्यम्) मित्रभावम् (उप) (सेदिम) प्राप्नुयाम। अत्रान्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (वयम्) (देवाः) विद्वांसः (नः) अस्माकम् (आयुः) जीवनम् (प्र) (तिरन्तु) सुशिक्षया वर्द्धयन्तु (जीवसे) जीवितुम्। इमं मन्त्रं यास्कमुनिरेवमाचष्टे। देवानां वयं सुमतौ कल्याण्यां मतौ। ऋजुगामिनाम्। ऋतुगामिनामिति वा। देवानां दानमभि नो निवर्तताम्। देवानां सख्यमुपसीदेम वयम्। देवा न आयुः प्रवर्धयन्तु चिरं जीवनाय। (निरु॰12.39)॥2॥ अन्वयः—वयं या ऋजूयतां देवानां भद्रा सुमतिर्या ऋजयूतां देवानां रातिः यदृजूयतां देवानां भद्रं सख्यं चाऽस्ति तदेतत्सर्वं नोऽस्मभ्यमभिनिवर्त्तताम्। तच्चोपसेदिमोपप्राप्नुयाम य उक्ता देवास्ते नोऽस्माकं जीवस आयुः प्रतिरन्तु॥2॥ भावार्थः—नह्याप्तानां विदुषां सङ्गेन ब्रह्मचर्यादिनियमैश्च विना कस्यापि शरीरात्मबलं वर्द्धितुं शक्यं तस्मात्सर्वैरेतेषां सङ्गो नित्यं विधेयः॥2॥ पदार्थः—(वयम्) हम लोग जो (ऋजूयताम्) अपने को कोमलता चाहते हुए (देवानाम्) विद्वान् लोगों की (भद्रा) सुख करनेवाली (सुमतिः) श्रेष्ठ बुद्धि वा जो अपने को निरभिमानता चाहनेवाले (देवानाम्) दिव्य गुणों की (रातिः) विद्या का दान और जो अपने को सरलता चाहते हुए (देवानाम्) दया से विद्या की वृद्धि करना चाहते हैं, उन विद्वानों का जो सुख देनेवाला (सख्यम्) मित्रपन है, यह सब (नः) हमारे लिये (अभि+नि+वर्त्तताम्) सम्मुख नित्य रहे। और उक्त समस्त व्यवहारों को (उप+सेदिम) प्राप्त हों। और उक्त जो (देवाः) विद्वान् लोग हैं, वे (नः) हम लोगों के (जीवसे) जीवन के लिये (आयुः) उमर को (प्र+तिरन्तु) अच्छी शिक्षा से बढ़ावें॥2॥ भावार्थः—उत्तम विद्वानों के सङ्ग और ब्रह्मचर्य्य आदि नियमों के विना किसी का शरीर और आत्मा का बल बढ़ नहीं सकता, इससे सबको चाहिये कि इन विद्वानों का सङ्ग नित्य करें और जितेन्द्रिय रहें॥2॥ मनुष्याः कया कान् प्राप्य विश्वसिते विश्वसेयुरित्युपदिश्यते॥ मनुष्य किससे किन्हें पाकर विश्वासयुक्त पदार्थ में विश्वास करें, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ तान्पूर्व॑या नि॒विदा॑ हूमहे व॒यं भगं॑ मि॒त्रमदि॑तिं॒ दक्ष॑म॒स्रिध॑म्। अ॒र्य॒मणं॒ वरु॑णं॒ सोम॑म॒श्विना॒ सर॑स्वती नः सु॒भगा॒ मय॑स्करन्॥3॥ तान्। पूर्व॑या। नि॒ऽविदा॑। हू॒म॒हे॒। व॒यम्। भग॑म्। मि॒त्रम्। अदि॑तिम्। दक्ष॑म्। अ॒स्रिध॑म्। अ॒र्य॒मण॑म्। वरु॑णम्। सोम॑म्। अ॒श्विना॑। सर॑स्वती। नः॒। सु॒ऽभगा॑। मयः॑। क॒र॒त्॥3॥ पदार्थः—(तान्) उक्तान् वक्ष्यमाणान् सर्वान् विदुषः (पूर्वया) सनातन्या (निविदा) वेदावाण्याऽभिलक्षितान् निश्चितानर्थान् विदन्ति यया तया वाचा। निविदिति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं॰1.11) (हूमहे) प्रशंसेम (वयम्) (भगम्) ऐश्वर्य्यवन्तम् (मित्रम्) सर्वसुहृदम् (अदितिम्) सर्वविद्याप्रकाशवन्तम् (दक्षम्) विद्याचातुर्य्यबलयुक्तम् (अस्रिधम्) अहिंसकम् (अर्य्यमणम्) न्यायकारिणम् (वरुणम्) वरगुणयुक्तं दुष्टानां बन्धकारिणम् (सोमम्) सृष्टिक्रमेण सर्वपदार्थाभिषवकर्त्तारं शान्तम् (अश्विना) शिल्पविद्याध्यापकाध्ययनक्रियायुक्तावग्निजलादिद्वन्द्वं वा (सरस्वती) विद्यासुशिक्षया युक्ता वागिव विदुषी स्त्री (नः) अस्माकम् (सुभगा) सुष्ठ्वैश्वर्यपुत्रपौत्रादिसौभाग्यसहिता (मयः) सुखम् (करन्) कुर्य्युः। लेट् प्रयोगोऽयम्। बहुलं छन्दसीति विकरणाभावः॥3॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यथा वयं पूर्वया निविदाऽभिलक्षितानुक्तांस्तान् सर्वान् विदुषोऽस्रिधं भगं मित्रमदितिं दक्षमर्यमणं वरुणं सोमं च हूमहे। यथैतेषां समागमोत्पन्ना सुभगा सरस्वत्यश्विना नोऽस्माकं मयस्करन् सुखकारिणो भवेयुस्तथा यूयं कुरुत॥3॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। नहि कस्यचिद्वेदोक्तलक्षणैर्विना विदुषामविदुषां च लक्षणानि यथावद्विदितानि भवितुं शक्यानि न च विद्यासुशिक्षासंस्कृता वाक् सुखकारिणी भवितुं शक्या तस्मात्सर्वे मनुष्या वेदार्थविज्ञानेनैतेषां लक्षणानि विदित्वा विद्वत्सङ्गस्वीकरणमविद्वत्सङ्गत्यागं च कृत्वा सर्वविद्यायुक्ता भवन्तु॥3॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! जैसे (वयम्) हम लोग (पूर्वया) सनातन (निविदा) वेदवाणी जिससे सब प्रकार से निश्चित किये हुए पदार्थों को प्राप्त होते हैं, उससे कहे हुए वा जिनको कहेंगे (तान्) उन सब विद्वानों को वा (अस्रिधम्) अहिंसक अर्थात् जो हिंसा नहीं करता उस (भगम्) ऐश्वर्ययुक्त (मित्रम्) सबका मित्र (अदितिम्) समस्त विद्याओं का प्रकाश (दक्षम्) और उनकी चतुराइयोंवाला विद्वान् (अर्य्यमणम्) न्यायकारी (वरुणम्) उत्तम गुणयुक्त दुष्टों का बन्धनकर्त्ता (सोमम्) सृष्टि के क्रम से सब पदार्थों का निचोड़ करनेवाला तथा जो शान्तचित्त है, उस (अश्विना) विद्या के पढ़ने-पढ़ाने का काम रखनेवाले वा जल और आग दो-दो पदार्थों को (हूमहे) स्तुति करते हैं और जो संग से उत्पन्न हुई (सरस्वती) विद्या और (सुभगा) श्रेष्ठ शिक्षा से युक्त वाणी (नः) हम लोगों को (मयः) सुख (करन्) करें, वैसे तुम भी करो और वाणी तुम्हारे लिये भी वैसे कहें॥3॥ भावार्थः—किसी को [भी] वेदोक्त लक्षणों के विना विद्वान् और मूर्खों के लक्षण जाने नहीं जा सकते और न उनके विना विद्या और श्रेष्ठ शिक्षा से सिद्ध की हुई वाणी सुख करनेवाली हो सकती है। इससे सब मनुष्य वेदार्थ के विशेष ज्ञान से विद्वान् और मूर्खों के लक्षण जानकर विद्वानों का संग कर, मूर्खों का संग छोड़ के समस्त विद्यावाले हों॥