ऋग्वेदभाष्यम् प्रथममण्डले 1-10 सूक्तानि

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ऋग्वेदभाष्ये प्रथममण्डले 1-10 सूक्तानि[सम्पाद्यताम्]

दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचितम् (डॉ॰ ज्ञानप्रकाशशास्त्रिणा सम्पादितं डॉ॰ नरेशकुमारधीमान्-द्वारा च यूनिकोडरूपेण परिवर्तितम्)[सम्पाद्यताम्]

अथादिमस्य नवर्चस्य सूक्तस्य मधुच्छन्दा ऋषिः। अग्निर्देवता। गायत्री छन्दः। षड्जः स्वरः॥ तत्राद्ये मन्त्रेऽग्निशब्देनेश्वरेणात्मभौतिकावर्थावुपदिश्येते। यहां प्रथम मन्त्र में अग्नि शब्द करके ईश्वर ने अपना और भौतिक अर्थ का उपदेश किया है अ॒ग्निमी॑ळे पु॒रोहि॑तं य॒ज्ञस्य॑ दे॒वमृ॒त्विज॑म्। होता॑रं रत्न॒धात॑मम्॥1॥ अ॒ग्निम्। ई॒ळे॒। पु॒रःहि॑तम्। य॒ज्ञस्य॑। दे॒वम्। ऋ॒त्विज॑म्। होता॑रम्। र॒त्न॒ऽधात॑मम्॥1॥ पदार्थः—(अग्निम्) परमेश्वरं भौतिकं वा-इन्द्रं॑ मि॒त्रं वरु॑णम॒ग्निमा॑हुरथो॑ दि॒व्यः स सु॒प॒र्णो ग॒रुत्मा॑न्। एकं॒ सद्विप्रा॑ बहु॒धा व॑दन्त्य॒ग्निं य॒मं मा॑त॒रिश्वा॑नमाहुः॥ (ऋ॰1.164.46) अनेनैकस्य सतः परब्रह्मण इन्द्रादीनि बहुधा नामानि सन्तीति वेदितव्यम्। तदे॒वाग्निस्तदा॑दि॒त्यस्तद्वा॒युस्तदु॑ च॒न्द्रमाः॑। तदे॒व शु॒क्रं तद् ब्रह्म॒ ता आपः॒ स प्र॒जाप॑तिः॥ (य॰32.1) यत्सच्चिदानन्दादिलक्षणं ब्रह्म तदेवात्राग्न्यादिनामवाच्यमिति बोध्यम्। ब्रह्म ह्यग्निः। (श॰ब्रा॰1.4.2.11) आत्मा वा अग्निः। (श॰ब्रा॰1.2.3.2) अत्राग्निर्ब्रह्मात्मनोर्वाचकोऽस्ति। अयं वा अग्निः प्रजाश्च प्रजापतिश्च। (श॰ब्रा॰9.1.2.42) अत्र प्रजाशब्देन भौतिकः प्रजापतिशब्देनेश्वरश्चाग्निर्ग्राह्यः। अग्निर्वै देवानां व्रतपतिः। एतद्धः वै देवा व्रतं चरन्ति यत्सत्यम्। (श॰ब्रा॰1.1.1.2.5) सत्याचारनियमपालनं व्रतं तत्पतिरीश्वरः। त्रि॒भिः प॒वित्रै॒रपु॑पो॒द्ध्यर्कं हृ॒दा म॒तिं ज्योति॒रनु॑ प्रजा॒नन्। वर्षि॑ष्ठं॒ रत्न॑मकृत स्व॒धाभि॒रादिद् द्यावा॑पृथि॒वी पर्य॑पश्यत्॥ (ऋ॰3.26.8) अत्राग्निशब्दस्यानुवृत्तेः प्रजानन्निति ज्ञानवत्त्वात् पर्य्यपश्यदिति सर्वज्ञत्वादीश्वरो ग्राह्यः। यास्कमुनिरत्रोभयार्थकरणायाग्निशब्दपुरःसरमेतन्मन्त्रमेवं व्याचष्टे-अग्निः कस्मादग्रणी-र्भवत्यग्रं यज्ञेषु प्रणीयतेऽङ्गं नयति सन्नममानोऽक्नापनो भवतीति स्थौलष्ठीविर्न क्नोपयति न स्नेहयति त्रिभ्य आख्यातेभ्यो जायत इति शाकपूणिरितादक्ताद्दग्धाद्वा नीतात्स खल्वेतेरकारमादत्ते गकारमनक्तेर्वा दहतेर्वा नीः परस्तस्यैषा भवतीति-अग्निमीळेऽग्निं याचामीळेरध्येषणाकर्मा पूजाकर्मा वा देवो दानाद्वा दीपनाद्वा द्योतनाद्वा द्युस्थानो भवतीति वा यो देवः सा देवता। होतारं ह्वातारं जुहोतेर्होतारित्यौर्णवाभो रत्नधातमं रमणीयानां धनानां दातृतमम्। (निरु॰7.14-15)। अग्रणीः सर्वोत्तमः सर्वेषु यज्ञेषु पूर्वमीश्वरस्यैव प्रतिपादनात्तस्यात्र ग्रहणम्। दग्धादिति विशेषणाद्भौतिकस्यापि च। प्रशासितारं सर्वेषामणीयांसमणोरपि। रुक्माभं स्वप्नधीगम्यं विद्यात्तं पुरुषं परम्॥1॥ एतमेके वदन्त्यग्निं मनुमन्ये प्रजापतिम्। इन्द्रमेकेऽपरे प्राणमपरे ब्रह्म शाश्वतम्॥2॥ (मनु॰12.122-123) अत्राप्यग्न्यादीनि परमेश्वरस्य नामानि सन्तीति। ईळे॑ अ॒ग्निं वि॑प॒श्चितं॑ गि॒रा य॒ज्ञस्य॒ साध॑नम्। श्रु॒ष्टी॒वानं॑ धि॒तावा॑नम्॥ (ऋ॰3.27.2) विपश्चितमीळे इति विशेषणादग्निशब्देनात्रेश्वरो गृह्यते, अनन्तविद्यावत्त्वाच्चेतनस्वरूपत्वाच्च। अथ केवलं भौतिकार्थग्रहणाय प्रमाणानि-यदश्वं तं पुरस्ताददश्रयंस्तस्याभयेनाष्ट्रे निवातेऽग्निरजायत तस्माद्यत्राग्निं मन्थिष्यन्त्स्यात्तदश्वमानेतवै ब्रूयात्। स पूर्वेणोपतिष्ठते वज्रमेवैतदुच्छ्रयन्ति तस्याभयेनाष्ट्रे निवातेऽग्निर्जायते। (श॰ब्रा॰2.1.4.16) वृषो अग्निः। अश्वो ह वा एष भूत्वा देवेभ्यो यज्ञं वहति। (श॰ब्रा॰1.3.3.29-30 वृषवद्यानानां वोढृत्वाद् वृषोऽग्निः। तथाऽयमग्निराशुगमयितृत्वेनाश्वो भूत्वा कलायन्त्रैः प्रेरितः सन् देवेभ्यो विद्वद्भ्यः शिल्पविद्याविद्भयो मनुष्येभ्यो विमानादियानसाधनसङ्गतं यानं वहति प्रापयतीति। तूर्णिर्हव्यवाडिति। (श॰ब्रा॰1.3.4.12) अयमग्निर्हव्यानां यानानां प्रापकत्वेन शीघ्रतया गमकत्वाद्धव्यवाट् तूर्णिश्चेति। अग्निर्वै योनिर्यज्ञस्य। (श॰ब्रा॰1.4.3.11 इत्याद्यनेकप्रमाणैरश्वनाम्ना भौतिकोऽग्निर्वात्र गृह्यते, आशुगमनहेतुत्वादश्वोऽग्निर्विज्ञेयः। वृषो॑ अ॒ग्निः समि॑ध्य॒तेऽश्वो॒ न दे॑व॒वाह॑नः। तं ह॒विष्म॑न्त ईळते॥ (ऋ॰3.27.14) यदा शिल्पिभिरयमग्निर्यन्त्रकलाभिर्यानेषु प्रदीप्यते तदा देववाहनो देवान् यानस्थान् विदुषः शीघ्रं देशान्तरेऽश्व इव वृष इव च प्रापयति, ते हविष्मन्तो मनुष्या वेगादिगुणवन्तमश्वमग्निमीडते कार्य्यार्थमधीच्छन्तीति वेद्यम्। (ईळे) स्तुवे याचे अधीच्छामि प्रेरयामि वा (पुरोहितम्) पुरस्तात्सर्वं जगद्दधाति छेदनधारणाकर्षणादिगुणांश्चापि तम्। पुरोहितः पुर एनं दधति होत्राय वृतः कृपायमाणोऽन्वध्यायत्। (निरु॰2.12) (यज्ञस्य) इज्यतेऽसौ यज्ञस्तस्य महिम्नः कर्मणो विदुषां सत्कारस्य सङ्गतस्य सत्सङ्गत्योत्पन्नस्य विद्यादिदानस्य शिल्पक्रियोत्पाद्यस्य वा। यज्ञाः कस्मात्प्रख्यातं यजति कर्मेति नैरुक्ता याञ्चो भवतीति वा यजुरुन्नो भवतीति वा बहुकृष्णाजिन इत्यौपमन्यवो यजूंष्येनं नयन्तीति वा। (निरु॰3.19) (देवम्) दातारं हर्षकरं विजेतारं द्योतकं वा (ऋत्विजम्) य ऋतौ ऋतौ प्रत्युत्पत्तिकालं संसारं सङ्गतं यजति करोति तथा च शिल्पसाधनानि सङ्गमयति सर्वेषु ऋतुषु यजनीयस्तम्। ऋत्विग्दधृग्॰ (अष्टा॰3.2.59) अनेन कर्त्तरि निपातनम्, तथा कृतो बहुलमिति कर्मणि वा। (होतारम्) दातारमादातारं वा (रत्नधातमम्) रमणीयानि पृथिव्यादीनि सुर्वर्णादीनि च रत्नानि दधाति धापयतीति रत्नधा, अतिशयेन रत्नधा इति रत्नधातमस्तम्॥1॥ अन्वयः—अहं यज्ञस्यं पुरोहितमृत्विजं होतारं रत्नधातमं देवमग्निमीळे॥1॥ भावार्थः—अत्र श्लेषालङ्कारेणोभयार्थग्रहणमस्तीति बोध्यम्। इतोऽग्रे यत्र यत्र मन्त्रभूमिकायामुपदिश्यत इति क्रियापदं प्रयुज्यतेऽस्य सर्वत्र कर्त्तेश्वर एव बोध्यः। कुतः, वेदानां तेनैवोक्तत्वात् पितृवत्कृपायमाण ईश्वरः सर्वविद्याप्राप्तये सर्वजीवहितार्थं वेदोपदेशं चकार। यथा पिताऽध्यापको वा स्वपुत्रं शिष्यं च प्रति त्वमेवं वदैवं कुरु सत्यं वद पितरमाचार्य्यं च सेवस्वानृतं मा कुर्वित्युपदिशति, तथैवात्र बोध्यम्। वेदश्च सर्वजीवकल्याणार्थमाविर्भूतः। एवमर्थोऽत्रोत्तम- पुरुषप्रयोगः। वेदोपदेशस्य परोपकारार्थत्वात्। अत्राग्निशब्देन परमार्थव्यवहारविद्यासिद्धये परमेश्वर भौतिकौ द्वावर्थौ गृह्येते। पुरा आर्य्यैर्याऽश्वविद्यानाम्ना शीघ्रगमनहेतुः शिल्पविद्या सम्पादितेति श्रूयते साग्निविद्यैवासीत्। परमेश्वरस्य स्वयंप्रकाशत्वसर्वप्रकाशकत्वाभ्यामनन्तज्ञानवत्त्वात् भौतिकस्य रूपदाहप्रकाशवेगछेदनादिगुण- वत्त्वाच्छिल्पविद्यायां मुख्यहेतुत्वाच्च प्रथमं ग्रहणं कृतमस्तीति वेदितव्यम्॥1॥ पदार्थान्वयभाषा-(यज्ञस्य) हम लोग विद्वानों के सत्कार सङ्गम महिमा और कर्म के (होतारम्) देने तथा ग्रहण करनेवाले (पुरोहितम्) उत्पत्ति के समय से पहिले परमाणु आदि सृष्टि के धारण करने और (ऋत्विजम्) वारंवार उत्पत्ति के समय में स्थूल सृष्टि के रचनेवाले तथा ऋतु-ऋतु में उपासना करने योग्य (रत्नधातमम्) और निश्चय करके मनोहर पृथिवी वा सुवर्ण आदि रत्नों के धारण करने वा (देवम्) देने तथा सब पदार्थों के प्रकाश करनेवाले परमेश्वर की (ईळे) स्तुति करते हैं। तथा उपकार के लिये (यज्ञस्य) हम लोग (विद्यादि) दान और शिल्पक्रियाओं से उत्पन्न करने योग्य पदार्थों के (होतारम्) देनेहारे तथा (पुरोहितम्) उन पदार्थों के उत्पन्न करने के समय से पूर्व भी छेदन धारण और आकर्षण आदि गुणों के धारण करने वाले (ऋत्विजम्) शिल्पविद्या साधनों के हेतु (रत्नधातमम्) अच्छे-अच्छे सुवर्ण आदि रत्नों के धारण कराने तथा (देवम्) युद्धादिकों में कलायुक्त शस्त्रों से विजय करानेहारे भौतिक अग्नि की (ईळे) वारंवार इच्छा करते हैं। यहां ‘अग्नि’ शब्द के दो अर्थ करने में प्रमाण ये हैं कि-(इन्द्रं मित्रं॰) इस ऋग्वेद के मन्त्र से यह जाना जाता है कि एक सद्ब्रह्म के इन्द्र आदि अनेक नाम हैं। तथा (तदेवाग्नि॰) इस यजुर्वेद के मन्त्र से भी अग्नि आदि नामों करके सच्चिदानन्दादि लक्षणवाले ब्रह्म को जानना चाहिये। (ब्रह्म ह्य॰) इत्यादि शतपथ ब्राह्मण के प्रमाणों से अग्नि शब्द ब्रह्म और आत्मा इन दो अर्थों का वाची है। (अयं वा॰) इस प्रमाण में अग्नि शब्द से प्रजा शब्द करके भौतिक और प्रजापति शब्द से ईश्वर का ग्रहण होता है। (अग्नि॰) इस प्रमाण से सत्याचरण के नियमों का जो यथावत् पालन करना है सो ही व्रत कहाता है, और इस व्रत का पति परमेश्वर है। (त्रिभिः पवित्रैः॰) इस ऋग्वेद के प्रमाण से ज्ञानवाले तथा सर्वज्ञ प्रकाश करनेवाले विशेषण से अग्नि शब्द करके ईश्वर का ग्रहण होता है। निरुक्तकार यास्कमुनि जी ने भी ईश्वर और भौतिक पक्षों को अग्नि शब्द की भिन्न-भिन्न व्याख्या करके सिद्ध किया है, सो संस्कृत में यथावत् देख लेना चाहिये, परन्तु सुगमता के लिये कुछ संक्षेप से यहां भी कहते हैं। यास्कमुनिजी ने स्थौलाष्ठीवि ऋषि के मत से अग्नि शब्द का अग्रणी=सब से उत्तम अर्थ किया है अर्थात् जिसका सब यज्ञों में पहिले प्रतिपादन होता है, वह सब से उत्तम ही है। इस कारण अग्नि शब्द से ईश्वर तथा दाहगुणवाला भौतिक अग्नि इन दो ही अर्थों का ग्रहण होता है। (प्रशासितारं॰; एतमे॰) मनुजी के इन दो श्लोकों में भी परमेश्वर के अग्नि आदि नाम प्रसिद्ध हैं। (ईळे॰) इस ऋग्वेद के प्रमाण से भी उस अनन्त विद्यावाले और चेतनस्वरूप आदि गुणों से युक्त परमेश्वर का ग्रहण होता है। अब भौतिक अर्थ के ग्रहण में प्रमाण दिखलाते हैं--(यदश्वं॰) इत्यादि शतपथ ब्राह्मण के प्रमाणों से अग्नि शब्द करके भौतिक अग्नि का ग्रहण होता है। यह अग्नि बैल के समान सब देशदेशान्तरों में पहुंचानेवाला होने के कारण वृष और अश्व भी कहाता है, क्योंकि वह कलाओं के द्वारा अश्व अर्थात् शीघ्र चलानेवाला होकर शिल्पविद्या के जानने वाले विद्वान् लोगों के विमान आदि यानों को वेग से वाहनों के समान दूर-दूर देशों में पहुंचाता है। (तूर्णि॰) इस प्रमाण से भी भौतिक अग्नि का ग्रहण है, क्योंकि वह उक्त शीघ्रता आदि हेतुओं से हव्यवाट् और तूर्णि भी कहाता है। (अग्निर्वै यो॰) इत्यादिक और भी अनेक प्रमाणों से अश्व नाम करके भौतिक अग्नि का ग्रहण किया गया है। (वृषो॰) जब कि इस भौतिक अग्नि को शिल्पविद्यावाले विद्वान् लोग यन्त्रकलाओं से सवारियों में प्रदीप्त करके युक्त करते हैं, तब (देववाहनः) उन सवारियों में बैठे हुए विद्वान् लोगों को देशान्तर में बैलों वा घोड़ों के समान शीघ्र पहुंचानेवाला होता है। हे मनुष्यो! तुम लोग (हविष्मन्तम्) वेगादि गुणवाले अश्वरूप अग्नि के गुणों को (ईळते) खोजो। इस प्रमाण से भी भौतिक अग्नि का ग्रहण है॥1॥ भावार्थभाषा-इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार से दो अर्थों का ग्रहण होता है। पिता के समान कृपाकारक परमेश्वर सब जीवों के हित और सब विद्याओं की प्राप्ति के लिये कल्प-कल्प की आदि में वेद का उपदेश करता है। जैसे पिता वा अध्यापक अपने शिष्य वा पुत्र को शिक्षा करता है कि तू ऐसा कर वा ऐसा वचन कह, सत्य वचन बोल, इत्यादि शिक्षा को सुनकर बालक वा शिष्य भी कहता है कि सत्य बोलूंगा, पिता और आचार्य्य की सेवा करूंगा, झूठ न कहूंगा, इस प्रकार जैसे परस्पर शिक्षक लोग शिष्य वा लड़कों को उपदेश करते हैं, वैसे ही ‘अग्निमीळे॰’ इत्यादि वेदमन्त्रों में भी जानना चाहिये। क्योंकि ईश्वर ने वेद सब जीवों के उत्तम सुख के लिये प्रकट किया है। इसी ‘अग्निमीळे॰’ वेद के उपदेश का परोपकार फल होने से इस मन्त्र में ‘ईडे’ यह उत्तम पुरुष का प्रयोग भी है। (अग्निमीळे॰) परमार्थ और व्यवहार विद्या की सिद्धि के लिये अग्नि शब्द करके परमेश्वर और भौतिक ये दोनों अर्थ लिये जाते हैं। जो पहिले समय में आर्य लोगों ने अश्वविद्या के नाम से शीघ्र गमन का हेतु शिल्पविद्या उत्पन्न की थी, वह अग्निविद्या की ही उन्नति थी। आप ही आप प्रकाशमान सब का प्रकाश और अनन्त ज्ञानवान् आदि हेतुओं से अग्निशब्द करके परमेश्वर, तथा रूप दाह प्रकाश वेग छेदन आदि गुण और शिल्पविद्या के मुख्य साधक आदि हेतुओं से प्रथम मन्त्र में भौतिक अर्थ का ग्रहण किया है॥1॥ सोऽग्निः कैः स्तोतव्योऽन्वेष्टव्यगुणो वास्तीत्युपदिश्यते। उक्त अग्नि किन के स्तुति करने वा खोजने योग्य है, इसका उपदेश अगले मन्त्र में किया है- अ॒ग्निः पूर्वे॑भि॒र्ऋषि॑भि॒रीड्यो॒ नूत॑नैरु॒त। स दे॒वाँ एह व॑क्षति॥2॥ अ॒ग्निः। पूर्वे॑भिः। ऋषि॑भिः। ईड्यः॑। नूत॑नैः। उ॒त। सः। दे॒वान्। आ। इ॒ह। व॒क्ष॒ति॒॥2॥ पदार्थः—(अग्निः) परमेश्वरो भौतिको वा (पूर्वेभिः) अधीतविद्यैर्वर्त्तमानैः प्राक्तनैर्वा विद्वद्भिः (ऋषिभिः) मन्त्रार्थद्रष्टृभिरध्यापकैस्तर्कैः कारणस्थैः प्राणैर्वा-ऋषिप्रशंसा चैवमुच्चावचैरभिप्रायैर्ऋषीणां मन्त्रदृष्टयो भवन्ति। (निरु॰7.3) इयमेव ऋषीणां प्रशंसा यतस्त एवमुच्चावचैर्महदल्पाभिप्रायैर्मन्त्रार्थैर्विदितैः प्रशंसनीया भवन्ति, तेषामृषीणां मन्त्रेषु दृष्टयोऽर्थादत्यन्तपुरुषार्थेन मन्त्रार्थानां यथावद्दर्शनानि ज्ञानानि भवन्ति तस्मात्ते पूज्याः सत्कर्त्तव्या आसन्निति। साक्षात्कृतधर्माण ऋषयो बूभूवुस्तेऽवरेभ्योऽसाक्षात्कृतधर्मभ्य उपदेशेन मन्त्रान्त्सम्प्रादुरुपदेशाय ग्लायन्तोऽवरे बिल्मग्रहणायेमं ग्रन्थं समाम्नासिषुर्वेदं च वेदाङ्गानि च बिल्मं भिल्मं भासनमिति वा। (निरु॰1.20) कीदृशा ऋषयो भवन्तीत्यात्राह-यतः साक्षात्कृतधर्माणो धार्मिका आप्ता यैः सर्वा विद्या यथावद्विदिता, येऽवरेभ्यो ह्यसाक्षात्कृतवेदेभ्यो मनुष्येभ्य उपदेशेन वेदमन्त्रान् मन्त्रार्थार्ंश्च सम्प्रादुः प्रकाशितवन्तस्तस्मात्ते ऋषयो जाताः। तैः कस्मै प्रयोजनाय मन्त्राध्यापनं तदर्थप्रकाशश्च कृत इत्यत्रोच्यते-उत्तरोत्तरं वेदार्थप्रचाराय। येऽवरेऽल्पबुद्धयो मनुष्या अध्ययनायोपदेशाय च ग्लायन्ते तेषां वेदार्थविज्ञानायेमं नैघण्टुकं निरुक्ताख्यं च ग्रन्थं समाम्नासिषुः सम्यगभ्यासार्थं रचितवन्तः। येन सर्वे मनुष्या वेदं वेदाङ्गानि च यथार्थतया विजानीयुरेवं कृपालव ऋषयो गण्यन्त इति। पुरस्तान्मनुष्या वा ऋषिषूत्क्रामत्सु देवानब्रुवन्को न ऋषिर्भविष्यतीति। तेभ्य एतं तर्कमृषिं प्रायच्छन् मत्रार्थचिन्ताभ्यूहमभ्यूढम्। (निरु॰13.12) अत्र तर्क एव ऋषिरुक्तः। अविज्ञाततत्त्वेऽर्थे कारणोपपत्तितस्तत्त्वज्ञानार्थमूहस्तर्कः। (न्याय॰1.1.40) या तत्त्वज्ञानार्थोहा सैव तर्कशब्देन गृह्यते। प्राणा ऋषयः। (श॰ब्रा॰7.2.1.5) अत्रर्षिशब्देन प्राणा गृह्यन्ते। (ईड्यः) नित्यं स्तोतव्योऽन्वेष्टव्यश्च (नूतनैः) वेदार्थाध्येतृभिर्ब्रह्मचारिभिस्तर्कैः कार्यस्थैर्विद्यमानैः प्राणैर्वा (उत) अप्येव (सः) पूर्वोक्तः (देवान्) दिव्यानीन्द्रियाणि विद्यादिदिव्यगुणान् दिव्यान् ऋतून् दिव्यान् भोगान्वा। ऋतवो वै देवाः) (श॰ब्रा॰7.2.2.26) अनेनर्तुशब्देन दिव्यगुणविशिष्टा भोगा गृह्यन्ते। (आ) समन्तात् (इह) अस्मिन् वर्त्तमाने संसारे जन्मनि वा (वक्षति) वहतु प्रापयतु॥2॥ यास्कमुनिरिमं मन्त्रमेवं समाचष्टे-अग्निर्यः पूर्वैर्ऋषिभिरीडितव्यो वन्दितव्योऽस्माभिश्च नवतरैः स देवानिहावहत्विति। स न मन्येतायमेवाग्निरित्यप्येते उत्तरे ज्योतिषी अग्नी उच्येते। (निरु॰7.16.2)॥2॥ अन्वयः—योऽयमग्निः पूर्वेभिरुत नूतनैर्ऋषिभिरीड्योऽस्ति, स एह देवान् वक्षति समन्तात्प्रापयतु॥2॥ भावार्थः—ये सर्वा विद्याः पठित्वा सत्योपदेशेन सर्वोपकारका अध्यापका वर्त्तन्ते पूर्वभूताश्च ते पूर्व इति शब्देन ये चाध्येतारो विद्याग्रहणायाभ्यासं कुर्वन्ति ते नूतनैरिति पदेन गृह्यन्ते। ये मन्त्रार्थान् विदितवन्तो धर्मविद्ययोः प्रचारस्यैवानुष्ठातारः सत्योपदेशेन सर्वाननुग्रहीतारो निश्छलाः पुरुषार्थिनो मोक्षधर्मसिध्यर्थमीश्वरस्यैवोपासकाः कामार्थसिध्यर्थं भौतिकाग्नेर्गुणज्ञानेन कार्य्यसिद्धिं सम्पादयन्तो मनुष्यास्ते ऋषिशब्देन गृह्यन्ते। पूर्वेषां नूतनानां च ये युक्तिप्रमाणसिद्धास्तत्त्वज्ञानार्थास्तर्काः, ये च जगत्कारणस्थाः कार्य्यजगत्स्थाश्च प्राणाः सन्ति तैः सह योगाभ्यासेनेश्वरो भौतिकश्चाग्निर्वन्द्योऽध्यन्वेष्टव्यगुणश्चास्ति। सर्वज्ञेनेश्वरेण स्वकीयज्ञानान्मनुष्यज्ञानापेक्षयाऽतीतान् वर्त्तमानांश्चर्षीन् विदित्वाऽस्मिन् मन्त्र उपदिष्टे सति नैव कश्चिद्दोषो भवितुमर्हति, वेदस्य सर्वज्ञवाक्यत्वात्। सोऽयमेवमुपासितो व्यवहारकार्य्येषु संयोजितः सन् सर्वोत्तमान् गुणान् भोगांश्च प्रापयति। अत्र प्राचीनापेक्षया नवीनत्वं नवीनापेक्षया प्राचीनत्वं च विज्ञायत इति। अयमेवार्थो निरुक्तकारेणोक्तः—यस्तु खलु प्राकृतजनैः पाककरणादिषु प्रसिद्धः प्रयोज्यते सोऽस्मिन् मन्त्रे नैव ग्राह्यः, किन्तु सर्वप्रकाशकः परमेश्वरः सर्वविद्याहेतु- र्विद्युदाख्योऽर्थश्चाऽग्निशब्देनात्रोच्यत इति। एतन्मन्त्रार्थः सायणाचार्य्यादिभिरन्यथोक्तः। तद्यथा-पुरातनैर्भृग्वङ्गिरःप्रभृतिभि र्नूतनैरुतेदानींतनै- रस्माभिरपि स्तुत्यः। देवान् हविर्भुज आवक्षतीत्यन्यथेदं व्याख्यानमस्ति। तद्वद्यूरोपखण्डस्थैरत्रस्थैश्च कृतमिंगलैण्डभाषायं वेदार्थयत्नादिषु च व्याख्यानमप्यसमञ्जसम्। कुतः ईश्वरोक्तस्यानादिभूतस्य वेदस्येदृशं व्याख्यानं क्षुद्राशयं निरुक्तशतपथादिग्रन्थविरुद्धं चास्त्यत इति॥2॥ पदार्थान्वयभाषाः—(पूर्वेभिः) वर्त्तमान वा पहिले समय के विद्वान् (नूतनैः) वेदार्थ के पढ़नेवाला ब्रह्मचारी तथा नवीन तर्क और कार्य्यों में ठहरनेवाले प्राण (ऋषिभिः) मन्त्रों के अर्थों को देखनेवाले विद्वान्, उन लोगों के तर्क और कारणों में रहनेवाले प्राण, इन सभों को (अग्निः) वह परमेश्वर (ईड्यः) स्तुति करने योग्य और यह भौतिक अग्नि नित्य खोजने योग्य है। प्राचीन और नवीन ऋषियों में प्रमाण ये हैं कि--(ऋषिप्रशंसा॰) वे ऋषि लोग गूढ़ और अल्प अभिप्राययुक्त मन्त्रों के अर्थों को यथावत् जानने से प्रशंसा के योग्य होते हैं, और उन्हीं ऋषियों की मन्त्रों में दृष्टि अर्थात् उनके अर्थों के विचार में पुरुषार्थ से यथार्थ ज्ञान और विज्ञान की प्रवृत्ति होती है, इसी से वे सत्कार करने योग्य भी हैं। तथा (साक्षात्कृत॰) जो धर्म और अधर्म की ठीक-ठीक परीक्षा करने वाले धर्मात्मा और यथार्थवक्ता थे, तथा जिन्होंने सब विद्या यथावत् जान ली थी, वे ही ऋषि हुए और जिन्होंने मन्त्रों के अर्थ ठीक-ठीक नहीं जाने थे और नहीं जान सकते थे, उन लोगों को अपने उपदेश द्वारा वेदमन्त्रों का अर्थ सहित ज्ञान कराते हुए चले आये, इस प्रयोजन के लिये कि जिससे उत्तरोत्तर अर्थात् पीढ़ी दर पीढ़ी आगे को भी वेदार्थ का प्रचार उन्नति के साथ बना रहे, तथा जिससे कोई मनुष्य अपने और उक्त ऋषियों के लिये हुए व्याख्यान सुनने के लिये अपने निर्बुद्धिपन से ग्लानि को प्राप्त हो, इस बात के सहाय में उनको सुगमता से वेदार्थ का ज्ञान होने के लिये उन ऋषियों ने निघण्टु और निरुक्त आदि ग्रन्थों का उपदेश किया है, जिससे कि सब मनुष्यों को वेद और वेदाङ्गों का यथार्थ बोध हो जावे। (पुरस्तान्मनुष्या॰) इस प्रमाण से ऋषि शब्द का अर्थ तर्क ही सिद्ध होता है। (अविज्ञात॰) यह न्यायशास्त्र में गोतम मुनिजी ने तर्क का लक्षण कहा है, इससे यही सिद्ध होता है कि जो सिद्धान्त के जानने के लिये विचार किया जाता है उसी का नाम तर्क है। (प्राणा॰) इन शतपथ के प्रमाणों से ऋषि शब्द करके प्राण और देव शब्द करके ऋतुओं का ग्रहण होता है। (सः उत) वही परमेश्वर (इह) इस संसार वा इस जन्म में (देवान्) अच्छी-अच्छी इन्द्रियां, विद्या आदि गुण, भौतिक अग्नि और अच्छे-अच्छे भोगने योग्य पदार्थों को (आवक्षति) प्राप्त करता है। (अग्निः पूर्वे॰) इस मन्त्र का अर्थ निरुक्तकार ने जैसा कुछ किया है, सो इस मन्त्र के भाष्य में लिख दिया है॥2॥ भावार्थः—जो मनुष्य सब विद्याओं को पढ़के औरों को पढ़ाते हैं तथा अपने उपदेश से सब का उपकार करनेवाले हैं वा हुए हैं वे पूर्व शब्द से, और जो कि अब पढ़नेवाले विद्या ग्रहण के लिये अभ्यास करते हैं, वे नूतन शब्द से ग्रहण किये जाते हैं। और वे सब पूर्ण विद्वान् शुभ गुण सहित होने पर ऋषि कहाते हैं, क्योंकि जो मन्त्रों के अर्थों को जाने हुए धर्म और विद्या के प्रचार, अपने सत्य उपदेश से सब पर कृपा करनेवाले निष्कपट पुरुषार्थी धर्म के सिद्ध होने के लिये ईश्वर की उपासना करनेवाले और कार्य्यों की सिद्धि के लिये भौतिक अग्नि के गुणों को जानकर अपने कर्मों के सिद्ध करनेवाले होते हैं, तथा प्राचीन और नवीन विद्वानों के तत्त्व जानने के लिये युक्ति प्रमाणों से सिद्ध तर्क और कारण वा कार्य्य जगत् में रहनेवाले जो प्राण हैं, इन सब से ईश्वर और भौतिक अग्नि का अपने-अपने गुणों के साथ खोज करना योग्य है। और जो सर्वज्ञ परमेश्वर ने पूर्व और वर्त्तमान अर्थात् त्रिकालस्थ ऋषियों को अपने सर्वज्ञपन से जान के इस मन्त्र में परमार्थ और व्यवहार ये दो विद्या दिखलाई हैं, इससे इसमें भूत वा भविष्य काल की बातों के कहने में कोई भी दोष नहीं आ सकता, क्योंकि वेद सर्वज्ञ परमेश्वर का वचन है। वह परमेश्वर उत्तम गुणों को तथा भौतिक अग्नि व्यवहार कार्यों में संयुक्त किया हुआ उत्तम-उत्तम भोग के पदार्थों का देनेवाला होता है। पुराने की अपेक्षा एक पदार्थ से दूसरा नवीन और नवीन की अपेक्षा पहिला पुराना होता है। देखो, यही अर्थ इस मन्त्र का निरुक्तकार ने भी किया है कि-प्राकृत जन अर्थात् अज्ञानी लोगों ने जो प्रसिद्ध भौतिक अग्नि पाक बनाने आदि कार्य्यों में लिया है, वह इस मन्त्र में नहीं लेना, किन्तु सब का प्रकाश करनेहारा परमेश्वर और सब विद्याओं का हेतु जिसका नाम विद्युत् है, वही भौतिक अग्नि यहां अग्नि शब्द से लिया है। (अग्निः पूर्वे॰) इस मन्त्र का अर्थ नवीन भाष्यकारों ने कुछ का कुछ ही कर दिया है, जैसे सायणाचार्य ने लिखा है कि-(पुरातनैः॰) प्राचीन भृगु, अङ्गिरा आदियों और नवीन अर्थात् हम लोगों को अग्नि की स्तुति करना उचित है। वह देवों को हवि अर्थात् होम में चढ़े हुए पदार्थ उनके खाने के लिये पहुंचाता है। ऐसा ही व्याख्यान यूरोप खण्डवासी और आर्यावर्त्त के नवीन लोगों ने अङ्गरेजी भाषा में किया है, तथा कल्पित ग्रन्थों में अब भी होता है। सो यह बड़े आश्चर्य की बात है जो ईश्वर के प्रकाशित अनादि वेद का ऐसा व्याख्यान जिसका क्षुद्र आशय और निरुक्त शतपथ आदि सत्य ग्रन्थों से विरुद्ध वह सत्य कैसे हो सकता है॥2॥ तेनोपासितेनोपकृतेन च किं किं प्राप्तं भवतीत्युपदिश्यते। अब परमेश्वर की उपासना और भौतिक अग्नि के उपकार से क्या-क्या फल प्राप्त होता है, सो अगले मन्त्र से उपदेश किया है- अ॒ग्निना॑ र॒यिम॑श्नव॒त्पोष॑मे॒व दि॒वेदि॑वे। य॒शसं॑ वी॒रव॑त्तमम्॥3॥ अ॒ग्निना॑। र॒यिम्। अ॒श्न॒व॒त्। पोष॑म्। ए॒व। दि॒वेऽदि॑वे। य॒शस॑म्। वी॒रव॑त्ऽतमम्॥3॥ पदार्थः—(अग्निना) परमेश्वरेण संसेवितेन भौतिकेन संयोजितेन वा (रयिम्) विद्यासुवर्णाद्युत्तमधनम्। रयिरिति धननामसु पठितम्। (निघं॰2.10) (अश्नवत्) प्राप्नोति। लेट् प्रयोगः, व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (पोषम्) आत्मशरीरयोः पुष्ट्या सुखप्रदम् (एव) निश्चयार्थे (दिवेदिवे) प्रतिदिनम्। दिवेदिवे इत्यहर्नामसु पठितम्। (निघं॰1.9) (यशसम्) सर्वोत्तमकीर्त्तिवर्धकम्। (वीरवत्तमम्) वीरा विद्वांसः शूराश्च विद्यन्ते यस्मिन् तदतिशयितं वीरवत्तमम्॥3॥ अन्वयः—मनुष्यः अग्निनैव दिवेदिवे पोषं यशसं वीरवत्तमं रयिमश्नवत् प्राप्नोति॥3॥ भावार्थः—अत्र श्लेषालङ्कारेणोभयार्थस्य ग्रहणम्। ईश्वराज्ञायां वर्त्तमानेन शिल्पविद्यादिकार्य्यसिध्यर्थमग्निं साधितवता मनुष्येणाक्षयं धनं प्राप्यते, येन नित्यं कीर्त्तिर्वृद्धिर्वीरपुरुषाश्च भवन्ति॥3॥ पदार्थः—यह मनुष्य (अग्निना एव) अच्छी प्रकार ईश्वर की उपासना और भौतिक अग्नि ही को कलाओं में संयुक्त करने से (दिवेदिवे) प्रतिदिन (पोषम्) आत्मा और शरीर की पुष्टि करनेवाला (यशसम्) जो उत्तम कीर्त्ति का बढ़ानेवाला और (वीरवत्तमम्) जिसको अच्छे-अच्छे विद्वान् वा शूरवीर लोग चाहा करते हैं (रयिम्) विद्या और सुवर्णादि उत्तम उस धन को सुगमता से (अश्नवत्) प्राप्त होता है॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार से दो अर्थों का ग्रहण है। ईश्वर की आज्ञा में रहने तथा शिल्पविद्यासम्बन्धि कार्य्यों की सिद्धि के लिये भौतिक अग्नि को सिद्ध करनेवाले मनुष्यों को अक्षय अर्थात् जिसका कभी नाश नहीं होता, सो धन प्राप्त होता है, तथा मनुष्य लोग जिस धन से कीर्त्ति की वृद्धि और जिस धन को पाके वीर पुरुषों से युक्त होकर नाना सुखों से युक्त होते हैं। सब को उचित है कि इस धन को अवश्य प्राप्त करें॥3॥ उक्तावर्थौ कीदृशौ स्त इत्युपदिश्यते। उक्त भौतिक अग्नि और परमेश्वर किस प्रकार के हैं, यह भेद अगले मन्त्र में जनाया है- अग्ने॒ यं य॒ज्ञम॑ध्व॒रं वि॒श्वतः॑ परि॒भूरसि॑। स इद्दे॒वेषु॑ गच्छति॥4॥ अग्नें॑। यम्। य॒ज्ञम्। अ॒ध्व॒रम्। वि॒श्वतः॑। प॒रि॒ऽभूः। असि॑। सः। इत्। दे॒वेषु॑। ग॒च्छ॒ति॒॥4॥ पदार्थः—(अग्ने) परमेश्वरो भौतिको वा (यम्) (यज्ञम्) प्रथममन्त्रोक्तम् (अध्वरम्) हिंसाधर्मादिदोषरहितम्। ध्वरतिहिंसाकर्मा तत्प्रतिषेधो निपातः। (निरु॰1.8) (विश्वतः) सर्वतः सर्वेषां जलपृथिवीमयानां पदार्थानां विविधाश्रयात्। षष्ठ्या व्याश्रये (अष्टा॰5.4.48) इत्यनेन तसिः प्रत्ययः। (परिभूः) यः परितः सर्वतः पदार्थेषु भवति। परीति सर्वतोभावं प्राह। (निरु॰1.3) (असि) अस्ति वा (सः) यज्ञः (इत्) एव (देवेषु) विद्वत्सु दिव्येषु पदार्थेषु वा (गच्छति) प्राप्नोति॥4॥ अन्वयः—हे अग्ने! त्वं यमध्वरं यज्ञं विश्वतः परिभूरसि व्याप्य पालकोऽसि, तथाऽयमग्निरपि सम्पादयितास्ति, स इद्देवेषु गच्छति॥4॥ भावार्थः—अत्र श्लेषालङ्कारः। यतोऽयं व्यापकः परमेश्वरः स्वसत्तया पूर्वोक्तं यज्ञं सर्वतः सततं रक्षति, अत एव स यज्ञो दिव्यगुणप्राप्तिहेतुर्भवति। एवमेव परमेश्वरेण यो दिव्यगुणसहितोऽग्नी रचितोऽस्ति तस्मादेवायं दिव्यशिल्पविद्यासम्पादकोऽस्ति। यो धार्मिक उद्योगी विद्वान् मनुष्योऽस्ति, स एवैतान् गुणान् प्राप्तुमर्हति॥4॥ पदार्थः—(अग्ने) हे परमेश्वर! आप (विश्वतः) सर्वत्र व्याप्त होकर (यम्) जिस (अध्वरम्) हिंसा आदि दोषरहित (यज्ञम्) विद्या आदि पदार्थों के दानरूप यज्ञ को (परिभूः) सब प्रकार से पालन करनेवाले हैं, (स इत्) वही यज्ञ (देवेषु) विद्वानों के बीच में (गच्छति) फैलके जगत् को सुख प्राप्त करता है। तथा (अग्ने) जो यह भौतिक अग्नि (विश्वतः) पृथिव्यादि पदार्थों के साथ अनेक दोषों से अलग होकर (यम्) जिस (अध्वरम्) विनाश आदि दोषों से रहित शिल्पविद्यामय यज्ञ को (परिभूः) सब प्रकार से सिद्ध करता है, (स इत्) वही यज्ञ (देवेषु) अच्छे-अच्छे पदार्थों में (गच्छति) प्राप्त होकर सब को लाभकारी होता है॥4॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जिस कारण व्यापक परमेश्वर अपनी सत्ता से उक्त यज्ञ की निरन्तर रक्षा करता है, इसीसे वह अच्छे-अच्छे गुणों को देने का हेतु होता है। इसी प्रकार ईश्वर ने दिव्य गुणयुक्त अग्नि भी रचा है कि जो उत्तम शिल्पविद्या का उत्पन्न करने वाला है। उन गुणों को केवल धार्मिक उद्योगी और विद्वान् मनुष्य ही प्राप्त होने के योग्य होता है॥4॥ पुनस्तौ कीदृशौ स्त इत्युपदिश्यते। फिर भी परमेश्वर और भौतिक अग्नि किस प्रकार के हैं, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है- अ॒ग्निर्होता॑ क॒विक्र॑तुः स॒त्यश्चि॒त्रश्र॑वस्तमः। दे॒वो दे॒वेभि॒रा ग॑मत्॥5॥1॥ अ॒ग्निः। होता॑। क॒विऽक्र॑तुः। स॒त्यः। चि॒त्रश्र॑वःऽतमः। दे॒वः। दे॒वेभिः॑। आ। ग॒म॒त्॥5॥ पदार्थः—(अग्निः) परमेश्वरो भौतिको वा (होता) दाता ग्रहीता द्योतको वा (कविक्रतुः) कविः सर्वज्ञः क्रान्तदर्शनो वा। करोति यो येन वा स क्रतुः, कविश्चासौ क्रतुश्च सः। कविः क्रान्तदर्शनो भवति कवतेर्वा। (निरु॰12.13) यः सर्वविद्यायुक्तं वेदशास्त्रं कवते उपदिशति स कविरीश्वरः। क्रान्तं दर्शनं यस्मात्स सर्वज्ञो भौतिको वा क्रान्तदर्शनः। कृञः कतुः (उणा॰1.76) अनेन कृञो हेतुकर्त्तरि कर्त्तरि वा कतु प्रत्ययः। (सत्यः) सन्तीति सन्तः, सद्भ्यो हितः तत्र साधुर्वा। सत्यं कस्मात्सत्सु तायते सत्प्रभवं भवतीति वा। (निरु॰3.13) (चित्रश्रवस्तमः) चित्रमद्भुतं श्रवः श्रवणं यस्य सोऽतिशयितः (देवः) स्वप्रकाशः प्रकाशकरो वा (देवेभिः) विद्वद्भिर्दिव्यगुणैः सह वा (आ) समन्तात् (गमत्) गच्छतु प्राप्तो भवति वा। लुङ्प्रयोगोऽडभावश्च॥5॥ अन्वयः—यः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः कविक्रतुः होता देवोऽग्निः परमेश्वरो भौतिकश्चास्ति, स देवेभिः सहागमत्॥5॥ भावार्थः—अत्र श्लेषालङ्कारः। अग्निशब्देन परमेश्वरस्य सर्वाधारसर्वज्ञसर्वरचकविनाशरहितानन्त- शक्तिमत्त्वादिगुणैः सर्वप्रकाशकत्वात्, तथा भौतिकस्याकर्षणगुणादिभिर्मूर्त्तद्रव्याधारकत्वाच्च ग्रहणमस्तीति। सायणाचार्य्येण गमदिति लोडन्तं व्याख्यातम्, तदेतदस्य भ्रान्तमूलमेव। कुतः? गमदित्यत्र ‘छन्दसि लुङ् लङ्लिटः’ इति सामान्यकालविधायकस्य सूत्रस्य विद्यमानत्वात्॥5॥ इति प्रथमो वर्गः समाप्तः॥ पदार्थान्वयभाषा-जो (सत्यः) अविनाशी (देवः) आप से आप प्रकाशमान (कविक्रतुः) सर्वज्ञ है, जिसने परमाणु आदि पदार्थ और उनके उत्तम-उत्तम गुण रचके दिखलाये हैं, जो सब विद्यायुक्त वेद का उपदेश करता है, और जिससे परमाणु आदि पदार्थों करके सृष्टि के उत्तम पदार्थों का दर्शन होता है, वही कवि अर्थात् सर्वज्ञ ईश्वर है। तथा भौतिक अग्नि भी स्थूल और सूक्ष्म पदार्थों से कलायुक्त होकर देशदेशान्तर में गमन करानेवाला दिखलाया है। (चित्रश्रवस्तमः) जिसका अति आश्चर्यरूपी श्रवण है, वह परमेश्वर (देवेभिः) विद्वानों के साथ समागम करने से (आगमत्) प्राप्त होता है। तथा जो (सत्यः) श्रेष्ठ विद्वानों का हित अर्थात् उनके लिये सुखरूप (देवः) उत्तम गुणों का प्रकाश करनेवाला (कविक्रतुः) सब जगत् को जानने और रचनेहारा परमात्मा और जो भौतिक अग्नि सब पृथिवी आदि पदार्थों के साथ व्यापक और शिल्पविद्या का मुख्य हेतु (चित्रश्रवस्तमः) जिसको अद्भुत अर्थात् अति आश्चर्य्यरूप सुनते हैं, वह दिव्य गुणों के साथ (आगमत्) जाना जाता है॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। सब का आधार, सर्वज्ञ, सब का रचनेवाला, विनाशरहित, अनन्त शक्तिमान् और सब का प्रकाशक आदि गुण हेतुओं के पाये जाने से अग्नि शब्द करके परमेश्वर, और आकर्षणादि गुणों से मूर्त्तिमान् पदार्थों का धारण करनेहारादि गुणों के होने से भौतिक अग्नि का भी ग्रहण होता है। सिवाय इसके मनुष्यों को यह भी जानना उचित है कि विद्वानों के समागम और संसारी पदार्थों को उनके गुणसहित विचारने से परम दयालु परमेश्वर अनन्त सुखदाता और भौतिक अग्नि शिल्पविद्या का सिद्ध करनेवाला होता है। सायणाचार्य्य ने ‘गमत’ इस प्रयोग को लोट् लकार का माना है, सो यह उनका व्याख्यान अशुद्ध है, क्योंकि इस प्रयोग में (छन्दसि लुङ्॰) यह सामान्यकाल बतानेवाला सुत्र वर्त्तमान है॥5॥ वह पहला वर्ग समाप्त हुआ॥ अथैकः परमार्थ उपदिश्यते। अब अग्नि शब्द से ईश्वर का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- य॒द॒ङ्ग दा॒शुषे॒ त्वमग्ने॑ भ॒द्रं क॑रि॒ष्यसि॑। तवेत्तत्स॒त्यम॑ङ्गिरः॥6॥ यत्। अ॒ङ्ग। दा॒शुषे॑। त्वम्। अग्ने॑। भ॒द्रम्। क॒रि॒ष्यसि॑। तव॑। इत्। तत्। स॒त्यम्। अ॒ङ्गि॒रः॒॥6॥ पदार्थः—(यत्) यस्मात् (अङ्ग) सर्वमित्र (दाशुषे) सर्वस्वं दत्तवते (त्वम्) मङ्गलमयः (अग्ने) परमेश्वर (भद्रम्) कल्याणं सर्वैः शिष्टैर्विद्वद्भिः सेवनीयम्। भद्रं भगेन व्याख्यातं भजनीयं भूतानामभिद्रवयतीति वा भाजनवद्वा। (निरु॰4.10) (करिष्यसि) करोषि। अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति लडर्थे लृट्। (तव इत्) एव (तत्) तस्मात् (सत्यम्) सत्सु पदार्थेषु सुखस्य विस्तारकं सत्प्रभवं सद्भिर्गुणैरुत्पन्नम् (अङ्गिरः) पृथिव्यादीनां ब्रह्माण्डस्याङ्गानां प्राणरूपेण शरीरावयवानां चान्तर्य्यामिरूपेण रसरूपोऽङ्गिरास्तत्सम्बुद्धौ। प्राणो वा अङ्गिराः। (श॰ब्रा॰6.3.7.3) देहेऽङ्गारेष्वङ्गिरा अङ्गारा अङ्कना अञ्चनाः। (निरु॰3.17) अत्राप्युत्तमानामङ्गानां मध्येऽन्तर्यामी प्राणाख्योऽर्थो गृह्यते॥6॥ अन्वयः—हे अङ्गिरोऽअङ्गाग्ने! त्वं यस्मात् दाशुषे भद्रं करिष्यसि करोषि, तस्मात्तवेत्तवैवेदं सत्यं व्रतमस्ति॥6॥ भावार्थः—यो न्यायकारी सर्वस्य सुहृत्सन् दयालुः कल्याणकर्त्ता सर्वस्य सुखमिच्छुः परमेश्वरोऽस्ति, तस्योपासनेन जीव ऐहिक पारमार्थिकं सुखं प्राप्नोति, नेतरस्य। कुतः, परमेश्वरस्यैवैतच्छीलवत्त्वेन समर्थत्वात्। योऽभिव्याप्याङ्गान्यङ्गीव सर्वं विश्वं धारयति, येनैवेदं जगद्रक्षितं यथावदवस्थापितं च सोऽङ्गिरा भवतीति। अत्राङ्गिरःशब्दार्थो विलसनाख्येन भ्रान्त्यान्यथैव व्याख्यात इति बोध्यम्॥6॥ पदार्थः—हे (अङ्गिरः) ब्रह्माण्ड के अङ्ग पृथिवी आदि पदार्थों को प्राणरूप और शरीर के अङ्गों को अन्तर्यामीरूप से रसरूप होकर रक्षा करनेवाले होने से यहां ‘अङ्गिरः’ (प्राण) शब्द से ईश्वर लिया है। (अङ्ग) हे सब के मित्र (अग्ने) परमेश्वर! (यत्) जिस हेतु से आप (दाशुषे) निर्लोभता से उत्तम-उत्तम पदार्थों के दान करनेवाले मनुष्य के लिये (भद्रम्) कल्याण, जो कि शिष्ट विद्वानों के योग्य है, उसको (करिष्यसि) करते हैं, सो यह (तवेत्) आप ही का (सत्यम्) सत्य (व्रतम्) शील है॥6॥ भावार्थः—जो न्याय, दया, कल्याण और सब का मित्रभाव करनेवाला परमेश्वर है, उसी की उपासना करके जीव इस लोक और मोक्ष के सुख को प्राप्त होता है, क्योंकि इस प्रकार सुख देने का स्वभाव और सामर्थ्य केवल परमेश्वर का है, दूसरे का नहीं। जैसे शरीरधारी अपने शरीर को धारण करता है, वैसे ही परमेश्वर सब संसार को धारण करता है, और इसी से यह संसार की यथावत् रक्षा और स्थिति होती है॥6॥ तद् ब्रह्म कथमुपास्यं प्राप्तव्यमित्युपदिश्यते। उक्त परमेश्वर कैसे उपासना करके प्राप्त होने के योग्य है, इसका विधान अगले मन्त्र में किया है॥ उप॑ त्वाग्ने दि॒वेदि॑वे॒ दोषा॑वस्तर्धि॒या व॒यम्। नमो॒ भर॑न्त॒ एम॑सि॥7॥ उप॑। त्वा॒। अ॒ग्ने॒। दि॒वेऽदि॑वे। दोषा॑ऽवस्तः। धि॒या। व॒यम्। नमः॑। भर॑न्तः। आ। इ॒म॒सि॒॥7॥ पदार्थः—(उप) सामीप्ये (त्वा) त्वाम् (अग्ने) सर्वोपास्येश्वर (दिवेदिवे) विज्ञानस्य प्रकाशाय प्रकाशाय (दोषावस्तः) अहर्निशम्। दोषेति रात्रिनामसु पठितम्। (निघं॰1.7) रात्रेः प्रसङ्गाद्वस्त इति दिननामात्र ग्राह्यम्। (धिया) प्रज्ञया कर्मणा वा (वयम्) उपासकाः (नमः) नम्रीभावे (भरन्तः) धारयन्तः (आ) समन्तात् (इमसि) प्राप्नुमः॥7॥ अन्वयः—हे अग्ने! वयं धिया दिवेदिवे दोषावस्तस्त्वा त्वां भरन्तो नमस्कुर्वन्तश्चोपैमसि प्राप्नुमः॥7॥ भावार्थः—हे सर्वद्रष्टः सर्वव्यापिन्नुपासनार्ह! वयं सर्वकर्मानुष्ठानेषु प्रतिक्षणं त्वां यतो नैव विस्मरामः, तस्मादस्माकमधर्ममनुष्ठातुमिच्छा कदाचिन्नैव भवति। कुतः? सर्वज्ञः सर्वसाक्षी भवान्सर्वाण्यस्मत्कार्य्याणि सर्वथा पश्यतीति ज्ञानात्॥7॥ पदार्थान्वयभाषाः—(अग्ने) हे सब के उपासना करने योग्य परमेश्वर! हम लोग (दिवेदिवे) अनेक प्रकार के विज्ञान होने के लिये (धिया) अपनी बुद्धि और कर्मों से आपकी (भरन्तः) उपासना को धारण और (दोषावस्तः) रात्रिदिन में निरन्तर (नमः) नमस्कार आदि करते हुए (उपैमसि) आपके शरण को प्राप्त होते हैं॥7॥ भावार्थः—हे सब को देखने और सब में व्याप्त होनेवाले उपासना के योग्य परमेश्वर! हम लोग सब कामों के करने में एक क्षण भी आपको नहीं भूलते, इसी से हम लोगों को अधर्म करने में कभी इच्छा भी नहीं होती, क्योंकि जो सर्वज्ञ सब का साक्षी परमेश्वर है, वह हमारे सब कामों को देखता है, इस निश्चय से॥7॥ पुनः स कीदृशोऽस्तीत्युपदिश्यते। फिर भी वह परमेश्वर किस प्रकार का है, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है॥ राज॑न्तमध्व॒राणां॑ गो॒पामृ॒तस्य॒ दीदि॑विम्। वर्ध॑मानं॒ स्वे दमे॑॥8॥ राज॑न्तम्। अ॒ध्व॒राणा॑म्। गो॒पाम्। ऋ॒तस्य॑। दीदि॑विम्। वर्ध॑मानम्। स्वे। दमे॑॥8॥ पदार्थः—(राजन्तम्) प्रकाशमानम् (अध्वराणाम्) पूर्वोक्तानां यज्ञानां धार्मिकाणां मनुष्याणां वा (गोपाम्) गाः पृथिव्यादीन् पाति रक्षति तम् (ऋतस्य) सत्यस्य सर्वविद्यायुक्तस्य वेदचतुष्टयस्य सनातनस्य जगत्कारणस्य वा। ऋतमिति सत्यनामसु पठितम्। (निघं॰3.10) ऋत इति पदनामसु च। (निघं॰5.4) (दीदिविम्) सर्वप्रकाशकम्। दिवो द्वे दीर्घश्चाभ्यासस्य। (उणा॰4.55) अनेन क्विन्प्रत्ययः। (वर्धमानम्) ह्रासरहितम् (स्वे) स्वकीये (दमे) दाम्यन्त्युपशाम्यन्ति दुःखानि यस्मिंस्तस्मिन् परमानन्दे पदे। दमुधातोः हलश्च। (अष्टा॰3.3.121) अनेनाधिकरणे घञ्प्रत्ययः॥8॥ अन्वयः—वयं स्वे दमे वर्धमानं राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविं परमेश्वरं नित्यमुपैमसि॥8॥ भावार्थः—परमात्मा स्वस्य सत्तायामानन्दे च क्षयाज्ञानरहितोऽन्तर्यामिरूपेण सर्वान् जीवान्सत्यमुपदिशन्नाप्तान् संसारं च रक्षन् सदैव वर्तते। एतस्योपासका वयमप्यानन्दिता वृद्धियुक्ता विज्ञानवन्तो भूत्वाऽभ्युदयनिःश्रेयसं प्राप्ताः सदैव वर्त्तामह इति॥8॥ पदार्थान्वयभाषाः—(स्वे) अपने (दमे) उस परम आनन्द पद में कि जिसमें बड़े-बड़े दुःखों से छूट कर मोक्ष सुख को प्राप्त हुए पुरुष रमण करते हैं, (वर्धमानम्) सब से बड़ा (राजन्तम्) प्रकाशस्वरूप (अध्वराणाम्) पूर्वोक्त यज्ञादिक अच्छे-अच्छे कर्म धार्मिक मनुष्य तथा (गोपाम्) पृथिव्यादिकों की रक्षा (ऋतस्य) सत्यविद्यायुक्त चारों वेदों और कार्य जगत् के अनादि कारण के (दीदिविम्) प्रकाश करनेवाले परमेश्वर को हम लोग उपासना योग से प्राप्त होते हैं॥8॥ भावार्थः—जैसे विनाश और अज्ञान आदि दोष रहित परमात्मा अपने अन्तर्यामि रूप से सब जीवों को सत्य का उपदेश तथा श्रेष्ठ विद्वान् और सब जगत् की रक्षा करता हुआ अपनी सत्ता और परम आनन्द में प्रवृत्त हो रहा है, वैसे ही परमेश्वर के उपासक भी आनन्दित, वृद्धियुक्त होकर विज्ञान में विहार करते हुए परम आनन्दरूप विशेष फलों को प्राप्त होते हैं॥8॥ स कान् क इव रक्षतीत्युपदिश्यते। वह परमेश्वर किस के समान किनकी रक्षा करता है, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है- स नः॑ पि॒ते॑व सू॒नवेऽग्ने॑ सूपाय॒नो भ॑व। सच॑स्वा नः स्व॒स्तये॑॥9॥2॥ सः। नः॒। पि॒ताऽइव॑। सू॒नवे॑। अग्ने॑। सु॒ऽउ॒पा॒य॒नः। भ॒व। सच॑स्व। नः॒। स्व॒स्तये॑॥