अष्टाध्यायी हिन्दी व्याख्या सहितम्/षष्टः अध्यायः

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[६|१|१] एकाचोद्वेप्रथमस्य - यहाँ से लेकर सम्प्रसारणविधान - पर्यन्त ` एकाचः` `द्वे ` तथा 'प्रथमस्य' का अधिकार। | जजागार, पपाच, इयाय, आर।

[६|१|२] अजादेर्द्वितीयस्य अजादि धातुओं के द्वितीय एकाच् अवयव के स्थान में द्वित्व होता है। | अटिटिषति, अशिशिषति, अरिरिषति।

[६|१|३] नन्द्राः-संयोगादयः - द्वितीय एक अच् (स्वर) वाले समुदाय के संयोगादि (संयोग के आदि में आने वाले) नकार, दकार, और रकार का द्वित्व (द्वे) नही होता है। | लिट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में ऊर्णु धातु से तिप्, णल् और आम् निषेध होकर ऊर्णु अ रूप बनता है। यहाँ अजादेर्द्वि-तीयस्य (६_१_२) से रकार को द्वित्व प्राप्त होता है। किन्तु यह रकार द्वितीय एक अच् वाले समुदाय- र्ण के आदि में आया है।, अतः प्रकृत सूत्र से यहाँ द्वित्व का निषेध हो जाता है।तब नु को द्वित्व, वृद्धि और आवादेश होकर ऊर्णुवान रूप सिद्ध होता है।

[६|१|४] पूर्वोऽभ्यासः द्वित्य बनाते समय पूर्वरूप् की अभ्यास संज्ञा होती है | "भूव् भूव् अ" में पहले "भूव्" की अभ्यास संज्ञा होगी।

[६|१|५] उभे अभ्यस्तम् - समुदित् ( एक साथ मिलकर) दोनो शब्दस्वरूप अभ्यस्त सञ्ज्ञक होते हैं। | "दा" - "दा" में दोनों "दा" का सम्मिलित नाम अभ्यस्त है, किन्तु अभ्यास नाम केवल पूर्व वाले "दा" का ही है।

[६|१|६] जक्षित्यादयःषट् - जक्ष् धातु तथा जक्ष् से अगली छः धातुएं अभ्यस्तसंज्ञक होती है। | जक्षत् + स्(सु) में नुँम् आगम् न होने के कारण सकार का लोप होकर जक्षत् रूप सिद्ध होता है।

[६|१|७] तुजादीनांदीर्घोऽभ्यासस्य - तुज आदि धातुओं के अभ्यास को दीर्घादेश। | तूतुजानः। मामहानः। अनङ्वान् दाधान। स्वधां मीमाय। दाधार। स तूताव।

[६|१|८] लिटि धातोरनभ्यासस्य लिट् लकार में धातु का द्वित्व कर दिया जाता है। द्वित्व में पूर्व ( पहले) अंग को अभ्यास कहते हैं। (०)द्वित्व बनाते समय धातु अवयव के प्रथम " एकाच्" को द्वित्य हो. धातु अजादि (आदि में " अच्") हो तो सम्भव् होने पर द्वितीय " एकाच्" का द्वित्य हो. "हलादि" (धातु अययव के आदि में "हल्" {व्यञ्जन्} हो) धातु चाहे " एकाच्" हो या " अनेकाच्", पहले " एकाच्" का ही द्वित्य होगा. (१) अभ्यास में क वर्ग और " ह" को च वर्ग हो जाता है। " ह" ==> "ज" (२) आदि ( केवल पहला वर्ण) हल् ही शेष रहता है। (३) अन्य हल वर्णों का लोप हो जाता है। (४) अभ्यास का "अच्" ( स्वर वर्ण) ह्रस्व हो जाता है। (५) अभ्यास का महाप्राण अल्प प्राण बन जाता है। (६) अभ्यास के " ऋ" ==> " अ" (७) "भू" के अभ्यास में " ऊ" का " अ", "भू" ==> "भ" (८) अभ्यास के "य्", "व्" का " इ" " उ" हो जाता है। | "जि" धातु " एकाच्" है तो "जि" का ही द्वित्य होगा। "चकास्" धातु " अनेकाच्" है, इसके प्रथम् " एकाच्" "च" का द्वित्य होगा.। " ऊर्णुञ्" धातु " अजादि" के साथ " अनेकाच्" भी है, इसके "णु" का द्वित्य होगा। " अत्" " अजादि" व " एकाच्" है, इसके व्यपदेशिवद्भाव से प्रथम् " एकाच्" " अत्" का ही द्वित्य होगा। कृ = कृ कृ ( क वर्ग = च वर्ग) व " ऋ" = " अ" = चकृ हृ = हृ हृ ( " ह" = "ज" व " ऋ" = " अ") = जहृ विश् = विश् विश् = (२,३) = विविश् अन्य उदाहरण - वच् = वच् वच् (२,३,८) = उवच् यज = यज यज (२,३,८) = इयज वद् = वद् वद् = (२,३,८) उवद्) स्वप् = स्वप् स्वप् = (२,३,८) = सुस्वप् = सुष्वप् (यहाँ२हल शेष व " स्" = "ष्" भी हो गया) अत् + अत् = अ अत् = आत्, अय अय = आय ( अयाञ्चक्) लभ् = लभ् लभ् = (२,३) = ललभ् पठ् = पठ् पठ् (२,३) = पपठ् पेठ, पपाठ रक्ष् = रक्ष् रक्ष् (२,३) = ररक्ष पच् = पच् पच् (२,३) = पपच्

[६|१|९] सन्यङोः - सन्नन्त (जिसके अन्त में सन् प्रत्यय आया हो) और यङन्त (जिसके अन्त में यङ् प्रत्यय हो) अनभ्यास धातु के प्रथम एकाच् का द्वित्व होता है। | पठ ए स में पठ् धातु के अन्त में सन् प्रत्यय आया है अतः पठ् धातु सन्नन्त है। वह हलादि है और उसका अभ्यास भी नही हुआ है। अतः प्रकृत सूत्र से पठ् के प्रथम एकाच में (व्यपदेशिवद्भाव से) पठ् को ही द्वित्व होकर पथ् पथ् इ स रूप बनता है। यहाँ अभ्यास कार्य इत् और षत्व होकर पिपठिष रूप बनता है। इस स्थिति में लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में पिपठिष से तिप्, शप् और पर-रूप होकर पिपठिषति रूप सिद्ध होता है। सन् प्रत्यय के अभावपक्ष में पठितुमिच्छति - यह वाक्यरूप बनता है।

[६|१|१०] श्लौ - श्लु के परे होने पर अनभ्यास (जो अभ्यास संज्ञक न हो) धातु को द्वित्व होता है। | हु ति में प्रत्ययलोपेप्रत्ययलक्षणम् (१_१_६२) से श्लु परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से हु धातु को द्वित्व होता है और हु हु ति रूप बनता है। इस स्थिति में झकार-जकार और गुण होकर जुहोति रूप सिद्ध होता है।

[६|१|११] चङि - चङ् परे होने पर अभ्यासभिन्न (जिसको पहले द्वित्व न हुआ हो०धातु के अवयव प्रथम एकाच् को द्वित्व होता है और अजादि के द्वितीय एकाच् को द्वित्व होता है। | अ काम् अ त में धातु का अवयव प्रथम एकाचव्यपदेधिवद्भाव से कम् है। यह अभ्यासरहित है और इससे परे चङ् भी है। अतः प्रकृत सूत्र से द्वित्व होकर अ कम् कम् अ त रूप बनेगा। अभ्यासकार्य करने पर अ च् कम् अ त रूप बनता है।

[६|१|१२] दाश्वान्साह्वान्मीढ्वांश्च - लोक तथा वेद में `दाश्वान् `, `साह्णन् ` तथा `मीढ्वान् ` शब्दों का निपातन। | मीढ़्वन् =(८_३_१)=मीढ़्वर् =(विसर्जनीय होकर)= मीढ़्वः =(८_३_३४)= मीढ़्वस्तोकाय। दश्वानस् + जस् == दश्वांसः।

[६|१|१३] ष्यङः संप्रसारणं पुत्र पत्योस्तत्पुरुषे - पुत्रशब्दोत्तरपदक तथा पतिशब्दोत्तरपदक तत्पुरुष समास में ष्यङ् प्रत्यय के स्थान में (यकार के स्थान में) सम्प्रसारण (इकार) हो जाता है। | कारीषगन्धीपुत्रः, कारीषगन्धीपतिः, कौमुदगन्धीपुत्रः, कौमुदगन्धीपतिः।

[६|१|१४] बन्धुनि बहुव्रीहौ - बन्धु शब्दोत्तरपदक बहुव्रीहि समास में ष्यङ् के स्थान में सम्प्रसारण हो जाता है। | करीषगन्ध्या बन्धुरस्य कारीषगन्धीबन्धुः, कौमुदगन्धीबन्धुः।

[६|१|१५] वचिस्वपियजादीनां किति - कित् प्रत्यय परे होने पर वच् (बोलना) स्वप्, (सोना), और यज् (यज्ञ करना) आदि धातुओं को सम्प्रसारण होता है। यह सम्प्रसारण य्, व्, र् और लकार के ही स्थान पर रहेगा। | यज् धातु से लिट् लकार में प्रथमपुरुष-द्विवचन की विविक्षा में तस् और पुनः उसके स्थान पर परस्मैपद अतुस् होकर यज् अतुस् रूप बनता है। इस अवस्था में कित् अतुस् परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से यज् के यकार के स्थान पर इकार सम्प्रसारण होकर इ अ ज् अतुस् रूप बनेगा। यहाँ अकार को पूर्वरूप पुनः इज् को द्वित्व और अभ्यास- कार्य आदि होकर ईजतुः रूप सिद्ध होता है।

[६|१|१६] ग्रहिज्यावयिव्यधिवष्टिविचति-वृश्चतिपृच्छतिभृज्जतीनांङिति च - कित् और ङित् परे होने पर ग्रह् (क्रयादि०, ग्रहण करना), ज्या (क्रयादि०, व्रिद्ध होना), वेञ् (भ्वादि०, बुनना), व्यध् (दिवादि०, बेधना), वश् (अदादि०, इच्छा करना), व्यच् (तुदादि०, ठगना), व्रश्च् (तुदादि०, काटना), प्रच्छ (तुदादि०, पूछना) और भ्रस्ज् (तुदादि०, भूनना)- इन नौ धातुओं के य्, व्, र् और ल् के स्थान पर क्रमशः (सम्प्रसारण) इ, उ, ऋ और ऌ आदेश होते हैं। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में व्यध् धातु से तिप् और श्यन् होकर व्यध् य ति रूप बनता है। यहाँ श्यन् (य) अपित् सार्वधातुक होने से ङिद्वत् है, अतः उसके स्थान परे होने पर प्रकृत सूत्र से यकार के स्थान पर इकार होकर व् इ अ ध् य ति रूप बनता है। यहाँ सम्प्रसारणाच्छ (६_१_१०८) से पूर्वरूप एकादेश होकर व् इ ध् य ति = विध्यति रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - ग्रह् + श्ना == गृह् + ना == गृह्णा, ज्या + श्ना == जि + ना == जिना।

[६|१|१७] लिट्यभ्यासस्योभयेषाम् - लिट् परे होने पर आदि और ग्रह आदि दोनों गण की धातुओं के अभ्यास को सम्प्रसारण होता है। | यज् धातु से लिट् लकार में प्रथमपुरुष-एकवचन की विविक्ष में तिप्, णल्, द्वित्व और अभ्यास कार्य होकर य यज् अ रूप बनता है। इस स्थिति में लिट् अ परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से इ अ यज् अ रूप बनेगा।

[६|१|१८] स्वापेश्चङि - चङ् प्रत्यय के परे रहने से णिजन्त `स्वापॎ धातु से यण् (व) के स्थान में सम्प्रसारण (उ) हो जाता है। | असूषुपत्, असूषुपताम्, असूषुपन्।

[६|१|१९] स्वपिस्यमिव्येञां-यङि - यङ् प्रत्यय के परे स्वप्, स्यम् तथा व्येञ् धातुओं से यण् के स्थान में सम्प्रसारण हो जाता है। | सोषुप्यते, सेसिम्यते, वेवीयते।

[६|१|२०] न वशः - यङ् प्रत्यय के परे रहने पर भी वश धातु के यण् (व) के स्थान में सम्प्रसारण (उ) नहीं होता है। | व्यध् + यङ् == विध् + यङ् == विध् विध् + यङ्, व्यच् + यङ् == विच् + यङ् == विच् विच् + यङ्।

[६|१|२१] चायः की - यङ् प्रत्यय के परे `चायृ` धातु के स्थान में `की ` आदेश। | चाय् + यङ् == की + यङ् == की + यङ्।

[६|१|२२] स्फायः स्फी निष्ठायाम् - निष्ठा प्रत्यय के परे स्फायी धातु के स्थान में `स्फी ` आदेश। | स्फीतः, स्फीतवान्।

[६|१|२३] स्त्यःप्रपूर्वस्य - प्रपूर्वक `स्त्या` (स्त्यै तथा ष्ट्यै ` धातु के यकार के स्थान में `निष्ठा` प्रत्यय के परे सम्प्रसारण (इ) हो जाता है। | प्रस्तीतः, प्रस्तीतवान्। प्रस्तीमः, प्रस्तीमवान्।

[६|१|२४] द्रवमूर्तिस्पर्शयोःश्यः - द्रव पदार्थ की कठिनता तथा स्पर्श के अर्थों में `श्या` धातु के `यऄ के स्थान में `निष्ठा` प्रत्यय के परे सम्प्रसारण (इ) हो जाता है। | द्रवमूर्तौ - शीनं घृतं शीना वसा, शीनं मेदः। द्रवावस्थायाः काठिन्यं गतम् इत्यर्थः। स्पर्षे - शीतं वर्त्तते, शीतो, वायुः, शीतमुदकम्।

[६|१|२५] प्रतेश्च - प्रति-पूर्वक `श्या` धातु के यकार के स्थान में भी `निष्ठा` प्रत्यय के परे सम्प्रसारण (इ) हो जाता है। | प्रतिशीनः, प्रतिशीनवान्।

[६|१|२६] विभाषाऽभ्यवपूर्वस्य - अभिपूर्वक तथा अवपूर्वक `श्या` धातु के अण् के स्थान में `निष्ठा` प्रत्यय के परे सम्प्रसारण विकल्प से होता है। | अभिशीनम्, पक्षे - अभिश्यानम्, अवशीनम्, पक्षे - अवश्यानम्। उभयत्र विभाषेयम्, तेन द्रवमूर्तिस्पर्शयोरपि सम्प्रसारणम् विकल्प्यते।

[६|१|२७] शृतंपाके - निष्ठा प्रत्यय के परे यदि प्रत्ययान्त पाकवाचक हो तो ण्यन्त तथा अण्यन्त `श्रा` धातु के स्थान में विकल्प से `शृ` आदेश। | श्रा पुक् णिच् इट् त टाप् = श्राप् इ त आ =(ह्रस्व होकर)== श्रापिता ।

[६|१|२८] प्यायःपी - `निष्ठा` प्रत्यय के परे ` ओप्यायी ` धातु के स्थान में विकल्प से `पी ` आदेश। | पीनं मुखम्, पीनौ बाहू, पीनमुरः। पक्षे न च भवति - आप्यानश्चन्द्रमाः। व्यवस्थितविभाषात्वाद् अनुपसर्गस्य नित्यमादेशः, सोपसर्गस्य तद्भावो ज्ञेयः।

[६|१|२९] लिड्यङोश्च - लिट् लकार तथा यङ् प्रत्यय के परे भी ` ओप्यायी ` धातु के स्थान में विकल्प से `पी ` आदेश। | आपिप्ये आपिप्याते आपिप्यिरे। यङि - आपेपीयते आपीयेते आपेपीयन्ते।

[६|१|३०] विभाषा श्वेः - लिट् लकार तथा यङ् परे श्वि धातु के यण् के स्थान में विकल्प से सम्प्रसारण होता है। | लिटि - शुशाव, शिश्वाय, शिशुवतुः, शिश्वियतुः। यङि - शोशूयते, शेशवीयते।

[६|१|३१] णौ च संश्चङोः सन्-परक् तथा चङ्-परक णिच् प्रत्यय के परे `श्वॎ धातु को विकल्प से सम्प्रसारण होता है। | सन्परे - शुशावयिषति, शिश्वाययिषति। चङ्परे - अशूशवत्, अशिश्वयत्।

[६|१|३२] ह्वः संप्रसारणम् सन्-परक तथा चङ्परक णिच् प्रत्यय के परे होने पर `ह्णेञ् ` धातु के यण् के स्थान पर सम्प्रसारण होकर उससे "हु" बन जाता है। | सन्परे - जुहावयिषति जुहावयिषतः जुहावयिषन्ति। चङ्परे - अजूहवत् अजूहवताम् अजूहवन्। अभ्यस्तस्य - जुहाव, जोहूयते, जुहूषति।

[६|१|३३] अभ्यस्तस्य च - भावी ' अभ्यस्त' संज्ञा के कारण ( आश्रय) 'ह्णेञ् ' धातु के यण् के स्थान में भी द्विर्वचन से पूर्व ही सम्प्रसारण होता है। | ह्वे + सन् / सम्प्रसारण होकर हु + स / अज्झनगमां सनि सूत्र से दीर्घ करके == हू + स / अब द्वित्वाभ्यासकार्य करके == जुहूष == जुहूषति।

[६|१|३४] बहुलं छन्दसि - छन्दोविषय में ह्णेञ् धातु के यण् के स्थान में बहुल करके सम्प्रसारण होता है। | देवीं सरस्वतीं हुवे। बहुलग्रहणात् न च भवति - ह्वयामि मरुतः शिवान्। ह्वयामि विश्वान् देवान्।

[६|१|३५] चायः की - छन्दोविषय में `चायृ` धातु धातु के स्थान में बहुल रूप में की आदेश। | नि + चाय् + क्त्वा == निचाय् + ल्यप् == निचाय्य।

[६|१|३६] अपस्पृधेथामानृचुरानृहुश्चिच्यु-षे-तित्याज-श्राताः-श्रितमाशीरा-शीर्ताः| - छान्दोविषय में अपस्पृधेथाम् ` आनृचुः`, ` आनृहुः`, `चित्युषॆ, `तित्याज, `श्राता`, `श्रितम् `, ` आशीः` तथा ` आशीर्त्तऄ शब्दों का निपातन।

[६|१|३७] न संप्रसारणे संप्रसारणम् - सम्प्रसारण परे होने पर सम्प्रसारण नही होता। | व्यध् में "य" को सम्प्रसारण होता है "व" को नहीं।

[६|१|३८] लिटि वयो यः - लिट् प्रत्यय के परे 'वय' के यकार के स्थान में सम्प्रसारण नहीं होता है। | उवाय ऊयतुः, ऊयुः।

[६|१|३९] वश्चास्यान्यतरस्यां किति - इस `वयऄ धातु के यकार के स्थान में कित् लिट् प्रत्यय के परे विकल्प से वकारादेश। | ऊवतुः ऊवुः, ऊयतुः ऊयुः।

[६|१|४०] वेञः - तन्तु सन्तानार्थक `वेञ् ` धातु के वकार के स्थान में लिट् लकार के परे सम्प्रसारण नहीं होता। | ववौ ववतुः ववुः।

[६|१|४१] ल्यपि च - ल्यप् प्रत्यय के परे भी वेञ् धातु के वकार के स्थान में सम्प्रसारण नहीं होता। | प्रवाय, उपवाय।

[६|१|४२] ज्यश्च - वयोहान्यर्थक `ज्या` धातु के यकार के स्थान में भी ल्यप् प्रत्यय के परे सम्प्रसारण नहीं होता। | प्रज्याय, उपज्याय।

[६|१|४३] व्यश्च - सम्बणार्थक `व्येञ् ` धातु के वकार के स्थान में भी ल्यप् प्रत्यय के परे सम्प्रसारण नहीं होता। | प्रव्याय

[६|१|४४] विभाषा परेः - परिपूर्वक `व्येञ् ` धातु के वकार के स्थान में ल्यप् प्रत्यय के परे विकल्प से सम्प्रसारण नहीं होता। | परिवीय यूपम्। पक्षे - परिव्याय।

[६|१|४५] आदेच उपदेशेऽशिति यदि शित् प्रत्यय परे न हो तो उपदेशावस्था में एजन्त धातु ( जिसके अन्त में ए, ओ, ऐ, या औ हो) के स्थान पर आकार ("आ") होता है। | ग्लै धातु उपदेश अवस्था में एजन्त है, अतः शित् प्रत्यय परे होने पर ऐकार के स्थान पर आकार होकर ग्ल् + आ ==> ग्ला रूप बनता है।

[६|१|४६] न व्यो लिटि लिट् प्रत्यय परे रहते `व्येञ् ` धातु के स्थान में अकारादेश नहीं होता। | संविव्याय, संविव्ययिथ।

[६|१|४७] स्फुरति स्फुलत्योर्घञि - चलनार्थक `स्फुरऄ तथा `स्फुलऄ धातुओं के अनौपदेशिक एच् के स्थान में भी घञ् प्रत्यय के परे अकारादेश। | विस्फारः, विस्फालः। विष्फारः, विष्फालः।

[६|१|४८] क्रीङ्-जीनां णौ - `क्री `, ` इङ् ` तथा `जॎ धातुओं के एच् के स्थान में णिच् प्रत्यय के परे अकारादेश हो जाता है। | क्रा + पुक् + णिच् == क्रापि == क्रापयति, जा + पुक् + णिच् == जापि == जापयति।

[६|१|४९] सिद्धयतेरपारलौकिके - अपारलौकिक अर्थ में वर्तमान `षिधु` (सिध्) धातु के एच् के स्थान में णिच् प्रत्यय के परे रहते अकारादेश। | सिध् + णिच् =(७_३_८६सूत्र से गुण करके)= सेध् + इ =("ए" को "आ" करके)= साध् + इ == साधि == साधयति।

[६|१|५०] मीनाति-मीनोति दीङां ल्यपि च - ल्यप् तथा शित् भिन्न प्रत्यय परे होने पर एच् ( ए ओ ऐ औ) के विषय में मीञ् (हिंसाकरना), मिञ् (फेंकना) और दीङ् (क्षय होना)- इन धातुओं के स्थान में आकार आदेश। | लुङ् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में दीङ् (दी) धातु से आत्मनेपद प्रत्यय त , अडागम् और च्लि-सिच् होकर अ दा स् त् रूप बनता है।यहाँ पर आर्धधातुक सिच् (स्) परे होने के कारण सार्वधतुकार्धधातुकयोः (७_३_८४) से दी के ईकार के स्थान पर एच्-एकार प्राप्त होता है, किन्तु प्रकृत सूत्र से उसका बाध हो जाता है और दी (दीङ्) के ईकार के स्थान पर आकार होकर अ द् आ स् त रूप बनता है।

[६|१|५१] विभाषा लीयतेः - एज्विषय में तथा ल्यप् प्रत्यय के परे भी `ली ` धातु तथा `लीङ् ` धातुओं के अन्त्य अल् के स्थान में विकल्प से अकारादेश। | ली == ला + पुक् + णिच् == लापि == लापयिष्यति।, ली + णिच् == लै + इ == लाय् + इ == लायि == लाययिष्यति।

[६|१|५२] खिदेश्छन्दसि - छान्दोविषय में दैन्यार्थक `खिद् ` धातु के एच् को विकल्प से आत्व होता है। | चित्तं चखाद, चित्तं चिखेद।

[६|१|५३] अपगुरोणमुलि - अपपूर्वक `गुरी ` धातु के एच् के स्थान में णमुल् के परे विकल्प से अकारादेश। | अपगुर् + ण्मुल् == अपगोर + अम् == अपगोरम् (विकल्प आदेश हो) अपगारम्।

[६|१|५४] चिस्फुरोर्णौ - `चॎ तथा `स्फुरऄ धातुओं के एच् के स्थान में णि परे रहते विकल्प से आत्व होता है। | स्फुर् + णिच् / पुगन्तलघूपधस्य सूत्र से "च" से गुण करके == स्फार् + णिच् == स्फारि == स्फारयिष्यति।

[६|१|५५] प्रजनेवीयतेः - धात्वर्थ गर्भग्रहण स्वरूप होने पर `वी ` धातु के अन्त्य अल् को आत्व हो जाता है। | वस्मि + णिच् == वि + स्मा + पुक् + णिच् == वस्मापि == विस्मापयते।

[६|१|५६] बिभेतेर्हेतुभये - प्रयोजकहेतुकभयार्थक `भी ` धातु के अन्त्य अल् के स्थान में णि प्रत्यय के परे विकल्प से आत्व हो जाता है। | मुण्डो भापयते, मुण्डो भीषयते। जटिलो भापयते, जटिलो भीषयते।

[६|१|५७] नित्यंस्मयतेः - `स्मीङ् ` धातु के अन्त्य अल् के स्थान में णिप्रत्यय के परे नित्य आत्व होता है (यदि प्रयोजक से भय होता हो)। | मुण्डो विस्मापयते, जटिलो विस्मापयते।

[६|१|५८] सृजिदृशोर्झल्यमकिति - यदि कित् को छोड़कर अन्य कोई झलादि प्रत्यय (जिसके आदि में झल् वर्ण हो) परे हो तो सृज् (छोड़ना) और दृश् (देखना) इन दो धातुओं का अवयव अम् होता है। | लुट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में सृज् धातु से आत्मनेपद प्रत्यय त, तास् और त के स्थान पर डा आदि होकर सृज् त् आ रूप बनता है। यहाँ कित्-भिन्न तासि (त्) प्रत्यय परे है, और उसके आदि में झल् तकार भी आया है। अतः प्रकृत सूत्र से सृज् के सकारोत्तरवर्ती अन्त्य अच् ऋकार के बाद अम् ( अ) होकर सृ अ ज् त आ रूप बनता है।

[६|१|५९] अनुदात्तस्य चर्दुपधस्यान्यतरस्याम् - कित्-भिन्न झलादि प्रत्यय (जिसके आदि में कोई झल् वर्ण हो) परे होने पर उपदेश में अनुदात्त ऋदुपध धातु (जिसकी उपधा में ऋकार हो) का अवयव विकल्प से अम् होता है। | लुट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में कृष् (जोतना) धातु से तिप्, तास् और डात्व आदि होकर कृष् त् आ रूप बनता है। यहाँ कृष् धातु की उपधा में ह्रस्व ऋकार है और उपदेश में अनुदात्त भी है। अन्य उदाहरण - तृप् + ततृप् + थल् / ततृ अम् प् + थल् =(इको यणचि से "यण्" करके)= तत्रप् + थ == तत्रप्थ।

[६|१|६०] शीर्षश्छन्दसि - शिरःशब्दसमानार्थक `शीर्षन् ` शब्द का छान्दोविषय में निपातन। | शीर्ष्णा हि तत्र सोमं क्रीतं हरन्ति। यत्ते शीर्ष्णोः दौर्भाग्यम्।

[६|१|६१] ये च तद्धिते अवर्णान्त उपसर्ग के पश्चात् ऋकारादि धातु हो तो पूर्व और पर वर्ण के स्थान पर वृद्धि एकादेश होता है। | प्र + ऋच्छति में प्र उपसर्ग है और उसके अन्त में अवर्ण अकार भी आया है उसके पश्चात ऋच्चति धातु है जिसके आदि में ऋकार आया है।

[६|१|६२] अचि शीर्षः - अजादि तद्धित के परे शिरस् शब्द के स्थान में शीर्ष आदेश। | हास्ति + शीर्षिः + श्यङ् == हास्तिशीर्ष् + य == हास्तिशीर्षण्या।

[६|१|६३] पद्-दन्नो-मास्-हृन्निशसन्-यूषन्-दोषन्-यकञ्छकन्नुदन्नासञ्छस्प्रभतिषु - शस् - प्रभृति प्रत्ययों के परे पाद, दन्त, नासिका, मास, हृदय, निशा, असृज, यूष, दोष, यकृत, उदक और आसन शब्दों के स्थान में क्रमशः पद्, दत्, नस्, मास्, हृत्, निश्, असन्, पूषन्, दोषन्, यकन्, शकन्, उदन् तथा आसन् आदेश हो जाते हैं। | पद् - निपदश्चतुरो जहि। पदा वर्त्तय गोदुहम्। दत् - या दतो धावति तस्यै श्यावदन्। नस् - शूकरस्त्वखन्नसा। मास्- मासि त्वा पश्यामि चक्षुषा।

[६|१|६४] धात्वादेः षः सः धातु के आदि षकार के स्थान पर सकार आदेश। | ष्वद् == स्वद्, ष्णा == स्ना, ष्ठा == स्था

[६|१|६५] णो नः - धातु के आदि णकार के स्थान पर नकार आदेश। | णदि == नदि, णम् == नम् ।

[६|१|६६] लोपो व्योर्वलि - स्वर और यकार को छोड़कर अन्य कोई भी वर्ण परे होने पर यकार और वकार का लोप होता है। | भवेय् + त् में वल्-तकार् परे होने के कारण भवेय् के यकार का लोप होकर भवेत् रूप सिद्ध हुआ।

[६|१|६७] वेरपृक्तस्य - अपृक्तसंज्ञक वकार का लोप होता है। | ब्रह्महा, भूणहा। घृतस्पृक्, तैलस्पृक्। अर्द्धभाक्, पाद्भाक्, तुरीयभाक्।

[६|१|६८] हल्ड्याब्भ्यो दीर्घात्सुतिस्यपृक्तं हल् हलन्त, "ङी" व आप तदन्त से परे (बाद में) "सु", "ति" और "सि" के अपृक्त रूप हल् का लोप होता है। "सुप्"१_१सुबन्त प्रत्यय है। "ति"१_१और "सि"२_१"तिङ्" धातु प्रत्यय हैं। इनके अन्त्य " अच्" के इत्संज्ञक होकर लोप होने पर केवल क्रमशः "स्", "त्" और "स्" ही शेष रहता है जो एक वर्ण (एक " अल्") का होने के कारण अपृक्त संज्ञक` होते हैं। | रमा + सु = रमा + स् = रमा । अहन् + ति = अहन् + त् = अहन् । अहन् + सि = अहन् + स् = अहन्

[६|१|६९] एङ्ह्रस्वात्सम्बुद्धेः सम्बोधन एक वचन को सम्बुद्धि कहते हैं। सम्बुद्धि के एङन्त व हृस्वान्त् परे (बाद में) हल् का लोप हो जाता है। | हे राम + सुप् ==> हे राम + स् ==> हे राम ( हृस्व मकार के परे "स्" हल् का लोप। "हे राम" सम्बुद्धि है।

[६|१|७०] शेश्छन्दसि बहुलम् - छान्दोविषय में `शॎ का बाहुल्येन लोप। | या क्षेत्रा, या वना। यानि क्षेत्राणी, यानि वनानि।

[६|१|७१] ह्रस्वस्य पिति कृति तुक् - कृत् प्रत्यय का पकार इत्संज्ञक है, तो उसके परे होने पर ह्रस्व का अवयव तुक् होता है। | इ य में क्यप् प्रत्यय कृत् है और पित् भी है क्योंकि उसके पकार की इत्संज्ञा होकर उसका लोप हुआ है। अतः उसके परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से ह्रस्व इ को तुक् (त्) होकर इ त् य= इत्य रूप बनता है। इसी प्रकार वृ से वृत्यः और स्तु से स्तुत्यः रूप बनते हैं। आ पूर्वक दृ धातु से भी इसी भांति क्यप् और तुक् होकर आदृत्यः रूप सिद्ध होता है।

[६|१|७२] संहितायाम् - ` अनुदात्तं पदमेकवर्जम् ` सूत्रपर्यन्त `सहिंतायाम् ` का अधिकार। | वक्ष्यति (इको यणचि) - दध्यत्र, मध्वत्र।

[६|१|७३] छे च छकार परे होने पर ह्रस्व का अवयव तुक् होता है, कित् होने के कारण तुक् अन्तावयव होता है। | लछ् == ल त् छ् । अन्य उदाहरण - गम् + शप् == गछ् + शप् == गच्छ् + अ == गच्छ, यम् + शप् == यछ् + शप् == यच्छ् + अ == यच्छ।

[६|१|७४] आङ्-माङोश्च - ईषत् क्रियायोग, मर्यादा तथा अभिविधि अर्थों में वर्तमान ङित् आ तथा प्रतिषेधार्थक ङित् मा शब्द को भी छकार के परे संहिताविषय में तुँक् का आगम्। | ईषच्छाया = आच्छाया। आच्छदयति। आच्छायायाः। आच्छायम्। माच्छैत्सीत्। माच्छिदत्।

[६|१|७५] दीर्घात् संहिता के विषय मे अच् परे होने पर ए, ओ, ऐ और औ के स्थान पर अय्, अव्, आय् और आव् आदेश । | ह्रीछ् == ह्री + त् छ् तकार को श्चुत्व करके ह्रीच्छ्।

[६|१|७६] पदान्ताद्वा छकार परे होने पर पदान्त दीर्घ का अवयव विकल्प से तुक् आदेश और कित् होने पर यह तुक् पदान्त दीर्घ का अन्तावयव होगा। | दीर्घात् - ह्रीच्छति, म्लेच्छति, अपचाच्छायते, विचाच्छायते। पदान्तात् - कुटीच्छाया, कुटीछाया। कुवलीच्छाया, कुवलीछाया।

[६|१|७७] इकोयणचि स्वर-वर्ण परे होने पर इक् (इ, उ, ऋ, ऌ) के स्थान पर क्रमशः यण् (य्, व्, र्, ल्) आदेश। | प्रति + एकः == प्रत्य् + एकः == प्रत्येकः, मधु + अरिः == मध्व् + अरिः == मध्वरिः, धातृ + अंशः == धात्र् + अंशः == धात्रंशः दौहितृ + अ == दौहित्रियम्,

[६|१|७८] एचोऽयवायावः अच् परे होने पर एच् (ए, ओ, ऐ, औ) के स्थान पर क्रमशः अय्, अव्, आय तथा आव् आदेश। | जि + शप् == जे + अ == जय् + अ == जय; इसी प्रकार नी + शप् == नय; द्रु + शप् == द्रव; भू + शप् == भव; हृ + शप् == हर; तृ + शप् == तर; धे + शप् == धय; म्लै + शप् == म्लाय; धौ + शप् == धाव ।

[६|१|७९] वान्तो यि प्रत्यये यकारादि प्रत्यय परे होने पर भी ओकार और औकार के स्थान पर अव् और आव् आदेश। | गो + यम् में यक्लारादि प्रत्यय यत् (य) परे होने पर ओकार के स्थान पर अव् हो ग् अव् यम्==> गव्यम्।

[६|१|८०] धातोस्तन्निमित्तस्यैव - धातु के एच् के स्थान में भी वान्त आदेश। यकारादि प्रत्ययों के परे यदि वह धात्ववयव एच् की उत्पत्ति के निमित्त वे हीं वकारादि प्रत्यय हों। | लव्यम्, पव्यम्, अवश्यलाव्यम्, अवश्यपाव्यम्

[६|१|८१] क्षय्य-जय्यौ-शक्यार्थे - शक् धात्वर्थ के गम्यमान होने पर यत् प्रत्यय के परे `क्षॎ तथा `जॎ धातुओं के एच् (क्षे, जे) के स्थान में अय् आदेश। | शक्यः क्षेतुं = क्ष्य्यः (नष्ट किया जा सकता है)। शक्यो जेतुं- जय्यः (जीता जा सकता है)।

[६|१|८२] क्रय्यस्तदर्थे - `क्री ` धातु के कर्म कारक के अभिधायक यत् प्रत्यय के परे `क्री ` धातु के एच् के स्थान में अयादेश का निपातन। | क्रय्यौ गौः (क्रय के लिये जो गौ), क्रय्यः कम्बलः (क्रय के लिये जो कम्बलः)।

[६|१|८३] भय्य प्रवय्ये च च्छन्दसि - छन्दोविषय प्रयोग में यत् प्रत्यय के परे `भी ` धातु तथा प्र + `वी ` धातु के एच् के स्थान में अयादेश का निपातन। | भय्यं किलासीत वत्सतरी प्रवय्या।

[६|१|८४] एकःपूर्वपरयोः - अब से `ख्यत्यात्परस्यऄ (६_१_११२) सूत्र तक जितने आदेशों का विधान होने वाला है उन आदेशों के विषय में यह समझना चाहिए कि पूर्व तथा पर स्थानियों के स्थान में एक ही आदेश। | खट्वेन्द्रः, मालेन्द्रः

[६|१|८५] अन्तादिवच्च - पूर्व तथा पर स्थानियों के स्थान में विहित एकादेश अपने पूर्वस्थानी (से घटित पूर्व शब्द) के अन्त्यावयव की तरह तथा अपने पर स्थानी (से घटित पर शब्द) के आद्यावयव की तरह माने जाते हैं। | ब्रह्मबन्धूः वृक्षौ।

[६|१|८६] षत्वतुकोरसिद्धः - षत्व तथा तुक् के विधेय होने पर एकादेश असिद्ध हो जाता है। | षत्वविधौ - कोऽसिचत्, कोऽस्य, योऽस्य, कोऽस्मै, योऽस्मै तुग्विधौ - अधीत्य, प्रेत्य।

[६|१|८७] आद् गुणः अवर्ण् (अ, आ) से परे "इक्" (इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ॠ, ऌ, ॡ) होने पर पूर्व व पर के स्थान में क्रमशः गुण (ए, ओ, अर्, अल्) एकादेश। (अ/आ इ/ई ==> ए), (अ/आ उ/ऊ ==> ओ), (अ/आ ऋ/ॠ ==> अर्) व (अ/आ ऌ/ॡ ==> अल्) | नय + इते == नयेते, नय + इः == नयेः, नय + ईथाः == नयेथाः ।

[६|१|८८] वृद्धिरेचि अवर्णान्त अङ् ( अ, आ) परे " एच्" (ए, ओ, ऐ, औ) होने पर पूर्व व पर के स्थान पर वृद्धि (ऐ, औ) एकादेश। (अ/आ ए = ऐ), (अ/आ ओ = औ), (अ/आ ऐ = ऐ), (अ/आ ओ = औ) | कृष्ण + एकत्वम् = कृष्णैकत्वम्, गंगा + ओघः = गंगौघः, देव + ऐश्वर्यम् = देवैश्वर्यम् { अकार " अ" अवर्ण से परे एकार " ए" एच् होने पर दोनों के स्थान में आन्तरतम्य ( अत्यन्त सदृश) होने से " ऐ" वृद्धि एकादेश हुआ}।

[६|१|८९] एत्येधत्यूठ्सु अवर्ण (अ, आ) से एति, एधति या ऊठ् का अवयव "अच्" परे होने पर "पूर्व पर" के स्थान पर वृद्धि (ऐ, औ) एकादेश। यह६_१_९४का अपवाद (बाध) है। | गंगा + उद्कम् में आ + उ के स्थान पर गुण ओ हो गङ्ग् ओ दकम् ==> गङ्गोदकम्

[६|१|९०] आटश्च आट् से अच् परे होने पर पूर्व पर के स्थान पर वृद्धि एकादेश। | आ + इच्छ == ऐच्छ्; आ + उक्ष == औक्ष; आ + ऋच्छ == आर्च्छ; आ + एध == ऐध्; आ + ओख == औख आदि

[६|१|९१] उपसर्गादृति धातौ परवर्त्ती ऋकारादि धातु के आद्यावयव ऋकार तथा पूर्ववर्ती अवर्णान्त उपसर्ग के अन्त्य अवर्ण के स्थान में वृद्धि एकादेश। | उप + ऋच्छति == उपार्च्छति, प्र + ऋच्छति == प्रार्च्छति, उप ऋध्नोति = उपार्ध्नोति

