ऋग्वेदभाष्यम् प्रथममण्डले 141-150 सूक्तानि

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ऋग्वेदभाष्ये प्रथममण्डले 141-150 सूक्तानि[सम्पाद्यताम्]

दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचितम् (डॉ॰ ज्ञानप्रकाशशास्त्रिणा सम्पादितं डॉ॰ नरेशकुमारधीमान्-द्वारा च यूनिकोडरूपेण परिवर्तितम्)[सम्पाद्यताम्]

बळित्थेत्यस्य त्रयोदशर्चस्यैकचत्वारिंशदुत्तरस्य शततमस्य सूक्तस्य दीर्घतमा ऋषिः। अग्निर्देवता। 1,2,3,6,11 जगती। 4,7,9,10 निचृज्जगती छन्दः। निषादः स्वरः। 5 स्वराट् त्रिष्टुप्। 8 भुरिक् त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः। 12 भुरिक् पङ्क्तिः। 13 स्वराट् पङ्क्तिश्छन्दः। पञ्चमः स्वरः॥ पुनर्विद्वद्गुणानुपदिशति॥ अब एक सौ इकतालीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में फिर विद्वानों के गुणों का उपदेश करते हैं॥ बळि॒त्था तद्वपु॑षे धायि दर्श॒तं दे॒वस्य॒ भर्गः॒ सह॑सा॒ यतो॒ जनि॑। यदी॒मुप॒ ह्वर॑ते॒ साध॑ते म॒तिर्ऋ॒तस्य॒ धेना॑ अनयन्त स॒स्रुतः॑॥1॥ बट्। इ॒त्था। तत्। वपु॑षे। धा॒यि॒। द॒र्श॒तम्। दे॒वस्य॑। भर्गः॑। सह॑सः। यतः॑। जनि॑। यत्। ई॒म्। उप॑। ह्वर॑ते। साध॑ते। म॒तिः। ऋ॒तस्य॑। धेनाः॑। अ॒न॒य॒न्त॒। स॒ऽस्रुतः॑॥1॥ पदार्थः—(बट्) सत्यम् (इत्था) अनेन प्रकारेण विदुषः (तत्) (वपुषे) सुरूपाय (धायि) ध्रियेत (दर्शतम्) द्रष्टव्यम् (देवस्य) विदुषः (भर्गः) शुद्धं तेजः (सहसः) विद्याबलवतः (यतः) (जनि) उत्पद्यते। अत्राऽडभावः। (यत्) (ईम्) सर्वतः (उप) (ह्वरते) (साधते) (मतिः) प्रज्ञा (ऋतस्य) सत्यस्य (धेनाः) वाण्यः (अनयन्त) नयन्ति (सस्रुतः) याः समानं सत्यं मार्गं स्रुवन्ति गच्छन्ति ताः॥1॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यद् दर्शतं देवस्य भर्गः प्रति मम मतिरुपह्वरते साधते च सस्रुत ऋतस्य धेना ईमनयन्त यतस्तत् सहसो जनि ततस्तद् बडित्था वपुषे युष्माभिर्धायि॥1॥ भावार्थः—हे मनुष्या! यया प्रज्ञया वाचा सत्याचारेण च विद्यावतां द्रष्टव्यं स्वरूपं ध्रियते कामश्च साध्यते तां वाचं तत्सत्यं च यूयं नित्यं स्वीकुरुत॥1॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! (यत्) जिस (दर्शतम्) देखने योग्य (देवस्य) विद्वान् के (भर्गः) शुद्ध तेजः के प्रति मेरी (मतिः) बुद्धि (उपह्वरते) जाती कार्यसिद्धि करती और (सस्रुतः) जो समान सत्यमार्ग को प्राप्त होतीं वे (ऋतस्य) सत्य व्यवहार की (धेनाः) वाणियों को (ईम्) सब ओर से (अनयन्त) सत्यता को पहुंचाती तथा (यतः) जिस कारण (तत्) वह तेज (सहसः) विद्याबल से (जनि) उत्पन्न होता उस कारण (बडित्था) वह सत्य तेज अर्थात् विद्वानों के गुणों का प्रकाश इस प्रकार अर्थात् उक्त रीति से (वपुषे) अपने सुरूप के लिये तुम लोगों से (धायि) धारण किया जाय॥1॥ भावार्थः—हे मनुष्यो! जिस उत्तम बुद्धि और सत्य आचरण से विद्यावानों का देखने योग्य स्वरूप धारण किया जाता और काम सिद्ध किया जाता उस वाणी और उस सत्य आचार को तुम नित्य स्वीकार करो॥1॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ पृ॒क्षो वपुः॑ पितु॒मान्नित्य॒ आ श॑ये द्वि॒तीय॒मा स॒प्तशि॑वासु मा॒तृषु॑। तृ॒तीय॑मस्य वृष॒भस्य॑ दो॒हसे॒ दश॑प्रमतिं जनयन्त॒ योष॑णः॥2॥ पृ॒क्षः। वपुः॑। पि॒तु॒ऽमान्। नित्यः॑। आ। श॒ये॒। द्वि॒तीय॑म्। आ। स॒प्तऽशि॑वासु। मा॒तृषु॑। तृ॒तीय॑म्। अ॒स्य॒। वृ॒ष॒भस्य॑। दो॒हसे॑। दश॑ऽप्रमतिम्। ज॒न॒य॒न्त॒। योष॑णः॥2॥ पदार्थः—(पृक्षः) प्रष्टव्यम् (वपुः) सुन्दरं रूपम् (पितुमान्) प्रशस्तान्नयुक्तः (नित्यः) नित्यस्स्वरूपः (आ) (शये) (द्वितीयम्) (आ) (सप्तशिवासु) सप्तविधासु कल्याणकारिणीषु (मातृषु) मान्यकारिकासु (तृतीयम्) (अस्य) (वृषभस्य) यज्ञादिकर्मद्वारा वृष्टिकरस्य (दोहसे) कामानां प्रपूर्णाय (दशप्रमतिम्) दशधा प्रकृष्टा मतिर्यस्मिँस्तम् (जनयन्त) प्रकटयन्ति (योषणः) मिश्रणशीला युवतयः॥2॥ अन्वयः—नित्यः पितुमान् अहं प्रथमं पृक्षो वपुराशयेऽस्य वृषभस्य मम द्वितीयं सप्तशिवासु मातृष्वावर्त्तते तृतीयं दशप्रमतिं वपुर्दोहसे योषणो जनयन्त॥2॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या अत्र सप्तविधेषु लोकेषु ब्रह्मचर्येणादिमं गृहाश्रमेण द्वितीयं वानप्रस्थसंन्यासाभ्यां तृतीयं कर्मोपासनविज्ञानं लभन्ते ते दशानामिन्द्रियाणां प्राणानां च विषयमनोबुद्धि- चित्ताऽहङ्कारजीवानां च ज्ञानं प्राप्नुवन्ति॥2॥ पदार्थः—(नित्यः) नित्य (पितुमान्) प्रशंसित अन्नयुक्त मैं पहिले (पृक्षः) पूंछने कहने योग्य (वपुः) सुन्दररूप का (आ, शये) आशय लेता अर्थात् आश्रित होता हूँ (अस्य) इस (वृषभस्य) यज्ञादि कर्म द्वारा जल वर्षानेवाले का मेरा (द्वितीयम्) दूसरा सुन्दर रूप (सप्तशिवासु) सात प्रकार की कल्याण करने (मातृषु) और मान्य करनेवाली माताओं के समीप (आ) अच्छे प्रकार वर्त्तमान और (तृतीयम्) तीसरा (दशप्रमतिम्) दश प्रकार की उत्तम मति जिसमें होती उस सुन्दररूप को (दोहसे) कामों की परिपूर्णता के लिये (योषणः) प्रत्येक व्यवहारों को मिलानेवाली स्त्री (जनयन्त) प्रकट करती हैं॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य इस जगत् में सात प्रकार के लोकों में ब्रह्मचर्य से प्रथम, गृहाश्रम से दूसरे और वानप्रस्थ वा संन्यास से तीसरे कर्म और उपासना के विज्ञान को प्राप्त होते वे दश इन्द्रियों, दश प्राणों के विषयक मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार और जीव के ज्ञान को प्राप्त होते हैं॥2॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ निर्यदीं॑ बु॒ध्नान्म॑हि॒षस्य॒ वर्प॑स ईशा॒नासः॒ शव॑सा क्रन्त॑ सू॒रयः॑। यदी॒मनु॑ प्र॒दिवो॒ मध्व॑ आध॒वे गुहा॒ सन्तं॑ मात॒रिश्वा॑ मथा॒यति॑॥3॥ निः। यत्। ई॒म्। बु॒ध्नात्। म॒हि॒षस्य॑। वर्प॑सः। ई॒शा॒नासः॑। शव॑सा। क्रन्त॑। सू॒रयः॑। यत्। ई॒म्। अनु॑। प्र॒ऽदिवः॑। मध्वः॑। आ॒ऽध॒वे। गुहा॑। सन्त॑म्। मा॒त॒रिश्वा॑। मथा॒यति॑॥3॥ पदार्थः—(नि) नितराम् (यत्) यम् (ईम्) इमं प्रत्यक्षम् (बुध्नात्) अन्तरिक्षात् (महिषस्य) महतः। महिष इति महन्नामसु पठितम्। (निघं॰3.3) (वर्पसः) रूपस्य। वर्प इति रूपनामसु पठितम्। (निघं॰3.7) (ईशानासः) ऐश्वर्ययुक्ताः (शवसा) बलेन (क्रन्त) क्रमन्तु (सूरयः) विद्वांसः (यत्) ये (ईम्) (अनु) (प्रदिवः) प्रकृष्टद्युतिमतः (मध्वः) विज्ञानयुक्तस्य (आधवे) समन्तात्प्रक्षेपणे (गुहा) बुद्धौ (सन्तम्) (मातरिश्वा) प्राणः (मथायति) मथ्नाति। अत्र छन्दसि शायजपीति शायच्॥3॥ अन्वयः—यत् ईशानासः सूरयश्शवसा यथाधवे मातरिश्वाऽग्निं मथायति तथा महिषस्य वर्पसः सम्बन्धे स्थितं बुध्नादीमनुक्रन्त मध्वः प्रदिवो गुहा सन्तमीं यत् निष्क्रन्त ततस्ते सुखिनो जायन्ते॥3॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। त एव ब्रह्मविदो जायन्ते ये धर्माऽनुष्ठानयोगाभ्यासं सत्सङ्गं च कृत्वा स्वात्मानं विदित्वा परमात्मानं विदन्ति त एव मुमुक्षुभ्य एतं ज्ञापयितुमर्हन्ति॥3॥ पदार्थः—(यत्) जो (ईशानासः) ऐश्वर्ययुक्त (सूरयः) विद्वान् जन (शवसा) बल से जैसे (आधवे) सब ओर से अन्न आदि के अलग करने के निमित्त (मातरिश्वा) प्राण वायु जाठराग्नि को (मथायति) मथता है वैसे (महिषस्य) बड़े (वर्पसः) रूप अर्थात् सूर्यमण्डल के सम्बन्ध में स्थित (बुध्नात्) अन्तरिक्ष से (ईम्) इस प्रत्यक्ष व्यवहार को (अनुक्रन्त) अनुक्रम से प्राप्त हों वा (मध्वः) विशेष ज्ञानयुक्त (प्रदिवः) कान्तिमान् आत्मा के (गुहा) गृहाशय में अर्थात् बुद्धि में (सन्तम्) वर्त्तमान (ईम्) प्रत्यक्ष (यत्) जिस ज्ञान को (निष्क्रन्त) निरन्तर क्रम से प्राप्त हों, उससे वे सुखी होते हैं॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। वे ही ब्रह्मवेत्ता विद्वान् होते हैं, जो धर्मानुष्ठान, योगाभ्यास और सत्सङ्ग करके अपने आत्मा को जान परमात्मा को जानते हैं और वे ही मुमुक्षु जनों के लिये इस ज्ञान को विदित कराने के योग्य होते हैं॥3॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ प्र यत्पि॒तुः प॑र॒मान्नी॒यते॒ पर्या पृ॒क्षुधो॑ वी॒रुधो॒ दंसु॑ रोहति। उ॒भा यद॑स्य ज॒नुषं॒ यदिन्व॑त॒ आदिद्यवि॑ष्ठो अभवद् घृ॒णा शुचिः॑॥4॥ प्र। यत्। पि॒तुः। प॒र॒मात्। नी॒यते॑। परि॑। आ। पृ॒क्षुधः॑। वी॒रुधः॑। दम्ऽसु॑। रो॒ह॒ति॒। उ॒भा। यत्। अ॒स्य॒। ज॒नुष॑म्। यत्। इन्व॑तः। आत्। इत्। यवि॑ष्ठः। अ॒भ॒व॒त्। घृ॒णा। शुचिः॑॥4॥ पदार्थः—(प्र) (यत्) (पितुः) अन्नम् (परमात्) उत्कृष्टात् प्रयत्नात् (नीयते) प्राप्यते (परि) (आ) (पृक्षुधः) प्रकर्षेण क्षोधितुं भोक्तुमिष्टाः। क्षुध बुभुक्षायाम्। अत्र कर्मणि क्विप् पृषोदरादित्वात् पूर्वसंप्रसारणं च। (वीरुधः) अतिविस्तृता लताः (दंसु) दमेषु (रोहति) वर्द्धते (उभा) उभौ (यत्) (अस्य) वृक्षजातेः (जनुषम्) जन्म (यत्) (इन्वतः) प्रियस्य (आत्) आनन्तर्य्ये (इत्) एव (यविष्ठः) अतिशयेन युवा यविष्ठः (अभवत्) भवेत् (घृणा) दीप्तिः (शुचिः) पवित्रा॥4॥ अन्वयः—पुरुषेण परमात् यदस्य पितुः प्रणीयते यो दंसु पृक्षुधो वीरुधः पर्य्यारोहत्यादिन्वतो यज्जनुषमभवत् यद्यः शुचिर्घृणाऽभवत् तावुभा इदेव यविष्ठो जनः प्राप्नुयात्॥4॥ भावार्थः—मनुष्यैरन्नमौषधं च सर्वतो ग्राह्यं तत्संस्कृतेन भुक्तेन सर्वं सुखं भवतीति मन्तव्यम्॥4॥ पदार्थः—पुरुष से (परमात्) उत्कृष्ट उत्तम यत्न के साथ (यत्) जो (अस्य) प्रत्यक्ष वृक्षजाति का सम्बन्धी (पितुः) अन्न (प्रणीयते) प्राप्त किया जाता है वा जो (दंसु) दूसरों के दबाने आदि के निमित्त में (पृक्षुधः) अत्यन्त भोगने को इष्ट (वीरुधः) अत्यन्त पौंडी हुई लताओं पर (पर्य्यारोहति) चारों और से पौंडता है (आत्) और (इन्वतः) प्रिय इस यजमान का (यत्) जो (जनुषम्) जन्म (अभवत्) हो तथा (यत्) जो (शुचिः) पवित्र (घृणा) चमक-दमक हो उन (उभा) दोनों को (इत्) ही (यविष्ठः) अत्यन्त तरुण जन प्राप्त होवे॥4॥ भावार्थः—मनुष्यों को चाहिये कि अन्न और औषध सब से लेवें और संस्कार किये अर्थात् बनाये हुए उस अन्न के भोजन से समस्त सुख होता है, ऐसा जानना चाहिये॥4॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ आदिन्मा॒तॄरावि॑श॒द्यास्वा शुचि॒रहिं॑स्यमान उर्वि॒या वि वा॑वृधे। अनु॒ यत्पूर्वा॒ अरु॑हत्सना॒जुवो॒ नि नव्य॑सी॒ष्वव॑रासु धावते॥5॥8॥ आत्। इत्। मा॒तॄः। आ। अ॒वि॒श॒त्। यासु॑। आ। शुचिः॑। अहिं॑स्यमानः। उ॒र्वि॒या। वि। व॒वृ॒॒धे॒। अनु॑। यत्। पूर्वाः॑। अरु॑हत्। स॒ना॒ऽजुवः॑। नि। नव्य॑सीषु। अव॑रासु। धा॒व॒ते॒॥5॥ पदार्थः—(आत्) आनन्तर्य्ये (इत्) एव (मातॄः) मातृवन्मान्यप्रदा ओषधीः (आ) (अविशत्) विशति (यासु) (आ) (शुचिः) (अहिंस्यमानः) अहिंसितः सन् (उर्विया) बहुना (वि) (वावृधे) वर्द्धते। अत्र तुजादीनामित्यभ्यासदैर्घ्यम्। (अनु) (यत्) यः (पूर्वाः) (अरुहत्) वर्धयति (सनाजुवः) सनातनी जूर्वेगो यासां ताः (न) (नव्यसीषु) अतिशयेन नवीनासु (अवरासु) अर्वाचीनासु (धावते) सद्यो गच्छति॥5॥ अन्वयः—ये यासु नव्यसीष्ववरास्वोषधीषु निधावते यद्यस्सनाजुवः पूर्वा ओषधीरन्वरुहत् स तास्वाशुचिरहिंस्यमानः सन् उर्विया विवावृध आदिन्मातॄराविशत्॥5॥ भावार्थः—ये पुरुषा वैद्यकविद्यामधीत्य महौषधानि युक्त्या सेवन्ते ते बहु वर्द्धन्ते। ओषधयो द्विविधा भवन्ति प्राक्ताना नवीनाश्च तासु ये विचक्षणा भवन्ति त एवारोगा जायन्ते॥5॥ पदार्थः—जो (यासु) जिन (नव्यसीषु) अत्यन्त नवीन और (अवरासु) पिछली ओषधियों के निमित्त (नि, धावते) निरन्तर शीघ्र जाता है वा (यत्) जो (सनाजुवः) सनातन वेगवाली (पूर्वाः) पिछली ओषधियों को (अनु, अरुहत्) बढ़ाता है, वह उन ओषधियों में (आ, शुचिः) अच्छे प्रकार पवित्र और (अहिंस्यमानः) विनाश को न प्राप्त होता हुआ (उर्विया) बहुत प्रकार (विवावृधे) विशेषता से बढ़ता है (आत्) इसके पीछे (इत्) हो (मातॄः) माता के समान मान करनेवाली ओषधियों को (आ, अविशत्) अच्छे प्रकार प्रवेश करता है॥5॥ भावार्थः—जो पुरुष वैद्यक विद्या को पढ़, बड़ी-बड़ी ओषधियों का युक्ति के साथ सेवन करते हैं, वे बहुत बढ़ते हैं। ओषधी दो प्रकार की होती हैं अर्थात् पुरानी और नवीन। उनमें जो विचक्षण चतुर होते हैं, वे ही नीरोग होते हैं॥5॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ आदिद्धोता॑रं वृणते॒ दिवि॑ष्टिषु॒ भग॑मिव पपृचा॒नास॑ ऋञ्जते। दे॒वान्यत्क्रत्वा॑ म॒ज्मना॑ पुरुष्टु॒तो मर्तं॒ शंसं॑ वि॒श्वधा॒ वेति॒ धाय॑से॥6॥ आत्। इत्। होता॑रम्। वृ॒ण॒ते॒। दिवि॑ष्टिषु। भग॑म्ऽइव। प॒पृ॒चा॒नासः॑। ऋ॒ञ्ज॒ते॒। दे॒वान्। यत्। क्रत्वा॑। म॒ज्मना॑। पु॒रु॒ऽस्तुतः। मर्त॑म्। शंस॑म्। वि॒श्वधा॑। वेति॑। धा॑यसे॥6॥ पदार्थः—(आत्) (इत्) (होतारम्) दातारम् (वृणते) संभजन्ति (दिविष्टिषु) दिव्यासु इष्टिषु (भगमिव) यथा धनैश्वर्यम् (पपृचानासः) संपर्कं कुर्वाणाः (ऋञ्जते) भृञ्जति (देवान्) दिव्यान् गुणान् (यत्) यः (क्रत्वा) कर्मणा प्रज्ञया वा (मज्मना) बलेन (पुरुष्टुतः) पुरुभिर्बहुभिः प्रशंसितः (मर्त्तम्) मनुष्यम् (शंसम्) प्रशंसितम् (विश्वधा) यो विश्वं दधाति सः (वेति) प्राप्नोति (धायसे) धारणाय॥6॥ अन्वयः—यद्यः पुरुष्टुतो विश्वधा क्रत्वा मज्मना धायसे शंसं मर्त्तं देवाँश्च वेति तमाद्धोतारं ये पपृचानासो दिविष्टिषु भगमिव वृणते त इद् दुःखान्यृञ्जते दहन्ति॥6॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। ये सद्वैद्यं रत्नमिव सेवन्ते ते शरीरात्मबला भूत्वा सुखिनो जायन्ते॥6॥ पदार्थः—(यत्) जो (पुरुष्टुतः) बहुतों ने प्रशंसा किया हुआ (विश्वधा) विश्व को धारण करनेवाला (क्रत्वा) कर्म वा विशेष बुद्धि से और (मज्मना) बल से (धायसे) धारणा के लिये (शंसम्) प्रशंसायुक्त (मर्त्तम्) मनुष्य को और (देवान्) दिव्य गुणों को (वेति) प्राप्त होता है, उसको (आत्) और (होतारम्) देनेवाले को जो (पपृचानासः) सम्बन्ध करते हुए जन (दिविष्टिषु) सुन्दर यज्ञों में (भगमिव) धन ऐश्वर्य्य के समान (वृणते) सेवते हैं वे (इत्) ही दुःखों को (ऋञ्जते) भूंजते हैं अर्थात् जलाते हैं॥6॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो अच्छे वैद्य का रत्न के समान सेवन करते हैं, वे शरीर और आत्मा के बलवाले होकर सुखी होते हैं॥6॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ वि यदस्था॑द्यज॒तो वात॑चोदितो ह्वा॒रो न वक्वा॑ ज॒रणा॒ अना॑कृतः। तस्य॒ पत्म॑न्द॒क्षुषः॑ कृ॒ष्णजं॑हसः॒ शुचि॑जन्मनो॒ रज॒ आ व्य॑ध्वनः॥7॥ वि। यत्। अस्था॑त्। य॒ज॒तः। वात॑ऽचोदितः। ह्वा॒रः। न। वक्वा॑। ज॒रणाः॑। अना॑कृतः। तस्य॑। पत्म॑न्। ध॒क्षुषः॑। कृ॒ष्णऽजं॑हसः। शुचि॑ऽजन्मनः। रजः॑। आ। विऽअ॑ध्वनः॥7॥ पदार्थः—(वि) विशेषेण (यत्) यः (अस्थात्) तिष्ठेत् (यजतः) संगन्ता (वातचोदितः) वायुना प्राणेन वा प्रेरितः (ह्वारः) कुटिलतां कारयन् (न) इव (वक्वा) वक्ता (जरणाः) स्तुतयः (अनाकृतः) न आकृतो न निवारितः (तस्य) (पत्मन्) (धक्षुषः) दहतः (कृष्णजंहसः) कृष्णानि जंहांसि हननानि यस्मिँस्तस्य (शुचिजन्मनः) शुचेः पवित्राज्जन्म यस्य तस्य (रजः) कणः (आ) (व्यध्वनः) विरुद्धोऽध्वा यस्य सः॥7॥ अन्वयः—यद्यो यजतो वक्वा अनाकृतो वातचोदितो विद्वान् ह्वारोऽग्निर्न व्यस्थात् तस्य शुचिजन्मनः पत्मन्मार्गे कृष्णजंहसो धक्षुष आ व्यध्वनोऽग्ने रज इव जरणाः प्रशंसा जायन्ते॥7॥ भावार्थः—अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये धर्ममातिष्ठन्ति ते सूर्य इव प्रसिद्धा जायन्ते, तत्कृता कीर्त्तिः सर्वासु दिक्षु विराजते॥7॥ पदार्थः—(यत्) जो (यजतः) सङ्ग करने और (वक्वा) कहनेवाला (अनाकृतः) रुकावट को न प्राप्त हुआ (वातचोदितः) प्राण वा पवन से प्रेरित विद्वान् (ह्वारः) कुटिलता करते हुए अग्नि के (न) समान (व्यस्थात्) विशेषता से स्थिर है (तस्य) उस (शुचिजन्मनः) पवित्रजन्मा विद्वान् के (पत्मन्) चाल-चलन में (कृष्णजंहसः) काले मारने हैं जिसके उस (धक्षुषः) जलाते हुए (आ, व्यध्वनः) अच्छे प्रकार विरुद्ध मार्गवाले अग्नि के (रजः) कण के समान (जरणाः) प्रशंसा स्तुति होती हैं॥7॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो धर्म में अच्छी स्थिरता रखते हैं, वे सूर्य के समान प्रसिद्ध होते हैं और उनकी की हुई कीर्त्ति सब दिशाओं में विराजमान होती हैं॥7॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ रथो॒ न या॒तः शिक्व॑भिः कृ॒तो॒ द्यामङ्गे॑भिररु॒षेभि॑रीयते। आद॑स्य॒ ते कृ॒ष्णासो॑ दक्षि सू॒रयः॒ शूर॑स्येव त्वे॒षथा॑दीषते॒ वयः॑॥8॥ रथः॑। न। या॒तः। शिक्व॑ऽभिः। कृ॒तः। द्याम्। अङ्गेभिः। अ॒रु॒षेभिः॑। ई॒य॒ते॒। आत्। अ॒स्य॒। ते। कृ॒ष्णासः॑। ध॒क्षि॒। सू॒रयः॑। शूर॑स्यऽइव। त्वे॒षथा॑त्। ई॒ष॒ते॒। वयः॑॥8॥ पदार्थः—(रथः) रमणीयं यानम् (न) इव (यातः) प्राप्तः (शिक्वभिः) कीलकबन्धनादिभिः (कृतः) संपादितः (द्याम्) आकाशम् (अङ्गेभिः) अङ्गैः (अरुषेभिः) रक्तैर्गुणैः (ईयते) गच्छति (आत्) आनन्तर्ये (अस्य) (ते) (कृष्णासः) ये कृषन्ति ते (धक्षि) दहसि। अत्र शपो लुक्। (सूरयः) विद्वांसः (शूरस्येव) यथा शूरवीरस्य (त्वेषथात्) प्रदीप्तात् (ईषते) पश्यन्ति (वयः) पक्षिण इव॥8॥ अन्वयः—कृष्णासः सूरयः शिक्वभिः कृतो द्यामरुषेभिरङ्गेभिस्सह यातो रथ ईयते नेव वय इव शूरस्येव त्वेषथाद् व्यवहारादिव कलाकौशलादीषते सुखमाप्नुवन्ति। हे विद्वन्नाद्यस्त्वमग्निरिव पापानि धक्षि। अस्य ते सुखं जायते॥8॥ भावार्थः—अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा शोभनेन विमानेनान्तरिक्षे गमनाऽऽगमने सुखेन जनाः कुर्वन्ति तथा विद्वांसो विद्यया धर्म्ये मार्गे विचरितुं शक्नुवन्ति॥8॥ पदार्थः—(कृष्णासः) जो खींचते हैं वे (सूरयः) विद्वान् जन जैसे (शिक्वभिः) कीलें और बन्धनों से (कृतः) सिद्ध किया (द्याम्) आकाश को (अरुषेभिः) लाल रङ्गवाले (अङ्गेभिः) अङ्गों के साथ (यातः) प्राप्त हुआ (रथः) रथ (ईयते) चलता है (न) वैसे वा (वयः) पक्षि और (शूरस्येव, त्वेषथात्) शूरवीर के प्रकाशित व्यवहार से जैसे वैसे कला-कुशलता से (ईषते) देखते हैं वे सुख पाते हैं। हे विद्वन्! (आत्) इसके अनन्तर जो आप अग्नि के समान पापों को (धक्षि) जलाते हो (अस्य) इन (ते) आपको सुख होता है॥8॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे उत्तम विमान से अन्तरिक्ष में आना-जाना सुख से जन करते हैं, वैसे विद्वान् जन विद्या से धर्म सम्बन्धी मार्ग में विचरने को समर्थ होते हैं॥8॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ त्वया॒ ह्य॑ग्ने॒ वरु॑णो धृ॒तव्र॑तो मि॒त्रः शा॑श॒द्रे अ॑र्य॒मा सु॒दान॑वः। यत्सी॒मनु॒ क्रतुना वि॒श्वथा॑ वि॒भुर॒रान्न ने॒मिः प॑रि॒भूरजा॑यथाः॥9॥ त्वया॑। हि। अ॒ग्ने॒। वरु॑णः। धृ॒तऽव्र॑तः। मि॒त्रः। शा॒श॒द्रे। अ॒र्य॒मा। सु॒ऽदानवः॑। यत्। सी॒म्। अनु॑। क्रतु॑ना। वि॒श्वऽथा॑। वि॒ऽभुः। अ॒रान्। न। ने॒मिः। प॒रि॒ऽभूः। अजा॑यथाः॥