9॥ पदार्थः—(सः) जगदीश्वरः (नः) अस्मभ्यम् (पितेव) जनकवत् (सूनवे) स्वसन्तानाय (अग्ने) ज्ञानस्वरूप (सूपायनः) सुष्ठु उपगतमयनं ज्ञानं सुखसाधनं पदार्थप्रापणं यस्मात्सः (भव, सचस्व) समवेतान् कुरु। अन्येषामपि दृश्यते। (अष्टा॰6.3.137) इति दीर्घः। (नः) अस्मान् (स्वस्तये) सुखाय कल्याणाय च॥9॥ अन्वयः—हे अग्ने! स त्वं सूनवे पितेव नोऽस्मभ्यं सूपायनो भव। एवं नोऽस्मान् स्वस्तये सचस्व॥9॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। सर्वैरेवं प्रयत्नः कर्तव्य ईश्वरः प्रार्थनीयश्च-हे भगवन्! भवानस्मान् रक्षयित्वा शुभेषु गुणकर्मसु सदैव नियोजय। यथा पिता स्वसन्तानान्सम्यक् पालयित्वा सुशिक्ष्य शुभगुणकर्म्मयुक्तान् श्रेष्ठकर्मकृर्तंॄश्च सम्पादयति, तथैव भवानपि स्वकृपयाऽस्मान्निष्पादयत्विति॥9॥ प्रथमसूक्ते पञ्चभिर्मन्त्रैः श्लेषालङ्कारेण व्यवहारपरमार्थविद्याद्वयसाधनं प्रकाशितमेवं चतुर्भिर्मन्त्रैरीश्वरस्योपासना स्वभावश्चास्तीति। इदं सूक्तं सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपाख्यदेशनिवासिभि- श्चान्यथैव व्याख्यातम्॥9॥ इति प्रथमं सूक्तं समाप्तं वर्गश्च द्वितीयः॥ पदार्थः—हे (सः) उक्त गुणयुक्त (अग्ने) ज्ञानस्वरूप परमेश्वर! (पितेव) जैसे पिता (सूनवे) अपने पुत्र के लिये उत्तम ज्ञान का देनेवाला होता है, वैसे ही आप (नः) हम लोगों के लिये (सूपायनः) शोभन ज्ञान, जो कि सब सुखों का साधक और उत्तम पदार्थों का प्राप्त करनेवाला है, उसके देनेवाले होकर (नः) हम लोगों को (स्वस्तये) सब सुख के लिये (सचस्व) संयुक्त कीजिये॥9॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। सब मनुष्यों को उत्तम प्रयत्न और ईश्वर की प्रार्थना इस प्रकार से करनी चाहिये कि-हे भगवन्! जैसे पिता अपने पुत्रों को अच्छी प्रकार पालन करके और उत्तम-उत्तम शिक्षा देकर उनको शुभ गुण और श्रेष्ठ कर्म करने योग्य बना देता है, वैसे ही आप हम लोगों को शुभ गुण और शुभ कर्मों में युक्त सदैव कीजिये॥9॥ इस प्रथम सूक्त में पहिले पाँच मन्त्रों करके श्लेषालङ्कार से व्यवहार और परमार्थ की विद्याओं का प्रकाश किया, और चारो मन्त्रों से ईश्वर की उपासना और स्वभाव वर्णन किया है। सायणाचार्य्य आदि और यूरोपदेशवासी डाक्टर विलसन आदि ने इस सूक्त की व्याख्या उलटी की है, सो मेरे इस भाष्य और उनकी व्याख्या को मिलाकर देखने से सबको विदित हो जायगा॥ यह पहला सूक्त और दूसरा वर्ग समाप्त हुआ॥ अथ नवर्चस्य द्वितीयसूक्तस्य मधुच्छन्दा ऋषिः। 1-3 वायुः; 4-6 इन्द्रवायुः 7-9 मित्रावरुणौ च देवताः। 1, 2 पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री; 3-5, 7-9 गायत्री; 6 निचृद्गायत्री च छन्दः। षड्जः स्वरः॥ तत्र येन सर्वे पदार्थाः शोभिताः सन्ति सोऽर्थ उपदिश्यते। अब द्वितीय सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में उन पदार्थों का वर्णन किया है कि जिन्होंने सब पदार्थ शोभित कर रक्खे हैं- वाय॒वा या॑हि दर्शते॒मे सोमा॒ अरं॑कृताः। तेषां॑ पाहि श्रु॒धी हव॑म्॥1॥ वायो॒ इति॑। आ। या॒हि॒। द॒र्श॒त॒। इ॒मे। सोमाः॑। अरं॑ऽकृताः। तेषा॑म्। पा॒हि॒। श्रु॒धि। हव॑म्॥10॥ पदार्थः—(वायो) अनन्तबल सर्वप्राणान्तर्यामिन्नीश्वर तथा सर्वमूर्त्तद्रव्याधारो जीवनहेतुर्भौतिको वा। प्र वा॑वृजे सुप्र॒या ब॒र्हिरे॑षा॒मा वि॒श्वपती॑व॒ बीरि॑ट इयाते। वि॒शाम॒क्तोरु॒षसः॑ पू॒र्वहू॑तौ वा॒युः पू॒षा स्व॒स्तये॑ नि॒युत्वा॑न्॥ (यजु॰33.44) अस्योपरि निरुक्तव्याख्यानरीत्येश्वरभौतिको पुष्टिकर्त्तारौ नियन्तारौ द्वावर्थौ वायुशब्देन गृह्येते। तद्यथा- अथातो मध्यस्थाना देवतास्तासां वायुः प्रथमागामी भवति वायुर्वातेर्वेत्तेर्वा स्याद्गतिकर्मण एतेरिति स्थौलाष्ठीविरनर्थको वकारस्तस्यैषा भवति। (वायवा याहि॰) वायवा याहि दर्शनीयेमे सोमा अरंकृता अलंकृतास्तेषां पिब शृणु नो ह्वानमिति। (निरु॰10.1-2) अन्तरिक्षमध्ये ये पदार्थाः सन्ति तेषां मध्ये वायुः प्रथमागाम्यस्ति। वाति सोऽयं वायुः सर्वगत्वादीश्वरो गतिमत्त्वाद्भौतिकोऽपि गृह्यते। वेत्ति सर्वं जगत्स वायुः परमेश्वरोऽस्ति, तस्य सर्वज्ञत्वात्। मनुष्यो येन वायुना तन्नियमेन प्राणायामेन वा परमेश्वरं शिल्पविद्यामयं यज्ञं वा वेत्ति जानातीत्यर्थेन भौतिको वायुर्गृह्यते। एवमेवैति प्राप्नोति चराचरं जगदित्यर्थेन परमेश्वरस्यैव ग्रहणम्। तथा एति प्राप्नोति सर्वेषां लोकानां परिधीनित्यर्थेन भौतिकस्यापि। कुतः? अन्तर्यामिरूपेणेश्वरस्य मध्यस्थत्वात्प्राणवायुरूपेण भौतिकस्यापि। मध्यस्थत्वादेतद् द्वयार्थस्य वाचिका वायवा याहीत्यृक् प्रवृत्तास्तीति विज्ञेयम्। वायुः सोमस्य रक्षिता वायुमस्य रक्षितारमाह साहचर्य्याद्रसहरणाद्वा। (निरु॰11.5) वायुः सोमस्य सुतस्योत्पन्नस्यास्य जगतो रक्षकत्वादीश्वरोऽत्र गृह्यते। कस्मात्सर्वेण जगता सह साहचर्य्येण व्याप्तत्वात्। सोमवल्ल्यादेरोषधिगणस्य रसहरणात्तथा समुद्रादेर्जलग्रहणाच्च भौतिको वायुरप्यत्र गृह्यते। वायुर्वा अग्निः सुषमिद्वायुर्हि स्वयमात्मानं समिन्धे स्वयमिदं सर्व यदिदं किंच वायुमेव तदन्तरिक्षलोक आयातयति वायुर्वै प्रणीर्यज्ञानाम्। वायुर्वै तूर्णिर्हव्यावड् वायुर्हीदं सर्व सद्यस्तरति यदिदं किंच वायुर्देवेभ्यो हव्यं वहति। (ऐ॰2.34) वायुर्भौतिकोऽग्निदीपनस्य सुषमिदिति ग्राह्यः। वायुसंज्ञोऽहमीश्वरः स्वयमात्मानं यदिदं किंचिज्जगद्वर्त्तते तदिदं सर्वं स्वयं समिन्धे प्रकाशयामि। तथा स एवान्तरिक्षलोके भौतिकमिमं वायुमायातयति विस्तारयति स एव वायुर्भौतिको वा यज्ञानां प्रापकोऽस्तीत्यत्र वायुशब्देनेश्वरश्च। तथा वायुर्वै तूर्णिरित्यादिना भौतिको गृह्यत इति। (आयाहि) आगच्छागच्छति वा। अत्र पक्षे व्यत्ययः। (दर्शत) ज्ञानदृष्ट्या द्रष्टुं योग्य योग्यो वा (इमे) प्रत्यक्षाः (सोमाः) सूयन्त उत्पद्यन्ते ये ते पदार्थाः (अरंकृताः) अलंकृता भूषिताः। संज्ञाछन्दसोर्वा कपिलकादीनामिति वक्तव्यम्। (अष्टा॰8.2.18) इति लत्वविकल्पः। (तेषाम्) तान्पदार्थान्। षष्ठी शेषे। (अष्टा॰2.3.50) इति शेषत्वविविक्षायां षष्ठी। (पाहि) रक्षयति वा। (श्रुधि) श्रायवति वा। अत्र बहुलं छन्दसि। (अष्टा॰2.4.73) इति विकरणाभावः। श्रुशृणुपृकृवृभ्यश्छन्दसि। (अष्टा॰6.4.102) अनेन हेर्धिः। (हवम्)॥1॥ अन्वयः—हे दर्शत वायो जगदीश्वर! त्वमायाहि येन त्वयेमे सोमा अरंकृता अलंकृताः सन्ति तेषां तान् पदार्थान् पाहि अस्माकं हवं श्रुधि योऽयं दर्शत द्रष्टुं योग्यो येनेमे सोमा अरंकृता अलंकृताः सन्ति, स तेषां तान् सर्वानिमान् पदार्थान् पाहि पाति श्रुधि हवं स एव वायो वायुः सर्वं शब्दव्यवहारं श्रावयति। आयाहि सर्वान् पदार्थान् स्वगत्या प्राप्नोति॥1॥ भावार्थः—अत्र श्लेषालङ्कारेणेश्वरभौतिकावर्थौ गृह्येते। ब्रह्मणा स्वसामर्थ्येन सर्वे पदार्थाः सृष्ट्वा नित्यं भूष्यन्ते तथा तदुत्पादितेन वायुना च। नैव तद्धारणेन विना कस्यापि रक्षणं सम्भवति। प्रेम्णा जीवेन प्रयुक्तां स्तुतिं वाणीं चेश्वरः सर्वगतः प्रतिक्षणं शृणोति। तथा जीवो वायुनिमित्तेनैव शब्दानामुच्चारणां श्रवणं च कर्त्तुं शक्नोतीति॥1॥ पदार्थान्वयभाषा-(दर्शत) हे ज्ञान से देखने योग्य (वायो) अनन्त बलयुक्त, सब के प्राणरूप अन्तर्यामी परमेश्वर! आप हमारे हृदय में (आयाहि) प्रकाशित हूजिये। कैसे आप हैं कि जिन्होंने (इमे) इन प्रत्यक्ष (सोमाः) संसारी पदार्थों को (अरंकृताः) अलंकृत अर्थात् सुशोभित कर रक्खा है। (तेषाम्) आप ही उन पदार्थों के रक्षक हैं, इससे उनकी (पाहि) रक्षा भी कीजिये, और (हवम्) हमारी स्तुति को (श्रुधि) सुनिये। तथा (दर्शत) स्पर्शादि गुणों से देखने योग्य (वायो) सब मूर्तिमान् पदार्थों का आधार और प्राणियों के जीवन का हेतु भौतिक वायु (आयाहि) सब को प्राप्त होता है, फिर जिस भौतिक वायु ने (इमे) प्रत्यक्ष (सोमाः) संसार के पदार्थों को (अरंकृताः) शोभायमान किया है, वही (तेषाम्) उन पदार्थों की (पाहि) रक्षा का हेतु है और (हवम्) जिससे सब प्राणी लोग कहने और सुनने रूप व्यवहार को (श्रुधि) कहते सुनते हैं। आगे ईश्वर और भौतिक वायु के पक्ष में प्रमाण दिखलाते हैं-(प्रवावृजे॰) इस प्रमाण में वायु शब्द से परमेश्वर और भौतिक वायु पुष्टिकारी और जीवों को यथायोग्य कामों में पहुँचाने वाले गुणों से ग्रहण किये गये हैं। (अथातो॰) जो-जो पदार्थ अन्तरिक्ष में हैं, उनमें प्रथमागामी वायु अर्थात् उन पदार्थों में रमण करनेवाला कहाता है, तथा सब जगत् को जानने से वायु शब्द करके परमेश्वर का ग्रहण होता है। तथा मनुष्य लोग वायु से प्राणायाम करके और उनके गुणों के ज्ञान द्वारा परमेश्वर और शिल्पविद्यामय यज्ञ को जान सकता है। इस अर्थ से वायु शब्द करके ईश्वर और भौतिक का ग्रहण होता है। अथवा जो चराचर जगत् में व्याप्त हो रहा है, इस अर्थ से वायु शब्द करके परमेश्वर का तथा जो सब लोकों को परिधिरूप से घेर रहा है, इस अर्थ से भौतिक का ग्रहण होता है, क्योंकि परमेश्वर अन्तर्यामिरूप और भौतिक प्राणरूप से संसार में रहनेवाले हैं। इन्हीं दो अर्थों की कहने वाली वेद की (वायवायाहि॰) यह ऋचा जाननी चाहिये। इसी प्रकार से इस ऋचा का (वायवा याहि दर्शनीये॰) इत्यादि व्याख्यान निरुक्तकार ने भी किया है, सो संस्कृत में देख लेना। वहां भी वायु शब्द से परमेश्वर और भौतिक इन दोनों का ग्रहण है। जैसे-(वायुः सोमस्य॰) वायु अर्थात् परमेश्वर उत्पन्न हुए जगत् की रक्षा करनेवाला और उसमें व्याप्त होकर उसके अंश-अंश के साथ भर रहा है। इस अर्थ से ईश्वर का तथा सोमवल्ली आदि ओषधियों के रस हरने और समुद्रादिकों के जल को ग्रहण करने से भौतिक वायु का ग्रहण जानना चाहिये। (वायुर्वा अ॰) इत्यादि वाक्यों में वायु को अग्नि के अर्थ में भी लिया है। परमेश्वर का उपदेश है कि मैं वायुरूप होकर इस जगत् को आप ही प्रकाश करता हूं, तथा मैं ही अन्तरिक्ष लोक में भौतिक वायु को अग्नि के तुल्य परिपूर्ण और यज्ञादिकों को वायुमण्डल में पहुँचाने वाला हूं॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जैसे परमेश्वर के सामर्थ्य से रचे हुए पदार्थ नित्य ही सुशोभित होते हैं, वैसे ही जो ईश्वर का रचा हुआ भौतिक वायु है, उसकी धारणा से भी सब पदार्थों की रक्षा और शोभा तथा जैसे जीव की प्रेमभक्ति से की हुई स्तुति को सर्वगत ईश्वर प्रतिक्षण सुनता है, वैसे ही भौतिक वायु के निमित्त से भी जीव शब्दों के उच्चारण और श्रवण करने को समर्थ होता है॥1॥ कथमेतौ स्तोतव्यावित्युपदिश्यते। उक्त परमेश्वर और भौतिक वायु किस प्रकार स्तुति करने योग्य हैं, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है- वाय॑ उ॒क्थेभि॑र्जरन्ते॒ त्वामच्छा॑ जरितारः॑। सु॒तसो॑मा अह॒र्विदः॑॥2॥ वायो॒ इति॑। उ॒क्थेभिः॑। ज॒र॒न्ते॒। त्वाम्। अच्छ॑। ज॒रि॒तारः॑। सु॒तऽसो॑माः। अ॒ह॒ऽर्विदः॑॥2॥ पदार्थः—(वायो) अनन्तबलेश्वर! (उक्थेभिः) स्तोत्रैः। अत्र बहुलं छन्दसीति भिसः स्थान ऐसभावः। (जरन्ते) स्तुवन्ति। जरा स्तुतिर्जरतेः स्तुतिकर्मणः। (निरु॰10.8) जरत इत्यर्चतिकर्मा। (निघं॰3.14) (त्वाम्) भवन्तम् (अच्छ) साक्षात्। निपातस्य च। (अष्टा॰6.3.136) इति दीर्घः। (जरितारः) स्तोतारोऽर्चकाश्च (सुतसोमाः) सुता उत्पादिताः सोमा ओषध्यादिरसा विद्यार्थं यैस्ते (अहर्विदः) य अहर्विज्ञानप्रकाशं विन्दन्ति प्राप्नुवन्ति ते। भौतिकवायुग्रहणे ख्ल्वयं विशेषः—(वायो) गमनशीलो विमानादिशिल्पविद्यानिमित्तः पवनः (जरितारः) स्तोतारोऽर्थाद् वायुगुणस्तावका भवन्ति यतस्तद्विद्याप्रकाशितगुणफला सती सर्वोपकाराय स्यात्॥2॥ अन्वयः—हे वायो! अहर्विदः सुतसोमा जरितारो विद्वांस उक्थेभिस्त्वामच्छा जरन्ते॥2॥ भावार्थः—अत्र श्लेषालङ्कारः। अनेन मन्त्रेण वेदादिस्थैः स्तुतिसाधनैः स्तोत्रैः परमार्थव्यवहारविद्यासिद्धये वायुशब्देन परमेश्वर भौतिकयोर्गुणप्रकाशेनोभे विद्ये साक्षात्कर्त्तव्ये इति। अत्रोभयार्थग्रहणे प्रथममन्त्रोक्तानि प्रमाणानि ग्राह्याणि॥2॥ पदार्थः—(वायो) हे अनन्त बलवान् ईश्वर! जो-जो (अहर्विदः) विज्ञानरूप प्रकाश को प्राप्त होने (सुतसोमाः) ओषधि आदि पदार्थों के रस को उत्पन्न करने (जरितारः) स्तुति और सत्कार के करनेवाले विद्वान् लोग हैं, वे (उक्थेभिः) वेदोक्त स्तोत्रों से (त्वाम्) आपको (अच्छ) साक्षात् करने के लिये (जरन्ते) स्तुति करते हैं॥2॥ भावार्थः—यहां श्लेषालङ्कार है। इस मन्त्र से जो वेदादि शास्त्रों में कहे हुए स्तुतियों के निमित्त स्तोत्र हैं, उनसे व्यवहार और परमार्थ विद्या की सिद्धि के लिये परमेश्वर और भौतिक वायु के गुणों का प्रकाश किया गया है। इस मन्त्र में वायु शब्द से परमेश्वर और भौतिक वायु के ग्रहण करने के लिये पहिले मन्त्र में कहे हुए प्रमाण ग्रहण करने चाहियें॥2॥ अथ तेषामुक्थानां श्रवणोच्चारणनिमित्तमुपदिश्यते। पूर्वोक्त स्तोत्रों का जो श्रवण और उच्चारण का निमित्त है, उसका प्रकाश अगले मन्त्र में किया है। वायो॒ तव॑ प्रपृञ्च॒ती धेना॑ जिगाति दा॒शुषे॑। उ॒रू॒ची सोम॑पीतये॥3॥ वायो॒ इति॑। तव॑। प्र॒ऽपृ॒ञ्च॒ती। धेना॑। जि॒गा॒ति॒। दा॒शुषे॑। उ॒रू॒ची। सोम॑ऽपीतये॥3॥ पदार्थः—(वायो) वेदवाणीप्रकाशकेश्वर! (तव) जगदीश्वरस्य (प्रपृञ्चती) प्रकृष्टा चासौ पृञ्चती चार्थसम्बन्धेन सकलविद्यासम्पर्ककारयित्री (धेना) वेदचतुष्टयी वाक्। धेनेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं॰1.11) (जिगाति) प्राप्नोति। जिगातीति गतिकर्मसु पठितम्। (निघं॰2.14) तस्मात्प्राप्त्यर्थो गृह्यते। (दाशुषे) निष्कपटेन विद्यां दात्रे पुरुषार्थिने मनुष्याय (उरूची) बह्वीनां पदार्थविद्यानां ज्ञापिका। उर्विति बहुनामसु पठितम्। (निघं॰3.1) (सोमपीतये) सूयन्ते ये पदार्थास्तेषां पीतिः पानं यस्य तस्मै विदुषे मनुष्याय। अत्र सह सुपेति समासः। भौतिकपक्षे त्वयं विशेषः—(वायो) पवनस्य योगेनैव (तव) अस्य (प्रपृञ्चती) शब्दोच्चारणसाधिका (धेना) वाणी (दाशुषे) शब्दोच्चारणकर्त्रे (उरूची) बह्वर्थज्ञापिका। अन्यत्पूर्ववत्॥3॥ अन्वयः—हे वायो परमेश्वर! भवत्कृपया या तव प्रपृञ्चत्युरूची धेना सा सोमपीतये दाशुषे विदुषे जिगाति। तथा तवास्य वायो प्राणस्य प्रपृञ्चत्युरूची धेना सोमपीतये दाशुषे जीवाय जिगाति॥3॥ भावार्थः—अत्रापि श्लेषालङ्कारः। द्वितीयमन्त्रे यया वेदवाण्या परमेश्वरभौतिकयोर्गुणः प्रकाशितास्तस्याः फलप्राप्ती अस्मिन्मन्त्रे प्रकाशिते स्तः। अर्थात्प्रथमार्थे वेदविद्या द्वितीये वक्तॄणां जीवानां वाङ्निमित्तं च प्रकाश्यत इति॥3॥ पदार्थः—(वायो) हे वेदविद्या के प्रकाश करनेवाले परमेश्वर! (तव) आपकी (प्रपृञ्चती) सब विद्याओं के सम्बन्ध से विज्ञान का प्रकाश कराने, और (उरूची) अनेक विद्याओं के प्रयोजनों को प्राप्त करानेहारी (धेना) चार वेदों की वाणी है, सो (सोमपीतये) जानने योग्य संसारी पदार्थों के निरन्तर विचार करने, तथा (दाशुषे) निष्कपट से प्रीत के साथ विद्या देनेवाले पुरुषार्थी विद्वान् को (जिगाति) प्राप्त होती है। दूसरा अर्थ-(वायो तव) इस भौतिक वायु के योग से जो (प्रपृञ्चती) शब्दोच्चारण श्रवण कराने और (उरूची) अनेक पदार्थों की जाननेवाली (धेना) वाणी है, सो (सोमपीतये) संसारी पदार्थों के पान करने योग्य रस को पीने वा (दाशुषे) शब्दोच्चारण श्रवण करनेवाले पुरुषार्थी विद्वान् को (जिगाति) प्राप्त होती है॥3॥ भावार्थः—यहां भी श्लेषालङ्कार है। दूसरे मन्त्र में जिस वेदवाणी से परमेश्वर और भौतिक वायु के गुण प्रकाश किये हैं, उसका फल और प्राप्ति इस मन्त्र में प्रकाशित की है अर्थात् प्रथम अर्थ से वेदविद्या और दूसरे से जीवों की वाणी का फल और उसकी प्राप्ति का निमित्त प्रकाश किया है॥3॥ अथोक्थप्रकाशितपदार्थानां वृद्धिरक्षणनिमित्तमुपदिश्यते। अब जो स्तोत्रों से प्रकाशित पदार्थ हैं, उनकी वृद्धि और रक्षा के निमित्त का अगले मन्त्र में उपदेश किया है- इन्द्र॑वायू इ॒मे सु॒ता उप॒ प्रयो॑भि॒रा ग॑तम्। इन्द॑वो वामु॒शन्ति॒ हि॥4॥ इन्द्र॑वायू॒ इति॑। इ॒मे। सु॒ताः। उप॑। प्रयः॑ऽभिः। आ। ग॒त॒म्। इन्द॑वः। वा॒म्। उ॒शन्ति॑। हि॥4॥ पदार्थः—(इन्द्रवायू) इमौ प्रत्यक्षौ सूर्य्यपवनौ। इन्द्रे॑ण रोच॒ना दि॒वो दृह्ळानि॑ दृंहि॒तानि॑ च। स्थि॒राणि॒ न प॑रा॒णुदे॑॥(ऋ॰8.14.9) ययेन्द्रेण सूर्य्यलोकेन प्रकाशमानाः किरणा धृताः, एवं च स्वाकर्षणशक्त्या पृथिव्यादीनि भूतानि दृढानि पुष्टानि स्थिराणि कृत्वा दृंहितानि धारितानि सन्ति। न पराणुदे अतो नैव स्वस्वकक्षां विहायेतस्ततो भ्रमणाय समर्थानि भवन्ति। इ॒मे चि॑दिन्द्र॒ रोद॑सी अपा॒रे यत्सं॑गृ॒भ्णा म॑घवन् का॒शिरित्ते॑। (ऋ॰3.30.5) इमे चिदिन्द्र रोदसी रोधसी द्यावापृथिव्यौ विरोधनाद्रोधः (कूलं निरुणद्धि स्रोतः कूलं) रुजतेर्विपरीताल्लोष्टोऽविपर्य्ययेणापारे दूरपारे यत्संगृभ्णासि मघवन् काशिस्ते महान्। अह॒स्तमि॑न्द्र॒ संपि॑ण॒क्कुणा॑रुम्। (ऋ॰3.30.8) अहस्तमिन्द्र कृत्वा संपिण्ढि परिक्वणनं मेघम्। (निरु॰6.1) यतोऽयं सूर्य्यलोको भूमिप्रकाशौ धारितवानस्ति, अत एव पृथिव्यादीनां निरोधं कुर्वन् पृथिव्यां मेघस्य च कूलं स्रोतश्चाकर्षणेन निरुणद्धि। यथा बाहुवेगेनाकाशे प्रतिक्षिप्तो लोष्ठो मृत्तिकाखण्डः पुनर्विपर्य्ययेणाकर्षणाद् भूमिमेवागच्छति, एवं दूरे स्थितानपि पृथिव्यादिलोकान् सूर्य्य एव धारयति। सोऽयं सूर्य्यस्य महानाकर्षः प्रकाशश्चास्ति। तथा वृष्टिनिमित्तोऽप्ययमेवास्ति। इन्द्रो वै त्वष्टा। (ऐ॰6.10) सूर्य्यो भूम्यादिस्थस्य रसस्य मेघस्य च छेत्तास्ति। एतानि भौतिकवायुविषयाणि ‘वायवायाहि॰’ इति मन्त्रप्रोक्तानि प्रमाणान्यत्रापि ग्राह्याणि। (इमे सुताः) प्रत्यक्षभूताः पदार्थाः (उप) समीपम् (प्रयोभिः) तृप्तिकरैरन्नादिभिः पदार्थैः सह। प्रीञ् तर्पणे कान्तौ चेत्यस्मादौणादिकोऽसुन् प्रत्ययः। (आगतम्) आगच्छतः। लोट्मध्यमद्विवचनम्। बहुलं छन्दसीति शपो लुक्। अनुदात्तोपदेशेत्यनुनासिकलोपः। (इन्दवः) जलानि क्रियामया यज्ञाः प्राप्तव्या भोगाश्च। इन्दुरित्युदकनामसु पठितम्। (निघं॰1.12) यज्ञनामसु। (निघं॰3.17) पदनामसु च। (निघं॰5.4) (वाम्) तौ (उशन्ति) प्रकाशन्ते (हि) यतः॥4॥ अन्वयः—इमे सुता इन्दवो हि यतो वान्तौ सहचारिणाविन्द्रवायू प्रकाशन्ते तौ चोपागतमुपागच्छतस्ततः प्रयोभिरन्नादिभिः पदार्थैः सह सर्वे प्राणिनः सुखान्युशन्ति कामयन्ते॥4॥ भावार्थः—अस्मिन्मन्त्रे प्राप्यप्रापकपदार्थानां प्रकाशः कृत इति॥4॥ पदार्थः—(इमे सुताः) जैसे प्रत्यक्ष जलक्रियामय यज्ञ और प्राप्त होने योग्य भोग (इन्द्रवायू) सूर्य्य और पवन के योग से प्रकाशित होते हैं। यहां ‘इन्द्र’ शब्द के लिये ऋग्वेद के मन्त्र का प्रमाण दिखलाते हैं-(इन्द्रेण॰) सूर्य्यलोक ने अपनी प्रकाशमान किरण तथा पृथिवी आदि लोक अपने आकर्षण अर्थात् पदार्थ खैंचने के सामर्थ्य से पुष्टता के साथ स्थिर करके धारण किये हैं कि जिससे वे ‘न पराणुदे’ अपने-अपने भ्रमणचक्र अर्थात् घूमने के मार्ग को छोड़कर इधर-उधर हटके नहीं जा सकते हैं। (इमे चिदिन्द्र॰) सूर्य्य लोक भूमि आदि लोकों को प्रकाश के धारण करने के हेतु से उनका रोकनेवाला है अर्थात् वह अपनी खैंचने की शक्ति से पृथिवी के किनारे और मेघ के जल के स्रोत को रोक रहा है। जैसे आकाश के बीच में फेंका हुआ मिट्टी का डेला पृथिवी की आकर्षण शक्ति से पृथिवी ही पर लौटकर आ पड़ता है, इसी प्रकार दूर भी ठहरे हुए पृथिवी आदि लोकों को सूर्य्य ही ने आकर्षण शक्ति की खैंच से धारण कर रक्खे हैं। इससे यही सूर्य्य बड़ा भारी आकर्षण प्रकाश और वर्षा का निमित्त है। (इन्द्रः॰) यही सूर्य्य भूमि आदि लोकों में ठहरे हुए रस और मेघ को भेदन करनेवाला है। भौतिक वायु के विषय में ‘वायवा याहि॰’ इस मन्त्र की व्याख्या में जो प्रमाण कहे हैं, वे यहां भी जानना चाहिये। अथवा जिस प्रकार सूर्य्य और पवन संसार के पदार्थों को प्राप्त होते हैं वैसे उनके साथ इन निमित्तों करके सब प्राणी अन्न आदि तृप्ति करनेवाले पदार्थों के सुखों की कामना कर रहे हैं। (इन्दवः) जो जलक्रियामय यज्ञ और प्राप्त होने योग्य भोग हैं, वे (हि) जिस कारण से पूर्वोक्त सूर्य्य और पवन के संयोग से (उशन्ति) प्रकाशित होते हैं, इसी कारण (प्रयोभिः) अन्नादि पदार्थों के योग से सब प्राणियों को सुख प्राप्त होता है॥4॥ भावार्थः—इस मन्त्र में परमेश्वर ने प्राप्त होने योग्य और प्राप्त करानेवाला इन दो पदार्थों का प्रकाश किया है॥4॥ एतन्मन्त्रोक्तौ सूर्य्यपवनावीश्वरेण धारितावेतत्कर्मनिमित्ते भवत इत्युपदिश्यते। अब पूर्वोक्त सूर्य्य और पवन, जो कि ईश्वर ने धारण किये हैं, वे किस-किस कर्म की सिद्धि के निमित्त रचे गये हैं, इस विषय का अगले मन्त्र में उपदेश किया है- वाय॒विन्द्र॑श्च चेतथः सु॒तानां॑ वाजिनीवसू। तावा या॑त॒मुप॑ द्र॒वत्॥5॥3॥ वायो॒ इति॑। इन्द्रः॑। च॒। चे॒त॒थः॒। सु॒ताना॑म्। वा॒जि॒नी॒ऽव॒सू इति॑। तौ। आ। या॒त॒म्। उप॑। द्र॒वत्॥5॥ पदार्थः—(वायो) ज्ञानस्वरूपेश्वर! (इन्द्रः) पूर्वोक्तः (च) अनुक्तसमुच्चयार्थे तेन वायुश्च (चेतथः) चेतयतः प्रकाशयित्वा धारयित्वा च संज्ञापयतः। अत्र व्यत्ययः योऽन्तर्गतो ण्यर्थश्च। (सुतानाम्) त्वयोत्पादितान् पदार्थान्। अत्र शेषे षष्ठी। (वाजिनीवसू) उषोवत्प्रकाशवेगयोर्वसतः। वाजिनीत्युषसो नामसु पठितम्। (निघं॰1.8) (तौ) इन्द्रवायू (आयातम्) आगच्छतः। अत्रापि व्यत्ययः। (उप) सामीप्ये (द्रवत्) शीघ्रम्। द्रवदिति क्षिप्रनामसु पठितम्। (निघं॰2.15)॥5॥ अन्वयः—हे वायो ईश्वर! यतो भवद्रचितौ वाजिनीवसू च पूर्वोक्ताविन्द्रवायू सुतानां सुतान् भवदुत्पादितान् पदार्थान् चेतथः संज्ञापयतस्ततस्तान् पदार्थान् द्रवच्छीघ्रमुपायातमुपागच्छतः॥5॥ भावार्थः—यदि परमेश्वर एतौ न रचयेत्तर्हि कथमिमौ स्वकार्य्यकरणे समर्थौ भवत इति॥5॥ इति तृतीयो वर्गः॥ पदार्थः—हे (वायो) ज्ञानस्वरूप ईश्वर! आपके धारण किये हुए (वाजिनीवसू) प्रातःकाल के तुल्य प्रकाशमान (इन्द्रश्च) पूर्वोक्त सूर्य्यलोक और वायु (सुतानाम्) आपके उत्पन्न किये हुए पदार्थों का (चेतथः) धारण और प्रकाश करके उनको जीवों के दृष्टिगोचर करते हैं, इसी कारण वे (द्रवत्) शीघ्रता से (आयातमुप) उन पदार्थों के समीप होते रहते हैं॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में परमेश्वर की सत्ता के अवलम्ब से उक्त इन्द्र और वायु अपने-अपने कार्य्य करने को समर्थ होते हैं, यह वर्णन किया है॥5॥ यह तीसरा वर्ग समाप्त हुआ॥ अथ तयोर्बहिरन्तः कार्य्यमुपदिश्यते। पूर्वोक्त इन्द्र और वायु के शरीर के भीतर और बाहरले कार्य्यों का अगले मन्त्र में उपदेश किया है- वाय॒विन्द्र॑श्च सुन्व॒त आ या॑त॒मुप॑ निष्कृ॒तम्। म॒क्ष्वित्था धि॒या न॑रा॥6॥ वायो॒ इति॑। इन्द्रः॑। च॒। सु॒न्व॒तः। आ। या॒त॒म्। उप॑। निः॒ऽकृ॒तम्। म॒क्षु। इ॒त्था। धि॒या। न॒रा॒॥6॥ पदार्थः—(वायो) सर्वान्तर्यामिन्नीश्वर! (इन्द्रश्च) अन्तरिक्षस्थः सूर्य्यप्रकाशो वायुर्वा। इन्द्रियमिन्द्रलिङ्गमिन्द्रदृष्टमिन्द्रसृष्टमिन्द्रजुष्टमिन्द्रदत्तमिति वा। (अष्टा॰5.2.93) इति सूत्राशयादिन्द्रशब्देन जीवस्यापि ग्रहणम्। प्राणो वै वायुः। (श॰ब्रा॰8.1.7.2) अत्र वायुशब्देन प्राणस्य ग्रहणम्। (सुन्वतः) अभिनिष्पादयतः (आ) समन्तात् (यातम्) प्राप्नुतः। अत्र व्यत्ययः। (उप) सामीप्यम् (निष्कृतम्) कर्मणां फलं च (मक्षु) त्वरितगत्या। मक्ष्विति क्षिप्रनामसु पठितम्। (निघं॰2.15) (इत्था) धारणपालनवृद्धिक्षयहेतुना। था हेतौ च छन्दसि। (अष्टा॰5.2.26) इति थाप्रत्ययः। (धिया) धारणावत्या बुद्ध्या कर्मणा वा। धीरिति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं॰3.9) कर्मनामसु च। (निघं॰2.1) (नरा) नयनकर्त्तारौ। सुपां सुलुगित्याकारादेशः॥6॥ अन्वयः—हे वायो! नरा नराविन्द्रवायू मक्ष्वित्था यथा सुन्वतस्तथा तौ धिया निष्कृतमुपायातमुपायातः॥6॥ भावार्थः—यथाऽत्र ब्रह्माण्डस्थाविन्द्रवायू सर्वप्रकाशकपोषकौ स्तः, एवं शरीरे जीवप्राणावपि, परन्तु सर्वत्रेश्वराधारापेक्षास्तीति॥6॥ पदार्थः—(वायो) हे सब के अन्तर्य्यामी ईश्वर! जैसे आपके धारण किये हुए (नरा) संसार के सब पदार्थों को प्राप्त करानेवाले (इन्द्रश्च) अन्तरिक्ष में स्थित सूर्य्य का प्रकाश और पवन हैं, वैसे ये-‘इन्द्रिय॰’ इस व्याकरण के सूत्र करके इन्द्र शब्द से जीव का, और ‘प्राणो॰’ इस प्रमाण से वायु शब्द करके प्राण का ग्रहण होता है-(मक्षु) शीघ्र गमन से (इत्था) धारण, पालन, वृद्धि और क्षय हेतु से सोम आदि सब ओषधियों के रस को (सुन्वतः) उत्पन्न करते हैं, उसी प्रकार (नरा) शरीर में रहनेवाले जीव और प्राणवायु उस शरीर में सब धातुओं के रस को उत्पन्न करके (इत्था) धारण, पालन, वृद्धि और क्षय हेतु से (मक्षु) सब अङ्गों को शीघ्र प्राप्त होकर (धिया) धारण करनेवाली बुद्धि और कर्मों से (निष्कृतम्) कर्मों के फलों को (आयातमुप) प्राप्त होते हैं॥6॥ भावार्थः—ब्रह्माण्डस्थ सूर्य्य और वायु सब संसारी पदार्थों को बाहर से तथा जीव और प्राण शरीर के भीतर के अङ्ग आदि को सब प्रकाश और पुष्ट करनेवाले हैं, परन्तु ईश्वर के आधार की अपेक्षा सब स्थानों में रहती है॥6॥ पुनरेतौ नामान्तरेणोपदिश्यते। ईश्वर पूर्वोक्त सूर्य्य और वायु को दूसरे नाम से अगले मन्त्र में स्पष्ट करता है- मि॒त्रं हु॑वे पू॒तद॑क्षं॒ वरु॑णं च रि॒शाद॑सम्। धियं॑ घृ॒ताचीं साध॑न्ता॥7॥ मि॒त्रम्। हु॒वे॒। पू॒तऽद॑क्षम्। वरु॑णम्। च॒। रि॒शाद॑सम्। धिय॑म्। घृ॒ताची॑म्। साध॑न्ता॥7॥ पदार्थः—(मित्रम्) सर्वव्यवहारसुखहेतुं ब्रह्माण्डस्थं सूर्य्यं शरीरस्थं प्राणं वा। मित्र इति पदनामसु पठितम्। (निघं॰5.4) अतः प्राप्त्यर्थः। मि॒त्रो जना॑न्यातयति ब्रुवा॒णो मि॒त्रो दा॑धार पृथि॒वीमु॒त द्याम्। मि॒त्रः कृ॒ष्टीरनि॑मिषा॒भिच॑ष्टे मि॒त्राय॑ ह॒व्यं घृ॒तव॑ज्जुहोत॥ (ऋ॰3.59.1) अत्र मित्रशब्देन सूर्य्यस्य ग्रहणम्। प्राणो वै मित्रोऽपानो वरुणः। (श॰ब्रा॰8.2.5.6) अत्र मित्रवरुणशब्दाभ्यां प्राणापानयोर्ग्रहणम्। (हुवे) तन्निमित्तां बाह्याभ्यन्तरपदार्थविद्यामादद्याम्। बहुलं छन्दसीति विकरणाभावो व्यत्ययेनात्मनेपदं लिङर्थे लट् च। (पूतदक्षम्) पूतं पवित्रं दक्षं बलं यस्मिन् तम्। दक्ष इति बलनामसु पठितम्। (निघं॰2.9) (वरुणं च) बहिःस्थं प्राणं शरीरस्थमपानं वा। (रिशादसम्) रिशा रोगाः शत्रवो वा हिंसिता येन तम्। (धियम्) कर्म धारणावतीं बुद्धि वा (घृताचीम्) घृतं जलमञ्चति प्रापयतीति तां क्रियाम्। घृतमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं॰1.12) (साधन्ता) सम्यक् साधयन्तौ। अत्र सुपां सुलुगित्याकारादेशः॥7॥ अन्वयः—अहं शिल्पविद्यां चिकीर्षुर्मनुष्यो यौ घृताचीं धियं साधन्तौ वर्त्तेते तौ पूतदक्षं मित्रं रिशादसं वरुणं च हुवे॥7॥ भावार्थः—अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्यवायुनिमित्तेन समुद्रादिभ्यो जलमुपरि गत्वा तद्वृष्ट्या सर्वस्य वृद्धिरक्षणे भवतः, एवं प्राणापानाभ्यां च शरीरस्य। अतः सर्वैर्मनुष्यैराभ्यां निमित्तीकृताभ्यां व्यवहारविद्यासिद्धेः सर्वोपकारः सदा निष्पादनीय इति॥7॥ पदार्थः—मैं विद्या का चाहने (पूतदक्षम्) पवित्रबल सब सुखों के देने वा (मित्रम्) ब्रह्माण्ड और शरीर में रहनेवाले सूर्य्य-‘मित्रो॰’ इस ऋग्वेद के प्रमाण से मित्र शब्द करके सूर्य्य का ग्रहण है-तथा (रिशादसम्) रोग और शत्रुओं के नाश करने वा (वरुणं च) शरीर के बाहर और भीतर रहनेवाला प्राण और अपानरूप वायु को (हुवे) प्राप्त होऊं अर्थात् बाहर और भीतर के पदार्थ जिस-जिस विद्या के लिये रचे गये हैं, उन सबों को उस-उस के लिये उपयोग करूं॥7॥ भावार्थः—इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। जैसे समुद्र आदि जलस्थलों से सूर्य्य के आकर्षण से वायु द्वारा जल आकाश में उड़कर वर्षा होने से सब की वृद्धि और रक्षा होती है, वैसे ही प्राण और अपान आदि ही से शरीर की रक्षा और वृद्धि होती है। इसलिये मनुष्यों को प्राण अपान आदि वायु के निमित्त से व्यवहार विद्या की सिद्धि करके सब के साथ उपकार करना उचित है॥7॥ केनैतावेतत्कर्म कर्त्तुं समर्थौ भवत इत्युपदिश्यते। किस हेतु से ये दोनों सामर्थ्यवाले हैं, यह विद्या अगले मन्त्र में कही है- ऋ॒तेन॑ मित्रावरुणावृतावृधावृतस्पृशा। क्रतुं॑ बृ॒हन्त॑माशाथे॥8॥ ऋ॒तेन॑। मि॒त्रा॒व॒रु॒णौ॒। ऋ॒त॒ऽवृ॒धौ॒। ऋ॒त॒स्पृशा॒। क्रतु॑म्। बृ॒हन्त॑म्। आ॒शा॒थे॒॥8॥ पदार्थः—(ऋतेन) सत्यस्वरूपेण ब्रह्मणा। ऋतमिति सत्यनामसु पठितम्। (निघं॰3.10) अनेनेश्वरस्य ग्रहणम्। ऋतमित्युदकनामसु च। (निघं॰1.12) (मित्रावरुणौ) पूर्वोक्तौ। देवताद्वन्द्वे च। (अष्टा॰6.3.26) अनेनानङादेशः। (ऋतावृधौ) ऋतं ब्रह्म तेन वर्धयितारौ ज्ञापकौ जलाकर्षणवृष्टिनिमित्ते वा। अत्रान्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (ऋतस्पृशा) ऋतस्य ब्रह्मणो वेदस्य स्पर्शयितारौ प्रापकौ जलस्य च (क्रतुम्) सर्व सङ्गतं संसाराख्यं यज्ञम्। (बृहन्तम्) महान्तम् (आशाथे) व्याप्नुतः। छन्दसि लुङ्लङ्लिटः। (अष्टा॰3.4.6) इति वर्त्तमाने लिट्। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति नुडभावः॥8॥ अन्वयः—ऋतेनोत्पादितावृतावृधावृतस्पृशौ मित्रावरुणौ बृहन्तं क्रतुमाशाथे॥8॥ भावार्थः—ब्रह्मसहचर्य्ययैतौ ब्रह्मज्ञाननिमित्ते जलवृष्टिहेतू भूत्वा सर्वमग्न्यादिमूर्त्तामूर्त्तं जगद्व्याप्य वृद्धिक्षयकर्त्तारौ व्यवहारविद्यासाधकौ च भवत इति॥8॥ पदार्थः—(ऋतेन) सत्यस्वरूप ब्रह्म के नियम में बंधे हुए (ऋतावृधौ) ब्रह्मज्ञान बढ़ाने, जल के खींचने और वर्षाने (ऋतस्पृशा) ब्रह्म की प्राप्ति कराने में निमित्त तथा उचित समय पर जलवृष्टि के करनेवाले (मित्रावरुणौ) पूर्वोक्त मित्र और वरुण (बृहन्तम्) अनेक प्रकार के (क्रतुम्) जगत्रूप यज्ञ को (आशाथे) व्याप्त होते हैं॥8॥ भावार्थः—परमेश्वर के आश्रय से उक्त मित्र और वरुण ब्रह्मज्ञान के निमित्त जल वर्षानेवाले सब मूर्त्तिमान् वा अमूर्तिमान् जगत् को व्याप्त होकर उसकी वृद्धि विनाश और व्यवहारों की सिद्धि करने में हेतु होते हैं॥8॥ इमावस्माकं किं किं धारयत इत्युपदिश्यते। वे हम लोगों के कौन-कौन पदार्थों के धारण कनरेवाले हैं, इस बात का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है- क॒वी नो॑ मि॒त्रावरु॑णा तुविजा॒ता उ॑रु॒क्षया॑। दक्षं॑ दधाते अ॒पस॑म्॥9॥4॥ क॒वी। नः॒। मि॒त्रावरु॑णा। तु॒वि॒ऽजा॒तौ। उ॒रु॒ऽक्षया॑। दक्ष॑म्। द॒धा॒ते॒। अ॒पस॑म्॥9॥ पदार्थः—(कवी) क्रान्तदर्शनौ सर्वव्यवहारदर्शनहेतू। कविः क्रान्तदर्शनो भवति कवतेर्वा। (निरु॰12.13) एतन्निरुक्ताभिप्रायेण कविशब्देन सुखसाधकौ मित्रावरुणौ गृह्येते। (नः) अस्माकम् (मित्रावरुणौ) पूर्वोक्तौ (तुविजातौ) बहुभ्यः कारणेभ्यो बहुषु वोत्पन्नौ प्रसिद्धौ। तुवीति बहुनामसु पठितम्। (निघं॰3.1) (उरुक्षया) बहुषु जगत्पदार्थेषु क्षयो निवासो ययोस्तौ। अत्र सुपां सुलुगित्याकारः। उर्विति बहुनामसु पठितम्। (निघं॰3.1) ‘क्षि निवासगत्योः’ अस्य धातोरधिकरणार्थः क्षयशब्दः। (दक्षम्) बलम् (दधाते) धरतः (अपसम्) कर्म। अप इति कर्मनामसु पठितम्। (निरु॰2.1) व्यत्ययो बहुलमिति लिङ्गव्यत्ययः। इदमपि सायणाचार्य्येण न बुद्धम्॥9॥ अन्वयः—इमौ तुविजातावुरुक्षयौ कवी मित्रावरुणौ नोऽस्माकं दक्षमपसं च दधाते धरतः॥9॥ भावार्थः—ब्रह्माण्डस्थाभ्यां बलकर्मनिमित्ताभ्यामेताभ्यां सर्वेषां पदार्थानां सर्वचेष्टाविद्ययोः पुष्टिधारणे भवत इति॥9॥ आदिमसूक्तोक्तेन शिल्पविद्यादिमुख्यनिमित्तेनाग्निनार्थेन सहचरितानां वाय्विन्द्रमित्रवरुणानां द्वितीय- सूक्तोक्तानामर्थानां सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। इदमपि सूक्तं सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपाख्यदेशनिवासिभिर्विलसनाख्यादिभिश्चान्यथैव व्याख्यातमिति बोध्यम्॥ इति द्वितीयं सूक्तं वर्गश्च चतुर्थः समाप्तः॥ पदार्थः—(तुविजातौ) जो बहुत कारणों से उत्पन्न और बहुतों में प्रसिद्ध (उरुक्षया) संसार के बहुत से पदार्थों में रहनेवाले (कवी) दर्शनादि व्यवहार के हेतु (मित्रावरुणा) पूर्वोक्त मित्र और वरुण हैं, वे (नः) हमारे (दक्षम्) बल तथा सुख वा दुःखयुक्त कर्मों को (दधाते) धारण करते हैं॥9॥ भावार्थः—जो ब्रह्माण्ड में रहनेवाले बल और कर्म के निमित्त पूर्वोक्त मित्र और वरुण हैं, उनसे क्रिया और विद्याओं की पुष्टि तथा धारणा होती है॥9॥ जो प्रथम सूक्त में अग्निशब्दार्थ का कथन किया है, उसके सहायकारी वायु, इन्द्र, मित्र और वरुण के प्रतिपादन करने से प्रथम सूक्तार्थ के साथ इस दूसरे सूक्तार्थ की सङ्गति समझ लेनी। इस सूक्त का अर्थ सायणाचार्य्यादि और विलसन आदि यूरोपदेशवासी लोगों ने अन्यथा कथन किया है॥ यह दूसरा सूक्त और चौथा वर्ग समाप्त हुआ॥

अथास्य द्वादशर्चस्य तृतीयसूक्तस्य मधुच्छन्दा ऋषिः। 1-3 अश्विनौ; 4-6 इन्द्रः; 7-9 विश्वेदेवाः; 10-22 सरस्वती देवताः। 1,3, 5-10, 12 गायत्री; 2 निचृद्गायत्री; 4,11 पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री च छन्दः। षड्जः स्वरः॥ तत्रादावश्विनावुपदिश्येते। अब तृतीय सूक्त का प्रारम्भ करते हैं। इसके आदि के मन्त्र में अग्नि और जल अश्वि नाम से लिया है- अश्वि॑ना॒ यज्व॑री॒रिषो॒ द्रव॑त्पाणी॒ शुभ॑स्पती। पुरु॑भुजा चन॒स्यत॑म्॥1॥ अश्वि॑ना। यज्व॑रीः। इषः॑। द्रव॑त्ऽपाणी। शुभः॑ऽप॒ती॒। पुरु॑ऽभुजा। च॒न॒स्यत॑म्॥1॥ पदार्थः—(अश्विना) जलाग्नी। अत्र सुपामित्याकारादेशः। या सु॒रथा॑ र॒थीत॑मो॒भा दे॒वा दि॑वि॒स्पृशा॑। अ॒श्विना॒ ता ह॑वामहे॥ (ऋ॰1.22.2) न॒हि वा॒मस्ति॑ दूर॒के यत्रा॒ रथे॑न॒ गच्छ॑थः। (ऋ॰1.22.4) वयं यौ सुरथौ शोभना रथा याभ्यां तौ, रथीतमा भूयांसो रथा विद्यन्ते ययोस्तौ रथी, अतिशयेन रथी रथीतमौ देवौ शिल्पविद्यायां दिव्यगुणप्रकाशकौ, दिविस्पृशा विमानादियानैः सूर्य्यप्रकाशयुक्तेऽन्तरिक्षे मनुष्यादीन् स्पर्शयन्तौ, उभा उभौ ता तौ हवामहे गृह्णीमः। यत्र मनुष्या वां तयोरश्विनोः साधिपित्वाचलितयोः सम्बन्धयुक्तेन हि यतो गच्छन्ति तत्र गृहं विद्याधिकरणं दूरं नैव भवतीति यावत्। अथातो द्युस्थाना देवतास्तासामश्विनौ प्रथमागामिनौ भवतोऽश्विनौ यद्ध्यश्नुवाते सर्वं रसेनान्यो ज्योतिषाऽन्योऽश्वैरश्विनावित्यौर्णवाभस्तत्कावश्विनौ द्यावापृथिव्यावित्यकेऽहोरात्रावित्येके सूर्य्याचन्द्रमसावित्येके ..... ... हि मध्यमो ज्योतिर्भाग आदित्यः। (निरु॰12.1) तथाऽश्विनौ चापि भर्त्तारौ जर्भरी भर्त्तारावित्यर्थस्तुर्फरीतु हन्तारौ। (निरु॰13.5) तयोः काल ऊर्ध्वमर्द्धरात्रात् प्रकाशीभावस्यानुविष्टम्भमनु तमो भागः। (निरु॰12.1) (अथातो॰) अत्र द्युस्थानोक्तत्वात् प्रकाशस्थाः प्रकाशयुक्ताः सूर्य्याग्निविद्युदादयो गृह्यन्ते, तत्र यावश्विनौ द्वौ द्वौ सम्प्रयुज्येते यौ च सर्वेषां पदार्थानां मध्ये गमनशीलौ भवतः। तयोर्मध्यादस्मिन् मन्त्रेऽश्विशब्देनाग्निजले गृह्येते। कुतः? यद्यस्माज्जलमश्वैः स्वकीयवेगादिगुणै रसेन सर्वर्ं जगद्व्यश्नुते व्याप्तवदस्ति। तथाऽन्योऽग्निः स्वकीयैः प्रकाशवेगादिभिरश्वैः सर्वं जगद्व्यश्नुते तस्मादग्निजलयोरश्विसंज्ञा जायते। तथैव स्वकीयस्वकीयगुणैर्द्यावापृथिव्यादीनां द्वन्द्वानामप्यश्विसंज्ञा भवतीति विज्ञेयम्। शिल्पविद्याव्यवहारे यानादिषु युक्त्या योजितौ सर्वकलायन्त्रयानधारकौ यन्त्रकलाभिस्ताडितौ चेत्तदाहननेन गमयितारौ च तुर्फरीशब्देन यानेषु शीघ्रं वेगादिगुणप्रापयितारौ भवतः। अश्विनाविति पदनामसु पठितम्। (निघं॰5.6) अनेनापि गमनप्राप्तिनिमित्ते अश्विनौ गृह्येते। (यज्वरीः) शिल्पविद्यासम्पादनहेतून् (इषः) विद्यासिद्धये या इष्यन्ते ताः क्रियाः (द्रवत्पाणी) द्रवच्छीघ्रवेगनिमित्ते पाणी पदार्थविद्याव्यवहारा ययोस्तौ (शुभस्पती) शुभस्य शिल्पकार्य्यप्रकाशस्य पालकौ। ‘शुभ शुंभ दीप्तौ’ एतस्य रूपमिदम्। (पुरुभुजा) पुरूणि बहूनि भुञ्जि भोक्तव्यानि वस्तूनि याभ्यां तौ। पुर्विति बहुनामसु पठितम्। (निघं॰3.1) भुगिति क्विप्प्रत्ययान्तः प्रयोगः। सम्पदादिभ्यः क्विप्। रोगाख्यायां। (अष्टा॰3.3.108) इत्यस्य व्याख्याने। (चनस्यतम्) अन्नवदेतौ सेव्येताम्। चायतेरन्ने ह्रस्वश्च। (उणा॰4.200) अनेनासुन् प्रत्ययान्ताच्च नस्शब्दात् क्यच्प्रत्ययान्तो नामधातोर्लोटि मध्यमस्य द्विवचनेऽयं प्रयोगः॥1॥ अन्वयः—हे विद्वांसो! युष्माभिर्द्रवत्पाणी शुभस्पती पुरुभुजावश्विनौ यज्वरीरिषश्च चनस्यतम्॥1॥ भावार्थः—अत्रेश्वरः शिल्पविद्यासाधनमुपदिशति। यतो मनुष्याः कलायन्त्ररचनेन विमानादियानानि सम्यक् साधयित्वा जगति स्वोपकारपरोपकारनिष्पादनेन सर्वाणि सुखानि प्राप्नुयुः॥1॥ पदार्थः—हे विद्या के चाहनेवाले मनुष्यो! तुम लोग (द्रवत्पाणी) शीघ्र वेग का निमित्त पदार्थविद्या के व्यवहारसिद्धि करने में उत्तम हेतु (शुभस्पती) शुभ गुणों के प्रकाश को पालने और (पुरुभुजा) अनेक खाने-पीने के पदार्थों के देने में उत्तम हेतु (अश्विना) अर्थात् जल और अग्नि तथा (यज्वरीः) शिल्पविद्या का सम्बन्ध करानेवाली (इषः) अपनी चाही हुई अन्न आदि पदार्थों की देने वाली कारीगरी की क्रियाओं को (चनस्यतम्) अन्न के समान अति प्रीति से सेवन किया करो। अब ‘अश्विनी’ शब्द के विषय में निरुक्त आदि के प्रमाण दिखलाते हैं-हम लोग अच्छी अच्छी सवारियों को सिद्ध करने के लिये (अश्विना) पूर्वोक्त जल और अग्नि को कि जिनके गुणों से अनेक सवारियों की सिद्धि होती है, तथा (देवौ) जो कि शिल्पविद्या में अच्छे-अच्छे गुणों के प्रकाशक और सूर्य्य के प्रकाश से अन्तरिक्ष में विमान आदि सवारियों से मनुष्यों को पहुँचानेवाले होते हैं, (ता) उन दोनों को शिल्पविद्या की सिद्धि के लिये ग्रहण करते हैं। मनुष्य लोग जहां-जहां साधे हुए अग्नि और जल के सम्बन्धयुक्त रथों से जाते हैं, वहां सोमविद्यावाले विद्वानों का विद्याप्रकाश निकट ही है। (अथा॰) इस निरुक्त में जो कि द्युस्थान शब्द है, उससे प्रकाश में रहने वाले और प्रकाश से युक्त सूर्य्य अग्नि जल और पृथिवी आदि पदार्थ ग्रहण किये जाते हैं, उन पदार्थों में दो-दो के योग को ‘अश्वि’ कहते हैं, वे सब पदार्थों में प्राप्त होनेवाले हैं, उनमें से यहां अश्वि शब्द करके अग्नि और जल का ग्रहण करना ठीक है, क्योंकि जल अपने वेगादि गुण और रस से तथा अग्नि अपने प्रकाश और वेगादि अश्वों से सब जगत् को व्याप्त होता है। इसी से अग्नि और जल का अश्वि नाम है। इसी प्रकार अपने-अपने गुणों से पृथिवी आदि भी दो-दो पदार्थ मिलकर अश्वि कहाते हैं। जबकि पूर्वोक्त अश्वि धारण और हनन करने के लिये शिल्पविद्या के व्यवहारों अर्थात् कारीगरियों के निमित्त विमान आदि सवारियों में जोड़े जाते हैं, तब सब कलाओं के साथ उन सवारियों के धारण करनेवाले, तथा जब उक्त कलाओं से ताड़ित अर्थात् चलाये जाते हैं, तब अपने चलने से उन सवारियों को चलाने वाले होते हैं, उन अश्वियों को ‘तुर्फरी’ भी कहते हैं, क्योकि तुर्फरी शब्द के अर्थ से वे सवारियों में वेगादि गुणों के देनेवाले समझे जाते हैं। इस प्रकार वे अश्वि कलाघरों में संयुक्त किये हुए जल से परिपूर्ण देखने योग्य महासागर हैं। उनमें अच्छी प्रकार जाने-आने वाली नौका अर्थात् जहाज आदि सवारियों में जो मनुष्य स्थित होते हैं। उनके जाने-आने के लिये होते हैं॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में ईश्वर ने शिल्पविद्या को सिद्ध करने का उपदेश किया है, जिससे मनुष्य लोग कलायुक्त सवारियों को बनाकर संसार में अपना तथा अन्य लोगों के उपकार से सब सुख पावें॥