3॥ पुनस्तौ किं कुर्यातामित्युपदिश्यते॥ फिर वे क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ तन्नो॒ वातो॑ मयो॒भु वा॑तु भेष॒जं तन्मा॒ता पृ॑थि॒वी तत्पि॒ता द्यौः। तद्ग्रावा॑णः सोम॒सुतो॑ मयो॒भुव॒स्तद॑श्विना शृणुतं धिष्ण्या यु॒वम्॥4॥ तत्। नः॒। वातः॑। म॒यः॒ऽभु। वा॒तु॒। भे॒ष॒जम्। तत्। मा॒ता। पृ॒थि॒वी। तत्। पि॒ता। द्यौः। तत्। ग्रावा॑णः। सो॒म॒ऽसुतः॑। म॒यः॒ऽभुवः॑। तत्। अ॒श्वि॒ना॒। शृ॒णु॒त॒म्। धि॒ष्ण्या॒। यु॒वम्॥4॥ पदार्थः—(तत्) विज्ञानम् (नः) अस्मभ्यम् (वातः) (मयोभु) परमसुखं भवति यस्मात्तत् (वातु) प्रापयतु (भेषजम्) सर्वदुःखनिवारकमौषधम् (तत्) मान्यम् (माता) मातृवन्मान्यहेतुः (पृथिवी) विस्तीर्णा भूमिः (तत्) पालनम् (पिता) जनक इव पालनहेतुः (द्यौः) प्रकाशमयः सूर्यः (तत्) कर्म (ग्रावाणः) मेघादयः पदार्थाः (सोमसुतः) सोमाः सुता येभ्यस्ते (मयोभुवः) सुखस्य भावयितारः (तत्) क्रियाकौशलम् (अश्विना) शिल्पविद्याध्येत्रध्यापकौ (शृणुतम्) यथावत् श्रवणं कुरुतम् (धिष्ण्या) शिल्पविद्योपदेष्टारौ (युवम्) युवाम्॥4॥ अन्वयः—हे धिष्ण्यावश्विनावध्येत्रध्यापकौ! युवं यच्छृणुतं तन्मयोभु भेषजं नो वात इव वैद्यो वातु मातेव पृथिवी तन्मयोभु भेषजं वातु द्यौः पिता तन्मयोभु भेषजं वातु सोमसुतस्तत् ग्रावाणस्तन्मयोभुवो भेषजं वान्तु॥4॥ भावार्थः—शिल्पविद्यावर्द्धितारावध्येत्रध्यापकौ यावदधीत्य विजानीयतां तावत् सर्वे सर्वेषां मनुष्याणां सुखाय निष्कपटतया नित्यं प्रकाशयेताम्। यतो वयमीश्वरसृष्टिस्थानां वाय्वादीनां पदार्थानां सकाशादनेकानुपकारान् गृहीत्वा सुखिनः स्याम॥4॥ पदार्थः—हे (धिष्ण्या) शिल्पविद्या के उपदेश करने और (अश्विना) पढ़ने-पढ़ानेवालो! (युवम्) तुम दोनों जो (शृणुतम्) सुनो (तत्) उस (मयोभु) सुखदायक उत्तम (भेषजम्) सब दुःखों को दूर करनेहारी ओषधि को (नः) हम लोगों के लिये (वातः) पवन के तुल्य वैद्य (वातु) प्राप्त करे वा (पृथिवी) विस्तारयुक्त भूमि जो कि (माता) माता के समान मान-सम्मान देने की निदान है वह (तत्) उस मान करानेहारे जिससे कि अत्यन्त सुख होता और समस्त दुःख की निवृत्ति होती है, औषधि को प्राप्त करावे वा (द्यौः) प्रकाशमय सूर्य्य (पिता) पिता के तुल्य जो कि रक्षा का निदान है, वह (तत्) उस रक्षा करानेहारे जिससे कि समस्त दुःख की निवृत्ति होती है, औषधि को प्राप्त करे वा (सोमसुतः) औषधियों का रस जिनसे निकाला जाय (तत्) वह कर्म तथा (ग्रावाणः) मेघ आदि पदार्थ (तत्) जो उनसे रस का निकालना वा जो (मयोभुवः) सुख के करानेहारे उक्त पदार्थ हैं, वे (तत्) उस क्रियाकुशलता और अत्यन्त दुःख की निवृत्ति करानेवाले ओषधि को प्राप्त करें॥4॥ भावार्थः—शिल्पविद्या की उन्नति करनेहारे जो उसके पढ़ने-पढ़ानेहारे विद्वान् हैं, वे जितना पढ़के समझें उतना यथार्थ सबके सुखके लिये नित्य प्रकाशित करें, जिससे हम लोग ईश्वर की सृष्टि के पवन आदि पदार्थों से अनेक उपकारों को लेकर सुखी हों॥4॥ मनुष्यैः सर्वाविद्याप्रकाशकं जगदीश्वरमाश्रित्य स्तुत्वा प्रार्थयित्वोपास्य सर्वविद्यासिद्धये परमपुरुषार्थः कार्य्य इत्युपदिश्यते॥ मनुष्यों को सर्वविद्या के प्रकाश करनेवाले जगदीश्वर की आश्रयता, स्तुति, प्रार्थना और उपासना करके सब विद्या की सिद्धि के लिये अत्यन्त पुरुषार्थ करना चाहिये, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ तमीशा॑नं॒ जग॑तस्त॒स्थुष॒स्पतिं॑ धियंजि॒न्वमव॑से हूमहे व॒यम्। पू॒षा नो॒ यथा॒ वेद॑सा॒मस॑द्वृ॒धे र॑क्षि॒ता पा॒युरद॑ब्धः स्व॒स्तये॑॥5॥15॥ तम्। ईशा॑नम्। जग॑तः। त॒स्थुषः॑। पति॑म्। धि॒य॒म्ऽजि॒न्वम्। अव॑से। हू॒म॒हे॒। व॒यम्। पू॒षा। नः॒। यथा॑। वेद॑साम्। अस॑त्। वृ॒धे। र॒क्षि॒ता। पा॒युः। अद॑ब्धः। स्व॒स्तये॑॥5॥ पदार्थः—(तम्) सृष्टिविद्याप्रकाशकम् (ईशानम्) सर्वस्याः सृष्टेर्विधातारम् (जगतः) जङ्गमस्य (तस्थुषः) स्थावरस्य (पतिम्) पालकम् (धियम्) समस्तपदार्थचिन्तकम् (जिन्वम्) सर्वैः सुखैस्तर्प्पकम् (अवसे) रक्षणाय (हूमहे) स्पर्धामहे (वयम्) (पूषा) पुष्टिकर्त्ता परमेश्वरः (नः) अस्माकम् (यथा) (वेदसाम्) विद्यादिधनानाम्। वेद इति धननाम। (निघं॰2.10) (असत्) भवेत् (वृधे) वृद्धये (रक्षिता) (पायुः) पालनकर्त्ता (अदब्धः) अहिंसिता (स्वस्तये) सुखाय॥5॥ अन्वयः—हे विद्वन्! यथा पूषा नोऽस्माकं वेदसां वृधे यो रक्षिता स्वस्तयेऽदब्धः पूषा पायुरसत्तथा त्वं भव यथा वयमवसे तं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियं जिन्वमीशानं परमात्मानं हूमहे तथैतं त्वमप्याह्वय॥5॥ भावार्थः—अत्र श्लेषवाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्यैस्तथाऽनुष्ठातव्यं यथेश्वरोपदेशानुकूल्यं स्यात्। यथेश्वरः सर्वस्याऽधिपतिस्तथा मनुष्यैरपि सर्वोत्तमविद्याशुभगुणप्राप्त्या सुपुरुषार्थेन सर्वाऽधिपत्यं साधनीयम्। यथेश्वरो विज्ञानमयः पुरुषार्थमयः सर्वसुखप्रदो जगद्वर्धकः सर्वाभिरक्षकः सर्वेषां सुखाय प्रवर्त्तते, तथैव मनुष्यैरपि भवितव्यम्॥5॥ पदार्थः—हे विद्वन्! (यथा) जैसे (पूषा) पुष्टि करनेवाला परमेश्वर (नः) हम लोगों के (वेदसाम्) विद्या आदि धनों की (वृधे) वृद्धि के लिये (रक्षिता) रक्षा करनेवाला (स्वस्तये) सुख के लिये (अदब्धः) अहिंसक अर्थात् जो हिंसा में प्राप्त न हुआ हो (पूषा) सब प्रकार की पुष्टि का दाता और (पायुः) सब प्रकार से पालना करनेवाला (असत्) होवे वैसे तू हो जैसे (वयम्) हम (अवसे) रक्षा के लिये (तम्) उस सृष्टि का प्रकाश करने (जगतः) जङ्गम और (तस्थुषः) स्थावरमात्र जगत् के (पतिम्) पालनेहारे (धियम्) समस्त पदार्थों का चिन्तनकर्त्ता (जिन्वम्) सुखों से तृप्त करने (ईशानम्) समस्त सृष्टि की विद्या के विधान करनेहारे ईश्वर को (हूमहे) आह्वान करते हैं, वैसे तू भी कर॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को चाहिये कि वैसा अपना व्यवहार करें कि जैसा ईश्वर के उपदेश के अनुकूल हो और जैसे ईश्वर सबका अधिपति है, वैसे मनुष्यों को भी सदा उत्तम विद्या और शुभ गुणों की प्राप्ति और अच्छे पुरुषार्थ से सब पर स्वामिपन सिद्ध करना चाहिये। और जैसे ईश्वर विज्ञान से पुरुषार्थयुक्त, सब सुखों को देने, संसार की उन्नति और सब की रक्षा करनेवाला सब के सुख के लिये प्रवृत्त हो रहा है, वैसे ही मनुष्यों को भी होना चाहिये॥5॥ पुनर्मनुष्यैः कथं प्रार्थित्वा किमेष्टव्यमित्युपदिश्यते॥ फिर मनुष्यों को किस प्रकार ईश्वर की प्रार्थना करके किसकी इच्छा करनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ स्व॒स्ति न॒ इन्द्रो॑ वृ॒द्धश्र॑वाः स्व॒स्ति नः॑ पू॒षा वि॒श्ववे॑दाः। स्व॒स्ति न॒स्तार्क्ष्यो॒ अरि॑ष्टनेमिः स्व॒स्ति नो॒ बृह॒स्पति॑र्दधातु॥6॥ स्व॒स्ति। नः॒। इन्द्रः॑। वृ॒द्धऽश्र॑वाः। स्व॒स्ति। नः॒। पू॒षा। वि॒श्वऽवे॑दाः। स्व॒स्ति। नः॒। तार्क्ष्यः॑। अरि॑ष्टऽनेमिः। स्व॒स्ति। नः॒। बृह॒स्पतिः॑। द॒धा॒तु॒॥6॥ पदार्थः—(स्वस्ति) शरीरसुखम् (नः) अस्मभ्यम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमेश्वरः (वृद्धश्रवाः) वृद्धं श्रवः श्रवणमन्नं वा सृष्टौ यस्य सः (स्वस्ति) धातुसाम्यसुखम् (नः) अस्मभ्यम् (पूषा) पुष्टिकर्त्ता (विश्ववेदाः) विश्वस्य वेदो विज्ञानं विश्वेषु सर्वेषु पदार्थेषु वेदः स्मरणं वा यस्य सः (स्वस्ति) इन्द्रियशान्तिसुखम् (नः) अस्मभ्यम् (तार्क्ष्यः) तृक्षितुं वेदितुं योग्यस्तृक्ष्यः। तृक्ष्य एव तार्क्ष्यः। अत्र गत्यर्थात् तृक्ष धातोर्ण्यत्। ततः स्वार्थेऽण्। (अरिष्टनेमिः) अरिष्टानां दुःखानां नेमिर्वज्रवच्छेता। नेमिरिति वज्रनामसु पठितम्। (निघं॰2.20) (स्वस्ति) विद्ययाऽऽत्मसुखम् (नः) अस्मभ्यम् (बृहस्पतिः) बृहत्या वेदवाचः पतिः (दधातु) धारयतु॥6॥ अन्वयः—वृद्धश्रवा इन्द्रो नः स्वस्ति दधातु विश्ववेदाः पूषा नः स्वस्ति दधातु। अरिष्टनेमिस्तार्क्ष्यो न स्वस्ति दधातु बृहस्पतिर्नः स्वस्ति दधातु॥6॥ भावार्थः—न हीश्वरप्रार्थनास्वपुरुषार्थाभ्यां विना कस्यचिच्छरीरेन्द्रियात्मसुखं सम्पूर्णं सम्भवति तस्मादेतदनुष्ठेयम्॥6॥ पदार्थः—(वृद्धश्रवाः) संसार में जिसकी कीर्त्ति वा अन्न आदि सामग्री अति उन्नति को प्राप्त है वह (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवान् परमेश्वर (नः) हम लोगों के लिये (स्वस्ति) शरीर के सुख को (दधातु) धारण करावे (विश्ववेदाः) जिसको संसार का विज्ञान और जिसका सब पदार्थों में स्मरण है, वह (पूषा) पुष्टि करनेवाला परमेश्वर (नः) हम लोगों के लिये (स्वस्ति) धातुओं की समता के सुख को धारण करावे जो (अरिष्टनेमिः) दुःखों का वज्र के तुल्य विनाश करनेवाला (तार्क्ष्यः) और जानने योग्य परमेश्वर है, वह (नः) हम लोगों के लिये (स्वस्ति) इन्द्रियों की शान्तिरूप सुख को धारण करावे और जो (बृहस्पतिः) वेदवाणी का प्रभु परमेश्वर है, वह (नः) हम लोगों को (स्वस्ति) विद्या से आत्मा के सुख को धारण करावे॥6॥ भावार्थः—ईश्वर की प्रार्थना और अपने पुरुषार्थ के विना किसी को शरीर, इन्द्रिय और आत्मा का परिपूर्ण सुख नहीं होता, इससे उसका अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये॥6॥ पुनस्तदुपासकैर्मनुष्यैः कथं भवितव्यमित्युपदिश्यते॥ फिर ईश्वर की उपासना करनेवाले मनुष्यों को कैसा होना चाहिये, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ पृष॑दश्वा म॒रुतः॒ पृश्नि॑मातरः शुभं॒यावा॑नो वि॒दथे॑षु॒ जग्म॑यः। अ॒ग्नि॒जि॒ह्वा मन॑वः॒ सूर॑चक्षसो॒ विश्वे॑ नो दे॒वा अव॒सा ग॑मन्नि॒ह॥7॥ पृष॑त्ऽअश्वाः। म॒रुतः॑। पृश्नि॑ऽमातरः। शु॒भ॒म्ऽयावा॑नः। वि॒दथे॑षु। जग्म॑यः। अ॒ग्नि॒ऽजि॒ह्वाः। मन॑वः। सूर॑ऽचक्षसः। विश्वे॑। नः॒। दे॒वाः। अव॑सा। आ। ग॒म॒न्। इ॒ह॥7॥ पदार्थः—(पृषदश्वाः) सेनाया पृषान्तोऽश्वा येषान्ते (मरुतः) वायवः (पृश्निमातरः) आकाशादुत्पद्यमाना इव (शुभंयावानः) शुभस्य प्रापकाः। अत्र तत्पुरुषे कृति बहुलमिति बहुलवचनाद् द्वितीयाया अलुक्। (विदथेषु) संग्रामेषु यज्ञेषु वा। (जग्मयः) गमनशीलाः (अग्निजिह्वाः) अग्निर्जिह्वाः हूयमानो येषान्ते (मनवः) मननशीलाः (सूरचक्षसः) सूरे सूर्ये प्राणे वा चक्षो व्यक्तं वचो दर्शनं वा येषान्ते (विश्वे) सर्वे (नः) अस्मान् (देवाः) विद्वांसः (अवसा) रक्षणादिना सह वर्त्तमानाः (आ) (अगमन्) आगच्छन्तु प्राप्नुवन्तु। अत्र लिङर्थे लुङ् प्रयोगः। (इह) अस्मिन् संसारे॥7॥ अन्वयः—शुभंयावानोऽग्निजिह्वा मनवः सूरचक्षसः पृषदश्वा विदथेषु जग्मयो विश्वेदेवा इह नोऽस्मभ्यमवसा पृश्निमातरो मरुत इवागमन्॥7॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा बाह्याभ्यन्तरस्था वायवः सर्वान् प्राणिनः सुखाय प्राप्नुवन्ति, तथैव विद्वांसः सर्वेषा प्राणिनां सुखाय प्रवर्त्तेरन्॥7॥ पदार्थः—हे (शुभंयावानः) जो श्रेष्ठ व्यवहार की प्राप्ति कराने (अग्निजिह्वाः) और अग्नि को हवनयुक्त करनेवाले (मनवः) विचारशील (सूरचक्षसः) जिनके प्राण और सूर्य में प्रसिद्ध वचन वा दर्शन है (पृषदश्वाः) सेना में रङ्ग-विरङ्ग घोड़ों से युक्त पुरुष (विदथेषु) जो के संग्राम वा यज्ञों में (जग्मयः) जाते हैं, वे (विश्वे) समस्त (देवाः) विद्वान् लोग (इह) संसार में (नः) हम लोगों को (अवसा) रक्षा आदि व्यवहारों के साथ (पृश्निमातरः) आकाश से उत्पन्न होने वाले (मरुतः) पवनों के तुल्य (आ) (अगमन्) आवें प्राप्त हुआ करें॥7॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैस बाहर और भीतरले पवन सब प्राणियों के सुख के लिये प्राप्त होते हैं, वैसे विद्वान् लोग सबके सुख के लिये प्रवृत्त होवें॥7॥ मनुष्यैरेवं कृत्वा किं किमाचरणीयमित्युपदिश्यते॥ मनुष्यों को ऐसा करके क्या-क्या करना चाहिये, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ भ॒द्रं कर्णे॑भिः शृणुयाम देवा भ॒द्रं प॑श्येमा॒क्षभि॑र्यजत्राः। स्थि॒रैरङ्गै॑स्तुष्टु॒वांस॑स्त॒नूभि॒र्व्य॑शेम दे॒वहि॑तं॒ यदायुः॑॥8॥ भ॒द्रम्। कर्णे॑भिः। शृ॒णु॒या॒म॒। दे॒वाः॒। भ॒द्रम्। प॒श्ये॒म॒। अ॒क्षऽभिः॑। य॒ज॒त्राः॒। स्थि॒रैः। अङ्गैः॑। तु॒स्तु॒ऽवांसः॑। त॒नूभिः॑। वि। अ॒शे॒म॒। दे॒वऽहि॑तम्। यत्। आयुः॑॥8॥ पदार्थः—(भद्रम्) कल्याणकारकमध्ययनाध्यापनम् (कर्णेभिः) श्रोत्रैः। अत्र ऐसभावः। (शृणुयाम) (देवाः) विद्वांसः (भद्रम्) शरीरात्मसुखम् (पश्येम) (अक्षभिः) बाह्याभ्यन्तरैर्नेत्रैः। छन्दस्यपि दृश्यते। (अष्टा॰7.1.76) अनेन सूत्रेणाक्षिशब्दस्य भिस्यनङादेशः। (यजत्रा) यजन्ति सङ्गच्छन्ते ये ते। अमिनक्षियजिवधिपतिभ्योऽत्रन्। (उणा॰3.103। अनेनौणादिकसूत्रेण यजधातोरत्रन्। (स्थिरैः) निश्चलैः (अङ्गैः) शिर आदिभिर्ब्रह्मचर्यादिभिर्वा (तुष्टुवांसः) पदार्थगुणान् स्तुवन्तः (तनूभिः) विस्तृतबलैः शरीरैः (वि) विविधार्थे (अशेम) प्राप्नुयाम। अत्राऽशूङ् धातो लिङ्याशिष्यङ् (अष्टा॰3.1.86) इत्यङ्। सार्वधातुकसंज्ञया लिङः सलोप इति सकारलोपः। आर्द्धधातुकसंज्ञया शपोऽभावः। (देवहितम्) देवेभ्यो विद्वद्भ्यो हितम् (यत्) (आयुः) जीवनम्॥8॥ अन्वयः—हे यजत्रा देवा! भवत्सङ्गेन तनूभिः स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसः सन्तो वयं कर्णेभिर्यद्भद्रं तच्छृणुयामाक्षभिर्यद्भद्रं तत्पश्येम एवं तनूभिः स्थिरैरङ्गैर्यद्देवहितमायुस्तदशेम॥8॥ भावार्थः—नहि विदुषां सत्पुरुषाणामाप्तानां सङ्गेन विना कश्चित्ससत्यविद्यावचः सत्यं दर्शनं सत्यनिष्ठामायुश्च प्राप्तुं शक्नोति, न ह्येतैर्विना कस्यचिच्छरीमात्मा च दृढो भवितुं शक्यस्तस्मादेतत्सर्वैर्मनुष्यैः सदाऽनुष्ठेयम्॥8॥ पदार्थः—हे (यजत्राः) संगम करनेवाले (देवाः) विद्वानो! आप लोगों के संग से (तनूभिः) बढ़े हुए बलोंवाले शरीर (स्थिरैः) दृढ़ (अङ्गैः) पुष्ट शिर आदि अङ्ग वा ब्रह्मचर्यादि नियमों से (तुष्टुवांसः) पदार्थों के गुणों की स्तुति करते हुए हम लोग (कर्णेभिः) कानों से (यत्) जो (भद्रम्) कल्याणकारक पढ़ना-पढ़ाना है, उसको (शृणुयाम) सुनें-सुनावें (अक्षभिः) बाहरी-भीतरली आंखों से जो (भद्रम्) शरीर और आत्मा का सुख है, उसको (पश्येम) देखें, इस प्रकार उक्त शरीर और अङ्गों से जो (देवहितम्) विद्वानों की हित करनेवाली (आयुः) अवस्था है, उसको (वि) (अशेम) वार-वार प्राप्त होवें॥8॥ भावार्थः—विद्वान्, आप्त और सज्जनों के संग के विना कोई सत्यविद्या का वचन सत्य-दर्शन और सत्य व्यवहारमय अवस्था को नहीं पा सकता और न इसके विना किसी का शरीर और आत्मा दृढ़ हो सकता है, इससे सब मनुष्यों को यह उक्त व्यवहार वर्त्तना योग्य है॥8॥ पुनर्विद्वांसो विद्यार्थिनः प्रति कथं वर्त्तेरन्नित्युपदिश्यते॥ फिर विद्वान् लोग विद्यार्थियों के साथ कैसे वर्त्तें, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ श॒तमिन्नु श॒रदो॒ अन्ति॑ देवा॒ यत्रा॑ नश्च॒क्रा ज॒रसं॑ त॒नूना॑म्। पु॒त्रासो॒ यत्र॑ पि॒तरो॒ भव॑न्ति॒ मा नो॑ म॒ध्या री॑रिष॒तायु॒र्गन्तोः॑॥9॥ श॒तम्। इत्। नु। श॒रदः॑। अन्ति॑। दे॒वाः॒। यत्र॑। नः॒। च॒क्र। ज॒रस॑म्। त॒नूना॑म्। पु॒त्रासः॑। यत्र॑। पि॒तरः॑। भव॑न्ति। मा। नः॒। म॒ध्या। री॒रि॒ष॒त॒। आयुः॑। गन्तो॑॥9॥ पदार्थः—(शतम्) शतवर्षसंख्याकान् (इत्) एव (नु) शीघ्रम् (शरदः) शरदृतूपलक्षितान् संवत्सरान् (अन्ति) अनन्ति जीवन्ति विद्यादिसुखसाधनैर्ये तेऽन्तयः। अत्रानधातोरौणादिकस्तिन् प्रत्ययः। सुपां सुलुगिति जसो लुक् च। (देवाः) विद्वांसः (यत्र) यस्मिन् सत्ये व्यवहारे। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (नः) अस्माकम् (चक्र) कुरुत। लोडर्थे लिट्। द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (जरसम्) जरां वृद्धावस्थाम्। जराया जरसन्यतरस्याम्। (अष्टा॰7.2.101) अनेन जराशब्दस्य जरसादेशः। (तनूनाम्) शरीराणाम् (पुत्रासः) (यत्र) (पितरः) वयोविद्यावृद्धाः (भवन्ति) (मा) निषेधे (नः) अस्माकम् (मध्या) मध्ये। अत्र सुपां सुलुगिति सप्तम्याः स्थाने डादेशः। (रीरिषत) हिंस्त (आयुः) जीवनम् (गन्तोः) गन्तुम् प्राप्तुम्॥9॥ अन्वयः—हे अन्ति देवा! यूयं यत्र तनूनां शतं शरदो जरसं चक्र यत्राऽस्माकं नो मध्या मध्ये पुत्रास इत्पितरो नु भवन्ति, तदायुर्गन्तोर्गन्तुं प्रवृत्तान्नोऽस्मान्नु मा रिरीषत॥9॥ भावार्थः—यस्यां प्राप्तायां विद्यायां बालका अपि वृद्धा भवन्ति, यत्र शुभाचरणेन वृद्धावस्था जायते, तत्सर्वं विदुषां सङ्गेनैव भवितुं शक्यते। विद्वद्भिरेतत्सर्वेभ्यः प्रापयितव्यं च॥