अष्टाध्यायी हिन्दी व्याख्या सहितम्/चतुर्थः अध्यायः
[४|१|१] ङ्याप्प्रातिपदिकात्| ङयन्त, आबन्त और प्रतिपादिक से सुप् आदि की प्रत्यय संज्ञा होती है।
[४|१|२] स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम् भिसङेभ्याम्-भ्यस्-ङसोसाम्-ङ्योस् सुप्२१सुप् प्रत्यय होते हैं | ङीप् - कुमारी, कुमार्यौ, कुमार्यः। कुमारीम्, कुमार्यौ, कुमारीः। कुमार्याः, कुमारीभ्याम्, कुमारीभ्य। कुमार्याः कुमार्योः, कुमारीणाम्। कुमार्याम्, कुमार्योः, कुमारीषु। हे कुमारि, हे कुमार्यौ, हे कुमार्यः। इसी प्रकार ङीष् - गौरी, गौर्यौ, गौर्यः, एवं सप्तविभक्तिषु रूपाणि कुमारीवत् ज्ञेयानि। डीन् - शार्ङ्गरवी, शिष्टं कुमारीवत्। टाप् - खट्वा, खट्वे, खट्वाः।डाप् - बहुराजा, बहुराजे एवं पूर्ववत् सप्तविभक्तिषु ज्ञेनानि। चाप् - कारीषगन्ध्या, शिष्टं खट्वावज् ज्ञेयम् प्रातिपतिगात्।
[४|१|३] स्त्रियाम्| - प्रातिपादिक से स्त्रिलिङ्ग में प्रत्यय होते हैं।
[४|१|४] अजाद्यतष्टाप् - अजादिगण में पठित ` अजऄ आदि तथा अकारान्त प्रातिपादिक से स्त्रीलिङ्ग (स्त्रीत्व की विविक्षा) में `टाप् ` ( आ) प्रत्यय होता है। | ` अज् ` से स्त्रीत्व की विविक्षा में टाप् प्रत्यय हो ` अज आ` रूप बनने पर अकः सवर्णे दीर्घः (६_१_१०१) से दीर्घादेश हो ` अजा` रूप बनता है। अन्य उदाहरण - वर्धमान + टाप् == वर्धमान + आ == वर्धमाना, चोरयमाण + टाप् == चोरयमाण + आ == चोरयमाणा।
[४|१|५] ऋन्नेभ्योङीप् रिदन्त और नान्त प्रतिपदिकों से परे स्त्रीलिंग में ङीप् प्रत्यय। | ऋकारान्तेभ्यः - कर्त्री, हर्त्री। नकारान्तेभ्यः - दण्डिनी, छत्रिणी।
[४|१|६] उगितश्च - उगिदन्त प्रातिपादिक (जिसका अन्त्य उकार, ऋकार या ऌकार इत् हो) से स्त्रीलिङ्ग में ङीप् (ई) प्रत्यय होता है। | `भा` धातु से `डवतुँप् ` प्रत्यय होकर सिद्ध हुआ `भवत् ` (भवतु- आप्) शब्द उगिदन्त हैं, अतः प्रकृत सूत्र से उससे ङीप् प्रत्यय हो भवत् + ई = भवती रूप सिद्ध होता है। इस के अतिरिक्त ऋकार इत् होने के कारण शतृ-प्रत्ययान्त और उकार इत् होने से ईयसुन प्रत्यान्त शब्द भी उगुदन्त होते हैं, अतः उनसे भी स्त्रीत्व की विविक्षा में ङीप् प्रत्यय होता है।
[४|१|७] वनोरच - वन्नन्त प्रातिपादिक से स्त्रीलिंग में ङीप् प्रत्यय और अन्त में रेफादेश भी होता है। | धीवरी (कर्म करनेवाली), पीवरी (मोटी स्त्री)। शर्वरी (रात या हल्दी)। नान्तत्वान्ङीप् सिद्ध, रादेशार्थं वचनम्।
[४|१|८] पादोऽन्यतरस्याम् - धान्यानां भवने (५_२_१) - इस सूत्र से पहिले जितने अर्थ विधान किये गये हैं, उन सभी अर्थों ( अपत्य, भव, समूह आदि) में स्त्री शब्द से नञ् (न) और पुंस शब्द से स्नञ् (स्न) प्रत्यय होता है। | स्त्रिया अपत्यम् (स्त्री की संतान), स्त्रीषु भवः (स्त्री-सम्बंधी) और स्त्रीणां समूहः (स्त्रियों का समूह)- इन विग्रहों में अपत्यादि अर्थों में स्त्री शब्द से नञ् प्रत्यय हो स्त्री न रूप बनता है। तब अजादि वृद्धि और णत्व आदि होकर स्त्रैणः रूप सिद्ध होता है।
[४|१|९] टाबृचि - ऋक् के वाच्य होने पर पादशब्दान्त प्रातिपादिक से स्त्रीलिङ्ग में टाप् प्रत्यय। | द्विपदा ऋक् (दो पादवाली ऋचा), त्रिपदा ऋक् ( तीन पादवाली ऋचा०, चतुष्पदा ऋक् (चार पादवाली ऋचा)।