1॥ पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते। फिर वे अश्वि किस प्रकार के हैं, सो उपदेश अगले मन्त्र में किया है- अश्वि॑ना पुरु॑दंससा॒ नरा॒ शवी॑रया धि॒या। धिष्ण्या॒ वन॑तं॒ गिरः॑॥2॥ अश्वि॑ना। पुरु॑ऽदंससा। नरा॑। शवी॑रया। धि॒या। धिष्ण्या॑। वन॑तम्। गिरः॑॥2॥ पदार्थः—(अश्विना) अग्निजले (पुरुदंससा) पुरूणि बहुनि दंसांसि शिल्पविद्यार्थानि कर्माणि याभ्यां तौ। दंस इति कर्मनामसु पठितम्। (निघं॰2.1) (नरा) शिल्पविद्याफलप्रापकौ (धिष्ण्या) यौ यानेषु वेगादीनां तीव्रतासंवपने कर्त्तव्ये धृष्टौ (शवीरया) वेगवत्या। शव गतावित्यस्माद्धातो रन्प्रत्यये टापि च शवीरेति सिद्धम्। (धिया) क्रियया प्रज्ञया वा। धीरिति कर्मप्रज्ञयोर्नामसु वाय्विन्द्रश्चेत्यत्रोक्तम्। (वनतम्) यौ सम्यग्वाणीसेविनौ स्तः। अत्र व्यत्ययः। (गिरः) वाचः॥2॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यूयं यौ पुरुदंससौ नरौ धिष्ण्यावश्विनौ शवीरया धिया गिरो वनतं वाणीसेविनौ स्तः, तौ सेवयत॥2॥ भावार्थः—अत्राप्यग्निजलयोर्गुणानां प्रत्यक्षकरणाय मध्यमपुरुषप्रयोगत्वात् सर्वैः शिल्पिभिस्तौ तीव्रवेगवत्या मेधया पुरुषार्थेन च शिल्पविद्यासिद्धये सम्यक् सेवनीयौ स्तः। ये शिल्पविद्यासिद्धिं चिकीर्षन्ति तैस्तद्विद्या हस्तक्रियाभ्यां सम्यक् प्रसिद्धीकृत्योक्ताभ्यामश्विभ्यामुपयोगः कर्त्तव्य इति। सायणाचार्य्यादिभिर्मध्यमपुरुषस्य निरुक्तोक्तं विशिष्टनियमाभिप्रायमविदित्वाऽस्य मन्त्रस्यार्थोऽन्यथा वर्णितः। तथैव यूरोपवासिभिर्विलसनाख्यादिभिश्चेति॥2॥ पदार्थः—हे विद्वानो! तुम लोग (पुरुदंससा) जिनसे शिल्पविद्या के लिये अनेक कर्म सिद्ध होते हैं (धिष्ण्या) जो कि सवारियों में वेगादिकों की तीव्रता के उत्पन्न करने में प्रबल (नरा) उस विद्या के फल को देनेवाले और (शवीरया) वेग देनेवाली (धिया) क्रिया से कारीगरी में युक्त करने योग्य अग्नि और जल हैं, वे (गिरः) शिल्पविद्यागुणों की बतानेवाली वाणियों को (वनतम्) सेवन करनेवाले हैं, इसलिये इनसे अच्छी प्रकार उपकार लेते रहो॥2॥ भावार्थः—यहां भी अग्नि और जल के गुणों को प्रत्यक्ष दिखाने के लिये मध्यम पुरुष का प्रयोग है। इससे सब कारीगरों को चाहिये कि तीव्र वेग देनेवाली कारीगरी और अपने पुरुषार्थ से शिल्पविद्या की सिद्धि के लिये उक्त अश्वियों की अच्छी प्रकार से योजना करें। जो शिल्पविद्या को सिद्ध करने की इच्छा करते हैं, उन पुरुषों को चाहिये कि विद्या और हस्तक्रिया से उक्त अश्वियों को प्रसिद्ध कर के उन से उपयोग लेवें। सायणाचार्य्य आदि तथा विलसन आदि साहबों ने मध्यम पुरुष के विषय में निरुक्तकार के कहे हुए विशेष अभिप्राय को न जान कर इस मन्त्र के अर्थ का वर्णन अन्यथा किया है॥2॥ पुनस्तावश्विनौ कीदृशावित्युपदिश्यते। फिर भी वे अश्वि किस प्रकार के हैं, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है- दस्रा॑ यु॒वाक॑वः सु॒ता नास॑त्या वृ॒क्तब॑र्हिषः। आ या॑तं रुद्रवर्तनी॥3॥ दस्रा॑। यु॒वाक॑वः। सु॒ताः। नास॑त्या। वृ॒क्तब॑र्हिषः। आ। या॒त॒म्। रु॒द्र॒व॒र्त॒नी॒॥3॥ पदार्थः—(दस्रा) दुःखानामुपक्षयकर्त्तारौ। दसु उपक्षये इत्यस्मादौणादिको रक्प्रत्ययः। (युवाकवः) सम्पादितमिश्रितामिश्रितक्रियाः। यु मिश्रणे अमिश्रणे चेत्यस्माद्धातोरौणादिक आकुः प्रत्ययः। (सुताः) अभिमुख्यतया पदार्थविद्यासारनिष्पादिनः। अत्र बाहुलकात्कर्तृकारक औणादिकः क्तप्रत्ययः। (नासत्या) न विद्यतेऽसत्यं कर्मगुणो वा ययोस्तौ। नभ्राण्नपान्नवेदा॰। (अष्टा॰6.3.75) नासत्यौ चाश्विनौ सत्यावेव नासत्यावित्यौर्णवाभः सत्यस्य प्रणेतारावित्याग्रायणः। (निरु॰6.13) (वृक्तबर्हिषः) शिल्पफलनिष्पादिन ऋत्विजः। वृक्तबर्हिष इति ऋत्विङ्नामसु पठितम्। (निघं॰3.18) (आ) समन्तात् (यातम्) गच्छतो गमयतः। अत्र व्यत्ययः, अन्तर्गतो ण्यर्थश्च। (रुद्रवर्त्तनी) रुद्रस्य प्राणस्य वर्त्तनिर्मार्गो ययोस्तौ॥3॥ अन्वयः—हे सुता युवाकवो वृक्तबर्हिषो विद्वांसः शिल्पविद्याविदो भवन्तो यौ रुद्रवर्त्तनी दस्रौ नासत्यौ पूर्वोक्तावश्विनावायातं समन्ताद् यानानि गमयतस्तौ यदा यूयं साधयिष्यथ तदोत्तमानि सुखानि प्राप्स्यथ॥3॥ भावार्थः—परमेश्वरो मनुष्यानुपदिशति- युष्माभिः सर्वसुखशिल्पविद्यासिद्ध्या दुःखविनाशायाग्नि- जलयोर्यथावदुपयोगः कर्त्तव्य इति॥3॥ पदार्थः—हे (युवाकवः) एक दूसरी से मिली वा पृथक् क्रियाओं को सिद्ध करने (सुताः) पदार्थविद्या के सार को सिद्ध करके प्रकट करने (वृक्तबर्हिषः) उसके फल को दिखानेवाले विद्वान् लोगो! (रुद्रवर्त्तनी) जिनका प्राणमार्ग है, वे (दस्रा) दुःखों के नाश करनेवाले (नासत्या) जिनमें एक भी गुण मिथ्या नहीं (आयातम्) जो अनेक प्रकार के व्यवहारों को प्राप्त करानेवाले हैं, उन पूर्वोक्त अश्वियों को जब विद्या से उपकार में ले आओगे उस समय तुम उत्तम सुखों को प्राप्त होगे॥3॥ भावार्थः—परमेश्वर मनुष्यों को उपदेश करता है कि-हे मनुष्य लोगो! तुमको सब सुखों की सिद्धि से दुःखों के विनाश के लिये शिल्पविद्या में अग्नि और जल का यथावत् उपयोग करना चाहिये॥3॥ इदानीमेतद्विद्योपयोगिनाविन्द्रशब्देनेश्वरसूर्य्यावुपदिश्येते। परमेश्वर ने अगले मन्त्र में इन्द्र शब्द से अपना और सूर्य्य का उपदेश किया है- इन्द्राया॑हि चित्रभानो सु॒ता इ॒मे त्वा॒यवः॑। अण्वी॑भि॒स्तना॑ पू॒तासः॑॥4॥ इन्द्र॑। आ। या॒हि॒। चि॒त्र॒भा॒नो॒। सु॒ताः। इमे। त्वा॒यवः॑। अण्वी॑भिः। तना॑। पू॒तासः॑॥4॥ पदार्थः—(इन्द्र) परमेश्वर सूर्य्यो वा। अत्राह यास्काचार्य्यः—इन्द्र इरां दृणातीति वेरां ददातीति वेरां दधातीति वेरां दारयत इति वेरां धारयत इति वेन्दवे द्रवतीति वेन्दौ रमत इति वेन्धे भूतानीति वा। तद्यदेनं प्राणैः समैन्धँस्तदिन्द्रस्येन्द्रत्वमिति विज्ञायते। इदं करणादित्याग्रायण इदं दर्शनादित्यौपमन्यव इन्दतेर्वैश्वर्य्यकर्मण इदञ्छत्रूणां दारयिता वा द्रावयिता वा दारयिता च यज्वनाम्। (निरु॰10.8) इन्द्राय साम गायत नेन्द्रादृते पवते धाम किंचनेन्द्रस्य नु वीर्य्याणि प्रवोचमिन्द्रे कामा अयंसत। (निरु॰7.2) इराशब्देनान्नं पृथिव्यादिकमुच्यते। तद्दारणात्तद्दानात्तद्धारणात्। चन्द्रलोकस्य प्रकाशाय द्रवणात्तत्र रमणादित्यर्थेनेन्द्रशब्दात् सूर्य्यलोको गृह्यते। तथा सर्वेषां भूतानां प्रकाशनात् प्राणैर्जीवस्योपकरणादस्य सर्वस्य जगत उत्पादनाद् दर्शनहेतोश्च सर्वैश्वर्य्ययोगाद् दुष्टानां शत्रूणां विनाशकाद् दूरे गमकत्वाद् यज्वनां रक्षकत्वाच्चेत्यर्थादिन्द्रशब्देनेश्वरस्य ग्रहणम्। एवं परमेश्वराद्विना किञ्चिदपि वस्तु न पवते। तथा सूर्य्याकर्षणेन विना कश्चिदपि लोको नैव चलति तिष्ठति वा। प्र तु॑विद्यु॒म्नस्य॒ स्थवि॑रस्य॒ घृष्वे॑र्दि॒वो र॑रप्शे महि॒मा पृ॑थि॒व्याः। नास्य॒ शत्रु॒र्न प्र॑ति॒मान॑मस्ति॒ न प्र॑ति॒ष्ठिः पु॑रुमा॒यस्य॒ सह्योः॑॥ (ऋ॰6.18.12) यस्यायं महाप्रकाशस्य वृद्धस्य सर्वपदार्थानां जगदुत्पत्तौ सङ्घर्षकर्त्तुः सहनशीलस्य बहुपदार्थनिर्मातुरिन्द्रस्य परमैश्वर्य्यवतः परमेश्वरस्य सूर्य्यलोकस्य सृष्टेर्मध्ये महिमा प्रकाशते तस्यास्य न कश्चिच्छत्रुः, न किञ्चित्परिमाणसाधनमर्थादुपमानं नैकत्राधिकरणं चास्ति, इत्यनेनोभावर्थौ गृह्येते। (आयाहि) समन्तात्प्राप्तो भव भवति वा (चित्रभानो) चित्रा आश्चर्यभूता भानवो दीप्तयो यस्य सः (सुताः) उत्पन्ना मूर्त्तिमन्तः पदार्थाः (इमे) विद्यमानाः (त्वायवः) त्वां तं वोपेताः। छन्दसीणः। (उणा॰1.2) इत्यौणादिके उण्प्रत्यये कृते आयुरिति सिध्यति। त्वदित्यत्र छान्दसो वर्णलोपो वेत्यनेन तकारलोपः। (अण्वीभिः) कारणैः, प्रकाशावयवैः किरणैरङ्गुलिभिर्वा। वोतो गुणवचनात्। (अष्टा॰4.1.44) अनेन ङीषि प्राप्ते व्यत्ययेन ङीन्। (तना) विस्तृतधनप्रदाः। तनेति धननामसु पठितम्। (निरु॰2.10) अत्र सुपां सुलुगित्यनेनाकारादेशः। (पूतासः) शुद्धाः शोधिताश्च॥4॥ अन्वयः—हे चित्रभानो इन्द्र परमेश्वर! त्वमस्मानायाहि कृपया प्राप्नुहि, येन भवता इमे अण्वीभिस्तना पुष्कलद्रव्यदाः पूतासस्त्वायवः सुता उत्पादिता पदार्था वर्त्तन्ते तैर्गृहीतोपकारानस्मान्सम्पादय। तथा योऽयमिन्द्रः स्वगुणैः सर्वान् पदार्थानायाति प्राप्नोति तेनेमे अण्वीभिः किरणकारणावयवैस्तना विस्तृतप्राप्तिहेतवस्त्वायवस्तन्निमित्तप्राप्तायुषः पूतासः सुताः संसारस्थाः पदार्थाः प्रकाशयुक्ताः क्रियन्ते तैरिति पूर्ववत्॥4॥ भावार्थः—अत्र श्लेषालङ्कारेणेश्वरस्य सूर्य्यस्य वा यानि कर्माणि प्रकाश्यन्ते तानि परमार्थव्यवहारसिद्धये मनुष्यैः समुपयोक्तव्यानि सन्तीति॥4॥ पदार्थः—(चित्रभानो) हे आश्चर्य्यप्रकाशयुक्त (इन्द्र) परमेश्वर! आप हमको कृपा करके प्राप्त हूजिये। कैसे आप हैं कि जिन्होंने (अण्वीभिः) कारणों के भागों से (तना) सब संसार में विस्तृत (पूतासः) पवित्र और (त्वायवः) आपके उत्पन्न किये हुए व्यवहारों से युक्त (सुताः) उत्पन्न हुए मूर्तिमान् पदार्थ उत्पन्न किये हैं, हम लोग जिनसे उपकार लेनेवाले होते हैं, इससे हम लोग आप ही के शरणागत हैं। दूसरा अर्थ-जो सूर्य्य अपने गुणों से सब पदार्थों को प्राप्त होता है, वह (अण्वीभिः) अपनी किरणों से (तना) संसार में विस्तृत (त्वायवः) उसके निमित्त से जीनेवाले (पूतासः) पवित्र (सुताः) संसार के पदार्थ हैं, वही इन उनको प्रकाशयुक्त करता है॥4॥ भावार्थः—यहां श्लेषालङ्कार समझना। जो-जो इस मन्त्र में परमेश्वर और सूर्य्य के गुण और कर्म प्रकाशित किये गये हैं, इनसे परमार्थ और व्यवहार की सिद्धि के लिये अच्छी प्रकार उपयोग लेना सब मनुष्यों को योग्य है॥4॥ अथेन्द्रशब्देनेश्वर उपदिश्यते। ईश्वर ने अगले मन्त्र में अपना प्रकाश किया है- इन्द्राया॑हि धि॒येषि॒तो विप्र॑जूतः सु॒ताव॑तः। उप॒ ब्रह्मा॑णि वा॒घतः॑॥5॥ इन्द्र॑। आ। या॒हि॒। धि॒या। इ॒षि॒तः। विप्र॑ऽजूतः। सु॒तऽव॑तः। उप॑। ब्रह्मा॑णि। वा॒घतः॑॥5॥ पदार्थः—(इन्द्र) परमेश्वर! (आयाहि) प्राप्तो भव (धिया) प्रकृष्टज्ञानयुक्त्या बुद्ध्योत्तमकर्मणा वा (इषितः) प्रापयितव्यः (विप्रजूतः) विप्रैर्मेधाविभिर्विद्वद्भिर्ज्ञातः। विप्र इति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं॰3.15) (सुतावतः) प्राप्तपदार्थविद्यान् (उप) सामीप्ये (ब्रह्माणि) विज्ञातवेदार्थान् ब्राह्मणान्। ब्रह्म वै ब्राह्मणः। (श॰ब्रा॰13.1.5.3) (वाघतः) यज्ञविद्यानुष्ठानेन सुखसम्पादिन ऋत्विजः। वाघत इति ऋत्विङ्नामसु पठितम्। (निघं॰3.18)॥5॥ अन्वयः—हे इन्द्र! धियेषितः विप्रजूतस्त्वं सुतावतो ब्रह्माणि वाघतो विदुष उपायाहि॥5॥ भावार्थः—मनुष्यैर्मूलकारणस्येश्वरस्य संस्कृतया बुद्ध्या विज्ञानतः साक्षात्प्राप्तिः कार्य्या। नैवं विनाऽयं केनचिन्मनुष्येण प्राप्तुं शक्य इति॥5॥ पदार्थः—(इन्द्र) हे परमेश्वर! (धिया) निरन्तर ज्ञानयुक्त बुद्धि वा उत्तम कर्म से (इषितः) प्राप्त होने और (विप्रजूतः) बुद्धिमान् विद्वान् लोगों के जानने योग्य आप (ब्रह्माणि) ब्राह्मण अर्थात् जिन्होंने वेदों का अर्थ और (सुतावतः) विद्या के पदार्थ जाने हों, तथा (वाघतः) जो यज्ञविद्या के अनुष्ठान से सुख उत्पन्न करनेवाले हों, इन सबों को कृपा से (उपायाहि) प्राप्त हूजिये॥5॥ भावार्थः—सब मनुष्यों को उचित है कि जो सब कार्य्यजगत् की उत्पत्ति करने में आदिकारण परमेश्वर है, उसको शुद्ध बुद्धि विज्ञान से साक्षात् करना चाहिये॥5॥ अथेन्द्रशब्देन वायुरुपदिश्यते। ईश्वर ने अगले मन्त्र में भौतिक वायु का उपदेश किया है- इन्द्राया॑हि॒ तूतु॑जान॒ उप॒ ब्रह्मा॑णि हरिवः। सु॒ते द॑धिष्व न॒श्चनः॑॥6॥5॥ इन्द्र॑। आ। या॒हि॒। तूतु॑जानः। उप॑। ब्रह्मा॑णि। ह॒रि॒वः॒। सु॒ते। द॒धि॒ष्व॒। नः॒। चनः॑॥6॥ पदार्थः—(इन्द्र) अयं वायुः। विश्वे॑भिः सो॒म्यं मध्वग्न॒ इन्द्रे॑ण वा॒युना॑। (ऋ॰1.15.10) अनेन प्रमाणेनेन्द्रशब्देन वायुर्गृह्यते। (आ) समन्तात् (याहि) याति समन्तात् प्रापयति (तूतुजानः) त्वरमाणः। तूतुजान इति क्षिप्रनामसु पठितम्। (निघं॰2.15) (उप) सामीप्यम् (ब्रह्माणि) वेदस्थानि स्तोत्राणि (हरिवः) वेगाद्यश्ववान्। हरयो हरणनिमित्ताः प्रशस्ताः किरणा विद्यन्ते यस्य सः। अत्र प्रशंसायां मतुप्। मतुवसो रुः सम्बुद्धौ छन्दसीत्यनेन रुत्वविसर्जनीयौ। छन्दसीरः इत्यनेन वत्वम्। हरी इन्द्रस्य। (निघं॰1.15) (सुते) आभिमुख्यतयोत्पन्नौ वाग्व्यवहारौ (दधिष्व) दधते (नः) अस्मभ्यमस्माकं वा (चनः) अन्नभोजनादिव्यवहारम्॥6॥ अन्वयः—यो हरिवो वेगवान् तूतुजान इन्द्रो वायुः सुते ब्रह्माण्यायाहि समन्तात् प्राप्नोति स एव चनो दधिष्व दधते॥6॥ भावार्थः—मनुष्यैरयं वायुः शरीरस्थः प्राणः सर्वचेष्टानिमित्तोऽन्नपानादानयाचनविसर्जनधातु- विभागाभिसरणहेतुर्भूत्वा पुष्टिवृद्धिक्षयकरोऽस्तीति बोध्यम्॥6॥ इति पञ्चमो वर्गः॥ पदार्थः—(हरिवः) जो वेगादिगुणयुक्त (तूतुजानः) शीघ्र चलनेवाला (इन्द्र) भौतिक वायु है, वह (सुते) प्रत्यक्ष उत्पन्न वाणी के व्यवहार में (नः) हमारे लिये (ब्रह्माणि) वेद के स्तोत्रों को (आयाहि) अच्छी प्रकार प्राप्त करता है, तथा वह (नः) हम लोगों के (चनः) अन्नादि व्यवहार को (दधिष्व) धारण करता है॥6॥ भावार्थः—जो शरीरस्थ प्राण है वह सब क्रिया का निमित्त होकर खाना पीना पकाना ग्रहण करना और त्यागना आदि क्रियाओं से कर्म का कराने तथा शरीर में रुधिर आदि धातुओं के विभागों को जगह-जगह में पहुँचानेवाला है, क्योंकि वही शरीर आदि की पुष्टि वृद्धि और नाश का हेतु है॥6॥ यह पाँचवां वर्ग समाप्त हुआ॥ अथेश्वरः प्राणिनां मध्ये ये विद्वांसः सन्ति तेषां कर्त्तव्यलक्षणे उपदिशति। ईश्वर ने अगले मन्त्र में विद्वानों के लक्षण और आचरणों का प्रकाश किया है- ओमा॑सश्चर्षणीधृतो॒ विश्वे॑ देवास॒ आ ग॑त। दा॒श्वांसो॑ दा॒शुषः॑ सु॒तम्॥7॥ ओमा॑सः। च॒र्ष॒णि॒ऽधृ॒तः॒। विश्वे॑। दे॒वा॒सः॒। आ। ग॒त॒। दा॒श्वांसः। दा॒शुषः॑। सु॒तम्॥7॥ पदार्थः—(ओमासः) रक्षका ज्ञानिनो विद्याकामा उपदेशप्रीतयो विज्ञानतृप्तयो याथातथ्यावगमाः शुभगुणप्रवेशाः सर्वविद्याश्राविणः परमेश्वरप्राप्तौ व्यवहारे च पुरुषार्थिनः शुभविद्यागुणयाचिनः क्रियावन्तः सर्वोपकारमिच्छुका विज्ञाने प्रशस्ता आप्ताः सर्वशुभगुणालिङ्गिनो दुष्टगुणहिंसकाः शुभगुणदातारः सौभाग्यवन्तो ज्ञानवृद्धाः। अव रक्षणगतिकान्तिप्रीतितृप्त्यवगमप्रवेशश्रवणस्वाम्यर्थयाचनक्रियेच्छादीत्य- वाप्त्यालिङ्गनहिंसादानभागवृद्धिषु। अविसिविसिशुषिभ्यः कित् इत्यनेनौणादिकेन सूत्रेणावधातोरोम् शब्दः सिध्यति। ओमास इति पदनामसु पठितम्। (निघं॰4.3) (चर्षणीधृतः) सत्योपदेशेन मनुष्येभ्यः सुखस्य धर्तारः। चर्षणय इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं॰2.3) (विश्वेदेवासः) देवा दीव्यन्ति विश्वे सर्वे च ते देवा विद्वांसश्च ते। विश्वेदेवा इति पदनामसु पठितम्। (निघं॰5.6) (आ गत) समन्तात् गमयत। इत्यत्र गमधातोर्ज्ञानार्थः प्रयोगः (दाश्वांसः) सर्वस्याभयदातारः। दाश्वान् साह्वान् मीढ्वांश्च। (अष्टा॰6.1.12) अनेनायं दानार्थाद्दाशेः क्वसुप्रत्ययान्तो निपातितः। (दाशुषः) दातुः (सुतम्) यत्सोमादिकं ग्रहीतुं विज्ञानं प्रकाशयितुं चाभीष्टं वस्तु। निरुक्तकार एनं मन्त्रमेवं समाचष्टे-अवितारो वाऽवनीया वा मनुष्यधृतः सर्वे च देवा इहागच्छत, दत्तवन्तो दत्तवतः सुतमिति। तदेतदेकमेव वैश्वदेवं गायत्रं तृचं दशतयीषु विद्यते। यत्तु किंचिद्बहुदैवतं तद्वैश्वदेवानां स्थाने युज्यते, यदेव विश्वलिङ्गमिति शाकपूणिरनत्यन्तगतस्त्वेष उद्देशो भवति बभ्रुरेक इति दश द्विपदा अलिङ्गाभूतांशः काश्यप आश्विनमेकलिङ्गमभितष्टीयं सूक्तमेकलिङ्गम्। (निरु॰12.40) अत्र रक्षाकर्त्तारः सर्वै रक्षणीयाश्च सर्वे विद्वांसः सन्ति, ते च सर्वेभ्यो विद्याविज्ञानं दत्तवन्तो भवन्त्विति॥7॥ अन्वयः—हे ओमासश्चर्षणीधृतो दाश्वांसो विश्वेदेवासः सर्वे विद्वांसो दाशुषः सुतमागत समन्तादागच्छत॥7॥ भावार्थः—ईश्वरो विदुषः प्रत्याज्ञां ददाति-यूयमेकत्र विद्यालये चेतस्ततो वा भ्रमणं कुर्वन्तः सन्तोऽज्ञानिनो जनान् विदुषः सम्पादयत। यतः सर्वे मनुष्या विद्याधर्मसुशिक्षासत्क्रियावन्तो भूत्वा सदैव सुखिनः स्युरिति॥7॥ पदार्थः—(ओमासः) जो अपने गुणों से संसार के जीवों की रक्षा करने, ज्ञान से परिपूर्ण, विद्या और उपदेश में प्रीति रखने, विज्ञान से तृप्त, यथार्थ निश्चययुक्त, शुभगुणों को देने और सब विद्याओं को सुनाने, परमेश्वर के जानने के लिये पुरुषार्थी, श्रेष्ठ विद्या के गुणों की इच्छा से दुष्ट गुणों के नाश करने, अत्यन्त ज्ञानवान् (चर्षणीधृतः) सत्य उपदेश से मनुष्यों के सुख के धारण करने और कराने (दाश्वांसः) अपने शुभ गुणों से सबको निर्भय करनेहारे (विश्वदेवासः) सब विद्वान् लोग हैं, वे (दाशुषः) सज्जन मनुष्यों के सामने (सुतम्) सोम आदि पदार्थ और विज्ञान का प्रकाश (आ गत) नित्य करते रहें॥7॥ भावार्थः—ईश्वर विद्वानों को आज्ञा देता है कि-तुम लोग एक जगह पाठशाला में अथवा इधर-उधर देशदेशान्तरों में भ्रमते हुए अज्ञानी पुरुषों को विद्यारूपी ज्ञान देके विद्वान् किया करो, कि जिससे सब मनुष्य लोग विद्या धर्म और श्रेष्ठ शिक्षायुक्त होके अच्छे-अच्छे कर्मों से युक्त होकर सदा सुखी रहें॥7॥ पुनस्तानेवोपदिशति। ईश्वर ने फिर भी उन्हीं विद्वानों का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है- विश्वे॑ दे॒वासो॑ अ॒प्तुरः॑ सु॒तमाग॑न्त॒ तूर्ण॑यः। उ॒स्रा इ॑व॒ स्वस॑राणि॥8॥ विश्वे॑। दे॒वासः॑। अ॒प्तुरः॑। सु॒तम्। आ। ग॒न्त॒। तूर्ण॑यः। उ॒स्राःऽइ॑व। स्वस॑राणि॥8॥ पदार्थः—(विश्वे) समस्ताः (देवासः) विद्यावन्तः (अप्तुरः) मनुष्याणामपः प्राणान् तुतुरति विद्यादिबलानि प्राप्नुवन्ति प्रापयन्ति च ते। अयं शीघ्रार्थस्य तुरेः क्विबन्तः प्रयोगः। (सुतम्) अन्तःकरणाभिगतं विज्ञानं कर्तुम् (आगन्त) आगच्छत। अयं गमेर्लोटो मध्यमबहुवचने प्रयोगः। बहुलं छन्दसि। (अष्टा॰2.4.73) इत्यनेन शपो लुकि कृते तप्तनप्तनथनाश्च। (अष्टा॰7.1.45) इति तबादेशे पित्वादनुनासिकलोपाभावः। (तूर्णयः) सर्वत्र विद्यां प्रकाशयितुं त्वरमाणाः। ञित्वरा सम्भ्रमे इत्यस्मात् वहिश्रिश्रुयुद्रुग्लाहात्वरिभ्यो नित्। (उणा॰4.53) अत्र नेरनुवर्त्तनात्तूर्णिरिति सिद्धम्। (उस्रा इव) सूर्य्यकिरणा इव। उस्रा इति रश्मिनामसु पठितम्। (निरु॰1.5) (स्वसराणि) अहानि। स्वसराणीत्यहर्नामसु पठितम्। (निरु॰1.9)॥8॥ अन्वयः—हे अप्तुरस्तूर्णयो विश्वेदेवा यूयं स्वसराणि प्रकाशयितुं उस्राः किरणा इव सुतं कर्मोपासनाज्ञानरूपं व्यवहारं प्रकाशयितुमागन्त नित्यमागच्छत समन्तात्प्राप्नुत॥8॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। ईश्वरेणैतन्मन्त्रेणेयमाज्ञा दत्ता-हे सर्वे विद्वांसो नैव युष्माभिः कदाचिदपि विद्यादिशुभगुणप्रकाशकरणे विलम्बालस्ये कर्त्तव्ये। यथा दिवसे सर्वे मूर्तिमन्तः पदार्थाः प्रकाशिता भवन्ति तथैव युष्माभिरपि सर्वे विद्याविषयाः सदैव प्रकाशिता कार्य्या इति॥8॥ पदार्थः—हे (अप्तुरः) मनुष्यों को शरीर और विद्या आदि का बल देने, और (तूर्णयः) उस विद्या आदि के प्रकाश करने में शीघ्रता करनेवाले (विश्वेदेवासः) सब विद्वान् लोगो! जैसे (स्वसराणि) दिनों को प्रकाश करने के लिये (उस्रा इव) सूर्य्य की किरण आती-जाती हैं, वैसे ही तुम भी मनुष्यों के समीप (सुतम्) कर्म, उपासना और ज्ञान को प्रकाश करने के लिये (आगन्त) नित्य आया-जाया करो॥8॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। ईश्वर ने जो आज्ञा दी है, इसको सब विद्वान् निश्चय करके जान लेवें कि विद्या आदि शुभगुणों के प्रकाश करने में किसी को कभी थोड़ा भी विलम्ब वा आलस्य करना योग्य नहीं है। जैसे दिन की निकासी में सूर्य्य सब मूर्त्तिमान् पदार्थों का प्रकाश करता है, वैसे ही विद्वान् लोगों को भी विद्या के विषयों का प्रकाश सदा करना चाहिये॥8॥ एते कीदृशस्वभावा भूत्वा किं सेवेरन्नित्युपदिश्यते। विद्वान् लोग कैसे स्वभाववाले होकर कैसे कर्मों को सेवें, इस विषय को ईश्वर ने अगले मन्त्र में दिखाया है- विश्वे॑ दे॒वासो॑ अ॒स्रिध॒ एहि॑मायासो अ॒द्रुहः॑। मेधं॑ जुषन्त॒ वह्न॑यः॥9॥ विश्वे॑। दे॒वासः॑। अ॒स्रिधः॑। एहि॑ऽमायासः। अ॒द्रुहः॑। मेध॑म्। जु॒ष॒न्त॒। वह्न॑यः॥9॥ पदार्थः—(विश्वे) समस्ताः (देवासः) वेदपारगाः (अस्रिधः) अक्षयविज्ञानवन्तः। क्षयार्थस्य नञ्पूर्वकस्य स्रिधेः क्विबन्तस्य रूपम्। (एहिमायासः) आसमन्ताच्चेष्टायां प्रज्ञा येषां ते। चेष्टार्थस्याङ्पूर्वस्य ईहधातोः सर्वधातुभ्य इन्। (उणा॰4.119) इतीन्प्रत्ययान्तं रूपम्। मायेति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं॰3.9) (अद्रुहः) द्रोहरहिताः (मेधम्) ज्ञानक्रियामयं शुद्धं यज्ञं सर्वैर्विद्वद्भिः शुभैर्गुणैः कर्मभिर्वा सह सङ्गमम्। मेध इति यज्ञनामसु पठितम्। (निघं॰3.17) (जुषन्त) प्रीत्या सेवध्वम्। (वह्नयः) सुखस्य वोढारः। अयं वहेर्निप्रत्ययान्तः प्रयोगः वह्नयो वोढारः। (निरु॰8.3)॥9॥ अन्वयः—हे एहिमायासोऽस्रिधोऽद्रुहो वह्नयो विश्वेदेवासो भवन्तो ज्ञानक्रियाभ्यां मेधं सेधनीयं यज्ञं जुषन्त॥9॥ भावार्थः—ईश्वर आज्ञापयति-भो विद्वांसः! परक्षयद्रोहरहिता विशालविद्यया क्रियावन्तो भूत्वा सर्वेभ्यो मनुष्येभ्यो विद्यासुखयोः सदा दातारो भवन्त्विति॥9॥ पदार्थः—(एहिमायासः) हे क्रिया में बुद्धि रखनेवाले (अस्रिधः) दृढ़ ज्ञान से परिपूर्ण (अद्रुहः) द्रोहरहित (वह्नयः) संसार को सुख पहुँचानेवाले (विश्वे) सब (देवासः) विद्वान् लोगो! तुम (मेधम्) ज्ञान और क्रिया से सिद्ध करने योग्य यज्ञ को प्रीतिपूर्वक यथावत् सेवन किया करो॥9॥ भावार्थः—ईश्वर आज्ञा देता है कि-हे विद्वान् लोगो! तुम दूसरे के विनाश और द्रोह से रहित तथा अच्छी विद्या से क्रियावाले होकर सब मनुष्यों को सदा विद्या से सुख देते रहो॥9॥ तैः कीदृशी वाक् प्राप्तमेष्टव्येत्युपदिश्यते। विद्वानों को किस प्रकार की वाणी की इच्छा करनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में ईश्वर ने कहा है- पा॒व॒का नः॒ सर॑स्वती॒ वाजे॑भिर्वा॒जिनी॑वती। य॒ज्ञं व॑ष्टु धि॒याव॑सुः॥10॥ पा॒व॒का। नः॒। सर॑स्वती। वाजे॑भिः। वा॒जिनी॑ऽवती। य॒ज्ञम्। व॒ष्टु॒। धि॒याऽव॑सुः॥10॥ पदार्थः—(पावका) पावं पवित्रकारकं व्यवहारं काययति शब्दयति या सा। ‘पूञ् पवने’ इत्यस्माद्भावार्थे घञ्। तस्मिन् सति ‘कै शब्दे’ इत्यस्मात् आतोऽनुपसर्गे कः। (अष्टा॰3.2.3) उपपदमतिङ्। (अष्टा॰2.2.19) इति समासः। (नः) अस्माकम् (सरस्वती) सरसः प्रशंसिता ज्ञानादयो गुणा विद्यन्ते यस्यां सा सर्वविद्याप्रापिका वाक्। सर्वधातुभ्योऽसुन्। (उणा॰4.189) अनेन गत्यर्थात् सृधातोरसुन्प्रत्ययः। सरन्ति प्राप्नुवन्ति सर्वा विद्या येन तत्सरः। अस्मात्प्रशंसायां मतुप्। सरस्वतीति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं॰1.11) (वाजेभिः) सर्वविद्याप्राप्ति-निमित्तैरन्नादिभिः सह। वाज इत्यन्ननामसु पठितम्। (निरु॰2.7) (वाजिनीवती) सर्वविद्यासिद्धक्रियायुक्ता। वाजिनः क्रियाप्राप्तिहेतवो व्यवहारस्तद्वती। वाजिन इति पदनामसु पठितम्। (निघं॰5.6) अनेन वाजिनीति गमनार्था प्राप्त्यर्था च क्रिया गृह्यते। (यज्ञम्) शिल्पिविद्यामहिमानं कर्म च। यज्ञो वै महिमा। (श॰ब्रा॰6.2.3.18) यज्ञो वै कर्म। (श॰ब्रा॰1.1.2.1) (वष्टु) कामसिद्धिप्रकाशिका भवतु। (धियावसुः) शुद्धकर्मणा सहवासप्रापिका। तत्पुरुषे कृति बहुलम्। (अष्टा॰6.3.14) अनेन तृतीयातत्पुरुषे विभक्त्यलुक् सायणाचार्य्यस्तु बहुव्रीहिसमासमङ्गीकृत्य छान्दसोऽलुगिति प्रतिज्ञातवान्। अत एवैतद् भ्रान्त्या व्याख्यातवान्। इमामृचं निरुक्तकार एवं समाचष्टे-पावका नः सरस्वत्यन्नैरन्नवती यज्ञं वष्टु धियावसुः कर्मवसुः। (निरु॰11.26) अत्रान्नवतीति विशेषः॥10॥ अन्वयः—या वाजेभिर्वाजिनीवती धियावसुः पावका सरस्वती वागस्ति सास्माकं शिल्पविद्यामहिमानं कर्म च यज्ञं वष्टु तत्प्रकाशयित्री भवतु॥10॥ भावार्थः—ईश्वरोऽभिवदति-सर्वैर्मनुष्यैः सत्याभ्यां विद्याभाषणाभ्यां युक्ता क्रियाकुशला सर्वोपकारिणी स्वकीया वाणी सदैव सम्भावनीयेति॥10॥ पदार्थः—(वाजेभिः) जो सब विद्या की प्राप्ति के निमित्त अन्न आदि पदार्थ हैं, और जो उनके साथ (वाजिनीवती) विद्या से सिद्ध की हुई क्रियाओं से युक्त (धियावसुः) शुद्ध कर्म के साथ वास देने और (पावका) पवित्र करनेवाले व्यवहारों को चितानेवाली (सरस्वती) जिसमें प्रशंसा योग्य ज्ञान आदि गुण हों ऐसी उत्तम सब विद्याओं को देनेवाली वाणी है, वह हम लोगों के (यज्ञम्) शिल्पविद्या के महिमा और कर्मरूप यज्ञ को (वष्टु) प्रकाश करनेवाली हो॥10॥ भावार्थः—सब मनुष्यों को चाहिये कि वे ईश्वर की प्रार्थना और अपने पुरुषार्थ से सत्य विद्या और सत्य वचनयुक्त कामों में कुशल और सब के उपकार करनेवाली वाणी को प्राप्त रहें, यह ईश्वर का उपदेश है॥10॥ पुनः सा कीदृशीत्युपदिश्यते। ईश्वर ने वह वाणी किस प्रकार की है, इस बात का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- चो॒द॒यि॒त्री सू॒नृता॑नां॒ चेत॑न्ती सुमती॒नाम्। य॒ज्ञं द॑धे॒ सर॑स्वती॥11॥ चो॒द॒यि॒त्री। सू॒नृता॑नाम्। चेत॑न्ती। सु॒ऽम॒ती॒नाम्। य॒ज्ञम्। द॒धे॒। सर॑स्वती॥11॥ पदार्थः—(चोदयित्री) शुभगुणग्रहणप्रेरिका (सूनृतानाम्) सुतरामूनयत्यनृतं यत्कर्म तत् सून् तदृतं यथार्थं सत्यं येषां ते सूनृतास्तेषाम्। अत्र ‘ऊन परिहाणे’ अस्मात् क्विप् चेति क्विप्। (चेतन्ती) सम्पादयन्ती सती (सुमतीनाम्) शोभना मतिर्बुद्धिर्येषां ते सुमतयस्तेषां विदुषाम् (यज्ञम्) पूर्वोक्तम्। (दधे) दधाति। छन्दसि लुङ्लङ्लिटः। (अष्टा॰3.4.6) अनेन वर्त्तमाने लिट्॥11॥ अन्वयः—या सूनृतानां सुमतीनां विदुषां चेतन्ती चोदयित्री सरस्वत्यस्ति, सैव वेदविद्या संस्कृता वाक् यज्ञं दधे दधाति॥11॥ भावार्थः—या किलाप्तानां सत्यलक्षणा पूर्णविद्यायुक्ता छलादिदोषरहिता यथार्थवाणी वर्त्तते, सा मनुष्याणां सत्यज्ञानाय भवितुमर्हति नेतरेषामिति॥11॥ पदार्थः—(सूनृतानाम्) जो मिथ्या वचन के नाश करने, सत्य वचन और सत्य कर्म को सदा सेवन करने (सुमतीनाम्) अत्यन्त उत्तम बुद्धि और विद्यावाले विद्वानों की (चेतन्ती) समझने तथा (चोदयित्री) शुभगुणों को ग्रहण करानेहारी (सरस्वती) वाणी है, वही सब मनुष्यों के शुभ गुणों के प्रकाश करानेवाले यज्ञ आदि कर्म धारण करनेवाली होती है॥11॥ भावार्थः—जो आप्त अर्थात् पूर्ण विद्यायुक्त और छल आदि दोषरहित विद्वान् मनुष्यों की सत्य उपदेश करानेवाली यथार्थ वाणी है, वही सब मनुष्यों के सत्य ज्ञान होने के लिये योग्य होती है, अविद्वानों की नहीं॥11॥ पुनः सा कीदृशीत्युपदिश्यते॥ ईश्वर ने फिर भी वह वाणी कैसी है, इस बात का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है- म॒हो अर्णः॒ सर॑स्वती॒ प्रचे॑तयति के॒तुना॑। धियो॒ विश्वा॒ वि रा॑जति॥12॥6॥1॥ म॒हः। अर्णः॑। सर॑स्वती। प्र। चे॒त॒य॒ति॒। के॒तुना॑। धियः॑। विश्वाः॑। वि। रा॒ज॒ति॒॥12॥ पदार्थः—(महः) महत्। अत्र सर्वधातुभ्योऽसुन्नित्यसुन्प्रत्ययः। (अर्णः) जलार्णवमिव शब्दसमुद्रम्। उदके नुट् च। (उणा॰4.197) अनेन सूत्रेणार्तेरसुन्प्रत्ययः। अर्ण इत्युदकनामसु पठितम्। (निघं॰1.12) (सरस्वती) वाणी (प्र) प्रकृष्टार्थे (चेतयति) सम्यङ् ज्ञापयति (केतुना) शोभनकर्मणा प्रज्ञया वा। केतुरिति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं॰3.9) (धियः) मनुष्याणां धारणावतीर्बुद्धीः (विश्वाः) सर्वाः (वि) विशेषार्थे (राजति) प्रकाशयति। अत्रान्तर्भावितो ण्यर्थः। निरुक्तकार एनं मन्त्रमेवं समाचष्टे-महदर्णः सरस्वती प्रचेतयति प्रज्ञापयति केतुना कर्मणा प्रज्ञया वेमानि च सर्वाणि प्रज्ञानान्यभिविराजति वागर्थेषु विधीयते तस्मान्माध्यमिकां वाचं मन्यन्ते वाग्वाख्याता। (निरु॰11.27)॥12॥ अन्वयः—या सरस्वती केतुना महदर्णः खलु जलार्णवमिव शब्दसमुद्रं प्रकृष्टतया सम्यग् ज्ञापयति सा प्राणिनां विश्वा धियो विराजति विविधतयोत्तमा बुद्धीः प्रकाशयति॥12॥ भावार्थः—अत्र वाचकोपमेयलुप्तोपमालङ्कारः। यथा वायुना चालितः सूर्य्येण प्रकाशितो जलरत्नोर्मिसहितो महान् समुद्रोऽनेकेव्यवहाररत्नप्रदो वर्त्तते तथैवास्याकाशस्थस्य वेदस्थस्य च महतः शब्दसमुद्रस्य प्रकाशहेतुर्वेदवाणी विदुषामुपदेशश्चेतरेषां मनुष्याणां यथार्थतया मेधाविज्ञानप्रदो भवतीति॥12॥ सूक्तद्वयसम्बन्धिनोऽर्थस्योपदेशानन्तरमनेन तृतीयसूक्तेन क्रियाहेतुविषयस्याश्विशब्दार्थमुक्त्वा तत्सिद्धिकर्तॄणां विदुषां स्वरूपलक्षणमुक्त्वा विद्वद्भवनहेतुना सरस्वतीशब्देन सर्वविद्याप्राप्तिनिमित्तार्था वाक् प्रकाशितेति वेदितव्यम्। द्वितीयसूक्तोक्तानां वाय्विन्द्रादीनामर्थानां सम्बन्धे तृतीयसूक्तप्रतिपादितानामश्विविद्वत्सरस्वत्यर्थानामन्वयाद् द्वितीयसूक्तोक्तार्थेन सहास्य तृतीयसूक्तोक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। अस्य सूक्तस्यार्थः सायणाचार्य्यादिभिरन्यथैव वर्णितः। तत्र प्रथमं तस्यायं भ्रमः—‘द्विविधा हि सरस्वती विग्रहवद्देवता नदीरूपा च। तत्र पूर्वाभ्यामृग्भ्यां विग्रहवती प्रतिपादिता। अनया तु नदीरूपा प्रतिपाद्यते।’ इत्यनेन कपोलकल्पनयाऽयमर्थो लिखित इति बोध्यम्। एवमेव व्यर्था कल्पनाऽध्यापक- विलसनाख्यादीनामप्यस्ति। ये विद्यामप्राप्य व्याख्यातारो भवन्ति तेषामन्धवत्प्रवृत्तिर्भवतीत्यत्र किमाश्चर्य्यम्॥ इति प्रथमोऽनुवाकस्तृतीयं सूक्तं षष्ठश्च वर्गः समाप्तः॥ पदार्थः—जो (सरस्वती) वाणी (केतुना) शुभ कर्म अथवा श्रेष्ठ बुद्धि से (महः) अगाध (अर्णः) शब्दरूपी समुद्र को (प्रचेतयति) जनानेवाली है, वही मनुष्यों की (विश्वाः) सब बुद्धियों को विशेष करके प्रकाश करती है॥12॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकोपमेय लुप्तोपमालङ्कार दिखलाया है। जैसे वायु से तरङ्गयुक्त और सूर्य्य से प्रकाशित समुद्र अपने रत्न और तरङ्गों से युक्त होने के कारण बहुत उत्तम व्यवहार और रत्नादि की प्राप्ति में बड़ा भारी माना जाता है, वैसे ही जो आकाश और वेद का अनेक विद्यादि गुणवाला शब्दरूपी महासागर को प्रकाश करानेवाली वेदवाणी का उपदेश है, वही साधारण मनुष्यों की यथार्थ बुद्धि का बढ़ानेवाला होता है॥12॥ और जो दूसरे सूक्त की विद्या का प्रकाश करके क्रियाओं का हेतु अश्विशब्द का अर्थ और उसके सिद्ध करनेवाले विद्वानों का लक्षण तथा विद्वान् होने का हेतु सरस्वती शब्द से सब विद्याप्राप्ति का निमित्त वाणी के प्रकाश करने से जान लेना चाहिये कि दूसरे सूक्त के अर्थ के साथ तीसरे सूक्त के अर्थ की सङ्गति है। इस सूक्त का अर्थ सायणाचार्य्य आदि नवीन पण्डितों ने बुरी प्रकार से वर्णन किया है। उनके व्याख्यानों में पहले सायणाचार्य्य का भ्रम दिखलाते हैं। उन्होंने सरस्वती शब्द के दो अर्थ माने हैं। एक अर्थ से देहवाली देवतारूप और दूसरे से नदीरूप सरस्वती मानी है। तथा उनने यह भी कहा है कि इस सूक्त में पहले दो मन्त्र से शरीरवाली देवरूप सरस्वती का प्रतिपादन किया है, और अब इस मन्त्र से नदीरूप सरस्वती को वर्णन करते हैं। जैसे यह अर्थ उन्होंने अपनी कपोलकल्पना से विपरीत लिखा है, इसी प्रकार अध्यापक विलसन की व्यर्थ कल्पना जाननी चाहिये। क्योंकि जो मनुष्य विद्या के बिना किसी ग्रन्थ की व्याख्या करने को प्रवृत्त होते हैं, उनकी प्रवृत्ति अन्धों के समान होती है॥ यह प्रथम अनुवाक, तीसरा सूक्त और छठा वर्ग समाप्त हुआ॥

अथास्य दशर्चस्य चतुर्थसूक्तस्य मधुच्छन्दा ऋषिः। इन्द्रो देवता। 1,2, 4-9 गायत्री; 3 विराड्गायत्री; 10 निचृद्गायत्री च छन्दः। षड्जः स्वरः॥ तत्र प्रथममन्त्रेणोक्तविद्याप्रपूर्त्यर्थमिदमुपदिश्यते। अब चौथे सूक्त का आरम्भ करते हैं। ईश्वर ने इस सूक्त के पहिले मन्त्र में उक्त-विद्या के पूर्ण करनेवाले साधन का प्रकाश किया है- सु॒रू॒प॒कृ॒त्नुमू॒तये॑ सु॒दुघा॑मिव गो॒दुहे॑। जु॒हू॒मसि॒ द्यवि॑द्यवि॥1॥ सु॒रू॒प॒ऽकृ॒त्नुम्। ऊ॒तये॑। सु॒दुघा॑म्ऽइव। गो॒दुहे॑। जु॒हू॒मसि॑। द्यवि॑ऽद्यवि॥1॥ पदार्थः—(सुरूपकृत्नुम्) य इन्द्रः सूर्य्यः सर्वान्पदार्थान् स्वप्रकाशेन स्वरूपान् करोतीति तम्। कृहनिभ्यां कृत्नुः। (उणा॰3.28) अनेन क्तनुप्रत्ययः। उपपदसमासः। इन्द्रो॑ दि॒व इन्द्र॑ ईशे पृथि॒व्याः। (ऋ॰10.89.10) नेन्द्रा॑दृ॒ते प॑वते॒ धाम॒ किं च॒न॥ (ऋ॰9.69.6, निरु॰7.2) (निरु॰7.2) अहमिन्द्रः परमेश्वरः सूर्य्यं पृथिवीं च ईशे रचितवानस्मीति तेनोपदिश्यते। तस्मादिन्द्राद्विना किञ्चिदपि धाम न पवते न पवित्रं भवति। (ऊतये) विद्याप्राप्तये। अवधातोः प्रयोगः। ऊतियूति॰। (अष्टा॰3.3.97) अस्मिन्सूत्रे निपातितः। (सुदुघामिव) यथा कश्चिन्मनुष्यो बहुदुग्धदात्र्या गोः पयो दुग्ध्वा स्वाभीष्टं प्रपूरयति तथा। दुहः कप घश्च। (अष्टा॰3.2.70) इति सुपूर्वाद् दुहधातोः कप्प्रत्ययो घादेशश्च। (गोदुहे) गोर्दोग्ध्रे दुग्धादिकमिच्छवे मनुष्याय। सत्सूद्विष॰। (अष्टा॰3.2.61) इति सूत्रेण क्विप्प्रत्ययः। (जुहूमसि) स्तुमः। बहुलं छन्दसि। (अष्टा॰2.4.76) अनेन शपः स्थाने श्लुः। अभ्यस्तस्य च। (अष्टा॰6.1.33) अनेन सम्प्रसारणम्। सम्प्रसारणाच्च। (अष्टा॰6.1.108) अनेन पूर्वरूपम्। हलः। (अष्टा॰6.4.2) इति दीर्घः। इदन्तो मसि। (अष्टा॰7.1.46) अनेन मसेरिकारागमः। (द्यविद्यवि) दिने दिने। नित्यवीप्सयोः। (अष्टा॰8.1.4) अनेन द्वित्वम्। द्यविद्यवीत्यहर्नामसु पठितम्। (निघं॰1.9)॥1॥ अन्वयः—गोदुहे दुग्धादिकमिच्छवे मनुष्याय दोहनसुलभां गामिव वयं द्यविद्यवि प्रतिदिनं सविद्यानां स्वेषामूतये विद्याप्राप्तये सुरूपकृत्नुमिन्द्रं परमेश्वरं जुहूमसि स्तुमः॥1॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा मनुष्या गोर्दुग्धं प्राप्य स्वप्रयोजनानि साधयन्ति तथैव धार्मिका विद्वांसः परमेश्वरोपासनया श्रेष्ठविद्यादिगुणान् प्राप्य स्वकार्य्याणि प्रपूरयन्तीति॥1॥ पदार्थः—जैसे दूध की इच्छा करनेवाला मनुष्य दूध दोहने के लिये सुलभ दुहानेवाली गौओं को दोहके अपनी कामनाओं को पूर्ण कर लेता है, वैसे हम लोग (द्यविद्यवि) सब दिन अपने निकट स्थित मनुष्यों को (ऊतये) विद्या की प्राप्ति के लिये (सुरूपकृत्नुम्) परमेश्वर जो कि अपने प्रकाश से सब पदार्थों को उत्तम रूपयुक्त करनेवाला है, उसकी (जुहूमसि) स्तुति करते हैं॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे मनुष्य गाय के दूध को प्राप्त होके अपने प्रयोजन को सिद्ध करते हैं, वैसे ही विद्वान् धार्मिक पुरुष भी परमेश्वर की उपासना से श्रेष्ठ विद्या आदि गुणों को प्राप्त होकर अपने-अपने कार्य्यों को पूर्ण करते हैं॥1॥ अथेन्द्रशब्देन सूर्य्य उपदिश्यते। अगले मन्त्र में ईश्वर ने इन्द्र शब्द से सूर्य्य के गुणों का वर्णन किया है- उप॑ नः॒ सव॒नाग॑हि॒ सोम॑स्य सोमपाः पिब। गो॒दा इद्रे॒वतो॒ मदः॑॥2॥ उप॑। नः॒। सव॑ना। आ। ग॒हि॒। सोम॑स्य। सो॒म॒ऽपाः॒। पि॒ब॒। गो॒ऽदाः। इत्। रे॒वतः॑। मदः॑॥2॥ पदार्थः—(उप) सामीप्ये (नः) अस्माकम् (सवना) ऐश्वर्ययुक्तानि वस्तूनि प्रकाशयितुम्। सु प्रसवैश्वर्य्ययोः इत्यस्माद्धातोर्ल्युट् प्रत्ययः (अष्टा॰3.3.114) शेश्छन्दसि बहुलमिति शेर्लुक्। (आगहि) आगच्छति। शपो लुकि सति वाच्छन्दसीति हेरपित्वादनुदात्तोपदेश॰। (अष्टा॰6.4.37) इत्यनुनासिकलोपः लडर्थे लोट् च। (सोमस्य) उत्पन्नस्य कार्य्यभूतस्य जगतो मध्ये (सोमपाः) सर्वपदार्थरक्षकः सन् (पिब) पिबति। अत्र व्यत्ययः लडर्थे लोट् च। (गोदाः) चक्षुरिन्द्रियव्यवहारप्रदः। क्विप् चेति क्विप् प्रत्ययः। गौरिति पदनामसु पठितम्। (निघं॰5.5) जीवो येन रूपं जानाति तस्माच्चक्षुर्गौः। (इत्) एव (रेवतः) पदार्थप्राप्तिमतो जीवस्य। छन्दसीर इति वत्वम्। (मदः) हर्षकरः॥2॥ अन्वयः—यतोऽयं सोमपा गोदा इन्द्रः सूर्य्यः सोमस्य जगतो मध्ये स्वकिरणैः सवना सवनानि प्रकाशयितुमुपागहि उपागच्छति तस्मादेव नोऽस्माकं रेवतः पुरुषार्थिनो जीवस्य च हर्षकरो भवति॥2॥ भावार्थः—सूर्य्यस्यः प्रकाशे सर्वे जीवाः स्वस्य स्वस्य कर्मानुष्ठानाय विशेषतः प्रवर्त्तन्ते नैवं रात्रौ कश्चित्सुखतः कार्य्याणि कर्त्तुं शक्नोतीति॥2॥ पदार्थान्वयभाषा-(सोमपाः) जो सब पदार्थों का रक्षक और (गोदाः) नेत्र के व्यवहार को देनेवाला सूर्य्य अपने प्रकाश से (सोमस्य) उत्पन्न हुए कार्य्यरूप जगत् में (सवना) ऐश्वर्य्ययुक्त पदार्थों के प्रकाश करने को अपनी किरण द्वारा सन्मुख (आगहि) आता है, इसी से यह (नः) हम लोगों तथा (रेवतः) पुरुषार्थ से अच्छे-अच्छे पदार्थों को प्राप्त होनेवाले पुरुषों को (मदः) आनन्द बढ़ाता है॥2॥ भावार्थः—जिस प्रकार सब जीव सूर्य्य के प्रकाश में अपने-अपने कर्म करने को प्रवृत्त होते हैं, उस प्रकार रात्रि में सुख से नहीं हो सकते॥2॥ येनायं सूर्य्यो रचितस्तं कथं जानीमेत्युपदिश्यते। जिसने सूर्य्य को बनाया है, उस परमेश्वर ने अपने जानने का उपाय अगले मन्त्र में जनाया है- अथा॑ ते॒ अन्त॑मानां वि॒द्याम॑ सुमती॒नाम्। मा नो॒ अति॑ख्य॒ आग॑हि॥3॥ अथ॑। ते॒। अन्त॑मानाम्। वि॒द्याम॑। सु॒म॒ती॒नाम्। मा। नः॒। अति॑ख्यः॒। आ। ग॒हि॒॥3॥ पदार्थः—(अथ) अनन्तरार्थे। निपातस्य चेति दीर्घः। (ते) तव (अन्तमानाम्) अन्तः सामीप्यमेषामस्ति तेऽन्तिका, अतिशयेनान्तिका अन्तमास्तत्समागमेन। अत्रान्तिकशब्दात्तमपि कृते पृषोदरादित्वात्तिकलोपः। अन्तमानामित्यन्तिकनामसु पठितम्। (निघं॰2.16) (विद्याम) जानीयाम (सुमतीनाम्) वेदादिशास्त्रे परोपकारे धर्माचरणे च श्रेष्ठा मतिर्येषां मनुष्याणाम्। मतय इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं॰2.3) (मा) निषेधार्थे (नः) अस्मान् (अतिख्यः) उपदेशोल्लङ्घनं मा कुर्याः (आगहि) आगच्छ॥3॥ अन्वयः—हे परमैश्वर्य्यवन्निन्द्र परमेश्वर! वयं ते तवान्तमानामर्थात्त्वां ज्ञात्वा त्वन्निकटे त्वदाज्ञायां च स्थितानां सुमतीनामाप्तानां विदुषां समागमेन त्वां विजानीयाम। त्वन्नोऽस्मानागच्छास्मदात्मनि प्रकाशितो भव। अथान्तर्यामितया स्थितः सन्सत्यमुपदेशं मातिख्यः कदाचिदस्योल्लङ्घनं मा कुर्य्याः॥3॥ भावार्थः—यदा मनुष्या धार्मिकाणां विद्वत्तमानां सकाशाच्छिक्षाविद्ये प्राप्नुवन्ति तदा नैव पृथिवीमारभ्य परमेश्वरपर्यन्तान् पदार्थान् विदित्वा सुखिनो भूत्वा पुनस्ते कदाचिदन्तर्यामीश्वरोपदेशं विहायेतस्ततो भ्रमन्तीति॥