अष्टाध्यायी हिन्दी व्याख्या सहितम्/पञ्चमः अध्यायः

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[५|१|१] प्राक् क्रीताच्छः - `तेन क्रीतम् (५_१_३७) सूत्र से पहले (पूर्व) `छऄ प्रत्यय होता है। | वत्सेभ्यो हितः वत्सीयः (वत्स + छ)

[५|१|२] उगवादिभ्यो यत् तेन क्रीतम् (५_१_३७) से पहले कहे जाने वाले अर्थों में उवर्णान्त (उकारान्त या ऊकारान्त) और गवादिगण में पठित ` गो ` आदि प्रातिपादिकों से यत् (य) प्रत्यय होता है। | शङ्कु + यत् == शंकव्यः, पिच् + यत् == पिचव्यः, चरु + यत् == चरव्याः, सक्तु + यत् == सक्तव्या।

[५|१|३] कम्बलाच्च संज्ञायाम् - कम्बल शब्द से भी प्राक्कीतीय अर्थों में यत् (य) प्रत्यय प्रत्ययान्त से संज्ञा की प्रतिपत्ति होने पर होता है। | कम्बल + यत् == कम्बलाय ; कम्बलाय + छ == कम्बलीया।

[५|१|४] विभाषा हविरपूपादिभ्यः - हवि विशेषवाचक शब्द तथा अपूप आदि शब्दों से विकल्प से प्राक्कीतीय अर्थ में यत् (य) प्रत्यय होता है। | अपूप + यत् == अपूप्यम्, तण्डुल + यत् == तण्डुल्यम्, अभ्युष + यत् == अभ्युष्यम्, अभ्योष + यत् == अभ्योष्यम् । इसी प्रकार अवोष, अभ्येष, पृठुक, ओदन, सूप, पूप, किण्व, प्रदीप, मुसल, कटक, इर्गल, अर्गल।

[५|१|५] तस्मैहितम् - `हितम् ` (हितकर) अर्थ में चतुर्थ्यन्त प्रातिपादिक से यथाविहित ( `छऄ (ईय) और `यत् (य) ` आदि) प्रत्यय होते हैं। | वत्सेभ्यो हितः (बछड़ो के लिए हितकर) - इस अर्थ में प्राक् क्रीताच्छः (५_१_१) के अधिकार मे प्रकृत सूत्र से चतुर्भ्यन्त `वत्सेभ्यः` से `छऄ प्रत्यय हो `वत्सेभ्यः छऄ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो `वत्स छऄ रूप बनने पर आयनेयी०(७_१_२) से प्रत्यय के छकार के स्थान पर ` ईयऄ हो वत्स + ईय् + अ ==> वत्स ईय रूप बनेगा। यहाँ अन्त्य-लोप और विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन-पुँल्लिङ्ग में `वत्सीयः` रूप सिद्ध होता है।

[५|१|६] शरीरावयवाद्यत् - `हितं (हितकर) अर्थ में शरीर के अवयववाचक (शरीर के किसी विशेष अंग को बतलाने वाला) चतुर्थ्यन्त प्रातिपादिक से यत् (य) प्रत्यय होता है। | दन्तेभ्यो हितम् (दाँतों के लिए हितकर)- इस अर्थ में अङ्ग-वाचक चतुर्थ्यन्त दन्त प्रातिपादिक से यत् प्रत्यय हो `दन्तेभ्यः यऄ रूप बनता है। यहाँ सुप्-लोप हो `दन्त यऄ रूप बनने पर अन्त्य-लोप और विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन-नपुँलिङ्ग में `दन्त्यम् ` रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - गो + यत् == गव्यम्, हविस् + यत् == हविष्यम्, शङ्कु + यत् == शङ्कव्यं।

[५|१|७] खलयवमाषतिलवृषब्रह्मणश्च - `तस्मै हितम् ` इस अर्थ में खल, यव, माष, तिल, वृष तथा ब्रह्मन् शब्दों से यत् (य) प्रत्यय होता है। | खल + यत् == खल्यम्, यव + यत् == यव्यम्, माष + यत् == माष्यम्, तिल + यत् == तिल्यम्, वृश + यत् == वृष्यम्, रथ + यत् == रथ्या।

[५|१|८] अजाविभ्यां थ्यन् - अज तथा अवि शब्दों से `तस्मै हितम् ` अर्थ में थ्यन् (थ्य) प्रत्यय होता है। अजः --> बकरी व अविः --> भेड़ वाचक शब्द हैं। | अज + थ्यन् == अजथ्या, अवि + थ्यन् == अविथ्या ।

[५|१|९] आत्मन्-विश्वजन-भोगोत्तरपदात्खः - `हितम् ` (हितकर) अर्थ में आत्मन्, विश्वजन और भोगोत्तर (जिसके अन्त में भोग शब्द हो, जैसे- मातृभोग आदि) चतुर्थ्यन्त शब्दों से `खऄ (ईन) प्रत्यय होता है। | `विश्वजनेभ्यो हितम् ` (सबके लिए हितकर) - इस अर्थ में चतुर्थ्यन्त विश्वजन शब्द से `खऄ प्रत्यय हो `विश्वजनेभ्यः खऄ रूप बनता है। यहाँ सुप्-लोप हो `विश्वजन खऄ रूप बनने पर आयनेयी०(७_१_२) से प्रत्यय के खकार के स्थान पर ` ईनऄ होकर विश्वजन + ईन् + अ ==> विश्वजन ईन रूप बनेगा। यहाँ अन्त्य-लोप और विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन-नपुँलिङ्ग में `विश्वजनीनम् ` रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - आत्मन् + ख == आत्मनीनम्, विश्वजन + ख == विश्वजनीनम्।

[५|१|१०] सर्वपुरुषाभ्यांणढञौ - सर्व तथा पुरुष शब्दों से क्रमशः ण (अ) तथा ठञ् (इक) प्रत्यय `तस्मै हितम् ` अर्थ में होते हैं। | सर्वस्मै हितम् = सार्वं पौरुषेयम्। सर्व + ण == सार्वम्, पुरुष + ढञ् == पुरुष् + एय == पौरुषेयम्।

[५|१|११] माणव चरकाभ्यां खञ् - माणव तथा चरक शब्दों से `तस्मै हितम् ` अर्थ में खञ् (ईन) प्रत्यय होता है। | माणवाय हितं = माणवीनम्, चारकीणम्।

[५|१|१२] तदर्थंविकृतेःप्रकृतौ - विकृत्यर्थ प्रकृति ( उपादानकरण) के अभिधेय होने पर विकृतिवाचक ( उपादेयार्थक) शब्दों से यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | अङ्गारेभ्यो हितानि एतानि काष्ठानि = अङ्गारीयाणि काष्ठानि। प्राकारीया इष्टकाः, शङ्कव्यं दारु, पिचव्यः कार्पासः।

[५|१|१३] छदिरूपधिबलेर्ढञ् - छदिर् उपधि तथा बलि शब्दों से `तदर्थ विकृतेः प्रकृतॏ अर्थ में ढञ् (एय) प्रत्यय होता है। | छदिर्भ्यो हितानि तृणानि = छादिषेणानि तृणानि। औपधेयं दारु। बालेयास्तण्डुलाः।

[५|१|१४] ऋषभोपानहोर्ञ्यः - ऋषभ तथा उपानह शब्दों से `तदर्थ विकृतेः प्रकृतॏ अर्थ में ञ्य (य) प्रत्यय होता है। | ऋषभाय हितम् = आर्षभ्यो वत्सः। औपानह्मो मुञ्जः।

[५|१|१५] चर्मणोऽञ् - चर्म विकार वाचक प्रातिपादिक से `तदर्थ विकृतेः प्रकृतॏ अर्थ में अञ् (अ) प्रत्यय होता है। | वरध्राय हितं = वारध्रं चर्म, वारत्रं चर्म।

[५|१|१६] तदस्य तदस्मिन् स्यादिति - प्रथमासमर्थ शब्द से षष्ठयर्थ तथा सप्तम्यर्थ में यथाविहित प्रत्यय होते हैं यदि प्रथमासमर्थ `स्यातऄ (सम्भावनाविषयीभूत) हो। | षष्ठयर्थे - प्राकार आसामिष्टकानां स्यात् = प्राकारीया इष्टकाः, प्रासादीयं दारु। सप्तम्यर्थे - प्रकारोऽस्मिन् देशे स्यात् = प्राकारीया भूमिः, प्रासादीया भूमिः।

[५|१|१७] परिखायाढञ् - परिखा शब्द से `तदस्य तदस्मिन् स्यात् ` अर्थ में ढञ् (एय) प्रत्यय होता है। | परिखा + ढञ् == पारिखेयी ।

[५|१|१८] प्राग्वतेष्ठञ् - `तेन तुल्यं क्रिया चेद्वतिः` (५_१_११५) सूत्र से पूर्व तक ठञ् प्रत्यय होता है। | पारायणं वर्त्तयति = पारायणिकः, तैरायणिकः, चान्द्रायणिकः।

[५|१|१९] आर्हादगोपुच्छसंख्यापरिमाणाट्ठक् - गोपुच्छ, संख्यावाचक तथा परिमाणवाचक शब्दों से भिन्न ठक् प्रत्यय का अधिकार समझना चाहिए। | निष्क्रेण क्रीतम् = नैष्किकम्, पाणिकम्।

[५|१|२०] असमासे निष्कादिभ्यः - निष्क आदि शब्दों से आहीर्ह अर्थों में असमास में ठक् (इक) प्रत्यय होता है। | निष्क + ठक् == नैष्किकम्, पण + ठक् == पाणिकम्, पाद + ठक् == पादिकम्, माष + ठक् == माषिकम्, माथ + ठक् == माथिकम्।

[५|१|२१] शताच्चठन्यतावशते - शतभिन्न पदार्थ के अभिधेय होने पर शत शब्द से आर्हीय अर्थों में ठन् (इक) तथा यत् (य) प्रत्यय होते हैं। | शतेन क्रीतम् = शतिकम्, शत्यम्।

[५|१|२२] संख्याया अतिशदन्तायाःकन् - अत्यन्त एवम् अशदन्त संख्यावाचक शब्दों से आर्हीयार्थ में कन् प्रत्यय होता है। | पंचभिः, क्रीतः, पञ्चकः, दशकः आदि।

[५|१|२३] वतोरिड् वा - वत्वन्त संख्यावाचक शब्दों से विहित कन् प्रत्यय हो विकल्प से इट् का आगम। | तावता क्रीतः = तावतिकः, तावत्कः। यावतिकः, यावत्कः।

[५|१|२४] विंशतित्रिंशद्भयां ड्वुन्नसंज्ञायाम् - विशंति तथा त्रिंशत् शब्दों से आर्हीय अर्थों में असंज्ञाविषय में ड्वुन् प्रत्यय होता है। | विंशत्या क्रीतः = विंशकः, त्रिंशकः।

[५|१|२५] कंसाट्टिठन् - कस शब्द से अहीर्यार्थ में असंज्ञाविषय में टिठन् प्रत्यय होता है। | कंस + ङीप् == कंसिकी, अर्ध + ङीप् == अर्धिकीः

[५|१|२६] शूर्पादञन्यतरस्याम् - कर्षापण शब्द से टिठन् (इक) प्रत्यय होता है। | शर्प + टिठक् == शर्पिकम्

[५|१|२७] शतमानविंशतिकसहस्त्रवसनादण् - शतमान आदि शब्दों से आर्हीयार्थ में अण् प्रत्यय होता है। | शतमानेन क्रीतं = शातमानम्। वैंशतिकम्, साहस्त्रम्, वासनम्।

[५|१|२८] अध्यर्धपूर्व-द्विगोर्लुग-संज्ञायाम् - अध्यर्द्धपूर्वक प्रातिपदिक तथा द्विगु से परवर्ती आर्हीयार्थक प्रत्ययों का असंज्ञा विषय में लोप। | अध्यर्द्धेन कंसेन क्रीतम् = अध्यर्द्धकंसम्। द्वाभ्यां कंसाभ्यां क्रीतम् = द्विकंसम्, त्रिकंसम्। अध्यर्द्धशूर्पम्। द्वाभ्यां शूर्पाभ्यां क्रीतः पटः = द्विशूर्पः पटः। त्रिशूर्पः पटः।

[५|१|२९] विभाषा कार्षापण-सहस्त्राभ्याम् - अध्यऄ्द्धकार्षापण तथा अधर्द्धसहस्त्र शब्दों से और कार्पापणशब्दोत्तरपदक एवम् सहस्त्रशब्दोत्तरपदक द्विगु से विहित आर्हीयार्थक प्रत्यय का विकल्प से लोप। | अध्यर्द्धकार्षापणम्, अध्यर्द्धकार्षापणिकम्। द्विकार्षापणम्, द्विकार्षापणिकम्। अध्तर्द्धसहस्त्रम्, अध्यर्द्धसाहस्त्रम्। द्विसहस्त्रम्, द्विसाहस्त्रम्।

[५|१|३०] द्वित्रिपूर्वान्निष्कात् - द्विपूर्वक तथा त्रिपूर्वक निष्कशब्दान्त द्विगु से विहित आर्हीयार्थक प्रत्यय का विकल्प से लोप। | द्विनिष्कम्, द्विनैष्किकम् ; त्रिनिष्कम्, त्रिनैष्किकम् ।

[५|१|३१] बिस्ताच्च - द्विपूर्वक तथा त्रिपूर्वक बिस्तशब्दान्त द्विगु से विहित आर्हीयार्थक प्रत्यय का विकल्प से लोप। | द्विबिस्तम्, द्विबैस्तिकम् ; बहुबिस्तम्, बहुबैस्तिकम् ।

[५|१|३२] विंशतिकात्खः - अध्यर्द्धविशंतिक तथा विंशतिशब्दोत्तरपदक द्विगु से आर्हीयार्थक ख प्रत्यय होता है। | अश्यर्द्धविंशतिकीनम्, द्विविंशतिकीनम्।

[५|१|३३] खार्या ईकन् - अध्यर्द्धखारी शब्द तथा खरीशब्दोत्तरपदक द्विगु से आर्होयार्थक ईकन् प्रत्यय होता है। | अध्यर्द्धखारी + ईकन् == अध्यर्द्धखारिकम् खारी + ईकन् == खारिकम्।

[५|१|३४] पणपादमाषशताद्यत् - अध्यर्द्धपूर्वक पण, पाद, माष तथा शत शब्दों से तथा पणशब्दान्त, पादशब्दान्त, माषशब्दान्त एवम् शतशब्दान्त द्विगु से आर्हीयार्थ से यत् प्रत्यय होता है। | अध्यर्द्धपण्यम्, द्विपण्यम्, त्रिपण्यम्, अध्यर्द्धपाद्यम्, द्विपाद्यम्, अध्यर्द्धमाष्यम्, द्विमाष्यम्, त्रिमाष्यम्, अध्यर्द्धशत्यम्, द्विशत्यम्, त्रिशत्यम्।

[५|१|३५] शाणाद्वा - अध्यर्द्धशाण तथा शाणशब्दान्त द्विगु से आर्हीयार्थ में अण् तथा विकल्प से यत् प्रत्यय होते हैं। | अध्यर्द्धशाण + यत् == अध्यर्द्धशाण्यम्, अध्यर्द्धशाण + ठञ् == अध्यर्द्धशाणम् । इसी प्रकार द्विशाण्यम्, दिशाणम्/ त्रिशाण्यम्, रिशाणम्।

[५|१|३६] द्वित्रिपूर्वादण्च - द्विपूर्वक तथा त्रिपूर्वक शाणशब्दान्त द्विगु से आर्हीयार्थ में अण् तथा विकल्प से यत् प्रत्यय होते हैं। | अध्यर्द्धशाण्यम्, अध्यर्द्धशाणम्, द्विशाण्यम्, द्विशाणम्। त्रिशाण्यम्, त्रिशाणम्।

[५|१|३७] तेनक्रीतम् - क्रीतम् (खरीदा हुआ अर्थ में तृतीयान्त प्रातिपादिक से यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | `सप्तत्या क्रीतम् ` (सप्तति- सत्तर रुपय में खरीदा हुआ) - इस अर्थ में तृतीयान्त प्रातिपादिक सप्तति से ठञ् प्रत्यय हो `सप्तत्था ठऄ रूप बनता है। यहाँ सुप्-लोप हो `सप्तति ठऄ रूप बनने पर `ठस्येकः ` (७_३_५०) से प्रत्यय के ठ ठ के स्थान पर इक हो `सप्तति इकऄ रूप बनेगा। तब अजादि-वृद्धि, अन्त्य-लोप और विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन-नपुंसकलिङ्ग में `साप्तिकम् ` रूप सिद्ध होता है।

[५|१|३८] तस्यनिमित्तंसंयोगोत्पातौ - षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिक से सम्बन्धात्मक अथवा उत्पातात्मक निमित्त अर्थ (तस्य निमित्तम्) में यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | संयोगः - शतस्य निमित्तं धनपतिना संयोगः - शत्यः, शतिकः, साहस्त्रः। उत्पातः- शतस्य निमित्तम् उत्पानः = शत्यः, शतिकः, साहस्त्रः।

[५|१|३९] गोद्वयचोऽसंख्यापरिमाणाश्वादेर्यत् - संयोगात्मक अथवा उत्पातात्मक निमित्त अर्थ में षष्ठीसमर्थ गो शब्द तथा संख्या वाचकभिन्न, परिमाणवाचकभिन्न एवम् अमदिभिन्न द्वज्ञच् प्रातिपदिकों से यत् प्रत्यय होता है। | गोर्निमित्तं संयोग उत्पातो वा = गव्यः। द्वयचः - धनस्य निमित्तं संयोग उत्पातो वा धन्यम्। स्वर्ग्यम्, यशस्यम्।

[५|१|४०] पुत्राच्छच - संयोगात्मक अथवा उत्पातात्मक निमित्त अर्थ में षष्ठीसमर्थ पुत्र शब्द से विकल्प से छ तथा यत् प्रत्यय होते हैं। | पुत्रस्य निमित्त संयोग उत्पातो वा = पुत्रीयः, पुत्र्यः।

[५|१|४१] सर्वभूमिपृथिवीभ्यामणञौ - संयोगात्मक अथवा उत्पातात्मक निमित्त अर्थ में षष्ठीसमर्थ में सर्वभूमि तथा पृथिवी शब्दों से क्रमशः अण् तथा अञ् प्रत्यय होते हैं। | सर्वभूमेर्निमित्तं संयोग उत्पातो वा = सार्वभौमः। पार्थिवः।

[५|१|४२] तस्येश्वरः - ` ईश्वरः` (स्वामी) अर्थ में षष्ठयन्त प्रातिपादिक सर्वभूमि और पृथिवी से ` अण् ` ( अ) प्रत्यय और पृथिवी से अञ् ( अ) प्रत्यय होता है। | `पृथिव्या ईश्वरः` (पृथिवी का स्वामी) - इस अर्थ में षष्ठयन्त प्रातिपादिक पृथिवी से ` अञ् ` प्रत्यय हो `पृथिव्याः अ ` रूप बनता है। यहाँ सुप्-लोप हो `पृथिवी अ ` रूप बनने पर अजादि-वृद्धि और अन्त्य-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन-पुँल्लिङ्ग में `पार्थिवः` रूप सिद्ध होता है।

[५|१|४३] तत्र विदित इति च - सप्तमीसमर्थ सर्वभूमि तथा पृथिवि शब्दों से विदित (प्रसिद्ध) अर्थ में क्रमशः अण् तथा अञ् प्रत्यय होते हैं। | सर्वभूमौ विदितः - सार्वभौमः। पृथिव्यां विदितह्ज` - पार्थिवः।

[५|१|४४] लोक-सर्वलोकाट्ठञ् - सप्तमीसमर्थ लोक तथा सर्वलोक शब्दों से विदित अर्थ में ढञ् प्रत्यय होता है। | लोके विदितः = लौकिकः। सर्वलोके विदितः = सार्वलौकिकः।

[५|१|४५] तस्यवापः - षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिक से वाप (क्षेत्र) अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | प्रस्थस्य वापः क्षेत्रं = प्रास्थिकम्। द्रौणिकम्, खारीकम्।

[५|१|४६] पात्रात्ष्ठन् - षष्ठीसमर्थ पात्र शब्द से वाप अर्थ में ष्ठन् प्रत्यय होता है। | पात्रस्य वापः = पात्रिकं क्षेत्रम्। पात्रिकी क्षेत्रभक्तिः।

[५|१|४७] तदस्मिन्वृद्धयायलाभशुल्कोपदादीयते - वृद्धि, आय, लाभ, शुल्क एवम् उपदा (घूस) के रूप में दीयमान पदार्थ के वाचक प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से सप्तम्यर्थ में यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | पञ्चास्मिन् वृद्धिर्वा आयो वा लाभो वा शुल्को वा उपदा वा दीयते = पञ्चकः, सप्तकः, शत्यः, शतिकः, साहस्त्रः।

[५|१|४८] पूरणार्धाट्ठन् - वृद्धि, आय, लाभ, शुल्क एवम् उपदा के रूप में दीयमान पदार्थ के वाचक प्रथमासमर्थ पूरणप्रत्ययान्त शब्द तथा अर्द्ध शब्दों से सप्तम्यर्थ में ठन् प्रत्यय होता है। | द्वितीयो वृद्धिर्वा आयो वा लाभो वा शुल्को वा उपधा वा दीयते अस्मिन् = द्वितीयिकः, तृतीयिकः, पञ्चमिकः, सप्तमिकः। आर्द्धिकः।

[५|१|४९] भागाद्यच्च - ऋद्धि, आय, लाभ, शुल्क एवम् उपदा के रूप में दीयमान पदार्थ के वाचक प्रथमासमर्थ भाग शब्द से यत् तथा पाक्षिक ठन् प्रत्यय होते हैं। | भागो वृद्धयादिरस्मिन् दीयते = भाग्यम्, भागिकम्।

[५|१|५०] तद्धरतिवहत्यावहतिभाराद्वंशादिभ्यः - हरति, वहति एवम् आवहति अर्थों में द्वितीयासमर्थ भारशब्दोत्तरपदक वंश कुटज आदि शब्दों से अथवा भरस्वरूप वंश आदि शब्दों से यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | इक्षुभारिकः, कोटजभारिकः, बाल्वजभारिकः, मौलभारिकः।

[५|१|५१] वस्नद्रव्याभ्यां ठन् कनौ - द्वितीयासमर्थ वस्न तथा द्रव्य शब्दों से यथाक्रम ठन् तथा कन् प्रत्यय होते हैं। | वस्नं हरति वहति, आवहति वा = वस्निकः। द्रव्यकः।

[५|१|५२] संभवत्यवहरति पचति - द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिक से सम्भवति, अवहरति (उपसंहरण करता है) तथा पचति अर्थों में यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | प्रस्थ + ठञ् == प्रस्थम्, खारी + ईकन् == खारीकः।

[५|१|५३] आढकाचित-पात्रात् खोऽन्य-तरस्याम् - सम्भवति आदि अर्थों में द्वितीयासमर्थ आढक, आचित तथा पात्र शब्दों से विकल्प से ख (ईन) प्रत्यय होता है। | आढक + ख == आढकीना, आचित + ख == आचितीना, पात्र + ख == प्रात्रीणा।

[५|१|५४] द्विगोःष्ठंश्च - आढकशब्दान्त, अचितशब्दान्त तथा पात्रशब्दान्त द्विगु से सम्भवति आदि अर्थों में ठन् प्रत्यय होता है। | द्व्याढक + ष्ठन् + ङीष् == द्व्याढकिकी, द्व्याढक + ख + ङीष् == द्व्याढकीना, द्व्याढक + ठञ् का लुक् + ङीष् == द्व्याढकी।

[५|१|५५] कुलिजाल्लुक्खौच - कुलिजशब्दान्त द्विगु से सम्भवति आदि अर्थों में विकल्प से ठञ्, ख प्रत्यय तथा इनका लोप। | लुक् - द्वे कुलिजे सम्भवत्यवहरति पचति = द्विकुलिजी। ख - द्विकुलिजीना। ष्ठन् - द्विकुलिजिकी। ठञ् - द्वैकुलिजिकी।

[५|१|५६] सोऽस्यांशवस्नभृतयः - अंशवाचक, मूल्यवाचक तथा वेतनवाचक प्रथमासमर्थ शब्दों से षष्ठयर्थ में यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | पञ्च अंशो वस्नो भृतिर्वाऽस्य = पञ्चकः, सप्तकः, साहस्त्रः।

[५|१|५७] तदस्यपरिमाणम् - परिमाणार्थक प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से षष्ठयर्थ में यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | प्रस्थः परिमाणमस्य = प्रस्थिको राशिः। खारीकः, शत्यः, शतिकः, साहस्त्रः, द्रौणिकः, कौडविकः।

[५|१|५८] संख्यायाः संज्ञा-सङ्घ-सूत्राध्ययनेषु - परिमाणोपधिक संख्यावाचक प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से संज्ञास्वरूप, संघात्मक सूत्रात्मक तथा अध्ययनात्मक षष्ठयर्थ में यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | संज्ञा पञ्चैवः सङ्घः, अष्टकः सङ्घः। सूत्रम् - अष्टावध्यायाः परिमाणमस्य सूत्रस्य = अष्टकं।लो

[५|१|५९] पंक्ति-विंशति-त्रिंशच्चत्वारिंशत्-पञ्चाशत्षष्टि-सप्तत्यशीति-नवति-शतम् - पङ्क्ति, विंशति, त्रिंशत्, चत्वारिशत्, पञ्चाशत्, षष्टि, सप्तति, अशीति, नवति और शतम् शब्द निपातित होते हैं। | आशीतिः ( अस्सी) - निपातन द्वारा `तॎ प्रत्यय और प्रकृति- अष्टदशत् को ` अंशी` हो अशीति रूप बनने पर विभक्ति-कार्य हो अशीतिः रूप सिद्ध होता है।

[५|१|६०] पञ्चद्दशतौवर्गेवा - वर्गात्मक षष्ठयर्थ में परिमाणोपाधिक संख्यावाचक प्रथमासमर्थ पञ्चन् तथा ढशन् शब्दों से पञ्चत् तथा दशत् शब्दों का निपातन। | पञ्च परिमाणमस्य = पञ्चद् वर्गः, दशद् वर्गः। पक्षे कन् - पञ्चको वर्गः, दशको वर्गः।

[५|१|६१] सप्तनोऽञ् छन्दसि - वर्गात्मक षष्ठयर्थ में परिमाणोपाधिक संख्यावाचक सप्तन् शब्द से छन्दोविषय में अञ् प्रत्यय होता है। | सप्त साप्तान्यसृजन्

[५|१|६२] त्रिंशच्चत्वारिंशतोर्ब्राह्मणेसंज्ञायांडण् - वेदभागात्मक ब्राह्मण स्वरूप संज्ञाऽभिन्न षष्ठयर्थ में प्रथमासमर्थ परिमाणोपधिक त्रिशत् तथा चत्वारिषत् शब्दों से डण् प्रत्यय होता है। | त्रिंशदध्यायाः परिमाणमेषां ब्रह्मणानां त्रंशानि, ब्राह्मणानि। चत्वारिंशानि ब्रह्मणानि।

[५|१|६३] तदर्हति - ` अर्हतॎ (प्राप्त करने योग्य होता है) - इस अर्थ में द्वितीयान्त प्रातिपादिक से यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | `श्वेत-च्छत्रमर्हतॎ (श्वेतच्छत्र प्राप्त करने योग्य होता है) - इस अर्थ में द्वितीयान्त श्वेत्च्छत्रम् से ठञ् प्रत्यय हो `श्वेतच्छत्रम् ठऄ रूप बनता है। यहाँ सुप्-लोप हो `श्वेतच्छत्र ठऄ रूप बनने पर इक- आदेश, अजादि-वृद्धि और अन्त्य-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन-पुँल्लिङ्ग में श्वैतच्छत्रिकः रूप सिद्ध होता है।

[५|१|६४] छेदादिभ्योनित्यम् द्वितीयासमर्थ छेद आदि शब्दों से नित्यमर्हति (सर्वदा योग्य है) अर्थ में यथाविहित अर्थात् ठक् (इक) प्रत्यय होते हैं। | छेद + ठक् == छैदिकः, भेद + ठक् == भैदिकः, द्रोह + ठक् == द्रौहिक, दोह + ठक् == दौहिक। इसी प्रकार नैर्तिक, कैर्षिक आदि।

[५|१|६५] शीर्षच्छेदाद्यच्च - द्वितीयासमर्थ शीर्षच्छेद शब्द से `नित्यमर्हतॎ अर्थ में यत् (य) प्रत्यय और यथाविहित प्रत्यय होता है। | शिरश्छेदं नित्यमर्हति शीर्षच्छेद्यः, शैर्षच्छेदिकः।

[५|१|६६] दण्डादिभ्योः यः ` अर्हतॎ (प्राप्त करने योग्य होता है) अर्थ में दण्डादिगण में पठित द्वितीयान्त प्रातिपादिक दण्ड आदि से यत् (य) प्रत्यय होता है। | दण्डमर्हति (दण्ड प्राप्त करने योग्य होता है) - इस अर्थ में द्वितीयान्त प्रातिपादिक दण्ड से यत् प्रत्यय हो `दण्डम् यऄ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो `दण्ड यऄ रूप बनने पर अन्त्य-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन-पुँल्लिंग में दण्डयः रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - दण्ड + यत् == दण्ड्यः, मुसल + यत् == मुसल्यः, मेघ + यत् == मेघ्यः, उदक + यत् == उदक्यः आदि।

[५|१|६७] छन्दसि च - द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिक मात्र में ` अर्हतॎ अर्थ में छन्दोविषय में यत् प्रत्यय होता है। | उदक + यत् == उदक्याः, वृत्त + यत् == व्रॊत्त्यः, यूप + यत् == यूप्यः।

[५|१|६८] पात्राद् घंश्च - द्वितीयासमर्थ पात्र से ` अर्हति ` अर्थ में विकल्प से घन् तथा यत् प्रत्यय होते हैं। | पात्र + घन् == पात्रियः, पात्र + यत् == पात्र्यः।