[४|१|१०] नषट्स्वस्त्रादिभ्यः षट्-संज्ञक और स्वसृ आदियों से परे ङीप् और टाप् प्रत्यय नही होते। | पञ्चन् == पञ्च् ब्राह्मणाः, पञ्च ब्राह्मण्यः / सप्तन् == सप्त ब्राह्मणाः, सप्त ब्राह्मण्यः।
[४|१|११] मनः - मन्नन्त (मनिप् प्रत्ययान्त) प्रातिपादिक से ङीप् नहीं होता है। | दामा, दामानौ, दामानः। पामा पामानौ पामानः। सीमा, सीमानौ, सीमानः।
[४|१|१२] अनो बहुव्रीहेः - अन्नन्त बहेब्रीहि से स्त्रीलिङ्ग में ङीप् नहीं होता है। | शोभनं पर्व अस्या इति == सुपर्वा (जिसके अच्छे जोड़ हैं) सुपर्वाणौ, सुपर्वाणः। शोभनं चर्म अस्या इति == सुचर्मा ((जिसका सुन्दर चमड़ा है), सुचर्माणौ, सुचर्माणः।
[४|१|१३] डाबुभाभ्यामन्यतरस्याम् - मम्मन्त प्रातिपादिक तथा अन्नन्त बहुब्रीहि से विकल्प से ङीप् प्रत्यय होता है। | मन्नन्त से - पामा, पामे, पामाः (खुजली)। सीमा, सीमे, सीमाः (हद, मर्यादा)। पक्ष में "डाप्" न होने पर मनः से "ङीप्" का निषेध होकर पामा, पामानौ, पामानः बना। अन्नन्त बहुव्रीहि से - बहुराजा, बहुराजे, बहुराजाः (बहुत राजाओं वाली सभा)। पक्ष में डाप् न होने पर "अनो बहुव्रीहेः) से ङीप् का निषेध होकर - बहुराजानौ, बहुराजानः आदि प्रयोग बनेंगे।
[४|१|१४] अनुपसर्जनात् - यहाँ से आगे ` अनुपसर्जात् का अधिकार है। | कुरुषु चरतीति == कुरुचरी, मद्रचरी।
[४|१|१५] टिड्ढाणञ्द्वयसज्दघ्नञ्मात्रच्तयप्ठक्ठञ्क्वरपः टिदन्त (जिसके अन्त में इत् टकार या टित् प्रत्यय हो), ढ-प्रत्यान्त, अण् प्रत्यान्त, अञ्-प्रत्यान्त, द्वसच्-प्रत्यान्त, दध्नच्-प्रत्यान्त, मात्रच्-प्रत्यान्त, तयप्-प्रत्यान्त, ठक्-प्रत्यान्त, थञ्-प्रत्यान्त, कञ्-प्रत्यान्त तथा क्वरप्-प्रत्यान्त अकारान्त अनुपसर्जन (जो गौण न हो, प्रधान), प्रातिपादिक से स्त्रीलिङ्ग में ङीप् (ई) प्रत्यय होता है। | कुरुचर + ङीप् == कुरुचरी, सौपर्णेय + ङीप् == सौपर्णेयी, वैनतेय + ङीप् == वैनतेयी, औपगव + ङीप् == औपगवी आदि।
[४|१|१६] यञश्च - यञ्-प्रत्यान्त प्रातिपादिक से स्त्रीलिङ्ग में ङीप् (ई) प्रत्यय होता है। | यञ्-प्रत्यान्त प्रातिपादिक गार्ग्य से स्त्रीलिङ्ग में ङीप् प्रत्यय हो `गार्ग्य ई ` रूप बनने पर पूर्व्वत् अन्त्य-लोप होकर `गार्ग्य ई ` रूप बनता है।
[४|१|१७] प्राचांष्फतद्धितः - पूर्व देश में रहने वाले आचार्यों के मत से यञ्-प्रत्यान्त प्रातिपादिक से स्त्रीलिङ्ग में `ष्फऄ प्रत्यय होता है। | यञ्-प्रत्ययान्त `गार्ग्यऄ से स्त्रीलिङ्ग में `ष्फऄ प्रत्यय होकर `गार्ग्य फऄ रूप बनता है। तब आयनेयी०(७_१_२) से प्रत्यय के फकार के स्थान पर ` आयन् ` आदेश हो `गार्ग्य आयन् अ ` = `गार्ग्य आयनऄ रूप बनने पर अकार-लोप और णत्व होकर `गार्ग्यायणऄ रूप बनता है।
[४|१|१८] सर्वत्रलोहितादिकतन्तेभ्यः - लोहित से लेकर कर-पर्यन्त यञन्त प्रातिपादिक से भी स्त्रीलिङ्ग में भी ष्फ प्रत्यय होता है। | लौहित्यायनी (लोहित की पौत्री), शांसित्यायनी ( शंसित की पौत्री), बाभ्रव्यायणी (बभ्रु की पौत्री)।
[४|१|१९] कौरव्यमाण्डूकाभ्यांच - कौरव्य तथा माण्डूक शब्दों से स्त्रीलिङ्ग में ष्फ प्रत्यय का विधान समझना चाहिए। | कौरव्यायणी, माण्डूकायनी।