3॥ पदार्थः—हे परम ऐश्वर्ययुक्त परमेश्वर! (ते) आपके (अन्तमानाम्) निकट अर्थात् आपको जानकर आपके समीप तथा आपकी आज्ञा में रहनेवाले विद्वान् लोग, जिन्हों की (सुमतीनाम्) वेदादिशास्त्र परोपकाररूपी धर्म करने में श्रेष्ठ बुद्धि हो रही है, उनके समागम से हम लोग (विद्याम) आपको जान सकते हैं, और आप (नः) हमको (आगहि) प्राप्त अर्थात् हमारे आत्माओं में प्रकाशित हूजिये, और (अथ) इसके अनन्तर कृपा करके अन्तर्यामिरूप से हमारे आत्माओं में स्थित हुए (मातिख्यः) सत्य उपदेश को मत रोकिये, किन्तु उसकी प्रेरणा सदा किया कीजिये॥3॥ भावार्थः—जब मनुष्य लोग इन धार्मिक श्रेष्ठ विद्वानों के समागम से शिक्षा और विद्या को प्राप्त होते हैं, तभी पृथिवी से लेकर परमेश्वरपर्य्यन्त पदार्थों के ज्ञान द्वारा नाना प्रकार से सुखी होके फिर वे अन्तर्यामी ईश्वर के उपदेश को छोड़कर कभी इधर-उधर नहीं भ्रमते॥3॥ तत्समीपे स्थित्वा मनुष्येण किं कर्त्तव्यम्, ते च तान् प्रति किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते। मनुष्य लोग विद्वानों के समीप जाकर क्या करें और वे इनके साथ कैसे वर्तें, इस विषय का उपदेश ईश्वर ने अगले मन्त्र में किया है- परे॑हि॒ विग्र॒मस्तृ॑त॒मिन्द्रं॑ पृच्छा विप॒श्चित॑म्। यस्ते॒ सखि॑भ्य॒ आ वर॑म्॥4॥ परा॑। इ॒हि॒। विग्र॑म्। अस्तृ॑तम्। इन्द्र॑म्। पृ॒च्छ॒। वि॒पः॒ऽचित॑म्। यः। ते॒। सखि॑भ्यः। आ। वर॑म्॥4॥ पदार्थः—(परा) पृथक् (इहि) भव (विग्रम्) मेधाविनम्। वेर्ग्रो वक्तव्य इति वेः परस्या नासिकायाः स्थाने ग्रः समासान्तादेशः। उपसर्गाच्च। (अष्टा॰5.4.119) इति सूत्रस्योपरि वार्तिकम्। विग्र इति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं॰3.15) (अस्तृतम्) अहिंसकम् (इन्द्रम्) विद्यया परमैश्वर्ययुक्तं मनुष्यम् (पृच्छ) सन्देहान् दृष्ट्वोत्तराणि गृहाण। द्व्यचोऽतस्तिङः। (अष्टा॰6.3.135) इति दीर्घः। (विपश्चितम्) विद्वांसं य आप्तः सन्नुपदिशति। विपश्चिदिति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं॰3.15) पुनरुक्त्याऽऽप्तत्वादिगुणवत्त्वं गृह्यते। (ते) तुभ्यम् (सखिभ्यः) मित्रस्वभावेभ्यः (आ) समन्तात् (वरम्) परमोत्तमं विज्ञानधनम्॥4॥ अन्वयः—हे विद्यां चिकीर्षो मनुष्य! यो विद्वान् तुभ्यं सखिभ्यो मित्रशीलेभ्यश्चासमन्ताद्वरं विज्ञानं ददाति, तं विग्रमस्तृतमिन्द्रं विपश्चितमुपगम्य सन्देहान् पृच्छ, यथार्थतया तदुपदिष्टान्युत्तराणि गृहीत्वाऽन्येभ्यस्त्वमपि वद। यो ह्यविद्वान् ईर्ष्यकः कपटी स्वार्थी मनुष्योऽस्ति तस्मात्सर्वदा परेहि॥4॥ भावार्थः—सर्वेषां मनुष्याणामियं योग्यतास्ति पूर्वं परोपकारिणं पण्डितं ब्रह्मनिष्ठं श्रोत्रियं पुरुषं विज्ञाय तेनैव सह प्रश्नोत्तरविधानेन सर्वाः शङ्का निवारणीयाः, किन्तु ये विद्याहीनाः सन्ति नैव केनापि तत्सङ्गकथनोत्तरविश्वासः कर्त्तव्य इति॥4॥ पदार्थः—हे विद्या की अपेक्षा करने वाले मनुष्य लोगो! जो विद्वान् तुझ और (ते) तेरे (सखिभ्यः) मित्रों के लिये (आवरम्) श्रेष्ठ विज्ञान को देता हो, उस (विग्रम्) जो श्रेष्ठ बुद्धिमान् (अस्तृतम्) हिंसा आदि अधर्मरहित (इन्द्रम्) विद्या परमैश्वर्य्ययुक्त (विपश्चितम्) यथार्थ सत्य कहनेवाले मनुष्य के समीप जाकर उस विद्वान् से (पृच्छ) अपने सन्देह पूछ, और फिर उनके कहे हुए यथार्थ उत्तरों को ग्रहण करके औरों के लिये तू भी उपदेश कर, परन्तु जो मनुष्य अविद्वान् अर्थात् मूर्ख ईर्षा करने वा कपट और स्वार्थ में संयुक्त हो उससे तू (परेहि) सदा दूर रह॥4॥ भावार्थः—सब मनुष्यों को यही योग्य है कि प्रथम सत्य का उपदेश करनेहारे वेद पढ़े हुए और परमेश्वर की उपासना करनेवाले विद्वानों को प्राप्त होकर अच्छी प्रकार उनके साथ प्रश्नोत्तर की रीति से अपनी सब शङ्का निवृत्त करें, किन्तु विद्याहीन मूर्ख मनुष्य का सङ्ग वा उनके दिये हुए उत्तरों में विश्वास कभी न करें॥4॥ पुनः स एवार्थ उपदिश्यते। ईश्वर ने फिर भी इसी विषय का उपदेश मन्त्र में किया है- उ॒त ब्रुव॒न्तु नो॒ निदो॒ निर॒न्यत॑श्चिदारत। दधा॑ना॒ इन्द्र॒ इद्दुवः॑॥5॥7॥ उ॒त। ब्रु॒व॒न्तु॒। नः॒। निदः॑। निः। अ॒न्यतः॑। चि॒त्। आ॒र॒त॒। दधा॑नाः। इन्द्रें॑। इत्। दुवः॑॥5॥ पदार्थः—(उत) अप्येव (ब्रुवन्तु) सर्वा विद्या उपदिशन्तु (नः) अस्मभ्यम्। (निदः) निन्दितारः। ‘णिदि कुत्सायाम्’ अस्मात् क्विप्, छान्दसो वर्णलोपो वेति नलोपः। (निः) नितराम्। (अन्यतः) देशात् (चित्) अन्ये (आरत) गच्छन्तु। व्यवहिताश्चेत्युपसर्गव्यवधानम्। अत्र व्यत्ययः। (दधानाः) धारयितारः (इन्द्रे) परमैश्वर्ययुक्ते परमेश्वरे (इत्) इतः। इयते प्राप्यते। सोऽयमिद् देशः। अत्र कर्मणि क्विप्। ततः सुपां सुलुगिति ङसेर्लुक्। (दुवः) परिचर्यायाम्॥5॥ अन्वयः—य इन्द्रे परमेश्वरे दुवः परिचर्य्या दधानाः सर्वासु विद्यासु धर्मे पुरुषार्थे च वर्त्तमानाः सन्ति, त उतैव नोऽस्मभ्यं सर्वा विद्या ब्रुवन्तूपदिशन्तु। ये चिदन्ये नास्तिका निदो निन्दितारोऽविद्वांसो धूर्ताः सन्ति, ते सर्व इतो देशादस्मन्निवासान्निरारत दूरे गच्छन्तु, उतान्यतो देशादपि निःसरन्तु, अर्थादधार्मिकाः पुरुषाः क्वापि मा तिष्ठेयुरिति॥5॥ भावार्थः—सर्वैर्मनुष्यैराप्तविद्वत्सङ्गेन मूर्खसङ्गत्यागेनेत्थं पुरुषार्थः कर्त्तव्यो यतः सर्वत्र विद्यावृद्धिरविद्याहानिश्च मान्यानां सत्कारो दुष्टानां ताडनं चेश्वरोपासना पापिनां निवृत्तिर्धार्मिकाणां वृद्धिश्च नित्यं भवेदिति॥5॥ इति सप्तमो वर्गः समाप्तः॥ पदार्थः—जो कि परमेश्वर की (दुवः) सेवा को धारण किये हुए, सब विद्या धर्म और पुरुषार्थ में वर्त्तमान हैं, वे ही (नः) हम लोगों के लिये सब विद्याओं का उपदेश करें, और जो कि (चित्) नास्तिक (निदः) निन्दक वा धूर्त मनुष्य हैं, वे सब हम लोगों के निवासस्थान से (निरारत) दूर चले जावें, किन्तु (उत) निश्चय करके और देशों से भी दूर हो जायें अर्थात् अधर्मी पुरुष किसी देश में न रहें॥5॥ भावार्थः—सब मनुष्यों को उचित है कि आप्त धार्मिक विद्वानों का सङ्ग कर और मूर्खों के सङ्ग को सर्वथा छोड़ के ऐसा पुरुषार्थ करना चाहिये कि जिससे सर्वत्र विद्या की वृद्धि, अविद्या की हानि, मानने योग्य श्रेष्ठ पुरुषों का सत्कार दुष्टों को दण्ड, ईश्वर की उपासना आदि शुभ कर्मों की वृद्धि और अशुभ कर्मों का विनाश नित्य होता रहे॥5॥ यह सातवां वर्ग समाप्त हुआ॥ मनुष्यैः कीदृशं शीलं धार्य्यमित्युपदिश्यते। अब मनुष्यों को कैसा स्वभाव धारण करना चाहिये, इस विषय का उपदेश ईश्वर ने अगले मन्त्र में किया है- उ॒त नः॑ सु॒भगाँ॑ अ॒रिर्वो॒चेयु॑र्दस्म कृ॒ष्टयः॑। स्यामेदिन्द्र॑स्य॒ शर्म॑णि॥6॥ उ॒त। नः॒। सु॒भगा॑न्। अ॒रिः। वो॒चेयुः॑। द॒स्म॒। कृ॒ष्टयः॑। स्याम॑। इत्। इन्द्र॑स्य। शर्म॑णि॥6॥ पदार्थः—(उत) अपि (नः) अस्मान् (सुभगान्) शोभनो विद्यैश्वर्य्ययोगो येषां तान्। भग इति धननामसु पठितम्। (निघं॰2.10) (अरिः) शत्रुः (वोचेयुः) सम्प्रीत्या सर्वा विद्याः सर्वान्प्रत्युपदिश्यासुः। वचेराशिषि लिङि प्रथमस्य बहुवचने। लिङ्याशिष्यङ्। (अष्टा॰3.1.86) अनेन विकरणस्थान्यङ् प्रत्ययः। वच उम्। (अष्टा॰7.4.20)अनेनोमागमः। (दस्म) दुष्टस्वभावोपक्षेतः। ‘दसु उपक्षये’ इत्यस्मात् इषि युधीन्धिदसि॰। (उणा॰1.44) अनेन मक् प्रत्ययः। (कृष्टयः) मनुष्याः। कृष्टय इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं॰2.3) (स्याम) भवेम (इत्) एव (इन्द्रस्य) परमेश्वरस्य (शर्मणि) नित्यसुखे। शर्मेति पदनामसु पठितम्। (निघं॰5.5)॥6॥ अन्वयः—हे दस्मोपक्षयरहित जगदीश्वर! वयं तवेन्द्रस्य शर्म्मणि खल्वाज्ञापालनाख्यव्यवहारे नित्यं प्रवृत्ताः स्यामेमे कृष्टयः सर्वे मनुष्याः सर्वान् प्रति सर्वा विद्या वोचेयुरुपदिशासुर्य्यतः सत्योपदेशप्राप्तान्नोऽस्मानरिरुत शत्रुरपि सुभगान् जानीयाद्वदेच्च॥6॥ भावार्थः—यदा सर्वे मनुष्या विरोधं विहाय सर्वोपकारणे प्रयतन्ते तदा शत्रवोऽप्यविरोधिनो भवन्ति, यतः सर्वान्मनुष्यानीश्वरानुग्रहनित्यानन्दौ प्राप्नुतः॥6॥ पदार्थः—हे (दस्म) दुष्टों को दण्ड देनेवाले परमेश्वर! हम लोग। (इन्द्रस्य) आप के दिये हुए (शर्मणि) नित्य सुख वा आज्ञा पालने में (स्याम) प्रवृत्त हों, और ये (कृष्टयः) सब मनुष्य लोग प्रीति के साथ सब मनुष्यों के लिये सब विद्याओं को (वोचेयुः) उपदेश से प्राप्त करें, जिससे सत्य के उपदेश को प्राप्त हुए (नः) हम लोगों को (अरिः) (उत) शत्रु भी (सुभगान्) श्रेष्ठ विद्या ऐश्वर्ययुक्त जानें वा कहें॥6॥ भावार्थः—जब सब मनुष्य विरोध को छोड़कर सब के उपकार करने में प्रयत्न करते हैं, तब शत्रु भी मित्र हो जाते हैं, जिससे सब मनुष्यों को ईश्वर की कृपा वा निरन्तर उत्तम आनन्द प्राप्त होते हैं॥6॥ किमर्थः स इन्द्रः प्रार्थनीय इत्युपदिश्यते। परमेश्वर प्रार्थना करने योग्य क्यों है, यह विषय अगले मन्त्र में प्रकाशित किया है- एमा॒शुमा॒शवे॑ भर यज्ञ॒श्रियं॑ नृ॒माद॑नम्। प॒त॒यन्म॑न्द॒यत्स॑खम्॥7॥ आ। ई॒म्। आ॒शुम्। आ॒शवे॑। भ॒र॒। य॒ज्ञ॒ऽश्रिय॑म्। नृ॒ऽमाद॑नम्। प॒त॒यत्। म॒न्द॒यत्ऽस॑खम्॥7॥ पदार्थः—(आ) अभितः (ईम्) जलं पृथिवीं च। ईमिति जलनामसु पठितम्। (निघं॰1.12) पदनामसु च। (निघं॰4.2) (आशुम्) वेगादिगुणवन्तमग्निवाय्वादिपदार्थसमूहम्। आश्वित्यश्वनामसु पठितम्। (निघं॰1.14) कृवापा॰। (उणा॰1.1) अनेनाशूङ्धातोरुण् प्रत्ययः। (आशवे) यानेषु सर्वानन्दस्य वेगादिगुणानां च व्याप्तये (भर) सम्यग्धारय प्रदेहि (यज्ञश्रियम्) चक्रवर्त्तिराज्यादेर्महिम्नः श्रीर्लक्ष्मीः शोभा। राष्ट्रं वा अश्वमेधः। (श॰ब्रा॰13.1.6.3) अनेन यज्ञशब्दाद्राष्ट्रं गृह्यते। यज्ञो वै महिमा। (श॰ब्रा॰6.2.3.18) (नृमादनम्) माद्यन्ते हर्ष्यन्तेऽनेन तन्मादनं नृणां मादनं नृमादनम् (पतयत्) यत्पतिं करोतीति पतित्वसम्पादकं तत्। तत् करोति तदाचष्टे इति पतिशब्दाण्णिच्। (मन्दयत्सखम्) मन्दयन्तो विद्याज्ञापकाः सखायो यस्मिंस्तत्॥7॥ अन्वयः—हे इन्द्र परमेश्वर! तव कृपयाऽस्मदर्थमाशव आशुं यज्ञश्रियं नृमादनं पतयत्स्वामित्वसम्पादकं मन्दयत्सखं विज्ञानादिधनं भर देहि॥7॥ भावार्थः—ईश्वरः पुरुषार्थिनो मनुष्यस्योपरि कृपां दधाति नालसस्य। कुतः? यावन्मनुष्यः स्वयं पूर्णं पुरुषार्थं न करोति नैव तावदीश्वरकृपाप्राप्तान् पदार्थान् रक्षितुमपि समर्थो भवति। अतो मनुष्यैः पुरुषार्थवद्भिर्भूत्वेश्वरकृपैष्टव्येति॥7॥ पदार्थः—हे इन्द्र परमेश्वर! आप अपनी कृपा करके हम लोगों के अर्थ (आशवे) यानों में सब सुख वा वेगादि गुणों की शीघ्र प्राप्ति के लिये जो (आशुम्) वेग आदि गुणवाले अग्नि वायु आदि पदार्थ (यज्ञश्रियम्) चक्रवर्त्ति राज्य के महिमा की शोभा (ईम्) जल और पृथिवी आदि (नृमादनम्) जो कि मनुष्यों को अत्यन्त आनन्द देनेवाले तथा (पतयत्) स्वामिपन को करनेवाले वा (मन्दयत्सखम्) जिसमें आनन्द को प्राप्त होने वा विद्या के जनानेवाले मित्र हों, ऐसे (भर) विज्ञान आदि धन को हमारे लिये धारण कीजिये॥7॥ भावार्थः—ईश्वर पुरुषार्थी मनुष्य पर कृपा करता है, आलस करनेवाले पर नहीं, क्योंकि जब तक मनुष्य ठीक-ठीक पुरुषार्थ नहीं करता तब तक ईश्वर की कृपा और अपने किये हुए कर्मों से प्राप्त हुए पदार्थों की रक्षा में समर्थ कभी नहीं हो सकता। इसलिये मनुष्यों को पुरुषार्थी होकर ही ईश्वर की कृपा के भागी होना चाहिये॥7॥ पुनश्च कथंभूत इन्द्र इत्युपदिश्यते। फिर भी परमेश्वर ने सूर्य्यलोक के स्वभाव का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है- अ॒स्य पी॒त्वा श॑तक्रतो घ॒नो वृ॒त्राणा॑मभवः। प्रावो॒ वाजे॑षु वा॒जिन॑म्॥8॥ अ॒स्य। पी॒त्वा। श॒तक्र॒तो॒ इति॑ शतक्रतो। घ॒नः। वृ॒त्राणा॑म्। अ॒भ॒वः॒। प्र। आ॒वः॒। वाजे॑षु। वा॒जिन॑म्॥8॥ पदार्थः—(अस्य) समक्षासमक्षस्य सर्वस्य जगतो जलरसस्य वा (पीत्वा) पानं कृत्वा (शतक्रतो) शतान्यसंख्याताः क्रतवः कर्माणि यस्य शूरवीरस्य सूर्य्यलोकस्य वा सः। शतमिति बहुनामसु पठितम्। (निघं॰3.1) क्रतुरिति कर्मनामसु पठितम्। (निघं॰2.1) (घनः) दृढः काठिन्येन मूर्तिं प्रापितो वा। मूर्त्तौ घनः। (अष्टा॰3.3.77) अनेनायं निपातितः। (वृत्राणाम्) वृत्रवत्सुखावरकाणां शत्रूणां मेघानां वा। वृत्र इति मेघनामसु पठितम्। (निघं॰1.10) (अभवः) भूयाः भवति वा। अत्र पक्षे व्यत्ययः। लिङ्लटोरर्थे लङ् च। (प्रावः) रक्ष रक्षति वा। अत्रापि पूर्ववत्। (वाजेषु) युद्धेषु। वाज इति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं॰2.17) (वाजिनम्) धार्मिकं शूरवीरं मनुष्यं प्राप्तिनिमित्तं सूर्य्यलोकं वा। वाजिन इति पदनामसु पठितम्। (निघं॰5.6) अनेन युद्धेषु प्राप्तवेगहर्षाः शूराः सूर्य्यलोका वा गृह्यन्ते॥8॥ अन्वयः—हे शतक्रतो पुरुषव्याघ्र! यथा घनो मूर्तिमानयं सूर्य्यलोकोऽस्य जलस्य रसं पीत्वा वृत्राणां मेघावयवानां हननं कृत्वा सर्वानोषध्यादीन् पदार्थान् प्रावो रक्षति, यथा च स्वप्रकाशेन सर्वान्प्रकाशते, तथैव त्वमपि सर्वेषां रोगाणां दुष्टानां शत्रूणां च निवारको भूत्वाऽस्य रक्षकोऽभवो भूयाः। एवं वाजेषु दुष्टैः सह युद्धेषु प्रवर्त्तमानं धार्मिकं वाजिनं शूरं प्रावः प्रकृष्टतया सदैव रक्षको भव॥8॥ भावार्थः—अत्र लुप्तोमालङ्कारः। यथा यो मनुष्यो दुष्टैः सह धर्मेण युध्यति तस्यैव विजयो भवति नेतरस्य, तथा परमेश्वरोऽपि धार्मिकाणां युद्धकर्तॄणां मनुष्याणामेव सहायकारी भवति नेतरेषाम्॥8॥ पदार्थः—हे पुरुषोत्तम! जैसे यह (घनः) मूर्त्तिमान् होके सूर्य्यलोक (अस्य) जलरस को (पीत्वा) पीकर (वृत्राणाम्) मेघ के अङ्गरूप जलबिन्दुओं को वर्षाके सब ओषधी आदि पदार्थों को पुष्ट करके सब की रक्षा करता है, वैसे ही हे (शतक्रतो) असंख्यात कर्मों के करनेवाले शूरवीरो! तुम लोग भी सब रोग और धर्म के विरोधी दुष्ट शत्रुओं के नाश करनेहारे होकर (अस्य) इस जगत् के रक्षा करनेवाले (अभवः) हूजिये। इसी प्रकार जो (वाजेषु) दुष्टो के साथ युद्ध में प्रवर्त्तमान धार्मिक और (वाजिनम्) शूरवीर पुरुष है, उसकी (प्रावः) अच्छी प्रकार रक्षा सदा करते रहिये॥8॥ भावार्थः—इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। जैसे जो मनुष्य दुष्टों के साथ धर्मपूर्वक युद्ध करता है, उसी का ही विजय होता है और का नहीं। तथा परमेश्वर भी धर्मपूर्वक युद्ध करनेवाले मनुष्यों का ही सहाय करनेवाला होता है, औरों का नहीं॥8॥ पुनरिन्द्रशब्देनेश्वर उपदिश्यते। फिर इन्द्र शब्द से अगले मन्त्र में ईश्वर का प्रकाश किया है- तं त्वा॒ वाजे॑षु वा॒जिनं॑ वा॒जया॑मः शतक्रतो। धना॑नामिन्द्र सा॒तये॑॥9॥ तम्। त्वा॒। वाजे॑षु। वा॒जिन॑म्। वा॒जया॑मः। श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतक्रतो। धना॑नाम्। इ॒न्द्र॒। सा॒तयें॑॥9॥ पदार्थः—(तम्) इन्द्रं परमेश्वरम् (त्वा) त्वाम् (वाजेषु) युद्धेषु (वाजिनम्) विजयप्रापकम्। वाजिन इति पदनामसु पठितत्वात्प्राप्त्यर्थोऽत्र गृह्यते। (वाजयामः) विज्ञापयामः। वज गतावित्यन्तर्गतण्यर्थेन ज्ञापनार्थोऽत्र गृह्यते। (शतक्रतो) शतेष्वसंख्यातेषु वस्तुषु क्रतुः प्रज्ञा यस्य तत्सम्बुद्धौ। क्रतुरिति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं॰3.9) (धनानाम्) पूर्णविद्याराज्यादिसाध्यपदार्थानाम् (इन्द्र) परमैश्वर्य्यवन्! (सातये) सुखार्थं सम्यक्सेवनाय॥9॥ अन्वयः—हे शतक्रतो इन्द्र जगदीश्वरं! वयं धनानां सातये वाजेषु वाजिनं तं पूर्वोक्तमिन्द्रं परमेश्वरं त्वामेव सर्वान्मनुष्यान्प्रति वाजयामो विज्ञापयामः॥9॥ भावार्थः—यो दुष्टान् युद्धेन निर्बलान् कृत्वा जितेन्द्रियो विद्वान् भूत्वा जगदीश्वराज्ञां पालयति, स एव मनुष्यो धनानि विजयं च प्राप्नोतीति॥9॥ पदार्थः—हे (शतक्रतो) असंख्यात वस्तुओं में विज्ञान रखनेवाले (इन्द्र) परम ऐश्वर्य्यवान् जगदीश्वर! हम लोग (धनानाम्) पूर्ण विद्या और राज्य को सिद्ध करनेवाले पदार्थों का (सातये) सुखभोग वा अच्छे प्रकार सेवन करने के लिये (वाजेषु) युद्धादि व्यवहारों में (वाजिनम्) विजय करानेवाले और (तम्) उक्त गुणयुक्त (त्वा) आपको ही (वाजयामः) नित्य प्रति जानने और जनाने का प्रयत्न करते हैं॥9॥ भावार्थः—जो मनुष्य दुष्टों को युद्ध से निर्बल करता तथा जितेन्द्रिय वा विद्वान् होकर जगदीश्वर की आज्ञा का पालन करता है, वही उत्तम धन वा युद्ध में विजय को अर्थात् सब शत्रुओं को जीतनेवाला होता है॥9॥ पुनः स कीदृशः किमर्थं स्तोतव्य इत्युपदिश्यते। फिर भी वह परमेश्वर कैसा है और क्यों स्तुति करने योग्य है, इस विषय का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है- यो रा॒यो॒व॒नि॑र्म॒हान्त्सु॑पा॒रः सु॑न्व॒तः सखा॑। तस्मा॒ इन्द्रा॑य गायत॥10॥8॥ यः। रा॒यः। अ॒वनिः॑। म॒हान्। सु॒ऽपा॒रः। सु॒न्व॒तः। सखा॑। तस्मै॑। इन्द्रा॑य। गा॒य॒त॒॥10॥ पदार्थः—(यः) परमेश्वरः करुणामयः (रायः) विद्यासुवर्णादिधनस्य। राय इति धननामसु पठितम्। (निघं॰2.10) (अवनिः) रक्षकः प्रापको दाता (महान्) सर्वेभ्यो महत्तमः (सुपारः) सर्वकामानां सुष्ठु पूर्त्तिकरः (सुन्वतः) अभिगतधर्मविद्यस्य मनुष्यस्य (सखा) सौहार्द्देन सुखप्रदः (तस्मै) तमीश्वरम् (इन्द्राय) परमैश्वर्य्यवन्तम्। अत्रोभयत्र सुपां सुलुगिति द्वितीयैकवचनस्थाने चतुर्थ्येकवचनम्। (गायत) नित्यमर्चत। गायतीत्यर्चतिकर्मसु पठितम्। (निघं॰3.14)॥10॥ अन्वयः—हे विद्वांसो मनुष्याः! यो महान्सुपारः सुन्वतः सखा रायोऽवनिः करुणामयोऽस्ति यूयं तस्मै तमिन्द्रायेन्द्रं परमेश्वरमेव गायत नित्यमर्चत॥10॥ भावार्थः—नैव केनापि केवलं परमेश्वरस्य स्तुतिमात्रकरणेन सन्तोष्टव्यं किन्तु तदाज्ञायां वर्त्तमानेन। स नः सर्वत्र पश्यतीत्यधर्मान्निवर्त्तमानेन तत्सहायेच्छुना मनुष्येण सदैवोद्योगे प्रवृर्त्तितव्यम्॥10॥ एतस्य विद्यया परमेश्वरज्ञानात्मशरीरोग्यदृढत्वप्राप्या सदैव दुष्टानां विजयेन पुरुषार्थेन च चक्रवर्त्तिराज्यं धार्मिकैः प्राप्तव्यमिति संक्षेपतोऽस्य चतुर्थसूक्तोक्तार्थस्य तृतीयसूक्तोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। अस्यापि सूक्तस्यार्य्यावर्त्तनिवासिभिः सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपाख्यदेशनिवासिभिरध्यापक- विलसनाख्यादिभिरन्यथैव व्याख्या कृतेति वेदितव्यम्॥ इति चतुर्थं सूक्तमष्टमश्च वर्गः समाप्तः॥ पदार्थः—हे विद्वान् मनुष्यो! जो बड़ों से बड़ा (सुपारः) अच्छी प्रकार सब कामनाओं की परिपूर्णता करनेहारा (सुन्वतः) प्राप्त हुए सोमविद्यावाले धर्मात्मा पुरुष को (सखा) मित्रता से सुख देने, तथा (रायः) विद्या सुवर्ण आदि धन का (अवनिः) रक्षक और इस संसार में उक्त पदार्थों में जीवों को पहुँचाने और उनका देनेवाला करुणामय परमेश्वर है, (तस्मै) उसकी तुम लोग (गायत) नित्य पूजा किया करो॥10॥ भावार्थः—किसी मनुष्य को केवल परमेश्वर की स्तुतिमात्र ही करने से सन्तोष न करना चाहिये, किन्तु उसकी आज्ञा में रहकर और ऐसा समझ कर कि परमेश्वर मुझको सर्वत्र देखता, है, इसलिये अधर्म से निवृत्त होकर और परमेश्वर के सहाय की इच्छा करके मनुष्य को सदा उद्योग ही में वर्त्तमान रहना चाहिये॥10॥ उस तीसरे सूक्त की कही हुई विद्या से, धर्मात्मा पुरुषों को परमेश्वर का ज्ञान सिद्ध करना तथा आत्मा और शरीर के स्थिर भाव, आरोग्य की प्राप्ति तथा दुष्टों के विजय और पुरुषार्थ से चक्रवर्त्ति राज्य को प्राप्त होना, इत्यादि अर्थ करके इस चौथे सूक्त के अर्थ की सङ्गति समझनी चाहिये। आर्यावर्त्तवासी सायणाचार्य्य आदि विद्वान् तथा यूरोपखण्डवासी अध्यापक विलसन आदि साहबों ने इस सूक्त की भी व्याख्या ऐसी विरुद्ध की है कि यहां उसका लिखना व्यर्थ है॥ यह चौथा सूक्त और आठवां वर्ग समाप्त हुआ॥

अथ दशर्चस्यास्य पञ्चमसूक्तस्य मधुच्छन्दा ऋषिः। इन्द्रो देवता। 1 विराड्गायत्री; 2 आर्च्युष्णिक्; 3 पिपीलिकामध्या निचृद्गायत्री; 4, 10 गायत्री; 5-7, 9 निचृद्गायत्री; 8 पादनिचृद्गायत्री च छन्दः। 1, 3-10 षड्जः; 2 ऋषभश्च स्वरः॥ अथेन्द्रशब्देनेश्वरभौतिकावर्थावुपदिश्येते। पाँचवें सूक्त के प्रथम मन्त्र में इन्द्र शब्द से परमेश्वर और स्पर्शगुणवाले वायु का प्रकाश किया है- आ त्वेता॒ निषी॑द॒तेन्द्र॑म॒भि प्र गा॑यत। सखा॑यः स्तोम॑वाहसः॥1॥ आ। तु। आ। इ॒त॒। नि। सी॒द॒त॒। इन्द्र॑म्। अ॒भि। प्र। गा॒य॒त॒। सखा॑यः। स्तोम॑ऽवाहसः॥1॥ पदार्थः—(आ) समन्तात् (तु) पुनरर्थे (आ) अभ्यर्थे (इत) प्राप्नुत। द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (निषीदत) शिल्पविद्यायां नितरां तिष्ठत (इन्द्रम्) परमेश्वरं विद्युदादियुक्तं वायुं वा। इन्द्र इति पदनामसु पठितम्। (निघं॰5.4) विद्याजीवनप्रापकत्वादिन्द्रशब्देनात्र परमात्मा वायुश्च गृह्यते। विश्वेभिः सोम्यं मध्वग्न इन्द्रेण वायुना। (ऋ॰1.14.10) इन्द्रेण वायुनेति वायोरिन्द्रसंज्ञा। (अभिप्रगायत) आभिमुख्येन प्रकृष्टया विद्यासिध्यर्थं तद्गुणनुपदिशत शृणुत च (सखायः) परस्परं सुहृदो भूत्वा (स्तोमवाहसः) स्तोमः स्तुतिसमूहो वाहः प्राप्तव्यः प्रापयितव्यो येषां ते॥1॥ अन्वयः—हे स्तोमवाहसः सखायो विद्वांसः! सर्वे यूयं मिलित्वा परस्परं प्रीत्या मोक्षशिल्पविद्यासम्पादनोद्योग आनिषीदत, तदर्थमिन्द्रं परमेश्वरं वायुं चाभिप्रगायत एवं पुनः सर्वाणि सुखान्येत॥1॥ भावार्थः—यावन्मनुष्या हठच्छलाभिमानं त्यक्त्वा सम्प्रीत्या परस्परोपकाराय मित्रवन्न प्रयतन्ते, तावन्नैवैतेषां कदाचिद्विद्यासुखोन्नतिर्भवतीति॥1॥ पदार्थः—हे (स्तोमवाहसः) प्रशंसनीय गुणयुक्त वा प्रशंसा कराने और (सखायः) सब से मित्रभाव में वर्त्तनेवाले विद्वान् लोगो! तुम और हम लोग सब मिलके परस्पर प्रीति के साथ मुक्ति और शिल्पविद्या को सिद्ध करने में (आनिषीदत) स्थित हों अर्थात् उसकी निरन्तर अच्छी प्रकार से यत्नपूर्वक साधना करने के लिये (इन्द्रम्) परमेश्वर वा बिजली से जुड़ा हुआ वायु को-‘इन्द्रेण वायुना॰’ इस ऋग्वेद के प्रमाण से शिल्पविद्या और प्राणियों के जीवन हेतु से इन्द्र शब्द से स्पर्शगुणवाले वायु का भी ग्रहण किया है- (अभिप्रगायत) अर्थात् उसके गुणों का उपदेश करें और सुनें कि जिससे वह अच्छी रीति से सिद्ध की हुई विद्या सब को प्रकट होजावें, (तु) और उसी से तुम सब लोग सब सुखों को (एत) प्राप्त होओ॥1॥ भावार्थः—जब तक मनुष्य हठ, छल और अभिमान को छोड़कर सत्य प्रीति के साथ परस्पर मित्रता करके परोपकार करने के लिये तन मन और धन से यत्न नहीं करते, तब तक उनके सुखों और विद्या आदि उत्तम गुणों की उन्नति कभी नहीं हो सकती॥1॥ पुनस्तावेवोपदिश्येते। फिर भी अगले मन्त्र में उन्हीं दोनों के गुणों का प्रकाश किया है- पु॒रू॒तमं॑ पुरू॒णामीशा॑नं॒ वार्या॑णाम्। इन्द्रं॒ सोमे॒ सचा॑ सु॒ते॥2॥ पु॒रु॒ऽतम॑म्। पु॒रू॒णाम्। ईशा॑नम्। वार्या॑णाम्। इन्द्र॑म्। सोमे॑। सचा॑। सु॒ते॥2॥ पदार्थः—(पुरूतमम्) पुरून् बहून् दुष्टस्वभावान् जीवान् पापकर्मफलदानेन तमयति ग्लापयति तं परमेश्वरं तत्फलभोगहेतुं वायुं वा। पुरुरिति बहुनामसु पठितम्। (निघं॰3.1) अत्र अन्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (पुरूणाम्) बहूनामाकाशादिपृथिव्यन्तानां पदार्थानाम् (ईशानम्) रचने समर्थं परमेश्वरं तन्मध्यस्थविद्यासाधकं वायुं वा (वार्य्याणाम्) वराणां वरणीयानामत्यन्तोत्तमानां मध्ये स्वीकर्तुमर्हम्। वार्य्यं वृणोतेरथापि वरतमं तद्वार्य्यं वृणीमहे वरिष्ठं गोपयत्ययं तद्वार्य्यं वृणीमहे वर्षिष्ठं गोपायितव्यम्। (निरु॰5.1) (इन्द्रम्) सकलैश्वर्य्यप्रदं परमेश्वरमात्मनः सर्वभोगहेतुं वायुं वा (सोमे) सोतव्ये सर्वस्मिन्पदार्थे विमानादियाने वा। (सचा) ये समवेताः पदार्थाः सन्ति। सचा इति पदनामसु पठितम्। (निघं॰4.2) (सुते) उत्पन्नेऽभिषवविद्ययाऽभिप्राप्ते॥2॥ अन्वयः—हे सखायो विद्वांसो वार्य्याणां पुरूतममीशानं पुरूणामिन्द्रमभिप्रगायत ये सुते सोमे सचाः सन्ति तान् सर्वोपकाराय यथायोग्यमभिप्रगायत॥2॥ भावार्थः—अत्र श्लेषालङ्कारः। पूर्वस्मान्मन्त्रात् ‘सखायः; तु; अभिप्रगायत’ इति पदत्रयमनुवर्त्तनीयम्। ईश्वरस्य यथायोग्यव्यवस्था जीवेभ्यस्तत्तत्कर्मफलदातृत्वात् भौतिकस्य वायोः कर्मफलहेतुत्वेन सकलचेष्टाविद्यासाधकत्वादस्मादुभयार्थस्य ग्रहणम्॥2॥ पदार्थः—हे मित्र विद्वान् लोगो! (वार्य्याणाम्) अत्यन्त उत्तम (पुरूणाम्) आकाश से लेके पृथिवीपर्य्यन्त असंख्यात पदार्थों को (ईशानम्) रचने में समर्थ (पुरूतमम्) दुष्टस्वभाववाले जीवों को ग्लानि प्राप्त करानेवाले (इन्द्रम्) और श्रेष्ठ जीवों को सब ऐश्वर्य्य के देनेवाले परमेश्वर के तथा (वार्य्यणाम्) अत्यन्त उत्तम (पुरूणाम्) आकाश से लेके पृथिवीपर्य्यन्त बहुत से पदार्थों की विद्याओं के साधक (पुरूतमम्) दुष्ट जीवों वा कर्मों के भोग के निमित्त और (इन्द्रम्) जीवमात्र को सुखदुःख देनेवाले पदार्थों के हेतु भौतिक वायु के गुणों को (अभिप्रगायत) अच्छी प्रकार उपदेश करो। और (तु) जो कि (सुते) रस खींचने की क्रिया से प्राप्त वा (सोमे) उस विद्या से प्राप्त होने योग्य (सचा) पदार्थों के निमित्त कार्य्य हैं, उनको उक्त विद्याओं से सब के उपकार के लिये यथायोग्य युक्त करो॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। पीछे के मन्त्र से इस मन्त्र में ‘सखायः; तु; अभिप्रगायत’ इन तीन शब्दों को अर्थ के लिये लेना चाहिये। इस मन्त्र में यथायोग्य व्यवस्था करके उनके किये हुए कर्मों का फल देने से ईश्वर तथा इन कर्मों के फल भोग कराने के कारण वा विद्या और सब क्रियाओं के साधक होने से भौतिक अर्थात् संसारी वायु का ग्रहण किया है॥2॥ तावस्मदर्थं किं कुरुत इत्युपदिश्यते। वे तुम हम और सब प्राणि लोगों के लिये क्या करते हैं, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है- स घा॑ नो॒ योग॒ आभु॑व॒त्स रा॒ये स पुर॑न्ध्याम्। गम॒द्वाजे॑भि॒रा स नः॑॥3॥ सः। घ॒। नः॒। योगे॑। आ। भु॒व॒त्। सः। रा॒ये। सः। पुर॑न्ध्याम्। गम॑त्। वाजे॑भिः। आ। सः। नः॒॥3॥ पदार्थः—(सः) इन्द्र ईश्वरो वायुर्वा (घ) एवार्थे निपातः। ऋचि तुनुघ॰। (अष्टा॰6.3.133) अनेन दीर्घादेशः। (नः) अस्माकम् (योगे) सर्वसुखसाधनप्राप्तिसाधके (आ भुवत्) समन्ताद् भूयात्। भूधातोराशिषि लिङि प्रथमैकवचने लिङ्याशिष्यङ् (अष्टा॰3.1.86) इत्यङि सति किदाशिषीत्यागमानित्यत्वे प्रयोगः। (सः) उक्तोऽर्थः। (राये) परमोत्तमधनलाभाय। राय इति धननामसु पठितम्। (निघं॰2.10) (सः) पूर्वोक्तोऽर्थः। (पुरन्ध्याम्) बहुशास्त्रविद्यायुक्तायां बुद्ध्याम्। पुरन्धिरिति पदनामसु पठितम्। (निघं॰4.3) (गमत्) आज्ञाप्यात् गमयति वा। अत्र पक्षे वर्त्तमानेऽर्थे लिङर्थे च लुङ्। बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपि। (अष्टा॰6.4.75) इत्यडभावः। (वाजेभिः) उत्तमैरन्नैर्विमानादियानैः सह वा। बहुलं छन्दसि। (अष्टा॰7.1.10) अनेनैसादेशाभावः। (आ) सर्वतः (सः) अतीतार्थे (नः) अस्मान्॥3॥ अन्वयः—स ह्येवेन्द्रः परमेश्वरो वायुश्च नोऽस्माकं योगे सहायकारी व्यवहारविद्योपयोगाय चाभुवत् समन्ताद् भूयात् भवति वा, तथा स एव राये स पुरन्ध्यां च प्रकाशको भूयाद्भवति वा, एवं स एव वाजेभिः सह नोऽस्मानागमदाज्ञाप्यात् समन्तात् गमयति वा॥3॥ भावार्थः—अत्र श्लेषालङ्कारः। ईश्वरः पुरुषार्थिनो मनुष्यस्य सहायकारी भवति नेतरस्य, तथा वायुरपि पुरुषार्थेनैव कार्य्यसिद्धध्युपयोगी भवति नैव कस्यचिद्विना पुरुषार्थे न धनवृद्धिलाभो भवति। नैवैताभ्यां विना कदाचिदुत्तमं सुखं च भवतीत्यतः सर्वैर्मनुष्यैरुद्योगिभिराशीर्मद्भिर्भवितव्यम्॥3॥ पदार्थः—(सः) पूर्वोक्त इन्द्र परमेश्वर और स्पर्शवान् वायु (नः) हम लोगों के (योगे) सब सुखों के सिद्ध करानेवाले वा पदार्थों को प्राप्त करानेवाले योग तथा (सः) वे ही (राये) उत्तम धन के लाभ के लिये और (सः) वे (पुरन्ध्याम्) अनेक शास्त्रों की विद्याओं से युक्त बुद्धि में (आ भुवत्) प्रकाशित हों। इसी प्रकार (सः) वे (वाजेभिः) उत्तम अन्न और विमान आदि सवारियों के सह वर्त्तमान (नः) हम लोगों को (आगमत्) उत्तम सुख होने का ज्ञान देता तथा यह वायु भी इस विद्या की सिद्धि में हेतु होता है॥3॥ भावार्थः—इस में भी श्लेषालङ्कार है। ईश्वर पुरुषार्थी मनुष्य का सहायकारी होता है आलसी का नहीं, तथा स्पर्शवान् वायु भी पुरुषार्थ ही से कार्य्यसिद्धि का निमित्त होता है, क्योंकि किसी प्राणी को पुरुषार्थ के विना धन वा बुद्धि का और इन के विना उत्तम सुख का लाभ कभी नहीं हो सकता। इसलिये सब मनुष्यों को उद्योगी अर्थात् पुरुषार्थी आशावाले अवश्य होना चाहिये॥3॥ पुनरीश्वरसूर्यौ गातव्यावित्युपदिश्यते। ईश्वर ने अपने आप और सूर्य्यलोक का गुणसहित चौथे मन्त्र से प्रकाश किया है- यस्य॑ सं॒स्थे न वृ॒ण्वते॒ हरी॑ स॒मत्सु॒ शत्र॑वः। तस्मा॒ इन्द्रा॑य गायत॥4॥ यस्य॑। सं॒ऽस्थे। न। वृ॒ण्वते॑। हरी॒ इति॑। स॒मत्ऽसु॑। शत्र॑वः। तस्मै॑। इन्द्रा॑य। गा॒य॒त॒॥4॥ पदार्थः—(यस्य) परमेश्वरस्य सूर्य्यलोकस्य वा (संस्थे) सम्यक् तिष्ठन्ति यस्मिंस्तस्मिन् जगति। घञर्थे कविधानम्। (अष्टा॰3.3.58) इति वार्तिकेनाधिकरणे कः प्रत्ययः। (न) निषेधार्थे (वृण्वते) सम्भजन्ते (हरी) हरणशीलौ बलपराक्रमौ प्रकाशाकर्षणाख्यौ च। हरी इन्द्रस्येत्यादिष्टोपयोजननामसु पठितम्। (निघं॰1.15) (समत्सु) युद्धेषु। समत्स्विति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं॰2.17) (शत्रवः) अमित्राः (तस्मै) एतद्गुणविशिष्टम् (इन्द्राय) परमेश्वरं सूर्य्यं वा। अत्रोभयत्रापि सुपां सु॰ अनेनामः स्थाने ङे। (गायत) गुणस्तवनश्रवणाभ्यां विजानीत॥4॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यूयं यस्य हरी संस्थे वर्त्तेते यस्य सहायेन शत्रवः समत्सु न वृणवते सम्यग् बलं न सेवन्ते तस्मा इन्द्राय तमिन्द्रं नित्यं गायत॥4॥ भावार्थः—अत्र श्लेषालङ्कारः। न यावन्मनुष्याः परमेश्वरेष्टा बलवन्तश्च भवन्ति, नैव तावद् दुष्टानां शत्रूणां नैर्बल्यङ्कर्तु शक्तिर्जायत इति॥4॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! तुम लोग (यस्य) जिस परमेश्वर वा सूर्य्य के (हरी) पदार्थों को प्राप्त करानेवाले बल और पराक्रम तथा प्रकाश और आकर्षण (संस्थे) इस संसार में वर्त्तमान हैं, जिनके सहाय से (समत्सु) युद्धों में (शत्रवः) वैरी लोग (न वृण्वते) अच्छी प्रकार बल नहीं कर सकते, (तस्मै) उस (इन्द्राय) परमेश्वर वा सूर्य्यलोक को उनके गुणों की प्रशंसा कह और सुन के यथावत् जानलो॥4॥ भावार्थः—इसमें श्लेषालङ्कार है। जब तक मनुष्य लोग परमेश्वर को अपने इष्ट देव समझनेवाले और बलवान् अर्थात् पुरुषार्थी नहीं होते, तब तक उनको दुष्ट शत्रुओं की निर्बलता करने को सामर्थ्य भी नहीं होता॥4॥ जगत्स्थाः पदार्थाः किमर्थाः कीदृशाः केन पवित्रीकृताश्च सन्तीत्युपदिश्यते। ये संसारी पदार्थ किसलिये उत्पन्न किये गये और कैसे हैं, ये किससे पवित्र किये जाते हैं, इस विषय का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है- सु॒त॒पाव्ने॑ सु॒ता इ॒मे शुच॑यो यन्ति वी॒तये॑। सोमा॑सो॒ दध्या॑शिरः॥5॥9॥ सु॒त॒पाव्ने॑। सु॒ताः। इ॒मे। शुच॑यः। य॒न्ति॒। वी॒तये॑। सोमा॑सः। दधि॑ऽआशिरः॥5॥ पदार्थः—(सुतपाव्ने) सुतानामाभिमुख्येनोत्पादितानां पदार्थानां भाव रक्षको जीवस्तस्मै। अत्र आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च इति वनिप्प्रत्ययः। (सुताः) उत्पादिताः (इमे) सर्वे (शुचयः) पवित्राः (यन्ति) यान्ति प्राप्नुवन्ति (वीतये) ज्ञानाय भोगाय वा। वी गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु अस्मात् मन्त्रे वृषेषपचमनभूवीरा उदात्तः अनेन क्तिन्प्रत्यय उदात्तत्वं च। (सोमासः) अभिसूयन्त उत्पद्यन्त उत्तमा व्यवहारा येषु ते। सोम इति पदनामसु पठितम्। (निघं॰5.5) (दध्याशिरः) दधति पुष्णन्तीति दधयस्ते समन्तात् शीर्यन्ते येषु ते। दधातेः प्रयोगः आदृगम॰ (अष्टा॰3.2.171) अनेन किन् प्रत्ययः। शॄ हिंसार्थः, ततः क्विप्॥5॥ अन्वयः—इन्द्रेण परमेश्वरेण वायुसूर्य्याभ्यां वा यतः सुतपाव्ने वीतय इमे दध्याशिरः शुचयः सोमासः सर्वे पदार्था उत्पादिताः पवित्रीकृताः सन्ति, तस्मादेतान् सर्वे जीवा यन्ति प्राप्नुवन्ति॥5॥ भावार्थः—अत्र श्लेषालङ्कारः। ईश्वरेण सर्वेषां जीवानामुपरि कृपां कृत्वा कर्मानुसारेण फलदानाय सर्वं कार्य्यं जगद्रच्यते पवित्रीयते चैवं पवित्रकारकौ सूर्य्यपवनौ च, तेन हेतुना सर्वे जडाः पदार्था जीवाश्च पवित्राः सन्ति। परन्तु ये मनुष्याः पवित्रगुणकर्मग्रहणे पुरुषार्थिनो भूत्वैतेभ्यो यथावदुपयोगं गृहीत्वा ग्राहयन्ति, त एव पवित्रा भूत्वा सुखिनो भवन्ति॥5॥ इति नवमो वर्गः॥ पदार्थः—परमेश्वर ने वा वायुसूर्य से जिस कारण (सुतपाव्ने) अपने उत्पन्न किये हुए पदार्थों की रक्षा करनेवाले जीव के, तथा (वीतये) ज्ञान वा भोग के लिये (दध्याशिरः) जो धारण करनेवाले उत्पन्न होते हैं, तथा (शुचयः) जो पवित्र (सोमासः) जिनसे अच्छे व्यवहार होते हैं, वे सब पदार्थ जिसने उत्पादन करके पवित्र किये हैं, इसी से सब प्राणि लोग इन को प्राप्त होते हैं॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जब ईश्वर ने सब जीवों पर कृपा करके उनके कर्मों के अनुसार यथायोग्य फल देने के लिये सब कार्य्यरूप जगत् को रचा और पवित्र किया है, तथा पवित्र करने करानेवाले सूर्य्य और पवन को रचा है, उसी हेतु से सब जड़ पदार्थ वा जीव पवित्र होते हैं। परन्तु जो मनुष्य पवित्र गुणकर्मों के ग्रहण से पुरुषार्थी होकर संसारी पदार्थों से यथावत् उपयोग लेते तथा सब जीवों को उनके उपयोगी कराते हैं, वे ही मनुष्य पवित्र और सुखी होते हैं॥5॥ यह नवाँ वर्ग समाप्त हुआ॥ किं कृत्वा जीवः पूर्वोक्तोपयोगग्रहणे समर्थो भवतीत्युपदिश्यते। ईश्वर ने, जीव जिस करके पूर्वोक्त उपयोग के ग्रहण करने को समर्थ होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है- त्वं सु॒तस्य॑ पी॒तये॑ स॒द्यो वृ॒द्धो अ॑जायथाः। इन्द्र॒ ज्यैष्ठ्या॑य सुक्रतो॥6॥ त्वम्। सु॒तस्य॑। पी॒तये॑। स॒द्यः। वृ॒द्धः। अ॒जा॒य॒थाः॒। इन्द्र॑। ज्यैष्ठ्या॑य। सु॒क्र॒तो॒ इति॑ सुक्रतो॥6॥ पदार्थः—(त्वम्) जीवः (सुतस्य) उत्पन्नस्यास्य जगत्पदार्थसमूहस्य सकाशाद्रसस्य (पीतये) पानाय ग्रहणाय वा (सद्यः) शीघ्रम् (वृद्धः) ज्ञानादिसर्वगुणग्रहणेन सर्वोपकारकरणे च श्रेष्ठः (अजायथाः) प्रादुर्भूतो भव (इन्द्र) विद्यादिपरमैश्वर्य्ययुक्त विद्वन्। इन्द्र इति पदनामसु पठितम्। (निघं॰5.4) अनेन गन्ता प्रापको विद्वान् जीवो गृह्यते। (ज्यैष्ठ्याय) अत्युत्तमकर्मणामनुष्ठानाय (सुक्रतो) श्रेष्ठकर्मबुद्धियुक्त मनुष्य॥6॥ अन्वयः—हे इन्द्र सुक्रतो विद्वन् मनुष्य! त्वं सद्यः सुतस्य पीतये ज्यैष्ठ्याय वृद्धो अजायथाः॥6॥ भावार्थः—जीवायेश्वरोपदिशति-हे मनुष्य! यावत्त्वं न विद्यावृद्धो भूत्वा सम्यक् पुरुषार्थं परोपकारं च करोषि, नैव तावन्मनुष्यभावं सर्वोत्तमसुखं च प्राप्स्यसि, तस्मात्त्वं धार्मिको भूत्वा पुरुषार्थी भव॥6॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) विद्यादिपरमैश्वर्ययुक्त (सुक्रतो) श्रेष्ठ कर्म करने और उत्तम बुद्धिवाले विद्वान् मनुष्य! (त्वम्) तू (सद्यः) शीघ्र (सुतस्य) संसारी पदार्थों के रस के (पीतये) पान वा ग्रहण और (ज्यैष्ठ्याय) अत्युत्तम कर्मों के अनुष्ठान करने के लिये (वृद्धः) विद्या आदि शुभ गुणों के ज्ञान के ग्रहण और सब के उपकार करने में श्रेष्ठ (अजायथाः) हो॥6॥ भावार्थः—ईश्वर जीव के लिये उपदेश करता है कि-हे मनुष्य! तू जबतक विद्या में वृद्ध होकर अच्छी प्रकार परोपकार न करेगा, तब तक तुझको मनुष्यपन और सर्वोत्तम सुख की प्राप्ति कभी न होगी, इससे तू परोपकार करने वाला सदा हो॥6॥ क एवमनुष्ठात्रे जीवायाशीर्ददातीत्युपदिश्यते। उक्त काम के आचरण करने वाले जीव को आशीर्वाद कौन देता है, इस बात का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है- आ त्वा॑ विशन्त्वा॒शवः॒ सोमा॑स इन्द्र गिर्वणः। शन्ते॑ सन्तु॒ प्रचे॑तसे॥7॥ आ। त्वा॒। वि॒श॒न्तु॒। आ॒शवः॑। सोमा॑सः। इ॒न्द्र॒। गि॒र्व॒णः॒। शम्। ते॒। स॒न्तु॒। प्रऽचे॑तसे॥7॥ पदार्थः—(आ) समन्तात् (त्वा) त्वां जीवम् (विशन्तु) आविष्टा भवन्तु (आशवः) वेगादिगुणसहिताः सर्वक्रियाव्याप्ताः (सोमासः) सर्वे पदार्थाः (इन्द्र) जीव विद्वन् (गिर्वणः) गीर्भिर्वन्यते सम्भज्यते स गिर्वणास्तत्सम्बुद्धौ। गिर्वणा देवो भवति गीर्भिरेनं वनयन्ति। (निरु॰6.14) देवशब्देनात्र प्रशस्तैर्गुणैः स्तोतुमर्हो विद्वान् गृह्यते। गिर्वणस इति पदनामसु पठितम्। (निघं॰4.3) (शम्) सुखम्। शमिति सुखनामसु पठितम्। (निघं॰3.6) (ते) तुभ्यम् (सन्तु) (प्रचेतसे) प्रकृष्टं चेतो विज्ञानं यस्य तस्मै॥7॥ अन्वयः—हे धार्मिक गिर्वण इन्द्र विद्वन् मनुष्य! आशवः सोमासस्त्वा त्वामाविशन्तु, एवंभूताय प्रचेतसे ते तुभ्यं मदनुग्रहेणैते शंसन्तु सुखकारका भवन्तु॥7॥ भावार्थः—ईश्वर ईदृशाय जीवायाशीर्वादं ददाति यदा यो विद्वान् परोपकारी भूत्वा मनुष्यो नित्यमुद्योगं करोति तदैव सर्वेभ्यः पदार्थेभ्यः उपकारं सङ्गृह्य सर्वान् प्राणिनः सुखयति, स सर्वं सुखं प्राप्नोति नेतर इति॥7॥ पदार्थः—हे धार्मिक (गिर्वणः) प्रशंसा के योग्य कर्म करने वाले (इन्द्र) विद्वान् जीव! (आशवः) वेगादि गुण सहित सब क्रियाओं से व्याप्त (सोमासः) सब पदार्थ (त्वा) तुझ को (आविशन्तु) प्राप्त हों, तथा इन पदार्थों को प्राप्त हुए (प्रचेतसे) शुद्ध ज्ञानवाले (ते) तेरे लिये (शम्) ये सब पदार्थ मेरे अनुग्रह से सुख करनेवाले (सन्तु) हों॥7॥ भावार्थः—ईश्वर ऐसे मनुष्यों को आशीर्वाद देता है कि जो मनुष्य विद्वान् परोपकारी होकर अच्छी प्रकार नित्य उद्योग करके इन सब पदार्थों से उपकार ग्रहण करके सब प्राणियों को सुखयुक्त करता है, वही सदा सुख को प्राप्त होता है, अन्य कोई नहीं॥7॥ एतदर्थमिन्द्रशब्दार्थ उपदिश्यते। ईश्वर ने उक्त अर्थ ही के प्रकाश करने वाले इन्द्र शब्द का अगले मन्त्र में भी प्रकाश किया है- त्वां स्तोमा॑ अवीवृध॒न् त्वामु॒क्था श॑तक्रतो। त्वां व॑र्धन्तु नो॒ गिरः॑॥8॥ त्वाम्। स्तोमाः॑। अ॒वी॒वृ॒ध॒न्। त्वाम्। उ॒क्था। श॒त॒क्रतो॒ इति॑ शतक्रतो। त्वाम्। व॒र्ध॒न्तु॒। नः॒। गिरः॑॥8॥ पदार्थः—(त्वाम्) इन्द्रं परमेश्वरम् (स्तोमाः) वेदस्तुतिसमूहाः (अवीवृधन्) वर्धयन्ति। अत्र लडर्थे लुङ्। (त्वाम्) स्तोतव्यम् (उक्था) परिभाषितुमर्हाणि वेदस्थानि सर्वाणि स्तोत्राणि। पातृतुदिवचि॰। (उणा॰2.7) अनेन वचधातोस्थक्प्रत्ययस्तेनोक्थस्य सिद्धिः। शेश्छन्दसि बहुलमिति शेर्लुक्। (शतक्रतो) उक्तोऽस्यार्थः (त्वाम्) सर्वज्येष्ठम् (वर्धन्तु) वर्धयन्तु। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (नः) अस्माकम् (गिरः) विद्यासत्यभाषणादियुक्ता वाण्यः। गीरिति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं॰1.11)॥