[५|१|६९] कडङ्कर-दक्षिणाच्छ च - द्वितीयासमर्थ कडङ्गर तथा दक्षिणा शब्दों से ` अर्हतॎ अर्थ में विकल्प से छ प्रत्यय तथा विकल्प से यत् प्रत्यय होते हैं। | कडङ्कर + छ == कडङ्करीय कडङ्कर + यत् == कडङ्कर्यः, दक्षिण + छ == दक्षणीयः, दक्षिण + यत् == दक्षिण्यः।

[५|१|७०] स्थालीबिलात् - द्वितीयासमर्थ स्थालीबिल शब्द से ` अर्हतॎ अर्थ में विकल्प से छ तथा यत् प्रत्यय होते हैं। | स्थालीबिलमर्हन्ति स्थालीबिलीयास्तण्डुलाः, स्थालीबिल्याः।

[५|१|७१] यज्ञर्त्विग्भ्यांघखञौ - द्वितीयासमर्थ यज्ञ शब्द तथा ऋत्विक शब्द से ` अर्हतॎ अर्थ में क्रमशः घ तथा खञ् प्रत्यय होते हैं। | यज्ञ + घ == यज्ञः, ऋत्विज् + खञ् == ऋत्विजीनः।

[५|१|७२] पारायणतुरायणचान्द्रायणंवर्तयति - द्वितीयासमर्थ पारायण, तुरायण तथा चन्द्रायण शब्दों से वर्त्तयति (सम्पादन करता है) अर्थ में ठन् प्रत्यय होता है। | परायणं वर्त्तयति = परायणिकश्छात्रः, तुरायणं वर्त्तयति = तौरायणिको यजमानः, चान्द्रायणं वर्त्तयति = चान्द्रायणिकस्तपस्वी।

[५|१|७३] संशयमापन्नः - द्वितीयासमर्थ संशय शब्द से ` आपन्नः` (प्राप्त हुआ है) अर्थ में ठञ् (इक) प्रत्यय होता है। | संशय + ठञ् == सांशयिक।

[५|१|७४] योजनं गच्छति - द्वितीयासमर्थ योजन शब्द से गच्छति अर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है। | योजनं गच्छति = यौजनिकः।

[५|१|७५] पथःष्कन् - द्वितीयासमर्थ पथिन् शब्द से `गच्छतॎ अर्थ में ष्कन् प्रत्यय होता है। | पन्थानं गच्छति = पथिकः, पथिकी। षित्वात् स्त्रियां ङीष्।

[५|१|७६] पन्थोणनित्यम् - द्वितीयासमर्थ पथिन् शब्द से `नित्यं गच्छतॎ अर्थ में ण प्रत्यय तथा पथिन् को पन्थ आदेश। | पन्थानं नित्यं गच्छति = पान्थो भिक्षां याचते।

[५|१|७७] उत्तरपथेनाहृतं च - तृतीयासमर्थ उत्तरपथशब्द से ` आहृतम् ` (लाया गया है) तथा `गच्छतॎ अर्थों में ठञ् प्रत्यय होता है। | उत्तरपथेनाहृतम् = औत्तरपथिकम्। उत्तरपथेन गच्छति = औत्तरपथिकः।

[५|१|७८] कालात् - यहाँ से आगे वेधीयमान प्रत्यय कालवाचक शब्दों से विहित अवगन्तव्य है। | मासेन निर्वृत्तं = मासिकम्, आर्द्धमासिकम्, सांवत्सरिकम्।

[५|१|७९] तेननिर्वृत्तम् - `निर्वृत्तम् ` (सिद्ध हुआ) अर्थ में तृतीयान्त कालवाचक प्रातिपादिक से ठञ् प्रत्यय होता है। | ` अह्ना निर्वृत्तं` (एक दिन में सिद्ध हुआ या किया गया) - इस अर्थ में तृतीयान्त कालवाचक प्रातिपादिक ` अहन् ` से `ठञ् ` प्रत्यय गो ` अह्ना ठऄ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो ` अहन् ठ ` रूप बनने पर इक- आदेश हो ` अहन् इक ` रूप बनेगा। यहाँ अल्लोपोऽनः (६_४_१३४) से अन् के अकार का लोप तथा अजादि-वृद्धि आदि हो रथमा के एकवचन-नपुंसकलिङ्ग में ` आहनिकम् ` रूप सिद्ध होता है।

[५|१|८०] तमधीष्टोभृतोभूतोभावी - द्वितीयासमर्थ कालवाचक शब्दों से अधीष्ट (सत्कारपूर्वक नियुक्त), वेतनक्रीत, भूत तथा भावी अर्थों में यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | मासमधीष्टो मासिकोऽध्यापकः, मासं भृतो मासिकः कर्मकरः। मासं भूतो मासिको व्याधिः। मासं भावी मासिक उत्सवः।

[५|१|८१] मासाद् वयसि यत्-खञौ - द्वितीयासमर्थ मास शब्द से वयस् अर्थ में विकल्प से यत् तथा खञ् प्रत्यय होते हैं। | मासं भूतो मास्यः शिशुः मासीनः।

[५|१|८२] द्विगोर्यप् - मासान्तद्विगु से भूत ( अतीत) वयस् अर्थ में यप् प्रत्यय होता है। | षण्मास + ठन् == षण्मासिक, षण्मास + यत् == षण्मास्य।

[५|१|८३] षण्मासाण्ण्यच्च - षण्मास शब्द से वयस् अर्थ में ण्यत् तथा यप् प्रत्यय विकल्प से होते हैं। | षण्मास + ण्यत् == षाण्मास्यः, षण्मास + यप् == षण्मास्यः, षण्मास + ठन् == षाण्मासिकः

[५|१|८४] अवयसिठंश्च - वयसभिन्न अर्थ में षण्मास शब्द से ठन् तथा पाक्षिक ण्यत् प्रत्यय होते हैं। | षण्मास + ठक् == षाण्मासिकः, षण्मास + यत् == षाण्मास्यः।

[५|१|८५] समायाःखः - द्वितीयासमर्थ समा शब्द से अधीष्ट आदि पूर्वाक्त चार अर्थों में ख प्रत्यय होता है। | समामधीष्टो भृतो भृतो भावी वा = समीनः।

[५|१|८६] द्विगोर्वा - समाशब्दान्त द्वितीयासमर्थ द्विगु से निर्वृत्, अधीष्ट आदि पाँच अर्थों में विकल्प से ख प्रत्यय होता है। | द्वे समेऽधीष्टो भृतो भूतो भावी वा द्विसमीनः, द्वैसमिकः। त्रसमीनः, त्रैसमिकः।

[५|१|८७] रात्र्यहःसंवत्सराच्च - रात्रिशब्दान्त, अहन् शब्दान्त तथा संवत्सरशब्दान्त द्विगु से निर्वृत्त आदि पाँच अर्थों में विकल्प से ख प्रत्यय होता है। | द्विरात्रीणः, द्वैरात्रिकः। त्रिरात्रीणः, त्रैरात्रिकः। द्व्यहीनः, द्वैयह्निकः। त्र्यहीणः, त्रैयह्निकः। द्विसंवत्सरीणः, द्विसांवत्सरिकः। त्रिसंवत्सरीणः, त्रिसांवत्सरिकः।

[५|१|८८] वर्षाल्लुक्च - वर्षान्त द्विगु से निर्वृत्त आदि पाँच अर्थों में विकल्प से ख प्रत्यय तथा ठञ् प्रत्यय होते हैं और दोनों ही प्रत्ययों का विकल्प से लोप। | द्विवर्षीणो व्याधिः, द्विवार्षिकः, द्विवर्षः। त्रिवर्षीणः, त्रिवार्षिकः, त्रिवर्षः।

[५|१|८९] चित्तवतिनित्यम् - वषशब्दान्त द्विगु से निर्वृत्त आदि अर्थों में विहित प्रत्यय का लोप यदि प्रत्ययान्त्र चित्तवत(प्राणिमात्र) पदार्थ का प्रतिपादक हो। | द्विवर्षो दारकः।

[५|१|९०] षष्टिकाःषष्टिरात्रेणपच्यन्ते - तृतीयासमर्थ षष्टिरात्र शब्द से `पच्यन्ते ` (पकाये जाते हैं) अर्थ में कन् प्रत्यय का रात्रशब्द का लोप निपातित होता है। | षष्टिरात्रेण पच्यन्ते = षष्टिकाः।

[५|१|९१] वत्सरान्ताच्छश्छन्दसि - वत्सरशब्दान्त प्रातिपदिकों से निर्वृत्त आदि पाँच अर्थों में छ प्रत्यय होता है। | इद्वत्सरीयः, इदावत्सरीयः।

[५|१|९२] संपरिपूर्वात्खच - सम्पूर्वक तथा परिपूर्वक वत्सरशब्दान्त प्रातिपदिकों से निर्वृत्त आदि अर्थों में विकल्प से ख तथा छ प्रत्यय छन्दो-विषय में होते हैं। | खः - संवत्सरीणः, परिवत्सरीणः। छः - संवत्सरीयः, परिवत्सरीयः।

[५|१|९३] तेनपरिजय्यलभ्यकार्यसुकरम् - तृतीयासमर्थ कालवाचक शब्दों से परिजघय (जीतने योग्य) , लभ्य, काघर्य तथा सुकर अर्थों में ठञ् प्रत्यय होता है। | मासेन परिजय्यः = शक्यते जेतुं = मासिको व्याधिः, संवत्सरिकः। मासेन लभ्यो = मासिकः पटः। मासेन कार्यं = मासिकं चान्द्रायणम्। मासेन सुकरः = मासिकः प्रासादः।

[५|१|९४] तदस्यब्रह्मचर्यम् - द्वितीयासमर्थ कालवाचक शब्दों से षष्ठयर्थ में ठञ् प्रत्यय ब्रह्मचर्य के गम्यमान होने पर होता है। | मासोऽस्य ब्रह्मचर्यस्य = मासिकं ब्रह्मचर्यम्। अत्र केचित् तदिति द्वितीयासमर्थविभक्तिरिति मन्यन्ते। तस्मिन् पक्षेऽयं विग्रहः - मासं ब्रह्मचर्यमस्य = मासिको ब्रह्मचारी।

[५|१|९५] तस्य च दक्षिणा यज्ञाख्येभ्यः - यज्ञवाचक षष्ठीसमर्थ शब्दों से दक्षिणा अर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है | अग्निष्टोमस्य दक्षिणा = आग्निष्टोमिकी, वाजपेयिकी, राजसूयिकी।

[५|१|९६] तत्रचदीयतेकार्यंभववत् - सप्तमीसमर्थ प्रातिपदिक से `दीयते ` (दिया जाता है) तथा `कार्यम् ` (करना है) अर्थों में भवार्थ के समान प्रत्यय होते हैं। | यथा मासे भवं मासिकम्, सांवत्सरिकम्, प्रावृषेण्यम्, हैमन्तम्, हैमन्तिकं भवार्थे प्रत्यया भवन्ति तथैव दीयते कार्यमित्येतयोर्थयोरपि। मासे दीयते कार्यं वा = मासिकम्, सांवत्सरिकम्। प्रावृषि दीयते कार्यं वा = प्रावृषेण्यमित्यादयः।

[५|१|९७] व्युष्टादिभ्योऽण् सप्तमीसमर्थ व्युष्ट आदि शब्दों से `दीयते ` (दिया जाता है) तथा `कार्यम् ` (करना है) अर्थों में अण् प्रत्यय होता है। | व्युष्ट + अण् == वैयुष्टम्, नित्य + अण् == नैत्यम्।

[५|१|९८] तेनयथाकथाचहस्ताभ्यांणयतौ - तृतीयासमर्थ यथाकथाच तथा हस्त शब्दों से `दीयते ` (दिया जाता है) तथा `कार्यम् ` (करना है) अर्थों में क्रमशः ण एवम् यत् प्रत्यय होते हैं। | यथाकथाच दीयते कार्यं वा = याथाकथाचम्। हस्तेन दीयते कार्यं वा = हस्त्यम्।

[५|१|९९] संपादिनि - तृतीयासमर्थ प्रातिपदिक से `गुणोत्कर्षऄ सम्पादक अर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है। | कर्णवेष्टकाभ्यां सम्पादि मुखम् = कार्णवेष्टाकिकं मुखम्। वास्त्रयुगिकं शरीरम्।

[५|१|१००] कर्मवेषाद्यत् - तृतीयासमर्थ कर्मन् तथा वेष शब्दों से गुणोत्कर्ष-सम्पादक अर्थ में यत् प्रत्यय होता है। | कर्मणा सम्पद्यते = कर्मण्यं शरीरम्। वेषेण सम्पद्यते वेष्यो नटः, वेष्या नटिनी।

[५|१|१०१] तस्मैप्रभवतिसंतापादिभ्यः चतुर्थीसमर्थ सन्ताप आदि शब्दों से `तस्मै प्रभवतॎ अर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है। | संतापाय प्रभवति = सांतापिकः, सान्नाहिकः।

[५|१|१०२] योगाद्यच्च - चतुर्थीसमर्थ योग शब्द् से `तस्मै प्रभवतॎ अर्थ में यत् तथा ठञ् प्रत्यय होता है। | योग + यत् == योग्य, योग + ठञ् == यौगिक।

[५|१|१०३] कर्मणउकञ् - चतुर्थीसमर्थ कर्मन् शब्द् से `तस्मै प्रभवतॎ अर्थ में उकञ् प्रत्यय होता है। | कर्मन् + उकञ् == कार्मुक।

[५|१|१०४] समयस्तदस्यप्राप्तम् - सम्प्राप्तकालवाचक प्रथमासमर्थ समय शब्द से षष्ठयर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है। | समयः प्राप्तोऽस्य = सामयिकं कार्यम्।

[५|१|१०५] ऋतोरण् - प्रथमासमर्थ सम्प्राप्तकालार्थक ऋतु शब्द से षष्ठयर्थ में अण् प्रत्यय होता है। | ऋतुः प्राप्तोऽस्य = आर्त्तवं पुष्पम्।

[५|१|१०६] छन्दसिघस् - छान्दो-विषय में ऋतु शब्द से उक्तार्थ में घस् प्रत्यय होता है। | अयं ते योनिरऋत्वियः।

[५|१|१०७] कालाद्यत् - सम्प्राप्तकालवाचक प्रथमासमर्थ काल शब्द से षष्ठयर्थ में यत् प्रत्यय होता है। | काल + यत् == काल्य।

[५|१|१०८] प्रकृष्टेठञ् - प्रकर्षार्थ में वर्त्तमान प्रथमासमर्थ काल शब्द से षष्ठयर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है। | प्रकृष्टो दीर्घः कालोऽस्य-कालिकमृणम्, कालिकं वैरम्।

[५|१|१०९] प्रयोजनम् - प्रयोजन स्थानीय प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से षष्ठयर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है। | धर्म + ठञ् == धार्मिकः, परिक्षक + ठञ् == पारीक्षकः।

[५|१|११०] विशाखा-षाढा-दण्मन्थ-दण्डयोः - प्रयोजन स्थानीय प्रथमासमर्थ विषाखा तथा आषाढ़ा शब्दों से अण् प्रत्यय होता है। यदि क्रमशः प्रत्ययान्त के वाच्य मन्थ तथा दण्ड हों। | विशाखा प्रयोजनमस्य मन्थस्य = वैशाखो मन्थः। आषाढ़ो दण्डः।

[५|१|१११] अनुप्रवचनादिभ्यश्छः प्रयोजन स्थानीय प्रथमासमर्थ अनुप्रवचन आदि शब्दों से षष्ठयर्थ में छ प्रत्यय होता है | अनुप्रवचन + छ == अनुप्रवचनीयम्, उत्थापन + छ == उत्थापनीयम्, उपस्थान + छ == उपस्थानीयम्। इसी प्रकार प्रवेशनीयम्, अनुप्रवेशनीयम्, अनुवासनीयम्, अनुवचनीयम्।

[५|१|११२] समापनात् सपूर्वपदात् - पूर्वपदविशिष्ट प्रयोजन स्थानीय समापन शब्द से षष्ठयर्थ में छ प्रत्यय होता है। | छन्दस्समापनं प्रयोजनमस्य = छन्दः समापनीयम्, व्याकरणसमापनीयम्।

[५|१|११३] ऐकागारिकट् चौरे - चौर के वाच्य होने पर षष्ठयर्थ में प्रयोजन स्थानीय एकागार शब्द के स्थान में ऐकागारिकट् शब्द का निपातन। | एकागारं प्रयोजनमस्य = ऐकागारिकः चौरः।

[५|१|११४] आकालिकडाद्यन्तवचने| - उत्पत्ति विनाशो भय प्रातिपदिक समाङकाल शब्द के स्थान में आकाल आदेश और उससे इकट् प्रत्यय का निपातन।

[५|१|११५] तेनतुल्यंक्रियाचेद्वतिः - `तुल्यं क्रिया चेतऄ (तुल्य क्रिया हो यदि)- इस अर्थ में तृतीयान्त प्रातिपादिक से वति प्रत्यय होता है। | ब्राह्मणेन तुल्यम् क्रिया चेत् ` (ब्राह्मण के तुल्य से क्रिया हो यदि) - इस अर्थ में तृतीयान्त ब्राह्मणेन से वति९वत्) प्रत्यय और सुप्-लोप हो `ब्राह्मणवत् ` रूप सिद्ध होता है।

[५|१|११६] तत्रतस्येव - ` इवऄ (समान) अर्थ में सप्तम्यन्त और षष्ठयन्त प्रातिपादिक से वति (वत्) प्रत्यय होता है। | `मथुरायामिवऄ (मथुरा के समान) - इस अर्थ में सप्तम्यन्त `मथुरायामऄ से वति प्रत्यय तथा सुप्-लोप हो `मथुरावत् ` रूप सिद्ध होता है।

[५|१|११७] तदर्हम् - द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिक से ` अर्हम् ` (योग्य) अर्थ में वति प्रत्यय होता है। | राजानमर्हति राजवत् पालनम्। ब्राह्मणवद् विद्याप्रचारः। ऋषिवत्, क्षत्रियवत्।

[५|१|११८] उपसर्गाच्छन्दसि धात्वर्थे - धात्वर्थ विशिष्ट साधनार्थ उपसर्ग से स्वार्थ में वति प्रत्यय वेद में होता है। | यद् उद्वतो निवतो यासि वप्सद्।

[५|१|११९] तस्य भावस्त्व तलौ - भावः (भाव) अर्थ में षष्ठयन्त प्रातिपादिक से `त्वऄ और `तल् ` (त) प्रत्यय होते हैं। | `गोर्भावः` (गो का भाव) - इस अर्थ में षष्ठयन्त प्रातिपादिक `गो ` से `त्वऄ प्रत्यय हो `गोः त्वऄ रूप बनता है। तब सुप्-लोप और विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन-नपुंसकलिङ्ग में `गोत्वम् ` रूप सिद्ध होता है।

[५|१|१२०] आचत्वात् - `ब्रह्मणस्त्वः` (५_१_१३६) तक भी षष्ठयन्त प्रातिपादिक से `त्वऄ और `तल् ` (त) प्रत्यय होते हैं। | पृथुता, पृथुत्वम्।

[५|१|१२१] ननञ्पूर्वात्तत्पुरुषादचतुर-संगत-लवणवटयुधकतरसलसेभ्यः - अचतुर, असग्त, अलवण, अवट, अयुध, अकत, अरस तथा अलस शब्दों से भिन्न नञ्पूर्वक तत्पुरुष समस्त षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिकों से विधास्यमान भाव प्रत्यय नहीं होते। | वक्ष्यति (५_१_१२७) , तत्र नञ्पूर्वात् तत्पुरुषात् त्वतलावेव भवतो, न तु यक्। अपतित्वम्, अपतिता। अपटुत्वम्, अपटुता।

[५|१|१२२] पृथ्वादिभ्यइमनिज्वा `भावऄ अर्थ में पृथ्वादिगण में पठित षष्ठयन्त प्रातिपादिक `पृथु` आदि विकल्प से ` इमनिच़् (इमन्) प्रत्यय होता है। | `पृथोर्भावः` (पृथु का भाव) - इस अर्थ में षष्ठयन्त प्रातिपादिक पृथु से इमनिच् प्रत्यय हो पृथोः इमन् रूप बनता है।

[५|१|१२३] वर्णदृढादिभ्यःष्यञ्च वर्णवाचक (किसी खास रंग को बताने वाला) और दृढादिगण में पठित `दृढऄ आदि षष्ठयन्त पदों से भाव अर्थ में ष्यञ् (य) प्रत्यय होता है और इमनिच् भी। | `शुक्लस्य भावऄ (शुक्ल का भाव) - इस अर्थ में वर्ण-वाचक षष्ठयन्त `शुक्लऄ से `ष्यञ् ` प्रत्यय हो `शुक्लस्य यऄ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो `शुक्ल यऄ रूप बनने पर अजादि-वृद्धि और अन्त्य-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन-नपुंसकलिङ्ग में `शौक्ल्यम् ` रूप सिद्ध होता है। ` ष्यञ् ` के अभाव-पक्ष में ` इमनिच् ` प्रत्यय हो पूर्ववत् `शुक्लिमा` रूप बनेगा। इसी प्रकार कृष्णता, दृढ़ता।

[५|१|१२४] गुणवचनब्राह्मणादिभ्यःकर्मणिच षष्ठयन्त गुणवाचक और ब्राह्मण दिगण में पठित `ब्राह्मणऄ आदि शब्दों से कर्म (कार्य, क्रिया) तथा भाव अर्थ में `ष्यञ् ` (य) प्रत्यय होता है। | `जडस्य कर्म भावो वा` (जड़-मूर्ख का कार्य या भाव) - इस अर्थ में षष्ठयन्त गुणवाचक प्रातिपादिक `जड़ऄ से ष्यञ् ` प्रत्यय हो `जडस्य यऄ रूप बनता है। तब पूर्ववत् सुप्-लोप, अजादि-वृद्धि और अन्त्य-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन-नपुंसकलिङ्ग में `जाडयम् ` रूप सिद्ध होता है।

[५|१|१२५] स्तेनाद्यन्नलोपश्च - षष्ठीसमर्थ स्तेन शब्द से भाव तथा कर्म (क्रिया) अर्थों में यन् प्रत्यय तथा प्रकृति के नकार का लोप। | स्तेन् + यत् == स्तेयम्।

[५|१|१२६] सख्युर्यः - षष्ठयन्त प्रातिपादिक `सखॎ से भाव और कर्म अर्थ में `यऄ प्रत्यय होता है। | `सख्युः कर्म भावो वा` (सखि का कार्य या भाव) - इस अर्थ में षष्ठयन्त प्रातिपादिक `सखॎ से `यऄ प्रत्यय हो `सखि यऄ रूप बनता है। तब अन्त्य-लोप और विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन-नपुंसकलिङ्ग में `सख्यम् ` रूप सिद्ध होता है।

[५|१|१२७] कपिज्ञात्योर्ढक् - षष्ठयन्त प्रातिपादिक कवि और ज्ञाति से भाव और कर्म अर्थ में `ढक् ` (ढ) प्रत्यय होता है। | `कपेः` से `ढक् ` प्रत्यय हो `कपेः ढ ` रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो `कपि ढऄ रूप बनने पर आयनेयी०(७_१_२) से प्रत्यय के ढकार के स्थान पर ` एयऄ होकर कपि + एय् + अ ==> कपि एय रूप बनेगा। तब अजादि-वृद्धि और अन्त्य-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन-नपुंसकलिङ्ग में `कापेयम् ` रूप सिद्ध होता है।

[५|१|१२८] पत्यन्तपुरोहितादिभ्योयक् षष्ठयन्त पत्यन्त (जिसके अन्त में `पतॎ हो) और पुरोहितादिगण में पठित `पुरोहितऄ आदि शब्दों से भाव और कर्म अर्थ में यक् (य) प्रत्यय होता है। | `सेनापतेः कर्म भावो वा` (सेनापति का कार्य या भाव) - इस अर्थ में षष्ठयन्त पत्यन्त `सेनापतॎ से यक् प्रत्यय हो `सेनापतेः यऄ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो `सेनापति यऄ रूप बनने पर अजादि-वृद्धि और अन्त्य-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन-नपुंसकलिङ्ग में `सैनापत्यम् ` रूप सिद्ध होता है।

[५|१|१२९] प्राणभृज्जातिवयोवचनोद् गात्रादिभ्योऽञ् षष्ठीसमर्थ प्राणि जातिवाचक वयोवाचक, तथा उद्गात्र आदि शब्दों से भाव और कर्म अर्थों में अञ् प्रत्यय होता है। | प्राणभृज्जातिवाचिभ्यः - अश्वस्य भावः कर्म वा = आश्वम्, अश्वत्वम्, अश्वता, औष्ट्रम्, उष्ट्रत्वम्, उष्ट्रता। वयोवचनेभ्यः - कौमारम्, कैशोरम्। एवं त्वतलावपि बोध्यौ उद्गात्रादिभ्यः - उद्गातुर्भावः कर्म वा = औद्गात्रम्, अन्नेत्रम्।

[५|१|१३०] हायनान्तयुवादिभ्योऽण् षष्ठीसमर्थ हायनशब्दान्त तथा युवन आदि शब्दों से भाव और कर्म अर्थों में अण् प्रत्यय होता है। | हायनान्तेभ्यः - द्विहायनस्य भावः कर्म वा = द्वैहायनम्, त्रैहायनम्। युवादिभ्यः - यौवनम्। स्थाविरम्, सर्वत्र त्वतलावप्युदाहार्यौ।

[५|१|१३१] इगन्ताच्चलघुपूर्वात् - लघु हो पूर्व में जिस इक् का तदन्त प्रातिपदिक से भाव कर्म अर्थों में अण् प्रत्यय होता है। | शौच + अण् == शौचम्, शौच + त्व == शुचित्वम् शौच + तल् == शुचिता मौन + अण् == मौनम्, मौन + त्व == मुनित्वम्, मौन + तल् == मुनिता।

[५|१|१३२] योपधाद् गुरुपोत्तमाद् वुञ् - यकारोपध तथा गुरुपोत्तम (उपोक्तम = अन्तिम से पहला) प्रातिपदिकों से भाव कर्म अर्थों में वुञ् प्रत्यय होता है। | रमणीय + वुञ् == रामणीयम्, वसनीय + वुञ् == वासनीयम्, अभिधानीय + वुञ् == अभिधानीयकम्।

[५|१|१३३] द्वन्द्वमनोज्ञादिभ्यश्च - द्वन्द्वसंज्ञक तथा मनोज्ञ आदि प्रातिपदिकों से भाव-कर्म अर्थों में वुञ् प्रत्यय होता है | मनोज्ञ + वुञ् == मनोज्ञकम्, प्रियरूप + वुञ् == प्रियरूपकम्, अभिरूप + वुञ् == अभिरूपकम्, कल्याण + वुञ् == कल्याणकम्।

[५|१|१३४] गोत्रचरणाच्छ्-लाघात्याकारतदवेतेषु - गोत्रवाचक तथा चरणवाचक प्रातिपदिकों से भाव-कर्म अर्थों में वुञ् प्रत्यय श्लाघा, अत्याकार ( अधिक्षेप) तथा अवेत (प्राप्त) अर्थों में होता है | श्लाघायाम् - गार्गिकया श्लाघते, काठिकया श्लाघते। अत्याकारे - गार्गिकया अत्याकुरुते, कठिकयाऽत्याकुरूत्र्। तदवेते - गार्गिकामवेतः, काठिकामवेतः।

[५|१|१३५] होत्राभ्यश्छः - ऋत्विग्विशेषवाचक शब्दों से भाव-कर्म अर्थों में छ प्रत्यय होता है। | अच्छावाकस्य भावः कर्म वा = अच्छावाकीयम्, मित्रावरुणीयम्, ब्रह्मणाच्छंसीयम्।

[५|१|१३६] ब्रह्मणस्त्वः - ऋत्विग्विशेषवाचक शब्दों से भाव-कर्म अर्थों में त्व प्रत्यय होता है। | ब्रह्मणो भावः कर्म वा = ब्रह्मत्वम्।

[५|२|१] धान्यानांभवनेक्षेत्रेखञ् - `भवनं क्षेत्रम् ` (भवन क्षेत्र) अर्थ में धान्यवाचक षष्ठयन्त प्रातिपादिक से `खञ् ` (ख) प्रत्यय होता है। | `मुदग् नां भवनं क्षेत्रम् ` (मुद्गों-मूंग का भवन्-खेत) - इस अर्थ में धान्य-विशेष-वाचक षष्ठयन्त मुद्ग से `खञ् ` प्रत्यय हो `मुद्गानाम् खऄ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो `मुद्ग खऄ रूप बनने पर आयनेयी०(७_१_२) से प्रत्यय के खकार के स्थान पर ` ईन् ` होकर मुद्ग + ईन् + अ ==> मुद्ग ईन रूप बनेगा। यहाँ अजादि-वृद्धि और अन्त्य-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन-नपुंसकलिङ्ग में मौद्गीनम् रूप सिद्ध होता है।

[५|२|२] व्रीहिशाल्योर्ढक् - `भवनं क्षेत्रम् ` (भवन क्षेत्र) अर्थ में धान्यवाचक षष्ठयन्त प्रातिपादिक व्रीहि और शालि से `ढक् ` (ढ) प्रत्यय होता है। | `व्रीहीणां भवनं क्षेत्रम् ` (व्रीहि का भवन-खेत) - इस अर्थ में धान्यविशेष-वाची षष्ठयन्त `व्रीहॎ से `ढक् ` प्रत्यय हो `व्रीहीणाम् ढऄ रूप बनता है। यहाँ सुप्-लोप हो `व्रीहि ढऄ रूप बनने पर आयनेयी०(७_१_२) से प्रत्यय के ढकार के स्थान पर ` एय् ` होकर व्रीहि + एय् + अ ==> व्रीहि एय रूप बनेगा। तब अजादि-वृद्धि और अन्त्य-लोप आदि होकर `व्रैहेयम् ` रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार शालेयम्।

[५|२|३] यवयवकषष्टिकाद्यत् - क्षेत्रात्मक उत्पत्तिस्थान के अर्थ में षष्ठीसमर्थ यव, यवक तथा षष्टिक शब्द से यत् प्रत्यय होता है। | यव + यत् == यव्य, यवक + यत् == यवक्य, षष्टिक + यत् == षष्टिक्य ।