[४|१|२०] वयसिप्रथमे - कौमारावत्था अर्थ में वर्तमान (अर्थात् कौमारावस्थावाची) अकारान्त प्रातिपादिक स्त्रीलिङ्ग में ङीष् (ई) प्रत्यय होता है। | कौमारावस्थावची अकारान्त प्रातिपादिक `कुमारऄ से स्त्रीलिङ्ग में ङीष् प्रत्यय हो `कुमार ई ` रूप बनता है। तब अकार-लोप हो कुमार् + ई ==> कुमारी (कन्या) रूप सिद्ध होता है।
[४|१|२१] द्विगोः - अकारान्त द्विगु-संज्ञक प्रातिपादिक से स्त्रीलिङ्ग मेन् `ङीष् ` (ई) प्रत्यय होता है। | अकारान्त द्विगु- `त्रिलोकऄ से स्त्रीलिङ्ग में ङीष् प्रत्यय हो `त्रिलोक ई ` रूप बनता है। तब भ-संज्ञा होने के कारण अन्त्य अकार का लोप होकर त्रिलोक + ई ==> त्रिलोकी रूप सिद्ध होता है।किन्तु अजादिगण में पाये जाने वाले अकारान्त द्विगु-संज्ञक प्रातिपादिकों से ङीष् प्रत्यय नहीं होता।
[४|१|२२] अपरिमाणबिस्ताचितकम्बल्येभ्योनतद्धितलुकि - अपरिमाणान्त द्विगु से विस्त, अचित एवम् कम्बल्य शब्दान्त प्रातिपादिकों से तद्धित प्रत्यय के लुक् होने पर ङीप् प्रत्यय नहीं होता। | अपरिमाणान्तात् - पञ्चाश्वा, दशाश्वा, द्विवर्षा, त्रिवर्षा, द्विशता, त्रिशता। बिस्तादिभ्यः - द्विबस्ता, त्रिबिस्ता, द्व्याचिता, त्र्याचिता, द्वकम्बल्या, त्रिकम्बल्या।
[४|१|२३] काण्डान्तात्क्षेत्रे - तद्धित प्रत्यय के लुक् होने पर काण्ड शब्दान्त द्विगु से क्षेत्र अर्थ में ङीप् प्रत्यय नहीं होता। | द्वे काण्डे प्रमाणमस्याः क्षेत्रभक्तेः द्विकाण्डा (दो काण्ड१६हाथ के बराबर भूमि भाग), क्षेत्रभक्तेः त्रिकाण्डा।
[४|१|२४] पुरुषात्प्रमाणेऽन्यतरस्याम् - प्रमाणार्थक पुरुष शब्दान्त द्विगु से तद्धितलुक् होने पर विकल्प से ङीप् प्रत्यय का प्रतिषेध। | द्विपुरुषा परिखा (दो पुरुष के बराबर गहरी खाई)। इसी प्रकार द्विपुरुषी , त्रिपुरुषा, त्रिपुरुषी।
[४|१|२५] बहुव्रीहेरुधसोङीष् - उधस् शब्दान्त बहुब्रीहि से स्त्रीलिङ्ग में ङीप् प्रत्यय होता है। | कुण्डोध्वनी, घटोध्नी।
[४|१|२६] संख्याव्ययादेर्ङीप् - संख्यादि तथा अव्ययादि ऊधस् शब्दान्त बहुब्रीहि से ङीप् प्रत्यय होता है। | संख्यादेः - द्वयू॑ध्नी, त्र्यू॑ध्नी। अव्ययादेःः - अत्यू॑ध्नी निरू॑ध्नी।
[४|१|२७] दामहायनान्ताच्च - संख्यादि दामशब्दान्त एवम् संख्यादि हायनशब्दान्त बहुब्रीहि से ङीप् प्रत्यय होता है। | द्वे दामनी यस्याः द्विदा॑म्नी, त्रिदा॑म्नी। द्वौ हायनौ यस्याः द्विहा॑यणी, त्रिहा॑यणी, चतु॑र्हायणी,
[४|१|२८] अनउपधालोपिनोऽन्यतरस्याम् - उपधालोपी अन्नन्त बहुब्रीहि से विकल्प से ङीप् प्रत्यय होता है। | बहवः राजानोऽस्यां सभायां बहुराज्ञी सभा। पक्षे डाप् - बहुराजे सभे।डाप्ङीप्प्रतिषेधपक्षे- बहुराजा, बहुराजानौ, बहुराजनः।
[४|१|२९] नित्यं संज्ञाछन्दसोः - संज्ञा तथा वेद में उपधालोपी अन्नन्त बहुब्रीहि से नित्य ङीप् प्रत्यय होता है। | सुराज्ञी अतिराज्ञी नाम ग्रामः। छन्दसि-गौः पञ्चदाम्नी एक दाम्नी। द्विदाम्नी। एकमूर्ध्नी। समानमूर्ध्नी।