[६|१|९२] वा सुप्यापिशलेः - सुबन्तावयव ऋकारादि धातु के ऋकार के परे अवर्णान्त उपसर्ग होने पर उपसर्गान्त्यावयव अवर्ण तथा सबुबन्तावयधात्वाद्यावयव ऋकार के स्थान में विकल्प से ` आपिशलॎ आचार्य के मत में एकादेश वृद्धि होती है। | उपर्षभीयति, उपार्षभीयति। उपल्कारीयति, उपाल्कारीयति।

[६|१|९३] औतोऽम्-शसोः ओकारान्त शब्द से अम् और शस् का अच् परे होने पर अकार एकादेश। | गां पश्य, गाः पश्य, द्यां पश्य, द्याः पश्य।

[६|१|९४] एङि पररुपम् अवर्णान्त उपसर्ग के पश्चात् (परे) एकारादि या ओकारादि धातु हो तो पूर्व और पर वर्ण के स्थान पर पररूप एकादेश होता है। अर्थात् (पूर्वान्त परादि ==> परादि) | प्र + एजते में अकारन्त उपसर्ग प्र के पश्चात् एकारादि धातु एजते आई है, अकार और एकार के स्थान पर पररूप-एकार हो प्र ए जते ==>प्रेजते।

[६|१|९५] ओमाङोश्च अवर्ण् से परे " ओम्" या " आङ्" हो तो पररूप् एकदेश हो। | शिवाय + ओम् नमः ==> शिवायोम् नमः

[६|१|९६] उस्यपदान्तात् - अपदान्त अवर्ण से उस परे होने पर पूर्व-पर दोनो के स्थान में पररूप एकादेश होता है। | अपा उस् में अपदान्त पकारोत्तरवर्ती आकार से उस् परे है। अतः पूव और पर के स्थान में पररूप उ होकर अप् उ स् == अपु स् रूप बनता है। इस स्थिति में सकार का पररूप का रुत्व-विसर्ग होकर अपुः रूप सिद्ध होता है।

[६|१|९७] अतो गुणे अपदान्त अत् (ह्रस्व अकार) "अ" से गुण (अ, ए, ओ) परे होने पर पूर्व-पर के स्थान पर पररूप एकादेश। अर्थात् (पूर्वान्त परादि ==> परादि) | भव + अति =(पूर्वपर के स्थान पर पररूप एकदेश)=> भवति

[६|१|९८] अव्यक्तानुकरणस्यात इतौ - अव्यक्तवर्ण अनुकरण के ` अत् ` के परे ` इतॎ शब्द के होने से पूर्व-पर के स्थान में पररूप एकादेश। | पटत् + इति == पटिति, घटत् + इति == घटिति, झटत् + इति == झटिति, छमत् + इति == छमिति।

[६|१|९९] नाम्रेडितस्यान्त्यस्य तु वा - अव्यक्तानुकरण के आम्रेडित ` अत् ` शब्द के परे ` इति ` शब्द के होने पर भी पररूप एकादेश नहीं होता किन्तु ` अत् ` शब्दघटक तकारमात्र तथा इति के आद्यावयवय इ के स्थान में विकल्प से पररूप होता है। | पटत्पटदिति, पटत्पटेति करोति।

[६|१|१००] नित्यमाम्रेडिते डाचि - डाच्-प्रत्ययाविशिष्ट अव्यक्तानुकरणघटक आम्रेडित ` अत् ` शब्द के परे ` इतॎ शब्द के होने पर पूर्व पर के स्थान में नित्य पररूप एकादेश। | पटत् पटत् + डाच् == पटपटत् + आ == पटपट् + आ == पटपटा

[६|१|१०१] अकः सवर्णे दीर्घः " अक्" (अ, आ इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ॠ, ऌ, ॡ) परे सवर्ण " अक्" होने पर पूर्व व पर के स्थान पर दीर्घ आदेश। | मदिरा + आलय = मदिरालय, मुनि + इन्द्र = मुनीन्द्र, गुरु + उपदेशः = गुरूपदेशः

[६|१|१०२] प्रथमयोः पूर्वसवर्णः प्रथम अङ्ग के अन्तिम " अक्" (अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ॠ, ऌ, ॡ) से परे प्रथम या द्वितीय विभक्ति का " अच्" (अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ॠ, ऌ, ॡ, ए, ऐ, ओ, औ) होने पर पूर्व व पर के स्थान पर पूर्व सवर्ण दीर्घ एकादेश होता है | बालक + अः ==> बालकाः (पूर्व अ व पर अ को आ एकादेश। ये दीर्घ सन्धि नहीं है)। अग्नी, वायू। वृक्षाः, प्लक्षाः। वृक्षान्, प्लक्षान्।

[६|१|१०३] तस्माच्छसो नः पुंसि पुल्लिङ्ग में यदि शस् के सकार के पहले दीर्घ सवर्ण हो तो "स्" को "न्" आदेश् हो। | बालक + शस् ==> बालक + अस् {श् का लोप} ==> बालकास् ==>बालकान् {शस् के "स्" के पहले दीर्घ सवर्ण आकार " आ"}

[६|१|१०४] नादिचि अवर्ण (अ/आ) अंग परे " इच्" होने पर पदान्त पूर्व सवर्ण दीर्घ निषेध। | बाल ( अकारान्त) + औ ( इच्) = पूर्व सवर्ण दीर्घ निषेध = बालौ

[६|१|१०५] दीर्घाज्जसि च दीर्घ अङ् के परे " जस्" और " इच्" प्रत्यय रहने पर पूर्व सवर्ण दीर्घ निषेध | विश्वपा + औ = विश्वप् + औ = विश्वपौ (वृद्धि सन्धि)

[६|१|१०६] वा छन्दसि - दीर्घ अक् से परे जस् तथा इच् के परे होने पर भी वेद प्रयोग में विकल्प से पूर्वसवर्णदीर्घ एकादेश। | मरुतीश्चतस्त्रः। पिण्डीः, मारुत्यश्चतस्त्रः, पिण्ड्यः, वाराही, उपानही, वाराह्मौ, उपानह्मौ।

[६|१|१०७] अमि पूर्वः द्वितीया एक वचन में " अक्" से परे " अम्" का " अच्" होने पर पूर्वरूप एकादेश होता है। | बालक + अम् = बालकम् ( यहां दीर्घ सन्धि का निषेध किया है अन्यथा दीर्घ सन्धि (६_१_१०१) होकर बालकाम् बन जाता) या (६_१_१०२) से भी बालकाम् बन जाता।

[६|१|१०८] संप्रसारणाच्च अच् परे होने पर पूर्व-पर के स्थान पर एक पूर्वरूप आदेश। | ज् इ + ना में "आ" को सम्प्रसारणाच्च से पूर्वरूप करके = ज इ + ना == जि + ना

[६|१|१०९] एङः पदान्तादति यदि पदान्त "एङ्" (ए, ओ) के पश्चात (परे) ह्रस्व आकार हो तो पूर्व और पर के स्थान पर पूर्वरूप एकादेश। | हरे + अव = हर् ए अव् = हरेव

[६|१|११०] ङसि-ङसोश्च एङ् ( ए, ओ) परे ङसिँ ( अस्) , ङस् ( अस्) का आकार होने पर पूर्वरूप एकादेश हो। | कवि + अस् ==&ग्त्; कवे + अस् ==&ग्त्; कवेस् ==&ग्त्; कवेः

[६|१|१११] ऋत उत् ह्रस्व ऋकार से यदि ङ्सि अथवा ङ का अत् परे हो, तो पूर्व के स्थान पर ह्रस्व उकार आदेश। | पितुः, होतुः

[६|१|११२] ख्यत्यात् परस्य यण् आदेश होने पर उन हृस्वान्त खि, ति तथा दीर्घान्त खी और ती शब्द से परे ङसि और ङस् के अकार के स्थान पर उकार आदेश। | सख्युः, पत्युः।

[६|१|११३] अतो रोरप्लुतादप्लुते अप्लुत अकार परे होने पर रु के स्थान पर ह्रस्व उकार आदेश। | रामस् + अवदत् == रामरु + अवदत् == रामउ + अवदत् == रामोऽवदत्, देवस् + अधुना == देवरु + अधुना == देवउ + अधुना == देवोऽधुना । इसी प्रकार कोऽयम्, सोऽयम्, रामोऽस्ति।

[६|१|११४] हशि च हश् परे होने पर भी अप्लुत अकार के पश्चात रु के स्थान पर हृस्व उकार आदेश। | रामस् + जयति == रामरु + जयति == रामउ + जयति == रामो जयति, पुरुषस् + वदति == पुरुषरु + वदति == पुरुषउ + वदति == पुरुषो वदति, मनस् + रथः == मनतु + रथः == मनउ + रथः == मनोरथः, यशस् + दा == यशरु + दा == यशउ + दा == यशोदा।

[६|१|११५] प्रकृत्यान्तः पादमव्यपरे - वकारपूर्वस्थ तथा यकारपूर्वस्थ से भिन्न अत् के परे पूर्व एङ् प्रकृति स्थित (एकादेशाववान) ही रह जाता है यदि प्रकृति-स्थिति का आश्रय तथा उसका निमित्त अत् ऋक् पादमध्यस्थ हो। | ते अग्रे अश्वमायुञ्जन्। ते अस्मिन् जवमादधुः। सुजाते अश्वसूनृते। उपप्रयन्तो अध्वरम्, शिरो अपश्यम्। अध्वर्यो अद्रिभिः सुतम्।

[६|१|११६] अव्यादवद्यादवक्रमुरव्रतायमवन्त्ववस्युषु च - अव्यात्, अव्द्यात्, अव्क्रुम्, अव्रत्, अयम्, अवन्तु तथा अवस्यु शब्दों के वकारपूर्वस्थ तथा यकारपूर्वस्थ अत् के परे होने पर भी एङ् प्रकृति- स्थित ही रह जाता है। | अग्निः प्रथमो वसुभिर्नो अव्यात्। मित्रमहो अवद्यात्। मा शिवासो अवक्रमुः। ते नो अव्रताः। शतधारो अयं मणिः। ते नो अवन्तु पितरः। कुशिकासो अवस्यवः।

[६|१|११७] यजुष्युरः - अत् के परे होने पर भी एङ्न्त उरस् शब्द भी यजुर्वेद में प्रकृति - स्थित ही रह जाता है। | उरो अन्तरिक्षम्

[६|१|११८] आपोजुषाणो वृष्णो-वर्षिष्ठेऽम्बेऽम्बालेऽम्बिके पूर्वे - अत् के परे होने पर भी यजुर्वेद में आपो, जुषाणो, वृष्णो, वर्षिठे तथा अम्बिके शब्द से पूर्ववर्ती अम्बे तथा अम्बाले शब्द प्रकृति स्थित ही रहते हैं। | आपो अस्मान् मातरः शुन्धयन्तु। जुषाणो अप्तुराज्ययस्य। वृष्णो अंशुभ्यां गभस्तिपूतः। वर्षिष्ठे अधिनाके। अम्बे अम्बाले अम्बिके।

[६|१|११९] अङ्ग इत्यादौ च - अङ्गशब्दघटक एङ् अङ्गशब्दाद्यवयवय अत् के परे तथा अङ्गशब्दावयव एङ् किसी अत् के परे होने पर यजुर्वेद में प्रकृति स्थित ही रह जाता है। | ऐन्द्रः प्राणो अङ्गे अङ्गे निदीध्यत्। ऐन्द्रः प्राणो अङ्गे अङ्गे अशोचिषम्।

[६|१|१२०] अनुदात्ते च कु-धपरे - कवर्गपरक तथा धकारपरक अनुदात्त अत् के परे भी पूर्व एङ् यजुर्वेद में प्रकृति-स्थित ही रहता है। | अयं सो अग्निः। अयं सो अध्वरः।

[६|१|१२१] अवपथासि च - अवपयाः शब्दघटक अनुदात्त अत् के परे भी पूर्व एङ् प्रकृति-स्थित रहता है। | त्री रुद्रेभ्यो अवपथाः

[६|१|१२२] सर्वत्र विभाषा गोः हृस्व आकार परे होने पर पदान्त और एङन्त गो शब्द का लैकिक और वैदिक संस्कृत् में विकल्प से प्रकृति से अव्स्थान होता है। | गो अग्रम्, गोऽग्रम् छन्दसि - अपशवो वा अन्ये गोअश्वेभ्यः पशवो गोऽश्वाः।

[६|१|१२३] अवङ् स्फोटायनस्य ( अचि) स्वर-वर्ण परे होने पर ओकारान्त और पदान्त गो शब्द के स्थान पर (विभाषा) विकल्प से अवङ् आदेश। | गो + अग्रम् गो शब्द पदान्त और ओकारान्त है उसके पश्चात् स्वर-वर्ण अकार भी आया है। अन्त्य वर्ण-ओकार के स्थान पर अनङ् (अव) आदेश हो ग् अव अग्रम् ==> गव अग्रम् रूप बना, दीर्घादेश हो गव् आ ग्रम् ==> गवाग्रम् रूप बना।

[६|१|१२४] इन्द्रे च नित्यम् यदि इन्द्र शब्द परे होने पर ओकारान्त गो के स्थान पर अवङ् आदेश। | गो + इन्द्र में ओकारान्त गो के पश्चात इन्द्र शब्द आया है। अतः गो शब्द के स्थान पर अवङ् आदेश होगा। ग अव् इन्द्रः ==> गव् इन्द्रः==> गव् ए इन्द्रः ==> गवेन्द्रः

[६|१|१२५] प्लुत प्रगृह्मा अचि अच् परे होने पर प्लुत् और प्रगृह्म संज्ञक वर्ण के पश्चात कोई स्वर-वर्ण आता है तो सन्धि नही होती। | प्लुताः देवदत्ता अत्र न्वसि यज्ञदत्ता इदमानय। प्रगृह्माः - अग्नि इति। वायु इति। खट्वे इति। माले इति।

[६|१|१२६] आङोऽनुनासिकश्छन्दसि - संहिता में अच् के परे होने पर आङ् भी प्रकृतिस्थित रह जाता है। | अभ्र आँ अपः। गभीर आँ उग्रपुत्रे जिघांसत।

[६|१|१२७] इकोऽसवर्णे शाकल्यस्य ह्रस्वश्च असवर्ण स्वर परे होने पर पदान्त ह्रस्व या दीर्घ इ, उ, ऋ और ऌ के स्थान पर विकल्प से हृस्व इकार उकार, ऋकार और ऌकार आदेश। | दधि, मधु अत्र, कुमारि अत्र, किशोरि अत्र (इको यणचि) इत्यपि भवति आरम्भसामर्थ्यात्। तेन पक्षे दध्यत्र मध्वत्र कुमार्यत्र किशोर्यत्र इति यणादेशा भवन्ति।

[६|१|१२८] ऋत्यकः हृस्व ऋकार परे होने पर पदान्त दीर्घ या हृस्व अ, इ, उ, ऋ और ल्ड़् के स्थान पर विकल्प से हृस्व अकार, इकार, उकार, ऋकार और ऌकार आदेश | ब्रह्मा + ऋषिः में हृस्व ऋकार परे होने पर पदान्त अक्- अकार को हृस्व अकार हो ब्रह्म् अ ऋषिः ==> ब्रह्म ऋषि रूप सिद्ध हुआ किन्तु हृस्वादेश विकल्प से होता है उसके अभाव पक्ष में ब्रह्मा + ऋषिः में गुण अर हो ब्रह्म् अर् षिः ==> ब्रह्मर्षिः रूप बना।

[६|१|१२९] अप्लुतवदुपस्थिते - अनार्ष ` इति ` शब्द के परे प्लुत को अप्लुतवद् भाव हो जाता है। | सुश्लोका३इति - सुश्लोकेति सुमङ्गला३इति - सुमङ्गलेति।

[६|१|१३०] ई३चाक्रवर्मणस्य - `चाक्रवर्मणऄ आचार्य के मत में अच् के परे ईकारात्मक प्लुट अप्लुतवत् हो जाता है। | अस्तु हीत्यब्रवीत्। चिनु हीदम्। चाक्रवर्मण -ग्रहणात् पक्षे - अस्तु ही३इत्यब्रवीत्। चिनु ही३इदम्।

[६|१|१३१] दिव उत् दिव् के स्थान पर ह्रस्व उकार आदेश। | दिवि कामो यस्य स द्युकामः। द्युमान्। विमलद्यु दिनम्। द्युभ्याम्। द्युभिः।

[६|१|१३२] एतत्तदोः सुलोपोऽकोर-नञ्समासे हलि नञ् समास न हो तो हल् परे होने पर ककाररहित एतद् और तद् के सु का लोप होता है। | सस् + अपि == सउ + अपि == सो + अपि == सोऽपि, इसी प्रकार एषोऽपि।

[६|१|१३३] स्यश्छन्दसि बहुलम् - ` स्यः ` शब्द से सु का छान्दोविषय-प्रयोग में संहिताविषय में बाहुल्येन लोप हो जाता है। | उत स्यः वाजी क्षिपणिं तुरण्यति ग्रीवायां बद्धो अपि कक्ष आसनि। एष स्य ते मधुमाँ इन्द्र सोमः। बहुलवचनात् न च भवति - यत्र स्यो निपतेत्।

[६|१|१३४] सोऽचि लोपे चेत्पादपूरणम् अच् परे होने पर सस् के सु का लोप होने पर ही पाद की पूर्ति होती है। | सेन्दू राजा क्षयति चर्षणीनम्, सुषधीरनुरुध्यसे। सैष दशरथी रामः, सैष राजा युधिष्ठिरः। पादशब्देनेह सामान्येन ऋक्पादः श्लोकपादश्चोभौ गृह्मेते।

[६|१|१३५] सुट्कात् पूर्वः - यहाँ से उत्तरवर्त्ती सूत्रों में `पारस्करप्रभृतीनि च संज्ञायामऄ सूत्र तक सुट् एवम् कात्वपूर्वः (क से पूर्व होता है) का अधिकार समझना चाहिए। | वक्ष्यति (६_१_१३२) संस्कर्त्ता, संस्कर्त्तुम्, संस्कर्त्तव्यम्।

[६|१|१३६] अडभ्यासव्यवायेऽपि| - अट् तथा अभ्यास के व्यवधान होने पर क से पूर्व सुट् का आगम।

[६|१|१३७] संपरिभ्यां करोतौ भूषणे - सम् और परि के बाद भूषण (सजाना) अर्थ में वर्तमान कृ धातु के ककार के पूर्व सुँट् आता है। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में सम् पूर्वक कृ (सजाना) धातु से तिप्, उ-प्रत्यय और गुण आदि होकर सम् करोति रूप बनता है। यहाँ सम् के बाद सजाने के अर्थ में कृ धातु का प्रयोग हुआ है। अतः प्रकृत सूत्र से करोति (कृ) के ककार से पूर्व सुट् (स्) होकर सम् स् करोति ==> संस्करोति रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार परि के बाद सजाने के अर्थ में कृ धातु का प्रयोग होने पर परिष्करोति रूप बनता है।

[६|१|१३८] समवाये च - सम् और परि के बाद समूह (इकट्ठा होना) अर्थ में वर्तमान कृ धातु के ककार के पूर्व सुट् आता है। | सम् के बाद समूह अर्थ में प्रयुक्त कृ धातु को सुट् होकर पूर्ववत् लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में संस्करोति रूप बनता है। इसी प्रकार लट् लकार के प्रथमपुरुष-बहुवचन में संस्कुर्वन्ति रूप बनता है।

[६|१|१३९] उपात् प्रतियत्न-वैकृत-वाक्या-ध्याहारेषु - उप के बाद सजान, इकट्ठा होना, प्रतियत्न (गुण-रंग का ग्रहण करना), वैकृत (विकार) और वाक्याध्याहार (जिसकी आकांक्षा हो उस एक-देश को पूरा करना)- इन पाँच अर्थों में वर्तमान कृ धातु के ककार के पूर्व सुट् आता है। | उपस्कृता कन्या (सजी हुई कन्या) ==> उप् कृता में कृ धातु सजाने के अर्थ में होने के कारण ककार के पूर्व सुट् होकर उपस्कृता रूप बनता है।

[६|१|१४०] किरतौ लवने - उप् के बाद छेदन कार्य में वर्तमान कॄ धातु के ककार के पूर्व सुट् होता है। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में उप पूर्वक कॄ (छेदना) धातु से तिप्, श और ॠकार के स्थान पर इर् होकर उप किरति रूप बनता है। यहाँ उप् के बाद छेदन अर्थ में कॄ धातु आई है, अतः प्रकृत सूत्र से किरति के ककार के पूर्व सुट् (स्) होकर उपस्किरति रूप सिद्ध होता है।

[६|१|१४१] हिंसायां प्रतेश्च - उप और प्रति के बाद हिंसा अर्थ में वर्तमान कॄ धातु के ककार के पूर्व सुट् आता है। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में हिंसा अर्थ में वर्तमान कॄ धातु का उप पूर्वक पूर्ववत उपस्किरति रूप बनता है। इसी प्रकार प्रति पूर्वक प्रतिस्किरति रूप बनेगा।

[६|१|१४२] अपाच्चतुष्पाच्छ्कुनिष्वालेखने - चतुष्पात् जीव तथा शकुनि के द्वारा किए जाने वाला आलेखन के अभिद्येय होने पर अप उपसर्ग से पर्वर्त्ती `किरऄ धातु के ककार से पूर्व सुट् का आगम्। | अपस्किरते वृषभो हृष्टः, अपस्किरते कुक्कुटो भक्ष्यार्थी, अपस्किरते श्वा आश्रयार्थी।

[६|१|१४३] कुस्तुम्बुरुणिजातिः| - जाति के वाच्य होने पर `कुस्तुम्बुरुणि ` शब्द से (कु + तुम्बरुणि) सुँट् का निपातन।

[६|१|१४४] अपरस्पराःक्रियासातत्ये - क्रियासातत्य के गम्यमान होने पर ` अपरस्पराः` शब्द में सुट् का निपातन। | अपरे च परे च = अपरस्पराः सार्था गच्छन्ति (सार्थ लोग निरन्तर गमन करते हैं)।

[६|१|१४५] गोस्पदं सेवितासेवित-प्रमाणेषु - सेवित, असेवित तथा प्रमाण (लम्बाई-चौड़ाई, क्षेत्रफल) अर्थों में `गोष्पदऄ शब्द को सिद्धि के लिए सुट् का निपातन। | गावः पद्यन्ते यस्मिन् देशे स गोभिः सेवितो देशो गोष्पदो देशः। असेविते - अगोष्पदान्यरण्यानि। प्रमाणे - गोष्पदमात्रं क्षेत्रम्, गोष्पदपूरं वृष्टो देवः।

[६|१|१४६] आस्पदं प्रतिष्ठायाम् - प्रतिष्ठा अर्थ में ` आसपद ` शब्द की स्थिति के लिए सुट् का निपातन। | आस्पदमनेन लब्धम् (प्राणधारणार्थ इसने स्थान प्राप्त कर लिया है)।

[६|१|१४७] आश्चर्यमनित्ये - अद् भुतत्व के द्योतन के निर्मित ` आश्चर्य ` शब्द की सिद्धि के लिए सुट् का निपातन। | आश्चर्यं यदि स भुञ्जीत, आश्चर्यं यदि सोऽधीयीत।

[६|१|१४८] वर्चस्केऽवस्करः - अन्नमल के अर्थ में ` अवस्करऄ शब्द की सिद्धि के लिए सुट् का निपातन। | अवस्करोऽन्नमलम्।

[६|१|१४९] अपस्करो रथाङ्गम् - रथाङ्ग अर्थ में ` अपस्करऄ शब्द की सिद्धि के लिए सुट् का निपातन। | अपस्करो रथावयवः।

[६|१|१५०] विष्किरः शकुनौ वा - शकुनि (पक्षी) अर्थ में `विष्करऄ तथा विकिरऄ शब्दों का निपातन। | विष्किरः, विकिरः।

[६|१|१५१] ह्रस्वाच्चन्द्रोत्तरपदे मन्त्रे - चन्द्र शब्द के उत्तरपद होने पर ह्रस्व से पर सुट् का आगम। | सुश्चन्द्रो युष्मान्

[६|१|१५२] प्रतिष्कशश्च कशेः - प्रतिपूर्वक `कशऄ धातु से कप्रत्यय होने पर उपसर्ग से उत्तर में सुँट् के आगम का निपातन। | ग्राममद्य प्रवेक्ष्यामि भव में त्वं प्रतिष्कशः।

[६|१|१५३] प्रस्कण्व-हरिश्चन्द्रावृषी - ऋषिविशेष के अर्थ में `प्रप्कणवऄ तथा `हरिश्चन्द्रऄ शब्दों की सिद्धि के लिए (प्र + कण्व, हरि + चन्द्र) सुँट् का निपातन। | प्रस्कण्व ऋषिः, हरिश्चन्द्रः ऋषिः।

[६|१|१५४] मस्करमस्करिणौ वेणुपरिव्राजकयोः| - वेणु के अर्थ में `मस्करऄ शब्द तथा परिव्राजक के अर्थ में `मस्करिन् ` शब्द की सिद्धि के लिए क्रमशः मकर तथा मस्कर शब्दों से सुट् तथा सुट् एवम् इनि प्रत्यय का निपातन।

[६|१|१५५] कास्तीराजस्तुन्दे नगरे - नगर के अर्थ में `कास्तीरऄ तथा ` अजस्तुन्द्रऄ शब्दों का निपातन। | कास्तीरं नाम नगरम्। अजस्तुन्दं नाम नगरम्।

[६|१|१५६] कारस्कारो वृक्षः - वृक्ष अर्थ में `कारस्करऄ शब्द का निपातन। | कार + कृ + ट == कारस्करः

[६|१|१५७] पारस्कर प्रभृतीनि च संज्ञायाम् - संज्ञा के रूप में `पारस्करऄ आदि शब्दों का निपातन। | पारस्करो देशः, कारस्करो वृक्षः, रथं पाति (रक्षति) रथस्पा नदी।

[६|१|१५८] अनुदात्तं पदमेकवर्जम् - जहाँ उदात्त अथवा स्वरित स्वर का विधान किया जाएगा वहाँ एक विधीयमान (उदात्त आदि) स्वर को छोड़कर उस पद के सभी स्वर अनुदात्त हो जाते हैं। | गो॒पा॒यति॑, धू॒पा॒यति॑। गो॒पा॒यतं॑ नः क॒र्त्त॒व्य॑म्।

[६|१|१५९] कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः - `कर्षऄ धातु (भ्वादिगणस्थ `कृषऄ धातु) तथा अकारवान् घञन्त शब्दों का अन्तोदात्त। | क॒र्षः। आकारवतो घञन्तस्य - पा॒कः, त्या॒गः, रा॒गः, दा॒यः, धा॒यः।

[६|१|१६०] उञ्छादीनां च - उञ्छ आदि शब्दों का भी अन्त्यस्वर उदात्त हो जाता है। | उ॒ञ्छः, म्ले॒च्छः, ज॒ञ्जः, ज॒ल्पः, ज॒पः, व्य॒धः।

[६|१|१६१] अनुदात्तस्य च यत्रोदात्तलोपः - जिस अनुदात्त शब्द के परे होने से पूर्व उदात्त का लोप होता है वह शब्द आद्युदात्त हो जाता है। | कु॒मा॒री, प॒थः, प॒था, प॒थे, कु॒मु॒द्वान्, न॒ड्वान्, वे॒त॒स्वान्, दे॒वीं वाचम्।

[६|१|१६२] धातोः - धातु के अन्त्य स्वर उदात्त हो जाता है। | पच॑ति, पठ॑ति, ऊ॒र्णोति॑, गो॒पा॒यतं नः, असि॑ स॒त्यः॑।

[६|१|१६३] चित्तः - चित्प्रत्यय विशिष्ट शब्द का अन्त्य स्वर उदात्त हो जाता है। | भ॒ङ्गु॒रम्, भा॒सु॒रम्, कु॒ण्डि॒नाः।

[६|१|१६४] तद्धितस्य - चित् तद्धित का भी अन्त्य स्वर उदात्त हो जाता है। | कौ॒ञ्जा॒य॒नाः, भौ॒ञ्जाय॒नाः।

[६|१|१६५] कितः - कित् तद्धित का भी अन्त्य स्वर उदात्त हो जाता है। | ना॒डा॒य॒नः, चा॒रा॒य॒णः, आ॒क्षि॒कः, शा॒ला॒कि॒कः।

[६|१|१६६] तिसृभ्यो जसः - तिसृ शब्द से परे जस् ( अस्) प्रत्यय का अन्त्य उदात्त हो जाता है। | ति॒स्त्रिस्तिष्ठन्ति, ति॒स्त्रो द्यावः सवितुः।

[६|१|१६७] चतुरः शसि - शश् प्रत्यय के परे होने पर चतुर् शब्द अन्तोदात्त हो जाता है। | च॒तुरः॑ पश्यः।

[६|१|१६८] सावेकाचस्तृतीयादि-र्विभक्तिः - सप्तमीबहुवचन `सुप् ` विभक्ति के परे एकाच् होने वाले शब्द से परे तृतीयादि विभक्तियाँ उदात्त हो जाती हैं। | वा॒चा, वा॒ग्भ्याम्, वा॒ग्भिः, वाग्भ्यः। याता, याद्भ्याम्, याद्भिः। वा॒चा वि॑रूपनित्यया।

[६|१|१६९] अन्तोदात्तादुत्तरपदादन्यतरस्यामनित्यसमासे - अनित्यसमास में जो उत्तरपद एकाच् तथा अन्तोदात्त होता है उससे परे तृतीया आदि विभक्तियाँ विकल्प से उदात्त होती हैं। | प॒र॒म॒वा॒चा, प॒र॒म॒वा॒चे। प॒र॒म॒त्व॒चा, प॒र॒म॒त्व॒चे पक्षे सामासस्यान्तोदात्तत्वमेव।

[६|१|१७०] अञ्चेश्छ्न्दस्यसर्वनामस्थानम् - ` अञ्च् ` धातुव्युत्पन्न शब्द से परे असर्वनामस्थान विभक्तियाँ छन्दोविषय में उदात्त हो जाती हैं। | इन्द्रो द॒धी॒चो अस्थभिः।

[६|१|१७१] ऊडिदं-पदाद्यप्-पुम्रै-द्युभ्यः - ऊठ् विशिष्ट, इदम्, पद् आदि आदेश, अप्, पुभ्, रै तथा दिव् शब्दों से परे असर्वनामस्थान विभक्तियाँ उदात्त हो जाती हैं। | ऊठ् - प्र॒ष्ठौ॒हः, प्र॒ष्ठौ॒हा। इदम् - आ॒भ्याम्, ए॒भिर्नृभिर्नृतमः। पदादिः - निप॒दश्चतुरो जहि, या दतो धावति।

[६|१|१७२] अष्टनो दीर्घात् - दीर्घान्त अष्टन् शब्द से उत्तरवर्ती असर्वनामस्थान विभक्तियाँ उदात्त हो जाती हैं। | अ॒ष्टा॒भिर्दशभिः, अष्टाभ्यः।

[६|१|१७३] शतुरनुमो नद्यजादी - नुमागमहित शतृप्रत्ययान्त शब्दों से परे नदीसंज्ञक प्रत्यय तथा अजादि असर्वनामस्थान विभक्तियाँ उदात्त हो जाती हैं। | नदी - तु॒द॒तो नु॒द॒ती, लु॒न॒ती। पु॒न॒ती, अच्छा॒ रव॑ प्रथ॒मा जा॑न॒ती। अजाद्यसर्वनाम् स्थानविभक्तिः - तु॒द॒ता, नु॒द॒ता, लु॒न॒ता, पु॒न॒ता तु॒द॒ते, तु॒द॒तः।

[६|१|१७४] उदात्तयणो हल्पूर्वात् - हल् हो पूर्व में जिसके ऐसे उदात्तस्थानिक यण् से उत्तरवर्ती नदीसंज्ञक प्रत्यय तथा अजादि असर्वनामस्थान विभक्तियाँ उदात्त हो जाती हैं। | क॒र्त्री, ह॒र्त्री, चो॒द॒यि॒त्री सू॒नृता॑नाम्, ए॒षा ने॒त्री, क॒र्त्रा, ह॒र्त्रा, प्र॒ल॒वि॒त्रे।

[६|१|१७५] नोङ्धात्वोः - ऊङ् प्रत्ययस्थ तथा धातुस्थ उदात्त के स्थान में विहित हल्पूर्वक यण् से परे अजादि असर्वनामस्थान विभक्तियाँ उदात्त नहीं होती हैं। | ऊङ् ब्र॒ह्म॒ब॒न्ध्वा॑, ब्र॒ह्म॒ब॒न्ध्वे, वी॒र॒ब॒न्ध्वे॑। धातुयणः - स॒कृ॒ल्ल्वा॑, स॒कृ॒ल्ल्वे॑, सेत्पृश्निः सु॒भ्वे॑३।

[६|१|१७६] ह्रस्व-नुड्भ्यां मतुप् - अन्तोदात्त ह्रस्वान्त तथा नुँट् (आगम) से परे मतुप् प्रत्यय उदात्त होता है। | अ॒ग्नि॒मान्, वा॒यु॒मान्, क॒र्तृ॒मान्, ह॒र्तृ॒मान्। नुटः - अ॒क्ष॒ण्वता॑, शी॒र्ष॒ण्वता॑, अ॒क्ष॒ण्वन्तः कर्ण॑वन्तः॑ सखायः।

[६|१|१७७] नामन्यतरस्याम् - मतुप् प्रत्यय के परे रहते जो ह्रस्वास्त अन्तोदात्त शब्द उससे परे `नाम् ` विकल्प से उदात्त हो जाता है। | अ॒ग्नी॒नाम्, पक्षे - अ॒ग्नीना॑म्। वा॒यू॒नाम्, वा॒यूना॑म्। चेत॑न्ती सुमती॒नाम्।

[६|१|१७८] ङयाश्छन्दसि बहुलम् - डयन्त से परे `नाम् ` छन्दोविषय में बाहुल्येन उदात्त हो जाता है। | दे॒व॒से॒नाना॑मभिभञ्जती॒नाम्, ब॒ह्णी॒नां पि॒ता। न च भवति बहुलवचनात् - स॒ङ्ग॒मे च॑ न॒दीना॒म्।

[६|१|१७९] षट्-त्रि-चतुर्भ्यो हलादिः - षट् संज्ञक तथा त्रि एवम् चतुर् शब्दों से परे हलादि विभक्तियाँ उदात्त हो जाती हैं। | षट्संज्ञकेभ्यः - षड्भिः, षड्भ्यः, षण्णाम्, प॒ञ्चा॒नाम्, स॒प्ता॒नाम्, आष॒ड्भिर्हूयमानः। त्रि - त्रि॒भिः, त्रि॒भ्यः, त्र॒या॒णाम्, त्रि॒भिष्ट्वं दे॑व। चतुर् - च॒तु॒र्णाम्।

[६|१|१८०] झल्युपोत्तमम् - षट् संज्ञक त्रि तथा चतुर् शब्दों से परे झलादि विभक्तियाँ हो अन्त में जिनके ऐसे पदों के परे रहते उपोत्तम ( अन्त्य स्वर से अव्यवहितपूर्ववर्ती स्वर) उदात्त हो जाता है। | प॒ञ्चभि॒स्तपस्तपति। स॒प्तभिः॑ परान् जयति। ति॒सृभि॑श्च वहसे त्रिंशता। अ॒ध्व॒र्युभिः॑ प॒ञ्चभिः॑।

[६|१|१८१] विभाषा भाषायाम् - षट् संज्ञक त्रि तथा चतुर् शब्दों से परे झलादि विभक्तियों से विशिष्ट पदों के परे रहते उपोत्तम स्वर भाषा में विकल्प से उदात्त होता है। | प॒ञ्चभिः॑, प॒ञ्चभिः, स॒प्तभिः॑, स॒प्तभिः। स॒प्तभिः॑, स॒प्तभिः। च॒त॒सृभिः॑, च॒त॒सृभिः।

[६|१|१८२] न गोश्वन्साववर्ण-राडङ्-क्रुङ्-कृद्भयः - गो श्वन्, प्रथमैकबवन सुविभक्ति के परे रहते अवर्णान्त राट्, अङ्, कुङ् तथा कृत् शब्दों से उपर्युक्त स्वरविधान नहीं होता। | गवा॑, गवे॑, गोभ्या॑म्, गवौ श॒तां, सु॒गुना॑, सु॒गुने॑, सु॒गुभ्या॑म्।

[६|१|१८३] दिवो झल् - दिव् शब्द से परे झलादि विभक्तियाँ उदात्त नहीं होती। | द्युभ्या॑म्, द्युभिः॑, द्युभि॑र॒क्तुभिः॑।

[६|१|१८४] नृ चान्यतरस्याम् - नृ शब्द से परे झलादि विभक्तियाँ भी विकल्प से उदात्त नहीं होती। | नृभिः॑। पक्षे - नृभिः। नृभ्यः॑, नृ॒भ्यः, नृभ्या॑म्, नृ॒भ्याम्, नृभि॑र्येमा॒नः।

[६|१|१८५] तित्स्वरितम् - तित् (जिसके तकार की इत्संशा हुई हो) स्वरित हो जाता है। | चि॒की॒र्ष्यम्, जि॒ही॒र्ष्यम्, का॒र्यम्, हा॒र्यम्।

[६|१|१८६] तास्यनुदात्तेन्ङिददुपदेशाल्ल-सार्वधातुकमनुदात्त-मह्न्विङोः - तसिप्रत्यय, अनुदासेत धातु, ह्रु, ङ् तथा इङ् धातुओं से भिन्न ङित् धातु एवम् उपदेश में अकारान्त धातुओं से उत्तरवर्ती लकार स्थानीय सार्वधातुक प्रत्यय अनुदात्त हो जाते हैं। | तासेः - क॒र्त्ता, क॒र्त्तारौ, क॒र्त्तारः॑। अनुदात्तेतः - आस - आस्ते॑, वस - वस्ते॑। ङितः - षूङ् - सूते॑, शीङ् - शेते॑। अदुपदेशात् - तु॒दतः॑, नु॒दतः॑, पच॑तः, पठ॑तः।

[६|१|१८७] आदिः सिचोऽन्यतरस्याम् - सिजन्त का विकल्प से आद्युदात्त हो जाता है। | मा हि कार्ष्टा॑म्, मा हि का॒र्ष्टाम्। मा हि लावि॑ष्टा॒म् मा हि ला॒विष्टा॑म्।

[६|१|१८८] स्वपादि-हिंसामच्यनिटि - ` स्वप् ` आदि तथा `हिंसऄ धातुओं से परे अजादि तथा अनिट् लकार स्थानिक सार्वधातुक प्रत्यय के रहने पर आद्युदात्त हो जाता है। | स्वप॑न्ति॒, स्व॒पन्ति॑। श्वस॑न्ति, श्व॒सन्ति॑। हिंस॑न्ति॒, हिं॒सन्ति॑।

[६|१|१८९] अभ्यस्तानामादिः - अभ्यस्त-संज्ञक धातुओं से परे अजादि तथा अनिट् लकार स्थानिक सार्वधातुक प्रत्यय के होने पर आदि अद्युदात्त हो जाता है। | दद॑ति, दध॑ति, जक्ष॑ति, जक्ष॑तु, जाग्र॑ति जाग्र॑तु। ये दद॑ति प्रि॒या वसु॑।

[६|१|१९०] अनुदात्ते च - जिसमें उदात्त स्वर विद्यमान न हो ऐसे लकार स्थानिक सार्वधातुक प्रत्यय के परे रहते अभ्यस्तसंज्ञक धातुओं का आदि स्वर उदात्त हो जाता है। | ददा॑ति, जहा॑ति, दधा॑ति, जिही॑ते, मिमी॑ते। दधा॑सि रत्नं द्रवि॑णं च दा॒शुषे॑

[६|१|१९१] सर्वस्य सुपि - सुप् प्रत्यय के परे रहते सर्व शब्द का आदि उदात्त हो जाता है। | सर्वः॑, सर्वौह्॑, सर्वे॑। सर्वे॑ नन्दन्ति य॒शसा॑।