[५|२|४] विभाषा तिल-माषोमा-भङ्गाणुभ्यः - क्षेत्रात्मक उत्पत्तिस्थान के अर्थ में षष्ठीसमर्थ तिल, माष, उमा, भग तथा अणु शब्दों से विकल्प से यत् प्रत्यय होता है। | तिल् + यत् == तिल्यम्, तिल् + खञ् == तैलीनम्, माष + यत् == माष्यम्, माष + खञ् == माषीणम्, उमा + यत् == उम्यम्, उमा + खञ् == औमीनम्। इसी प्रकार मङ्ग्यम्, भांगीनम्, अण्व्यम्, आणवीनम्।

[५|२|५] सर्वचर्मणःकृतःखखञौ - तृतीयासमर्थ सर्वचर्मन् शब्द से `कृतः` (निर्मित्त) अर्थ में विकल्प से ख तथा खञ् प्रत्यय होते हैं। | सर्वचर्म + ख == सर्वचर्मीणः, सर्वचर्म + खञ् == सर्वचर्मीणः।

[५|२|६] यथामुखसंमुखस्यदर्शनःखः - षष्ठीसमर्थ यथामुख तथा सम्मुख शब्दों से `दर्शनऄ (प्रतिबिम्बदर्शनाधार) अर्थ में ख प्रत्यय होता है। | यथामुखं दर्शनः यथामुखीनः (जैसा मुख ठीक वैसा दिखनेवाला शीशा), समस्य सर्वस्य मुखस्य दर्शनः सम्मुखीनः (सम्पूर्ण मुख को दिखानेवाला)। निपातनात् अकारलोपः।

[५|२|७] तत् सर्वादेःपथ्यङ्ग-कर्म-पत्र-पात्रं-व्याप्नोति - द्वितीयासमर्थ पथिन् शब्दान्त, अग्शब्दान्त, कर्मन्शब्दान्त, पत्रशब्दान्त तथा पात्रशब्दान्त सर्व शब्द से `व्याप्नोतॎ (व्याप्त करता है) अर्थ में ख प्रत्यय होता है। | (केवल सर्व शब्द वाले) सर्वपथिन + ख == सर्वपथीन, सर्वाङ्ग + ख == सर्वाङ्गीण, सर्वकर्म + ख == सर्वकर्मीण आदि।

[५|२|८] आप्रपदं प्राप्नोति - द्वितीयासमर्थ आप्रपद शब्द से `प्रापोतॎ (प्राप्त करता है) अर्थ में ख प्रत्यय होता है। | आप्रपदं प्राप्नोति = आप्रपदीनः पटः।

[५|२|९] अनुपद-सर्वान्नायानयं बद्धाभक्षयति-नेयेषु - द्वितीयासमर्थ अनुपद शब्द से बद्ध अर्थ में सर्वान्त शब्द से `भक्षयतॎ (खाता है) अर्थ में अयानय शब्द से नेय अर्थ में ख प्रत्यय होता है। | अनुपदं बद्धाऽनुपदीना उपानत् (पैर के साथ पूर्णतया सम्बद्ध, न बड़ी न छोटी), सर्वान्नानि भक्षयति सर्वान्नीनो भिक्षुः (सब प्रकार का अन्न जो भी भिक्षा में प्राप्त हो जाये उसे खानेवाला), अयानयं नेयो अयानयीनः शारः (शतरञ्ज क्रीड़ा में दायीं-बायीं ओर से जिस स्थान पर पासे ले जाये जाते हैं, उसे अयानय = फलक शिर कहा जाता है, वहाँ स्थित पासा अयानयीन कहलाता है)।

[५|२|१०] परोवरपरंपरपुत्रपौत्रमनुभवति - द्वितीयासमर्थ परोवर, परम्पर, पुत्रपौत्र शब्दों से अनुभव अर्थ में ख प्रत्यय होता है। | परोवर + ख == परोवरीणः, परम्पर + ख == परोवरीणः।

[५|२|११] अवारपारात्यन्तानुकामंगामी - द्वितीयासमर्थ अवारपार, अत्यन्त तथा अनुकाम शब्दों से `गामी ` (जानेवाला है) अर्थ में ख प्रत्यय होता है। | अवारपार + ख == अवारपारीणः, अत्यन्त + ख == अत्यन्तीनः, अनुकाम + ख == अनुकामीनः

[५|२|१२] समांसमांविजायते - द्वितीयान्त वीप्साद्विरुक्त `समांसमाम् ` शब्द से गर्भधारण अर्थ में ख प्रत्यय होता है। | समांसमां विजायत इति समांसमीना गौः।

[५|२|१३] अद्यश्वीनावष्टब्धे - असान्न प्रसव अर्थ में ` अद्यश्वीनऄ शब्द का निपातन। | अद्य वा श्वो वा विजायते, अद्यश्वीना गौः, अद्यश्वीना वडवा।

[५|२|१४] आगवीनः - `कर्मकरऄ अर्थ में आङ्पूर्वक गो शब्द से ख प्रत्यय का निपातन। | आगवीनः कर्मकरः।

[५|२|१५] अनुग्वलंगामी - काल अर्थ में वर्तमान सप्तम्यन्त सर्व, एक, अन्य, किम्, यद् और तद् से ` दा` प्रत्यय होता है। | ` सर्वस्मिन् काले ` (सब समय में) - यहाँ काल अर्थ में वर्तमान सप्तम्यन्त `सर्वऄ शब्द से `दा` प्रत्यय हो `सर्वस्मिन दा` रूप बनता है।

[५|२|१६] अध्वनो यत्खौ - द्वितीयासमर्थ अध्वन् शब्द से ` अलंगामी ` अर्थ में विकल्प से यत् तथा ख प्रत्यय। | अध्वन् + यत् == अध्वन्यः, अध्वन् + ख == अध्वनीनः।

[५|२|१७] अभ्यमित्राच्छ च - द्वितीयासमर्थ अभ्यमित्र शब्द से ` अलंगामी ` अर्थ में विकल्प से छ, यत् तथा ख प्रत्यय। | अभ्यमित्र + छ == अभ्यमित्रीयः, अभ्यमित्र + यत् == अभ्यमित्र्यः, अभ्यमित्र + ख == अभ्यमित्रीणः

[५|२|१८] गोष्ठात्खञ्भूतपूर्वे - भूतपूर्वोपाधिक गोष्ठ शब्द से स्वार्थ में खञ् प्रत्यय होता है। | गोष्ठो भूतपूर्वः गौष्ठीनो देशः।

[५|२|१९] अश्वस्यैकाहगमः - षष्ठीसमर्थ अश्व शब्द से ` एकाहगम ` (एक दिन में जीने योग्य मार्ग) अर्थ में खञ् प्रत्यय होता है। | अश्व + खञ् == आश्वीनः।

[५|२|२०] शालीनकौपीने अधृष्टाकार्ययोः - अधृष्ट (नम्र) तथा अकार्य (नही करने योग्य) अर्थों में क्रमशः शालीन कौपीन शब्द निपातित होते हैं। | शालाप्रवेशनमर्हति शालीनो भीरुः। कूपावतारमर्हति कौपीनं पापम्।

[५|२|२१] व्रातेनजीवति - तृतीयासमर्थ व्रात शब्द से जीवति अर्थ में खञ् प्रत्यय। | व्रात + खञ् == व्रातीनः

[५|२|२२] साप्तपदीनंसख्यम् - मैत्री अर्थ में सप्तपद शब्द से खञ् प्रत्यय निपातित होता है। | सप्तभिः पदैरवाप्यते = साप्तपदीनम्। सख्यं जनाः साप्तपदीनमाहुः।

[५|२|२३] हैयंगवीनं संज्ञायाम् - संज्ञा के परिपादनार्थ ह्मोहोदोह शब्द के स्थान में हियङ्गु आदेश तथा उससे खञ् प्रत्यय होता है। | `ह्मोगोदोहस्य विकारः` (ह्मोगोदोहका विकार) - इस अर्थ में षष्ठयन्त `ह्मोगोदोहऄ (एक दिन पहले का दुहा हुआ दूध) शब्द से निपातन द्वारा `खञ् ` प्रत्यय और प्रकृति-`ह्मोगोदोहऄ को `हुयङ्गु` आदेश हो `हियङ्गु खऄ रूप बनता है।यहाँ आयनेनी०(७_१_२) से प्रत्यय के खकार को ` ईन् ` आदेश हो हियङ्गु + ईन् + अ ==> हियङ्गु ईन रूप बनने पर ` ओर्गुणः` (६_४_१४६) से उकार को गुण- ओकार हो हियङ्ग ओ ईन् रूप बनेगा। तब ` ` एचोऽयवायावः ` (६_१_७८) से ओकार के स्थान पर ` अव् ़ आदेश हो `हियङ्ग् अव् ईनऄ रूप बनने पर `तद्धितेषु०(७_२_११७) से आदि अच्- इकार को वृद्धि-ऐकार होकर ह् ऐ यङ्ग् अव् ईन् = हैयङ्गवीन रूप सिद्ध होता है।

[५|२|२४] तस्य पाकमूले पील्वादि-कर्णादिभ्यः-कुणब्जाहचौ षष्ठीसमर्थ पीलू आदि शब्दों से क्रमशः पाक तथा मूल अर्थ में लुणप् तथा जाहज् प्रत्यय होते हैं। | पीलु + कुणप् == पीलुकुणः, कर्कन्धू + कुणप् == कर्कन्धुगुणः।

[५|२|२५] पक्षात्तिः - षष्ठीसमर्थ पक्ष शब्द से मूल अर्थ में ति प्रत्यय होता है। | पक्ष + ति == पक्षति।

[५|२|२६] तेन वित्तश्चुञ्चुप्चणपौ - तृतीयासमर्थ प्रातिपदिक से वित्त अर्थ में चु०चुप् तथा चणप् प्रत्यय होते हैं। | विद्या + चुञ्चुप् == विद्याचुञ्चुः, विद्या + चणप् == विद्याचणः

[५|२|२७] विनञ्भ्यांनानाञौनसह - प्रैथग्भावार्थक वि तथा नञ् शब्दों से स्वार्थ में ना तथा नाञ् प्रत्यय होते हैं। | वि + ना == विना, नञ् + नाञ् == नाना।

[५|२|२८] वेःशालच्छङ्कटचौ - धात्वर्थ विशिष्ट साधनार्थ वि शब्द से स्वार्थ में शालच् तथा शटटच् प्रत्यय होते हैं। | वि + शालच् == विशालः, वि + शङ्कटच् == विशङ्कटः।

[५|२|२९] संप्रोदश्चकटच् - धात्वर्थ विशिष्ट साधनार्थक सम्, प्र, उत् तथा वि शब्दों से कटच् प्रत्यय समझना चाहिए। | सम् + कटच् == सङ्कटम्, प्र + कटच् == प्रकटम्, उत् + कटच् == उत्कटम्, वि + कटच् == विकटम्।

[५|२|३०] अवात्कुटारच्च - अव शब्द से विकल्प से कुटारच् तथा कटच् प्रत्यय होते हैं। | अवकुटारम् (निम्न भू भाग), अवकटम्।

[५|२|३१] नते नासिकायाःसंज्ञायां टीटञ्नाटज्भ्रटचः - नासिका सम्बन्धी नमन के अर्थ में अव शब्द से टीटच्, नाटच् तथा भ्रटच् प्रत्यय संज्ञाविषय में होते हैं। | अव + टीटच् == अवटीटम्, अव + नाटच् == अवनाटम्, अव + भ्रटच् == अवभ्रटम्।

[५|२|३२] नेर्बिडज्बिरीसचौ - नासिकासम्बन्धी नमन के वाच्य होने पर निशब्द से विडच् तथा विरीसच् प्रत्यय संज्ञाविषय में होते हैं। | निबिडम् (झुकी हुई नासिका, अथवा झुकी हुई नासिकावाला पुरुष), निबिरीसम् (पूर्ववत् यहाँ भी जानें)

[५|२|३३] इनच्पिटच्चिकचि च - नासिकाऽवन्मन अर्थ में निशब्ध से क्रमशः इनच् तथा पिटच् प्रत्यय होते हैं और इनसे सन्नियोग में नि के स्थान में क्रमशः चिक तथा चि आदेश। | नि + इनच् == चिक् + इन == चिकिनम् == चिकिनः, नि + पिटच् == चिपिटम्।

[५|२|३४] उपाधिभ्यांत्यकन्नासन्नारूढयोः - आसान्न तथा आरुढ़ अर्थ में क्रमशः वर्त्तमान उप तथा अधि शब्दों से स्वार्थ में त्यकन् प्रत्यय होता है। | पर्वतस्यासन्नमुपत्यका (पहाड़ की तराई)। अधित्यका (पहाड़ का पठार)।

[५|२|३५] कर्मणिघटोऽठच् - सप्तमीसमर्थ कर्मन् शब्द से घट अर्थ में अठच् प्रत्यय होता है। | कर्मन् + अठच् == कर्मठ।

[५|२|३६] तदस्यसंजातंतारकादिभ्यइतच् तारकादिगण में पठित प्रथमान्त `तारका` आदि से ` अस्य सञ्ज्यातम् ` (इसके हो गये हैं)- इस अर्थ में ` इतच् ` (इत) प्रत्यय होता है। | `तारकाः सञ्जाता अस्यऄ (तारे इसके हो गये हैं) - इस अर्थ में प्रथमान्त तारकाः से ` इतच् ` प्रत्यय हो `तारकाः इतऄ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो `तारका इतऄ रूप बनने पर अन्त्य-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन-नपुंसकलिङ्ग में `तारकितम् ` रूप सिद्ध होता है।

[५|२|३७] प्रमाणेद्वयसज्दघ्नञ्मात्रचः ` अस्य प्रमाणम् ` (इसका प्रमाण है) अर्थ में प्रथमान्त प्रातिपादिक से द्वयसच् (द्वयस), दध्नच् (दध्न), और मात्रच् (मात्र) - ये तीन प्रत्यय होते हैं। | ` ऊरुः प्रमाणस्यऄ (ऊरु इसका प्रमाण है) - इस अर्थ में प्रथमान्त ` उरु` से द्वयसच् प्रत्यय हो ` ऊरुः द्वौअसऄ रूप बनता है। यहाँ सुप्-लोप हो ` ऊरुद्वसऄ रूप बनने पर विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एक्वचन-नपुंसकलिङ्ग में ` ऊरुद्वयसम् ` रूप सिद्ध होता है।

[५|२|३८] पुरुषहस्तिभ्यामण्च - प्रमाणोपाधिक प्रथमासमर्थ पुरुष तथा हस्तिन् शब्दों से षष्ठयर्थ में द्वयसच्, दध्नच् तथा मात्रच् प्रत्यय होते हैं। | पुरुषः प्रमाणस्य = पौरुषम्, पुरुषद्वयसम्, पुरुषदध्नम्, पुरुषमात्रम्। हस्तिनम्, हस्तिद्वसम्, हस्तिदध्नम्, हस्तिमात्रम्।

[५|२|३९] यत्तदेतेभ्यःपरिमाणेवतुप् - ` अस्य परिमाणम् ` (इसका परिमाण है) अर्थ में प्रथमान्त यद्, तद् और एतद् से वतुप् ` (वत्) प्रत्यय होता है। | `यत् परिमाणमस्यऄ (जो इसका परिमाण है)- इस अर्थ में प्रथमान्त `यट् से `वतुप् ` प्रत्यय हो ` यत् वत् ` रूप बनता है। तब आ सर्वनाम्नः से यत् को आकार अन्तादेश हो य आ वत् रूप बनने पर सवर्ण-दीर्घ होकर ` यावत् ` रूप बनेगा।यहाँ विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन-पुँल्लिङ्ग में `यावान् ` रूप सिद्ध होता है।

[५|२|४०] किमिदंभ्यांवोघः ` अस्य परिमाणम् ` (इसका परिमाण है) अर्थ में प्रथमान्त `किम् ` और ` इदम् ` से वतुप् (वत्) प्रत्यय होता है तथा वतुप् के वकार के स्थान पर घकार आदेश। | इदं परिमाणमस्य (यह इसका परिमाण है) - इस अर्थ में प्रथमान्त इदम् से वतुप् प्रत्यय हो इदम् वत् रूप बनने पर वकार के स्थान पर धकार होकर इदम् + घ् + अत् ==> इदम् घत् रूप बनता है। तब आयनेयी०(७_१_२) से प्रत्यय के घकार के स्थान पर इय् आदेश हो इदम् इय् अत् = इदम् इयत् रूप बनेगा।

[५|२|४१] किमःसंख्यापरिमाणेडति च - संख्यानियम में वर्त्तमान प्रथमासमर्थ किम् शब्द से षष्ठयर्थ में डति प्रत्यय होता है। | का सङ्ख्या परिमाणमेषां ब्राह्मणानां कति ब्राह्मणाः, कियन्तो ब्राह्मणः।

[५|२|४२] संख्याया अवयवे तयप् - ` अस्य अव्यवाः ` (इसके अवयव हैं) अर्थ में प्रथ्मान्त संख्यावाचक (किसी विशेष संख्या को बताने वाला) शब्द से `तयप् ` (तय) प्रत्यय होता है। | ` पञ्च अवयवा अस्यऄ (इसके पाँच अवयव हैं) - इस अर्थ में संख्यावाचक प्रथमान्त `पञ्चऄ से `तयप् ` प्रत्यय हो `पञ्च तयऄ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो `पञ्चन् तय् ` रूप बनने पर नलोपः०(८_२_७) से नकार का लोप होकर पञ्चतय रूप बनेगा। यहाँ विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन-नपुंसकलिङ्ग में `पञ्च्तयम् ` रूप सिद्ध होता है।

[५|२|४३] द्वित्रिभ्यांतयस्यायज्वा - द्वि और त्रि से परे तयप् के स्थान पर विकल्प से अयच् आदेश। | `द्वौ अवयवौ अस्यऄ (दो अवयव हैं इसके) - इस अर्थ में संख्यावाचक प्रथ्मान्त `द्वॏ से `तयप् ` प्रत्यय हो `द्वौ तयऄ रूप बनने पर सुप्-लोप होकर `द्वि तयऄ रूप बनता है। तब प्रकृत सूत्र से `द्वॎ के उत्तर्वर्ती `तयप् ` (तय) के स्थान पर विकल्प से ` अयच् ` हो `द्वि अयऄ रूप बनेगा। यहाँ अन्त्य-लोप होकर `द्वयऄ रूप बनने पर विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन-नपुँल्लिङ्ग में `द्वयम् ` रूप सिद्ध होता है।

[५|२|४४] उभादुदात्तोनित्यम् - उभ शब्द से परे तयप् (तय) के स्थान पर नित्य ही अयच् ( अय) आदेश। | ` उभौ अवयवौ अस्यऄ (दो अवयव हैं इसके) - इस अर्थ में सूत्र (५_२_४२) से संख्यावाचक प्रथमान्त ` उभॏ से ` तयप् ` प्रत्यय हो ` उभौ तयऄ रूप बनने पर सुप्-लोप होकर ` उभ तयऄ रूप बनता है। तब प्रकृत सूत्र से उभ के उत्तर्वर्ती ` तयप् ` (तय) के स्थान पर ` अयच् ` हो ` उभ अयऄ रूप बनेगा। यहा अन्त्य-लोप और विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन-नपुंसकलिङ्ग में ` उभयम् ` रूप सिद्ध होता है।

[५|२|४५] तदस्मिन्नधिकमितिदशान्ताड्डः - प्रथमासमर्थ दशान्त प्रातिपदिक से सप्तम्यर्थ में ड प्रत्यय होता है यदि उक्त शब्द सप्तमी प्रकृतिभूत संख्यावाचक शब्द से वाच्य संख्या में स्ववाच्य संख्या के अधिक्य (संयोजन) का प्रतिपादन करता हो। | एकादश अधिका अस्मिन् श्ते एकादशं शतम् (ग्यारह अधिक सौ में अर्थात् एक सौ ग्यारह), एकादशं सहस्त्रम्, द्वादशं सहस्त्रम् (अक सौ बारह)।

[५|२|४६] शदन्तविंशतेश्च - प्रथमासमर्थ शदन्त तथा विंशति शब्दों से भी सप्तम्यर्थ में ड प्रत्यय होता है। यदि दशान्त संख्यावाचक शब्द सप्तमी-प्रकृति-संख्यावाचक-वाच्य संख्या में स्ववाच्य संख्या के अधिक्य का प्रतिपादन करता हो। | त्रिंशदधिका यस्मिन् शते त्रिशं शतम्, विंशतिरधिका अस्मिन् शते विशं शतम्।

[५|२|४७] संख्यायागुणस्यनिमानेमयट् - भाग-मूल्यभूत भाग में वर्त्तमान संख्या के वाचक प्रथमासमर्थ शब्द से षष्ठज्ञर्थ में मयट् प्रत्यय होता है। | यावनां द्वौ भागौ निमानं मूल्यमस्य उदश्विद्भागस्य द्विमौअमुदश्विद् यवानाम्, त्रिमयम्, चतुर्मयम्।

[५|२|४८] तस्यपूरणेडट् - पूरण अर्थ में संख्यावाचक (किसी विशेष संख्या को बताने वाला, जैसे- दो, तीन आदि) षष्ठयन्त प्रातिपादिक से डट् ( अ) प्रत्यय होता है। | एकादशानां पूरणः (ग्यारह संख्या का पूरण) _ इस अर्थ में षष्ठयन्त संख्यावाचक एकादशन से डट् प्रत्यय हो ` एकादशानाम् अ ` रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो ` एकादशन् ऄ रूप बनने पर डित् `डट् ` परे होने के कारण टि - अन् का लोप हो एकादश् अ = एकादश रूप बनेगा - यहाँ विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में एकादशः रूप सिद्ध होता है।

[५|२|४९] नान्तादसंख्यादेर्मट् - जिसके पूर्वपद के रूप में कोई संख्यावाचक शब्द न हो ऐसे नकारान्त संख्यावाचक शब्द से विहित डट् के स्थान में मट् का आगम। | पञ्चानां पूरणः पञ्चमः, सप्तमः।

[५|२|५०] थट्चच्छन्दसि - असंख्यावाचकादि नान्त संख्यावाचक शब्द से विहित डट् के स्थान में वेद में थट् का आगम। | पञ्चन् + ठट् + डट् == पंच + थ् + अ == पञ्चथः।

[५|२|५१] षट्कतिकतिपयचतुरांथुक् - डट् ( अ) परे होने पर षष्, कति, कतिपय और चतुर् - इन चार शब्दों को थुँक् (थकार) आगम होता है। | षण्णां पूरणः (छः का पूरण) - इस अर्थ में संख्यावाची षष्ठयन्त प्रातिपादिक `षष् ` से (५_२_४८) सूत्र द्वारा डट् प्रत्यय हो `षष् ऄ रूप बनता है। यहाँ डट् ( अ) परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से षष् को `थुँक् ` आगम् हो षष् थ अ रूप बनेगा। तब ष्टुत्व होकर षषठ् अ = षष्ठ रूप बनने पर विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में षष्ठः रूप सिद्ध होता है।

[५|२|५२] बहुपूग-गण-सङ्घस्यतिथुक् - डट् प्रत्यय के परे होने पर षट्, कति, कतिपय तथा चतुर शब्दों को तिथुँक् का आगम। | बहु + तिथुँक् == बहुतिथः, पूग + तिथुँक् == पूगतिथः, गण + तिथुँक् == गणतिथः, सङ्घ + तिथुँक् == सङ्गतिथः।

[५|२|५३] वतोरिथुक् - वत्वन्त शब्द को डट् का प्रत्यय के परे इथुँक् का आगम। | यावत् + इथुँक् + डट् == यावत् + इथ् + अ == यावतिथः।

[५|२|५४] द्वेस्तीयः - पूरण अर्थ में षष्ठयन्त `द्वॎ से `तीयऄ प्रत्यय होता है। | `द्वयोः पूरणः` (दो का पूरण) - इस अर्थ में षष्ठयन्त `द्वॎ से `तीयऄ प्रत्यय हो `द्वयोः तीयऄ रूप बनता है। यहाँ सुप्-लोप हो `द्वितीयऄ रूप बनने पर विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में `द्वितीयः` रूप सिद्ध होता है।

[५|२|५५] त्रेःसम्प्रसारणंच - पूरण अर्थ में षष्ठयन्त `त्रि ` से `तीयऄ प्रत्यय होता है और उसके संयोग में `त्रि ` को सम्प्रसारण भी हो जाता है। | `त्रयाणां पूरणः` (तीन का पूरण)- इस अर्थ में षष्ठयन्त `त्रि ` से `तीयऄ प्रत्यय हो `त्रयाणाम् तीयऄ रूप बनने पर सुप्-लोप हो `त्रि तीयऄरूप बनता है। तब पुनः प्रकृत सूत्र से `त्रि ` को सम्प्रसारण हो त् ऋ इ तीय = तृ इ तीय रूप बनने पर सम्प्रसारणाच्च (६_४_१०८) पूर्वरूप एकादेश होकर तृतीय रूप बनेगा।तब विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में `तृतीयः` रूप सिद्ध होता है।

[५|२|५६] विंशत्यादिभ्यस्तमडन्यतरस्याम् - विशंति आदि शब्दों से विहित डट् को विकल्प से तमँट् का आगम। | विशंति + तम् + अ == विशंतितमः, एकविंश + तम् + अ == एकविशंतितमः।

[५|२|५७] नित्यंशतादिमासार्धमाससंवत्सराच्च - शत आदि तथा मास, अर्थमास और सम्वत्वर शब्दों से विहित डट् को तमँट का नित्य आगम। | शतस्य पूरणः शततमः, सहस्त्रतमः, लक्षतमःमासस्य पूरणः = मासतमो दिवसः। अर्द्धमासतमः, संवत्सरतमः।

[५|२|५८] षष्ट्यादेश्चासंख्यादेः - संख्यापूर्वक भिन्न षष्टि आदि संख्यावाचक शब्दों से विहित डट् की ममँट् का नित्य आगम। | षष्टि + तमट् + डट् == षष्टि + तम् + अ == षष्टितमः।

[५|२|५९] मतौछःसूक्तसाम्नोः - सूक्त तथा साम अर्थों के अभिधान के लिए प्रातिपादिक मात्र से मत्वर्थ में छः प्रत्यय होता है। | सूक्त + तम् == सूक्तम्।

[५|२|६०] अध्यायानुवाकयोर्लुक् - अध्याय तथा अनुवाक अर्थों के अभिधेय होने पर प्रातिपदिक से विहित मत्वर्थीय छ प्रत्यय का लोप। | गर्दभाण्ड शब्दोऽस्मिन्नस्तीति गर्दभाण्डोऽध्यायः। गर्दभाण्डोऽनुवाकः। दीर्घजीवितोऽध्यायोऽनुवाको वा।

[५|२|६१] विमुक्तादिभ्योऽण् - अध्याय तथा अनुवाचक अर्थों में विमुक्त आदि शब्दों से मत्वधीर्य अण् प्रत्यय होता है। | विमुक्त + अध्याय + अण् == वैमुक्तोऽध्यायः, विमुक्त + अनुवाक + अण् == वैमुक्तोऽनुवाकः, इसी प्रकार दैवासुरोऽध्यायः ; दैवासुरोऽनुवाकः।

[५|२|६२] गोषदादिभ्योवुन् अध्याय तथा अनुवाचक अर्थों में गोषद आदि शब्दों से मत्वर्थीय व वुन् प्रत्यय होता है। | गोषद + वुन् == गोषदकः, इषेत्वा + वुन् == इषेत्वकः।

[५|२|६३] तत्रकुशलःपथः - सप्तमीसमर्थ पथिन् शब्द से कुशल (निपुण) अर्थ में वुन् प्रत्यय होता है। | पथि कुशलः पथकः (यात्रा कर्म में चतुर)

[५|२|६४] आकर्षादिभ्यःकन् - सप्तमीसमर्थ आकर्ष आदि प्रातिपदिकों से कुशल अर्थ में कन् प्रत्यय होता है। | आकर्ष + कन् == आकर्षकः, त्सरु + कन् == त्सरूकः। इसी प्रकार पिशाचकः, पिचण्डकः, अशनिकः।

[५|२|६५] धनहिरण्यात्कामे - सप्तमीसमर्थ घन तथा हिरण्य शब्दों से काम अर्थ में कन् प्रत्यय होता है। | धने कामः = धनको देवदत्तस्य (देवदत्त की धनविषयक इच्छा)। हिरण्यको (देवदत्त की सुवर्णविषयक इच्छा)

[५|२|६६] स्वाङ्गेभ्यःप्रसिते - सप्तमीसमर्थ स्वाङ्गवाचक शब्दों से तत्पर अर्थ में कन् प्रत्यय होता है। | केश + कन् == केशकः, दन्त + कन् == दन्तकः, ओष्ठ + कन् == ओष्ठकः।

[५|२|६७] उदराट्ठगाद्यूने - अविजिगीषुकर्तृक प्रसित (तत्पर) अर्थ में सप्तमीसमर्थ उदर शब्द से ठक् प्रत्यय होता है। | उदरे प्रसितः = औदरिकः (सदा खाते रहनेवाला, पेटू), आद्यूनः।

[५|२|६८] सस्येनपरिजातः - तृतीयासमर्थ सस्य शब्द से परिजात अर्थ में नि प्रत्यय होता है। | सस्येन परिजातः = सस्यकः शालिः (सस्य शब्द का अर्थ है गुण, और परि का अर्थ है सब ओर से, अर्थात् गुणों से भरपूर, जिसमें किसी प्रकार की कमी न हो), सस्यकः साधुः (पूर्ण साधुगुणों से युक्त)।

[५|२|६९] अंशंहारी - द्वितीयासमर्थ अंश शब्द से `हारी ` अर्थ में कन् प्रत्यय होता है। | अंशको दायादः (परम्परा प्राप्त धन के भाग को प्राप्त होनेवाला)।

[५|२|७०] तन्त्रादचिरापहृते - प/मीसमर्थ तन्त्र शब्द से अचिरापहृत अर्थ में कन् प्रत्यय होता है। | तन्त्रा - दचिरापहृतः = तन्त्रकः पटः (जुलाहे द्वारा बुन कर थोड़ी देर पूर्व खड्डी से पृथक् किया गया वस्त्र)