[४|१|३०] केवलमामकभागधेयपापापरसमानार्यकृतसुमङ्गलभेषजाच्च - संज्ञा तथा वेद में केवल मामक, भागधेय, पाप, अपर, समान, आर्य, कृत, समुङ्गल तथा भेषज शब्दों से ङीप् प्रत्यय होता है। | केवली, केवला इति भाषायाम्। मामकी, मामिका इति भाषायाम्।मित्रावरुणयोर्भागधेयी, भागधेया इति भाषायाम्। पापी त्वियम्, पापा इति भाषायाम्। आदि
[४|१|३१] रात्रेश्वाजसौ - संज्ञा तथा वेद में रात्रि शब्द से जस् विभक्ति के विषय को छोड़कर ङीप् प्रत्यय होता है। | या रात्री सृष्टा रात्रीभिः।
[४|१|३२] अन्तर्वत्पतिवतोर्नुक् - अन्तर्वत् तथा परिवत् शब्दों से ङीप् प्रत्यय तथा उन्हें नुँक् का आगम भी हो जाता है । | अन्तर्वत्नी, पतिवत्नी।
[४|१|३३] पत्युर्नोयज्ञसंयोगे - यज्ञसंयोग अर्थ में स्त्रीत्व विविक्षा में पतिशब्द को नकारादेश। | यजमानस्य पत्नी, पत्नि वाचं यच्छ।
[४|१|३४] विभाषासपूर्वस्य - सपूर्वक पतिशब्द को विकल्प से उक्त नकारादेश। | वृद्धः पतिरस्या = वृद्धपत्नी (वृद्ध है पति किसका, वह) वृद्धपतिः। स्थूलपत्नी (मोटा है पति जिसका, वह) स्थूलपतिः।
[४|१|३५] नित्यं सपत्न्यादिषु सपत्नी (पतिरस्या, एकपत्नी, एक, वीर, पिण्ड, भ्रातृ, पुत्र आदि) आदि शब्दों में पति शब्द को नित्य नकार अन्तादेश। | समानः पतिरस्याः सपत्नी (जिस स्त्री का समान पति है, अर्थात् दो स्त्रियों का एक ही पति है, वह स्त्री)। एक पत्नी (जिसका एक ही पति है)।
[४|१|३६] पूतक्रतोरैच - स्त्रीत्व-विविक्षा में पूतक्रतु शब्द से ङीप् प्रत्यय एवम् अन्त में एकारादेश। | पूतक्रतोः स्त्री पूतक्रतायी (पूतक्रतु नामक पुरुष की स्त्री)। पूतक्रत् + ऐ + डीप् == पूतक्रतै + इ =(६_१_७५)= पूतक्रतायी।
[४|१|३७] वृषाकप्यग्निकुसितकुसीदानामुदात्तः - वृषाकपी आदि शब्दों से स्त्रीलिङ्ग में ङीप् प्रत्यय तथा अन्त में उदात्त ऐकारादेश। | वृषाकपेः स्त्री वृषा॒क॒पायी॑ (वृषाकपि की स्त्री)। अ॒ग्नायी॑ (अग्नि की स्त्री)। कु॒सि॒तायी॑ (कुसित की स्त्री)। कु॒सी॒दायी॑ (कुसीद की स्त्री)।
[४|१|३८] मनोरौवा - मनु शब्द में स्त्रीलिङ्ग में ङीप् प्रत्यय होता है और अन्त में विकल्प से औकारादेश एवम् उदात्त ऐकारादेश। | मनोः स्त्री मना॑वी (मनु की स्त्री), म॒नायी॑, मनु॑। मन् + औ + ङीप् == मानवी। मन् + ऐ + ङीप् == मनायी।
[४|१|३९] वर्णादनुदात्तात्तोपधात्तो नः - अनुदात्तान्त (जिसके अन्त में अनुदात्त स्वर हो) और तकार-उपधा वाले वर्ण-वाची (रंग-विशेष का वाचक, जैसे - `हरितऄ आदि) प्रातिपादिक स्त्रीलिङ्ग में विकल्प से `ङीष् ` (ई) प्रत्यय होता है। और तकार के स्थान पर नकार आदेश होता है। | वर्णवाची प्रातिपादिक ` एतऄ (चितकबरा) अनुदात्तान्त है क्योंकि तकारान्त वर्णवाची शब्द का आदि `वर्णानां तणतिनितान्तानाम् ` सूत्र से उदात्त होता है और अनुदात्तं `पदमेकवर्जम् ` परिभाषा से अन्त्य अकार अनुदात्त और उपधा में तकार भी है। अतः प्रकृत सूत्र से स्त्रीलिङ्ग में ङीप् प्रत्यय और तकार को नकार हो ` एन् अ ई ` ==> ` एन ई ` रूप बनता है। तब पूर्व की भ-संज्ञा होने से अकार-लोप हो ` एन् + ई ==> एनी (चित्कबरी) रूप सिद्ध होता है।
[४|१|४०] अन्यतोङीष् - अन्य वर्णवाची अनुदात्तान्त प्रातिपादिक से स्त्रीलिङ्ग में ङीप् प्रत्यय। | सारंगी (चितकबरी), कल्माषी (काली, चितकबरी), शबली (चितकबरी)।