9॥ पदार्थः—हे (अन्ति) विद्या आदि सुख साधनों से जीनेवाले (देवाः) विद्वानो! तुम (यत्र) जिस सत्य व्यवहार में (तनूनाम्) अपने शरीरों के (शतम्) सौ (शरदः) वर्ष (जरसम्) वृद्धापन का (चक्र) व्यतीत कर सको (यत्र) जहाँ (नः) हमारे (मध्या) मध्य में (पुत्रासः) पुत्र लोग (इत्) ही (पितरः) अवस्था और विद्या से युक्त वृद्ध (नु) शीघ्र (भवन्ति) होते हैं, उस (आयुः) जीवन को (गन्तोः) प्राप्त होने को प्रवृत्त हुए (नः) हम लोगों को शीघ्र (मा रीरिषत) नष्ट मत कीजिये॥9॥ भावार्थः—जिस विद्या में बालक भी वृद्ध होते वा जिस शुभ आचरण में वृद्धावस्था होती है, वह सब व्यवहार विद्वानों के संग ही से हो सकता है और विद्वानों को चाहिये कि यह उक्त व्यवहार सबको प्राप्त करावें॥9॥ एतेषां संगेन किं किं सेवितुं विज्ञातुं च योग्यमित्युपदिश्यते॥ अब इन विद्वानों के संग से क्या-क्या सेवने और जानने योग्य है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ अदि॑ति॒र्द्यौरदि॑तिर॒न्तरि॑क्ष॒मदि॑तिमार्॒ता स पि॒ता स पु॒त्रः। विश्वे॑ दे॒वा अदि॑तिः॒ पञ्च॒ जना॒ अदि॑तिर्जा॒तमदि॑ति॒र्जनि॑त्वम्॥10॥16॥ अदि॑तिः। द्यौः। अदि॑तिः। अ॒न्तरि॑क्षम्। अदि॑तिः। मा॒ता। सः। पि॒ता। सः। पु॒त्रः। विश्वे॑। दे॒वाः। अदि॑तिः। पञ्च॑। जनाः॑। अदि॑तिः। जा॒तम्। अदि॑तिः। जनि॑ऽत्वम्॥10॥ पदार्थः—(अदितिः) विनाशरहिता (द्यौः) प्रकाशमानः परमेश्वरः सूर्य्यादिर्वा (अदितिः) (अन्तरिक्षम्) (अदितिः) (माता) मान्यहेतुर्जननी विद्या वा (सः) (पिता) जनकः पालको वा (सः) (पुत्रः) औरसः क्षेत्रजादिर्विद्याजो वा (विश्वे) सर्वे (देवाः) विद्वांसो दिव्यगुणाः पदार्था वा (अदितिः) (पञ्च) इन्द्रियाणि (जनाः) जीवाः (अदितिः) उत्पत्तिनाशरहिता (जातम्) यत्किञ्चिदुत्पन्नम् (अदितिः) (जनित्वम्) उत्पत्स्यमानम्॥10॥ अन्वयः—हे मनुष्या! युस्मभिर्द्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माताऽदितिः स पिता स पुत्रश्चादितिर्विश्वे देवा अदितिः पञ्चेन्द्रियाणि जनाश्च तथा एवं जातमात्रं कार्य्यं जनित्वं जन्यञ्च सर्वमदितिरेवेति वेदितव्यम्॥10॥ भावार्थः—अत्र (द्यौः) इत्यादीनां कारणरूपेण प्रवाहरूपेण वाऽविनाशित्वं मत्वा दिवादीनामदितिसंज्ञा क्रियते। अत्र यत्र वेदेष्वदितिशब्दः पठितस्तत्र प्रकरणाऽनुकूलतया दिवादीनां मध्याद्यस्य यस्य योग्यता भवेत्तस्य तस्य ग्रहणं कार्य्यम्। ईश्वरस्य जीवानां कारणस्य प्रकृतेश्चाविनाशित्वाददितिसंज्ञा वर्त्तत एव॥10॥ अत्र विदुषां विद्यार्थिनां प्रकाशादीनां च विश्वे देवान्तर्गतत्वाद्वर्णनं कृतमत एतदुक्तार्थस्य सूक्तस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्॥ इति नवाशीतितमं 89 सूक्तं षोडशो 16 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! तुमको चाहिये कि (द्यौः) प्रकाशयुक्त परमेश्वर वा सूर्य्य आदि प्रकाशमय पदार्थ (अदितिः) अविनाशी (अन्तरिक्षम्) आकाश (अदितिः) अविनाशी (माता) माँ वा विद्या (अदितिः) अविनाशी (सः) वह (पिता) उत्पन्न करनेवा पालनेहारा पिता (सः) वह (पुत्रः) औरस अर्थात् निज विवाहित पुरुष से उत्पन्न वा क्षेत्रज अर्थात् नियोग करके दूसरे से क्षेत्र में हुआ विद्या से उत्पन्न पुत्र (अदितिः) अविनाशी है तथा (विश्वे) समस्त (देवाः) विद्वान् वा दिव्य गुणवाले पदार्थ (अदितिः) अविनाशी हैं (पञ्च) पांचों ज्ञानेन्द्रिय और (जनाः) जीव भी (अदितिः) अविनाशी हैं, इस प्रकार जो कुछ (जातम्) उत्पन्न हुआ वा (जनित्वम्) होनेहारा है, वह सब (अदितिः) अविनाशी अर्थात् नित्य है॥10॥ भावार्थः—इस मन्त्र में परमाणुरूप वा प्रवाहरूप से सब पदार्थ नित्य मानकर दिव् आदि पदार्थों की अदिति संज्ञा की है। जहाँ-जहाँ वेद में अदिति शब्द पढ़ा है, वहाँ-वहाँ प्रकरण की अनुकूलता से दिव् आदि पदार्थों में से जिस-जिस की योग्यता हो उस-उस का ग्रहण करना चाहिये। ईश्वर, जीव और प्रकृति अर्थात् जगत् का कारण इनके अविनाशी होने से उसकी भी अदिति संज्ञा है॥10॥ इस सूक्त में विद्वान्, विद्यार्थी और प्रकाशमय पदार्थों का विश्वेदेव पद के अन्तर्गत होने से वर्णन किया है। इससे इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति है, ऐसा जानना चाहिये॥ यह नवासीवां 89सूक्त और सोलहवाँ 16 वर्ग समाप्त हुआ॥

अथास्य नवर्च्चस्य नवतितमस्य सूक्तस्य रहूगणपुत्रो ऋषिः। विश्वे देवा देवताः। 1,8 पिपीलिकामध्या निचृद् गायत्री। 2,7 गायत्री। 3 पिपीलिकामध्या विराड्गायत्री। 4 विराड् गायत्री। 5,6 निचृद् गायत्री च छन्दः। षड्जः स्वरः। 9 निचृत् त्रिष्टुप् छन्दः। गान्धारः स्वरः। पुनः स विद्वान् मनुष्येषु कथं वर्त्तेतेत्युपदिश्यते॥ अब नब्बेवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में फिर वह विद्वान् मनुष्यों में कैसे वर्त्ताव करे, यह उपदेश किया है॥ ऋ॒जु॒नी॒ती नो॒ वरु॑णो मि॒त्रो न॑यतु वि॒द्वान्। अ॒र्य॒मा दे॒वैः स॒जोषाः॑॥1॥ ऋ॒जु॒ऽनी॒ती। नः॒। वरु॑णः। मि॒त्रः। न॒य॒तु॒। वि॒द्वान्। अ॒र्य॒मा। दे॒वैः। स॒ऽजोषाः॑॥1॥ पदार्थः—(ऋजुनीती) ऋजुः सरला शुद्ध चासौ नीतिश्च तया। अत्र सुपां सुलुगिति तृतीयायाः पूर्वसवर्णादेशः। (नः) अस्मान् (वरुणः) श्रेष्ठगुणस्वभावः (मित्रः) सर्वोपकारी (नयतु) प्रापयतु (विद्वान्) अनन्तविद्य ईश्वर आप्त मनुष्यो वा (अर्य्यमा) न्यायकारी (देवैः) दिव्यैर्गुणकर्मस्वभावैर्विद्वद्भिर्वा (सजोषाः) समानप्रीतिसेवी॥