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अष्टाध्यायी हिन्दी व्याख्या सहितम्/द्वितीयः अध्यायः

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[२|१|१] समर्थःपदविधिः - पद-विधि समर्थपदाश्रित होती है। | आकांक्षा आदि के कारण पदों का जो परस्पर सम्बन्ध होता है उसे व्यपेक्षा कहते हैं। यह वाक्य में होती है। जैसे राज्ञः पुरुषः (राजा का पुरुष) में दोनों पदो का परस्पर सम्बन्ध है, अतः यहाँ व्यपेक्षा-रूप सामर्थ्य है।

[२|१|२] सुबामन्त्रिते पराङ्गवत्स्वरे - स्वर कर्तव्य होने पर आमन्त्रित पद के परे रहते पूर्व सुबन्त पद पहले आमन्त्रित पद के अङ्ग के समान कार्य का आश्रय होता है। | कुण्डे॑न अटन्। पर॑शुना वृश्चन्। मद्रा॑णां राजन्। कश्मी॑राणां राजन्।

[२|१|३] प्राक्कडारात्समासः| - इस सूत्र से लेकर वाऽऽहिताग्न्यादिषु (२_२_३७) तक सभी सूत्र समास का विधान करते हैं।

[२|१|४] सह सुपा - यहाँ से उत्तर सह तथा सुपा का अधिकार है। | सुबन्त राज्ञः के साथ सुबन्त पुरुषः का समास होकर राजपुरुषः रूप बनता है।

[२|१|५] अव्ययीभावः| - इस सूत्र से लेकर तत्पुरुषः (२_१_२२) के पूर्वसूत्र (अन्यपदार्थे च् संज्ञायाम्२_१_२१) तक अव्ययी भाव का अधिकार है।

[२|१|६] अव्ययं विभक्तिसमीप-समृद्धि-व्यृद्धयर्थाभावात्ययासंप्रतिशब्द्-प्रादुर्भावपश्र्चाद्य-थानुपूर्व्य्-यौगपद्यसादृश्यसंपत्तिसा-कल्यान्तवचनेषु - विभक्ति एवं समीप आदि अर्थों में वर्तमान अव्यय का सुबन्त के साथ अव्ययीभाव समास होता है। | हरि ङि अधि में अधि अव्यय सप्तमी विभक्ति के अर्थ अधिकरण में वर्तमान है, अतः प्रकृत सूत्र से सुबन्त हरि ङि के साथ उसका समास प्राप्त होता है यहाँ समास होने पर प्रश्न उठता है कि किस शब्द को पहले रखा जाय।

[२|१|७] यथाऽसादृश्ये - असादृश्यार्थक `यथा` अव्यय शब्द का सुबन्त के साथ अव्ययीभाव समास होता है। | ये ये वृद्धाः == यथावृधम्, यथाध्यापकम्। ये ये चौराः == यथाचौरं बध्नाति, यथापण्डितं सत्करोति।

[२|१|८] यावदवधारणे - अवधारणार्थक `यावत् ` अव्यय का सुबन्त के साथ अव्ययीभाव समास होता है। | यावन्ति अमत्राणि == यावदमत्रं ब्राह्मणान् आमन्त्रयस्व। यावन्ति कार्षापणानियावत्कार्षापणं फलं क्रीणाति।

[२|१|९] सुप् प्रतिना मात्रार्थे - अल्पार्थक `प्रतॎ का सुबन्त के साथ अव्ययीभाव समास होता है। | अस्त्यत्र जिञ्चित् शाकम्-शाकप्रति, सूपप्रति। अर्थप्रदर्शनार्थमत्र विग्रहः प्रदर्श्यते।

[२|१|१०] अक्षशलाकासंख्याःपरिणा - अक्ष, शलाका तथा संख्यावाचक शब्दों का `परि ` के साथ अव्ययीभाव समास होता है। | अक्षेणेदं न तथा वृत्तं यथा जये == अक्षपरि। शलाकापरि। एकपरि, द्विपरि।

[२|१|११] विभाषा - यहाँ से `विभाषा` (विकल्प) का अधिकार है। | अपत्रिगर्तं वृष्टो देवः, अपत्रिगर्तेभ्यो वृष्टो देवः। परित्रिगर्त्तम्, परि त्रिगर्तेभ्यो वा। बहिर्ग्रामम्, बहिर्ग्रामात्। प्राग्ग्रामम्, प्राग्ग्रामात्।

[२|१|१२] अपपरिवहिरंचवःपंचम्या - अप, परि, बहिस् तथा अञ्चु, इन सुबन्तों का पञ्चभ्यन्त शब्द के साथ विकल्प से अव्ययीभाव समास होता है। | आपाटलिपुत्रं वृष्टो देवः, आ पटलिपुत्राद् वृष्टो देवः। अभिविधौ - आकुमारं यशः पाणिने, आ कुमारेभ्यो यशः पाणिने।

[२|१|१३] आड़् मर्यादाभिविध्योः - मर्यादा तथा अभिविधि में वर्तमान, ` आङ् ` का पञ्चभ्यन्त के साथ विकल्प से अव्ययीभाव समास होता है। | अभ्यग्नि शलभाः पतन्ति, अग्निम्, अभि। प्रत्यग्नि, अग्निं प्रति। अग्निं लक्ष्यीकृत्य शलभाः पतन्ति इत्यर्थः।

[२|१|१४] लक्षणेनाभि प्रती आभिमुख्ये - चिह्नार्थक सुबन्त के साथ अभिमुख्यार्थक ` अभॎ और `प्रति का विकल्प से अव्ययीभाव समास होता है। | अनुवनम् अशनिर्गतः, अनुपर्वतम्। वनस्य अनु, पर्वतस्य अनु।

[२|१|१५] अनुर्यत्समया - जिसका सामीप्यवाचक ` अनु` हो उस लक्षकवाची सुबन्त के साथ ` अनु ` का विकल्प से अव्ययीभाव समास होता है। | अनुगङ्ग वाराणसी, गङ्गाया अनु। अनुयमनुं मथुरा, यमुनाया अनु (गङ्गा की लम्बाई के साथ साथ वाराणसी बसी हुई है। तथा यमुना की लम्बाई के साथ-साथ मथुरा बसी हुई है)। पूर्ववत् ही समास होने से ह्रस्व यहाँ भी।

[२|१|१६] यस्यचायामः - जिसके आयाम (दैर्ध्य) का वाचक ` अनु` हों उस लक्षणवाची सुबन्त के साथ ` अनु ` का विकल्प से अव्ययीभाव समास होता है। | तिष्ठन्ति गावो यस्मिन् काले दोहनाय स == तिष्ठद्गु कालः। वहन्ति गावो यस्मिन् काले स == वहद्गु कालः

[२|१|१७] तिष्ठद्गुप्रभृतीनिच तिष्ठद्गु आदि शब्दों का निपातन किया जाता है और ये शब्द अव्ययीभावसंज्ञक होते हैं। | पारेङ्गम्, पारं गङ्गायाः। षष्ठीसमासपक्षे - गंगापारम्। मध्येगंगम्, मध्यं गङ्गायाः। षष्ठीसमासपक्षे- गङ्गामध्यम्।

[२|१|१८] पारेमध्येषष्ठयावा - षष्ठयन्त शब्द के साथ `पारऄ तथा `मध्यऄ शब्दो का विकल्प से अव्ययीभाव समास होता हैं। | द्वौ मुनी व्याकरणस्य वंश्यौ, द्विमुनि व्याकरणस्य। त्रिमुनि व्याकरणस्य।

[२|१|१९] संख्या वंश्येन - विद्या-प्रयुक्त अथवा जन्म-प्रयुक्त वंश में सञ्जात पुरुषों के अर्थ में वर्तमान सुबन्त पद के साथ संख्यावाचक शब्दो का विकल्प से अव्ययीभाव समास होता हैं। | सप्तानां गङ्गानां समाहारः == सप्तगङ्गम्। द्वयोः यमुनयोः समाहारः= द्वियमुनम्। पञ्चनदम्। सप्तगोदावरम्।

[२|१|२०] नदीभिश्र्च - नदियों (नदी-विशेषवाचक शब्दों) के साथ संख्या (संख्या-वाचक शब्द) का समास होता है और वह समास अव्ययीभाव-संज्ञक होता है। | पञ्च्गङ्गम् (पाँच गङ्गाओं का समाहार) में समाहार अर्थ में संख्यावाचक पञ्चन् का नदी-विशेषवाचक गङ्गा के साथ समास हुआ है। इसी प्रकार द्वियमुनम् (दो यमुनाओं का समाहार) में भी द्वि और यमुना का समास हुआ है।

[२|१|२१] अन्यपदार्थे च संज्ञायाम्| - अन्यपदार्थ के गम्यमान होने पर भी (समस्त पद के) संज्ञावचक होने पर नदीवाचक शब्दों के साथ सुबन्त का विकल्प से अव्ययीभाव समास होता है।

[२|१|२२] तत्पुरुषः - इस सूत्र से लेकर क्त्वा च (२_२_२२) तक के सूत्रों से जो समास होता है, उसे ततपुरुष कहते हैं। | पञ्चराजम्, दशराजम्, द्वयहः, त्र्यहः। पञ्चगवम्, दश्गवम्।

[२|१|२३] द्विगुश्र्च - द्विगु समास भी ततपुरुष-संज्ञक होता है। | कष्टं श्रितः, कष्टश्रितः। अरण्यम् अतीतः, अरण्यातीतः। कूपं पतितः, कूपपतितः। नगरं गतः, नगरगतः। तरङ्गान् अत्यस्तः, तरङ्गात्यस्तः। आनन्दं प्राप्तः, आनन्दप्राप्तः। सुखम् आपन्नः सुखापन्नः

[२|१|२४] द्वितीयाश्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नैः - द्वितीयान्त सुबन्त का श्रत, अतीत पतित, गत, अत्यस्त (फेंका हुआ), प्राप्त और आपन्न (पड़ा हुआ)- इन सात प्रातिपादकों से बने हुए सुबन्त के साथ समास होता है और उस समास को तत्पुरुष कहते हैं। | श्रित - यहाँ कृष्णं श्रितः (कृष्ण के आश्रित)- इस विग्रह में द्वित्तीयान्त कृष्णं का सुबन्त शृत के साथ समास होकर प्रथमा के एकवचन में कृष्णश्रितः रूप बनता है।

[२|१|२५] स्वयं क्तेन - `स्वयम् ` शब्द का क्तप्रत्यान्त के साथ विकल्प से तत्पुरुष समास होता है। | खट्वारुढ़ोऽयं दुष्टः। खट्वाप्लुतः।

[२|१|२६] खट्वा क्षेपे - निन्दा के गम्यमान होने पर द्वितीयान्त खट्वा शब्द का क्तप्रत्ययान्त शब्द के साथ विकल्प से तत्पुरुष कहते हैं। | सामिकृतम्, सामिपीतम्, सामिभुक्तम्।

[२|१|२७] सामि - `सामॎ इस सुबन्त का क्तप्रत्यान्त के साथ विकल्प से तत्पुरुष समास होता है। | सामिकृतम्, सामिपीतम्, सामिभुक्तम्

[२|१|२८] कालाः - कालवाचक द्वितीयान्त शब्दों का क्तप्रत्यान्त शब्दों के साथ विकल्प से तत्पुरुष समास होता है। | मुहूर्तं सुखम् == मुहूर्त्तसुखम्। सर्वरात्रकल्याणी, सर्वरात्रशोभना।

[२|१|२९] अत्यन्त-संयोगे च - अत्यन्त-संयोग के गम्यमान होने पर भी कालवाचक द्वितीयान्त शब्दों का क्तप्रत्यान्त शब्दों के साथ विकल्प से तत्पुरुष समास होता है। | शङ्कुलया खण्डः == शङ्कुलाखण्डः। किरिणा काणः== किरिकाणः। अर्थशब्देन - धान्येन अर्थः धान्यार्थः।

[२|१|३०] तृतीया तत्कृतार्थेन गुणवचनेन - तृतीयान्त सुबन्त का उसके द्वारा किये गये गुणवाची प्रातिपदिक के सुबन्त और अर्थ प्रातिपादिक के सुबन्त के साथ समास होता हैऔर इस समास को तत्पुरुष कहते हैं। | शङ्कुठ्या खएडः (सरोते से किया हुआ टुकड़ा) - इस विग्रह में तृतीयान्त शङ्कु या का तत्कृत गुणवाचक सुबन्त खण्डः से समास होकर शङ्कुलाखण्डः रूप बनता है।गुणवाचक प्रातिपादिक का गुण जब तृतीयान्त सुबन्त के द्वारा होगा, तभी समास होगा अन्यथा नहीं।

[२|१|३१] पूर्वसदृशसमोनार्थकलहनिपुणमिश्रश्लक्ष्णैः - पूर्व, सदृश, सम, ऊनार्थक, कलह, निपुण, मिश्र एवम् श्लक्षण शब्दों के साथ तृतीयान्त पद का तत्पुरुष समास विकल्प से होता है। | मासेन पूर्वः == मासपूर्वः, संवत्सरपूर्वः। मात्रा सदृशः == मातृसदृशः, पितृसदृषः। मात्रा समः == मातृसमः, पितृसमः। ऊनार्थे - कार्षापणेन ऊनं रूप्यं== कार्षापणोनं रूप्यम्, कार्षापणन्यूनम्।

[२|१|३२] कर्तृ करणे कृता बहुलम् - कर्ता और करण अर्थ में वर्तमान तृतीयान्त सुबन्त का सुबन्त-कृदन्त (जिसके अन्त में कोई कृत् प्रत्यय हो) के साथ बहुलता से समास होता है उस समास को तत्पुरुष कहते हैं।बहुलता से होने के कारण समास कभी होता है और कभी नही भी। | हरिणा त्रातः (हरि के द्वारा रक्षित)- इस विग्रह में कर्ता अर्थ में वर्तमान तृतीयान्त सुबन्त हरिणा का कृदन्त त्रातः के साथ समास होकर हरित्रातः रूप बनता है।

[२|१|३३] कृत्यैरधिकार्थवचने - अधिकार्थवचन के गम्यमान होने पर कृत्य प्रत्ययान्त शब्दों के साथ कर्त्ता तथा करण में विहित तृतीया से युक्त शब्दों का विकल्प से तत्पुरुष समास होता है। | दध्ना उपसक्ति ओदनः == दध्योधनः, क्षीरौदनः।

[२|१|३४] अन्नेन व्यंजनम् - व्यञ्जनवाचक तृतीयान्त शब्द का अननवाचक सुबन्त के साथ विकल्प से तत्पुरुष समास होता है। | गुडेन मिश्रा धानाः == गुडधानाः, गुडपृथुकाः।

[२|१|३५] भक्ष्येण मिश्रीकरणम् - मिश्रीकरणार्थ तृतीयान्त पद का भक्ष्यार्थक सुबन्त के साथ विकल्प से तत्पुरुष समास होता है। | तदर्थ - यूपाय दारु = यूपदारुः, कुण्डलाय हिरणयम् == कुण्डलहिरण्यम्। अर्थ == ब्राह्मणार्थ पयः, ब्राह्मणार्था यवागूः। बलि == इन्द्रिय बलिः == इन्द्रबलिः, कुबेरबलिः। हित- गोभ्यो हितं == गोहितम्। सुख = गोभ्यः सुखं == गोसुखम्, अश्वसुखम्। रक्षित्== प्र्त्राय रक्षितम् == पत्ररक्षितम्, अश्वरक्षितम्।

[२|१|३६] चतुर्थी तदर्थार्थबलिहितसुखरक्षितैः - चतुर्थ्यन्त सुबन्त का तदर्थवादक, अर्थ, बलि, हित, सुख और रक्षित- इन छः प्रातिपादकों के सुबन्त के साथ समास होता है। | यहाँ तद से चतुर्थ्यन्त सुबन्त का ग्रहण होता है और इस प्रकार तदर्थ का अर्थ होगा - चतुर्थ्यन्त सुबन्त के लिए।तात्पर्य यह है कि चतुर्थ्यन्त सुबन्त के लिए जिसका उपयोग होता है, उसके वाचक प्रातिपादिक के सुबन्त के साथ उस चतुर्थ्यन्त सुबन्त का समास होता है। किन्तु चतुर्थ्यन्त सुबन्त और तदर्थ-वाचक सुबन्त में प्रकृति-विकृतिभाव होना चाहिए।