[४|१|४१] षिद् गौरादिभ्यश्च `षित्-प्रातिपादिक (जिसका षकार इत् हो) और गौरादि गण पठित `गौरऄ आदि से स्त्रीलिङ्ग आदि में ङीष् (ई) प्रत्यय होता है। | षित् प्रातिपादिक `गार्ग्यायणऄ से ङीष् प्रत्यय हो `गार्ग्यायण ई ` रूप बनने पर अन्त्य अकार का लोप होकर गार्ग्यायण् + ई ==> गार्ग्यायणी रूप सिद्ध होता है। यहाँ `ष्फऄ प्रत्यय विकल्प से हुआ है। अतः उसके अभाव में `गार्ग्यऄ से पूर्ववत् `ङीष् ` प्रत्यय हो `गार्गी` रूप बनता है। अन्य शब्द- नर्त्तकी, खनकी, रजकी, गौरी, मत्सी आदि।
[४|१|४२] जानपद-कुण्ड-गोण-स्थल-भाज्-नाग-काल-नील-कुश-कामुक-कबराद् वृत्त्यमत्रावपनाकृत्रिमा-श्राणास्थौल्य-वर्णनाच्छादनायोविकार-मैथुनेच्छा-केशवेशेषु जानपद, कुण्ड, गोण, स्थल, भाज्, नाग, काल, नील, कुश, कामुक व कबर इन ग्यारह प्रातिपादिकों से क्रमशः वृत्ति आदि अर्थों में ङीप् प्रत्यय्। | जानपदी (आजीविका), कुण्डी (पात्र), गोणी (बोरी), स्थली (प्राकृतिक ऊंची जगह)। भाजी (पकी हुई), नागी (मोटी)। कामुकी (काले रंगवाली), नीली (ओषधि)। कुशी (लोहे की फाली)। कामुकी (वासना युक्त स्त्री)। कबरी (चित्र विचित्र केशविन्यास वाली)
[४|१|४३] शोणात्प्राचाम् - प्राचीन आर्यों के मद में शोण शब्द से स्त्रीत्व विविक्षा में ङीप् प्रत्यय। | शोणी (लाल घोड़ी), शोणा।
[४|१|४४] वोतोगुणवचनात् - उकारान्त गुणवाची प्रातिपादिक से स्त्रीलिङ्ग में विकल्प से `ङीष् ` (ई) प्रत्यय होता है। | उकारान्त गुणवाची प्रातिपादिक `मृदु` (कोमल) से `ङीष् ` प्रत्यय हो `मृदु ई ` रूप बनता है। तब उकार को यण्-वकार होकर मृदु + व् + ई ==> मृद्वी (कोमला) रूप सिद्ध होता है।
[४|१|४५] बह्वादिभ्यश्च - बह्णादिगण में पठित `बहु` आदि प्रातिपादिकों से स्त्रीलिङ्ग में ङीष् (ई) प्रत्यय होता है। | `बहु` शब्द से स्त्रीलिङ्ग में `ङीष् ` प्रत्यय हो पूर्ववत् `बह्णी ` रूप बनता है। ङीष् ` प्रत्यय के अभाव-पक्ष में यथावत् `बहुः` रूप ही रहता है।
[४|१|४६] नित्यंछन्दसि - वेद में बहु आदि शब्दों से नित्य ङीप् प्रत्यय होता है। | बह्वीषु (७.३) हित्वा प्रतिबन्।
[४|१|४७] भुवश्च - वेद में `भु` शब्द से नित्य ङीप् प्रत्यय होता है। | विभ्वी च, प्रभ्वी च, सम्भवी च।
[४|१|४८] पुंयोगादाख्यायाम् - यदि पुरुष्-वाचक प्रातिपादिक पुरुष-सम्बन्ध के कारण स्त्रीलिङ्ग में प्रवृत्त होता है तो उससे `ङीष् ` (ई) प्रत्यय होता है। | पुरुषवाचक प्रातिपादिक `गोपऄ का प्रयोग जब पति-पत्बीभाव रूप सम्बन्ध को लेकर उसकी स्त्री के लिए होगा तो उससे `ङीष् ` प्रत्यय हो `गोप ई ` रूप बनेगा। यहाँ पूर्व की भ-संज्ञा होने के कारण अकार का लोप हो गोप + ई ==> गोपी (गोप की स्त्री) रूप सिद्ध होता है।
[४|१|४९] इन्द्रवरुणभवशर्वरुद्रमृडहिमारण्ययवयवनमातुलाचार्याणामानुक् - इन्द्र, वरुण, भव, शर्व, रुद्र, मृड, हिम, अरण्य, यव, यवन, मानुल और आचार्य - इन बारह पुरुष-वाचक प्रातिपादिकों से पुंयोग में `ङीष ` (ई) प्रत्यय होता है और `ङीष् ` प्रत्यय होने पर इसके अन्त में ` आनुँक् ` ( आन्) आगम होता है। | ` इन्द्रस्य स्त्री ` (इन्द्र की स्त्री) = इस विग्रह मे इन्द्र शब्द से प्रकृत सूत्र से ङीष् ` प्रत्यय हो ` इन्द्र ई ` रूप बनने पर पुनः ` इन्द्र को ` आनुँक् ` आगम हो ` इन्द्र आन् ई = ` इन्द्र आनी ` रूप बनता है। तब सवर्ण-दीर्घ और णत्व हो ` इन्द्राणी ` रूप सिद्ध होता है।