1॥ अन्वयः—यथेश्वरो धार्मिकमनुष्यान् धर्म्मं नयति, तथा देवैः सजोषा वरुणो मित्रोऽर्य्यमा विद्वानृजुनीती नोऽस्मान् धर्मविद्यामार्गं नयतु॥1॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। परमेश्वर आप्तमनुष्यो वा सत्यविद्याग्रहणस्वभावपुरुषार्थिनं मनुष्यमनुत्तमे धर्मक्रिये च प्रापयति नेतरम्॥1॥ पदार्थः—जैसे परमेश्वर धार्मिक मनुष्यों को धर्म प्राप्त कराता है, वैसे (देवैः) दिव्य गुण, कर्म और स्वभाववाले विद्वानों से (सजोषाः) समान प्रीति करनेवाला (वरुणः) श्रेष्ठ गुणों में वर्त्तने (मित्रः) सबका उपकारी और (अर्यमा) न्याय करनेवाला (विद्वान्) धर्मात्मा सज्जन विद्वान् (ऋजुनीती) सीधी नीति से (नः) हम लोगों को धर्मविद्यामार्ग को (नयतु) प्राप्त करावे॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। परमेश्वर वा आप्त मनुष्य सत्यविद्या के ग्राहक स्वभाववाले पुरुषार्थी मनुष्य को उत्तम धर्म और उत्तम क्रियाओं को प्राप्त कराता है, और को नहीं॥1॥ पुनस्ते विद्वांसः कथंभूत्वा किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते॥ फिर वे विद्वान् कैसे होकर क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ ते हि वस्वो॒ वस॑वाना॒स्ते अप्र॑मूरा॒ महो॑भिः। व्र॒ता र॑क्षन्ते वि॒श्वाहा॑॥2॥ ते। हि। वस्वः॑। वस॑वानाः। ते। अप्र॑ऽमूराः। महः॑ऽभिः। व्र॒ता। र॒क्ष॒न्ते॒। वि॒श्वाहा॑॥2॥ पदार्थः—(ते) (हि) खलु (वस्वः) वसूनि द्रव्याणि। वा च्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति नुमभावे। जसादिषु छन्दसि वा वचनमिति गुणाभावे च यणादेशः। (वसवानाः) स्वगुणैः सर्वानाच्छादयन्तः। अत्र बहुलं छन्दसीति शपो लुङ् न शानचि व्यत्ययेन मकारस्य वकारः। (ते) (अप्रमूराः) मूढत्वरहिता धार्मिकाः। अत्रापि वर्णव्यत्येन ढस्य स्थाने रेफादेशः। (महोभिः) महद्भिर्गुणकर्मभिः (व्रता) सत्यपालननियतानि व्रतानि (रक्षन्ते) व्यत्ययेनात्मनेपदम् (विश्वाहा) सर्वदिनानि॥2॥ अन्वयः—ते पूर्वोक्ता वसवाना हि महोभिर्विश्वाहा विश्वाहानि वस्वो रक्षन्ते। ये अप्रमूरा धार्मिकास्ते महोभिर्विश्वाहानि व्रता रक्षन्ते॥2॥ भावार्थः—नहि विद्वद्भिर्विना केनचिद्धनानि धर्माचरणानि च रक्षितुं शक्यन्ते, तस्मात् सर्वैर्मनुष्यैर्नित्यं विद्या प्रचारणीया यतः सर्वे विद्वांसो भूत्वा धार्मिका भवेयुरिति॥2॥ पदार्थः—(ते) वे पूर्वोक्त विद्वान् लोग (वसवानाः) अपने गुणों से सबको ढाँपते हुए (हि) निश्चय से (महोभिः) प्रशंसनीय गुण और कर्मों से (विश्वाहा) सब दिनों में (वस्वः) धन आदि पदार्थों की (रक्षन्ते) रक्षा करते हैं तथा जो (अप्रमूराः) मूढ़त्वप्रमादरहित धार्मिक विद्वान् हैं (ते) वे प्रशंसनीय गुण कर्मों से सब दिन (व्रता) सत्यपालन आदि नियमों को रखते हैं॥2॥ भावार्थः—विद्वानों के विना किसी से धन और धर्मयुक्त आचार रक्खे नहीं जा सकते। इससे सब मनुष्यों को नित्य विद्याप्रचार करना चाहिये, जिससे सब मनुष्य विद्वान् होके धार्मिक हों॥2॥ पुनस्ते कीदृशाः किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे हों और क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ ते अ॒स्मभ्यं॒ शर्म॑ यंसन्न॒मृता॒ मर्त्ये॑भ्यः। बाध॑माना॒ अप॒ द्विषः॑॥3॥ ते। अ॒स्मभ्य॑म्। शर्म॑। यं॒स॒न्। अ॒मृताः॑। मर्त्ये॑भ्यः। बाध॑मानाः। अप॑। द्विषः॑॥3॥ पदार्थः—(ते) विद्वांसः (अस्मभ्यम्) (शर्म्म) सुखम् (यंसन्) यच्छन्तु ददतु (अमृताः) जीवन-मुक्ताः (मर्त्येभ्यः) मनुष्येभ्यः (बाधमानाः) निवारयन्तः (अप) दूरीकरणे (द्विषः) दुष्टान्॥3॥ अन्वयः—ये द्विषोऽपबाधमाना अमृता विद्वांसः सन्ति ते मर्त्येभ्योऽस्मभ्यं शर्म यंसन् प्रापयन्तु॥3॥ भावार्थः—मनुष्यैर्विद्वद्भ्यः शिक्षां प्राप्य दुष्टस्वभावान्निवार्य्य नित्यमानन्दितव्यम्॥3॥ पदार्थः—जो (द्विषः) दुष्टों को (अप बाधमानाः) दुर्गति के साथ निवारण करते हुए (अमृताः) जीवनमुक्त विद्वान् हैं (ते) वे (मर्त्येभ्यः) (अस्मभ्यम्) अस्मदादि मनुष्यों के लिये (शर्म) सुख (यंसन्) देवें॥3॥ भावार्थः—मनुष्यों को चाहिये कि विद्वानों से शिक्षा को पाकर खोटे स्वभाववालों को दूर कर नित्य आनन्दित हों॥3॥ पुनस्ते कथं वर्त्तेरन्नित्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे वर्त्तें, यह उपदेश अगले मन्त्र में कहा है॥ वि नः॑ प॒थः सु॑वि॒ताय॑ चि॒यन्त्विन्द्रो॑ म॒रुतः॑। पू॒षा भगो॒ वन्द्या॑सः॥4॥ वि। नः॒। प॒थः। सु॒वि॒ताय॑। चि॒यन्तु॑। इन्द्रः॑। म॒रुतः॑। पू॒षा। भगः॑। वन्द्या॑सः॥4॥ पदार्थः—(वि) विशेषार्थे (नः) अस्मान् (पथः) उत्तममार्गान् (सुविताय) ऐश्वर्यप्राप्तये (चियन्तु) चिन्वन्तु। अत्र बहुल छन्दसीति विकरणलुक् इयङादेशश्च। (इन्द्रः) विद्यैश्वर्यवान् (मरुतः) मनुष्याः (पूषा) पोषकः (भगः) सौभाग्यवान् (वन्द्यासः) स्तोतव्याः सत्कर्त्तव्याश्च॥4॥ अन्वयः—य इन्द्रः पूषा भगश्च वन्द्यासो मरुतस्ते नोऽस्मान् सुविताय पथो विचियन्तु॥4॥ भावार्थः—विद्वद्भिर्मनुष्यैरैश्वर्यं पुष्टिं सौभाग्यं प्राप्यान्येऽपि तादृशा सौभाग्यवन्तः कर्त्तव्याः॥4॥ पदार्थः—जो (इन्द्रः) विद्या और ऐश्वर्ययुक्त वा (पूषा) दूसरे का पोषण पालन करनेवाला (भगः) और उत्तम भाग्यशाली (वन्द्यासः) स्तुति और सत्कार करने योग्य (मरुतः) मनुष्य हैं वे (नः) हम लोगों को (सुविताय) ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये (पथः) उत्तम मार्गों को (वि चियन्तु) नियत करें॥