[२|१|३७] पंचमी भयेन - पञ्चभ्यन्त सुबन्त का भय प्रातिपादिक के सुबन्त के साथ समास होता है। | चोराद्-भ्यम् (चोर से भय) में पञ्चभ्यन्त सुबन्त चोराद् का सुबन्त भय के साथ समास होकर चोरभ्याम् रूप बनता है।

[२|१|३८] अपेतापोढमुक्तपतितापत्रस्तैरल्पशः - अपेत, अपोढ़, मुक्त, पतित तथा अपत्रस्त शब्दों का पञ्चम्यन्त पद का विकल्प से तत्पुरुष समास होता है। | स्तोकाद् मुक्तः == स्तोकान्मुक्तः, अल्पान्मुक्तः। आन्तिकाद् आगतः == अन्तिकादागतः, अभ्याशादागतः। दूराद् आगतः == दूरादागतः, विप्रकृष्टादागतः।

[२|१|३९] स्तोकान्तिकदूरार्थकृच्छ्राणि क्तेन - स्तोक (थोड़ा), अन्तिक (समीप), दूरार्थवाचक (दूरी का अर्थ बताने वाला) और कृच्छ्र (कष्ट)- इन चार प्रातिपादिकों के पञ्चभ्यन्त सुबन्त का क्त-प्रत्यान्त के सुबन्त के साथ समास होता है। | यहाँ स्तोकाद् मुक्तः (थोड़े से मुक्त- इस अर्थ में स्तोक ङसि मुक्त सु में समास होकर प्रातिपादिक संज्ञा होने पर सुपो धातु-प्रातिपदिकयोः (२_४_७१) से सुप् ङसि और सु का लोप प्राप्त होता है।

[२|१|४०] सप्तमी शौण्डैः - सप्तभ्यन्त सुबन्त का शौण्ड (चतुर) आदि के सुबन्त के साथ समास होता है। | अक्षेषु शौण्डः (पासे खेलने में चतुर) - इस विग्रह में सप्तभ्यन्त सुबन्त अक्षेषु का सुबन्त शौएडः से सामस हो अक्षशौण्डः रूप बनता है।

[२|१|४१] सिद्धशुष्कपक्वबन्धैश्र्च - सिद्ध , शुष्क, पक्क तथा बन्ध शब्दों के साथ सप्तम्यन्त पद का तत्पुरुष समास होता है। | तीर्थे ध्वान्॒क्ष इव == तीर्थध्वाङ्क्षः, तीर्थे काक इव == तीर्थकाकः, तीर्थवायसः।

[२|१|४२] ध्वाड़्क्षेण क्षेपे - निन्दा के गम्यमान होने पर ध्वांक्षार्थक शब्द के साथ सप्तम्यन्त पद का तत्पुरुष समास होता है। | मासे देयम् ऋणं == मासदेयम् ऋणम्। संवत्सरदेयम्, त्र्यहदेयम्।

[२|१|४३] कृत्यैऋणे - ऋण के गम्यमान होने पर कृत्य प्रत्ययान्त शब्दों के साथ सप्तम्यन्त पद का तत्पुरुष समास होता है। | अरण्येतिलकाः। अरण्येमाषाः।वनेंकिशुकाः। वनेबिल्वकाः। कूपेपिशाचकाः।

[२|१|४४] संज्ञायाम् - समस्त पद के द्वारा संज्ञा के प्रतीयमान होने पर सप्तम्यन्त पद का सुबन्त पद का तत्पुरुष समास नित्य होता है। | पूर्वाह्णे कृतम् == पूर्वाह्णकृतम्, मध्याह्नकृतम्। पूर्वरात्रे कृतम् == पूर्वरात्रकृतम्, मध्यरात्रकृतम्।

[२|१|४५] क्तेनाहोरात्रावयवाः - दिन के अवयवों के वाचक तथा रात्रि के अवयवों के वाचक शब्दों का क्त प्रत्ययान्त शब्द के साथ तत्पुरुष समास होता है। | तत्रभुक्तम्। तत्रपीतम्। तत्रकृतम्।

[२|१|४६] तत्र - `तत्रऄ पद का क्त प्रत्ययान्त शब्द के साथ तत्पुरुष समास होता है। | अवतेप्तेन-कुलस्थितं तव एतत्। प्रवाहेमूत्रितम्। भस्मनिहुतम्।

[२|१|४७] क्षेपे - निन्दा के गम्यमान होने पर सप्तम्यन्त पद का क्त प्रत्ययान्त पद के साथ तत्पुरुष समास होता है। | पात्रेसमिताः, पात्रेबहुलाः।

[२|१|४८] पात्रेसमितादयश्र्च - `पात्रेसमितऄ आदि समस्तपद का निपातन होता है। | स्नातश्चानुभुक्तश्च == स्नातानुभक्तः, कृष्टसमीकृतम्। एकश्चासौ वैद्यश्च == एक वैद्यः, एक भिक्षा। सर्वे च ते मनुष्याः == सर्वमनुष्याः, सर्वदेवा।

[२|१|४९] पूर्वकालैकसर्वजरत्पुराणनवकेवलाः समानाधिकरणेन - पूर्वकालार्थक, एक, सर्व, जरत्, पुराण, नव तथा केवल शब्दों का समानाधिकरण के साथ तत्पुरुष समास होता है यदि समस्त पद से संज्ञा की प्रतीति होती है। | स्नातश्चानुभुक्तश्च == स्नातानुभुक्तः (पहले स्नान किया, पीछे खाया), कृष्ट्समीकृतम् (पहले खेत को जोता, पीछे बराबर किया)। एकश्चासौ वैद्यश्च == (एक ही है, और वही वैद्य है), एक भिक्षा। सर्वे च ते मनुष्याः==सर्वमनुष्याः (सब मनुष्य), सर्वदेवाः। जरंश्चासौ हस्ती च == जरद्धस्ती (बूणा हाथी), जरदश्वः। पुराणं च तदन्नं च == पुराणान्नम् (पुराना अन्न)

[२|१|५०] दिक्-संख्ये संज्ञायाम् - संज्ञा के विषय में दिशावाचक और संख्यावाचक सुबन्त का समानाधिकरण वाले सुबन्त (जिसका आधार समान ही हो) के साथ समास होता है। | पूर्वा च इषुकामशमी च - इस विग्रह में दिशावाचक सुबन्त पूर्वा का समाधिकरण वाले सुबन्त इषुकामशमी के साथ प्रकृत सूत्र से समास होकर पूर्वेषुकामशमी रूप बनता है।यह प्राची ग्राम-विषेष की संज्ञा है।

[२|१|५१] तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च - तद्धितार्थ (तद्धित के अर्थ) के विषय में, उत्तरपद परे रहते और समाहार वाच्य होने पर दिशावाचक और संख्यावाचक सुबन्त का समानाधिकरण वाले सुबन्त के साथ समास होता है। | दिशावाचक - (क) तद्धितार्थ में - पौर्वशालः (ख) उत्तरपद परे होने पर - पूर्वशालाप्रियः (२) संख्यावाचक (क) तद्धितार्थ में - पाञ्चनापितिः (ख) उत्तरपद में पञ्चगवधनः।

[२|१|५२] संख्यापूर्वो द्विगुः - पूर्व सूत्र के द्वारा विहित संख्यापूर्वक समास की द्विगु संज्ञा होती है। | पञ्चानां गवां समाहारः (पाँच गायों का समाहार)- इस विग्रह में समाहार वाच्य होने पर तद्धितार्थोत्तरपद-समाहारे च (२_१_५१) से पञ्चानां और गवां का पूर्ववत् समास हो पञ्चगव रूप बनता है। पूर्वपद संख्यावाचक होने से इसकी प्रकृत सूत्र से द्विगु संज्ञा होती है।

[२|१|५३] कुत्सितानि कुत्सनैः - कुत्सितवाचक सुबन्त का कुत्सावाचक सुबन्त के साथ तत्पुरुष समास होता है। | पापश्चासौ नापितश्च == पापनापितः, पापकुलालः। अणकनापितः, अणककुलालः।

[२|१|५४] पापाणके कुत्सितैः - पाप तथा अणक शब्दों का कुत्सावाचक सुबन्त के साथ तत्पुरुष समास होता है। | घन इव श्यामः == घनश्यामो देवदत्तः। शस्त्री इव श्यामा== शस्त्रीश्यामा देवदत्ता।

[२|१|५५] उपमानानि सामान्यवचनैः - उपमान-वाचक सुबन्त का साधारणधर्मवाचक (उपमेय) सुबन्त के साथ समास होता है। | धन इव श्यामः (मेघ के समान श्यामवर्ण वाला) में उपमान धन है और साधारण धर्मवाचक श्याम। अतः प्रकृत सूत्र से धन सु और श्याम सु में समास होकर घनश्यामः रूप बनता है।

[२|१|५६] उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याप्रयोगे - उपमेयवाचक सुबन्त पद का व्याघ्रादि उपमानवाचक सुबन्त के साथ तत्पुरुष समास होता है यदि सामान्यवाचक पद का प्रयोग न हुआ हो। | पुरुषव्याघ्राः (व्याघ्रः के समान शूरवीर पुरुष), पुरुषसिंहः उदाहरण में पुरुष उपमेय और व्याघ्र उपमान है। साधारणधर्म शूरता है, अर्थात् शूरत्व को लेकर उपमा दी गई है। सो उसका यहाँ अप्रयोग है। जहाँ प्रयोग होगा वहाँ समास नहीं होगा।

[२|१|५७] विशेषण विशेष्येण बहुलम् - विशेषणवाची सुबन्त का समानाधिकरण वाले विशेष्यवाची सुबन्त के साथ बहुलता से समास होता है। | नीलम उत्पलम् (नीला कमल) में नीलम् विशेषण है और उत्पलम् विशेष्य। दोनों में ही प्रथमा विभक्ति होने से समानाधिकरणता भी है। अतः प्रकृतः सूत्र से समास हो नीलोत्पलम् रूप बनता है।

[२|१|५८] पूर्वापरप्रथमचरमजघन्यसमानमध्यमध्यमवीराश्र्च - पूर्व, अपर, प्रथम, चरम, जघन्य, समान, मध्य, मध्यम तथा वीर शब्दों का समानाधिकरण सुबन्त के साथ तत्पुरुष समास होता है। | अश्रेणयः, श्रेणयः कृताः == श्रेणिकृताः। एककृताः।

[२|१|५९] श्रेण्यादयः कृतादिभिः श्रेणी आदि (श्रेणी, एक, पूग, कुण्ड, राशि, विशिख, निचय, निधान, इन्द्र, देव, मुण्ड, भूत, श्रवण, वदान्य, अध्यापक, ब्राह्मण, क्षत्रिय, पटु, पण्डित, कुशल, चपल, निपुण, कृपण) सुबन्त पदों का समानाधिकरण कृत आदि सुबन्तों के साथ तत्पुरुष समास होता है। | कृतं च तदकृतं च == कृताकृतम्। भुक्ताभुक्तम्। पीतापीतम्।

[२|१|६०] क्तेन नञ्विशिष्टेनानञ् - नञ् मात्र के अपने उत्तरपद से भिन्न नञ् विशिष्ट क्तप्रत्ययान्त के साथ समानाधिकरण नञ् रहित क्तप्रत्ययान्त शब्द का तत्पुरुष समास होता है। | सन् चासौ पुरुषश्च == सत्पुरुषः। महापुरुषः। परमपुरुषः। उत्तम्-पुरुषः। उत्कृष्टपुरुषः।

[२|१|६१] सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टाःपूज्यमानैः - सत्, महत्, परम, उत्तम तथा उत्कृष्ट शब्दों का पूज्यमानवाचक पदों के साथ तत्पुरुष समास होता है। | गौश्चासौ वृन्दारकश्च == गोवृन्दारकः, अश्ववृन्दारकः। गोनागः, अश्वनागः।गोकुञ्जरः, अश्वकुञ्जरः।

[२|१|६२] वृन्दारकनागकुञ्जरैः पूज्यमानम् - पूज्यमानवाचक सुबन्त का वृन्दारक, नाग तथा कुञ्जर शब्दों के साथ समास होता है। | करतः कठः== करतकठः, कतरकालापः। कतमकठः, कतम्कालापः।

[२|१|६३] कतरकतमौ जातिपरिप्रश्र्ने - जाति विषयक परिप्रश्न अर्थ में प्रयुज्यमान कतर तथा कतम शब्दों का सुबन्त के साथ तत्पुरुष समास होता है। | कथंभूतः सखा -- किंसखा योऽभिद्रुह्मति, किंराजा यो न रक्षति।

[२|१|६४] किं क्षेपे - निन्दा के गम्यमान होने पर `किम् ` का सुबन्तपद के साथ तत्पुरुष समास होता है। | किंसखा यो अभिद्वति (वह कैसा मित्र है अर्थात् मित्र नही है, जो द्रोह करता है), किंराजा यो न रक्षति (वह कैसा राजा है, जो प्रजा की रक्षा नही करता)

[२|१|६५] पोटायुवतिस्तोककतिपयगृष्टिधेनुवशावेहद्वष्कयणीप्रवृक्तृश्रोत्रियाध्यापकधूर्तैर्जातिः पोटा (स्त्री व पुरुष इन दोनोँ के गुण जिस मेँ होते हैं उसे पोटा (नपुंषक) कहते हैँ) आदि शब्दों के साथ जातिवाचक सुबन्त का तत्पुरुष समास होता है। | इभा चासौ पोटा च == इभपोटा। इभयुवतिः। अग्निस्तोकः। उदशिवत्कयिपयम्। गोगृष्टिः। गोधेनुः। गवेशा। गोवेहत्। गोवष्कयणी। कठप्रवक्ता। कठश्रोत्रियः। कठाध्यापकः। कठधूर्तः।

[२|१|६६] प्रशंसा वचनैश्र्च - प्रशंसावाचक सुबन्त के साथ जातिवाचक सुबन्त का तत्पुरुष समास होता है। | ब्राह्मणश्चासौ तेजस्वी च == ब्राह्मणतेजस्वी, ब्राह्मणशूरः। गहोप्रकाण्डम्। गोमतल्लिका। गोमचर्चिका।

[२|१|६७] युवा खलतिपलितवलिनजरतीभिः - समानाधिकरण खलति, पलित, वलिन तथा जरत् शब्दों के साथ युवन् शब्द का तत्पुरुष समास होता है। | युवा खलतिः == युवखलतिः। युवा पलितः == युवपलितः। युवावलिनः == युववलिनः, युवतिः जरति == युवजरति।

[२|१|६८] कृत्यतुल्याख्या अजात्या - कृत्यप्रत्ययान्त तथा तुल्यार्थक सुबन्तों का जातिवाचक भिन्न समानाधिकरण सुबन्त के साथ तत्पुरुष समास होता है। | भोज्यं चादः उष्णञ्च == भोज्योष्णम्। भोज्यलवणम्। पानीयशीतम्। तुल्याख्याः == तुल्यश्वेतः, तुल्यमहान्। सदृशशवेतः, सदृशमहान्।

[२|१|६९] वर्णो वर्णेन - वर्ण-विशेषवाचक सुबन्त का वर्णान्तरवाची सुबन्त के साथ तत्पुरुष समास होता है। | कृष्णश्चासौ सारङ्गश्च == कृष्णसारङ्गः। लोहितसारङ्गः। कृष्णशबलः। लोहितशबल

[२|१|७०] कुमारःश्रमणादिभिः श्रमणा (स्त्रीलिंग मेँ प्रव्रजिता, कुलटा, गर्भिणी, तापसी, दासी, बन्धकी तथा पुल्लिङ्ग मेँ अध्यापक, अभिरूपक, पण्डित, पटु, मृदु, कुशल, चपल, निपुण आदि)आदि शब्दों के साथ कुमार शब्द का तत्पुरुष समास होता है। | कुमारी चासौ श्रमणा च == कुमारश्रमणा। कुमारप्रव्रिजिता।

[२|१|७१] चतुष्पादो गर्भिण्या - चतुष्पाद्वाचक सुबन्त का गर्भिणी शब्द के साथ तत्पुरुष समास होता है। | गौश्चासौ गर्भिणी च == गोगर्भिणी। महिषगर्भिणी। अजगर्भिणी।

[२|१|७२] मयूर व्यंसकादयश्र्च - `मयुर-व्यंसकऄ आदि पदों का समास-निपातन होता है, ये तत्पुरुष कहलाते हैं। | मयूरव्यंसकः। छात्रव्यंसक।