[६|१|१९२] भीह्रीभृहुमदजनधन-दरिद्रा-जागरां-प्रत्ययात्-पूर्वं-पिति - `भी `, `ह्री `, `भ्रि `, `हु`, `मद् `, `जन् `, `धनऄ, `दरिद्रा` तथा `जागृ ` धातुओं के अभ्यस्त का प्रत्यय से पूर्व उदात्त होता है यदि पर में पित् लकारस्थानिक सार्वधातुक हो। | बि॒भेति॑। जि॒ह्रेरि॑। बि॒भर्ति॑। जु॒होति॑, यो॑ऽग्निहो॒त्रं जु॒होति॑। म॒मत्तु॑ नः॒ परि॑ज्मा। ज॒जन॑दिन्द्रम्। द॒धन॑त्, द॒रि॒द्राति॑।

[६|१|१९३] लिति - इत्संज्ञक लकार विशिष्ट प्रत्यय के परे रहते प्रत्यय से पूर्व उदात्त होता है। | चि॒कीर्ष॑कः, जि॒हीर्ष॑कः।

[६|१|१९४] आदिर्णमुल्यन्यतरस्याम् - णमुल् प्रत्यय के परे रहते आद्युदात्तत्व वैकल्पिक होता है। | लोलू॑यंलोलूयम् पक्षे - लो॒लूयं॑लोलूयम्।

[६|१|१९५] अचःकर्तृयकि - औपदेशिक अजन्त धातुओं का आदि उदात्त होता है विकल्प से यदि पर में कर्त्रर्थ यक् प्रत्यय हो। | लूय॑ते केदारः स्वयमेव। लू॒यते॑ केदारः स्वयमेव। स्तीयते॒ केदारः स्वयमेव, स्ती॒र्यते॑ केदारः स्वयमेव।

[६|१|१९६] थलि च सेटीडन्तो वा - इड् विशिष्ट थल् के विषय में इट्, आदि स्वर तथा अन्त स्वर विकल्प से उदात्त होते हैं। | लु॒ल॒विथ॑, लुल॑विथ, लु॒ल॒वि॒थ, लु॒लवि॑थ, पर्यायेण चत्वारः स्वराः।

[६|१|१९७] ञ्नित्यादिर्नित्यम् - ञित् तथा नित् प्रत्ययों के परे रहते आदि स्वर नित्य उदात्त हो जाते हैं। | गार्ग्यः॑, वात्स्यः॑। नित् - वासु॑देवकः, अर्जु॑नकः, यस्मि॒न्विश्वा॑नि पौंस्या॑, सु॒ते द॑धिष्व न॒श्चनः॑।

[६|१|१९८] आमन्त्रितस्य च - आमन्त्रितसंज्ञक का आदि स्वर उदात्त हो जाते हैं। | देव॑दत्त ! देव॑दत्तौ ! देवदत्ताः ।

[६|१|१९९] पथि-मथोः सर्वनामस्थाने - सर्वनामस्थान के परे रहते पथिन् तथा मथिन् शब्दों का आदि उदात्त हो जाता है। | पन्थाः॑, पन्था॑नौ, पन्था॑नः, अयं पन्थाः॑। मन्थाः॑, मन्था॑नौ, मन्था॑नः।

[६|१|२००] अन्तश्च तवै युगपत् - तवैप्रत्ययान्त शब्द के आदि तथा अन्त स्वर साथ-साथ उदात्त हो जाते हैं। | कर्त्त॒वै, हर्त्त॒वै।

[६|१|२०१] क्षयो निवासे - निवासार्थक क्षय शब्द का आदि उदात्त होता है। | क्षियन्ति निवसत्यस्मिन् = क्षयः॑, स्वे क्षयेः॑, स्वे क्षये॑ शुचिव्रतः।

[६|१|२०२] जयः करणम् - करण्वाचक (करणव्युत्पन्न) जय शब्द का आदि उदात्त हो जाता है। | जयन्ति तेनेति जयः॑ = अश्वादिः।

[६|१|२०३] वृषादीनां च - वृष आदि शब्दों का आदि उदात्त हो जाता है। | वृषः॑, जनः॑, ज्वरः॑, ग्रहः॑, हयः॑, गयः॑, वाजे॑भिर्वा॒जिनी॑वती।

[६|१|२०४] संज्ञायामुपमानम् - संज्ञावृत्ती उपमान शब्द का आद्युदात्त होता है। | चञ्चा॑, वद्ध्रि॑का, खर॑कुटी, दासी॑।

[६|१|२०५] निष्ठाचद्व्यजनात् - संज्ञाविषय में निष्ठान्त द्वयच् शब्द का आदि स्वर उदात्त हो जाता है यदि वह आदि स्वर अकारभिन्न हो। | दत्तः॑, गुप्तः॑, बुद्धः॑।

[६|१|२०६] शुष्कधृष्टौ - शुष्क तथा धृष्ट शब्दों का आदि स्वर उदात्त होता है। | शुष्कः॑, अत॒सं न शुष्क॑म्। धृष्टः॑।

[६|१|२०७] आशितःकर्ता - कर्त्त-वाचक आशित शब्द का आदि उदात्त होता है। | आशि॑तो देवदत्तः। कृषन्नित्फाल॒ आशि॑तम्।

[६|१|२०८] रिक्तेविभाषा - रिक्त शब्द का आदि स्वर विकल्प से उदात्त होता है। | रिक्तः॑, रि॒क्तः।

[६|१|२०९] जुष्टार्पितेचच्छन्दसि - छन्दोविषय में जुष्ट तथा अर्पित शब्दों का आदि स्वर विकल्प से उदात्त होता है। | जुष्टः॑, जु॒ष्टः। अर्पि॑तः, अ॒र्पि॒तः।

[६|१|२१०] नित्यंमन्त्रे - परन्तु मन्त्रविषयप्रयोग में जुष्ट तथा अर्पित शब्दों का आद्युदात्तत्व नित्यविहित है। | जुष्ट॑ देवानाम्, अर्पि॑तं पितॄणाम्।

[६|१|२११] युष्मदस्मदोर्ङसि - ङस् प्रत्यय के परे रहते युष्मत् तथा अस्मत् शब्दों का आदि स्वर उदात्त होता है। | तव॑ स्वम्, मम॑ स्वम्। महिषस्तव॑ नो मम॑।

[६|१|२१२] ङयि च - ङेविभक्ति के परे रहते भी युष्मत् तथा अस्मत् शब्दों का आदि स्वर उदात्त होता है। | तुभ्य॑म्, मह्म॑म्। तुभ्य॑ हिन्वा॒नः। मह्मं॒ वातः॑ पवताम्।

[६|१|२१३] यतोऽनावः - यत्प्रत्ययान्त द्वयच् शब्द का आदि स्वर उदात्त हो जाता है यदि वह यत्प्रत्यय नौशब्द से विहित न हो। | चेय॑म्, जेय॑म्, यु॒ञ्जन्त्य॑स्य काम्या॑।

[६|१|२१४] ईडवन्दवृशंसदुहांण्यतः - ण्यत् प्रत्ययान्त ईड, वन्द, वृ, शंस तथा दुह् धातुओं का आदि स्वर उदात्त हो जाता है। | ईड्य॑म्, ईड्यो॒ नूत॑नैरु॒त। वन्द्य॑म्, आजुह्वान् ईड्यो॒ वन्द्य॑श्च। वार्यम्, श्रेष्ठ नो धेहि॒ वार्यंम्। वार्यंम् श्रेष्ठ नो धेहि॒ वार्यंम्। शंस्य॑म् उ॒क्थमिन्द्रा॑य शंस्यम्। दोह्मा॑ घेनुः।

[६|१|२१५] विभाषा वेण्विन्धानयोः - वेणु तथा इन्धान शब्दों का आदि स्वर विकल्प से उदात्त होता है। | वेणुः॑, वे॒णुः। इन्धा॑नः, इ॒न्धानः॑, इन्धा॑नो अ॒ग्निम्।

[६|१|२१६] त्याग-राग-हास-कुह-श्वठ-क्रथानाम् - त्याग, राग, हास, कुह, श्वठ एवम् क्रथ शब्दों का आदि स्वर विकल्प से उदात्त होता है। | त्यागः॑, त्या॒गः। रागः॑, रा॒गः। हासः॑, हा॒सः।

[६|१|२१७] उपोत्तमं रिति - रित् प्रत्ययान्त शब्द का उपोत्तम स्वर उदात्त होता है। | क॒र॒णीय॑म्, ह॒र॒णीय॑म्, प॒टु॒जा॒तीयः६, मृ॒दु॒जा॒तीयः॑।

[६|१|२१८] चङ्यन्यतरस्याम् - चङन्त शब्दों में उपोत्तम स्वर का उदात्तत्व वैकल्पिक है। | मा हि ची॒कर॑ताम्, मा हि ची॒क॒रता॑म्।

[६|१|२१९] मतोः पूर्वमात् संज्ञायां स्त्रियाम् - मतुबन्त शब्द का आदि स्वर उदात्त होता है यदि वह मतुबन्त शब्द स्त्रीत्वविशिष्ट पदार्थ की संज्ञा हो। | उ॒दु॒म्ब॒राव॑ती, पु॒ष्क॒राव॑ती, वी॒र॒णाव॑ती, श॒राव॑ती।

[६|१|२२०] अन्तोऽवत्याः - स्त्रीत्वविशिष्टसंज्ञाविषय में अवतीशब्दान्त का अन्त्य स्वर उदात्त होता है। | अ॒जि॒र॒व॒ती, ख॒दि॒र॒व॒ती, हं॒स॒व॒ती, का॒र॒ण्ड॒व॒ती।

[६|१|२२१] ईवत्याः - ईवतीशब्दान्त शब्द का भी अन्त्य स्वर उदात्त होता है, यदि समुदाय से स्त्रीत्वविशिष्ट संज्ञा की प्रातिपत्ति हो | अ॒ही॒व॒ती, कृ॒षी॒व॒ती, मु॒नी॒व॒ती।

[६|१|२२२] चौ - लुप्तङकारक ` अञ्चऄ धातु के परे पूर्व शब्द का अन्त्य स्वर उदात्त हो जाता है। | द॒धीचः॑ पश्य, दधीचा॑, दधीचे॑। म॒धूचः॑, म॒धूचा॑, म॒धूचे॑।

[६|१|२२३] समासस्य - समास का अन्त्य स्वर उदात्त होता है। | रा॒ज॒पृषत्, ब्राह्म॒ण॒क॒म्ब॒लः, क॒न्या॒स्व॒नः, प॒ट॒ह॒श॒ब्दः, न॒दी॒घो॒षः, रा॒ज॒पृ॒षत्, ब्राह्म॒ण॒स॒मित्

[६|२|१] बहुव्रीहौ प्रकृत्या पूर्वपदम् - बहुव्रीहि समास में पूर्वपद का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | कार्ष्णो॑त्तरासङ्गाः, यप॑वलजः, ब्र॒ह्म॒चा॒रिप॑रिस्कन्दः, स्नात॑कपुत्रः, अ॒ध्याप॑कपुत्रः, क्षेत्रि॑यपुत्रः, म॒नु॒ष्य॑नाथः, चि॒त्रश्र॑वस्तमः।

[६|२|२] तत्पुरुषे तुल्यार्थ-तृतीया-सप्तम्यु-पमानाव्यय-द्वितीया-कृत्याः - तत्पुरुष समास में तुल्यार्थक, तृतीयान्त, सप्तम्यन्त, उपमानवाचक, अव्यय, द्वितीयान्त तथा कृत्यप्रत्ययान्त शब्द यदि पूर्वपद हो तो उनका स्वर समास होने पर भी पूर्वपद ( असमासावस्थासदृश) बना रहता है। | तुल्यार्थ - तुल्य॑श्वेतः, तुल्य॑लोहितः, तुल्य॑महान्। सदृक्छ्वे॑तः, स॒दृग्लो॑हितः, सदृग्म॑हान्, स॒दृश॑श्वेतः, स॒दृश॒लोहितः, सदृश॑महान्।

[६|२|३] वर्णो वर्णेष्वनेते - यदि तत्पुरुष समास में पूर्व तथा उत्तर पद वर्णवाचक हो और उत्तरपद एत-शब्दभिन्न हो तो पूर्वपद का स्वर पूर्ववत् बना रहता है। | कृ॒ष्णसा॒रङ्गः, लोहि॑तसारङ्गः कृ॒ष्णक॑ल्माषः, लोहि॑तकल्माषः।

[६|२|४] गाध-लवणयोः प्रमाणे - प्रमाणवाचक तत्पुरुष समास में यदि उत्तरपद के रूप में गाध अथवा लवण शब्द आए तो पूर्वपद का स्वर पूर्ववत् बना रहता है। | शम्बगाधमुदकम्, अ॒रित्र॑गाधमुदकम्, गोल॑वणम्, अश्व॑लवणम्।

[६|२|५] दायाद्यं दायादे - दयादशब्दोत्तरपदक तत्पुरुष समास में दयाद्यवाचकपूर्वपद का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | वि॒द्यादा॑यादः, धन॑दायादः।

[६|२|६] प्रतिबन्धि चिर-कृच्छ्रयोः - चिरशब्दात्तरपदक तथा कृच्छ्रशब्दोत्तरपदक तत्पुरुष समास में प्रतिबन्धिवाचक पूर्वपद का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | गम॑नचिरम्, गम॑नकृच्छ्रम्। व्या॒हर॑णचिरम्, व्या॒हर॑णकृच्छ्रम्।

[६|२|७] पदेऽपदेशे - व्याजवाचक तत्पुरुष समास में पद शब्द के उत्तरपद रहते पूर्वपद का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | मूत्र॑पदेन प्रस्थितः, उ॒च्चा॒रप॑देन प्रस्थितः।

[६|२|८] निवाते वातत्राणे - वातत्राणवाचक निवात शब्दोत्तरपदक तत्पुरुष समास में पूर्वपद का स्वर यथापूर्व बन रहता है। | कुट्येव निवातं कु॒टीनि॑वातं, श॒मीनि॑वातं, कु॒ड्यनि॑वातम्।

[६|२|९] शारदेऽनार्तवे - ऋतुजातभिन्नार्थक शारद शब्द जिस तत्पुरुष समास में उत्तरपद हो उसके पूर्वपद का स्वर समास में भी पूर्ववत् रहता है। | रज्जु॑शारदमुदकम्, दृषत्शा॑रदाः सक्तवः। शारदशब्दः प्रत्यग्रवाची।

[६|२|१०] अध्वर्यु-कषाययोर्जातौ अध्वर्युत्तरपदक तथा कषायोत्तरपदक जातिवाची तत्पुरुष समास में पूर्वपद का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | प्राच्या॑ध्वर्युः, क॒ठाध्व॑र्युः, का॒ला॒पाध्व॑र्युः। स॒र्पि॒र्म॒ण्डक६षायम्, उ॒मापु॒ष्पक॑षायम्, दौ॒वारि॒कक॑षायम्।

[६|२|११] सदृश प्रतिरूपयोः सादृश्ये - सदृशशब्दोत्तरपदक तथा प्रतिरूपशब्दोत्तरपदक सादृश्यार्थक तत्पुरुष के पूर्वपद का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | मा॒तृस॑दृशः, पि॒तृस॑दृशः। पि॒तृप्र॑तिरूपः, मा॒तृप्र॑तिरूपः।

[६|२|१२] द्विगौ प्रमाणे - द्विगुसमासोत्तरपदक प्रमाणवाची तत्पुरुष समास में पूर्वपद का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | सप्त समाः प्रमाणमस्येति विग्रहे मात्रच् प्रत्ययः, तस्य (५_२_३७) इत्यनेन लुक्।तद्धितार्थे द्विगुः। ततः प्राच्यश्चासौ सप्तसमश्च इति = प्राच्य॑सप्तसमः। कर्मधारयः। गान्धा॑रसप्तसमः।

[६|२|१३] गन्तव्य-पण्यं वाणिजे - वाणिजशब्दोत्तरपदक तत्पुरुष समास में गन्तव्यवाचक तथा पण्यवाचक पूर्वपद का स्वर पूर्ववत् बना रहता है। | म॒द्रवा॑णिजः, का॒श्मीर॑वाणिजः। पण्यगोवा॑णिजः, अश्व॑वाणिजः।

[६|२|१४] मात्रोपज्ञोपक्रमच्छाये-नपुंसके - मात्रोत्तरपदक, उपज्ञोत्तरपदक तथा छायोत्तरपदक नपुंसकपदार्थवाची तत्पुरुष समास में पूर्वपद का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | भि॒क्षामा॑त्रम् न ददाति याचितः, स॒मुद्रमा॑त्रं न सरोऽस्ति किञ्चन उपज्ञा पाणिनोप॑ज्ञमकालकं व्याकरणम्, व्याङ्यु॑पज्ञं दुष्करणम्, आपि॑शल्युपज्ञं गुरुलाघवम्।

[६|२|१५] सुख-प्रिययोर्हिते - सुखशब्दोत्तरपदक तथा प्रियशब्दोत्तरपदक हितार्थवाची तत्पुरुष समास में पूर्वपद का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | गम॑नसुखम्, वच॑नसुखम्, व्या॒हर॑णसुखम्। प्रिय - गम॑नप्रियम् वच॑नप्रियम्, व्या॒हरणप्रियम्।

[६|२|१६] प्रीतौ च - समास के द्वारा प्रीति के गम्यमान होने पर - सुखशब्दोत्तरपदक तथा प्रियशब्दोत्तरपदक तत्पुरुष समास में पूर्वपद का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | ब्रा॒ह्म॒णसु॑खं पायसम्, चा॒त्रप्रि॑योऽनध्यायः, क॒न्या॑प्रियो मृदङ्गः।

[६|२|१७] स्वं स्वामिनि - स्वामिन्-शब्दोत्तपदक तत्पुरुष समास में स्ववाचक पूर्वपद का स्वर पूर्ववत् बना रहता है। | गोस्वा॑मी, अश्व॑स्वामी, धन॑स्वामी।

[६|२|१८] पत्यावैश्वर्ये - पतिशब्दोत्तरपदक ऐश्वर्यवाचक तत्पुरुष समास में पूर्वपद का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | सेना॑पतिः, नर॑पतिः, धा॒न्य६पतिः। दमू॑ना गृहप॑तिर्दमे॑।

[६|२|१९] न भूवाक्चिद्विधिषु - पतिशब्दोत्तरपदक ऐश्वर्यवाचक तत्पुरुष समास में भी पूर्वपद-भू, वाक्, चित् तथा दिधिषू का स्वर यथापूर्व नहीं रहता। | भू॒प॒तिः, वा॒क्प॒तिः, चि॒त्प॒तिः, दि॒धि॒षू॒प॒तिः।

[६|२|२०] वा भुवनम् - पतिशब्दोत्तरपदक ऐश्वर्यवाचक तत्पुरुष समास में पूर्वपदभूत भुवन शब्द का स्वर विकल्प से पूर्ववत् रहता है। | भु॒व॒न॒प॒तिः, भुव॑नपतिः।

[६|२|२१] आशङ्का-बाधनेदीयसु संभावने - आशङ्कशब्दोत्तरपदक, अबाधशब्दोत्तरपदक तथा नेदीयस्शब्दोत्तरपदक सम्भावनार्थक तत्पुरुष समास में पूर्वपद का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | आशङ्क - गम॑नाशङ्क वर्त्तते, वच॑नाशङ्कम्, व्याहर॑णाशङ्कम्। आबाध-गम६नाबाधम्, वच॑नाबाधम्, व्या॒हर॑णाबाधम्, नेदीयस् - गम॑ननेदीयः, वच॑ननेदीयः, व्या॒हर॑णनेदीयः।

[६|२|२२] पूर्वे भूतपूर्वे - पूर्वशब्दोत्तरपदका भूतपूर्वार्थक तत्पुरुष समास में पूर्वपद का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | आढ्यो भूतपूर्वः आ॒द्ग्यपू॑र्वः, द॒श॒नीय॑पूर्वः, द॒श॒नीय॑पूर्वः, सु॒कु॒मा॒रपू॑र्वः।

[६|२|२३] सविध-सनीड-समर्याद-सवेश-सदेशेषु-सामीप्ये - सविधशब्दोत्तरपदक, सनीङशब्दोत्तरपदक, समर्यादशब्दोत्तरपदक, सवेशशब्दोत्तरपदक तथा सदेशशब्दोत्तरपदक सामीप्यार्थक तत्पुरुष समास में पूर्वपद का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | सविध - म॒द्रस॑विधम्, गा॒न्धार॑सविधम्, का॒श्मीर॑सविधम्। सनीड - म॒द्रस॑नीडम्, गा॒न्धार॑सनीडम्, का॒श्मीर॑सनीडम्।

[६|२|२४] विस्पष्टादीनि गुणवचनेषु गुणवचनोत्तरपदक तत्पुरुष समास में विस्पष्ट आदि पूर्वपद का स्वर पूर्ववत् बना रहता है। | विस्पष्टं कटुकमिति विस्प॑ष्टकटुकम्, विचि॑त्रकटुकम्, व्य॑क्तकटुकम्। विस्प॑ष्टलवणम्, विचि॑त्रलवणम्, व्य॑क्तलवणम्।

[६|२|२५] श्रज्यावम कन् पापवत्सु भावे कर्मधारये - श्र, ज्या, अवम्, कन् तथा पापयुक्त शब्दों से व्युत्पन्न शब्दों के उत्तरपद होने पर कर्मधारय समास में भावनावाचक पूर्वपद का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | श्र - गम॑नश्रेष्ठम्, गम॑नश्रेयः। ज्य - वच॑नज्येष्ठम्, वच॑नज्यायः। अवम् - गम॑नावमम्, वच॑नावमम्। कन् - गम॑नकनिष्ठम्, गम॑नकनीयः। पापवत् - गम॑नपापिष्ठम्, गमनपापीयः।

[६|२|२६] कुमारश्च - कर्मधारय समास में पूर्वपद के रूप में प्रयुज्यमान कुमार शब्द का स्वर पूर्ववत् बना रहता है। | कु॒मा॒रश्र॑मणा, कु॒मा॒रकु॑लटा, कु॒मा॒रता॑पसी।

[६|२|२७] आदिःप्रत्येनसि - प्रत्येनस्- शब्दोत्तरपदक कर्मधारय समास में पूर्वपदस्थानीय कुमार शब्द का आदि स्वर उदात्त होता है। | कुमा॑रप्रत्येनाः।

[६|२|२८] पूगेष्वन्यतरस्याम् - पूगवाचक-शब्दोत्तरपदक कर्मधारय समास में पूर्वपदस्थानीय कुमार शब्द का आद्युदात्तत्व विकल्प से होता है। | कुमा॑रचातकाः, कु॒मा॒रचा॑तकाः, कुमा॑रलोहध्वजाः, कु॒मा॒रलो॑हध्वजा।

[६|२|२९] इगन्त-काल-कपाल-भगाल-शरावेषु-द्विगौ - द्विगु समास में यदि उत्तरपद के स्थान में कोई इगन्त, कालवाचक कपाल, भगाल अथवा शराब शब्द हो तो पूर्वपद का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | इगन्तस्य - पञ्चा॑रत्निः, दशारत्निः। काल - पञ्च॑मास्यः, दश॑मास्यः, पञ्च॑वर्षः। कपाल - पञ्च॑कपालः, दश॒कपालः। भगाल - पञ्च॑भगालः, दश॑भगालः। शराव - पञ्च॑शरावः, दश॑शरावः।

[६|२|३०] बह्वन्यतरस्याम् - इगन्त आदि शब्द के उत्तरपद होने पर पूर्वपदस्थानीय बहुशब्द का स्वर द्विगु समास में यथापूर्व बना रहता है। | ब॒ह्ण॑रत्निः, ब॒हुमा॑स्यः, ब॒हु॒मा॒स्यः, ब॒हुक॑पालः, ब॒हु॒क॒पालः, ब॒हुभगालः, ब॒हु॒भ॒गा॒लः, ब॒हुश॑राव, ब॒हु॒श॒रा॒वः।

[६|२|३१] दिष्टि वितस्त्योश्च - दिष्टिशब्दोत्तरपदक तथा वितस्तिशब्दोत्तरपदक द्विगु समास में पूर्वपद का स्वर विकल्प से यथापूर्व बना रहता है। | पञ्च॑दिष्टिः, प॒ञ्च॒दि॒ष्टिः, पञ्च॑वितस्तिः, प॒ञ्च॒वि॒त॒स्तिः।

[६|२|३२] सप्तमी सिद्ध-शुष्क-पक्व-बन्धेष्व-कालात् - सिद्ध, शुष्क, पक्क तथा बन्ध शब्दों के उत्तरपद होने पर कालवाचक भिन्न सप्तम्यन्त पूर्वपद का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | सांकाश्यसि॑द्धः का॒म्पिल्यसि॑द्धः। शुष्क - ऊ॒कशु॑ष्कः, नि॒धन॑शुष्कः, पक्व - कुम्भीप॑क्वः, क॒ल॒शीप॑क्वः, भ्राष्ट्र६पक्वः। बन्ध - च॒क्रब॑न्धः, चार॑कबन्धः।

[६|२|३३] परि-प्रत्युपापा वर्ज्यमानाहोरात्रा वयवेषु - अव्ययीभाव समास में वर्ज्यमानवाचक तथा उत्तरपद दिनांशुवाचक होने पर पूर्वपद स्थानीय परि, प्रति, उप तथा अप शब्दों का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | परि॑त्रिगर्तं वृष्टो देवः, परि॑सौवीरम्, परि॑सार्वसेनि। प्रति - प्रति॑पूर्वाह्णम्, उप॑पूर्वरात्रन्, उपापररात्रम्। अप - अप॑त्रिगर्तं वृष्टो देवः, अप॑सौवीरम्, अप॑सार्वसेनि।

[६|२|३४] राजन्य-बहुवचन-द्वन्द्वेऽन्धक-वृष्णिषु - क्षत्रियवाचक बहुवचनान्त शब्दों से विहित द्वन्द्व समास में यदि अंधकवंश अथवा वृष्णिवंश का अभिधान होता हो तो पूर्वपद का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | श्वा॒फ॒ल्कचै॑त्रकाः, चै॒त्र॒करो॑धकाः, शिनि॑वासुदेवाः।

[६|२|३५] संख्या - द्वन्द्व समास में संख्यावाचक पूर्वपद का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | एकश्च दश च एका॑दश, द्वाद॑ध, त्र॑योद॑श।

[६|२|३६] आचार्योपसर्जनश्चान्तेवासी - आचार्यवाचक शब्द हो अप्रधान जिन शिष्यवाचक शब्दों में उनमें परस्पर द्वन्द्व समास होने पर पूर्वपद का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | आ॒पि॒श॒ल-पा॒णिनीयाः, पा॒णि॒नीय॑रौढ़ीयाः, रौ॒ढ़ीय॑काशकृत्स्त्राः।

[६|२|३७] कार्त-कौजपादयश्च - कार्त्तकौपज आदि द्वन्द्व समास में पूर्वपद का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | का॒र्त्तकौ॑जपौ, साव॑र्णिमाण्डूकेयौ, अ॒व॒न्त्य॑श्मकाः, पैलश्या॑पर्णेयाः।

[६|२|३८] महान् व्रीह्यपराह्ण गृष्टीष्वास-जाबाल-भार-भारत-हैलिहिल-रौरव-प्रवृद्धेषु - ब्रीहि, अपराह्ण, गृष्टि, इष्वास, जवाल, भार, भारत, हैलिहिल, रौरव तथा प्रवृद्ध शब्दों के उत्तरपद के रूप में आने पर पूर्वपदस्थानीय महत् शब्द का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | म॒हाभा॑रतः, म॒हाप॑राह्णः, म॒हागृ॑ष्टिः, म॒हाष्वा॑सः, म॒हाजा॑बालः, म॒हाभा॑रः, म॒हाभा॑रतः, म॒हाहै॑लिहिलः, म॒हारौरवः, म॒हाप्र॑वृद्धः।

[६|२|३९] क्षुल्लकश्च वैश्वदेवे - वैश्वदेव शब्द के उत्तरपद होने पर पूर्वपदभूत क्षुल्लक तथा महत् शब्द का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | क्षु॒ल्ल॒कवै॑श्वदेवम्, म॒हावै॑श्वदेवम्। क्षुधं लातीतिः क्षुल्लः, तस्मादज्ञातादिषु कः। क्षुल्लशब्दः क्षुद्रपर्यायः।

[६|२|४०] उष्ट्रः सादि-वाम्योः - सादि तथा वामि शब्दों के उत्तरपद होने पर पूर्वपदस्थानीय उष्ट्र शब्द का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | उष्ट्र॑सादि, उष्ट्र॑वामिः।

[६|२|४१] गौः साद-सादि-सारथिषु - साद, सादि तथा सारथि शब्दों के उत्तरपदत्व में पूर्वपदभूत गोशब्द का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | गोः + सादः == गोसादः (बैल को सन्ताप देनेवाला), गोः + सादिः == गोसादिः (बैल का सवार), गाः सादयतीति गोसादी (गोद्यातक), गोसारथिः (बैलों का सारथि)

[६|२|४२] कुरुगार्हपत-रिक्तगुर्वसूतजर-त्यश्लीलदृढरूपा-पारेवडवा-तैतिलकद्रू-पण्यकम्बलो-दासी-भाराणां च - कुरुगार्हपत, रिक्तगुरु, असूतजरती, अश्लीलदृढ़रूपा पारेवडवा, तौतिल्कद्रू, पण्यकम्बल तथा दासीभार आदि समस्त शब्दों में पूर्वपद का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | करूणां गार्हपतं कुरुगा॑र्हपतम्। रिक्तो गुरुः रिक्तगुरुः रि॒क्तगुरुः। असूता जरती असू॑तजरती। अश्लीला दृढ़रूपा अश्ली॑लदृढ़रूपा।

[६|२|४३] चतुर्थी तदर्थे - चतुर्थ्यन्त पूर्वपद का स्वर यथापूर्व बना रहता है यदि उत्तरपद के चतुर्थ्यन्त शब्दार्थ निमित्त भूत पदार्थ का अभिधायक शब्द हो। | यूप॑दारु, कु॒ण्ड॒लहि॑रण्यम्, रथ॑दारु, व॒ल्लीहि॑रण्यम्।

[६|२|४४] अर्थे - अर्थ शब्द के उत्तरपद होने पर चतुर्थ्यन्त पूर्वपद का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | मात्रे + इदम् == मात्रर्थम्। इसी प्रकार पित्रर्थम्, देवतार्थम्, अति॑थ्यर्थम्

[६|२|४५] क्ते च - क्तप्रत्ययान्त शब्द के उत्तरपद होने पर चतुर्थ्यन्त पूर्वपद का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | गोहि॑तम्, अश्व॑हितम्, म॒नु॒श्य॑हितम्, गोर॑क्षितम्, अश्व॑रक्षितम्, वनं ता॒प॒सर॑क्षितम्।

[६|२|४६] कर्मधारयेऽनिष्ठा - कर्मधारय समास में क्तप्रत्ययान्त के उत्तरपद होने पर निष्ठाप्रत्ययान्त- भिन्न पूर्वपद का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | श्रेणि॑कृताः, ऊ॒ककृ॑ताः, पू॒गकृ॑ताः, नि॒धन॑कृताः।

[६|२|४७] अहीने द्वितीया - अहीनवाचक समास में क्तप्रत्ययान्त उत्तरपद होने पर द्वितीयान्त पूर्वपद का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | क॑ष्टश्रि॑तः, त्रिश॑कलपततिः, ग्राम॑गतः।

[६|२|४८] तृतीया कर्मणि - कर्मवाचक क्तप्रत्ययान्त के उत्तरपद होने पर तृतीयान्त पूर्वपद का स्वर पूर्ववत् बना रहता है। | अहिह॑तः, व॒ज्रह॑तः, म॒हा॒रा॒जह॑तः, न॒खनि॑र्भिन्ना, दात्र॑लूना।

[६|२|४९] गतिरनन्तरः - कर्मवाचक क्तप्रत्ययान्त के उत्तरपद होने पर अव्यवहित पूर्ववर्ती गतिसंज्ञक पूर्वपद का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | प्रकृ॑तः, प्रहृ॑तः।

[६|२|५०] तादौ च निति कृत्यतौ तुन् प्रत्ययभिन्न तकारादि एवम् नित् (जिसके नकार की इत्संज्ञा हुई हो) कृत् संज्ञक प्रत्यय से विशिष्ट उत्तरपद के होने पर पूर्वपदस्थानीय अव्यवहित पूर्ववर्ती गतिसंज्ञक का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | प्रक॑र्त्ता, प्रक॑र्त्तुम्, प्रकृतिः।

[६|२|५१] तवै चान्तश्च युगपत् - तवै प्रत्यय का अन्त्य स्वर उदात्त हो जाता है तथा पूर्व्पदस्थानीय अव्यवहित पूर्ववर्ती गतिसंज्ञक का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | अन्वे॑त॒वै, परिस्तरित॒वै, परि॑पात॒वै, अ॒भिच॑रितवै।

[६|२|५२] अनिगन्तोऽञ्चतौ वप्रत्यये - इगन्तभिन्न गतिसंज्ञक का स्वर यथापूर्व बना रहता है यदि उसके परे वकार प्रत्ययविशिष्ट अञ्चू धातु हो। | प्राङ्, प्राञ्चौ, प्राञ्चः॑, परा॑ङ्, परा॑ञ्चौ, परा॑ञ्चः।

[६|२|५३] न्यधी च - इगन्त गतिसंज्ञकों में भी नि तथा अधि का स्वर पूर्ववत् बना रहता है उत्तरपद के स्थान में यदि वकार प्रत्ययविशिष्ट अञ्चू धातु हो। | न्य॑ङ्, न्य॑ञ्चौ, न्य॑ञ्चः। अध्य॑ङ्, अध्य॑ञ्चौ, अध्य॑ञ्चः, अधी॑चः, अधी॑चा।

[६|२|५४] ईषदन्यतरस्याम् - पूर्वपदभूत ईषत् शब्द का स्वर विकल्प से पूर्व्वत् बना रहता है। | ई॒ष्त्क॑डारः, ई॒ष॒त्क॒डारः, ई॒षतपि॑ङ्गलः, ई॒षत्पि॒ङ्ग॒लः।

[६|२|५५] हिरण्य-परिमाणं धने - वन शब्द के उत्तरपद होने पर सुवर्ण परिमाणवाचक पूर्वपद का स्वर विकल्प से पूर्ववत् बना रहता है। | द्वे सुबर्णे परिमाणमस्येति द्विसुवर्णम्, द्विसुवर्णमेव + धनं = द्विसु॒व॒र्णध॑नम्, द्वि॒सु॒व॒र्ण॒ध॒नम्।

[६|२|५६] प्रथमोऽचिरोपसंपत्तौ - पूर्वपदस्थानीय प्रथम शब्द का स्वर विकल्प से यथापूर्व बना रहता है यदि समुदाय से अभिनवत्व गम्यमान हो। | प्र॒थ॒मवै॑याकरणः, प्र॒थ॒म॒वै॒या॒क॒र॒णः

[६|२|५७] कतर कतमौ कर्मधारये - पूर्वपदस्थानीय कतर तथा कतम शब्दों का कर्मधारय समास में स्वर पूर्ववत् विकल्प से बना रहता है। | क॒त॒रक॑ठः, क॒त॒र॒क॒ठः, क॒त॒म॒क॒ठः।

[६|२|५८] आर्यो ब्राह्मण-कुमारयोः - ब्राह्मण शब्द तथा कुमार शब्द के उत्तरपद होने पर पूर्वपदस्थानीय आर्य शब्द का पूर्व स्वर विकल्प से सुरक्षित रहता है। | आ॒र्य॑ब्राह्मणः, आ॒र्य॒ब्रा॒ह्म॒णः , आर्य॑कु॒मारः, आ॒र्य॒कु॒मा॒रः

[६|२|५९] राजा च - ब्राह्मण शब्द तथा कुमार शब्द के उत्तरपद होने पर पूर्वपदस्थानीय राजन् शब्द का पूर्वस्वर भी विकल्प से सुरक्षित रहता है। | राज॑ब्राह्मणः, रा॒ज॒ब्रा॒ह्म॒णः, राज॑कुमारः, रा॒ज॒कु॒मा॒रः

[६|२|६०] षष्ठी प्रत्येनसि - प्रत्नेस् शब्दोत्तरपदक षष्ठयन्त राजन् शब्द का पूर्वस्वर भी विकल्प से सुरक्षित रहता है। | राज्ञः॑ प्रत्येनाः, रा॒ज्ञः॒ प्र॒त्ये॒नाः। राज॑प्रत्येनाः, रा॒ज॒प्र॒त्ये॒नाः

[६|२|६१] क्तेनित्यार्थे - नित्यार्थ-समास में क्रप्रत्ययान्तोत्तरपदक पूर्वपद का विकल्प से प्रकृतिस्वर होता है। | नित्य॑प्रहसितः (सदा हँसता हुआ), नि॒त्य॒प्र॒ह॒सि॒तः। स॒त॒तप्र॑हसितः (पूर्ववत्, स॒त॒त॒प्र॒ह॒सि॒तः

[६|२|६२] ग्रामःशिल्पिनि - शिल्पिवाचक शब्दोत्तरपदक ग्रामशब्द का स्वर विकल्प से यथापूर्व बना रहता है। | ग्राम॑नापितः (गाँव का नाई), ग्रा॒म॒ना॒पि॒तः। ग्राम॑कुलालः (गाँव का कुम्हार), ग्रा॒म॒कु॒ला॒लः

[६|२|६३] राजा च प्रशंसायाम् - शिल्पिवाचक शब्दोत्तरपदक राजन् शब्द का स्वर भी विकल्प से प्रशंसा के गम्यमान होने पर यथापूर्व बना रहता है। | राज॑नापितः, रा॒ज॒ना॒पि॒तः। राज॑कुलालः, रा॒ज॒कु॒ला॒लः

[६|२|६४] आदिरुदात्तः - अब अग्रिम सूत्रों में ` आदि उदात्त होता है` इस अर्थ का अधिकार समझना चाहिए। | स्तूपे॑शाणः, मुकु॑टेकार्षापणम्।

[६|२|६५] सप्तमी-हारिणौ धर्म्येऽहरणे - धर्म्यवाचक हरण शब्द से उत्तरपद से रूप में होने पर पूर्वपद स्थानीय सप्तम्यन्त शब्द तथा हरिन् शब्द का आदिस्वर उदात्त हो जाता है। | स्तूपे॑शाणः, मुकु॑टेकार्षापणम्, हले॑द्विपदिका, हले॑त्रिपादिका, दृष॑दिमाषकः। हारिणि - याज्ञि॑काश्वः वैया॑करणहस्ती, मातु॑लाश्वः, पितृ॑व्यगवः।

[६|२|६६] युक्ते च - युक्तवाचक समास में पूर्वपद का आदिस्वर उदात्त हो जाता है। | गोब॑ल्लवः, अश्व॑बल्लवः। गोम॑णिन्दः, अश्व॑मणिन्दः। गोस॑ङ्ख्यः, अश्व॑सङ्ख्यः।

[६|२|६७] विभाषाऽध्यक्षे - अध्यक्ष शब्द के उत्तरपद होने पर पूर्वपद का आदिस्वर विकल्प से उदात्त होता है। | गवा॑ध्यक्षः (गाय का निरीक्षक), ग॒वा॒ध्य॒क्षः। अश्वा॑ध्यक्षः, अ॒श्वा॒ध्य॒क्षः

[६|२|६८] पापं च शिल्पिनि - शिल्पिवाचक शब्दोत्तरपदक पाप शब्द का भी आदि स्वर विकल्प से उदात्त होता है। | पाप॑नापितः, पा॒प॒ना॒पि॒तः। पाप॑कुलालः, पा॒प॒कु॒ला॒लः