[५|२|७१] ब्राह्मणकोष्णिकेसंज्ञायाम् - संज्ञाविषय में कन् प्रत्ययान्त ब्राह्मणक तथा उष्णिक शब्दों का निपातन। | ब्राह्मणको देशः। उष्णिका यवागूः। अल्पान्नशब्द-स्योष्णादेशो निपातनात्।

[५|२|७२] शीतोष्णाभ्यांकारिणि - द्वितीयासमर्थ शीत तथा उष्ण शब्दों से कारे (करनेवाला) अर्थ में कन् प्रत्यय होता है। | शीत + कन् == शीतकः, उष्ण + कन् == उष्णकः।

[५|२|७३] अधिकम् - अध्यारूढ़ शब्द से कन् प्रत्यय का तथा उत्तरपद - आरूढ़ के लोप का निपातन। | अध्यारूढ + कन् == अधि + क == अशिकम् (उत्तरपद आरुढ का लोप करके)।

[५|२|७४] अनुकाभिकाभीकःकमिता - कमिता (इच्छा करनेवाला) अर्थ में क्रियाविशिष्ट साधन के प्रातिपदिक अनु तथा अभि शब्द से कन् प्रत्यय तथा अभि के इकार को विकल्प से दीर्घादेश का निपातन। | सो अनुकः (कामना करनेवाला)। अभिकः (कामुक अथवा क्रूर) अभीकः (कामुक अथवा क्रूर रूप बनेंगे।

[५|२|७५] पार्श्वेनान्विच्छति - तृतीयासमर्थ पार्श्व शब्द से ` अन्विच्छतॎ अर्थ में कन् प्रत्यय होता है। | पार्श्व + कन् == पार्श्वकः।

[५|२|७६] अयःशूलदण्डाजिनाभ्यांठक्ठञौ - तृतीयासमर्थ अयःशूल तथा दण्डाजिन शब्दों से ` अन्विच्छतॎ अर्थ में ठक् तथा ठञ् प्रत्यय होते हैं। | अयः शूलेनान्विच्छति = आयः शूलिकः साहसिकः। दाण्डा जिनिकः दाम्भिकः।

[५|२|७७] तावतिथंग्रहणमितिलुग्वा - ग्रहणोपाधिक पूरणप्रत्ययान्त शब्दों से `गृद्धतॎ अर्थ में कन् प्रत्यय तथा पूरण-पत्यय का लोप। | द्वितीयेन रूपेण ग्रन्थं गृह्णाति = द्विकं ग्रहणम्, द्वितीयकम्। त्रिकम्, तृतीयकम्, चतुषकम्, चतुर्थकम्।

[५|२|७८] सएषांग्रामणीः - प्रथमासमर्थ प्रातिपादिक से षष्ठज्ञर्थ मे कन् प्रत्यय होता है यदि प्रथमासमर्थ ग्राम-मुख्य हो। | देवदत्त + कन् == देवदत्तकाः, यज्ञदत्त + कन् == यज्ञदत्तकाः।

[५|२|७९] शृङ्खलमस्य-बन्धनंकरभे - प्रथमासमर्थ बन्धनात्मक श्रङ्खल शब्द से करभस्वरूप षष्ठज्ञर्थ में कन् प्रत्यय होता है। | शृङ्खल् + कन् == शृङ्खलकः।

[५|२|८०] उत्कउन्मनाः - उमतमनस्कार्थ उत् शब्द से स्वार्थ में कन् प्रत्यय होता है। | उत् + कन् == उत्कः।

[५|२|८१] कालप्रयोजनाद्रोगे - सप्तमीसमर्थ पूरणप्रत्ययान्त कालवाचक शब्द से उत्पन्न रोग अर्थ में, तृतीयासमर्थ प्रयोजन-वाचक (करण-वाचक) शब्द से जनति रोग अर्थ में और प्रथमासमर्थ प्रयोजन-वाचक (फल-बोधक) शब्द से ` अस्य कार्यमऄ अर्थ में कन् प्रत्यय होता है। | द्वितीयेऽह्नि भवो = द्वितीयको ज्वरः। तृतीयकः, चतुर्थकः। प्रयोजनवाचिनः - विष्पुष्पैर्जनितः = विष्पुष्पको ज्वरः, काश-पुष्पकः। उष्णं कार्यमस्य = उष्णकः, शीतकः।

[५|२|८२] तदस्मिन्नन्नं-प्राये-संज्ञायाम् - प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से सप्तम्यर्थ मे कन् प्रत्यय होता है यदि प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक बाहुल्यविशिष्ट अन्न का वाचक हो। | गुडापूपाः प्रायेणान्नमस्यां पौर्णमास्यां = गुडापूपिका पौर्णमासी, तिलापूपिका।

[५|२|८३] कुल्माषादञ् - प्रथमासमर्थ कुल्माश शब्द से सप्तम्यर्थ में अन् प्रत्यय होता है यदि कुल्माष शब्द बाहुल्यविशिष्ट अत्र का प्रातिपादक हो। | कुल्माषाः प्रायेणान्नमस्यां = कौलमाषी पौर्णमासी।

[५|२|८४] श्रोत्रियंश्छन्दोऽधीते - वेदाध्येता अर्थ में श्रेत्रियन् शब्द का निपातन होता है। | छन्दस् + घन् (छन्दस् शब्द के स्थान में श्रोत्र आदेश) == श्रोत्र + इय == श्रोत्रीयः।

[५|२|८५] श्राद्धमनेनभुक्तमिनिठनौ - भुक्तोपाधिक श्राद्ध शब्द से तृतीयार्थ में इनि तथा ठन् प्रत्यय होते हैं। | श्राद्ध + इनि == श्राद्धी, श्रद्ध + ठक् == श्राद्धिकः।

[५|२|८६] पूर्वादिनिः - अनेन ( इसने) अर्थ में `पूर्वऄ शब्द से ` इनॎ प्रत्यय होता है। | `पूर्व कृतमनेनऄ (इससे पहले कर लिया है)- इस अर्थ में `पूर्वऄ शब्द से ` इनॎ प्रत्यय हो `पूर्वम् इनॎ रूप बनता है। तब इकार लोप और सुप्-लोप हो `पूर्व इनॎ रूप बनने पर अन्त्य अकार का लोप होकर `पूर्व इं = `पूर्विन् ` रूप बनेगा। यहाँ विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में `पूर्वी ` रूप सिद्ध होता है।

[५|२|८७] सपूर्वाच्च - विद्यमानपूर्वक पूर्व शब्द (जिसके पहले कुछ हो) से भी ` अनेनऄ ( इसने) अर्थ में ` इनॎ प्रत्यय होता है। | `कृतं पूर्वमनेनऄ (इसने पहले कर लिया है) - इस अर्थ में कृत-पूर्वक `पूर्वऄ शब्द से ` इनॎ प्रत्यय हो पूर्ववत `कृतपूर्वी ` रूप सिद्ध होता है।

[५|२|८८] इष्टादिभ्यश्च इष्टादिगण में पठित ` इष्ट ` आदि शब्दों से ` अनेनऄ (इसने) अर्थ में ` इनॎ प्रत्यय होता है। | ` इष्टमनेनऄ (इसने यज्ञ किया है)- इस अर्थ में प्रथमान्त ` इष्टऄ से ` इनॎ प्रत्यय हो ` इष्टम् इनॎ रूप बनता है। तब पूर्ववत इकार-लोप, सुप्-लोप और अन्त्य-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन में ` इष्टी ` रूप सिद्ध होता है।

[५|२|८९] छन्दसि परिपन्थि परिपरिणौ पर्यवस्थातरि - पर्यवस्थाता अर्थ में वेद में परिपन्थिन तथा परिपरिन् शब्दों का निपातन। | मा त्वा परिपन्थिनो विदन्। मा त्वा परिपरिणो विदन्।

[५|२|९०] अनुपद्यन्वेष्टा - अन्वेष्टा अर्थ में अनुपद शब्द का निपातन। | अनुपद + इनि == अनुपदी।

[५|२|९१] साक्षाद्द्रष्टरिसंज्ञायाम् - द्रष्टा अर्थ में साक्षात शब्द से इनि प्रत्यय होता है यदि प्रत्ययान्त से संज्ञा की प्रतीति हो। | साक्ष + इनि == साक्षी।

[५|२|९२] क्षेत्रियच्परक्षेत्रेचिकित्स्यः - सम्प्तमीसमर्थ परक्षेत्र शब्द से चिकित्स्य अर्थ में घञ् प्रत्यय तथा परशब्द के लोप का निपातन। | परक्षेत्रे चिकित्स्यः = क्षेत्रियो व्याधिः, क्षेत्रियं कुष्ठम्।

[५|२|९३] इन्द्रियमिन्द्रलिङ्गमिन्द्रदृष्टमिन्द्रसृष्टमिन्द्रजुष्टमिन्द्रदत्तमितिवा - तृतीयासमर्थ इन्द्र शब्द के लिए दृष्ट, सृष्ट, जुष्ट तथा दत्त अर्थों में घच् प्रत्यय होता है। | इन्द्रस्य लिङ्गम् = इन्द्रियम्, इन्द्रेण दृष्टम् = इन्द्रियम्, इन्द्रेण सृष्टम् = इन्द्रियमित्यादि।

[५|२|९४] तदस्यास्त्यस्मिन्निति-मतुप् -` इसका है या इसके हैं ` और ` इसमें है या इसमें हैं ` - इन अर्थों में प्रथमान्त प्रातिपादिक से मतुप् (मत्) प्रत्यय होता है। | `गोवाऽस्यास्मिन् वा सन्ति ` (गायें इसकी हैं या इसमें हैं) - इस अर्थ में प्रथमान्त गावः से मतुप् प्रत्यय हो `गावः मत् ` रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो `गोमत् रूप सिद्ध होता है।

[५|२|९५] रसादिभ्यश्च - प्रथमासमर्थ अस्त्यर्थोपाधिक प्रातिपधिक से सप्तम्यर्थ में विकल्प से मतुप् प्रत्यय होता है | रसोऽस्मिन्नस्तीति रसवान्, रूपवान्।

[५|२|९६] प्राणिस्थादातोलजन्यतरस्याम् - ` इसका है या इसके हैं ` और ` इसमें है या इसमें हैं ` - इन अर्थों में प्रथमान्त प्राण्यङ्गवाचक (प्राणों के अङ्गों के वाचक) अकारान्त शब्दों से विकल्प से लच् (ल) प्रत्यय होता है। | `चूड़ा अस्य सन्तॎ (केश इसके हैं) - इस अर्थ में अकारान्त प्राण्यङ्गवाचक प्रथमान्त `चूड़ा से लच् ` प्रत्यय हो `चूड़ा लऄ रूप बनता है। यहाँ सुप्-लोप हो `चूड़ालऄ रूप बनने पर विभक्ति-कार्य हो चूड़ालः रूप सिद्ध होता है।

[५|२|९७] सिध्मादिभ्यश्च सिध्म आदि शब्दों से मत्वर्थ में विकल्प से लच् प्रत्यय होता है। | सिध्म + लच् == सिध्मलः, गडु + लच् == गडुलः, मणि + लच् == मणिलः।

[५|२|९८] वत्सांसाभ्यांकामबले - काम्वत् तथा बलवत् अर्थों में क्रमशः वत्स तथा अंश शब्दों से लच प्रत्यय होता है। | वत्सलः (छोटो पर स्नेह रखनेवाला), अंसलः (बलवान)

[५|२|९९] फेनादिलच्च - फेन शब्द से मत्वर्थ में इलच् तथा लच् प्रत्यय होते हैं। | फेनमस्ति अस्य अस्मिन् वा = फेनिलः, फेनलः, फेनवान्।

[५|२|१००] लोमादिपामादिपिच्छादिभ्यःशनेलचः ` इसका है या इसके हैं ` और ` इसमें है या इसमें हैं ` - इन अर्थों में प्रथमान्त `लोमन् ` आदि से विकल्प से `शऄ प्रत्यय, `पामन् ` आदि विकल्प से `नऄ प्रत्यय और `पिच्छऄ आदि से विकल्प से ` इलच् ` (इल) प्रत्यय होता है। | पिछ आदि - `पिच्छमत्यात्तॎ (पिछ इसके हैं) - इस अर्थ में प्रथमान्त `पिच्छऄ से ` इलच् ` प्रत्यय हो `पिच्छम् इलऄ रूप बनता है। यहाँ सुप्-लोप हो `पिच्छ इलऄ रूप बनने पर अन्त्य-लोप और विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में `पिच्छिलः` रूप सिद्ध होता है। ` इलच् ` प्रत्यय के अभावपक्ष में `मतुप् ` प्रत्यय हो `पिच्छवान् ` रूप बनता है।

[५|२|१०१] प्रज्ञाश्रद्धार्चाभ्योणः - प्रज्ञा, श्रद्धा, अर्चा तथा वृत्ति शब्दों से मत्वर्थ में ण प्रत्यय होता है। | प्रज्ञाऽस्यास्तीति प्राज्ञः, प्रज्ञावन्, श्राद्धः, श्रद्धावान्, आर्चः, आर्चावान्।

[५|२|१०२] तपःसहस्त्राभ्यांविनीनी - तपस तथा सहसत्र शब्दों से मत्वर्थ में विनि तथा इनि प्रत्यय होते हैं। | तपोऽस्याऽस्मिन् वा विद्यते तपस्वी, सहस्त्री।

[५|२|१०३] अण्च - तपस तथा सहसत्र शब्दों से मत्वर्थ में अण् प्रत्यय भी होता हैं। | तपस् + अण == तापसः, सहस्त्र + अण् == साहस्त्रः।

[५|२|१०४] सिकताशर्कराभ्यांच - सिकता तथा शर्करा शब्दों से भी मत्वर्थ में अण् प्रत्यय होता है। | सैकतो घटः, शार्करं मधु।

[५|२|१०५] देशेलुबिलचौच - सिकता तथा शर्करा शब्दों से विकल्प से इलच् अण् तथा मतुप प्रत्यय और इन प्रत्ययों का विकल्प से लोप यदि प्रत्ययान्त का वाच्य देश हो। | सिकताः (बालू) अस्मिन् विद्यन्ते (सिकता देशः, सिकतिलः, सैकतः, सिकतावान्। शर्कराः (कंकड़) अस्मिन् विद्यन्ते = शर्करा देशः, शर्करिलः, शार्करः, शर्करावान्।

[५|२|१०६] दन्तउन्नतउरच् - ` इसका है या इसके हैं ` और ` इसमें है या इसमें हैं ` - इस अर्थ में `ुन्नतऄ विशेषण-पूर्वक प्रथमान्त `दन्तऄ शब्द से ` उरच् ` (उर) प्रत्यय होता है। | उन्नता दन्ताः सन्ति अस्यऄ (ऊँचे दाँत हैं इसके) अर्थ में ` उन्नतऄ विशेषणपूर्वक प्रथमान्त `दन्तऄ शब्द से ` उरच् ` प्रत्यय हो `दन्ताः उरऄ रूप बनने पर सुप्-लोप हो `दन्त उरऄ रूप बनता है। यहाँ भ-संज्ञक `दन्तऄ के अन्त्य अकार का लोप हो दन्त् + उर् ==> दन्तुर रूप बनने पर विभक्ति-कार्य होकर प्रथमा के एकवचन में `दन्तुरः` रूप सिद्ध होता है।

[५|२|१०७] ऊषशुषिमुष्कमधोरः - उष, सुषि, मुष्क तथा मधु शब्दों से मत्वर्थ में र प्रत्यय होता है | ऊषरं क्षेत्रम्, सुषिरं काष्ठम्, मुष्करः, पशुः, मधुरो गुड़ः।

[५|२|१०८] द्युद्रुभ्यांमः - द्यु तथा द्रु शब्दों से मत्वर्थ में म प्रत्यय होता है। | द्युमः (सूर्य), द्रुमः (वृक्ष)

[५|२|१०९] केशाद्वोऽन्यतरस्याम् -` इसका है या इसके हैं ` और ` इसमें है या इसमें हैं ` - इन अर्थों में प्रथमान्त प्रातिपादिक `केशऄ से विकल्प से `वऄ प्रत्यय होता है। | `केशा अस्य सन्तॎ (केश इसके हैं) - इस अर्थ में प्रथमान्त `केशऄ से `वऄ प्रत्यय हो `केशाः वऄ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो `केशवऄ रूप बनने पर विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में केशवः रूप सिद्ध होता है।

[५|२|११०] गाण्ड्यजगात्संज्ञायाम् - संज्ञाविषय में गाण्डी तथा अजग शब्दों से मत्वर्थ में व प्रत्यय होता है। | गाण्डि + व == गाण्डिव, गाण्डी + व == गाण्डीव, अजग + व == अजगव।

[५|२|१११] काण्डाण्डादीरन्नीरचौ - मत्वर्थ में काण्ड तथा अण्ड शब्दों से क्रमशः ईरन् तथा ईरच् प्रत्यय होते हैं। | काण्ड + ईरन् == काण्डीरः, अण्ड + ईरच् == अण्डीरः।

[५|२|११२] रजःकृष्यासुतिपरिषदोवलच् - रजस्, कृषि, आसुति तथा परिषत् शब्दों से मत्वर्थ में वलच् प्रत्यय होता है। | राजस्वला स्त्री (मासिक धर्म से युक्ता स्त्री)। कृषीवलः (कृषि करनेवाला किसान) कुटुम्भी।आसुतीवलः (आसुति मद्य से युक्त, शराब बेचनेवाला), शौण्डिकः, परिषद्वलो राजा (विशिष्ट सभाओं से युक्त राजा)।

[५|२|११३] दन्तशिखात्संज्ञायाम् - प्रत्ययान्त से संज्या की प्रतिपत्ति होने पर दन्त तथा शिखा शब्दों से वलच प्रत्यय होता है। | दन्तावलः सैन्यः, दन्तावलो गजः (बड़े दातों वाला हाथी)। शिखावलम् नगरम्, शिखावला स्थूणा।

[५|२|११४] ज्योत्स्ना-तमिस्त्रा-शृङ्गिणोर्जस्विन्नूर्जस्वल-गोमिन्मलिन-मलीमसाः - मत्वर्थ में संज्ञाप्रतिपत्त्यर्थ ज्योत्सना, तमिस्त्रा, शृग्नि, ओजस्विन्, ऊर्जस्वल्, गोमिन्, मलिन् तथा मलीमस शब्दों का निपातन। | ज्युओत्स् + न + टाप् == ज्योत्स्ना।

[५|२|११५] अतइनिठनौ -` इसका है या इसके हैं ` और ` इसमें है या इसमें हैं ` - इन अर्थों में प्रथमान्त अकारान्त प्रातिपादिक से ` इनॎ (इन) और `ठन् ` (ठ)- ये दो प्रत्यय विकल्प से होते हैं। | `दण्डोऽस्यास्तॎ (दण्ड इसका है) - इस अर्थ में प्रथमान्त अकारान्त प्रातिपादिक दण्ड से इनि प्रत्यय हो `दण्डः इन् ` रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो `दण्ड इन् ` रूप बनने पर अन्त्य-लोप होकर दण्ड् + इन् ==> दण्दिन् रूप बनेगा। यहाँ विभक्ति-कार्य हो `दण्डी ` रूप सिद्ध होता है।

[५|२|११६] व्रीह्यादिभ्यश्च ` इसका है या इसके हैं ` और ` इसमें है या इसमें हैं ` - इन अर्थों में प्रथमान्त `व्रीहॎ (धान) आदि से ` इनॎ (इन्) और `ठन् ` (ठ) - ये दोनों प्रत्यय विकल्प से होते हैं। | `व्रीहयोऽस्य सन्तॎ (व्रीहि-धान इसके हैं) - इस अर्थ में प्रथमान्त `व्रीहॎ से पूर्ववत् ` इनॎ और `ठन् ` प्रत्यय हो क्रमशः `व्रीही और `व्रीहिकः ` रूप बनते हैं। पक्ष में `मतुप् ` प्रत्यय हो `व्रीहिमान् ` रूप बनता है।

[५|२|११७] तुन्दादिभ्यइलच्च तुन्द आदि शब्दों से मत्वर्थ में इलच्, इनि तथा ठन् प्रत्यय होते हैं। | तुन्द + इनि == तुन्दी, तुन्द + ठन् == तुन्दिकः।

[५|२|११८] एकगोपूर्वाट्-ठञ्नित्यम् - एकपूर्वक तथा गोपूर्वक शब्दों से मत्वर्थ में नित्य ठच् प्रत्यय होता है। | एकशतमस्यास्तीति = ऐकशतिकः (एक सौ रुपयेवाला), ऐकसहस्त्रिकः। गोपूर्वात् - गौशतिकः (सौ गौवोंवाला), गौसहस्त्रिकः (सहस्त्र गौवोंवाला)

[५|२|११९] शतसहस्त्रान्ताच्चनिष्कात् - निष्क पूर्वपदक शत तथा सहस्त्र मत्वर्थ में नित्य ठच् प्रत्यय होता है। | निष्कशतमस्यास्ति = नैष्कशतिकः। नैष्कसहस्त्रिकः।

[५|२|१२०] रूपादाहतप्रशंसयोर्यप् - आहत विशिष्ट तथा प्रशंसा विशिष्ट अर्थों में वर्त्तमान रूप शब्द से मत्वर्थ में यप् प्रत्यय होता है। | आहतं रूपमस्यास्ति = रूप्यो दीनातः, रूप्यं कार्षापणम्। प्रशंसायाम् - प्रशस्तं रूपमस्यास्ति = रूप्यः पुरुषः।

[५|२|१२१] अस्मायामेधास्त्रजोविनिः -` इसका है या इसके हैं ` और ` इसमें है या इसमें हैं ` - इन अर्थों में प्रथमान्त असन्त (जिसके अन्त में अस् हो) तथा माया, मेधा और स्रज् - इन शब्दों से विकल्प से `विनॎ (विन्) प्रत्यय होता है। | `यशोऽस्यास्तॎ (यशस्-यश इसका है) - इस अर्थ में प्रथमान्त असन्त `यशस् ` से `विनॎ प्रत्यय और सुप्-लोप हो यशस् + विन् ==> यशस्विन् रूप बनता है। तब विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में `यशस्वी ` रूप सिद्ध होता है।

[५|२|१२२] बहुलंछन्दसि - वेद में विनि प्रत्यय बहुल करके होता है। | अग्ने तेजस्विन्। बहुलग्रहणात् न च भवति - सूर्यो वर्चस्वान्।

[५|२|१२३] ऊर्णायायुस् - मत्वर्थ में ऊर्णा शब्द से युस् प्रत्यय होता है। | ऊर्णा विद्यतेऽस्यास्मिन् वा = ऊर्णायुः।

[५|२|१२४] वाचोग्मिनिः -` इसका है या इसके हैं ` और ` इसमें है या इसमें हैं ` - इन अर्थों में प्रथमान्त `वाच् ` से `ग्मिनॎ प्रत्यय होता है। | `वागस्यास्तॎ (वाच्-वाणी इसकी है) - इस अर्थ में प्रथमान्त `वाच् ` से `ग्मिनॎ प्रत्यय हो `वाग् ग्मिन् ` रूप बनने पर सुप्-लोप होकर ` वाच् ग्मिन् ` रूप बनता है। यहाँ पर प्रकृति के चकार को जश्-जकार करने पर कुत्व-गकार होकर `वाग् ग्मिन् ==> वाग्ग्मिन् रूप बनेगा। इस स्थिति में विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में `वाग्ग्मी` रूप सिद्ध होता है।

[५|२|१२५] आलजाटचौबहुभाषिणि - प्रत्ययान्त का वाच्य बहुभाषी होने पर प्रथमासमर्थ वाच शब्द से आलच् तथा आटच् प्रत्यय होते हैं। | वाचालः, वाचाटः।

[५|२|१२६] स्वामिन्नैश्वर्ये - ऐर्म्य अर्थ में स्वामिन् शब्द निपातित होता है। | स्वम् = ऐश्वर्यमस्यास्ति = स्वामी, स्वामिनौ, स्वामिनः।

[५|२|१२७] अर्श आदिभ्योऽच् ` इसका है या इसके हैं ` और ` इसमें है या इसमें हैं ` - इन अर्थों में प्रथमान्त ` अर्शस् ` (बवासीर) आदि से ` अच् ` ( अ) प्रत्यय होता है। | ` अर्शोऽस्य विद्यते ` ( अर्शस् इसके हैं) - इस अर्थ में प्रथमान्त ` अर्शस् ` से ` अच् ` प्रत्यय हो ` अर्शः अ ` रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो अर्शस् + अ ==> अर्शस रूप बनने पर विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एक्वचन में ` अर्शसः ` रूप सिद्ध होता है।

[५|२|१२८] द्वन्द्वोपताप-गर्ह्यात् प्राणिस्थादिनिः - द्वन्द्वसमास, उपताप तथा निन्द्य प्राणिस्थ पदार्थ के वाचक शब्दों से मत्वर्थ में इनि प्रत्यय होता है | द्वन्द्वात् - कटकश्च वलयश्च, कटकवलयम्, तदस्यास्तीति = कटकवलयिनी, शङ्खनूपुरिणी उपतापात् - कुष्ठी, किलासी। गर्ह्मात् - ककुदावर्त्ती, काकतालुकी।

[५|२|१२९] वातातीसाराभ्यांकुक्च - वात तथा अतिसार शब्दों से इनि प्रत्यय तथा प्रत्यय के साथ-साथ प्रकृतिद्वय को कुँक् का आगम। | वातोऽस्यास्तीति = वातकी। अतीसारकी। अतीसारकी।

[५|२|१३०] वयसिपूरणात् - पूरण प्रत्ययान्त प्रातिपदिक से वयस् ( आयु) के द्योतित होने पर मत्वर्थ से इनि प्रत्यय होता है। | पञ्चमोऽस्यास्ति मासः संवत्सरो वा = पञ्चमी उष्ट्रः, नवमी, दशमी।

[५|२|१३१] सुखादिभ्यश्च सुख आदि प्रातिपदिकों से भी मत्वर्थ में इनि प्रत्यय होता है। | सुखमस्यास्तीति = सुखी, दुःखी।

[५|२|१३२] धर्मशीलवर्णान्ताच्च - धर्मान्त, शीलान्त तथा वर्णान्त शब्दों से मत्वर्थ में इनि प्रत्यय होता है। | ब्राह्मणस्य धर्मः = ब्राह्मणधर्मः, सोऽस्यातीति = ब्राह्मणधर्मी। ब्राह्मणशीली। ब्राह्मणवर्णी।

[५|२|१३३] हस्ताज्जातौ - हस्त शब्द से मत्वर्थ में इनि प्रत्यय होता है यदि प्रत्ययान्त जातिवाचक हो। | हस्तिऽस्यास्तीति = हस्ती, हस्तिनौ, हस्तिनः।

[५|२|१३४] वर्णाद्ब्रह्मचारिणि - वर्ण शब्द से मत्वर्थ में इनि प्रत्यय होता है यदि प्रत्ययान्त शब्दों से ब्रह्मचारी का प्रतिपादक हो। | वर्णोऽस्यास्तीति = वर्णी ब्रह्मचारी।

[५|२|१३५] पुष्करादिभ्योदेशे पुष्कर आदि शब्दों से इनि प्रत्यय होता है, प्रत्ययान्त से यदि देश-विशेष की प्रतीति होती है। | पुष्करिणी, पद्यिनी।

[५|२|१३६] बलादिभ्योमतुबन्यतरस्याम् बल आदि शब्दों से विकल्प से मतुप प्रत्यय होता है। | बलमस्यास्तीति = बलवान्, बली। उत्साहवान्, उत्साही।

[५|२|१३७] संज्ञायांमन्माभ्याम् - मन्नन्त प्रातिपदिक से तथा मशब्दान्त प्रातिपदिक से मत्वर्थ में इनि प्रत्यय होता है समुदाय से संज्ञा के अभिधान होने पर। | मन्नन्तात् - प्रथिमा विद्यतेऽस्याः = प्रथिमिनी (विस्तारवाली), दामिनी (विद्युत)। मशब्दान्तात् - होमोविद्यतेऽस्याः = हेमिनी (होम करनेवाली), सोमिनी (सोमयज्ञ करनेवाली)।

[५|२|१३८] कंशंभ्यांवभयुस्तितुतयसः - कम् तथा शम् शब्दों से ब, भ, युस्, ति, तु, त तथा यस् प्रत्यय होते हैं। | कम् अस्याऽस्मिन् वा विद्यते = कम्बः, शम्बः। कम्भः, शम्भः। कंयुः, शंयुः। कन्तिः, शन्तिः। कन्तुः, शन्तुः कन्तः, शन्तः। कंयः, शंयः।

[५|२|१३९] तुन्दिबलिवटेर्भः - तुन्दि, बलि तथा वटि शब्दों से मत्वर्थ में भ प्रत्यय होता है। | तुन्दिरस्यास्तीति = तुन्दिभः। वालिभः। वटिभः।

[५|२|१४०] अहंशुभमोर्युस् -` इसका है या इसके हैं ` और ` इसमें है या इसमें हैं ` - इन अर्थों में ` अहम् ` ( अहंकार) और `शुभम् ` (कल्याण) से `युस् ` (यु) प्रत्यय होता है। | ` अहंकारोऽस्यास्तॎ ( अहम् - अहंकार इसके हैं) - इस अर्थ में अहम् से युस् प्रत्यय हो ` अहम् यु` रूप बनता है। तब सित् प्रत्यय ` युस् ` (यु) परे होने से पूर्व पद संज्ञा होने के कारण मकार को अनुस्वार हो ` अहंयु` रूप बनेगा। यहाँ विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में ` अहंयुः` रूप सिद्ध होता है।

[५|३|१] प्राग्दिशोविभक्तिः - `दिकशब्देभ्य०(५_३_२७) सूत्र के पहिले विभक्ति-संज्ञा होती है। | ततः। यतः

[५|३|२] किंसर्वनामबहुभ्योऽद्वयादिभ्यः - दिक्शब्देभ्य०(५_३_२७) सूत्र से पूर्व तक जिन प्रत्ययों का विधान किया गया है, वे द्वि आदि (द्वि, युष्मद्, अस्मद् और भवतु) को छोड़कर अन्य, सर्वनाम, किम् और बहु शब्द के पश्चात् होते हैं। | किम् - कुतः कुत्र । सर्वनाम - यतः, यत्र। ततः, तत्र। बहु - बहुतः, बहुत्र।