[२|२|१] पूर्वापराधरोत्तरमेकदेशिनैकाधिकरणे - पूर्व ( आगे का), अपर (पीछे का), अधर (नीचे का) और उत्तर (ऊपर का) - इन चार प्रातिपादिकों के सुबन्त का एकत्ववाचक अव्ययी के सुबन्त के साथ समास होता है। | पूर्व कायस्य (शरीर का अगला भाग) - इस विग्रह में सुबन्त पूर्व का अव्ययीवाचक सुबन्त कायस्य के साथ समास होकर पूर्वकायः रूप बनता है।

[२|२|२] अर्धं नपुंसकम् - नपुंसकलिङ्ग अर्ध (बराबर भाग) प्रातिपादिक के सुबन्त का एकत्वबोधक अव्ययीवाचक सुबन्त के साथ समास होता है। | अर्धं पिप्पल्याः (पीपल का आधा भाग)- इस विग्रह में नपुंसक सुबन्त अर्धम् का अवयवीवाचक सुबन्त पिप्पल्याः के साथ समास होकर अर्धपिप्पली रूप बनता है।एकवचनान्त कहने से यहाँ बहुत्वबोधक अर्धं पिप्पलीनाम् आदि में समास नहीं होता।

[२|२|३] द्वितीय-तृतीय-चतुर्थ-तुर्याण्यन्यतरस्याम् - द्वितीय, तृतीय चतुर्थ तथा तुर्य शब्दों का एकत्वसंख्याविशिष्ट अवयवी के साथ विकल्प से तत्पुरुष समास होता है। | द्वितीयां भिक्षायाः == द्वितीयभिक्षा। षष्ठीसमासपक्षे - भिक्षाद्वितीयम्। तृतीयं भिक्षायाः == तृतीयभिक्षा, भिक्षातृतीयम्। चतुर्थं भिक्षायाः == चतुर्थभिक्षा, भिक्षाचतुर्थम्। तुर्यं भिक्षायाः == तुर्यभिक्षा, भिक्षातुर्यम्।

[२|२|४] प्राप्ता पन्ने च द्वितीयया - सुबन्त प्राप्त और आपन्न का द्वितीयान्त सुबन्त के साथ समास होता है। | प्राप्तो जीविकाम् (जिसे जीविका मिल गई हो) इस विग्रह में सुबन्त प्राप्तः का द्वितीयान्त जीविकाम् से समास होकर प्राप्त जीविका रूप बनता है। यहाँ तत्पुरुष समास होने के कारण परवल्लिङ्गंद्वन्द्वतत्पुरुषयोः (२_४_२६) से पर-पद जीविका के समान समस्त पद से स्त्रीलिंग प्राप्त होता है, किन्तु पूर्व में प्राप्त होने के कारण पूर्वोक्त वार्तिक से उसका विषेध हो जाता है। तब विशेष्य के अनुसार लिङ्ग होकर प्राप्तजीविकः रूप सिद्ध होता है।

[२|२|५] कालाःपरिमाणिना - परिमाण विषिष्ट द्रव्यवाचक सुबन्त के साथ परिमाणवाचक काल शब्द का तत्पुरुष समास होता है। | मासो जातस्य == मासजातः। संवत्सर-जातः। द्व्यहजातः। त्र्यहजातः।

[२|२|६] नञ् - नञ् (निशेधार्थक न) का समर्थ सुबन्त के साथ समास होता है। | न ब्राह्मणः (ब्राह्मण से भिन्न) - इस विग्रह में नञ् का सुबन्त ब्राह्मणः के साथ समास होकर नञ् ब्राह्मण सु रूप बनने पर इत् ञकार और सुप्-सु का लोप हो न ब्राह्मण रूप बनेगा।

[२|२|७] ईषदकृता - कृदन्त-भिन्न सुबन्त के साथ ईषत् शब्द का तत्पुरुष समास होता है। | ईषच्चासौ कडारः == ईषत्कडारः। ईषत्पिङ्गलः । ईषद्विकटः। ईषदुन्नतः।

[२|२|८] षष्ठी - शष्ठयन्त सुबन्त का सुबन्त का सुबन्त के साथ समास होता है। | राज्ञः पुरुषः (राजा का आदमी) इस विग्रह में षष्ठयन्त राज्ञः का सुबन्त पुरुषः के साथ समास होकर राजपुरुषः रूप बनता है।

[२|२|९] याजकादिभिश्र्च याजक (पूजक, परिचारक, परिषेचक, स्नातक, अधापक, उत्सादक, उद्वर्थक, होतृ, पोतृ, भर्तृ, रथगणक, पत्तिगणक आदि) आदि शब्दों के साथ षष्ठयन्त का तत्पुरुष समास होता है। वस्तुओँ मेँ स्थित गुणोँ के साथ षष्ठयन्त शब्द का समास होता है। | ब्राहमणयाजकः ==> ब्राहमणस्य याजकः, चन्दनगन्धः== > चन्दनस्य गन्धः (गन्ध गुणवाची है)

[२|२|१०] न निर्धारणे - निर्धारण में विहित षष्ठी से युक्त पद का सुबन्त के साथ समास नहीं होता है। | मनुष्याणां क्षत्रियः शूरतमः (मनुष्य में क्षत्रिय शूरतम होते हैं। कृष्णा गवां सम्पन्न क्षीरतमा। धावन्नध्वगानां शीघ्रतमः।

[२|२|११] पूरणगुणसुहितार्थसदव्ययतव्यसमानाधिकरणेन - पूर्णार्थविहित प्रत्यय युक्त, गुणार्थक, तृप्त्यर्थक, सत् (शतृ तथा शानच् से युक्त), अव्यय, तव्य-प्रत्ययान्त एवम् समानाधिकरण शब्दों के साथ षष्ठयन्त का समास नहीं होता है | छात्राणां पञ्चमः (छात्रों में पाँचवाँ), छात्राणां दशमः। गुण - बलाकायाः शौक्ल्यम् (बगुले की सफेदी), काकस्य कार्ष्ण्यम्। सुहितार्थ - फलानां सुहितः, (फलों से तृप्त), फलानां तृप्तः। सद् ब्राह्मणस्य कुर्वन् (ब्राह्मण का कार्य करता हुआ), ब्राह्मणस्य कुर्वाणः।

[२|२|१२] क्तेन च पूजायाम् - मति-बुद्धि आदि सूत्र से विहित क्त प्रत्यय से युक्त शब्द के साथ षष्ठयन्त का तत्पुरुष समास नहीं होता है। | राज्ञां मतः (राजाओं का माना हुआ)। राज्ञां बुद्धः (राजाओं का जाना हुआ)।राज्ञां पूजितः (राजाओं का पूजित)।

[२|२|१३] अधिकरणवाचिना च - अधिकरणार्थक क्तप्रत्ययान्त के साथ भी षष्ठयन्त का तत्पुरुष समास नहीं होता है। | इदमेषां यातम् ( यह इनके जाने का रास्ता)। इदमेषाम् भुक्तम् (यह इनके भोजन का स्थान)।

[२|२|१४] कर्मणि च - ` उभयप्राप्तौ कर्मणॎ सूत्रविहित षष्ठयन्त का समर्थ सुबन्त के साथ तत्पुरुष समास नहीं होता है। | आश्चर्यो गवां दोहो अगोपालकेन (अगोपालक का दूध दुहना आश्चर्य का विषय है)। रोचते मे मोदकस्य भोजनं बालेन (मुझे बालक का लड्डू खाना पसंद है)। रोचते मे ओदनस्य भोजनं देवदत्तेन (मुझे देवदत्त का खाना खाना प्रिय है।

[२|२|१५] तृजकाभ्यां कर्तरि - कर्त्तृविहितषष्ठयन्त शब्द का तृच् प्रत्ययान्त तथा अकप्रत्ययान्त (=ण्वुलप्रत्ययान्त) शब्दों के साथ तत्पुरुष समास नहीं होता है। | पुरां भेत्ता (पुरों को तोड़नेवाला)। अपां स्त्रष्टा (जल को उत्पन्न करने वाला)। यवानां लावकः (जौ को काटनेवाला)। कूपस्य खनकः (कूएँ को खोदने वाला)।

[२|२|१६] कर्तरि च - कर्तृविहिततृजन्त तथा कर्तृविहितण्वुलप्रत्ययान्त के साथ षष्ठयन्त का समास नहीं होता है। | तव शायिका। मम जागरिका।

[२|२|१७] नित्यं क्रीडाजीविकयोः - क्रीड़ा तथा जीविका अर्थ में ण्वुल्-प्रत्ययान्त सुबन्त के साथ षष्ठयन्त का नित्य तत्पुरुष समास होता है। | उद्यालक-पुष्पभञ्जिका। वारणपुष्पप्रप्रचायिका। जीविकायम- दन्तलेखकः। नखले-खकः।

[२|२|१८] कु-गति-प्रादयः कु (अव्यय), गति-संज्ञक और प्रादि(आदि में उपसर्ग) का समर्थ सुबन्त के साथ नित्य समास होता है व तत्पुरुषसंज्ञक होता है। | कुत्सितः पुरुषः (बुरा आदमी) - इस विग्रह में अव्यय शब्द कु का सुबन्त पुरुषः के साथ समास हो कुपुरुष रूप बनता है।

[२|२|१९] उपपद-मतिङ् - उपपद का समर्थ के साथ नित्य समास होता है और यह समास अतिङन्त होता है अर्थात समास का उत्तरपद तिङन्त नही होता। | कुम्भं करोति ( वह जो घड़ा बनाता है) इस विग्रह में द्वितीयान्त कुम्भपूर्वक कृ धातु से कर्मण्यण् (३_२_१) से अण् प्रत्यय आदि होकर कुम्भ अम् कार रूप बनता है।यहाँ कुम्भं कर्मपद है, अतः उपपद होने के कारण प्रकृत सूत्र से कार के साथ उसका समास हो कुम्भकारः रूप बनता है।

[२|२|२०] अमैवाव्ययेन - अव्यय के साथ यदि अतिङन्त उपपद का समास हो तो केवल अमन्त अव्यय के साथ हो। | स्वादुङ्कारं भुङ्कते। सम्पन्नङ्कारं भुङ्क्ते। लवणञ्जारं भुङ्कते।

[२|२|२१] तृतीया-प्रभृतीन्यन्यतरस्याम् - उपदंशस्तृतीयायाम् सूत्र से लेकर जितने भी उपपद है उनका समास केवल अमन्त अव्यय के साथ ही विकल्प से होता है। | मूलकोपदंशं भुङ्कते (मूली को दाँत से काटकर खाता है) मूलकेन उपदंशम्। उच्चैः कारम् आचष्टे (दुख की बात को भी ऊँचे स्वर से कहता है), उच्चैः कारम्। यष्टिग्रामम् (लाठी लेकर), यष्टिं ग्राहम।

[२|२|२२] क्त्वा च - क्त्वाप्रत्यन्त के साथ तृतीया प्रभृति उपपदों का विकल्प से तत्पुरुष समास होता है। | उच्चैः कृत्य (ऊँचा करके), उच्चैः कृत्वा।

[२|२|२३] शेषो बहुव्रीहिः - अव्ययीभाव और तत्पुरुष से भिन्न समास को बहुव्रीहि कहते हैं। | इस सूत्र का अधिकार यहाँ से लेकर तेन सहेति तुल्ययोगे (२_२_२८) तक है।

[२|२|२४] अनेक-मन्यपदार्थे - अन्य पद के अर्थ में वर्तमान अनेक समर्थ सुबन्तों का परस्पर समास होता है। | पीताम्बरः समास में दो पद हैं-पीत और अम्बर। इन दोनों का निजी अर्थ है-पीला वस्त्र। किन्तु यहाँ पीताम्बरः से पीले वस्त्र का अभिप्राय नहीं है। इसका प्रयोग तो वास्तव में श्री कृष्ण के अर्थ में हुआ है जिनका वस्त्र पीला रहता था।

[२|२|२५] संख्ययाव्ययासन्नादूराधिकसंख्याःसंख्येये - संख्येयार्थक संख्या-वाचक पदों के साथ अव्यय, आसन्न, अदूर, अधिक तथा संख्यावाचक शब्दों का बहुब्रीहि समास होता है। | उपदशाः। उपविंशाः। आसन्नदशाः। आसनविंशा। अदूरदशाः। अदूरविंशा। अधिकदशाः। अधिकविंशा।संख्या - द्वित्राः, त्रिचतुराः द्विदशाः।

[२|२|२६] दिड़्नामान्यन्तराले - अन्तराल (दिङमध्य) के वाच्य होने पर दिग्वाचक सुबन्तों का परस्पर बहुब्रीहि समास होता है। | दक्षिणस्याश्च पूर्वस्याश्च दिशोर्यदन्तरालं सा दक्षिणपूर्वा दिक्। पूर्वोत्तरा। उत्तरपश्चिमा, पश्चिमदक्षिणा।

[२|२|२७] तत्रतेनेदमितिसरुपे - समान स्वरूपवाले सप्तम्यन्त पदों में और समान स्वरूपवाले तृतीयान्त पदों पर परस्पर बहुब्रीहि समास होता है ` इदम् ` के अर्थ में। | केशाकेशि (एक-दूसरे के केशों को पकड़-पकड़कर जो युद्ध हो वह युद्ध)।कचाकचि दण्डादण्डि (दोनों ओर से डण्डो से जो युद्ध हो वह युद्ध)।

[२|२|२८] तेन सहेति तुल्ययोगे - तुल्ययोग में वर्तमान `सहऄ शब्द का तृतीयान्त सुबन्त के साथ बहुत्रीहि समास होता है। | सुपुत्रः (पुत्र के साथ)। सच्छात्रः (छात्र के साथ। सकर्मकर (नौकर के साथ)

[२|२|२९] चार्थे द्वन्द्वः - च अर्थ में वर्तमान अनेक सुबन्तों का परस्पर समास होता है। | ईश्वरं गुरुं च भजस्व (ईश्वर और गुरु की सेवा करो)- इस वाक्य में ईश्वर गुरु रूप पदार्थ परस्पर निरपेक्ष हैं, वे एक दूसरे की अपेक्षा नही करते। यहाँ दोनो का स्वतन्त्र रूप से भजन क्रियारूप एक पदार्थ में अन्वय होता है। अतः यहाँ च का अर्थ है-समुच्चय।

[२|२|३०] उपसर्जनं पूर्वम्| - समास में उपसर्जन का प्रयोग पहिले होता है। हरि ङि अधि में अधि उपसर्जन है, अतः प्रकृत सूत्र से उसका प्रयोग पहिले होने पर अधि हरि ङि रूप बनता है। यहाँ प्रातिपादिक होने पर रुप्-लोप हो अधि हरि रूप बनने पर अव्ययीभाव होने के कारण प्राप्त सु का लोप होकर अधिहरि रूप सिद्ध होता है।

[२|२|३१] राजदन्तादिषुपरम् राजदन्त गण मेँ पठित शब्दों में उपसर्जन का पर-प्रयोग होता है। | दन्तानां राजा (दांतो का राजा) - इस विग्रह में षष्ठी (२_२_८) से समास होता है।यहाँ शष्ठ्यन्त दन्तानां के उपसर्जन होने से उपसर्जनं पूर्वम् (२_२_३०) से पूर्व-प्रयोग प्राप्त होता है, किन्तु राज्दन्तादिगण में होने के कारण प्रकृत सूत्र से उसका बाध हो परप्रयोग होकर राज्दन्तः रूप बनता है।

[२|२|३२] द्वन्द्वेघि - द्वन्द्व समास में घि-संज्ञक का प्रयोग पहिले (पूर्व) होता है। | हरिश्च हरश्च (हरि और हर) - इस विग्रह में द्वन्द्व समास होने पर घिसंज्ञक - हरि का पूर्व-प्रयोग हो हरिहरौ रूप बनता है।

[२|२|३३] अजाद्यदन्तम् द्वन्द्व समास में अजादि- अकारान्त (जिस पद के आदि में कोई स्वर-वर्ण और अन्त में आकार हो) का पहले प्रयोग होता है। | ईशश्च कृष्णश्च (ईश और कृष्ण)- इस विग्रह में ईशः पर अजादि है और उसके अन्त में अकार भी आया है। अतः द्वन्द्व समास होने पर प्रकृत सूत्र से ईशः का पूर्व-प्रयोग हो ईशकृष्णौ रूप बनता है।