[६|२|६९] गोत्रान्तेवासि-माणव-ब्राह्मणेषु क्षेपे - गोत्रवाचक, अन्तेवासिवाचक, मणवाचक तथा ब्राह्मण शब्दों के उत्तरपदत्व में पूर्वपद का आदिस्वर समास से निन्दा गम्यमान होने पर उदात्त हो जाता है। | गोत्र - जङ्घा॑वात्स्यः, भार्या॑सौश्रुतः, वशा॑ब्राह्मकृतेयः। अन्तेवासी- कुमा॑रीदाक्षाः, ओद॑नपाणिनीयाः, घृत॑रौढ़ीयाः, कम्ब॑लचारायणीयाः।

[६|२|७०] अङ्गानि मैरेये - मैरेय शब्द के उत्तरपदत्व में मैरेयाङ्गवाचक पूर्वपद का आदि स्वर उदात्त हो जाता है। | गुड॑मैरेयः, मधु॑मैरेयः।

[६|२|७१] भक्ताख्यास्तदर्थेषु - अन्नवाचक शब्दों के उत्तरपद के रूप में यदि अन्नार्थ (पात्रादि) वाचक शब्द हो तो पूर्वपद का आदि स्वर उदात्त हो जाता है। | भिक्षा॑कंसः (माँड का पात्र), श्राणा॑कंसः (लप्सी का पात्र), भाजीकंसः (माँड का पात्र)।

[६|२|७२] गोबिडालसिंहसैन्धवेषूपमाने - उपमानवाचक गो, बिड़ाल, सिंह तथा सैन्धव शब्दों के उत्तरपद होने पर पूर्वपद का आदि स्वर उदात्त हो जाता है। | धान्यं + गौरिव = धान्यगवः (गाय के समान ऊँची अन्नराशि), इसी प्रकार हिरण्यगवः (गौ के अवयव विशेष के समान सुवर्ण)भिक्षाबिडालः (बिलार की तरह भिक्षा, अर्थात् अति न्यून)।

[६|२|७३] अके जीविकार्थे - जीविकार्थक समास में अक प्रत्ययान्त शब्द के उत्तरपद होने पर पूर्वपद का आदि स्वर उदात्त हो जाता है। | दन्त॑लेखकः, नख॑लेखकः, अव॑स्करशोधकः, रम॑णीयकारकः।

[६|२|७४] प्राचां क्रीडायाम् - प्राच्यदेशवाची की क्रीड़ा के वाचक समास में अकप्रत्ययान्त शब्द के उत्तरपद होने पर पूर्वपद का आदिस्वर उदात्त हो जाता है। | उद्या६लकपुष्पभञ्जिका, वीर॑णपुष्पप्रचायिका, शाल॑भञ्जिका, ताल॑भञ्जिका।

[६|२|७५] अणि नियुक्ते - नित्य युक्तार्थ समास में अण् प्रत्ययान्त के उत्तरपद होने पर पूर्वपद का आदि स्वर उदात्त हो जाता है। | छत्र॑धारः (छत्र धारण करनेवाला), तूणीरधारः (बाण रखने के कोष = इषुधि को धारण करने वाला), कमण्डलुग्राहः (कमण्डलु लेनेवाला)।

[६|२|७६] शिल्पिनि चाकृञः - शिल्पिवाचक समास में अण्-प्रत्ययान्त शब्द के उत्तरपद होने पर पूर्वपद का आदि स्वर उदात्त हो जाता है यदि वह अण् प्रत्यय कृञ् धातु से विहित न हो। | तन्तुवायः (जुलाहा), तुन्नवायः (दर्जी), बालवायः (ऊनी वस्त्र बुननेवाला)

[६|२|७७] संज्ञायां च - संज्ञाविषय में अण्-प्रत्ययान्त शब्द के उत्तरपद होने पर पूर्वपद का आदि स्वर अण् प्रत्यय कृञ् धातु से विहित न होने पर उदात्त हो जाता है। | तन्तुवायो नाम कीटः, बाल॑वायो नाम पर्वतः।

[६|२|७८] गो-तन्ति-यवं पाले - पालशब्दोत्तरपदक गो तन्ति तथा यव शब्दों का आदि स्वर उदात्त हो जाता है। | गोपा॑लः (ग्वाला), तन्तिपालः(राज्य की गायों के बड़े झुण्ड की देखभाल करनेवाला), यव॑पालः (जौं की रखवाली करने वाला)।

[६|२|७९] णिनि - णिन्नन्त शब्द के उत्तरपद होने पर पूर्वपद का आदि स्वर उदात्त हो जाता है। | फल॑हारी, पर्ण॑हारी।

[६|२|८०] उपमानं शब्दार्थ-प्रकृतावेव - उपसर्ग- निरपेक्ष होकर शब्दार्थक (शब्दकर्मक) धातु यदि णिन्नन्त होकर उत्तरपद के रूप में प्रयुक्त हो तो उपमानवाचक पूर्वपद का आदि स्वर उदात्त हो जाता है। | उष्ट्रक्रोशी (ऊँट की तरह बलबलाने वाला), ध्वाङ्क्षरावी (कौवे की तरह काँव - काँव करनेवाला), खरनादी (गधे की तरह रेंकनेवाला)।

[६|२|८१] युक्तारोह्मादयश्च - युक्तारोही आदि समस्त शब्दों का आद्युदात्तत्व हो जाता है। | युक्ता॑रोही, आग॑तरोही, आग६तयोधी।

[६|२|८२] दीर्घ-काश-तुष-भ्राष्ट्र-वटं जे - `जऄ के उत्तरपद होने पर दीर्घान्त, काश, तुष, भ्राष्ट्र तथा वट-ये पूर्वपदस्थानीय शब्द आद्युदात्त हो जाते हैं। | दीर्घान्तम् - कुटीजः (कुटी में उत्पन्न होनेवाला), शमीजः (शमी वृक्ष में उत्पन्न), काशजः (सरकण्डे में उत्पन्न होनेवाला, तुषजः (भूसी में उत्पन्न होनेवाला)

[६|२|८३] अन्त्यात् पूर्वं बह्वचः - `जऄ के उत्तरपद होने पर बह्णच् पूर्वपद का अन्त्य से पूर्व्वर्ती ( उपान्त्य) स्वर उदात्त हो जाता है। | उ॒प॒सर॑जः, म॒न्दुर॑जः, आ॒म॒लकी॑जः।

[६|२|८४] ग्रामेऽनिवसन्तः - ग्राम शब्द के उत्तरपदत्व निवास्यर्थ भिन्नार्थकवाचक पूर्वपद का आदि स्वर उदात्त हो जाता है। | मल्लानां + ग्रामं == मल्लग्रामः। इसी प्रकार वाणिग्ग्रामः। देवस्य + ग्रामः == देवग्रामः।

[६|२|८५] घोषादिषु च - घुष आदि शब्दों के उत्तरपद होने पर पूर्वपद का आदि स्वर उदात्त हो जाता है। | दाक्षि॑घोषः, दाक्षि॑कटः, दाक्षि॑हृदः।

[६|२|८६] छात्र्यादयःशालायाम् शाला शब्द के उत्तरपदत्व में निवास्यर्थक्वाचक पूर्वपद का आदि स्वर उदात्त हो जाता है। | चात्रि॑शाला, पैलि॑शाला, भाण्डि॑शालाः, व्याडि॑शाला, आपि॑शलिशाला।

[६|२|८७] प्रस्थेऽवृद्धमकर्क्यादीनाम् प्रस्थ शब्द के उत्तरपद होने पर ककीं आदि शब्दों से भिन्न अवृद्ध (वृद्धसंज्ञक भिन्न) पूर्वपद का आदि स्वर उदात्त हो जाता है। | इन्द्र॑प्रस्थः, कुण्ड॑प्रस्थः, हृद॑प्रस्थः, सुव॑र्णप्रस्थः।

[६|२|८८] मालादीनां च प्रस्थ शब्द के उत्तरपद होने पर माला आदि शब्दों का आदि स्वर उदात्त हो जाता है। | माला॑प्रस्थः, शाला॑प्रस्थः।

[६|२|८९] अमहन्नवं नगरेऽनुदीचाम् - उदीच्यदेशस्य-भिन्न नगरवाचक नगरशब्द के उत्तरपदत्व में महत् तथा नव शब्दों के अतिरिक्त पूर्वपद का आदि स्वर उदात्त हो जाता है। | सुह्म॑नगरम्, पुड्र॑नगरम्।

[६|२|९०] अर्मे चावर्णं द्वयच्-त्र्यच् - अर्म शब्द के उत्तरपदत्व में द्वयच् तथा त्र्यच् पूर्वपदों के आदि स्वर उदात्त हो जाते हैं। | द्वयच् - दत्ता॑र्मम्। गुप्ता॑र्मम्। त्र्यच् - कुक्कुटार्मम्, वाय॑सार्मम्।

[६|२|९१] न भूताधिक-संजीव-मद्राश्म-कज्जलम् - अर्म शब्द के उत्तरपदत्व होने पर भी पूर्वपदस्थानीय भूत, अधिक संजीव, भद्र, अश्मन् तथा कम्बल शब्दों के आदि स्वर का उदात्त हो जाता है। | भू॒ता॒र्मम्, अ॒धि॒कार्मम्, सं॒जी॒वार्मम्, म॒द्रा॒र्मम्, अ॒श्मा॒र्मम्, क॒ज्ज॒ला॒र्मम्।

[६|२|९२] अन्तः - यहाँ से आगे पूर्वपद के अन्तोदात्तत्व का अधिकार। | वक्ष्यति - स॒र्वश्वे॑तः, स॒र्वकृ॒ष्णः।

[६|२|९३] सर्व गुणकार्त्स्न्ये - गुणकार्त्स्न्थ अर्थ में वर्त्तमान सर्व शब्द से पूर्वपद होने पर उसका अन्त्य स्वर उदात्त हो जाता है। | स२र्वश्वे॑तः (सारा सफेद), स॒र्वकृ॑ष्णः, स॒र्वम॑हान् (सर्वश्रेष्ठ)

[६|२|९४] संज्ञायां गिरि-निकाययोः - संज्ञा विषय में गिरि तथा निकाय के उत्तरपद होने पर पूर्वपद का अन्त्य स्वर उदात्त हो जाता है। | अ!ञ्ज॒नागि॑रिः, भ॒ञ्ज॒नागि॑रिः। निकाये - शा॒पि॒ण्डि, नि॑कायः, मौ॒ण्डिनि॑कायः, चिखिल्लिनि॑कायः।

[६|२|९५] कुमार्यां वयसि - आयु के गम्यमान होने पर कुमारी-शब्दोत्तरपदक पूर्वपद का अन्त्य स्वर उदात्त हो जाता है। | वृद्धा चासौ कुमारी च = वृ॒द्धकु॑मारी, जरती चासौ कुमारी च == ज॒रत्कु॑मारी।

[६|२|९६] उदकेऽकेवले - मिश्रणवाचक समास में उदकशब्दोत्तरपदक पूर्वपद का अन्त्य स्वर उदात्त हो जाता है। | गुडमिश्रमुदकं = गु॒डोद॑कम्, गु॒डो॑दकम्। ति॒लोद॑कम्, ति॒लो॑दकम्।

[६|२|९७] द्विगौ क्रतौ - क्रतुवाचक समास में द्विगुसमासोत्तरपदक पूर्वपद का अन्त्य स्वर उदात्त हो जाता है। | गर्गाणां त्रिरात्रः = ग॒र्गत्रि॑रात्रः, च॒र॒कत्रि!रात्रः, कु॒सु॒र॒वि॒न्दस॑प्तरात्रः।

[६|२|९८] सभायां नपुंसके - समासशब्दोत्तरपदक नपुंसकलिङ्गवृर्ती समास में पूर्वपद का अन्त्य स्वर उदात्त हो जाता है। | गो॒पा॒लस॑भम्, प॒शु॒पा॒लस॑भम्, प॒शु॒पालस॑भम्, स्त्रीसंभम्। दा॒सीस॑भम्।

[६|२|९९] पुरे प्राचाम् - पुरशब्दोत्तरपदक प्राग्देशाभिधायी समास में पूर्वपद का अन्त्यस्वर उदात्त हो जाता है। | ल॒ला॒टपु॑रम्, का॒ञ्चीपु॑रम्, शि॒व॒दत्तपु॑रम्, का॒र्णिपुरम॑, ना॒र्मपु॑रम्।

[६|२|१००] अरिष्ट-गौड-पूर्वे च - पुरशब्दोत्तरपदक प्राग्देशभिधायी समास में पूर्वपदस्थानीय अरिष्ट तथा गौड़ शब्द के अन्त्य स्वर उदात्त हो जाते हैं। | अ॒रि॒ष्टपु॑रम्, अरिष्टंश्रितोऽरिष्टशृतः, तुस्य पुरम् = अ॒रि॒ष्ट॒शृतपु॑रम्, गौ॒ड़पु॑रम्, गौडानां भृत्याः गौडभृत्याः, तेषां पुरं = गौ॒ड॒भृ॒त्यपु॑रम्।

[६|२|१०१] न हास्तिन-फलक-मार्देयाः - पुरशब्दोत्तरपदक समास में पूर्वपदस्थानीय हास्तिन्, फलक एवम् मार्देय शब्दों के अन्त्य स्वर उदात्त नहीं होते हैं। | हा॒स्ति॒न॒पु॒रम्, फ॒ल॒क॒पु॒रम्, मा॒र्दे॒य॒पु॒रम्।

[६|२|१०२] कुसूल-कूप-कुम्भ-शालं बिले - बिलशब्दोत्तरपदक समास में पूर्वपदस्थानीय कुसूल, कूप, कुम्भ तथा शाला शब्दों के अन्त्य स्वर उदात्त नहीं होते हैं। | कुसूलबिलम् (कुठले का मुँह)। कूपबिलम् (कुएँ का मुँह), कुम्भबिलम् (घड़े का मुँह)। शालाबिलम् (मकान का द्वार)।

[६|२|१०३] दिक्शब्दा ग्राम-जनपदाख्यान चानराटेषु - ग्रामवाचक, जनपदवाचक, उपाख्यानवाचक एवम् चानराट (शब्दस्वरूप) शब्दों के उत्तरपदत्व में पूर्वपदस्थानीय दिगवाचक शब्दों के रूप में प्रसिद्ध शब्दों के अन्त्य स्वर उदात्त हो जाते हैं। | ग्राम - पू॒र्वेषु॑कामशमी, अ॒प॒रेषु॑कामशमी, पू॒र्वकृ॑ष्णमृत्तिका, अ॒प॒रकृ॑ष्णमृत्तिका। जनपद - पू॒र्वप॑ञ्चालाः, अ॒प॒रप॑ञ्चालाः।

[६|२|१०४] आचार्योपसर्जनश्चान्तेवासिनि - आचार्यवाचकशब्दोपसर्जन अन्तेवासिवाचक शब्दोत्तरपदक समास में पूर्वपदस्थानीय दिगवाचक शब्दों के रूप में प्रसिद्ध शब्दों के अन्त्य स्वर उदात्त हो जाते हैं। | पू॒र्वपा॑णिनीयाः, अ॒प॒रपा॑णिनीयाः, पू॒र्वका॑शकृत्स्त्राः, अ॒प॒रका॑शकृत्स्त्राः।

[६|२|१०५] उत्तरपदवृद्धौ सर्वं च - ` उत्तरपदस्य चऄ इस अधिकार में पठित वृद्धि सूत्र के लक्ष्य शब्दों के उत्तरपदत्य में पूर्वपदस्थानीय सर्व शब्द तथा दिग्वाचक शब्दों के रूप में प्रसिद्ध शब्दों के शब्दों के अन्त्य स्वर उदात्त हो जाते हैं। | सर्व - स॒र्वपा॑ञ्चालकः। दिक्शब्दाः - पू॒र्वपा॑ञ्चालकः, उ॒त्त॒रपा॑ञ्चालकः।

[६|२|१०६] बहुव्रीहौ विश्वं संज्ञायाम् - संज्ञाविषय में बहुव्रीहि समाससंस्थित पूर्वपदस्थानीय विश्व शब्द का अन्त्य स्वर उदात्त हो जाते हैं। | वि॒श्वदे॑वः, वि॒श्वयशाः, वि॒श्वम॑हान्, वि॒श्वक॑र्मा वि॒श्वदे॑वः।

[६|२|१०७] उदराश्वेषुषु - उदरशब्दोत्तरपदक, अश्वशब्दोत्तरपदक तथा इषुशब्दोत्तरपदक बहुव्रीहि समास में पूर्वपदों के अन्त्य स्वर उदात्त हो जाते हैं। | वृकोदरः = भेड़िये के समान है पेट जिसका, यह पाण्डव भीमसेन की संज्ञा है), हर्यश्वः (हरणशील शीघ्रगामी अश्व हैं जिसके, यह इन्द्र की संज्ञा है)। सुवर्णपंखेषु (सुवर्णमयपुंख परवाले बाण हैं जिसके)।

[६|२|१०८] क्षेपे - उदरशब्दोत्तरपदक, अश्वशब्दोत्तरपदक तथा इषुशब्दोत्तरपदक बहुव्रीहि समास के संज्ञावाचक होने पर समास से निन्दा गम्यमान होने पर पूर्वपदों के अन्त्य स्वर उदात्त हो जाते हैं। | कुण्डोदरः (कुण्ड के समान है पेट जिसका), कटुकाश्वः (चपल है अश्व जिसका), स्पन्दिताश्वः (स्पन्दनशील = थोड़ी धीमी गति से चलने वाला अश्व है जिसका)

[६|२|१०९] नदी बन्धुनि - बन्धुशब्दोत्तरपदक बहुव्रीहि समास के नदीसंज्ञक पूर्वपद का अन्त्यस्वर उदात्त हो जाता है। | गार्गीबन्धुः (गार्गी है बन्धु जिसकी), वात्सीबन्धुः।

[६|२|११०] निष्ठोपसर्गपूर्वमन्यतरस्याम् - बहिव्रीहि समास में उपसर्गविशिष्ट निष्ठा प्रत्ययान्त पूर्वपद का अन्त्य स्वर विकल्प से उदात्त होता है। | प्र॒धौ॒तमु॑खः, प्र॒धौ॒त॒मु॒खः, प्रधौ॑त॒मु॒खः॒। प्र॒क्षा॒लि॒तमु॑खः, प्र॒क्षा॒लि॒त॒मु॒खः, प्रक्षा॑लि॒त॒मु॒खः

[६|२|१११] उत्तरपदादिः - इसके बाद उत्तरपद के आदि स्वर के उदात्तत्व का अधिकार। | वक्ष्यति (६_२_११२) - शु॒क्ल॒कर्णः॑, कृ॒ष्ण॒कर्णः॑।

[६|२|११२] कर्णो वर्ण-लक्षणात् - बहुव्रीहि समास में वर्णवाचक तथा लक्षणवाचक शब्दों से परवर्ती कर्णशब्दात्मक उत्तरपद का आदि स्वर उदात्त हो जाता है। | शुक्लकर्णः (सफेद हैं कान जिसके), कृष्णकर्णः। दात्राकर्णः (दराँतीसे चिन्हित कानवाला कोई पशु) शङ्कूकर्णः।

[६|२|११३] संज्ञौपम्ययोश्च - संज्ञा तथा औपम्य अर्थों में वर्तमान बहुव्रीहि समास के कर्णशब्दस्वरूप उत्तरपद का आदि स्वर उदात्त हो जाता है। | संज्ञायाम् - कु॒ञ्चि॒कर्णः॑, म॒णि॒कर्णः॑। औपम्ये - गोकर्णौ इव कर्णो यस्य = गोकर्णः॑, ख॒र॒कर्णः॑।

[६|२|११४] कण्ठ-पृष्ठ-ग्रीवा-जङ्घं च - संज्ञा और औपम्यार्थक बहुव्रीहि समासों से उत्तरपदस्थानीय कण्ठ, पृष्ठ, ग्रीवा तथा जङ्घा शब्दों के आदि स्वर उदात्त हो जाते हैं। | कण्ठः संज्ञायाम् - शितिकण्ठः॑, नी॒ल॒कण्ठः॑। औपम्ये - खरकण्ठ इव कण्ठो यस्य स ख॒र॒कण्ठः॑, उष्ट्रकण्ठः॑।

[६|२|११५] शृङ्ग-मवस्थायां च - अवस्थार्थक, संज्ञार्थक तथा औपम्यार्थक बहुव्रीहि समासों से उत्तरपदस्थानीय श्रङ्ग शब्द का आदि स्वर उदात्त हो जाता है। | उद्गते शृङ्गे यस्य स उ॒द्ग॒त॒ शृङ्गे६। द्वे अंगुली प्रमाणमनयोः ते द्वयङ्गुले, द्वयङ्गुले शृङ्गे यस्य स द्वय॒न्॒गु॒ल॒शृङ्ग॑, त्र्य॒न्॒गुल॒शृङ्ग॑।

[६|२|११६] नञो-जर-मर-मित्र-मृताः - नञ्पूर्वपदक जरशब्दोत्तरपदक, मरशब्दोत्तरपदक, मित्रशब्दोत्तरपदक तथा मृतशब्दोत्तरपदक बहुव्रीहि समास में उत्तरपद के आदि स्वर उदात्त हो जाते हैं। | न विद्यते जरः यस्य स अ॒जरः॑, अ॒मरः॑, अ॒मित्रः॑, अ॒मृतः॑।

[६|२|११७] सोर्मनसी अलोमोषसी - सुशब्दपूर्वपदक बहुव्रीहि समास में उत्तरपदस्थानीय लोमन्-शब्दभिन्न मन्नन्त शब्दों तथा उषस् शब्दातिरिक्त असन्त शब्दों के आदि स्वर उदात्त हो जाते हैं। | मन्नन्तम् - सु॒कर्म्मा॑, सु॒धर्मा॑, सु॒प्रथि॑माः सुकर्मा॑णः सु॒रुचः॑, वक्षदनिमा॒नः सु॒वह्मा॑सन्तम् - सु॒पयाः॑ सुयशाः॑, सुस्त्रोताः॑, शि॒वा, प॒शुभ्यः॑ सु॒मनाः, सुवर्चाः।

[६|२|११८] क्रत्वादयश्च सुपूर्वपदक बहुव्रीहि समास में उत्तरपदस्थानीय क्रतु आदि शब्दों के आदि स्वर उदात्त हो जाते हैं। | सु॒क्रतुः॑, सु॒दृशी॑कः।

[६|२|११९] आद्युदात्तं द्वयच्छन्दसि - यदि उत्तरपद द्वयच् तथा आद्युदात्त हो तो सु-शब्दपूर्वपदक बहुव्रीहि समास में भी वह छान्दोविषय में आद्युदात्त ही बना रहता है। | स्वश्वा॑स्त्वा सु॒रथा॑ मर्ज्जयेम।

[६|२|१२०] वीर-वीर्यौ च - सुःशब्दोत्तरवर्ती वीर तथा वीर्य शब्दों के आदि स्वर बहुव्रीहि समास में उदात्त हो जाते हैं। | सु॒वीरे॑ण ते। सु॒वीर्य॑स्य॒ पत॑यः स्याम।

[६|२|१२१] कूल-तीर-तूल-मूल-शालाक्ष-सममव्ययीभावे - अव्ययीभावसमास में उत्तरपदस्थानीय कूल, तीर, तूल, मूल, शाला, अक्ष तथा सम शब्दों के आदि स्वर उदात्त हो जाते हैं। | प॒रि॒कूल॑म्, उ॒प॒कूल॑म्। प॒रि॒तीर॑म्, उ॒प॒तीर॑म्। प॒रि॒तूल॑म्, उ॒प॒तूल॑म्। प॒रि॒मूल॑म्, उ॒प॒मूल॑म्।

[६|२|१२२] कंस-मन्थ-शूर्प-पाय्य-काण्डं द्विगौ - द्विगु समास के उत्तरावयव के रूप में प्रयुज्यमान कंस, मन्थ, शर्प पाय्य तथा काण्ड शब्दों के आदि स्वर उदात्त हो जाते हैं। | द्वि॒कंसः॑, त्रिकंसः॑। द्वि॒मन्थः॑, त्रिमन्थः॑ । द्वि॒शर्पः॑, त्रि॒शर्पः॑। द्वि॒पाय्यः॑, त्रिपाय्यः॑। द्वि॒काण्डः॑, त्रिकाण्डः॑।

[६|२|१२३] तत्पुरुषे शालायां-नपुंसके - नपुंसकलिङ्गवर्ती तत्पुरुष समास के उत्तरावयव शालाशब्द का आदि स्वर उदात्त हो जाते हैं। | ब्रा॒ह्म॒ण॒शाल॑म्, क्ष॒त्रि॒य॒शाल॑म्।

[६|२|१२४] कन्था च - नपुंसकत्वविशिष्ट तत्पुरुष समास में उत्तरपदस्थानीय कन्था शब्द का आदि स्वर उदात्त हो जाते हैं। | सौ॒श॒मि॒कन्थ॑म्, आ॒ह्व॒कन्थ॑म्, च॒प्प॒कन्थ॑म्।

[६|२|१२५] आदिश्चिहणादीनाम् - कन्थाशब्दान्त तत्पुरुष में पूर्वपद का आदि स्वर उदात्त हो जाता है। | चिह॑णकन्थम्, मड॑रकन्थम्।

[६|२|१२६] चेल-खेट-कटुक-काण्डं-गर्हायाम् - तत्पुरुष समास में उत्तरपद के रूप में प्रयुज्यमान चेल, खेट, कटुक तथा काण्ड शब्दों के आदि स्वर समास के निन्दा गम्यमान होने पर उदात्त हो जाते हैं। | पुत्रश्चेलमिव= पुत्रचेलम् (कुपुत्र जो फटे वस्त्र के समान दूर करने योग्य हो), भा॒र्या॒चेल॑म्। उपा॒नत्खेटम् (खराब जूता), न॒ग॒र॒खेट॑म्।दधिकटुकम् (कड़वा दही) उ॒द॒श्वि॒ कटु॑म्। भू॒त॒काण्डम्, प्रजाकाण्ड॑म् (कष्टदायक प्रजा)।

[६|२|१२७] चीरमुपमानम् - उपमानार्थक तत्पुरुष समास में उत्तरपदस्थानीय चीर शब्द का आदि स्वर उदात्त हो जाता है। | वस्त्रचीरम् (लम्बे आकार से फाड़ी गई पट्टी के समान कम चौड़ा वस्त्र)। इसी प्रकार पटचीरम्, कम्बलीचीरम्।

[६|२|१२८] पलल-सूप-शाकं-मिश्रे - मिश्रावाचक तत्पुरुष समास में उत्तरपदस्थानीय पलल, सूप तथा शाक शब्दों के आदि स्वर उदात्त हो जाते हैं। | गुडेन मिश्रं पल्लं = गुड॒पल॑लम्, धृ॒त॒पल॑लम्। धृ॒तसूपः॑, मू॒ल॒क॒सूपः॑। धृ॒त॒शाक॑म्, मु॒द्ग॒शाक॑म्।

[६|२|१२९] कूलसूदस्थलकर्षाःसंज्ञायाम् - संज्ञा-विषयक तत्पुरुष समास में उत्तरपदस्थानीय कूल सूद स्थल तथा कर्ष शब्दों के आदि स्वर उदात्त हो जाते हैं। | दा॒क्षि॒कूल॑म्। मा॒ह॒कि॒कूल॑म् दे॒व॒सूद॑म्, भा॒जी॒सूद॑म्। दा॒ण्डा॒य॒न॒स्थली॑, मा॒ह॒कि॒स्थली॑। दा॒क्षि॒कर्षः॑।

[६|२|१३०] अकर्मधारये राज्यम् - कर्मधारय भिन्न तत्पुरुष सामस से उत्तरपदभूत राज्य शब्द का आदि स्वर उदात्त हो जाता है। | ब्रा॒ह्म॒ण॒राज्य॑म्, क्ष॒त्रि॒य॒राज्य॑म्।

[६|२|१३१] वर्ग्यादयश्च - कर्मधारय भिन्न तत्पुरुष सामस से उत्तरपदभूत वर्ग्य आदि शब्दों के आदि स्वर उदात्त हो जाते हैं। | वा॒सु॒दे॒व॒वर्ग्यः॑, वा॒सु॒दे॒व॒पक्ष्यः॑, अ॒र्जु॒न॒वर्ह्यः॑, अ॒र्जु॒न॒पक्ष्यः॑।

[६|२|१३२] पुत्रः पुम्भ्यः - पुम्वाचक शब्द पूर्वपद तत्पुरुष समास में उत्तरावयवभूत पुत्र शब्द का आदि स्वर उदात्त हो जाता है। | कौनटिपुत्रः (कौनटि का पुत्र), दामकपुत्रः (दामक का पुत्र)। माहिषकपुत्रः (माहिष का पुत्र)

[६|२|१३३] नाचार्य-राजर्त्विक्-संयुक्त-ज्ञात्या-ख्येभ्यः - आचार्यार्थक, राजार्थक, ऋत्विगर्थक, स्त्रीसम्बन्धिवाचक तथा ज्ञातिवाचक पुंशब्दोत्तरवर्त्ती पुत्र शब्द का आदि स्वर उदात्त नहीं होता। | आचार्याख्येभ्यः - आ॒चार्यपुत्रः उ॒पाध्या॒ध्या॒य॒पुत्रः, शा॒क॒टा॒य॒न॒पुत्र। राजाख्येभ्यः - रा॒ज॒पु॒त्रः, ई॒श्॒व॒र॒पु॒त्रः, न॒न्द॒पुत्रः। ऋत्विगाख्येभ्यः - ऋ॒त्वि॒क्पु॒त्रः या॒ज॒क॒पु॒त्रः, हो॒तुः पु॒त्रः।

[६|२|१३४] चूर्णादीन्यप्राणिषष्ठ्याः तत्पुरुष समास में प्राणिवाचक भिन्न षष्ठयन्त से परवर्त्ती चूर्ण आदि शब्दों के आदि स्वर उदात्त हो जाते हैं। | मुद्गस्य + चूर्णं == मुदगचूर्णम् (मूँग का आटा), । इसी प्रकार मसूरचूर्णम् (मसूर का आटा)

[६|२|१३५] षट् च काण्डादीनि - प्राणिवाचकभिन्न षष्ठयन्त से उत्तरवर्त्ती काण्ड, चीर, पलल, सूप, शाक तथा कूल शब्दों के आदि स्वर उदात्त हो जाते हैं। | द॒र्भ॒काण्ड॑म्, श॒र॒काण्ड॑म्। द॒र्भ॒चीर॑म्, कु॒श॒चीर॑म्।

[६|२|१३६] कुण्डं वनम् - वनवाचक तत्पुरुषसमास में उत्तरपदस्थानीय कुण्ड शब्द का आदि स्वर उदात्त हो जाता है। | द॒र्भ॒कुण्ड॑म्, श॒र॒कुण्ड॑म्।

[६|२|१३७] प्रकृत्या भगालम् - तत्पुरुष समास में उत्तरपदस्थानीय भगाल तथा तद्वाचक शब्दों का स्वर उदात्त हो जाता है। | कुम्भीभगाल॑म् (घड़े का आधा टुकड़ा), कुम्भीकपालम्, कुम्भीनदालम्।

[६|२|१३८] शितेर्नित्याबह्वज्-बहुव्रीहावभसत् - शितिशब्दपूर्वक बहुव्रीहि समास में दो से अधिक स्वरों में सर्वदा रहित जो उत्तरपद उसका सेअर पूर्ववत् बना रहता है `भसत् ` शब्द को छोड़कर। | शि॒ति॒पादः॑, शि॒त्यंसः॑, शि॒त्योष्ठः॑।

[६|२|१३९] गति-कारकोपपदात्-कृत् - गतिसंज्ञक, कारक तथा उपपद से परवर्त्ती तत्पुरुष समासओत्तरावयवभूत कृदन्त शब्द का स्वर यथापूर्व बना रहता है। | गतेः - प्र॒कार॑कः, प्रहार॑कः, प्र॒कर॑णम्, प्र॒हर॑णम्। कारकात् - इध्यं प्रवृश्च्यते येन स इ॒ध्म॒प्र॒व्रश्च॑नः, प॒ला॒श॒शात॑नः, श्॒म॒श्रु॒कल्प॑नः।

[६|२|१४०] उभेवनस्पत्यादिषु युगपत् - वनस्पति आदि समस्थ शब्दों के पूर्वोत्तरपदों के स्वर के साथ पूर्ववत् ही बने रहते हैं। | वन॒स्पतिः॑, बृहतां + पतिः == बृ॒हस्पतिः॑।

[६|२|१४१] देवताद्वन्द्वे च - देवतावाचक शब्दों में विहित द्वन्द्व समास के पूर्वोत्तर पदों के स्वर एक साथ यथापूर्व बने रहते हैं। | इन्द्रा॒सोमौ, इन्द्रा॒वरु॒णौ, इन्द्रा॒बृहस्पती॑।

[६|२|१४२] नोत्तरपदेऽनुदात्तादावपृथिवी-रुद्र-पूष-मन्थिषु - देवता द्वन्द्व में उत्तरपदस्थानीय पृथिवी, रुद्र, पूषन् तथा मन्थिन् शब्दों से भिन्न अनुदात्तादिस्वर शब्दों के होने पर पूर्वोत्तरपदों का प्रकृतिस्वर एक साथ नहीं होता है। | इ॒न्द्रा॒ग्नीः, इ॒न्द्रा॒वा॒यू।

[६|२|१४३] अन्तः - यहाँ से आगे समास में उत्तरपद के अन्त्यस्वर के उदात्त का अधिकार। | वक्ष्यति (६_२_१४४) - सु॒नी॒थः, अ॒व॒भृ॒थः।

[६|२|१४४] थाथघञ्-क्ताजबित्र-काणाम् - गतिसंज्ञक, कारक तथा उपपद से परवर्त्ती उत्तरपदस्थानीय थकारान्त अथशब्दान्त, क्रप्रत्ययान्त, अचप्रत्ययान्त, अप्प्रत्ययान्त, इत्रप्रत्ययान्त तथा कप्रत्ययान्त शब्दों के अन्त्यस्वर उदात्त हो जाते हैं। | थ - सु॒नी॒थः, अ॒व॒मृ॒थः। अथ - आ॒व॒स॒थः, उ॒प॒व॒स॒थः। घञ् - प्र॒भे॒दः, का॒ष्ठ॒भे॒दः, र॒ज्जुभे॒दः। क्र - वि॒शु॒ष्कः। अच् - प्र॒क्ष॒यः। अप् - प्र॒ल॒वः। इत्र - प्र॒ल॒वि॒त्रम्। क - गो॒वृ॒षः।

[६|२|१४५] सूपमानात् क्तः - सुशब्द तथा उपमानार्थक शब्दों से परवर्त्ती क्रप्रत्ययान्त शब्दों के अन्त्यस्वर उदात्त हो जाता है। | सु॒कृ॒तम्, सु॒भु॒क्तम्, सु॒पी॒तम्, ऋ॒तस्य॒ योनौ॑ सु॒कृतस्य॑। उपमानात् - वृकैरिवावलुप्तम् = वृ॒का॒व॒लु॒प्तम्, श॒श॒प्लु॒तम्।

[६|२|१४६] संज्ञायामनाचितादीनाम् - गतिसंज्ञक कारक तथा उपपद से पर्वर्त्ती उत्तरपद स्थानीय अचितशब्दोतिरिक्त क्रप्रत्ययान्त शब्दों का संज्ञाविषयक समास में अन्त्यस्वर उदात्त हो जाता है। | सं॒भूतो रामारणः, उ॒प॒हू॒तः शाकल्यः, प॒रि॒ज॒ग्धः कौण्डिन्यः। कारकादुपपदाच्च - धनुर्भिः खाता = ध॒नु॒ष्खाता नदी, कु॒द्दा॒ल॒खा॒तं नगरम्, ह॒स्ति॒मृ॒दि॒ता भूमिः।

[६|२|१४७] प्रवृद्धादीनां च - प्रवृद्ध आदि समस्त शब्दों के उत्तरपदस्थानीय क्तान्त शब्दों के अन्त्यस्वर उदात्त हो जाता है। | प्र॒वृ॒द्धं यानम्, प्र॒वृ॒द्धो वृषलः, प्र॒यु॒क्ताः सक्तवः।

[६|२|१४८] कारकाद्-दत्तश्रुतयो-रेवाशिषि - संज्ञाविषयक समास में आशीर्वाद के गम्यमान होने पर कारक से परवर्त्ती क्तप्रत्ययान्त शब्दों में केवल दत्त तथा श्रुत शब्दों के अन्त्यस्वर उदात्त हो जाता है। | देवा एनं देयासुः - प्रार्थितैर्देवैर्दत्तः = दे॒व॒द॒त्तः। विष्णुरेनं श्रूयाद् == वि॒ष्णु॒श्रु॒तः।

[६|२|१४९] इत्थंभूतेन कृतमिति च - ` इस प्रकार के व्यक्ति से किया गया है`- इस अर्थ में विहित समास में क्तप्रत्ययान्त उत्तरपद का अन्त्यस्वर उदात्त हो जाता है। | सु॒प्त॒प्र॒ल॒पि॒तम्, उ॒न्म॒त्त॒प्र॒ल॒पि॒तम्, प्र॒म॒त्त॒गी॒तम्, वि॒प॒न्न॒श्रु॒तम्।

[६|२|१५०] अनो भाव-कर्मवचनः - भावविहित तथा कर्मविहित अन् प्रत्यय से युक्त कारकोत्तरवर्त्ती क्तप्रत्ययान्त उत्तरपद का अन्त्य स्वर उदात्त हो जाता है। | ओदनभोजनं सुखम्, पयः पानं सुखं, चन्दनप्रियङ्गुकालेपनं सुखम्। कर्मवचन् - राजभोजनाः शालयः, राजाच्छा॒द॒ना॒निवासांसि।

[६|२|१५१] मन्-क्तिन्-व्याख्यान-शयनासन-स्थान-याजकादि-क्रीताः - उत्तरपदस्थानीय कारकोत्तरवर्त्ती, मन्नन्त, क्तिन्नन्त, व्याख्यान, शयन, आसन, स्थान, याजक आदि तथा क्रीत शब्दों के अन्त्यस्वर उदात्त हो जाते हैं। | मन् - रथस्य वर्त्म = र॒थ॒व॒र्त्म, श॒क॒ट॒व॒र्त्म। क्तिन् - पा॒णिनि॒कृ॒तिः, आ॒पि॒श॒लि॒कृ!तिः। व्याख्यान् - ऋ॒ग॒य॒न॒व्या॒ख्या॒नम्, छन्दोव्या॒ख्या॒नम्।

[६|२|१५२] सप्तम्याः पुण्यम् - सप्तम्यन्त से परवर्त्ती उत्तरपदस्थानीय पुण्य शब्द का अन्त्य स्वर उदात्त हो जाता है। | अश्ययने + पुण्यम् == अध्ययनपुण्यम्, वेदे पुण्यम् = वेदपुण्यम्।

[६|२|१५३] ऊनार्थ-कलहं तृतीयायाः - उत्तरपदस्थानीय ऊनार्थक तथा कलह शब्दों के अन्त्य स्वर उदात्त हो जाते हैं। | मा॒षो॒नम्, का॒र्षा॒प॒णो॒नम्, मा॒ष॒वि॒क॒लम्, का॒र्षा॒प॒ण॒वि॒क॒लम्। अ॒सि॒क॒ल॒हः, वा॒क्क॒ल॒हः।

[६|२|१५४] मिश्रं चानुपसर्गमसंधौ - सन्धि के गम्यमान होने पर तृतीयान्तोत्तरवर्ती उत्तरपदस्थानापन्न निरूपसर्गक मिश्र शब्द का अन्त्य स्वर उदात्त होता है। | गु॒ड॒मि॒श्राः, ति॒ल॒मि॒श्राः, स॒र्पि॒र्मि॒श्राः।