[५|३|३] इदम इश् - `दिक्शब्देभ्य०` (५_३_२७) सूत्र के पूर्व कहे जाने वाले प्रत्ययों के परे रहने पर ` इदम् ` के स्थान पर ` इश् ` आदेश। | ` इदम् तस् ` में प्राग्दिशीय प्रत्यय `तसिल् ` (तस्) परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से ` इदम् ` के स्थान पर ` इश् ` हो ` इतस् ` रूप बनता है। यहाँ पूर्ववत सुप्-लोप और रुत्व-विसर्ग हो ` इतः` रूप सिद्ध होगा। अन्य उदाहरण - इदम् + ह == इश् + ह == इह (यहाँ)।

[५|३|४] एतेतौ रथोः - प्राग्दिशीय (दिक्शब्देभ्यः०(५_३_२७) से पूर्व तक होने वाले) रकारादि और थकारादि प्रत्यय परे होने पर ` इदम् ` के स्थाम पर ` एतऄ और ` इत् ` आदेश। | ` इदम् र्हॎ में प्राग्दिशीय रकारादि प्रत्यय र्हिल् (र्हि) परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से ` इदम् ` के स्थान पर ` एतऄ हो एतर्हॎ रूप बनता है। यहाँ पूर्ववत् विभक्ति-कार्य हो ` एतर्हॎ रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - इदम् + र्हिल् == एत + र्हि == एतर्हि (अब), इदम् + स्थमु == इत् + थम् == इत्थम्।

[५|३|५] एतदोऽन् - प्राग्दिशीय रकार द प्रत्यय परे होने पर ` एतद् ` के स्थान पर ` एत् ` और थकारादि प्रत्यय परे होने पर ` एतद् ` के स्थान पर ` इत् ` आदेश। | पञ्चमयन्त सर्व्नाम ` एतस्मात् ` (इससे) से पञ्चम्यास्तसिल् (५_३_७) से ` तसिल् ` प्रत्यय और सुप्-लोप हो ` एतद् तस् ` रूप बनने पर प्राग्दिशीय प्रत्यय ` तसिल् ` (तस्) परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से ` एतद् ` के स्थान पर ` अन् ` हो ` अन् तस् ` रूप बनता है। तब नलोपः (८_२_२) से नकार-लोप हो ` अतस् ` रूप बनने पर पूर्व्वत् रुत्व-विसर्ग होकर अतः रूप बनता है। अन्य उदाहरण - एतद् + तसिल् == अन् + तस् == अ + तस् == अतः।

[५|३|६] सर्वस्य सोऽन्यतरस्यां दि - दकारादि प्राग्दिशीय (दिक्शब्देभ्यः०(५_३_२७) से पूर्व तक होने वाले) प्रत्यय परे होने पर सर्व के स्थान पर विकल्प से `सऄ आदेश होता है। | `सर्व दा` में दकारादि प्राग्दिशीय प्रत्ययं `दा` परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से `सर्वऄ के स्थान पर `सऄ हो `सदा` रूप बनता है। यहाँ पूर्व्वत् विभक्ति-कार्य हो `सदा` रूप सिद्ध होता है। `सऄ- आदेश के अभावपक्ष में `सर्वदा` रूप ही रहेगा।

[५|३|७] पञ्चम्यास्तसिल् - पञ्चम्यन्त द्वयादि-भिन्न सर्वनाम, किम् और बहु शब्द से `तसिल् ` (तस्) प्रत्यय होता है। | `कस्मात् ` - इस पञ्चम्यन्त `किम् ` शब्द से `तसिल् ` प्रत्यय हो `कस्मात् तस् ` रूप बनता है।

[५|३|८] तसेश्च - किम्, सर्वनाम तथा बहु शब्दों से विहित तसि प्रत्यय के स्थान पर तसिल् आदेश। | सर्वस्मिन् काले = सदा, सर्वदा।

[५|३|९] पर्यभिभ्यां च - परि (सर्व) और अभि ( उभय) से भी ` तसिल् ` (तस्) प्रत्यय होता है। | परि से तसिल् प्रत्यय हो परितस् = परितः और अभि से तसिल् प्रत्यय हो अभितस् = अभितः (दोनों ओर से) रूप बनते हैं।

[५|३|१०] सप्तम्यास्त्रल् - सप्तम्यन्त द्वयादि-भिन्न सर्वनाम, किम् और बहु शब्द से त्रल् (त्र) प्रत्यय होता है। | `कस्मिन् ` (किसमें) - इस सप्तम्यन्त किम् शब्द से त्रल् प्रत्यय हो `कस्मिन् त्रऄ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो `किम् त्रऄ रूप बनने पर `कु तिहोः ` से किम् के स्थान पर कु हो कुत्र रूप सिद्ध होता है।

[५|३|११] इदमोहः सप्तम्यन्त ` इदम् ` से `हऄ प्रत्यय होता है। | ` अस्मिन् ` (इसमें) - इस सप्तम्यन्त ` इदम् ` शब्द से `हऄ प्रत्यय हो ` अस्मिन् ह ` रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो ` इदम् हऄ रूप बनने पर इदम् इश् (५_३_३) से इदम् के स्थान पर इश् (इ) होकर पूर्ववत् ` इहऄ रूप सिद्ध होता है।

[५|३|१२] किमोऽत् - सप्तम्यन्त ` किम् ` से विकल्प से ` अत् ` ( अ) प्रत्यय होता है। | `किम् के सप्तम्यन्त रूप कस्मिन् ` से ` अत् ` प्रत्यय हो ` कस्मिन् अ ` रूप बनने पर सुप्-लोप हो ` किम् अ ` रूप बनता है।

[५|३|१३] वाहचच्छन्दसि - छन्द में सप्तम्यन्त किम् शब्द से विकल्प से ह प्रत्यय होता है। | कुह॑ , पक्षे यथाप्राप्तम् - कुत्र चिदस्य दूरे क्व ब्राह्मणस्य चावकाः।

[५|३|१४] इतराभ्योऽपि दृश्यन्ते - पञ्चम्यन्त और सप्तम्यन्त से भिन्न प्रथमान्तादि से भी ` तसिल् ` आदि प्रत्यय दिखाई देते हैं। | ` स भवान् ` - यहाँ प्रथमान्त ` तद् ` शब्द से `भवद् ` शब्द के योग में प्रकृत सूत्र से ` तसिल् ` प्रत्यय हो ` सः तस् ` रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो ` तद् तस् ` रूप बनने पर `त्यदादीनामः` (७_२_१०२) से अकार अन्तादेश तथा पर-रूप आदि हो `ततः` रूप सिद्ध होता है।

[५|३|१५] सर्वैकान्यकिंयत्तदःकालेदा - सप्तम्यन्त, सर्व, एक, अन्य, किम्, यत् तथा तत् शब्दों से दा प्रत्यय होता है। | सर्वस्मिन् काले सर्वदा । एकस्मिन् काले = एकदा।

[५|३|१६] इदमोर्हिल् - काल अर्थ में वर्तमान सप्तम्यन्त ` इदम् ` से र्हल् (र्हि) प्रत्यय होता है। | ` अस्मिन् काले ` यहाँ काल अर्थ में वर्तमान सप्तम्यन्त ` इदम् ` शब्द से र्हिल् प्रत्यय हो ` अस्मिन् र्हॎ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो ` इदम् र्हॎ रूप बनने पर अग्रिम् रूत्र प्रवृत होता है।

[५|३|१७] अधुना - सप्तम्यन्त इदम् शब्द से काल अर्थ में अधुना प्रत्यय तथा इदम् को अश् आदेश का निपातन। | इदम् + अधुना == इश् + अधुना == इ + अधुना == अधुना।

[५|३|१८] दानीं च - सप्तम्यन्त इदम् शब्द से काल अर्थ में दानीम प्रत्यय होता है। | इदम् + दानीम् == इदानीम् (अब)।

[५|३|१९] तदोदा च - सप्तम्यन्त तत् शब्द से काल अर्थ में विकल्प से दा तथा दानीम प्रत्यय होता है। | तद् + दा == तदा, तद् + दानीम् == तदानीम्।

[५|३|२०] तयोर्दार्हिलौचच्छन्दसि सप्तम्यन्त इदम् तथा तत् शब्दों से वद में क्रमशः दा तथा र्हिल प्रत्यय होते हैं। | अस्मिन् काले = इदा। तस्मिन् काले = तर्हि। इदानीम्, तदानीम्

[५|३|२१] अनद्यतने र्हिलन्यतरस्याम् - अनद्यतन ( आज न होने वाला) काल अर्थ में वर्तमान सप्तम्यन्त किम्, द्वयादि-भिन्न सर्वनाम और बहु शब्द से विकल्प से र्हिल् (र्हि) प्रत्यय होता है। | `कस्मिन् काले ` यहाँ अनद्यतन काल अर्थ में वर्तमान सप्तम्यन्त `किम् ` शब्द से र्हिल् प्रत्यय हो ` कस्मिन् र्हॎ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो `किम् र्हॎ रूप बनने पर `किमः कः ` (७_२_१०३) से किम् के स्थान पर `कऄ आदि होकर `कर्हॎ रूप सिद्ध होता है।

[५|३|२२] सद्यःपरुत्, परारि, ऐषमः-परेद्यवि, अद्य-पूर्वेद्यु-रन्येद्यु-रन्यतरेद्यु-रितरेद्यु-रपरेद्यु-रधरेद्यु-रुभयेद्यु-रुत्तरेद्युः - सप्तम्यन्त सर्वनाम से काल अर्थ में सद्यः, मरुत्, परारि, ऐषम्, परेद्यवि, अद्य, पूर्वेद्यु, अन्येद्यु, अन्यतरेद्यु, इतरेद्यु, अपरेद्यु, उयेभद्यु, शब्दों का निपातन। | अन्यतरस्मिन् अहनि = अन्यतरेद्युः। इतरस्मिन्नहनि = इतरेद्युः। अपरस्मिन् अहनि = अपरेद्युः। अधरस्मिन्नहनि = अधरेद्युः। उभयोरह्नोः = उभयेद्युः। उत्तरस्मिनहनि = उत्तरेद्युः।

[५|३|२३] प्रकारवचनेथाल् - प्रकार अर्थ में वर्तमान किम्, द्वयादि-भिन्न सर्वनाम और बहु शब्द से थाल् (था) प्रत्यय होता है। | `तेन् प्रकारेणऄ (उस प्रकार से) - यहाँ प्रकारवाची तृतीयान्त सर्वनाम ` तद् ` से `थालऄ प्रत्यय हो `तेन था` रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो `तद् था` रूप बनने पर त्यदादीनामः (७_२_१०२) से अकार अन्तादेश हो `त अ था` रूप बनेगा। यहाँ पर-रूप और विभक्ति-कार्य हो ` तथा` रूप सिद्ध होता है।

[५|३|२४] इदमस्थमुः - प्रकार अर्थ में वर्तमान ` इदम् ` से `थमु` (थम्) प्रत्यय होता है। | ` अनेन प्रकारेणऄ (इस प्रकार से) - इस अर्थ में तृतीयान्त ` इदम् ` से `थमु` प्रत्यय हो ` अनेन थम् ` रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो ` इदम् थम् ` रूप बनने पर थकारादि प्रत्यय परे होने के कारण एतेतौ रथोः (५_३_४) से ` इदम् ` के स्थान पर ` इत् ` हो ` इत् थम् ` रूप बनेगा। यहाँ विभक्ति-कार्य हो ` इत्थाम् ` रूप सिद्ध होता है।

[५|३|२५] किमश्च - प्रकार अर्थ में वर्तमान `किम् ` शब्द से भी `थमु` (थम्) प्रत्यय होता है। | `केन् प्रकारेणऄ (किस प्रकार से) - इस अर्थ में तृतीयान्त `किम् ` से पूर्ववत् `थम् ` प्रत्यय तथा सुप्-लोप हो `किम् थम् ` रूप बनता है। तब किमः कः (७_२_१०३) से किम् के स्थान पर `कऄ हो `कथम् ` रूप बनने पर विभक्ति-कार्य हो `कथम् ` रूप सिद्ध होता है।

[५|३|२६] थाहेतौचच्छन्दसि - हेत्वर्थ तथा प्रकार अर्थ में भी किम् शब्द से वेद में था प्रत्यय होता है। | हेतौ - कथा ग्रामं न पृच्छसि (किस हेतु से गाँव को नहीं पूछते?), प्रकारवचने (कथा देवा आसन् पुराविदः (पुराविद् = पुरातन् इतिहास को जाननेवाले विद्वान् कैसे थे?)

[५|३|२७] दिक्शब्देभ्यःसप्तमी-पञ्चमी-प्रथमाभ्यो-दिग्देशकालेष्व-स्तातिः - दिक्, देश तथा काल अर्थों में वर्तमान सप्तम्यन्त, पञ्चम्यन्त तथा प्रथमान्त दिगर्थव्यवहृत शब्दों से अस्ताति प्रत्यय होता है। | पूर्व + अस्ताति == पुरस्तात्।

[५|३|२८] दक्षिणोत्तराभ्यामतसुच् - दिक्, देश तथा काल अर्थों में वर्तमान दक्षिणा तथा उत्तरा शब्दों से अतसुच प्रत्यय होता है। | सप्तम्यन्तात् - दक्षिणतो वसति। उत्तरतो वसति। पञ्चम्यन्तात्- दक्षिणत आगतः। उत्तरत आगतः। प्रथमान्तात् - दक्षिणतो रमणीयम्। उत्तरतो रमणीयम्।

[५|३|२९] विभाषा परावराभ्याम् - पर तथा अवर शब्दों से विकल्प से दिक् देश तथा काल अर्थों में अतसुच् प्रत्यय होता है। | परतो वसति, परस्ताद् वसति। अवरतो वसति, अवस्ताद् वसति। परत आगतः, परस्ताद् आगतः। अवरत आगतः, अवस्ताद् आगतः। परतो रमणीयम्, परस्ताद् रमणीयम्। अवरतो रमणीयम्, अवस्ताद् रमणीयम्।

[५|३|३०] अञ्चेर्लुक् - अञ्चशब्दान्त दिगर्थव्यवहृत शब्दों से विहित अस्ताति प्रत्यय का लोप। | प्राच्यां दिशि वसति = प्राग्वसति, प्रागागतः। प्राग् रमणीयम्।

[५|३|३१] उपर्युपरिष्टात् - अस्तात्यर्थ में उपरि तथा उपरिष्टात् ये दोनों शब्द निपातित है। | ऊर्ध्वायां दिशि वसति = उपरि वसति। उपरि आगतः। उपरि रमणीयम्। उपरिष्टाद् वसति। उपरिष्टाद् आगतः। उपरिष्टाद् रमणीयम्।

[५|३|३२] पश्चात् - अस्तात्यर्थ में उपरि तथा उपरिष्टात् ये दोनों शब्द निपातित हैं | अपर + आति == पश्च आति == पश्चात्।

[५|३|३३] पश्च पश्चा च च्छन्दसि - छान्दोविषय में अस्तात्यर्थ तथा शब्दों का निपातन। | अकार - आकारौ च प्रत्ययौ निपात्येते। पश्च सिंहः, पश्चा सिंहः, पश्चात् सिंहः।

[५|३|३४] उत्तराधर-दक्षिणादातिः - अस्तात्यर्थ में उत्तर, अधर तथा दक्षिण शब्दों से आति प्रत्यय होता है। | उत्तर + आति == उत्तर + आत् == उत्तरात्, इसी प्रकार अधरात्, दक्षिणात्

[५|३|३५] एनबन्यतरस्यामदूरेऽपञ्चम्याः - अवधिमान् पदार्थ दूरवर्ती होने पर सप्तम्यन्त तथा प्रथमान्त उत्तर, अधर तथा दक्षिण शब्दों से अस्तात्यर्थ विकल्प से एनप् प्रत्यय होता है। | उत्तरेण वसति, उत्तराद्विसति, उत्तरतो वसति। उत्तरेण रमणीयम्, उत्तराद् रमणीयम्, उत्तरतो रमणीयम्। अधरेण वसति, अधराद् वसति, अधस्ताद् वसति।

[५|३|३६] दक्षिणादाच् - सप्तम्यन्त तथा प्रथमान्त दक्षिण शब्द से अस्तात्यर्थ में आच् प्रत्यय होता है। | दक्षिणा वसति, दक्षिणा रमणीयम्।

[५|३|३७] आहिचदूरे - अवधिमान् पदार्थ दूरवर्ती होने पर सप्तम्यन्त तथा प्रथमान्त दक्षिण शब्द से विकल्प से आहि प्रत्यय होता है। | दक्षिणाहि वसति, दक्षिणा वसति। दक्षिणाहि रमणीयम्, दक्षिणा रमणीयम्।

[५|३|३८] उत्तराच्च - अवधिमान् पदार्थ दूरवर्ती होने पर सप्तम्यन्त तथा प्रथमान्त उत्तर शब्द से भी अस्तात्यर्थ में आहि तथा आच् प्रत्यय होते हैं। | उत्तरा वसति, उत्तराहि वसति। उत्तरा रमणीयम्, उत्तराहि रमणीयम्।

[५|३|३९] पूर्वाधरावराणामसिपुरधवश्चैषाम् - अस्तात्यर्थ में पूर्व, अवर तथा अधर शब्दों से असि प्रत्यय होता है और प्रत्यय के साथ-साथ प्रकृतियों के स्थान में क्रमशः पुर्, अध् तथा अव् आदेश। | पूर्वस्यां दिशि वसति = पुरो वसति, पुर आगतः, पुरो रमणीयम्। अधो वसति, अध आगतः अधो रमणीयम्। अवो वसति, अव आगतः, अवो रमणीयम्।

[५|३|४०] अस्तातिच - अस्ताति प्रत्यय के परे भी पूर्व, अधर तथा अवर के स्थान में क्रमशः पुर्, अध् तथा अव् आदेश। | पुरस्तात् वसति। पुरस्तादागतः। पुरस्तात् रमणीयम्।

[५|३|४१] विभाषाऽवरस्य - अस्ताति प्रत्यय के परे अवर के स्थान में विकल्प से अव् आदेश। | अवस्तात् वसति, अवरस्ताद् वसति। अवस्तादागतः, अवरस्तादागतः। अवस्ताद् रमणीयम्, अवरस्ताद् रमणीयम्।

[५|३|४२] संख्यायाविधार्थेधा - विद्या (प्रकार) के अर्थ में वर्तमान संख्यावाचक शब्दों से धा प्रत्यय होता है। | एकधा भुङ्क्ते (एक प्रकार से खाता है), द्विधा गच्छति (दो प्रकार से जाता है), त्रिधा, चतुर्धा।

[५|३|४३] अधिकरणविचाले च - द्रव्य संख्या परिवर्तन के गम्यमान होने पर भी संख्यावाचक शब्दों से स्वार्थ में धा प्रत्यय होता है। | एकं राशि पञ्चधा कुरु, अष्टधा कुरु, अनेकधा कुरु।

[५|३|४४] एकाद्धोध्यमुञन्यतरस्याम् - एक शब्द से विहित धा प्रत्यय के स्थान में विकल्प से ध्यमुञ् आदेश। | एकधा राशि कुरु, ऐकध्यं राशि कुरु। एकधा भुङ्क्ते, ऐकध्यं भुङ्क्ते।

[५|३|४५] द्वित्र्योश्चधमुञ् - द्वि तथा त्रि शब्दों से विहित विद्यार्थक तथा संख्येय्यद्रव्य निष्ठ संख्या परिवर्तन सूचनार्थ धा के स्थान में विकल्प से धमुञ् आदेश। | द्वि + धा == द्विं + धमुञ् == द्वै + धम् == द्वैधम् । द्वैधम् + सु (यहाँ१_१_३७सूत्र से "सु" का लोप होकर) द्वैधम् बना।

[५|३|४६] एधाच्च - द्वि तथा त्रि शब्दों से विहित धा के स्थान में विकल्प से एधाच् आदेश। | द्वि + एधाच् == द्वेधा (यहाँ (६_४_१४८) सूत्र से द्वेधा रूप बना)। इसी प्रकार द्विधा, द्वैधम्, त्रेधा, त्रिधा, त्रैधम्।

[५|३|४७] याप्येपाशप् - कुत्सितार्थ में वर्तमान प्रातिपादिक से स्वार्थ में पाशप् प्रत्यय होता है। | कुत्सितो वैयाकरणो वैयाकरणपाशः (निन्दित वैयाकरण), याज्ञिकपाशः।

[५|३|४८] पूरणाद्-भागेतीयादन् - भागोपाधिक पूरणार्थकतीय प्रत्ययान्त प्रातिपदिक से स्वार्थ में अन् प्रत्यय होता है। | द्वितीयो भागः = द्वितीयः। तृतीयः।

[५|३|४९] प्रागेकादशभ्योऽछन्दसि - एकादश से पूर्वसंख्या के वाचक पूरण प्रत्ययान्त प्रातिपदिकों से भागोपाधिक होने पर स्वार्थ में छान्दोविषय में अन् प्रत्यय होता है। | पञ्चमः, सप्तमः, नवमः, दशमः।

[५|३|५०] षष्ठाष्टमाभ्यांञच - भागार्थक षष्ठ तथा अष्टम शब्दों से वेद में ञ प्रत्यय होता है। | षाष्ठो भागः, षष्ठो भागः। आष्टमो भागः, अष्टमो भागः।

[५|३|५१] मानपश्वङ्गयोःकन्लुकौ च - षष्ठ तथा अष्टम शब्दों से कन् प्रत्यय तथा कन् एवम् पूर्वविहित ञ प्रत्ययों का लोप हो जाता है यदि प्रत्ययान्त षष्ठ शब्द मान (तौल) के भाग का और अष्टम शब्द पश्वङ्ग के भाग का अर्थ रखते हैं। | षष्ठको भागो मानं चेत्तद्भवति षाष्ठः, षष्ठः। अष्टमो भागः पश्वङ्गञ्चेत्तद्भवति आष्टमः, अष्टमः।

[५|३|५२] एकादाकिनिच्चासहाये - असहायवाचक एक शब्द से स्वार्थ में अकिनिच् तथा कन् प्रत्यय होता है और उसका लोप भी। | एक + आकिनिच् == एकाकिन् + सु, दीर्घ हल्ङ्यादिलोप तथा नकारलोप होकर एकाकी रूप सिद्ध हुआ।

[५|३|५३] भूतपूर्वे चरट् - भूत पूर्वत्व विशिष्ट अर्थ में वर्तमान प्रातिपादिक से स्वार्थ में चरट् प्रत्यय होता है। | आढ्यो भूतपूर्वः = आढ्यचरः (जो पहले आढ्य = धनवान था), सुकुमारचरः (जो पहले सुकुमार था)।

[५|३|५४] षष्ठया रूप्य च - षष्ठयन्त प्रातिपदिक से रूप्य तथा चरट् प्रत्यय होते हैं। | देवदत्तस्य भूतपूर्वो गौः = देवदत्तरूप्यः, देवदत्तचरः।

[५|३|५५] अतिशायने तमबिष्ठनौ - अतिशयन ( अतिशय या प्रकर्ष) अर्थ में वर्तमान प्रातिपादिक से तमप् (तम) और इष्ठन् (इष्ठ) - ये दो प्रत्यय होते हैं। | ` अतिशयेन आढ़्यः` ( अधिक सम्पन्न) - यहाँ अतिशयन अर्थ में वर्तमान प्रथमान्त प्रातिपादिक ` आढ़्यः` से `तमप् ` प्रत्यय हो ` आढ़्यः तमऄ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो ` आढ़्यतमः` रूप बनने पर विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में ` आढ़्यतमः` रूप सिद्ध होता है।

[५|३|५६] तिङश्च - अतिशयन अर्थ में वर्तमान तिङ्-प्रत्यान्त से भी `तमप् ` (तम) प्रत्यय होता है। | ` अतिशयेन पचतॎ (उत्कृष्ट पकाता है) - यहाँ अतिशयन अर्थ में वर्तमान तिङ्-प्रत्ययान्त `पचतॎ से `तमप् ` प्रत्यय हो `पचतितम् ` रूप सिद्ध होता है।

[५|३|५७] द्विवचन-विभज्योपपदे-तरबीयसुनौ - द्वयर्थवाची और विभज्य (जिसका विभाग किया जावे) उपपद रहते प्रातिपादिक और तिङन्त से अतिशयन (अतिशय, प्रकर्ष) अर्थ में `तरप् ` (तर) और ` ईयसुन् ` (ईयस्) प्रत्यय होते हैं। | ` अनयोरतिशयेन लघुः) (इस दो में बहुत छोटा) - यहाँ द्वयर्थवाची ` अनयोः` उपपद रहते प्रथमान्त प्रातिपादिक `लघुः` से `तरप् ` प्रत्यय हो `लघुः तरऄ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो `लघुतरऄ रूप बनने पर विभक्ति-कार्य हो `लघुतरः` रूप सिद्ध होता है।

[५|३|५८] अजादी गुणवचनादेव - इष्ठन् तथा ईयसुन् प्रत्यय गुणवाचक शब्दों से ही विहित हो सकते हैं। | पटीयान्, लघीयान्। पटिष्ठः, लघिष्ठः।

[५|३|५९] तुश्छन्दसि - तृन् प्रत्ययान्त तथा तृच् प्रत्ययान्त प्रातिपदिकों से छान्दोविषय में इष्ठन् तथा ईयसुन् होते हैं। | कर्तृ + इष्ठन् == करिष्ठः, कर्तृ + इयसुन् == करियसी।

[५|३|६०] प्रशस्यस्य श्रः - अजादि प्रत्यय ( अर्थात् इष्ठन् और ईयसुन्) परे रहते `प्रशस्यऄ (प्रशंसनीय) के स्थान पर `श्रऄ आदेश। | ` एषाम् अतिशयेन प्रशस्यः` (इन सब में अतिशय प्रशंसनीय) - इस अर्थ में `प्रशस्यः` से इष्ठन् (इष्ठ) प्रत्यय और सुप्-लोप हो `प्रशस्य इष्ठऄ रूप बनने पर प्रकृत सूत्र से `प्रशस्यऄ के स्थान पर `श्रऄ हो `श्र इष्ठऄ रूप बनता है।

[५|३|६१] ज्य च - अजादि प्रत्यय (इष्ठन् और ईयसुन्) परे रहने पर `प्रशस्यऄ के स्थान पर `ज्यऄ भी आदेश। | ` एषाम् अतिशयेन प्रशस्यः` अर्थ में ` इष्ठन् ` प्रत्यय हो `प्रशस्य इष्ठऄ रूप बनने पर प्रकृत सूत्र से `प्रशस्यऄ के स्थान पर `ज्यऄ सर्वादेश हो `ज्य इष्ठऄ रूप बनता है। तब पूर्ववत् प्रकृति-भाव और गुणादेश आदि होकर प्रथमा के एकवचन में `ज्येष्ठः` रूप सिद्ध होता है।

[५|३|६२] वृद्धस्य च - अजादि प्रत्ययों के परे वृद्ध शब्द के स्थान में भी `ज्यऄ आदेश। | वृद्ध को ज्य आदेश होने पर = वृद्ध + णिच् / ज्य + इ / अचो ञ्णिति सूत्र से "अ" को वृद्धि करके ज्या + इ

[५|३|६३] अन्तिक-बाढयोर्नेद-साधौ - अजादि प्रत्ययों के परे अन्तिक तथा बाढ़ शब्दों को क्रमशः नेद तथा साध आदेश। | नेदिष्ठम् (सबसे अधिक समीप), नेदीयः, साधिष्ठम् (सबसे अधिक अच्छा), साधीयः।

[५|३|६४] युवाल्पयोः कनन्यतरस्याम् - अतिशयत्व विशिष्ट अर्थ में वर्तमान युवन् तथा अल्प शब्दों को अजादि प्रत्ययों के परे विकल्प से कन् आदेश। | सर्व इमे युवान अयमेषामतिशयेन युवा = कनिष्ठः, यविष्ठः (सबसे अधिक युवा), अल्पिष्ठः। द्वाविमौ युवानौ, अयमनयोरतिशयेन युवा = कनीयान्, यवीयान्, अल्पीयान्।

[५|३|६५] विन्मतोर्लुक् - अजादि प्रत्यय (इष्ठन् और ईयसुन्) परे होने पर विन् और मतुप् - इन - दो प्रत्ययओं का लोक् (लोप) होता है। | ` एषाम् अतिशयेन स्त्रग्वी ` (इन सबसे अधिक माला पहनने वाला) - इस अर्थ में विन्-प्रत्ययान्त `स्त्रग्विन् ` से ` इष्ठन् ` प्रत्यय और सुप्-लोप हो `स्त्रग्विन् इष्ठऄ रूप बनने पर प्रकृत सूत्र से विन् प्रत्यय का लोप होकर ` स्त्रग् इष्ठऄ रूप बनता है। तब `निमित्तापाये नैमित्तिकस्याप्यपायः` परिभाषा से पूर्व-रूप हो `स्रज् इष्ठऄ = स्रजिष्ठ रूप बनने पर विभक्ति-कार्य होकर `स्रजिष्ठः` रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - स्त्रज् + ईयसुन् == स्त्रजीयान्, त्वच् + ईयसुन् == त्वचीयान्।

[५|३|६६] प्रशंसायां रूपप् - प्रशंसाविशिष्ट अर्थ में वर्तमान प्रातिपदिक से स्वार्थ में रूपप् प्रत्यय होता है। | प्रशस्तो वैयाकरणो = वैयाकरणरूपः (अच्छा वैयाकरण), याज्ञिकरूपः (अच्छा याज्ञिक)। तिडन्तादपि - पचतिरूपम् (अच्छा पकाता है), जल्पतिरूपम् (अच्छा बोलता है)।

[५|३|६७] ईषदसमाप्तौ कल्पब्देश्य-देशीयरः - ` ईषद्- असमाप्तॎ (कुछ कमी) अर्थ में वर्तमान प्रातिपादिक और तिङ्-प्रत्ययान्त से `कल्पपऄ (कल्प), देश्य और देशीयर (देशीय) - ये तीन प्रत्यय होते हैं। | ` ईशदसमाप्तो विद्वान् ` (कुछ कम विद्वान्) - इस अर्थ में प्रथमान्त प्रातिपादिक विद्वस् से `कल्पप् ` प्रत्यय और सुप्-लोप हो `विद्वस् कल्पऄ रूप बनता है। यहाँ वसु स्त्रन्सु से सकार को दत्व तथा पुनः `खरि चऄ से तत्व हो विद्वत्कल्प रूप बनने पर विभक्ति-कार्य होकर प्रथमा के एकवचन में विद्वत्कल्पः रूप सिद्ध होता है।