[२|२|३४] अल्पाच्तरम् - द्वन्द्व समास में अल्प अच् (स्वर-वर्ण) वाले का पहिले प्रयोग होता है। | शिवश्च केशवश्च (शिव और केशव) - इस विग्रह में शिवः पद में दो अच् और केशवः पद में तीन अच् हैं। अतः द्वन्द्व समास होने पर प्रकृत सूत्र से कम अच् वाले पद शिवः का पूर्व-प्रयोग हो शिवकेशवौ रूप बनता है।

[२|२|३५] सप्तमीविशेषणे बहुव्रीहौ - बहुव्रीहि समास में सप्तभ्यन्त और विशेषण का पहिले (पूर्व) प्रयोग होता है। | प्राप्त मुदकं ग्रामम् (ऐसा गाँव जहाँ पानी पहुँच चुका हो) - इस विग्रह में प्राप्तम् और उदकम् दोनों ही प्रथमान्त हैं, अतः उपसर्जन-संज्ञक होने से उपसर्जनं पूर्वम् (२_२_३०) से दोनो का ही पूर्व-प्रयोग प्राप्त होता है। किन्तु प्रकृत सूत्र से उसका बाध हो विशेषणवाचक पद प्राप्तम् का पहले प्रयोग होता है।

[२|२|३६] निष्ठा - बहुव्रीहि समास में निष्ठान्त (जिसके अन्त में क्त या क्तवतु प्रत्यय हो) का प्रयोग पहिले (पूर्व) होता है। | युक्तो योगो येन यस्य वा - इस विग्रह में बहुव्रीहि समास प्राप्त होने पर प्रकृत सूत्र से क्त -प्रत्यान्त युक्तः का पूर्व-प्रयोग हो युक्तयोगः (योगी) रूप बनता है।

[२|२|३७] वाऽऽहिताग्न्यादिषु आहिताग्न्यादि गण मेँ पठित शब्दों के प्रसंग में निष्ठान्त (निष्ठा प्रत्यान्त) शब्दों का विकल्प से पूर्व निपात होता है तथा पक्ष में पर निपात होता है। | पुत्रजातः मेँ "जात" का पर निपात, जातदन्तः मेँ "दन्तः" का पर निपात

[२|२|३८] कडाराःकर्मधारये `कडारऄ आदि शब्दों का कर्मधारय समास में विकल्प से पूर्व-प्रयोग होता है। | कडारश्चासौ जैमनिश्च कडारजैमिनिः, जैमिनिकडारः।

[२|३|१] अनभिहिते - यहाँ से उत्तर निर्दिश्यमान सूत्रों में ` अनिभिहिते ` ( अनुक्त होने पर) का अधिकार जाता है। | कटं करोति। ग्रामं गच्छति। "कटम्, ग्रामम्" इत्यत्रानभिहितत्वात् कर्मणि द्वितीया।

[२|३|२] कर्मणि द्वितिया - अनभिहित कर्म में द्वितिया विभक्ति होती है। | हरिः सेव्यते (हरि की सेवा की जाती है) में सेव्यते क्रिया कर्मवाच्य की है। अतः कर्म हरि से उक्त होने के कारण उसमें द्वितिया विभक्ति नहीं हुई है। तब प्रातिपादिकार्थ मात्र में प्रथमा विभक्ति हो हरिः रूप सिद्ध होता है।

[२|३|३] तृतीया च होश्छन्दसि - वेद में `हू ` धातु के कर्म से तृतीया भी होती है और द्वितीया भी। | यवाग्वा अग्निहोत्रंजुहोति, यवागूम् अग्निहोत्रं जुहोति।

[२|३|४] अन्तरान्तरेण युक्ते - अन्तरा तथा अन्तरेण के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। | त्वां मां च अन्तरा हरिः अस्ति (तुम्हारे और मेरे बीच में हरि है), अन्तरेण हरिं सुखं नास्ति (हरि के बिना सुख नही)

[२|३|५] कालाध्वनोरत्यन्त संयोगे - कालवाचक तथा मार्गवाचक शब्दों से द्वितीया विभक्ति होती है यदि अत्यन्त संयोग की प्रतीति होने पर तृतीया विभक्ति होती है। | मासम् अधीतोऽनुवाकः (महीने भर अनुवाक पढ़ा)। मासं कल्याणी (मासंभर सुखदायी)। मासं गुडधानाः (मासभर गुड़धानी)। अध्वा क्रोशमधीते (कोसभर पढ़ता है)। क्रोशं कुटिला नदी (कोस भर तक नदी टेढ़ीहै)।

[२|३|६] अपवर्गे तृतीया - फलप्राप्ति के बाद क्रिया की समाप्ति के गम्यमान होने पर कालवाचक तथा अध्क्वाचक शब्दों से अत्यन्त संयोग की प्रतीति होती है। | मासेनानुवाकोऽधीतः (मासभर में अनुवाक पढ़ लिया, और उसे याद भी कर लिया), संवत्सरेणानुवाकोऽधीतः। अध्वा का - क्रोशेनानुवाकोऽधीतः, योजनेनाकुऽधीतः का अर्थ यह होगा कि मासभर में अनुवाक पढ़ा और वह अच्छी प्रकार याद भी हो गया। सो याद हो जाना अपवर्ग हुआ। अनुवाक, अष्टकादि वेद में कुछ मन्त्रों के गणन का नाम है।

[२|३|७] सप्तमी पञ्चम्यौ-कारक-मध्ये - दो कारकों के मध्य में वर्तमान कालवाचक तथा अध्ववाचक शब्दों से सप्तमी तथा पञ्चमी होती है। | अद्य देवदत्तो भुक्त्वा द्व्यहे भोक्ता (आज देवदत्त खाकर दो दिन के पश्चात खायेगा)। अद्य देवदत्तो भुक्त्वा द्व्यहाद् भोक्ता। एवं त्र्यहे त्र्यहाद् या भोक्ता। अध्वा का - इहस्थोऽयमिष्वासः क्रोशे लक्ष्यं विध्यति ( यहाँ पर स्थित यह बाण चलाने वाला कोस भर पर लक्ष्य को बींधता है)

[२|३|८] कर्मप्रवचनीययुक्ते द्वितीया - कर्मप्रवचनीय से युक्त शब्दों से द्वितीया विभक्ति होती है। | लक्ष्मणः रामं अनुगच्छति (लक्ष्मण राम के पीछे पीछे जाते हैं।)

[२|३|९] यस्मादधिकं यस्य चेश्र्वरवचनं तत्र सप्तमी - कर्मप्रवचनीय से युक्त होने पर जिससे अधिक और जिसका सामार्थ्य बतलाया जाय उससे सप्तमी विभक्ति होती है। | उपखार्य्यां द्रोणः (खारी से अधिक द्रोण), उपनिष्के कार्षापणम्। अधि ब्रह्मदत्ते पञ्चालाः, अधि पञ्चालेषु ब्रह्मदत्तः।

[२|३|१०] पञ्चम्यपाड़् परिभिः - अप, आङ् तथा परि, इन तीन कर्मप्रवचनीयों के योग में पञ्चमी विभक्ति होती है। | अप त्रिगर्तेभ्यो वृष्टो देवः। आ पाटलिपुत्राद् वृष्टो देवः। परि त्रिगर्तेभ्यो वृष्टो देवः।

[२|३|११] प्रतिनिधि-प्रतिदाने च यस्मात् - कर्मप्रवचनीय से युक्त होने पर जिससे प्रतिनिधित्व हो तथा जिससे प्रतिदान हो उससे पञ्चमी विभक्ति होती है। | अभिमन्युरर्जुनतः प्रति, प्रद्युम्नो वासुदेवतः प्रति प्रतिदाने - तिलेभ्यः प्रति माषान् अस्मै यच्छति।

[२|३|१२] गत्यर्थ-कर्मणि द्वितीया चतुर्थ्यौ चेष्टायामनध्वनि - चेष्टा जिनकी क्रिया हो ऐसे गत्यर्थक धातुओं के मार्ग-भिन्न कर्मकारक से द्वितिया तथा चतुर्थी विभक्तियाँ होती हैं। | ग्रामं व्रजति ग्रामाय व्रजति। ग्रामं गच्छति, ग्रामाय गच्छति।

[२|३|१३] चतुर्थीसंप्रदाने - संप्रदान में चतुर्थी विभक्ति होती है। | विप्राय गां ददाति में विप्र के सम्प्रदान संज्ञक होने केकारण प्रकृत सूत्र से उसमें चतुर्थी विभक्ति हुई है।

[२|३|१४] क्रियार्थोपपदस्यचकर्मणिस्थानिन - एक क्रियार्थक अन्य क्रिया हो उपपद में जिसके ऐसे अप्रयुज्यमान धातु के अनिभिहित कर्म से चतुर्थी विभक्तियाँ होती हैं। | एदेभ्यो व्रजति (ईधन को लेने के लिये जाता है)। पुष्पेभ्यो व्रजति। वृकेभ्यो व्रजति (भेड़ियों को मारने के लिये जाता है)

[२|३|१५] तुमर्थाच्च भाववचनात् - तुमुन-प्रत्ययसमानार्थक प्रत्यय से युक्त भाववचन प्रातिपादिक से चतुर्थी विभक्ति हेती है। | पाकाय व्रजति। त्यागाय व्रजति, सम्पत्तये व्रजति। इष्टये व्रजति।

[२|३|१६] नमःस्वस्तिस्वाहास्वधाऽलंवषड् योगाच्च - नमः, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा, अलम् (पर्याप्त, समर्थ) और वषट्- इन छः अव्ययों के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। तात्पर्य यह है कि जिन शब्दों से इन अव्ययों का योग होता है, उनमें चतुर्थी विभक्ति होती है। | हरये नमः - यहाँ हरि में चतुर्थी विभक्ति हुई है। (२) प्राजभ्यः स्वस्ति (प्रजा का कल्याण हो) - यहाँ प्रजा में चतुर्थी हुई है।

[२|३|१७] मन्यकर्मण्यनादरेविभाषाऽप्राणिषु - अनादर के प्रतीयमान होने पर `मनऄ धातु के प्राणिभिन्न कर्म से विकल्प से चतुर्थी विभक्ति होती है। | न त्वा तृणं मन्ये (मैं तुमको तिनके के बराबर भी नहीं समझता)। त त्वा तृणाय मन्ये। न त्वा बसुं मन्ये ( मैं तुमको बुस के बराबर भी नहीं समझता), न त्वा बुसाय मन्ये।

[२|३|१८] कर्तृकरणयोस्तृतीया - अनभिहित ( अनुक्त) कर्ता और करण में तृतीया विभक्ति होती है। | रामेण बाणेन हतो बाली में करण बाण में तृतीया विभक्ति हुई है। कर्मवाच्य में होने से यहाँ कर्ता राम में भी प्रकृत सूत्र से तृतीया विभक्ति हुई है।

[२|३|१९] सहयुक्तेऽप्रधाने - सहार्थक के साथ युक्त अप्रधान से तृतीया विभक्ति होती है। | पुत्रेण सह आगताः पिता (पुत्र के साथ पिता आया)। पुत्रेण सह स्थूलः (पुत्र के साथ मोटा)। पुत्रेण सह गोमान् (पुत्र के साथ गोमान्। पुत्रेण सार्द्धम् (पुत्र के साथ)।

[२|३|२०] येनाङ्गविकारः - जिस विकृत अङ से अङी का विकार लक्षित हो उससे तृतीया विभक्ति होती है। | अक्ष्णा काणः (आँख से काणा)। पादेन खञ्जः (पैर से लंगड़ा)। पाणिना कुण्ठः (हाथ से लुज्जा)।

[२|३|२१] इत्थंभूतलक्षणे - इत्थम्भूत के लक्षण से तृतीया होती है। | अपि भवान कमण्डलुना छात्रमद्राक्षीत्। अपि भवान् मेखलया ब्रह्मचारिण-मद्राक्षीत् (क्या आपने कमण्डलु लिये हुए चात्र को देखा)।

[२|३|२२] संज्ञोऽन्यतरस्यांकर्मणि सम्- पूर्वक ज्ञा धातु के कर्मकारक से द्वितीया के स्थान में विकल्प से तृतीया विभक्ति होती है। | मात्रा संजानीते बालः (बालक माता को पहचानता है), मातरं सञ्जानीते। पित्रा संजानीते, पितरं संजानीते।

[२|३|२३] हेतौ - हेतुवाचक से तृतीया होती है। | विद्या + टा =(७_३_१०५)= विद्ये + आ =(६_१_७५)= विद्यया। इसी प्रकार सत्सङ्गेन, धनेन।

[२|३|२४] अकर्तर्यृणे पञ्चमी - कर्त्तृभिन्न ऋण-वाचक शब्द से पञ्चमी होती है। | शताद् बद्धः (सौ रुपये के ऋण से बँध गया, अर्थात् मालिक ने उसे नौकर बना लिया) सहस्त्राद् बद्धः।

[२|३|२५] विभाषा गुणेऽस्त्रियाम् - गणस्वरूप स्त्रीलिङ्गभिन्न हेतुवाचक शब्द से विकल्प से पञ्चमी विभक्ति होती है। | जाड्याद् बद्धः (मूर्खता से बन्धन में फँस गया) जाड्येन बद्धः । पाण्डित्यान् मुक्तः (पाण्डित्य के कारण मुक्त हो गया) पाण्डित्येन मुक्तः। जाड्य अथवा पाण्डित्य नपुंसकलिंग में वर्तमान गुणवाची शब्द हैं, तथा बन्धन वा मुक्त होने के हेतु हैं, सो पञ्चमी विभक्ति हो गई। जो (२_३_२३) से प्राप्त थी पञ्चमी विकल्प से कर दी। अतः पञ्चमी होने के पश्चात् पक्ष में प्राप्त तृतीया भी हो गई।

[२|३|२६] षष्ठी हेतुप्रयोगे - हेतु शब्द के प्रयोग के द्वारा हेतु के द्योत्य होने पर षष्ठी विभक्ति होती है। | अन्नस्य हेतोर्धनिकुले वसति (अन्न के कारण से धनवान् के कुल में वास करता है) अन्न हेतु है, सो उसमें षष्ठी हो गई है।

[२|३|२७] सर्वनाम्नस्तृतीया च - हेतु शब्द के प्रयोग के द्वारा हेतु के द्योत्य होने पर सर्वनाम शब्दों से तृतीया तथा षष्ठी विभक्तियाँ होती है। | कस्य हेतोर्वसति (किस हेतु में बसता है), केन हेतुना वसति। यस्य हेतोर्वसति (जिस हेतु में बसता है), येन हेतुना वसति।

[२|३|२८] अपादानेपंचमी - अपादान में पञ्चमी होती है। | ग्रामाद् आयाति में ग्राम अपादान-संज्ञक है, अतः प्रकृत सूत्र से उसमें पंचमी विभक्ति हुई है। इसी प्रकार धावतोऽश्वात् पतति (दौड़ते हुए घोड़े से वह गिरता है) में अश्व के अपादान-संज्ञक होने से उसमें पंचमी विभक्ति हुई है।

[२|३|२९] अन्यारादितरर्तेदिक्छब्दाञ्चूत्तरपदाजाहियुक्ते - अन्यार्थक , आरात्, इतर, ऋते, दिग्वाचक शब्द, अञ्चूत्तर पद, आच्, तथा आहि के योग में पञ्चमी विभक्ति होती है। | अन्यो देवदत्तात्, भिन्नो देवदत्तात् (देवदत्त से भिन्न, अर्थान्तरं देवदत्तात्। आरात् देवदत्तात् (देवदत्त से दूर या समीप)। आरात् यज्ञदत्तात्। इतरो देवदत्तात् (देवदत्त से इतर = भिन्न)। ऋते यज्ञदत्तात् (यज्ञदत्त के बिना)।पूर्वो ग्रामात् पर्वतः (ग्राम से पूर्व पर्वत), उत्तरो ग्रामात्।प्र, प्रति पूर्वक अञ्चु धातु से (३_१_५९) से "क्विन्" प्रत्यय होकर (५_३_२७) से अस्ताति, तथा (५_३_३०) से उसका लुक् होकर "प्राक्" और "प्रत्यक्" शब्द बने हैं (५_३_३६) तथा (५_३_३८) से "आच्" प्रत्यय हुआ है। (५_३_३७) से दक्षणाहि आदि में आहि प्रत्यय हुआ है।