[६|२|१५५] नञो गुणप्रतिषेधे संपाद्यर्ह-हिता-लमर्थास्तद्धिताः - सम्पाद्यर्थक, अर्हाथक, हितार्थक तथा अलमर्थक तद्धित प्रत्ययों से युक्त शब्दों के अन्त्यस्वर उदात्त हो जाते हैं यदि वे शब्द गुणप्रतिषेधार्थक नञ् से उत्तरवर्त्ती हों। | सम्पादि - कर्णवेष्टकाभ्यां सम्पादि मुखं = कार्णवेष्टकिकम्, न कार्णवेष्टकिकम् = अ॒का॒र्ण॒वे॒ष्ट॒कि॒कम्। अर्ह - छेदमर्हति चैदिकः, न छैदिकः = अ॒च्छै॒दि॒कः।

[६|२|१५६] य-यतोश्चातदर्थे - तादर्थ्यार्थक भिन्न य एवम् यत् - इन दो तद्धित प्रत्ययों से विशिष्ट शब्दों के अन्त्य स्वर उदात्त हो जाते हैं यदि वे शब्द गुण-प्रतिशोधार्थक नञ् से परवर्त्ती है। | य - पाशानां समूहः पाश्या, न पाश्या == अपाश्या, अतृण्या। यत् - दन्तेषु भवं दन्त्यं, न दन्त्यम् = अ॒द॒न्त्यम्, अ॒क॒र्ण्यम्।

[६|२|१५७] अच्कावशक्तौ - अशक्ति के समुदाय-गम्य होने पर अच् प्रत्ययान्त तथा कप्रत्ययान्त उत्तरपदों के अन्त्य स्वर उदात्त हो जाते हैं। | अ॒प॒चः, अ॒ज॒यः। कः - अ॒वि॒क्षि॒पः, अ॒वि॒लि॒खः।

[६|२|१५८] आक्रोशे च - आक्रोश के समुदायगम्य होने पर नञ् से उत्तरवर्ती अच्प्रत्ययान्त तथा कप्रत्ययान्त उत्तरपदों के अन्त्य स्वर उदात्त हो जाते हैं। | अ॒पचोऽयं जाल्मः, अ॒प॒ठोऽयं जाल्मः। कः - अ॒वि॒क्षि॒पः, अ॒वि॒लि॒खः।

[६|२|१५९] संज्ञायाम् - आक्रोश के समुदायगम्य होने पर नञ् से उत्तरवर्ती संज्ञावाचक उत्तरपद का अन्त्य स्वर उदात्त हो जाता है। | अ॒दे॒व॒द॒त्तः, अ॒य॒ज्ञ॒द॒त्तः, अ॒वि॒ष्णु॒मि॒त्रः।

[६|२|१६०] कृत्योकेष्णुच्-चार्वादयश्च - नञ् से उत्तरवर्त्ती कृत्तप्रत्ययान्त, उकप्रत्ययान्त, इष्णुप्रत्ययान्त तथा चारु आदि उत्तरपदों के अन्त्य स्वर उदात्त हो जाते हैं। | कृत्य - अ॒क॒र्त्त॒व्यम्, अ॒क॒र॒णी॒यम्। उक - अ॒ना॒गा॒मु॒कम्, अ॒न॒प॒ला॒षुकम्। इष्णुच् - अ॒न॒ल॒ङ्क॒रि॒ष्णुः। चार्वादयः - अ॒चारुः, अ॒सा॒धुः, अ॒यौ॒धि॒कः।

[६|२|१६१] विभाषा तृन्नन्न-तीक्ष्ण-शुचिषु - नञ् से उत्तरवर्त्ती उत्तरपदस्थानीय तृत्प्रत्ययान्त, अन्न, तीक्ष्ण तथा शुचि शब्दों के अन्त्य स्वर विकल्प से उदात्त होते हैं। | अ॒क॒र्त्ता, अक॑ेता। अ॒न॒न्नम्, अन॑न्नम्। अ॒ती॒क्ष्णम्, अती॑क्ष्णम्।

[६|२|१६२] बहुव्रीहाविद-मेतत्तद्भयः प्रथम-पूरणयोः क्रियागणने - बहुव्रीहि समास में इदम्, एतत्, तथा तत् से परवर्त्ती प्रथम शब्द तथा क्रीया की गणना में वर्तमान पूरण प्रत्यय से विशिष्ट शब्दों के अन्त्य स्वर उदात्त हो जाते हैं। | इदं प्रथं गमनं भोजनं वा यस्य सः = इदंप्रथमः। इ॒द॒द्वि॒ती॒यः, इ॒दं॒तृ॒ती॒यः। ए॒त॒त्प्र॒थ॒मः। ए॒त॒त्द्वि॒ती॒यः, ए॒त॒त्तृ॒ती॒यः।

[६|२|१६३] संख्यायाः स्तनः - बहुव्रीहि समास में संख्यावाचक शब्द से परवर्त्ती स्तन शब्द का अन्त्य स्वर उदात्त हो जाता है। | द्वि॒स्त॒ना, त्रि॒स्त॒ना, च॒तु॒ःस्त॒ना।

[६|२|१६४] विभाषा छन्दसि - छान्दोविषय में संख्यावाचक शब्दोत्तरवर्त्ती स्तन शब्द का अन्त्य स्वर का बहुव्रीहि समास में विकल्प से उदात्त होता है। | द्विस्त॑नां कुर्याद् वामदेवः। द्वि॒स्त॒नां करोति द्यावापृथिव्योर्दोहाय, चतुः॑स्तनां करोति पशूनां दोहाय। च॒तुः॒स्त॒नां करोति।

[६|२|१६५] संज्ञायां मित्राजिनयोः - संज्ञाविषय में बहुव्रीहि समास में उत्तरपदस्थानीय मित्र तथा अजिन शब्दों के अन्त्य स्वर उदात्त हो जाते हैं। | दे॒व॒मि॒त्रः, ब्र॒ह्म॒मि॒त्रः। वृ॒का॒जि॒नः, कू॒ला॒जि॒नः, कृ॒ष्णाजि॒नः।

[६|२|१६६] व्यवायिनोऽन्तरम् - बहुव्रीहि समास में व्यवधानवाचक शब्दों के उत्तर में वर्तमान अन्तर शब्द का अन्त्य स्वर उदात्त हो जाता है। | वस्त्रमन्तरं व्यवधायकं यस्य सः == व॒स्त्रा॒न्त॒रः, प॒टा॒न्त॒रः, क॒म्ब॒ला॒न्त॒रः।

[६|२|१६७] मुखं स्वाङ्गम् - बहुव्रीहि समास में स्वाङ्ग्वाचक उत्तरपदस्थानीय मुखशब्द का अन्त्य स्वर उदात्त हो जाता है। | गौ॒र॒मु॒खः, भ॒द्र॒मु॒खः।

[६|२|१६८] नाव्यय-दिक्शब्द-गो-महत्-स्थूल-मुष्टि-पृथु-वत्सेभ्यः - अव्यय दिक्-शब्द, गो-महत्, स्थूल, मुष्टि, पृथु तथा वत्स शब्दों से परवर्त्ती उत्तर-पदस्थानीय मुखशब्द का अन्त्य स्वर बहुव्रीहि समास में उदात्त होता है। | अव्यय - उ॒च्चैर्मु॑खः, नीचैर्मु॑खः। दिक्शब्द - प्राङ्मु॑खः, प्र॒त्यङ्मु॑खः। गोमु॑खः। म॒हामु॑खः।

[६|२|१६९] निष्ठोपमानादन्यतरस्याम् - निष्ठा प्रत्ययान्त तथा उपमानवाचक शब्दों से परवर्त्ती उत्तरपदस्थानीय स्वाङ्गवाचक मुख शब्द का अन्त्य स्वर विकल्प से उदात्त होता है। | प्र॒क्षा॒लि॒त॒मु॒खः, प्र॒क्षा॒लि॒तमु॑खः, प्रक्षा॑लितमुखः। उपमानात् - सिं॒ह॒मु॒खः, सिं॒हमु॑खः।

[६|२|१७०] जाति-काल-सुखादिभ्योऽनाच्छा-दनात्क्तोऽकृत-मित-प्रतिपन्नाः - आच्छादनार्थक भिन्न जातिवाचक, कलावाचक तथा सुख आदि शब्दों से परवर्त्ती क्तप्रत्ययान्त शब्दों में कृत, मित् तथा प्रतिपन्न शब्दों को छोड़कर अन्य के अन्त्य स्वर बहुव्रीहि समास में उदात्त हो जाते हैं। | सारङ्गः (चातकः) जग्धो येन सः = सा॒र॒ङ्ग॒ज॒ग्धः, प॒ला॒ण्डु॒भ॒क्षि॒तः। काल - मासः जातो यस्य सः = मा॒स॒जा॒तः, सं॒वत्स॒र॒जा॒तः, द्वय॒ह॒जा॒तः, त्र्य॒ह॒जा॒तः। सुखादिभ्यः - सुखं जातं यस्य स = सु॒ख॒जा॒तः, दुः॒ख॒जा॒तः, तृ॒प्र॒जा॒तः।

[६|२|१७१] वा जाते - बहुव्रीहि समास में जातिवाचक, कालवाचक तथा सुख आदि शब्दों से परे जात शब्द का अन्त्य स्वर विकल्प से उदात्त होता है। | जाति - द॒न्त॒जा॒तः, दन्त॑जातः। स्त॒न॒जा॒तः, स्तन॑जातः। काल - मा॒स॒जा॒तः, मास॑जातः। सं॒व॒त्स॒र॒जा॒तः, सं॒व॒त्स॒रजा॑तः। सुखादिभ्यः - सु॒ख॒जा॒तः, सु॒ख॒जा॑तः।

[६|२|१७२] नञ्सुभ्याम् - बहुव्रीहि समास में नञ् तथा सु से पहले उत्तरपदों के अन्त्य स्वर उदात्त हो जाते हैं। | न विद्यन्ते यवा यस्मिन् सः = अ॒य॒वो देशः, अ॒व्री॒हिः, अ॒मा॒षः। सु॒य॒वः, सु॒व्री॒हिः, सु॒मा॒षः।

[६|२|१७३] कपि पूर्वम् - नञ् तथा सु के परे उत्तरपद के बाद यदि कप् प्रत्यय हो तो कप् से परे स्वर उदात्त होता है। | अ॒कु॒मा॒रीको॑ देशः, अ॒ब्र॒ह्म॒ब॒न्धूकः॑। सु॒कु॒मा॒रीकः॑, सु॒ब्र॒ह्म॒ब॒न्धूकः॑।

[६|२|१७४] ह्रस्वान्तेऽन्त्यात्पूर्वम् - बहुव्रीहि समास में नञ् तथा सु से परे में यदि कप् प्रत्यय विशिष्ट हृस्वचान्त प्रकृति हो तो प्रकृति के अन्त्य स्वर से पूर्व स्वर उदात्त होता है न कि कप्प्रत्यय विशिष्ट उत्तरपद के अन्त्य स्वर (कप् के अकार) से पूर्व स्वर उदात्त होता है। | अ॒यव॑को देशः, अ॒व्रीहि॑कः, अ॒माष॑कः। सु॒यव॑कः। सु॒व्रीहि॑कः, सु॒माष॑कः।

[६|२|१७५] बहोर्नञ्वदुत्तरपदभूम्नि - उत्तरपदार्थ के बहुत्व के प्रातिपादिक बहु शब्द से परे उत्तरपद का स्वरविधान भी नञ् पूर्वक उत्तरपद के स्वरविधान के समान होता है। | नञ्सुभ्यामित्युक्तं बहोरपि तथा भवति - ब॒हु॒य॒वो देशः, ब॒हु॒व्री॒हिः, ब॒हु॒ति॒लः। कपि पूर्वमित्युक्तं बहोरपि तथा भवति - ब॒हु॒कु॒मा॒रीकः॑, ब॒हु॒ब्र॒ह्म॒ब॒न्धूकः॑।

[६|२|१७६] न गुणादयोऽवयवाः - अवयवार्थक बहुशब्द से पहले गुण् आदि शब्दों के अन्त्य स्वर उदात्त नहीं होते हैं। | ब॒हुगु॑णा रज्जुः, ब॒ह्व॑क्षरं पदम्, ब॒हुच्छ॑न्दो मानम्, ब॒हुसू॑क्तः, ब॒ह्व॑ध्यायः।

[६|२|१७७] उपसर्गात्स्वाङ्गंध्रुवमपर्शु - प्र आदि शब्दों से परे उत्तरपदस्थानीय पर्शुशब्दभिन्न शब्दों के अन्त्य स्वर उदात्त हो जाते हैं यदि समुदाय से स्वाङ्ग की सार्वकालिक एकरूपता की प्रतीति होती है। | सततं यस्य प्रगतं पृष्ठं भवति स प्र॒पृष्ठः, प्रो॒द॒रः, प्र॒ल॒ला॒टः।

[६|२|१७८] वनं समासे - समासमात्र में प्रादिपूर्वक वनशब्द अन्तोदात्त होता है। | प्र॒व॒णे यष्टव्यम्। नि॒र्व॒णे प्राणिधीयते।

[६|२|१७९] अन्तः - अन्तः शब्द से परे वन शब्द भी समासमात्र में अन्तोदात्त होता है। | अन्तर् वनं यस्मिन् == अ॒न्त॒र्व॒णो देशः।

[६|२|१८०] अन्तश्च - प्रादि से पहले अन्तः शब्द भी समासमात्र में अन्तोदात्त होता है। | प्रा॒न्तः, प॒र्य॒न्तः।

[६|२|१८१] न नि-विभ्याम् - परन्तु नि तथा वि से परे अन्त शब्द का अन्तोदात्त नहीं होता है। | न्य॑न्तः, व्य॑न्तः।

[६|२|१८२] परेरभितोभावि-मण्डलम् - किसी एक पदार्थ के दोनो भागों में होने वाले पदार्थ के वाचक शब्द मण्डल शब्द यदि परिशब्द से परे में हो तो अन्तोदात्त हो जाते हैं। | अभितोभावि - प॒रि॒कू॒लम्, प॒रि॒ती॒रम्। मण्डलम् - प॒रि॒म॒ण्ड॒लम्।

[६|२|१८३] प्रादस्वाङ्गं संज्ञायाम् - संज्ञाविषय में प्रशब्द से परे स्वाङ्गवाचकभिन्न शब्द अन्तोदात्त होता है। | प्र॒को॒ष्ठम् (कमरा), प्र॒गृ॒हम् (घर के पीछे का खुला स्थान), प्र॒द्वा॒रम् (घर के सामने का खुला स्थान)।

[६|२|१८४] निरुदकादीनि च - निरुदक आदि समस्त शब्द समूह भी अन्तोदात्त होता है। | निष्क्रान्तमुदकमस्मात्, निष्क्रान्तमुदकादिति वा = नि॒रु॒द॒कम्, नि॒रु॒प॒लम्।

[६|२|१८५] अभेर्मुखम् - अभि से परे मुख शब्द अन्तोदात्त हो जाता है। | अ॒भि॒मु॒खः (सामने)।

[६|२|१८६] अपाच्च - अप शब्द से परे मुख शब्द भी अन्तोदात्त हो जाता है। | अपगतं मुखमस्मात् अपगतं मुखादिति वा अ॒प॒मु॒खः। अ॒प॒मु॒खम्।

[६|२|१८७] स्फिग-पूत-वीणाऽञ्जोऽध्व-कुक्षि-सीर-नाम नाम च - अप शब्द से परे स्फिग, पूत, वीणा, अञ्जस्, अध्वन्, कुक्षि, सीर एवं सीरवाचक अन्यान्य शब्द तथा नामन् शब्द अन्तोदात्त हो जाते हैं। | अ॒प॒स्फिगम्, अ॒प॒पू॒तम्, अ॒प॒वी॒णम्, अ॒पा॒ञ्जः, अ॒पाध्वा, अ॒प॒कु॒क्षिः, अ॒प॒सीरः, अ॒प॒ह॒लम्, अ॒प॒ला॒न्ह॒लम्। अ॒प॒ना॒म्।

[६|२|१८८] अधेरूपरिस्थम् - अधि शब्द से परे उपरिस्थित पदार्थवाचक शब्दों के अन्त्य स्वर उदात्त हो जाते हैं। | अ॒धि॒द॒न्तः, अ॒धि॒क॒र्णः, अ॒धि॒के॒शः।

[६|२|१८९] अनोरप्रधान-कनीयसी - अनु शब्द से परे अप्रधानपदार्थवाचक शब्द तथा कनीयस् शब्द अन्तोदात्त हो जाते हैं। | अनुगतो ज्येष्ठम॒नु॒ज्ये॒ष्ठः, अ॒नु॒म॒ध्य॒मः। कनीयस् - अनुगतः कनीयान॒नु॒क॒नी॒यान्।

[६|२|१९०] पुरुषश्चान्वादिष्टः - अनु शब्द से परे अन्वादिष्टवाचक पुरुष शब्द अन्तोदात्त हो जाता है। | अन्वादिष्टः पुरुषः, अ॒नु॒पु॒रु॒षः।

[६|२|१९१] अतेरकृत्पदे - अति शब्द से परे अकृदन्त शब्द तथा पद शब्द अन्तोदात्त हो जाते हैं। | अङ्कुशमतिक्रान्तः = अ॒त्य॒न्॒कु॒शो नागः, अ॒तिक॒शोऽश्वः। पदशब्दः - अ॒ति॒प॒दा शक्वरी।

[६|२|१९२] नेरनिधाने - समुदाय के अनिधान का प्रतिपत्ति होने पर निशब्द से परे उत्तरपद अन्तोदात्त हो जाते हैं । | निर्गतं मूलं यस्य == नि॒मू॒लम्, न्य॒क्षम्, नि॒तृ॒णम्।

[६|२|१९३] प्रतेरंश्वादयस्तत्पुरुषे - तत्पुरुष समास में प्रतिशब्द से परे अंशु आदि शब्द अन्तोदात्त हो जाते हैं। | प्रतिगतोऽशुः = प्र॒त्यं॒शुः, प्र॒ति॒जनः, प्रतिराजा।

[६|२|१९४] उपाद् द्वयजजिनमगौरादयः - उपशब्द से परे गौरादिगण पठित शब्दभिन्न द्वयच् तथा अजिन शब्द अन्तोदात्त हो जाते हैं। | द्वयच् - उपगातो देवम् == उ॒प॒दे॒वः, उ॒प॒सो॒मः, उ॒पे॒न्द्रः, उ॒प॒हो॒डः। अजिन - उ॒पा॒जि॒नम्।

[६|२|१९५] सोरवक्षेपणे - समुदाय से निन्दा के गम्यमान होने पर सुशब्दपूर्वक उत्तरपद तत्पुरुषसमास में अन्तोदात्त हो जाता है। | इह खल्विदानी सु॒स्थ॒ण्डि॒ले सु॒स्फिगार्भ्या॑ सु॒प्र॒त्य॒व॒सि॒तः।

[६|२|१९६] विभाषोत्पुच्छे - तत्पुरुषसमासान्तर्गत उत्पुच्छ शब्द का अन्तोदात्तत्व वैकल्पिक है। | उत्क्रान्तः पुच्छात् उ॒त्पुच्छः, उत्पु॑च्छः। पुच्छमुदस्यति उत्पुच्छयति उत्पुच्छयतेरच् उत्पुच्छः, अस्यामपि व्युत्पतौ पूर्ववत् स्वरः।

[६|२|१९७] द्वित्रिभ्यां पाद् दन्मूर्धसु बहुव्रीहौ - द्विपूर्वक पादशब्दोत्तरपदक, द्विपूर्वक दन्तशब्दोत्तरपदक, द्विपूर्वक मूर्धनशब्दोत्तरक एवम् त्रिपूर्वक पादशब्दोत्तरपदक, त्रिपूर्वक दन्तशब्दोत्तरपदक तथा त्रिपूर्वक मूर्धन् शब्दोत्तरपदक बहुव्रीहिसमास में उत्तरपदों का वैकल्पिक अन्तोदात्तत्व होता है। | द्वौ पादावस्य द्वि॒पात्, द्विपा॑त्। त्रि॒पात्, त्रिपा॑त्। द्वि॒दन्, द्विद॑न्।त्रि॒दन्, त्रिद॑न्।

[६|२|१९८] सक्थं चाक्रान्तात् - क्रशशब्दान्त भिन्न शब्दों से परे सक्थ शब्द विकल्प से अन्तोदात्त होता है। | गौ॒र॒स॒क्थः, गौ॒रस॑क्थः। श्ल॒क्ष्ण॒स॒क्थः, श्ल॒क्ष्णस॑क्थः

[६|२|१९९] परादिश्छन्दसि बहुलम् - वेद में उत्तरपदभूत परे शब्द का आद्युदात्तत्व भी बाहुल्येन होता है। | अ॒ञ्जि॒सक्थ॑म आलभेत, त्वाष्ट्रौ लो॒म॒श॒स॒क्थौ। बहुलवचनात् पदान्तरे समासान्तरे च भवति - ऋ॒जु॒बाहुः॑ इति बहुव्रीहिः। वा॒क्पतिः॑, चि॒त्पति॑रिति षष्ठीसमासौ।

[६|३|१] अलुगुत्तरपदे - यहाँ से उत्तरसूत्रों में अलुक तथा उत्तरपदे का अधिकार। | (६_३_२) स्तोकान्मुक्तः, अल्पान्मुक्तः

[६|३|२] पञ्चम्याःस्तोकादिभ्यः - उत्तरपद परे होने पर स्तोक, अन्तिक, दूरार्थवाचक और कृच्छ्र- इन चार प्रातिपादिकों के पश्चात् पञ्चमी विभक्ति (ङसि) का लोप नही होता है। | स्तोक ङसि मुक्त सु में उत्तरपद मुक्त सु परे होने के कारण स्तोक के पश्चात् पञ्चमी विभक्ति ङसि का लोप नहीं होता। तब सु का लोप हो स्तोक ङसि मुक्त रूप बनने पर टा-ङसि साम्०में ङसि के स्थान पर आत् आदि होकर स्तोकान्मुक्तः रूप सिद्ध होता है।

[६|३|३] ओजःसहोऽम्भस्तमसस्तृतीयायाः - ओजस्, सहस्, अम्भस् तथा तमस् शब्दों से विहित पञ्चमी का अलुक् उत्तरपद के परे रहने पर होता है। | ओजसाकृतम् सहसाकृतम्। अम्भसाकृतम्। तमसाकृतम्।

[६|३|४] मनसःसंज्ञायाम् - ओजस्, सहस्, अम्भस् तथा तमस् शब्दों से विहित पञ्चमी का अलुक् उत्तरपद के परे रहने पर होता है। | मनसादत्ता, मनसागुप्ता, मनसासंगता।

[६|३|५] आज्ञायिनि च - अज्ञायिन् शब्द के उत्तरपदस्थानीय होने पर भी मनस् शब्द् विहित तृतीया का लुक नहीं होता। | मनसा अज्ञातुं शीलमस्य मनसाज्ञायी।

[६|३|६] आत्मनश्च - पूरण प्रत्ययान्त यदि उत्तरपद हो तो आत्मन् शब्द से विहित तृतीया का भी लुक नहीं होता है। | आत्मनापञ्चमः, आत्मनाषष्ठः।

[६|३|७] वैयाकरणाख्यायां चतुर्थ्याः - वैयाकरण मात्र द्वारा व्यवहृयमाण संज्ञा-शब्द के पूर्वावयव आत्मन् शब्द से विहित चतुर्थी विभक्ति का उत्तरपद के परे लोप नहीं होता। | परस्मैपदम्, परस्मैभाषा। आत्मनेपदम्, आत्मनेभाषा।

[६|३|८] परस्य च - वैयाकरण मात्र प्रसिद्ध संज्ञावाचक शब्द के पूर्वावयव `परऄ शब्द से विहित चतुर्थी का भी उत्तरपद के परे लोप नहीं होता यदि उत्तरपद हलादि हो। | युधिष्ठिरः त्वचिसारः। अदन्तात् - अरण्येतिलकाः, अरण्येमाषकाः, वनेकिंशुकाक`, वनेहरिद्रकाः, वनेबल्वजकाः।

[६|३|९] हलदन्तात् सप्तम्याः संज्ञायाम् - हलन्त (जिसके अन्त में कोई व्यंजन वर्ण हो) और अकारान्त के पश्चात् संज्ञा अर्थ में सप्तमी विभक्ति का लोप नही होता है। | कण्ठ ङि काल सु में बहुव्रीहि समास होता है। तब प्रातिपादिक संज्ञा होने पर सुपो धातु-प्रातिपदिकयोः (२_४_७१) से सुप् - ङि और सु का लोप प्राप्त होता है, किन्तु अकारान्त कण्ठ से परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से सप्तमी विभक्ति ङि के लोप का निषेध हो जाता है। इस स्थिति में केवल सु का लोप हो कएठे काल रूप बनने पर विभक्ति-कार्य हो कण्ठेकालः रूप सिद्ध होता है।

[६|३|१०] कारनाम्नि च प्राचां हलादौ - जिस समस्त शब्द से प्राग्देशीय कार अर्थात वणिगादि द्वारा राजा को कर के रूप में समर्पित धन का अभिधान होता हो उस समास के हलन्त तथा अदन्त पूर्वपदों से विहित उत्तरपद के हलादि होने पर सप्तमी का भी लोप नहीं होता। | स्तूपेशाणः, दृषदिमाषकः, हलेद्विपदिका, हलेत्रिपदिका

[६|३|११] मध्याद् गुरौ - मध्य शब्द से विहित सप्तमी का गुरु शब्द के उत्तरपद होने पर लोप नहीं होता। | मध्येगुरुः

[६|३|१२] अमूर्ध-मस्तकात्-स्वाङ्गादकामे - मूर्धन् तथा मस्तक शब्दों से भिन्न हलन्त तथा अदन्त स्वाङ्गवाचक शब्दों से विहित सप्तमी का काम शब्द भिन्न उत्तरपद के परे लोप नहीं होता। | कण्ठेकालः उरसिलोमा, उदरेमणिः।

[६|३|१३] बन्धे च विभाषा - घञन्त बन्ध शब्द के उत्तरपदस्थान होने पर हलन्त तथा अदन्त शब्दों से विहित सप्तमी का काम शब्द भिन्न उत्तरपद के परे लोप नहीं होता। | हस्तेबन्धः, हस्तबन्धः। चक्रेबन्धः, चक्रबन्धः।

[६|३|१४] तत्पुरुषे कृति बहुलम् - तत्पुरुष समास में कृदन्त उत्तरपद (जिसके अन्त में कोई कृत् प्रत्यय हो) परे होने पर अधिकतर सप्तमी का लोप नहीं होता है। | सरस् ङि ज में उत्तरपद ज कृदन्त है क्योंकि इसके अन्त में कृत् प्रत्यय ड ( अ) हुआ है, अतः उसके परे होने पर प्रकृत सूत्र द्वारा सप्तमी ङि का लोप नही होता है। इस स्थिति में प्रथमा के एकवचन में सरसिजम् रूप सिद्ध होता है। ङि का लोप होने पर सकार को रुत्व, उत्व और गुण आदि होकर सरोजम् रूप बनता है।

[६|३|१५] प्रावृट्-शरत्-काल-दिवां जे - `जऄ शब्द के उत्तरपदत्व में पूर्वपदस्थानीय वर्ष, क्षर, शर तथा वर शब्दों से विहित सप्तमी का विकल्प से लोप नहीं होता। | प्रावृषिजः। शरदिजः। कालेजः। दिविजः।

[६|३|१६] विभाषा वष-क्षर-शर-वरात् - वर्ष, क्षर, शर, वर इत्यतेभ्य उत्तरस्याः सप्तम्या ज उत्तरपदे विभाषाऽलुग्भवति। वर्षेजः, वर्षजः, क्षरेजः, क्षरजः, शरेजः, शरजः, वरेजः, वरजः | वर्षेजः, वर्षजः। क्षरेजः, क्षरजः। शरेजः, शरजः। वरेजः वरजः।

[६|३|१७] ध-काल-तनेषु कालनाम्नः - घसंज्ञक प्रत्ययों, काल शब्द तथा यनप्रत्यय के परे रहते कालवाचक शब्द विहित सप्तमी का विकल्प से लोप नहीं होता। | घ - पूर्वाह्णेतरे, पूर्वाह्णतरे। काल - पूर्वाह्णेकाले, पूर्वाह्णकाले। तन - पूर्वाह्णेतने, पूर्वाह्णतने

[६|३|१८] शय-वास-वासिष्वकालात् - उत्तरपद के स्थान में शय, वास तथा वासिन शब्द के प्रयुक्त होने पर कालवाचक भिन्न शब्द विहित सप्तमी का विकल्प से लोप नहीं होता। | खेशयः, खशयः। ग्रामेवासः, ग्रामवासः। ग्रामेवासी, ग्रामवासी।

[६|३|१९] नेन्सिद्ध-वध्नातिषु च - इन् प्रत्ययान्त शब्द, सिद्ध शब्द तथा बध्न धातु के परे रहने पर सप्तमी का अलुक् नहीं होता। | इन् - स्थण्डिलशायी, स्थण्डिलवर्त्ती। सिद्ध-सांकाश्यसिद्धः, काम्पिल्यसिद्धः। बध्नाति - चक्रबद्धः, चारबद्धः।

[६|३|२०] स्थे च भाषायाम् - भाषाविषयक होने पर स्थ शब्द के उत्तरपदस्थानीय होने पर सप्तमी का अलुक नहीं होता। | शर + मतुप == शर + वत् == शरावत् + ङीप् == शरावती।, वंश + मतुप == वंश + वत् == वंशावत् + ङीप् == वंशावती। इसी प्रकार धूमावती, अहीवती, कपीवती, मणीवती, मुनीवती, शुचीवती।

[६|३|२१] षष्ठ्या आक्रोशे - आक्रोश के समुदायगम्य होने पर उत्तरपद के परे षष्ठी का लोप नहीं होता है। | चौरस्यकुलम्, वृषलस्यकुलम्।

[६|३|२२] पुत्रेऽन्यतरस्याम् - पुत्र शब्द के उत्तरपदत्व में आक्रोश के समासगम्य होने पर पूर्वपदविहित षष्ठी का विकल्प से लोप नही होता। | दस्याः पुत्रः, दासीपुत्रः। वृषल्याः पुत्रः, वृषलीपुत्रः।

[६|३|२३] ऋतो विद्या-योनि-संबन्धेभ्यः - उत्तरपद के ऋकारान्त शब्दों से, विद्याकृतसम्बन्धवाचक तथा योनिकृतसम्बन्धवाचक शब्दों से विहित षष्ठी का लोप नहीं होता है। | विद्यासम्बन्धवाचिभ्यः- होतुरन्तेवासी, होतुःपुत्रः। योनिसम्बन्धवाचिभ्यः - पितुरन्तेवासी, पितुःपुत्रः।

[६|३|२४] विभाषा स्वसृ-पत्योः - उत्तरपद के स्थान में स्वस तथा पतिशब्दों के रहने पर ऋकारान्त विद्या सम्बन्धवाचक तथा योनि सम्बन्धवाचक शब्दों से विहित षष्ठी का लोप नहीं होता। | मातुःष्वसा, मातुःस्वसा, मातृष्वसा। पितुःष्वसा पितुःस्वसा, पितृष्वसा। दुहितुःपतिः, दुहितृपतिः। ननान्दुःपतिः, ननान्दृपतिः।

[६|३|२५] आनङृतो द्वन्द्वे - ऋकारान्त शब्दों में विद्या सम्बन्धवाचक शब्दों में तथा यिनि सम्बन्धवाचक शब्दों में यदि द्वन्द्व समास होता है तो पूर्वपद का आनङ् आदेश। | विद्यासम्बन्धवा-चिभ्यः - होतापोतारौ, नेष्ट्०द्गातारौ, प्रशास्ताप्रतिहर्त्तारौ। योनिसम्बन्धेभ्यः - मातापितरौ, याताननान्दरौ।

[६|३|२६] देवताद्वन्द्वे च - देवतावाचक शब्दों में द्वन्द्वसमास के विधान होने पर भी पूर्वपद को अनाङ् आदेश। | इन्द्रावरुणौ, इन्द्रासोमौ, इन्द्राबृहस्पती।

[६|३|२७] ईदग्नेः सोम-वरुणयोः - सोमशब्द के साथ तथा वरुणशब्द के साथ देवता द्वन्द्व के विधान होने पर पूर्वपद स्थानापन्न अग्नि शब्द के स्थान में ईकार अन्तादेश। | अग्नीषोमौ, अग्नीवरुणौ।

[६|३|२८] इद् वृद्धौ - कृतवृद्धि कार्य उत्तरपद के रूप में कृतवृद्धि विष्णु शब्द के प्रयुक्त होने पर पूर्वपद स्थानीय अग्नि शब्द के स्थान में सूत्र प्राप्त इत् आदेश का प्रतिषेध। | आग्निवारुणीम् अनड्वाहीमालभेत्। आग्निमारुतं कर्म क्रियते।

[६|३|२९] दिवो द्यावा - देवताद्वन्द्व में उत्तरपद के परे पूर्वपदस्थानीय उषस् शब्द के स्थान में उषासा आदेश। | द्यावाक्षामा, द्यावाभूमी।

[६|३|३०] दिवसश्च पृथिव्याम् - पृथिवीशब्द के उत्तरपदत्व में देवताद्वन्द्वघटक पूर्वपद के रूप में प्रयुज्यमान दिव् शब्द के स्थारन् में दिवस् आदेश। | दिवस्पृथिव्यौ, द्यावापृथिव्यौ।

[६|३|३१] उषासोषसः - देवताद्वन्द्व के उत्तरपद के परे पूर्वपदस्थानीय उषस् शब्द के स्थान में उषसा आदेश। | उषाश्च सूर्यश्च = उषासासूर्यम्, उषासानक्ता।

[६|३|३२] मातर-पितरावुदीचाम्| - उदीच्य आचार्यों के मत में मातृ पितृ शब्दों के द्वन्द्व में पूर्वपदस्थानीय मातृशब्द के स्थान में अरङ् आदेश।

[६|३|३३] पितरा-मातरा च च्छन्दसि| - छान्दोविषय प्रयोग में `पितरामातरा` शब्द का निपातन।

[६|३|३४] स्त्रियाः पुंवद्भाषित-पुंस्कादनूङ्-समानाधिकरणे स्त्रियामपूरणी प्रियादिषु - पूरणी और प्रियादि शब्दों को छोड़कर अन्य समानाधिकरण स्त्रीलिंग उत्तरपद परे होने पर ऊङ्-प्रत्ययान्तभिन्न स्त्रीवाचक भाषितपुंस्क पद के रूप के रूप पुँल्लिंग के समान बनते हैं। | चित्रा गावो यस्य (चित्र-रंग-विरंगी गायें जिसकी हों)- इस विग्रह में बहुव्रीहि समास हो चित्रा गो रूप बनता है। यहाँ चित्रा पद स्त्रीवाचक भाषितपुंस्क है और उसके अन्त में ऊङ् प्रत्यय भी नही आया है। अतः समाधिकरण स्त्रीलिङ्ग उत्तरपद गो परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से चित्रा पद में पुर्वद्भाव हो जाता है।पूर्वद्भाव होने से चित्रा से टाप् ( आ) प्रत्यय हट जाता है और इस प्रकार चित्र गो रूप बनता है।

[६|३|३५] तसिलादिष्वाकृत्वसुचः - तसिल् प्रत्यय से लेकर कृत्व सुच् प्रत्यय तक जितने प्रत्ययों का विधान किया गया है उन प्रत्ययों के परे रहते भाषितपुंस्क ऊङ्प्रत्ययान्तभिन्न स्त्रीलिङ्ग शब्द का पुल्लिङ्गवत् रूप हो जाता है। | हस्तिनि + ठक् == हस्तिन् + इक == हस्तिकम्।

[६|३|३६] क्यङ्-मानिनोश्च - क्यङ् तथा मानिन् प्रत्ययों के परे भी भाषितपुंस्क अङप्रत्ययान्तभिन्न स्त्रीलिङ्ग शब्द का पुंवत् रूप हो जाता है। | एनी, एतायते, श्येनी, श्येतायते। मानिनि-दर्शनीयमानी अयमस्याः, दर्शनीयमानिनीयमस्याः।

[६|३|३७] न कोपधायाः - ककारोपध भाषित पुंस्क स्त्रीलिङ्ग शब्द का समानाधिकरण स्त्रीलिङ्ग उत्तरपद के परे रहने पर भी पुंवत रूप हो जाता है। | पाचिका + जातीयर् == पाचकजातीया, पाचिका + देशीयर् == पाचकदेशीया

[६|३|३८] संज्ञा-पूरण्योश्च - संज्ञावाचक शब्द तथा पूरणी शब्द का भी पुंवत् रूप नहीं होता है। | दत्ता + जातीयर् == दत्तजातीया, दत्ता + देशीयर् == दत्तदेशीया।

[६|३|३९] वृद्धि-निमित्तस्य च तद्धितस्यारक्त-विकारे - रक्तार्थक तथा विकारार्थक तद्धितप्रत्ययों से भिन्न वृद्धि निमित्तभूत तद्धित प्रत्यय से विशिष्ट स्त्रीलिङ्ग शब्द का भी समानाधिकरण स्त्रीलिङ्ग उत्तरपद के परे पुंवत् रूप नहीं होता है। | स्त्रौध्नी + जातीयर् == स्त्रौध्नजातीया, स्त्रौध्न + देशीयर् == स्त्रौध्नदेशीया।

[६|३|४०] स्वाङ्गाच्चेतोऽमानिनि - मानिन् भिन्न उत्तरपद के परे स्वाङ्गवाचक ईकारान्त स्त्रीलिङ्ग शब्द का पुंवत् रूप हो जाता है। | श्लक्षण्मुखी + जातीयर् == श्लक्षण्मुख्जातीया, श्लक्षण्मुखी + देशीयर् == श्लक्षण्मुखदेशीया ।

[६|३|४१] जातेश्च - जातिवाचक स्त्रीलिङ्ग शब्दों का भी पुंवत् रूप नहीं होता। | कठी + जातीयत् == कठजातीया, कठी + देशीयर् == कठदेशीया, बह्वृची + जातीयर् == बह्वृचजातीया।

[६|३|४२] पुंवत् कर्मधारय-जातीय-देशीयेषु - कर्मधारय समास में उत्तरपद के परे तथा जातीय एवम् देशीय प्रत्ययों के परे ऊङ् प्रत्ययान्तभिन्न भाषितपुंस्क स्त्रीलिङ्ग शब्द का पुंवत् रूप हो जाता है। | पाचिका + जातीयर् == पाचकजातीया, पचिका + देशीयर् == पाचकदेशीया।

[६|३|४३] घ-रूप-कल्प-चेलड्-ब्रुव-गोत्र-मत-हतेषु-ङ्योऽनेकाचो ह्रस्वः - घ (तरप्-तमप्), रूपप्, कल्पप्, चेलट्, ध्रुव, गोत्र मत तथा हत शब्दों के परे रहते भाषितपुंस्क ङी प्रत्ययान्त अनेकाच् स्त्रीलिङ्ग शब्दों को पुवद्भाव हो जाता है। | घ- ब्राह्मणितरा, ब्राह्मणितमा। रूप - ब्राह्मणिरूपा। कल्प - ब्राह्मणिकल्पा। चेलट् - ब्राह्मणिचेली। ब्रुव - ब्राह्मणिब्रुवा। गोत्र - ब्राह्मणिगोत्रा। मत - ब्राह्मणिमता। हत - ब्राह्मणिहत।

[६|३|४४] नद्याः शेषस्यान्यतरस्याम् - घ आदि शब्दों (प्रत्ययों) के परे रहने पर पूर्वसूत्रलक्ष्यभिन्न नदीसंज्ञक शब्दों को विकल्प से हृस्वादेश। | ब्रह्मबन्धुतरा, ब्रह्मबन्धूतरा। वीरबन्धुतरा, वीरबन्धूतरा। स्त्रतरा, स्त्रीतरा, स्त्रितमा, स्त्रीतमा।

[६|३|४५] उगितश्च - उगित् प्रकृतिक नदी के स्थान में भी विकल्प से हृस्वादेश। | श्रेयसितरा, श्रेयसीतरा। विदुषितरा, विदुषीतराः।