8॥ अन्वयः—हे शतक्रतो बहुकर्मवन् बहुप्रज्ञेश्वर! यथा स्तोमास्त्वामवीवृधन् अत्यन्तं वर्धयन्ति, यथा च त्वमुक्थानि स्तुतिसाधकानि वर्धितानि कृतवान्, तथैव नो गिरस्त्वां वर्धन्तु सर्वथा प्रकाशयन्तु॥8॥ भावार्थः—अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। यथा ये विश्वस्मिन्पृथिवीसूर्य्यादयः सृष्टाः पदार्थाः सन्ति ते सर्वे सर्वकर्त्तारं परमेश्वरं ज्ञापयित्वा तमेव प्रकाशयन्ति, तथैतानुपकारानीश्वरगुणाँश्च सम्यग् विदित्वा विद्वांसोऽपीदृश एव कर्मणि प्रवर्त्तेरन्निति॥8॥ पदार्थः—हे (शतक्रतो) असंख्यात कर्मों के करने और अनन्त विज्ञान के जाननेवाले परमेश्वर! जैसे (स्तोमाः) वेद के स्तोत्र तथा (उक्था) प्रशंसनीय स्तोत्र आपको (अवीवृधन्) अत्यन्त प्रसिद्ध करते हैं, वैसे ही (नः) हमारी (गिरः) विद्या और सत्यभाषणयुक्त वाणी भी (त्वाम्) आपको (वर्धन्तु) प्रकाशित करे॥8॥ भावार्थः—जो विश्व में पृथिवी सूर्य्य आदि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रचे हुए पदार्थ हैं, वे सब जगत् की उत्पत्ति करनेवाले तथा धन्यवाद देने के योग्य परमेश्वर ही को प्रसिद्ध करके जनाते हैं, जिससे न्याय और उपकार आदि ईश्वर के गुणों को अच्छी प्रकार जानके विद्वान् भी वैसे ही कर्मों में प्रवृत्त हों॥8॥ स जगदीश्वरोऽस्मदर्थं किं कुर्य्यादित्युपदिश्यते। वह जगदीश्वर हमारे लिये क्या करे, सो अगले मन्त्र में वर्णन किया है- अक्षि॑तोतिः सनेदि॒मं वाज॒मिन्द्रः॑ सह॒स्रिण॑म्। यस्मि॒न् विश्वा॑नि॒ पौंस्या॑॥9॥ अक्षि॑तऽऊतिः। स॒ने॒त्। इ॒मम्। वाज॑म्। इन्द्रः॑। स॒॒ह॒स्रिण॑म्। यस्मि॑न्। विश्वा॑नि। पौंस्या॑॥9॥ पदार्थः—(अक्षितोतिः) क्षयरहिता ऊतिर्ज्ञानं यस्य सोऽक्षितोतिः (सनेत्) सम्यग् सेवयेत् (इमम्) प्रत्यक्षविषयम् (वाजम्) पदार्थविज्ञानम् (इन्द्रः) सकलैश्वर्य्ययुक्तः परमात्मा (सहस्रिणम्) सहस्राण्यसंख्यातानि सुखानि यस्मिन्सन्ति तम्। तपःसहस्राभ्यां विनीनी। (अष्टा॰5.2.102) अनेन सहस्रशब्दादिनिः। (यस्मिन्) व्यवहारे (विश्वानि) समस्तानि (पौंस्या) पुंसो बलानि। पौंस्यानीति बलनामसु पठितम्। (निघं॰2.9) शेर्लुगत्रापि॥9॥ अन्वयः—योऽक्षितोतिरिन्द्रः परमेश्वरोऽस्ति स यस्मिन् विश्वानि पौंस्यानि बलानि सन्ति तानि सनेत्संसेवयेदस्मदर्थमिमं सहस्रिणं वाजं च, यतो वयं सर्वाणि सुखानि प्राप्नुयाम॥9॥ भावार्थः—वयं यस्य सत्तयेमे पदार्था बलवन्तो भूत्वा स्वस्य स्वस्य व्यवहारे वर्त्तन्ते, तेभ्यो बलादिगुणेभ्यो विश्वसुखार्थं पुरुषार्थं कुर्य्याम, सोऽस्मिन्व्यवहारेऽस्माकं सहायं करोत्विति प्रार्थ्यते॥9॥ पदार्थः—जो (अक्षितोतिः) नित्य ज्ञानवाला (इन्द्रः) सब ऐश्वर्य्ययुक्त परमेश्वर है, वह कृपा करके हमारे लिये (यस्मिन्) जिस व्यवहार में (विश्वानि) सब (पौंस्या) पुरुषार्थ से युक्त बल हैं (इमम्) इस (सहस्रिणम्) असंख्यात सुख देनेवाले (वाजम्) पदार्थों के विज्ञान को (सनेत्) सम्यक् सेवन करावे, कि जिससे हम लोग उत्तम-उत्तम सुखों को प्राप्त हों॥9॥ भावार्थः—जिसकी सत्ता से संसार के पदार्थ बलवान् होकर अपने-अपने व्यवहारों में वर्त्तमान हैं, उन सब बल आदि गुणों से उपकार लेकर विश्व के नाना प्रकार के सुख भोगने के लिये हम लोग पूर्ण पुरुषार्थ करें, तथा ईश्वर इस प्रयोजन में हमारा सहाय करे, इसलिये हम लोग ऐसी प्रार्थना करते हैं॥9॥ कस्य रक्षणेन पुरुषार्थः सिद्धो भवतीत्युपदिश्यते। किसकी रक्षा से पुरुषार्थ सिद्ध होता है, इस विषय का प्रकाश ईश्वर ने अगले मन्त्र में किया है- मा नो॒ मर्त्ता॑ अ॒भिद्रु॑हन् त॒नूना॑मिन्द्र गिर्वणः। ईशा॑नो यवया व॒धम्॥10॥10॥ मा। नः॒। मर्त्ताः॑। अ॒भि। द्रु॒ह॒न्। त॒नूना॑म्। इन्द्र॒। गि॒र्व॒णः॒। ईशा॑नः। य॒व॒य॒। व॒धम्॥10॥ पदार्थः—(मा) निषेधार्थे (नः) अस्माकमस्मान्वा (मर्त्ताः) मरणधर्माणो मनुष्याः। मर्त्ता इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं॰2.3) (अभिद्रुहन्) अभिद्रुह्यन्त्वभिजिघांसन्तु। अत्र व्यत्ययेन शो लोडर्थे लुङ् च। (तनूनाम्) शरीराणां विस्तृतानां पदार्थानां वा (इन्द्र) सर्वरक्षकेश्वर! (गिर्वणः) वेदशिक्षाभ्यां संस्कृताभिर्गीर्भिर्वन्यते सम्यक् सेव्यते यस्तत्सम्बुद्धौ (ईशानः) योऽसावीष्टे (यवया) मिश्रय। प्रातिपदिकाद्धात्वर्थे बहुलमिष्ठवच्चेति यवशब्दाद्धात्वर्थे णिच्। अन्येषामपि दृश्यते। (अष्टा॰6.3.137) इति दीर्घः। (वधम्) हननम्॥10॥ अन्वयः—हे गिर्वणः सर्वशक्तिमन्निन्द्र परमेश्वर! ईशानस्त्वं नोऽस्माकं तनूनां वधं मा यवय। इमे मर्त्ताः सर्वे प्राणिनोऽस्मान् मा अभिद्रुहन् मा जिघांसन्तु॥10॥ भावार्थः—नैव कोऽपि मनुष्योऽन्यायेन कंचिदपि प्राणिनं हिंसितुमिच्छेत्, किन्तु सर्वैः सह मित्रतामाचरेत्। यथेश्वरः कंचिदपि नाभिद्रुह्यति, तथैव सर्वैर्मनुष्यैरनुष्ठातव्यमिति॥10॥ अनेन पञ्चमेन सूक्तेन मनुष्यैः कथं पुरुषार्थः कर्त्तव्यः सर्वोपकारश्चेति चतुर्थेन सूक्तेन सह सङ्गतिरस्तीति विज्ञेयम्। इदमपि सूक्तं सायणाचार्य्यादिभिर्विलसनाख्यादिभिश्चान्यथार्थं वर्णितम्॥ इति पञ्चमं सूक्तं दशमश्च वर्गः समाप्तः॥ पदार्थः—हे (गिर्वणः) वेद वा उत्तम-उत्तम शिक्षाओं से सिद्ध की हुई वाणियों करके सेवा करने योग्य सर्वशक्तिमान् (इन्द्र) सब के रक्षक (ईशानः) परमेश्वर! आप (नः) हमारे (तनूनाम्) शरीरों के (वधम्) नाश दोषसहित (मा) कभी मत (यवय) कीजिये, तथा आपके उपदेश से (मर्त्ताः) ये सब मनुष्य लोग भी (नः) हम से (मा) (अभिद्रुहन्) वैर कभी न करें॥10॥ भावार्थः—कोई मनुष्य अन्याय से किसी प्राणी को मारने की इच्छा न करे, किन्तु परस्पर मित्रभाव से वर्त्तें, क्योंकि जैसे परमेश्वर विना अपराध से किसी का तिरस्कार नहीं करता, वैसे ही सब मनुष्यों को भी करना चाहिये॥10॥ इस पञ्चम सूक्त की विद्या से मनुष्यों को किस प्रकार पुरुषार्थ और सब का उपकार करना चाहिये, इस विषय के कहने से चौथे सूक्त के अर्थ के साथ इसकी सङ्गति जाननी चाहिये। इस सूक्त का भी अर्थ सायणाचार्य्य आदि और डाक्टर विलसन आदि साहबों ने उलटा किया है॥ यह पाँचवाँ सूक्त और दशवाँ वर्ग समाप्त हुआ॥

अथ दशर्च्चस्य षष्ठस्य सूक्तस्य मधुच्छन्दा ऋषिः। 1-3 इन्द्रः; 4,6,8,9 मरुतः; 5.7 मरुत इन्द्रश्च; 10 इन्द्रश्च देवताः। 1,3, 5-7, 9-10 गायत्री; 2 विराड्गायत्री; 4,8 निचृद्गायत्री च छन्दः। षड्जः स्वरः॥ मन्त्रोक्तविद्यार्थं केऽर्था उपयोक्तव्या इत्युपदिश्यते। छठे सूक्त के प्रथम मन्त्र में यथायोग्य कार्य्यों में किस प्रकार से किन-किन पदार्थों को संयुक्त करना चाहिये, इस विषय का उपदेश किया है- यु॒ञ्जन्ति॑ ब्र॒ध्नम॑रु॒षं चर॑न्तं॒ परि॑ त॒स्थुषः॑। रोच॑न्ते रोच॒ना दि॒वि॥1॥ यु॒ञ्जन्ति॑। ब्र॒ध्नम्। अ॒रु॒षम्। चर॑न्तम्। परि॑। त॒स्थुषः॑। रोच॑न्ते। रो॒च॒ना। दि॒वि॥1॥ पदार्थः—(युञ्जन्ति) योजयन्ति (ब्रध्नम्) महान्तं परमेश्वरम्। शिल्पविद्यासिद्धय आदित्यमग्निं प्राणं वा। ब्रध्न इति महन्नामसु पठितम्। (निघं॰3.3) अश्वनामसु च। (निघं॰1.14) (अरुषम्) सर्वेषु मर्मसु सीदन्तमहिंसकं परमेश्वरं प्राणवायुं तथा बाह्ये देशे रूपप्रकाशकं रक्तगुणविशिष्टमादित्यं वा। अरुषमिति रूपनामसु पठितम्। (निघं॰3.7) (चरन्तम्) सर्व जगज्जानन्तं सर्वत्र व्याप्नुवन्तम् (परि) सर्वतः (तस्थुषः) तिष्ठन्तीति तान् सर्वान् स्थावरान् पदार्थान् मनुष्यान् वा। तस्थुष इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं॰2.3) (रोचन्ते) प्रकाशन्ते रुचिहेतवश्च भवन्ति (रोचना) प्रकाशिताः प्रकाशकाश्च (दिवि) द्योतनात्मके ब्रह्मणि सूर्य्यादिप्रकाशे वा। अयं मन्त्रः शतपथेऽप्येवं व्याख्यातः—युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तमिति। असौ वा आदित्यो ब्रध्नोऽरुषोमुमेवाऽस्मा आदित्यं युनक्ति स्वर्गस्य लोकस्य समष्ट्यै। (श॰ब्रा॰13.1.15.1)॥1॥ अन्वयः—ये मनुष्या अरुषं ब्रध्नं परितस्थुषश्चरन्तं परमात्मानं स्वात्मनि बाह्यदेशे सूर्य्यं वायुं वा युञ्जन्ति ते रोचना सन्तो दिवि प्रकाशे रोचन्ते प्रकाशन्ते॥1॥ भावार्थः—ईश्वर उपदिशति-ये खलु विद्यासम्पादने उद्युक्ता भवन्ति तानेव सर्वाणि सुखानि प्राप्नुवन्ति। तस्माद्विद्वांसः पृथिव्यादिपदार्थेभ्य उपयोगं सङ्गृह्योपग्राह्य च सर्वान् प्राणिनः सुखयेयुरिति। यूरोपदेशवासिना भट्टमोक्षमूलराख्येनास्य मन्त्रस्यार्थो रथेऽश्वस्य योजनरूपो गृहीतः; सोऽन्यथास्तीति भूमिकायां लिखितम्॥1॥ पदार्थः—जो मनुष्य (अरुषम्) अङ्ग-अङ्ग में व्याप्त होनेवाले हिंसारहित सब सुख को करने (चरन्तम्) सब जगत् को जानने वा सब में व्याप्त (परितस्थुषः) सब मनुष्य वा स्थावर जङ्गम पदार्थ और चराचर जगत् में भरपूर हो रहा है, (ब्रध्नम्) उस महान् परमेश्वर को उपासना योग द्वारा प्राप्त होते हैं, वे (दिवि) प्रकाशरूप परमेश्वर और बाहर सूर्य्य वा पवन के बीच में (रोचना) ज्ञान से प्रकाशमान होके (रोचन्ते) आनन्द में प्रकाशित होते हैं। तथा जो मनुष्य (अरुषम्) दृष्टिगोचर में रूप का प्रकाश करने तथा अग्निरूप होने से लाल गुणयुक्त (चरन्तम्) सर्वत्र गमन करनेवाले (ब्रध्नम्) महान् सूर्य्य और अग्नि को शिल्पविद्या में (परियुञ्जन्ति) सब प्रकार से युक्त करते हैं, वे जैसे (दिवि) सूर्य्यादि के गुणों के प्रकाश में पदार्थ प्रकाशित होते हैं, वैसे (रोचनाः) तेजस्वी होके (रोचन्ते) नित्य उत्तम-उत्तम आनन्द से प्रकाशित होते हैं॥1॥ भावार्थः—जो लोग विद्यासम्पादन में निरन्तर उद्योग करनेवाले होते हैं, वे ही सब सुखों को प्राप्त होते हैं। इसलिये विद्वान् को उचित है कि पृथिवी आदि पदार्थों से उपयोग लेकर सब प्राणियों को लाभ पहुंचावे कि जिससे उनको भी सम्पूर्ण सुख मिलें। जो यूरोपदेशवासी मोक्षमूलर साहब आदि ने इस मन्त्र का अर्थ घोड़े को रथ में जोड़ने का लिया है, सो ठीक नहीं। इसका खण्डन भूमिका में लिख दिया है, वहां देख लेना चाहिये॥1॥ उक्तार्थस्य कीदृशौ गुणौ क्व योक्तव्यावित्युपदिश्यते। उक्त सूर्य्य और अग्नि आदि के कैसे गुण हैं, और वे कहां-कहां उपयुक्त करने योग्य हैं, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है- यु॒ञ्जन्त्य॑स्य॒ काम्या॒ हरी॒ विप॑क्षसा॒ रथे॑। शोणा॑ धृ॒ष्णू नृ॒वाह॑सा॥2॥ यु॒ञ्जन्ति॑। अ॒स्य॒। काम्या॑। हरी॒ इति॑। विप॑क्षसा। रथे॑। शोणा॑। धृ॒ष्णू इति॑। नृ॒ऽवाह॑सा॥2॥ पदार्थः—(युञ्जन्ति) युञ्जन्तु। अत्र लोडर्थे लट्। (अस्य) सूर्य्यस्याग्नेः (काम्या) कामयितव्यौ। अत्र सर्वत्र सुपां सुलुगित्याकारादेशः। (हरी) हरणशीलावाकर्षणवेगगुणौ पूर्वपक्षापरपक्षौ वा। इन्द्रस्य हरी ताभ्यामिदꣳ सर्वं हरतीति। (षड्विंशब्रा॰प्रपा॰1.ख॰1) (विपक्षसा) विविधानि यन्त्रकलाजलचक्र- भ्रमणयुक्तानि पक्षांसि पार्श्वे स्थितानि ययोस्तौ (रथे) रमणसाधने भूजलाकाशगमनार्थे याने। यज्ञसंयोगाद्राजा स्तुतिं लभेत, राजसंयोगाद्युद्धोपकरणानि। तेषां रथः प्रथमगामी भवति। रथो रंहतेर्गतिकर्मणः स्थिरतेर्वा स्याद्विपरीतस्य रममाणोऽस्मिँस्तिष्ठतीति वा रपतेर्वा रसतेर्वा। (निरु॰9.11) रथ इति पदनामसु पठितम्। (निघं॰5.3) आभ्यां प्रमाणाभ्यां रथशब्देन विशिष्टानि यानानि गृह्यन्ते। (शोणा) वर्णप्रकाशकौ गमनहेतू च (धृष्णू) दृढौ (नृवाहसौ) सम्यग्योजितौ नॄन् वहतस्तौ॥2॥ अन्वयः—हे विद्वांसोऽस्य काम्यौ शोणौ धृष्णू विपक्षसौ नृवाहसौ हरी रथे युञ्जन्ति युञ्जन्तु॥2॥ भावार्थः—ईश्वर उपदिशति-न यावन्मनुष्या भूजलाग्न्यादिपदार्थानां गुणज्ञानोपकारग्रहणाभ्यां भूजलाकाशगमनाय यानानि सम्पादयन्ति नैव तावत्तेषां दृढे राज्यश्रियौ सुसुखे भवतः। शारमण्यदेशनिवासिनाऽस्य मन्त्रस्य विपरीतं व्याख्यानं कृतमस्ति। तद्यथा-‘अस्येति सर्वनाम्नो निर्देशात् स्पष्टं गम्यत इन्द्रस्य ग्रहणम्। कुतः, रक्तगुणविशिष्टावश्वावस्यैव सम्बन्धिनौ भवतोऽतः। नात्र खलु सूर्य्योषसोर्ग्रहणम्। कुतः, प्रथममन्त्र एकस्याश्वस्याभिधानात्।’ इति मोक्षमूलरकृतोऽर्थः सम्यङ् नास्तीति। कुतः, अस्येति पदेन भौतिकपदार्थयोः सूर्य्याग्न्योर्ग्रहणं, न कस्यचिद्देहधारिणः। हरी इति सूर्य्यस्य धारणाकर्षणगुणयोर्ग्रहणम्। शोणेति पदेनाग्ने रक्तज्वालागुणयोर्ग्रहणार्हेण पूर्वमन्त्रेऽश्वाभिधान एकवचनं जात्यभिप्रायेण चास्त्यतः। इदं शब्दप्रयोगः खलु प्रत्यक्षार्थवाचित्वात् संनिहितार्थस्य सूर्य्यादेरेव ग्रहणाच्च तत्कल्पितोऽर्थोऽन्यथैवास्तीति॥2॥ पदार्थः—जो विद्वान् (अस्य) सूर्य्य और अग्नि के (काम्या) सब के इच्छा करने योग्य (शोणा) अपने-अपने वर्ण के प्रकाश करनेहारे वा गमन के हेतु (धृष्णू) दृढ (विपक्षसा) विविध कला और जल के चक्र घूमनेवाले पांखरूप यन्त्रों से युक्त (नृवाहसा) अच्छी प्रकार सवारियों में जुड़े हुए मनुष्यादिकों को देशदेशान्तर में पहुंचानेवाले (हरी) आकर्षण और वेग तथा शुक्लपक्ष और कृष्णपक्षरूप दो घोड़े जिनसे सब का हरण किया जाता है, इत्यादि श्रेष्ठ गुणों को पृथिवी जल और आकाश में जाने आने के लिये अपने-अपने रथों में (युञ्जन्ति) जोड़ें॥2॥ भावार्थः—ईश्वर उपदेश करता है कि-मनुष्य लोग जब तक भू जल आदि पदार्थों के गुण ज्ञान और उनके उपकार से भू जल और आकाश में जाने आने के लिये अच्छी सवारियों को नहीं बनाते, तब तक उनको उत्तम राज्य और धन आदि उत्तम सुख नहीं मिल सकते। जरमन देश के रहनेवाले मोक्षमूलर साहब ने इस मन्त्र का विपरीत व्याख्यान किया है। सो यह है कि-‘अस्य’ सर्वनामवाची इस शब्द के निर्देश से स्पष्ट मालूम होता है कि इस मन्त्र में इन्द्र देवता का ग्रहण है, क्योंकि लाल रंग के घोड़े इन्द्र ही के हैं। और यहां सूर्य्य तथा उषा का ग्रहण नहीं, क्योंकि प्रथम मन्त्र में एक घोड़े का ही ग्रहण किया है। यह उनका अर्थ ठीक नहीं, क्योंकि ‘अस्य’ इस पद से भौतिक जो सूर्य्य और अग्नि हैं, इन्हीं दोनों का ग्रहण है, किसी देहधारी का नहीं। ‘हरी’ इस पद से सूर्य्य के धारण और आकर्षण गुणों का ग्रहण तथा ‘शोणा’ इस शब्द से अग्नि की लाल लपटों के ग्रहण होने से और पूर्व मन्त्र में एक अश्व का ग्रहण जाति के अभिप्राय से अर्थात् एकवचन से अश्व जाति का ग्रहण होता है। और ‘अस्य’ यह शब्द प्रत्यक्ष अर्थ का वाची होने से सूर्य्यादि प्रत्यक्ष पदार्थों का ग्राहक होता है, इत्यादि हेतुओं से मोक्षमूलर साहब का अर्थ सच्चा नहीं॥2॥ येनेमे पदार्था उत्पादिताः स कीदृश इत्युपदिश्यते। जिसने संसार के सब पदार्थ उत्पन्न किये हैं, वह कैसा है, यह बात अगले मन्त्र में प्रकाशित की है- के॒तुं कृ॒ण्वन्न॑के॒तवे॒ पेशो॑ मर्या अपे॒शसे॑। समु॒षद्भि॑रजायथाः॥3॥ के॒तुम्। कृ॒ण्वन्। अ॒के॒तवे॑। पेशः॑। म॒र्य्याः॒। अ॒पे॒शसे॑। सम्। उ॒षत्ऽभिः॑। अ॒जा॒य॒थाः॒॥3॥ पदार्थः—(केतुम्) प्रज्ञानम्। केतुरिति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं॰3.9) (कृण्वन्) कुर्वन्सन्। इदं कृवि हिंसाकरणयोश्चेत्यस्य रूपम्। (अकेतवे) अज्ञानान्धकारविनाशाय (पेशः) हिरण्यादिधनं श्रेष्ठं रूपं वा। पेश इति हिरण्यनामसु पठितम्। (निघं॰1.2) रूपनामसु च। (निघं॰3.7) (मर्य्याः) मरणधर्मशीला मनुष्यास्तत्सम्बोधने। मर्य्या इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं॰2.3) (अपेशसे) निर्धनतादारिद्र्यादिदोषविनाशाय (सम्) सम्यगर्थे (उषद्भिः) ईश्वरादिपदार्थविद्याः कामयमानैर्विद्वद्भिः सह समागमं कृत्वा (अजायथाः) एतद्विद्याप्राप्त्या प्रकटो भव। अत्र लोडर्थे लङ्॥3॥ अन्वयः—हे मर्य्याः! यो जगदीश्वरोऽकेतवे केतुमपेशसे पेशः कृणवन्सन् वर्त्तते तं सर्वा विद्याश्च समुषद्भिः समागमं कृत्वा यूयं यथाद्विजानीत। तथा हे जिज्ञासु मनुष्य! त्वमपि तत्समागमेनाऽजायथाः, एतद्विद्याप्राप्त्या प्रसिद्धो भव॥3॥ भावार्थः—मनुष्यै रात्रेश्चतुर्थे प्रहर आलस्यं त्यक्त्वोत्थायाज्ञानदारिद्र्यविनाशाय नित्यं प्रयत्नवन्तो भूत्वा परमेश्वरस्य ज्ञानं पदार्थेभ्य उपकारग्रहणं च कार्य्यमिति। ‘यद्यपि मर्य्या इति विशेषतयाऽत्र कस्यापि नाम न दृश्यते, तदप्यत्रेन्द्रस्यैव ग्रहणमस्तीति निश्चीयते। हे इन्द्र! त्वं प्रकाशं जनयसि यत्र पूर्वं प्रकाशो नाभूत्।’ इति मोक्षमूलरकृतोऽर्थोसङ्गतोऽस्ति। कुतो, मर्य्या इति मनुष्यनामसु पठितत्वात् (निघं॰2.3)। अजायथा इति लोडर्थे लङ्विधानेन मनुष्यकर्त्तृकत्वेन पुरुषव्यत्ययेन प्रथमार्थे मध्यमविधानादिति॥3॥ पदार्थः—(मर्य्याः) हे मनुष्य लोगो! जो परमात्मा (अकेतवे) अज्ञानरूपी अन्धकार के विनाश के लिये (केतुम्) उत्तम ज्ञान, और (अपेशसे) निर्धनता दारिद्र्य तथा कुरूपता विनाश के लिये (पेशः) सुवर्ण आदि धन और श्रेष्ठ रूप को (कृण्वन्) उत्पन्न करता है, उसको तथा सब विद्याओं को (समुषद्भिः) जो ईश्वर की आज्ञा के अनुकूल वर्त्तनेवाले हैं, उनसे मिल-मिल कर जान के (अजायथाः) प्रसिद्ध हूजिये। तथा हे जानने की इच्छा करनेवाले मनुष्य! तू भी उस परमेश्वर के समागम से (अजायथाः) इस विद्या को यथावत् प्राप्त हो॥3॥ भावार्थः—मनुष्यों को प्रति रात्रि के चौथे प्रहर में आलस्य छोड़कर फुरती से उठ कर अज्ञान और दरिद्रता के विनाश के लिये प्रयत्नवाले होकर तथा परमेश्वर के ज्ञान और संसारी पदार्थों से उपकार लेने के लिये उत्तम उपाय सदा करना चाहिये। ‘यद्यपि मर्य्याः इस पद से किसी का नाम नहीं मालूम होता, तो भी यह निश्चय करके जाना जाता है कि इस मन्त्र में इन्द्र का ही ग्रहण है कि-हे इन्द्र तू वहां प्रकाश करनेवाला है कि जहां पहिले प्रकाश नहीं था।’ यह मोक्षमूलरजी का अर्थ असङ्गत है, क्योंकि ‘मर्य्याः’ यह शब्द मनुष्य के नामों में निघण्टु में पढ़ा है, तथा ‘अजायथाः’ यह प्रयोग पुरुषव्यत्यय से प्रथम पुरुष के स्थान में मध्यम पुरुष का प्रयोग किया है॥3॥ अथ मरुतां कर्मोपदिश्यते। अगले मन्त्र में वायु के कर्मों का उपदेश किया है- आदह॑ स्व॒धामनु॒ पुन॑र्गर्भ॒त्वमे॑रि॒रे। दधा॑ना॒ नाम॑ य॒ज्ञिय॑म्॥4॥ आत्। अह॑। स्व॒धाम्। अनु॑। पुनः॑। ग॒र्भ॒त्वम्। आ॒ऽई॒रि॒रे। दधा॑नाः। नाम॑। य॒ज्ञिय॑म्॥4॥ पदार्थः—(आत्) आनन्तर्य्यार्थे (अह) विनिग्रहार्थे। अह इति विनिग्रहार्थीयः। (निरु॰1.5) (स्वधाम्) उदकम्। स्वधेत्युदकनामसु पठितम्। (निघं॰1.12) (अनु) वीप्सायाम् (पुनः) पश्चात् (गर्भत्वम्) गर्भस्याधिकरणा वाक् तस्या भावस्तत् (एरिरे) समन्तात् प्राप्नुवन्तः। ईर गतौ कम्पने चेत्यस्यामन्त्र इति प्रतिषेधादामोऽभावे प्रयोगः। (दधानाः) सर्वधारकाः (नाम) उदकम्। नामेत्युदकनामसु पठितम्। (निघं॰1.12) (यज्ञियम्) यज्ञकर्मार्हतीति यज्ञियो देशस्तम्। तत्कर्मार्हतीत्युपसंख्यानम्। (अष्टा॰5.1.71) इति वार्तिकेन घः प्रत्ययः॥4॥ अन्वयः—यथा मरुतो यज्ञियं नाम दधानाः सन्तो यदा स्वधामन्वप्सु पुनर्गर्भत्वमेरिरे, तथा आत् अनन्तरं वृष्टिं कृत्वा पुनर्जलानामहेति विनिग्रहं कुर्वन्ति॥4॥ भावार्थः—यज्जलं सूर्य्याग्निभ्यां लघुत्वं प्राप्य कणीभूतं जायते, तद्धारणं घनाकारं कृत्वा मरुत एव वर्षयन्ति, तेन सर्वपालनं सुखं च जायते। ‘तदनन्तरं मरुतः स्वस्वभावानुकूल्येन बालकाकृतयो जाताः। यैः स्वकीयं शुद्धं नाम रक्षितम्।’ इति मोक्षमूलरोक्तिः प्रणाय्यास्ति। कस्मात्, न खल्वत्र बालकाकृतिशुद्धनामरक्षणयोरविद्यमानत्वेनेन्द्र- संज्ञिकानां मरुतां सकाशादन्यार्थस्य ग्रहणं सम्भवत्यतः॥4॥ पदार्थः—जैसे ‘मरुतः’ वायु (नाम) जल और (यज्ञियम्) यज्ञ के योग्य देश को (दधानाः) सब पदार्थों को धारण किये हुए (पुनः) फिर-फिर (स्वधामनु) जलों में (गर्भत्वम्) उनके समूहरूपी गर्भ को (एरिरे) सब प्रकार से प्राप्त होते कम्पाते, वैसे (आत्) उसके उपरान्त वर्षा करते हैं, ऐसे ही वार-वार जलों को चढ़ाते वर्षाते हैं॥4॥ भावार्थः—जो जल सूर्य्य वा अग्नि के संयोग से छोटा-छोटा होजाता है, उसको धारण कर और मेघ के आकार को बना के वायु ही उसे फिर-फिर वर्षाता है, उसी से सब का पालन और सब को सुख होता है। ‘इसके पीछे वायु अपने स्वभाव के अनुकूल बालक के स्वरूप में बन गये और अपना नाम पवित्र रख लिया।’ देखिये मोक्षमूलर साहब का किया अर्थ मन्त्रार्थ से विरुद्ध है, क्योंकि इस मन्त्र में बालक बनना और अपना पवन नाम रखना, यह बात ही नहीं है। यहां इन्द्र नामवाले वायु का ही ग्रहण है, अन्य किसी का नहीं॥4॥ तैः सह सूर्य्यः किं करोतीत्युपदिश्यते। उन पवनों के साथ सूर्य्य क्या करता है, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है- वी॒ळु चि॑दारुज॒त्नुभि॒र्गुहा॑ चिदिन्द्र॒ वह्नि॑भिः। अवि॑न्द उ॒स्रिया॒ अनु॑॥5॥11॥ वी॒ळु। चि॒त्। आ॒रु॒ज॒त्नुऽभिः॑। गुहा॑। चि॒त्। इ॒न्द्र॒। वह्नि॑भिः। अवि॑न्दः। उ॒स्रियाः॑। अनु॑॥5॥ पदार्थः—(वीळु) दृढं बलम्। वीळु इति बलनामसु पठितम्। (निघं॰2.9) (चित्) उपमार्थे। (निरु॰1.4) (आरुजत्नुभिः) समन्ताद् भञ्जद्भिः। आङ्पूर्वाद् रुजो भङ्ग इत्यस्माद्धातोरौणादिकः क्त्नुः प्रत्ययः। (गुहा) गुहायामन्तरिक्षे। सुपां सुलुगिति ङेर्लुक्। गुहा गूहतेः। (निरु॰13.8) (चित्) एवार्थे। चिदिदं पूजायाम्। (निरु॰1.4) (इन्द्रः) सूर्य्यः (वह्निभिः) वोढृभिर्मरुद्भिः सह। वहिशॄ॰ (उणा॰4.53) इति वहेरौणादिको निः प्रत्ययः। (अविन्दः) लभते। पूर्ववदत्र पुरुषव्यत्ययः, लडर्थे लोट् च। (उस्रियाः) किरणाः। अत्र इयाडियाजीकाराणामुपसंख्यानमित्यनेन शसः स्थाने डियाजादेशः। उस्रेति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं॰1.5) (अनु) पश्चादर्थे॥5॥ अन्वयः—चिद्यथा मनुष्याः स्वसमीपस्थान् पदार्थानुपर्य्यधश्च नयन्ति, तथैवेन्द्रोऽयं सूर्य्यो वीळुबलेनोस्रियाः क्षेपयित्वा पदार्थान् विन्दतेऽनु पश्चात्तान् भित्त्वाऽऽरुजत्नुभिर्वह्निभिर्मरुद्भिः सह त्वामेतत्पदार्थसमूहं गुहायामन्तरिक्षे स्थापयति॥5॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा बलवन्तो मरुतो दृढेन स्ववेगेन दृढानपि वृक्षादीन् भञ्जन्ति तथा सूर्य्यस्तानहर्निशं किरणैश्छिनत्ति मरुतश्च तानुपर्य्यधो नयन्ति, एवमेवेश्वरनियमेन सर्वे पदार्था उत्पत्तिविनाशावपि प्राप्नुवन्ति। ‘हे इन्द्र! त्वया तीक्ष्णगतिभिर्वायुभिः सह गूढस्थानस्था गावः प्राप्ता’ इति मोक्षमूलरव्याख्याऽसङ्गतास्ति। कुतः, उस्रेति रश्मिनामसु निघण्टौ (1.5) पठितत्वेनात्रैतस्यार्थस्यैवार्थस्य योग्यत्वात्। गुहेत्यनेन सर्वावरकत्वादन्तरिक्षस्यैव ग्रहणार्हत्वादिति॥5॥ इत्येकादशो वर्गः समाप्तः॥ पदार्थः—(चित्) जैसे मनुष्य लोग अपने पास के पदार्थों को उठाते धरते हैं, (चित्) वैसे ही सूर्य्य भी (वीळु) दृढ बल से (उस्रियाः) अपनी किरणों करके संसारी पदार्थों को (अविन्दः) प्राप्त होता है, (अनु) उसके अनन्तर सूर्य्य उनको छेदन करके (आरुजत्नुभिः) भङ्ग करने और (वह्निभिः) आकाश आदि देशों में पहुंचानेवाले पवन के साथ ऊपर-नीचे करता हुआ (गुहा) अन्तरिक्ष अर्थात् पोल में सदा चढ़ाता गिराता रहता है॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे बलवान् पवन अपने वेग से भारी-भारी दृढ वृक्षों को तोड़ फोड़ डालते और उनको ऊपर नीचे गिराते रहते हैं, वैसे ही सूर्य्य भी अपनी किरणों से उनका छेदन करता रहता है, इससे वे ऊपर नीचे गिरते रहते हैं। इसी प्रकार ईश्वर के नियम से सब पदार्थ उत्पत्ति और विनाश को भी प्राप्त होते रहते हैं। ‘हे इन्द्र! तू शीघ्र चलनेवाले वायु के साथ अप्राप्त स्थान में रहनेवाली गौओं को प्राप्त हुआ।’ यह भी मोक्षमूलर साहब की व्याख्या असङ्गत है, क्योंकि ‘उस्रा’ यह शब्द निघण्टु में रश्मि नाम में पढ़ा है, इससे सूर्य्य की किरणों का ही ग्रहण होना योग्य है। तथा ‘गुहा’ इस शब्द से सबको ढांपनेवाला होने से अन्तरिक्ष का ग्रहण है॥5॥ यह ग्यारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ॥ पुनस्ते कीदृशा भवन्तीत्युपदिश्यते। फिर वे पवन कैसे हैं, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है- दे॒व॒यन्तो॒ यथा॑ म॒तिमच्छा॑ वि॒दद्व॑सुं॒ गिरः॑। म॒हाम॑नूषत श्रु॒तम्॥6॥ दे॒व॒यन्तः॑। यथा॑। म॒तिम्। अच्छ॑। वि॒दत्ऽव॑सुम्। गिरः॑। म॒हाम्। अ॒नू॒ष॒त॒। श्रु॒तम्॥6॥ पदार्थः—(देवयन्तः) प्रकाशयन्त आत्मनो देवमिच्छन्तो मनुष्याः (यथा) येन प्रकारेण (मतिम्) बुद्धिम् (अच्छ) उत्तमरीत्या। निपातस्य चेति दीर्घः। (विदद्वसुम्) विदद्भिः सुखज्ञापकैर्वसुभिर्युक्ताम् (गिरः) गृणन्ति ये ते गिरो विद्वांसः (महाम्) महतीम् (अनूषत) प्रशस्तां कुर्वन्ति। णू स्तवन इत्यस्य लुङ्प्रयोगः। संज्ञापूर्वको विधिरनित्य इति गुणाभावः, लडर्थे लुङ् च। (श्रुतम्) सर्वशास्त्रश्रवणकथनम्॥6॥ अन्वयः—यथा देवयन्तो गिरो विद्वांसो मनुष्या विदद्वसुं महां महतीं मतिं बुद्धिं श्रुतं वेदशास्त्रार्थयुक्तं श्रवणं कथनं चानूषत प्रशस्ते कुर्वन्ति, तथैव मरुतः स्ववेगादिगुणयुक्ताः सन्तो वाक्श्रोत्रचेष्टामहच्छिल्पकार्य्यं च प्रशस्तं साधयन्ति॥6॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्मरुतां सकाशाल्लोकोपकारार्थं विद्याबुद्ध्यर्थं च सदा प्रयत्नः कार्य्यो येन सर्वे व्यवहाराः सिद्धेयुरिति। ‘धर्मात्मभिर्गायनैर्मरुद्भिरिन्द्राय जयजयेति श्राविताः’ इति मोक्षमूलरोक्तिरन्यथास्ति। कुतः, देवयन्त इत्यात्मनो देवं विद्वांसमिच्छन्त इत्यर्थान्मनुष्याणामेव ग्रहणम्॥6॥ पदार्थः—जैसे (देवयन्तः) सब विज्ञानयुक्त (गिरः) विद्वान् मनुष्य (विदद्वसुम्) सुखकारक पदार्थ विद्या से युक्त (महाम्) अत्यन्त बड़ी (मतिम्) बुद्धि (श्रुतम्) सब शास्त्रों के श्रवण और कथन को (अच्छ) अच्छी प्रकार (अनूषत) प्रकाश करते हैं, वैसे ही अच्छी प्रकार साधन करने से वायु भी शिल्प अर्थात् सब कारीगरी को (अनूषत) सिद्ध करते हैं॥6॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को वायु के उत्तम गुणों का ज्ञान, सब का उपकार और विद्या की वृद्धि के लिये प्रयत्न सदा करना चाहिये, जिससे सब व्यवहार सिद्ध हों। ‘गान करनेवाले धर्मात्मा जो वायु हैं उन्होंने इन्द्र को ऐसी वाणी सुनाई कि तू जीत जीत।’ यह भी उनका अर्थ अच्छा नहीं, क्योंकि ‘देवयन्तः’ इस शब्द का अर्थ यह है कि मनुष्य लोग अपने अन्तःकरण से विद्वानों के मिलने की इच्छा रखते हैं। इस अर्थ से मनुष्यों का ग्रहण होता है॥6॥ केन सहैते कार्य्यसाधका भवन्तीत्युपदिश्यते। उक्त पदार्थ किस के सहाय से कार्य्य के सिद्ध करनेवाले होते हैं, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है- इन्द्रे॑ण॒ सं हि दृक्ष॑से संजग्मा॒नो अबि॑भ्युषा। म॒न्दू स॑मा॒नव॑र्चसा॥7॥ इन्द्रे॑ण। सम्। हि। दृक्ष॑से। सं॒ऽज॒ग्मा॒नः। अबि॑भ्युषा। म॒न्दू इति॑। स॒मा॒नऽव॑र्चसा॥7॥ पदार्थः—(इन्द्रेण) परमेश्वरेण सूर्य्येण सह वा (सम्) सम्यक् (हि) निश्चये (दृक्षसे) दृश्यते। अत्र लडर्थे लेट्मध्यमैकवचनप्रयोगः। अनित्यमागमशासनमिति वचनप्रामाण्यात् सृजिदृशोरित्यम् न भवति। (संजगमानः) सम्यक् सङ्गतः (अबिभ्युषा) भयनिवारणहेतुना किरणसमूहेन वायुगणेन सह वा (मन्दू) आनन्दितावानन्दकारकौ। मन्दू इति पदनामसु पठितम्। (निघं॰4.1) (समानवर्चसा) समानं तुल्यं वर्चो दीप्तिर्यर्योस्तौ। यास्काचार्य्येणायं मन्त्र एवं व्याख्यातः—इन्द्रेण सं हि दृश्यसे संजग्मानो अबिभ्युषा गणेन मन्दू मदिष्णू युवास्थोऽपि वा मन्दुना तेनेति स्यात्समानवर्चसेत्येतेन व्याख्यातम्। (निरु॰4.12॥7॥ अन्वयः—अयं वायुरबिभ्युषेन्द्रेणैव संजग्मानः सन् तथा वायुना सह सूर्य्यश्च सङ्गत्य दृश्यसे दृश्यते दृष्टिपथमागच्छति हि यतस्तौ समानवर्चसौ वर्तेते तस्मात्सर्वेषां मन्दू भवतः॥7॥ भावार्थः—ईश्वरेणाभिव्याप्य स्वसत्तया सूर्य्यवाय्वादयः सर्वे पदार्था उत्पाद्य धारिता वर्त्तन्ते। एतेषां मध्य खलु सूर्य्यवाय्वोर्धारणाकर्षणप्रकाशयोगेन सह वर्त्तमानाः सर्वे पदार्थाः शोभन्ते। मनुष्यैरेते विद्योपकारं ग्रहीतुं योजनीयाः। ‘इदम्महदाश्चर्यं यद्बहुवचनस्यैकवचने प्रयोगः कृतोऽस्तीति। यच्च निरुक्तकारेण द्विवचनस्य स्थान एकवचनप्रयोगः कृतोऽस्त्यतोऽसङ्गतोऽस्ति।’ इति च मोक्षमूलरकल्पना सम्यङ् न वर्त्तते। कुतः, व्यत्ययो बहुलम्, सुप्तिङुपग्रह॰ इति वचनव्यत्ययविधायकस्य शास्त्रस्य विद्यमानत्वात्। तथा निरुक्तकारस्य व्याख्यानं समञ्जसमस्ति। कुतः, मन्दू इत्यत्र सुपां सुलुग्॰ इति पूर्वसवर्णादेशविधायकस्य शास्त्रस्य विद्यमानत्वात्॥7॥ पदार्थः—यह वायु (अबिभ्युषा) भय दूर करनेवाली (इन्द्रेण) परमेश्वर की सत्ता के साथ (संजग्मानः) अच्छी प्रकार प्राप्त हुआ, तथा वायु के साथ सूर्य्य (संदृक्षसे) अच्छी प्रकार दृष्टि में आता है, (हि) जिस कारण ये दोनों (समानवर्चसा) पदार्थों के प्रसिद्ध बलवान् हैं, इसी से वे सब जीवों को (मन्दू) आनन्द के देनेवाले होते हैं॥7॥ भावार्थः—ईश्वर ने जो अपनी व्याप्ति और सत्ता से सूर्य्य और वायु आदि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं, इन सब पदार्थों के बीच में से सूर्य्य और वायु ये दोनों मुख्य हैं, क्योंकि इन्हीं के धारण आकर्षण और प्रकाश के योग से सब पदार्थ सुशोभित होते हैं। मनुष्यों को चाहिये कि उन्हें पदार्थविद्या से उपकार लेने के लिये युक्त करें। ‘यह बड़ा आश्चर्य्य है कि बहुवचन के स्थान में एकवचन का प्रयोग किया गया, तथा निरुक्तकार ने द्विवचन के स्थान में एकवचन का प्रयोग माना है, सो असङ्गत है।’ यह भी मोक्षमूलर साहब की कल्पना ठीक नहीं, क्योंकि ‘व्यत्ययो ब॰; सुप्तिङुपग्रह॰’ व्याकरण के इस प्रमाण से वचनव्यत्यय होता है। तथा निरुक्तकार का व्याख्यान सत्य है, क्योंकि ‘सुपा सु॰’ इस सूत्र से ‘मन्दू’ इस शब्द में द्विवचन को पूर्वसवर्ण दीर्घ एकादेश हो गया है॥7॥ कथं पूर्वोक्तो नित्यवर्त्तमानो व्यवहारोऽस्तीत्युपदिश्यते। पूर्वोक्त व्यवहार किस प्रकार से नित्य वर्तमान है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- अ॒न॒व॒द्यैर॒भिद्यु॑भिर्म॒खः सह॑स्वदर्च्चति। ग॒णैरिन्द्र॑स्य॒ काम्यैः॥8॥ अ॒न॒व॒द्यैः। अ॒भिऽद्यु॑भिः। म॒खः। सह॑स्वत्। अ॒र्च॒ति॒। ग॒णैः। इन्द्र॑स्य। काम्यैः॥8॥ पदार्थः—(अनवद्यैः) निर्दोषैः (अभिद्युभिः) अभितः प्रकाशमानैः (मखः) पालनशिल्पाख्यो यज्ञः। मख इति यज्ञनामसु पठितम्। (निघं॰3.17) (सहस्वत्) सहोऽतिशयितं सहनं विद्यते यस्मिन् तद्यथा स्यात्तथा। अत्रातिशये मतुप्। (अर्चति) सर्वान् पदार्थान् सत्करोति (गणैः) किरणसमूहैर्मरुद्भिर्वा (इन्द्रस्य) सूर्य्यस्य (काम्यैः) कामयितव्यैरुत्तमैः सह मिलित्वा॥8॥ अन्वयः—अयं मख इन्द्रस्यानवद्यैरभिद्युभिः काम्यैर्गणैः सह सर्वान्पदार्थान्सहस्वदर्चति॥8॥ भावार्थः—अयं सुखरक्षणप्रदो यज्ञः शुद्धानां द्रव्याणामग्नौ कृतेन होमेन सम्पादितो हि वायुकिरणशोधनद्वारा रोगविनाशनात्सर्वान् प्राणिनः सुखयित्वा बलवतः करोति। अत्र मोक्षमूलरेण मखशब्देन यज्ञकर्त्ता गृहीतस्तदन्यथास्ति। कुतो, मखशब्देन यज्ञस्याभिधानत्वेन कमनीयैर्वायुगणैः सूर्य्यकिरणसहितैः सह हुतद्रव्यवहनेन वायुवृष्टिजलशुद्धिद्वारेष्टसुखसम्पादनेन सर्वेषां प्राणिनां सत्कारहेतुत्वात्। यच्चोक्तं ‘मखशब्देन देवानां शत्रुर्गृह्यते’ तदप्यन्यथास्ति। कुतस्तत्र मखशब्दस्योपमावाचकत्वात्॥8॥ पदार्थः—जो यह (मखः) सुख और पालन होने का हेतु यज्ञ है, वह (इन्द्रस्य) सूर्य्य की (अनवद्यैः) निर्दोष (अभिद्युभिः) सब और से प्रकाशमान और (काम्यैः) प्राप्ति की इच्छा करने के योग्य (गणैः) किरणों वा पवनों के साथ मिलकर सब पदार्थों को (सहस्वत्) जैसे दृढ़ होते हैं, वैसे ही (अर्चति) श्रेष्ठ गुण करनेवाला होता है॥8॥ भावार्थः—जो शुद्ध अत्युत्तम होम के योग्य पदार्थों के अग्नि में किये हुए होम से किया हुआ यज्ञ है, वह वायु और सूर्य्य की किरणों की शुद्धि के द्वारा रोगनाश करने के हेतु से सब जीवों को सुख देकर बलवान् करता है। ‘यहां मखशब्द से यज्ञ करनेवाले का ग्रहण है, तथा देवों के शत्रु का भी ग्रहण है।’ यह भी मोक्षमूलर साहब का कहना ठीक नहीं, क्योंकि जो मखशब्द यज्ञ का वाची है, वह सूर्य्य की किरणों के सहित अच्छे-अच्छे वायु के गुणों से हवन किये हुए पदार्थों को सर्वत्र पहुंचाता है, तथा वायु और वृष्टिजल की शुद्धि का हेतु होने से सब प्राणियों को सुख देनेवाला होता है। और मख शब्द के उपमावाचक होने से देवों के शत्रु का भी ग्रहण नहीं॥8॥ अथ मरुतां गमनशीलत्वमुपदिश्यते। अगले मन्त्र में गमनस्वभाववाले पवन का प्रकाश किया है॥ अतः॑ परिज्म॒न्नाग॑हि दि॒वो वा॑ रोच॒नादधि॑। सम॑स्मिन्नृञ्जते॒ गिरः॑॥9॥ अतः॑। प॒रि॒ज्म॒न्। आ। ग॒हि॒। दि॒वः। वा॒। रो॒च॒नात्। अधि॑। सम्। अ॒स्मि॒न्। ऋ॒ञ्ज॒ते॒। गिरः॑॥9॥ पदार्थः—(अतः) अस्मात्स्थानात् (परिज्मन्) परितः सर्वतो गच्छन् उपर्य्यधः। सर्वान् पदार्थानितस्ततः क्षेप्ता। अयमजधातोः प्रयोगः। श्वनुक्षण॰ (उणा॰1.157) इति कनिन्प्रत्ययान्तो मुडागमेनाकारलोपेन च निपातितः। (आगहि) गमयत्यागमयति वा। अत्र लडर्थे लोट्, पुरुषव्यत्ययेन गमेर्मध्यमपुरुषस्यैकवचने बहुलं छन्दसीति शपो लुक्, हेर्ङित्त्वादनुनासिकलोपश्च। (दिवः) प्रकाशात् (वा) पक्षान्तरे (रोचनात्) सूर्य्यप्रकाशाद्रुचिकरान्मेघमण्डलाद्वा (अधि) उपरितः (सम्) सम्यक् (अस्मिन्) बहिरन्तःस्थे मरुद्गणे (ऋञ्जते) प्रसाध्नुवन्ति। ऋञ्जतिः प्रसाधनकर्मा। (निरु॰6.21) (गिरः) वाचः॥9॥ अन्वयः—यत्र गिरः समृञ्जते सोऽयं परिज्मा वायुरतः पृथिवीस्थानाज्जलकणानध्यागह्युपरि गमयति, स पुनर्दिवो रोचनात् सूर्य्यप्रकाशान्मेघमण्डलाद्वा जलादिपदार्थानागह्यागमयति। अस्मिन् सर्वे पदार्थाः स्थितिं लभन्ते॥9॥ भावार्थः—अयं बलवान् वायुर्गमनागमनशीलत्वात् सर्वपदार्थगमनागमनधारणशब्दोच्चारणश्रवणानां हेतुरस्तीति। सायणाचार्य्येण परिज्मन्शब्दमुणादिप्रसिद्धमविदित्वा मनिन्प्रत्ययान्तो व्याख्यातोऽयमस्य भ्रमोऽस्तीति बोध्यम्। ‘हे इतस्ततो भ्रमणशील मनुष्याकृतिदेवदेहधारिन्निन्द्र! त्वं सन्मुखात्पार्श्वतो वोपरिष्टादस्मत्समीपमागच्छ, इयं सर्वेषां गायनानामिच्छास्ति’ इति मोक्षमूलरव्याख्या विपरीतास्ति। कुतः, अस्मिन्मरुद्गण इन्द्रस्य सर्वा गिर ऋञ्जते इत्यनेन शब्दोच्चारणव्यवहारप्रसाधकत्वेनात्र प्राणवायोरेव ग्रहणात्॥9॥ पदार्थः—जिस वाणी में वायु का सब व्यवहार सिद्ध होता है, वह (परिज्मन्) सर्वत्र गमन करता हुआ सब पदार्थों को तले ऊपर पहुँचानेवाला पवन (अतः) इस पृथिवी स्थान से जलकणों का ग्रहण करके (अध्यागहि) ऊपर पहुँचता और फिर (दिवः) सूर्य्य के प्रकाश से (वा) अथवा (रोचनात्) जो कि रुचि को बढ़ानेवाला मेघमण्डल है, उससे जल को गिराता हुआ तले पहुँचाता है। (अस्मिन्) इसी बाहर और भीतर रहनेवाले पवन में सब पदार्थ स्थिति को प्राप्त होते हैं॥9॥ भावार्थः—यह बलवान् वायु अपने गमन आमगन गुण से सब पदार्थों के गमन आगमन धारण तथा शब्दों के उच्चारण और श्रवण का हेतु है। इस मन्त्र में सायणाचार्य्य ने जो उणादिगण में सिद्ध ‘परिज्मन्’ शब्द था, उसे छोड़कर मनिन्प्रत्ययान्त कल्पना किया है, सो केवल उनकी भूल है। ‘हे इधर-उधर विचरनेवाले मनुष्यदेहधारी इन्द्र! तू आगे पीछे और ऊपर से हमारे समीप आ, यह सब गानेवालों की इच्छा है।’ यह भी उन (मोक्षमूलर साहब) का अर्थ अत्यन्त विपरीत है, क्योंकि इस वायुसमूह में मनुष्यों की वाणी शब्दों के उच्चारणव्यवहार से प्रसिद्ध होने से प्राणरूप वायु का ग्रहण है॥9॥ इदानीं सूर्य्यकर्मोपदिश्यते। अगले मन्त्र में सूर्य्य के कर्म का उपदेश किया है- इ॒तो वा॑ सा॒तिमीम॑हे दि॒वो वा॒ पार्थि॑वा॒दधि॑। इन्द्रं॑ म॒हो वा॒ रज॑सः॥10॥ इ॒तः। वा॒। सा॒तिम्। ईम॑हे। दि॒वः। वा॒। पार्थि॑वात्। अधि॑। इन्द्र॑म्। म॒हः। वा॒। रज॑सः॥10॥ पदार्थः—(इतः) अस्मात् (वा) चार्थे (सातिम्) संविभागं कुर्वन्तम्। अत्र ऊतियूतिजूतिसातिहेति॰ (अष्टा॰3.3.97) अनेनायं शब्दो निपातितः। (ईमहे) विजानीमः। अत्र ईङ् गतौ, बहुलं छन्दसीति शपो लुकि श्यनभावः। (दिवः) प्रत्यक्षाग्नेः प्रकाशात् (वा) पक्षान्तरे लोकलोकान्तरेभ्योऽपि (पार्थिवात्) पृथिवीसंयोगात्। सर्वभूमिपृथिवीभ्यामणञौ। (अष्टा॰5.1.41) इति सूत्रेण पृथिवीशब्दादञ् प्रत्ययः। (अधि) अधिकार्थे (इन्द्रम्) सूर्य्यम् (महः) महान्तमति विस्तीर्णम् (वा) पक्षान्तरे (रजसः) पृथिव्यादिलोकेभ्यः। लोका रजांस्युच्यन्ते। (निरु॰4.19)॥10॥ अन्वयः—वयमितः पार्थिवाद्वा दिवो वा सातिं कुर्वन्तं रजसोऽधि महान्तं वेन्द्रमीमहे विजानीमः॥10॥ भावार्थः—सूर्य्यकिरणाः पृथिवीस्थान् जलादिपदार्थान् छित्वा लघून् सम्पादयन्ति। अतस्ते वायुना सहोपरि गच्छन्ति। किन्तु स सूर्य्यलोकः सर्वेभ्यो लोकेभ्यो महत्तमोऽस्तीति। ‘वयमाकाशात् पृथिव्या उपरि वा महदाकाशात्सहायार्थमिन्द्रं प्रार्थयामहे’ इति मोक्षमूलरव्याख्याऽशुद्धास्ति। कुतोऽत्र परिमाणे सर्वेभ्यो महत्तमस्य सूर्य्यलोकस्यैवाभिधानेनेन्द्रमीमहे विजानीम इत्युक्तप्रामाण्यात्॥10॥ इन्द्रमरुद्भ्यो यथा पुरुषार्थसिद्धिः कार्य्या, ते जगति कथं वर्त्तन्ते कथं च तैरुपकारसिद्धिर्भवेदिति पञ्चमसूक्तेन सह षष्ठस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। अस्यापि सूक्तस्य मन्त्रार्थाः सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपाख्यदेशनिवासिभिर्विलसनाख्य- मोक्षमूलरादिभिश्चान्यथैव वर्णिता इति वेदितव्यम्॥ इति षष्ठं सूक्तं द्वादशश्च वर्गः समाप्तः॥ पदार्थः—हम लोग (इतः) इस (पार्थिवात्) पृथिवी के संयोग (वा) और (दिवः) इस अग्नि के प्रकाश (वा) लोकलोकान्तरों अर्थात् चन्द्र और नक्षत्रादि लोकों से भी (सातिम्) अच्छी प्रकार पदार्थों के विभाग करते हुए (वा) अथवा (रजसः) पृथिवी आदि लोकों से (महः) अति विस्तारयुक्त (इन्द्रम्) सूर्य्य को (ईमहे) जानते हैं॥10॥ भावार्थः—सूर्य्य की किरण पृथिवी में स्थित हुए जलादि पदार्थों को भिन्न-भिन्न करके बहुत छोटे-छोटे कर देती हैं, इसी से वे पदार्थ पवन के साथ ऊपर को चढ़ जाते हैं, क्योंकि वह सूर्य्य सब लोकों से बड़ा है। ‘हम लोग आकाश पृथिवी तथा बड़े आकाश से सहाय के लिये इन्द्र की प्रार्थना करते हैं, यह भी डाक्टर मोक्षमूलर साहब की व्याख्या अशुद्ध है, क्योंकि सूर्य्यलोक सब से बड़ा है, और उसका आना-जाना अपने स्थान को छोड़ के नहीं होता, ऐसा हम लोग जानते हैं॥10॥ सूर्य्य और पवन से जैसे पुरुषार्थ की सिद्धि करनी चाहिये तथा वे लोक जगत् में किस प्रकार से वर्त्तते रहते हैं और कैसे उनसे उपकार सिद्धि होती है, इन प्रयोजनों से पांचवें सूक्त के अर्थ के साथ छठे सूक्तार्थ की सङ्गति जाननी चाहिये। और सायणाचार्य्य आदि तथा यूरोपदेशवासी अङ्गरेज विलसन आदि लोगों ने भी इस सूक्त के मन्त्रों के अर्थ बुरी चाल से वर्णन किये हैं। यह छठा सूक्त और बाहरहवाँ वर्ग समाप्त हुआ॥