[४|१|५०] क्रीतात्करणपूर्वात् - यदि अकारान्त प्रातिपादिक के आदि में करण हो और अन्त में ` क्रीत ` शब्द हो तो उस से स्त्रीलिङ्ग में `ङीष् ` ( ई) प्रत्यय होता है। | `वस्त्रकीतऄ (वस्त्रेण क्रीतः - वस्त्र से खरीदा हुआ) अकारान्त प्रातिपादिक है। उसके आदि में करण कारक `वस्त्रीण और अन्त में `क्रीतऄ शब्द है। अतः प्रकृत सूत्र से स्त्रीलिङ्ग में `ङीष ` प्रत्यय हो ` वस्त्रीकीत ई ` रूप बनने पर अन्त्य अकार का लोप होकर `वस्त्रकीती ` (वस्त्र से खरीदी हुई) रूप सिद्ध होता है।
[४|१|५१] क्तादल्पाख्यायाम् - करण कारक पूर्वक क्तान्तान्त प्रातिपादिक से ङीप प्रत्यय होता है। | अभ्रविलिप्ती द्यौः (छिटपुट बादलों वाला आकाश), सूपविलिप्ती पात्री (थोड़ी सी दाल लगा हुआ बर्तन)।
[४|१|५२] बहुव्रीहेश्चान्तोदात्तात् - अन्तोदात्त क्तान्तान्त बहुब्रीहि से स्त्रीत्व-विविक्षा में ङीप् प्रत्यय होता है। | शङ्ख भिन्नमस्याः = शङ्खभिन्नी(ललाट किसका क्षत हो गया हो, ऐसी स्त्री)), ऊरुभिन्नी (जंघा जिसकी क्षत हो गयी ऐसी स्त्री), गलम् उत्कृत्तमस्याः = गोलात्कृत्ती (गला जिसका क्षत हो गया है), केशाः लूना अस्याः = केशलूनी (केश जिसके कट गये हों)।
[४|१|५३] अस्वाङ्गपूर्वपदाद्वा - अस्वाङ्ग पूर्व पदक अन्तोदात्त क्तान्त बहुब्रीहि से स्त्रीत्व विविक्षा में विकल्प से ङीप् प्रत्यय होता है। | शार्ङ्गजग्धी, शार्ङ्गजग्धा। पलाण्डुभक्षिती, पलाण्डुभक्षिता, सुरापीती, सुरापीता।
[४|१|५४] स्वाङ्गाच्चोपसर्जना दसंयोगोपधात् - यदि असंयोगोपध (जिसकी उपधा में संयोग न हो) और उपसर्जन (गौण) स्वाङ्गवाची शब्द अन्त में हो तो अकारान्त प्रातिपादिक से स्त्रीलिङ्ग में `ङीषऄ (ई) प्रत्यय विकल्प से होता है। | चन्द्रमुख == चन्द्रमुखी == चन्द्रमुखा, सुकेश == सुकेशी == सुकेशा, कृशाङ्ग == कृशाङ्गी == कृशाङ्गा।
[४|१|५५] नासिकोदरौष्ठ-जङ्घा-दन्त-कर्ण-शृङ्गाच्च - नासिकाशब्दान्त उदरशब्दान्त, ओष्ठशब्दान्त, जङ्घाशब्दान्त प्रातिपादिकों से स्त्रीत्वविविक्षा में विकल्प से ङीप् प्रत्यय होता है। | तुङ्गा नासिका यस्याः = तुङ्गनासिकी (ऊंची नासिकावाली), तुङ्गनासिका। तिलोदरी (तिल है पेत पर जिसके) तिलोदरा। बिम्बमिवोष्ठौ यस्याः बिम्बोष्ठी (बिम्ब फल के समान लाल ओंठ हैं जिसके) बिम्बोष्ठा। दीर्घजङ्घी (दीर्घ है जंघा जिसकी), दीर्घजंघा। समदन्ती (बराबर है दाँत जिसके), समदन्ता। चारुकर्णी (सुन्दर कान वाली), चारुकर्णा।
[४|१|५६] नक्रोडादिबह्वचः - यदि प्रातिपादिक के अन्त में क्रोडादिगण में पठित `क्रोडा आदि बह्णच् स्वाङ्गवाची शब्द हो तो उससे स्त्रीलिङ्ग में ङीष (ई) प्रत्यय नहीं होता। | कल्याणक्रोडा (उत्तम है गोद जिसकी), कल्याणखुरा (अच्छे खुर वाली बकरी)। बह्वचः पृथुजघना (मोटी जङ्घावाली), महाललाटा (चौड़े ललाटवाली)।