[५|३|६८] विभाषा सुपो बहुच्पुरस्तात्तु - ` ईषद् असमाप्ति ` (कुछ कमी) अर्थ में वर्त्मान सुबन्त (सुप्-प्रत्ययान्त) से विकल्प से बहुच् (बहु) प्रत्यय होता है।बहुच् प्रत्यय सुबन्त के पूर्व होता है पश्चात् नहीं | ईषद्समाप्तः लेखः = बहुलेखः, बहुपटुः, बहुमृदुः पक्षे कल्पबादयो भवन्ति - लेखकल्पः, लेखदेश्यः, लेखदेशीयः।

[५|३|६९] प्रकारवचने जातीयर् - प्रकार विशिष्ट अर्थ में वर्तमान सुबन्त के स्वार्थ में जातीयर् प्रत्यय होता है। | पटुप्रकारः पटुजातीयः, मृदुजातीयः, दर्शनीयजातीयः।

[५|३|७०] प्रागिवात्कः ` इवे प्रतिकृतॏ (५_३_९६) सूत्र से पूर्व तक `कऄ प्रत्यय होता है। | अश्वकः, गर्दभकः।

[५|३|७१] अव्यय-सर्वनाम्नामकच्-प्राक्टेः - यहाँ से लेक ` इवे प्रातिकृतॏ (५_३_९६) से पूर्व तक कहे जाने वाले अर्थों में अव्यय, सर्वनाम और तिङन्त (तिङ्-प्रत्ययान्त) की `टॎ के पहले ` अकच् ` ( अक) प्रत्यय होता है। | युवकयोः आवकयोः। क्वचित् सुपः प्राग् भवति। यथा - त्वयका मयका।

[५|३|७२] कस्यचदः - अकच् प्रत्यय होने से ककारान्त प्रातिपदिक के ककार के स्थान में दकार आदेश। | धिक् + अकच् == धकित्, हिरुक् + अकच् == हिरकुत्, पृथक् + अकच् == पृथकत्।

[५|३|७३] अज्ञाते - सामान्यतया ज्ञात एवम् विशेष रूप से अज्ञात अर्थ में वर्तमान प्रातिपदिक तथा तिङन्त से यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | अज्ञातोऽश्वः = अश्वकः, गर्दभकः। उच्चकैः, नीचकैः। सर्वके, विश्वके। पचतकि, जल्पतकि।

[५|३|७४] कुत्सिते - कुत्सित अर्थ में वर्तमान तिङन्त, सुबन्त और प्रातिपादिक से यथाविहित प्रत्यय ( `कऄ या ` अकचऄ) होते हैं। | `कुत्सितोऽश्चः ` (कुत्सित - बुरा घोड़ा) _ इस अर्थ में प्रथमान्त सुबन्त ` अश्वः` से `कऄ प्रत्यय हो ` अश्वः कऄ रूप बनने पर पूर्ववत् सुप्-लोप और विभक्ति-कार्य हो ` अश्वकः` रूप सिद्ध होता है।

[५|३|७५] संज्ञायां कन् - प्रत्ययान्त संज्ञावाचक होने पर कुत्सितार्थ में वर्तमान प्रातिपदिक से कन् प्रत्यय होता है। | शूद्रः + कन् == शूद्रकः, राधः + कन् == राधकः।

[५|३|७६] अनुकम्पायाम् - अज्ञात अर्थ में वर्तमान तिङन्त, सुबन्त और प्रातिपादिक से यथाविहित प्रत्यय ( `कऄ या ` अकच् `) होते हैं। | अज्ञातोऽश्चः ( अज्ञात अश्व) - इस अर्थ में (५_३_७०) सूत्र से प्रथमान्त ` अश्वऄ से `कऄ प्रत्यय हो ` अश्वः कऄ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो ` अश्वकऄ रूप बनने पर विभक्ति-कार्य होकर ` अश्वकः` रूप सिद्ध होता है।

[५|३|७७] नीतौ च तद्युक्तात् - सामादि प्रयोगात्मक नीति के गम्यमान होने पर परम्पर या अनुकम्पायुक्त - पदार्थवाचक शब्दों से भी यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | तिल + अकच् == तिलकाः, धान् + अकच् == धानकाः।

[५|३|७८] बह्वचो मनुष्यनाम्नष्ठज्वा - अनुकम्पा तथा नीति के गम्यमान होने पर अनेकाच् तथा मनुष्यवाचक प्रातिपदिकों से विकल्प से ठच् प्रत्यय होता हैं। | देवदत्त + ठच् =(द्वितीय "अच्" के बाद का लोप करके= देव + इक == देविकः, यज्ञदत्त + ठच् =(द्वितीय "अच्" के बाद का लोप करके)= यज्ञ + इक == यज्ञिकः (

[५|३|७९] घनिलचौ च - अनुकम्पा तथा नीति के गम्यमान होने पर अनेकाच् तथा मनुष्यवाचक प्रातिपदिकों से घन्, इलच् तथा ठच् प्रत्यय होते हैं। | यज्ञ + घन् == यज्ञियः, यज्ञ + इलच् == यज्ञिलः, यज्ञ + ठच् == यज्ञिकः। इसी प्रकार देवियः, देविलः, देविकः।

[५|३|८०] प्राचामुपादेरडज्वुचौ च - उपशब्द हो आदि में जिनके ऐसे अनेकाच् एवम् मनुष्यवाचक प्रातिपदिकों से अडच्, वुच्, घन्, इलच् तथा ठच् प्रत्यय विकल्प से होते हैं | उपेन्द्रदत्त + ठच् =(द्वितीय "अच्" के बाद का लोप करके)= उप + इक == उपिकः, उपेन्द्रदत्त + घन् =(द्वितीय "अच्" के बाद का लोप करके)= उप + इय == उपिय । इसी प्रकार उपिलः, उपडः, उपकः।

[५|३|८१] जातिनाम्नः कन् - जात्यन्तरविशिष्ट पदार्थवाचक के रूप में प्रसिद्ध व्याघ्र आदि शब्द यदि मनुष्य के नाम के रूप में प्रयुक्त हों तो उनसे नीति के गम्यमान होने पर कन् प्रत्यय होता है। | व्याघ्र + कन् == व्याघ्रकः, सिंह + कन् == सिंहकः।

[५|३|८२] अजिनान्तस्योत्तरपदलोपश्च - अजिनशब्दान्त मनुष्यवाचक प्रातिपदिक से अनुकम्पा के गम्यमान होने पर कन् प्रत्यय तथा अजिन् पद का लोप होता है। | व्याघ्राजिन + क =(अजिन का लोप करके)= व्याघ्रकः। इसी प्रकार सिंहाजिन से सिंहकः।

[५|३|८३] ठाजादावूर्ध्वं द्वितीयादचः - इस प्रकरण में विहित अनुकम्पार्थ तथा नीत्यर्थक ठ एवम् अजादि प्रत्ययों के परे प्रकृति के द्वितीय स्वर से उत्तर अंश का लोप। | देवदत्त + ठच् == देविकः, देवदत्त + घन् == देवियः, देवदत्त + इलच् == देविलः, इसी प्रकार उपडः, उपकः, उपिय।

[५|३|८४] शेवल-सुपरि-विशाल-वरुणार्यमादीनां तृतीयात् - शवेल आदि मनुष्यनामभूत शब्दों के तृतीय अच् से उत्तरांश का ठ तथा अजादि प्रत्ययों के परे लोप। | अनुकम्पितः शेवलदत्तः == शेवलिकः, शेवलियः, शेवलिलः। सुपरिकः, सुपरियः, सुपरिलः। विशालिकः, विशालियः। वरुणिक, वरुणियः, वरुणिलः।

[५|३|८५] अल्पे - अल्पत्वविशिष्टार्थ में वर्तमान प्रातिपदिक से यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | अल्पं तैलम् = तैलकम्, घृतकम्। सर्वनाम्नः - अकच् - सर्वकम् विश्वकम्। तिडन्तादकच् - पचतकि, जल्पतकि।

[५|३|८६] ह्रस्वे - हृस्वत्वविशिष्ट अर्थ में वर्तमान प्रातिपदिक से यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | ह्रस्वो वृक्षः = वृक्षकः, प्लक्षकः, स्तम्भकः।

[५|३|८७] संज्ञायां कन् - ह्रस्वत्वनिमिक्तक संज्ञा के प्रत्यायनार्थ प्रातिपदिक से कन् प्रत्यय होता है। | वेणु + कन् == वेणुकः, दण्ड + कन् == दण्डकः।

[५|३|८८] कुटी-शमी-शुण्डाभ्यो रः - कुटी शमी तथा शुण्डा शब्दों से ह्रस्वार्थद्योतन के लिए र प्रत्यय होता है। | ह्रस्वा कुटी = कुटीरः। शमीरः, शुण्डारः।

[५|३|८९] कुत्वा डुपच् - ह्रस्वत्व द्योतन के लिए कुतू शब्द से डुपच् प्रत्यय होता है। | ह्रस्वा कुतूः = कुतुपम्।

[५|३|९०] कासू-गोणीभ्यां-ष्टरच् - ह्रस्वत्व द्योतन के लिए कासू तथा गोणी शब्दों से ष्टरच् प्रत्यय होता है। | ह्रस्वा कासू = कासूतरी। गोणीतरी।

[५|३|९१] वत्सोक्षाश्वर्षभेभ्यश्च तनुत्वे - तनुत्व के द्योतन के लिए वत्स, उक्षन, अश्व तथा ऋषभ शब्दों से ष्टरच् प्रत्यय होता है। | वत्सरः, उक्षतरः, अश्वतरः, ऋषभतरः।

[५|३|९२] किं यत्तदो-निर्धारणे-द्वयोरेकस्य-डतरच् - दो में से एक के निर्धारण के विषय में (कियत्तदः) किम्, यद्, और तद् से डतरच प्रत्यय होता है। | ` अनयोः कः वैष्णवः` ( इन दो में से कौन वैष्णव है) - यहाँ दो में से एक निर्धारण के विषय में प्रथमान्त `किम् ` से ` डतरचऄ प्रत्यय हो `कः अतरऄरूप बनता है। तब सुप्-लोप हो `किम् अतरऄ रूप बनने पर डित् प्रत्यय डतरच् ( अतर) से परे होने के कारण `किं की `टॎ - ` इमऄ का लोप होकर ` क अतरऄ ==> कतर रूप बनेगा। यहा-विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में ` कतरः` रूप सिद्ध होता है।

[५|३|९३] वा बहूनां जातिपरिप्रश्ने डतमच् - यदि बहुतों में से एक का निर्धारण करना हो तो जाति-परिप्रश्न अर्थ में वर्तमान किम्, यद्, और तद् से विकल्प से डतमच ( अतम) प्रत्यय होता है। | `कतमो भवतां कठः` (आप लोगों में से कठ जाति या शाखा का कौन है) - इस वाक्य में बहुतों में से एक का निर्धारण किया जा रहा है। साथ ही यह प्रश्न जाति-सम्बन्धी हैं। अतः प्रकृत सूत्र से जाति-परिप्रश्न अर्थ में विद्यमान `किम् ` से `डत्मच् ` प्रत्यय हो `किम् अतमऄ रूप बनने पर पूर्ववत् टि-लोप और विभक्ति-कार्य हो `कतमः` रूप बनता है।

[५|३|९४] एकाच्च प्राचाम् - उक्त अर्थों में एक शब्द से भी डतरच् तथा डतमच् प्रत्यय विकल्प से होते हैं। | एकतरो भवतोर्देवदत्तः (आप दोनों में से एक देवदत्त है)। एकतमो भवतां देवदत्तः (आप सबों में से एक देवदत्त है)।

[५|३|९५] अवक्षेपणे कन् - अवक्षेपणार्थ में वर्तमान प्रातिपदिक से कन् प्रत्यय होता है। | व्याकरणकेन नाम त्वं गार्वितः, याज्ञिक्यकेन नाम त्वं गर्वितः (व्याकरण ज्ञान के कारण तू अभिमान में है)।

[५|३|९६] इवेप्रतिकृतौ - प्रतिकृति अर्थ में वर्तमान प्रातिपादिक से ` इवऄ (सदृश) अर्थ में `कन् ` प्रत्यय होता है। | ` अश्व इव प्रतिकृतिः` ( अश्व के सदृश प्रतिकृति) - इस अर्थ में प्रथमान्त प्रातिपादिक ` अश्वऄ से ` कन् ` प्रत्यय हो ` अश्वः कऄ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो ` अश्वकऄ रूप बनने पर विभक्ति-कार्य होकर ` अश्वकः` रूप सिद्ध होता है।

[५|३|९७] संज्ञायां च - यदि प्रत्ययान्त से संज्ञा की प्रतीति होती हो तो भी इवार्थ में कन् प्रत्यय होता है। | अश्वकः, उष्ट्रकः, गर्दभकः। अप्रतिकृतिविषयार्थत्वान्नेह प्रतिकृतिविषयार्थत्वान्नेह प्रतिकृतिग्रहणं संबद्धयते।

[५|३|९८] लुम्मनुष्ये - मनुष्य के वाच्य होने पर संज्ञा में विहित कन् प्रत्यय का लोप। | चञ्चा + कन् == चञ्चा (कन् प्रत्यय का लोप।)

[५|३|९९] जीविकार्थे चापण्ये - जीविका निमित्तक अपण्य ( अविक्रीयमाण) पदार्थ के वाच्य होने पर विहित प्रत्यय का लोप। | वासुदेवः, शिवः, स्कन्दः, विष्णुः। वासुदेवादीनां मानार्हाणां महापुरुषाणां प्रतिकृतिनां विक्रयः पुराकाले प्रतिषिद्ध आसेद् यथा घृतदुग्धतैलादीनाम्। तस्माद् एतेषां प्रतिकृतय अपण्या = अविक्रेया अभूवन्। ता यत्र तत्र देशदेशान्तरे प्रदर्श्य केचन जीविकामर्जयन्ति स्म। अत एता प्रतिकृतयो जीविकार्थाः सत्योऽपण्या = अविक्रेया आसन्।

[५|३|१००] देवपथादिभ्यश्च ` इवे प्रतिकृतॏ तथा `संज्ञायाम् चऄ सूत्रों से कन् प्रत्यय आदि देवपथ आदि शब्दों से विहित हो उसका भी लोप। | देवपथः, जलपथः, राजपथः। देवपथादीनां प्रतिकृतयोऽपि देवपथादिशब्दैर्व्यवह्रियन्ते, तत्रोत्पन्नस्य कनो लुब्भवति।

[५|३|१०१] वस्तेर्ढञ् - यहाँ से आगे विधीयमान प्रत्यय इवार्थ में प्रतिकृति या दोनों में से किसी की भी अभिधेयता में होती है। | वस्तिरिव - वास्तेयः, वास्तेयी।

[५|३|१०२] शिलाया ढः - शिला शब्द से इवार्थ (सादृश्य) में ढ प्रत्यय होता है। | शिला + ढ == शिलेयम्

[५|३|१०३] शाखादिभ्यो यत् शाखा आदि शब्दों से इवार्थ में यत् प्रत्यय होता है। | शाखा + यत् == शाख्यः, मुख + यत् == मुख्यः, जघन + यत् == जघन्यः, चरण + यत् == चरण्यः।

[५|३|१०४] द्रव्यं च भव्ये - प्रत्ययान्त का वाच्य भव्य होने पर द्रु शब्द से इवार्थ में यत् प्रत्यय का निपातन होता है। | द्रव्योऽयं राजपुत्रः, द्रव्योऽयं माणवकः।

[५|३|१०५] कुशाग्राच्छः - कुशाग्र शब्द से इवार्थ में छ प्रत्यय होता है। | कुशाग्रमिव सूक्ष्मत्वात् = कुशाग्रीया बुद्धिः, कुशाग्रीयं वस्त्रम्।

[५|३|१०६] समासाच्च तद्विषयात् - इवार्थ विषयक समास से इवार्थ में छ प्रत्यय होता है। | काकागमनमिव तालपतनमिव काकतालम् इत्येकस्मिन् इवार्थे समासः, अपरस्मिन् इवार्थेः छः प्रत्ययः। काकतलामिव यत् कार्यं तत् काकतालीयम्, अजाकृपाणीयम्, अन्धकवर्त्तकीयम्।

[५|३|१०७] शर्करादिभ्योऽण् शर्करा आदि शब्दों से इवार्थ में अण् प्रत्यय होता है। | शर्करा + अण् == शर्करम्, कपालिका + अण् == कपालिकम्, कपाटिका + अण् == कपाटिकम्। इसी प्रकार कपिष्ठकम्, पुण्डरीकम्, शतपत्रं, नकुलम्, सिकतम् आदि।

[५|३|१०८] अङ्गुल्यादिभ्यष्ठक् अङ्गुली आदि शब्दों से इवार्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | अङ्गुली + ठक् == आङ्गुलिकः, भरुज + ठक् == भारुजिकः, बभ्रु + ठक् == बाभ्रुकः, वल्गु + ठक् == वाल्गुकः। इसी प्रकार माण्डरकः, शाष्कुलीकः, हारिकः, कापिकः आदि।

[५|३|१०९] एकशालायाष्ठजन्यतरस्याम् - एकशाला शब्द से इवार्थ में विकल्प से ठक् प्रत्यय होता है। | एकशाला + ठच् == एकशालिकः, विकल्प होने पर (एकशाला + ठक् == ऐकशालिकः।

[५|३|११०] कर्क-लोहितादीकक् - कर्क तथा लोहित शब्दों से इवार्थ में ईकक् प्रत्यय होता है। | ईवार्थ द्योत्य होने पर, कर्क + ईकक् == कार्क्कीकः, लोहित + ईकक् == लौहितीकः।

[५|३|१११] प्रत्न-पूर्व-विश्वेमात्थाल्छन्दसि - प्रत्न, पूर्व, विश्व तथा इम शब्दों से इवार्थ में थाल प्रत्यय छान्दोविषय में होता है। | प्रत्न + इव = पत्नथा, पूर्व + इव = पूर्वथा, विश्व + इव = विश्वथा

[५|३|११२] पूगाञ्ञ्योऽग्रामणीपूर्वात् - अग्रामणीपूर्वक पूगवाचक शब्द से इवार्थ में ञ्य प्रत्यय होता है। | लोहितध्वज + ञ्य == लौहितध्वज्यः, शिबि + ञ्य == शैब्यः।

[५|३|११३] व्रात-च्फञोरस्त्रियाम् - व्रातार्थक प्रातिपदिक तथा चफञ् प्रत्ययान्त प्रातिपदिकों से स्वार्थ में ञ्य प्रत्यय स्त्रीत्वभिन्न लिङ्ग में होता है। | व्रातेभ्यः - कापोत - पाक्यः, कापोतपाक्यौ, कपोतपाकाः। व्रैहिमत्यः, व्रैहिमत्यौ, व्रीहिमताः। च्फञ् - प्रत्ययान्तेभ्यः - कौञ्जायन्यः, कौञ्जायन्यौ, कौञ्जायनाः, ब्राध्नायन्यः, ब्राध्नायन्यौ, ब्राध्नायनाः।

[५|३|११४] आयुधजीवि-संघाञ्ञ्यड्-वाहीकेष्वब्राह्मण-राजन्यात् - वाहीकवृत्ती आयुध जीविसंघवाचक ब्राह्मण तथा राजन्य से भिन्न प्रातिपदिकों से स्वार्थ में ञ्यट् प्रत्यय होता है। | कौण्डीबृस्यः, कौण्डीबृस्यौ, कौण्डीबृसाः। क्षौद्रक्यः, क्षौद्रक्यौ, क्षुद्रकाः। मालव्यः, मालव्यौ, मालवाः।

[५|३|११५] वृकाट्टेण्यण् - आयुध जीविसंघवाचक वृक शब्द से टेण्यण् प्रत्यय होता है। | वार्केण्यः, वार्केण्यौ, वृकाः।

[५|३|११६] दामन्यादि-त्रिगर्त-षष्ठाच्छः आयुध जीविसंघवाचक दामिनी आदि शब्दों तथा त्रिगर्तषष्ठ शब्द से स्वार्थ में छ प्रत्यय होता है। | दामनि + छ == दामनीयः, औलपि + छ == औलपीयः, बैजवापि + छ == बैजवापीयः, औदकि + छ == अहुदकीयः आदि।

[५|३|११७] पर्श्वादि-यौधेयादिभ्या-मणञौ आयुध जीविसंघवाचक पर्शु आदि तथा यौधेय आदि शब्दों से स्वार्थ में अण् तथा अञ् प्रत्यय होते हैं। | पार्शवः, पार्शवौ, पार्शवः। आसुरः, आसुरौ, असुराः। यौधेयादिभ्यः - यौधेयः, शौक्रेयः।

[५|३|११८] अभिजिद्विदभृच्छालावच्छि-खावच्छमीवदूर्णावच्छ्रुमदणो यञ् - अण् प्रत्ययान्त अभिजित् आदि शब्दों से स्वार्थ में यञ् प्रत्यय होता है | अभिजितोऽपत्यमित्यण् = अभिजितः, तदन्ताद्यञ् = आभिजित्यः, आभिजित्यौ, आभिजिताः। वैदभृत्यौ, वैदभृताः। शालावत्यः, शालावत्यौ, शालावताः। शैखावत्यः, शैखावत्यौ, शैखवताः।

[५|३|११९] ञ्यादयस्तद्राजाः - `पूगाञ्ञ्योऽग्रामणीपूर्वात् ` से विहित प्रत्यय तथा उसके बाद प्रत्यय की `तद्राजऄ संज्ञा होती है। | लोहितध्वज + ञ्य == लौहितध्वज्यः, शिबि + ञ्य == शैब्यः।

[५|४|१] पादशतस्य संख्यादेर्वीप्सायां वुन्लोपश्च - संख्यापूर्वक पादशब्दान्त तथा शतशब्दान्त शब्दों से वीप्सा के द्योत्य होने पर वुन् प्रत्यय होता है और प्रत्यय के विधान होने पर अन्त ( अकार) का लोप। | द्विपाद् + इक == द्विपादिक + टाप् == द्विपादिका।

[५|४|२] दण्ड-व्यवसर्गयोश्च - दण्ड तथा दान के प्रतिपादनीय होने पर संख्यापूर्वक पादशब्दान्त तथा शतशब्दान्त प्रातिपदिकों से वुन् प्रत्यय तथा अन्त लोप हो जाता है। | स्थूलप्रकारः = स्थूलकः, अणुकः, माषकः।

[५|४|३] स्थूलादिभ्यः प्रकारवचने कन् प्रकार के द्योतनार्थ स्थूल आदि शब्दों से कन् प्रत्यय होता है। | स्थूल + कन् == स्थूलकः, अणु + कन् == अणुकः, माष + कन् == माषकः, कृष्ण + कन् == कृष्णकः, तिलेषु + कन् == तिलेषुकः आदि।

[५|४|४] अनत्यन्तगतौ क्तात् - क्तप्रत्ययान्त शब्दों से आंशिक सम्बन्ध के प्रतिपादनार्थ कम् प्रत्यय होता है। | भिन्नः + कन् == भिन्नकः, चिन्नः + कन् == छिन्नकः।

[५|४|५] न सामिवचने - सामि ( अर्द्ध) तथा तदर्थक शब्दों के उपपद होने पर क्तप्रत्ययान्त शब्दों से उक्त कन् प्रत्यय नही होता है। | सामिकृतम् (आधा किया), सामिभुक्तम्। वचनग्रहणात् पर्यायेभ्योऽपि नेमकृतम् (आधा किया)।

[५|४|६] बृहत्या आच्छादने - आच्छादनार्थ में वर्तमान बृहती शब्द से स्वार्थ में कन् प्रत्यय होता है। | बृहती + कन् == बृहतिका (ओढ़नी)।

[५|४|७] अषडक्षाशितङ्ग्वलंङ्-कर्मालंपुरुषाध्युत्तरपदात्खः - अषडक्ष, आशितङ्गु, अलङ्कर्म, अलम्पुरुष तथा अध्युत्तरपदक शब्दों से स्वार्थ में खप्रत्यय होता है। | राजाधि + ख == राजाधीनः, ईश्वरादि + ख == ईशवराधीनः।

[५|४|८] विभाषाञ्चेरदिक्-स्त्रियाम् - अञ्चूधातुव्युप्तन्नशब्दान्त प्रातिपदिकों से स्वार्थ में विकल्प से ख प्रत्यय होता है यदि प्रकृति स्त्रीत्व विशिष्टदिक् से भिन्न अर्थ (स्त्रीत्वरहित दिक्) का प्रातिपादक करती हो। | प्राक् + ख == प्राचीनम्, प्रत्यक् + ख == प्रतीचीनम्, अवाक् + ख == अवाचीनम्, अर्वाक् + ख == अर्वाचीनम्।

[५|४|९] जात्यन्ताच्छ बन्धुनि - जातिवाचक शब्दान्त प्रातिपदिक से बन्धु (जातिव्यञ्चक द्रव्य) अर्थ में छ प्रत्यय होता है। | ब्राह्मणजाति + ख == ब्राह्मणजातीयः, क्षत्रियजाति + ख == क्षत्रियजातीयः, वैश्यजाति + ख == वैश्यजातीयः।

[५|४|१०] स्थानान्ताद्विभाषा सस्थानेनेति चेत् - स्थानशब्दान्त प्रातिपादिक से विकल्प से छ प्रत्यय होता है यदि तुल्यस्थानीय पदार्थ का प्रतिपादन प्रत्ययान्त से होता है। | पित्रा तुल्यः = पितृस्थानीयः, पितृस्थानः। मातृस्थानीयः, मातृस्थानः।

[५|४|११] किमेत्-तिङ्गव्यय-घादाम्वद्रव्य-प्रकर्षे - यदि किम्, एकारान्त, तिङ्-प्रत्ययान्त और अव्यय के पश्चात् `घऄ (तमप् और तरप्) प्रत्यय आया हो तो `घऄ-प्रत्ययान्त प्रातिपादिक से अद्रव्य (द्रव्य से भिन्न अर्थात् गुण और क्रिया) के प्रकर्ष में ` आमु` ( आम्) प्रत्यय होता है। | `पचति तमऄ में तिङ्-प्रत्ययान्त `पचतॎ के पश्चात् `घऄ- प्रत्यय `तमप् ` आया है, अतः `घऄ-प्रत्ययान्त प्रातिपादिक `पचतितमऄ से ` आम् ` प्रत्यय हो `पचति तम आम् ` रूप बनता है। तब सवर्ण-दीर्घ हो `पचतितमां रूप सिद्ध होता है।

[५|४|१२] अमु च च्छन्दसि - उक्त `घऄ प्रत्ययान्त शब्दों से छन्दोविषय में अमु प्रत्यय होता है। | किंतराम्, किंतमाम्, एकारान्तात् - पूर्वाह्णेतराम्, पूर्वाह्णेतमाम्। तिङन्तात् - पचतितराम्, पचतितमाम्। अव्ययेभ्यः - उच्चैस्तराम्, उच्चैस्तमाम्।

[५|४|१३] अनुगादिनष्ठक् - अनुगादिन् शब्द से स्वार्थ में ठक् प्रत्यय होता है | अनुगादि + ठक् == अनुगादिकः।

[५|४|१४] णचःस्त्रियामञ् - कर्मव्यतिहारार्थक णच् प्रत्ययान्त शब्द से स्वार्थ में अञ् प्रत्यय होता है। | वि + अव + क्रुश् + णच् + अञ् + ङीप् == व्यावक्रोशी, वि + अव + लिख् + णच् + अञ् + ङीप् == व्यावलेखी, वि + अव + हस् + णच् + अञ् + ङीप् == व्यावहासी।

[५|४|१५] अणिनुणः - इनुण् प्रत्ययान्त शब्द से स्वार्थ में अण् प्रत्यय होता है। | सांराविणम्, सांकूटिनम्।

[५|४|१६] विसारिणो मत्स्ये - मत्स्य अर्थ में वर्तमान विसारिन् शब्द से स्वार्थ में अण् प्रत्यय होता है। | वैसारिणो मत्स्यः (विचरनेवाली मछली)

[५|४|१७] संख्यायाःक्रियाभ्यावृत्ति-गणने कृत्वसुच् - क्रिया के अभ्यास ( आवृत्ति) की गणना के वर्तमान संख्यावाचक शब्दों से स्वार्थ में कृत्वसुच् प्रत्यय होता है। | सप्तकृत्वः, पञ्चकृत्वः ।

[५|४|१८] द्वित्रिचतुर्भ्यःसुच् - क्रिया के अभ्यास की गणना में वर्तमान द्वि, त्रि तथा चतुर शब्द से सुच् प्रत्यय स्वार्थ में होता है। | द्विर्भुङ्क्ते, त्रिर्भुङ्कते, चतुर्भुक्तम्।

[५|४|१९] एकस्य सकृच्च - क्रिया के अभ्यास की गणना में एक शब्द से सुच् प्रत्यय तथा एक के स्थान में सकृत् आदेश का निपातन। | सकृद्भुङ्क्ते, सकृदधीते।

[५|४|२०] विभाषा बहोर्धाऽविप्रकृष्टकाले - सन्निकृष्टकालिक क्रियाओं की आवृति की गणना में बहुशब्द में विकल्प से धा प्रत्यय होता है। | बहुधा दिवसस्य भुङ्क्ते, बहुकृत्वो दिवस्य भुङ्क्ते।

[५|४|२१] तत्प्रकृतवचनेमयट् - `प्रकृतऄ (प्रचुरता से प्रस्तुत) या `प्रकृतमुच्यतेऽस्मिन् ` - इन दोनों ही अर्थों में प्रथमान्त प्रातिपादिक से `मयट् ` (मय) प्रत्यय होता है। | ` अन्नं प्रकृतं (प्रचुरता से प्रस्तुत अन्न) - यहाँ प्राचुर्य अर्थ में वर्तमान प्रथमान्त प्रातिपादिक ` अन्नऄ से `मयट् ` प्रत्यय हो ` अन्नम् मयऄ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो ` अन्नमयऄ रूप सिद्ध होता है।