अथ दशर्चस्य सप्तमस्य सूक्तस्य मधुच्छन्दा ऋषिः। इन्द्रो देवता। 1,3, 5-7 गायत्री। 2,4 निचृद्गायत्री। 8,10 पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री। 9 पादनिचृद्गायत्री च छन्दः। षड्जः स्वरः॥ अथेन्द्रशब्देनार्थत्रयमुपदिश्यते। अब सातवें सूक्त का आरम्भ है। इस में प्रथम मन्त्र में करके इन्द्र शब्द से तीन अर्थों का प्रकाश किया है- इन्द्र॒मिद् गा॒थिनो॑ बृ॒हदिन्द्र॑म॒र्केभि॑र॒र्किणः॑। इन्द्रं॒ वाणी॑रनूषत॥1॥ इन्द्र॑म्। इत्। गा॒थिनः॑। बृ॒हत्। इन्द्र॑म्। अ॒र्केभिः॑। अ॒र्किणः॑। इन्द्र॑म्। वाणीः॑। अ॒नू॒ष॒त॒॥1॥ पदार्थः—(इन्द्रम्) परमेश्वरम् (इत्) एव (गाथिनः) गानकर्त्तारः (बृहत्) महान्तम्। अत्र सुपां सुलुगित्यमो लुक्। (इन्द्रम्) सूर्य्यम्। (अर्केभिः) अर्चनसाधकैः सत्यभाषणादिभिः शिल्पविद्यासाधकैः कर्मभिर्मन्त्रैश्च। अर्क इति पदनामसु पठितम्। (निघं॰4.2) अनेन प्राप्तिसाधनानि गृह्यन्ते। अर्को मन्त्रो भवति यदेनानार्चन्ति। (निरु॰5.4) अत्र बहुलं छन्दसीति भिस ऐसादेशाभावः। (अर्किणः) विद्वांसः (इन्द्रम्) महाबलवन्तं वायुम् (वाणीः) वेदचतुष्टयीः (अनूषत) स्तुवन्तु। अत्र लोडर्थे लुङ्। संज्ञापूर्वको विधिरनित्य इति गुणादेशाभावः॥1॥ अन्वयः—ये गाथिनोऽर्किणो विद्वांसस्ते अर्केभिर्बृहत् महान्तमिन्द्रं परमेश्वरमिन्द्रं सूर्य्यमिन्द्रं वायुं वाणीश्चेदेवानूषत यथावत्स्तुवन्तु॥1॥ भावार्थः—ईश्वर उपदिशति-मनुष्यैर्वेदमन्त्राणां विचारेणेश्वरसूर्य्यवाय्वादिपदार्थगुणान् सम्यग्विदित्वा सर्वसुखाय प्रयत्नत उपकारो नित्यं ग्राह्य इति॥1॥ पदार्थः—जो (गाथिनः) गान करनेवाले और (अर्किणः) विचारशील विद्वान् हैं, वे (अर्केभिः) सत्कार करने के पदार्थ सत्यभाषण शिल्पविद्या से सिद्ध किये हुए कर्म मन्त्र और विचार से (वाणीः) चारों वेद की वाणियों को प्राप्त होने के लिये (बृहत्) सब से बड़े (इन्द्रम्) परमेश्वर (इन्द्रम्) सूर्य्य और (इन्द्रम्) वायु के गुणों के ज्ञान से (अनूषत) यथावत् स्तुति करें॥1॥ भावार्थः—ईश्वर उपदेश करता है कि मनुष्यों को वेदमन्त्रों के विचार से परमेश्वर सूर्य्य और वायु आदि पदार्थों के गुणों को अच्छी प्रकार जानकर सब के सुख के लिये उनसे प्रयत्न के साथ उपकार लेना चाहिये॥1॥ उक्तेषु त्रिषु प्रथमतो वायुसूर्य्यावुपदिश्येते। पूर्व मन्त्र में इन्द्र शब्द से कहे हुए तीन अर्थों में से वायु और सूर्य्य का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है- इन्द्र॒ इद्धर्य्योः॒ सचा॒ सम्मि॑श्ल॒ आ व॑चो॒युजा॑। इन्द्रो॑ व॒ज्री हि॑र॒ण्ययः॑॥2॥ इन्द्रः॑। इत्। हर्य्योः॑। सचा॑। संऽमि॑श्लः। आ। व॒चः॒ऽयुजा॑। इन्द्रः॑। व॒ज्री। हि॒र॒ण्ययः॑॥2॥ पदार्थः—(इन्द्रः) वायुः (इत्) एव (हर्य्योः) हरणाहरणगुणयोः (सचा) समवेतयोः (संमिश्लः) पदार्थेषु सम्यक् मिश्रो मिलितः सन्। संज्ञाछन्दसोर्वा कपिलकादीनामिति वक्तव्यम्। (अष्टा॰8.2.18) अनेन वार्तिकेन रेफस्य लत्वादेशः। (आ) समन्तात् (वचोयुजा) वाणीर्योजयितोः। अत्र सुपां सुलुगिति षष्ठीद्विवचनस्याकारादेशः। (इन्द्रः) सूर्य्यः (वज्री) वज्रः सम्वत्सरस्तापो वास्यास्तीति सः। संवत्सरो हि वज्रः। (श॰ब्रा॰3.3.5.15) (हिरण्ययः) ज्योतिर्मयः। ऋत्व्यवास्त्व्य॰ (अष्टा॰6.4.175) अनेन हिरण्यमयशब्दस्य मलोपो निपात्यते। ज्योतिर्हि हिरण्यम्। (श॰ब्रा॰4.3.1.21)॥2॥ अन्वयः—यथाऽयं संमिश्ल इन्द्रो वायुः सचा सचयोर्वचोयुजा वचांसि योजयतोर्हर्य्योर्यो गमनागमनानि युनक्ति तथा इत् एव वज्री हिरण्यय इन्द्रः सूर्य्यलोकश्च॥2॥ भावार्थः—अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। यथा वायुयोगेनैव वचनश्रवणव्यवहारसर्वपदार्थगमनागमन- धारणस्पर्शाः सम्भवन्ति तथैव सूर्य्ययोगेन पदार्थप्रकाशनछेदने च। ‘संमिश्लः’ इत्यत्र सायणाचार्य्येण लत्वं छान्दसमिति वार्तिकमविदित्वा व्याख्यातम्, तदशुद्धम्॥2॥ पदार्थः—जिस प्रकार यह (संमिश्लः) पदार्थों में मिलने तथा (इन्द्रः) ऐश्वर्य्य का हेतु स्पर्शगुणवाला वायु, अपने (सचा) सब में मिलनेवाले और (वचोयुजा) वाणी के व्यवहार को वर्त्तानेवाले (हर्य्योः) हरने और प्राप्त करनेवाले गुणों को (आ) सब पदार्थों में युक्त करता है, वैसे ही (वज्री) संवत्सर वा तापवाला (हिरण्ययः) प्रकाशस्वरूप (इन्द्रः) सूर्य्य भी अपने हरण और आहरण गुणों को सब पदार्थों में युक्त करता है॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। जैसे वायु के संयोग से वचन, श्रवण आदि व्यवहार तथा सब पदार्थों के गमन, आगमन, धारण और स्पर्श होते हैं, वैसे ही सूर्य्य के योग से पदार्थों के प्रकाश और छेदन भी होते हैं। ‘संमिश्लः’ इस शब्द में सायणाचार्य्य ने लकार का होना छान्दस माना है, सो उनकी भूल है, क्योंकि ‘संज्ञाछन्द॰’ इस वार्त्तिक से लकारादेश सिद्ध ही है॥2॥ अथ केन किमर्थः सूर्य्यलोको रचित इत्युपदिश्यते। इसके अनन्तर किसने किसलिये सूर्य्यलोक बनाया है, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है- इन्द्रो॑ दी॒र्घाय॒ चक्ष॑स॒ आ सूर्य्यं॑ रोहयद्दि॒वि। वि गोभि॒रद्रि॑मैरयत्॥3॥ इन्द्रः॑। दी॒र्घाय॑। चक्ष॑से। आ। सूर्य्य॑म्। रो॒ह॒य॒त्। दि॒वि। वि। गोभिः॑। अद्रि॑म्। ऐ॒र॒य॒त्॥3॥ पदार्थः—(इन्द्रः) सर्वजगत्स्रष्टेश्वरः (दीर्घाय) महते निरन्तराय (चक्षसे) दर्शनाय (आ) क्रियार्थे (सूर्य्यम्) प्रत्यक्षं सूर्य्यलोकम् (रोहयत्) उपरि स्थापितवान् (दिवि) प्रकाशनिमित्ते (वि) विविधार्थे (गोभिः) रश्मिभिः। गाव इति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं॰1.5) (अद्रिम्) मेघम्। अद्रिरिति मेघनामसु पठितम्। (निघं॰1.10) (ऐरयत्) वीरयत् वीरयत्यूर्ध्वमधो गमयति। अत्र लडर्थे लुङ्॥3॥ अन्वयः—इन्द्रः सृष्टिकर्त्ता जगदीश्वरो दीर्घाय चक्षसे यं सूर्य्यलोकं दिव्यारोहयत् सोऽयं गोभिरद्रिं व्यैरयत् वीरयति॥3॥ भावार्थः—सृष्टिमिच्छतेश्वरेण सर्वेषां लोकानां मध्ये दर्शनधारणाकर्षणप्रकाशप्रयोजनाय प्रकाशरूपः सूर्य्यलोकः स्थापितः, एवमेवायं प्रतिब्रह्माण्डं नियमो वेदितव्यः। स प्रतिक्षणं जलमूर्ध्वमाकृष्य वायुद्वारोपरि स्थापयित्वा पुनः पुनरधः प्रापयतीदमेव वृष्टेर्निमित्तमिति॥3॥ पदार्थः—(इन्द्रः) जो सब संसार का बनानेवाला परमेश्वर है, उसने (दीर्घाय) निरन्तर अच्छी प्रकार (चक्षसे) दर्शन के लिये (दिवि) सब पदार्थों के प्रकाश होने के निमित्त जिस (सूर्य्यम्) प्रसिद्ध सूर्य्यलोक को (आरोहयत्) लोकों के बीच में स्थापित किया है, वह (गोभिः) जो अपनी किरणों के द्वारा (अद्रिम्) मेघ को (व्यैरयत्) अनेक प्रकार से वर्षा होने के लिये ऊपर चढ़ाकर वारंवार वर्षाता है॥3॥ भावार्थः—रचने की इच्छा करनेवाले ईश्वर ने सब लोकों में दर्शन, धारण और आकर्षण आदि प्रयोजनों के लिये प्रकाशरूप सूर्य्यलोक को सब लोकों के बीच में स्थापित किया है, इसी प्रकार यह हर एक ब्रह्माण्ड का नियम है कि वह क्षण-क्षण में जल को ऊपर खींच करके पवन के द्वारा ऊपर स्थापन करके वार-वार संसार में वर्षाता है, इसी से यह वर्षा का कारण है॥3॥ इन्द्रशब्देन व्यावहारिकमर्थमुक्त्वाऽथेश्वरार्थमुपदिश्यते। इन्द्र शब्द से व्यवहार को दिखलाकर अब प्रार्थनारूप से अगले मन्त्र में परमेश्वरार्थ का प्रकाश किया है- इन्द्र॒ वाजे॑षु नोऽव स॒हस्र॑प्रधनेषु च। उ॒ग्र उ॒ग्राभि॑रू॒तिभिः॑॥4॥ इन्द्र॑। वाजे॑षु। नः॒। अ॒व॒। स॒हस्र॑ऽप्रधनेषु। च॒। उ॒ग्रः। उ॒ग्राभिः॑। ऊ॒तिभिः॑॥4॥ पदार्थः—(इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रदेश्वर! (वाजेषु) संग्रामेषु। वाज इति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं॰2.17) (नः) अस्मान् (अव) रक्ष (सहस्रप्रधनेषु) सहस्राण्यसंख्यातानि प्रकृष्टानि धनानि प्राप्नुवन्ति येषु तेषु चक्रवर्त्तिराज्यसाधकेषु महायुद्धेषु। सहस्रमिति बहुनामसु पठितम्। (निघं॰3.1) (च) आवृत्त्यर्थे (उग्रः) सर्वोत्कृष्टः। ऋज्रेन्द्राग्र॰ (उणा॰2.29) निपातनम्। (उग्राभिः) अत्यन्तोत्कृष्टाभिः (ऊतिभिः) रक्षाप्राप्तिविज्ञानसुखप्रवेशनैः॥4॥ अन्वयः—हे जगदीश्वर! उग्रो भवान् सहस्रप्रधनेषु वाजेषूग्राभिरूतिभिर्नो रक्ष सततं विजयं च प्रापय॥4॥ भावार्थः—परमेश्वरो धार्मिकेषु योद्धृषु कृपां धत्ते नेतरेषु। ये मनुष्या जितेन्द्रिया विद्वांसः पक्षपातरहिताः शरीरात्मबलोत्कृष्टा अनलसाः सन्तो धर्मेण महायुद्धानि विजित्य राज्यं नित्यं रक्षन्ति त एव महाभाग्यशालिनो भूत्वा सुखिनो भवन्ति॥4॥ पदार्थः—हे जगदीश्वर! (इन्द्र) परमैश्वर्य्य देने तथा (उग्रः) सब प्रकार से अनन्त पराक्रमवान् आप (सहस्रप्रधनेषु) असंख्यात धन को देनेवाले चक्रवर्त्ति राज्य को सिद्ध करनेवाले (वाजेषु) महायुद्धों में (उग्राभिः) अत्यन्त सुख देनेवाली (ऊतिभिः) उत्तम-उत्तम पदार्थों की प्राप्ति तथा पदार्थों के विज्ञान और आनन्द में प्रवेश कराने से हम लोगों की (अव) रक्षा कीजिये॥4॥ भावार्थः—परमेश्वर का यह स्वभाव है कि युद्ध करनेवाले धर्मात्मा पुरुषों पर अपनी कृपा करता है और आलसियों पर नहीं। इसी से जो मनुष्य जितेन्द्रिय विद्वान् पक्षपात को छोड़नेवाले शरीर और आत्मा के बल से अत्यन्त पुरुषार्थी तथा आलस्य को छो़ड़े हुए धर्म से बड़े-बड़े युद्धों को जीत के प्रजा को निरन्तर पालन करते हैं, वे ही महाभाग्य को प्राप्त होके सुखी रहते हैं॥4॥ पुनरीश्वरसूर्य्यवायुगुणा उपदिश्यन्ते। फिर भी उक्त अर्थ और सूर्य्य तथा वायु के गुणों का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है- इन्द्रं॑ व॒यं म॑हाध॒न इन्द्र॒मर्भे॑ हवामहे। युजं॑ वृ॒त्रेषु॑ व॒ज्रिण॑म्॥5॥13॥ इन्द्र॑म्। व॒यम्। म॒हा॒ध॒ने। इन्द्र॑म्। अर्भे॑। ह॒वा॒म॒हे॒। युज॑म्। वृ॒त्रेषु॑। व॒ज्रिण॑म्।॥5॥ पदार्थः—(इन्द्रम्) सर्वज्ञं सर्वशक्तिमन्तमीश्वरम् (वयम्) मनुष्याः (महाधने) महान्ति धनानि यस्मात्तस्मिन्संग्रामे। महाधन इति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं॰2.17) (इन्द्रम्) सूर्य्यं वायुं वा (अर्भे) स्वल्पे युद्धे (हवामहे) आह्वयामहे। स्पर्धामहे वा। ह्वेञ्धातोरिदं लेटो रूपम्। बहुलं छन्दसि। (अष्टा॰6.1.34) अनेन सम्प्रसारणम्। (युजम्) युनक्तीति युक् तम् (वृत्रेषु) मेघावयवेषु। वृत्र इति मेघनामसु पठितम्। (निघं॰1.10) (वज्रिणम्) किरणवन्तं जलवन्तं वा। वज्रो वै भान्तः। (श॰ब्रा॰8.2.4.10) अनेन प्रकाशरूपाः किरणा गृह्यन्ते। वज्रो वा आपः। (श॰ब्रा॰7.4.2.41)॥5॥ अन्वयः—वयं महाधने इन्द्रं परमेश्वरं हवामहे अर्भेऽल्पे चाप्येवं वज्रिणं वृत्रेषु युजमिन्द्रं सूर्य्यं वायुं च हवामहे स्पर्धामहे॥5॥ भावार्थः—अत्र श्लेषालङ्कारः। यद्यन्महदल्पं वा युद्धं प्रवर्त्तते तत्र तत्र सर्वतः स्थितं परमेश्वरं रक्षकं मत्वा दुष्टैः सह धर्मेणोत्साहेन च युद्ध आचरिते सति मनुष्याणां ध्रुवो विजयो जायते, तथा सूर्य्यवायुनिमित्तेनापि खल्वेतत्सिद्धिर्जायते। यथेश्वरेणौताभ्यां निमित्तीकृताभ्यां वृष्टिद्वारा संसारस्य महत्सुखं साध्यत एवं मनुष्यैरेतन्निमित्तैरेव कार्य्यसिद्धिः सम्पादनीयेति॥5॥ इति त्रयोदशो वर्गः॥ पदार्थः—हम लोग (महाधने) बड़े-बड़े भारी संग्रामों में (इन्द्रम्) परमेश्वर का (हवामहे) अधिक स्मरण करते रहते हैं और (अर्भे) छोटे-छोटे संग्रामों में भी इसी प्रकार (वज्रिणम्) किरणवाले (इन्द्रम्) सूर्य्य वा जलवाले वायु का जो कि (वृत्रेषु) मेघ के अङ्गों में (युजम्) युक्त होनेवाले इन के प्रकाश और सब में गमनागमनादि गुणों के समान विद्या, न्याय, प्रकाश और दूतों के द्वारा सब राज्य का वर्त्तमान विदित करना आदि गुणों का धारण सब दिन करते रहें॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जो बड़े-बड़े भारी और छोटे-छोटे संग्रामों में ईश्वर को सर्वव्यापक और रक्षा करनेवाला मान के धर्म और उत्साह के साथ दुष्टों से युद्ध करें तो मनुष्य का अचल विजय होता है। तथा जैसे ईश्वर भी सूर्य्य और पवन के निमित्त से वर्षा आदि के द्वारा संसार का अत्यन्त सुख सिद्ध किया करता है, वैसे मनुष्य लोगों को भी पदार्थों को निमित्त करके कार्य्यसिद्धि करनी चाहिये॥5॥ यह तेरहवां वर्ग समाप्त हुआ॥ मनुष्यैः सः ईश्वरः किमर्थः प्रार्थनीयः सूर्य्यश्च किंनिमित्त इत्युपदिश्यते। मनुष्यों को परमेश्वर की प्रार्थना किस प्रयोजन के लिये करनी चाहिये, वा सूर्य्य किसका निमित्त है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है- स नो॑ वृषन्न॒मुं च॒रुं सत्रा॑दाव॒न्नपा॑वृधि। अ॒स्मभ्य॒मप्र॑तिष्कुतः॥6॥ सः। नः॒। वृ॒ष॒न्। अ॒मुम्। च॒रुम्। सत्रा॑ऽदावन्। अप॑। वृ॒धि॒। अ॒स्मभ्य॑म्। अप्र॑तिऽष्कुतः॥6॥ पदार्थः—(सः) ईश्वरः सूर्य्यो वा (नः) अस्माकम् (वृषन्) वर्षति सुखानि तत्सम्बुद्धौ, वर्षयति जलं वा स वा। कनिन्युवृषि॰ (उणा॰1.154) अनेन ‘वृष’ धातोः कनिन्प्रत्ययः। (अमुम्) मोक्षद्वारमागाम्यानन्दं चान्तरिक्षस्थम् (चरुम्) ज्ञानलाभं मेघं वा। चरुरिति मेघनामसु पठितम्। (निघं॰1.10) (सत्रादावन्) सत्यं ददातीति तत्सम्बुद्धौ, सत्रं वृष्ट्याख्यं यज्ञं समन्ताद्ददातीति स वा। सत्रेति सत्यनामसु पठितम्। (निघं॰3.10) अत्र आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। (अष्टा॰3.2.72) अनेन वनिप्प्रत्ययः। (अप) निवारणे। निपातस्य च। (अष्टा॰6.3.136) इति दीर्घः। (वृधि) उद्घाटयोद्घाटयति वा। ‘वृञ्’ धातोः प्रयोगः। बहुलं छन्दसि (अष्टा॰2.4.73) अनेन श्नोर्लुक्। श्रुशृणुपृकृवृभ्यश्छन्दसि (अष्टा॰6.4.102) अनेन हेर्धिः। (अस्मभ्यम्) त्वदाज्ञायां पुरुषार्थे च वर्त्तमानेभ्यः (अप्रतिष्कुतः) असञ्चलितोऽविस्मृतो वा। यास्काचार्य्योऽस्यार्थमेवमाह-अप्रतिष्कुतोऽप्रतिस्कृतोऽप्रतिस्खलितो वेति। (निरु॰6.16)॥6॥ अन्वयः—हे वृषन् सत्रादावन् परमेश्वर! स त्वमस्मभ्यमप्रतिष्कुतः सन्नोऽस्माकममुं चरुं मोक्षद्वारमपावृधि उद्घाटय इत्याद्यः। तथा भवद्रचितोऽयं सत्रादावा वृषाऽप्रतिष्कुतः सूर्य्योऽस्मभ्यममुं चरु मेघमपावृणोत्युद्- घाटयतीत्यपरः॥6॥ भावार्थः—यो मनुष्यो दृढतया सत्यं विद्यां चेश्वराज्ञामुपतिष्ठति तस्यात्मन्यन्तर्यामीश्वरोऽविद्यान्धकारं नाशयति। यतो नैव स पुरुषार्थाद्धर्माच्च कदाचिद्विचलति॥6॥ पदार्थः—हे (वृषन्) सुखों के वर्षाने और (सत्रादावन्) सत्यज्ञान को देनेवाले (सः) परमेश्वर! आप (अस्मभ्यम्) जो कि हम लोग आपकी आज्ञा वा अपने पुरुषार्थ में वर्त्तमान हैं, उनके लिये (अप्रतिष्कुतः) निश्चय करानेहारे (नः) हमारे (अमुम्) उस आनन्द करनेहारे प्रत्यक्ष मोक्ष का द्वार (चरुम्) ज्ञानलाभ को (अपावृधि) खोल दीजिये। तथा हे परमेश्वर! जो यह आपका बनाया हुआ (वृषन्) जल को वर्षाने और (सत्रादावन्) उत्तम-उत्तम पदार्थों को प्राप्त करनेवाला (अप्रतिष्कुतः) अपनी कक्षा ही में स्थिर रहता हुआ सूर्य्य (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये (अमुम्) आकाश में रहनेवाले इस (चरुम्) मेघ को (अपावृधि) भूमि में गिरा देता है॥6॥ भावार्थः—जो मनुष्य अपनी दृढ़ता से सत्यविद्या का अनुष्ठान और नियम से ईश्वर की आज्ञा का पालन करता है, उसके आत्मा में से अविद्यारूपी अन्धकार का नाश अन्तर्य्यामी परमेश्वर कर देता है, जिससे वह पुरुष धर्म और पुरुषार्थ को कभी नहीं छोड़ता॥6॥ पुनरिन्द्रशब्देनेश्वर उपदिश्यते। फिर भी अगले मन्त्र में इन्द्र शब्द से परमेश्वर का प्रकाश किया है- तु॒ञ्जेतु॑ञ्जे॒ य उत्त॑रे॒ स्तोमा॒ इन्द्र॑स्य व॒ज्रिणः॑। न वि॑न्धे अस्य सुष्टु॒तिम्॥7॥ तु॒ञ्जेऽतु॑ञ्जे। ये। उत्ऽत॑रे। स्तोमाः॑। इन्द्र॑स्य। व॒ज्रिणः॑। न। वि॒न्धे॒। अ॒स्य॒। सु॒ऽस्तु॒तिम्॥7॥ पदार्थः—(तुज्जेतुज्जे) दातव्ये दातव्ये (ये) (उत्तरे) सिद्धान्तसिद्धाः (स्तोमाः) स्तुतिसमूहाः (इन्द्रस्य) सर्वदुःखविनाशकस्य (वज्रिणः) वज्रोऽनन्तं प्रशस्तं वीर्य्यमस्यास्तीति तस्य। अत्र भूमार्थे प्रशंसार्थे च मतुप्। वीर्य्यं वै वज्रः। (श॰ब्रा॰7.4.2.24) (न) निषेधार्थे (विन्धे) विन्दामि। अत्र वर्णव्यत्ययेन दकारस्य धकारः। (अस्य) परमेश्वरस्य (सुष्टुतिम्) शोभनां स्तुतिम्। यास्कमुनिरिमं मन्त्रमेव व्याख्यातवान्-तुज्जस्तुज्जतेर्दानकर्मणः। दाने दाने य उत्तरे स्तोमा इन्द्रस्य वज्रिणो नास्य तैर्विन्दामि समाप्ति स्तुतेः। (निरु॰6.18)॥7॥ अन्वयः—नाहं ये तुञ्जेतुञ्जे उत्तरे स्तोमाः सन्ति तैर्वज्रिण इन्द्रस्य परमेश्वरस्य सुष्टुतिं विन्धे विन्दामि॥7॥ भावार्थः—ईश्वरेणास्मिन् जगति जीवानां सुखायैतेषु पदार्थेषु स्वशक्तेर्यावन्तो दृष्टान्ता यादृशं रचनं यादृशा गुणा उपकारार्थं रक्षिता वर्त्तन्ते तावतः सम्पूर्णान् वेत्तुं नाहं समर्थोऽस्मि। नैव कश्चिदीश्वरगुणानां समाप्तिं वेत्तुमर्हति। कुतः, तस्यैतषामनन्तत्वात्। परन्तु मनुष्यैरेतेभ्यः पदार्थेभ्यो यावानुपकारो ग्रहीतुं शक्योऽस्ति तावान्प्रयत्नेन ग्राह्य इति॥7॥ पदार्थः—(न) नहीं मैं (ये) जो (वज्रिणः) अनन्त पराक्रमवान् (इन्द्रस्य) सब दुःखों के विनाश करनेहारे (अस्य) इस परमेश्वर के (तुज्जेतुज्जे) पदार्थ-पदार्थ के देने में (उत्तरे) सिद्धान्त से निश्चित किये हुए (स्तोमाः) स्तुतियों के समूह हैं, उनसे भी (अस्य) परमेश्वर की (सुष्टुतिम्) शोभायमान स्तुति का पार मैं जीव (न) नहीं (विन्धे) पा सकता हूं॥7॥ भावार्थः—ईश्वर ने इस संसार में प्राणियों के सुख के लिये इन पदार्थों में अपनी शक्ति से जितने दृष्टान्त वा उनमें जिस प्रकार की रचना और अलग-अलग उनके गुण तथा उनसे उपकार लेने के लिये रक्खे हैं, उन सबके जानने को मैं अल्पबुद्धि पुरुष होने से समर्थ कभी नहीं हो सकता और न कोई मनुष्य ईश्वर के गुणों की समाप्ति जानने को समर्थ है, क्योंकि जगदीश्वर अनन्त गुण और अनन्त सामर्थ्यवाला है, परन्तु मनुष्य उन पदार्थों से जितना उपकार लेने को समर्थ हों, उतना सब प्रकार से लेना चाहिये॥7॥ ईश्वरो मनुष्यान् कथं प्राप्नोतीत्युपदिश्यते। परमेश्वर मनुष्यों को कैसे प्राप्त होता है, सो अर्थ अगले मन्त्र में प्रकाशित किया है- वृषा॑ यू॒थेव॒ वंस॑गः कृ॒ष्टीरि॑य॒र्त्योज॑सा। ईशा॑नो॒ अप्र॑तिष्कुतः॥8॥ वृषा॑। यू॒थाऽइ॑व। वंस॑गः। कृ॒ष्टीः। इ॒य॒र्ति॒। ओज॑सा। ईशा॑नः। अप्र॑तिष्कुतः॥8॥ पदार्थः—(वृषा) शुभगुणवर्षणकर्त्ता (यूथेव) गोसमूहान् वृषभ इव। तिथपृष्ठ॰ (उणा॰2.12) (वंसगः) वंसं धर्मसेविनं संविभक्तपदार्थान् गच्छतीति। (कृष्टीः) मनुष्यानाकर्षणादिव्यवहारान्वा (इयर्ति) प्राप्नोति (ओजसा) बलेन (ईशानः) ऐश्वर्यवान् ऐश्वर्य्यहेतुः सृष्टेः कर्त्ता प्रकाशको वा (अप्रतिष्कुतः) सत्यभावनिश्चयाभ्यां याचितोऽनुग्रहीतां स्वकक्षां विहायेतस्ततो ह्यचलितो वा॥8॥ अन्वयः—वंसगो वृषा यूथानीवाप्रतिष्कुत ईशानो वृषेश्वरः सूर्य्यश्चौजसा बलेन कृष्टीर्धर्मात्मनो मनुष्यान् आकर्षणादिव्यवहारान् वेयर्ति प्राप्नोति॥8॥ भावार्थः—अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्या एवेश्वरं प्राप्तुं समर्थास्तेषां ज्ञानोन्नतिकरणस्वभाववत्त्वात्। धर्मात्मनो मनुष्यानेव प्राप्तुमीश्वरस्य स्वभाववत्त्वाद्यथैतं प्राप्नुवन्ति तथेश्वरेण नियोजितत्वादयं सूर्य्योऽपि स्वसंनिहितान् लोकानाकर्षितुं समर्थोऽस्तीति॥8॥ पदार्थः—जैसे (वृषा) वीर्य्यदाता रक्षा करनेहारा (वंसगः) यथायोग्य गाय के विभागों को सेवन करनेहारा बैल (ओजसा) अपने बल से (यूथेव) गाय के समूहों को प्राप्त होता है, वैसे ही (वंसगः) धर्म के सेवन करनेवाले पुरुष को प्राप्त होने और (वृषा) शुभगुणों की वर्षा करनेवाला (ईशानः) ऐश्वर्य्यवान् जगत् का रचनेवाला परमेश्वर अपने (ओजसा) बल से (कृष्टीः) धर्मात्मा मनुष्यों को तथा (वंसगः) अलग-अलग पदार्थों को पहुंचाने और (वृषा) जल वर्षानेवाला सूर्य्य (ओजसा) अपने बल से (कृष्टीः) आकर्षण आदि व्यवहारों को (इयर्त्ति) प्राप्त होता है॥8॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमा और श्लेषालङ्कार है। मनुष्य ही परमेश्वर को प्राप्त हो सकते हैं, क्योंकि वे ज्ञान की वृद्धि करने के स्वभाव वाले होते हैं। और धर्मात्मा ज्ञानवाले मनुष्यों का परमेश्वर को प्राप्त होने का स्वभाव है। तथा जो ईश्वर ने रचकर कक्षा में स्थापन किया हुआ सूर्य्य है, वह अपने सामने अर्थात् समीप के लोकों को चुम्बक पत्थर और लोहे के समान खींचने को समर्थ रहता है॥8॥ ईश्वर एव सर्वथा सहायकार्य्यस्तीत्युपदिश्यते सब प्रकार से सब का सहायकारी परमेश्वर ही है, इस विषय को अगले मन्त्र में प्रकाश किया है- य एक॑श्चर्षणी॒नां वसू॑नामिर॒ज्यति॑। इन्द्रः॒ पञ्च॑ क्षिती॒नाम्॥9॥ यः। एक॑ः। च॒र्ष॒णी॒नाम्। वसू॑नाम्। इ॒र॒ज्यति॑। इन्द्रः॑। पञ्च। क्षि॒ती॒नाम्॥9॥ पदार्थः—(यः) परमेश्वरः (एकः) अद्वितीयः (चर्षणीनाम्) मनुष्याणाम्। चर्षणय इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं॰2.3) (वसूनाम्) अग्न्याद्यष्टानां वासहेतूनां लोकानाम् (इरज्यति) ऐश्वर्य्यं दातुं सेवितुं च योग्योऽस्ति। इरज्यतीत्यैश्वर्य्यकर्मसु पठितम्। (निघं॰2.21) परिचरणकर्मसु च। (निघं॰3.5) (इन्द्रः) दुष्टानां शत्रूणां विनाशकः (पञ्च) निकृष्टमध्यमोत्तमोत्तमतरोत्तमतमानां पञ्चविधानाम् (क्षितीनाम्) पृथिवीलोकानां मध्ये। क्षितिरिति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं॰1.1)॥9॥ अन्वयः—य इन्द्रश्चर्षणीनां वसूनां पञ्चानां क्षितीनामिरज्यति स एकोऽस्ति॥9॥ भावार्थः—यः सर्वाधिष्ठाता सर्वान्तर्यामी व्यापकः सर्वैश्वर्यप्रदोऽद्वितीयोऽसहायो जगदीश्वरः सर्वजगतो रचको धारक आकर्षणकर्त्तास्ति, स एव सर्वैर्मनुष्यैरिष्टत्वेन सेवनीयोऽस्ति। यः कश्चित्तं विहायान्यमीश्वरभावेनेष्टं मन्यते स भाग्यहीनः सदा दुःखमेव प्राप्नोति॥9॥ पदार्थः—(यः) जो (इन्द्रः) दुष्ट शत्रुओं का विनाश करनेवाला परमेश्वर (चर्षणीनाम्) मनुष्य (वसूनाम्) अग्नि आदि आठ निवास के स्थान, और (पञ्च) जो नीच, मध्यम, उत्तम, उत्तमतर और उत्तमतम गुणवाले पांच प्रकार के (क्षितीनाम्) पृथिवी लोक हैं, उन्हीं के बीच (इरज्यति) ऐश्वर्य के देने और सब के सेवा करने योग्य परमेश्वर है, वह (एकः) अद्वितीय और सब का सहाय करनेवाला है॥9॥ भावार्थः—जो सब का स्वामी अन्तर्यामी व्यापक और सब ऐश्वर्य्य का देनेवाला, जिसमें कोई दूसरा ईश्वर और जिसको किसी दूसरे की सहाय की इच्छा नहीं हैं, वही सब मनुष्यों को इष्ट बुद्धि से सेवा करने योग्य है। जो मनुष्य उस परमेश्वर को छोड़ के दूसरे को इष्ट देव मानता है, वह भाग्यहीन बड़े-बड़े घोर दुःखों को सदा प्राप्त होता है॥9॥ अयमेव सर्वोपरि वर्त्तत इत्युपदिश्यते। उक्त परमेश्वर सर्वोपरि विराजमान है, इस विषय का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है- इन्द्रं॑ वो वि॒श्वत॒स्परि॒ हवा॑महे॒ जने॑भ्यः। अ॒स्माक॑मस्तु॒ केव॑लः॥10॥14॥ इन्द्र॑म्। वः॒। वि॒श्वतः॑। परि॑। हवा॑महे। जने॑भ्यः। अ॒स्माक॑म्। अ॒स्तु॒। केव॑लः॥10॥ पदार्थः—(इन्द्रम्) पृथिव्यां राज्यप्रदम् (वः) युष्माकम् (विश्वतः) सर्वेभ्यः (परि) सर्वतोभावे। परीति सर्वतोभावं प्राह। (निरु॰1.3) (हवामहे) स्तुवीमः (जनेभ्यः) प्रादुर्भूतेभ्यः (अस्माकम्) मनुष्याणाम् (अस्तु) भवतु (केवलः) एकश्चेतनमात्रस्वरूप एवेष्टदेवः॥10॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यं वयं विश्वतो जनेभ्यः सर्वगुणैरुत्कृष्टमिन्द्रं परमेश्वरं परि हवामहे, स एव वो युष्माकमस्माकं च केवलः पूज्य इष्टोऽस्ति॥10॥ भावार्थः—ईश्वरोऽस्मिन्मन्त्रे सर्वजनहितायोपदिशति-हे मनुष्या! युष्माभिर्नैव कदाचिन्मां विहायान्य उपास्यदेवो मन्तव्यः। कुतः, नैव मत्तोऽन्यः कश्चिदीश्वरो वर्त्तते। एवं सति यः कश्चिदीश्वरत्वेऽनेकत्वमाश्रयति स मूढ एव मन्तव्य इति॥10॥ अत्र सप्तमे सूक्ते येनेश्वरेण रचयित्वाऽन्तरिक्षे कार्य्योपकरणार्थौ वायुसूर्य्यौ स्थापितौ स एवैकः सर्वशक्तिमान्सर्वदोषरहितः सर्वमनुष्यपूज्योऽस्तीति व्याख्यातमित्येत्सूक्तार्थेन सहास्य षष्ठसूक्तार्थस्य सङ्गतिरिति बोध्यम्। इदमपि सूक्तं सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपाख्यदेशनिवासिभिश्चासदर्थं व्याख्यातमिति सर्वैर्मन्तव्यम्॥ इति द्वितीयोऽनुवाकस्सप्तमं सूक्तं वर्गश्च चतुर्दशः समाप्तः॥ पदार्थः—हम लोग जिस (विश्वतः) सब पदार्थों वा (जनेभ्यः) सब प्राणियों से (परि) उत्तम-उत्तम गुणों करके श्रेष्ठतर (इन्द्रम्) पृथिवी में राज्य देनेवाले परमेश्वर का (हवामहे) वार-वार अपने हृदय में स्मरण करते हैं, वही परमेश्वर (वः) हे मित्र लोगो! तुम्हारे और हमारे पूजा करने योग्य इष्टदेव (केवलः) चेतनमात्र स्वरूप एक ही है॥10॥ भावार्थः—ईश्वर इस मन्त्र में सब मनुष्यों के हित के लिये उपदेश करता है- हे मनुष्यो! तुमको अत्यन्त उचित है कि मुझे छोड़कर उपासना करने योग्य किसी दूसरे देव को कभी मत मानो, क्योंकि एक मुझ को छोड़कर कोई दूसरा ईश्वर नहीं है। जब वेद में ऐसा उपदेश है तो जो मनुष्य अनेक ईश्वर वा उसके अवतार मानता है, वह सब से बड़ा मूढ़ है॥10॥ इस सप्तम सूक्त में जिस ईश्वर ने अपनी रचना के सिद्ध रहने के लिये अन्तरिक्ष में सूर्य्य और वायु स्थापन किये हैं, वही एक सर्वशक्तिमान् सर्वदोषरहित और सब मनुष्यों का पूज्य है। इस व्याख्या से इस सप्तम सूक्त के अर्थ के साथ छठे सूक्त के अर्थ की सङ्गति जाननी चाहिये। इस सूक्त के मन्त्रों के अर्थ सायणाचार्य्य आदि आर्य्यावर्त्तवासियों और विलसन आदि अङ्गरेज लोगों ने भी उलटे किये हैं॥ यह दूसरा अनुवाक, सातवां सूक्त और चौदहवां वर्ग समाप्त हुआ॥

अथास्य दशर्चस्याष्टमसूक्तस्य मधुच्छन्दा ऋषिः। इन्द्रो देवता। 1,5, 8 निचृद्गायत्री। 2 प्रतिष्ठागायत्री। 3,4, 6,7,9 गायत्री। 10 वर्धमाना गायत्री च छन्दः। षड्जः स्वरः॥ तत्र कीदृशं धनमीश्वरानुग्रहेण स्वपुरुषार्थेन च प्रापणीयमित्युपदिश्यते। अब अष्टमसूक्त के प्रथम मन्त्र में यह उपदेश है कि ईश्वर के अनुग्रह और अपने पुरुषार्थ से कैसा धन प्राप्त करना चाहिये- ऐन्द्र॑ सान॒सिं र॒यिं स॒जित्वा॑नं सदा॒सह॑म्। वर्षि॑ष्ठमू॒तये॑ भर॥1॥ आ। इ॒न्द्र॒। सा॒न॒सिम्। र॒यिम्। स॒ऽजित्वा॑नम्। स॒दा॒ऽसह॑म्। वर्षिष्ठम्। ऊ॒तये। भ॒र॒॥1॥ पदार्थः—(आ) समन्तात् (इन्द्र) परमधनप्रदेश्वर! (सानसिम्) सम्भजनीयम्। सानसि वर्णसि॰ (उणा॰4.110) अनेनायं ‘सन’ धातोरसिप्रत्ययान्तो निपातितः। (रयिम्) धनम् (सजित्वानाम्) समानानां शत्रूणां विजयकारकम्। अत्र अन्येभ्योऽपि दृश्यते। (अष्टा॰3.2.75) अनेन ‘जि’ धातोः क्वनिप्प्रत्ययः। (सदासहम्) सर्वदा दुष्टानां शत्रूणां हानिकारकदुःखानां च सहनहेतुम् (वर्षिष्ठम्) अतिशयेन वृद्धं वृद्धिकारकम्। अत्र वृद्धशब्दादिष्ठन् वर्षिरादेशश्च। (ऊतये) रक्षणाद्याय पुष्टये (भर) धारय॥1॥ अन्वयः—हे इन्द्र! कृपयाऽस्मदूतये वर्षिष्ठं सानसिं सदासहं सजित्वानं रयिमाभर॥1॥ भावार्थः—मनुष्यैः सर्वशक्तिमन्तमन्तर्यामिनमीश्वरमाश्रित्य परमपुरुषार्थेन च सर्वोपकाराय चक्रवर्त्तिराज्यानन्दकारकं विद्याबलं सर्वोत्कृष्टं सुवर्णसेनादिकं बलं च सर्वथा सम्पादनीयम्। यतः स्वस्य सर्वेषां च सुखं स्यादिति॥1॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) परमेश्वर! आप कृपा करके हमारी (ऊतये) रक्षा पुष्टि और सब सुखों की प्राप्ति के लिये (वर्षिष्ठम्) जो अच्छी प्रकार वृद्धि करनेवाला (सानसिम्) निरन्तर सेवने के योग्य (सदासहम्) दुष्ट शत्रु तथा हानि वा दुःखों के सहने का मुख्य हेतु (सजित्वानम्) और तुल्य शत्रुओं का जितानेवाला (रयिम्) धन है, उस को (आभर) अच्छी प्रकार दीजिये॥1॥ भावार्थः—सब मनुष्यों को सर्वशक्तिमान् अन्तर्यामी ईश्वर का आश्रय लेकर अपने पूर्ण पुरुषार्थ के साथ चक्रवर्त्ति राज्य के आनन्द को बढ़ानेवाली विद्या की उन्नति सुवर्ण आदि धन और सेना आदि बल सब प्रकार से रखना चाहिये, जिससे अपने आप को और सब प्राणियों को सुख हो॥1॥ कीदृशेन धनेनेत्युपदिश्यते। कैसे धन से परमसुख होता है, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है- नि येन॑ मुष्टिह॒त्यया॒ नि वृ॒त्रा रु॒णधा॑महै। त्वोता॑सो॒ न्यर्व॑ता॥2॥ नि। येन॑। मु॒ष्टि॒ऽह॒त्यया॑। नि। वृ॒त्रा। रु॒णधा॑महै। त्वाऽऊ॑तासः। नि। अर्व॑ता॥2॥ पदार्थः—(नि) नितरां क्रियायोगे (येन) पूर्वोक्तेन धनेन (मुष्टिहत्यया) हननं हत्या मुष्टिभिर्हत्या मुष्टिहत्या तया (नि) निश्चयार्थे (वृत्रा) मेघवत्सुखावरकान् शत्रून्। अत्र सुपां सुलुगिति शसः स्थाने आजादेशः। (रुणधामहै) निरुन्ध्याम (त्वोतासः) त्वया जगदीश्वरेण रक्षिताः सन्तः (नि) निश्चयार्थे (अर्वता) अश्वादिभिः सेनाङ्गैः। अर्वेत्यश्वनामसु पठितम्। (निघं॰1.14)॥2॥ अन्वयः—हे जगदीश्वर! त्वं त्वोतासस्त्वया रक्षिता सन्तो वयं येन धनेन मुष्टिहत्ययाऽर्वता निवृत्रान्निश्चितान् शत्रून् निरुणधामहै, तेषां सर्वदा निरोधं करवामहै, तदस्मभ्यं देहि॥2॥ भावार्थः—ईश्वरेष्टैर्मनुष्यैः शरीरात्मबलैः सर्वसामर्थ्येन श्रेष्ठानां पालनं दुष्टानां निग्रहः सर्वदा कार्य्यः, यतो मुष्टिप्रहारमसहमानाः शत्रवो विलीयेरन्॥2॥ पदार्थः—हे जगदीश्वर! (त्वोतासः) आप के सकाश से रक्षा को प्राप्त हुए हम लोग (येन) जिस पूर्वोक्त धन से (मुष्टिहत्यया) बाहुयुद्ध और (अर्वता) अश्व आदि सेना की सामग्री से (निवृत्रा) निश्चित शत्रुओं को (निरुणधामहै) रोकें अर्थात् उनको निर्बल कर सकें, ऐसे उत्तम धन का दान हम लोगों के लिये कृपा से कीजिये॥2॥ भावार्थः—ईश्वर के सेवक मनुष्यों को उचित है कि अपने शरीर और बुद्धिबल को बहुत बढ़ावें, जिससे श्रेष्ठों का पालन और दुष्टों का अपमान सदा होता रहे, और जिससे शत्रुजन उनके मुष्टिप्रहार को न सह सकें, इधर-उधर छिपते-भागते फिरें॥2॥ मनुष्याः किं धृत्वा शत्रून् जयन्तीत्युपदिश्यते। मनुष्य किसको धारण करने से शत्रुओं को जीत सकते हैं, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है- इन्द्र॒ त्वोता॑स॒ आ व॒यं वज्रं॑ घ॒ना द॑दीमहि। जये॑म॒ सं यु॒धि स्पृधः॑॥3॥ इन्द्र॑। त्वाऽऊ॑तासः। आ। व॒यम्। वज्र॑म्। घ॒ना। द॒दी॒महि। जये॑म। सम्। यु॒धि। स्पृधः॑॥3॥ पदार्थः—(इन्द्र) अनन्तबलेश्वर! (त्वोतासः) त्वया बलं प्रापिताः (आ) क्रियार्थे (वयम्) बलवन्तो धार्मिका शूराः (वज्रम्) शत्रूणां बलच्छेदकमाग्नेयादिशस्त्रास्त्रसमूहम् (घना) शतघ्नीभुसुण्ड्यसिचापबाणादीनि दृढानि युद्धसाधनानि। शेश्छन्दसि बहुलमिति लुक्। (ददीमहि) गृह्णीमः। अत्र लडर्थे लिङ्। (जयेम) (सं) क्रियार्थे (युधि) संग्रामे (स्पृधः) स्पर्धमानान् शत्रून्। ‘स्पर्ध सङ्घर्षे’ इत्यस्य क्विबन्तस्य रूपम्। बहुलं छन्दसि। (अष्टा॰6.1.34) अनेन सम्प्रसारणमल्लोपश्च॥3॥ अन्वयः—हे इन्द्र! त्वोतासो वयं स्वविजायार्थं घना आददीमहि, यतो वयं युधि स्पृधो जयेम॥3॥ भावार्थः—मनुष्यैर्धर्मेश्वरावाश्रित्य शरीरपुष्टिं विद्ययात्मबलं पूर्णां युद्धसामग्रीं परस्परमविरोधमुत्साहमित्यादि सद्गुणान् गृहीत्वा सदैव दुष्टानां शत्रूणां पराजयकरणेन सुखयितव्यम्॥3॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) अनन्तबलवान् ईश्वर! (त्वोतासः) आपके सकाश से रक्षा आदि और बल को प्राप्त हुए (वयम्) हम लोग धार्मिक और शूरवीर होकर अपने विजय के लिये (वज्रम्) शत्रुओं के बल का नाश करने का हेतु आग्नेयास्त्रादि अस्त्र और (घना) श्रेष्ठ शस्त्रों का समूह, जिनको कि भाषा में तोप बन्दूक तलवार और धनुष बाण आदि करके प्रसिद्ध कहते हैं, जो युद्ध की सिद्धि में हेतु हैं, उनको (आददीमहि) ग्रहण करते हैं। जिस प्रकार हम लोग आपके बल का आश्रय और सेना की पूर्ण सामग्री करके (स्पृधः) ईर्षा करनेवाले शत्रुओं को (युधि) संग्राम में (जयेम) जीतें॥3॥ भावार्थः—मनुष्यों को उचित है कि धर्म और ईश्वर के आश्रय से शरीर की पुष्टि और विद्या करके आत्मा का बल तथा युद्ध की पूर्ण सामग्री परस्पर अविरोध और उत्साह आदि श्रेष्ठ गुणों का ग्रहण करके दुष्ट शत्रुओं के पराजय करने से अपने और सब प्राणियों के लिये सुख सदा बढ़ाते रहें॥3॥ कस्य कस्य सहायेनैतत् सिध्यतीत्युपदिश्यते। किस-किस के सहाय से उक्त सुख सिद्ध होता है, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है- व॒यं शूरे॑भि॒रस्तृ॑भि॒रिन्द्र॒ त्वया॑ यु॒जा व॒यम्। सा॒स॒ह्याम॑ पृतन्य॒तः॥4॥ व॒यम्। शूरे॑भिः। अस्तृ॑भिः। इन्द्र॑। त्वया॑। यु॒जा। व॒यम्। सा॒स॒ह्याम॑। पृ॒त॒न्य॒तः॥4॥ पदार्थः—(वयम्) सभाध्यक्षाः सेनापतिवराः (शूरेभिः) सर्वोत्कृष्टशूरवीरैः। अत्र बहुलं छन्दसीति भिस ऐसादेशो न। (अस्तृभिः) सर्वशस्त्रास्त्रप्रक्षेपणदक्षैः सह (इन्द्र) युद्धोत्साहप्रदेश्वर (त्वया) अन्तर्यामिणेष्टेन (युजा) कृपया धार्मिकेषु स्वसामर्थ्यसंयोजकेन (वयम्) योद्धारः (सासह्याम) पुनः पुनः सहेमहि। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदं लिङर्थे लोट् च। (पृतन्यतः) आत्मनः पृतनामिच्छतः शत्रून् ससेनान्। पृतनाशब्दात् क्यच्। कव्यध्वरपृतनस्यर्चिलोपः। (अष्टा॰7.4.39) अनेन ऋचि ऋग्वेद एवाकारलोपः॥4॥ अन्वयः—हे इन्द्र! युजा त्वया वयमस्तृभिः शूरेभिर्योद्धृभिः सह पृतन्यतः शत्रून् सासह्यामैवंप्रकारेण चक्रवर्त्तिराजानो भूत्वा नित्यं प्रजाः पालयेम॥4॥ भावार्थः—शौर्य्यं द्विविधं पुष्टिजन्यं शरीरस्थं विद्याधर्मजन्यमात्मस्थं च। एताभ्यां सह वर्त्तमानैर्मनुष्यैः परमेश्वरस्य सृष्टिरचनाक्रमान् ज्ञात्वा न्यायधैर्य्यसौजन्योद्योगादीन् सद्गुणान् समाश्रित्य सभाप्रबन्धेन राज्यपालनं दुष्टशत्रुनिरोधश्च सदा कर्त्तव्य इति॥4॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) युद्ध में उत्साह के देनेवाले परमेश्वर! (त्वया) आपको अन्तर्यामी इष्टदेव मानकर आपकी कृपा से धर्मयुक्त व्यवहारों में अपने सामर्थ्य के (युजा) योग करानेवाले के योग से (वयम्) युद्ध के करनेवाले हम लोग (अस्तृभिः) सब शस्त्र-अस्त्र के चलाने में चतुर (शूरभिः) उत्तमों में उत्तम शूरवीरों के साथ होकर (पृतन्यतः) सेना आदि बल से युक्त होकर लड़नेवाले शत्रुओं को (सासह्याम) वार-वार सहें अर्थात् उनको निर्बल करें, इस प्रकार शत्रुओं को जीतकर न्याय के साथ चक्रवर्त्ति राज्य का पालन करें॥4॥ भावार्थः—शूरता दो प्रकार की होती है, एक तो शरीर की पुष्टि और दूसरी विद्या तथा धर्म से संयुक्त आत्मा की पुष्टि। इन दोनों से परमेश्वर की रचना के कर्मों को जानकर न्याय, धीरजपन, उत्तम स्वभाव और उद्योग आदि से उत्तम-उत्तम गुणों से युक्त होकर सभाप्रबन्ध के साथ राज्य का पालन और दुष्ट शत्रुओं का निरोध अर्थात् उनको सदा कायर करना चाहिये॥4॥ पुनः स कीदृशोऽस्तीत्युपदिश्यते। उक्त कार्य्यसहाय करनेहारा जगदीश्वर किस प्रकार का है, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है- म॒हाँ इन्द्रः॑ प॒रश्च॒ नु म॑हि॒त्वम॑स्तु व॒ज्रिणे॑। द्यौर्न प्र॑थि॒ना शवः॑॥5॥15॥ म॒हान्। इन्द्रः॑। परः॒। च। नु। म॒हि॒ऽत्वम्। अ॒स्तु॒। व॒ज्रिणे॑। द्यौः। न। प्र॑थि॒ना। शवः॑॥5॥ पदार्थः—(महान्) सर्वथाऽनन्तगुणस्वभावसामर्थ्येन युक्तः (इन्द्रः) सर्वजगद्राजः (परः) अत्यन्तोत्कृष्टः (च) पुनरर्थे (नु) हेत्वपदेशे। (निरु॰1.4) (महित्वम्) मह्यते पूज्यते सर्वैर्जनैरिति महिस्तस्य भावः। अत्रौणादिकः सर्वधातुभ्य इन्नितीन् प्रत्ययः। (अस्तु) भवतु (वज्रिणे) वज्रो न्यायाख्यो दण्डोऽस्यास्तीति तस्मै। वज्रो वै दण्डः। (श॰ब्रा॰3.1.5.32) (द्यौः) विशालः सूर्य्यप्रकाशः (न) उपमार्थे। उपसृष्टादुपचारस्तस्य येनोपमिमीते। (निरु॰1.4) यत्र कारकात्पूर्वं नकारस्य प्रयोगस्तत्र प्रतिषेधार्थीयः, यत्र च परस्तत्रोपमार्थीयः। (प्रथिना) पृथोर्भावस्तेन। पृथुशब्दादिमनिच्। छान्दसो वर्णलापो वेति मकारलोपः। (शवः) बलम्। शव इति बलनामसु पठितम्। (निघं॰2.9)॥5॥ अन्वयः—यो मूर्त्तिमतः संसारस्य द्यौः सूर्य्यः प्रथिना न सुविस्तृतेन स्वप्रकाशेनेव महान् पर इन्द्रः परमेश्वरोऽस्ति, तस्मै वज्रिणे इन्द्रायेश्वराय न्वस्मत्कृतस्य विजयस्य महित्वं शवश्चास्तु॥5॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारोऽस्ति। धार्मिकैर्युद्धशीलैः। शूरैर्योद्धृभिर्मनुष्यैः स्वनिष्पादितस्य दुष्टशत्रुविजयस्य धन्यवादा अनन्तशक्तिमते जगदीश्वरायैव देयाः। यतो मनुष्याणां निरभिमानतया राज्योन्नतिः सदैव वर्धेतेति॥5॥ इति पञ्चदशो वर्गः समाप्तः॥ पदार्थः—(न) जैसे मूर्त्तिमान् संसार को प्रकाशयुक्त करने के लिये (द्यौः) सूर्य्यप्रकाश (प्रथिना) विस्तार से प्राप्त होता है, वैसे ही जो (महान्) सब प्रकार से अनन्तगुण अत्युत्तम स्वभाव अतुल सामर्थ्ययुक्त और (परः) अत्यन्त श्रेष्ठ (इन्द्रः) सब जगत् की रक्षा करनेवाला परमेश्वर है, और (वज्रिणे) न्याय की रीति से दण्ड देनेवाले परमेश्वर (नु) जो कि अपने सहायरूपी हेतु से हमको विजय देता है, उसी की यह (महित्वम्) महिमा (च) तथा बल है॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। धार्मिक युद्ध करनेवाले मनुष्यों को उचित है कि जो शूरवीर युद्ध में अति धीर मनुष्यों के साथ होकर दुष्ट शत्रुओं पर अपना विजय हुआ है, उसका धन्यवाद अनन्त शक्तिमान् जगदीश्वर को देना चाहिये कि जिससे निरभिमान होकर मनुष्यों के राज्य की सदैव बढ़ती होती रहे॥5॥ यह पन्द्रहवां वर्ग समाप्त हुआ॥ मनुष्यैः कीदृशा भूत्वा युद्धं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते। मनुष्यों को कैसे होकर युद्ध करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में प्रकाश किया है- स॒मो॒हे वा॒ य आश॑त॒ नर॑स्तो॒कस्य॒ सनि॑तौ। विप्रा॑सो वा धिया॒यवः॑॥6॥ स॒म्ऽओ॒हे। वा॒। ये। आश॑त। नरः॑। तो॒कस्य॑। सनि॑तौ। विप्रा॑सः। वा॒। धि॒या॒ऽयवः॑॥6॥ पदार्थः—(समोहे) संग्रामे। समोहे इति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं॰2.17) (वा) पक्षान्तरे (ये) योद्धारो युद्धम् (आशत) व्याप्तवन्तो भवेयुः। ‘अशूङ् व्याप्तौ’ इत्यस्माल्लिङर्थे लुङ्प्रयोगः। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति च्लेरभावः। (नरः) मनुष्याः (तोकस्य) संतानस्य (सनितौ) भोगसंविभागलाभे। तितुत्र॰ (अष्टा॰7.2.9) आग्रहादीनामिति वक्तव्यमिति वार्त्तिकेनेडागमः। (विप्रासः) मेधाविनः। विप्र इति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं॰3.15) आज्जसेरसुक्। (अष्टा॰7.1.50) अनेन जसोऽसुगागमः। (वा) व्यवहारान्तरे (धियायवः) ये धियं विज्ञानमिच्छन्तः, धीयते धार्य्यते श्रुतमनया सा धिया, तामात्मन इच्छन्ति ते, ‘धि धारणे’ इत्यस्य कप्रत्ययान्तः प्रयोगः॥6॥ अन्वयः—ये विप्रासो नरस्ते समोहे शत्रूनाशत वा ये धियायवस्ते तोकस्य सनितावाशत॥6॥ भावार्थः—इन्द्रेश्वरः सर्वान्मनुष्यानाज्ञापयति-संसारेऽस्मिन्मनुष्यैः। कार्य्यद्वयं कर्त्तव्यम्। ये विद्वांसस्तैर्विद्याशरीरबले सम्पाद्यैताभ्यां शत्रूणां बलान्यभिव्याप्य सदैव तिरस्कर्त्तव्यानि। मनुष्यैर्यदा यदा शत्रुभिः सह युयुत्सा भवेत्तदा तदा सावधानतया शत्रूणां बलान्न्यूनान्न्यूनं द्विगुणं स्वबलं सम्पाद्यैव तेषां कृतेनापराजयेन प्रजाः सततः रक्षणीयाः। ये च विद्यादानं चिकीर्षवस्ते कन्यानां पुत्राणां च विद्याशिक्षाकरणे प्रयतेरन्। यतः। शत्रूणां पराभवेन सुराज्यविद्यावृद्धी सदैव भवेताम्॥