[६|३|४६] आन्महतः समानाधिकरण- जातीययोः - समानाधिकरण उत्तरपद (जिसकी विभक्ति पूर्वपद के समान हो) और जातीय प्रत्यय परे होने पर महत् (बड़ा) के स्थान में आकार होता है। | महान् च असौ राजा (बड़ा राजा) - इस विग्रह में महान् और राजा का समानाधिकरण समास हो महत् राजन् रूप बनता है।यहाँ समानाधिकरण समास हो महत् राजन् रूप बनता है।यहाँ समानाधिकरण उत्तरपद राजन् परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से महत् के तकार के स्थान पर आकार हो मह आ राजन् रूप बनेगा। तब टच् प्रत्यय और टि लोप आदि हो महाराजः रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - पटु + देशीयर् == पटु + देशीय == पटुदेशीय == पटुदेशीयः, मृदु + देशीयर् == मृदु + देशीय == मृदेदेशीय == मृदुदेशीयः।

[६|३|४७] द्वयष्टनः संख्यायामबहुव्रीह्य शीत्योः - यदि बहुव्रीहि समास और अशीति शब्द परे न हो तो संख्यावाचक उत्तरपद रहने पर द्वि और अष्टन् के स्थान में आकार आदेश होता है। | द्वौ च दश च (दो और दश)- इस विग्रह में द्वन्द्व समास होकर द्विदशन् रूप बनता। यहाँ संख्यावाचक उत्तरपद दशन् परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से द्वि के इकार के स्थान पर आकार हो द्व् + आ + दशन् ==> द्वादशन् रूप बनेगा। तब विभक्ति कार्य हो द्वादश रूप सिद्ध होता है।

[६|३|४८] त्रेस्त्रयः - बहुव्रीहि भिन्न समास में अशीति शब्दभिन्न संख्यावाचक उत्तरपद के परे त्रि के स्थान में त्रयस् आदेश। | त्रयोदश, त्रयोविंशतिः, त्र्यस्त्रिंशत्।

[६|३|४९] विभाषा चत्वारिंशत्प्रभृतौ सर्वेषाम् - बहुव्रीहि भिन्न समास में अशीति शब्दभिन्न चत्वारिशत् आदि संख्यावाचक उत्तरपद के परे द्वि, अष्टन् तथा त्रि शब्द के स्थान में विकल्प से पूर्वोक्त आदेश। | द्विचत्वारिंशत्, द्वाचत्वारिंशत्। त्रिपञ्चाशत्, त्रयःपञ्चाशत्।, अष्टचत्वारिंशत्, अष्टाचत्वारिंशत्। अष्टपञ्चाशत्, अष्टा - पञ्चाशत्।

[६|३|५०] हृदयस्य हृल्लेख-यद्ण्-लासेषु - लेख, यत्, अण् तथा लास शब्दों के परे हृदय शब्द के स्थान में हृत् आदेश। | हृदयं लिखतीति हृल्लेखः। यत्-हृदयस्य प्रियं हृद्यम्। अण्-हृदयस्येदं हार्दम्। लास-हृदयस्य लासो हृल्लासः।

[६|३|५१] वा शोक-ष्यञ्-रोगेषु - शोक, ष्यञ् तथा रोग के परे रहने पर हृदय के स्थान में विकल्प से हृत् आदेश। | सुहृदय + ष्यञ् (हृद् आदेश होकर) == सुहृद् + य == सौहार्द्यम्।

[६|३|५२] पादस्य पदाज्याति गोपहतेषु - आजि, आति ग तथा अपहत शब्दों के परे रहने पर पाद शब्द के स्थान में पत् आदेश। | पदाभ्यामजातीति = पदाजिः, पादाभ्यामततीति = पदातिः, पदाभ्याम गच्छतीति = पदगः, पादेनोपहतः = पदोपहतः।

[६|३|५३] पद्यत्यतदर्थे - तादर्थ्य भिन्नार्थक में यत् प्रत्यय के परे रहते पाद् शब्द के स्थान में पद् आदेश। | पादौ विध्यन्ति = पद्याः शर्कराः, पद्याः कण्टकाः।

[६|३|५४] हिम-काषि-हतिषु च - हिम्, काषिन् तथा हति शब्दों के परे रहने पर भी पाद शब्द के स्थान में पत् आदेश। | पद्धिमम्, अथ पत्काषिणो यान्ति, पादाभ्यां हन्यते = पद्धतिः।

[६|३|५५] ऋचः शे - `शऄ प्रत्यय के परे रहते ऋक्सम्बन्धी पाद शब्द के स्थान में पत् आदेश। | पच्छो गायत्रीं शंसति।

[६|३|५६] वा घोष-मिश्र-शब्देषु - घोष, मिश्र तथा शब्दों के परे उदक् शब्द के स्थान में उद आदेश। | पद्घोषः, पादघोषः। पन्मिश्तः, पादमिश्रः। पच्छब्दः, पादशब्दः।

[६|३|५७] उदकस्योदः संज्ञायाम् - संज्ञाविषय में उत्तरपद के परे उदक शब्द के स्थान में उद आदेश। | उदमेघो नाम, यस्य औदमेघिः पुत्रः। उदवाहो नाम यस्य औदवाहिः पुत्रः।

[६|३|५८] पेषं-वास-वाहन-धिषु च - पेषम्, वास, वाहन तथा धि शब्दों के परे उदक शब्द के स्थान में उद आदेश। | उदपेषं पिनष्टि। वास - उदकस्य वासः = उदवासः। उदकस्य वाहनः - उदवाहनः। धि - उदकं धीयतेऽस्मिन् उदधिः।

[६|३|५९] एक-हलादौ पूरयितव्येऽन्यतरस्याम् - पूरियत व्यार्थक एक हलादि शब्द के उत्तरपद स्थानापन्न होने पर पूर्वपदस्थानीय उदक शब्द के स्थान में विकल्प से उद आदेश। | उदकुम्भः, उदककुम्भः। उदपात्रम्, उदकपात्रम्।

[६|३|६०] मन्थौदनसक्तु-बिन्दु-वज्र-भार-हार-वीवध-गाहेषु च - मन्थ, ओदन, सक्तु, विन्दु, वज्र, भार, हार, वीवध, और गाह शब्दों के परे उदक शब्द के स्थान में विकल्प से उद आदेश। | उदकेन मन्थः = उदमन्थः, उदकमन्थः। उदकेनौदनः = उदौदनः, उदकौदनः। उदकेन सक्तुः = उदसक्तुः, उदकसक्तुः। उदकस्य बिन्दुः = उदबिन्दुः, उदकबिन्दुः।

[६|३|६१] इको ह्रस्वोऽङ्यो गालवस्य - गालव आचार्य के मत में ङी प्रत्ययान्त इगन्तशब्द के स्थान में उत्तरपद के परे होने पर विकल्प से ह्रस्वादेश। | ग्रामणिपुत्रः, ग्रामणीपुत्रः। ब्रह्मबन्धुपुत्रः, ब्रह्मबन्धूपुत्रः।

[६|३|६२] एकतद्धिते च - तद्धित उत्तरपद के परे रहने पर एकादेश के स्थान में ( अन्त मे) हृस्वादेश। | एकस्याः भावः एकत्वम्, एकता। उत्तरपदे - एकस्याः क्षीरम् एकक्षीरम्, एकदुग्धम्।

[६|३|६३] ङयापोः संज्ञाछन्दसोर्बहुलम् - संज्ञा तथा छान्दोविषय प्रयोग में ङी प्रत्ययान्त तथा टाप् प्रत्ययान्त शब्दों के स्थान में बाहुल्येन हृस्वादेश। | ङयन्तस्य संज्ञायाम् - रेवतिपुत्रः, रोहिणिपुत्रः, भरणिपुत्रः। बहुलवचनान्न च भवति - नन्दीकरः, नन्दीघोषः, नान्दीविशालः। ङयन्तस्य छन्दसि - कुमारीं ददति = कुमारिदाः। आबन्तस्य संज्ञायाम् - शिलवहम् शिलप्रथम्।

[६|३|६४] त्वे च - त्व प्रत्यय के अरे भी ङी प्रत्ययान्त तथा आप् प्रत्ययान्त शब्दों को बाहुल्येन हृस्वादेश। | तदजाया भावः अजत्वम्, तद्रोहिण्या भावो रोहिणित्वम्। बहुलवचनात् - अजात्वम्, रोहिणीत्वम्।

[६|३|६५] इष्टकेषीका-मालानां-चित-तूल-भारिषु - चित्, तूल तथा भारिन् के उत्तरपदत्व में क्रमशः पूर्वपदस्थानीय इष्टका, इषीका तथा माला शब्दों को हृस्वादेश। | इष्टकचितम्। इषीकतूलम्। मालां भर्त्तुं शीलमस्याः = मालभारिणी कन्या।

[६|३|६६] खित्यनव्ययस्य - खिदन्त उत्तरपद (जिसके अन्त में कोई खित् प्रत्यय हो) परे होने पर अव्यय-भिन्न का ह्रस्व होता है। | आत्मानं कालीं मन्यते ( अपने आप को काली समझती है) इस विग्रह में काली अम् मन् रूप बनने पर आत्माने खञ्च (३_२_८६) से खश् ( अ) प्रत्यय, श्यन्, पर्रूप, उपपद समास और सुप्-लोप होकर काली मन्य रूप बनता है। यहाँ मन्य उत्तरपद खिदन्त हैं क्योंकि अन्त में खित् खश् का अकार है, अतः उसके परे होने पर प्रकृत सूत्र द्वारा काली के ईकार को ह्रस्व इकार होकर कल् इ मन्य = कालि मन्य रूप बनेगा।तब मुँमागम् और टाप् प्रत्यय आदि होकर प्रथमा के एकवचन में कालिमन्या रूप सिद्ध होता है।

[६|३|६७] अरुर्द्विषदजन्तस्य मुम् - खिदन्त उत्तरपद (जिसके अन्त में कोई खित्-जिसका खकार इत्संज्ञक हो- प्रत्यय आया हो) परे होने पर अरुस् (मर्म), द्विषत् (शत्रु) और अव्ययभिन्न अजन्त (जिसके अन्त में कोई स्वर-वर्ण हो) का अवयव मुम् होता है। | जन एजय में खित् प्रत्यय खश् हुआ है, अतः उसके परे होने पर प्रकृत सूत्र द्वारा अजन्त जन को मुम् (म्) होकर जन् म् एजय् = जनमेजय रूप बनने पर रामः (पूर्वार्ध) की भांति जनमेजयः रूप सिद्ध होता है।

[६|३|६८] इच एकाचोऽम्प्रत्ययवच्च - खिदन्त उत्तरपद के परे इजन्त एकाच् शब्द को अम् का आगम और वह अमागम द्वितीयैकवचन अम् की तरह कार्यों का विषय होता है। | गांमन्यः, स्त्रीमन्यः, स्त्रियंमन्यः, नरंमन्यः, श्रियंमन्यः, भ्रुवंमन्यः।

[६|३|६९] वाचंयम-पुरन्दरौ च - वार्चयम तथा पुरन्दर शब्दों का निपातन। | वाचंयम् आस्ते। पुरं दारयतीति पुरंदरः।

[६|३|७०] कारे सत्यागदस्य - कार शब्द के उत्तरपदस्थानापन्न होने पर सत्य तथा अगद शब्दों को भी मुँम् का आगम्। | सत्यं करोतीति सत्यङ्कारः, अगदङ्कारः।

[६|३|७१] श्येन-तिलस्य पाते ञे - ञ प्रत्ययान्त पातशब्दात्मक उत्तरशब्द के परे श्येन तथा तिल शब्दों का मुँम् का आगम्। | श्येनस्य पातोऽस्यां क्रीडायां श्यैनम्पाता मृगया, तैलम्पाता।

[६|३|७२] रात्रैः कृतिविभाषा - कृदन्तोत्तरपद के परे रात्रि शब्द को विकल्प से मुँम् का आगम। | रात्रिञ्चरः। रात्रिचरः, रात्रिमटः, रात्र्यटः।

[६|३|७३] न लोपो नञः - उत्तरपद परे होने पर नञ् के नकार का लोप होता है। | न ब्राह्मण में उत्तरपद - ब्राह्मण परे होने केकारण नञ् (न) के नकार का लोप होकर अ ब्राह्मण रूप बनता है। तब विभक्ति कार्य होने पर अब्राह्मणः रूप सिद्ध होता है।

[६|३|७४] तस्मान्नुडचि - लुप्तनकार नञ् (जिस नञ् के नकार का लोप हो गया हो) से परे अजादि उत्तरपद (जिसके आदि में कोई स्वर-वर्ण हो) का अवयव नुँट् (न्) होता है। | न अश्वः (घोड़े से भिन्न) - इस विग्रह में नञ् का सुबन्त अश्वः के साथ समास तथा नलोपो नञः (६_३_७३) से नकार का लोप हो अ अश्व रूप बनता है। यहाँ नकारलोप वाले नञ् ( अ) से परे अजादि उत्तरपद अश्व है, अतः प्रकृत सूत्र से नुट् (न्) होकर अन् + अश्व ==> अनश्व रूप बनेगा।

[६|३|७५] नभ्राण्-नपान्नवेदा-नासत्या-नमुचि-नकुल-नख-नपुंसक-नक्षत्र-नक्र-नाकेषु-प्रकृत्या - नभ्राट्, नपात, नवेदा, नासत्या, नमुचि, नकुल, नख, नपुंसक नक्षत्र, नक्र तथा नाक शब्दों के उत्तरपदस्थानापन्न होने पर पूर्वपदस्थानीय नञ् प्रकृतिस्थ रहता है नलोप नहीं होता। | न भ्राजते = नभ्राट्। न पातीति नपात्। न वेत्तीति नवेदाः। सत्सु साधवः सत्याः, न सत्या असत्याः, न असत्याः नासत्याः। न मुञ्चतीति नमुचिः।नास्य कुलमस्तीति नकुलः। नास्य खमस्तीति नखम्। न स्त्री न पुमान् = नपुंसकम्।

[६|३|७६] एकादिश्चैकस्य चादुक् - ` एकऄ शब्द हो आदि में जिस नञ् के वह भी प्रकृतिस्थ बना रहता है तथा ` एकऄ शब्द को अदुँक् का आगम्। | एकेन न विंशतिः एकान्नविंशतिः, एकाद्नविंशतिः। एकान्नत्रिंशत्, एकाद्नत्रिंशत्।

[६|३|७७] नगोऽप्राणिष्वन्यतरस्याम् - अप्राणिवृत्ति नग शब्द का नञ् विकल्प से प्रकृतिस्थ रहता है। | न गच्छन्तीति = नगाः वृक्षाः, अगाः वृक्षाः, नगाः पर्वताः, अगाः पर्वताः।

[६|३|७८] सहस्य सः संज्ञायाम् - संज्ञाविषय में उत्तरपद के परे `सहऄ शब्द के स्थान में `सऄ आदेश। | सह अश्वत्थेन = साश्वत्थम्, सपलाशम्, सशिंशपम्।

[६|३|७९] ग्रन्थान्ताधिके च - ग्रथान्त तथा अधिक अर्थ में वर्तमान शब्द के पूर्वावयव `सहऄ के स्थान में भी `सऄ आदेश। | सकलं ज्योतिषमधीते, समुहूर्त्तम्। अधिके - सद्रोणा खारी, समाषः कार्षापणः, सकाकिणीको माषः।

[६|३|८०] द्वितीये चानुपाख्ये - प्रत्यक्षतः अनुपलभ्यमान सहयुक्त अप्रधान पदार्थ के वाचक शब्द से परे `सहऄ शब्द के स्थान में `सऄ आदेश। | साग्निः कपोतः, सपिशाचा वत्या, सराक्षसीका शाला

[६|३|८१] अव्ययीभावे चाकाले - यदि कालवाचक उत्तरपद परे न हो, तो अवययीभाव समास में सह के स्थान पर स आदेश। | अव्ययीभाव समास सहहरि में उत्तरपद हरि कालवाचक नही है, अतः प्रकृत सूत्र से सह के स्थान पर स होकर सहरि रूप सिद्ध होता है।

[६|३|८२] वोपसर्जनस्य - बहुव्रीहि समास में उत्तरपद के परे `सहऄ शब्द के स्थान में विकल्प से `सऄ आदेश। | सुपुत्रः, सहपुत्रः, सच्छात्रः, सहच्छात्रः।

[६|३|८३] प्रकृत्याशिष्यगोवत्स-हलेषु - गो, वत्स तथा हल शब्दों से भिन्न उत्तरपद के परे (बहुव्रीहि समास में) आशी विषय में `सहऄ शब्द प्रकृतिस्थ ही रह जाता है। | स्वस्ति देवदत्ताय सहपुत्राय, सहच्छात्राय, सहामात्याय।

[६|३|८४] समानस्य च्छन्दस्यमूर्ध प्रभृत्युदर्केषु - मूर्धन् प्रभृति तथा उदक शब्द को छोड़कर अन्य शब्द के उत्तरपदस्थानीय होने पर `समानऄ शब्द के स्थान में छान्दोविषय में `सऄ आदेश। | अनुभ्राता सगर्भ्यः। अनुसखा सयूथ्यः। यो नः सनुत्यः।

[६|३|८५] ज्योतिर्जनपद-रात्रि-नाभि-नाम-गोत्र-रूप-स्थान-वर्ण-वयो-वचन-बन्धुषु - ज्योतिस्, जनपद, रात्रि, नाभि, नामन्, गोत्र, रूप, स्थान, वर्ण, वयस्, वचन तथा बन्धु शब्दों के उत्तरपदस्थान होने पर `समानऄ शब्द को `सऄ आदेश। | समानं ज्योतिरस्य = सज्योतिः, सजनपदः, सरात्रिः, सनाभिः, सनामा, सगोत्रः, सरूपः, सस्थानः, सवर्णः, सवयाः, सवचनः, सबन्धुः।

[६|३|८६] चरणे ब्रह्मचारिणि - `चरणऄ के गम्यमान होने पर ब्रह्मचारिन् शब्दात्मक उत्तरपद के परे `समानऄ शब्द के स्थान में `सऄ आदेश। | समानो ब्रह्मचारी = सब्रह्मचारी। सामने ब्रह्मणि व्रतचारी = सब्रह्मचारी।

[६|३|८७] तीर्थे ये - यत् प्रत्ययान्त तीर्थ शब्द के उत्तरपद होने पर `समानऄ शब्द के स्थान में `सऄ आदेश। | समानतीर्थ + यत् == सतीर्थ्यः।

[६|३|८८] विभाषोदरे - उदर शब्द के उत्तरपद होने पर `समानऄ शब्द के स्थान में विकल्प से `सऄ आदेश। | सोदर्यः, समानोदर्यः।

[६|३|८९] दृग्दृशवतुषु - दृक्, दृश् तथा वतु शब्द के परे `समानऄ शब्द के स्थान में `सऄ आदेश। | सदृक्, सदृशः।

[६|३|९०] इदं-किमोरीश्की - दृग्, दृश्, और वतु (वतुप) परे होने पर ` इदम् ` के स्थान पर ` ईश् ` और `किम् ` के स्थान पर की आदेश। | ` इदम् इयत् ` में वतुप् (इयत्) प्रत्यय परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से ` इदम् ` के स्थान पर ` ईश् ` (ई) सर्वादेश हो ` ई इयत् ` रूप बनता है। तब `यस्येति चऄ (६_४_१४८) से प्रकृति - ईकार का लोप हो ` इयत् ` रूप शेष रहने पर विभक्ति कार्य हो प्रथमा के एकवचन-पुँल्लिङ्ग में ` इयान् ` रूप सिद्ध होता है।

[६|३|९१] आ सर्वनाम्नः - दृग्, दृश् और वतु परे होने पर सर्वनाम के स्थान पर आकार आदेश। | तद् दृश् में प्रकृत सूत्र से दृष् (क्विन्नन्त पक्ष में) परे होने के कारण सर्वनाम तद् के अन्त्य वर्ण दकार के स्थान पर आकार होकर त् आ दृश् रूप बना। इस स्थिति में सवर्णदीर्घ करने पर तादृश् रूप बनेगा।

[६|३|९२] विष्वग्देवयोश्च टेरद्रयञ्चतावप्रत्यये - व प्रत्ययान्त ` अञ्चु` धातु के उत्तरपद स्थानापन्न होने पर विष्वक् देव तथा सर्वनाम शब्दों के `टॎ के स्थान में अद्रि आदेश। | विष्वगञ्चतीति विष्वद्रयङ्, देवद्रयङ्। सर्वनाम्नः - तद्रयङ्, यद्रयङ्।

[६|३|९३] समः समि - व प्रत्यान्त (जिसके अन्त में क्किन् आदि हो) अञ्चु धातु के परे होने पर सम् के स्थान पर सम् के स्थान पर समि आदेश। | सम् अच् में सम् से परे अञ्चु धातु है और उसके अन्त में क्किन् प्रत्यय का सर्वापहार लोप हुआ है, अतः प्रकृतसूत्र से सम् के स्थान पर समि आदेश होकर समि अच् रूप बनता है।

[६|३|९४] तिरसस्तिर्यलोपे - अलुप्त अकारवाली तथा व प्रत्यान्त ( जिसके अन्त में क्किन् आदि प्रत्यय हों) अञ्चु धातु के परे होने पर तिरस् के स्थान पर तिरि आदेश। अनेकाल् होने के कारण यह आदेश सम्पूर्ण तिरस् के स्थान पर होगा। | तिर्यङ्, तिर्यञ्चौ, तिर्यञ्चः।

[६|३|९५] सहस्य सध्रिः - व प्रत्यान्त (जिसके अन्त में क्किन् आदि प्रत्यय हों) अञ्चु धातु के परे होने पर सह के स्थान पर सध्रि आदेश। | सध्रयङ्, सध्रयञ्चौ, सध्रयञ्चः, सध्रीचः।

[६|३|९६] सधमाद-स्थयोश्छन्दसि - छान्दोविषय प्रयोग में माद यथा स्थ शब्दों के उत्तरपद होने पर `सहऄ शब्द को `सधऄ आदेश। | सधमादो द्युम्न्य एकास्ताः सधस्थाः।

[६|३|९७] द्वयन्तरूपसर्गेभ्योऽप ईत् - द्वि, अन्तर तथा प्रादि से परे ` आप् ` शब्द के स्थान में ईकारादेश। | द्वीपम्, अन्तरीपम्। उपसर्गात् - नीपम्, वीपम्, समीपम्।

[६|३|९८] ऊदनोर्देशे - समुदाय से देश के अभिधान होने पर अनु से परे आप् शब्द के स्थान में ऊकारादेश। | अनुगता आपोऽस्मिन् = अनूपो देशः।

[६|३|९९] अषष्ठयतृतीयास्थस्यान्यस्य दुगाशीराशास्थास्थितोत्सुकोति कारकरागच्छेषु - आशिस्, आशा, आस्था, आस्थित, उत्सुक, ऊति, कारक, राग तथा छ (प्रत्यय) के परे षष्ठयन्त तथा तृतीयमान से भिन्न अन्य शब्दों को दुँक् का आगम्। | अन्या आशीः = अन्यदाशीः। अन्या आशा = अन्यदाशा, अन्या आस्था = अन्यदास्था। अन्य आस्थितः = अन्यदास्थितः। अन्य उत्सुकः = अन्यदुत्सुकः। अन्या ऊतिः = अन्यदूतिः। अन्यः कारकः = अन्यत्कारकः। अन्यो रागः = अन्यद्रागः। अन्यस्मिन् भवः = अन्यदीयः।

[६|३|१००] अर्थे विभाषा - अर्थ शब्द के उत्तरपद होने पर अन्य शब्द को विकल्प से दुँक् का आगम्। | अन्यस्मै इदम् = अन्यदर्थम्। अन्यार्थम्।

[६|३|१०१] कोः कत्तत्पुरुषेऽचि - तत्पुरुष समास में अजादि उत्तरपद के परे `कु` शब्द के स्थान में `कत् ` आदेश। | कुत्सितोऽजः = कदजः, कदश्वः, कद्रुष्ट्रः, कदन्नम्।

[६|३|१०२] रथ-वदयोश्च - रथ तथा वद शब्दों के परे भी `कु` शब्द के स्थान में `कत् ` आदेश। | कद्रथः, कद्वदः।

[६|३|१०३] तृणे च जातौ - जाति विवक्षा में तृण् शब्दात्मक उत्तरपद के परे भी `कु` शब्द के स्थान में `कत् ` आदेश। | कत्तृणा नाम जातिः।

[६|३|१०४] का पथ्यक्षयोः - पथिन् एवम् अक्ष शब्दों के परे `कु` शब्द के स्थान में `का` आदेश। | कुत्सितः पन्थाः = कापथः, कुत्सिते अक्षिणी अस्य = काक्षः।

[६|३|१०५] ईषदर्थे - ईषदर्थक `कु` शब्द के स्थान में भी उत्तरपद के परे `का` आदेश। | ईषन्मधुरम् = कामधुरम्, कालवणम्।

[६|३|१०६] विभाषा पुरुषे - पुरुष शब्दात्मक उत्तरपद के परे `कु` शब्द के स्थान में विकल्प से `का` आदेश। | कापुरुषः, कुपुरुषः।

[६|३|१०७] कवं चोष्णे - उष्ण शब्द के उत्तरपद होने पर `कु` के स्थान में `कवऄ आदेश एवम् विकल्प से `का` आदेश। | कवोष्णम्, कोष्णम्, कदुष्णम्।

[६|३|१०८] पथि च च्छन्दसि - छान्दिविषय में पथिन् शब्द के उत्तर पदत्व में भी `कु` शब्द के स्थान में विकल्प से `का` तथा `कवऄ आदेश। | कवपथः, कापथः, कुपथः।

[६|३|१०९] पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम् - पृषोदर आदि शब्द जिस रूप में शिष्टोपदिष्ट है उस रूप की सिद्धि के लिए साधारणतः अविहित लोपागमिदि विधियों का अनुसार कर लेना चाहिए। | पृषद् उदरं यस्य तत् पृषोदरम्। पृषद् उद्वानं यस्य तत् पृषोद्वानम्। उभयत्र तकारलोपः। वारिवाहको बलाहकः। पूर्वपदस्य वारिशब्दस्य "ब" आदेशः, उत्तरपदादेश्च लत्वम्। जीवनस्य मूतः जीमूतः। अत्र वनशब्दस्य लोपः।

[६|३|११०] संख्या-विसाय-पूर्वस्याह्रस्या-हन्नन्यतरस्यां ङौ - संख्यावाचक, वि तथा साय शब्दों से परे अह्न शब्द के स्थान में सप्तमी एकवचन के परे विकल्प से अहन् आदेश। | द्वयोरह्नोर्भवः द्वरन्हः तस्मिन् द्वयन्हि - द्वयहनि। त्र्यन्हि - त्र्यहनि, व्यपगतमहो व्यह्नः, तस्मिन् व्यह्नि व्यहनि। सायमन्हः = सायाह्नः, तस्मिन् सायाह्नि - सायाहनि।

[६|३|१११] ढ्रलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः ढकार और रकार परे होने पर उनसे पूर्व अ, इ, उ के स्थान पर दीर्घ- आकार, ईकार और ऊकार आदेश। | हरिस् + रभ्यः ==> हरिरु + रभ्यः ==> हरिर् + रभ्यः ==> हरि + रभ्यः ==> हरी रभ्य।

[६|३|११२] सहि-वहोरोदवर्णस्य - ढकार और रकार के लोप होने पर सह् और वह् धातु के अकार के स्थान पर ओकार होता है। | उ, व , ढ में ढकार का लोप हुआ है। अतः प्रकृत सूत्र से वह (उव) के वकारोत्तरवर्ती अकार के स्थान पर ओकार होकर उव् + ओढ ==> उवोढ रूप सिद्ध होता है।

[६|३|११३] साढ्यै साढ्वा साढेति निगमे - वैदिक प्रयोग में साढयै, साढवा तथा साढा शब्दों का निपातन। | साढ्यै इत्यत्र सहेः क्त्वाप्रत्ययः, क्त्वाप्रत्ययस्य ध्यैभाव ओत्वाभावश्च निपात्यते। साढ्यै समन्तात्। साढ्वा इत्यत्र पूर्ववत् क्त्वाप्रत्यय ओत्वाभावश्च निपात्यते। साढ्वा शत्रून। साढा इति तृनि रूपमेतत्, ओत्वाभावश्च पूर्ववत्।

[६|३|११४] संहितायाम् - अब यहाँ से `संहितायाम् ` अधिकार है अर्थात सभी कार्य संहिता के विषय में ही होंगे। | वक्ष्यति (६_३_१३४) इति। विद्या हि त्वा सत्पतिं शूर गोनाम्।

[६|३|११५] कर्णेलक्षणस्याविष्टाष्ट-पञ्च-मणि-भिन्न-च्छिन्नच्छिद्र-स्त्रुव-स्वस्तिकस्य - कर्ण शब्द के उत्तरपद होने पर विष्ट, अष्टन्, पञ्चन्, मणि, भिन्न, छिन्न, छिद्र, स्त्रुव तथा स्वस्तिक शब्दों को छोड़कर अन्य लक्षणवाचक शब्दों के गर्णशब्दाव्यवहित पूर्ववृति अण् दीर्घ होता है। | दात्राकर्णः द्विगुणाकर्णः, त्रिगुणाकर्णः, द्वयङ्गुलाकर्णः, त्र्यङ्गुलाकर्णः।

[६|३|११६] नहि-वृति-वृषि-व्यधि-रुचि-सहितनिषु क्वौ क्किबन्त (जिसके अन्त में क्किप् प्रत्यय हो)नह्, वृत्, वृष्, व्यध्, रुच्, सह् और तन् इनमें से किसी धातु के भी परे होने पर पूर्वपद के स्थान पर दीर्घ आदेश। | उप् पूर्वक नह् धातु से क्किप् प्रत्यय तथा उसका सर्वापहार लोप करने पर उपनह् रूप बनता है।

[६|३|११७] वन-गिर्योः संज्ञायां कोटरकिंशुलकादीनाम् वन शब्द के उत्तरपद होने पर कोटर आदि शब्दों का तथा गिरि शब्द के उत्तरपद होने पर किशुलक आदि शब्दों को संज्ञाविषय में दीर्घादेश। | वने - कोटरादीनाम् - कोटरावणम्, मिश्रकावणम्, सिध्रकावणम्, सारिकावणम्। गिरौ किंशुलुकादीनाम् - किंशुलुकागिरिः, अञ्जनागिरिः।

[६|३|११८] वले - वल शब्द के उत्तरपद होने पर पूर्व अण् को दीर्घादेश। | कृषि + वलच् == कृषी + वल == कृषीवल == कृषीवलः, आसुति + वलच् == आसुती + वल == आसुतीवल == आसुतीवलः

[६|३|११९] मतौ बह्वचोऽनजिरादीनाम् - मतुप् से परे अजिर आदि शब्द भिन्न अनेकाच् शब्दों को दीर्घादेश। | उदुम्बर + मतुप == उदुम्बरावती, मशक + मतुप == मशकावती, वीरण + मतुप == वीरणावती।

[६|३|१२०] शरादीनां च - मतुप् के परे शर आदि शब्दों को दीर्घादेश। | शर् + मतुप् == शर + क्त् == शरावत् + ङीप् == शरावती, वंश + मतुप् == वंश + क्त् == वंशावत् + ङीप् == वंशावती, धूम + मतुप् == धूमा + क्त् == धूमावत् + ङीप् == धूमावती।

[६|३|१२१] इको वहेऽपीलोः - वह शब्द के उत्तरपदत्व में पीलुशब्द भिन्न इगन्त उत्तरपद का दीर्घादेश। | ड़्षीवहम्, कपीवहम्, मुनीवहम्।

[६|३|१२२] उपसर्गस्य घञ्यमनुष्ये बहुलम् - समुदाय का वाच्य मनुष्य न होने पर घञन्त उत्तरपद के परे उपसर्ग को बाहुल्येन दीर्घादेश। | वीक्लेदः, वीमार्गः, अपामार्गः। न च, भवति बहुवचनात् - प्रसेवः प्रसारः।

[६|३|१२३] इकः काशे - काश शब्द के उत्तरपद होने पर इगन्त पूर्वपद को दीर्घादेश। | नीकाशः, वीकाशः, अनूकाशः।

[६|३|१२४] दस्ति - दा स्थानीय तकारादि आदेश के परे इगन्त उपसर्ग को दीर्घादेश। | नीत्तम्, वीत्तम्, परीत्तम्।

[६|३|१२५] अष्टनः संज्ञायाम् - संज्ञाविषय में उत्तर्पद के परे अष्टन् शब्द को दीर्घादेश। | अष्टौ वक्राणस्य = अष्टावक्रः, अष्टाबन्धुरः, अष्टापदम्।

[६|३|१२६] छन्दसि च - छान्दोविषय प्रयोग में भी अष्टन् शब्द को उत्तरपद के परे दीर्घादेश। | अग्नेयमष्टाकपालं निर्वपेत्। अष्टाहिरण्या दक्षिणा अष्टापदी देवता सुमती।

[६|३|१२७] चितेः कपि - कप् प्रत्यय के परे चिति शब्द को दीर्घादेश। | एका चितिरस्य = एकचितीकः, द्विचितीकः, त्रिचितीकः।

[६|३|१२८] विश्वस्य वसुराटोः - वसु या राट् शब्द परे होने पर विश्व के स्थान पर दीर्घ आदेश। | विश्वं वसु यस्य स विश्वावसुः। विश्वस्मिन्, राजते इति विश्वाराट्।

[६|३|१२९] नरे संज्ञायाम् - संज्ञाविषय में नर शब्द के परे विश्व शब्द को दीर्घादेश। | विश्वानरो नाम यस्य वैश्वानरिः पुत्रः।

[६|३|१३०] मित्रे चर्षौ - समुदाय से ऋषिविशेष का अभिधान होने पर मित्र शब्द के उत्तरपद होने पर भी पूर्वपदस्थानीय विश्व शब्द को दीर्घादेश। | विश्वामित्रो नाम ऋषिः।

[६|३|१३१] मन्त्रे सोमाश्वेन्द्रिय विश्वदेव्यस्य मतौ - मन्त्र विषय प्रयोग में मतुप् प्रत्यय के परे सोम, अश्व, इन्द्रिय तथा विश्वदेव्य शब्दों को दीर्घादेश। | सोमावती। अश्वावती। इन्द्रियावती। विश्वदेव्यावती।

[६|३|१३२] ओषधेश्च विभक्तावप्रथमायाम् - मन्त्रविषयक प्रयोग में प्रथमाभिन्न विभक्ति के परे ओषधि शब्द को भी दीर्घादेश। | ओषधीभिरपीपतत्, नमः पृथिव्यै नम ओषधीभ्यः।

[६|३|१३३] ऋचितुनुघमक्षुतङ्कुत्रोरुष्याणाम् - ऋग्विषय प्रयोग में तु, नु, घ, मक्षु, तङ्, कु, त्र तथा उरूण्य शब्दों को दीर्घादेश। | आ तू न॑ इन्द्र वृत्रहन् नौ - नू करणे, घ - उ॒त वा॑ घा स्या॒लात्। मक्षु म॒क्षू गोम॑न्तमीमहे। तङ् - भर॑ता जा॒तवे॑दसम्। कु-कूमनः, त्र - अत्रा गौः। उरुष्यः - उ॒रु॒ष्या णो॑ऽग्नेः।

[६|३|१३४] इकः सुञि - मन्त्रविषयप्रयोग में नुञ् (निपात) के परे इगन्त शब्द को दीर्घादेश। | अ॒भी षु णः॒ सखी॑नाम् ऊ॒र्ध्व ऊ॒ षु ण॑ ऊ॒तये॒।

[६|३|१३५] द्वयचोऽतस्तिङः - ऋग्विषय प्रयोग में द्वयच् तिङत के अत् को दीर्घादेश। | विद्मा हि त्वा॒ सत्प॑तिं शूर॒ गोना॑म्। वि॒द्या श॒रस्य॑ पितर॑म्।

[६|३|१३६] निपातस्य च - ऋग्विषय में निपात के भी दीर्घादेश। | एवा ते। अच्छा ते।

[६|३|१३७] अन्येषामपि दृश्यते - अन्य प्रकार के शब्दों में भी दीर्घ देखा जाता है अतः उनका साधुत्व शिष्टप्रयोगानुसार मान्य है। | केशाकेशि, कचाकचि, नारकः, पुरुषः।

[६|३|१३८] चौ - लुप्त नकार वाली अञ्चु धातु के परे होने पर पूर्व अर्न् ( अ, इ, उ) के स्थान पर दीर्घ आदेश। | प्रच + अस् में लुप्तनकाराकार वाली अञ्चु धातु - च् परे होने के कारण पूर्व अर्न् प्र के अकार को दीर्घ आकार होकर प्राच् + अस् रूप बनता है, यहाँ पर सकार का रुत्व-विसर्ग करने पर प्राचः रूप सिद्ध होता है।

[६|३|१३९] संप्रसारणस्य - उत्तरपद के परे सम्प्रसारणान्त पूर्वपद को दीर्घादेश। | कारीषगन्धीपुत्रः, कारीषगन्धीपतिः, कौमुदगन्धीपुत्रः, कौमुदगन्धीपतिः।

[६|४|१] अङ्गस्य अंग अवयव " अन्" के " अ" का लोप होता है यदि सर्वनामस्थान भिन्न यकारादि अथवा अजादि प्रत्यय परे हों। | राजन् + शस् = (" अन्" के " अ" का लोप) राज्न् + अस` = (चवर्ग जकार ("ज्") के आगे तवर्ग नकार ("न्") होने पर न् - ञ्) = राज्ञ् + अस् =("स्" - "ः) = राज्ञ् + अः = राज्ञः

[६|४|२] हलः - हल् से परे अङ्ग के अवयव सम्प्रसारण अण ( अ, इ, उ) को दीर्घ होता है। | ज्, इ, न में हल्-जकार से परे सम्प्रसारण अण्-इकार है, अतः प्रकृत सूत्र से इकार को दीर्घ ईकार होकर ज्, ई, न = जीन रूप बनेगा।तब प्रतिपादिक संज्ञा होकर प्रथमा के पुल्लिङ्ग-एकवचन में जीनः रूप सिद्ध होता है।

[६|४|३] नामि (नाऽऽमि) अजन्त (" अच्" प्रत्याहार) अङ्ग को दीर्घ आदेश यदि परे "नाम्" हो। | बाल + नाम् = बाला + नाम्, गुरु + नाम् = गुरू + नाम्, कवि + नाम् = कवी + नाम्, वारि + नाम् = वारी + नाम् (दीर्घ स्वर में कोई परिवर्तन नहीं होता जैसे कवी + नाम् = कवी + नाम्, वधू + नाम् = वधू + नाम्)

[६|४|४] न तिसृ चतसृ शब्दों को नाम् परे होने पर दीर्घ नही होता। | तिसृ + नाम् ==> तिसृणाम्

[६|४|५] छन्दस्युभयथा - छान्दोविषय प्रयोग में नाम के परे तिसृ तथा चतसृ शब्दों को दीर्घादेश तथा दीर्घाभाव भी। | तिसृणाम् मध्यन्दिने, तिसॄणाम् मध्यन्दिने। चतसृणाम् मध्यन्दिने, चतसॄणाम् मध्यन्दिने।

[६|४|६] नृ च नाम् परे होने पर नृशब्द के स्थान पर विकल्प से दीर्घ आदेश। | नृ + नाम् ==> नॄणाम्

[६|४|७] नोपधायाः नाम् परे होने पर नान्त अङ्ग की उपधा के स्थान पर दीर्घादेश। | पञ्चानाम्, सप्तानाम्, नवानाम्, दशानाम्।

[६|४|८] सर्वनामस्थाने चासंबुद्धौ सम्बुद्धि भिन्न सर्वनाम स्थान ("सुट्" प्रत्यय पहले५सुप् प्रत्यय्) परे होने पर नकारान्त अंग की उपधा को दीर्घादेश। | सख् + अन् + सु = सखन् +सु = सखान् + स् = अपृक्त् संज्ञक प्रत्यय का लोप = सखान् = (प्रातिपदिक पद के नकार का लोप) = सखा