[५|४|२२] समूहवच्चबहुषु - बहुत प्रकृत पदार्थ का अभिधान कर्तव्य होने पर समूहार्थक प्रत्यय तथा मयट् प्रत्यय भी विकल्प से होते हैं। | मोदकाः प्राचुर्येण प्रस्तुताः = मौदकिकम्, मोदकमयम्। शाष्कुलिकम्, शुष्कुलीमयम्। द्वितीयेऽर्थे - मौदकिकम्, मोदकमयं भोजनम्। आपूपिकम्, अपूपमयं पर्व।

[५|४|२३] अनन्तावसथेतिहभेषजाञ्ञ्यः - अनन्त, आवसथ, इति ह तथा भेषज शब्दों से स्वार्थ में ञ्य प्रत्यय होता है। | अनन्त + ञ्य == आनन्त्यम्, आवसथ + ञ्य == आवसथ्यम्, इतिह + ञ्य == ऐतिह्यम्।

[५|४|२४] देवतान्तात्तादर्थ्ये यत् - चतुर्थीसमर्थ देवताशब्दान्त प्रातिपादिक से तादर्थ्य में यत् प्रत्यय होता है। | अग्निदेवता + यत् == अग्निदेवत्यम्, पितृदेवता + यत् == पितृदेवत्यम्।

[५|४|२५] पादार्घाभ्यां च - चतुर्थीसमर्थ पाद तथा अर्ध शब्दों से तादर्थ्य में यत् प्रत्यय होता है। | (केवल पाद और अर्घ शब्दों में) पाद + यत् == पाद्यम्, अर्घ + यत् == अर्घ्यम्।

[५|४|२६] अतिथेर्ञ्यः - चतुर्थीसमर्थ अतिथि शब्द से तादर्थ्य में ञ्य प्रत्यय होता है। | अतिथि + ञ्य == आतिथ्यम्।

[५|४|२७] देवात्तल् - देवशब्द से स्वार्थ में तल् प्रत्यय होता है। | देव + तल् == देवता।

[५|४|२८] अवेःकः - अवि शब्द से स्वार्थ में क प्रत्यय होता है। | अवि + क == अविकः।

[५|४|२९] यावादिभ्यः कन् याव आदि शब्दों से स्वार्थ में कन् प्रत्यय होता है। | याव + कन् == यावकः, मणि + कन् == मणिकः, ज्ञात + कन् == ज्ञातकः, अज्ञात + कन् == अज्ञातकः।

[५|४|३०] लोहितान्मणौ - मणि प्रतिपादक लोहित शब्द से स्वार्थ में कन् प्रत्यय होता है। | लोहित + कन् == लोहितकः।

[५|४|३१] वर्णेचानित्ये - अनित्य वर्ण (रंग) अर्थों में वर्तमान लोहित शब्द से भी स्वार्थ में कन् प्रत्यय होता है। | लोहितकः कोपेन, लोहितकः पीडनेन।

[५|४|३२] रक्ते - लक्षादिरक्त अर्थ में वर्तमान लोहित शब्द से कन् प्रत्यय होता है। | रक्त == लाक्षा इस अर्थ में वर्तमान लोहित शब्द से कन् प्रत्यय - लोहित + कन् == लोहितकः।

[५|४|३३] कालाच्च - अनित्य वर्ण तथा रक्त (रंगा हुआ) अर्थों में वर्तमान काल शब्द से भी कन् प्रत्यय होता है | काल + कन् == कालकः

[५|४|३४] विनयादिभ्यष्ठक् विनय आदि शब्दों से स्वार्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | विनय + ठक् == वैनयिकः, समय + ठक् == सामयिकः, संप्रति + ठक् == संप्रतिकः, संगति + ठक् == संगतिकः, समाचार + ठक् == समाचारकः, उपचार + ठक् == उपचारकः ।

[५|४|३५] वाचो व्याहृतार्थायाम् - प्रकाशितार्थक वचन (सन्देशवाक्) के अर्थ में प्रयुज्यमान वाच् शब्द से स्वार्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | वाच + ठक् == वाचिकं

[५|४|३६] तद्युक्तात्कर्मणोऽण् - व्याहृतार्थक वचन सम्बन्ध कर्म के अभिधायक कर्मन शब्द से स्वार्थ में अण् प्रत्यय होता है। | कर्मन् + अण् == कार्मणम्।

[५|४|३७] ओषधेरजातौ - जातिभिन्न अर्थ में वर्तमान ओषधि शब्द से स्वार्थ में अण् प्रत्यय होता है। | ओषधि + अण् == औषधं।

[५|४|३८] प्रज्ञादिभ्यश्च - प्रज्ञादिगण में पठित `प्रज्ञऄ आसि से ` अण् ` ( अ) प्रत्यय होता है। | `प्रज्ञ एवऄ अर्थ में प्रथमान्त `प्रज्ञऄ से अण् प्रत्यय हो `प्रज्ञः ऄ रूप बनता है।तब सुप्-लोप हो `प्रज्ञ अ रूप बनने पर अजादि-वृद्धि और अन्त्य-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन-पुँल्लिङ्ग में `प्राज्ञः` रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार वणिजः, उशिजः, उष्णिजः, प्रत्यक्षः, विद्वसः।

[५|४|३९] मृदस्तिकन् - मृत् शब्द से स्वार्थ में तिकन् प्रत्यय होता है। | मृद् + तिकन् == मृत्तिका।

[५|४|४०] सस्नौप्रशंसायाम् - मृत् शब्द से प्रशंसा अर्थ में स तथा स्न प्रत्यय होते हैं। | मृद् + स == मृत्सा, मृद् + स्न == मृत्स्ना।

[५|४|४१] वृकज्येष्ठाभ्यांतिल्तातिलौचच्छन्दसि - वृक तथा ज्येष्ठ शब्दों से प्रशंसार्थ में क्रमशः तिल तथा तातिल् प्रत्यय छन्दोविषय में होते हैं। | वृक + तिल् == वृकतिः, वृक + तातिल् == वृकतातिः, इसी प्रकार ज्येष्ठतिः, ज्येष्ठतातिः।

[५|४|४२] बह्वल्पार्थाच्छस्कारकादन्यतरस्याम् बह्णर्थक (बहु अर्थ वाले) और अल्पार्थक ( अल्प अर्थ वाले) कारकाभिधायक शब्दो से विकल्प से स्वार्थ में `शस् ` प्रत्यय होता है। | `बहूनि ददातॎ (बहुत देता है) और ` अल्पं ददातॎ ( अल्प देता है) - यहाँ बह्णर्थक कर्मकारक `बहु` और अल्पार्थक कर्मकारक ` अल्पऄ से स्वार्थ में `शस् ` प्रत्यय हो क्रमशः `बहुशस् ` और ` अल्पशस् ` रूप बनते हैं। तब रुत्व-विसर्ग हो `बहुशः` और ` अल्पशऄ रूप सिद्ध होते हैं।

[५|४|४३] संख्यैकवचनाच्च वीप्सायाम् - संख्यावाचक प्रातिपदिक तथा एकार्थवाचक शब्दों से वीप्सा के द्योतनार्थ विकल्प से शश् प्रत्यय होता है। | सङ्ख्यावाचिभ्यः - द्वौ द्वौ मोदकौ ददाति = दिशो ददाति, त्रिशो ददाति। एकवचनात् - कार्षापणं कर्षापणम् ददाति = कर्षापणशो ददाति, माषशो ददाति, पादशो ददाति।

[५|४|४४] प्रतियोगे पञ्चम्यास्तसिः - प्रति इस कर्म प्रवचनीय के योग में विहित पञ्चमी से तसि प्रत्यय होता है। | आदि + तसि == आदितः, मध्य + तसि == मध्यतः, पार्श्व + तसि == पार्श्ततः, पृष्ठ + तसि == पृष्ठतः।

[५|४|४५] अपादानेचाहीयरूहोः - अपादानार्थक पञ्चमी से भी तसि प्रत्यय होता है यदि वह अपादान `हीयऄ तथा `रुहऄ से सम्बन्ध न हो। | ग्रामत आगच्छति, ग्रामाद् आगच्छति। चोरतो बिभेति, चोराद् बिभेति। अध्ययनतः पराजयते, अध्ययनात् पराजयते।

[५|४|४६] अतिग्रहाव्यथनक्षेपेष्वकर्तरितृतीयायाः - अतिगृह, अध्यन तथा निन्दा के अर्थ में विहित तृतीया से विकल्प से तसि प्रत्यय होता है यदि वह तृतीया कर्त्ता में विहित न हुई हो। | अतिग्रहे - वृत्तेनातिगृह्मते = वृत्ततो अतिगृह्णते, चरित्रेणातिगृह्मते = चरित्रोऽतिगृह्मते। अव्यथने - वृत्तेन न व्यथते = वृत्ततो न व्यथते, चरित्रेण न व्यथते = चरित्रतो न व्यथते। क्षेपे - वृत्तेन क्षिप्तः = वृत्ततः क्षिप्तः, चारित्रेण क्षिप्तः = चारित्रतः क्षिप्तः।

[५|४|४७] हीयमान-पाप-योगाच्च - हीयमान तथा पाप से सम्बद्ध पदार्थों के वाचक शब्दों से विहित कर्त्तृ तृतीयाभिन्न तृतीया से भी विकल्प से तसि प्रत्यय होता है। | हीयमानेन योगात् - वृत्तेन हीयते = वृत्ततो हीयते, चारित्रेण हीयते = चारित्रतो हीयते। पापयोगात् - वृत्तेन पापः = वृत्ततः पापः, चारित्रेण पापः = चारित्रतः पापः।

[५|४|४८] षष्ठ्याव्याश्रये - व्याश्रय के गम्यमान होने पर षष्ठयन्त से तसि प्रत्यय विकल्प से होता है। | देवा अर्जुनतोऽभवन् (देव अर्जुन के पक्ष में हुए)। आदित्याः कर्णतोऽभवन् (आदित्य कर्ण के पक्ष में हुए)।

[५|४|४९] रोगाच्चापनयने - व्याधिवाचक षष्ठयन्त शब्द से अपनयन अर्थ में तसि प्रत्यय होता है। | प्रवाहिकातः (दस्त की चिकित्सा कर) कुरु, कासतः कुरु, छर्दिकातः कुरु।

[५|४|५०] कृभ्वस्तियोगे संपद्यकर्तरिच्विः - जब कोई वस्तु से कुछ से कुछ हो जाये अर्थात् जो पहले नहीं थी वो हो जाय, तो सम्पाद्यकर्ता अर्थ में वर्तमान प्रातिपादिक से कृ, भू और अस् - इन धातुओं के योग में `च्वॎ प्रत्यय होता है। | ` अशुक्लः शुक्लः सम्पद्यते तं करोतॎ (अशुक्ल को बनाता है- ऐसा वह करता है अर्थात् अशुक्ल को शुक्ल करता है)- इस अर्थ में कृ धातु के योग में सम्पद्यमान `शुक्लः` से `च्वॎ प्रत्यय हो `शुक्ल च्वॎ रूप बनता है। तब सुप्-लोप और च्वि का सर्वापहार-लोप हो `शुक्लऄ रूप बनता है।

[५|४|५१] अरुर्मनश्चक्षुश्चेतो-रहो-रजसां-लोपश्च - पूर्वसूत्रोक्त परिस्थिति में अरुस्, मनस्, चक्षुस, चेतस्, रहस् तथा रजस् शब्दों से च्वि प्रत्यय तथा प्रकृति के अन्त्य सकार का लोप। | अरुस् + च्वि == अरु + च्वि == अरू, गार्गस् + च्वि == गार्ग + च्वि == गार्ग

[५|४|५२] विभाषा साति कार्त्स्न्ये - सम्पूर्णता गम्यमान होने पर अभूतद्भाव विषय में सम्पाद्यकर्ता से कृ, भू और अस् धातुओं के योग में विकल्प से `सातॎ (सात्) प्रत्यय होता है। | `कृत्स्नं शस्त्रम् आग्निः भवतॎ (सम्पूर्ण शस्त्र अग्नि हो रहा है) - इस अर्थ में `भू ` धातु के योग में प्रातिपद्यमान ` अग्निः` से `सात् ` प्रत्यय हो ` अग्निः सात् ` रूप बनता है। यहाँ सुप्-लोप हो ` अग्नि सात् ` रूप बनने पर ` आदेशप्रत्यययोः` (८_३_५९) से प्रत्यय `सात् ` के सकार को षत्व प्राप्त होता है।

[५|४|५३] अभिविधौ संपदा च - अभिविधि के गम्यमान होने पर च्वि प्रत्यय की परिस्थिति में साति प्रत्यय होता है, सम् पूर्वक पर्, कृ, भू तथा अस् धातुओं के योग में। | साति प्रत्यय के योग में - शस्त्रम् अग्निसात्भवति, अग्निसात्सम्पद्यते /लवणम् जलासात्भवति, जलासात्सम्पद्यते आदि। च्वि प्रत्यय के योग में - शस्त्रम् अग्नीभवति /अवणम् जलीभवति।

[५|४|५४] तदधीनवचने - स्वामिविशेषवाचक प्रातिपादिक से ईशित्व के अभिधेय होने पर सम् पूर्वकपद, कृ, भू तथा अस् धातुओं के योग में साति प्रत्यय होता है। | राधीनं करोति = राजासात्करोति, राजसात्भवति, राजसात्स्यात् राजसात्सम्पद्यते आदि। राजा के अधीन करता है और राजा उसका स्वामी होता है। ब्राह्मणाधीनं करोति == ब्राह्मणसात्करोति, ब्राह्मणसात्भवति, ब्राह्मणसात्स्यात्, ब्राह्मणसात्सम्पद्यते आदि । ब्राह्मण के अधीन करता है और ब्राह्मण उसका स्वामी होता है।

[५|४|५५] देयेत्रा च - देय पदार्थ के अधीनीकरण अर्थ में स्वामिवाचक शब्द से त्रा प्रत्यय भी होता है और साति प्रत्यय भी सम् पूर्वक पद्, कृ, भू तथा अस् धातुओं के योग में। | ब्राह्मणाधीनं देयं करोति == ब्राह्मणसात्करोति, ब्राह्मणसात्भवति, ब्राह्मणसात्स्यात्, ब्राह्मणसात्सम्पद्यते आदि। ब्राह्मणाधीनं देयं करोति == ब्राह्मणत्रा करोति, ब्राह्मणत्रा भवति, ब्राह्मणत्रा स्यात्, ब्राह्मणत्रा सम्पद्यते आदि। ब्राह्मण के अधीन करता है और ब्राह्मण उसका स्वामी होता है।

[५|४|५६] देव-मनुष्य-पुरुष-पुरु-मर्त्येभ्यो द्वितीया-सप्तम्योर्बहुलम् - द्वितीयान्त तथा सप्तम्यन्त देव, मनुष्य, पुरुष, पुरु तथा मर्त्य शब्दों से बहुल करके त्रा प्रत्यय होता है। | देव + त्रा == देवत्रा, मनुष्य + त्रा == मनुष्यत्रा, पुरुष + त्रा == पुरुषत्रा, पुरु + त्रा == पुरुत्रा, मर्त्य + त्रा == मर्त्यत्रा।

[५|४|५७] अव्यक्तानुकरणाद्द्वयजवरार्धादनितौ डाच् - यदि ` इतॎ परे न हो तो अनेकाच् अर्ध भाग वाले अव्यक्तानुकरणवाची शब्द से कृ, भू और अस् - इन धातुओं के योग में डाच् ( आ) प्रत्यय होता है। | `पटत् करोतॎ (पटत्-ऐसी ध्वनी करता है) - यहाँ `कृ धातु के योग में अव्यक्तानुकरणवाची `पटत् ` से `डाच् ` प्रत्यय की विविक्षा में पहले द्वित्व और पुनः `डाच् ` प्रत्यय हो `पटत् पटत् आ करोतॎ रूप बनता है।

[५|४|५८] कृञो द्वितीय-तृतीय-शम्ब-बीजात्कृषौ - द्वितीय, तृतीय, शन्ब तथा बीज शब्दों से कृषि अर्थ में डाच् प्रत्यय `कृञ् ` धातु के योग होने पर होता है। | द्वितीय + डाच् == द्वितिया, तृतीय + डाच् == तृतीया, शम्ब + डाच् == शम्बा, बीज + डाच् == बीजा।

[५|४|५९] संख्यायाश्च गुणान्तायाः - संख्यावाचक शब्दसमीपस्थ गुण शब्द से कृषि अर्थ में डाच् प्रत्यय `कृञ् ` धातु के योग होने पर होता है। | द्विगुण + डाच् == द्विगुणा, त्रिगुण + डाच् == त्रिगुणा।

[५|४|६०] समयाच्च यापनायाम् - यापना के गम्यमान होने पर समय शब्द से डाच् प्रत्यय `कृञ् ` धातु के योग होने पर होता है। | समय + डाच् == समया।

[५|४|६१] सपत्र-निष्पत्रादतिव्यथने - `कृञ् ` धातु के योग में सपत्र तथा निष्पन्न शब्दों से डाच् प्रत्यय होता है। | सपत्र + डाच् == सपत्रा, निष्पत्र + डाच् == निष्पत्रा।

[५|४|६२] निष्कुलान्निष्कोषणे - `कृञ् ` धातु के योग में निष्कोषणार्थक निष्कुल शब्द से डाच् प्रत्यय होता है। | निष्कुल + डाच् == निष्कुला, पशून् + डाच् == पशूना।

[५|४|६३] सुखप्रियादानुलोम्ये - अनुकूलता में वर्तमान सुख तथा प्रिय शब्दों से कृञ् धातु के योग में प्रत्यय होता है। | सुख + डाच् == सुखा, प्रिय + डाच् == प्रिया।

[५|४|६४] दुःखात्प्रातिलोम्ये - प्रतिकूलता अर्थ में वर्तमान दुःख शब्द से डाच् प्रत्यय `कृञ् ` धातु के योग होने पर होता है। | दुःख + डाच् == दुःखा।

[५|४|६५] शूलात्पाके - पाकविषय में वर्तमान शूल शब्द से `कृञ् ` धातु के योग में प्रत्यय होता है। | शूल + डाच् == शूला।

[५|४|६६] सत्यादशपथे `कृञ् ` धातु के योग रहने पर अशपथार्थक सत्य शब्द से डाच् प्रत्यय होता है। | सत्य + डाच् == सत्या।

[५|४|६७] मद्रात्परिवापणे - मङ्गलार्थक भद्र शब्द से मुण्डन अर्थ में डाच् प्रत्यय `कृञ् ` धातु के योग होने पर होता है। | मद्र + डाच् == मद्रा

[५|४|६८] समासान्ताः - यहाँ से उत्तर पञ्चमाध्याय समाप्ति पर्यन्त जितने प्रत्यय विहित होने वाले हैं उन्हे समास का अन्तिम अव्यव समझना चाहिए। | अव्ययीभावे प्रयोजनम् - उपराजम्, अधिराजम्। द्विगुसमासे - द्विपुरी, त्रिपुरी। द्वन्द्वसमासे - कोशनिषदिनी, स्त्रक्त्वचिनी। तत्पुरुषसमासे - विधुरः, प्रधुरः, बहुव्रीहिसमासे - उच्चैर्धुरः, नीचैर्धुरः।

[५|४|६९] नपूजनात् - पूजार्थक शब्दों से परे समासान्त प्रत्यय नहीं होते। | शोभनो राजा ( अच्छा राजा) - इस विग्रह में प्रादि समास हो सु राजन रूप बनता है। यहाँ राजाहःसखिभ्यष्टच् (५_४_९१) से समासान्त टच् प्रत्यय होता है, किन्तु राजन शब्द के प्रशंसावाचक सु से पर होने के कारण प्रकृत सूत्र से निषेध हो जाता है। तब विभक्ति कार्य होकर सुराजा रूप सिद्ध होता है।

[५|४|७०] किमःक्षेपे - क्षेपार्थक किम् शब्द से उत्तरवर्ती शब्द से समासान्त प्रत्यय नहीं होता। | किराजा यो न रक्षति। किसखा योऽभिद्रुह्मति। किगौर्यो न वहति।

[५|४|७१] नञस्तत्पुरुषात् - नञ् पूर्वक तत्पुरुष से समासान्त प्रत्यय नहीं होता। | अराजा, असाखा, अगौः।

[५|४|७२] पथोविभाषा - नञ् पूर्वक जो पथिन शब्द तदन्त तत्पुरुष से समासान्त प्रत्यय को छोड़कर अन्य से समासान्त डच् प्रत्यय होता है। | पन्थाः, अपन्थाः, अपथम्।

[५|४|७३] बहुव्रीहौसंख्येयेडजबहुगणात् - संख्येविहित बहुव्रीहि में बहुशब्दान्त एवम् गणशब्दान्त बहुव्रीहि को छोड़कर अन्य से समासान्त डच् प्रत्यय होता है। | उप + दशन् + डच् == उपदशाः, इसी प्रकार उपत्रिंशाः, आसन्नदशाः, अदूरदशाः, अधिकदशाः आदि।

[५|४|७४] ऋक्पूरब्धूःपथामानक्षे - जिस समास के अन्त में ऋक्, पूर, अप्, पथिन् (पथ) और अक्ष-भिन्न अर्थ में घूर् शब्द हो, उसका अन्तावयव अ प्रत्यय होता है। | अर्धम् ऋचः (ऋचा का आधा) - इस विग्रह में समास हो अर्ध ऋच् रूप बनता है। यहाँ अन्त में ऋक् (ऋच्) होने के कारण प्रकृत सूत्र से अ प्रत्यय हो अर्ध + ऋच + अ ==> अर्ध ऋच रूप बनेगा। तब गुण आदि होकर पुँल्लिङ्ग-एकवचन में अर्धर्चः रूप सिद्ध होता है।

[५|४|७५] अच्प्रत्यन्ववपूर्वात्सामलोम्नः - प्रतिपूर्वक, अनुपूर्वक तथा अवपूर्वक सामशब्दान्त, लोमशब्दान्त समासों से समासान्त अच् प्रत्यय होता है। | प्रतिसामम्, अनुसामम्, अवसामम्। प्रतिलोमम्, अनुलोमम्, अवलोमम्।

[५|४|७६] अक्ष्णोऽदर्शनात् - यदि अक्षि शब्द चक्षु (नेत्र) वाचक न हो तो उससे समासान्त अच् ( अ) प्रत्यय होता है। | गवाम् अक्षि (गौओं की आँख जैसा) - इस विग्रह में षष्ठी तत्पुरुष समास हो गो अक्षि रूप बनता है। यहाँ अक्षि शब्द नेत्र का वाचक नहीं है क्योंकि उसका प्रयोग उपमान के रूप में हुआ है। अतः दर्शन का कारण न होने से प्रकृत सूत्र द्वारा अक्षि से अच् प्रत्यय हो गो अक्षि अ रूप बनेगा। तब ईकार-लोप और अवङादेश आदि होकर गवाक्षः (झरोखा) रूप सिद्ध होता है।

[५|४|७७] अचतुर-विचतुर-सुचतुर-स्त्रीपुंसधेन्वनडुहर्क्साम-वाङ् मनसाक्षि-भ्रुव-दारगवोर्वष्ठीव-पदष्ठीव-नक्तंदिव-रात्रिंदिवाहर्दिव-सरजसनिःश्रेयस-पुरुषायुष-द्वयायुष-त्र्यायुष-र्ग्यजुष-जातोक्ष-महोक्ष-वृद्धोक्षोपशुन-गोष्ठश्वाः - अच् प्रत्ययान्त अचतुर, विचतुर आदि शब्दों का निपातन। | अचतुर् + अ == अचतुरः, सुचतुर् + अ == सुचतुरः।

[५|४|७८] ब्रह्महस्तिभ्यांवर्चसः - ब्रह्मवर्चस् तथा हस्तिवर्चस् शब्दों से समासान्त अच् प्रत्यय होता है। | ब्रह्म + वर्चस् + अच् == ब्रह्मवर्चसम्, हस्ति + वर्चस् + अच् == हस्तिवर्चसम्।

[५|४|७९] अवसमन्धेभ्यस्तमसः अवतमस्, सन्तमस् तथा अन्धतमस् शब्दों से भी समासान्त अच् प्रत्यय होता है। | अवहीनं तमः = अवतमसम्। सङ्गतं तमः = सन्तमसम्। अन्धं तमः = अन्धतमसम्।

[५|४|८०] श्वसोवसीयःश्रेयसः - श्वोवसीयस् तथा श्वःश्रेयस् शब्दों से समासान्त अच् प्रत्यय होता है। | श्वोवसीयसम्, श्वः श्रेयसम्।

[५|४|८१] अन्ववतप्ताद्रहसः - अनुरहस्, वरहस् तथा तप्तरहस् शब्दों से समासान्त अच् प्रत्यय होता है। | अनुगतं रहः = अनुरहसम्। अवगतं रहः = अवरहसम्। तप्तञ्च तद् रहश्च = तप्तरहसम्।

[५|४|८२] प्रतेरुरसःसप्तमीस्थात् प्रतिशब्दपूर्वक सप्तम्यर्थवृत्ती उरस् शब्दान्त समास से अच् प्रत्यय होता है। | उरसि वर्त्तते = प्रत्युरसम् (हृदय में वर्त्तमान)।

[५|४|८३] अनुगवमायामे - आयाम् (दैर्ध्य) अर्थ में अच् प्रत्ययान्त अनुगव शब्द निपातित होता है। | अनुगवं यानम्

[५|४|८४] द्विस्तावात्रिस्तावावेदिः - वेदी अर्थ में अजन्त द्विस्तावा तथा त्रिस्तावा शब्दों का निपातन। | द्विस्तावा वेदिः, त्रिस्तावा वेदिः।

[५|४|८५] उपसर्गादध्वनः - उपसर्ग के पश्चात् अध्वन् (मार्ग) शब्द से समासान्त अच् ( अ) प्रत्यय होता है। | प्रगतोऽध्वानम् (मार्ग पर चला हुआ) - इस विग्रह में प्रादि समास हो प्र अध्वन् रूप बनता है। यहाँ उपसर्ग प्र के पश्चात् अध्वन् शब्द है, अतः प्रकृत सूत्र से अच् ( अ) प्रत्यय हो प्र अध्वन् अ रूप बनेगा। तब टि-लोप आदि होकर प्राध्वः रूप सिद्ध होता है।

[५|४|८६] तत्पुरुषस्याङ्गुलेःसंख्याव्ययादेः - जिस तत्पुरुष के आदि में संख्यावाचक या अव्ययवाचक शब्द और अन्त में अङ्गुलि शब्द हो, उससे परे समासान्त अच् प्रत्यय होता है। | द्वे अङ्गुलि के साथ समास हो द्वि अङ्गुलि रूप रूप बनता है। यह तत्पुरुष समास है। इसके आदि में संख्यावाचक द्वि है और अन्त में अङ्गुलि शब्द। अतः प्रकृत सूत्र से इससे परे अच् प्रत्यय हो द्वि अङ्गुलि अ रूप बनेगा।

[५|४|८७] अहः-सर्वैकदेश-संख्यात-पुण्याच्चरात्रेः - द्वन्द्व समास में अहः ( अहन्-दिन्) के पश्चात् और तत्पुरुष समास में सर्व, एकदेश, संख्यात (गिना हुआ) तथा पुरुष के पश्चात् रात्रि शब्द से समासान्त अच् ( अ) प्रत्यय होता है। | अहश्च रात्रिश्च (दिन और रात्रि) - इस विग्रह में अहः और रात्रिः का द्वन्द्व समास हो अहन् रात्रि रूप बनता है।यहाँ द्वन्द्व के बाद रात्रि शब्द आया है , अतः प्रकृत सूत्र से समासान्त अच् ( अ) प्रत्यय हो अहन् रात्रि अ रूप बनेगा। तब इकार-लोप और नकार को उत्व होकर अहोरात्र रूप बनने पर स् नपुंसकम् से नपुन्सकलिंग प्राप्त होता है।

[५|४|८८] अह्नोऽह्न एतेभ्यः - सर्वशब्दपूर्वपदक, एकदेशावाचकशब्दपूर्वपदक, संख्यातपूर्वपदक, संख्यावाचकपूर्वपदक तथा अव्ययपूर्वपदक अहन् शब्दान्त समास के अवयव अहन् शब्द से स्थान में टच् प्रत्यय के परे आह्न आदेश। | द्वयोरह्नोर्भवः = द्वयह्नः, त्र्यह्न। अव्ययात् - अहरतिक्रान्तः = अत्यह्नः, निरह्नः, सर्वाह्णः, पूर्वाह्णः, अपराह्णः, सङ्ख्याताह्नः।

[५|४|८९] न संख्यादेःसमाहारे - समाहार विहित संख्यापदपूर्वक ततपुरुष के अव्यव अहन् शब्द से स्थान में टच् के परे रहने पर अह्न आदेश नहीं होता। | द्वि + अहन् + टच् == द्वयहः, इसी प्रकार त्र्यहः।

[५|४|९०] उत्तमैकाभ्यां च - उत्तम तथा एक शब्द से उत्तरवर्ती अहन् शब्द से स्थान में टच् प्रत्यय के परे होने पर भी अह्न आदेश नहीं होता। | पुण्यम् + अहन् + टाच् == पुण्याहः, इसी प्रकार एकाहः।

[५|४|९१] राजाहःसखिभ्यष्टच् - यदि तत्पुरुष के अन्त में राजन्, अहन् और सखि शब्द हो तो उससे समासान्त टच् ( अ) प्रत्यय होता है। | परमश्च असौ राज च (श्रेष्ठ राजा)- इस विग्रह में परमः का राजा के साथ तत्पुरुष समास हो परम राजन् रूप बनता है। यहाँ राजन अन्त में होने के कारण प्रकृत सूत्र से अच् प्रत्यय हो परम राजन अ रूप बनेगा। तब टि- अन् का लोप हो विभक्ति कार्य होकर परमराजः रूप बनता है।