[२|३|३०] षष्ठयतसर्थप्रत्ययेन - अतसुत् तथा इसके अर्थ में विहित प्रत्ययों से युक्त शब्द से युक्त से षष्ठी विभक्ति होती है। | दक्षिणतो ग्रामस्य (ग्राम के दक्षिण में)। उत्तरतो ग्रामस्य। पुरो ग्रामस्य (ग्राम के पूर्व में)॥ पुरस्तात् ग्रामस्य। उपरि ग्रामस्य (ग्राम के ऊपर)। उपरिष्टात् ग्रामस्य।दक्षिणतः, उत्तरतः में (५_३_२८) से "अतसुच्" प्रत्यय हुआ है। पुरः में (५_३_३९) से पूर्व को "पुर्" आदेश, तथा "असि" प्रत्यय अतसर्थ में हुआ है। (५_३_२७) से ऊर्ध्व को उपभाव तथा रिल् रिष्टातिल् प्रत्यय उपरि उपरिष्टात् में हुए हैं। इन सब के योग में षष्ठी हो गई है।

[२|३|३१] एनपा द्वितीया - एनप् प्रत्यान्त से युक्त शब्द से द्वितीया होती है। | दक्षिणेन ग्रामम् (ग्राम से दक्षिण)। उत्तरेण ग्रामम्।

[२|३|३२] पृथक्-विना-नानाभिस्तृतीयाऽन्यतरस्याम् - प्रथक्, बिना तथा नाना-इन शब्दों के योग में तृतीया तथा पञ्चमी विभक्तियाँ होती हैं। | प्रिठक् ग्रामेण (ग्राम से पृथक्), पृथक् ग्रामात्। विना घृतेन (विना धी के), विना घृतात्। नाना देवदत्तेन (देवदत्त से भिन्न), नाना देवदत्तात्।

[२|३|३३] करणे च स्तोकाल्प-कृच्छ्र्कतिपयस्यासक्त्ववचनस्य - असत्त्ववाची स्तोक, अल्प, कृच्छ्र तथा कतिपय शब्दों से योग में षष्थी तथा पञ्चमी विभक्तियाँ होती है। | स्तोकान् + मुक्तः == स्तोकेन मुक्तः।अल्पान् + मुक्तः == अल्पेन मुक्तः। कृच्छ्रान् + मुक्तः == कृच्छ्रेण मुक्तः। कतिपयान् + मुक्तः (कुछ से छूट गया), == कतिपयेन मुक्तः। करण के कारण (२_३_१८) से ही प्राप्त थी।यहाँ पञ्चमी का विधान है। स्तोकान् आदि में "त्" को "न्" (८_४_४४) से हुआ है।

[२|३|३४] दूरान्तिकार्थैःषष्ठयन्यतरस्याम् - दूरार्थक तथा आन्तिकार्थक (समीपार्थक) शब्दों के योग में षष्ठी तथा पञ्चमी विभक्तियाँ होती है। | ग्रामाद् दूरम्। - ग्रामस्य दूरम् । ग्रामाद् अन्तिकम् - ग्रामस्य अन्तिकम् ।

[२|३|३५] दूरान्तिकार्थेभ्यो द्वितीया च - दूरार्थक तथा आन्तिकार्थक शब्दों से द्वितिया, तृतीया तथा पञ्चमी विभक्तियाँ होती हैं। | दूरं ग्रामस्य, दूरस्य ग्रामस्य, दूराद् ग्रामस्य। विप्रकृष्टं, विप्रकृष्टस्य, विप्रकृष्टाद् वा ग्रामस्य। अन्तिकाम्, अन्तिकस्य, अन्तिकाद् वा ग्रामस्य। समीपं समीपस्य समीपाद् वा ग्रामस्य।

[२|३|३६] सप्तम्यधिकरणे च - अधिकरण में सप्तमी विभक्ति होती है और दूर तथा अन्तिक (नज्दीक, पास) अर्थवाचक शब्दों में भी)। | कटे आस्ते में कट अधिकरण है। अतः प्रकृत सूत्र से उसमें सप्तमी विभक्ति हुई है।

[२|३|३७] यस्यचभावेनभावलक्षणम् - जिसकी एक क्रिया से दूसरी क्रिया लक्षित हो उस क्रियावान् से सप्तमी होती है। | गोषुदुह्ममानासु गतः (गौओं के दोहनकाल में गया था)। दुग्धासु आगतः (देहनकाल के पश्चात् आ गया)। अग्निषु हूयमानेषु गतः (यज्ञकाल में गया था)। जैसे गौ की दोहनक्रिया से गमनक्रिया (जाना) लक्षित की जा रही है, अतः उसमें सप्तमी हो गई है। इसी प्रकार अन्य उदाहरणों में भी समझें।

[२|३|३८] षष्ठी चानादरे - परन्तु, अनादर की प्रतीति होने पर जिसकी एक क्रिया से दूसरी क्रिया लक्षित होती हो उस क्रियावान् से षष्ठी और सप्तमी विभक्तियाँ विकल्प से होती हैं। | रुदतः + प्रव्राजीत् (रोते हुए को छोड़कर बिना परवाह किये परिव्राजक बन गया)== रुदति प्राव्राजीत्। क्रोशतः + प्राव्राजीत् (क्रोध करते हुये को छोड़कर परिव्राजक बन गया) == क्रोशति प्राव्राजीत्। रुदन तथा क्रोशन क्रिया से क्रियान्तर (उसका जाना) लक्षित हो रहा है। तथा अनादर भी प्रकट हो रहा है, सो षष्ठी, सप्तमी विभक्ति हो गई।

[२|३|३९] स्वामीश्र्वराधिपति-दायाद-साक्षिप्रतिभू-प्रसूतैश्र्च - स्वामिन्, ईश्वर, अधिपति, दायद, सक्षिन्, प्रतिभू, प्रसूत - इन शब्दों के योग में षष्ठी और सप्तमी विभक्तियाँ विकल्प से होती हैं। | गवां + स्वामी (गौओं का स्वामी)== गोषु स्वामी। गवाम् + ईश्वरः (गौओं का मालिक) == गोषु ईश्वर। गवाम् + अधिपतिः (गौओं का मालिक) == गोषु अधिपतिः आदि।

[२|३|४०] आयुक्त-कुशलाभ्यां चासेवायाम् - तात्पर्य के गम्यमान होने पर आयुक्त (नियुक्त) तथा कुशल शब्दों के योग में षष्ठी तथा सप्तमी विभक्तियाँ विकल्प से होती हैं। | आयुक्तः कटकरणस्य (चटाई बनाने में होशियार है)==आयुक्त कटकरणे। कुशलः कटकरणस्य (चटाई बनाने में होशियार है) == कुशलः कटकरणे।

[२|३|४१] यतश्र्च निर्धारणम् - जहाँ से निर्धारण हो उससे सप्तमी तथा षष्ठी विभक्तियाँ विकल्प से होती हैं। | मनुष्याणां क्षत्रियः शूरतमः, मनुष्येषु क्षत्रियः शूरतमः। गवां कृष्णा सम्पन्नक्षीरतमा, गोषु कृष्णा सम्पन्नक्षीरतमा। अध्वगानां धावन्तः शीघ्रतमाः, अध्वगेषु, धावन्तः शीघ्रतमाः।

[२|३|४२] पञ्चमी विभक्ते - जिस निर्धारणश्रय में विभाग हो उससे पञ्चमी विभक्ति होती है। | माथुरा पाटलिपुत्रकेभ्यः सुकुमारतराः (मथुरा के लोग पटना वालों से अधिक सुकुमार हैं)। पाटलिपुत्रकेभ्य आढ़्यतराः।

[२|३|४३] साधु-निपुणाभ्यामर्चायां सप्तम्यप्रतेः - अर्चना(पूजा) के गम्यमान होने पर साधु तथा निपुण शब्दों के योग में सप्तमी विभक्ति होती है यदि `प्रतॎ का प्रयोग न हुआ हो। | मातरि साधुः (माता के प्रति साधु है), पितरि साधुः। मातरि निपुणः (माता के प्रति कुशलः), पितरि निपुणः।

[२|३|४४] प्रसितोत्सुकाभ्यां तृतीया च - प्रसित तथा उत्सुक शब्दों के योग में तृतीया तथा सप्तमी विभक्तियाँ विकल्प से होती है। | केशैः प्रसितः (केशों को सम्हालने में लगा रहने वाला), केशेषु प्रसितः। केशैरुत्सुकः (केशों के लिये उत्सुक), केशेषूत्सुकः।

[२|३|४५] नक्षत्रे च लुपि - लुबन्त नक्षत्रवाचक शब्दों से तृतीया तथा सप्तमी विभक्तियाँ विकल्प से होती हैं। | पुष्येण पायसमश्नीयात् (पुरुष नक्षत्र से युक्त काल में खीर खावे), पुष्ये पायसमश्नीयात्। "पुष्य" शब्द से (४_२_३) से "अण्" प्रत्यय होकर (४_२_४) से उस "अण्" का लोप हो गया है। अतः यह लुबन्त नक्षत्रवाची शब्द है, सो तृतीया और सप्तमी हो गई।

[२|३|४६] प्रातिपदिकार्थ-लिङ्ग-परिमाणवचनमात्रे प्रथमा - प्रातिपदिकार्थ (व्यक्ति और जाति) मात्र, लिंग मात्र परिमाण (वजन) मात्र और वचनमात्र में प्रथमा विभक्ति होती है। | प्रातिपदिकार्थमात्रे - उच्चैः, नीचैः। लिङ्गमात्रे- कुमारी, वृक्षः, कुण्डम्। परिमाणमात्रे - द्रोणः खारी, आढकम् वचनमात्रे- एकः, द्वौ, बहवः।

[२|३|४७] सम्बोधने च - सम्बोधन अर्थ में भी प्रथमा विभक्ति होती है। | हे राम में सम्बोधन अर्थ में राम से प्रथमा विभक्ति हुई है।

[२|३|४८] सामन्त्रितम् - सम्बोधन विहित प्रथमान्त शब्दस्वरूप की ` आमन्त्रितऄ संज्ञा होती है। | अग्ने॑।

[२|३|४९] एकवचनं संबुद्धि सम्बोधन में प्रथमा का एकवचन सम्बुद्धि-संज्ञक हो। | अग्ने। वायो। देवदत्त।

[२|३|५०] षष्ठी शेषे - प्रातिपादिकार्थ आदि उक्त सम्बन्धों को छोड़कर जन्य-जनक आदि अन्य सम्बन्धों में षष्ठी विभक्ति होती है। | राज्ञः पुरुषः (राजा का आदमी) में स्वामी भृत्य सम्बन्ध होने के कारण राजन् में षष्ठी विभक्ति हुई है।

[२|३|५१] ज्ञोऽविदर्थस्य करणे - अज्ञानार्थक `ज्ञा` धातु के करण कारक से षष्ठी होती है। | सर्पिषो जानीते। मधुनो जानीते

[२|३|५२] अधीगर्थ-दयेशां कर्मणि - स्मरणार्थक धातु `दयऄ धातु तथा ` ईश् ` धातु के कर्मकारक की यदि शेषत्वेन विवक्षा हो तो उससे भी षष्ठी विभक्ति होती है। | मातुरध्येति (माता का स्मरण करता है), मातुः स्मरति। सर्पिषो दयते (घी देता है)। सर्पिष ईष्टे (घी पर अधिकार करता है)।

[२|३|५३] कृञः प्रतियत्ने - गुणाधान के प्रतीत होने पर `कृञ् ` धातु के शेष के रूप में विविक्षित कर्म कारक से षष्ठी होती है। | एधोदकस्य उपस्कुरुते (ईंधन जल के गुण को बदलता है)

[२|३|५४] रुजार्थानां भाव-वचनानामज्वरेः - भाववाचक घञादिप्रत्ययान्त शब्द हों कर्त्ता जिनके ऐसे `ज्वरऄ-धातुभिन्न रोगार्थक धातुओं के कर्म कारक से, शेषत्व की विविक्षा में, षष्ठी विभक्ति होती है। | चौरस्य रुजति रोगः (रोग चोर को कष्ट देता है)। चौरस्य आमयति आमयः। यहाँ भाववचन का अर्थ भावकर्तृक है। भाव का अर्थ हुआ धात्वर्थ तथा वचन का तात्पर्य कर्ता से है। सो "रुज्" धातु का कष्ट भोगना जो धात्वर्थ है, वह घञप्रत्ययान्त "रोग" शब्द से कहा जा रहा है, तथा रोग शब्द रोजाति का कर्त्ता है, अतः चौर कर्म में षष्ठी हो गई है।

[२|३|५५] आशिषि नाथः - आशीरर्थक `नाथ् ` धातु के कर्मकारक से, शेषत्व की विविक्षा होने पर षष्ठी विभक्ति होती है। | सर्पिषो नाथते (घी की इच्छा करता है) मधुनो नाथते (शहद की इच्छा करता है)॥

[२|३|५६] जासि-निप्रहण-नाट-क्राथ-पिषां हिंसायाम् - हिंसार्थक `जासॎ, नि-प्र-पूर्वक `हन् ` `नाटॎ, `क्राथॎ तथा `पिष् ` धातुओं के कर्मकारक से शेषत्व की विविक्षा में , षष्ठी होती है। | चौरस्य उज्जासयति (चोर को मारता है), दुष्टस्य निप्रहन्ति (दुष्ट को मारता है), वृषलस्य निहन्ति (नीच को मारता है)।

[२|३|५७] व्यवहृ-पणोः समर्थयोः - समानार्थक वि- अवपूर्वक `हृ` धातु तथा `पणऄ धातु के कर्मकारक के शेष की विविक्षा मे षष्ठी होती है। | शतस्य व्यवहरति (सौ रुपये व्यवहार में लाता है), सहस्त्रस्य व्यवहरति। शतस्य पणते (सौ रुपये व्यवहार में लाता है), सहस्त्रस्य पणते।

[२|३|५८] दिवस्तदर्थस्य - वि- अवपूर्वक `हृ` धातु तथा `पणऄ धातु के समानार्थक `दिव् ` धातु के कर्मकारक से शेषत्व की विविक्षा में द्वितीया विभक्ति होती है। | शतस्य दीव्यति (सौ रुपये व्यवहार में लाता है), सहस्त्रस्य दीव्यति।

[२|३|५९] विभाषोपसर्गे - सोपसर्गक `दिव् ` धातु के कर्म से विकल्प से षष्ठी होती है। | शतस्य प्रतिदीव्यति, शतं प्रतिदीव्यति। सहस्त्रस्य प्रतिदीव्यति, सहस्त्रं प्रतिदीव्यति।

[२|३|६०] द्वितीया ब्राह्मणे - ब्राह्मणात्मक वेदभाग के क्षेत्र में अनुपसर्गक दिव्, धातु के कर्मकारक से शेषत्व की विविक्षा में द्वितीया विभक्ति होती है। | गामस्य तदहः सभायां दीव्येयुः।

[२|३|६१] प्रेष्यब्रुवोर्हविषो देवता-संप्रदाने - देवता के सम्प्रदान होने पर प्र-पूर्वक `िषऄ धातु तथा `ब्रु` धातु के हविर्वाचक कर्म से शेषत्व की विवक्षा में, षष्ठी विभक्ति होती है। | अग्नये छागस्य हविषो वपाया मेदसः प्रे३ष्य। अग्नये छागस्य हविषो वपाया मेदसुऽनुब्रू३हि।

[२|३|६२] चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि - वेद में चतुर्थी के अर्थ में षष्ठी विभक्ति बाहूल्येन होती है। | दार्वाघाटस्ते वनस्पतीनाम्। ते "वनस्पतिभ्यः" एवं प्राप्ते। कृष्णो रात्र्यै। चतुर्थी के अर्थ में (छन्दसि) वेदविषय में (बहुलम) बहुल करके षष्ठी विभक्ति होती है। बहुल कहने से "रात्र्यै" यहाँ षष्ठी नहीं होती।

[२|३|६३] यजेश्र्च करणे - वेद में `यज् ` धातु के करण से षष्ठी होती है। | घृतस्य यजते, घृतेन यजते। सोमस्य यजते, सोमेन यजते।