[४|१|५७] सहनञ्विद्यमानपूर्वाच्च सहपूर्वक, नञपूर्वक तथा विद्यमानपूर्वक प्रातिपादिक से भी ङीप् प्रत्यय नहीं होता। | सह केशैः = सकेशा (केशोंवाली), अविद्यमानाः केशाः अस्याः = अकेशा (जिसके बाल नहीं है), विद्यमाना केशाः अस्याः = विद्यमानकेशा (केशों वाली), सनासिका (नासिकावाली), अनासिका (जिसकी नासिका नहीं है), विद्यमाननासिका (नासिकावाली)।
[४|१|५८] नखमुखात्संज्ञायाम - यदि प्रातिपादिक के अन्त में स्वाङ्गवाची मुख या नख शब्द हो तो संज्ञार्थ स्त्रीलिङ्ग में उससे `ङीष ` (ई) प्रत्यय नहीं होता। | शूर्पमिव नखमस्याः शूर्पणखा (सूप के समान नाखून वाली), वज्रणखा (वज्र के समान है नख जिसके), गौरमुखा (गोरे मुख वाली), कालमुखा (काले मुखवाली)।
[४|१|५९] दीर्घजिह्वीचछन्दसि वेद में दीर्घजिह्रॎ शब्द का निपातन होता है। | दीर्घजिह्वी वै देवानां हव्यमलेट्।
[४|१|६०] दिक्पूर्वपदान्ङीप् - दिक्पूर्वपदक प्रातिपादिक से ङीप् प्रत्यय होता है। | प्राङमुखं यस्याः सा प्राङ्मुखी, प्राङ्मुखा। प्राङ्नासिकी, प्राङ्नासिका। संयोगोपधत्वाद् इह न भवति प्राग्गुल्फा।
[४|१|६१] वाहः - वाहन्त प्रातिपादिक से स्त्रीत्वविविक्षा में विकल्प से ङीप् प्रत्यय। | दित्यौही च मे, प्रष्ठौही।
[४|१|६२] सख्यशिश्वीतिभाषायाम् - भाषा में ङीष् प्रत्ययान्त सखी तथा अश्वनी शब्दों का निपातन। | सखीयं मे ब्राह्मणी (यह ब्राह्मणी मेरी सहेली है)। नास्याः शिशुरस्तीति अशिश्वी (जिसके शिशु नहीं हैं, ऐसी स्त्री)।
[४|१|६३] जातेरस्त्रीविषयादयोपधात् - यकार-भिन्न उपधा वाले (जिसकी उपधा में यकार न हो) और नियत स्त्रीलिङ्ग (जिसका प्रयोग केवल स्त्रीलिङ्ग में ही होता है) से भिन्न जातिवाचक प्रातिपादिक से स्त्रीलिङ्ग में ङीष (ई) प्रत्यय होता है। | कुक्कुट + ङीष् == कुक्कुट + ई == कुक्कुटी, ब्राह्मण + ङीष् == ब्राह्मण + ई == ब्राह्मणी, वृषल + ङीष् == वृषल + ई == वृषली, हंस + ङीष् == हंस + ई == हंसी।
[४|१|६४] पाककर्णपर्णपुष्पफलमूलवालोत्तरपदाच्च - पाकाद्युत्त्रपदक जातिवाची प्रातिपादिकों से स्त्रीत्वविवक्षा में ङीप् प्रत्यय होता है। | ओदनस्य पाक इव पाको यस्याः सा ओदनपाकी (नीलझिण्टी, ओषधि विशेष))।शङ्कुरिव कर्णौ यस्याः सा शङ्कुकर्णी (गधी), शालपर्णी (शाल वृक्ष के समान पत्तों वाली, ओषधि विशेष)।
[४|१|६५] इतोमनुष्यजातेः - मनुष्यजातिवाचक इकारान्त प्रातिपादिक से स्त्रीलिङ्ग में `ङीष ` ( ई) प्रत्यय होता है। | दाक्षि + ङीष् == दाक्षि + ई == दाक्षी, अवन्ति + ङीष् == अवन्ति + ई == अवन्ती, कुन्ति + ङीष् == कुन्ति + ई == कुन्ती।
[४|१|६६] ऊङुतः - अयोपध (जिसकी उपधा में यकार न हो) और मनुष्यजातिवाचक उकारान्त प्रातिपादिक से स्त्रीलिङ्ग में ` उङ् `(ऊ) प्रत्यय होता है। | वीरबन्धु + ऊङ् == वीरबन्धु + ऊ == वीरबन्धूः, कुरु + ऊङ् == कुरु + ऊ == कुरूः
[४|१|६७] बाह्वन्तात्संज्ञायाम् - बाहु शब्दान्त प्रातिपादिक से संज्ञा में ऊङ् प्रत्यय होता है। | भद्रबाहूः (भ्रदबाहू नाम की स्त्री), जालबाहूः (जालबाहू नाम की स्त्री)।
[४|१|६८] पङ्गोश्च - पङ्गु (लङ्गड़ा) शब्द से स्त्रीलिङ्ग में ` ऊङ् ` (ऊ) प्रत्यय होने पर `श्वशुरऄ शब्द से ` ऊङ् ` प्रत्यय होता है। | पङ्गु + ऊङ् == पङ्गु + ऊ == पङ्गूः।