9॥ पदार्थः—(त्वया) (हि) खलु (अग्ने) विद्वन् (वरुणः) श्रेष्ठः (धृतव्रतः) धृतसत्यः (मित्रः) (शाशद्रे) शातयेः (अर्यमा) न्यायाधीशः (सुदानवः) सुष्ठु दानं येषान्ते (यत्) ये (सीम्) सर्वतः (अनु) (क्रतुना) प्रज्ञया (विश्वथा) सर्वथा (विभुः) व्यापक ईश्वरः (अरान्) चक्रस्याऽवयवान् (न) इव (नेमिः) चक्रम् (परिभूः) सर्वेषामुपरि भवतीति (अजायथाः) जायेथाः॥9॥ अन्वयः—हे अग्ने! यथा त्वया सह यद्ये वरुणो धृतव्रतो मित्रोऽर्यमा च सुदानवो हि भवन्ति तथा तत्सङ्गेन त्वं नेमिररान्नेव विश्वथा विभुरीश्वर इव क्रतुना परिभूः सीमन्वजायथा यतो दुःखं शाशद्रे छिन्नं कुर्याः॥9॥ भावार्थः—अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथेश्वरो न्यायकारी सर्वासु विद्यासु प्रवीणोऽस्ति तथा विदुषां सङ्गेन प्राज्ञो न्यायकारी पूर्णविद्यश्च स्यात्॥9॥ पदार्थः—हे (अग्ने) विद्वान्! जैसे (त्वया) तुम्हारे साथ (यत्) जो (वरुणः) श्रेष्ठ (धृतव्रतः) सत्य व्यवहार को धारण किये हुए (मित्रः) सबका मित्र और (अर्यमा) न्यायाधीश (सुदानवः) अच्छे दानशील (हि) ही होते हैं, वैसे उनके सङ्ग से आप (नेमिः) पहिआ (अरान्, न) अरों को जैसे वैसे (विश्वथा) वा जैसे सब प्रकार से (विभुः) ईश्वर व्यापक है वैसे (क्रतुना) उत्तम बुद्धि से (परिभूः) सर्वोपरि (सीम्) सब ओर से (अनु, अजायथाः) अनुक्रम से होओ जिससे दुःख को (शाशद्रे) नष्ट करो॥9॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे ईश्वर न्यायकारी और सब विद्याओं में प्रवीण है, वैसे विद्वानों के सङ्ग से बुद्धिमान्, न्यायकारी और पूरी विद्यावाला हो॥9॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ त्वम॑ग्ने शशमा॒नाय॑ सुन्व॒ते रत्नं॑ यविष्ठ दे॒वता॑तिमिन्वसि। तं त्वा॒ नु नव्यं॑ सहसो युवन्व॒यं भगं॒ न का॒रे म॑हिरत्न धीमहि॥10॥ त्वम्। अ॒ग्ने॒। श॒श॒मा॒नाय॑। सु॒न्व॒ते। रत्न॑म्। य॒वि॒ष्ठ॒। दे॒वऽता॑तिम्। इ॒न्व॒सि॒। तम्। त्वा॒। नु। नव्य॑म्। स॒ह॒सः॒। यु॒व॒न्। व॒यम्। भग॑म्। न। का॒रे। म॒हि॒ऽर॒त्न॒। धी॒म॒हि॒॥10॥ पदार्थः—(त्वम्) (अग्ने) अग्निरिव वर्त्तमान विद्वन् (शशमानाय) अधर्ममाप्लुत्य धर्मं प्राप्नुवते (सुन्वते) ऐश्वर्योत्पादकाय (रत्नम्) रमणीयं ज्ञानं साधनं वा (यविष्ठ) अतिशयेन युवम् (देवतातिम्) देवतामेव परमात्मानम् (इन्वसि) ध्यानयोगेन व्याप्नोषि (तम्) (त्वा) त्वाम् (नु) शीघ्रम् (नव्यम्) नवेषु विद्वत्सु भवम् (सहसः) बलस्य (युवन्) यौवनं प्राप्नुवन् (वयम्) (भगम्) (न) इव (कारे) कर्त्तव्ये व्यवहारे (महिरत्न) पूज्यैर्गुणै रमणीय (धीमहि) धरेमहि॥10॥ अन्वयः—हे सहसो युवन् यविष्ठ महिरत्नाऽग्ने! यस्त्वं शशमानाय सुन्वते रत्नं देवतातिं चेन्वसि तं नव्यं त्वा कारे भगन्नेव वयन्नु धीमहि॥10॥ भावार्थः—येऽधर्मं विहाय धर्ममनुष्ठाय परमात्मनं प्राप्नुवन्ति तेऽतिरम्यमानन्दमाप्नुवन्ति॥10॥ पदार्थः—हे (सहसः) बलसम्बन्धी (युवन्) यौवनभाव को प्राप्त (यविष्ठ) अत्यन्त तरुण (महिरत्न) प्रशंसा करने योग्य गुणों से रमणीय (अग्ने) अग्नि के समान वर्त्तमान विद्वान्! जो (त्वम्) आप (शशमानाय) अधर्म को उल्लंघ के धर्म को प्राप्त हुए (सुन्वते) और ऐश्वर्य को उत्पन्न करनेवाले उत्तम जन के लिये (रत्नम्) रमणीय ज्ञान वा उसके साधन को और (देवतातिम्) परमेश्वर को (इन्वसि) ध्यानयोग से व्याप्त होते हो (तम्) उन (नव्यम्) नवीन विद्वानों में प्रसिद्ध (त्वा) आपको (कारे) कर्त्तव्य व्यवहार में (भगम्) ऐश्वर्य के (न) समान (वयम्) हम लोग (नु) शीघ्र (धीमहि) धारण करें॥10॥ भावार्थः—जो अधर्म को छोड़ धर्म का अनुष्ठान कर परमात्मा को प्राप्त होते हैं, वे अति रमणीय आनन्द को प्राप्त होते हैं॥10॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अ॒स्मे र॒यिं न स्वर्थं॒ दमू॑नसं॒ भगं॒ दक्षं॒ न प॑पृचासि धर्ण॒सिम्। र॒श्मींरि॑व॒ यो यमति॒ जन्म॑नी उ॒भे दे॒वानां॒ शंस॑मृ॒त आ च॑ सु॒क्रतुः॑॥11॥ अ॒स्मे इति॑। र॒यिम्। न। सु॒ऽअर्थ॑म्। दमू॑नसम्। भग॑म्। दक्ष॑म्। न। प॒पृ॒चा॒सि॒। ध॒र्ण॒सिम्। र॒श्मीन्ऽइ॑व। यः। यम॑ति। जन्म॑नी॒ इति॑। उ॒भे इति॑। दे॒वाना॑म्। शंस॑म्। ऋ॒ते। आ। च॒। सु॒ऽक्रतुः॑॥11॥ पदार्थः—(अस्मे) अस्मभ्यम् (रयिम्) धनम् (न) इव (स्वर्थम्) सुष्ठ्वर्थः प्रयोजनं यस्माद् यद्वाऽनर्थसाधनरहितम् (दमूनसम्) दमनसाधकम् (भगम्) ऐश्वर्यं भजमानम् (दक्षम्) अतिचतुरम् (न) इव (पपृचासि) संबध्नाति। अत्र व्यत्ययेन युष्मत्। (धर्णसिम्) धर्त्तारम्। अत्र बाहुलकादसिः प्रत्ययो नुडागमश्च। (रश्मींरिव) यथा किरणान् तथा (यः) (यमति) यच्छेत्। अत्र लेटि बहुलं छन्दसीति शबभावः। (जन्मनी) पूर्वापरे (उभे) द्वे (देवानाम्) विदुषाम् (शंसम्) प्रशंसाम् (ऋते) सत्ये (आ) (च) (सुक्रतुः) शोभनप्रज्ञः॥11॥ अन्वयः—यः सुक्रतुर्विद्वानस्मे स्वर्थं रयिं न दमूनसं भगं दक्षं न धर्णसिं पपृचासि रश्मींरिव ऋते देवानामुभे जन्मनी शंसं च य आयमति सोऽस्माभिः सत्कर्त्तव्यो भवति॥11॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्काराः। ये सूर्यरश्मिवत्सर्वान् धर्म्ये पुरुषार्थे संयुञ्जन्ति स्वयं च तथैव वर्त्तन्ते ते गताऽगते जन्मनी पवित्रे कुर्वन्ति॥11॥ पदार्थः—जो (सुक्रतुः) उत्तम बुद्धिवाला विद्वान्! (अस्मे) हम लोगों के लिये (स्वर्थम्) जिससे अच्छे प्रयोजन हो वा जो अनर्थ साधनों से रहित उस (रयिम्) धन के (न) समान (दमूनसम्) इन्द्रियों को विषयों में दबा देने के समानरूप (भगम्) ऐश्वर्य्य का और (दक्षम्) चतुर के (न) समान (धर्णसिम्) धारण करनेवाले का (पपृचासि) सम्बन्ध करता वा (रश्मींरिव) जैसे किरणों को वैसे (ऋते) सत्य व्यवहार में (देवानाम्) विद्वानों के (उभे) दो (जन्मनी) अगले-पिछले जन्म (च) और (शंसम्) प्रशंसा को (यः) जो (आ, यमति) बढ़ाता है, वह हम लोगों को सत्कार करने योग्य है॥11॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो सूर्य की किरणों के समान सबको धर्मसम्बन्धी पुरुषार्थ में संयुक्त करते हैं और आप भी वैसे ही वर्त्तते हैं, वे अगले-पिछले जन्मों को पवित्र करते हैं॥11॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ उ॒त नः॑ सु॒द्योत्मा॑ जी॒राश्वो॒ होता॑ म॒न्द्रः शृ॑णवच्च॒न्द्रर॑थः। स नो॑ नेष॒न्नेष॑तमै॒रमू॑रो॒ऽग्निर्वा॒मं सु॑वि॒तं वस्यो॒ अच्छ॑॥12॥ उ॒त। नः॒। सु॒ऽद्योत्मा॑। जी॒रऽअ॑श्व। होता॑। म॒न्द्रः। शृ॒ण॒व॒त्। च॒न्द्रऽर॑थः। सः। नः॒। ने॒षत्। नेष॑ऽतमैः। अमू॑रः। अ॒ग्निः॒। वा॒मम्। सु॒वि॒तम्। वस्यः॑। अच्छ॑॥12॥ पदार्थः—(उत) (नः) अस्मान् (सुद्योत्मा) सुष्ठु प्रकाशः (जीराश्वः) जीरा वेगवन्तो बहवोऽश्वा यस्य सः (होता) दाता (मन्द्रः) प्रशंसितः (शृणवत्) शृणुयात् (चन्द्ररथः) चन्द्रं रजतं सुवर्णं वा रथे यस्य सः (सः) (नः) अस्माकम् (नेषत्) नयेत् (नेषतमैः) अतिशयेन प्राप्तिकारकैः (अमूरः) गन्ता (अग्निः) (वामम्) सुरूपम् (सुवितम्) उत्पादितम् (वस्यः) वस्तुं योग्यः (अच्छ) सम्यक्॥12॥ अन्वयः—यो मन्द्रश्चन्द्ररथः सद्योत्मा जीराश्वो होता नोऽस्मान् शृणवत्। उतापि योऽमूरो वस्योऽग्निरिव सुवितं वामं सुरूपं नेषतमैरच्छ नेषत् स नः प्रशंसितो भवति॥12॥ भावार्थः—यः सर्वेषां न्यायस्य श्रोता साङ्गोपाङ्गसामग्रिर्विद्याप्रकाशयुक्तः सर्वान् विद्योत्सुकान् विद्यायुक्तान् करोति स प्रकाशात्मा जायते॥12॥ पदार्थः—जो (मन्द्रः) प्रशंसायुक्त (चन्द्ररथः) जिसके रथ में चाँदी, सोना विद्यमान जो (सुद्योत्मा) उत्तम प्रकाशवाला (जीराश्वः) जिसके वेगवान् बहुत घोड़े वह (होता) दानशील जन (नः) हम लोगों को (शृणवत्) सुने (उत) और जो (अमूरः) गमनशील (वस्यः) निवास करने योग्य (अग्निः) अग्नि के समान प्रकाशमान जन (सुवितम्) उत्पन्न किये हुए (वामम्) अच्छे रुप को (नेषतमैः) अतीव प्राप्ति करानेवाले गुणों से (अच्छ) अच्छा (नेषत्) प्राप्त करे (सः) वह (नः) हम लोगों के बीच प्रशंसित होता है॥12॥ भावार्थः—जो सबके न्याय का सुननेवाला, साङ्गोपाङ्ग सामग्रीसहित विद्याप्रकाशयुक्त, सब विद्या के उत्साहियों को विद्यायुक्त करता है, वह प्रकाशात्मा होता है॥12॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अस्ता॑व्य॒ग्निः शिमी॑वद्भिर॒र्कैः साम्रा॑ज्याय प्रत॒रं दधा॑नः। अ॒मी च॒ ये म॒घवा॑नो व॒यं च॒ मिहं॒ न सूरो॒ अति॒ निष्ट॑तन्युः॥13॥9॥ अस्ता॑वि। अ॒ग्निः। शिमी॑वत्ऽभिः। अ॒र्कैः। साम्ऽरा॑ज्याय। प्र॒ऽत॒रम्। दधा॑नः। अ॒मी इति॑। च॒। ये। म॒घऽवा॑नः। व॒यम्। च॒। मिह॑म्। न। सूरः॑। अति॑। निः। त॒त॒न्युः॒।13॥ पदार्थः—(अस्तावि) स्तूयते (अग्निः) सूर्य इव सुशीलप्रकाशितः (शिमीवद्भिः) प्रशंसितकर्मयुक्तैः (अर्कैः) सत्कर्त्तव्यैर्विद्वद्भिः सह (साम्राज्याय) चक्रवर्त्तिनो भावाय (प्रतरम्) प्रतरति शत्रुबलानि येन तत् सैन्यम् (दधानः) (अमी) (च) (ये) (मघवानः) परमपूजितधनयुक्ताः (वयम्) (च) (मिहम्) वृष्टिम् (न) इव (सूरः) सूर्यः (अति) (निः) (ततन्युः) विस्तृणीयुः॥13॥ अन्वयः—यः शिमीवद्भिरर्कैः प्रतरं दधानोऽग्निः साम्राज्यायास्तावि ये चामी मघवानः सूरो मिहन्नेव विद्यामतिनिष्टतन्युः तं तांश्च वयं प्रशंसेम॥13॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कार। मनुष्यैर्यै धार्मिकैर्विद्वद्भिः सुशिक्षिता धर्मेण राज्यं विस्तृणन्तः प्रयतन्ते, त एव राज्ये विद्याधर्मोपदेशे च संस्थापनीया इति॥13॥ अत्र विद्वद्गुणवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिर्वर्तत इति वेद्यम्॥ इत्येकचत्वारिंशदुत्तरं शततमं 141 सूक्तं नवमो 9 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—जो (शिमीवद्भिः) प्रशंसित कर्मों से युक्त (अर्कैः) सत्कार करने योग्य विद्वानों के साथ (प्रतरम्) शत्रुबलों को जिससे तरें उस सेनागण को (दधानः) धारण करता हुआ (अग्निः) सूर्य के समान सुशीलता से प्रकाशित (साम्राज्याय) चक्रवर्त्ति राज्य के लिये (अस्तावि) स्तुति पाता है (च) और (ये) जो (अमी) वे (मघवानः) परमपूजित धनयुक्त जन (सूरः) सूर्य (मिहम्) वर्षा को (न) जैसे वैसे विद्या को (अति, नि, ततन्युः) अतीव निरन्तर विस्तारें उस पूर्वोक्त सज्जन (च) और पीछे कहे हुए जनों की (वयम्) हम लोग प्रशंसा करें॥13॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य धार्मिक विद्वानों से अच्छी शिक्षा को पाये हुए धर्म से राज्य का विस्तार करते हुए प्रयत्न करते हैं, वे ही राज्य, विद्या और धर्म के उपदेश में अच्छे प्रकार स्थापना करने योग्य हैं॥13॥ इस सूक्त में विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति वर्त्तमान है, यह जानना चाहिये॥ यह एक सौ इकतालीसवां 141 सूक्त और नववां 9 वर्ग पूरा हुआ॥

समिद्ध इत्यस्य त्रयोदशर्चस्य द्विचत्वारिंशदुत्तरस्य शततमस्य सूक्तस्य दीर्घतमा ऋषिः। 1-4 अग्निः। 5 बर्हिः। 6 देव्यो द्वारः। 7 उषासानक्ता। 8 दैव्यौ होतारौ। 9 सरस्वतीळाभारत्यः। 10 त्वष्टा। 11 वनस्पतिः। 12 स्वाहाकृतिः। 13 इन्द्रश्च देवताः। 1,2,5,6,8,9 निचृदनुष्टुप्। 4 स्वराडनुष्टुप्। 3,7,10-12 अनुष्टुप् छन्दः। गान्धारः स्वरः। 13 भुरिगुष्णिक् छन्दः। ऋषभः स्वरः॥ अथाध्यापकाध्येतृविषयमाह॥ अब तेरह ऋचावाले एक सौ बयालीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में अध्यापक और अध्येता के विषय को कहते हैं॥ समि॑द्धो अग्न॒ आ वह॑ दे॒वाँ अ॒द्य य॒तस्रु॑चे। तन्तुं॑ तनुष्व पू॒र्व्यं सु॒तसो॑माय दा॒शुषे॑॥1॥ सम्ऽइ॑द्धः। अ॒ग्ने॒। आ। व॒ह॒। दे॒वान्। अ॒द्य। य॒तऽस्रु॑चे। तन्तु॑म्। त॒नु॒ष्व॒। पू॒र्व्यम्। सु॒तऽसो॑माय। दा॒शुषे॑॥1॥ पदार्थः—(समिद्धः) विद्यया प्रदीप्तोऽध्यापकः (अग्ने) अग्निरिव सुप्रकाश (आ) (वह) प्रापय (देवान्) विदुषः (अद्य) अस्मिन् दिने (यतस्रुचे) उद्यतयज्ञपात्राय यजमानाय (तन्तुम्) विस्तारम् (तनुष्व) विस्तृणीहि (पूर्व्यम्) पूर्वैः कृतम् (सुतसोमाय) निष्पादितमहौषधिरसाय (दाशुषे) दात्रे॥1॥ अन्वयः—हे अग्ने पावक इव समिद्धो विद्वांस्त्वमद्य यतस्रुचे सुतसोमाय दाशुषे देवानावह पूर्व्यं तन्तुं तनुष्व॥1॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा बाल्ययुवावस्थायां मातापित्रादयः सन्तानान् सुखयेयुस्तथा पुत्रा ब्रह्मचर्येणाधीत्य विद्यां प्राप्तयौवनाः कृतविवाहाः सन्तः स्वान्मातापित्रादीनानन्दयेयुः॥1॥ पदार्थः—हे (अग्ने) पावक के समान उत्तम प्रकाशवाले (समिद्धः) विद्या से प्रकाशित पढ़ानेवाले विद्वन्! आप (अद्य) आज के दिन (सुतसोमाय) जिसने बड़ी-बड़ी ओषधियों के रस निकाले और (यतस्रुचे) यज्ञपात्र उठाये हैं, उस यज्ञ करनेवाले (दाशुषे) दानशील जन के लिये (देवान्) विद्वानों की (आ, वह) प्राप्ति करो और (पूर्व्यम्) प्राचीनों के किये हुए (तन्तुम्) विस्तार को (तनुष्व) विस्तारो॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे बालकपन और तरुण अवस्था में माता और पिता आदि सन्तानों को सुखी करें, वैसे पुत्रलोग ब्रह्मचर्य से विद्या को पढ़ युवावस्था को प्राप्त और विवाह किये हुए अपने माता-पिता आदि को आनन्द देवें॥1॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ घृ॒तव॑न्त॒मुप॑ मासि॒ मधु॑मन्तं तनूनपात्। य॒ज्ञं विप्र॑स्य॒ माव॑तः शशमा॒नस्य॑ दा॒शुषः॑॥2॥ घृ॒तऽवन्त॑म्। उप॑। मा॒सि॒। मधु॑ऽमन्तम्। त॒नूऽन॒पा॒त्। य॒ज्ञम्। विप्र॑स्य। माऽव॑तः। श॒श॒मा॒नस्य॑। दा॒शुषः॑॥2॥ पदार्थः—(घृतवन्तम्) बहुघृतयुक्तम् (उप) (मासि) परिमिमीषे (मधुमन्तम्) प्रशस्तमधुरादिगुण-युक्तम् (तनूनपात्) यस्तनूं शरीरं न पातयति तत्सम्बुद्धौ (यज्ञम्) (विप्रस्य) मेधाविनः (मावतः) मत्सदृशस्य (शशमानस्य) दुःखमुल्लङ्घतः (दाशुषः) दातुः॥2॥ अन्वयः—हे तनूनपाद्विद्वँस्त्वं मावतो दाशुषः शशमानस्य विप्रस्य घृतवन्तं मधुमन्तं यज्ञमुपमासि॥2॥ भावार्थः—विद्यार्थिभिर्विदुषां संगतिं कृत्वा विद्वदुपमया भवितव्यम्॥2॥ पदार्थः—हे (तनूनपात्) शरीर को नष्ट न करनेवाले विद्वन्! आप (मावतः) मेरे सदृश (दाशुषः) दानशील (शशमानस्य) और दुःख उल्लंघन किये (विप्रस्य) मेधावी जन के (घृतवन्तम्) बहुत घृत और (मधुमन्तम्) प्रशंसित मधुरादि गुणों से युक्त (यज्ञम्) यज्ञ का (उप, मासि) परिमाण करनेवाले हो॥2॥ भावार्थः—विद्यार्थियों को विद्वानों की सङ्गति कर विद्वानों के सदृश होना चाहिये॥2॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ शुचिः॑ पाव॒को अद्भु॑तो॒ मध्वा॑ य॒ज्ञं मि॑मिक्षति। नरा॒शंस॒स्त्रिरा दि॒वो दे॒वो दे॒वेषु॑ य॒ज्ञियः॑॥3॥ शुचिः॑। पा॒व॒कः। अद्भु॑तः। मध्वा॑। य॒ज्ञम्। मि॒मि॒क्ष॒ति॒। नरा॒शंसः॑। त्रिः। आ। दि॒वः। दे॒वः। दे॒वेषु॑। य॒ज्ञियः॑॥3॥ पदार्थः—(शुचिः) पवित्रः (पावकः) पवित्रकारकोऽग्निरिव (अद्भुतः) आश्चर्यगुणकर्मस्वभावः (मध्वा) मधुना सह (यज्ञम्) (मिमिक्षति) मेढुं सिञ्चितुमलङ्कर्त्तुमिच्छति (नराशंसः) नरैः प्रशंसितः (त्रिः) त्रिवारम् (आ) समन्तात् (दिवः) कामनातः (देवः) कामयमानः (देवेषु) विद्वत्सु (यज्ञियः) यज्ञं कर्त्तुमर्हः॥3॥ अन्वयः—यः पावक इवाद्भुतः शुचिर्यज्ञियो नराशंसो देवो देवेषु दिवो मध्वा यज्ञं त्रिरामिमिक्षति, स सुखमाप्नोति॥3॥ भावार्थः—ये मनुष्याः कौमारयौवनवृद्धावस्थासु विद्याप्रचाराख्यं व्यवहारं कुर्युस्ते कायिकवाचिकमानसिकसुखानि प्राप्नुयुः॥3॥ पदार्थः—जो (पावकः) पवित्र करनेवाले अग्नि के समान (अद्भुतः) आश्चर्य गुण, कर्म, स्वभाववाला (शुचिः) पवित्र (यज्ञियः) यज्ञ करने योग्य (नराशंसः) नरों से प्रशंसा को प्राप्त और (देवः) कामना करता हुआ जन (देवेषु) विद्वानों में (दिवः) कामना से (मध्वा) मधुर शर्करा वा सहत से (यज्ञम्) यज्ञ को (त्रिः) तीन वार (आ, मिमिक्षति) अच्छे प्रकार सींचने वा पूरे करने की इच्छा करता है, वह सुख पाता है॥3॥ भावार्थः—जो मनुष्य बालकाई, जवानी और बुढ़ापे में विद्याप्रचाररूपी व्यवहार को करें, वे कायिक, वाचिक और मानसिक सुखों को प्राप्त होवें॥3॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ ई॒ळि॒तो अ॑ग्न॒ आ व॒हेन्द्रं॑ चि॒त्रमि॒ह प्रि॒यम्। इ॒यं हि त्वा॑ म॒तिर्ममाच्छा॑ सुजिह्व व॒च्यते॑॥4॥ ई॒ळि॒तः। अ॒ग्ने॒। आ। व॒ह॒। इन्द्र॑म्। चि॒त्रम्। इ॒ह। प्रि॒यम्। इ॒यम्। हि। त्वा॒। म॒तिः। मम॑। अच्छ॑। सुऽजि॒ह्व॒। व॒च्यते॑॥4॥ पदार्थः—(ईळितः) प्रशंसितः (अग्ने) सूर्य इव प्रकाशात्मन् (आ) (वह) (इन्द्रम्) परमैश्वर्यम् (चित्रम्) नानाविधम् (इह) अस्मिन् जन्मनि (प्रियम्) प्रीतिकरम् (इयम्) (हि) किल (त्वा) (मतिः) प्रज्ञा (मम) (अच्छ) (सुजिह्व) शोभना जिह्वा मधुरभाषिणी यस्य तत्सम्बुद्धौ (वच्यते) उच्यते॥4॥ अन्वयः—हे सुजिह्वाऽग्ने! ईळितस्त्वमिह प्रियं चित्रमिन्द्रमावह या ममेयं मतिस्त्वयाच्छ वच्यते सा हि त्वा प्राप्नोतु॥4॥ भावार्थः—सर्वैः पुरुषार्थेन विद्वत्प्रज्ञां प्राप्य महदैश्वर्यं संचेतव्यम्॥4॥ पदार्थः—हे (सुजिह्व) मधुरभाषिणी जिह्वावाले (अग्ने) सूर्य के समान प्रकाशस्वरूप विद्वान्! (ईडितः) प्रशंसा को प्राप्त हुए आप (इह) इस जन्म में (प्रियम्) प्रीति करानेवाले (चित्रम्) चित्र-विचित्र नानाप्रकार के (इन्द्रम्) परमैश्वर्य को (आ, वह) प्राप्त करो जो (मम) मेरी (इयम्) यह (मतिः) प्रज्ञा बुद्धि तुम से (अच्छ) अच्छी (वच्यते) कही जाती है (हि) वही (त्वा) आप को प्राप्त हो॥4॥ भावार्थः—सबको पुरुषार्थ से विद्वानों की बुद्धि पाकर महान् ऐश्वर्य का अच्छा संग्रह करना चाहिये॥4॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ स्तृ॒णा॒नासो॑ य॒तस्रु॑चो ब॒र्हिर्य॒ज्ञे स्व॑ध्व॒रे। वृ॒ञ्जे दे॒वव्य॑चस्तम॒मिन्द्रा॑य॒ शर्म॑ स॒प्रथः॑॥5॥ स्तृ॒णा॒नासः॑। य॒तऽस्रु॑चः। ब॒र्हिः। य॒ज्ञे। सु॒ऽअ॒ध्व॒रे। वृ॒ञ्जे। दे॒वव्य॑चःऽतमम्। इन्द्रा॑य। शर्म॑। स॒ऽप्रथः॑॥5॥ पदार्थः—(स्तृणानासः) आच्छादकास्सन्तः (यतस्रुचः) प्राप्तोद्यमाः (बर्हिः) बृहत् (यज्ञे) विद्यादानाख्ये (स्वध्वरे) सुशोभमाने (वृञ्जे) वृञ्जते। अत्र लोपस्त आत्मनेपदेष्विति तलोपो व्यत्ययेनात्मनेपदं च। (देवव्यचस्तमम्) देवैर्विद्वद्भिर्व्यचो व्याप्तं तदतिशयितम् (इन्द्राय) परमैश्वर्याय (शर्म) गृहम् (सप्रथः) प्रख्यातगुणैस्सह वर्त्तमानम्॥5॥ अन्वयः—ये स्वध्वरे यज्ञ इन्द्राय सप्रथो बर्हिर्देवव्यचस्तमं शर्म स्तृणानासस्सन्तो यतस्रुचो भवन्ति ते दुःखदारिद्र्यं वृञ्जे त्यजन्ति॥5॥ भावार्थः—नह्युद्यमिनोऽन्तरा लक्ष्मीराज्यश्रियौ प्राप्नुतः। ये अत्युत्तमे विद्वन्निवासयुक्ते गृह आवसन्ति तेऽविद्यादारिद्र्ये निघ्नन्ति॥5॥ पदार्थः—जो (स्वध्वरे) उत्तम शोभायुक्त (यज्ञे) विद्यादानरूप यज्ञ में (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य के लिये (सप्रथः) प्रख्यात गुणों के साथ वर्त्तमान (बर्हिः) बड़े (देवव्यचस्तमम्) विद्वानों से अतीव व्याप्त (शर्म) घर को (स्तृणानासः) ढांपते हुए (यतस्रुचः) उद्यम को प्राप्त होते हैं, वे दुःख और दरिद्रपन का (वृञ्जे) त्याग कर देते हैं॥