6॥ पदार्थः—(विप्रासः) जो अत्यन्त बुद्धिमान् (नरः) मनुष्य हैं, वे (समोहे) संग्राम के निमित्त शत्रुओं को जीतने के लिये (आशत) तत्पर हैं, (वा) अथवा (धियायवः) जो कि विज्ञान देने की इच्छा करनेवाले हैं, वे (तोकस्य) सन्तानो के (सनितौ) विद्या की शिक्षा में (आशत) उद्योग करते रहें॥6॥ भावार्थः—ईश्वर सब मनुष्यों को आज्ञा देता है कि-इस संसार में मनुष्यों को दो प्रकार का काम करना चाहिये। इनमें से जो विद्वान् हैं वे अपने शरीर और सेना का बल बढ़ाते और दूसरे उत्तम विद्या की वृद्धि करके शत्रुओं के बल का सदैव तिरस्कार करते रहें। मनुष्यों को जब-जब शत्रुओं के साथ युद्ध करने की इच्छा हो तब-तब सावधान होके प्रथम उनकी सेना आदि पदार्थों से कम से कम अपना दोगुना बल करके उनके पराजय से प्रजा की रक्षा करनी चाहिये। तथा जो विद्याओं के पढ़ाने की इच्छा करनेवाले हैं, वे शिक्षा देने योग्य पुत्र वा कन्याओं को यथायोग्य विद्वान् करने में अच्छे प्रकार यत्न करें, जिससे शत्रुओं के पराजय और अज्ञान के विनाश से चक्रवर्त्ति राज्य और विद्या की वृद्धि सदैव बनी रहे॥6॥ अथेन्द्रशब्देन सूर्य्यलोकगुणा उपदिश्यन्ते। अगले मन्त्र में इन्द्र शब्द से सूर्य्यलोक के गुणों का व्याख्यान किया है- यः कु॒क्षिः सो॑म॒पात॑मः समु॒द्रइ॑व॒ पिन्व॑ते। उ॒र्वीरापो॒ न का॒कुदः॑॥7॥ यः। कु॒क्षिः। सो॒म॒ऽपात॑मः। स॒मु॒द्रःऽइ॑व। पिन्व॑ते। उ॒र्वीः। आपः॑। न। का॒कुदः॑॥7॥ पदार्थः—(यः) सूर्य्यलोकः (कुक्षिः) कुष्णाति निष्कर्षति सर्वपदार्थेभ्यो रसं यः। अत्र प्लुषिकुषिशुषिभ्यः क्सिः। (उणा॰3.153) अनेन ‘कुष’ धातोः क्सिः प्रत्ययः। (सोमपातमः) यः सोमान्पदार्थान् किरणैः पाति सोऽतिशयितः (समुद्र इव) समुद्रवन्त्यापो यस्मिंस्तद्वत् (पिन्वते) सिंचति सेवते वा (उर्वीः) बह्वीः पृथिवीः। उर्वीति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं॰1.1) (आपः) जलानि, वाऽऽप्नुवन्ति शब्दोच्चारणादिव्यवहारान् याभिस्ता आपः प्राणः। आप इत्युदकनामसु पठितम्। (निघं॰1.12) आप इति पदनामसु पठितम्। (निघं॰5.3) आभ्यां प्रमाणाभ्यामप्शब्देनात्रोदकानि सर्वचेष्टाप्राप्तिनिमित्तत्वात् प्राणाश्च गृह्यन्ते। (न) उपमार्थे (काकुदः) वाचः शब्दसमूहः। काकुदिति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं॰1.11)॥7॥ अन्वयः—यः कुक्षिः सोमपातमः सूर्य्यलोकः समुद्रं जलानीवापः काकुदो न प्राणा वायवो वाचः शब्दसमूहमिवोर्वीः पृथिवीः पिन्वते॥7॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारौ स्तः। इन्द्रेणेश्वरेण यथा जलस्थितिवृष्टिहेतुः समुद्रो वाग्व्यवहारहेतुः प्राणश्च रचितस्तथैव पृथिव्याः प्रकाशाकर्षणादे रसविभागस्य च हेतुः सूर्य्यलोको निर्मितः। एताभ्यां सर्वप्राणिनामनेके व्यवहाराः सिध्यन्तीति॥7॥ पदार्थः—(समुद्र इव) जैसे समुद्र को जल (आपो न काकुदः) शब्दों के उच्चारण आदि व्यवहारों के करानेवाले प्राण वाणी का सेवन करते हैं, वैसे (कुक्षिः) सब पदार्थों से रस को खींचनेवाला तथा (सोमपातमः) सोम अर्थात् संसार के पदार्थों का रक्षक जो सूर्य्य है, वह (उर्वीः) सब पृथिवी को सेवन वा सेचन करता है॥7॥ भावार्थः—इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। ईश्वर ने जैसे जल की स्थिति और वृष्टि का हेतु समुद्र तथा वाणी के व्यवहार का हेतु प्राण बनाया है, वैसे ही सूर्य्यलोक वर्षा होने, पृथिवी के खींचने, प्रकाश और रसविभाग करने का हेतु बनाया है, इसी से सब प्राणियों के अनेक व्यवहार सिद्ध होते हैं॥7॥ पुनस्तन्निमित्तकार्य्यमुपदिश्यते। उक्त अर्थों के निमित्त और कार्य्य का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है- ए॒वा ह्य॑स्य सू॒नृता॑ विर॒प्शी गोम॑ती म॒ही। प॒क्वा शाखा॒ न दा॒शुषे॑॥8॥ ए॒व। हि। अ॒स्य॒। सू॒नृता॑। वि॒ऽर॒प्शी। गोम॑ती। म॒ही। प॒क्वा। शाखा॑। न। दा॒शुषे॑॥8॥ पदार्थः—(एव) अवधारणार्थे (हि) हीत्यनेककर्मा। (निरु॰1.5) (अस्य) परमेश्वरस्य सूर्य्यलोकस्य वा प्रकाशनात् (सूनृता) प्रियसत्यप्रकाशिका वाक्, अन्नादिपदार्थवती वा। सूनृतेत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं॰2.7) सुष्ठु ऋतं यथार्थं ज्ञानं यस्यां साऽन्नवती वा। (विरप्शी) महाविद्यायुक्ता। विरप्शी इति महन्नामसु पठितम्। (निघं॰3.3 (गोमती) गावो भूयांसः स्तोतारो विद्यन्ते यस्यां सा। गौरिति स्तोतृनामसु पठितम्। (निघं॰3.16) (मही) सर्वपूज्या वाङ्मयी वेदचतुष्टयी पृथिवी वा। महीति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं॰1.11) पृथिवीनामसु च। (निघं॰1.1) (पक्वा) पक्वफलयुक्ता (शाखा) वृक्षावयवाः। शाखाः खशयाः शक्नोतेर्वा। (निरु॰1.4) (न) इव (दाशुषे) अध्ययनार्थं तद्राज्यप्राप्त्यर्थं च ध्यानं दत्तवते मनुष्याय॥8॥ अन्वयः—हि पक्वा शाखा न इवास्य गोमती सूनृता विरप्शी मही दाशुषे सुखं पिन्वते॥8॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा विविधपुष्पफलवन्त आम्रपनसादयो वृक्षा विविधफलप्रदाः सन्ति, तथैवेश्वरेण प्रकाशिता विविधविद्यानन्दप्रदा वेदा अनेकसुखभोगप्रदाः पृथिव्यादयश्च प्रसिद्धीकृताः सन्ति। एतेषां प्रकाशो राज्यं च विद्वद्भिरेव कर्त्तुं शक्यते॥8॥ पदार्थः—(पक्वा शाखा न) जैसे आम और कटहर आदि वृक्ष, पकी डाली और फलयुक्त होने से प्राणियों को सुख देनेहारे होते हैं (अस्य हि) वैसे ही इस परमेश्वर की (गोमती) जिसको बहुत से विद्वान् सेवन करनेवाले हैं, जो (सूनृता) प्रिय और सत्यवचन प्रकाश करनेवाली (विरप्शी) महाविद्यायुक्त और (मही) सबको सत्कार करने योग्य चारों वेद की वाणी है, सो (दाशुषे) पढ़ने में मन लगानेवालों को सब विद्याओं का प्रकाश करनेवाली है। तथा (अस्य हि) जैसे इस सूर्य्यलोक की (गोमती) उत्तम मनुष्यों के सेवन करने योग्य (सूनृता) प्रीति के उत्पादन करनेवाले पदार्थों का प्रकाश करनेवाली (विरप्शी) बड़ी से बड़ी (मही) बड़े-बड़े गुणयुक्त दीप्ति है, वैसे वेदवाणी (दाशुषे) राज्य की प्राप्ति के लिये राज्यकर्मों में चित्त देनेवालों को सुख देनेवाली होती है॥8॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे विविध प्रकार से फलफूलों से युक्त आम और कटहर आदि वृक्ष नाना प्रकार के फलों के देनेवाले होके सुख देनेहारे होते हैं, वैसे ही ईश्वर से प्रकाश की हुई वेदवाणी बहुत प्रकार की विद्याओं को देनेहारी होकर सब मनुष्यों को परम आनन्द देनेवाली है। जो विद्वान् लोग इसको पढ़ के धर्मात्मा होते हैं, वे ही वेदों का प्रकाश और पृथिवी में राज्य करने को समर्थ होते हैं॥8॥ य एवं कुर्वन्ति तेषां किं भवतीत्युपदिश्यते। जो मनुष्य ऐसा करते हैं, उनको क्या सिद्ध होता है, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है- ए॒वा हि ते॒ विभू॑तय ऊ॒तय॑ इन्द्र॒ माव॑ते। स॒द्यश्चि॒त्सन्ति॑ दा॒शुषे॑॥9॥ ए॒व। हि। ते॒। विऽभू॑तयः। ऊ॒त॑यः। इन्द्र॒। माऽव॑ते। स॒द्यः। चि॒त्। सन्ति॑। दा॒शुषे॑॥9॥ पदार्थः—(एव) निश्चयार्थे (हि) हेत्वर्थे (ते) तव (विभूतयः) विविधा भूतय ऐश्वर्य्याणि यासु ताः (ऊतयः) रक्षाविज्ञानसुखप्राप्त्यादयः (इन्द्र) सर्वतो रक्षयितरीश्वर! (मावते) मत्सदृशाय। वतुप्प्रकारेण युष्मदस्मद्भ्यां छन्दसि सादृश्यं उपसंख्यानम्। (अष्टा॰5.2.39) अनेनास्मच्छब्दात् सादृश्यार्थे वतुप्। आ सर्वनाम्नः। (अष्टा॰6.3.91) इत्याकारादेशश्च। (सद्यः) शीघ्रमेव। सद्यः परुत्परार्य्यैषमः। (अष्टा॰5.3.22) समाने अहनि इति सद्यः इति भाष्यवचनात्समाने अहन्येतस्मिन्नर्थे सद्य इति शब्दो निपातितः। (चित्) पूजार्थे। चिदिति पूजायाम्। (निरु॰1.4) (सन्ति) भवन्तु। अत्र लोडर्थे लट् वा। (दाशुषे) सर्वोपकारधर्म आत्मानं दत्तवते॥9॥ अन्वयः—हे इन्द्र जगदीश्वर! भवत्कृपया यथा ते तव विभूतय ऊतयो मह्यं प्राप्ताः सन्ति भवन्ति, तथैवैता मावते दाशुषे चिदेव हि सद्यः प्राप्नुवन्तु॥9॥ भावार्थः—अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। ईश्वरस्याज्ञास्ति-ये जनाः पुरुषार्थिनो भूत्वा धार्मिकाः परोपकारिणो भवन्ति त एव पूर्णमैश्वर्य्यरक्षणं कृत्वा सर्वत्र सत्कृता जायन्ते॥9॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) जगदीश्वर! आपकी कृपा से जैसे (ते) आपके (विभूतयः) जो-जो उत्तम ऐश्वर्य्य और (ऊतयः) रक्षा विज्ञान आदि गुण मुझको प्राप्त (सन्ति) हैं, वैसे (मावते) मेरे तुल्य (दाशुषे चित्) सब के उपकार और धर्म में मन को देनेवाले पुरुष को (सद्य एव) शीघ्र ही प्राप्त हों॥9॥ भावार्थः—इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। ईश्वर की आज्ञा का प्रकाश इस रीति से किया है कि-जब मनुष्य पुरुषार्थी होके सब को उपकार करनेवाले और धार्मिक होते हैं, तभी वे पूर्ण ऐश्वर्य्य और ईश्वर की यथायोग्य रक्षा आदि को प्राप्त होके सर्वत्र सत्कार के योग्य होते हैं॥9॥ इयं सर्वा प्रशंसा कस्यास्तीत्युपदिश्यते। उक्त सब प्रशंसा किस की है, सो अगले मन्त्र में किया है- ए॒वा ह्य॑स्य॒ काम्या॒ स्तोम॑ उ॒क्थं च शंस्या॑। इन्द्रा॑य॒ सोम॑पीतये॥10॥16॥ ए॒व। हि। अ॒स्य॒। काम्या॑। स्तोमः॑। उ॒क्थम्। च॒। शंस्या॑। इन्द्रा॑य। सोम॑ऽपीतये॥10॥ पदार्थः—(एव) अवधारणार्थे (हि) हेत्वपदेशे (अस्य) वेदचतुष्टयस्य (काम्या) कमनीये। अत्र सुपां सुलुगिति द्विवचनस्याकारादेशः। (स्तोमः) सामगानविशेषः स्तुतिसमूहः (उक्थम्) उच्यन्त ईश्वरगुणा येन तादृक्समूहम् (च) समुच्चयार्थे। अनेन यजुरथर्वणोर्ग्रहणम्। (शंस्या) प्रशंसनीये कर्मणी। अत्रापि सुपां सुलुगित्याकारादेशः। (इन्द्राय) परमैश्वर्य्यवते। परमात्मने (सोमपीतये) सोमानां सर्वेषां पदार्थानां पीतिः पानं यस्य तस्मै। सह सुपा। (अष्टा॰2.1.4) इति सामान्यतः समासः॥10॥ अन्वयः—ये अस्य वेदचतुष्टयस्य काम्ये शंस्ये स्तोम उक्थं च स्तस्ते सोमपीतये इन्द्राय हि भजतः॥10॥ भावार्थः—यथास्मिन् जगति केनचिन्निर्मितान् पदार्थान् दृष्ट्वा तद्रचयितुः प्रशंसा भवति, तथैव सर्वैः प्रत्यक्षाप्रत्यक्षैर्जगत्स्थैः सूर्य्यादिभिरुत्तमैः पदार्थैस्तद्रचनया च वेदेष्वीश्वरस्यैव धन्यवादाः सन्ति। नैतस्य समाधिका वा कस्यचित्स्तुतिर्भवितुमर्हतीति॥10॥ एवं य ईश्वरस्योपसाकाः क्रियावन्तस्तदाश्रिता विद्ययात्मसुखं क्रियया च शरीरसुखं प्राप्य तेऽस्यैव सदा प्रशंसा कुर्य्युरित्यस्याष्टमस्य सूक्तोक्तार्थस्य सप्तमसूक्तोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति विज्ञेयम्। अस्यापि सूक्तस्य मन्त्रार्थाः सायणचार्य्यादिभिर्यूरोपाख्यदेशस्थैर्विलसनाख्यादिभिश्चा- यथावद्वर्णिता इति वेदितव्यम्॥ इत्यष्टमं सूक्तं षोडशश्च वर्गः समाप्तः॥ पदार्थः—(अस्य) जो-जो इन चार वेदों के (काम्ये) अत्यन्त मनोहर (शंस्ये) प्रशंसा करने योग्य कर्म वा (स्तोमः) स्तोत्र हैं, (च) तथा (उक्थम्) जिनमें परमेश्वर के गुणों का कीर्तन है, वे (इन्द्राय) परमेश्वर की प्रशंसा के लिये हैं। कैसा वह परमेश्वर है कि जो (सोमपीतये) अपनी व्याप्ति से सब पदार्थों के अंश-अंश में रम रहा है॥10॥ भावार्थः—जैसे इस संसार में अच्छे-अच्छे पदार्थों की रचना विशेष देखकर उस रचनेवाले की प्रशंसा होती है, वैसे ही संसार के प्रसिद्ध और अप्रसिद्ध अत्युत्तम पदार्थों तथा विशेष रचना को देखकर ईश्वर को ही धन्यवाद दिये जाते हैं। इस कारण से परमेश्वर की स्तुति के समान वा उस से अधिक किसी की स्तुति नहीं हो सकती॥10॥ इस प्रकार जो मनुष्य ईश्वर की उपासना और वेदोक्त कर्मों के करनेवाले हैं, वे ईश्वर के आश्रित होके वेदविद्या से आत्मा के सुख और उत्तम क्रियाओं से शरीर के सुख को प्राप्त होते हैं, वे परमेश्वर ही की प्रशंसा करते रहें। इस अभिप्राय से इस आठवें सूक्त के अर्थ की पूर्वोक्त सातवें सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये। इस सूक्त के मन्त्रों के भी अर्थ सायणाचार्य्य आदि और यूरोपदेशवासी अध्यापक विलसन आदि अङ्गरेज लोगों ने उलटे वर्णन किये हैं॥ यह आठवां सूक्त और सोलहवां वर्ग समाप्त हुआ॥

अथ नवमस्य दशर्चस्य सूक्तस्य मधुच्छन्दा ऋषिः। इन्द्रो देवताः। 1,3,7,10 निचृद्गायत्री; 2,4,8,9 गायत्री; 5,6 पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री च छन्दः। षड्जः स्वरः॥ तत्रेन्द्रशब्देनोभावर्थावुपदिश्येते। अब नवम सूक्त के आरम्भ के मन्त्र में इन्द्र शब्द से परमेश्वर और सूर्य्य का प्रकाश किया है- इन्द्रेहि॒ मत्स्यन्ध॑सो॒ विश्वे॑भिः सोम॒पर्व॑भिः। म॒हाँ अ॑भि॒ष्टिरोज॑सा॥1॥ इ॑न्द्र। आ। इ॒हि॒। मत्सि॑। अन्ध॑सः। विश्वे॑भिः। सो॒म॒पर्व॑ऽभिः। म॒हान्। अ॒भि॒ष्टिः। ओज॑सा॥1॥ पदार्थः—(इन्द्र) सर्वव्यापकेश्वर सूर्य्यलोको वा (आ) क्रियार्थे (इहि) प्राप्नुहि प्रापयति वा। अत्र पुरुषव्यत्ययः लडर्थे लोट् च। (मत्सि) हर्षयितासि भवति वा। अत्र बहुलं छन्दसीति श्यनो लुक्, पक्षे पुरुषव्यत्ययश्च। (अन्धसः) अन्नानि पृथिव्यादीनि। अन्ध इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं॰2.7) (विश्वेभिः) सर्वैः। अत्र बहुलं छन्दसीति भिस ऐसादेशाभावः। (सोमपर्वभिः) सोमानां पदार्थानां पर्वाण्यवयवास्तैः सह (महान्) सर्वोत्कृष्ट ईश्वरः सूर्य्यलोको वा परिमाणेन महत्तमः (अभिष्टिः) अभितः सर्वतो ज्ञाता ज्ञापयिता मूर्त्तद्रव्यप्रकाशको वा। अत्राभिपूर्वादिष गतावित्यस्माद्धातोर्मन्त्रे वृषेष॰ (अष्टा॰3.3.96) अनेन क्तिन्। एवमन्नादिषु छन्दसि पररूपं वक्तव्यम्। एङि पररूपमित्यस्योपरिस्थवार्त्तिकेनाभेरिकारस्य पररूपेणेदं सिध्यति। (ओजसा) बलेन। ओज इति बलनामसु पठितम्। (निघं॰2.9)॥1॥ अन्वयः—यथाऽयमिन्द्रः सूर्य्यलोक ओजसा महानभिष्टिर्विश्वेभिः सोमपर्वभिः सहान्धसोऽन्नानां पृथिव्यादीनां प्रकाशेनेहि मत्सि हर्षहेतुर्भवति, तथैव हे इन्द्र त्वं महानभिष्टिर्विश्वेभिः सोमपर्वभिः सह वर्त्तमानः सन् ओजसोऽन्धस एहि प्रापयसि मत्सि हर्षयितासि॥1॥ भावार्थः—अत्र श्लेषलुप्तोमापलङ्कारौ। यथेश्वरोऽस्मिन् जगति प्रतिपरमाण्वभिव्याप्य सततं सर्वान् लोकान् नियतान् रक्षति, तथा सूर्य्योऽपि सर्वेभ्यो लोकेभ्यो महत्त्वादाभिमुख्यस्थान् पदार्थानाकृष्य प्रकाश्य व्यवस्थापयति॥1॥ पदार्थः—जिस प्रकार से (अभिष्टिः) प्रकाशमान (महान्) पृथिवी आदि से बहुत बड़ा (इन्द्र) यह सूर्य्यलोक है, वह (ओजसा) बल वा (विश्वेभिः) सब (सोमपर्वभिः) पदार्थों के अङ्गों के साथ (अन्धसः) पृथिवी आदि अन्नादि पदार्थों के प्रकाश से (एहि) प्राप्त होता और (मत्सि) प्राणियों को आनन्द देता है, वैसे ही हे (इन्द्र) सर्वव्यापक ईश्वर! आप (महान्) उत्तमों में उत्तम (अभिष्टिः) सर्वज्ञ और सब ज्ञान के देनेवाले (ओजसा) बल वा (विश्वेभिः सोमपर्वभिः) सब पदार्थों के अंशों के साथ वर्त्तमान होकर (एहि) प्राप्त होते और (अन्धसः) भूमि आदि अन्नादि उत्तम पदार्थों को देकर हमको (मत्सि) सुख देता है॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेष और लुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे ईश्वर इस संसार के परमाणु-परमाणु में व्याप्त होकर सब की रक्षा निरन्तर करता है, वैसे ही सूर्य्य भी सब लोकों से बड़ा होने से अपने सन्मुख हुए पदार्थों को आकर्षण वा प्रकाश करके अच्छे प्रकार स्थापन करता है॥1॥ अथ शिल्पविद्यानुसङ्गिनी अग्निजले उपदिश्येते। शिल्पविद्या के उत्तम साधन जल और अग्नि का वर्णन अगले मन्त्र में किया है- एमे॑नं सृजता सु॒ते म॒न्दिमिन्द्रा॑य म॒न्दिने॑। चक्रिं॒ विश्वा॑नि॒ चक्र॑ये॥2॥ आ। ई॒म्। ए॒न॒म्। सृ॒ज॒त॒। सु॒ते। म॒न्दिम्। इन्द्रा॑य। म॒न्दिने॑। चक्रि॑म्। विश्वा॑नि। चक्र॑ये॥2॥ पदार्थः—(आ) क्रियार्थे (ईम्) जलमग्निं वा। ईमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं॰1.12) ईमिति पदनामसु च। (निघं॰4.2) अनेन शिल्पविद्यासाधकतमावेतौ गृह्येते। (एनम्) अर्थद्वयम् (सृजत) विविधतया प्रकाशयत सम्पादयत वा (सुते) उत्पन्नेऽस्मिन्पदार्थसमूहे जगति (मन्दिम्) मन्दन्ति हर्षन्त्यस्मिँस्तम् (इन्द्राय) ऐश्वर्य्यमिच्छवे जीवाय (मन्दिने) मन्दितुं मन्दयितुं शीलवते (चक्रिम्) शिल्पविद्याक्रियासाधनेषु यानानां शीघ्रचालनस्वभावम् (विश्वानि) सर्वाणि वस्तूनि निष्पादयितुम् (चक्रये) पुरुषार्थकरणशीलाय॥2॥ अन्वयः—हे विद्वांसः! सुत उत्पन्नेऽस्मिन्पदार्थसमूहे जगति विश्वानि कार्य्याणि कर्त्तुं मन्दिन इन्द्राय जीवाय मन्दिं चक्रये चक्रिमासृजत॥2॥ भावार्थः—विद्वद्भिरस्मिन् जगति पृथिवीमारभ्येश्वरपर्य्यन्तानां पदार्थानां विज्ञानप्रचारेण सर्वान् मनुष्यान् विद्यया क्रियावतः सम्पाद्य सर्वाणि सुखानि सदा सम्पादनीयानि॥2॥ पदार्थः—हे विद्वानो! (सुते) उत्पन्न हुए इस संसार में (विश्वानि) सब सुखों के उत्पन्न होने के अर्थ (मन्दिने) ऐश्वर्यप्राप्ति की इच्छा करने तथा (मन्दिम्) आनन्द बढ़ानेवाला (चक्रये) पुरुषार्थ करने के स्वभाव और (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य होने वाले मनुष्य के लिये (चक्रिम्) शिल्पविद्या से सिद्ध किये हुए साधनों में (एनम्) इन (ईम्) जल और अग्नि को (आसृजत) अति प्रकाशित करो॥2॥ भावार्थः—विद्वानों को उचित है कि इस संसार में पृथिवी से लेके ईश्वरपर्य्यन्त पदार्थों के विशेषज्ञान उत्तम शिल्प विद्या से सब मनुष्यों को उत्तम-उत्तम क्रिया सिखाकर सब सुखों का प्रकाश करना चाहिये॥2॥ अथेन्द्रशब्देनेश्वर उपदिश्यते। अगले मन्त्र में इन्द्रशब्द से परमेश्वर का प्रकाश किया है- मत्स्वा॑ सुशिप्र म॒न्दिभिः॒ स्तोमे॑भिर्विश्वचर्षणे। सचै॒षु सव॑ने॒ष्वा॥3॥ मत्स्व॑। सु॒ऽशि॒प्र॒। म॒न्दिऽभिः॑। स्तोमे॑भिः। वि॒श्व॒ऽच॒र्ष॒णे॒। सचा॑। ए॒षु। सव॑नेषु। आ॥3॥ पदार्थः—(मत्स्व) अस्माभिः स्तुतः सन् सदा हर्षय। द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। बहुलं छन्दसीति श्यनो लुक् च। (सुशिप्र) शोभनं शिप्रं ज्ञानं प्रापणं वा यस्य तत्सम्बुद्धौ (मन्दिभिः) तज्ज्ञापकैर्हर्षकरैश्च गुणैः। (स्तोमेभिः) वेदस्थैः स्तुतियुक्तैस्त्वद्गुणप्रकाशकैः स्तोत्रैः। बहुलं छन्दसीति भिस ऐस् न। (विश्वचर्षणे) विश्वस्य सर्वस्य जगतश्चर्षणिर्द्रष्टा तत्संबुद्धौ। विश्वचर्षणिरिति पश्यतिकर्मसु पठितम्। निघं॰3.11) (सचा) सचन्ति ये ते सचास्तान् सचानस्मान् विदुषः। अत्र शसः स्थाने सुपां सुलुगित्याकारादेशः। सचेति पदनामसु पठितम्। (निघं॰4.2) अनेन ज्ञानप्राप्त्यर्थो गृह्यते। (एषु) प्रत्यक्षेषु (सवनेषु) ऐश्वर्य्येषु। सु प्रसवैश्वर्य्ययोरित्यस्य रूपम्। (आ) समन्तात्॥3॥ अन्वयः—हे विश्वचर्षणे सुशिप्रेन्द्र भगवन्! त्वं मन्दिभिः स्तोमेभिः स्तुतः सन्नेषु सवनेषु सचानस्मानामत्स्व समन्ताद्धर्षय॥3॥ भावार्थः—येन विश्वप्रकाशकः सूर्य्य उत्पादितस्तत्स्तुतौ ये मनुष्याः कृतनिष्ठा धार्मिकाः पुरुषार्थिनो भूत्वा सर्वथा सर्वद्रष्टारं परमेश्वरं ज्ञात्वा सर्वैश्वर्य्यस्योत्पादने तद्रक्षणे च समवेता भूत्वा सुखकारिणो भवन्तीति॥3॥ पदार्थः—हे (विश्वचर्षणे) सब संसार के देखने तथा (सुशिप्र) श्रेष्ठज्ञानयुक्त परमेश्वर! आप (मन्दिभिः) जो विज्ञान वा आनन्द के करनेवाले (स्तोमेभिः) वेदोक्त स्तुतिरूप गुणप्रकाश करनेहारे स्तोत्र हैं, उनसे स्तुति को प्राप्त होकर (एषु) इन प्रत्यक्ष (सवनेषु) ऐश्वर्य्य देनेवाले पदार्थों में हम लोगों को (सचा) युक्त करके (मत्स्व) अच्छे प्रकार आनन्दित कीजिये॥3॥ भावार्थः—जिसने संसार के प्रकाश करनेवाले सूर्य्य को उत्पन्न किया है, उसकी स्तुति करने में जो श्रेष्ठ पुरुष एकाग्रचित्त हैं, अथवा सबको देखनेवाले परमेश्वर को जानकर सब प्रकार से धार्मिक और पुरुषार्थी होकर सब ऐश्वर्य्य को उत्पन्न और उस की रक्षा करने में मिलकर रहते हैं, वे ही सब सुखों को प्राप्त होने के योग्य वा औरों को भी उत्तम-उत्तम सुखों के देनेवाले हो सकते हैं॥3॥ पुनस्सोऽर्थ उपदिश्यते। फिर भी अगले मन्त्र में ईश्वर का प्रकाश किया है- असृ॑ग्रमिन्द्र ते॒ गिरः॒ प्रति॒ त्वामुद॑हासत। अजो॑षा वृष॒भं पति॑म्॥4॥ असृ॑ग्रम्। इ॒न्द्र॒। ते॒। गिरः॑। प्रति॑। त्वाम्। उत्। अ॒हा॒स॒त॒। अजो॑षाः। वृ॒ष॒भम्। पति॑म्॥4॥ पदार्थः—(असृग्रम्) सृजामि विविधतया वर्णयामि। बहुलं छन्दसि। (अष्टा॰7.1.8) अनेन ‘सृज’ धातोरुडागमः। वर्णव्यत्ययेन जकारस्थाने गकारः, लडर्थे लङ् च। (इन्द्र) सर्वथा स्तोतव्य! (ते) तव (गिरः) वेदवाण्यः (प्रति) इन्द्रियागोचरेऽर्थे। प्रतीत्यैतस्य प्रातिलोम्यं प्राह। (निरु॰1.3) (त्वाम्) वेदवक्तारं परमेश्वरम् (उदहासत) उत्कृष्टतया ज्ञापयन्ति। अत्र ओहाङ् गतावित्यस्माल्लडर्थे लुङ्। (अजोषाः) जुषसे। अत्र छन्दस्युभयथेत्यार्धधातुकसंज्ञाश्रयाल्लघूपधगुणः। छान्दसो वर्णलोपो वेति थासस्थकारस्य लोपेनेदं सिध्यति। (वृषभम्) सर्वाभीष्टवर्षकम् (पतिम्) पालकम्॥4॥ अन्वयः—हे इन्द्र परमेश्वर! यास्ते तव गिरो वृषभं पतिं त्वामुदहासत यास्त्वमजोषाः सर्वा विद्या जुषसे ताभिरहमपि प्रतीत्थंभूतं वृषभं पतिं त्वामसृग्रं सृजामि॥4॥ भावार्थः—येनेश्वरेण स्वप्रकाशितेन वेदेन यादृशानि स्वस्वभावगुणकर्माणि प्रकाशितानि तान्यस्मभिस्तथैव वेद्यानि सन्ति। कुतः, ईश्वरस्यानन्तसत्यस्वभावगुणकर्मवत्त्वादल्पज्ञैरस्माभिर्जीवैः स्वसामर्थ्येन तानि ज्ञातुमशक्यत्वात्। यथा स्वयं स्वस्वभावगुणकर्माणि जानाति तथाऽन्यैर्यथावज्ज्ञातुमज्ञक्यानि भवन्ति। अतः सर्वैर्विद्वद्भिर्वेदवाण्यैवेश्वरादयः पदार्थाः सम्प्रीत्या पुरुषार्थेन च वेदितव्याः सन्ति, तेभ्य उपकारग्रहणं चेति। स एवेश्वर इष्टः पालकश्च मन्तव्य इति॥4॥ पदार्थः—(इन्द्र) हे परमेश्वर! जो (ते) आपकी (गिरः) वेदवाणी हैं, वे (वृषभम्) सब से उत्तम सब की इच्छा पूर्ण करनेवाले (पतिम्) सब के पालन करनेहारे (त्वाम्) वेदों के वक्ता आप को (उदहासत) उत्तमता के साथ जनाती हैं, और जिन वेदवाणियों को आप (अजोषाः) सेवन करते हो, उन्ही से मैं भी (प्रति) उक्त गुणयुक्त आपको (असृग्रम्) अनेक प्रकार से वर्णन करता हूँ॥4॥ भावार्थः—जिस ईश्वर ने प्रकाश किये हुए वेदों से जैसे अपने-अपने स्वभाव गुण और कर्म प्रकट किये हैं, वैसे ही वे सब लोगों को जानने योग्य हैं, क्योंकि ईश्वर के सत्य स्वभाव के साथ अनन्तगुण और कर्म हैं, उनको हम अल्पज्ञ लोग अपने सामर्थ्य से जानने को समर्थ नहीं हो सकते। तथा जैसे हम लोग अपने-अपने स्वभाव गुण और कर्मों को जानते हैं, वैसे औरों को उनका यथावत् जानना कठिन होता है, इसी प्रकार सब विद्वान् मनुष्यों को वेदवाणी के विना ईश्वर आदि पदार्थों को यथावत् जानना कठिन है। इसलिये प्रयत्न से वेदों को जान के उन के द्वारा सब पदार्थों से उपकार लेना तथा उसी ईश्वर को अपना इष्टदेव और पालन करनेहारा मानना चाहिये॥4॥ तस्योपासनेन किं लभ्यते, इत्युपदिश्यते। ईश्वर की उपासना से क्या लाभ होता है, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है- सं चो॑दय चि॒त्रम॒र्वाग्राध॑ इन्द्र॒ वरेण्यम्। अस॒दित्ते॑ वि॒भु प्र॒भु॥5॥17॥ सम्। चो॒द॒य॒। चि॒त्रम्। अ॒र्वाक्। राधः॑। इ॒न्द्र॒। वरे॑ण्यम्। अस॑त्। इत्। ते॒। वि॒ऽभु। प्र॒ऽभु॥5॥ पदार्थः—(सम्) सम्यगर्थे। समित्येकीभावं प्राह। (निरु॰1.3) (चोदय) प्रेरय प्रापय (चित्रम्) चक्रवर्त्तिराज्यश्रिया विद्यामणिसुवर्णहस्त्यश्वादियोगेनाद्भुतम् (अर्वाक्) प्राप्त्यनन्तरमाभिमुख्येनानन्दकारकम् (राधः) राध्नुवन्ति सुखानि येन तद्धनम्। राध इति धननामसु पठितम्। (निघं॰2.10) (इन्द्र) दयामयसर्वसुखसाधनप्रदेश्वर! (वरेण्यम्) वर्त्तुमर्हमतिश्रेष्ठम्। वृञ एण्यः। (उणा॰3.96) अनेन ‘वृञ् वरणे’ इत्यस्मादेण्यप्रत्ययः। (असत्) भवेत्। अस धातोर्लेट्प्रयोगः। (इत्) एव (ते) तव (विभु) बहुसुखव्यापकम् (प्रभु) उत्तमप्रभावकारकम्॥5॥ अन्वयः—हे इन्द्र! ते तव सृष्टौ यद्यद्वरेण्यं विभु प्रभु चित्रं राधोऽसत् तत्तत्कृपयाऽर्वागस्मदाभिमुख्याय सञ्चोदय॥5॥ भावार्थः—मनुष्यैरीश्वरानुग्रहेण स्वपुरुषार्थेन च सर्वस्यात्मशरीरसुखाय विद्यैश्वर्य्ययोः प्राप्तिरक्षणोन्नतिसन्मार्गदानानि सदैव संसेव्यानि, यतो दारिद्र्यालस्यप्रभावदुःखाभावेन दिव्या भोगाः सततं वर्धेरन्निति॥5॥ सप्तदशो वर्गः समाप्तः॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) करुणामय सब सुखों के देनेवाले परमेश्वर! (ते) आपकी सृष्टि में जो-जो (वरेण्यम्) अतिश्रेष्ठ (विभु) उत्तम-उत्तम पदार्थों से पूर्ण (प्रभु) बड़े-बड़े प्रभावों का हेतु (चित्रम्) जिससे श्रेष्ठ विद्या चक्रवर्त्ति राज्य से सिद्ध होनेवाला मणि सुवर्ण और हाथी आदि अच्छे-अच्छे अद्भुत पदार्थ होते हैं, ऐसा (राधः) धन (असत्) हो, सो-सो कृपा करके हम लोगों के लिये (सञ्चोदय) प्रेरणा करके प्राप्त कीजिये॥5॥ भावार्थः—मनुष्यों को ईश्वर के अनुग्रह और अपने पुरुषार्थ से आत्मा और शरीर के सुख के लिये विद्या और ऐश्वर्य्य की प्राप्ति वा उनकी रक्षा और उन्नति तथा सत्यमार्ग वा उत्तम दानादि धर्म अच्छी प्रकार से सदैव सेवन करना चाहिये, जिससे दारिद्र्य और आलस्य से उत्पन्न होनेवाले दुःखों का नाश होकर अच्छे-अच्छे भोग करने योग्य पदार्थों की वृद्धि होती रहे॥5॥ यह सत्रहवां वर्ग समाप्त हुआ॥ कथंभूतानस्मान्कुर्वित्युपदिश्यते। अन्तर्यामी ईश्वर हम लोगों को कैसे-कैसे कामों में प्रेरणा करे, इस विषय का अगले मन्त्र में प्रकाश किया है- अ॒स्मान्त्सु तत्र॑ चोद॒येन्द्र॑ रा॒ये रभ॑स्वतः। तुवि॑द्युम्न यश॑स्वतः॥6॥ अ॒स्मान्। सु। तत्र॑। चोद॒य॒। इन्द्र॑। रा॒ये। रभ॑स्वतः। तुवि॑ऽद्युम्न। यश॑स्वतः॥6॥ पदार्थः—(अस्मान्) विदुषो धार्मिकान् मनुष्यान् (सु) शोभनार्थे क्रियायोगे च (तत्र) पूर्वोक्ते पुरुषार्थे (चोदय) प्रेरय (इन्द्र) अन्तर्यामिन्नीश्वर! (राये) धनाय (रभस्वतः) कार्य्यारम्भं कुर्वत आलस्यरहितान् पुरुषार्थिनः (तुविद्युम्न) बहुविधं द्युम्नं विद्याद्यनन्तं धनं यस्य तत्सम्बुद्धौ। द्युम्नमिति धननामसु पठितम्। (निघं॰2.10) तुवीति बहुनामसु च। (निघं॰3.1) (यशस्वतः) यशोविद्याधर्मसर्वोपकाराख्या प्रशंसा विद्यते येषां तान्। अत्र प्रशंसार्थे मतुप्॥6॥ अन्वयः—हे तुविद्युम्नेन्द्र परात्मँस्त्वं रभस्वतो यशस्वतोऽस्मान् तत्र पुरुषार्थे राये उत्कृष्टधनप्राप्त्यर्थे सुचोदय॥6॥ भावार्थः—अस्यां सृष्टौ परमेश्वराज्ञायां च वर्तमानैः पुरुषार्थिभिर्यशस्विभिः सर्वैर्मनुष्यैर्विद्याराज्यश्रीप्राप्त्यर्थे सदैव प्रयत्नः कर्त्तव्य नैतादृशैर्विनैताः श्रियो लब्धुं शक्याः। कुतः, ईश्वरेण पुरुषार्थिभ्य एव सर्वसुखप्राप्तेर्निर्मित्तत्वात्॥6॥ पदार्थः—हे (तुविद्युम्न) अत्यन्त विद्यादिधनयुक्त (इन्द्र) अन्तर्यामी ईश्वर! (रभस्वतः) जो आलस्य को छोड़ के कार्य्यों के आरम्भ करने (यशस्वतः) सत्कीर्तिसहित (अस्मान्) हम लोग पुरुषार्थी विद्या धर्म और सर्वोपकार से नित्य प्रयत्न करनेवाले मनुष्यों को (तत्र) श्रेष्ठ पुरुषार्थ में (राये) उत्तम-उत्तम धन की प्राप्ति के लिये (सुचोदय) अच्छी प्रकार युक्त कीजिये॥6॥ भावार्थः—सब मनुष्यों को उचित है कि इस सृष्टि में परमेश्वर की आज्ञा के अनुकूल वर्तमान तथा पुरुषार्थी और यशस्वी होकर विद्या तथा राज्यलक्ष्मी की प्राप्ति के लिये सदैव उपाय करें। इसी से उक्त गुणवाले पुरुषों ही को लक्ष्मी से सब प्रकार का सुख मिलता है, क्योंकि ईश्वर ने पुरुषार्थी सज्जनों ही के लिये सुख रचे हैं॥6॥ पुनः कीदृशं तद्धनमित्युपदिश्यते। फिर भी उक्त धन कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में प्रकाश किया है- सं गोम॑दिन्द्र॒ वाज॑वद॒स्मे पृ॒थु श्रवो॑ बृ॒हत्। वि॒श्वायु॑र्धे॒ह्यक्षि॑तम्॥7॥ सम्। गोऽम॑त्। इ॒न्द्र॒। वाज॑ऽवत्। अ॒स्मेऽइति॑। पृ॒थु। श्रवः॑। बृ॒हत्। वि॒श्वऽआ॑युः। धे॒हि॒। अक्षि॑तम्॥7॥ पदार्थः—(सम्) सम्यगर्थे क्रियायोगे। समित्येकीभावं प्राह। (निरु॰1.3) (गोमत्) गौः प्रशस्ता वाक् गावः स्तोतारश्च विद्यन्ते यस्मिंस्तत्। अत्र प्रशंसार्थे मतुप्। (इन्द्र) अनन्तविद्येश्वर! (वाजवत्) वाजो बहुविधं भोक्तव्यमन्नमस्त्यस्मिन् तत्। वाज इत्यन्नामसु पठितम्। (निघं॰2.7) अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्। (अस्मे) अस्यभ्यम्। अत्र सुपां सुलुगिति शेआदेशः। (पृथु) नानाविद्यासु विस्तीर्णम्। (श्रवः) शृण्वन्त्येका विद्याः सुवर्णादि च धनं यस्मिंस्तत्। श्रव इति धननामसु पठितम्। (निघं॰2.10) (बृहत्) अनेकैः शुभगुणैर्भोगैश्च महत् (विश्वायुः) विश्वं शतवार्षिकमधिकं वा आयुर्यस्मात्तत् (धेहि) संयोजय (अक्षितम्) यन्न कदाचित् क्षीयते सदैव वर्धमानं तत्॥7॥ अन्वयः—हे इन्द्र जगदीश्वर! त्वमस्मे अस्मभ्यं गोमत् वाजवत् पृथु बृहत् विश्वायुरक्षितं श्रवः संधेहि॥7॥ भावार्थः—मनुष्यैर्ब्रह्मचर्य्येण विषयलोलुपतात्यागेन भोजनाच्छादनादिसुनियमैश्च विद्याचक्रवर्त्तिश्रीयोगेन समग्रस्यायुषो भोगार्थं संधेयम्। यत ऐहिकं पारमार्थिकं च दृढं विशालं सुखं सदैव वर्धेत। न ह्येतत् केवलमीश्वरस्य प्रार्थनयैव भवितुमर्हति, किन्तु विविधपुरुषार्थापेक्षं वर्त्तत एतत्॥7॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) अनन्त विद्यायुक्त सब को धारण करनेहारे ईश्वर! आप (अस्मे) हमारे लिये (गोमत्) जो धन श्रेष्ठ वाणी और अच्छे-अच्छे उत्तम पुरुषों को प्राप्त कराने (वाजवत्) नाना प्रकार के अन्न आदि पदार्थों को प्राप्त कराने वा (विश्वायुः) पूर्ण सौ वर्ष वा अधिक आयु को बढ़ाने (पृथु) अति विस्तृत (बृहत्) अनेक शुभगुणों से प्रसिद्ध अत्यन्त बड़ा (अक्षितम्) प्रतिदिन बढ़नेवाला (श्रवः) जिसमें अनेक प्रकार की विद्या वा सुवर्ण आदि धन सुनने में आता है, उस धन को (संधेहि) अच्छे प्रकार नित्य के लिये दीजिये॥7॥ भावार्थः—मनुष्यों को चाहिये कि ब्रह्मचर्य्य का धारण, विषयों की लंपटता का त्याग, भोजन आदि व्यवहारों के श्रेष्ठ नियमों से विद्या और चक्रवर्त्ति राज्य की लक्ष्मी को सिद्ध करके सम्पूर्ण आयु भोगने के लिये पूर्वोक्त धन के जोड़ने की इच्छा अपने पुरुषार्थ द्वारा करें कि जिससे इस संसार का वा परमार्थ का दृढ़ और विशाल अर्थात् अतिश्रेष्ठ सुख सदैव बना रहे, परन्तु यह उक्त सुख केवल ईश्वर की प्रार्थना से ही नहीं मिल सकता, किन्तु उसकी प्राप्ति के लिये पूर्ण पुरुषार्थ भी करना अवश्य उचित है॥7॥ पुनः कीदृशं तदित्युपदिश्यते। फिर भी पूर्वोक्त धन कैसा होना चाहिये, इस विषय का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है- अ॒स्मे धे॑हि॒ श्रवो॑ बृ॒हद् द्युम्नं स॑हस्र॒सात॑मम्। इन्द्र॒ ता र॒थिनी॒रिषः॑॥8॥ अ॒स्मे इति॑। धे॒हि॒। श्रवः॑। बृ॒हत्। द्यु॒म्नम्। स॒ह॒स्र॒ऽसात॑मम्। इन्द्र॑। ताः। र॒थिनीः॑। इषः॑॥8॥ पदार्थः—(अस्मे) अस्मभ्यम्। अत्र सुपां सुलुगिति शेआदेशः। (धेहि) प्रयच्छ (श्रवः) पूर्वोक्तम् (बृहत्) उपबृंहितम् (द्युम्नम्) प्रकाशमयं ज्ञानम् (सहस्रसातमम्) सहस्रमसंख्यातं सुखं सनुते ददाति येन तदतिशयितम्। जनसनखनक्रमगमो विट्। (अष्टा॰3.2.67) अनेन सहस्रोपपदात्सनोतेर्विट्। विड्वनोरनुनासिकस्यात्। (अष्टा॰6.4.41) अनेन नकारस्याकारादेशः, ततस्तमप्। (इन्द्र) महाबलयुक्तेश्वर! (ताः) पूर्वोक्ताः (रथिनीः) बहवो रमणसाधका रथा विद्यन्ते यासु ताः। अत्र भूम्न्यर्थ इनिः, सुपां सुलुगिति पूर्वसवर्णादेशश्च। (इषः) इष्यन्ते यास्ताः सेनाः। अत्र कृतो बहुलमिति वार्तिकेन कर्मणि क्विप्॥8॥ अन्वयः—हे इन्द्र! त्वमस्मे सहस्रसातमं बृहद् द्युम्नं श्रवो रथिनीरिषश्च धेहि॥8॥ भावार्थः—हे जगदीश्वर! भवत्कृपयात्यन्तपुरुषार्थेन च येन धनेन बहुसुखसाधिकाः पृतनाः प्राप्यन्ते तदस्मासु नित्यं स्थापय॥8॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) अत्यन्तबलयुक्त ईश्वर! आप (अस्मे) हमारे लिये (सहस्रसातमम्) असंख्यात सुखों का मूल (बृहत्) नित्य वृद्धि को प्राप्त होने योग्य (द्युम्नम्) प्रकाशमय ज्ञान तथा (श्रवः) पूर्वोक्त धन और (रथिनीरिषः) अनेक रथ आदि साधनसहित सेनाओं को (धेहि) अच्छे प्रकार दीजिये॥8॥ भावार्थः—हे जगदीश्वर! आप कृपा करके जो अत्यन्त पुरुषार्थ के साथ जिस धन कर के बहुत से सुखों को सिद्ध करनेवाली सेना प्राप्त होती है, उसको हम लोगों में नित्य स्थापन कीजिये॥8॥ अथायमिन्द्रः कीदृश इन्द्र इत्युपदिश्यते। फिर भी यह इन्द्र कैसा है, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है- वसो॒रिन्द्रं॒ वसु॑पतिं गी॒र्भिर्गृ॒णन्त॑ ऋ॒ग्मिय॑म्। होम॒ गन्ता॑रमू॒तये॑॥9॥ वसोः॑। इन्द्र॑म्। वसु॑ऽपतिम्। गीः॒ऽभिः। गृ॒णन्तः॑। ऋ॒ग्मिय॑म्। होम॑। गन्ता॑रम्। ऊ॒तये॑॥9॥ पदार्थः—(वसोः) सुखवासहेतोर्विद्यादिधनस्य (इन्द्रम्) धारकम् (वसुपतिम्) वसूनामग्निपृथिव्यादीनां पतिं पालकं स्वामिनम्। कतमे वसव इति। अग्निश्च पृथिवी च वायुश्चान्तरिक्षं चादित्यश्च द्यौश्च चन्द्रमाश्च नक्षत्राणि चैते वसव एतेषु हीदꣳसर्वं वसु हितमेते हीदꣳसर्वं वासयन्ते तद्यदिदꣳसर्वं वासयन्ते तस्माद्वसव इति। (श॰ब्रा॰14.5.7.4) (गीर्भिः) वेदविद्यया संस्कृताभिर्वाग्भिः। गीरिति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं॰1.11) (गृणन्तः) स्तुवन्तः। (ऋग्मियम्) ऋचां वेदमन्त्राणां निर्मातारम्। ऋगुपपदान्मीञ्धातोः क्विप्। अमीयङादेशश्चेति। (होम) आह्वयामः। ह्वेञ् इत्यस्माल्लडुत्तमबहुवचने बहुलं छन्दसीति शपो लुक्। छन्दस्युभयथा इत्युभयंसंज्ञात्वे गुणसम्प्रसारणे भवतः। छान्दसो वर्णलोपो वेति सकारलोपश्च। (गन्तारम्) ज्ञातारं सर्वत्र व्याप्त्या प्रापकम् (ऊतये) रक्षणाय स्वामित्वप्राप्तये क्रियोपयोगाय वा॥9॥ अन्वयः—गीर्भिर्गृणन्तो वयं वसुपतिमृग्मियं गन्तारमिन्द्रं वसोरूतये होम॥9॥ भावार्थः—सर्वैर्मनुष्यैः सर्वजगत्स्वामिनो वेदप्रकाशकस्य सर्वत्र व्यापकस्येन्द्रस्य परमेश्वरस्यैवेश्वरत्वेन स्तुतिः कार्य्या। तथेश्वरस्य न्यायकरणत्वादिगुणानां स्पर्धा पुरुषार्थेन सर्वथोत्कृष्टान् विद्याराज्यश्रियादिपदार्थान् प्राप्य रक्षोन्नती च सदैव कार्य्ये इति॥9॥ पदार्थः—(गीर्भिः) वेदवाणी से (गृणन्तः) स्तुति करते हुए हम लोग (वसुपतिम्) अग्नि, पृथिवी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्यलोक, द्यौ अर्थात् प्रकाशमान लोक, चन्द्रलोक और नक्षत्र अर्थात् जितने तारे दीखते हैं, इन सब का नाम वसु है, क्योंकि ये ही निवास के स्थान हैं, इनका पति स्वामी और रक्षक (ऋग्मियम्) वेद मन्त्रों के प्रकाश करनेहारे (गन्तारम्) सब का अन्तर्यामी अर्थात् अपनी व्याप्ति से सब जगह प्राप्त होने तथा (इन्द्रम्) सब के धारण करनेवाले परमेश्वर को (वसोः) संसार में सुख के साथ वास कराने का हेतु जो विद्या आदि धन है, उसकी (ऊतये) प्राप्ति और रक्षा के लिये (होम) प्रार्थना करते हैं॥9॥ भावार्थः—सब मनुष्यों को उचित है कि जो ईश्वरपन का निमित्त, संसार का स्वामी, सर्वत्र व्यापक इन्द्र परमेश्वर है, उसकी प्रार्थना और ईश्वर के न्याय आदि गुणों की प्रशंसा पुरुषार्थ के साथ सब प्रकार से अतिश्रेष्ठ विद्या राज्यलक्ष्मी आदि पदार्थों को प्राप्त होकर उनकी उन्नति और रक्षा सदा करें॥9॥ पुनः कस्मै प्रयोजनायेत्युपदिश्यते। किस प्रयोजन के लिये परमेश्वर की प्रार्थना करनी चाहिये, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है- सु॒तेसु॑ते॒ न्यो॑कसे बृ॒हद् बृ॑ह॒त एद॒रिः। इन्द्रा॑य शू॒षम॑र्चति॥10॥18॥ सु॒तेऽसु॑ते। निऽओ॑कसे। बृ॒हत्। बृ॒ह॒ते। आ। इत्। अ॒रिः। इन्द्रा॑य। शू॒षम्। अ॒र्च॒ति॒॥10॥ पदार्थः—(सुतेसुते) उत्पन्न उत्पन्ने (न्योकसे) निश्चितानि ओकांसि स्थानानि येन तस्मै। ओक इति निवासनामोच्यते। (निरु॰3.3) (बृहत्) सर्वथा वृद्धम् (बृहते) सर्वोत्कृष्टगुणैर्महते व्यापकाय (आ) समन्तात् (इत्) अपि (अरिः) ऋच्छति गृह्णात्यन्यायेन सुखानि च यः। अच इः। (उणा॰4.139) इत्येनन ऋधातोरौणादिक इः प्रत्ययः। (इन्द्राय) परमेश्वराय (शूषम्) बलं सुखं च। शूषमिति बलनामसु पठितम्। (निघं॰2.9) सुखनामसु च। (निघं॰3.6) (अर्चति) समर्पयति॥10॥ अन्वयः—योऽरिरिदपि मनुष्यः सुतेसुते बृहते न्योकस इन्द्राय स्वकीयं बृहत् शूषमार्चति समर्प्पयति भाग्यशाली भवति॥10॥ भावार्थः—यदिमं प्रतिवस्तुव्यापकं मङ्गलमयमनुपमं परमेश्वरं प्रति कश्चित्कस्यचिच्छुत्रुरपि मनुष्यः स्वाभिमानं त्यक्त्वा नम्रो भवति, तर्हि ये तदाज्ञाख्यं धर्मं तदुपासनानुष्ठं चाचरन्ति त एव महागुणैर्महान्तो भूत्वा सर्वैः पूज्या नम्राः कथं न भवेयुः? य ईश्वरोपासका धार्मिका पुरुषार्थिनः सर्वोपकारका विद्वांसो मनुष्या भवन्ति, त एव विद्यासुखं चक्रवर्त्तिराज्यानन्दं प्राप्नुवन्ति, नातो विपरीता इति॥10॥ अत्रेन्द्रशब्दार्थवर्णनेनोत्कृष्टधनादिप्राप्त्यर्थमीश्वरप्रार्थनापुरुषार्थकरणाज्ञाप्रतिपादनं चास्त्यत एतस्य नवमसूक्तार्थस्याष्टमसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। इदमपि सूक्तं सायणाचार्य्यादिभिरार्य्यावर्त्तवासिभिर्यूरोपवासिभिरध्यापकविलसनाख्यादिभिश्च मिथ्यैव व्याख्यातम्॥ इति नवमं सूक्तमष्टादशश्च वर्गः समाप्तः॥ पदार्थः—जो (अरिः) सब श्रेष्ठ गुण और उत्तम सुखों को प्राप्त होनेवाला विद्वान् मनुष्य (सुतेसुते) उत्पन्न-उत्पन्न हुए सब पदार्थों में (बृहते) सम्पूर्ण श्रेष्ठ गुणों में महान् सब में व्याप्त (न्योकसे) निश्चित जिसके निवासस्थान हैं, (इत्) उसी (इन्द्राय) परमेश्वर के लिये अपने (बृहत्) सब प्रकार से बढ़े हुए (शूषम्) बल और सुख को (आ) अच्छी प्रकार (अर्चति) समर्पण करता है, वही बलवान् होता है॥10॥ भावार्थः—जब शत्रु भी मनुष्य सब में व्यापक मङ्गलमय उपमारहित परमेश्वर के प्रति नम्र होता है, तो जो ईश्वर की आज्ञा और उसकी उपासना में वर्त्तमान मनुष्य हैं, वे ईश्वर के लिये नम्र क्यों न हों? जो ऐसे हैं वे ही बड़े-बड़े गुणों से महात्मा होकर सब से सत्कार किये जाने के योग्य होते, और वे ही विद्या और चक्रवर्त्ति राज्य के आनन्द को प्राप्त होते हैं। जो कि उनसे विपरीत हैं, वे उस आनन्द को कभी नहीं प्राप्त हो सकते॥10॥ इस सूक्त में इन्द्र शब्द के अर्थ के वर्णन, उत्तम-उत्तम धन आदि की प्राप्ति के अर्थ ईश्वर की प्रार्थना और अपने पुरुषार्थ करने की आज्ञा के प्रतिपादन करने से इस नवमे सूक्त के अर्थ की सङ्गति आठवें सूक्त के अर्थ के साथ मिलती है, ऐसा समझना चाहिये। इस सूक्त का भी अर्थ सायणाचार्य्य आदि आर्य्यावर्त्तवासियों तथा विलसन आदि अङ्गरेज लोगों ने सर्वथा मूल से विरुद्ध वर्णन किया है॥ यह नवमा सूक्त और अठारहवां वर्ग पूरा हुआ॥