[२|३|६४] कृत्वोऽर्थ-प्रयोगे कालेऽधिकरणे - कृत्व सुच् प्रत्यय तथा उसके अर्थ में अभिधायक प्रत्ययों के प्रयोग होने पर काल्वाचक अधिकरण कारक से षष्ठी विभक्ति होती है। | पञ्चकृत्वोऽह्रो भुङ्क्ते (दिन में पाँच बार खाता है)। द्विरह्न्ऽधीते (दिन में दो बार पढ़ता है) दिवसस्य पञ्चकृत्वो भुङ्क्ते। "अहन्" तथा "दिवस" शब्द कालवाची अधिकरण हैं, उनमें षष्ठी हो गई है। (५_४_१७) से पञ्चकृत्वः में कृत्वसुच्, तथा द्विर् में (५_४_१८) से कृत्वोऽर्थ में सुच् प्रत्यय हुआ है।

[२|३|६५] कर्तृ-कर्मणोः कृति - कृत्प्रत्यय के प्रयोग में कर्ता तथा कर्म कारकों से षष्ठी विभक्ति होती है। | कर्त्तरि - भवतः शायिका। भवत आसिका। कर्मणि - अपां स्त्रष्टा। पुरां भेत्ता। वज्रस्य भर्त्ता।

[२|३|६६] उभय-प्राप्तौ कर्मणि - यदि कृत्प्रत्यय के प्रयोग में कर्त्ता तथा कर्म इन दोनों से षष्ठी की प्राप्ति पूर्वसूत्र से होती हो तो केवल कर्मकारक से ही षष्ठी विभक्ति होती है। | दोहः, पाकः, घञ् प्रत्यान्त कृदन्त हैं। अगोपालक तथा देवदत्त कर्त्ता हैं, और "गो" तथा "ओदन" कर्म हैं। सो कृत् के योग में दोनों में (कर्त्ता और कर्म में) षष्ठी प्राप्त हुई, तब इस सूत्र से कर्म "गौ" तथा "ओदन" में ही षष्ठी हुई।

[२|३|६७] क्तस्य च वर्तमाने - वर्तमानकाल में विहित क्तप्रत्यय से युक्त शब्द के योग में भी षष्ठी विभक्ति होती है। | राज्ञां मरट्। राज्ञां बुद्धः। राज्ञां पूजितः।

[२|३|६८] अधिकरणेवाचिनश्र्च - अधिकरण-विहित-क्त प्रत्यान्त शब्द के योग में भी षष्ठी विभक्ति होती है। | इदमेषां यातम्। इदमेषां भुक्तम्। इदमेषां शातितम् (यह इनके सोने का स्थान)। इदमेषां सृप्तम् (यह इनके जाने का स्थान)।

[२|३|६९] न लोकाव्यय-निष्ठा-खलर्थ-तृनाम् - लकारस्थानिक आदेश, उप्रत्यय, उकप्रत्यय, अव्यय, निष्ठाप्रत्यय, खलर्थक प्रत्यय तथा तृन् प्रत्यय के प्रयोग होने पर `कर्तृकर्मणोः ` `कृतॎ से षष्ठी का विधान नहीं होता है। | ओदनं पचन्, ओदनम् पचमानः। कानच् - ओदनं पेचानः (उसने भात पकाया)। क्वसु - ओदनं पेचिवान्। किकिन् - पपिः सोमम्, ददिर्गाः। उ - कटं चिकीर्षुः (चटाई बनाने की इच्छा वाला) आदि।

[२|३|७०] अकेनोर्भविष्यदाधमर्ण्ययोः - भविष्यदर्थक अक-प्रत्यय तथा भविष्यत् एवम् आधमर्ण्य अर्थ में विहित ` इन् ` प्रत्यय के प्रयोग में षष्ठी नहीं होती है। | कटं कारको व्रजति, ओदनं भोजको व्रजति। अकप्रत्ययस्तु भविष्यत्येव विहितो न त्वाधमर्ण्ये, तेनासम्भवमुदाहरणम् आधमर्ण्यस्य। भविष्यति - ग्रामं गमी, ग्रामं गामी। आधर्ण्ये - शतं दायी, सहस्त्रं दायी।

[२|३|७१] कृत्यानां कर्तरि वा - कृत्यप्रत्यय के प्रयोग में कर्ता से विकल्प से षष्ठी होती है, परन्तु कर्म से कभी नहीं। | देवदत्तस्य कर्त्तव्यः (देवदत्त के करने योग्य), देवदत्तेन कर्त्तव्यः। भवतः कटः कर्त्तव्यः (आपके द्वारा चटाई बनाई जानी चाहिये), भवता कटः कर्त्तव्यः । देवदत्त तथा भवत् शब्द कर्त्ता हैं, सो इसमें षष्ठी तथा पक्ष में (२_३_१८) से "कृत्" का प्रयोग होने पर भी षष्ठी नहीं हुई, क्योंकि वहाँ अनभिहित कर्म कहा है। सो वहाँ प्रातिपदिकार्थमात्र होने से (२_३_४६) से प्रथमा विभक्ति हो गई है। तव्य प्रत्यय (३_१_९५) से कृत्यसंज्ञक है।

[२|३|७२] तुल्यार्थेरतुलोपमाभ्यां तृतीयान्यतरस्याम् - तुला तथा उपमा शब्दों से अतिरिक्त तुल्यार्थक शब्दों के योग में विकल्प से तृतीया तथा षष्ठी विभक्तियाँ होती हैं। | तुल्यो देवदत्तेन (देवदत्त के तुल्य), तुल्यो देवदत्तस्य। सदृशो देवदत्तेन, सदृशो देवदत्तस्य।

[२|३|७३] चतुर्थी चाशिष्यायुष्यमद्रभद्रकुशलसुखार्थहितैः - आर्शीवाद के प्रतीत होने पर आयुष्य, मद्र, भद्र, कुशल, सुख, अर्थ तथा हित शब्दों के योग में चतुर्थी विभक्ति विकल्प से होती हैं। | आयुष्यं देवदत्ताय भूयात् । - आयुष्यं देवदत्तस्य भूयात् । मद्रं देवत्ताय भूयात् । - मद्रं देवत्तस्य भूयात्

[२|४|१] द्विगुरेकवचनम् - समाहार द्विगु एकार्थवाचक होता है। | समाहार अर्थ में होने के कारण पञ्चगव समाहार द्विगु है, अतः प्रकृत सूत्र से एकार्थवाचक होने पर एकवचन की विविक्षा में सु होकर पञ्चगव सु रूप बनता है।

[२|४|२] द्वन्द्वश्र्च प्राणि-तूर्य-सेनाङा-नाम् - प्राणी के अङ्ग (हस्त, पाद आदि), तूर्य के अङ्ग (मृदंग, वंशी आदि) और सेना के अङ्गों (रथ, अश्व आदि) का द्वन्द्व एक-वचनान्त होता है। | पाणी च पादौ च (हाथ और पैर)- इस विग्रह में द्वन्द्व समास हो नपुंसकलिङ्ग-एकवचन में पाणिपादम् रूप बनता है।

[२|४|३] अनुवादे चरणानाम् - चरणवाचक शब्दों में विहित द्वन्द्व को अनुवाद के गम्यमान होने पर एकवद्भाव। | उद्गात् कठकालापम्। प्रत्यष्ठात् कठकौथुमम् (प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाण से जानकर कोई कहता है- कथों और कलापों की उन्नति हुई, कठों और कौथुमों की प्रतिष्ठा हुई।

[२|४|४] अध्वर्युक्रतुरनपुंसकम् - अध्वर्यु-विहित क्रतुओं के वाचक नपुंसक भिन्न शब्द विहित द्वन्द्व को एकवद्भाव। | अर्काश्च + अश्वमेधश्च == अर्काश्वमेधम्, सायाह्नश्च + अतिरात्रश्च == सायाह्नातिरात्रम्। सोमयागराजसूयम्।

[२|४|५] अध्ययनतोऽविप्रकृष्टाख्यानाम् - अध्यन की दृष्टि में समीपस्थ पदार्थों के वाचक शब्दों में विहित द्वन्द्व को एकवद्भाव। | वैयाकरणनैरुक्तम्। पदकक्रमकम्। क्रमकवार्तिकम्।

[२|४|६] जातिरप्राणिनाम् - अप्राण्यर्थक जाति-वाचक शब्दों में विहित द्वन्द्व को एकवद्भाव। | आराशस्त्रि (करौंत एवं आरी)। धानाशष्कुलि (सत्तु और पूरी)। खट्वापीठम् (खाट और चौकी)। घटपटम् (घड़े और कपड़े)। पूर्ववत् नपुंसकलिङ्ग होकर, शस्त्री और शुष्कुली को (१_२_४७) सूत्र से "ह्रस्व" हो गया है।

[२|४|७] विशिष्टलिङ्गोनदीदेशोऽग्रामाः - विभिन्न अंग वाले नदीवाचक शब्दों का ग्रामवाचक भिन्न प्रदेशवाचक शब्दों में विहित द्वन्द्व समास एकवत् होता है। | उद्ध्य् + इरावती == उद्धयेरावति , गंगा + सोन् == गङ्गाशोणम् । उद्ध्य पुँलिङ्ग तथा इरावती स्त्रीलिंग है, अतः विशिष्ट == भिन्न लिङ्ग वाले नदीवाची शब्द है। इसी प्रकार "कुरु" पुँलिंग तथा "कुरुक्षेत्र" और "कुरुजाङ्गला" नपुंसकलिंग है। सो भिन्नलिंग वाले देशवाची शब्द है। अतः एकवद्भाव होकर पूर्ववत् कार्य हुआ है। ग्राम भी देश में आ जाते हैं। अतः ग्रामवाची शब्दों को छोड़कर कह दिया है।

[२|४|८] क्षुद्र जन्तवः - क्षद्रु - जन्तुवाचक शब्दों का द्वन्द्व एकवत् होता है। | यूकालिक्षम् (जू और लीख)। दंशमशकम् (डाँस और मच्छर)। कीटपिपीलिकम् (कीड़ी और चिऊँटी)।

[२|४|९] येषां च विरोधःशाश्र्वतिकः - जिनमें नित्य-विरोध हो तद्वाचक पदों का द्वन्द्व भी एकवत् होता है। | मार्जारमूषकम् (बिल्ली सुर चूहा)। अहिनकुलम् (साँप और नेवला)। बिल्ली जहाँ भी चूहे को देखेगी, उसे खा लेगी। नेवला साँप को देखते ही मार डालेगा। इस प्रकार इनका आपस में स्वाभाविक सनातन विरोध है।

[२|४|१०] शूद्राणामनिरवसितानाम् - जिनके भोजन करने से पात्रों का संस्कार सम्भावित है ऐसे शूद्र जातिवाचक शब्दों का द्वन्द्व एकवत् होता है। | तक्षायस्कारम् (बढ़ई और लोहार)। रजकतन्तुवायम् (धोबी और जुलाहा)। रजककुलालम् (धोबी और कुम्हार)। तक्ष, अयस्कारादि अनिरवसित शूद्र हैं।

[२|४|११] गवाश्र्व-प्रभृतीनि च गवाश्वम् आदि द्वन्द्व साधु है। | गवाश्वम् (गौ और घोड़ा)। गवाविकम् (गौ और भेड़)। गवैडकम् (गौ और भेड़)। अजाविकम् (बकरी और भेड़)। "गो" "अश्व" का समास (२_२_२९) से होकर, एकवद्भाव तथा (६_१_११९) से अवङ् आदेश होकर गवाश्वम् बना है।

[२|४|१२] विभाषा-वृक्ष-मृग-तृण-धान्य-व्यंजन-पशु-शकुन्यश्र्व-वडव-पूर्वा-पराधरोत्तराणाम् - वृक्षावाचक, मृगवाचक, तृणवाचक, धान्यवाचक, व्यञ्जनवाचक, पशुवाचक, शकुनिवाचक, अश्ववडव, पूर्वापर, अधरोतर, - इन शब्दों का द्वन्द्व विकल्प से एकवत् होता है। | प्लक्षन्यग्रोधम्, प्लक्षन्यग्रोधाः। मृग- रुरुपृषतम् (रुरु हरिण विशेष और श्वेतबिन्दुवाला हरिण), रुरुपृषताः। तृण- कुशकाशम् (कुश और काश), कुशकाषाः। धान्य- व्रीहियवम् (चावल और जौ), व्रीहियवाः।

[२|४|१३] विप्रतिषिद्धं चानधिकरणवाचि - अनधिकरणवाचक परस्पर-विरुद्धार्थाभिघायी शब्दों का द्वन्द्व विकल्प से एकवत् होता है। | शीतोष्णम् (ठण्डा और गरम), शीतोष्णे। सुखदुःखम् (सुख और दुख), सुखदेःखे। जीवितमरणम् (जीना और मरना), जीवितमरणे।

[२|४|१४] न दधि-पय आदीनि - दधिपयस् आदि शब्दों में विहित द्वन्द्व एकवत् नहीं होता है। | दधिपयसी (दही और दूध)। सर्पिर्मधुनी (घी और शहद)। मधुसर्पिषी। व्यञ्जनवाची होने से उदाहरणों में (२_४_१२) से एकवद्भाव प्राप्त था, निषेध कर दिया है। गण के और शब्दों में भी पूर्वसूत्रों से एकवद्भाव प्राप्त होने पर यह निषेधसूत्र है।

[२|४|१५] अधिकरणैतावत्त्वे च - अधिकरण के परिमाण के वाचक शब्दों में विहित द्वन्द्व एकवत् नहीं होता है। | उपदशं दन्तोष्ठम् (दश के लगभग दाँत और होठ), उपदशाः दन्तोष्ठाः। उपदशं जानुजङ्घम् (दश के लगभग घुटने और जंघा), उपदशाः जानुजङ्घाः। दन्तोष्ठ आदि अधिकरण (द्रव्य) हैं। उनका एतावत्त्व दश से प्रकट हो रहा हैं, तथा उप से समीप अर्थ भी प्रतीत हो रहा है।

[२|४|१६] विभाषा समीपे - अधिकरण की इयत्ता के समीप्य के अभिधान में विकल्प से एकवत् होता है। | पञ्चगवम्। दशगवम्। द्वन्द्वः - पाणिपादम्। शिरोग्रीवम्।

[२|४|१७] स नपुंसकम् - इस एकवचन प्रकरण में जिसका एकवद्भाव होता है, वह नपुंसकलिंग होता है।इस प्रकरण में समाहार में द्विगु और द्वन्द्व का एकवद्भाव हुआ है। | पञ्चगव सु समाहार द्विगु है, अतः प्रकृत सूत्र से नपुंसक होने पर प्रथम के एकवचन में पञ्चगवम् रूप सिद्ध होता है।

[२|४|१८] अव्ययीभावश्र्च - अव्ययीभाव नपुंसकलिङ्ग होता है। | गोपा ङि अधि में अव्ययं विभक्ति०(२_१_६) से पूर्ववत् समास आदि होकर अधिगोपा रूप बनता है। इस स्थिति में अव्ययीभाव होने के कारण प्रकृत सूत्र से नपुंसकलिङ्ग हुआ। तब ह्रस्वोनपुंसकेप्रातिपदिकस्य् (१_२_४७) से ह्रस्व होकर अधिगोप रूप बनेगा। यहाँ प्रथमा के एकवचन में सु होकर अधिगोप सु रूप बनने पर अव्ययादाप्सुपः (२_४_८२) से सु का लोप होता है।

[२|४|१९] तत्पुरुषोऽनञ्कर्मधारयः - अव यहाँ इस विषय को अधिकृत समझना चाहिए कि नञ्-समास तथा कर्मधारय को छोड़कर सभी तत्पुरुष समासों का नपुंसकलिङ्ग होता है। | ब्राह्मणसेनम्, ब्राह्मणसेना (ब्राह्मणों की सेना)। असुरसेनम्, असुरसेना (असुरों की सेना)।

[२|४|२०] संज्ञायां कन्थोशीनरेषु - संज्ञा के विषय में कन्था-शब्दान्त नपुंसकलिंग होता है, यदि वह कन्था उशीवर-जनपद सम्बन्धी हो। | सौशमिकन्थम् (सौशमि लोगों का नगर)। आह्णरकन्थम् (आह्णर लोगों का नगर)। नपुंसकलिंग होने से (१_२_४७) से "ह्रस्व" हो गया।