[५|४|९२] गोरतद्धितलुकि - यदि तद्धित प्रत्यय का लोप न हुआ हो तो गो-शब्दान्त ततपुरुष से समासान्त टच् ( अ) प्रत्यय होता है। | ततपुरुष समास पञ्चगो में गो शब्द अन्त में हैं, अतः प्रकृत सूत्र से उससे टच् प्रत्यय हो पञ्चगो अ रूप बनता है। यहाँ ओकार के स्थान में अवङ् ( अव्) होकर पञ्चग् + अव् + अ = पञ्चगव रूप बनेगा। तब वनम् के साथ बहुव्रीहि समास करने पर पञ्चगवधनः रूप बनता है।

[५|४|९३] अग्राख्यायामुरसः - प्रधनार्थक उरः शब्दान्त तत्पुरुष से टच् प्रत्यय होता है। | अश्वोरस् + टच् == अश्वोरसम्, हस्त्युरस् + टच् == हस्त्युरसम्।

[५|४|९४] अनोश्मायःसरसांजातिसंज्ञयोः - अनस्-शब्दान्त, अश्मन्-शब्दान्त, अयस्-शब्दान्त एवम् सरसशब्दान्त तत्पुरुषों से जातिविषय तथा संज्ञाविषय में टच् प्रत्यय होता है। | जातौ - उपगतम् अनः = उपानसम्। अमृतः अश्मा = अमृताश्मः। कालायसम्। मण्डूकानां सरः = मण्डूकसरसम्॥ संज्ञायाम् - महत् अनः महानसम्। पिण्डम् अश्म = पिण्डाश्मः। लिहितायसम्। जलस्य सरः = जलसरसम्।

[५|४|९५] ग्राम-कौटाभ्यां च तक्ष्णः - ग्रामतक्षन् तथा कौटतक्षन् शब्दों से जातिविषय तथा संज्ञाविषय में टच् प्रत्यय होता है। | ग्रामस्य तक्षा = ग्रामतक्षः। कुट्यां कूटे (पर्वते वा) भवः कौटः, कौटश्चासौ तक्षा च = कौटतक्षः।

[५|४|९६] अतेःशुनः - अतिशवन् शब्द से टच् प्रत्यय होता है। | अति + श्वन् + टच् == अतिश्वः

[५|४|९७] उपमानादप्राणिषु - अप्राण्यर्थक उपमानस्थानीय श्वन् शब्दान्त तत्पुरुष के समासान्त टच् प्रत्यय होता है। | आकर्षश्वन् + टच् == आकर्षश्वः, फलकश्वन् + टच् == फलकश्वः।

[५|४|९८] उत्तरमृगपूर्वाच्चसक्थ्नः - उत्तरशब्दपूर्वक, मृगशब्दपूर्वक, पूर्वशब्दपूर्वक तथा उपमानवाचक शब्दपूर्वपदक सक्थिन् शब्दान्त तत्पुरुष के अव्यव सक्थिन् शब्द से समासान्त टच् प्रत्यय होता है। | उत्तरं सक्थ्नः = उत्तरसक्थम्। मृगस्य सक्थि = मृगसक्थम्। पूर्वं सक्थ्नः = पूर्वसक्थम्। उपमानात् - फलकमिव सक्थि = फलकसक्थम्।

[५|४|९९] नावोद्विगोः - नौशब्दान्त द्विगुसमास से टच् प्रत्यय होता है। | द्वे नावौ समाहृते = द्विनावम्, त्रिनावम्, द्विनावधनः, पञ्च नावः प्रिया यस्य पञ्चनावप्रियः।

[५|४|१००] अर्धाच्च - अर्धशब्दपूर्वक नौशबदान्त तत्पुरुष से भी समासान्त टच् प्रत्यय होता है। | अर्द्धनावम्।

[५|४|१०१] खार्याःप्राचाम् - खारीशब्दान्त द्विगु समास तथा अर्द्धपूर्वपदक खारीशब्दान्त तत्पुरुष समास से टच् प्रत्यय प्राचीन आचार्यों के मत में होता है। | द्विखारी + टच् == द्विखारम्, त्रिखारी + टच् == त्रिखारम्, अर्धखारी + टच् == अर्धखारम्।

[५|४|१०२] द्वित्रिभ्यामञ्जलेः - द्विशब्दपूर्वक तथा त्रिशब्दपूर्वक अञ्जलिशब्दान्त द्विगुसमास से समासान्त टच् प्रत्यय होता है। | द्वि + अञ्जलि + टच् == द्वयञ्जलम्, त्रि + अञ्जलि + टच् == त्रयञ्जलम्।

[५|४|१०३] अनसन्तान्नपुंसकाच्छन्दसि - अन् शब्दान्त तथा अस् शब्दान्त नपुंसकलिंगस्थ तत्पुरुष से छान्दोविषयमें विकल्प से समासान्त टच् प्रत्यय होता है। | हस्तिचर्मन् + टच् == हस्तिचर्मे, ऋषभचर्मन् + टच् == ऋषभचर्मे।

[५|४|१०४] ब्रह्मणोजानपदाख्यायाम् - ब्रह्मन् शब्दान्त तत्पुरुष से टच् प्रत्यय समास से जानपदत्व की प्रतीति होने पर होता है। | सुराष्ट्रब्रह्मन् + टच् == सुराष्ट्रब्रह्मः, अवन्तिब्रह्मन् + टच् == अवन्तिब्रह्मः।

[५|४|१०५] कुमहद्भयामन्यतरस्याम् - कुब्रह्मन् तथा महाब्रह्मन् शब्दों से भी समासान्त टच् प्रत्यय होता है। | कुब्रह्मन् + टच् == कुब्रह्मः, महाब्रह्मन् + टच् == महाब्रह्मः।

[५|४|१०६] द्वन्द्वाच्चुदषहान्तात्समाहारे - समाहार अर्थ में चवर्गान्त (जिसके अन्त में च्, छ्, ज्, झ्, या ञ् हो), दकारान्त, षकारान्त और हकारान्त द्वन्द्व से समासान्त टच् ( अ) प्रत्यय होता है। | वाक् च त्वक् च (वाणी और त्वचा) - इस विग्रह में समाहार अर्थ में द्वन्द्व समास हो वाच् त्वच् रूप बनता है। यहाँ अन्त में चकार होने के कारण प्रकृत सूत्र से टच् प्रत्यय हो वाच् + त्वच् + अ ==> वाच्त्वच रूप बनेगा। तब पूर्वपद वाच् के चकार को ककार आदि होकर नपुंसकलिंग एकवचन में वाक्त्वचम् रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार स्त्रुक्त्वचम्, श्रीस्त्रजम्, इडूजर्म्, वागूर्जम्, संपद्विपदम्, वाग्विप्रुषम्।

[५|४|१०७] अव्ययीभावेशरत्प्रभृतिभ्यः अवययीभाव में शरद् आदि से समासान्त टच् प्रत्यय होता है। | शरदः समीपम् (शरद् के समीप)- इस विग्रह में समीप अर्थ में वर्तमान उप अव्यय का अव्ययं विभक्ति०(२_१_६) से सुबन्त शरदः के साथ समास होकर उपशरद् रूप बनता है। इस स्थिति में प्रकृत सूत्र से तद्धित-प्रत्यय टच् होकर उप्शरद् अ = अपशरद रूप बनने पर प्रातिपादिक संज्ञा हो प्रथमा के एकवचन में उपशरदम् रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार प्रतिशरदम्, प्रतिपथम्, अनुपथम्, संपथम्।

[५|४|१०८] अनश्च - अन्नन्त अव्ययीभाव (जिसके अन्त में अन् हो) से समासान्त टच् ( अ) प्रत्यय होता है। | राज्ञः समीपम् (राजा के समीप)- इस विग्रह में समीप अर्थ में वर्तमान उप अव्यय का अव्ययं विभक्ति०(२_१_६) से सुबन्त राज्ञः के साथ समास होकर उपराजन् रूप बनता है। यहाँ अन्त में अन् होने के कारण प्रकृत सूत्र से टच् होकर उपराजन अ रूप बनेगा। इसी प्रकार अध्यात्मम्, प्रत्यात्मम्।

[५|४|१०९] नपुंसकादन्यतरस्याम् - जिस अव्ययीभाव कें अन्त में अन्नन्त नपुंसक (जिसके अन्त में अन् हो), उससे विकल्प से समासान्त टच् प्रत्यय होता है। | चर्मन् ङस् उप में अव्ययं विभक्ति०(२_१_६) में समास होकर उपचर्मन रूप बनता है। यहाँ अव्ययीभाव के अन्त में नपुंसकलिङ्ग चर्मन है और उसके अन्त में अन् भी है। अतः प्रकृत सूत्र से विकल्प से समासान्त टच् ( अ) प्रत्यय होकर उपचर्मन् अ रूप बनने पर टि-लोप आदि होकर उपचर्मम् रूप सिद्ध होता है। टच् के अभावपक्ष में उपचर्म रूप बनता है। इसी प्रकार प्रतिचर्मम्, प्रतिचर्म।

[५|४|११०] नदीपौर्णमास्याग्रहायणीभ्यः - नदीशब्दान्त, पौर्णमासीशब्दान्त तथा अग्रहायणीशब्दान्त अव्ययीभाव से विकल्प से टच् प्रत्यय होता है। | नद्याः समीपम् = उपनदम्, उपनदि। उपपौर्णमासम्, उपपौर्णमासि। उपाग्रहायणम्, उपग्रहायणि।

[५|४|१११] झयः - झयन्त अवययीभाव (जिसके अन्त में किसी वर्ग का प्रथम, द्वितीय, तृतीय या चतुर्थ वर्ण हो) से विकल्प से समासान्त टच् प्रत्यय होता है। | ससिध् ङस् उप में पूर्ववत् अव्ययं विभक्ति०(१_२_६) से समास होकर उपसमिध् रूप बनता है। इस स्थिति में अव्ययीभाव के अन्त में झय्-धकार होने के कारण प्रकृत सूत्र से विकल्प से टच् होकर उपसमिध् + अ ==> उपसमिधं रूप बनेगा।तब प्रथमा के एकवचन में उपसमिधम् रूप सिद्ध होता है।टच् प्रत्यय के अभाव में उपसमित् रूप बनता है।

[५|४|११२] गिरेश्चसेनकस्य - सेनक आचार्य के मत में गिरिशब्दान्त अव्ययीभाव से टच् प्रत्यय होता है। | अन्तर्गिरम्, अन्तर्गिरि ; उपगिरम्, उपगिरि।

[५|४|११३] बहुव्रीहौसक्थ्यक्ष्णोःस्वाङ्गात्षच् - यदि बहुव्रीहि समास के अन्त में स्वाङ्गवाची (प्राणी के अंगों के वाचक) सक्थि (जांघ) और अक्षि (आँख) शब्द हो तो उससे समासान्त षच् प्रत्यय होता है। | दीर्घे सक्थिनी यस्य (जिसकी जांघे बड़ी हो) - इस विग्रह में बहुव्रीहि समास हो दीर्घसक्थि रूप बनता है। यहाँ बहुव्रीहि समास के अन्त में सक्थि होने के कारण प्रकृत सूत्र से समासान्त षच् ( अ) प्रत्यय हो दीर्घसक्थि अ रूप बनेगा। तब अन्त्य इकार का लोप आदि होकर दीर्घसक्थः रूप सिद्ध होता है।

[५|४|११४] अङ्गुलेर्दारुणि - समास का अर्थ दारु (काष्ठ) होने पर अङ्गुलिशब्दान्त बहुव्रीहि से समासान्त षच् प्रत्यय होता है। | द्वे अङ्गुली अस्य = द्वयङ्गुलं दारु, त्र्यङ्गुलं दारु, पञ्चाङ्गुलं दारु।

[५|४|११५] द्वित्रिभ्यांषमूर्ध्नः - बहुव्रीहि समास में द्वि और त्रि शब्द के पश्चात् मूर्धन् (शिर्) से समासान्त ष प्रत्यय होता है। | द्वौ मूर्धानौ यस्य (जिसके दो सिर हो) - इस विग्रह में बहुव्रीहि समास हो द्विनूर्धन् रूप बनता है। यहाँ द्वि शब्द के पश्चात् मूर्धन् शब्द आया है, अतः प्रकृत सूत्र से समासान्त ष प्रत्यय हो द्विमूर्धन् अ रूप बनेगा। तब टि - लोप आदि होकर द्विमूर्धः रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार त्रिमूर्धः।

[५|४|११६] अप्पूरणीप्रमाण्योः - जिस बहुव्रीहि समास के अन्त में पूरणार्थक प्रत्यान्त स्त्रीलिङ्ग या प्रमाणी शब्द हो, उससे समासान्त अप् ( अ) प्रत्यय होता है। | कल्याणी पञ्चमी यासां रात्रीणाम् (जिन रात्रियों में पाँचवी कल्याणमय हो) - इस विग्रह में कल्याणी और पञ्चमी का परस्पर समास हो कल्याणी पञ्चमी रूप बनता है।यहाँ बहुव्रीहि समास के अन्त में पूणार्थक प्रत्यान्त स्त्रीलिङ्ग पञ्चमी होने के कारण प्रकृत सूत्र से समासान्त अप् ( अ) प्रत्यय हो कल्याणी पञ्चमी अ रूप बनेगा।

[५|४|११७] अन्तर्बहिर्भ्यां च लोम्नः - बहुव्रीहि समास के अन्तर् और बहिर् के पश्चात् लोमन् (लोम) शब्द से समासान्त अप् ( अ) प्रत्यय होता है। | अन्तर् लोमानि यस्य (जिसके लोम भीतर हों) - इस विग्रह में बहुव्रीहि समास हो अन्तर् लोमन् रूप बनता है। यहाँ अन्तर् के पश्चात् लोमन् शब्द होने के कारण प्रकृत सूत्र से समासान्त अप् प्रत्यय हो अन्तर् लोमन् अ रूप बनेगा। तब टि-लोप आदि होकर अन्तर्लोमः रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार बहिर्लोमः।

[५|४|११८] अञ्नासिकायाःसंज्ञायांनसंचास्थूलात् - यदि नासिका शब्द स्थूल शब्द से वचाद न आया हो तो नासिका शब्दान्त बहुव्रीहि से समासान्त अच् प्रत्यय होता है तथा नासिका शब्द में `नसऄ आदेश। | द्रुरिव नासिकाऽस्य = द्रुणसः, वद्ध्रीणसः।

[५|४|११९] उपसर्गाच्च - उपसर्गपूर्वक नासिकाशब्दान्त बहुव्रीहि से भी समासान्त अच् प्रत्यय तत्ना नासिका के स्थान में नस् आदेश। | उन्नता नासिकाऽस्य = उन्नसः, प्रणसः।

[५|४|१२०] सुप्रात-सुश्व-सुदिव-शारिकुक्ष-चतुरश्रैणीपदाजपद-प्रोष्ठपदाः - बहुव्रीहि समास में अच् प्रत्ययान्त `सुपातऄ आदि शब्दों का निपातन। | सुप्रात + अच् == सुप्रातः, सुश्व + अच् == सुश्वः, सुदिव + अच् == सुदिवः, शारिकुक्ष + अच् == शारिकुक्षः, चतुरश्र + अच् == चतुरश्रः।

[५|४|१२१] नञ्दुःसुभ्योहलिसक्थ्योरन्यतरस्याम् - नञ्, दुस्, तथा सु शब्दों से परवर्त्ती हलि तथा सक्थि शब्दों से सम्पद्यमान बहुव्रीहि से विकल्प से समासान्त अच् प्रत्यय होता है। | अविद्यमाना हलिरस्य = अहलः, अहलिः। दुर्हलः, दुर्हलिः। सुहलः, सुहलिः। अविद्यमानं सक्थ्यस्य = असक्थः, असक्थिः। सुःसक्थः, दुःसक्थिः, सुसक्थः, सुसक्थिः।

[५|४|१२२] नित्यमसिच्प्रजा मेधयोः - नञ्, दुस् तथा सु शब्दों से परे प्रजा तथा मेधस् शब्दों से सम्पद्यमान बहुव्रीहि से नित्य समासान्त असिच् प्रत्यय होता है। | अप्रजा + असिच् == अप्रजाः। इसी प्रकार दुष्प्रजाः, सुप्रजाः।

[५|४|१२३] बहुप्रजाश्छन्दसि - छान्दोविषय में बहुप्रजाः शब्द का निपातन। | बहुप्रजा निरऋतिमाविवेश।

[५|४|१२४] धर्मादनिच्केवलात् - एकमात्र पूर्वपद से परे धर्मशब्द से सम्पद्यमान बहेव्रीहि से समासान्त अनिच् प्रत्यय होता है। | कल्याणधर्म + अनिच् == कल्याणधर्मा, प्रियधर्म + असिच् == प्रियधर्मा

[५|४|१२५] जम्भासुहरिततृणसोमेभ्यः - सु, हरित्, तृण तथा सोम शब्द से परे समासान्त प्रत्ययविशिष्ट जम्भा शब्द (से सम्पद्यमान बहुव्रीहि) का निपातन। | शोभनो जम्भोऽस्य = सुजम्भा देवदत्तः। हरितजम्भा। तृणजम्भा, सोमजम्भा।

[५|४|१२६] दक्षिणेर्मालुब्धयोगे - व्याध रोग होने पर समासान्त प्रत्ययविशिष्ट `दक्षिणेर्मा` शब्द का निपातन। | दक्षिणमीर्ममस्य = दक्षिणेर्मा मृगः। ईर्मं व्रणमुच्यते।

[५|४|१२७] इच्कर्मव्यतिहारे - `तत्रतेनेदमितिसरुपे ` (२_२_२७) सूत्र से बिहुव्रीहि समास से समासान्त इच् प्रत्यय होता है। | केशेषु केषुषु गृहीत्वा इदं युद्धं प्रवृत्तं = केशाकेषि, कचाकचि। मुसलैश्च मुसलैश्च प्रहृत्यं इदं युद्धं प्रवृत्तं मुसलामुसलि, दण्डादण्डि।

[५|४|१२८] द्विदण्ड्यादिभ्यश्च समासान्त इच् प्रत्ययान्त `द्विदण्डॎ आदि शब्दों का निपातन। | द्वाभ्यां दण्डाभ्यां प्रहरति यः स = द्विदण्डि, द्विमुसलि।

[५|४|१२९] प्रसंभ्यांजानुनोर्ज्ञुः - प्र शब्द तथा सम् शब्द से परे जानु शब्द को बहुव्रीहि में `ज्ञु` आदेश। | प्र + जानु == प्रज्ञुः, सम् + जानु == सञ्ज्ञुः।

[५|४|१३०] ऊर्ध्वाद्विभाषा - ऊर्ध्वशब्दत्तरवर्त्ती जानु शब्द के स्थान में विकल्प से `ज्ञु` आदेश। | ऊर्ध्व + जानु == उर्ध्वज्ञुः।

[५|४|१३१] ऊधसोऽनङ् - ऊधःशब्दान्त बहुव्रीहि को अनङ् आदेश। | ऊधस् + अनङ् == उधोऽस्याः।

[५|४|१३२] धनुषश्च - धनुःशब्दान्त बहुव्रीहि को भी अनङ् आदेश। | शार्ङ्ग धनुरस्य = शार्ङ्गधन्वा, गाण्डीवधन्वा, पुष्पधन्वा, अतिज्यधन्वा।

[५|४|१३३] वासंज्ञायाम् - समास से संज्ञा की प्रतीति होने पर धनुःशब्दान्त बहुव्रीहि को विकल्प से अनङ् आदेश। | शतं धनूंषि यस्य = शतधतुः, शतधन्वा, दृढं धनुर्यस्य = दृढधनुः, दृढधन्वा।

[५|४|१३४] जायाया निङ् - जायाशब्दान्त बहुव्रीहि को निङ् आदेश। | यवतिर्जाया यस्य = युवजानिः, वृद्धजानिः।

[५|४|१३५] गन्धस्येदुत्पूतिसुसुरभिभ्यः - उत्, पूति, सु एवम् सुरभि शब्दों से परे गन्ध शब्द के स्थान में बहुव्रीहि समास में इकारादेश। | उत् + गन्ध == उद्गन्धिः, पूति + गन्ध == पूतिगन्धिः, इसी प्रकार सुगन्धिः, सुरभिगन्धिः।

[५|४|१३६] अल्पाख्यायाम् - बहुव्रीहि समास में अल्पार्थक गन्ध शब्द के स्थान में इकारादेश। | सूपोऽल्पोऽस्मिन् भोजने = सूपगन्धि भोजनम्, घृतगन्धि।

[५|४|१३७] उपमानाच्च - बहुव्रीहि समास में उपमानवाचक से उत्तर में वर्तमान गन्ध शब्द को इकारादेश। | पद्यस्य इव गन्धोऽस्य = पद्यगन्धिः, उत्पलगन्धिः, करीषगन्धिः।

[५|४|१३८] पादस्यलोपोऽहस्त्यादिभ्यः बहुव्रीहि समास में हस्ति (हाथी) आदि को छोड़कर अन्य किसी उपमान के पश्चात् पाद शब्द का समासान्त लोप होता है। | व्याघ्रस्येव पादौ यस्य (बाघ के समान जिसके पैर हों) - इस विग्रह में बहुव्रीहि समास हो व्याघ्रपाद रूप बनता है। यहाँ उपमान व्याघ्र से परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से पाद शब्द के अकार का लोप हो व्याघ्रापात् रूप बनता है। इसी प्रकार सिंहापात्।

[५|४|१३९] कुम्भपदीषु च कुम्भपदी आदि शब्दों की सिद्धि के लिए पाद शब्द का लोप तथा नित्य ङीप् प्रत्यय का निपातन। | कुम्भ इव पादावस्याः = कुम्भपदी, शतपदी।

[५|४|१४०] संख्यासुपूर्वस्य - संख्यावाचक शब्द और सु पूर्व होने पर पाद (पैर) शब्द के अकार का बहुव्रीहि समास में समासान्त लोप होता है। | द्वौ पादौ यस्य (जिसके दो पैर हों) - इस विग्रह में बहुव्रीहि समास हो द्विपाद रूप बनता है। यहाँ पूर्व में संख्यावाचक द्वि शब्द होने के कारण प्रकृत सूत्र के पाद के अकार का लोप हो द्विपाद् रूप बनने पर विभक्ति-कार्य हो द्विपात् रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार त्रिपात्, सुपात्।

[५|४|१४१] वयसिदन्तस्यदतृ - संख्यापूर्वक तथा सुपूर्वक दन्तशब्दान्त बहुव्रीहि के दन्त शब्द के स्थान में समुदाय से आयु के गम्यमान होने पर `दतृ` आदेश। | द्वौ दन्तावस्य = द्विदन्, त्रिदन्, चतुर्दन्। शोभना दन्ता अस्य समस्ता जाताः = सुदन् कुमारः।

[५|४|१४२] छन्दसि च - वेद में बहुव्रीहि समास के अन्त्यावयव दन्तशब्द के स्थान में `दतृ` आदेश। | पत्रदतमालभेत। उभयादतः आलभते।

[५|४|१४३] स्त्रियांसंज्ञायाम् - स्त्रीलिङ्ग में अन्यपदार्थ में वर्त्तमान दन्त शब्द के स्थान में (संज्ञाविषय में ) `दतृ` आदेश। | अय इव दन्ता अस्याः - अयोदती, फालदती।

[५|४|१४४] विभाषाश्यावारोकाभ्याम् - श्याव तथा अरोक शब्दों से उत्तरवर्ती दन्तशब्द के स्थान में विकल्प से बहुव्रीहि समास में `दतृ` आदेश। | श्याव + दन्त == श्यावदन्तः, अरोक + दन्त == अरोकदन्तः।

[५|४|१४५] अग्रान्तशुद्धशुभ्रवृषवराहेभ्यश्च - अग्रशब्दान्त शब्दों तथा शुद्ध, शुभ्र, वृष एवम् बराई शब्दों से बाद दन्त शब्द के स्थान में विकल्प से बहुव्रीहि समास में `दतृ` आदेश। | शुद्ध + दन्तः == शुद्धदन्तः, शुभ्र + दन्तः == शुभ्रदन्तः, वृष + दन्त == वृषदन्तः आदि।

[५|४|१४६] ककुदस्यावस्थायां लोपः - अवस्था के गम्यमान होने पर ककु दशशब्दान्त बहुव्रीहि का लोप। | असंजातं ककुदमस्य = असञ्जातककुत् (बाल इत्यर्थः), पूर्णककुत् (मध्यवया इत्यर्थः), उन्नतककुत् ( वृद्धवया इत्यर्थः), स्थूलककुत् (बलवान् इत्यर्थः, यष्टिककुत् (नातिस्थूलो नातिक्रिश इत्यर्थः)।

[५|४|१४७] त्रिककुत्पर्वते - `त्रिककुदऄ इस बहुव्रीहि के कुकुद शब्द का लोप यदि समुदाय से पर्वत का अभिधान होता हो। | त्रीणि ककुदान्यस्य = त्रिककुत् (तीन श्रंगोंवाला पर्वत।

[५|४|१४८] उद्विभ्यां काकुदस्य - उद् और वि के पश्चात् काकुद (तालु) शब्द का बहुव्रीहि समास में लोप होता है। | उद्गतं काकुढं यस्य (जिसका तालु ऊपर को उठा हो) इस विग्रह में बहुव्रीहि समास हो उत्काकुद रूप बनता है। यहाँ उद् के पश्चात् होने के कारण प्रकृत सूत्र से काकुद के अकार का लोप हो उत्काकुद् रूप बनने पर विभक्ति-कार्य होकर उत्काकुत् रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार विकाकुत्।

[५|४|१४९] पूर्णाद्विभाषा - पूर्ण शब्द के पश्चात् काकुद शब्द के अकार का बहिव्रीहि में विकल्प से समासान्त लोप होता है। | पूर्ण काकुदं यस्य (जिसका तालु पूर्ण हो)- इस विग्रह में बहुव्रीहि समास हो पूर्णकाकुद रूप बनता है। तब पूर्ण शब्द से परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से काकुद के अकार का विकल्प से लोप होकर पूर्णकाकुद् रूप बनेगा।यहाँ विभक्तिकार्य हो पूर्णकाकुत् रूप सिद्ध होता है।लोपाभाव-पक्ष में पूर्णकाकुदः रूप बनता है।

[५|४|१५०] सुहृद् दुर्हृदौ मित्रामित्रयोः - मित्र और अमित्र अर्थों में (सुहृद्-दुहृदौ) सुहृद् और दुर्हृद् का निपातन होता है। | सु और हृदय का बहुव्रीहि समास हो सुहृदय रूप बनने पर निपातन द्वारा हृदय के स्थान पर हृद् हो सुहृद् रूप बनता है।जिसका अर्थ है मित्र। इसी प्रकार दुर्हृद्

[५|४|१५१] उरःप्रभृतिभ्यःकप् - बहुव्रीहि समास में उरस् (वक्षःस्थल) आदि से समासान्त कप् प्रत्यय होता है। | व्यूढ़म् उरो यस्य (जिसका विशाल वक्षःस्थल हो) - इस विग्रह में बहुव्रीहि समास हो व्यूढ़ उरस् रूप बनता है। यहाँ प्रकृत सूत्र से उरस् से समासान्त कप् (क) प्रत्यय हो व्यूढ़ उरस् क रूप बनेगा।

[५|४|१५२] इनःस्त्रियाम् - इन् प्रत्ययान्त बहुव्रीहि से स्त्रीत्वविवक्षा में कप् प्रत्यय होता है। | बहवो दण्डिनो यस्यां शालायां सा बहुदण्डिका शाला, बहुच्छत्रिका, बहुस्वामिका नगरी।

[५|४|१५३] नद्यृतश्च - नदी संज्ञकान्त तथा ऋकारान्त बहुव्रीहि से स्वार्थ में कप् प्रत्यय होता है। | बह्ण्यः कुमार्योऽस्मिन् देशे स = बहुकुमारीको देशः, बहुब्रह्मबन्धूकः। ऋतः - बहवः कर्तारो यस्मिन् प्रसादे स = बहुकर्त्तृकः प्रसादः।

[५|४|१५४] शेषाद्विभाषा - जिस बहुव्रीहि से किसी समासान्त प्रत्यय का विधान न किया गया हो। उससे विकल्प से समासान्त कप् (क) प्रत्यय होता है। | महद् यशो यस्य (जिसका यश् महान हो) - इस विग्रह में बहुव्रीहि समास हो महत् यशस् रूप बनता है। यहाँ किसी अन्य प्रत्यय का विधान न होने से प्रकृत सूत्र से विकल्प से कप् हो महत् यशस् क रूप बनेगा।

[५|४|१५५] नसंज्ञायाम् - संज्ञा विषयक बहुव्रीहि समास में वैकल्पिक कप् प्रत्यय नहीं होता। | विश्वे देवा यस्य स = विश्वदेवः, विश्वयशाः।

[५|४|१५६] ईयसश्च - ईयसुन् प्रत्ययान्त बहुव्रीहि से कप् प्रत्यय नहीं होता। | बहवः श्रेयांसो यस्य स = बहुश्रेयान्, बह्ण्यः श्रेयस्यो यस्य स = बहुश्रेयसी।

[५|४|१५७] वन्दिते भ्रातुः - वन्दितार्थक भ्रातृ शब्दान्त बहुव्रीहि से कप् प्रत्यय नहीं होता। | शोभनो भ्राताऽस्य स = सुभ्राता।

[५|४|१५८] ऋतश्छन्दसि - ऋवर्णान्त बहुव्रीहि से भी छान्दोविषय में कप् प्रत्यय नहीं होता। | हता माताऽस्य स = हतमाता, हतपिता, हतस्वसा, सुहोता।

[५|४|१५९] नाडीतन्त्र्योःस्वाङ्गे - स्वाङ्गवर्त्ती नाड़ी तथा तन्त्री शब्दों से सम्पन्न बहुव्रीहि से भी नदीत्व-निमित्तक कप् प्रत्यय नहीं होता। | बढ़्यो नाड्यो यस्य स = बहुनाडिः कायः, बह्ण्यः तन्त्र्यो यस्यां ग्रीवायां सा = बहुतन्त्री ग्रीवा।

[५|४|१६०] निष्प्रवाणिश्च| - `निष्प्रवाणि ` शब्द से भी `नद्यृतश्चऄ (५_४_१५३)सूत्र से प्राप्त नदीत्वनिमित्तक कप् प्रत्यय नहीं होता।