अथ द्वादशर्चस्य दशमस्य सूक्तस्य मधुच्छन्दा ऋषिः। इन्द्रो देवता। 1-3, 5-6 विराडनुष्टुप्; 4 भुरिगुष्णिक्; 7, 9-12 अनुष्टुप्; 8 निचृदनुष्टुप् छन्दः। 1-3, 5-12 गान्धारः; 4 ऋषभः स्वरः॥ तत्र के कथं तमिन्द्रं पूजयन्तीत्युपदिश्यते। अब दशम सूक्त का आरम्भ किया जाता है। इस सूक्त के प्रथम मन्त्र में इस बात का प्रकाश किया है कि कौन-कौन पुरुष किस-किस प्रकार से इन्द्रसंज्ञक परमेश्वर का पूजन करते हैं- गाय॑न्ति त्वा गाय॒त्रिणोऽर्च॑न्त्य॒र्कम॒र्किणः॑। ब्र॒ह्माण॑स्त्वा शतक्रत॒ उद्वं॒शमि॑व येमिरे॥1॥ गाय॑न्ति। त्वा॒। गा॒य॒त्रिणः॑। अर्च॑न्ति। अ॒र्कम्। अ॒र्किणः॑। ब्र॒ह्माणः॑। त्वा॒। श॒त॒क्र॒तोइति॑ शतक्रतो। उत्। वंशंऽइ॑व। ये॒मि॒रे॒॥1॥ पदार्थः—(गायन्ति) सामवेदादिगानेन प्रशंसन्ति (त्वा) त्वां गेयं जगदीश्वरमिन्द्रम् (गायत्रिणः) गायत्राणि प्रशस्तानि छन्दांस्यधीतानि विद्यन्ते येषां ते धार्मिका ईश्वरोपासकाः। अत्र प्रशंसायामिनिः। (अर्चन्ति) नित्यं पूजयन्ति (अर्कम्) अर्च्यते पूज्यते सर्वैर्जनैर्यस्तम् (अर्किणः) अर्का मन्त्रा ज्ञानसाधना येषां ते (ब्रह्माणः) वेदान् विदित्वा क्रियावन्तः (त्वा) जगत्स्रष्टारम् (शतक्रतो) शतं बहूनि कर्माणि प्रज्ञानानि वा यस्य तत्सम्बुद्धौ (तत्) उत्कृष्टार्थे। उदित्येतयोः प्रातिलोम्यं प्राह। (निरु॰1.3) (वंशमिव) यथोत्कृष्टैर्गुणैः शिक्षणैश्च स्वकीयं वंशमुद्यमवन्तं कुर्वन्ति तथा (येमिरे) उद्युञ्जन्ति॥1॥ निरुक्तकार इमं मन्त्रमेवं व्याख्यातवान्-गायन्ति त्वा गायत्रिणः प्रार्चन्ति तेऽर्कमर्किणो ब्रह्माणस्त्वा शतक्रत उद्येमिरे वंशमिव। (निरु॰5.5) अन्यच्च। अर्को देवो भवति यदेनमर्चन्त्यर्को मन्त्रो भवति यदनेनार्चत्यर्कमन्नं भवत्यर्चति भूतान्यर्को वृक्षो सवृत्तः कटुकिम्ना। (निरु॰5.4)॥1॥ अन्वयः—हे शतक्रतोः ब्रह्माणः स्वकीयं वंशमुद्येमिरे इव गायत्रिणस्त्वां गायन्ति, अर्किणोऽर्कं त्वामर्चन्ति॥1॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा सर्वैर्मनुष्यैः परमेश्वरस्यैव पूजा कार्य्या, अर्थात्तदाज्ञायां सदा वर्त्तितव्यम्, वेदविद्यामप्यधीत्य सम्यग्विदित्वोपदेशेनोत्कृष्टैर्गुणैः सह मनुष्यवंश उद्यमवान् क्रियते, तथैव स्वैरपि भवितव्यम्। नेदं फलं परमेश्वरं विहायान्यपूजकः प्राप्तुमर्हति। कुतः, ईश्वरस्याज्ञाभावेन तत्सदृशस्यान्यवस्तुनो ह्यविद्यामानत्वात्, तस्मात् तस्यैव गानमर्चनं च कर्त्तव्यमिति॥1॥ पदार्थः—हे (शतक्रतो) असंख्यात कर्म और उत्तम ज्ञानयुक्त परमेश्वर! (ब्रह्माणः) जैसे वेदों को पढ़कर उत्तम-उत्तम क्रिया करनेवाले मनुष्य श्रेष्ठ उपदेश, गुण और अच्छी-अच्छी शिक्षाओं से (वंशम्) अपने वंश को (उद्येमिरे) प्रशस्त गुणयुक्त करके उद्यमवान् करते हैं, वैसे ही (गायत्रिणः) जिन्हों के गायत्र अर्थात् प्रशंसा करने योग्य छन्दराग आदि पढ़े हुए धार्मिक और ईश्वर की उपासना करनेवाले हैं, वे पुरुष (त्वा) आपकी (गायन्ति) सामवेदादि के गानों से प्रशंसा करते हैं, तथा (अर्किणः) अर्क अर्थात् जो कि वेद के मन्त्र पढ़ने के नित्य अभ्यासी हैं, वे (अर्कम्) सब मनुष्यों को पूजने योग्य (त्वा) आपका (अर्चन्ति) नित्य पूजन करते हैं॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सब मनुष्यों को परमेश्वर ही की पूजा करनी चाहिये अर्थात् उसकी आज्ञा के अनुकूल वेदविद्या को पढ़कर अच्छे-अच्छे गुणों के साथ अपने और अन्यों के वंश को भी पुरुषार्थी करते हैं, वैसे ही अपने आप को भी होना चाहिये। और जो परमेश्वर के सिवाय दूसरे का पूजन करनेवाला पुरुष है, वह कभी उत्तम फल को प्राप्त होने योग्य नहीं हो सकता, क्योंकि न तो ईश्वर की ऐसी आज्ञा ही है, और न ईश्वर के समान कोई दूसरा पदार्थ है कि जिसका उसके स्थान में पूजन किया जावे। इससे सब मनुष्यों को उचित है कि परमेश्वर ही का गान और पूजन करें॥1॥ पुनः स कथं वेदितव्य इत्युपदिश्यते। फिर भी ईश्वर को कैसे जाने, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है- यत्सानोः॒ सानु॒मारु॑ह॒द् भू॒र्यस्प॑ष्ट॒ कर्त्व॑म्। तदिन्द्रो॒ अर्थं॑ चेतति यू॒थेन॑ वृ॒ष्णिरे॑जति॥2॥ यत्। सानोः॑। सानु॑म्। आ। अरु॑हत्। भूरि॑। अस्प॑ष्ट। कर्त्व॑म्। तत्। इन्द्रः॑। अर्थ॑म्। चे॒त॒ति॒। यू॒थेन॑। वृ॒ष्णिः। ए॒ज॒ति॒॥2॥ पदार्थः—(यत्) यस्मात् (सानोः) पर्वतस्य शिखरात् संविभागात्कर्मणः सिद्धेर्वा। दृसनिजनि॰ (उणा॰1.3) अनेन सनेर्ञुण्प्रत्ययः। अथवा ‘षोऽन्तकर्मणि’ इत्यस्माद् बाहुलकान्नुः। (सानुम्) यथोक्तं त्रिविधमर्थम् (आ) धात्वर्थे (अरुहत्) रोहति। अत्र लडर्थे लङ। विकरणव्यत्ययेन शपः स्थाने शः। (भूरि) बहु। भूरीति बहुनामसु पठितम्। (निघं॰3.1) अदिसदिभू॰ (उणा॰4.66) अनेन भूधातोः क्तिन् प्रत्ययः। (अस्पष्ट) स्पशते। अत्र लडर्थे लङ् बहुलं छन्दसीति शपो लुक्। (कर्त्त्वम्) कर्त्तुं योग्यं कार्य्यम्। अत्र करोतेस्त्वन् प्रत्ययः। (तत्) तस्मात् (इन्द्रः) सर्वज्ञ ईश्वरः (अर्थम्) अर्तुं ज्ञातुं प्राप्तुं गुणं द्रव्यं वा। उषिकुषिगार्त्तिभ्यः स्थन्। (उणा॰2.4) अनेनार्त्तेः स्थन् प्रत्ययः। (चेतति) संज्ञापयति प्रकाशयति वा। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (यूथेन) सुखप्रापकपदार्थसमूहेनाथवा वायुगणेन सह। तिथपृष्ठगूथयूथप्रोथाः। (उणा॰2.12) अनेन यूथशब्दो निपातितः। (वृष्णिः) वर्षति सुखानि वर्षयति वा। सृवृषिभ्यां कित्। (उणा॰4.51) अनेन वृषधातोर्निः प्रत्ययः स च कित्। (एजति) कम्पते॥2॥ अन्वयः—यूथेन वायुगणेन सह वृष्णिः सूर्य्यकिरणसमूहः सानोः सानुं भूर्यारुहत् स्पशते राजति चलति चालयति वा, यो मनुष्यो यत्सानोः सानुं कर्मणः कर्मत्वं भूर्यारुहत्, अस्पष्टैजति तस्मै इन्द्रः परमात्मा तत्तस्मात् सानोः सानुमर्थं भूरि चेतति ज्ञापयति॥2॥ भावार्थः—इवशब्दानुवृत्त्याऽत्राप्युपमालङ्कारः। यथा सूर्य्यः सन्मुखस्थान् वायुना सह पुनः पुनः क्रमेणात्यन्तमाक्रम्याकर्ष्य प्रकाश्य भ्रामयति, तथैव यो मनुष्यो विद्यया कर्त्तव्यानि बहूनि कर्माणि निरन्तरं सम्पादयितुं प्रवर्त्तते, स एव साधनसमूहेन सर्वाणि कार्य्याणि साधितुं शक्नोति। अस्यामीश्वरसृष्टावेवंभूतो मनुष्यः सुखानि प्राप्नोति। ईश्वरोऽपि तमेवानुगृह्णति॥2॥ पदार्थः—जैसे (यूथेन) वायुगण अथवा सुख के साधन हेतु पदार्थों के साथ (वृष्णिः) वर्षा करनेवाला सूर्य्य अपने प्रकाश करके (सानोः) पर्वत के एक शिखर से (सानुम्) दूसरे शिखर को (भूरि) बहुधा (आरुहत्) प्राप्त होता (अस्पष्ट) स्पर्श करता हुआ (एजति) क्रम से अपनी कक्षा में घूमता और घुमाता है, वैसे ही जो मनुष्य क्रम से एक कर्म को सिद्ध करके दूसरे को (कर्त्त्वम्) करने को (भूरि) बहुधा (आरुहत्) आरम्भ तथा (अस्पष्ट) स्पर्श करता हुआ (एजति) प्राप्त होता है, उस पुरुष के लिये (इन्द्रः) सर्वज्ञ ईश्वर उन कर्मों के करने को (सानोः) अनुक्रम से (अर्थम्) प्रयोजन के विभाग के साथ (भूरि) अच्छी प्रकार (चेतति) प्रकाश करता है॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में भी ‘इव’ शब्द की अनुवृत्ति से उपमालङ्कार समझना चाहिये। जैसे सूर्य्य अपने सम्मुख के पदार्थों को वायु के साथ वारंवार क्रम से अच्छी प्रकार आक्रमण, आकर्षण और प्रकाश करके सब पृथिवी लोकों को घुमाता है, वैसे ही जो मनुष्य विद्या से करने योग्य अनेक कर्मों को सिद्ध करने के लिये प्रवृत्त होता है, वही अनेक क्रियाओं से सब कार्य्यों के करने को समर्थ हो सकता तथा ईश्वर की सृष्टि में अनेक सुखों को प्राप्त होता, और उसी मनुष्य को ईश्वर भी अपनी कृपादृष्टि से देखता है, आलसी को नहीं॥2॥ अथेन्द्रशब्देनेश्वरसूर्य्यावपुदिश्यते। अगले मन्त्र में इन्द्र शब्द से ईश्वर और सूर्य्यलोक का प्रकाश किया है- यु॒क्ष्वा हि के॒शिना॒ हरी॒ वृष॑णा कक्ष्य॒प्रा। अथा॑ न इन्द्र सोमपा गि॒रामुप॑श्रुतिं चर॥3॥ यु॒क्ष्व। हि। के॒शिना॑। हरी॒ इति॑। वृष॑णा। क॒क्ष्य॒ऽप्रा। अथ॑। नः॒। इ॒न्द्र॒। सो॒म॒पाः॒। गि॒राम्। उप॑श्रुतिम्। च॒र॒॥3॥ पदार्थः—(युक्ष्व) युङ्क्ष्व योजय। छान्दसो वर्णलोपो वेति नलोपः, द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घश्च। (हि) हेत्वपदेशे (केशिना) प्रकाशयुक्ते आकर्षणबले। अत्र सर्वत्र सुपां सुलुगिति द्विवचनस्याकारादेशः। (हरी) व्याप्तिहरणशीलावश्वौ (वृषणा) वृष्टिहेतू (कक्ष्यप्रा) कक्षासु भवाः कक्ष्याः सर्वपदार्थावयवास्ताम् प्रातः प्रपूरयतस्तौ (अथ) आनन्तर्ये। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (नः) अस्मानस्माकं वा (इन्द्र) सर्वश्रोतोव्यापिन्नीश्वर प्रकाशमानः सूर्य्यलोको वा (सोमपाः) सोमानुत्तमान् पदार्थान् पाति रक्षति तत्सम्बुद्धौ, पदार्थानां रक्षणहेतुः सूर्य्यो वा (गिराम्) प्रवर्त्तमानानां वाचम् (उपश्रुतिम्) उपयुक्तां श्रुतिं श्रवणम् (चर) प्राप्नुहि प्राप्नोति वा॥3॥ अन्वयः—हे सोमपा इन्द्र! यथा भवद्रचितस्य सूर्य्यलोकस्य केशिनौ वृषणा कक्ष्यप्रा हरी अश्वौ युक्तः, तथैव त्वं नोऽस्मान् सर्वविद्याप्रकाशाय युङ्क्ष्व। अथ हि नो गिरामुपश्रुतिं चर॥3॥ भावार्थः—अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। सर्वैर्मनुष्यैः सर्वविद्यापठनानन्तरं क्रियाकौशले प्रवर्त्तितव्यम्। यथाऽस्मिन् जगति सूर्य्यस्य विशालः प्रकाशो वर्त्तते, तथैवेश्वरगुणानां विद्यायाश्च प्रकाशः सर्वत्रोपयोजनीयः॥3॥ पदार्थः—हे (सोमपाः) उत्तम पदार्थों के रक्षक (इन्द्र) सब में व्याप्त होनेवाले ईश्वर! जैसे आपका रचा हुआ सूर्य्यलोक जो अपने (केशिना) प्रकाशयुक्त बल और आकर्षण अर्थात् पदार्थों के खीचनें का सामर्थ्य जो कि (वृषणा) वर्षा के हेतु और (कक्ष्यप्रा) अपनी-अपनी कक्षाओं में उत्पन्न हुए पदार्थों को पूरण करने अथवा (हरी) हरण और व्याप्ति स्वभाववाले घोड़ों के समान और आकर्षण गुण हैं, उनको अपने-अपने कार्यों में जोड़ता है, वैसे ही आप (नः) हम लोगों को भी सब विद्या के प्रकाश के लिये उन विद्याओं में (युक्ष्व) युक्त कीजिये। (अथ) इसके अनन्तर आपकी स्तुति में प्रवृत्त जो (नः) हमारी (गिराम्) वाणी हैं, उनका (उपश्रुतिम्) श्रवण (चर) स्वीकार वा प्राप्त कीजिये॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। सब मनुष्यों को सब विद्या पढ़ने के पीछे उत्तम क्रियाओं की कुशलता में प्रवृत्त होना चाहिये। जैसे सूर्य्य का उत्तम प्रकाश संसार में वर्त्तमान है, वैसे ही ईश्वर के गुण और विद्या के प्रकाश का सब में उपयोग करना चाहिये॥3॥ मनुष्यैः परमेश्वरात् किं किं याचनीयमित्युपदिश्यते। मनुष्यों को परमेश्वर से क्या-क्या मांगना चाहिये, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है- एहि॒ स्तो॑माँ अ॒भि स्व॑रा॒भि गृ॑णी॒ह्यारु॑व। ब्रह्म॑ च नो वसो॒ सचेन्द्र॑ य॒ज्ञं च॑ वर्धय॥4॥ आ। इ॒हि॒। स्तोमा॑न्। अ॒भि। स्व॒र॒। अ॒भि। गृ॒णी॒हि॒। आरु॒व॒। ब्रह्म॑। च॒। नः॒। व॒सो॒ इति॑। सचा॑। इन्द्र॑। य॒ज्ञम्। च॒। व॒र्ध॒य॒॥4॥ पदार्थः—(आ इहि) आगच्छ (स्तोमान्) स्तुतिसमूहान् (अभि) धात्वर्थे (स्वर) जानीहि प्राप्नुहि। स्वरतीति गतिकर्मसु पठितम्। (निघं॰2.14) (अभि) आभिमुख्ये। अभीत्याभिमुख्यं प्राह। (निरु॰1.3) (गृणीहि) उपदिश (आ) समन्तात् (रुव) शब्दविद्यां प्रकाशय (ब्रह्म) वेदविद्याम् (च) समुच्चये (नः) अस्मान् अस्माकं वा (वसो) वसन्ति सर्वाणि भूतानि यस्मिन् वा वसति सर्वेषु भूतेषु यस्तत्सम्बुद्धौ (सचा) ज्ञानेन सत्कर्मसु समवायेन वा (इन्द्र) स्तोतुमर्ह दातः (यज्ञम्) क्रियाकौशलम् (च) पुनरर्थे (वर्धय) उत्कृष्टं सम्पादय॥4॥ अन्वयः—हे इन्द्र जगदीश्वर! यथा कश्चित् सर्वविद्याऽभिज्ञो विद्वान् स्तोमानभिस्वरति यथावद्विज्ञानं गृणात्यारौति तथैव नोऽस्मानेहि। हे वसो! कृपयैवमेत्य नोऽस्माकं स्तोमान् वेदस्तुतिसमूहार्थान् सचाभिस्वरब्रह्म- वेदार्थानभिगृणीहि यज्ञं च वर्धय॥4॥ भावार्थः—अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। ये सत्येन वेदविद्यायोगेन परमेश्वरं स्तुवन्ति प्रार्थयन्त्युपासते तेभ्य ईश्वरोऽन्तर्यामितया मन्त्राणामर्थान् यथावत्प्रकाशयित्वा सततं सुखं प्रकाशयति। अतो नैव तेषु कदाचिद्विद्यापुरुषार्थौ ह्रसतः॥4॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) स्तुति करने के योग्य परमेश्वर! जैसे कोई सब विद्याओं से परिपूर्ण विद्वान् (स्तोमान्) आपकी स्तुतियों के अर्थों को (अभिस्वर) यथावत् स्वीकार करता कराता वा गाता है, वैसे ही (नः) हम लोगों को प्राप्त कीजिये। तथा हे (वसो) सब प्राणियों को वसाने वा उनमें वसनेवाले! कृपा से इस प्रकार प्राप्त होके (नः) हम लोगों के (स्तोमान्) वेदस्तुति के अर्थों को (सचा) विज्ञान और उत्तम कर्मों का संयोग कराके (अभिस्वर) अच्छी प्रकार उपदेश कीजिये (ब्रह्म च) और वेदार्थ को (अभिगृणीहि) प्रकाशित कीजिये। (यज्ञं च) हमारे लिये होम ज्ञान और शिल्पविद्यारूप क्रियाओं को (वर्धय) नित्य बढ़ाइये॥4॥ भावार्थः—इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। जो पुरुष वेदविद्या वा सत्य के संयोग से परमेश्वर की स्तुति प्रार्थना और उपासना करते हैं, उनके हृदय में ईश्वर अन्तर्यामि रूप से वेदमन्त्रो के अर्थों को यथावत् प्रकाश करके निरन्तर उनके लिये सुख का प्रकाश करता है, इससे उन पुरुषों में विद्या और पुरुषार्थ कभी नष्ट नहीं होते॥4॥ पुनः स कीदृशोऽस्तीत्युपदिश्यते। फिर भी ईश्वर किस प्रकार का है, इस विषय का अगले मन्त्र में प्रकाश किया है- उ॒क्थमिन्द्रा॑य॒ शंस्यं॒ वर्ध॑नं पुरुनि॒ष्षिधे॑। श॒क्रो यथा॑ सु॒तेषु॑ णो रा॒रण॑त्स॒ख्येषु॑ च॥5॥ उ॒क्थम्। इन्द्रा॑य। शंस्य॑म्। व॒र्धनम्। प॒रु॒निः॒ऽष्षिधे॑। श॒क्रः। यथा॑। सु॒तेषु॑। नः। रा॒रण॑त्। स॒ख्येषु॑। च॒॥5॥ पदार्थः—(उक्थम्) वक्तुं योग्यं स्तोत्रम्। अत्र पातॄतुदि॰ (उणा॰2.7) अनेन ‘वच’ धातोः स्थक् प्रत्ययः। (इन्द्राय) सर्वमित्रायैश्वर्य्यमिच्छुकाय जीवाय (शंस्यम्) शंसितुं योग्यम् (वर्धनम्) विद्यादिगुणानां वर्धकम् (पुरुनिष्षिधे) पुरूणि बहूनि शास्त्राणि मङ्गलानि च नितरां सेधतीति तस्मै (शक्रः) समर्थः शक्तिमान् (यथा) येन प्रकारेण (सुतेषु) उत्पादितेषु स्वकीयसंतानेषु (नः) अस्माकम् (रारणत्) अतिशयेनोपदिशति। यङ्लुङन्तस्य ‘रण’धातोर्लेट्प्रयोगः। (सख्येषु) सखीनां कर्मसु भावेषु पुत्रस्त्रीभृत्यवर्गादिषु वा (च) समुच्चयार्थे॥5॥ अन्वयः—यथा कश्चिन्मनुष्यः सुतेषु सख्येषु चोपकारी वर्त्तते तथैव शक्रः सर्वशक्तिमान् जगदीश्वरः कृपायमाणः सन् पुरुनिष्षिध इन्द्राय जीवाय वर्धनं शंस्यमुक्थं च रारणत् यथावदुपदिशति॥5॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। अस्मिन् जगति या या शोभा प्रशंसा ये च धन्यवादास्ते सर्वे परमेश्वरमेव प्रकाशयन्ते। कुतः, यत्र यत्र निर्मितेषु पदार्थेषु प्रशंसिता रचनागुणाश्च भवन्ति ते ते निर्मातारं प्रशसन्ति। तथैवेश्वरस्यानन्ता प्रशंसा प्रार्थना च पदार्थप्राप्तये क्रियते। परन्तु यद्यदीश्वरात्प्रार्थ्यते तत्तदत्यन्तस्वपुरुषार्थेनैव प्राप्तुमर्हति॥5॥ पदार्थः—(यथा) जैसे कोई मनुष्य अपने (सुतेषु) सन्तानों और (सख्येषु) मित्रों के (उपकार) करने को प्रवृत्त होके सुखी होता है, वैसे ही (शक्रः) सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर (पुरुनिष्षिधे) पुष्कल शास्त्रों को पढ़ने-पढ़ाने और धर्मयुक्त कामों में विचरने वाले (इन्द्राय) सब के मित्र और ऐश्वर्य की इच्छा करने वाले धार्मिक जीव के लिये (वर्धनम्) विद्या आदि गुणों के बढ़ानेवाले (शंस्यम्) प्रशंसा (च) और (उक्थम्) उपदेश करने योग्य वेदोक्त स्तोत्रों के अर्थों का (रारणत्) अच्छी प्रकार प्रकाश करके सुखी बना रहे॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। इस संसार में जो-जो शोभायुक्त रचना प्रशंसा और धन्यवाद हैं, वे सब परमेश्वर ही की अनन्त शक्ति का प्रकाश करते हैं, क्योंकि जैसे सिद्ध किये हुए पदार्थों में प्रशंसायुक्त रचना के अनेक गुण उन पदार्थों के रचनेवाले की ही प्रशंसा के हेतु हैं, वैसे ही परमेश्वर की प्रशंसा जनाने वा प्रार्थना के लिये हैं। इस कारण जो-जो पदार्थ हम ईश्वर से प्रार्थना के साथ चाहते हैं, सो-सो हमारे अत्यन्त पुरुषार्थ के द्वारा ही प्राप्त होने योग्य हैं, केवल प्रार्थनामात्र से नहीं॥5॥ क्व क्व स प्रार्थनीय इत्युपदिश्यते। किस-किस पदार्थ की प्राप्ति के लिये ईश्वर की प्रार्थना करनी चाहिये, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है- तमित्स॑खि॒त्व ई॑महे॒ तं रा॒ये तं सु॒वीर्य्ये॑। स श॒क्र उ॒त नः॑ शक॒दिन्द्रो॒ वसु॒ दय॑मानः॥6॥19॥ तम्। इत्। स॒खि॒ऽत्वे। ई॒म॒हे॒। तम्। रा॒ये। तम्। सु॒ऽवीर्ये॑। सः। श॒क्रः। उ॒त। नः॒। श॒क॒त्। इन्द्रः॑। वसु॑। दय॑मानः॥6॥ पदार्थः—(तम्) परमेश्वरम् (इत्) एव (सखित्वे) सखीनां सुखायानुकूलं वर्त्तमानानां कर्मणां भावस्तस्मिन् (ईमहे) याचामहे। ईमह इति याञ्चाकर्मसु पठितम्। (निघं॰3.19) (तम्) परमैश्वर्य्यवन्तम् (राये) विद्यासुवर्णादिधनाय (तम्) अनन्तबलपराक्रमवन्तम् (सुवीर्य्ये) शोभनैर्गुणैर्युक्तं वीर्य्यं पराक्रमो यस्मिंस्तस्मिन् (सः) पूर्वोक्तः (शक्रः) दातुं समर्थः (उत) अपि (नः) अस्मभ्यम् (शकत्) शक्नोति। अत्र लडर्थे लुङडभावश्च। (इन्द्रः) दुःखानां विदारयिता (वसु) सुखेषु वसन्ति येन तद्धनं विद्याऽऽरोग्यादिसुवर्णादि वा। वस्विति धननामसु पठितम्। (निघं॰2.10) (दयमानः) दातुं विद्यादिगुणान् प्रकाशितुं सततं रक्षितुं दुःखानि दोषान् शत्रूंश्च सर्वथा विनाशितुं धार्मिकान् स्वभक्तानादातुं समर्थः। दय दानगतिरक्षणहिंसादानेषु इत्यस्य रूपम्॥6॥ अन्वयः—यो नो दयमानः शक्र इन्द्रः परमात्मा वसु दातुं शक्नोति तमिदेव वयं सखित्वे तं राये तं सुवीर्य्यं ईमहे॥6॥ भावार्थः—सर्वैर्मनुष्यैः सर्वशुभगुणप्राप्तये परमेश्वरो याचनीयो नेतरः, कुतस्तस्याद्वितीयस्य सर्वमित्रस्य परमैश्वर्य्यवतोऽनन्तशक्तिमत एवैतद्दातुं सामर्थ्यवत्त्वात्॥6॥ इत्येकोनविंशो वर्गः समाप्तः॥ पदार्थः—जो (नः) हमारे लिये (दयमानः) सुखपूर्वक रमण करने योग्य विद्या, आरोग्यता और सुवर्णादि धन का देनेवाला, विद्यादि गुणों का प्रकाशक और निरन्तर रक्षक तथा दुःख दोष वा शत्रुओं के विनाश और अपने धार्मिक सज्जन भक्तों के ग्रहण करने (शक्रः) अनन्त सामर्थ्ययुक्त (इन्द्रः) दुःखों का विनाश करनेवाला जगदीश्वर है, वही (वसु) विद्या और चक्रवर्त्ति राज्यादि परमधन देने को (शकत्) समर्थ है, (तमित्) उसी को हम लोग (उत) वेदादि शास्त्र सब विद्वान् प्रत्यक्षादि प्रमाण और अपने भी निश्चय से (सखित्वे) मित्रों और अच्छे कर्मों के होने के निमित्त (तम्) उसको (राये) पूर्वोक्त विद्यादि धन के अर्थ और (तम्) उसी को (सुवीर्य्ये) श्रेष्ठ गुणों से युक्त उत्तम पराक्रम की प्राप्ति के लिये (ईमहे) याचते हैं॥6॥ भावार्थः—सब मनुष्यों को उचित है कि सब सुख और शुभगुणों की प्राप्ति के लिये परमेश्वर ही की प्रार्थना करें, क्योंकि वह अद्वितीय सर्वमित्र परमैश्वर्य्यवाला अनन्त शक्तिमान् ही का उक्त पदार्थों के देने में सामर्थ्य है॥6॥ यह उन्नीसवां वर्ग समाप्त हुआ॥ अथेन्द्रशब्देनेश्वरसूर्य्यलोकावुपदिश्येते। अगले मन्त्र में इन्द्र शब्द से ईश्वर और सूर्य्यलोक का प्रकाश किया है- सु॒वि॒वृतं॑ सुनि॒रज॒मिन्द्र॒ त्वादा॑त॒मिद्यशः॑। गवा॒माप॑ व्र॒जं वृ॑धि कृणु॒ष्व राधो॑ अद्रिवः॥7॥ सु॒ऽवि॒वृत॑म्। सु॒निः॒ऽअज॑म्। इन्द्र॑। त्वाऽदा॑तम्। इत्। यशः॑। गवा॑म्। अप॑। व्र॒जम्। वृ॒धि॒। कृ॒णु॒ष्व। राधः॑। अ॒द्रि॒वः॒॥7॥ पदार्थः—(सुविवृतम्) सुष्ठु विकाशितम् (सुनिरजम्) सुखेन नितरां क्षेप्तुं योग्यम् (इन्द्र) महायशः सर्वविभागकारकेश्वरः सर्वविभक्तरूपदर्शकः सूर्य्यलोको वा (त्वादातम्) त्वया शोधितं, तेन सूर्य्येण वा (इत्) एव (यशः) परमकीर्त्तिसाधकं जलं वा। यश इत्युदकनामसु पठितम्। (निघं॰1.12) (गवाम्) स्वस्वविषयप्रकाशकानां मनआदीन्द्रियाणां किरणानां पशूनां वा। गौरिति पदनामसु पठितम्। (निघं॰4.1) इतीन्द्रियाणां पशूनां च ग्रहणम्। गाव इति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं॰1.5) (अप) धात्वर्थे। (व्रजम्) समूहं ज्ञानं वा (वृधि) वृणु वृणोति वा। अत्र पक्षान्तरे सूर्य्यस्य प्रत्यक्षत्वात्प्रथमार्थे मध्यमः। श्रुशृणुपॄकृवृभ्यश्छन्दसि। (अष्टा॰6.4.102) अनेन हेर्धिः। (कृणुष्व) करोति कुर्य्याद्वा। अत्र लडर्थे लोड् व्यत्येनात्मनेपदं च (राधः) राध्नुवन्ति सुखानि येन तद्विद्यासुवर्णादि धनम्। राध इति धननामसु पठितम्। (निघं॰2.10) (अद्रिवः) अद्रिर्मेघः प्रशंसा धनं भूयान् वा विद्यते यस्मिन् तत्सम्बुद्धावीश्वर, मेघवान् सूर्य्यो वा। अद्रिरिति मेघनामसु पठितम्। (निघं॰1.10) अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्॥7॥ अन्वयः—यथाऽयमद्रिवो मेघवान् सूर्य्यलोकः सुनिरजं त्वदातं तेन शोधितं यशोजलं सुविवृतं सुष्ठु विकाशितं राधो धनं च कृणुष्व करोति गवां किरणानां व्रजं समूहं चापवृध्युद्घाटयति, तथैव हे अद्रिव इन्द्र जगदीश्वर! त्वं सुविवृतं सुनिरजं त्वादातं यशो राधो धनं च कृणुष्व कृपया कुरु, तथा हे अद्रिवो मेघादिरचकत्वात् प्रशंसनीय त्वं गवां व्रजमपवृधि ज्ञानद्वारमुद्घाटय॥7॥ भावार्थः—अत्र (श्लेष)लुप्तोपमालङ्कारौ। हे परमेश्वर! यथा भवता सूर्य्यादिजगदुत्पाद्य स्वकीर्त्तिः सर्वप्राणिभ्यः सुखं च प्रसिद्धीकृतं तथैव भवत्कृपया वयमपि मन आदीनीन्द्रियाणि शुद्धानि विद्याधर्मप्रकाशयुक्तानि सुखेन संसाध्य स्वकीर्त्तिं विद्याधनं चक्रवर्त्तिराज्यं च सततं प्रकाश्य सर्वान्मनुष्यान्सुखिनः कीर्त्तिमतश्च कारयेमेति॥7॥ पदार्थः—जैसे यह (अद्रिवः) उत्तम प्रकाशादि धनवाला (इन्द्रः) सूर्य्यलोकः (सुनिरजम्) सुख से प्राप्त होने योग्य (त्वादातम्) उसी से सिद्ध होनेवाले (यशः) जल को (सुविवृतम्) अच्छी प्रकार विस्तार को प्राप्त (गवाम्) किरणों के (वज्रम्) समूह को संसार में प्रकाश होने के लिये (अपवृधि) फैलाता तथा (राधः) धन को प्रकाशित (कृणुष्व) करता है, वैसे हे (अद्रिवः) प्रशंसा करने योग्य (इन्द्र) महायशस्वी सब पदार्थों के यथायोग्य बांटनेवाले परमेश्वर! आप हम लोगों के लिये (गवाम्) अपने विषय को प्राप्त होनेवाली मन आदि इन्द्रियों के ज्ञान और उत्तम-उत्तम सुख देनेवाले पशुओं के (व्रजम्) समूह को (अपावृधि) प्राप्त करके उनके सुख के दरवाजे को खोल तथा (सुविवृतम्) देश-देशान्तर में प्रसिद्ध और (सुनिरजम्) सुख से करने और व्यवहारों में यथायोग्य प्रतीत होने के योग्य (यशः) कीर्ति को बढ़ानेवाले अत्युत्तम (त्वादातम्) आपके ज्ञान से शुद्ध किया हुआ (राधः) जिससे कि अनेक सुख सिद्ध हों, ऐसे विद्या सुवर्णादि धन को हमारे लिये (कृणुश्व) कृपा करके प्राप्त कीजिये॥7॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेष और लुप्तोपमालङ्कार हैं। हे परमेश्वर! जैसे आपने सूर्य्यादि जगत् को उत्पन्न करके अपना यश और संसार का सुख प्रसिद्ध किया है, वैसे ही आप की कृपा से हम लोग भी अपने मन आदि इन्द्रियों को शुद्धि के साथ विद्या और धर्म के प्रकाश से युक्त तथा सुख पूर्वक सिद्ध और अपनी कीर्ति, विद्याधन और चक्रवर्त्ति राज्य का प्रकाश करके सब मनुष्यों को निरन्तर आनन्दित और कीर्तिमान् करें॥7॥ पुनरीश्वर उपदिश्यते। फिर अगले मन्त्र में ईश्वर का प्रकाश किया है- न॒हि त्वा॒ रोद॑सी उ॒भे ऋ॑घा॒यमा॑ण॒मिन्व॑तः। जेषः॒ स्व॑र्वतीर॒पः सं गा अ॒स्मभ्यं॑ धूनुहि॥8॥ न॒हि। त्वा॒। रोद॑सी॒। इति॑। उ॒भे इति॑। ऋ॒घा॒यमा॑णम्। इन्व॑तः। जेषः॑। स्वः॑ऽवतीः। अ॒पः। सम्। गाः। अ॒स्मभ्य॑म्। धू॒नु॒हि॒॥8॥ पदार्थः—(नहि) निषेधार्थे (त्वा) सर्वत्र व्याप्तिमन्तं जगदीश्वरम् (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ। रोदसी इति द्यावापृथिव्योर्नामसु पठितम्। (निघं॰3.30) (उभे) द्वे (ऋघायमाणम्) परिचरितुमर्हम्। ऋध्यते पूज्यते इति ऋघः। बाहुलकात् कः, तत आचारे क्यङ्। ऋध्नोतीति परिचरणकर्मसु पठितम्। (निघं॰3.5) (इन्वतः) व्याप्नुतः। इन्वतीति व्याप्तिकर्मसु पठितम्। (निघं॰2.18) (जेषः) विजयं प्राप्नोषि। ‘जि जये’ इत्यस्माल्लोटि मध्यमैकवचने प्रयोगः। (स्वर्वतीः) स्वः सुखं विद्यते यासु ताः (अपः) कर्माणि कर्त्तुम्। अप इति कर्मनामसु पठितम्। (निघं॰2.1) (सम्) सम्यगर्थे क्रियायोगे (गाः) इन्द्रियाणि (अस्मभ्यम्) (धूनुहि) प्रेरय॥8॥ अन्वयः—हे परमेश्वर! इमे उभे रोदसी यमृघायमाणं त्वां न हीन्वतः, स त्वमस्मभ्यं स्वर्वतीरपो जेषो गाश्च संधूनुहि॥8॥ भावार्थः—यदा कश्चित्पृच्छेदीश्वरः कियानस्तीति, तत्रेदमुत्तरं येन सर्वमाकाशादिकं व्याप्तं नैव तमनन्तं कश्चिदप्यर्थो व्याप्तुमर्हति। अतोऽयमेव सर्वैर्मनुष्यैः सेवनीयः, उत्तमानि कर्माणि कर्त्तुं वस्तूनि च प्राप्तुं प्रार्थनीयः। यस्य गुणाः कर्माणि चेयत्ता रहितानि सन्ति तस्यान्तं ग्रहीतुं कः समर्थो भवेत्॥8॥ पदार्थः—हे परमेश्वर! ये (उभे) दोनों (रोदसी) सूर्य्य और पृथिवी जिस (ऋघायमाणम्) पूजा करने योग्य आपको (नहि) नहीं (इन्वतः) व्याप्त हो सकते, सो आप हम लोगों के लिये (स्वर्वतीः) जिनसे हमको अत्यन्त सुख मिले ऐसे (अपः) कर्मों को (जेषः) विजयपूर्वक प्राप्त करने के लिये हमारे (गाः) इन्द्रियों को (संधूनुहि) अच्छी प्रकार पूर्वोक्त कार्य्यों में संयुक्त कीजिये॥8॥ भावार्थः—जब कोई पूछे कि ईश्वर कितना बड़ा है, तो उत्तर यह है कि जिसको सब आकाश आदि बड़े-बड़े पदार्थ भी घेर में नहीं ला सकते, क्योंकि वह अनन्त है। इससे सब मनुष्यों को उचित है कि उसी परमात्मा का सेवन उत्तम-उत्तम कर्म करने और श्रेष्ठ पदार्थों की प्राप्ति के लिये उसी की प्रार्थना करते रहें। जब जिसके गुण और कर्मों की गणना कोई नहीं कर सकता, तो कोई उसके अन्त पाने को समर्थ कैसे हो सकता है?॥8॥ पुनः स एवोपदिश्यते। फिर भी परमेश्वर का निरूपण अगले मन्त्र में किया है- आश्रु॑त्कर्ण श्रु॒धी हवं॒ नू चि॑द्दधिष्व मे॒ गिरः॑। इन्द्र॒ स्तोम॑मि॒मं मम॑ कृ॒ष्वा यु॒जश्चि॒दन्त॑रम्॥9॥ आश्रु॑त्ऽकर्ण। श्रु॒धि। हव॑म्। नु। चि॒त्। द॒धि॒ष्व॒। मे॒। गिरः॑। इन्द्र॑। स्तोम॑म्। इ॒मम्। मम॑। कृ॒ष्व। यु॒जः। चि॒त्। अन्त॑रम्॥9॥ पदार्थः—(आश्रुत्कर्ण) श्रुतौ विज्ञानमयौ श्रवणहेतू कर्णौ यस्य तत्सम्बुद्धौ। अत्र सम्पदादित्वात् करणे क्विप्। (श्रुधि) शृणु। अत्र बहुलं छन्दसीति श्नोर्लुक्। श्रुशृणुपॄकृवृभ्य॰ (अष्टा॰6.4.102) इति हेर्ध्यादेशः। (हवम्) आदातव्यं सत्यं वचनम्। (नु) क्षिप्रार्थे। नु इति क्षिप्रनामसु पठितम्। (निघं॰2.15) ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (चित्) पूजार्थे। चिदिदं ब्रूयादिति पूजायाम्। (निरु॰1.4) (दधिष्व) धारय। ‘दध धारणे’ इत्यस्माल्लोट्, छन्दस्युभयथेत्यार्द्धधातुकाश्रयेणेडागमः। (मे) मम स्तोतुः (गिरः) वाणीः (इन्द्र) सर्वान्तर्यामिन्सर्वतः श्रोतः (स्तोमम्) स्तूयते येनासौ स्तोमस्तं स्तुतिसमूहम् (इमम्) प्रत्यक्षम् (मम) स्तोतुः (कृष्व) कुरु। ‘कृञ्’ इत्यस्माल्लोटि विकरणाभावः। (युजः) यो युनक्ति स युक् सखा तस्य सख्युः। ‘युजिर् योगे’ इत्यस्मादृत्विग्दधृगिति क्विन्। (चित्) इव। चिदित्युपमार्थे। (निरु॰1.4) (अन्तरम्) अन्तःशोधनमाभ्यन्तरं वा॥9॥ अन्वयः—हे आश्रुत्कर्ण इन्द्र जगदीश्वर! चिद्यथा प्रियः सखा युजः प्रियस्य सख्युर्गिरः प्रेम्णा शृणोति, तथैव त्वं नु मे गिरो हवं श्रुधि ममेमं स्तोममन्तरं दधिष्व युजो मामन्तःकरणं शुद्धं कृष्व कुरु॥9॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैरीश्वरस्य सर्वज्ञत्वेन जीवेन प्रयुक्तस्य वाग्व्यवहारस्य यथावत् श्रोतृत्वेन सर्वाधारत्वेनान्तर्यामितया जीवान्तःकरणयोर्यथावच्छोधकत्वेन सर्वस्य मित्रत्वाच्चायमेवैकः सदैव ज्ञातव्यः प्रार्थनीयश्चेति॥9॥ पदार्थः—(आश्रुत्कर्ण) हे निरन्तर श्रवणशक्तिरूप कर्णवाले (इन्द्र) सर्वान्तर्यामि परमेश्वर! (चित्) जैसे प्रीति बढ़ानेवाले मित्र अपनी (युजः) सत्यविद्या और उत्तम-उत्तम गुणों में युक्त होनेवाले मित्र की (गिरः) वाणियों को प्रीति के साथ सुनता है, वैसे ही आप (नु) शीघ्र ही (मे) मेरी (गिरः) स्तुति तथा (हवम्) ग्रहण करने योग्य सत्य वचनों को (श्रुधि) सुनिये। तथा (मम) अर्थात् मेरी (स्तोमम्) स्तुतियों के समूह को (अन्तरम्) अपने ज्ञान के बीच (दधिष्व) धारण करके (युजः) अर्थात् पूर्वोक्त कामों में उक्त प्रकार से युक्त हुए हम लोगों को (अन्तरम्) भीतर की शुद्धि को (कृष्व) कीजिये॥9॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को उचित है कि जो सर्वज्ञ जीवों के किये हुए वाणी के व्यवहारों का यथावत् श्रवण करनेहारा सर्वाधार अन्तर्यामि जीव और अन्तःकरण का यथावत् शुद्धि हेतु तथा सब का मित्र ईश्वर है, वही एक जानने वा प्रार्थना करने योग्य है॥9॥ मनुष्याः पुनस्तं कथंभूतं जानीयुरित्युपदिश्यते। फिर भी मनुष्य लोग परमेश्वर को कैसा जानें, इस विषय का अगले मन्त्र में प्रकाश किया है- वि॒द्मा हि त्वा॒ वृष॑न्तमं॒ वाजे॑षु हवन॒श्रुत॑म्। वृष॑न्तमस्य हूमह ऊ॒तिं स॑हस्र॒सा॑तमाम्॥10॥ वि॒द्म। हि। त्वा॒। वृ॒ष॑न्ऽतमम्। वाजे॑षु। ह॒व॒न॒ऽश्रुत॑म्। वृष॑न्ऽतमस्य। हू॒म॒हे॒। ऊ॒तिम्। स॒ह॒स्र॒ऽसात॑माम्॥10॥ पदार्थः—(विद्म) विजानीमः। द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (हि) एवार्थे (त्वा) त्वाम् (वृषन्तमम्) सर्वानभीष्टान्कामान् वर्षतीति वृषा सोऽतिशयितस्तम्। कनिन्युवृषि॰ (उणा॰1.154) अनेन ‘वृष’ धातोः कनिन्प्रत्ययः। अयस्मयादीनि छन्दसि। (अष्टा॰1.4.20) अनेन भसंज्ञया नलोपाभावः। उभयसंज्ञान्यपि छन्दांसि दृश्यन्त इति पदसंज्ञाश्रयणाट्टिलोपाभावः। (वाजेषु) संग्रामेषु। वाज इति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं॰2.17) (हवनश्रुतम्) हवनमाह्वानं शृणोतीति तम् (वृषन्तमस्य) अतिशयेनोत्तमानां कामानामभिवर्षयितुस्तव (हूमहे) स्पर्धयामहे। अत्र ‘ह्वेञ्’ इत्यस्माल्लटि बहुलं छन्दसीति शपो लुक्। बहुलं छन्दसि। (अष्टा॰6.1.34) इति सम्प्रसारणम्, सम्प्रसारणाच्चेति पूर्वरूपं च। हलः। (अष्टा॰6.4.2) इति दीर्घत्वम्। (ऊतिम्) रक्षां प्राप्तिमवगमं च (सहस्रसातमाम्) सहस्राणि बहूनि धनानि सुखानि वा सनोति यया साऽतिशयिता ताम्। अत्र सहस्रोपपदात् ‘षणु दाने’ इत्यस्माद्धातोः जनसन॰ इत्यनेन विट्। विड्वनोरनुनासिकस्यादिति नकारस्याकारादेशः। कृतो बहुलमिति करणे च॥10॥ अन्वयः—हे इन्द्र! वयं वाजेषु हवनश्रुतं वृषन्तमं त्वां विद्मा हि यतो वृषन्तमस्य तव सहस्रसातमामूर्तिं हूमहे॥10॥ भावार्थः—मनुष्या सर्वकामसिद्धिप्रदं शत्रूणां युद्धेषु विजयहेतुं परमेश्वरमेव जानीयुः। येनास्मिन् जगति सर्वप्राणिसुखायासंख्याताः पदार्था उत्पाद्य रक्ष्यन्ते तं तदाज्ञां चाश्रित्य सर्वथा प्रयत्नेन स्वस्य सर्वेषां च सुखं संसाध्यम्॥10॥ पदार्थः—हे परमेश्वर! हम लोग (वाजेषु) संग्रामों में (हवनुश्रुतम्) प्रार्थना को सुनने योग्य और (वृषन्तमम्) अभीष्ट कामों के अच्छी प्रकार देने और जाननेवाले (त्वा) आपको (विद्म) जानते हैं, (हि) जिस कारण हम लोग (वृषन्तमस्य) अतिशय करके श्रेष्ठ कामों को मेघ के समान वर्षानेवाले (तव) आपकी (सहस्रसातमाम्) अच्छी प्रकार अनेक सुखों की देनेवाली जो (ऊतिम्) रक्षाप्राप्ति और विज्ञान हैं, उनको (हूमहे) अधिक से अधिक मानते हैं॥10॥ भावार्थः—मनुष्यों को सब कामों की सिद्धि देने और युद्ध में शत्रुओं के विजय के हेतु परमेश्वर ही देनेवाला है, जिसने इस संसार में सब प्राणियों के सुख के लिये असंख्यात पदार्थ उत्पन्न वा रक्षित किये हैं, तथा उस परमेश्वर वा उस की आज्ञा का आश्रय करके सर्वथा उपाय के साथ अपना वा सब मनुष्यों का सब प्रकार से सुख सिद्ध करना चाहिये॥10॥ पुनः स कीदृशः करोतीत्युपदिश्यते। फिर परमेश्वर कैसा और मनुष्यों के लिये क्या करता है, इस विषय को अगले मन्त्र में प्रकाश किया है- आ तू न॑ इन्द्र कौशिक मन्दसा॒नः सु॒तं पि॑ब। नव्य॒मायुः॒ प्र सू ति॑र कृ॒धी स॑हस्र॒सामृषि॑म्॥11॥ आ। तु। नः॒। इ॒न्द्र॒। कौ॒शि॒क॒। म॒न्द॒सा॒नः। सु॒तम्। पि॒ब॒। नव्य॑म्। आयुः॑। प्र। सु। ति॒र॒। कृ॒धि। स॒ह॒स्र॒साम्। ऋषि॑म्॥11॥ पदार्थः—(आ) समन्तात् (तु) पुनरर्थे। अत्र ऋचि तुनुघमक्षु॰ इति दीर्घः। (नः) अस्माकम् (इन्द्र) सर्वानन्दस्वरूपेश्वर (कौशिक) सर्वासां विद्यानामुपदेशे प्रकाशे च भवस्तत्सम्बुद्धौ, अर्थानां साधूपदेष्टर्वा। क्रोशतेः शब्दकर्मणः क्रंसतेर्वा स्यात्प्रकाशयतिकर्मणः साधु विक्रोशयिताऽर्थानामिति वा नद्यः प्रत्यूचुः। (निरु॰2.25) अनेन कौशिकशब्द उक्तार्थो गृह्यते। (मन्दसानः) स्तुतः सर्वस्य ज्ञाता सन्। ऋञ्जिवृधिमन्दि॰ (उणा॰2.84) अनेन मन्देरसानच् प्रत्ययः। (सुतम्) प्रयत्नेनोत्पादितं प्रियशब्दं स्तवनं वा (पिब) श्रवणशक्त्या गृहाण (नव्यम्) नवीनम्। नवसूरमर्तयविष्ठेभ्यो यत्। (अष्टा॰5.4.36) अनेन वार्त्तिकेन नवशब्दात् स्वार्थे यत्। नव्यमिति नवनामसु पठितम्। (निघं॰3.28) (आयुः) जीवनम् (प्र) प्रकृष्टार्थे क्रियायोगे (सु) शोभार्थे क्रियायोगे। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (तिर) संतारय। तरतेर्विकरणव्यत्ययेन शः। ऋत इद्धातोरितीकारः। (कृधि) कुरु। अत्र श्रुशुणुपॄकृवृभ्यश्छन्दसीति हेर्धिर्विकरणाभावः। (सहस्रसाम्) सहस्रं बह्वीर्विद्याः सनोति तम् (ऋषिम्) वेदमन्त्रार्थद्रष्टारं जितेन्द्रियतया शुभगुणानां सदैवोपदेष्टारं सकलविद्याप्रत्यक्षकारिणम्॥11॥ अन्वयः—हे कौशिकेन्द्रेश्वर! मन्दसानः संस्त्वं नः सुतमापिब तु पुनः कृपया नो नव्यमायुः प्रसूतिर तथा नोऽस्माकं मध्ये सहस्रसामृषिं कृधि सम्पादय॥11॥ भावार्थः—ये मनुष्याः प्रेम्णा विद्योपदेष्टारं जीवेभ्यः सत्यविद्याप्रकाशकं सर्वज्ञं शुद्धमीश्वरं स्तुत्वा श्रावयन्ति, ते सुखपूर्णं विद्यायुक्तमायुः प्राप्यर्षयो भूत्वा पुनः सर्वान् विद्यायुक्तान् मनुष्यान् विदुषः प्रीत्या सम्पादयन्ति॥11॥ पदार्थः—हे (कौशिक) सब विद्याओं के उपदेशक और उनके अर्थों के निरन्तर प्रकाश करनेवाले (इन्द्र) सर्वानन्दस्वरूप परमेश्वर! (मन्दसानः) आप उत्तम-उत्तम स्तुतियों को प्राप्त हुए और सब को यथायोग्य जानते हुए (नः) हम लोगों के (सुतम्) यत्न से उत्पन्न किये हुए सोमादि रस वा प्रिय शब्दों से की हुई स्तुतियों का (आ) अच्छी प्रकार (पिब) पान कराइये (तु) और कृपा करके हमारे लिये (नव्यम्) नवीन (आयुः) अर्थात् निरन्तर जीवन को (प्रसूतिर) दीजिये, तथा (नः) हम लोगों में (सहस्रसाम्) अनेक विद्याओं के प्रकट करनेवाले (ऋषिम्) वेदवक्ता पुरुष को भी (कृधि) कीजिये॥11॥ भावार्थः—जो मनुष्य अपने प्रेम से विद्या का उपदेश करनेवाला होकर अर्थात् जीवों के लिये सब विद्याओं का प्रकाश सर्वदा शुद्ध परमेश्वर की स्तुति के साथ आश्रय करते हैं, वे सुख और विद्यायुक्त पूर्ण आयु तथा ऋषि भाव को प्राप्त होकर सब विद्या चाहनेवाले मनुष्यों को प्रेम के साथ उत्तम-उत्तम विद्या से विद्वान् करते हैं॥11॥ इमाः सर्वाः स्तुतय ईश्वरमेव स्तुवन्तीत्युपदिश्यते। उक्त सब स्तुति ईश्वर ही के गुणों का कीर्त्तन करती हैं, इस विषय का अगले मन्त्र में प्रकाश किया है- परि॑ त्वा गिर्वणो॒ गिर॑ इमा॒ भ॑वन्तु वि॒श्वतः॑। वृ॒द्धायु॒मनु॒ वृद्ध॑यो॒ जुष्टा॑ भवन्तु॒ जुष्ट॑यः॥12॥20॥ परि॑। त्वा॒। गि॒र्व॒णः॒। गिरः॑। इ॒माः। भ॒व॒न्तु॒। वि॒श्वतः॑। वृ॒द्धऽआयु॑म्। अनु॑। वृद्ध॑यः। जुष्टाः॑। भ॒व॒न्तु॒। जुष्ट॑यः॥12॥ पदार्थः—(परि) परितः। परीति सर्वतोभावं प्राह। (निरु॰1.3) (त्वा) त्वां सर्वस्तुतिभाजनमिन्द्रमीश्वरम् (गिर्वणः) गीर्भिर्वेदानां विदुषां च वाणीभिर्वन्यते संसेव्यते यस्तत्सम्बुद्धौ (गिरः) स्तुतयः (इमाः) वेदस्थाः प्रत्यक्षा विद्वत्प्रयुक्ताः (भवन्तु) (विश्वतः) विश्वस्य मध्ये (वृद्धायुम्) आत्मनो वृद्धमिच्छतीति तम् (अनु) क्रियार्थे (वृद्धयः) वर्ध्यन्ते यास्ताः (जुष्टाः) याः प्रीणन्ति सेवन्ते ताः (भवन्तु) (जुष्टयः) जुष्यन्ते यास्ताः॥12॥ अन्वयः—हे गिर्वण इन्द्र! विश्वतो या इमा गिरः सन्ति ताः परि सर्वतस्त्वां भवन्तु तथा चेमा वृद्धयो जुष्टयो जुष्टा वृद्धायुं त्वामनुभवन्तु॥12॥ भावार्थः—हे भगवन्! या योत्कृष्टा। प्रशंसा सा सा तवैवास्ति, या या सुखानन्दवृद्धिश्च सा सा त्वामेव संसेवते। य एवमीश्वरस्य गुणान् तत्सृष्टिगुणांश्चानुभवन्ति त एव प्रसन्ना विद्यावृद्धा भूत्वा विश्वस्मिन् पूज्या जायन्ते॥12॥ अत्र सायणाचार्य्येण ‘परिभवन्तु सर्वतः प्राप्नुवन्तु’ इत्यशुद्धमुक्तम्। कुतः, परौ भुवोऽवज्ञाने इति परिपूर्वकस्य ‘भू’ धातोस्तिरस्कारार्थे निपातितत्वात्। इदं सूक्तमार्य्यावर्त्तनिवासिभिः सायणाचार्य्यादिभिस्तथा यूरोपाख्यदेशनिवासिभिर्विलसनाख्यादिभिश्चान्यथैव व्याख्यातम्। अत्र ये क्रमेण विद्यादिशुभगुणान् गृहीत्वेश्वरं च प्रार्थयित्वा सम्यक् पुरुषार्थमाश्रित्य धन्यवादैः परमेश्वरं प्रशंसन्ति त एवाविद्यादिदुष्टगुणान्निवार्य्य शत्रून् विजित्य दीर्घायुषो विद्वांसो भूत्वा सर्वेभ्यः सुखसम्पादनेन सदानन्दयन्त इत्यस्य दशमस्य सूक्तार्थस्य नवमसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥ इति दशमं सूक्तं विंशो वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—हे (गिर्वणः) वेदों तथा विद्वानों की वाणियों से स्तुति को प्राप्त होने योग्य परमेश्वर! (विश्वतः) इस संसार में (इमाः) जो वेदोक्त वा विद्वान् पुरुषों की कही हुई (गिरः) स्तुति हैं, वे (परि) सब प्रकार से सब की स्तुतियों से सेवन करने योग्य जो आप हैं, उनको (भवन्तु) प्रकाश करनेहारी हों, और इसी प्रकार (वृद्धयः) वृद्धि को प्राप्त होने योग्य (जुष्टाः) प्रीति को देनेवाली स्तुतियां (जुष्टयः) जिनसे सेवन करते हैं, वे (वृद्धायुम्) जो कि निरन्तर सब कार्य्यों में अपनी उन्नति को आप ही बढ़ानेवाले आप का (अनुभवन्तु) अनुभव करें॥12॥ भावार्थः—हे भगवन् परमेश्वर! जो-जो अत्युत्तम प्रशंसा है, सो-सो आपकी ही है, तथा जो-जो सुख और आनन्द की वृद्धि होती है सो-सो आप ही का सेवन करके विशेष वृद्धि को प्राप्त होती है। इस कारण जो मनुष्य ईश्वर तथा सृष्टि के गुणों का अनुभव करते हैं, वे ही प्रसन्न और विद्या की वृद्धि को प्राप्त होकर संसार में पूज्य होते हैं॥12॥ इस मन्त्र में सायणाचार्य्य ने ‘परिभवन्तु’ इस पद का अर्थ यह किया है कि- ‘सब जगह से प्राप्त हों,’ यह व्याकरण आदि शास्त्रों से अशुद्ध है, क्योंकि परौ भुवोऽवज्ञाने व्याकरण के इस सूत्र से परिपूर्वक ‘भू’ धातु का अर्थ तिरस्कार अर्थात् अपमान करना होता है। आर्य्यावर्त्तवासी सायणाचार्य्य आदि तथा यूरोपखण्ड देशवासी साहबों ने इस दशवें सूक्त के अर्थ का अनर्थ किया है। जो लोग क्रम से विद्या आदि शुभगुणों को ग्रहण और ईश्वर की प्रार्थना करके अपने उत्तम पुरुषार्थ का आश्रय लेकर परमेश्वर की प्रशंसा और धन्यवाद करते हैं, वे ही अविद्या आदि दुष्टों गुणों की निवृत्ति से शत्रुओं को जीत कर तथा अधिक अवस्थावाले और विद्वान् होकर सब मनुष्यों को सुख उत्पन्न करके सदा आनन्द में रहते हैं। इस अर्थ से इस दशम सूक्त की सङ्गति नवम सूक्त के साथ जाननी चाहिये॥ यह दशम सूक्त और बीसवां वर्ग पूरा हुआ॥