5॥ भावार्थः—उद्यम करनेवालों के विना लक्ष्मी और राज्य श्री प्राप्त नहीं होती तथा जो अतीव उत्तम विद्वानों के निवास संयुक्त घर में अच्छे प्रकार वसते हैं, वे अविद्या और दरिद्रता को निरन्तर नष्ट करते हैं॥5॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ वि श्र॑यन्तामृता॒वृधः॑ प्र॒यै दे॒वेभ्यो॑ म॒हीः। पा॒व॒कासः॑ पुरु॒स्पृहो॒ द्वारो॑ दे॒वीर॑स॒श्चतः॑॥6॥10॥ वि। श्र॒य॒न्ता॒म्। ऋ॒त॒ऽवृधः॑। प्र॒ऽयै। दे॒वेभ्यः॑। म॒हीः। पा॒व॒कासः॑। पु॒रु॒ऽस्पृहः॑। द्वारः॑। दे॒वीः। अ॒स॒श्चतः॑॥6॥ पदार्थः—(वि) (श्रयन्ताम्) सेवन्ताम् (ऋतावृधः) ऋतेन सत्येनाचरणेन विज्ञानेन च वृद्धाः (प्रयै) प्रयितुम् (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (महीः) पूज्यतमा वाचः पृथिवी वा। महीति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं॰1.1) महीति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं॰1.11) (पावकासः) पवित्रकारिकाः (पुरुस्पृहः) याः पुरुभिः स्पृह्यन्त ईप्स्यन्ते ताः (द्वारः) द्वार इव सुशोभिताः (देवीः) कमनीयाः (असश्चतः) परस्परं विलक्षणाः॥6॥ अन्वयः—हे मनुष्या! देवेभ्यो याः पावकास ऋतावृधः पुरुस्पृहो द्वारो देवीरसश्चतो महीः प्रयै विद्वांसः कामयन्ते ता भवन्तो विश्रयन्ताम्॥6॥ भावार्थः—मनुष्यैः सर्वेषामुपकाराय विद्यासुशिक्षिता वाचो रत्नकर्यो भूमयश्च कमितव्याः तदाश्रयेण पवित्रता संपादनीया॥6॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये जो (पावकासः) पवित्र करनेवाली (ऋतावृधः) सत्य आचरण और उत्तम ज्ञान से बढ़ाई हुई (पुरुस्पृहः) बहुतों से चाही जातीं (द्वारः) द्वारों के समान (देवीः) मनोहर (असश्चतः) परस्पर एक-दूसरे से विलक्षण (महीः) प्रशंसनीय वाणी वा पृथिवी जिनकी (प्रयै) प्रीति के लिये विद्वान् जन कामना करते उनका आप लोग (विश्रयन्ताम्) विशेषता से आश्रय करें॥6॥ भावार्थः—मनुष्यों को सबके उपकार के लिये विद्या और अच्छी शिक्षायुक्त वाणी और रत्नों को प्रसिद्ध करनेवाली भूमियों की कामना करनी चाहिये और उनके आश्रय से पवित्रता संपादन करनी चाहिये॥6॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ आ भन्द॑माने॒ उपा॑के॒ नक्तो॒षासा॑ सु॒पेश॑सा। यह्वी॒ ऋ॒तस्य॑ मा॒तरा॒ सीद॑तां ब॒र्हिरा सु॒मत्॥7॥ आ। भन्द॑माने॒ इति॑। उपा॑के॒ इति॑। नक्तो॒षसा॑। सुऽपेश॑सा। य॒ह्वी इति॑। ऋ॒तस्य॑। मा॒तरा॑। सीद॑ताम्। ब॒र्हिः। आ। सुऽमत्॥7॥ पदार्थः—(आ) (भन्दमाने) कल्याणकारके (उपाके) परस्परमसन्निहितवर्त्तमाने (नक्तोषासा) रात्रिदिने (सुपेशसा) सुरूपे। अत्र सर्वत्र विभक्तेराकारादेशः। (यह्वी) कारणसूनू (ऋतस्य) सत्यस्य (मातरा) मानयित्र्यौ (सीदताम्) प्राप्नुतः (बर्हिः) उत्तमं गृहम् (आ) (सुमत्) सुष्ठु माद्यन्ति हृष्यन्ति यस्मिन् तत्॥7॥ अन्वयः—हे मनुष्या! भवन्तो यथा ऋतस्य मातरा यह्वी उपाके सुपेशसा भन्दमाने नक्तोषासा आसीदतां तद्वदासुमद् बर्हिः प्राप्नुवन्तु॥7॥ भावार्थः—यथाऽहोरात्रः सर्वान् प्राण्यप्राणिनो नियमेन स्व स्व क्रियासु प्रवर्त्तयति तथा सर्वैविद्वद्भिः सर्वे मनुष्या सत्क्रियासु प्रवर्तनीयाः॥7॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! आप जैसे (ऋतस्य) सत्य व्यवहार का (मातरा) मान करानेवालीं (यह्वी) कारण से उत्पन्न हुईं (उपाके) एक-दूसरे के साथ वर्त्तमान (सुपेशसा) उत्तम रूपयुक्त और (भन्दमाने) कल्याण करनेवाली (नक्तोषासा) रात्रि और प्रभात वेला (आ, सीदताम्) अच्छे प्रकार प्राप्त होवें जैसे (आ, सुमत्) जिसमें बहुत आनन्द को प्राप्त होते हैं, उस (बर्हिः) उत्तम घर को प्राप्त होओ॥7॥ भावार्थः—जैसे दिन-रात्रि समस्त प्राणी-अप्राणी को नियम से अपनी अपनी क्रियाओं में प्रवृत्त कराता है, वैसे सब विद्वानों को सर्वसाधारण मनुष्य उत्तम क्रियाओं में प्रवृत्त करने चाहिये॥7॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ म॒न्द्रजि॑ह्वा जुगु॒र्वणी॒ होता॑रा॒ दैव्या॑ क॒वी। य॒ज्ञं नो॑ यक्षतामि॒मं सि॒ध्रम॒द्य दि॑वि॒स्पृश॑म्॥8॥ म॒न्द्रऽजि॑ह्वा। जु॒॒गु॒र्वणी॒ इति॑। होता॑रा। दैव्या॑। क॒वी इति॑। य॒ज्ञम्। नः॒। य॒क्ष॒ता॒म्। इ॒मम्। सि॒ध्रम्। अ॒द्य। दि॒वि॒ऽस्पृश॑म्॥8॥ पदार्थः—(मन्द्रजिह्वा) मन्द्रा प्रशंसिता जिह्वा ययोस्तौ (जुगुर्वणी) अत्यन्तमुद्यमिनौ (होतारा) आदातारौ (दैव्या) देवेषु दिव्येषु गुणेषु भवौ (कवी) विक्रान्तप्रज्ञौ (यज्ञम्) विद्यादिप्राप्तिसाधकं व्यवहारम् (नः) अस्मभ्यम् (यक्षताम्) संयच्छेते (इमम्) (सिध्रम्) मङ्गलकरम् (अद्य) अस्मिन् दिने (दिविस्पृशम्) प्रकाशे स्पर्शनिमित्तम्॥8॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यथाऽद्य मन्द्रजिह्वा जुगुर्वणी होतारा दैव्या कवी मेधाविनावध्यापकोपदेशकौ नो दिविस्पृशं सिध्रमिमं यज्ञं यक्षतां तथा यूयमपि सङ्गच्छध्वम्॥8॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्वांसो धर्म्येण व्यवहारेण सह सङ्गता भवन्ति तथेतरैरपि भवितव्यम्॥8॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! जैसे (अद्य) आज (मन्द्रजिह्वा) जिनकी प्रशंसित जिह्वा है वे (जुगुर्वणी) अत्यन्त उद्यमी (होतारा) ग्रहण करनेवाले (दैव्या) दिव्य गुणों में प्रसिद्ध (कवी) प्रबल प्रज्ञायुक्त अध्यापक और उपदेशक लोग (नः) हम लोगों के लिये (दिविस्पृशम्) प्रकाश में संलग्नता कराने तथा (सिध्रम्) मङ्गल करनेवाले (इमम्) इस (यज्ञम्) विद्यादि की प्राप्ति के साधक व्यवहार का (यक्षताम्) सङ्ग करते हैं, वैसे तुम भी सङ्ग करो॥8॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् जन धर्मयुक्त व्यवहार के साथ परस्पर सङ्ग करते हैं, वैसे साधारण मनुष्यों को भी होना चाहिये॥8॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ शुचि॑र्दे॒वेष्वर्पिता॒ होत्रा॑ म॒रुत्सु॒ भा॑रती। इळा॒ सर॑स्वती म॒ही ब॒र्हिः सीद॑न्तु य॒ज्ञियाः॑॥9॥ शुचिः॑। दे॒वेषु॑। अर्पि॑ता। होत्रा॑। म॒रुत्ऽसु॑। भार॑ती। इळा॑। सर॑स्वती। म॒ही। ब॒र्हिः। सी॒द॒न्तु। य॒ज्ञियाः॑॥9॥ पदार्थः—(शुचिः) पवित्रा (देवेषु) विद्वत्सु (अर्पिता) समर्पिता (होता) दातुमादातुमर्हा (मरुत्सु) स्तावकेषु (भारती) धारणपोषणकर्त्री (इळा) प्रशंसितुं योग्या (सरस्वती) प्रशस्तविज्ञानसम्बधिनी (मही) पूजितुं सत्कर्त्तुमर्हा (बर्हिः) उपगतं वृद्धम् (सीदन्तु) प्राप्नुवन्तु (यज्ञियाः) यज्ञसाधनाऽर्हाः॥9॥ अन्वयः—या देवेष्वर्पिता होत्रा मरुत्सु भारती शुचिरिळा सरस्वती मही च यज्ञिया बर्हिः सीदन्तु ताः सर्वे विद्यार्थिनः प्राप्नुवन्तु॥9॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विद्यार्थिभिरेवमाशंसितव्यं या विद्वत्सु विद्या वाणी वर्त्तते साऽस्मान् प्राप्नोतु॥9॥ पदार्थः—जो (देवेषु) विद्वानों में (अर्पिता) समर्पण की हुई (होत्रा) देने-लेने योग्य किया वा (मरुत्सु) स्तुति करनेवालों में (भारती) धारण-पोषण करनेवाली (शुचिः) पवित्र (इळा) प्रशंसा के योग्य (सरस्वती) प्रशंसित विज्ञान का सम्बन्ध रखनेवाली (मही) और बड़ी (यज्ञियाः) यज्ञ सिद्ध कराने के योग्य क्रिया (बर्हिः) समीप प्राप्त बड़े हुए व्यवहार को (सीदन्तु) प्राप्त होवे, उनको समस्त विद्यार्थी प्राप्त होवें॥9॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। विद्यार्थियों को ऐसी इच्छा करनी चाहिये कि जो विद्वानों में विद्या वा वाणी वर्त्तमान है, वह हमको प्राप्त होवे॥9॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ तन्न॑स्तु॒रीप॒मद्भु॑तं पु॒रु वारं॑ पु॒रु त्मना॑। त्वष्टा॒ पोषा॑य॒ वि ष्य॑तु रा॒ये नाभा॑ नो अस्म॒युः॥10॥ तत्। नः॒। तु॒रीप॑म्। अद्भु॑तम्। पुरु। वा॒। अर॑म्। पु॒रु। त्मना॑। त्वष्टा॑। पोषा॑य। वि। स्य॒तु॒। रा॒ये। नाभा॑। नः॒। अ॒स्म॒ऽयुः॥10॥ पदार्थः—(तत्) (नः) अस्मभ्यम् (तुरीपम्) तूर्णं रक्षकम् (अद्भुतम्) आश्चर्यस्वरूपम् (पुरु) बहु (वा) (अरम्) अलम् (पुरु) बहु (त्मना) आत्मना (त्वष्टा) विद्याधर्मेण राजमानः (पोषाय) पुष्टिकराय (वि) (स्यतु) प्राप्नोतु (राये) धनाय (नाभा) नाभौ (नः) अस्माकम् (अस्मयुः) अस्मान् कामयमानः॥10॥ अन्वयः—हे विद्वन्! अस्मयुस्त्वष्टा भवान् नः पुरु पोषाय राये नाभा प्राण इव विष्यतु त्मना तुरीपमद्भुतं पुरु वारं धनमस्ति तन्न आवह॥10॥ भावार्थः—यो विद्वानस्मान् कामयेत तं वयमपि कामयेमहि, योऽस्मान्न कामयेत तं वयमपि न कामयेमहि, तस्मात् परस्परस्य विद्यासुखे कामयमानावाचार्य्यविद्यार्थिनौ विद्योन्नतिं कुर्याताम्॥10॥ पदार्थः—हे विद्वान्! (अस्मयुः) हम लोगों की कामना करनेवाले (त्वष्टा) विद्या और धर्म से प्रकाशमान आप (नः) हम लोगों के (पुरु) बहुत (पोषाय) पोषण करने के लिये और (राये) धन होने के लिये (नाभा) नाभि में प्राण के समान (वि, ष्यतु) प्राप्त होवें और (त्मना) आत्मा से जो (तुरीपम्) तुरन्त रक्षा करनेवाला (अद्भुतम्) अद्भुत आश्चर्य्यरूप (पुरु, वा, अरम्) बहुत वा पूरा धन है (तत्) उसको (नः) हम लोगों के लिये प्राप्त कीजिये [कराइये]॥10॥ भावार्थः—जो विद्वान् हम लोगों की कामना करे उसकी हम लोग भी कामना करें, जो हम लोगों की कामना न करे उसकी हम भी कामना न करें। इससे परस्पर विद्या और सुख की कामना करते हुए आचार्य्य और विद्यार्थी लोग विद्या की उन्नति करें॥10॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अ॒व॒सृ॒जन्नुप॒ त्मना॑ दे॒वान्य॑क्षि वनस्पते। अ॒ग्निर्ह॒व्या सु॑षूदति दे॒वो दे॒वेषु॒ मेधि॑रः॥11॥ अ॒व॒ऽसृ॒जन्। उप॑। त्मना॑। दे॒वान्। य॒क्षि॒। व॒न॒स्प॒ते॒। अ॒ग्निः। ह॒व्या। सु॒सू॒द॒ति॒। दे॒वः। दे॒वेषु॑। मेधि॑रः॥11॥ पदार्थः—(अवसृजन्) विविधया विद्ययाऽलंकुर्वन् (उप) (त्मना) आत्मना (देवान्) विद्यां कामयमानान् (यक्षि) संगच्छसे (वनस्पते) रश्मिपतिः सूर्य्य इव वर्त्तमान (अग्निः) पावकः (हव्या) दातुमर्हाणि (सुषूदति) सुष्ठु क्षरति वर्षति (देवः) देदीप्यमानः (देवेषु) द्योतमानेषु लोकेषु (मेधिरः) संगमयिता॥11॥ अन्वयः—हे वनस्पते! त्वं यतस्त्मना आत्मना देवानुपावसृजन् सन् देवेषु देवो मेधिरोऽग्निर्हव्या सुषूदतीव विद्यां यक्षि तस्मात् सत्कर्त्तव्योऽसि॥11॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यः पृथिव्यादिषु देवेषु दिव्येषु पदार्थेषु दिव्यस्वरूपस्सन् जलं वर्षयति तथा विद्वांसो जगति विद्यार्थिषु विद्यां वर्षयेयुः॥11॥ पदार्थः—हे (वनस्पते) रश्मियों के पति सूर्य्य के समान वर्त्तमान! आप जिस कारण (त्मना) आत्मा से (देवान्) विद्या की कामना करते हुओं को (उपावसृजन्) अपने समीप नाना प्रकार की विद्या से परिपूरित करते हुए (देवेषु) प्रकाशमान लोकों में (देवः) अत्यन्त दीपते हुए (मेधिरः) सङ्ग करानेवाले (अग्निः) जैसे अग्नि (हव्या) होम से देने योग्य पदार्थों को (सुषूदति) सुन्दरता से ग्रहण कर परमाणु रूप करता है, वैसे विद्या का (यक्षि) सङ्ग करते हो, इससे सत्कार करने योग्य हो॥11॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्यमण्डल पृथिवी आदि दिव्य पदार्थों में दिव्यरूप हुआ जल को वर्षाता है, वैसे विद्वान् जन संसार में विद्यार्थियों में विद्या की वर्षा करावें॥11॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ पू॒ष॒ण्वते॑ म॒रुत्व॑ते वि॒श्वदे॑वाय॒ वा॒यवे॑। स्वाहा॑ गाय॒त्रवे॑पसे ह॒॒व्यमिन्द्रा॑य कर्तन॥12॥ पूष॒ण्ऽवते॑। म॒रुत्व॑ते। वि॒श्वदे॑वाय। वा॒यवे॑। स्वाहा॑। गा॒य॒त्रऽवे॑पसे। ह॒व्यम्। इन्द्रा॑य। क॒र्त॒न॒॥12॥ पदार्थः—(पूषण्वते) बहवः पूषणः पुष्टिकर्त्तारो गुणा विद्यन्ते यस्मिंस्तस्मिन् (मरुत्वते) प्रशंसिता मरुतो विद्यास्तावकाः सन्ति यस्मिन् (विश्वदेवाय) विश्वेऽखिला देवा विद्वांसो यस्मिंस्तस्मिन् (वायवे) प्राप्तुं योग्याय (स्वाहा) सत्यया क्रियया (गायत्रवेपसे) गायत्रं गायन्तं त्रायमाणं वेपो रूपं यस्मात् तस्मै (हव्यम्) आदातुमर्हं कर्म (इन्द्राय) परमैश्वर्याय (कर्त्तन) कुरुत॥12॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यूयं स्वाहा पूषण्वते मरुत्वते विश्वदेवाय वायवे गायत्रवेपस इन्द्राय हव्यं कर्त्तन॥12॥ भावार्थः—येन धनेन पुष्टिर्विद्याविद्वत्सत्कारौ वेदविद्याप्रवृत्तिः सर्वोपकारश्च स्यात्तदेव धर्म्यं धनं भवति नेतरत्॥12॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! तुम (स्वाहा) सत्य क्रिया से (पूषण्वते) जिसके बहुत पुष्टि करनेवाले गुण (मरुत्वते) जिसमें प्रशंसायुक्त विद्या की स्तुति करनेवाले (विश्वदेवाय) वा समस्त विद्वान् जन विद्यमान (वायवे) प्राप्त होने योग्य (गायत्रवेपसे) गानेवाले की रक्षा करता हुआ जिनसे रूप प्रकट होता उस (इन्द्राय) परमैश्वर्य के लिये (हव्यम्) ग्रहण करने योग्य कर्म को (कर्त्तन) करो॥12॥ भावार्थः—जिस धन से पुष्टि, विद्या, विद्वानों का सत्कार, वेदविद्या की प्रवृत्ति और सर्वोपकार हो, वही धर्म सम्बन्धी धन है, और नहीं॥12॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ स्वाहा॑कृता॒न्या ग॒ह्युप॑ ह॒व्यानि॑ वी॒तये॑। इन्द्रा ग॑हि श्रु॒धी हवं॒ त्वां ह॑वन्ते अध्व॒रे॥13॥11॥ स्वाहा॑ऽकृतानि। आ। ग॒हि॒। उप॑। ह॒व्यानि॑। वी॒तये॑। इन्द्र॑। आ। ग॒हि॒। श्रु॒धि। हव॑म्। त्वाम्। ह॒व॒न्ते॒। अ॒ध्व॒रे॥13॥ पदार्थः—(स्वाहाकृतानि) सत्यक्रियया निष्पादितानि (आ) (गहि) आगच्छ (उप) सामीप्ये (हव्यानि) आदातुमर्हाणि (वीतये) विद्याव्याप्तये (इन्द्र) परमैश्वर्ययोजक (आ) (गहि) (श्रुधी) शृणु। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (हवम्) स्तवनम् (त्वाम्) (हवन्ते) स्तुवन्ति (अध्वरे) अहिंसनीये व्यवहारे॥13॥ अन्वयः—हे इन्द्र विद्वन्! अध्वरे वीतये स्वाहाकृतानि हव्यान्युपागहि यं त्वां विद्यां जिज्ञासवो हवन्ते स त्वमागहि हवं श्रुधि॥13॥ भावार्थः—अध्यापको यावच्छास्त्रमध्यापयेत् तावत्प्रत्यहं प्रतिमासं वा परीक्षेत। विद्यार्थिषु ये येभ्यो विद्याः प्रदद्युस्ते तेषां शरीरेण मनसा धनेन सेवां कुर्युः॥13॥ अत्राध्यापकाऽध्येतृविद्यागुणप्रशंसनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिरस्तीति बोध्यम्॥ इति द्विचत्वारिंशदुत्तरं शततमं 142 सूक्तमेकादशो 11 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) परमैश्वर्य को युक्त करनेवाले विद्वान्! आप (अध्वरे) न नष्ट करने योग्य व्यवहार में (वीतये) विद्या की प्राप्ति के लिये (स्वाहाकृतानि) सत्य क्रिया से (हव्यानि) ग्रहण करने योग्य पदार्थों को (उपागहि) प्राप्त होओ, जिन (त्वाम्) तुम्हारी (हवन्ते) विद्या का ज्ञान चाहते हुए विद्यार्थी जन स्तुति करते हैं, सो आप (आ, गहि) आओ और (हवम्) स्तुति को (श्रुधि) सुनो॥13॥ भावार्थः—अध्यापक जितना शास्त्र विद्यार्थियों को पढ़ावे उसकी प्रतिदिन वा प्रतिमास परीक्षा करे और विद्यार्थियों में जो जिनको विद्या देवें, वे उनकी तन, मन, धन से सेवा करें॥13॥ इस सूक्त में पढ़ने-पढ़ानेवालों के गुणों और विद्या की प्रशंसा होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये॥ यह एक सौ बयालीसवाँ 142 सूक्त और ग्यारहवाँ 11 वर्ग पूरा हुआ॥

अथ प्र तव्यसीमित्यस्याष्टर्चस्य त्रिचत्वारिंशदुत्तरशततमस्य सूक्तस्य दीर्घतमा ऋषिः। अग्निर्देवता। 1,7 निचृज्जगती। 2,3,5 विराड्जगती। 4,6 जगती च छन्दः। निषादः स्वरः। 8 निचृत् त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥ अथ विद्वद्विषयमाह॥ अब विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ प्र तव्य॑सीं॒ नव्य॑सीं धी॒तिम॒ग्नये॑ वा॒चो म॒तिं सह॑सः सू॒नवे॑ भरे। अ॒पां नपा॒द्यो वसु॑भिः स॒ह प्रि॒यो होता॑ पृथि॒व्यां न्यसी॑ददृ॒त्वियः॑॥1॥ प्र। तव्य॑सीम्। नव्य॑सीम्। धी॒तिम्। अ॒ग्नये॑। वा॒चः। म॒तिम्। सह॑सः। सू॒नवे॑। भ॒रे॒। अ॒पाम्। नपा॑त्। यः। वसु॑ऽभिः। स॒ह। प्रि॒यः। होता॑। पृ॒थि॒व्याम्। नि। असी॑दत्। ऋ॒त्वियः॑॥1॥ पदार्थः—(प्र) (तव्यसीम्) अतिशयेन बलवतीम् (नव्यसीम्) अतिशयेन नवीनाम् (धीतिम्) धियन्ति विजयं यया ताम् (अग्नये) अग्निवत्तीव्रबुद्धये (वाचः) वाण्याः (मतिम्) प्रज्ञाम् (सहसः) शरीरात्मबलवतः (सूनवे) (भरे) धरे (अपाम्) जलानाम् (नपात्) यो न पतति सः (यः) (वसुभिः) प्रथमकल्पैर्विद्वद्भिः (सह) (प्रियः) प्रीतः (होता) गृहीता (पृथिव्याम्) (नि) (असीदत्) सीदति (ऋत्वियः) य ऋतूनर्हति सः॥1॥ अन्वयः—अहमपांनपात् यः सूर्यः पृथिव्यामिव यो वसुभिः सह प्रियो होता ऋत्वियो न्यसीदत् तस्मात् सहसोऽग्नये सूनवे वाचः तव्यसी नव्यसीं धीतिं मतिं प्रभरे॥1॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विदुषां योग्यताऽस्ति यथा सूर्योऽपां धर्त्ताऽस्ति तथा पवित्रान् धीमतः प्रियाचरणान् सद्यो विद्यानां ग्रहीतॄन् विद्यार्थिनो गृहीत्वा विद्याविज्ञानं सद्यो जनयेयुरिति॥1॥ पदार्थः—मैं (अपां नपात्) जलों के बीच (यः) जो न गिरता वह सूर्य (पृथिव्याम्) पृथिवी पर जैसे वैसे जो (वसुभिः) प्रथम कक्षा के विद्वानों के (सह) साथ (प्रियः) प्रीतियुक्त (होता) ग्रहण करनेवाला (ऋत्वियः) ऋतुओं की योग्यता रखता हुआ (नि, असीदत्) निरन्तर स्थिर होता है, उस (सहसः) शरीर और आत्मा के बलयुक्त अध्यापक के सकाश से (अग्नये) अग्नि के समान तीक्ष्णबुद्धि (सूनवे) पुत्र वा शिष्य के लिये (वाचः) वाणी की (तव्यसीम्) अत्यन्त बलवती (नव्यसीम्) अतीव नवीन (धीतिम्) जिससे विजय को धारण करें, उस धारणा और (मतिम्) उत्तम बुद्धि को (प्र, भरे) अच्छे प्रकार धारण करता हूँ॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वानों की योग्यता है कि जैसे सूर्य जलों की धारणा करनेवाला है, वैसे पवित्र बुद्धिमान् प्रिय आचरण करने और शीघ्र विद्याओं को ग्रहण करनेवाले विद्यार्थियों को लेकर विद्या का विज्ञान शीघ्र उत्पन्न करावें॥1॥ अथेश्वरविषयमाह॥ अब ईश्वरविषय अगले मन्त्र में कहते हैं॥ स जाय॑मानः पर॒मे व्यो॑मन्या॒विर॒ग्निर॑भवन्मात॒रिश्व॑ने। अ॒स्य क्रत्वा॑ समिधा॒नस्य॑ म॒ज्मना॒ प्र द्यावा॑ शो॒चिः पृ॑थि॒वी अ॑रोचयत्॥2॥ सः। जाय॑मानः। प॒र॒मे। विऽओ॑मनि। आ॒विः। अ॒ग्निः। अ॒भ॒व॒त्। मा॒त॒रिश्व॑ने। अ॒स्य। क्रत्वा॑। स॒म्ऽइ॒धा॒नस्य॑। म॒ज्मना॑। प्र। द्यावा॑। शो॒चिः। पृ॒थि॒वी इति॑। अ॒रो॒च॒य॒त्॥2॥ पदार्थः—(सः) अधीयानः (जायमानः) उत्पद्यमानः (परमे) प्रकृष्टे (व्योमनि) व्योमवद् व्यापके सर्वरक्षादिगुणान्विते ब्रह्मणि (आविः) प्राकट्ये (अग्निः) पावक इव (अभवत्) भवेत् (मातरिश्वने) अन्तरिक्षस्थाय वायवे (अस्य) (क्रत्वा) प्रज्ञया कर्मणा वा (समिधानस्य) सम्यक् प्रदीप्तस्य (मज्मना) बलेन (प्र) (द्यावा) (शोचिः) पवित्रः (पृथिवी) (अरोचयत्) प्रकाशयेत्॥2॥ अन्वयः—यो मातरिश्वनेऽग्निरिव परमे व्योमनि जायमान आविरभवत्, तस्यास्य समिधानस्य जनस्य शोचिः क्रत्वा मज्मना च द्यावा पृथिवी प्रारोचयत्, स सर्वेषां कल्याणकारी जायते॥2॥ भावार्थः—यदि विद्वांसो विद्यार्थिनः प्रयत्नेन सुविद्यासुशिक्षाधर्मयुक्तान् कुर्युस्तर्हि सर्वदा कल्याणभाजो भवेयुः॥2॥ पदार्थः—जो (मातरिश्वने) अन्तरिक्षस्थ वायु के लिये (अग्निः) अग्नि के समान (परमे) उत्तम (व्योमनि) आकाश के तुल्य सबमें व्याप्त सबकी रक्षा करने आदि गुणों से युक्त ब्रह्म में (जायमानः) उत्पन्न हुआ हम लोगों के लिये (आविः) प्रकट (अभवत्) होवे, उस (अस्य) प्रत्यक्ष (समिधानस्य) उत्तमता से प्रकाशमान जन का (शोचिः) पवित्रभाव (क्रत्वा) प्रज्ञा और कर्म वा (मज्मना) बल के साथ (द्यावा पृथिवी) अन्तरिक्ष और पृथिवी को (प्रारोचयत्) प्रकाशित करावे, (सः) वह पढ़ा हुआ जन सबका कल्याणकारी होता है॥2॥ भावार्थः—जो विद्वान् लोग विद्यार्थियों को प्रयत्न के साथ विद्या, अच्छी शिक्षा और धर्म नीतियुक्त करें तो वे सर्वदैव कल्याण का सेवन करनेवाले होवें॥2॥ पुनर्विद्वद्विषयमाह॥ फिर विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अ॒स्य त्वे॒षा अ॒जरा॑ अ॒स्य भा॒नवः॑ सुसं॒दृशः॑ सु॒प्रती॑कस्य सु॒द्युतः॑। भात्व॑क्षसो॒ अत्य॒क्तुर्न सिन्ध॑वो॒ऽग्ने रे॑जन्ते॒ अस॑सन्तो अ॒जराः॑॥3॥ अ॒स्य। त्वे॒षाः। अ॒जराः॑। अ॒स्य। भा॒नवः॑। सु॒ऽसं॒दृशः॑। सु॒ऽप्रती॑कस्य। सु॒ऽद्युतः॑। भाऽत्व॑क्षसः। अति॑। अ॒क्तुः। न। सिन्ध॑वः। अ॒ग्नेः। रे॒ज॒न्ते॒। अस॑सन्तः। अ॒जराः॑॥3॥ पदार्थः—(अस्य) (त्वेषाः) विद्यासुशीलप्रकाशाः (अजराः) हानिरहिताः (अस्य) सूर्यस्य (भानवः) किरणा इव (सुसंदृशः) सत्यासत्ययोः सुष्ठु सम्यग्द्रष्टुः (सुप्रतीकस्य) सुष्ठु प्रतीतियुक्तस्य (सुद्युतः) अभितः प्रकाशमानस्य (भात्वक्षसः) भाः विद्याप्रकाशस्त्वक्षो बलं यासां ताः। त्वक्ष इति बलनामसु पठितम्। (निघं॰2.9) (अति) (अक्तुः) रात्रिः (न) इव (सिन्धवः) प्रवाहरूपः (अग्नेः) सूर्यस्य (रेजन्ते) कम्पन्ते (अससन्तः) जागृताः (अजराः) हानिरहिताः॥3॥ अन्वयः—हे मनुष्याः! सुसंदृशः सुप्रतीकस्य सुद्युतोऽग्नेर्भानवोऽस्याध्यापकस्याजराः त्वेषा भवन्ति। अस्याजरा अससन्तो भात्वक्षसः सिन्धवोऽक्तुर्नाति रेजन्ते॥3॥ भावार्थः—ये मनुष्याः सूर्यवद्विद्याप्रकाशका अविद्याऽन्धकारनाशकाः सर्वेषामानन्दप्रदा भवन्ति, त एव मनुष्यशिरोमणयो जायन्ते॥3॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! (सुसंदृशः) सत्य और असत्य को ज्ञानदृष्टि से देखनेवाले (सुप्रतीकस्य) सुन्दर प्रतीतियुक्त (सुद्युतः) सब ओर से प्रकाशमान (अग्नेः) सूर्य के (भानवः) किरणों के समान (अस्य) इस अध्यापक के (अजराः) विनाशरहित (त्वेषाः) विद्या और शील के प्रकाश होते हैं और वे (अस्य) इस महाशय के (अजराः) अजर-अमर (अससन्तः) जागते हुए (भात्वक्षसः) विद्या प्रकाशरूपी बलवाले (सिन्धवः) प्रवाहरूप उक्त तेज (अक्तुः) रात्रि के (न) समान अविद्यान्धकार को (अति, रेजन्ते) अतिक्रमण करते हैं॥3॥ भावार्थः—जो मनुष्य सूर्य के समान विद्या के प्रकाश करने, अविद्यान्धकार के विनाश करने और सबको आनन्द देनेवाले होते हैं, वे ही मनुष्यों के शिरोमणि होते हैं॥3॥ पुनरीश्वरविषयमाह॥ फिर ईश्वर विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ यमे॑रि॒रे भृग॑वो वि॒श्ववे॑दसं॒ नाभा॑ पृथि॒व्या भुव॑नस्य म॒ज्मना॑। अ॒ग्निं तं गी॒र्भिर्हि॑नुहि॒ स्व आ दमे॒ य एको॒ वस्वो॒ वरु॑णो॒ न राज॑ति॥4॥ यम्। आ॒ऽई॒रि॒रे। भृग॑वः। वि॒श्वऽवे॑दसम्। नाभा॑। पृ॒थि॒व्याः। भुव॑नस्य। म॒ज्मना॑। अ॒ग्निम्। तम्। गीः॒ऽभिः। हि॒नु॒हि॒। स्वे। आ। दमे॑। यः। एक॑ः। वस्वः॑। वरु॑णः। न। राज॑ति॥4॥ पदार्थः—(यम्) परमात्मानम् (एरिरे) समन्ताज्जानीयुः (भृगवः) विद्ययाऽविद्याया भर्जका निवारका विद्वांसः। भृगव इति पदनामसु पठितम्। (निघं॰5.5) (विश्ववेदसम्) समग्रस्य विदितारम् (नाभा) मध्ये (पृथिव्याः) अन्तरिक्षस्य (भुवनस्य) लोकजातस्य (मज्मना) अनन्तेन बलेन (अग्निम्) सूर्यमिव स्वप्रकाशम् (तम्) (गीर्भिः) प्रशंसिताभिर्वाग्भिः (हिनुहि) जानीहि (स्वे) स्वकीये (आ) समन्तात् (दमे) गृहरूपे हृदयाऽवकाशे (यः) (एकः) अद्वितीयः (वस्वः) वसोर्द्रव्यरूपस्य (वरुणः) अतिश्रेष्ठः (न) इव (राजति) प्रकाशते॥4॥ अन्वयः—हे जिज्ञासो! यं विश्ववेदसं भृगव एरिरे य एको वरुणो मज्मना वरुणो नेव पृथिव्या भुवनस्य वस्वो नाभा मध्ये स्वव्याप्त्या राजति तमग्निं स्वे दमे वर्त्तमानस्त्वं गीर्भिराहिनुहि॥4॥ भावार्थः—हे मनुष्या! यो विद्वद्वेदितव्यः सर्वाऽभिव्यापी प्रशंसितुमर्हः सच्चिदानन्दादिलक्षणः सर्वशक्तिमानद्वितीयोऽतिसूक्ष्मः स्वप्रकाशोऽन्तर्यामी परमेश्वरोऽस्ति तं योगाङ्गानुष्ठानसिद्ध्या स्वस्मिन्विजानीत॥4॥ पदार्थः—हे जिज्ञासु पुरुष! (यम्) जिस (विश्ववेदसम्) अच्छे संसार के वेत्ता परमात्मा को (भृगवः) विद्या से अविद्या को भूंजनेवाले (एरिरे) सब ओर से जाने वा (यः) जो (एकः) एक अति श्रेष्ठ आप्त ईश्वर (मज्मना) अत्यन्त बल से (वरुणः) अति श्रेष्ठ के (न) समान (पृथिव्याः) अन्तरिक्ष के वा (भुवनस्य) लोक में उत्पन्न हुए (वस्वः) धनरूप पदार्थ के (नाभा) बीच में अपनी व्याप्ति से (राजति) प्रकाशमान है (तम्) उस (अग्निम्) सूर्य के समान ईश्वर जो कि (स्वे) अपने अर्थात् तेरे (दमे) घररूप हृदयाकाश में वर्त्तमान है, उसको (गीर्भिः) प्रशंसित वाणियों से (आ, हिनुहि) जानो॥4॥ भावार्थः—हे मनुष्यो! जो विद्वानों से जानने योग्य, सब में सब प्रकार व्याप्त, प्रशंसा के योग्य, सच्चिदानन्दादि लक्षण, सर्वशक्तिमान्, अद्वितीय, अतिसूक्ष्म, आप ही प्रकाशमान अन्तर्यामी परमेश्वर है, उसको योग के अङ्गों के अनुष्ठान की सिद्धि से अपने हृदय में जानो॥4॥ अथ विद्वद्विषयमाह॥ अब विद्वान् के विषय में कहा है॥ न यो वरा॑य म॒रुता॑मिव स्व॒नः सेने॑व सृ॒ष्टा दि॒व्या यथा॒शनिः॑। अ॒ग्निर्जम्भै॑स्तिगि॒तैर॑त्ति॒ भर्व॑ति यो॒धो न शत्रू॒न्त्स वना॒ न्यृ॑ञ्जते॥5॥ न। यः। वरा॑य। म॒रुता॑म्ऽइव। स्व॒नः। सेना॑ऽइव। सृ॒ष्टा। दि॒व्या। यथा॑। अ॒शनिः॑। अ॒ग्निः। जम्भैः॑। ति॒गि॒तैः। अ॒त्ति॒। भर्व॑ति। यो॒धः। न। शत्रू॑न्। सः। वना॑। नि। ऋ॒ञ्ज॒ते॥5॥ पदार्थः—(न) निषेधे (यः) (वराय) स्वीकरणाय (मरुतामिव) यथा वायूनां विदुषां तथा (स्वनः) शब्दः (सेनेव) (सृष्टा) (दिव्या) दिवि कारणे वाय्वादिकार्ये च भवा (यथा) (अशनिः) विद्युत् (अग्निः) पावकः (जम्भैः) विस्फुरणैः (तिगितैः) तीक्ष्णैः (अत्ति) भक्षयति (भर्वति) हिनस्ति (योधः) प्रहर्त्ता (न) इव (शत्रून्) (सः) (वना) वनानि (नि) (ऋञ्जते) साध्नोति॥5॥ अन्वयः—योऽग्निर्मरुतामिव स्वनो वा सृष्टा सेनेव वा यथा दिव्याऽशनिस्तथा वराय न शक्यः स तिगितैर्जम्भैरत्ति योधो न शत्रून् भर्वति वना नि ऋञ्जते॥5॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। प्रचण्डवायुना प्रेरितोऽग्निः शत्रुहिंसनमिव पदार्थान् दहति नासौ सहसा निवारणीय इति॥5॥ पदार्थः—(यः) जो (अग्निः) आग (मरुतामिव) पवन वा विद्वानों के (स्वनः) शब्द के समान (सृष्टा, सेनेव) शत्रुदल में चक्रव्यूहादि रचना से रची हुई सेना के समान वा (यथा) जैसे (दिव्या) कारण वा वायु आदि कार्य द्रव्य में उत्पन्न हुई (अशनिः) बिजुली के वैसे (वराय) स्वीकार करने के लिये (न) नहीं हो सकता अर्थात् तेजी के कारण रुक नहीं सकता (सः) वह (तिगितैः) तीक्ष्ण (जम्भैः) स्फूर्त्तियों से (अत्ति) भक्षण करता अर्थात् लकड़ी आदि को खाता है (योधः) योधा के (न) समान (शत्रून्) शत्रुओं को (भर्वति) नष्ट करता अर्थात् धनुर्विद्या में प्रविष्ट किया हुआ शत्रुदल को भूंजता है और (वना) वनों को (नि, ऋञ्जते) निरन्तर सिद्ध करता है॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालंकार है। प्रचण्ड वायु से प्रेरित अति जलता हुआ अग्नि शत्रुओं को मारने के तुल्य पदार्थों को जलाता है, वह सहसा नहीं रुक सकता॥5॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ कु॒विन्नो॑ अ॒ग्निरु॒चथ॑स्य॒ वीरस॒द् वसु॒॑ष्कु॒विद्वसु॑भिः॒ काम॑मा॒वर॑त्। चो॒दः कु॒वित्तु॑तु॒ज्यात्सा॒तये॒ धियः॒ शुचि॑प्रतीकं॒ तम॒या धि॒या गृ॑णे॥6॥ कु॒वित्। नः॒। अ॒ग्निः। उ॒चथ॑स्य। वीः। अस॑त्। वसुः॑। कु॒वित्। वसु॑ऽभिः। काम॑म्। आ॒ऽवर॑त्। चो॒दः। कु॒वित्। तु॒तु॒ज्यात्। सा॒तये॑। धियः॑। शुचि॑ऽप्रतीकम्। तम्। अ॒या। धि॒या। गृ॒णे॒॥6॥ पदार्थः—(कुवित्) महान् (नः) अस्मभ्यम् (अग्निः) विद्युदादिस्वरूपः (उचथस्य) उचितस्य (वीः) व्यापकः (असत्) भवेत् (वसुः) वासयिता (कुवित्) महान् (वसुभिः) वासयितृभिः (कामम्) (आवरत्) आवृणुयात् (चोदः) चुद्यात् प्रेरयेत् (कुवित्) महान् (तुतुज्यात्) बलयेत् (सातये) विभागाय (धियः) प्रज्ञाः (शुचिप्रतीकम्) (तम्) (अया) अनया। अत्र वाच्छन्दसीत्येकारादेशाभावः। (धिया) प्रज्ञया कर्मणा वा (गृणे) स्तौमि॥6॥ अन्वयः—यः कुविदग्निर्न उचथस्य वीरसद्वसुभिस्सह कुविद्वसुः काममावरत्सातये कुविच्चोदो धियस्तुतुज्यात् तं शुचिप्रतीकमया धियाऽहं गृणे॥6॥ भावार्थः—ये विद्युद्वदुचितकामप्रापका बुद्धिबलप्रदायका महान्तो विद्वांसः स्वबुद्ध्या सर्वाञ्जनान् विदुषः कुर्वन्ति तान् सर्वे प्रशंसन्तु॥6॥ पदार्थः—जो (कुवित्) बड़ा (अग्निः) बिजुली आदि रूपवाला अग्निः (नः) हमारे लिये (उचथस्य) उचित पदार्थ का (वीः) व्यापक (असत्) हो वा (वसुभिः) वसानेवालों के साथ (कुवित्) बड़ा (वसुः) वसानेवाला (कामम्) काम को (आवरत्) भलीभांति स्वीकार करे वा (सातये) विभाग के लिये (कुवित्) बड़ा प्रशंसित जन (चोदः) प्रेरणा दे वा (धियः) बुद्धियों को (तुतुज्यात्) बलवती करे (तम्) उस (शुचिप्रतीकम्) पवित्र प्रतीति देनेवाले जन की (अया) इस (धिया) बुद्धि वा कर्म से (गृणे) मैं स्तुति करता हूँ॥6॥ भावार्थः—जो बिजुली के समान उचित काम प्राप्त कराने और बुद्धि बल अत्यन्त देनेवाले बड़े प्रशंसित विद्वान् अपनी बुद्धि से सब मनुष्यों को विद्वान् करते हैं, उनकी सब लोग प्रशंसा करें॥6॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ घृ॒तप्र॑तीकं व ऋ॒तस्य॑ धू॒र्षद॑म॒ग्निं मि॒त्रं न स॑मिधा॒न ऋ॑ञ्जते। इन्धा॑नो अ॒क्रो वि॒दथे॑षु॒ दीद्यच्छु॒क्रव॑र्णा॒मुदु॑ नो यंसते॒ धिय॑म्॥7॥ घृ॒तऽप्र॑तीकम्। वः॒। ऋ॒तस्य॑। धूः॒ऽसद॑म्। अ॒ग्निम्। मि॒त्रम्। न। स॒म्ऽइ॒धा॒नः। ऋ॒ञ्ज॒ते। इन्धा॑नः। अ॒क्रः। वि॒दथे॑षु। दीद्य॑त्। शु॒क्रऽव॑र्णाम्। उत्। ऊ॒म् इति॑। नः॒। यं॒स॒ते॒। धिय॑म्॥7॥ पदार्थः—(घृतप्रतीकम्) यो घृतमाज्यं प्रत्येति तम् (वः) युष्मभ्यम् (ऋतस्य) सत्यस्य (धूर्षदम्) यो धूर्षू हिंसकेषु सीदति तम् (अग्निम्) पावकम् (मित्रम्) सखायम् (न) इव (समिधानः) सम्यक् प्रकाशमानः (ऋञ्जते) प्रसाध्नोति (इन्धानः) प्रदीप्तस्सन् (अक्रः) अन्यैरक्रान्तः। अत्र पृषोदरादिनेष्टसिद्धिः। (विदथेषु) संग्रामेषु (दीद्यत्) देदीप्यमानः (शुक्रवर्णाम्) शुद्धस्वरूपाम् (उत्) (उ) इति वितर्के (नः) अस्माकम् (यंसते) रक्षति (धियम्) प्रज्ञाम्॥7॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यस्समिधानो वो युष्मभ्यं धूर्षदं घृतप्रतीकमग्निमृतस्य मित्रन्नेव ऋञ्जते य उ इन्धानोऽक्रो विदथेषु दीद्यत्सन् नः शुक्रवर्णां धियमुद्यंसते तं यूयं वयं च पितृवत्सेवेमहि॥7॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यो विद्युद्वत्सर्वशुभगुणाकरो मित्रवत्सुखप्रदाता संग्रामेषु वीर इव शत्रुजेता दुःखप्रध्वंसको वर्त्तते तं विद्वांसमाश्रित्य सर्वे मनुष्या विद्याः प्राप्नुयुः॥7॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! जो (समिधानः) अच्छे प्रकार प्रकाशमान विद्वान् (वः) तुम्हारे लिये (धूर्षदम्) हिंसकों में स्थिर होते हुए (घृतप्रतीकम्) जो घृत को प्राप्त होता उस (अग्निम्) आग को (ऋतस्य) सत्य व्यवहार के वर्त्तनेवाले (मित्रम्) मित्र के (न) समान (ऋञ्जते) प्रसिद्ध करता है (उ) और जो (इन्धानः) प्रकाशमान होता हुआ वा (अक्रः) औरों ने जिसको न दबा पाया वह (विदथेषु) संग्रामों में (दीद्यत्) निरन्तर प्रकाशित होता हुआ (नः) हम लोगों की (शुक्रवर्णाम्) शुद्धस्वरूप (धियम्) प्रज्ञा को (उद्यंसते) उत्तम रखता है, उसको तुम हम पिता के समान सेवें॥7॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो बिजुली के समान समस्त शुभ गुणों की खान, मित्र के समान सुख का देने, संग्रामों में वीर के तुल्य शत्रुओं को जीतने और दुःख का विनाश करनेवाला है, उस विद्वान् का आश्रय कर सब मनुष्य विद्याओं को प्राप्त होवें॥7॥ पुनर्विद्वद्विषयमाह॥ फिर विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं॥ अप्र॑युच्छ॒न्नप्र॑युच्छद्भिरग्ने शि॒वेभि॑र्नः पा॒युभिः॑ पाहि श॒ग्मैः। अद॑ब्धेभि॒रदृ॑पितेभिरि॒ष्टेऽनि॑मिषद्भिः॒ परि॑ पाहि नो॒ जाः॥8॥12॥ अप्र॑ऽयुच्छन्। अप्र॑युच्छत्ऽभिः। अ॒ग्ने॒। शि॒वेभिः॑। नः॒। पा॒युऽभिः॑। पा॒हि॒। श॒ग्मैः। अद॑ब्धेभिः। अदृ॑पितेभिः। इ॒ष्टे॒। अनि॑मिषत्ऽभिः। परि॑। पा॒हि॒। नः॒। जाः॥8॥ पदार्थः—(अप्रयुच्छन्) प्रमादमकुर्वन् (अप्रयुच्छद्भिः) प्रमादरहितैर्विद्वद्भिस्सह (अग्ने) विद्याविज्ञानप्रकाशयुक्त (शिवेभिः) कल्याणकारिभिः (नः) अस्मान् (पायुभिः) रक्षकैः (पाहि) रक्ष (शग्मैः) सुखप्रापकैः (अदब्धेभिः) अहिंसकैः (अदृपितेभिः) मोहादिदोषरहितैः (इष्टे) पूजितुं योग्य। अत्र संज्ञायां क्तिच्। (अनिमिषद्भिः) नैरन्तर्येणालस्यरहितैः (परि) सर्वतः (पाहि) (नः) अस्मान् (जाः) यो जनयति सुखानि सः॥8॥ अन्वयः—हे इष्टेऽग्ने अग्निवद् विद्वन्! त्वमप्रयुच्छन्सन्नप्रयुच्छद्भिः शिवेभिः पायुभिः शग्मैर्विद्वद्भिस्सह नः पाहि जास्त्वमनिमिषद्भिरदब्धेभिरदृपितेभिराप्तैस्सह नः परिपाहि॥8॥ भावार्थः—मनुष्यैस्सततमिदमेष्टव्यं प्रयतितव्यं च धार्मिकैर्विद्वद्भिस्सह धार्मिका विद्वांसोऽस्मान् सततं रक्षेयुरिति॥8॥ अत्र विद्वदीश्वरगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिरस्तीति वेद्यम्॥ इति त्रिंचत्वारिंशदुत्तरं शततमं 143 सूक्तं द्वादशो 12 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—हे (इष्टे) सत्कार करने योग्य तथा (अग्ने) विद्या विज्ञान के प्रकाश से युक्त अग्नि के समान विद्वान्! आप (अप्रयुच्छन्) प्रमाद को न करते हुए (अप्रयुच्छद्भिः) प्रमादरहित विद्वानों के साथ वा (शिवेभिः) कल्याण करनेवाले (पायुभिः) रक्षक (शग्मैः) सुखप्रपाक विद्वानों के साथ (नः) हम लोगों की (पाहि) रक्षा करो तथा (जाः) सुखों की उत्पत्ति करानेवाले आप (अनिमिषद्भिः) निरन्तर आलस्यरहित (अदब्धेभिः) हिंसा और (अदृपितेभिः) मोहादि दोषरहित विद्वानों के साथ (नः) हम लोगों की (परि, पाहि) सब ओर से रक्षा करो॥8॥ भावार्थः—मनुष्यों को निरन्तर यह चाहना और ऐसा प्रयत्न करना चाहिये कि धार्मिक विद्वानों के साथ धार्मिक विद्वान् हमारी निरन्तर रक्षा करें॥8॥ इस सूक्त में विद्वान् और ईश्वर के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जानना चाहिये॥ यह एक सौ तेंतालीसवाँ 143 सूक्त और बारहवां 12 वर्ग समाप्त हुआ॥

एतीत्यस्य सप्तर्चस्य चतुश्चत्वारिंशदुत्तरस्य शततमस्य सूक्तस्य दीर्घतमा ऋषिः। अग्निर्देवता। 1,3-5,7 निचृज्जगती। 2 जगती छन्दः। निषादः स्वरः। 6 भुरिक्पङ्क्तिश्छन्दः। पञ्चमः स्वरः॥ अथाध्यापकोपदेशकविषयमाह॥ अब एक सौ चवालीसवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में अध्यापक और उपदेश करनेवालों के विषय को कहते हैं॥ एति॒ प्र होता॑ व्र॒तम॑स्य मा॒ययो॒र्ध्वां दधा॑नः॒ शुचि॑पेशसं॒ धिय॑म्। अ॒भि स्रुचः॑ क्रमते दक्षिणा॒वृतो॒ या अ॑स्य॒ धाम॑ प्रथ॒मं ह॒ निंस॑ते॥1॥ एति॑। प्र। होता॑। व्र॒तम्। अ॒स्य। मा॒यया॑। ऊ॒र्ध्वाम्। दधा॑नः। शुचि॑ऽपेशसम्। धिय॑म्। अ॒भि॒। स्रु॑चः। क्र॒म॒ते॒। द॒क्षि॒णा॒ऽआ॒वृतः॑। याः। अ॒स्य॒। धाम॑। प्र॒थ॒मम्। ह॒। निंस॑ते॥1॥ पदार्थः—(एति) प्राप्नोति (प्र) (होता) सद्गुणग्रहीता (व्रतम्) सत्याचरणशीलम् (अस्य) शिक्षकस्य (मायया) प्रज्ञया (ऊर्ध्वाम्) उत्कृष्टाम् (दधानः) (शुचिपेशसम्) पवित्ररूपाम् (धियम्) प्रज्ञां कर्म वा (अभि) (स्रुचः) विज्ञानयुक्ताः (क्रमते) प्राप्नोति (दक्षिणावृतः) या दक्षिणां वृण्वन्ति (याः) (अस्य) (धाम) दधति यस्मिंस्तत् (प्रथमम्) (ह) (निंसते) चुम्बति॥1॥ अन्वयः—यो होता माययाऽस्य व्रतमूर्ध्वां शुचिपेशसं धियं दधानः प्र क्रमते या अस्य स्रुचो दक्षिणावृतो धियः प्रथमं धाम निंसते ता अभ्येति स ह प्राज्ञतमो जायते॥1॥ भावार्थः—ये मनुष्या आप्तस्य विदुष उपदेशाध्यापनाभ्यां विद्यायुक्तां बुद्धिमाप्नुवन्ति ते सुशीला जायन्ते॥1॥ पदार्थः—जो (होता) सद्गुणों का ग्रहण करनेवाला पुरुष (मायया) उत्तम बुद्धि से (अस्य) इस शिक्षा करनेवाले के (व्रतम्) सत्याचरण शील को (ऊर्ध्वाम्) और उत्तम (शुचिपेशसम्) पवित्र (धियम्) बुद्धि वा कर्म को (दधानः) धारण करता हुआ (प्र, क्रमते) व्यवहारों में चलता है वा (याः) जो (अस्य) इसकी (स्रुचः) विज्ञानयुक्त (दक्षिणावृतः) दक्षिणा का आच्छादन करनेवाली बुद्धि हैं, उनको और (प्रथमम्) प्रथम (धाम) धाम को (निंसते) जो प्रीति को पहुंचाता है (ह) वही अत्यन्त बुद्धिमान् होता है॥1॥ भावार्थः—जो मनुष्य शास्त्रवेत्ता विद्वान् के उपदेश और पढ़ाने से विद्यायुक्त बुद्धि को प्राप्त होते हैं, वे सुशील होते हैं॥1॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अ॒भीमृ॒तस्य॑ दो॒हना॑ अनूषत॒ योनौ॑ दे॒वस्य॒ सद॑ने॒ परी॑वृताः। अ॒पामु॒पस्थे॒ विभृ॑तो॒ यदाव॑स॒दध॑ स्व॒धा अ॑धय॒द्याभि॒रीय॑ते॥2॥ अ॒भि। ई॒म्। ऋ॒तस्य॑। दो॒हनाः॑। अ॒नू॒ष॒त॒। योनौ॑। दे॒वस्य॑। सद॑ने। परि॑ऽवृताः। अ॒पाम्। उ॒पऽस्थे॑। विऽभृ॑तः। यत्। आ। अव॑सत्। अध॑। स्व॒धाः। अ॒ध॒य॒त्। याभिः॑। ईय॑ते॥2॥ पदार्थः—(अभि) आभिमुख्ये (ईम्) सर्वतः (ऋतस्य) सत्यस्य विज्ञानस्य (दोहनाः) पूरकाः (अनूषत) स्तुवन्ति। अत्रान्येषामिति दैर्घ्यं व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (योनौ) गृहे (देवस्य) विदुषः (सदने) स्थाने (परिवृताः) आच्छादिता विदुष्यः (अपाम्) (उपस्थे) समीपे (विभृतः) विशेषेण धृतः (यत्) यः (आ) (अवसत्) वसेत् (अध) आनन्तर्ये (स्वधाः) उदकानि। स्वधेत्युदकनामसु पठितम्। (निघं॰1.12) (अधयत्) पिबति (याभिः) अद्भिः (ईयते) गच्छति॥2॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यथार्तस्य दोहनाः परिवृता देवस्य सदने योनावभ्यनूषत यद्यो वायुरपामुपस्थे विभृत आऽवसदध यथा विद्वान् स्वधा अधयद्याभिरीमीयते तथा तद्वद् यूयमपि वर्त्तध्वम्॥2॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽऽकाशे जलं स्थिरीभूय ततो वर्षित्वा सर्वं जगत् पोषयति तथा विद्वान् चेतसि विद्यां स्थिरीकृत्य सर्वान् मनुष्यान् पोषयेत्॥2॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! जैसे (ऋतस्य) सत्य विज्ञान के (दोहनाः) पूरे करनेवाली (परिवृताः) वस्त्रादि से ढपी हुई अर्थात् लज्जावती पण्डिता स्त्री (देवस्य) विद्वान् के (सदने) स्थान वा (योनौ) घर में (अभ्यनूषत) सम्मुख में प्रशंसा करती हैं वा (यत्) जो वायु (अपाम्) जलों के (उपस्थे) समीप में (विभृतः) विशेषता से धारण किया हुआ (आवसत्) अच्छे प्रकार वसे (अध) इसके अनन्तर जैसे विद्वान् (स्वधाः) जलों को (अधयत्) पिये वा (याभिः) जिन क्रियाओं से (ईम्) सब ओर से उनको (ईयते) प्राप्त होता है, वैसे उन सभी के समान तुम भी वर्त्तो॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे आकाश में जल स्थिर हो और वहाँ से वर्ष कर समस्त जगत् को पुष्ट करता है, वैसे विद्वान् जन चित्त में विद्या को स्थिर कर सब मनुष्यों को पुष्ट करें॥2॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ युयू॑षतः॒ सव॑यसा॒ तदिद्वपुः॑ समा॒नमर्थं॑ वि॒तरि॑त्रता मि॒थः। आदीं॒ भगो॒ न हव्यः॒ सम॒स्मदा वोळ्हु॒र्न र॒श्मीन्त्सम॑यंस्त॒ सार॑थिः॥3॥ युयू॑षतः। सऽव॑यसा। तत्। इत्। वपुः॑। स॒मा॒नम्। अर्थ॑म्। वि॒ऽतरि॑त्रता। मि॒थः। आत्। ई॒म्। भगः॑। न। हव्यः॑। सम्। अ॒स्मत्। आ। वोळ्हुः॑। न। र॒श्मीन्। सम्। अ॒यं॒स्त॒। सार॑थिः॥3॥ पदार्थः—(युयूषतः) मिश्रयितुमिच्छतः (सवयसा) समानं वयो ययोस्तौ (तत्) (इत्) (वपुः) स्वरूपम् (समानम्) तुल्यम् (अर्थम्) (वितरित्रता) विविधतयाऽतिशयेन तुरितुमिच्छन्तौ सम्पादयितु- मिच्छन्तौ। अत्र सर्वत्र विभक्तेराकारादेशः। (मिथः) परस्परम् (आत्) आनन्तर्ये (ईम्) सर्वतः (भगः) ऐश्वर्यवान् (न) इव (हव्यः) होतुमादातुं स्वीकर्त्तुमर्हः (सम्) (अस्मत्) (आ) समन्तात् (वोढुः) वाहकस्याश्वादेः (न) इव (रश्मीन्) (सम्) (अयंस्त) यच्छतः (सारथिः)॥3॥ अन्वयः—यदा सवयसा शिष्यौ समानं वपुर्युयूषतस्तदिन्मिथोऽर्थं वितरित्रता भवतः। आदीं भगो न हव्यस्तयो प्रत्येकः सारथिर्वोढू रश्मीन् नास्मदध्यापनान् समायंस्तोपदेशांश्च समयंस्त॥3॥ भावार्थः—येऽध्यापकोपदेशका निष्कपटतयाऽन्यान् स्वतुल्यान् कर्त्तुमिच्छया विदुषः कुर्युस्त उत्तमैश्वर्यं प्राप्य जितेन्द्रियाः स्युः॥3॥ पदार्थः—जब (सवयसा) समान अवस्थावाले दो शिष्य (समानम्) तुल्य (वपुः) स्वरूप को (युयूषतः) मिलाने अर्थात् एक-दूसरे की उन्नति करने को चाहते हैं (तदित्) तभी (वितरित्रता) अतीव अनेक प्रकार वे (मिथः) परस्पर (अर्थम्) धनादि पदार्थ की सिद्धि करने की इच्छा करते हैं (आत्) इसके अनन्तर (ईम्) सब ओर से (भगः) ऐश्वर्यवाला पुरुष जैसे (हव्यः) स्वीकार करने योग्य हो (न) वैसे उक्त विद्यार्थियों में से प्रत्येक (सारथिः) सारथी जैसे (वोढुः) पदार्थ पहुँचानेवाले घोड़े आदि की (रश्मीन्) रस्सियों को (न) वैसे (अस्मत्) हम अध्यापक आदि जनों से पढ़ाइयों को (समायंस्त) भलीभांति स्वीकार करता और उपदेशों को (सम्) भलीभांति स्वीकार करता है॥3॥ भावार्थः—जो अध्यापक और उपदेशक कपट-छल के विना औरों को अपने तुल्य करने की इच्छा से उन्हें विद्वान् करें, वे उत्तम ऐश्वर्य को पाकर जितेन्द्रिय हों॥3॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ यमीं॒ द्वा सव॑यसा सप॒र्यतः॑ समा॒ने योना॑ मिथुना समो॑कसा। दिवा॒ न नक्तं॑ पलि॒तो युवा॑जनि पु॒रू चर॑न्न॒जरो॒ मानु॑षा यु॒गा॥4॥ यम्। ई॒म्। द्वा। सऽव॑यसा। स॒प॒र्यतः॑। स॒मा॒ने। योना॑। मि॒थु॒ना। सम्ऽओ॑कसा। दिवा॑। न। नक्त॑म्। प॒लि॒तः। युवा॑। अ॒ज॒नि॒। पुरु। चर॑न्। अ॒जरः॑। मानु॑षा। यु॒गा॥4॥ पदार्थः—(यम्) सन्तानम् (ईम्) (द्वा) द्वौ (सवयसा) समानवयसौ (सपर्यतः) परिचरतः (समाने) तुल्ये (योना) योनौ जन्मनिमित्ते (मिथुना) दम्पती (समोकसा) समानगृहेण सह वर्त्तमानौ (दिवा) दिवसे (न) इव (नक्तम्) रात्रौ (पलितः) जातश्वेतकेशः (युवा) युवावस्थास्थः (अजनि) जायेत (पुरु) बहु (चरन्) विचरन् (अजरः) जरारोगरहितः (मानुषा) मनुष्यसम्बन्धीनि (युगा) युगानि वर्षाणि॥4॥ अन्वयः—सवयसा द्वा समाने योना मिथुना दम्पती समोकसा सह वर्त्तमानौ दिवा नक्तन्नेव यमीं बालं सपर्यतः सोऽजरो मानुषा युगा पुरु चरन् पलितोऽपि युवाऽजनि॥4॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा प्रीत्या सह वर्त्तमानौ स्त्रीपुरुषौ धर्म्येण सुतं जनयित्वा सुशिक्ष्य शीलेन संस्कृत्य भद्रं कुरुतस्तथा समानावध्यापकोपदेशकौ शिष्यान् सुशीलान् कुरुतः। यथा वा दिनं रात्र्या सह वर्त्तमानमपि स्वस्थाने रात्रिं निवारयति तथाऽज्ञानिभिस्सह वर्त्तमानावध्यापकोपदेशकौ मोहे न संलगतः। यथा वा कृतपूर्णब्रह्मचर्यौ रूपलावण्यबलादिगुणयुक्तं सन्तानमुत्पादयतस्तथैतौ सत्याध्यापनोपदेशाभ्यां सर्वेषां पूर्णमात्मबलं जनयतः॥4॥ पदार्थः—(सवयसा) समान अवस्थायुक्त (द्वा) दो (समाने) तुल्य (योना) उत्पत्ति स्थान में (मिथुना) मैथुन कर्म करनेवाले स्त्री-पुरुष (समोकसा) समान घर के साथ वर्त्तमान (दिवा) दिन (नक्तम्) रात्रि के (न) समान (यम्) जिस (ईम्) प्रत्यक्ष बालक का (सपर्यतः) सेवन करें उसको पालें, वह (अजरः) जरा अवस्थारूपी रोगरहित (मानुषा) मनुष्य सम्बन्धी (युगा) वर्षों को (पुरु) बहुत (चरन्) चलता भोगता हुआ (पलितः) सुफेद बालोंवाला भी हो तो (युवा) जवान तरुण अवस्थावाला (अजनि) प्रकट होता है॥4॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे प्रीति के साथ वर्त्तमान स्त्री-पुरुष धर्मसम्बन्धी व्यवहार से पुत्र को उत्पन्न कर उसे अच्छी शिक्षा दे शीलवान् कर सुखी करते हैं, वैसे समान पढ़ाने और उपदेश करनेवाले दो विद्वान् शिष्यों को सुशील करते हैं। वा जैसे दिन; रात्रि के साथ वर्त्तमान भी अपने स्थान में रात्रि को निवृत्त करता है, वैसे अज्ञानियों के साथ वर्त्तमान पढ़ाने और उपदेश करनेवाले विद्वान् मोह में नहीं लगते हैं। वा जैसे किया है पूरा ब्रह्मचर्य जिन्होंने वे रूपलावण्य और बलादि गुणों से युक्त सन्तान को उत्पन्न करते हैं, वैसे ये सत्य पढ़ाने और उपदेश करने से सबका पूरा आत्मबल उत्पन्न करते हैं॥4॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ तमीं॑ हिन्वन्ति धी॒तयो॒ दश॒ व्रि॒शो॑ दे॒वं मर्ता॑स ऊ॒तये॑ हवामहे। धनो॒रधि॑ प्र॒वत॒ आ स ऋ॑ण्वत्यभि॒व्रज॑द्भि॑र्व॒युना॒ नवा॑धित॥5॥ तम्। ई॒म्। हि॒न्व॒न्ति॒। धी॒तयः॑। दश॑। व्रि॒शः॑। दे॒वम्। मर्ता॑सः। ऊ॒तये॑। ह॒वा॒म॒हे॒। धनोः॑। अधि॑। प्र॒ऽवतः॑। आ। सः। ऋ॒ण्व॒ति॒। अ॒भि॒व्रज॑त्ऽभिः। व॒युना॑। नवा॑। अ॒धि॒त॒॥5॥ पदार्थः—(तम्) (ईम्) (हिन्वन्ति) हितं कुर्वन्ति प्रीणयन्ति (धीतयः) करपादाङ्गुलय इव (दश) (व्रिशः) प्रजाः। अत्र वर्णव्यत्ययेन वस्य स्थाने व्रः। (देवम्) विद्वांसम् (मर्त्तासः) मनुष्याः (ऊतये) रक्षणाद्याय (हवामहे) गृह्णीमः (धनोः) धनुषः (अधि) उपरि (प्रवतः) प्रवणं प्राप्तान् वाणानिव (आ) समन्तात् (सः) (ऋण्वति) प्राप्नोति। अत्र विकरणद्वयम्। (अभिव्रजद्भिः) अभितो गच्छद्भिः (वयुना) वयुनानि प्रज्ञानानि (नवा) नवानि (अधित) दधाति॥5॥ अन्वयः—हे मनुष्या! मर्त्तासो वयमूतये यं देवं हवामहे दश धीतयो व्रिशोऽयं हिन्वन्ति तमीं यूयं स्वीकुरुत यो धनुर्विद्धनोरधिक्षिप्तान् प्रवतो गच्छतो वाणानधित सोऽभिव्रजद्भिर्विद्वद्भिस्सह नवा वयुना आ ऋण्वति॥5॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा कराङ्गुलिभिर्भोजनादिक्रियया शरीराणि वर्द्धन्ते तथा विद्वदध्यापनोपदेशक्रियया प्रजा वर्धन्ते। यथा च धनुर्वेदवित् शत्रून् जित्वा रत्नानि लभते, तथा विद्वत्सङ्गफल- विद्विज्ञानानि प्राप्नोति॥5॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! (मर्त्तासः) मरणधर्मा मनुष्य हम लोग (ऊतये) रक्षा आदि के लिये जिस (देवम्) विद्वान् को (हवामहे) स्वीकार करते वा (दश) दश (धीतयः) हाथ-पैरों की अङ्गुलियों के समान (व्रिशः) प्रजा जिसको (हिन्वन्ति) प्रसन्न करती हैं (तम्, ईम्) उसी को तुम लोग ग्रहण करो, जो धुनर्विद्या का जाननेवाला (धनोः) धनुष के (अधि) ऊपर आरोप कर छोड़े (प्रवतः) जाते हुए वाणों को (अधित) धारण करता अर्थात् उनका सन्धान करता है (सः) वह (अभिव्रजद्भिः) सब ओर से जाते हुए विद्वानों के साथ (नवा) नवीन (वयुना) उत्तम-उत्तम ज्ञानों को (आ, ऋण्वति) अच्छे प्रकार प्राप्त होता है॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे हाथों की अङ्गुलियों से भोजन आदि क्रिया करने से शरीरादि बढ़ते हैं, वैसे विद्वानों के अध्यापन और उपदेशों की क्रिया से प्रजाजन वृद्धि पाते हैं वा जैसे धनुर्वेद का जाननेवाला शत्रुओं को जीत कर रत्नों को प्राप्त होता है, वैसे विद्वानों के सङ्ग के फल को जाननेवाला जन उत्तम ज्ञानों को प्राप्त होता है॥5॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसीविषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ त्वं ह्य॑ग्ने दि॒व्यस्य॒ राज॑सि॒ त्वं पार्थि॑वस्य पशु॒पाइ॑व॒ त्मना॑। एनी॑ त ए॒ते बृ॑ह॒ती अ॑भि॒श्रिया॑ हिर॒ण्ययी॒ वक्व॑री ब॒र्हिरा॑शाते॥6॥ त्वम्। हि। अ॒ग्ने॒। दि॒व्यस्य॑। राज॑सि। त्वम्। पार्थि॑वस्य। प॒शु॒पाःऽइ॑व। त्मना॑। एनी॒ इति॑। ते॒। ए॒ते इति॑। बृ॒ह॒ती इति॑। अ॒भि॒ऽश्रिया॑। हि॒र॒ण्ययी॒ इति॑। वक्व॑री॒ इति॑। ब॒र्हिः। आ॒शा॒ते॒ इति॑॥6॥ पदार्थः—(त्वम्) (हि) किल (अग्ने) सूर्य इव प्रकाशमान (दिव्यस्य) दिवि भवस्य वृष्ट्यिादिविज्ञानस्य (राजसि) प्रकाशयसि (त्वम्) (पार्थिवस्य) पृथिव्यां विदितस्य पदार्थविज्ञानस्य (पशुपाइव) यथा पशुपालकस्तथा (त्मना) आत्मना (एनी) येइतस्ते (ते) तव (एते) प्रत्यक्षे (बृहती) महत्यौ (अभिश्रिया) अभितः शोभायुक्ते (हिरण्ययी) प्रभूतहिरण्यमय्यौ (वक्वरी) प्रशंसिते (बर्हिः) वर्द्धनम् (आशाते) व्याप्नुतः॥6॥ अन्वयः—हे अग्ने! त्वं हि पशुपाइव त्मना दिव्यस्य राजसि त्वं पार्थिवस्य राजसि ये एते एनी बृहती अभिश्रिया हिरण्ययी वक्वरी द्यावापृथिव्यौ ते विज्ञानानुकूलं बर्हिराशाते॥6॥ भावार्थः—अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा ऋद्धिसिद्धयः पूर्णां श्रियं कुर्वन्ति तथात्मवान् पुरुषः परमेश्वरे भूराज्ये च सुप्रकाशते यथा वा पशुपालः स्वान् पशून् प्रीत्या रक्षति तथा सभापतिः स्वाः प्रजा रक्षेत्॥6॥ पदार्थः—हे (अग्ने) सूर्य के समान प्रकाशमान विद्वान्! (त्वं, हि) आप ही (पशुपाइव) पशुओं की पालना करनेवालों के समान (त्मना) अपने से (दिव्यस्य) अन्तरिक्ष में हुई वृष्टि आदि के विज्ञान को (राजसि) प्रकाशित करते वा (त्वम्) आप (पार्थिवस्य) पृथिवी में जाने हुए पदार्थों के विज्ञान का प्रकाश करते हो (एते) ये प्रत्यक्ष (एनी) अपनी-अपनी कक्षा में घूमनेवाले (बृहती) अतीव विस्तारयुक्त (अभिश्रिया) सब ओर से शोभायमान (हिरण्ययी) बहुत हिरण्य जिनमें विद्यमान (वक्वरी) प्रशंसित सूर्यमण्डल और भूमण्डल वा (ते) आपके ज्ञान के अनुकूल (बर्हिः) वृद्धि को (आशाते) व्याप्त होते हैं॥6॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे ऋद्धि और सिद्धि पूरी लक्ष्मी को करती हैं, वैसे आत्मवान् पुरुष परमेश्वर और पृथिवी के राज्य में अच्छे प्रकार प्रकाशित होता। जैसे पशुओं का पालनेवाला प्रीति से अपने पशुओं की रक्षा करता है, वैसे सभापति अपने प्रजाजनों की रक्षा करे॥6॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अग्ने॑ जु॒षस्व॒ प्रति॑ हर्य॒ तद्वचो॒ मन्द्र॒ स्वधा॑व॒ ऋत॑जात॒ सुक्र॑तो। यो वि॒श्वतः॑ प्र॒त्यङ्ङसि॑ दर्श॒तो र॒ण्वः संदृ॑ष्टौ पितु॒माँइ॑व॒ क्षयः॑॥7॥13॥ अग्ने॑। जु॒षस्व॑। प्रति॑। ह॒र्य॒। तत्। वचः॑। मन्द्र॑। स्वधा॑ऽवः। ऋत॑ऽजात। सुक्र॑तो॒ इति॒ सुऽक्र॑तो। यः। वि॒श्वतः॑। प्र॒त्यङ्। असि॑। द॒र्श॒तः। र॒ण्वः। सम्ऽदृ॑ष्टौ। पि॒तु॒मान्ऽइ॑व। क्षयः॑॥7॥ पदार्थः—(अग्ने) विद्युदिव वर्त्तमान (जुषस्व) (प्रति) (हर्य) कामयस्व (तत्) (वचः) (मन्द्र) प्रशंसनीय (स्वधावः) प्रशस्तं स्वधाऽन्नं विद्यते यस्य तत्सम्बुद्धौ (ऋतजात) ऋतात्सत्यात्प्रादुर्भूत (सुक्रतो) सुकर्मन् (यः) (विश्वतः) (प्रत्यङ्) प्रत्यञ्चतीति (असि) (दर्शतः) द्रष्टव्यः (रण्वः) शब्दविद्यावित् (संदृष्टौ) सम्यक् दर्शने (पितुमानिव) यथाऽन्नादियुक्तः (क्षयः) निवासार्थः प्रासादः॥7॥ अन्वयः—हे मन्द्र स्वधाव ऋतजात सुक्रतोऽग्ने! यो विश्वतः प्रत्यङ् संदृष्टौ दर्शतो रण्यो विद्वँस्त्वं क्षयः पितुमानिवासि स त्वं यन्मयेप्सितं वचस्तज्जुषस्व प्रति हर्य॥7॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। ये प्रशंसितबुद्धयो युक्ताहारविहाराः सत्ये व्यवहारे प्रसिद्धा धर्म्यकर्मप्रज्ञा आप्तानां विदुषां सकाशाद्विद्या उपदेशाँश्च कामयन्ते सेवन्ते च ते सर्वोत्कृष्टा जायन्ते॥7॥ अत्राऽध्यापकोपदेशकगुणवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्॥ इति चतुश्चत्वारिंशदुत्तरं शततमं 144 सूक्तं त्रयोदशो 13 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—हे (मन्द्र) प्रशंसनीय (स्वधावः) प्रशंसित अन्नवाले (ऋतजात) सत्य व्यवहार से उत्पन्न हुए (सुक्रतो) सुन्दर कर्मों से युक्त (अग्ने) बिजुली के समान वर्त्तमान विद्वान्! (यः) जो (विश्वतः) सब के (प्रत्यङ्) प्रति जाने वा सब से सत्कार लेनेवाले (संदृष्टौ) अच्छे दीखने में (दर्शतः) दर्शनीय (रण्वः) शब्दशास्त्र को जाननेवाले विद्वान् आप (क्षयः) निवास के लिये घर (पितुमान्, इव) अन्नयुक्त जैसे हो वैसे (असि) हैं, सो आप जो मेरी अभिलाषाकर (वचः) वचन है (तत्) उसको (जुषस्व) सेवो और (प्रति, हर्य) मेरे प्रति कामना करो॥7॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो प्रशंसित बुद्धिवाले यथायोग्य आहार-विहार से रहते हुए सत्य व्यवहार में प्रसिद्ध धर्म के अनुकूल कर्म और बुद्धि रखनेहारे शास्त्रज्ञ विद्वानों के समीप से विद्या और उपदेशों को चाहते और सेवन करते हैं, वे सब से उत्तम होते हैं॥7॥ इस सूक्त में अध्यापक और उपदेशकों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये॥ यह एक सौ चवालीसवां 144 सूक्त और तेरहवां 13 वर्ग समाप्त हुआ॥

तं पृच्छतेत्यस्य पञ्चर्चस्य पञ्चचत्वारिंशदुत्तरस्य शततमस्य सूक्तस्य दीर्घतमा ऋषिः। अग्निर्देवता। 1 विराड्जगती। 2,5 निचृज्जगती च च्छन्दः। निषादः स्वरः। 3,4 भुरिक् त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥ अथोपदेश्योपदेशकगुणानाह॥ अब एक सौ पैंतालीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में उपदेश करने योग्य और उपदेश करनेवालों के गुणों का वर्णन करते हैं॥ तं पृ॑च्छता॒ स ज॑गामा॒ स वे॑द॒ स चि॑कि॒त्वाँ ई॑यते॒ सा न्वी॑यते। तस्मि॑न्त्सन्ति प्र॒शिष॒स्तस्मि॑न्नि॒ष्टयः॒ स वाज॑स्य॒ शव॑सः शु॒ष्मिण॒स्पतिः॑॥1॥ तम्। पृ॒च्छ॒त॒। सः। ज॒गा॒म॒। सः। वे॒द॒। सः। चि॒कि॒त्वान्। ई॒य॒ते॒। सः। नु। ई॒य॒ते॒। तस्मि॑न्। स॒न्ति॒। प्र॒ऽशिषः॑। तस्मि॑न्। इ॒ष्टयः॑। सः। वाज॑स्य। शव॑सः। शु॒ष्मिणः॑। पतिः॑॥1॥ पदार्थः—तं पूर्वमन्त्रप्रतिपादितं विद्वांसम् (पृच्छत) अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (सः) (जगाम) गच्छति (सः) (वेद) जानाति (सः) (चिकित्वान्) विज्ञानयुक्तः (ईयते) प्राप्नोति (सः) (नु) सद्यः (ईयते) प्राप्नोति (तस्मिन्) (सन्ति) (प्रशिषः) प्रकृष्टानि शासनानि (तस्मिन्) (इष्टयः) सत्सङ्गतयः (सः) (वाजस्य) विज्ञानमयस्य (शवसः) बलस्य (शुष्मिणः) बहुबलयुक्तस्य सैन्यस्य राज्यस्य वा (पतिः) स्वामी॥1॥ अन्वयः—हे मनुष्याः! स सत्यमार्गे जगाम स ब्रह्म वेद स चिकित्वान् सुखानीयते सान्वीयते तस्मिन् प्रशिषः सन्ति तस्मिन्निष्टयः सन्ति स वाजस्य शवसः शुष्मिणः पतिरस्ति तं यूयं पृच्छत॥1॥ भावार्थः—यो विद्यासुशिक्षायुक्तो धार्मिकः प्रयत्नशीलः सर्वोपकारी सत्यस्य पालक आप्तो विद्वान् भवेत्, तदाश्रयाध्यापनोपदेशैः सर्वे मनुष्या इष्टविनयप्राप्ताः सन्तु॥1॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! (सः) वह विद्वान् सत्य मार्ग में (जगाम) चलता है (सः) वह (वेद) ब्रह्म को जानता है (सः) वह (चिकित्वान्) विज्ञानयुक्त सुखों को (ईयते) प्राप्त होता (सः) वह (नु) शीघ्र अपने कर्त्तव्य को (ईयते) प्राप्त होता है (तस्मिन्) उसमें (प्रशिषः) उत्तम-उत्तम शिक्षा (सन्ति) विद्यमान हैं (तस्मिन्) उसमें (इष्टयः) सत्सङ्ग विद्यमान हैं (सः) वह (वाजस्य) विज्ञान का (शवसः) बल वा (शुष्मिणः) बलयुक्त सेनासमूह वा राज्य का (पतिः) पालनेवाला स्वामी है, (तम्) उसको तुम (पृच्छत) पूछो॥1॥ भावार्थः—जो विद्या और अच्छी शिक्षायुक्त, धार्मिक और यत्नशील, सबका उपकारी, सत्य की पालना करनेवाला विद्वान् हो, उसके आश्रय जो पढ़ाना और उपदेश हैं, उनसे सब मनुष्य चाहे हुए काम और विनय को प्राप्त हों॥1॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ तमित्पृ॑च्छन्ति॒ न सि॒मो वि पृ॑च्छति॒ स्वेने॒॑व धीरो॒ मन॑सा॒ यदग्र॑भीत्। न मृ॑ष्यते प्रथ॒मं नाप॑रं॒ वचो॒ऽस्य क्रत्वा॑ सचते॒ अप्र॑दृपितः॥2॥ तम्। इत्। पृ॒च्छ॒न्ति॒ न। सि॒मः। वि। पृ॒च्छ॒ति॒। स्वेन॑ऽइव। धीरः॑। मन॑सा। यत्। अग्र॑भीत्। न। मृ॒ष्य॒ते॒। प्र॒थ॒मम्। न। अप॑रम्। वचः॑। अ॒स्य। क्रत्वा॑। स॒च॒ते॒। अप्र॑ऽदृपितः॥2॥ पदार्थः—(तम्) (इत्) एव (पृच्छन्ति) (न) निषेधे (सिमः) सर्वो मनुष्यः (वि) (पृच्छति) (स्वेनेव) (धीरः) ध्यानवान् (मनसा) विज्ञानेन (यत्) (अग्रभीत्) गृह्णाति (न) निषेधे (मृष्यते) संशय्यते (प्रथमम्) आदिमम् (न) (अपरम्) (वचः) वचनम् (अस्य) आप्तस्य विदुषः (क्रत्वा) प्रज्ञया कर्मणा वा (सचते) समवैति (अप्रदृपितः) न प्रमोहितः॥2॥ अन्वयः—अप्रदृपितो धीरः स्वेनेव मनसा यद्वचोऽग्रभीद्यदस्य क्रत्वा सह सचते तत् प्रथमं न मृष्यते तदपरं च न मृष्यते यं सिमो न विपृच्छति तमिदेव विद्वांसः पृच्छन्ति॥2॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। आप्ता मोहादिदोषरहिता विद्वांसो योगाभ्यासपवित्रीकृतेनात्मना यद्यत्सत्यमसत्यं वा निश्चिन्वन्ति तत्तत्सुनिश्चितं वर्त्तत इतीतरे मनुष्या मन्यन्ताम्। ये तेषां संगममकृत्वा सत्यासत्यनिर्णयं जिज्ञासन्ते ते कदाचिदपि सत्याऽसत्यनिर्णयं कर्त्तुं न शक्नुवन्ति तस्मादाप्तोपदेशेन सत्याऽसत्यविनिर्णयः कर्त्तव्यः॥2॥ पदार्थः—(अप्रदृपितः) जो अतीव मोह को नहीं प्राप्त हुआ वह (धीरः) ध्यानवान् विचारशील विद्वान् (स्वेनेव) अपने समान (मनसा) विज्ञान से (यत्) जिस (वचः) वचन को (अग्रभीत्) ग्रहण करता है वा जो (अस्य) इस शास्त्रज्ञ धर्मात्मा विद्वान् की (क्रत्वा) बुद्धि वा कर्म के साथ (सचते) सम्बन्ध करता है, वह (प्रथमम्) प्रथम (न) नहीं (मृष्यते) संशय को प्राप्त होता और वह (अपरम्) पीछे भी (न) नहीं संशय को प्राप्त होता है जिसको (सिमः) सर्व मनुष्यमात्र (न) नहीं (वि, पृच्छति) विशेषता से पूछता है (तमित्) उसी को विद्वान् जन (पृच्छन्ति) पूछते हैं॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। आप्त (=साक्षात्कार) जिन्होंने धर्मादि पदार्थ किये वे (शास्त्रवेत्ता) मोहादि दोषरहित विद्वान् योगाभ्यास से पवित्र किये हुए आत्मा से जिस-जिस को सत्य वा असत्य निश्चय करें, वह वह अच्छा निश्चय किया हुआ है, यह और मनुष्य मानें। जो उनका सङ्ग न करके सत्य-असत्य के निर्णय को जानना चाहते हैं, वे कभी सत्य-असत्य का निर्णय नहीं कर सकते। इससे आप्त विद्वानों के उपदेश से सत्य-असत्य का निर्णय करना चाहिये॥2॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ तमिद्ग॑च्छन्ति जु॒ह्वस्तमर्व॑ती॒र्विश्वा॒न्येक॑ः शृणव॒द्वचां॑सि मे। पु॒रु॒प्रै॒षस्ततु॑रिर्यज्ञ॒साध॒नोऽच्छि॑द्रोतिः॒ शिशु॒राद॑त्त॒ सं रभः॑॥3॥ तम्। इत्। ग॒च्छ॒न्ति॒। जु॒ह्वः॑। तम्। अर्व॑तीः। विश्वा॑नि। एक॑ः। शृ॒ण॒व॒त्। वचां॑सि। मे॒। पु॒रु॒प्रै॒षः। ततु॑रिः। य॒ज्ञ॒ऽसाध॑नः। अच्छि॑द्रऽऊतिः। शिशुः॑। आ। अ॒द॒त्त। सम्। रभः॑॥3॥ पदार्थः—(तम्) (इत्) एव (गच्छन्ति) प्राप्नुवन्ति (जुह्वः) विद्याविज्ञाने आददत्यः (तम्) (अर्वतीः) प्रशस्तबुद्धिमत्यः कन्याः (विश्वानि) अखिलानि (एकः) अद्वितीयः (शृणवत्) शृणुयात् (वचांसि) प्रश्नरूपाणि वचनानि (मे) मम (पुरुप्रैषः) पुरुभिर्बहुभिः सज्जनैः प्रैषः प्रेरितः (ततुरिः) दुःखात् सर्वान् सन्तारकः (यज्ञसाधनः) यज्ञस्य विद्वत्सत्कारस्य साधनानि यस्य (अच्छिद्रोतिः) अच्छिद्राऽप्रच्छिन्नाऽद्वैधीभूता ऊती रक्षणादिक्रिया यस्मात् सः (शिशुः) अविद्यादिदोषाणां तनूकर्त्ता (आ) समन्तात् (अदत्त) गृह्णीयात् (सम्) (रभः) महान्॥3॥ अन्वयः—हे विद्वान्! भवानेको मे विश्वानि वचांसि शृणवद्यो रभः पुरुप्रैषस्ततुरिर्यज्ञसाधनोऽछिद्रोऽतिः शिशुः सर्वोपकारं कर्तुं प्रयत्नं समादत्त यं धीमन्तो गच्छन्ति तमर्वतीर्गच्छन्ति तमिज्जुह्वो गच्छन्ति॥3॥ भावार्थः—मनुष्यैर्यद्यद्विदितं यद्यदधीतं तस्य तस्य परीक्षामाप्ताय विदुषे यथा प्रदद्युरेवं कन्या अपि स्वाध्यापिकायै परीक्षां प्रदद्युर्नैवं विना सत्याऽसत्ययोस्सम्यग् निर्णयो भवितुमर्हति॥3॥ पदार्थः—हे विद्वान्! आप (एकः) अकेले (मे) मेरे (विश्वानि) समस्त (वचांसि) वचनों को (शृणवत्) सुनें जो (रभः) बड़ा महात्मा (पुरुप्रैषः) जिसको बहुत सज्जनों ने प्रेरणा दी हो (ततुरिः) जो दुःख से सभी को तारनेवाला (यज्ञसाधनः) विद्वानों के सत्कार जिसके साधन अर्थात् जिसकी प्राप्ति करानेवाला (अच्छिद्रोतिः) जिससे नहीं खण्डित हुई रक्षणादि क्रिया (शिशुः) और जो अविद्यादि दोषों को छिन्न-भिन्न करे, सबके उपकार करने को अच्छा यत्न (समादत्त) भलीभांति ग्रहण करे (तम्) उसको (अर्वतीः) बुद्धिमति कन्या (गच्छन्ति) प्राप्त होती (तमित्) और उसी को (जुह्वः) विद्या विज्ञान को ग्रहण करनेवाली कन्या प्राप्त होती हैं॥3॥ भावार्थः—मनुष्यों ने जो जाना और जो-जो पढ़ा उस-उस की परीक्षा जैसे अपने आप पढ़ानेवाले विद्वान् को देवें, वैसे कन्या भी अपनी पढ़ानेवाली को अपने पढ़े हुए की परीक्षा देवें। ऐसे करने के विना सत्याऽसत्य का सम्यक् निर्णय होने को योग्य नहीं है॥3॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ उ॒प॒स्थायं॑ चरति॒ यत्स॒मार॑त स॒द्यो जा॒तस्त॑त्सा॒र युज्ये॑भिः। अ॒भि श्वा॒न्तं मृ॑शते ना॒न्द्ये॑ मु॒दे यदीं॒ गच्छ॑न्त्युश॒ती॒र॑पिष्ठि॒तम्॥4॥ उ॒प॒ऽस्थाय॑म्। च॒र॒ति॒। यत्। स॒म्ऽआर॑त। स॒द्यः। जा॒तः। त॒त्सा॒र॒। युज्ये॑भिः। अ॒भि। श्वा॒न्तम्। मृ॒श॒ते॒। ना॒न्द्ये॑। मु॒दे। यत्। ई॒म्। गच्छ॑न्ति। उ॒श॒तीः। अ॒पि॒ऽस्थि॒तम्॥4॥ पदार्थः—(उपस्थायम्) अभिक्षणमुपस्थातुम् (चरति) गच्छन्ति (यत्) यः (समारत) सम्यक् प्राप्नुत (सद्यः) शीघ्रम् (जातः) प्रसिद्धः (तत्सार) तत्सरेत् (युज्येभिः) योजितुं योग्यैः सह (अभि) (श्वान्तम्) श्रान्तं परिपक्वज्ञानम्। अत्र वर्णव्यत्ययेन रेफस्य स्थानेः वः। (मृशते) (नान्द्ये) आनन्दाय (मुदे) मोदनाय (यत्) यम् (ईम्) सर्वतः (गच्छन्ति) (उशतीः) कामयमाना विदुषीः (अपिस्थितम्)॥4॥ अन्वयः—हे जिज्ञासवो जना! यद्यो युज्येभिस्सह सद्यो जात उपस्थायं चरति तत्सार श्वान्तमभिमृशते बुद्धिमन्तो यद्यं नान्द्ये मुदेऽपिस्थितमुशतीरीं गच्छन्ति तं यूयं समारत॥4॥ भावार्थः—हे मनुष्या! ये याश्च सद्यः पूर्णविद्या जायन्ते कुटिलतादिदोषान् विहाय शान्त्यादिगुणान् प्राप्य सर्वेषां विद्यासुखाय अभीक्ष्णं प्रयतन्ते ते जगदानन्ददायकाः सन्ति॥4॥ पदार्थः—हे जिज्ञासु जनो (यत्) जो (युज्येभिः) युक्त करने योग्य पदार्थों के साथ (सद्यः) शीघ्र (जातः) प्रसिद्ध हुआ (उपस्थायम्) क्षण-क्षण उपस्थान करने को (चरति) जाता है वा (तत्सार) कुटिलपन से जावे वा (श्वान्तम्) परिपक्व पूरे ज्ञान को (अभिमृशते) सब ओर से विचारता है वा बुद्धिमान् जन (यम्) जिस (नान्द्ये) अति आनन्द और (मुदे) सामान्य हर्ष होने के लिये (अपिस्थितम्) स्थिर हुए को और (उशतीः) कामना करती हुई पण्डिताओं को (ईम्) सब ओर से (गच्छन्ति) प्राप्त होते, उसको तुम (समारत) अच्छे प्रकार प्राप्त होओ॥4॥ भावार्थः—हे मनुष्यो! जो बालक और जो कन्या शीघ्र पूर्ण विद्यायुक्त होते हैं और कुटिलतादि दोषों को छोड़ शान्ति आदि गुणों को प्राप्त होकर सबको विद्या तथा सुख होने के लिये वार-वार प्रयत्न करते हैं, वे जगत् को आनन्द देनेवाले होते हैं॥4॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ स ईं॑ मृ॒गो अप्यो॑ वन॒र्गुरुप॑ त्व॒च्यु॑प॒मस्यां॒ नि धा॑यि। व्य॑ब्रवीद्व॒युना॒ मर्त्ये॑भ्यो॒ऽग्निर्वि॒द्वाँ ऋ॑त॒चिद्धि स॒त्यः॥5॥14॥ सः। ई॒म्। मृ॒गः। अप्यः॑। व॒न॒र्गुः। उप॑। त्व॒चि। उ॒प॒ऽमस्या॑म्। नि। धा॒यि॒। वि। अ॒ब्र॒वी॒त्। व॒युना॑। मर्त्ये॑भ्यः। अ॒ग्निः। विद्वा॒न्। ऋ॒त॒ऽचित्। हि। स॒त्यः॥5॥ पदार्थः—(सः) (ईम्) (मृगः) (अप्यः) योऽपोर्हति (वनर्गुः) वनगामी। अत्र वनोपपदादृजु धातोरौणादिक उप्रत्ययो बाहुलकात्कुत्वं च। (उप) (त्वचि) त्वगिन्द्रिये (उपमस्याम्) उपमायाम्। अत्र वाच्छन्दसीति स्याडागमः। (नि) (धायि) धीयते (वि) (अब्रवीत्) उपदिशति (वयुना) प्रज्ञानानि (मर्त्येभ्यः) मनुष्येभ्यः (अग्निः) अग्निरिव विद्यादिसद्गुणैः प्रकाशमानाः (विद्वान्) वेत्ति सर्वा विद्याः सः (ऋतचित्) य ऋतं सत्यं चिनोति (हि) किल (सत्यः) सत्सु पुरुषेषु साधुः॥5॥ अन्वयः—विद्वद्भिर्योऽप्यो वनर्गुर्मृग इव उपमस्यां त्वच्युपनिधायि च ऋतचिदग्निर्विद्वान् मर्त्येभ्यो वयुने व्यब्रवीत् स हि सत्योऽस्ति॥5॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा तृषातुरो मृगो जलपानाय वने भ्रमित्वा जलं प्राप्य नन्दति तथा विद्वांसो शुभाचरितान् विद्यार्थिनः प्राप्यानन्दन्ति, ये विद्याः प्राप्याऽन्येभ्यो न प्रयच्छन्ति ते क्षुद्राशयाः पापिष्ठाः सन्तीति॥5॥ अत्रोपदेशकोपदेश्यकर्त्तव्यकर्मवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिरस्तीत्यवगन्तव्यम्॥ इति पञ्चचत्वारिंशदुत्तरं शततमं 145 सूक्तं चतुर्दशो 14 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—विद्वानों से जो (अप्यः) जलों के योग्य (वनर्गुः) वनगामी (मृगः) हरिण के समान (उपमस्याम्) उपमा रूप (त्वचि) त्वगिन्द्रिय में (उप, नि, धायि) समीप निरन्तर धरा जाता है वा जो (ऋतचित्) सत्य व्यवहार को इकट्ठा करनेवाला (अग्निः) अग्नि के समान विद्या आदि गुणों से प्रकाशमान (विद्वान्) सब विद्याओं को जाननेवाला पण्डित (मर्त्येभ्यः) मनुष्यों के लिये (वयुना) उत्तम-उत्तम ज्ञानों का (ईम्) ही (वि, अब्रतीत्) विशेष करके उपदेश देता है (सः, हि) वही (सत्यः) सज्जनों में साधु है॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे तृषातुर मृग जल पीने के लिये वन में डोलता जल को पाकर आनन्दित होता है, वैसे विद्वान् जन शुभ आचरण करनेवाले विद्यार्थियों को पाकर आनन्दित होते हैं और जो शिक्षा पाकर औरों को नहीं देते वे क्षुद्राशय और अत्यन्त पापी होते हैं॥5॥ इस सूक्त में उपदेश करने और उपदेश सुननेवालों के कर्त्तव्य कामों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये॥ यह एक सौ पैंतालीसवां 145 सूक्त और चौदहवां 14 वर्ग समाप्त हुआ॥

त्रिमूर्द्धानमित्यस्य पञ्चर्चस्य षट्चत्वारिंशदुत्तरस्य शततमस्य सूक्तस्य दीर्घतमा ऋषिः। अग्निर्देवता। 1,2 विराट् त्रिष्टुप्। 3,5 त्रिष्टुप्। 4 निचृत्त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥ अथाग्निविद्वद् गुणा उपदिश्यन्ते॥ अब एक सौ छियालीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में अग्नि और विद्वानों के गुणों का उपदेश किया है॥ त्रि॒मू॒र्धानं॑ स॒प्तर॑श्मिं गृणी॒षेऽनू॑नम॒ग्निं पि॒त्रोरु॒पस्थे॑। नि॒ष॒त्तम॑स्य॒ चर॑तो ध्रु॒वस्य॒ विश्वा॑ दि॒वो रो॑च॒नाप॑प्रि॒वांस॒म्॥1॥ त्रि॒ऽमू॒र्धानम्। स॒प्तऽर॑श्मिम्। गृ॒णी॒षे॒। अनू॑नम्। अ॒ग्निम्। पि॒त्रोः। उ॒पऽस्थे॑। नि॒ऽस॒त्तम्। अ॒स्य॒। चर॑तः। ध्रु॒वस्य॑। विश्वा॑। दि॒वः। रो॒च॒ना। आ॒प॒प्रि॒ऽवांस॑म्॥1॥ पदार्थः—(त्रिमूर्द्धानम्) त्रिषु निकृष्टमध्यमोत्तमेषु पदार्थेषु मूर्द्धा यस्य तम् (सप्तरश्मिम्) सप्तसु छन्दस्सु लोकेषु वा रश्मयो यस्य तम् (गृणीषे) स्तौषि (अनूनम्) हीनतारहितम् (अग्निम्) विद्युतम् (पित्रोः) वाय्वाकाशयोः (उपस्थे) समीपे (निषत्तम्) नितरां प्राप्तम् (अस्य) (चरतः) स्वगत्या व्याप्तस्य (ध्रुवस्य) निश्चलस्य (विश्वा) सर्वाणि (दिवः) प्रकाशमानस्य (रोचना) प्रकाशनानि (आपप्रिवांसम्) समन्तात् पूर्णम्॥1॥ अन्वयः—हे धीमन्! यतस्त्वं पित्रोरुपस्थे निषत्तं त्रिमूर्द्धानं सप्तरश्मिमनूनमस्य चरतो ध्रुवस्य चराऽचरस्य दिवश्च विश्वा रोचनापप्रिवांसमग्निमिव वर्त्तमानं विद्वांसं गृणीषे स त्वं विद्यां प्राप्तुमर्हसि॥1॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा त्रिभिर्विद्युत्सूर्यप्रसिद्धाग्निरूपैरग्निः चराऽचरस्य कार्यसाधको वर्त्तते तथा विद्वांसोऽखिलस्य विश्वस्योपकारका भवन्ति॥1॥ पदार्थः—हे धारणशील उत्तम बुद्धिवाले जन! जिससे तू (पित्रोः) पालनेवाले पवन और आकाश के (उपस्थे) समीप में (निषत्तम्) निरन्तर प्राप्त (त्रिमूर्द्धानम्) तीनों निकृष्ट, मध्यम और उत्तम पदार्थों में शिर रखनेवाले (सप्तरश्मिम्) सात गायत्री आदि छन्दों वा भूरादि सात लोकों में जिसकी प्रकाशरूप किरणें हों ऐसे (अनूनम्) हीनपने से रहित और (अस्य) इस (चरतः) अपनी गति से व्याप्त (ध्रुवस्य) निश्चल (दिवः) सूर्यमण्डल के (विश्वा) समस्त (रोचना) प्रकाशों को (आपप्रिवांसम्) जिसने सब ओर से पूर्ण किया उस (अग्निम्) बिजुली रूप आग के समान वर्त्तमान विद्वान् की (गृणीषे) स्तुति करता है, सो तू विद्या पाने योग्य होता है॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे तीन बिजुली, सूर्य और प्रसिद्ध अग्नि रूपों से अग्नि चराचर जगत् के कार्यों को सिद्ध करनेवाला है, वैसे विद्वान् जन समस्त विश्व का उपकार करनेवाले होते हैं॥1॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ उ॒क्षा म॒हाँ अ॒भि व॑वक्ष एने अ॒जर॑स्तस्थावि॒तऊ॑तिर्ऋ॒ष्वः। उ॒र्व्याः प॒दो नि द॑धाति॒ सानौ॑ रि॒हन्त्यूधो॑ अरु॒षासो॑ अस्य॥2॥ उ॒क्षा। म॒हान्। अ॒भि। व॒व॒क्षे॒। ए॒ने॒ इति॑। अ॒जरः॑। त॒स्थौ॒। इ॒तःऽऊ॑तिः। ऋ॒ष्वः। उ॒र्व्याः। प॒दः। नि। द॒धा॒ति॒। सानौ॑। रि॒हन्ति॑। ऊधः॑। अ॒रु॒षासः॑। अ॒स्य॒॥2॥ पदार्थः—(उक्षा) सेचकः (महान्) (अभि) (ववक्षे) संहन्ति। अयं वक्ष सङ्घात इत्यस्य प्रयोगः। (एने) द्यावापृथिव्यौ (अजरः) हानिरहितः (तस्थौ) तिष्ठति (इतऊतिः) इतः ऊती रक्षणाद्या क्रिया यस्मात् सः (ऋष्वः) गतिमान् (उर्व्याः) पृथिव्याः (पदः) पदान् (नि) (दधाति) (सानौ) विभक्ते जगति (रिहन्ति) प्राप्नुवन्ति (ऊधः) जलस्थानम् (अरुषासः) अहिंसमानाः किरणाः (अस्य) मेघस्य॥2॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यथा उर्व्या महानुक्षा अजर ऋष्वः सूर्य एने द्यावापृथिव्यावभि ववक्षे इतऊतिः सन् पदो निदधाति अस्यारुषासः सानावूधो रिहन्ति यो ब्रह्माण्डस्य मध्ये तस्थौ तद्वद् यूयं भवत॥2॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा सूत्रात्मा वायुर्भूमिं सूर्य च धृत्वा जगद्रक्षति यथा वा सूर्यः पृथिव्या महान् वर्त्तते तथा वर्त्तितव्यम्॥2॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! जैसे (उर्व्याः) पृथिवी से (महान्) बड़ा (उक्षा) वर्षा जल से सींचनेवाला (अजरः) हानिरहित (ऋष्वः) गतिमान् सूर्य (एने) इन अन्तरिक्ष और भूमिमण्डल को (अभि, ववक्षे) एकत्र करता है (इतऊतिः) वा जिससे रक्षा आदि क्रिया प्राप्त होती ऐसा होता हुआ (पदः) अपने अंशों को (नि, दधाति) निरन्तर स्थापित करता है (अस्य) इस सूर्य की (अरुषासः) नष्ट होती हुई किरणें (सानौ) अलग-अलग विस्तृत जगत् में (ऊधः) जलस्थान को (रिहन्ति) प्राप्त होती हैं वा जो ब्रह्माण्ड के बीच में (तस्थौ) स्थिर है, उसके समान तुम लोग होओ॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को जैसे सूत्रात्मा वायु; भूमि और सूर्यमण्डल को धारण करके संसार की रक्षा करता है वा जैसे सूर्य पृथिवी से बड़ा है, वैसा वर्त्ताव वर्त्तना चाहिये॥2॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ स॒मा॒नं व॒त्सम॒भि सं॒चर॑न्ती॒ विष्व॑ग्धे॒नू वि च॑रतः सु॒मेके॑। अ॒न॒प॒वृ॒ज्याँ अध्व॑नो॒ मिमा॑ने॒ विश्वा॒न् केताँ॒ अधि॑ म॒हो दधा॑ने॥3॥ स॒मा॒नम्। व॒त्सम्। अ॒भि। सं॒चर॑न्ती॒ इति॑ स॒म्ऽचर॑न्ती। विष्व॑क्। धे॒नू इति॑। वि। च॒र॒तः॒। सु॒मेके॒ इति॑ सु॒ऽमेके॑। अ॒न॒प॒ऽवृ॒ज्यान्। अध्व॑नः। मिमा॑ने॒ इति। विश्वा॑न्। केता॑न्। अधि॑। म॒हः। दधा॑ने॒ इति॑॥3॥ पदार्थः—(समानम्) तुल्यम् (वत्सम्) वत्सवद्वर्त्तमानोऽहोरात्रः (अभि) अभितः (संचरन्ती) सम्यग् गच्छन्ती (विष्वक्) विषुं व्याप्तिमञ्चति (धेनू) धेनुरिव वर्त्तमाने (वि) (चरतः) (सुमेके) सुष्ठु मेकः प्रक्षेपो ययोस्तौ (अनपवृज्यान्) अपवर्जितुमनर्हान् (अध्वनः) मार्गस्य (मिमाने) निर्माणकर्तृणी (विश्वान्) समग्रान् (केतान्) बोधान् (अधि) (महः) महतः (दधाने)॥3॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यूयं यथा द्यावापृथिव्यौ समानं वत्समभिसंचरन्ती सुमेकेऽध्वनोऽनपवृज्यान् मिमाने महो विश्वान् केतानधि दधाने धेनू इव विष्वग् विचरतः तथेमे विदित्वा पक्षपातं विहाय सर्वेषां कामान् पूरयत॥3॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः सूर्यवत् न्यायगुणाकर्षकप्रकाशका नानाविधमार्गान् निर्मिमाणा धेनुवत् सर्वान् पुष्यन्तः समग्रा विद्या धरन्ति ते दुःखरहिताः स्युः॥3॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! तुम लोग जैसे सूर्यलोक और भूमण्डल दोनों (समानम्) तुल्य (वत्सम्) बछड़े के समान वर्त्तमान दिन-रात्रि को (अभि, सं, चरन्ती) सब ओर से अच्छे प्रकार प्राप्त होते हुए (सुमेके) सुन्दर जिनका त्याग करना (अध्वनः) मार्ग से (अनपवृज्यान्) न दूर करने योग्य पदार्थों को (मिमाने) बनावट (रचना) करनेवाले (महः) बड़े-बड़े (विश्वान्) समग्र (केतान्) बोधों को (अधि, दधाने) अधिकता से धारण करते हुए (धेनू) गौओं के समान (विष्वक्, वि, चरतः) सब ओर से विचर रहे हैं, वैसे इन्हें जान, पक्षपात को छोड़, सब कामों को पूरा करो॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य सूर्य के समान न्याय, गुणों के आकर्षण और प्रकाश करनेवाले, नानाविध मार्गों का निर्माण करते हुए, धेनु के समान सबकी पुष्टि करते हुए, समग्र विद्याओं को धारण करते हैं, वे दुःखरहित होते हैं॥3॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ धीरा॑सः प॒दं॒ क॒वयो॑ नयन्ति॒ नाना॑ हृ॒दा रक्ष॑माणा अजु॒र्यम्। सिषा॑सन्तः॒ पर्य॑पश्यन्त॒ सिन्धु॑मा॒विरे॑भ्यो अभव॒त् सूर्यो॒ नॄन्॥4॥ धीरा॑सः। पदम्। क॒वयः॑। न॒य॒न्ति॒। नाना॑। हृ॒दा। रक्ष॑माणाः। अ॒जु॒र्यम्। सिसा॑सन्तः। परि॑। अ॒प॒श्य॒न्त॒। सिन्धु॑म्। आ॒विः। ए॒भ्यः॒। अ॒भ॒व॒त्। सूर्यः॑। नॄन्॥4॥ पदार्थः—(धीरासः) ध्यानवन्तो विद्वांसः (पदम्) पदनीयम् (कवयः) विक्रान्तप्रज्ञाः शास्त्रविदो विद्वांसः (नयन्ति) प्राप्नुवन्ति (नाना) अनेकान् (हृदा) हृदयेन (रक्षमाणाः) ये रक्षन्ति ते। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (अजुर्यम्) यदजूर्षु हानिरहितेषु साधु (सिषासन्तः) संभक्तुमिच्छन्तः (परि) सर्वतः (अपश्यन्त) पश्यन्ति (सिन्धुम्) नदीम् (आविः) प्राकट्ये (एभ्यः) (अभवत्) भवति (सूर्य्यः) सवितेव (नॄन्) नायकान् मनुष्यान्॥4॥ अन्वयः—ये धीरासः कवयो हृदा नाना नॄन् रक्षमाणा सिषासन्तः सिन्धुं सूर्य इवाजुर्यं पदं नयन्ति ते परमात्मानं पर्यपश्यन्त य एभ्यो विद्याभिशिक्षे प्राप्याविरभवत् सोऽपि तत्पदमाप्नोति॥4॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये सर्वानात्मवत्सुखदुःखव्यवस्थायां विदित्वा न्यायमेवाश्रयन्ति तेऽव्ययं पदमाप्नुवन्ति, यथा सूर्यो जलं वर्षयित्वा नदीः पिपर्त्ति तथा विद्वांसो सत्यवचांसि वर्षयित्वा मनुष्यात्मनः पिपुरति॥4॥ पदार्थः—जो (धीरासः) ध्यानवान् (कवयः) विविध प्रकार के पदार्थों में आक्रमण करनेवाली बुद्धियुक्त विद्वान् (हृदा) हृदय से (नाना) अनेक (नॄन्) मुखियों की (रक्षमाणाः) रक्षा करते और (सिषासन्तः) अच्छे प्रकार विभाग करने की इच्छा करते हुए (सूर्यः) सूर्य के समान अर्थात् जैसे सूर्यमण्डल (सिन्धुम्) नदी के जल को स्वीकार करता वैसे (अजुर्यम्) हानिरहित (पदम्) प्राप्त करने योग्य पद को (नयन्ति) प्राप्त होते हैं, वे परमात्मा को (परि, अपश्यन्त) सब ओर से देखते अर्थात् सब पदार्थों में विचारते हैं जो (एभ्यः) इनसे विद्या और उत्तम शिक्षा को पाके (आविः) प्रकट (अभवत्) होता है, वह भी उस पद को प्राप्त होता है॥4॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो सबको आत्मा के समान सुख-दुःख की व्यवस्था में जान न्याय का ही आश्रय करते हैं, वे अव्यय पद को प्राप्त होते हैं। जैसे सूर्य जल को वर्षा कर नदियों को भरता पूरी करता है, वैसे विद्वान् जन सत्यवचनों को वर्षा कर मनुष्यों के आत्माओं को पूर्ण करते हैं॥4॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ दि॒दृ॒क्षेण्यः॒ परि॒ काष्ठा॑सु॒ जेन्य॑ ई॒ळेन्यो॑ म॒हो अर्भा॑य जी॒वसे॑। पु॒रु॒ऽत्रा यदभ॑व॒त्सूरहै॑भ्यो॒ गर्भे॑भ्यो॒ म॒घवा॑ वि॒श्वदर्शतः॥5॥15॥ दि॒दृ॒क्षेण्यः॑। परि॑। काष्ठा॑सु। जेन्यः॑। ई॒ळेन्यः॑। म॒हः। अर्भा॑य। जी॒वसे॑। पु॒रु॒ऽत्रा। यत्। अभ॑वत्। सूः। अह॑। ए॒भ्यः॒। गर्भे॑भ्यः। म॒घऽवा॑। वि॒श्वऽद॑र्शतः॥5॥ पदार्थः—(दिदृक्षेण्यः) द्रष्टुमिच्छयैष्टव्यः (परि) सर्वतः (काष्ठासु) दिक्षु (जेन्यः) जेतुं शीलः (ईळेन्यः) स्तोतुमर्हः (महः) महते (अर्भाय) अल्पाय (जीवसे) जीवितुम् (पुरुत्रा) पुरुषु बहुष्विति (यत्) यः (अभवत्) भवेत् (सूः) यः सूते सः (अह) विनिग्रहे (एभ्यः) (गर्भेभ्यः) गर्त्तंु स्तोतुं योग्येभ्यः (मघवा) परमपूजितधनयुक्तः (विश्वदर्शतः) विश्वैरखिलैर्विद्वद्भिर्द्रष्टुं योग्यः॥5॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यद्योऽहैभ्यो गर्भेभ्यो विद्वत्तमेभ्यो महोऽर्भाय जीवसे पुरुत्रा मघवा विश्वदर्शतो दिदृक्षेण्यः काष्ठासु जेन्य ईळेन्यस्सूः पर्यभवत्स सर्वैः सत्कर्त्तव्यः॥5॥ भावार्थः—ये दिक्षु व्याप्तकीर्त्तयः शत्रूणां जेतारो विद्वत्तमेभ्यः प्राप्तविद्यासुशिक्षाः शुभगुणैर्दर्शनीया जनाः सन्ति ते जगन्मङ्गलाय प्रभवन्ति॥5॥ अस्मिन् सूक्तेऽग्निविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन साकं सङ्गतिर्वेद्या॥ इति षट्चत्वारिंशदुत्तरं शततमं 146 सूक्तं पञ्चदशो 15 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! (यत्) जो (अह) ही (एभ्यः) इन (गर्भेभ्यः) स्तुति करने के योग्य उत्तम विद्वानों से (महः) बहुत और (अर्भाय) अल्प (जीवसे) जीवन के लिये (पुरुत्रा) बहुतों में (मघवा) परम प्रतिष्ठित धनयुक्त (विश्वदर्शतः) समस्त विद्वानों से देखने के योग्य (दिदृक्षेण्यः) वा देखने की इच्छा से चाहने योग्य (काष्ठासु) दिशाओं में (जेन्यः) जीतनेवाला अर्थात् दिग्विजयी (ईळेन्यः) और स्तुति प्रशंसा करने के योग्य (सूः) सब ओर से उत्पन्न (परि, अभवत्) हो सो सबको सत्कार करने के योग्य है॥5॥ भावार्थः—जो दिशाओं में व्याप्त कीर्त्ति अर्थात् दिग्विजयी, प्रसिद्ध शत्रुओं को जीतनेवाले, उत्तम विद्वानों से विद्या उत्तम शिक्षाओं को पाये हुए शुभ गुणों से दर्शनीय जन हैं, वे संसार के मङ्गल के लिये समर्थ होते हैं॥5॥ इस सूक्त में अग्नि और विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जानना चाहिये॥ यह एक सौ छियालीसवाँ 146 सूक्त और पन्द्रहवाँ 15 वर्ग समाप्त हुआ॥