[२|४|२१] उपज्ञोपक्रमं तदाद्याचिख्यासायाम् उपज्ञान तथा उपक्रमान्त तत्पुरुष नपुंसकलिंग होते हैं यदि उपज्ञेय तथा उपक्रम्य के प्रथमकर्ता ( आदि कर्ता) के अभिधान की इच्छा हो। | पाणिन्युपज्ञम् अकालकं व्याकरणम् (काल की परिभाषा से रहित व्याकरणरचना पाणिनि की ही उपज्ञा है)। व्याड्युपज्ञं दुष्करणम् (दुष्करण नामक विधि व्याडि की उपज्ञा है)। नन्दोपक्रमाणि मानानि (नन्द से पहले-पहल तौलने के बाटों का प्रारम्भ किया)।

[२|४|२२] छाया बाहुल्ये - बाहुल्य अर्थ में छाया शब्दान्त तत्पुरुष नपुंसकलिंग होता है। | शलभच्छायम् (पतंगों की छाया)। इक्षुच्छायम् (ईख की छाया)। उदाहरणों में "शलभ" इत्यादि का बाहुल्य प्रकट हो रहा है। (२_४_२५) से विकल्प से छायान्त तत्पुरुष को नपुंसकलिंग प्राप्त थ। यहाँ बाहुल्य गम्यमान होने पर नित्य विधान कर दिया है।

[२|४|२३] सभा राजामनुष्य-पूर्वा - राजपर्याय शब्दपूर्वक तथा अमनुष्यपूर्वक सभाशब्दान्त तत्पुरुष नपुंसकलिंग होता है। | इनसभम् (राजा की सभा)। ईश्वरसभम् (ईश्वर की सभा)। अमनुश्यपूर्वा- रक्षःसभम् (राक्षसों की सभा) पिशाचसभम् (पिशाच की सभा)।

[२|४|२४] अशाला च - शालार्थक-भिन्न सभाशब्दान्त तत्पुरुष भी नपुंसकलिंग होता है। | स्त्रीसभम् (स्त्रियों की सभा)। दासीसभम् (दासियों की सभा)। स्त्रीसभम् आदि में शाला नहीं कहा जा रहा है, स्त्रियों का समुदाय कहा जा रहा है।

[२|४|२५] विभाषा सेना-सुरा-च्छाया-शाला-निशानाम् - सेनाशब्दान्त, सुराशब्दान्त, छायाशब्दान्त, शालाशब्दान्त तथा निशाशब्दान्त तत्पुरुष विकल्प से नपुंसकलिंग होता है। | ब्राह्मणसेनम्, ब्राह्मणसेना। असुरसेनम्, असुरसेना (असुरों की सेना)। यवसुरम् (जौ की शराब), यवसुरा। कुड्यच्छायम् (दीवार की छाया, कुड्यच्छाया। गोशालम् (गोशाला), गोशाला। श्वनिशम् (कुत्तों की रात), श्वनिशा।

[२|४|२६] परवल्लिङ्गंद्वन्द्वतत्पुरुषयोः - समाहार भिन्न द्वन्द्व और तत्पुरुष में लिङ्ग उत्तरपद के समान होता है। | कुक्कुटश्च मयूरी च (मुर्गा और मोरनी)- इस विग्रह में द्वन्द्व समास हो कुक्कुट मयूरी रूप बनता है। यहाँ उत्तरपद मयूरी है और वह स्त्रीलिंग में है। अतः प्रकृत सूत्र से उसी के समान समस्त शब्द से स्त्रीलिंग हो प्रथमा के द्विवचन में कुक्कुट्-मयूर्यौ रूप सिद्ध होता है।

[२|४|२७] पूर्ववदश्र्ववडवौ - एकवद्भाव से भिन्न स्थल में ` अश्ववडवऄ के द्वन्द्व का पूर्वशब्दानुसारी लिंग होता है। | अश्व + वडवा == अश्ववडवा।

[२|४|२८] हेमन्तशिशिरावहोरात्रे च च्छन्दसि - हेमन्त तथा शिशिर शब्दों के द्वन्द्व तथा अहन् और रात्रि शब्दों के द्वन्द्व का लिंग वेद में पूर्वशब्द के लिंग के अनुसार होता है। | हेमन्तशिशिरावृतू। वर्चो द्रविणाम्। अहोरात्रे ऊर्ध्वष्ठीवे। अहानि च रात्रयश्च अहोरात्राणि।

[२|४|२९] रात्राह्नाहाःपुंसि - यदि द्वन्द्व और तत्पुरुष के अन्त में रात्र, अहन और अह शब्द हो, तो वे पुल्लिङ्ग में ही होते हैं। | द्वन्द्व - अहोरात्र के अन्त में रात्र शब्द है, अतः प्रकृत सूत्र से पुँल्लिङ्ग-एकवचन में अहोरात्रः रूप बनता है।

[२|४|३०] अपथं नपुंसकम् - ` अपथऄ शब्द नपुंसकलिंग होता है। | अपथम् इदम् (यह कुमार्ग है)। अपथानि गाहते मूढः।

[२|४|३१] अर्धर्चाः पुंसि च अर्धर्च ( आधी ऋचा) आदि शब्द पुँलिंग और नपुंसकलिङ्ग दोनों में ही होते हैं। | अर्धम् ऋचः (ऋचा का आधा) - इस विग्रह में समास हो अर्धर्च रूप बनने पर पुँलिङ्ग में अर्धर्च और नपुंसकलिङ्ग में अर्धर्चम् रूप बनता है।

[२|४|३२] इदमोऽन्वादेशेऽशनुदात्तस्तृतीयादौ - तृतीयादि विभक्तियों से परे रहते अन्वादेश में वर्तमान इदम् शब्द के स्थान में अनुदात्त ` अशऄ आदेश। | आभ्यां छात्राभ्यां रात्रिरधीता (आदेशवाक्य), अथो आ॒भ्या॒म-हरप्यधीतम् (इन छात्रों के द्वारा रातभर पढ़ा गया, तथा इन छात्रों ने दिन में भी पढ़ा)। अस्मै छात्राय कम्बलं देहि, अथो अ॒स्मैः॒शाटकमपि देहि (इस छात्र को कम्बल दो, तथा इसे धोती भी दो)। अस्य छात्रस्य शोभनं शीलम्, अथो अ॒स्य॒ प्रभूतं स्वम् (इस छात्र की सुशीलता अच्छी है, और यह धनवान् भी है)

[२|४|३३] एतदस्त्रतसोस्त्रतसौचानुदात्तौ - त्र एवं तस् प्रत्ययों के परे रहते अन्वादेश में वर्तमान एतत् शब्द के स्थान में अनुदात्त ` अश् ` आदेश। | एतस्मिन् ग्रामे सुखं वसामः, अथो अ॒त्र॒ युक्ता अधीमहे (इस ग्राम में हम सुख से रहते हैं, और यहाँ लगातार पढ़ते भी हैं)। एतस्मात् छात्रात् छन्दोऽधीष्व, अथो अ॒तो॒ व्याकरणमप्यधीष्व (इस छात्र से छंद पढ़ो और व्याकरण भी पढ़ो)

[२|४|३४] द्वितीया टौस्स्वेनः टा और ओस् परे होने पर एन आदेश। | इमं छात्रं छन्दोऽध्यापय, अथो एनं व्याकरण-मप्यध्यापर (इस छात्र को छन्द पढ़ाओ, और इसे व्याकरण भी पढ़ाओं)। अनेन छात्रेण रात्रिर धीता, अथो एनेन अहरप्यधीतम् (इस छात्र ने रात्रिभर पढ़ा और इसने दिन में भी पढ़ा)। एन + अम् == ए॒न॒म्, एन (टा) इन == ए॒ने॒न्, एन + ओस् == ए॒न॒योः।

[२|४|३५] आर्धधातु के| - आर्धधातुक के विषय में।

[२|४|३६] अदो जग्धिर्ल्यप्ति-किति - ल्यप् प्रत्यय तथा तकारादि- कित् प्रत्यय के परे रहते ` अद् ` धातु को `जग्धॎ आदेश। | प्र + अद् + ल्यप् == प्रजग्ध्य, अद् + क्त == जग्धः, अद् + क्तवतु == जग्धवान्।

[२|४|३७] लुङ् सनोर्घसॢ् - लुङ् और सन् प्रत्यय परे होने पर अद् धातु के स्थान पर घसॢ् आदेश। | अद् धातु से लुङ् लकार में प्रथमपुरुष-एकवचन की विविक्षा में लुन्१और उसके स्थान पर तिप् होकर अद् ति रूप बनता है। यहाँ पर लुङ् ति प्रत्यय परे होने के कारण सूत्र से अद् के स्थान पर घसॢ् होकर घस् ति रूप बनेगा। इस स्थिति में च्लि और उसके स्थान पर अङ् आदि होकर अघसत् रूप सिद्ध होगा।

[२|४|३८] घञपोश्र्च - घञ् तथा अप् प्रत्ययों के परे रहते भी ` अद् ` धातु के स्थान पर `घसॢ` आदेश। | अद् + घञ् == घासः, प्र + अद् + अप् == प्रघसः।

[२|४|३९] बहुलं छन्दसि - वेद में बहुल करके ` अद् ` के स्थान पर `घसॢ` आदेश। | अश्वायेव तिष्ठते घासमग्ने। न च भवति- अष्टा महो दिव अदो हरी इव। अपि प्रघसः। न च भवति - प्रादः। अन्यत्रापि बहुलग्रहणात् - घस्तां नूनम्। सग्धिश्च में।

[२|४|४०] लिट्यन्यतरस्याम् - लिट् परे होने पर अद् धातु के स्थान पर विकल्प से घसॢ् आदेश होता है।घसॢ् में ऌकार इत्संज्ञक है, अतः घस् ही शेष रहता है। | अद् धातु से लिट् लकार में प्रथमपुरुष-एकवचन की विविक्षा में तिप् आदि होकर अद् अ रूप बनता है। इस स्थिति में लिट् अ (णल्) परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से अद् के स्थान पर घसॢ् (घस्) होकर घस् अ रूप बनेगा। पुनः द्वित्व, अभ्यास् और सलोप आदि होकर जघास रूप सिद्ध होता है।विकल्पावस्था में आद रूप बनेगा।

[२|४|४१] वेञो वयिः - लिट् के परे रहने से वेञ् धातु के स्थान पर विकल्प से वयि आदेश। | उवाय, ऊयतुः, ऊयुः, ऊवतुः, ऊवुः। ववौ, ववतुः, ववुः।

[२|४|४२] हनो वध लिङि - आर्धधातुक लिङ् परे होने पर हन् धातु के स्थान पर वध आदेश। | हन् धातु में लिङ् लकार में प्रथमपुरुष-एकवचन की विविक्षा में तिप् होकर हन् ति रूप बनता है। यहाँ लिङाशिषि से तिप् आर्धधातुक हो जाता है, अतः उसके परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से हन् के स्थान पर वध होकर वध ति रूप बनेगा। इस स्थिति में यासुट् और अकार-लोप आदि होकर वध्यात् रूप सिद्ध होता है।

[२|४|४३] लुङि च - लुङ् परे होने पर भी हन् धातु के स्थान पर वध आदेश होता है। | हन् धातु से लङ् लकार में प्रथमपुरुष-एकवचन की विविक्षा में हन् लुङ् (ल्) होगा। यहाँ लुङ् परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से हन् के स्थान पर वध सर्वादेश होकर वध ल् रूप बनेगा। पुनः तिप्, च्लि-सिच्, अट् और इकार-लोप आदि होकर अवधीत् रूप सिद्ध होता है।

[२|४|४४] आत्मनेपदेष्वन्यतरस्याम् आत्मनेपद में लुङ् के परे रहते `हन् ` धातु को विकल्प से `वधऄ आदेश। | आवधिष्ट, आवधिषाताम्, आवधिषत। आहत आहसाताम्, आहसत।

[२|४|४५] इणो गा लुङि - लुङ् को परे रहते इण् धातु को गा आदेश। | लिङ् की विविक्षा में इण् धातु के स्थान पर सबसे पहले गा होकर गा लुङ् रूप बनता है। इस अवस्था में प्रथमपुरुष-एकवचन की विविक्षा में तिप्, इकार-लोप और अट् आदि होकर अगात् रूप सिद्ध होता है।

[२|४|४६] णौ गमिरबोधने - अवबोधनार्धक ` इणऄ धातु के स्थान में `गमॎ आदेश णिच् प्रत्यय के रहते। | इण् + णिच्/ गम् + णिच् == गमि == गमियति।

[२|४|४७] सनि च - अवबोधनार्धक ` इणऄ धातु के स्थान में सन् प्रत्यय के परे रहते भी `गमॎ आदेश। | जिगमिषति (जाना चाहता है)। जिगमिषतः। जिगमिषन्ति।

[२|४|४८] इङश्र्च - सन् प्रत्यय के परे रहते ` इड् ` धातु के स्थान में `गमॎ आदेश। | अधिजिगांसते (पढ़ना चाहता है)। अधिजिगांसेते

[२|४|४९] गाङ् लिटि - इङ् (पढ़ना) धातु के स्थान में लिट् परे होने पर गाङ् आदेश। | लिट् लकार की विविक्षा में अधि उपसर्गपूर्वक इङ् धातु से लिट् प्रत्यय होकर अधि इ ल् रूप बनता है। इस स्थिति में लिट् परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से इ (इङ्) के स्थान पर गा होकर अधि गा ल् रूप बनेगा। यहाँ प्रथमपुरुष- एक्वचन की विविक्षा में आत्मनेपद त प्रत्यय, एश् और अभ्यास-कार्य आदि होकर अधिजगे रूप बनता है।

[२|४|५०] विभाषा लुङ् ऌङोः - लुङ् और ऌङ् लकार परे होने पर इङ् (इ) धातु के स्थान पर विकल्प से गाङ् (गा) आदेश। | अधि + इ + स्यत == (गाङ् आदेश होकर) == अध्यगा + स्यत == अध्यगी + स्यत == अध्यगीष्यत।

[२|४|५१] णौ च सँश्र्चङोः - सन्-परक तथा चङ्-परक णि के परे रहते ` इङ` धातु के स्थान में विकल्प से `गाङ` आदेश। | अधिजिगापयिषति, अध्यापिपयिषति। चङि - अध्यजीगपत् अध्यापिपत्।

[२|४|५२] अस्तेर्भूः - आर्धधातुक के विषय में अस् धातु के स्थान पर भू आदेश। | अस् धातु से लिट् लकार में प्रथमपुरुष-एकवचन की विविक्षा में तिप् और पुनः णल् होकर अस् अ रूप बनता है। यहाँ३_४_११५से लिट्स्थानी णल् के आर्धधातुक होने के कारण प्रकृत सूत्र से अस् के स्थान पर भू होकर भू अ रूप बनेगा। इस स्थिति में वुगागम् और अभ्यास-कार्य आदि होकर बभूव रूप सिद्ध होता है। अस् + तुम् == भवितुम्।

[२|४|५३] ब्रुवो वचिः - यदि आर्धधातुक परे हो तो ब्रू के स्थान पर वचि आदेश। | लिट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में ब्रू धातु से तिप् (ति) होकर ब्रू ति रूप बनता है। यहाँ लिट् च सूत्र से तिप की आर्धधातुक संज्ञा हो जाती है। अतः उसके परे होने पर प्रकृत सूत्र से ब्रू के स्थान पर वच् आदेश होकर वच् ति रूप बनेगा। इस स्थिति में णलादेश, अभ्यासकार्य और सम्प्रसारण आदि होकर उवाच रूप सिद्ध होता है। ब्रू + तुम् == वक्तुम्।

[२|४|५४] चक्षिङः ख्याञ् - आर्धधातुक विषय में `चक्षिङ् ` धातु के स्थान में `ख्याञ् ` आदेश। | चक्ष् + तुम् == ख्यातुम्

[२|४|५५] वा लिटि - लिट् के परे रहते `चक्षिङ् ` धातु के स्थान में विकल्प से `ख्याञ् ` आदेश। | आचख्यौ (उसने कहा), आचख्यतुः, आचख्युः। आचचक्षे, आचचक्षाते, आचचक्षिरे। आचख्यतुः आचख्युः की दिद्धि (१_१_५८) के पपतुः, पपुः के समान जानें। केवल यहाँ ख्याज् आदेश ही विशेष है। आचख्यौ में "णल्" को (७_१_३४) से औकारादेश होकर वृद्धि एकादेश हो गया। आचचक्षे में चक्षिङ् को ख्याञ् आदेश नहीं हुआ। सो पूर्ववत् द्वित्व, अभ्यासकार्य और "त" को "एश्" (३_४_८१) होकर आ + च + चक्ष् + ए == आचचक्षे बना।