[६|४|९] वा षपूर्वस्य निगमे - निगम विषयक प्रयोग में षकारपूर्वक नकारान्त अङ्ग की उपधा को असम्बुद्धि सर्वनामस्थान के परे विकल्प से दीर्घादेश। | स तक्षाणं तिष्ठन्तमब्रवीत्, स तक्षणं तिष्ठन्तमब्रवीत्। ऋभुक्षाणमिन्द्रम्, ऋभुक्षणमिन्द्रम्।

[६|४|१०] सान्त-महतः संयोगस्य - सम्बुद्धिभिन्न सर्वनामस्थान ( सु, औ, जस्, अम् तथा औट्) परे होने पर सकारान्त संयोग के तथा महत् शब्द के नकार की उपधा के स्थान पर दीर्घ आदेश। | हु == हुहु == जुहु, मा == मामा == ममा, हा == हाहा == जहा आदि।

[६|४|११] अप्-तृन्-तृच-स्वसृ-नप्तृ-नेष्टृ-त्वष्टृ-क्षत्तृ-होतृ-पोतृ-प्रशास्तॄणाम् अप् (जल), तृन्/तृच् प्रत्यान्त, स्वसृ (बहिन), नप्तृ (नाती, पुत्री का पुत्र), नेष्टृ (दानी, जो दान दे), त्वष्टृ ( एक् विशेष असुर), क्षत्तृ (सारथी/ द्वारपाल), होतृ (हवन करने वाला), पोतृ (पवित्र करने वाला) व प्रशास्तृ (शासन करने वाला) शब्दों की सम्बुद्धि भिन्न सर्वनाम स्थान (&कुओत्;सुट्&कुओत्;) प्रत्यय परे होने पर उपधा को दीर्घादेश। | क्रोष्ट् + अन् + स् ==&ग्त्;क्रोष्टन् + स् ==&ग्त्; क्रोष्टान् + स् =( अपृक्त संज्ञक प्रत्यय का लोप)=क्रोष्टान् =(पदान्त् नकार लोप)=&ग्त्;क्रोष्टा

[६|४|१२] इन्-हन्-पूषार्यम्णां शौ - इन्नन्त, हन्नन्त, पूषन् तथा आर्यमन् शब्दान्त अंगों की उपधा के स्थान पर शि परे होने पर दीर्घ आदेश। | इन् - बहुदण्दीनि, बहुच्छत्रीणि। हन् - बहुवृत्रहाणि, बहुभ्रूणहाणि। पूषन् - बहुपूषाणि। अर्यमन् - बह्णर्यमाणि।

[६|४|१३] सौ च - सम्बुद्धि भिन्न सु परे होने पर इन्नन्त, हन्नन्त पूषन्शब्दान्त तथा अर्यमन् शब्दान्त अंगों की उपधा के स्थान पर दीर्घ आदेश। | दण्डी, वृत्रहा, पूषा अर्यमा।

[६|४|१४] अत्वसन्तस्य चाधातोः - सम्बुद्धिभिन्न सु परे हो तो, अतु अन्त वाले अंग की तथा धातुभिन्न अस् अन्त वाले अंग की उपधा के स्थान पर दीर्घ आदेश। | धीमत् + स् में धीमत् शब्द के अतु + अन्त ( मतु = म् + अतु) होने से प्रकृत सूत्र से उपधा मकारोत्तरवर्ती अकार को दीर्घ आकार आदेश करने पर धीमात् + स् रूप बनता है।

[६|४|१५] अनुनासिकस्य क्वि-झलोः क्ङिति - क्कि (क्किप् आदि) या झलादि ( जिसके आदि में कोई झल्-वर्ण हो) किङ्-ङित् परे होने पर अनुनासिकान्त (जिसके अन्त में अनुनासिक हो) अङ्ग की उपधा के स्थान में दीर्घ आदेश होता है। | इदमिवाचरति (इसके समान आचरण करता है) में प्रतिपादिक इदम् के बाद सर्वप्रातिपदिकेभ्यः क्विब्बा वक्तव्यः वार्तिक से क्विप् तथा क्विप्-लोप होकर इदम् रूप बनता है।

[६|४|१६] अज्झन-गमां सनि - झलादि सन् प्रत्यय (जिसके आदि में झल्-वर्ण हो) परे होने पर अजन्त अङ्ग हन् (मारना) और गम् (जाना) धातु के स्थान में दीर्घ- आदेश होता है। | इच्छा अर्थ में कृ धातु से सन् (स) को इट् प्राप्त होता है, किन्तु एकाच उपदेशेऽनुदात्तात् (७_२_१०) से उसका निषेध हो जाता है। तब कृ धातु के अजन्त होने के कारण प्रकृत सूत्र से अन्त्य अच्-ऋकार के स्थान पर दीर्घ ऋकार होकर कॄ स रूप बनता है।

[६|४|१७] तनोतेर्विभाषा - अङ्गभूत `तनु` धातु को झलादि सन् के परे विकल्प से दीर्घादेश। | तन् + सन् == तान् + स (द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके) == तितांस == तितांसति।

[६|४|१८] क्रमश्च क्त्वि - झलादि क्त्वा प्रत्यय के परे `क्रमऄ धातु की उपधा को भी दीर्घादेश। | क्रान्त्वा, क्रन्त्वा।

[६|४|१९] च्छ् वोः शूडनुनासिके च - अनुनासिक्, क्वि (क्विप्) और झलादि कित्-ङित् प्रत्यय परे होने पर च्छ् और व के स्थान पर क्रमशः श् और ऊठ् आदेश होते हैं। | प्रच्छ धातु से पूर्व वार्तिक से क्विप्, दीर्घ और सम्प्रसारण-निषेध हो प्राच्छ रूप बनेगा। तब प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणम् परिभाषा से क्विप् प्रत्यय परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से च्छ् के स्थान पर श् होकर प्राश् रूप बनने पर प्रातिपादिक संज्ञा हो प्रथमा के एक्वचन में प्राट् (प्रश्न करने वाला) रूप सिद्ध होता है।

[६|४|२०] ज्वर-त्वर-स्त्रिव्यवि-मवामुपधा याश्च - क्वि तथा अनुनासिक और झलादि किन्-ङित् प्रत्यय परे रहने पर ज्वर् (बीमार होना), त्वर् (जल्दी करना), स्त्रिव् (जाना, सूखना), अव् (रक्षण करना), और मव् (बांधना)- इन पाँच धातुओं के वकार तथा उपधा- अकार के स्थान पर ऊठ्(ऊ) आदेश होता है। | ज्वर् धातु से क्विप् तथा उसका सर्वापहार लोप हो ज्वर् रूप बनता है। तब प्रत्ययलोपेप्रत्ययलक्षणम् (१_१_६२) परिभाषा से क्विप् परे होने पर ज्वर् धातु के वकार और उपधा-अकार के स्थान पर ऊठ् हो ज् ऊ र् = जूर् रूप बनेगा। यहाँ प्रथमा के एकवचन में सु प्रत्यय तथा उसका लोप और रुत्व-विसर्ग हो जूः रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार क्विप् प्रत्यय हो त्वर् से तूः, स्त्रिव् से स्त्रूः, अव् से ऊः और मव से मूः रूप बनते हैं।

[६|४|२१] राल्लोपः - क्कि (किप्) और झलादि कित्-ङित् प्रत्यय परे होने पर रकार के पश्चात च्छ् तथा व् का लोप होता है। | धुर्व में प्रत्यय लोपे प्रत्ययलक्षणम् परिभाषा से क्किप् परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से रकारोत्तरवर्ती वकार का लोप होकर धुर् रूप बनता है। यहाँ प्रातिपादिक संज्ञा हो प्रथमा के एकवचन में धूः रूप सिद्ध होता है।

[६|४|२२] असिद्धवदत्राभात् - यदि यहाँ से लेकर षष्ठाध्याय के अन्त तक कोई समानाश्रय कार्य करना हो, तो पहले किया हुआ कार्य असिद्ध ( न होने) के समान होता है। | जहि में६_४_३६से ज आदेश और६_४_१०४से हि का लुक् समानाश्रय कार्य है, क्योंकि ज का आश्रय प्रकृति हन् और प्रत्यय हि दोनों है तथा हि का लोप आश्रय भी अदन्त अङ्ग ज आदेश हि-लोप करते समय असिद्ध हो जाता है, असिद्ध होने से लोप के प्रति हन् ही रहता है जो अदन्त नही है। इसी से हि का लोप न होकर जहि रूप सिद्ध होता है।

[६|४|२३] श्नान्न लोपः - श्न (म्) के उत्तरवर्त्ती नकार को लोप। | इन्ध् == इनन्ध् =(श्नम् के बाद वाले "न्" का लोप करके)= इनध, अञ्ज == अनञ्ज्=(श्नम् के बाद वाले "न्" का लोप करके)= अनज्।

[६|४|२४] अनिदितां हल उपधायाः क्ङिति - यदि कित् या ङित् प्रत्यय परे हों, तो अनिदित् (जिसके ह्रस्व इकार की इत् संज्ञा न हुई हो) हलन्त ( जिसके अन्त में कोई व्यञ्जन हो) अंगों की उपधा के नकार का लोप हो जाता है। | बन्ध् + श्ना == बध्ना / बध्ना + शतृ == बध्नन्।, श्रन्थ् + श्ना == श्रध्ना / श्रध्ना + शतृ == श्रथ्नन्।

[६|४|२५] दंश-सञ्ज-स्वञ्जां शपि - शप् के परे अङ्गसंज्ञक `दंश्, `सञ्ज`, `स`वञ्ज् तथा रञ्ज्न् इन चार धातुओं के उपधा नकार (वर्गों के पंचमाक्षर/अनुनासिक) का लोप। | दंश् + शप् ==> दश इसी प्रकार सञ्ज्, स्वञ्ज् व रञ्ज् से क्रमशः सज, स्वज, व रज बनेगा।

[६|४|२६] रञ्जेश्च - शप् के परे अङ्गसंज्ञक `रञ्चॎ के अधारभूत नकार का लोप। | रजति, रजतः, रजन्ति।

[६|४|२७] घञि च भाव-करणयोः - भाव और करण-कारक में घञ् प्रत्यय परे होने पर रञ्ज् धातु के नकार का लोप होता है। | रञ्ज् अ में करण-कारक में रञ्ज् धातु के बाद अ (घञ्) प्रत्यय आया है, अतः प्रकृत सूत्र से रञ्ज् धातु के नकार का लोप होकर रज् अ = रज रूप बनता है।यहाँ उपधा-वृद्धि और कुत्व आदि होकर राग रूप बनने पर प्रातिपादक संज्ञा हो प्रथम के पुल्लिंग-एकवचन में रागः रूप सिद्ध होता है।

[६|४|२८] स्यदो जवे - वेग के वाच्य होने पर घञ्-प्रत्ययान्त `स्यदऄ शब्द का निपातन। | स्यन्द् + घञ् == स्यन्द् + अ == स्यन्दःः।

[६|४|२९] अवोदैधौद्म-प्रश्रथ-हिमश्रथाः - घञ् प्रत्ययान्त अवोद, एध, औदम्, प्रश्रथ एवम् हिमश्रथ शब्दों का निपातन। | अव + उन्द् + घञ् == अवोदः, इन्ध् + घञ् == एधः, प्र + श्रन्थ् + घञ् == प्रश्रयः, हिम + श्रन्थ् + घञ् == हिमश्रयः (ये शब्द निपातन से बनते हैं)

[६|४|३०] नाञ्चेः पूजायाम् - पूजा अर्थ में अञ्चु धातु के उपधा के नकार का लोप नही होता है। | अञ्चिता अस्य गुरवः। अञ्चितमिव शिरो वहति।

[६|४|३१] क्त्वि स्कन्दि-स्यन्दोः - क्त्वा प्रत्यय के परे `स्कन्दऄ एवं `स्यन्दऄ के नकार का लोप। | स्कन्त्वा, स्यन्त्वा। स्यन्देरूदित्वात् पक्षे इडागमः - स्यन्दित्वा।

[६|४|३२] जान्त-नशां विभाषा - जकारान्त अङ्ग तथा `नशऄ के उपधाभूत नकार का क्त्वा प्रत्यय के परे रहने पर विकल्प से लोप। | रञ्ज् - रङ्क्त्वा, रक्त्वा। भञ्ज् - भङ्क्त्वा, भक्त्वा। नश् - नंष्ट्वा, नष्ट्वा।

[६|४|३३] भञ्जेश्च चिणि - चिण् के परे `भञ्जऄ के उपधाभूत नकार का विकल्प से लोप। | अभाजि, अभञ्जि।

[६|४|३४] शास इदङ्-हलोः - अङ् और हलादि कित्-ङित् (जिसके आदि में कोई व्यंजन वर्ण हो) परे होने पर शास् धातु की उपधा के स्थान पर ह्रस्व इकार आदेश होता है। | शास् धातु से क्यप् (य) प्रत्यय होकर शास् य रूप बनता है। यहाँ य (क्यप्) में ककार की इत्संज्ञा होकर लोप हुआ है, अतः वह कित् है और साथ ही आदि में यकार होने से वह हलादि भी है। अतः उसके उसके परे रहने पर प्रकृत सूत्र से शास् की उपधा आकार को इकार होकर श् इ स् य् रूप बनने पर शासिवसि (८_३_६०) से सकार को मूर्धन्य षकार होकर श् इ ष् य् = शिष्य रूप बनता है।

[६|४|३५] शा हौ - `हॎ के परे `शासु` धातु के स्थान में `शा` आदेश। | शास् + हि == शा + हि == शाधि।

[६|४|३६] हन्तेर्जः - हि के परे होने पर हन् धातु के स्थान पर ज आदेश होता है। | सिप्, शप्-लुक् और सिप् के स्थान पर३_४_८७से हि होकर हन् हि रूप बनता है। यहाँ प्रकृत सूत्र से हि परे होने के कारण हन् के स्थान पर ज होकर जहि रूप बनेगा।

[६|४|३७] अनुदात्तोपदेश-वनति-तनोत्या-दीनामनुनासिकलोपो झलि क्ङिति - झलादि कित् और ङित् प्रत्यय परे होने पर अनुदात्तोपदेश छः धातुओं तथा वन्, तन् आदि आठ धातुओं के अनुनासिक का लोप होता है। | हन् धातु से लट् लकार में प्रथमपुरुष-द्विवचन की विविक्षा में तस् और शप् लुक् होकर सन् तस् रूप बनता है। हन् धातु अनुदात्तोपदेश है। सूत्र१_२_४से यहाँ तस् प्रत्यय ङिद्वत् है। अतः प्रकृत सूत्र से झलादि ङित् तस् परे होने से हन् के अनुनासिक नकार का लोप होकर हतस्=हतः रूप सिद्ध होता है।

[६|४|३८] वा ल्यपि - ल्यप् के परे रहने पर अनुदात्तोपदेश धातुओं, वन धातु तथा तन आदि धातुओं के अनुनासिक का विकल्प से लोप। | प्रयत्य, प्रयम्य, प्ररत्य, प्ररम्य, प्रणत्य, प्रणम्य, आगत्य, आगम्य। आहत्य, प्रमत्य, प्रवत्य, वितत्य, प्रक्षत्य।

[६|४|३९] न क्तिचि दीर्घश्च - क्तिच् प्रत्यय के परे अनुदात्तोपदेश-धातुओं, `वनऄ धातु तथा `तनऄ आदि धातुओं का अनुनासिकलोप भी नही होता और दीर्घादेश भी नहीं। | यन्तिः, वन्तिः, तन्तिः।

[६|४|४०] गमः क्वौ - क्कि प्रत्यय के परे `गम् ` धातु के अनुनासिक का लोप। | अङ्गगत्, कलिङ्गगत्, अध्वानं गच्छन्तीति = अध्वगतो हरयः।

[६|४|४१] विड्वनोरनुनासिकस्यात् - विट् और वन् परे होने पर अनुनासिकान्त अङ्ग के स्थान पर आकार होता है। | वि पूर्वक जन् (पैदा होना, आदि) धातु से अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते (३_२_७५) सूत्र से वनिप् (वन्) होकर वि जन् वन् रूप बनने पर प्रकृत सूत्र से अनुनासिक नकार को आकार होकर वि ज्ञ आ वन् रूप बनेगा। तब अकः सवर्णे दीर्घः (६_१_१०१) से दीर्घादेश होकर वि ज् आ वन्= विजावन् रूप बनने पर राजन् (पूर्वार्ध) की भांति विजावा रूप सिद्ध होता है।

[६|४|४२] जन-सन-खनां सञ्झलोः - सन् और झलादि (जिसके आदि में कोई झल्-वर्ण हो) कित्-ङित् परे होने पर जन्, सन् और खन्- इन तीन धातुओं के स्थान पर दीर्घ-आकार आदेश होता है। | लुङ् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में सन् (षण्) धातु से आत्मनेपद प्रत्यय त अडागम्, च्लि-सिच और विकल्प से सिच् का लोप होकर असन् त रूप बनता है। यहाँ झलादि ङित् त परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से सन् के नकार के स्थान पर आकार होकर अ स् आ त रूप बनता है। तब स्वर्णदीर्घ होकर असात रूप सिद्ध होता है। सिच् के लोप के अभाव-पक्ष में इडागम, षत्व और ष्टुत्व होकर असनिष्ट रूप सिद्ध होता है।

[६|४|४३] ये विभाषा - यकारादि कित्-ङित् परे होने पर जन् (पैदा करना), सन् (दान देना), और खन् (खोदना)- इन तीन धातुओं के स्थान पर विकल्प से दीर्घ आकार होता है। | आशीर्लिङ् के प्रथमपुरुष -एकवचन में सन् (षण्) धातु से तिप्, यासुट् (या) और सकार लोप आदि होकर सन् या त् रूप बनता है। यहाँ यकारादि यासुट् (या) परे होने के कारण प्रकृत सूत्र के अन्त्य वर्ण-नकार के स्थान पर आकार होकर स आ या त् रूप बनता है। तब स्वर्णदीर्घ होकर सायात् रूप सिद्ध होता है। आकार के अभावपक्ष में सन्यात् रूप बनता है।

[६|४|४४] तनोतेर्यकि - यक् के परे `तनु` धातु के स्थान में विकल्प से आकारादेश। | (आत्व होने पर)तन् + यक् == ता + य == ताय == तायते। (आत्व न होने पर)तन् + यक् == तन् + य == तन्य == तन्यते।

[६|४|४५] सनः क्तिचि लोपश्चास्यान्यतरस्याम् - अङ्गसंज्ञक `सन् ` धातु के स्थान में क्तिच् प्रत्यय के परे विकल्प से आकारादेश एवं अन्त्यलोप होते हैं। | सातिः, सतिः, सन्तिः।

[६|४|४६] आर्धधातुके - यहाँ से लेकर `न ल्यपॎ (६_४_६९) सूत्र से पहले आर्धधातुके का अधिकार अवगन्तव्य है। | वक्ष्यति - (६_४_४८) - चिकीर्षिता। (६_४_४९) - बेभिदिता, बेभिदितुम्, बेभिदितव्यम्। (६_४_५१) - कारणा, हारणा)।

[६|४|४७] भ्रस्जो रोपधयो रमन्यतरस्याम् - आर्धधातुक परे होने पर भ्रस्ज (भूनना) के रकार और उपधा-सकार का अवयव विकल्प से रम् होता है। | भ्रस्ज् + स्यति == भर्ज् + स्यति == भर्क्ष्यति।

[६|४|४८] अतो लोपः - आर्धधातुक परे होने पर अकारान्त अङ्ग का लोप होता है। | गोपाय आम् लिट् में आम् की३_४_११४से आर्धधातुक संज्ञा है। अतः उसके परे होने पर अकारान्त अङ्ग गोपाय के अन्त्य अकार का लोप होकर आम् लिट् रूप बनता है। अन्य उदाहरण - नेनीय + ण्वुल् == नेनीय + अक == नेनीय् + अक == नेनीयकः।

[६|४|४९] यस्य हलः - आर्धधातुक परे होने पर हल् (व्यञ्जन०वर्ण) के बाद य् का लोप होता है। | कौटिल्य अर्थ में व्रज् (चलना) धातु से यङ्, द्वित्व, अभ्यास-कार्य और अभ्यास-दीर्घ आदि होकर वाव्रज्य य आम् रूप बनता है। यहाँ आर्धधातुक आम् परे होने परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से हल्-जकार के बाद य के यकार का लोप हो जाता है। और रूप बनता है वाव्रज अ आम्।

[६|४|५०] क्यस्य विभाषा - आर्धधातुक परे होने पर हल् (व्यंजन-वर्ण) के बाद क्यच्, क्यङ् और क्यष् का लोप विकल्प से होता है। | समिधिता (समिधमात्मानम् इच्छति) में समिध् अम् से क्यच् आदि होकर समिध य रूप बनता है। तब लट् लकार के प्रथम्, पुरुष-एकवचन में तिप्, तिप् के स्थान पर डात्व और तास् आदि होकर समिध् य इ त् आ रूप बनता है। इस स्थिति में आर्धधातुक इ त् उग परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से हल्-धकार के बाद क्यच् (य) का लोप होता है।

[६|४|५१] णेरनिटि - अनिडादि (जिसके आदि में इट् न हो) आर्धधातुक परे होने पर णि (णिङ्) का लोप हो जाता है। | अकाम् इ अ त में ङित् होने के कारण चङ् ( अ०आर्धधातुक है और उसके पहले इट् का आगम भी नही हुआ है, अतः उसके परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से णि के इकार का लोप होकर अ काम् अ त रूप बनता है।

[६|४|५२] निष्ठायां सेटि - इट् सहित् निष्ठा (क्त और क्तवतु) परे होने पर णि का लोप होता है। | णयन्त भू धातु से क्त प्रत्यय होकर भावि त रूप बनने पर वलादि आर्धधातुक त होने के कारण प्रकृत सूत्र से भावि के णि (इ) का लोप होकर भाव् इ त = भावित् रूप बनने पर प्रतिपादिक संज्ञा होकर प्रथमा के एकवचन में भावितः रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार प्रथमा के एकवचन में भावि से क्तवतु (तवत्) प्रत्यय होकर भावितवान् रूप बनता है।

[६|४|५३] जनिता मन्त्रे - इडागमविष्ट तृच् प्रत्यय के परे `जन् ` के णि (णिच्) का लोप मन्त्रविषय प्रयोग में निपातित होता है। | यो नः॑ पि॒ता ज॑नि॒ता।

[६|४|५४] शमिता यज्ञे - यज्ञविषय में इडागमविशिष्ट तृच् प्रत्यय के परे शम् धातु से विहित `णॎ का लोप निपातित होता है। | शृतं हविः शमितः।

[६|४|५५] अयामन्ताल्वाय्येत्न्विष्णुषु - आम्, अन्त, आलु आय्य, इत्नु और इष्णु प्रत्ययों के परे होने पर णि-लोप का बाधक है। | कामि धातु से लिट् तथा आम् होकर कामि आम् लिट् रूप होने पर प्रकृत सूत्र से णिङ इकार के स्थान पर अय होकर काम् अय् आम् लिट् ==> कामयाम् लिट् रूप बनेगा। इस स्थिति में प्रथमपुरुष एकवचन की विविक्षा में त प्रत्यय आदि होकर कामयाञ्चके रूप बनता है।

[६|४|५६] ल्यपि लघु-पूर्वात् - लघुस्वर पूर्वक वर्ण से उत्तरवर्त्ती `णॎ के स्थान में ल्यप् प्रत्यय के परे अय् आदेश। | प्रशमय्य गतः संदमय्य गतः, प्रबेभिदय्य गतः, प्रगणय्य गतः।

[६|४|५७] विभाषाऽऽपः - ` आप` से उत्तरवर्त्ती `णॎ के स्थान में ल्यप् के परे विकल्प से अयादेश। | प्रापय्य गतः, प्राप्य गतः।

[६|४|५८] यु प्लुवोर्दीर्घश्छन्दसि - छान्दोविषय प्रयोग में ल्यप् प्रत्यय के परे `यु` तथा `प्लु` धातुओं को दीर्घादेश। | दान्त्य॑नुपू॒र्वं वि॒यूय॑। यत्रापो, दक्षिणा परिप्लूय।

[६|४|५९] क्षियः - ल्यप् के परे `क्षॎ धातु के स्थान में भी दीर्घादेश। | प्रक्षीय

[६|४|६०] निष्ठायामण्यदर्थे - भाव तथा कर्म में विहित निष्टा प्रत्यय से भिन्न अर्थ में विहित निष्ठा प्रत्यय के परे भी `क्षॎ को दीर्घादेश। | आक्षीणः, प्रक्षीणः, परिक्षीणः, प्रक्षीणमिदं देवदत्तस्य।

[६|४|६१] वाऽऽक्रोश-दैन्ययोः - आक्रोश के गम्यमान होने पर तथा दैन्य अर्थ में भावकर्मार्थ भिन्नार्थक निष्ठा प्रत्यय के परे `क्षॎ धातु को विकल्प से दीर्घादेश। | आक्रोशे - क्षितायुरेधि, क्षीणयुरेधि। दैन्ये - क्षितकः, क्षीणकः, क्षोतोऽयं तपस्वी, क्षीणोऽयं तपस्वी।

[६|४|६२] स्यसिच्सीयुट्तासिषु भावकर्मणो-रूपदेशेऽज्झनग्रहदृशां वा चिण्वदिट्च - कवर्ग और हकार के स्थान पर चवर्ग आदेश। | लिट् लकार के प्रथम एकवचन में गद् धातु से तिप्, णल् और द्वित्व आदि कार्य करने पर ग गद् अ रूप बनता है। इस स्थिति में प्रकृत सूत्र से अभ्यास के पूर्ववर्ती गकार को चवर्ग-जकार होकर जगद् अ रूप बनता है।

[६|४|६३] दीङो युडचि क्ङिति - अजादि कित्-ङित् प्रत्ययों से परे परे दीङ् धातु को युँट् का आगम् हो जाता है। | लिट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में दी ( दीङ्-क्षय होना) धातु से आत्मनेपद प्रत्यय त, पुनः उसके स्थान पर एश् (एकार और द्वित्व आदि होकर दि दी ए रूप बनता है। यहाँ एश् अपित् लिट् होने के कारण कित् है और उसके आदि में अच्-एकार भी आया है। अतः प्रकृत सूत्र से उसको युट् (य) होकर दि दी य् ए रूप बनता है।

[६|४|६४] आतो लोप इटि च - अजादि आर्धधातुक कित्-ङित् और इट् परे होने पर दीर्घ आकार का लोप होता है। | पा धातु से तस् और उसके स्थान पर अतुस् आदि होकर प पा अतुस् रूप बनता है। वहाँ अपित् लिट् होने पर कित् होता है। साथ ही वह अजादि भी है। अतः उसके परे होने पर पा के आकार का लोप होकर प प् अतुस् रूप बनेगा। तब रुत्व-विसर्ग करने पर पपतुः रूप सिद्ध होता है।

[६|४|६५] ईद्यति - यत् परे होने पर आकारान्त अङ्ग के स्थान पर ईकार हो जाता है। | दान करने योग्य या दान करना चाहिये अर्थ में दा धातु से यत् (य) प्रत्यय होकर दा य रूप बनने पर यत् (य) परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से दा के आकार के स्थान पर ईकार होकर द् ई य = दी य रूप बनता है। तब चेयम् की भांति गुण आदि होकर देयम् रूप सिद्ध होता है।

[६|४|६६] घुमास्थागापाजहातिसां हलि - हलादि (जिसके आदि में कोई व्यञ्जन हो) कित् और ङित् आर्धधातुक परे होने पर घुसंज्ञक ( दा और धा रूपवाली), मा (नापना), स्था (ठहरना), गा (पढ़ना), पा (पीना), हा (त्यागना) और सा (नाश करना)- इन धातुओं के अकार के स्थान पर ईकार हो जाता है। | अधि अगा स् त में हलादि ङित् आर्धधातुक स् परे होने के कारण गा के अकार को ईकार होकर अधि अगी स् त रूप बनता है। इस अवस्था में षत्व और ष्टुत्व आदि होकर अध्यगीष्ट रूप सिद्ध होगा।

[६|४|६७] एर्लिङि - आर्धधातुक कित्-लिङ् परे होने पर घुसंज्ञक मा (माने), स्था (गतिनिवृत्तौ), गा (शब्दै), प (पाने), हा (त्यागे) और सो ( अन्तकर्मणी) धातुओं के स्थान पर एकार होता है। | आशीर्लिङ्ग के प्रथमपुरुष एकवचन में पा धातु से तिप्, यासुट् आदि होकर पा या त् रूप बनता है। यहाँ आशीर्लिङ्ग के स्थान पर आदेशित तिङ् आर्धधातुक है और उसको हुआ यासुँट् आगम ( किदाशिषि)से कित है।आदेश के द्वारा लिङ् भी कित् है। अतः आर्धधातुक किन्-लिङ् परे होने के कारण पकारोत्तरवर्ती आकार के स्थान पर एकार होकर पेयात् रूप सिद्ध हुआ।

[६|४|६८] वाऽन्यस्य संयोगादेः - आर्धधातुक कित् लिङ् परे होने पर घुसंज्ञक मा, स्था, गा, पा, हा और सन् को छोड़कर अन्य आकारान्त संयोगादि अङ्ग के स्थान में विकल्प से ऐकार होता है। | ग्लै धातु पूर्वोत्तक घुमास्था आदि से भिन्न है और संयोगादि भी, अतः आशीर्लिङ्ग के प्रथम-पुरुष एक्वचन में ग्लायात् रूप बनने पर आर्धधातुक कित्-लिङ् परे होने से आकार को एकार होकर ग्लेयात् रूप सिद्ध होता है। अभावपक्ष में ग्लायात् ही रहेगा।

[६|४|६९] न ल्यपि - ल्यप् प्रत्यय के परे घुसंज्ञक, `मा`, `स्था`, `गा`, `हा` (ओहाक्) तथा `सा` धातुओं के स्थान में पूर्वविहित ईकारादेश नहीं होता। | प्रदाय, प्रधाय, प्रमाय, प्रस्थाय, प्रगाय, प्रपाय, प्रहाय, अवसाय।

[६|४|७०] मयतेरिदन्यतरस्याम् - `मेङ् ` धातु के स्थान में ल्यप् के परे विकल्प से इत् आदेश। | अपमित्य, अपमाय।

[६|४|७१] लुङ्-लङ् लृङ्क्ष्वडुदात्तः - लुङ् लङ् और ऌङ् इन लकारों में से किसी एक के परे होने पर अङ्ग को अट् आगम् होता है और वह उदात्त होता है। अट् में टकार इतसंज्ञक है अतः टित् होने के कारण यह अङ्ग का आदि अव्यव होगा। | भू धातु से लङ् आने पर अट् आगम हुआ। टित् होने से यह भू अंग का आदि अवयव बनता है अभू + ति । तव तिप्, शप्, गुण और अव् आदेश होकर अभवति रूप बना।

[६|४|७२] आडजादीनाम् लुङ्, लङ् और ऌङ् लकार परे होने पर अजादि अङ्ग् को आट् आगम होता है, आट् में टकार इतसंज्ञक होता है। यह आट् उद्दात होता है। | अत् धातु से लिङ् में प्रथम-एकवचन में तिप्, शप् होकर अत् अ ति रूप बनता है।यहाँ६_४_७१से अट् आगम् होता है, किन्तु अङ्ग के आदि स्वर होने के कारण प्रकृत सूत्र से उसका बाध होकर आट् आगम होता है आ अत् अति। वृद्धि-आकारादेश तथा इकार का लोप करने पर आतत् रूप सिद्ध हुआ।

[६|४|७३] छन्दस्यपि दृश्यते - छान्दोविषयक प्रयोग में अजादि-भिन्न धातुओं को भी आट् का आगम। | आवः, आनक्, आयुनक् आदि ।

[६|४|७४] न माङ्योगे - माङ् के योग में अट् और आट् ( आगम्) नही होते। | मा भवात् भूत् में `माङ् का योग होने से लुङ् के प्रथम एकवचन भूत् में अट् का आगम नही होता। अतः अभूत् न होकर भूत् रूप ही रहता है। इसी प्रकार लुङ् में मा भवान् कार्षीत् / मा भवान् हार्षीत् तथा लङ् में मा स्म करोति / मा स्म हरत् / मा भवान् ईहत्।

[६|४|७५] बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपि - छान्दोविषय (वेद) प्रयोग में माङ् के योग में भी अट् तथा आट् का आगम तथा माङ् का योग न होने पर भी अट् तथा आट् के आगम का आभाव। | मा अभित्थाः, मा आवः आदि । जनुष्ठा उग्रः, कामम् ऊनयी, कामम् अर्दयीत् आदि

[६|४|७६] इरयो रे - छान्दोविषय प्रयोग में इरे के स्थान में बाहुल्येन रे आदेश। | गर्भं॑ प्रथ॒मं द॑ध्र॒ आपः॒। यास्यऽपरिदध्रे। न च भवति बहुलवचनात् - परमाया धियोऽग्निकर्माणि चक्रिरे।

[६|४|७७] अचि श्नुधातुभ्रुवां य्वोरियङु-वङौ अजादि प्रत्यय परे होने पर श्नु-प्रत्यान्त रूप, इवर्णान्त और उवर्णान्त धातुरूप तथा भ्रू रूप अङ्ग को इयङ् और उवङ् आदेश। | वी + अन्ति == विय् + अन्ति == वियन्ति, क्षि + श == क्षिय् + अ == क्षिय, धि + श == धिय् + अ == धिय।

[६|४|७८] अभ्यासस्यासवर्णे - असवर्ण अच् (स्वर-वर्ण) परे होने पर अभ्यास के इकार और उकार के स्थान पर क्रमशः इयङ् और उवङ् आदेश। | इण् धातु से लिट् लकार में प्रथमपुरुष-एकवचन की विविक्षा में तिप् और पुनः उसके स्थान पर णल् आदि होकर इ आय् अ रूप बनता है। इस स्थिति में असवर्ण अच् अकार परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से अभ्यास के इकार को इयङ् होकर इय् + आय् + अ ==> इयाय रूप बनता है।

[६|४|७९] स्त्रियाः अजादि प्रत्यय परे स्त्री शब्द को " इयङ्" आदेश | स्त्रियौ, स्त्रियः।

[६|४|८०] वाऽम्शसोः अम् और शस् परे होने पर स्त्रीशब्द के स्थान पर विकल्प से इयङ् आदेश। | स्त्रीं पश्य, स्त्रियं पश्य। शस् - स्त्रीः पश्य, स्त्रियः पश्य।

[६|४|८१] इणो यण् - अजादि प्रत्यय (जिसके आदि में कोई स्वर-वर्ण हो) परे होने पर इण् (जाना) धातु के इकार के स्थान पर यकार आदेश। | इण् धातु से लट् लकार में प्रथमपुरुष-बहुवचन की विविक्षा में झि और पुनः झकार के स्थान पर अन्त्-आदेश तथा शप्-लुक् होकर इ अन्ति रूप बनता है। इस स्थिति में अजादि प्रत्यय अन्ति परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से इण् (इ) के इकार के स्थान पर यकार होकर य् + अन्ति ==> यन्ति रूप सिद्ध होता है।

[६|४|८२] एरनेकाचोऽसंयोगपूर्वस्य अच् परे होने पर उस अनेकाच् अङ्ग के स्थान पर यण् आदेश। | बिभ्य् + अति == बिभ्यति, नेनी + अति == नेन्यति, दीधी + आते == दीध्यते, वेवी + आते == वेव्याते।

[६|४|८३] ओःसुपि अजादि सुप् प्रत्यय परे होने उस अनेकाच् अंग को यण् आदेश। | खलप्वौ, खलप्वः। शतस्वौ, शतस्वः। सकृल्ल्वौ, सकृल्ल्वः।

[६|४|८४] वर्षाभ्वश्च अजादि सुप् परे होने पर वर्षाभू शब्द के स्थान पर यण् आदेश। | वर्षाभ्वौ, वर्षाभ्वः।

[६|४|८५] न भूसुधियोः अजादि सुप् परे होने पर भू और सुधी शब्द के स्थान पर यण् आदेश नही होता। | प्रतिभुवौ प्रतिभुवः। सुधियौ, सुधियः।

[६|४|८६] छन्दस्युभयथा - छान्दोविषय प्रयोग में भू तथा सुधी शब्दों के स्थान में यणादेश तथा उसका आभाव। | वने॑षु चि॒त्रं वि॒भ्वं विशे, विशे विभुवम्। सुध्यो हव्यमग्ने, सुधियो हव्यमग्ने।

[६|४|८७] हुश्नुवोः सार्वधातुके - अजादि सार्वधातुक प्रत्यय परे होने पर हु (होम करना, खाना) तथा अनेकाच् श्नु-प्रत्यान्त अङ्ग के असंयोगपूर्व भी है उवर्ण के स्थान पर यण आदेश। | सुनु + शतृ == सुन्वन्, सुनु + शानच् == सुन्वानः, स्तृणु + शतृ == स्तृण्वन्, स्तृणु + शानच् == स्तृण्वानः।

[६|४|८८] भुवो वुग्लुङ्लिटोः लुङ् व लित् का "अच्" परे (बाद् में) आने पर् "भू" धातु को "वुँक्" आगम् हो. "वुँक्" मेन् "उक्" इत्सञ्ज्ञ्क् है । | भू + अ = "भू अ"

[६|४|८९] ऊदुपधाया गोहः - अङ्गसंज्ञक "गुहू" धातु की उपधा को अजादि प्रत्यय के परे दीर्घ ("ऊ") आदेश। | नि + गुह् + शप् + ते ==> निगूह + ते ==> निगूहते।

[६|४|९०] दोषो णौ - `णि के परे `दुषऄ धातु की उपधा को ऊ आदेश। | दूषयति, दूषयतः, दूषयन्ति।

[६|४|९१] वा चित्तविरागे चित्त विकारार्थक `दुषऄ धातु की उपधा को विकल्प से ` ऊ ` आदेश। | दुष् + णिच् == दूषि == दूषयति।

[६|४|९२] मितां ह्रस्वः - णि (णिङ्, णिच्) परे होने पर मित् धातुओं (घट्, ज्ञप् आदि) की उपधा के स्थान पर ह्रस्व होता है। | घट् (चेष्टा करना) धातु से प्रेरणार्थक प्रत्यय णिच् और उपधा वृद्धि होकर घाट् इ रूप बनता है। यहाँ णि (इ) परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से मित् घाट् की उपधा-आकार के स्थान पर ह्रस्व अकार होकर घ् अ ट् इ = घटि रूप बनता है। इस स्थिति में लट् लकार प्रथमपुरुष-एकवचन में घटि से तिप्, शप्, गुण और अयादेश आदि होकर घटयति रूप सिद्ध होता है।

[६|४|९३] चिण्-णमुलोर्दीर्घोऽन्यतरस्याम् - चिण् तथा णमुल् प्रत्ययों के परे अङ्गसंज्ञक मित् धातुओं की उपधा को विकल्प से दीर्घादेश। | विकल्प से दीर्घ करका (शामिष्यते == शमिष्यते)

[६|४|९४] खचि ह्रस्वः - खच् प्रत्ययपरक `णॎ के परे अङ्ग की उपधा को हृस्वादेश। | द्विषन्तपः, परन्तपः, पुरन्दरः।

[६|४|९५] ह्लादो निष्ठायाम् - निष्ठा प्रत्यय के परे अङ्गसंज्ञक `ह्लादऄ धातु की उपधा को हृस्वादेश। | प्रह्लन्नः, प्रह्लन्नवान्।