कथेत्यस्य पञ्चर्चस्य सप्तचत्वारिंशदुत्तरस्य शततमस्य सूक्तस्य दीर्घतमा ऋषिः। अग्निर्देवता। 1,3,4,5 निचृत्त्रिष्टुप्। 2 विराट् त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥ अथ मित्राऽमित्रयोर्गुणानाह॥ अब एक सौ सैंतालीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में मित्र और अमित्र के गुणों का वर्णन करते हैं॥ क॒था ते॑ अग्ने शु॒चय॑न्त आ॒योर्द॑दा॒शुर्वाजे॑भिराशुषा॒णाः। उभे यत्तो॒के तन॑ये॒ दधा॑ना ऋ॒तस्य॒ साम॑न् र॒णय॑न्त दे॒वाः॥1॥ क॒था। ते॒। अ॒ग्ने॒। शु॒चय॑न्तः। आ॒योः। द॒दा॒शुः। वाजे॑भिः। आ॒शु॒षा॒णाः। उ॒भे इति॑। यत्। तो॒के इति॑। तन॑ये। दधा॑ना। ऋ॒तस्य॑। साम॑न्। र॒णय॑न्त॒। दे॒वाः॥1॥ पदार्थः—(कथा) कथम् (ते) तव (अग्ने) विद्वन् (शुचयन्तः) ये शुचीनात्मन इच्छन्ति ते (आयोः) विदुषः (ददाशुः) दातुः (वाजेभिः) विज्ञानादिभिर्गुणैः सह (आशुषाणाः) आशुविभाजकाः (उभे) द्वे वृत्ते (यत्) (तोके) अपत्ये (तनये) पुत्रे (दधानाः) (ऋतस्य) सत्यस्य (सामन्) सामनि वेदे (रणयन्त) शब्दयेयुः। अत्राडभावः। (देवाः) विद्वांसः॥1॥ अन्वयः—हे अग्ने ददाशुरायोस्ते यद्ये वाजेभिः सह आशुषाणास्तनये तोके उभे दधानाः शुचयन्तो देवाः सन्ति ते सामन्नृतस्य कथा रणयन्त॥1॥ भावार्थः—सर्वे अध्यापका विद्वांसोऽनूचानमाप्तं विद्वांसं प्रति प्रच्छेयुर्वयं कथमध्यापयेम, स तान् सम्यक् शिक्षेत् यथैते प्राप्तविद्यासुशिक्षा जितेन्द्रिया धार्मिकाः स्युस्तथा भवन्तोऽध्यापयन्त्वित्युत्तरम्॥1॥ पदार्थः—हे (अग्ने) विद्वान् (ददाशुः) देनेवाले (आयोः) विद्वान्! जो आप (ते) उन तुम्हारे (यत्) जो (वाजेभिः) विज्ञानादि गुणों के साथ (आशुषाणाः) शीघ्र विभाग करनेवाले (तनये) पुत्र और (तोके) पौत्र आदि के निमित्त (उभे) दो प्रकार के चरित्रों को (दधानाः) धारण किये हुए (शुचयन्तः) पवित्र व्यवहार अपने को चाहते हुए (देवाः) विद्वान् जन हैं, वे (सामन्) सामवेद में (ऋतस्य) सत्य व्यवहार का (कथा) कैसे (रणयन्त) वाद-विवाद करें॥1॥ भावार्थः—सब अध्यापक विद्वान् जन उपदेशक शास्त्रवेत्ता धर्मज्ञ विद्वान् को पूछे कि हम लोग कैसे पढ़ावें, वह उन्हें अच्छे प्रकार सिखावे, क्या सिखावे? कि जैसे ये विद्या तथा उत्तम शिक्षा को प्राप्त इन्द्रियों को जीतनेवाले धार्मिक पढ़नेवाले हों, वैसे आप लोग पढ़ावें, यह उत्तर है॥1॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ बोधा॑ मे अ॒स्य वच॑सो यविष्ठ॒ मंहि॑ष्ठस्य॒ प्रभृ॑तस्य स्वधावः। पीय॑ति त्वो॒ अनु॑ त्वो गृणाति व॒न्दारु॑स्ते त॒न्वं॑ वन्दे अग्ने॥2॥ बोध॑। मे॒। अ॒स्य। वच॑सः। य॒वि॒ष्ठ॒। मंहि॑ष्ठस्य। प्रऽभृ॑तस्य। स्व॒धा॒ऽवः॒। पीय॑ति। त्वः॒। अनु॑। त्वः॒। गृ॒णा॒ति॒। व॒न्दारुः॑। ते॒। त॒न्व॑म्। व॒न्दे॒। अ॒ग्ने॒॥2॥ पदार्थः—(बोध) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (मे) मम (अस्य) (वचसः) वचनस्य (यविष्ठ) अतिशयेन युवा (मंहिष्ठस्य) अतिशयेनोरोर्बहुप्रज्ञस्य (प्रभृतस्य) प्रकर्षेण धृतस्य (स्वधावः) प्रशस्तमन्नं विद्यते यस्य तत्सम्बुद्धौ (पीयति) पिबति (त्वः) अन्यः (अनु) आनुकूल्ये (त्वः) द्वितीयः (गृणाति) स्तौति (वन्दारुः) अभिवादनशीलः (ते) तव (तन्वम्) शरीरम् (वन्दे) अभिवादये (अग्ने) विद्वत्तम॥2॥ अन्वयः—हे स्वधावो यविष्ठ! त्वं मेऽस्य मंहिष्ठस्य प्रभृतस्य वचसो बोध। हे अग्ने! यथा वन्दारुरहं ते तन्वं वन्दे यथा त्वः पीयति यथा त्वोऽनुगृणाति तथाऽहमपि भवेयम्॥2॥ भावार्थः—यदाऽऽचार्यस्य समीपे शिष्योऽधीयेत तदा पूर्वस्याऽधीतस्य परीक्षां दद्यात्। अध्ययनात्प्रागाचार्यं नमस्कुर्याद् यथाऽन्ये मेधाविनो युक्त्याधीयेरन् तथा स्वयमपि पठेत्॥2॥ पदार्थः—हे (स्वधावः) प्रशंसित अन्नवाले (यविष्ठ) अत्यन्त तरुण! तू (मे) मेरे (अस्य) इस (मंहिष्ठस्य) अतीव बुद्धियुक्त (प्रभृतस्य) उत्तमता से धारण किये हुए (वचसः) वचन को (बोध) जान। हे (अग्ने) विद्वानों में उत्तम विद्वान्! जैसे (वन्दारुः) वन्दना करनेवाला मैं (ते) तेरे (तन्वम्) शरीर को (वन्दे) अभिवादन करता हूँ वा जैसे (त्वः) दूसरा कोई जन (पीयति) जल आदि को पीता है वा जैसे (त्वः) दूसरा कोई और जन (अनुगृणाति) अनुकूलता से स्तुति प्रशंसा करता है, वैसे मैं भी होऊं॥2॥ भावार्थः—जब आचार्य के समीप शिष्य पढ़े, तब पिछले पढ़े हुए की परीक्षा देवे, पढ़ने से पहिले आचार्य को नमस्कार उसकी वन्दना करे और जैसे अन्य धीर बुद्धिवाले पढ़ें, वैसे आप भी पढ़े॥2॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ ये पा॒यवो॑ मामते॒यं ते॑ अग्ने॒ पश्य॑न्तो अ॒न्धं दु॑रि॒तादर॑क्षन् र॒रक्ष॒ तान्त्सु॒कृतो॑ वि॒श्ववें॑दा॒ दिप्स॑न्त॒ इद्रि॒पवो॒ नाह॑ देभुः॥3॥ ये। पा॒यवः॑। मा॒म॒ते॒यम्। ते॒। अ॒ग्ने॒। पश्य॑न्तः। अ॒न्धम्। दुः॒ऽइ॒तात्। अर॑क्षन्। र॒रक्ष॑। तान्। सु॒ऽकृतः॑। वि॒श्वऽवे॑दाः। दिप्स॑न्तः। इत्। रि॒पवः॑। न। अह॑। दे॒भुः॒॥3॥ पदार्थः—(ये) (पायवः) रक्षकाः (मामतेयम्) ममतायाः प्रजायाः अपत्यम् (ते) तव (अग्ने) विद्वन् (पश्यन्तः) संप्रेक्षमाणाः (अन्धम्) अविद्यायुक्तम् (दुरितात्) दुष्टाचारात् (अरक्षन्) रक्षन्ति (ररक्ष) रक्षेत् (तान्) (सुकृतः) सुष्ठु कर्मकारिणः (विश्ववेदाः) यो विश्वं विज्ञानं वेत्ति सः (दिप्सन्तः) अस्मान् दम्भितुं हिंसितुमिच्छन्तः (इत्) अपि (रिपवः) अरयः (न) निषेधे (अह) विनिग्रहे (देभुः) दभ्नुयुः॥3॥ अन्वयः—हे अग्ने विद्वन्! ते ये पश्यन्तः पायवो मामतेयमन्धं दुरितादरक्षन् तान् सुकृतो विश्ववेदा भवान् ररक्ष यतो दिप्सन्त इद्रिपवो नाह देभुः॥3॥ भावार्थः—ये विद्याचक्षुषोऽन्धं कूपादिव जनानविद्याऽधर्माचरणाद्रक्षेयुस्तान् पितृवत्सत्कुर्युः। ये च व्यसनेषु निपातयेयुस्तान् दूरतो वर्जयेयुः॥3॥ पदार्थः—हे (अग्ने) विद्वान्! (ते) आपके (ये) जो (पश्यन्तः) अच्छे देखनेवाले (पायवः) रक्षा करनेवाले (मामतेयम्) प्रजा का अपत्य जो कि (अन्धम्) अविद्यायुक्त हो उसको (दुरितात्) दुष्ट आचरण से (अरक्षन्) बचाते हैं (तान्) उन (सुकृतः) सुकृती उत्तम कर्म करनेवाले जनों को (विश्ववेदाः) समस्त विज्ञान के जाननेवाले आप (ररक्ष) पालें, जिससे (दिप्सन्तः) हम लोगों को मारने की इच्छा करते हुए (इत्) भी (रिपवः) शत्रुजन (न, अह) नहीं (देभुः) मार सकें॥3॥ भावार्थः—जो विद्याचक्षु जन अन्धे को कूप से जैसे वैसे मनुष्यों को अविद्या और अधर्म के आचरण से बचावें, उनका पितरों के समान सत्कार करें और जो दुष्ट आचरणों में गिरावें उनका दूर से त्याग करे रहें॥3॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ यो नो॑ अग्ने॒ अर॑रिवाँ अघा॒युर॑राती॒वा म॒र्चय॑ति द्व॒येन॑। मन्त्रो॑ गु॒रुः पुन॑रस्तु॒ सो अ॑स्मा॒ अनु॑ मृक्षीष्ट त॒न्वं॑ दुरुक्तैः॥4॥ यः। नः॒। अ॒ग्ने॒। अ॒र॑रिऽवान्। अ॒घ॒ऽयुः। अ॒रा॒ति॒ऽवा। म॒र्चय॑ति। द्व॒येन॑। मन्त्रः॑। गु॒रुः। पुनः॑। अ॒स्तु॒। सः। अ॒स्मै॒। अनु॑। मृ॒क्षी॒ष्ट॒। त॒न्व॑म्। दुः॒ऽउ॒क्तैः॥4॥ पदार्थः—(यः) (नः) अस्मानस्माकं वा (अग्ने) विद्वन् (अररिवान्) प्राप्नुवन् (अघायुः) आत्मनोऽघमिच्छुः (अरातीवा) यो अरातिरिवाचरति (मर्चयति) उच्चरति (द्वयेन) द्विविधेन कर्मणा (मन्त्रः) विचारवान् (गुरुः) उपदेष्टा (पुनः) (अस्तु) भवतु (सः) (अस्मै) (अनु) (मृक्षीष्ट) शोधयतु (तन्वम्) शरीरम् (दुरुक्तैः) दुष्टैरुक्तैः॥4॥ अन्वयः—हे अग्ने यो अररिवानघायुररातिवा द्वयेन दुरुक्तैर्नोऽस्मान् मर्चयति ततो यो नस्तन्वमनुमृक्षीष्ट सोऽस्माकमस्मै पुनर्मन्त्रो गुरुरस्तु॥4॥ भावार्थः—ये मनुष्याणां मध्ये दुष्टं शिक्षन्ते ते त्याज्याः। ये सत्यं शिक्षन्ते ते माननीयास्सन्तु॥4॥ पदार्थः—हे (अग्ने) विद्वान्! (यः) जो (अररिवान्) दुःखों को प्राप्त करता हुआ (अघायुः) अपने को अपराध की इच्छा करनेवाला (अरातीवा) न देनेवाले जन के समान आचरण करता (द्वयेन) दो प्रकार के कर्म से वा (दुरुक्तैः) दुष्ट उक्तियों से (नः) हम लोगों को (मर्चयति) कहता है, उससे जो हमारे (तन्वम्) शरीर को (अनु, मृक्षीष्ट) पीछे शोधे (सः) वह हमारा और (अस्मै) उक्त व्यवहार के लिये (पुनः) वार-वार (मन्त्रः) विचारशील (गुरुः) उपदेश करनेवाला (अस्तु) होवे॥4॥ भावार्थः—जो मनुष्यों के बीच दुष्ट शिक्षा देते वा दुष्टों को सिखाते हैं, वे छोड़ने योग्य और जो सत्य शिक्षा देते वा सत्य वर्त्ताव वर्त्तनेवाले को सिखाते, वे मानने के योग्य होवें॥4॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ उ॒त वा॒ यः सह॑स्य प्रवि॒द्वान् मर्तो॒ मर्तं॑ म॒र्चय॑ति द्व॒येन॑। अतः॑ पाहि स्तवमान स्तु॒वन्त॒मग्ने॒ माकि॑र्नो दुरि॒ताय॑ धायीः॥5॥16॥ उ॒त। वा॒। यः। स॒ह॒स्य॒। प्र॒ऽवि॒द्वान्। मर्तः॑। मर्त॑म्। म॒र्चयति। द्व॒येन॑। अतः॑। पा॒हि॒। स्त॒व॒मा॒न॒। स्तु॒वन्त॑म्। अग्ने॑। माकि॑ः। नः॒। दुः॒ऽइ॒ता॑य। धा॒यीः॒॥5॥ पदार्थः—(उत) अपि (वा) पक्षान्तरे (यः) (सहस्य) सहसि भव (प्रविद्वान्) प्रकर्षेण वेत्तीति प्रविद्वान् (मर्त्तः) मनुष्यः (मर्त्तम्) मनुष्यम् (मर्चयति) शब्दयति (द्वयेन) अध्यापनोपदेशरूपेण (अतः) (पाहि) (स्तवमान) स्तुतिकर्त्तः (स्तुवन्तम्) स्तुतिकर्त्तारम् (अग्ने) विद्वन् (माकिः) निषेधे (नः) अस्मान् (दुरिताय) दुष्टाचाराय (धायीः) धाययेः॥5॥ अन्वयः—हे सहस्य स्तवमानाग्ने! त्वं यः प्रविद्वान् मर्त्तो द्वयेन मर्त्तं मर्चयत्यतस्तं स्तुवन्तं पाहि। उत वा नोऽस्मान् दुरिताय माकिर्धायीः॥5॥ भावार्थः—ये विद्वांसः सुशिक्षाध्यापनाभ्यां मनुष्याणामात्मशरीरबलं वर्धयित्वाऽविद्यापापाचरणात् पृथक् कुर्वन्ति ते विश्वशोधका भवन्ति॥5॥ अस्मिन् सूक्ते मित्राऽमित्रगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिरस्तीति वेद्यम्॥ इति सप्तचत्वारिंशदुत्तरं शततमं 147 सूक्तं षोडशो 16 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—हे (सहस्य) बलादिक में प्रसिद्ध होने (स्तवमान) और सज्जनों की प्रशंसा करनेवाले (अग्ने) विद्वान्! तू (यः) जो (प्रविद्वान्) उत्तमता से जाननेवाला (मर्त्तः) मनुष्य (द्वयेन) अध्यापन और उपदेश रूप से (मर्त्तम्) मनुष्य को (मर्चयति) कहता है अर्थात् प्रशंसित करता है (अतः) इससे (स्तुवन्तम्) स्तुति अर्थात् प्रशंसा करते हुए जन को (पाहि) पालो (उत, वा) अथवा (नः) हम लोगों को (दुरिताय) दुष्ट आचरण के लिये (माकिः) मत कभी (धायीः) धायिये (पालिये)॥5॥ भावार्थः—जो विद्वान् उत्तम शिक्षा और पढ़ाने से मनुष्यों के आत्मिक और शारीरिक बल को बढ़ा के और उनको अविद्या और पाप के आचरण से अलग करते हैं, वे सबकी शुद्धि करनेवाले होते हैं॥5॥ इस सूक्त में मित्र और अमित्रों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जानना चाहिये॥ एक सौ सैंतालीसवां 147 सूक्त और सोलहवां 16 वर्ग समाप्त हुआ॥

मथीदित्यस्य पञ्चर्चस्याष्टचत्वारिंशदुत्तरस्य सूक्तस्य दीर्घतमा ऋषिः। अग्निर्देवता। 1,2 पङ्क्तिः। 5 स्वराट् पङ्क्तिश्छन्दः। पञ्चमः स्वरः। 3,4 निचृत्त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥ अथ विद्वदग्निगुणानुपदिशति॥ अब एक सौ अड़तालीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् और अग्नि के गुणों का उपदेश किया है॥ मथी॒द्यदीं॑ वि॒ष्टो मा॑त॒रिश्वा॒ होता॑रं वि॒श्वाप्सुं॑ वि॒श्वदे॑व्यम्। नि यं द॒धुर्म॑नु॒ष्या॑सु वि॒क्षु स्वर्ण चि॒त्रं वपु॑षे वि॒भाव॑म्॥1॥ मथी॑त्। यत्। ई॒म्। वि॒ष्टः। मा॒त॒रिश्वा॑। होता॑रम्। वि॒श्वऽअ॑प्सुम्। वि॒श्वऽदे॑व्यम्। नि। यम्। द॒धुः। म॒नु॒ष्या॑सु। वि॒क्षु। स्वः॑। न। चि॒त्रम्। वपु॑षे। वि॒भाऽव॑म्॥1॥ पदार्थः—(मथीत्) मथ्नाति (यत्) यः (ईम्) सर्वतः (विष्टः) प्रविष्टः (मातरिश्वा) अन्तरिक्षे शयानो वायुः (होतारम्) आदातारम् (विश्वाप्सुम्) विश्वं समग्रं रूपं गुणो यस्य तम् (विश्वदेव्यम्) विश्वेषु देवेषु पृथिव्यादिषु भवम् (नि) (यम्) (दधुः) दधति (मनुष्यासु) मनुष्यसम्बन्धिनीषु (विक्षु) प्रजासु (स्वः) सूर्य्यम् (न) इव (चित्रम्) अद्भुतम् (वपुषे) रूपाय (विभावम्) विशेषेण भावुकम्॥1॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यद्यो विष्टो मातरिश्वा विश्वदेव्यं विश्वाप्सुं होतारमग्निं मथीत् विद्वांसो मनुष्यासु विक्षु स्वर्ण चित्रं वपुषे विभावं यमीं निदधुस्तं यूयं धरत॥1॥ भावार्थः—ये मनुष्या वायुवद् व्यापिकां विद्युतं मथित्वा कार्याणि साध्नुवन्ति, ते अद्भुतानि कर्माणि कर्त्तुं शक्नुवन्ति॥1॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! (यत्) जो (विष्टः) प्रविष्ट (मातरिश्वा) अन्तरिक्ष में सोनेवाला पवन (विश्वदेव्यम्) समस्त पृथिव्यादि दिव्य पदार्थों में हुए (विश्वाप्सुम्) समग्र रूप ही जिसका गुण उस (होतारम्) सब पदार्थों के ग्रहण करनेवाले अग्नि को (मथीत्) मथता है वा विद्वान् जन (मनुष्यासु) मनुष्यसम्बन्धिनी (विक्षु) प्रजाओं में (स्वः) सूर्य के (न) समान (चित्रम्) अद्भुत और (वपुषे) रूप के लिये (विभावम्) विशेषता से भावना करनेवाले (यम्) जिस अग्नि को (ईम्) सब ओर से (नि, दधुः) निरन्तर धारण करते हैं, उस अग्नि को तुम लोग धारण करो॥1॥ भावार्थः—जो मनुष्य पवन के समान व्याप्त होनेवाली बिजुली रूप आग को मथ के कार्य्यों की सिद्धि करते हैं, वे अद्भुत कार्यों को कर सकते हैं॥1॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ द॒दा॒नमिन्न द॑दभन्त॒ मन्मा॒ग्निर्वरू॑थं॒ मम॒ तस्य॑ चाकन्। जुषन्त॒ विश्वा॑न्यस्य॒ कर्मोप॑स्तुतिं॒ भर॑माणस्य का॒रोः॥2॥ द॒दा॒नम्। इत्। न। द॒द॒भ॒न्त॒। मन्म॑। अ॒ग्निः। वरू॑थम्। मम॑। तस्य॑। चा॒क॒न्। जु॒षन्त॑। विश्वा॑नि। अ॒स्य॒। कर्म॑। उप॑ऽस्तुतिम्। भर॑माणस्य। का॒रोः॥2॥ पदार्थः—(ददानम्) दातारम् (इत्) (न) निषेधे (ददभन्त) दभ्नुयुः (मन्म) विज्ञानम् (अग्निः) (वरूथम्) श्रेष्ठम् (मम) (तस्य) (चाकन्) कामयते (जुषन्त) सेवन्ताम् (विश्वानि) सर्वाणि (अस्य) (कर्म) कर्माणि (उपस्तुतिम्) उपगतां प्रशंसाम् (भरमाणस्य) (कारोः) शिल्पविद्यासाध्यकर्त्तुः॥2॥ अन्वयः—हे मनुष्या! भवन्तो योऽग्निर्विद्वान् मम तस्य च वरूथं मन्म ददानं चाकन् तन्नेद् ददभन्त। अस्य भरमाणस्य कारोर्विश्वानि कर्मोपस्तुतिं च भवन्तो जुषन्त॥2॥ भावार्थः—हे मनुष्यो! यो येभ्यो विद्यां दद्यात् ते तस्य सेवां सततं कुर्युः। अवश्यं सर्वे वेदाभ्यासं च कुर्य्युः॥2॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! आप जो (अग्निः) विद्वान् (मम) मेरे और (तस्य) उसके (वरूथम्) उत्तम (मन्म) विज्ञान को (ददानम्) देते हुए उनकी (चाकन्) कामना करता है, उसको (नेत्) नहीं (ददभन्त) मारो, (अस्य) इस (भरमाणस्य) भरण-पोषण करते हुए (कारोः) शिल्पविद्या से सिद्ध होने योग्य कामों को करनेवाले उनके (विश्वानि) समस्त (कर्म) कर्मों की (उपस्तुतिम्) समीप प्राप्त हुई प्रशंसा को आप (जुषन्त) सेवो॥2॥ भावार्थः—हे मनुष्यो! जो जिनके लिये विद्या देवे उसकी सेवा निरन्तर करें और अवश्य सब लोग वेद का अभ्यास करें॥2॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ नित्ये॑ चि॒न्नु यं सद॑ने जगृ॒भ्रे प्रश॑स्तिभिर्दधि॒रे य॒ज्ञिया॑सः। प्र सू न॑यन्त गृ॒भय॑न्त इ॒ष्टावश्वा॑सो॒ न र॒थ्यो॑ रारहा॒णाः॥3॥ नित्ये॑। चि॒त्। नु। यम्। सद॑ने। ज॒गृ॒भ्रे। प्रश॑स्तिऽभिः। द॒धि॒रे। य॒ज्ञिया॑सः। प्र। सु। न॒य॒न्त॒। गृ॒भय॑न्तः॒। इ॒ष्टौ। अश्वा॑सः। न। र॒थ्यः॑। र॒र॒हा॒णाः॥3॥ पदार्थः—(नित्ये) नाशरहिते (चित्) अपि (नु) सद्यः (यम्) पावकम् (सदने) सीदन्ति यस्मिन्नाकाशे तस्मिन् (जगृभ्रे) गृह्णीयुः (प्रशस्तिभिः) प्रशंसिताभिः क्रियाभिः (दधिरे) धरेयुः (यज्ञियासः) ये शिल्पाख्यं यज्ञमर्हन्ति ते (प्र) (सु) अत्र संहितायामिति दीर्घः। (नयन्त) प्राप्नुयुः (गृभयन्तः) ग्रहीता इवाचरन्तः (इष्टौ) गन्तव्यायाम् (अश्वासः) सुशिक्षितास्तुरङ्गाः (न) इव (रथ्यः) रथेषु साधवः (ररहाणाः) गच्छन्तः। अत्र तुजादीनामित्यभ्यासदीर्घः॥3॥ अन्वयः—ये यज्ञियासो जनाः प्रशस्तिभिर्नित्य इष्टौ सदने यं जगृभ्रे चिन्नु दधिरे तस्यालम्बनेन रारहाणा रथ्योऽश्वासो न गृभयन्तः सन्तो यानानि सुप्रणयन्त॥3॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। ये नित्ये आकाशे स्थितान् वाय्वग्न्यादिपदार्थानुत्तमाभिः क्रियाभिः कार्येषु योजयन्ति ते विमानादीनि यानानि रचयितुं शक्नुवन्ति॥3॥ पदार्थः—जो (यज्ञियासः) शिल्प यज्ञ के योग्य सज्जन (प्रशस्तिभिः) प्रशंसित क्रियाओं से (नित्ये) नित्य नाशरहित (सदने) बैठें जिस आकाश में और (इष्टौ) प्राप्त होने योग्य क्रिया से (यम्) जिस अग्नि का (जगृभ्रे) ग्रहण करें (चित्) और (नु) शीघ्र (दधिरे) धरें उसके आश्रय से (रारहणाः) जाते हुए जो कि (रथ्यः) रथों में उत्तम प्रशंसावाले (अश्वासः) अच्छे शिक्षित घोड़े हैं उनके (न) समान और (गृभयन्तः) पदार्थों को ग्रहण करनेवालों के समान आचरण करते हुए रथों को (सु, प्र, नयन्त) उत्तम प्रीति से प्राप्त होवें॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो नित्य आकाश में स्थित वायु और अग्नि आदि पदार्थों को उत्तम क्रियाओं से कार्यों में युक्त करते हैं, वे विमान आदि यानों को बना सकते हैं॥3॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ पु॒रूणि॑ द॒स्मो नि रि॑णाति॒ जम्भै॒राद्रो॑चते॒ वन॒ आ वि॒भावा॑। आद॑स्य॒ वातो॒ अनु॑ वाति शो॒चिरस्तु॒र्न शर्य्या॑मस॒नामनु॒ द्यून्॥4॥ पु॒रूणि॑। द॒स्मः। नि। रि॒णा॒ति॒। जम्भैः॑। आत्। रो॒च॒ते॒। वने॑। आ। वि॒भाऽवा॑। आत्। अ॒स्य॒। वातः॑। अनु॑। वा॒ति॒। शो॒चिः। अस्तुः॑। न। शर्या॑म्। अ॒स॒नाम्। अनु॑। द्यून्॥4॥ पदार्थः—(पुरूणि) बहूनि (दस्मः) दुःखोपक्षेता (नि) (रिणाति) प्राप्नोति (जम्भैः) चालनादिभिः स्वगुणैः (आत्) अनन्तरे (रोचते) (वने) जङ्गले (आ) समन्तात् (विभावा) यो विभाति सः (आत्) अनन्तरम् (अस्य) (वातः) वायुः (अनु) (वाति) गच्छति (शोचिः) दीप्तिः (अस्तुः) प्रक्षेप्तुः (न) इव (शर्याम्) वायुताडनाख्यां क्रियाम् (असनाम्) प्रक्षेपणाम् (अनु) (द्यून्) दिनानि॥4॥ अन्वयः—यो विभावा दस्मोऽग्निर्जम्भैः पुरूणि वस्तून्यनुद्यून् नि रिणाति आद्वने आ रोचते आदस्य वातोऽनुवाति यस्य शोचिरस्तुरसनां न शर्यां रिणाति तेनोत्तमानि कार्याणि मनुष्यैः साधनीयानि॥4॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। ये विद्योत्पादनताडनादिक्रियाभिस्तडिद्विद्यां साध्नुवन्ति, ते प्रतिदिनमुन्नतिं लभन्ते॥4॥ पदार्थः—जो (विभावा) विशेषता से दीप्ति करने तथा (दस्मः) दुःख का नाश करनेवाला अग्नि (जम्भैः) चलाने आदि अपने गुणों से (पुरूणि) बहुत वस्तुओं को (अनु, द्यून्) प्रतिदिन (नि, रिणाति) निरन्तर पहुंचाता है, (आत्) इसके अनन्तर (वने) जङ्गल में (आ, रोचते) अच्छे प्रकार प्रकाशमान होता है (आत्) और (अस्य) इसका सम्बन्धी (वातः) पवन (अनु, वाति) इसके पीछे बहता है, जिसकी (शोचिः) दीप्ति प्रकाशमान (अस्तुः) प्रेरणा देनेवाले शिल्पी जन की (असनाम्) प्रेरणा के (न) समान (शर्याम्) पवन की ताड़ना को प्राप्त होता है, उससे उत्तम काम मनुष्यों को सिद्ध करने चाहिये॥4॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो विद्या से उत्पन्न की हुई ताड़नादि क्रियाओं से बिजुली की विद्या को सिद्ध करते हैं, वे प्रतिदिन उन्नति को प्राप्त होते हैं॥4॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ न यं रि॒पवो॒ न रि॑ष॒ण्यवो॒ गर्भे॒ सन्तं॑ रेष॒णा रे॒षय॑न्ति। अ॒न्धा अ॑प॒श्या न द॑भन्नभि॒ख्या नित्या॑स ईं प्रे॒तारो॑ अरक्षन्॥5॥17॥ न। यम्। रि॒पवः॑। न। रि॒ष॒ण्यवः॑। गर्भे॑। सन्त॑म्। रे॒ष॒णाः। रे॒ष॒णाः। रे॒षय॑न्ति। अ॒न्धाः। अ॒प॒श्याः। न। द॒भ॒न्। अ॒भि॒ऽख्या। नित्या॑सः। ई॒म्। प्रे॒तारः॑। अ॒र॒क्ष॒न्॥5॥ पदार्थः—(न) (यम्) (रिपवः) शत्रवः (न) (रिषण्यवः) आत्मनो रेषणामिच्छवः (गर्भे) मध्ये (सन्तम्) वर्त्तमानम् (रेषणाः) हिंसकाः (रेषयन्ति) हिंसयन्ति (अन्धाः) ज्ञानदृष्टिरहिताः (अपश्याः) ये न पश्यन्ति ते (न) इव (दभन्) दभ्नुयुः (अभिख्या) ये अभितः ख्यन्ति ते (नित्यासः) अविनाशिनः (ईम्) सर्वतः (प्रेतारः) प्रीतिकर्त्तारः (अरक्षन्) रक्षेयुः॥5॥ अन्वयः—यं रिपवो न रेषयन्ति यं गर्भे सन्तं रेषणा रिषण्यवो न रेषयन्ति नित्यासोऽभिख्याऽपश्या नेवान्धा न दभन् ये प्रेतार ईम् रक्षन् तं तान् सर्वे सत्कुर्वन्तु॥5॥ भावार्थः—हे मनुष्या! यं रिपवो हन्तुं न शक्नुवन्ति यो गर्भेऽपि न क्षीयते स आत्मा वेदितव्यः॥5॥ अस्मिन् सूक्ते विद्वदग्न्यादिगुणवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिर्बोध्या॥ इत्यष्टचत्वारिंशदुत्तरं शततमं 148 सूक्तं सप्तदशो 17 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—(यम्) जिसको (रिपवः) शत्रुजन (न) नहीं (रेषयन्ति) नष्ट करा सकते वा (गर्भे, सन्तम्) मध्य में वर्त्तमान जिसको (रेषणाः) हिंसक (रिषण्यवः) अपने को नष्ट होने की इच्छा करनेवाले (न) नष्ट नहीं करा सकते वा (नित्यासः) नित्य अविनाशी (अभिख्या) सब ओर से ख्याति करने और (अपश्याः) न देखनेवालों के (न) समान (अन्धाः) ज्ञानदृष्टिरहित (न) न (दभन्) नष्ट कर सकें जो (प्रेतारः) प्रीति करनेवाले (ईम्)सब ओर से (अरक्षन्) रक्षा करें उस अग्नि को और उनको सब सत्कारयुक्त करें॥5॥ भावार्थः—हे मनुष्यो! जिसको रिपु जन नष्ट नहीं कर सकते हैं, जो गर्भ में भी नष्ट नहीं होता है, वह आत्मा जानने योग्य है॥5॥ इस सूक्त में विद्वान् और अग्नि आदि पदार्थों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानने योग्य है॥ यह एक सौ अड़तालीसवां 148 सूक्त और सत्रहवां 17 वर्ग समाप्त हुआ॥

महरित्यस्य पञ्चर्चस्य एकोनपञ्चाशदुत्तरस्य शततमस्य सूक्तस्य दीर्घतमा ऋषिः। अग्निर्देवता। 1 भुरिगनुष्टुप्। 2,4 निचृदनुष्टुप्। 5 विराडनुष्टुप् छन्दः। गान्धारः स्वरः। 3 उष्णिक्छन्दः। गान्धारः स्वरः॥ अथ पुनर्विद्वदग्न्यादिगुणानाह॥ अब एक सौ उनचासवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् और अग्न्यादि पदार्थों के गुणों का वर्णन करते हैं॥ म॒॒हः स रा॒य एष॑ते॒ पति॒र्दन्नि॒न इ॒नस्य॒ वसु॑नः प॒द आ। उ॒प ध्रज॑न्त॒मद्र॑यो वि॒धन्नित्॥1॥ म॒हः। सः। रायः। आ। ई॒ष॒ते॒। पतिः॑। दन्। इ॒नः। इ॒नस्य॑। वसु॑नः। प॒दे। आ। उप॑। ध्रज॑न्तम्। अद्र॑यः। वि॒धन्। इत्॥1॥ पदार्थः—(महः) महतः (सः) (रायः) धनस्य (आ) (ईषते) प्राप्नोति (पतिः) स्वामी (दन्) दाता। अत्र बहुलं छन्दसीति शपो लुक्। (इनः) ईश्वरः (इनस्य) महदैश्वर्यस्य स्वामिनः (वसुनः) धनस्य (पदे) प्रापणे (आ) (उप) (ध्रजन्तम्) गच्छन्तम् (अद्रयः) मेघाः (विधन्) विदधतु (इत्) इव॥1॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यूयं य इनस्येनो वसुनो महो रायो दन् पतिरेषते य एतस्य पदे ध्रजन्तमद्रय इदिव उपाविधन्, स सर्वैः सत्कर्त्तव्यः स्यात्॥1॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। इह यथा सुपात्रदानेन कीर्त्तिर्भवति न तथाऽन्योपायेन, यः पुरुषार्थमाश्रित्य प्रयतते सोऽखिलं धनमाप्नोति॥1॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! तुम जो (इनस्य) महान् ऐश्वर्य के स्वामी का (इनः) ईश्वर (वसुनः) सामान्य धन का और (महः) अत्यन्त (रायः) धन का (दन्) देनेवाला (पतिः) स्वामी (आ, ईषते) अच्छे प्रकार का होता है वा जो विद्वान् जन इसकी (पदे) प्राप्ति के निमित्त (ध्रजन्तम्) पहुँचते हुए को (अद्रयः) मेघों के (इत्) समान (उपाविधन्) निकट होकर अच्छे प्रकार विधान करे (सः) वह सबको सत्कार करने योग्य है॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। इस संसार में जैसे सुपात्र को देने से कीर्त्ति होती है, वैसे और उपाय से नहीं। जो पुरुषार्थ का आश्रय कर अच्छा यत्न करता है, वह पूर्ण धन को प्राप्त होता है॥1॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ स यो वृषा॑ न॒रां न रोद॑स्योः॒ श्रवो॑भि॒रस्ति॑ जी॒वपी॑तसर्गः। प्र यः स॑स्रा॒णः शि॑श्री॒त योनौ॑॥2॥ सः। यः। वृषा॑। न॒राम्। न। रोद॑स्योः। श्रवः॑ऽभिः। अस्ति॑। जी॒वपी॑तऽसर्गः। प्र। यः। स॒स्रा॒णः। शि॒श्री॒त। योनौ॑॥2॥ पदार्थः— (सः) (यः) (वृषा) श्रेष्ठो बलिष्ठः (नराम्) नृणाम् (न) इव (रोदस्योः) द्यावापृथिव्योः (श्रवोभिः) अन्नादिपदार्थैः सह (अस्ति) (जीवपीतसर्गः) जीवैः सह पीतः सर्गो येन (प्र) (यः) (सस्राणः) सर्वगुणदोषान् प्राप्नुवन् (शिश्रीत) श्रयेत (योनौ) कारणे॥2॥ अन्वयः—यः श्रवोभिर्नरां न रोदस्योर्जीवपीतसर्गोऽस्ति यश्च सस्राणो योनौ प्रशिश्रीत स वृषास्ति॥2॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यो नायकेषु नायकः पृथिव्यादिकार्यकारणविद्विद्यामाश्रयति, स एव सुखी जायते॥2॥ पदार्थः—(यः) जो (श्रवोभिः) अन्न आदि पदार्थों के साथ (नराम्) मनुष्यों के बीच (न) जैसे-वैसे (रोदस्योः) आकाश और पृथिवी के बीच (जीवपीतसर्गः) जीवों के साथ पिया है सृष्टिक्रम जिसने अर्थात् विद्याबल से प्रत्येक जीव के गुण-दोषों को उत्पत्ति के साथ जाना वा (यः) जो (सस्राणः) सब पदार्थों के गुण-दोषों को प्राप्त होता हुआ (योनौ) कारण में अर्थात् सृष्टि के निमित्त में (प्र, शिश्रीत) आश्रय करे, उसमें आरूढ़ हो (सः) वह (वृषा) श्रेष्ठ बलवान् (अस्ति) है॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो नायकों में नायक, पृथिवी आदि पदार्थों के कार्य कारण को जाननेवालों की विद्या का आश्रय करता है, वही सुखी होता है॥2॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ आ यः पुरं॒ नार्मि॑णी॒मदी॑दे॒दत्यः॑ क॒विर्न॑भ॒न्यो॒नार्वा॑। सूरो॒ न रु॑रु॒क्वाञ्छ॒तात्मा॑॥3॥ आ। यः। पुर॑म्। नार्मि॑णीम्। अदी॑देत्। अत्यः॑। क॒विः। न॒भ॒न्यः॑। न। अर्वा॑। सूरः॑। न। रु॒रु॒क्वान्। श॒तऽआ॑त्मा॥3॥ पदार्थः—(आ) समन्तात् (यः) (पुरम्) (नार्मिणीम्) नर्माणि क्रीडाविलासा विद्यन्ते येषां तेषामिमाम् (अदीदेत्) (अत्यः) अतति व्याप्नोतीति (कविः) क्रान्तप्रज्ञः (नभन्यः) नभसि भवो नभन्यो वायुः। अत्र वर्णव्यत्ययेन नकारादेशः। नभ इति साधारणनामसु पठितम्। (निघं॰1.4) (न) इव (अर्वा) अश्वः (सूरः) सूर्यः (न) इव (रुरुक्वान्) रुचिमान् (शतात्मा) शतेष्वसंख्यातेषु पदार्थेष्वात्मा विज्ञानं यस्य सः॥3॥ अन्वयः—योऽत्यो नभन्यो न कविरर्वा सूरो न रुरुक्वान् शतात्मा जनो नार्मिणीं पुरमादीदेत् प्रकाशयेत् स न्यायं कर्त्तुमर्हति॥3॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। योऽसंख्यातपदार्थविद्यावित् सुशोभितां नगरीं वासयेत् स ऐश्वर्यैः सवितेव प्रकाशमानः स्यात्॥3॥ पदार्थः—(यः) जो (अत्यः) व्याप्त होनेवाला (नभन्यः) आकाश में प्रसिद्ध पवन उसके (न) समान (कविः) क्रम-क्रम से पदार्थों में व्याप्त होनेवाली बुद्धिवाला वा (अर्वा) घोड़ा और (सूरः) सूर्य के (न) समान (रुरुक्वान्) रुचिमान् (शतात्मा) असंख्यात पदार्थों में विशेष ज्ञान रखनेवाला जन (नार्मिणीम्) क्रीडाविलासी आनन्द भोगनेवाले जनों की (पुरम्) पुरी को (आदीदेत्) अच्छे प्रकार प्रकाशित करे, वह न्याय करने योग्य होता है॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो असंख्यात पदार्थों की विद्याओं को जाननेवाला अच्छी शोभायुक्त नगरी को वसावे, वह ऐश्वर्यों से सूर्य के समान प्रकाशमान हो॥3॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अ॒भि द्वि॒जन्मा त्री रो॑च॒नानि॒ विश्वा॒ रजां॑सि शुशुचा॒नो अ॑स्थात्। होता॒ यजि॑ष्ठो अ॒पां स॒धस्थे॑॥4॥ अ॒भि। द्वि॒ऽजन्मा॑। त्री। रो॒च॒नानि॑। विश्वा॑। रजां॑सि। शु॒शु॒चा॒नः। अ॒स्था॒त्। होता॑। यजि॑ष्ठः। अ॒पाम्। स॒धऽस्थे॑॥4॥ पदार्थः—(अभि) आभिमुख्ये (द्विजन्मा) द्वाभ्यामाकाशवायुभ्यां जन्म प्रादुर्भावो यस्य (त्री) त्रीणि (रोचनानि) सूर्यविद्युद्भूमिसम्बन्धीनि तेजांसि (विश्वा) सर्वाणि (रजांसि) लोकान् (शुशुचानः) प्रकाशयन् (अस्थात्) तिष्ठति (होता) आकर्षणेनादाता (यजिष्ठः) अतिशयेन यष्टा सङ्गन्ता (अपाम्) जलानाम् (सधस्थे) सहस्थाने॥4॥ अन्वयः—हे विद्वन्! यथा द्विजन्मा होता यजिष्ठोऽग्निरपां सधस्थे त्री रोचनानि विश्वा रजांसि शुशुचानः सन्नभ्यस्थात्तथा त्वं भव॥4॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विद्याधर्म्ये विद्वत्सङ्गप्रकाशिते स्थानेऽनुतिष्ठन्ति ते सर्वान् शुभगुणकर्मस्वभावानादातुमर्हन्ति॥4॥ पदार्थः—हे विद्वन्! जैसे (द्विजन्मा) दो अर्थात् आकाश और वायु से प्रसिद्ध जिसका जन्म ऐसा (होता) आकर्षण शक्ति से पदार्थों को ग्रहण करने और (यजिष्ठः) अतिशय करके सङ्गत होनेवाला अग्नि (अपाम्) जलों के (सधस्थे) साथ के स्थान में (त्री) तीन (रोचनानि) अर्थात् सूर्य, बिजुली और भूमि के प्रकाशों को और (विश्वा) समस्त (रजांसि) लोकों को (शुशुचानः) प्रकाशित करता हुआ (अभ्यस्थात्) सब ओर से स्थित हो रहा है, वैसे तुम होओ॥4॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्या और धर्मसंयुक्त व्यवहार में विद्वानों के सङ्ग से प्रकाशित हुए स्थान के निमित्त अनुष्ठान करते हैं, वे समस्त अच्छे गुण, कर्म और स्वभावों के ग्रहण करने के योग्य होते हैं॥4॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अ॒यं स होता॒ यो द्वि॒जन्मा विश्वा॑ द॒धे वार्या॑णि श्रव॒स्या। मर्तो॒ यो अ॑स्मै सु॒तुको॑ द॒दाश॑॥5॥18॥ अ॒यम्। सः। होता॑। यः। द्वि॒ऽजन्मा॑। विश्वा॑। द॒धे। वार्या॑णि। श्र॒व॒स्या। मर्तः॑। यः। अ॒स्मै॒। सु॒ऽतुक॑ः। द॒दाश॑॥5॥ पदार्थः—(अयम्) (सः) (होता) ग्रहीता (यः) (द्विजन्मा) गर्भविद्याशिक्षाभ्यां जातः (विश्वा) सर्वाणि (दधे) धत्ते (वार्याणि) वर्त्तंु स्वीकर्त्तुमर्हाणि (श्रवस्या) श्रवसि श्रवणे भवानि (मर्त्तः) मनुष्यः (यः) (अस्मै) विद्यार्थिने (सुतुकः) सुष्ठु विद्यावृद्धः (ददाश) ददाति॥5॥ अन्वयः—यः सुतुको मर्त्तोऽस्मै विद्यां ददाश यो द्विजन्मा होता विश्वा श्रवस्या वार्य्याणि दधे सोऽयं पुण्यवान् भवति॥5॥ भावार्थः—यस्य विद्यासुशिक्षायुक्तयोर्मातापित्रोः सकाशादेकं जन्माऽऽचार्यविद्याभ्यां द्वितीयं च स द्विजः सन् विद्वान् स्यात्॥5॥ अस्मिन् सूक्ते विद्वदग्न्यादिगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या॥ इत्येकोनपञ्चाशदुत्तरं शततमं 149 सूक्तमष्टादशो 18 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—(यः) जो (सुतुकः) सुन्दर विद्या से बड़ा उन्नति को प्राप्त हुआ (मर्त्तः) मनुष्य (अस्मै) इस विद्यार्थी के लिये विद्या को (ददाश) देता है वा (यः) जो (द्विजन्मा) गर्भ और विद्या शिक्षा से उत्पन्न हुआ (होता) उत्तम गुणग्राही (विश्वा) समस्त (श्रवस्या) सुनने में प्रसिद्ध हुए (वार्याणि) स्वीकार करने योग्य विषयों को (दधे) धारण करता है (सः) (अयम्) सो यह पुण्यवान् होता है॥5॥ भावार्थः—जिसको विद्या और उत्तम शिक्षायुक्त माता-पिताओं से एक जन्म और दूसरा जन्म आचार्य और विद्या से हो वह द्विज होता हुआ विद्वान् हो॥5॥ इस सूक्त में विद्वान् और अग्न्यादि पदार्थों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये॥ यह एक सौ उनचासवां 149 सूक्त और अठारहवां 18 वर्ग समाप्त हुआ॥

पुरु त्वेत्यस्य त्र्यृचस्य पञ्चाशदुत्तरस्य शततमस्य सूक्तस्य दीर्घतमा ऋषिः। अग्निर्देवता। 1,3 भुरिग्गायत्रीच्छन्दः। षड्जः स्वरः। 2 निचृदुष्णिक् छन्दः। ऋषभः स्वरः॥ अथ विद्वद्गुणानाह॥ अब एक सौ पचासवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में विद्वानों के गुणों का उपदेश करते हैं॥ पु॒रु त्वा॑ दाश्वान् वो॑चे॒ऽरिर॑ग्ने॒ तव॑ स्वि॒दा। तो॒दस्ये॑व शर॒ण आ म॒हस्य॑॥1॥ पु॒रु। त्वा॒। दा॒श्वान्। वो॒चे॒। अ॒रिः। अ॒ग्ने॒। तव॑। स्वि॒त्। आ। तो॒दस्य॑ऽइव। श॒र॒णे। आ। म॒हस्य॑॥1॥ पदार्थः—(पुरु) बहु (त्वा) त्वाम् (दाश्वान्) दाता (वोचे) वदेयम् (अरिः) प्रापकः (अग्ने) विद्वन् (तव) (स्वित्) एव (आ) (तोदस्येव) व्यथकस्येव (शरणे) गृहे (आ) (महस्य) महतः॥1॥ अन्वयः—हे अग्ने! दाश्वानरिरहं महस्य तोदस्येव तव स्विदा शरणे त्वा पुर्वा वोचे॥1॥ भावार्थः—यो यस्य भृत्यो भवेत् स तस्याऽज्ञां पालयित्वा कृतार्थो भवेत्॥1॥ पदार्थः—हे (अग्ने) विद्वान्! (दाश्वान्) दान देने और (अरिः) व्यवहारों की प्राप्ति करानेवाला मैं (महस्य) महान् (तोदस्येव) व्यथा देनेवाले के जैसे वैसे (तव) आपके (स्वित्) ही (आ, शरणे) अच्छे प्रकार घर में (त्वा) आपको (पुरु, आ, वोचे) बहुत भली-भांति से कहूं॥1॥ भावार्थः—जो जिसका रक्खा हुआ सेवक हो वह उसकी आज्ञा का पालन करके कृतार्थ होवे॥1॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ व्य॑नि॒नस्य॑ ध॒निनः॑ प्रहो॒षे चि॒दर॑रुषः। क॒दा च॒न प्र॒जिग॑तो॒ अदे॑वयोः॥2॥ वि। अ॒नि॒नस्य॑। ध॒निनः॑। प्र॒ऽहो॒षे। चि॒त्। अर॑रुषः। क॒दा। च॒न। प्र॒ऽजिग॑तः। अदे॑वऽयोः॥2॥ पदार्थः—(वि) (अनिनस्य) यत्प्रशस्तं प्राणनिमित्तं तस्य (धनिनः) बहुधनयुक्तस्य (प्रहोषे) यो जुहोति तस्मै (चित्) अपि (अररुषः) अहिंसकस्य (कदा) (चन) (प्रजिगतः) प्रकर्षेण भृशं प्राप्नुतः। अत्र यङन्तात् परस्य लटः शतृयङो लुक् वाच्छन्दसीति अभ्यासस्येत्वम्। (अदेवयोः) न देवौ अदेवौ तयोरदेवयोः॥2॥ अन्वयः—अहमदेवयोः प्रजिगतो अररुषो व्यनिनस्य धनिनः प्रहोषे कदा चनाऽप्रियं न वोचे। एवं चिदपि त्वं मा वोचेः॥2॥ भावार्थः—योऽविदुषोरध्यापकोपदेशकयोः संगं त्यक्त्वा विदुषोः सङ्गं करोति स सुखाढ्यो जायते॥2॥ पदार्थः—मैं (अदेवयोः) जो नहीं विद्वान् हैं, उनको (प्रजिगतः) जो उत्तमता से निरन्तर प्राप्त होता हुआ (अररुषः) अहिंसक (व्यनिनस्य) विशेषता से प्रशंसित प्राण का निमित्त (धनिनः) बहुत धनयुक्त जन हैं उसके (प्रहोषे) उसको अच्छे ग्रहण करनेवाले के लिये (कदा, चन) कभी अप्रिय वचन न कहूं ऐसे (चित्) तू भी मत बोल॥2॥ भावार्थः—जो अविद्वान् पढ़ाने और उपदेश करनेवालों के सङ्ग को छोड़ विद्वानों का सङ्ग करता है, वह सुखों से युक्त होता है॥2॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ स च॒न्द्रो वि॑प्र॒ मर्त्यो॑ म॒हो व्राध॑न्तमो दि॒वि। प्रप्रेत्ते॑ अग्ने व॒नुषः॑ स्याम॥3॥19॥ सः। च॒न्द्रः। वि॒प्र॒। मर्त्यः॑। म॒हः। व्राध॑न्ऽतमः। दि॒वि। प्रऽप्र। इत्। ते॒। अ॒ग्ने॒। व॒नुषः॑। स्या॒म॒॥3॥ पदार्थः—(सः) (चन्द्रः) आह्लादकारकः (विप्र) मेधाविन् (मर्त्यः) मनुष्यः (महः) महान् (व्राधन्तमः) अतिशयेन वर्द्धमानः (दिवि) (प्रप्र) (इत्) एव (ते) तव (अग्ने) विद्वन् (वनुषः) संविभाजकस्य (स्याम) भवेम॥3॥ अन्वयः—हे अग्ने विद्वन्! यथा वयं वनुषस्ते तवोपकारकाः प्रप्रेत् स्याम। हे विप्र! यथा स मर्त्यो व्राधन्तमो महश्चन्द्रो दिवीव वर्त्तते तथा त्वं वर्त्तस्व॥3॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा पृथिव्यादिपदार्थज्ञा विद्वांसो विद्याप्रकाशे प्रवर्त्तन्ते तथेतरैरपि वर्त्तितव्यम्॥3॥ अस्मिन् सूक्ते विद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्॥ इति पञ्चाशदुत्तरं शततमं 150 सूक्तमेकोनविंशो 19 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—हे (अग्ने) विद्वान्! जैसे हम लोग (वनुषः) अलग सबको बांटनेवाले (ते) आपके उपकार करनेवाले (प्रप्र, इत्, स्याम) उत्तम ही प्रकार से होवें। वा हे (विप्र) धीर बुद्धिवाले जन! जैसे (सः) वह (मर्त्यः) मनुष्य (व्राधन्तमः) अतीव उन्नति को प्राप्त जैसे (महः) बड़ा (चन्द्रः) चन्द्रमा (दिवि) आकाश में वर्त्तमान है, वैसे तू भी अपना वर्त्ताव रख॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे पृथिव्यादि पदार्थों को जाने हुए विद्वान् जन विद्याप्रकाश में प्रवृत्त होते हैं, वैसे और जनों को भी वर्त्ताव रखना चाहिये॥3॥ इस सूक्त में विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, वह जानना चाहिये॥ यह एक सौ पचासवाँ 150 सूक्त और उन्नीसवां 19 वर्ग समाप्त हुआ॥