[२|४|५६] अजेर्व्यघञपोः - घञ् तथा अप् से भिन्न आर्धधातुक प्रत्ययों के परे रहते ` अजऄ धातु के स्थान में `वी ` आदेश। | अज् + तुम् == वेतुम्।

[२|४|५७] वा यौ - ल्युट् प्रत्यय के परे रहते ` अज` ` धातु को विकल्प से `वी ` आदेश। | वा + यौ वायुः

[२|४|५८] ण्य-क्षत्रिया-ऽऽर्ष-ञितो यूनि लुगणिञोः - गोत्रार्थक-ण्यप्रत्ययान्त, क्षत्रियवाचगोत्रप्रत्ययान्त, ऋषिवाचीगोत्रप्रत्ययान्त तथा ञित्गोत्रप्रत्ययान्त शब्दों से युवापत्य में विहित अण् तथा इञ् का लोक् होता है। | कौरव्यः पिता, कौरव्यः पुत्रः। क्षत्रिय - श्वाफल्कः पिता, श्वाफल्कः पुत्र। आर्ष - वसिष्ठः पिता, वसिष्ठः पुत्रः। ञित् - बैदः पिता, बैदः पुत्रः। अणः - तैकायतिः पिता, तैकायतिः पुत्रः।

[२|४|५९] पैलादिभ्यश्र्च - पैल आदि शब्दों से विहित युवप्रत्यय का लोप। | पैलः पिता, पैलः पुत्रः। पीला शब्द से गोत्रापत्य में (४_१_११८) से "अण्" प्रत्यय हुआ है। तदन्तः से पुनः युवापत्य में जो (४_१_१५६) से "फिञ् " आया, उसका लुक् प्रकृत सूत्र से हो गया, सो पिता पुत्र दोनों "पैल" कहलाये।

[२|४|६०] इञः प्राचाम् - गोत्रार्थक इञ् प्रत्ययान्त से विहित युवप्रत्यय का लोप। | पन्नागारिः पिताः, पन्नागारिः पुत्रः। मान्थरैषणिः पिता, मान्थरैषणिः पुत्रः।

[२|४|६१] न तौल्वलिभ्यः तौल्वलि आदि से विहित युवप्रत्यय का लोप नहीं होता। | तौल्वलिः पिता, तौल्वलायनः पुत्रः।

[२|४|६२] तद्राजस्य बहुषु तेनैवास्त्रियाम् - स्त्रीलिंग को छोड़कर अन्य लिंग (पुँल्लिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग) में बहुत्व अर्थ में तद्राज प्रत्यय का लोप होता है। | इक्ष्वाकु शब्द से राजा या अपत्य अर्थ में अञ् प्रत्यय हो अजादि-वृद्धि आदि होकर ऐक्ष्वाकव रूप बनता है।यहाँ बहुवचन की विविक्षा में प्रकृत सूत्र से तद्राज प्रत्यय अञ् का लोप हो जाता है।

[२|४|६३] यस्कादिभ्यो गोत्रे - `यरकऄ आदि से पहले बहुत्वार्थक गोत्रप्रत्ययों का लोप होता है, स्त्रीलिंग को छोड़कर यदि यह बहुत्व उसी गोत्रप्रत्यय से जन्य हो। | यस्काः (यास्कः, यास्कौ, यस्काः)। लभ्याः (लाभ्याः, लाभ्योः, लभ्याः)

[२|४|६४] यञञोश्र्च स्त्रीलिङ्ग से भिन्न अन्य लिङ्ग (पुँल्लिङ्ग या न नपुंसकलिङ्ग) में गोत्र अर्थ में वर्तमान यञ्-प्रत्यान्त और अञ्-प्रत्यान्त का बहुवचन में लोप (लुक्) होता है। | गर्गस्य गोत्रापत्यानि (गर्ग के गोत्रापत्य) - इस विग्रह में पूर्ववत् यञ् प्रत्यय और अजादि-वृद्धि आदि होकर गार्ग्य रूप बनता है। यहाँ गोत्र अर्थ में गार्ग्य के अन्त में यञ् प्रत्यय आया है। अतः पुँल्लिङ्ग में बहुवचन की विविक्षा होने पर प्रकृत सूत्र से यञ् का लोप हो जाता है और गार्ग रूप बनेगा।

[२|४|६५] अत्रिभृगुकुत्सवसिष्ठ गोतमाङ्गि रोभ्यश्र्च - अत्रि, भृगु, कुत्स, वसिष्ठ, गोतम तथा अङ्गिरस् शब्दों को तत्कृतबहुत्वार्थक गोत्रापत्य में विहित प्रत्यय का लोप। | अत्रयः, भृगवः, कुत्साः, वसिष्ठाः, गोतमाः, अङ्गिरसः। इन शब्दों से तत्कृतबगुत्व गोत्रापत्य में विहित जो प्रत्यय उसका (च) भी लुक् हो जाता है। अत्रि शब्द से (४_१_१२२) से बहुत्व में जो "ढक्" प्रत्यय हुआ उसका लुक् होकर अत्रयः (अत्रि के पौत्रादि) बना।

[२|४|६६] बह्वच इञः प्राच्य-भरतेषु - बहच् शब्द से प्राच्यगोत्र तथा भरतगोत्र में विहित इञ् प्रत्यय का तत्कृतबहुत्व अर्थ में लुप होता है। | पन्नागाराः, मन्थरैषणाः (मन्थरैषण नामक व्यक्ति के बहुत से पौत्र प्रपौत्र आदि)। भरतगोत्र में युधिष्ठराः अर्जुनाः। पन्नागार , युधिष्ठिर आदि बह्णच् शब्द हैं। सो उनके बहुत से पौत्र आदिकों को कहने में गोत्रप्रत्यय जो (४_१_९५) से "इञ्" आया था, उसका लुक् हो गया। एकत्व द्वित्व अर्थ में लुक् न होने से पन्नागारिः == पन्नागारी बनता है।

[२|४|६७] न गोपवनादिभ्यः गोपवन आदि शब्दों से पहले प्रत्यय का लोप नही होता। | गौपवनाः, शैग्रवाः। गोपवनादि शब्दों से परे गोत्रप्रत्यय का तत्कृत बहुवचन में लुक् (न) नहीं होता है। गोपवनादिगण बिदादिगण के अन्तर्गत ही है। सो (४_१_१०४) से हुये गोत्रप्रत्यय "अञ्" का बहुत्व में (२_४_६४) से लुक् प्राप्त था उसका इस सूत्र ने प्रतिषेध कर "गौपवनाः" रूप सिद्ध हुआ।

[२|४|६८] तिक-कितवादिभ्यो द्वन्द्वे - तिकादि एवं कितवादि शब्दों से तत्कृतबहुत्व में आए हुए गोत्रपत्य का लोप द्वन्द्व समास में होता है। | तैकायनयश्च, कैतवायनयश्च तिककितवाः में "तिक्" "कितव" इन दोनों शब्दों से (४_१_१५४) से "फिञ्" प्रत्यय होकर उसका लुक् हुआ है।

[२|४|६९] उपकादिभ्योऽन्यतरस्यामद्वन्द्वे उपक आदि शब्दों से विहित तत्कृतबहुत्वार्थक गोत्रप्रत्यय का लोप होता है विकल्प से द्वन्द्व तथा द्वन्द्वेतर समास में भी। | उपकमलकाः, भ्रष्टककपिष्ठलाः, कृष्णाजिनकृष्ण सुन्दराः। एते त्रयः शब्दाः कृतद्वन्द्वास्तिककितवादिषु पठिताः, एतेषु पूर्वेण नित्यं लुग् भवति, अद्वन्द्वे त्वनेन विकल्पो भवति।

[२|४|७०] आगस्त्य कौण्डिन्ययो रगस्ति कुण्डिनच् - अगस्त्य तथा कौण्डिन्य शब्दों से विहित अण् तथा यञ् प्रत्ययों का लोप और प्रकृतिमात्र को क्रमशः अगस्ति तथा कुण्डिनच् आदेश। | अगस्तयः, कुण्डिनाः। अगस्तय, कुण्डिन्य शब्दों से गोत्र में विहित जो तत्कृतबहुवचन में प्रत्यय, उसका लुक् हो जाता है, शेष बची अगस्त्य एवं कुण्डिलनी प्रकृति को क्रमशः अगस्ति और कुण्डिनच् आदेश भी हो जाते हैं। आगस्त्य कौण्डिन्य शब्द गोत्रप्रत्यय उत्पन्न करके यहाँ निर्दिष्ट हैं।

[२|४|७१] सुपो धातु-प्रातिपदिकयोः - धातु के प्रतिपादिक के अवयव सुप् (सु औ जस् आदि२१प्रत्ययों में से कोई) का लोप होता है। | पुत्र अम् य में सुप् अम् धातु का अवयव है, अतः उसका लोप होकर पुत्र य रूप बनता है।

[२|४|७२] अदिप्रभृतिभ्यःशपः - अद् (खाना) आदि धातुओं से परे शप् का लुक् (लोप) होता है। | अद् धातु से लट् लकार में प्रथमपुरुष-एकवचन की विविक्षा में तिप् होकर अद् ति रूप बनता है। इस स्थिति में सार्वधातुक तिप् परे होने के कारण शप् होकर अद् अ ति रूप बनेगा, किन्तु अद् से परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से उसका लोप होकर अद् ति रूप ही बनता है। यहाँ दकार को चर्त्व-तकार होकर अत् + ति ==> अत्ति रूप सिद्ध होता है।

[२|४|७३] बहुलं छन्दसि - परन्तु वेद में बहुल करके शप् का लोप। | वृत्रं हनति। आशयदिन्द्रशत्रुः। बहुलग्रहण-सामर्थ्याद् अन्यगणस्थेभ्योऽपि लुग भवति - त्राध्वं नो देवाः।

[२|४|७४] यङोऽचि च - अच् प्रत्यय परे होने पर यङ् का (लुक्) लोप होता है। | पुनः पुनः या अतिशय के अर्थ में भू (होना) धातु से यङ् प्रत्यय होकर भू य रूप बनता है। यहाँ अच् न परे होने पर भी प्रकृत सूत्र से यङ् (य) का लोप होकर भू रूप बनता है।भू के यङन्त होने के कारण द्वित्व, अभ्यास-कार्य और जश्त्व आदि होकर बोन्हू रूप बनता है। इस स्थिति में लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन की विविक्षा में तिप् और शप्-लुक् होकर बोभू ति रूप बनता है। अन्य उदाहरण चेक्रीय + अच् == चेक्रियः, लोलूय + अच् == लोलुवः, पोपूय + अच् == पोपुवः।

[२|४|७५] जुहोत्यादिभ्यः श्लुः - हु (देना और खाना) आदि (जुहोत्यादिगण की) धातुओं के बाद शप् का श्लु (लोप) होता है। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में हु धातु से तिप् (ति) होने पर कर्तरि शप् से शप् होकर हु शप् ति रूप बनता है। यहाँ हु से परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से शप् का श्लु (लोप) हो जाता है और रूप बनता है हु + ति ==> होति।

[२|४|७६] बहुलं छन्दसि - वेद में शप् का श्लु बहुल करके होता है। | दाति प्रियाणि, धाति प्रियाणि, पूर्णां विवष्टि, जनिमा विवक्ति।

[२|४|७७] गातिस्थाघुपाभूभ्यः सिचः परस्मैपदेषु - गा स्था, दा और धा, पा तथा भू धातुओं से परे सिच् का लुक् होता है। | अभू स् त् में भू धातु से परे सिच् के सकार का प्रकृत सूत्र से लोप होकर अभूत रूप बनता है।

[२|४|७८] विभाषा घ्रा-धेट्-शाच्छासः - परस्मैपद परे होने पर घ्रा (भ्वादि०, सूँघना), धेट् ( भ्वादि०, पीना), शा ( शो-पतला करना), छा ( छो-काटना) और सा (षो-नाश करना) के बाद सिच् का विकल्प से लोप (लुक्) होता है। | लुङ् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में शो धातु से तिप्, च्लि-सिच् और अडागम आदि होकर अ शा स् ति रूप बनता है। यहाँ परस्मैपद तिप् (ति) परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से शा के उत्तरवर्ती सिच् (स) का लोप हो जाता है और अ शा ति रूप बनता है। इस स्थिति में ति के इकार का लोप होकर अशात् रूप सिद्ध होता है। सिच् के लोपाभाव-भाव में इट् और सक् आदि होकर अशासीत् रूप बनता है।

[२|४|७९] तनादिभ्यस्त-थासोः `तनादॎ गण की धातुओं से पहले सिच् का त और थास् के परे रहते विकल्प से लोप होता है। | अतत (उसने विस्तार किया), अतनिष्ट। अतथाः (तुमने विस्तार किया), अतनिष्ठाः। असात (उसने दिया), असनिष्ट। असाथाः, असनिष्ठाः (तुमने दान दिया।

[२|४|८०] मन्त्रेघसह्वरणशवृहदहाद्वृचकृगमिजनिभ्यो लेः - मन्त्रविषय में `घसऄ, `हरऄ, `णशऄ, `वृ`, `दहऄ, ` आत् `, `वृच़`, `कृ`, `गम् `, तथा `जन् ` धातुओं से पहले `च्लॎ का लोप होता है। | अक्षन् पितरोऽमी॑मदन्त पि॒तरः। ह्वर् - मा ह्वार्मित्रस्य त्वा। नश् - प्रणङ् मर्त्यस्य वृङ्व्रिइञो सामान्येन ग्रहणम् - सुरुचो वेन आवः। दह - मा न आ धक् । आत् इत्यनेन आकारान्तस्य ग्रहणम्- आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्षम्, वृज- मा नो अस्मिन् महाधने परा वर्क्। कृ अक्रन् कर्म कर्मकृतः। गमि- अग्मन्, जनि अज्ञत वा अस्य दन्ताः।

[२|४|८१] आमः - आम् से परे लकार के स्थान में लुक् (लोप) होता है। | गोपाय् आम् लिट् में आम् से परे लकार लिट् का लोप होकर गोपाय् आम् ==> गोपायाम् रूप बनता है।

[२|४|८२] अव्ययादाप्सुपः अव्यय से विहित् आप् (टाप्, डाप् आदि स्त्रीप्रत्यय्) तथा सुप् ( सु औ, जस् आदि२१सुप् प्रत्यय) प्रत्ययों का लुक् अर्थात लोप होता है। | तत्र शालायाम् में तत्र शब्द तद्धित त्रल् प्रत्यान्त है। शाला इस स्त्रीलिंग का विशेषण होने से टाप् प्रत्यय प्राप्त होता है, किन्तु अव्यय से विहित होने के कारण उसका लोप हो जाता है। अतः तत्र का रूप तत्र ही रहता है।

[२|४|८३] नाव्ययीभावादतोऽम्त्वपंचम्याः - अकारान्त अव्ययीभाव के पश्चात् सुप् का लुक् (लोप) नहीं होता है। किन्तु पञ्चमी को छोड़कर अन्य विभक्तियों के बाद सुप् के स्थान पर अम् आदेश हो जाता है। | अधिगोप सु में अधिगोप अकारान्त अव्ययीभाव है, अतः प्रकृत सूत्र से उसके पश्चात् सुप् सु के अथान पर अम् होकर अधिगोप अम् रूप बनता है। तब पूर्वरूप एकादेश हो अधिगोपम् रूप सिद्ध होता है।

[२|४|८४] तृतीया सप्तम्योर्बहुलम् - अकारान्त अव्ययीभाव के पश्चात् तृतीया (टा) और सप्तमी (ङि) विभक्ति के स्थान पर बहुलता से अम् आदेश होता है। | उपकुम्भेन कृतम्, उपकुम्भं कृतम्। सप्तमी - उपकुम्भे निधेहि, उपकुम्भं निधेहि।

[२|४|८५] लुटः प्रथमस्यडारौरसः - तिप् या त के स्थान पर डा, तस् या अताम् के स्थान पर रौ तथा झि या झ के स्थान पर रस् आदेश। | भवितास् + ति में लुट् के प्रथम् तिप् के स्थान पर डा आदेश होता है। डा में डकार इत्संज्ञक है, अतः अकार ही शेष रह कर भवितास् + आ रूप बनता है। यहाँ डित् आ परे होने के कारण६_४_१४३से टि आस् का लोप होकर भवित् + आ ==> भविता रूप सिद्ध हुआ।