[६|४|९६] छादेर्घेऽद्वयुपसर्गस्य - यदि (पूर्व में) दो उपसर्ग न हों, तो घ प्रत्यय होने पर अङ्गावयव छद् की उपधा को ह्रस्व आदेश। | दन्त छाद् अ में पूर्व में दो उपसर्ग न होने के कारण प्रकृत सूत्र से छद् की उपधा को ह्रस्व होकर दन्त छद् अ = दन्त छद रूप बनेगा। यहाँ तुक् होकर दन्तच्छद रूप बनने पर प्रातिपादिक संज्ञा हो प्रथमा के एकवचन में दन्तच्छदः रूप सिद्ध होता है। किन्तु दो उपसर्ग होने पर यह ह्रस्वादेश नही होगा।

[६|४|९७] इस्मन्त्रन्क्विषु च - इस, मन्, त्रन् तथा क्कि प्रत्ययों के परे `चादॎ धातु की उपधा को हृस्वादेश। | छदिः, छद्य, छत्रम्, धामच्छत्, उपच्छत्।

[६|४|९८] गमहनजनखनघसां लोपः क्ङित्य नङि - अङ्भिन्न अजादि किन्-ङित् प्रत्यय परे होने पर गम् (जाना), हन् (हिंसा करना), जन् (पैदा करना), खन् (खनना) और धस् (खाना) धातुओं की उपधा का लोप होता है। | लिट् लकार के प्रथमपुरुष एकवचन में गम् धातु से तस् और उसके स्थान पर अतुस् आदि होकर जगम् अतुस् रूप बनता है। अतः अङ् भिन्न आजादि अतुस् कित् परे होने से गम् की उपधा गकारोत्तरवर्ती अकार का लोप होकर जग् म् अतुस् रूप बनेगा। तब रुत्व-विसर्ग करने से जग्मतुः रूप सिद्ध होगा।

[६|४|९९] तनि-पत्योश्छन्दसि - छान्दोविषय में अजादि कित-ङित् प्रत्ययों के परे `तनॎ तथा `पतॎ धातुओं की उपधा का लोप। | वि त॑न्त्रिरे क॒वय॒। शकु॒ना इ॑व पप्तिम।

[६|४|१००] घसि-भसोर्हलि च - छान्दोविषय में हलादि एवम् अजादि कित्-ङित् प्रत्ययों के परे `घसॎ तथा `भसॎ धातुओं की उपधा का लोप। | बभस् + तः == बभ्स् + तः।

[६|४|१०१] हु-झल्भ्यो हेर्धिः - हु और झलन्त धातुओं से परे हि के स्थान पर धि आदेश। | जुहु + हि ==> जुहुधि, भिन्द + हि ==> भिन्द्धि

[६|४|१०२] श्रु-शृणु-पॄ-कृ-वृभ्य-श्छन्दसि - छान्दोविषय में `श्रु`, `श्रुणु`, `पॄ`, `कृ` तथा `वृ` धातुओं से विहित `हॎ के स्थान में `धॎ आदेश। | श्रु + हि ==> श्रुधी, शृणु + हि ==> शृणुधी, रायस्पॄ + हि ==> रायस्पूर्धि, उरुणस्कृ + हि ==> उरुणस्कृधि, अपावृ + हि ==> अपावृधि, ।

[६|४|१०३] अङितश्च - अनित् धातु से विहित `हॎ के स्थान में भी छान्दोविषय में `धॎ आदेश। | सोमं रारन्धि / युयोध्यस्मज्जुहुराण्मेनः ।

[६|४|१०४] चिणो लुक् - चिण् के बाद लुक् (लोप) होता है | अ जन् इ त् में चिण (इकार ) के बाद त आता है, अतः प्रकृत सूत्र से उसका लोप होकर अजन् इ रूप बनता है।

[६|४|१०५] अतो हेः अदन्त ( अकारान्त) से परे "हि" का लोप। | भव + हि = भव

[६|४|१०६] उतश्च प्रत्ययादसंयोग-पूर्वात् - असंयोगपूर्ण उकारान्त प्रत्यय के पश्चात् हि का लोप होता है। | मध्यमपुरुष एकवचन में श्रु से सिप् आदि होकर३_४_८७से सकार के स्थान पर हि करने पर शृणुहि रूप बनता है। इस स्थिति में असंयोगपूर्व उकारान्त श्नु प्रत्यय होने के कारण उसके परे हि का लोप होकर शृणु रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - चिनु, सिनु, कुरु।

[६|४|१०७] लोपश्चास्यान्यतरस्यां म्वोः - मकार और वकार परे होने पर प्रत्यय के असंयोगपूर्ण उकार का विकल्प से लोप होता है। | लट् लकार ले उत्तम-पुरुष द्विवचन और बहुवचन में श्रु धातु से क्रमशः वस् और मस् आदि प्रत्यय होकर शृणुवस् और शृणुमस् रूप बनते हैं। यहाँ दोनों में श्नु प्रत्यय उकार है और पूर्व संयोग भी नहीं है। अतः क्रमशः वस् और मस् परे होने के कारण उकार का लोप होकर शृण्वस् और शृण्मस् रूप बनते हैं। यहाँ रुत्व-विसर्ग करने से शृण्वः और शृण्मः रूप सिद्ध होंगे। अभाव पक्ष में शृणुवः और शृणुमः रूप बनते हैं।

[६|४|१०८] नित्यं करोतेः - मकार या वकार परे होने पर कृ धातु के बाद उकारान्त प्रत्यय का नित्य लोप होता है। | लट् लकार के उत्तमपुरुष-द्विवचन में कृ धातु से वस्, उ-प्रत्यय और गुण आदि होकर कुर् उ वस् रूप बनता है। यहाँ वकारादि वस् परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से कुर् (कृ) के बाद उकारान्त प्रत्यय उ का लोप होकर कुर् वस् रूप बनता है। तब सकार के स्थान पर रुत्व-विसर्ग होकर कुर्वः रूप सिद्ध होता है।

[६|४|१०९] ये च - यकार (यकारादि प्रत्यय) परे होने पर कृ धातु के बाद उकारान्त प्रत्यय का लोप हो जाता है। | विधिलिङ् के प्रथमपुरुष-एकवचन में कृ धातु से तिप्, इकार-लोप, उ-प्रत्यय, गुण और यासुट् आदि होकर कुर् उ यात् रूप बनता है। यहाँ यकार परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से कुर् (कृ) के बाद उकारान्त प्रत्यय उ का लोप होकर कुर्यात रूप सिद्ध होता है।

[६|४|११०] अत उत्सार्वधातुके - कित् और ङित् सार्वधातुक प्रत्यय परे होने पर उ प्रत्यान्त कृ धातु के अकार के स्थान पर उकार होता है। | विदाम् कर् उतात् में तातङ्(तात्) ङित् प्रत्यय है और सार्वधातुक भी। वह उ प्रत्यान्त कृ धातु से परे है, अतः प्रकृत सूत्र से कृ के ककारोत्तरवर्ती अकार के स्थान पर उकार होकर विदान् क् उ र् उतात् रूप बनता है। यहाँ पर मकार के स्थान पर अनुस्वार और परसवर्ण होकर विदाङ्कुरुतात् सूप सिद्ध होगा।

[६|४|१११] श्नसोरल्लोपः - सार्वधातुक कित् और ङित् प्रत्यय परे होने पर श्न और अस् (होना) धातु के अकार का लोप। | अस् धातु से लट् लकार में प्रथमपुरुष-एकवचन की विविक्षा में तस् प्रत्यय होकर अस् तस् रूप बनता है। यहाँ१_२_४से सार्वधातुक तस् के ङित्-वत् होने के कारण प्रकृत सूत्र से अस् के अकार का लोप होकर स्तस् रूप बनेगा। पुनः रुत्व विसर्ग करने से स्तः रूप सिद्ध होगा।

[६|४|११२] श्नाभ्यस्तयोरातः - कित्-ङित् सार्वधातुक परे होने पर श्ना और अभ्यस्त अङ्ग के आकार का लोप होता है। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-बहुवचन में हा धातु के झि, शप्-श्लु और द्वित्व आदि होकर ज हा आंते रूप बनता है। यहाँ सार्वधातुकमपित् (१_२_४) से अति के ङिद्वत् होने के कारण प्रकृत सूत्र से अभ्यस्त अङ्ग हा के आकार का लोप हो जाता है और रूप बनता है जह् अति = जहति।

[६|४|११३] ई हल्यघोः - हलादि कित्-ङित् सार्वधातुक परे होने पर श्ना और अभ्यस्त अङ्ग के अकार के स्थान पर ईकार आदेश, किन्तु घुसंज्ञक धातुओं के आकार के स्थान पर ईकार आदेश। | ज हा तस् में इकार के अभाव-पक्ष में हलादि ङित् सार्वधातुक तस् परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से अभ्यस्त हा के आकार के स्थान पर ईकार होकर ज ह् ई तस् = जहीतः रूप बनता है।

[६|४|११४] इद्दरिद्रस्य - हलादि कित्-ङित् सार्वधातुक के परे `दरिद्रा` धातु के आत् के स्थान में इत् आदेश। | दरिद्रा + तः == दरिद्रि + तः == दरिद्रितः, दरिद्रा + थः == दरिद्रि + थः == दरिद्रिथः, दरिद्रा + वः == दरिद्रि + वः == दरिद्रिवः।

[६|४|११५] भियोऽन्यतरस्याम् - हलादि कित्-ङित् सार्वधातुक परे होने पर भी (डरना) धातु के स्थान पर विकल्प से ह्रस्व इकार ( इत्) होता है। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-द्विवचन में तस्, शप्-श्लु और द्वित्व आदि होकर बि भि तस् रूप बनता है। यहाँ तस् हलादि ङित् सार्वधातुक है, अतः उसके परे रहने पर भी के ईकार के स्थान पर इकार होकर बिभितस्= बिभितः रूप सिद्ध होता है। अभावपक्ष में बिभीतः रूप बनता है।

[६|४|११६] जहातेश्च - हलादि कित्-ङित् सार्वधातुक परे होने पर हा (त्यागना) धातु के स्थान पर विकल्प से इकार इत् आदेश। | लट् लकार परे के प्रथमपुरुष- द्विवचन में हा धातु से तस्, शप्-श्लु और द्वित्व आदि कार्य होकर ज हा तस् रूप बनता है। यहाँ सार्वधातुकमपित् (१_२_४) से तस् के ङिद्वत् होने के कारण प्रकृत सूत्र से हा धातु के आकार के स्थान पर इकार होकर ज ह् इ तस् = जहितः रूप सिद्ध होता है।

[६|४|११७] आ च हौ - हि परे होने पर हा धातु के स्थान पर विकल्प से आकार, इकार और ईकार आदेश। | लोट् लकार के मध्यमपुरुष-एकवचन में हा धातु से सिप् और उसके स्थान पर हि तथा द्वित्व आदि होकर ज हा हि रूप बनता है। यहाँ हि परे होने के कारण प्रकृत सूत्र हा के आकार के स्थान पर आकार करने पर जह् आ हि = जहाहि रूप बनता है।

[६|४|११८] लोपो यि - यकारादि कित्-ङित् सार्वधातुक परे होने पर (जहातेः) हा धातु के ( आतः) आकार का लोप होता है। | विधिलिङ्ग् के प्रथमपुरुष-एकवचन में हा धातु से तिप्, शप्-श्लु, द्वित्व और तिप् का इकार-लोप आदि होकर जहा यात् रूप बनता है। यहाँ यकारादि ङित् सार्वधातुक यात् परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से हा के आकार का लोप हो जाता है और रूप बनता है जह् + यात् ==> जह्मात्।

[६|४|११९] ध्वसोरेद्धावभ्यासलोपश्च - हि के परे घुसंज्ञक तथा अस् धातुओं के स्थान में एत् आदेश तथा अभ्यास् का लोप भी होता है। | अस् धातु के लोट् लकार में मध्यमपुरुष-एकवचन की विविक्षा में सिप् और उसके स्थान पर हि होकर अस् हि रूप बनता है। यहाँ झल् से परे होने के कारण हुझल्भ्यो हेर्धिः (६_४_१०१) से हि के स्थान पर धि प्राप्त होता है, किन्तु हि परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से उसका बाध होकर अस् के सकार के स्थान पर एकार हो अ एहि रूप बनता है। इस स्थिति में असिद्ध वदत्राभात् (६_४_२२) से एकार आदेश के असिद्ध होने के कारण धातु को झलन्त माङकर पुनः हुझल्भ्यो हेर्धिः (६_४_१०१) हि को धि और श्नसोरल्लोप (६_४_१११) से अकार का लोप होकर एधि रूप सिद्ध होता है।

[६|४|१२०] अत एकहल्मध्येऽनादेशादेर्लिटि - कित् लिट् परे होने पर अनादेशादि अङ्ग ( जिसके आदि में कोई आदेश न हुआ हो) के असंयुक्त व्यञ्जनो के बीच वर्तमान अकार के स्थान पर एकार आदेश। | पपठ् + अतुः == पेठ् + अतुः == पेठतु । इसी प्रकार पेठुः, पेठिव, पेठिम आदि रूप बनेंगें। इसी प्रकार पपठ् + इ + थल् == पेठ + इ + थ == पेठिथ।

[६|४|१२१] थलि च सेटि यदि इट् युक्त थल परे हो तो भी जिस अङ्ग के आदि के स्थान में लिटनिमित्तक आदेश न हुआ हो, उसके अवयव तथा संयोग - रहित हलों के बीच में वर्तमान अकार के स्थान पर एकार होता है और अभ्यास का लोप होता है। | लिट् के मध्यम् एकवचन में णद् धातु से सिप्, उसके स्थान पर थल् तथा पूर्व्वत् अन्य कार्य होकर नद् नद् थल् रूप बनता है।

[६|४|१२२] तॄ फल-भज-त्रपश्च - कित्, लिट् और इट् सहित् थल् परे होने पर तॄ (तैरना), फल् (फलना), भज् (सेवा करना) और तृप् (लज्जा करना) धातुओं के अकार के स्थान पर एकार और अभ्यास का लोप। | त्रप् धातु से लिट् लकार में प्रथमपुरुष एकवचन में त प्रत्यय, एश् तथा अभ्यासकार्य होकर त्रप् प् ए रूप बनता है। यहाँ पर कित् लिट् एकार परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से त्रकारोत्तरवर्ती अकार के स्थान पर एत्व तथा अभ्यास-पकार का लोप होकर त्रेपे रूप सिद्ध होता है।

[६|४|१२३] राधो हिंसायाम् - किट्-ङित् लिट् तथा सेट् थल के परे हिंसार्थक `राध् ` धातु के अवर्ण के स्थान पर भी एत्व तथा अभ्यास का लोप। | इडागम न होने पर रध् + सन् == रिध् + स == रिरित्स (अभ्यासलोप होकर == रित्स == रित्सति।

[६|४|१२४] वा जॄ-भ्रमु-त्रसाम् - कित्-ङित् लिट् या सेट् थल् परे होने पर जॄ (दिवादि०जीर्ण होना), भ्रमु और त्रस् इन तीन धातुओं के ह्रस्व अकार के स्थान पर विकल्प से एकार होता है। तथा अभ्यास का लोप होता है। | लिट् लकार के प्रथमपुरुष-द्विवचन में त्रस् धातु से तस्, तथा उसके स्थान पर अतुस् और द्वित्व आदि होकर त त्रस् अतुस् रूप बनता है। यहाँ लिट्स्थानी कित् अतुस् परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से त्रस् के अकार को एकार तथा अभ्यास त का लोप करने पर त्र् ए स् अतुस् = त्रेसतुः रूप सिद्ध होता है।

[६|४|१२५] फणां च सप्तानाम् - कित्-ङित् लिट् तथा इडागम् विशिष्ट थल् के परे `फणऄ आदि सात धातुओं के अत् के स्थान में भी एत्व तथा अभ्यास का विकल्प से लोप। | पफण् + थल् == फेण् + थ == फेणिथ, पफण् + थल् == पफण् + थ == पफणिथ।

[६|४|१२६] न-शस-दद-वादि-गुणानाम् - शस्, दद् वकारादि धातुओं तथा गुण शब्द से विहित अकार के स्थान पर एकार नही होता और अभ्यास का लोप नही होता। | दद् धातु से लिट् लकार के प्रथमपुरुष एकवचन में त प्रत्यय और पुनः एध् तथा अभ्यास कार्य होकर ददद् ए रूप बनता है, किन्तु प्रकृत सूत्र से उसका निषेध हो जाने पर दददे रूप सिद्ध होता है।

[६|४|१२७] अर्वणस्त्रसावनञः - नञ् रहित् अवर्न् अङ्ग के स्थान पर तृ आदेश। | अर्वन्तौ, अर्वन्तः, अर्वन्तनम्, अर्वन्तौ, अर्वतः, अर्वता, अर्वद्भ्याम्, अर्वद्भिः, अर्वती, आर्वतम्।

[६|४|१२८] मधवा बहुलम् - मधवन् शब्द के स्थान पर विकल्प से तृ आदेश। | मधवान्, मघवन्तौ, मघवन्तः, मघवन्तम्, मघवन्तौ, मघवतः, मघवता। मघवती, माघवतम्। बहुलवचनात् न च भवति - मघवा, मघवानौ, मघवानः, मघवानम्, मघवानौ, मघोनः, मघोना। मघोनी, माघवनम्।

[६|४|१२९] भस्य - अव से आगे `भस्यऄ (भ-संज्ञक का) अधिकार है। | वक्ष्यति - (६_४_१३०) - द्विपदः पश्य, द्विपदा कृतम्।

[६|४|१३०] पादः पत् - पाद् अन्तवाले भसंज्ञक अङ्ग के स्थान पर पत् आदेश। | व्याघ्रपाद् + य == व्याघ्रपद् + य (ऐच् आगम होकर) == वैयाघ्रपद्यः।

[६|४|१३१] वसोः संप्रसारणम् - वसुप्रत्यान्त भसंज्ञक अङ्ग के स्थान पर सम्प्रसारण होता है। शस् से लेकर अजादि विभक्तियों में सम्प्रसारण होगा। य, व, र, ल के स्थान पर प्रयुज्यमान इ, उ, ऋ, ऌ को संप्रसारण कहते हैं | विद्वस् + अस् ( शस्) में विद्वस् वसुप्रत्ययान्त भसंज्ञक अंग है, अतः प्रकृत सूत्र से उसके द्वितीय वकार को उकार सम्प्रसारण होकर विदु अस् + अस् रूप बनता है। विदुषस् = विदुषः

[६|४|१३२] वाह ऊठ् भसंज्ञक वाह् के स्थान पर सम्प्रसारण ऊठ् आदेश। | विश्ववाह् में अन्तिम "वाह्" के "व्" के स्थान पर " ऊठ" (ठ् इत्संज्ञक) होने पर विश्व + ऊ + आह् बन जाता है । देखें१_१_४५।

[६|४|१३३] श्व-युव-मघोनामतद्धिते - अन्नन्त भसंज्ञक शब्दों को तद्धितभिन्न प्रत्यय परे होने पर सम्प्रसारण हो जाता है। | शुनः, शुना, शुने। यूनः, यूनाः, यूने। मघोनः, मघोना, मघोने।

[६|४|१३४] अल्लोपोऽनः भ-संज्ञक तथा अङ्ग के अवयव अन् के ह्रस्व अकार का लोप। | राज्ञः, पश्य, राज्ञा, राज्ञे। तक्ष्णः, पश्य, तक्ष्णा, तक्ष्णे।

[६|४|१३५] षपूर्व-हन्-धृतराज्ञामणि - अण् प्रत्यय के परे षकारपूर्वक अम्-शब्दान्त, इनशब्दान्त तथा धृतराजन शब्द के अकार का लोप | षपूर्व - उक्ष्णोऽपत्यम् = औक्ष्णः, ताक्ष्णः। हन् - भ्रूणं हतवान् - भ्रौणध्नः। धृतराजन् - धार्तराज्ञः।

[६|४|१३६] विभाषा ङिश्योः ङि और शी परे होने पर अङ्ग के अवयव अन् के ह्रस्व अकार का विकल्प से लोप होता है। | ङि - राज्ञि, राजनि, साम्नि, सामनि। शी - साम्नी, सामनी।

[६|४|१३७] न संयोगाद्वमन्तात् वकारान्त और मकारान्त संयोग से परे अन् के अकार का लोप नही होता। | वकारान्तात् - पर्वणा, पर्वणे, अथर्वणा, अथर्वणे। मकारान्तात् - चर्मणा, चर्मणे।

[६|४|१३८] अचः - लुप्त नकार वाली भसंज्ञक अञ्चु धातु के ह्रस्व अकार का लोप हो जाता है। | दधि + अच् + अण् == दाधि + अच् + अण् =("अचः" सूत्र से अच् के "अ" का लोप करके)=दाधि च + अ =(६_३_१३८, सूत्र से "इ" को दीर्घ होकर= दाधीच् + अ == दाधीचः।

[६|४|१३९] उद ईत् उद् से परे लुप्त नकारवाली अञ्चु धातु के भसंज्ञक अङ्ग के अकार के स्थान पर ईकार आदेश होता है। | उद् अच् + अस् में भसंज्ञक अङ्ग अच् के स्थान पर ईकार होकर उद् ईच् + अस् रूप बनता है। इस स्थिति में सकार का रुत्व-विसर्ग करने पर उदीचः रूप सिद्ध होता है।

[६|४|१४०] आतो धातोः आकारान्त धातु के तदन्त भ संज्ञक अंग के अन्तय आकार का लोप हो। विश्वपा + अस् = विश्वप् + अः = विश्वपः अकारान्त धातु 'पा' है, तदन्त भ संज्ञक अंग विश्वपा है। उसके अन्त्य आकार का लोप हुआ। | कीलालपः पश्य, कीलालपा, कीलालपे, शुभंयः पश्य, शुभंया, शुभंये।

[६|४|१४१] मन्त्रेष्वाङ्यादेरात्मनः - मन्त्र विषय प्रयोग में आङ् के परे आत्मन् शब्द के आदि (आ) का लोप। | त्मना देवेषु, त्मना सोमेषु।

[६|४|१४२] ति विंशतेर्डिति - डित् प्रत्यय (जिसका डकार इत हो) परे होने पर भ-संज्ञक `विंशतॎ के `तॎ का लोप होता है। | `विंशति अ ` में डित् प्रत्यय - डट् परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से भ-संज्ञक विंशति की `तॎ का लोप हो `विंश ऄ रूप बनता है। तब ` अतो गुणे `(६_१_९७) से पर-रूप एकादेश होकर विंश रूप बनने पर विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में विंशः रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार एकविंशः।

[६|४|१४३] टेः "डित्" परे रहते भ संज्ञक अंग के "टि" का लोप हो। | कुमुद्वान्, नड्वान्, वेतस्वान्, उपसरजः, मन्दुरजः, त्रिंशता क्रीतः त्रिंशक।

[६|४|१४४] नस्तद्धिते - नकारान्त भसंज्ञक की टि का तद्धित परे होने पर लोप होता है। | उपराजन अ में उपराजन भसंज्ञक अङ्ग है और उसके अन्त में नकार भी है। अतः तद्धित प्रत्यय टच् ( अ) परे होने केकारण प्रकृत सूत्र से उसकी टि- अन् का लोप होकर उपराज् अ = उपराज रूप बनता है। इस स्थिति में प्रथमा के एकवचन में उपराजम् रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - शिखण्डिन् + अण् == शिखण्ड् + अ == शौखण्डः, अग्निशर्मन् + अञ् == अग्निशर्म् + अ == अग्निशर्मिः, अहन् + अञ् == अह् + अ == आहः, उडुलोमन् + अञ् == उडुलोम् + अ == औडुलोमिः

[६|४|१४५] अह्नष्टखोरेव - अहन् शब्द के `टॎ का लोप केवल `टऄ तथा `खऄ प्रत्ययों के परे होता है। | द्वयहन् + ट == द्वयह् + अ == द्वयहः, द्वयहन् + ख == द्वयह् + ईन् == द्वयहीनः।

[६|४|१४६] ओर्गुणः - तद्धित प्रत्यय परे होने पर उवर्णान्त भ-संज्ञक अङ्ग को गुण होता है। | औपगु अ में भ-संज्ञक अङ्ग औपगु के अन्त में उवर्ण-उकार है और उसके पश्चात् तद्धित् प्रत्यय अण् ( अ) भी आया है। अतः प्रकृत सूत्र से अन्त्य उकार को गुण-ओकार हो औपगो अ रूप बनता है। एचोऽयवायावः (६_१_७८) से ओकार के स्थान पर अव् होकर औपग् अव् अ ==> औपगवः रूप बनेगा। इस स्थिति में विभक्ति कार्य हो प्रथमा के एकवचन में औपगव (उपगु की संतान) रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - कक्षतु + अण् == कक्षतो + अ == काक्षतवः, अरडु + अण् == अरडो + अ == आडवः, इसी प्रकार कार्कटेलवः, खाण्डवः।

[६|४|१४७] ढे लोपोऽकद्र्वाः - `ढऄ प्रत्यय के परे कद्रूशब्दभिन्न `भऄ संज्ञक उवर्णान्त का लोप। | कमण्डलु + ढक् == कमण्डल् + एय == कामण्डलेयः, जम्बू + ढक् == जम्ब् + एय == जाम्बेयः

[६|४|१४८] यस्येति च ईकार " ई" व तद्धित प्रत्यय परे होने पर अंग के इवर्ण व अवर्ण का लोप होता है। यह ज्ञात हो कि अजादि प्रत्यय परे रहते पूर्व अंग की भ संज्ञा होती है। | दक्ष + इञ् == दक्ष् + इ == दाक्षिः, विनता + एय == विनत् + एय == वैनतेयः, सिंहरोणी + अण् == सिंहरोण् + अ == सैंहरोणिः, कर्कन्धूमती + अण् == कर्कन्धूमत् + अण् == कार्कन्धूमतम्, कुन्ती + ढक् == कुन्त् + अ == कौन्तेयः

[६|४|१४९] सूर्य-तिष्यागस्त्य-मत्स्यानां य उपधायाः - ईकार तथा मत्स्य शब्दों के उपधास्थानीय यकार का लोप। | सूर्य + अण् == सूर् + अ == सौरः, तिष्य + अण् == तिष् + अ == तैषः, अगस्त्य + अण् == अगस्त् + अ == आगस्तः, मत्स्य + अण् == मत्स् + अ == मात्सः।

[६|४|१५०] हलस्तद्धितस्य - ईकार परे होने पर भ-संज्ञक अङ्ग से हल् (व्यञ्जन-वर्ण) से पर तद्धित के उपधाभूत यकार का लोप होता है। | ` गार्ग्य ई ` में ईकार परे होने के कारण भ-संज्ञक अङ्ग गार्ग के हल्-गकार से पर तद्धित के उपधाभूत् यकार का लोप हो `गार्ग् + ई ==> गार्गी रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार वात्स्य + ई == वात्स्य + ई == वात्स् + ई == वात्सी।

[६|४|१५१] आपत्यस्य च तद्धितेऽनाति - अकारादिभिन्न तद्धित के परे हल् से पहले अपत्यार्थ यकार के य का लोप। | गार्ग्य + वुञ् == गार्ग् + अक == गार्गकम्, वात्स्य + वुञ् == वात्स् + अक् == वात्सकम्।

[६|४|१५२] क्य-च्व्योश्च - क्य तथा च्वि प्रत्ययों के परे हल् से पहले अपत्यार्थ यकार के य का लोप। | गार्ग्य + च्वि + भूतः == गार्ग् + इ + भूतः == गार्गीभूतः, वास्त्य + च्वि + भूतः == वात्स् + इ + भूतः == वात्सीभूतः

[६|४|१५३] बिल्वकादिभ्यश्छस्य लुक् बिल्वक आदि शब्द से पहले `भऄ-संज्ञक छ प्रत्यय का तद्धित प्रत्यय के परे लोप। | बिल्वा यस्यां सन्ति बिल्वकीया, तस्यां भवाः, बैल्वकाः। वेणुकीयाः = वैणुका। वेत्रकीयाः = वैत्रकाः।

[६|४|१५४] तुरिष्ठेमेयःसु - इष्ठन्, ईयसुन तथा इमनिच् प्रत्ययों के परे भ संज्ञक के टि का लोप। | इष्ठन् - आसुतिं करिष्ठः, विजयिष्ठः, वहिष्ठः। ईयसुन् - दोहीयसी धेनुः।

[६|४|१५५] टेः - इष्ठन्, इमनिच् और ईयसुन् प्रत्यय परे होने पर भ-संज्ञक टि का लोप होता है। | `प्रथु इमन् ` में इमनिच् (इमन्) प्रत्यय परे होने के कारण भ-संज्ञक अङ्ग `प्रथु` की टि-उकार का लोप हो `प्रथ् इमं = `प्रथिमन् ` रूप बनता है। तब विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन-पुँल्लिङ्ग में `प्रथिमा` रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - महत् + इमनिच् == मह् + इमन् == महिमन् == महिमा।

[६|४|१५६] स्थूलदूरयुवह्रस्वक्षिप्रक्षुद्राणांयणादिपरं पूर्वस्य च गुणः - स्थूल, दूर, युवन, ह्रस्व, क्षिप्र तथा क्षुद्र शब्दों के यण् के आगे अंशो का इष्ठन् ईयसुन तथा इमनिच् प्रत्ययों के परे लोप हजो जाता है। | स्थूल + इष्ठन् == स्थो + इष्ठ == स्थविष्ठ, दूर + इष्ठन् == दो + इष्ठ == दविष्ठ, युव + इष्ठन् == यो + इष्ठ == यविष्ठ, ह्रस्व + इष्ठन् == ह्रस् + इष्ठ == ह्रसिष्ठ, क्षिप्र + इष्ठन् == क्षेप् + इष्ठ == क्षेपिष्ठ, क्षुद्र + इष्ठन् == क्षोद् + इष्ठ == क्षोदिष्ठ।

[६|४|१५७] प्रियस्थिरस्फिरोरूबहुलगुरु-वृद्धतृप्रदीर्घवृन्दारकाणां प्रस्थस्फवर्बंहिगर्वषित्रब्द्राघिवृन्दाः - इष्ठनं ईयसुन तथा इमनिच् प्रत्ययों के परे प्रिय, स्थिर, स्फिर, उरु बहुल, गुरु, वृद्ध, तृप्र, दीर्घ तथा वृन्दारक शब्दों के स्थान में क्रमशः प्र, स्थ, स्फ, वर, वषि, त्रप्, द्राघ् एवम् वृन्द आदेश। | प्रिय + इष्ठन् == प्र + इष्ठ == प्रेष्ठ == प्रेष्ठः प्रेयान्, स्थिर + इष्ठन् == स्थ + इष्ठ == स्थेष्ठ == स्थेष्ठः स्थेयान्, स्फिर + इष्ठन् == स्फ + इष्ठ == स्फेष्ठ == स्फेष्ठः स्फेतान।

[६|४|१५८] बहोर्लोपो भू च बहोः - `बहु` शब्द के पश्चात् इष्ठन् (इष्ठ) , इमनिच् (इमन्) और ईयसुन् (ईयस्) - इन प्रत्ययों का लोप होता है और बहु के स्थान पर भू आदेश। | `बहोर्भावः (बहु का भाव) - इस अर्थ में `पृथ्वादिभ्यइमनिज्वा` (५_१_१२२) से षष्ठयन्त `बहु` शब्द से ` इमनिच् ` प्रत्यय तथा सुप्-लोप हो `बहु-इमन् ` रूप बनने पर प्रकृत सूत्र से ` इमनिच् ` (इमन्) के आदि इकार का लोप और `बहु` को `भू` होकर `भू मन् ` रूप बनता है। तब विभक्ति-कार्य हो `भूमा` (बहुत्व) रूप सिद्ध होता है।

[६|४|१५९] इष्ठस्य यिट् च - च और (इष्ठस्य) इष्ठन् या इष्ठ का अवयव यिट् होता है। | `भू ष्ठऄ में ` इष्ठन् ` (ष्ठ) को `यिट् ` (यि) आगम् हो `भूयिष्ठऄ रूप बनता है। तब विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एक्वचन में `भूयिष्ठः ` रूप सिद्ध होता है।

[६|४|१६०] ज्यादादीयसः - `ज्यऄ के पश्चात् ईयस् या ईयसुन् के स्थान पर ( आत्) आकार आदेश। | `ज्य ईयस् ` में ज्य के पश्चात् ` ईयस` के ईकार को आकार होकर `ज्य आयस` रूप बनता है। तब सवर्ण-दीर्घ हो `ज्यायस् ` रूप बनने पर विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में `ज्यायान् ` रूप सिद्ध होता है।

[६|४|१६१] र ऋतो हलादेर्लघोः - इष्ठन्, इमनिच् और ईयसुन् प्रत्यय परे होने पर हलादि (जिसके आदि में हल् या व्यंजन हो) लघु ऋकार के स्थान पर `रऄ आदेश होता है। | `पृथु इमन् ` में इमनिच् (इमन्) प्रत्यय परे होने के कारण `पृथु` के हलादि लघु ऋकार को `रऄ हो ` प् र थु इमन् ` = `प्रथु इमन् ` रूप बनता है।

[६|४|१६२] विभाषर्जोश्छन्दसि - छान्दोविषय प्रयोग में इष्ठन्, इमनिच् और ईयसुन् प्रत्यय परे ऋजुशब्द के ऋ के स्थान में विकल्प से र आदेश। | ऋजु + इष्ठन् == रज् + इष्ठ == रजिष्ढ़ == रजिष्ठः (रजिष्ठम्र्ति पन्थानम्। ऋजु + इष्ठन् == ऋज् + इष्ठ == ऋजिष्ठ == ऋजिष्ठः (त्वमृजिष्ठः)

[६|४|१६३] प्रकृत्यैकाच् - इष्ठन्, इमनिच् और ईयसुन् प्रत्यय परे होने पर एकाच् प्रकृति से रहता है। | ` श्र इष्ठऄ में ` इष्ठन् ` (इष्ठ) प्रत्यय परे होने से एकाच् `श्रऄ को प्रकृति-भाव हो जाता है। प्रकृति-भाव हो जाने से `टेः` (६_४_१५५) से प्राप्त टि-लोप भी नहीं होता। इस स्थिति में तब गुणादेश हो `श्रेष्ठऄ रूप बनने पर विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एक्वचन में `श्रेष्ठः` रूप बनता है।

[६|४|१६४] इनण्यनपत्ये - अपत्य-भिन्न अर्थ में अण् प्रत्यय होने पर इन् को प्रकृतिभाव होता है, उसमें परिवर्तन नही होता। | गर्मिन् अ में अपत्य भिन्न अर्थ में अण् ( अ) प्रत्यय परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से गर्भिन की टि-इन् को प्रकृतिभाव हो जाता है।तब नस्तद्धिते (६_४_१४४) से प्राप्त लोप भी नही होता। इस स्थिति में अजादि-वृद्धि और णत्व होकर गार्भिण रूप बनने पर विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में गार्भिणम् रूप सिद्ध होता है।

[६|४|१६५] गाथि-विदथि-केशि-गणि-पणिनश्च - अण् प्रत्यय के परे गाथिन्, विदथिन्, केशिन्, गणिन् तथा पणिन् शब्द भी यथापूर्व बने रहते हैं। | गाथिन् + अण् == गाथिनः, विदथिन् + अण् == वैदथिनः, केशिन् + अण् == कैशिनः, गणिन् + अण् == गाणिनः, पणिन् + अण् == पाणिनः।

[६|४|१६६] संयोगादिश्च - संयोगादि इन् भी अण् प्रत्यय के परे यथापूर्व बना रहता है। | मद्रिन् + अण् == माद्रिणः, वज्रिन् + अण् == वाज्रिणः, शङ्खिन् + अण् == शाङ्खिनः, चक्रिन् + अण् == चाक्रिणः।

[६|४|१६७] अन् - अण् प्रत्यय परे होने पर अन् को प्रकृति भाव होता है और उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। | राजन् की टि- अन् को प्रकृति भाव हो जाता है, अतः टि-लोप नही होता। तब प्रथमा के एकवचन में राजनः रूप सिद्ध होता है, जिसका अर्थ है राजा की सन्तान। अन्य उदाहरण - सामन् + अण् == सामनः, वैमन् + अण् == वैमनः, सौत्वन् + अण् == सौत्वनः, जैत्वन् + अण् == जैत्वनः, सुदामन् + अण् == सौदामन् + अ == सौदामन।

[६|४|१६८] ये चाभाव-कर्मणोः - कर्म और भाव को छोड़कर अन्य अर्थ (जैसे-कर्ता अर्थ) में यकारादि तद्धित प्रत्यय परे होने पर अन् को प्रकृतिभाव हो जाता है। | राजन् य् में भाव और कर्म भिन्न अर्थ में राजन् के पश्चात् यकारादि तद्धित प्रत्यय यत् (य) आया है, अतः प्रकृत सूत्र से राजन् की टि- अन् को प्रकृतिभाव हो जाने से उसका लोप नहीं होता। तब प्रथमा के एकवचन में राजन्यः रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - आत्मन् + ख == आत्मन् + ईन् = अहीन == अहीनः

[६|४|१६९] आत्माध्वानौ खे - `खऄ प्रत्यय परे होने पर आत्मन् और अध्वन् (मार्ग) शब्द प्रकृति से रहते हैं। | ` आत्मन् खऄ में `खऄ प्रत्यय परे होने पर आत्मन् का प्रकृति भाव हो जाता है। तब नस्तद्धिते (६_४_१४४) से प्राप्त टि-लोप भी नहीं होता। इस अवस्था में पूर्ववत ईन- आदेश और विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन-नपुंसकलिङ्ग में ` आत्मनीनम् ` रूप सिद्ध होता है।

[६|४|१७०] न मपूर्वोऽपत्येऽवर्मणः - म पूर्वक अन् शब्दान्त वर्मन् शब्दभिन्न प्रकृति अपत्यार्थ अण् प्रत्यय के परे यथापूर्व नहीं रह पाती है। | सुषाम्णोऽपत्यं सौषामः, चान्द्रसामः।

[६|४|१७१] ब्राह्मोऽजातौ - अनप्रत्यार्थक अण् के परे ब्रह्मन् शब्द से टि का लोप निपातित होता है और प्रत्यय के अर्थ में विहित अण् प्रत्यय के परे जातिवृर्त्ती ब्रह्मन् शब्द के टि का लोप नहीं होता। | ब्रह्मन् + अण् == ब्राह्मः। टि का लोपअपत्यार्थ तथा जात्यर्थक अण् प्रत्यय परे होने पर जैसे - ब्रह्मन् + अण् == ब्राह्मणः।

[६|४|१७२] कार्मस्ताच्छील्ये - ताच्छील्य अर्थ में कर्मन् शब्द के टि का लोप निपातन है। | कर्मन् + ण == कर्म् + अ == कार्म् + अ == कार्मः।

[६|४|१७३] औक्षमनपत्ये - अनपत्यार्थ अण् प्रत्यय के परे ` औक्षऄ शब्द का निपातन। | औक्षन् + अण् == औक्षम्

[६|४|१७४] दाण्डिनायन-हास्तिनायनाथर्वणि-कजैह्माशिनेय-वाशिनायनि-भ्रौणहत्य-धैवत्य-सारवैक्ष्वाक-मैत्रेय-हिरण्मयानि - दाण्डिनायन, हस्तिनायन, आथर्वणिक, जैह्माशिनेय, वाशिनायनि, भ्रौण्हत्य, धवत्य, सारव, ऐक्ष्वाक, मैत्रेय तथा हिरण्मय शब्दों का निपातन होता है। | ऐक्ष्वाक् + अ == ऐक्ष्वाकः।

[६|४|१७५] ऋत्व्य-वास्त्व्य-वास्त्व-माध्वी-हिरण्ययानि-च्छन्दसि - ऋत्व्य, वास्त्व्य, वास्त्व, माध्वी एवम् हिरण्यय शब्द का छान्दोविषय में निपातन। | ऋतौ + भवम् == ऋत्व्यम्, वास्तौ + भवम् == वास्त्व्यम्, वस्तुनि + भवः == वास्त्वः।