4॥ भावार्थः—मनुष्यों को चाहिये कि विद्वानों से ऐश्वर्य, पुष्टि और सौभाग्य पाकर उस सौभाग्य की योग्यता को औरों को भी प्राप्त करावें॥4॥ पुनस्ते किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते॥ फिर वे क्या करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ उ॒त नो॒ धियो॒ गोअ॑ग्राः॒ पूष॒न् विष्ण॒वेव॑यावः। कर्ता॑ नः स्वस्ति॒मतः॑॥5॥17॥ उ॒त। नः॒। धियः॑। गोऽअ॑ग्राः। पूष॑न्। विष्णो॒ इति॑। एव॑ऽयावः। कर्त॑। नः॒। स्व॒स्ति॒ऽमतः॑॥5॥ पदार्थः—(उत) अपि (नः) अस्मभ्यम् (धियः) उत्तमाः प्रज्ञाः कर्माणि च (गोअग्राः) गाव इन्द्रियाण्यग्रे यासां ताः। सर्वत्र विभाषा गोः। (अष्टा॰6.1.122) अनेन सूत्रेणाऽत्र प्रकृतिभावः। (पूषन्) विद्याशिक्षाभ्यां पुष्टिकर्त्तः (विष्णो) सर्वविद्यासु व्यापनशील (एवयावः) एति जानाति सर्वव्यवहारं येन स एवो बोधस्तं याति प्राप्नोति प्रापयति वा तत्सम्बुद्धौ। मतुवसोरादेशे वन उपसंख्यानम्। (अष्टा॰वा॰8.3.1) अनेन वार्त्तिकेनात्र सम्बोधने रुः। (कर्त्त) कुरुत। अत्र बहुलं छन्दसीति विकरणस्य लुक् लोडादेशस्य तस्य स्थाने तवादेशः। द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घश्च। (नः) अस्मान् (स्वस्तिमतः) सुखयुक्तान्॥5॥ अन्वयः—हे पूषन् विष्णवेवयावश्च विद्वांसो! यूयं नोऽस्मभ्यं गोअग्रा धियः कर्त्तः। उतापि नोऽस्मान् स्वस्तिमतः कर्त्तः॥5॥ भावार्थः—अध्येतृभिर्यथाऽध्यापका विद्याशिक्षाः कुर्य्युस्तथैव सङ्गृह्यैताः सुविचारेण नित्यमुन्नेया॥5॥ पदार्थः—हे (पूषन्) विद्या और उत्तम शिक्षा से पोषण करने वा (विष्णो) समस्त विद्याओं में व्यापक होने वा (एवयावः) जिससे सब व्यवहार ज्ञात होता है, उस अगाध बोध को प्राप्त होनेवाले विद्वान् लोगो! तुम (नः) हम लोगों के लिये (गोअग्राः) इन्द्रिय अग्रगामी जिनमें हों, उन (धियः) उत्तम बुद्धि वा उत्तम कर्मों को (कर्त्त) प्रसिद्ध करो (उत) उसके पश्चात् (नः) हम लोगों को (स्वस्तिमतः) सुखयुक्त करो॥5॥ भावार्थः—पढ़नेवालों को चाहिये कि पढ़ानेवाले जैसे विद्या की शिक्षा करे, वैसे उनका ग्रहण कर अच्छे विचार से नित्य उनकी उन्नति करें॥5॥ विद्यया किं जायत इत्युपदिश्यते॥ विद्या से क्या उत्पन्न होता है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ मधु॒ वाता॑ ऋताय॒ते मधु॑ क्षरन्ति॒ सिन्ध॑वः। माध्वी॑र्नः स॒न्त्वोष॑धीः॥6॥ मधु॑। वाताः॑। ऋ॒त॒ऽय॒ते। मधु॑। क्ष॒र॒न्ति॒। सिन्ध॑वः। माध्वीः॑। नः॒। स॒न्तु॒। ओष॑धीः॥6॥ पदार्थः—(मधु) मधुरं ज्ञानम् (वाताः) पवनाः (ऋतायते) ऋतमात्मन इच्छवे। वा च्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति क्यच ईत्वं न। (मधु) मधुताम् (क्षरन्ति) वर्षन्ति (सिन्धवः) समुद्रा नद्यो वा (माध्वीः) मधुविज्ञाननिमित्तं विद्यते यासु ताः। मधोर्ञ च। (अष्टा॰4.4.129) अनेन मधुशब्दाञ् ञः। ऋत्व्यवास्त्व्य॰ इति यणादेशनिपातनम्। वाच्छन्दसीति पूर्वसवर्णादेशः। (नः) अस्मभ्यम् (सन्तु) (ओषधीः) सोमलतादय ओषध्यः। अत्रापि पूर्ववत्पूर्वसवर्णदीर्घः॥6॥ अन्वयः—हे पूर्णविद्य! यथा युष्मभ्यमृतायते च वाता मधु सिन्धवश्च मधु क्षरन्ति तथा न ओषधीर्माध्वीः सन्तु॥6॥ भावार्थः—हे अध्यापका! यूयं वयं चैवं प्रयतेमहि यतः सर्वेभ्यः पदार्थेभ्योऽखिलानन्दाय विद्ययोपकारान् ग्रहीतुं शक्नुयाम॥6॥ पदार्थः—हे पूर्ण विद्यावाले विद्वानो! जैसे तुम्हारे लिये और (ऋतायते) अपने को सत्य व्यवहार चाहनेवाले पुरुष के लिये (वाताः) वायु (मधु) मधुरता और (सिन्धवः) समुद्र वा नदियां (मधु) मधुर गुण को (क्षरन्ति) वर्षा करती हैं, वैसे (नः) हमारे लिये (ओषधीः) सोमलता आदि ओषधि (माध्वीः) मधुरगुण के विशेष ज्ञान करानेवाली (सन्तु) हों॥6॥ भावार्थः—हे पढ़ाने वालो! तुम और हम ऐसा अच्छा यत्न करें कि जिससे सृष्टि के पदार्थों से समग्र आनन्द के लिये विद्या करके उपकारों को ग्रहण कर सकें॥6॥ पुनर्वयं कस्मै कं पुरुषार्थं कुर्य्यामेत्युपदिश्यते॥ फिर हम किसके लिये किस पुरुषार्थ को करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ मधु॒ नक्त॑मु॒तोषसो॒ मधु॑म॒त्पार्थि॑वं॒ रजः॑। मधु॒ द्यौर॑स्तु नः पि॒ता॥7॥ मधु॑। नक्त॑म्। उ॒त। उ॒षसः॑। मधु॑ऽमत्। पार्थि॑वम्। रजः॑। मधु॑। द्यौः। अ॒स्तु॒। नः॒। पि॒ता॥7॥ पदार्थः—(मधु) मधुरा (नक्तम्) रात्रिः (उत) अपि (उषसः) दिवसानि (मधुमत्) मधुरगुणयुक्तम् (पार्थिवम्) पृथिव्यां विदितम् (रजः) अणुत्रसरेण्वादि (मधु) माधुर्यसुखकारिका (द्यौः) सूर्यकान्तिः (अस्तु) भवतु (नः) अस्मभ्यम् (पिता) पालकः॥7॥ अन्वयः—हे विद्वांसो! यथा नोऽस्मभ्यं नक्तं मधूषसो मधूनि पार्थिवं रजो मधुमदुत पिता द्यौर्मध्वस्तु तथा युष्मभ्यमप्येते स्युः॥7॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। अध्यापकैर्यथा मनुष्येभ्यः पृथिवीस्थाः पदार्था आनन्दप्रदाः स्युस्तथा गुणज्ञानेन हस्तक्रियया च विद्योपयोगः सर्वैरनुष्ठेयः॥7॥ पदार्थः—हे विद्वानो! जैसे (नः) हम लोगों के लिये (नक्तम्) रात्रि (मधु) मधुर (उषसः) दिन मधुर गुणवाले (पार्थिवम्) पृथिवी में (रजः) अणु और त्रसरेणु आदि छोटे-छोटे भूमि के कणके (मधुमत्) मधुर गुणों से युक्त सुख करनेवाले (उत) और पिता पालन करनेवाली (द्यौः) सूर्य्य की कान्ति (मधु) मधुर गुणवाली (अस्तु) हो, वैसे तुम लोगों के लिये भी हो॥7॥ भावार्थः—पढ़ानेवाले लोगों से जैसे मनुष्यों के लिये पृथिवीस्थ पदार्थ आनन्दायक हों, वैसे सब मनुष्यों को गुण, ज्ञान, और हस्तक्रिया से विद्या का उपयोग करना चाहिए॥7॥ पुनरस्माभिः किमर्थं विद्याऽनुष्ठानं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते॥ फिर हम लोगों को किसलिए विद्या का अनुष्ठान करना चाहिये॥ मधु॑मान्नो॒ वन॒स्पति॒र्मधु॑माँ अस्तु॒ सूर्यः॑। माध्वी॒र्गावो॑ भवन्तु नः॥8॥ मधु॑ऽमान्। नः॒। वन॒स्पतिः॑। मधु॑ऽमान्। अ॒स्तु॒। सूर्यः॑। माध्वीः॑। गावः॑। भ॒व॒न्तु॒। नः॒॥8॥ पदार्थः—(मधुमान्) प्रशस्तानि मधूनि सुखानि विद्यन्ते यस्मिन्सः (नः) अस्मदर्थम् (वनस्पतिः) वनानां मध्ये रक्षणीयो वटादिवृक्षसमूहो मेघो वा (मधुमान्) प्रशस्तो मधुरः प्रकाशे विद्यते यस्मिन् सः (अस्तु) भवतु (सूर्यः) ब्रह्माण्डस्थो मार्त्तण्डः शरीरस्थः प्राणो वा (माध्वीः) माध्व्यः (गावः) किरणाः (भवन्तु) (नः) अस्माकं हिताय॥8॥ अन्वयः—भो विद्वांसो! यथा नोऽस्मभ्यं वनस्पतिर्मधुमान् सूर्यश्च मधुमानस्तु नोऽस्माकं गावो माध्वीर्भवन्तु तथा यूयमस्मान् शिक्षध्वम्॥8॥ भावार्थः—हे विद्वांसो! यूयं वयं चेत्थं मिलित्वैवं पुरुषार्थं कुर्याम, येनाऽस्माकं सर्वाणि कार्याणि सिध्येयुः॥8॥ पदार्थः—हे विद्वानो! जैसे (नः) हम लोगों के लिये (मधुमान्) जिसमें प्रशंसित मधुर सुख है, ऐसा (वनस्पतिः) वनों में रक्षा के योग्य वट आदि वृक्षों का समूह वा मेघ और (सूर्यः) ब्रह्माण्डों में स्थिर होनेवाला सूर्य वा शरीरों में ठहरनेवाला प्राण (मधुमान्) जिसमें मधुर गुणों का प्रकाश है, ऐसा (अस्तु) हो तथा (नः) हम लोगों के हित के लिये (गावः) सूर्य को किरणें (माध्वीः) मधुर गुणवाली (भवन्तु) होवें, वैसी तुम लोग हमको शिक्षा करो॥8॥ भावार्थः—हे विद्वान् लोगो! तुम और हम आओ मिलके ऐसा पुरुषार्थ करें कि जिससे हम लोगों के सब काम सिद्ध होवें॥8॥ पुनरीश्वरो विद्वांसश्च मनुष्येभ्यः किं कुर्वन्तीत्युपदिश्यते॥ फिर ईश्वर और विद्वान् लोग मनुष्यों के लिये क्या-क्या करते हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ शं नो॑ मि॒त्रः शं वरु॑णः॒ शं नो॑ भवत्वर्य॒मा। शं न॒ इन्द्रो॒ बृह॒स्पतिः॒ शं नो॒ विष्णु॑रुरुक्र॒मः॥9॥18॥ शम्। नः॒। मि॒त्रः। शम्। वरु॑णः। शम्। नः॒। भ॒व॒तु॒। अ॒र्य॒मा। शम्। नः॒। इन्द्रः॑। बृह॒स्पतिः॑। शम्। नः॒। विष्णुः॑। उ॒रु॒ऽक्र॒मः॥9॥ पदार्थः—(शम्) सुखकारी (नः) अस्मभ्यम् (मित्रः) सर्वसुखकारी (शम्) शान्तिप्रदः (वरुणः) सर्वोत्कृष्टः (शम्) आरोग्यसुखदः (नः) अस्मभ्यम् (भवतु) (अर्यमा) न्यायव्यवस्थाकारी (शम्) ऐश्वर्यसौख्यप्रदः (नः) अस्मदर्थम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यप्रदः (बृहस्पतिः) बृहत्यो वाचो विद्यायाः पतिः पालकः (शम्) विद्याव्याप्तिप्रदः (नः) अस्मभ्यम् (विष्णुः) सर्वगुणेषु व्यापनशीलः (उरुक्रमः) बहवः क्रमाः पराक्रमा यस्य सः॥9॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यथाऽस्मदर्थमुरुक्रमो मित्रो नः शमुरुक्रमो वरुणो नः शमुरुक्रमोऽर्यमा नः शमुरुक्रमो बृहस्पतिरिन्द्रो नः शमुरुक्रमो विष्णुर्नः शं च भवतु तथा युष्मदर्थमपि भवतु॥9॥ भावार्थः—नहि परमेश्वरेण समः कश्चित्सखा श्रेष्ठो न्यायकार्यैश्वर्यवान् बृहत्स्वामी व्यापकः सुखकारी च विद्यते। नहि च विदुषा तुल्यः प्रियकारी धार्मिकः सत्यकारी विद्यादिधनप्रदो विद्यापालकः शुभगुणकर्मसु व्याप्तिमान् महापराक्रमी च भवितुं शक्यः। तत्स्मात्सर्वैर्मनुष्यैरीश्वरस्य स्तुतिप्रार्थनोपासना विदुषां सेवासङ्गौ च सततं कृत्वा नित्यमानन्दयितव्यमिति॥9॥ अत्राऽध्यापकाऽध्येतृणामीश्वरस्य च कर्त्तव्यफलस्योक्तत्वादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्॥ इति नवतितमं 90 सूक्तं अष्टादशो 18 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! जैसे हमारे लिये (उरुक्रमः) जिसके बहुत पराक्रम हैं, वह (मित्रः) सबका सुख करनेवाला, (नः) हम लोगों के लिये (शम्) सुखकारी, वा जिसके बहुत पराक्रम हैं, वह (वरुणः) सबमें अति उन्नतिवाला, हम लोगों के लिये (शम्) शान्ति सुख का देनेवाला, वा जिसके बहुत पराक्रम हैं, वह (अर्य्यमा) न्याय करनेवाला, (नः) हम लोगों के लिये (शम्) आरोग्य सुख का देनेवाला, जिसके बहुत पराक्रम हैं, वह (बृहस्पतिः) महत् वेदविद्या का पालनेवाला, वा जिसके बहुत पराक्रम हैं वह (इन्द्रः) परमैश्वर्य देनेवाला, (नः) हम लोगों के लिये (शम्) ऐश्वर्य सुखकारी, वा जिसके बहुत पराक्रम हैं, वह (विष्णुः) सब गुणों में व्याप्त होनेवाला परमेश्वर तथा उक्त गुणोंवाला विद्वान् सज्जन पुरुष (नः) हम लोगों के लिये पूर्वोक्त सुख और (शम्) विद्या में सुख देनेवाला (भवतु) हो॥9॥ भावार्थः—परमेश्वर के समान मित्र, उत्तम न्याय का करनेवाला, ऐश्वर्य्यवान्, बड़े-बड़े पदार्थों का स्वामी तथा व्यापक सुख देनेवाला और विद्वान् के समान प्रेम उत्पादन करने, धार्मिक सत्य व्यवहार वर्त्तने, विद्या आदि धनों को देने और विद्या पालनेवाला शुभ गुण और सत्कर्मों में व्याप्त महापराक्रमी कोई नहीं हो सकता। इससे सब मनुष्यों को चाहिये कि परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना, उपासना, निरन्तर विद्वानों की सेवा और संग करके नित्य आनन्द में रहें॥9॥ इस सूक्त में पढ़ने-पढ़ानेवालों के और ईश्वर के कर्त्तव्य काम तथा उनके फल का कहना है, इससे इस सूक्त के अर्थ के साथ पिछले सूक्त के अर्थ की संगति जाननी चाहिये॥ यह नब्बेवां 90 सूक्त और अठाहरवां 18 वर्ग समाप्त हुआ॥