[४|१|६९] उरुत्तरपदादौपम्ये - यदि प्रातिपादिक का उत्तरपद ` ऊरु` हो तो उपमा का भाव गम्यमान होने पर उस से स्त्रीलिङ्ग में ` ऊङ` (ऊ) प्रत्यय होता है। | कदलीस्तम्भ इव ऊरु यस्याः सा कदलीस्तम्भोरूः (केले के खम्भे के समान हैं मोटी-मोटी जङ्घायें जिसकी), नागनासोरूः (हाथी के सूड़ के समान गोल है जङ्घा जिसकी)।
[४|१|७०] संहितशफलक्षणवामादेश्च - यदि प्रातिपादिक के आदि में `संहितऄ (मिला हुआ), `शफऄ (मिला हुआ), `लक्षणऄ (सुन्दर) और `वामऄ (सुन्दर) शब्द हों और उत्तरपद में ` ऊरु` शब्द हो तो उससे स्त्रीलिङ्ग में ऊङ् (ऊ) प्रत्यय होता है। | संहितौ ऊरु यस्या सा संहितोरुः (जिसकी जङ्घायें आपस में मिली हुई हैं, ऐसी स्त्री)। शफोरुः (जिसकी जङ्घायें आपस में गौ के खुर के समान पृथक् हुई हैं, ऐसी स्त्री)। लक्षणोरुः (चिन्हित जङ्घावाली। वामोरुः (सुन्दर जङ्घावाली)।
[४|१|७१] कद्रुकमण्डल्वोश्छन्दसि वेद में कद्रु शब्द तथा कमण्डलु शब्द से स्त्रीत्वविवक्षा में ऊङ् प्रत्यय होता है। | कद्रूश्च वै सुपर्णी च। मा स्म कमण्डलूं शूद्राय दद्यात्।
[४|१|७२] संज्ञायाम् - संज्ञा में कद्रु तथा कमण्डलु शब्दों से ऊङ् प्रत्यय होता है। | कद्रूः (इस नाम वाली विनीता की पुत्री)। कमण्डलू।
[४|१|७३] शार्ङ्गरवाद्यञोङीन् - शारर्ङ्गवादि गण में पठित और अञन्त (जिसके अन्त में अञ् प्रत्यय हो) जातिवाचक प्रातिपादिक से `ङीन् (ई) प्रत्यय होता है। | शार्ङ्गरव् + ङीन् == शार्ङ्गरव + ई == शार्ङ्गरवी, बैद + ङीन् == बैद + ई == बैदी।
[४|१|७४] यङश्चाप् - यङन्त प्रातिपादिक से स्त्रीत्व विवक्षा में चाप् प्रत्यय। | ञ्यङ् - आम्बष्ठया। सौवीर्या। ष्यङ् - कारीषगन्ध्या, वाराह्मा, बालाक्या।
[४|१|७५] आवट्याच्च - आवटय शब्द से भी स्त्रीलिङ्ग में चाप् प्रत्यय। | आवटया (अवट की पौत्री)।
[४|१|७६] तद्धिताः| - इस सूत्र से लेकर निष्प्रवाणिश्च (५_४_१६०) तक जिन प्रत्ययों का विधान किया गया है।, उन्हें तद्धित कहते हैं।
[४|१|७७] यूनस्तिः - `युवनऄ शब्द से स्त्रीलिङ्ग में `तॎ प्रत्यय होता है | `युवन शब्द से स्त्रीलिङ्ग में `तॎ प्रत्यय हो `युवन तॎ रूप बनता है। तब न लोपः से नकार का लोप हो युवति रूप बनने पर विभक्ति-कार्य होकर `युवतिः` (युवा स्त्री) रूप सिद्ध होता है।
[४|१|७८] अणिञोरनार्षयोर्गुरुपोत्तमयोः ष्यङ् गोत्रे - अनार्ष गोत्रविहित जो अण् तथा इञ् प्रत्यय तदन्त गुरुपोत्तम प्रातिपादिकों को स्त्रीत्वविवक्षा में ष्यङ् आदेश। | अण् - कारीषगन्ध्या, कौमुदगन्ध्या। इञ् - वाराह्मा, बालाक्या।
[४|१|७९] गोत्र-अवयवात् - गोत्र में विहित जो अण् तथा इञ् प्रत्यय तदन्त कुलवाचक पुणिक, भुणिक, मुखर आदि प्रातिपादिकों से विहित अण् तथा इञ् का स्त्रीत्वविवक्षा में ष्यङ् आदेश। | पुणिक + इञ् == पौणिकिः से पौणिक्या, भुणिक + इञ् == भौणिकि से भौणिक्या, भुरिक + इञ् == भौरिकि से भौरिक्या, मुखर् + इञ् == मौखरि से मौखर्या।
[४|१|८०] क्रौड्यादिभ्यश्च क्रौडिआदि में पठित प्रातिपादिकों को स्त्रीलिङ्ग में ष्यङ् आदेश। | क्रुड + इञ् == क्रौडिः से क्रौड्या (क्रुड की पुत्री) इसी प्रकार लाडि - लाड्या (लड की पुत्री, व्याडि - व्याड्या (व्याडि की पुत्री आदि।
[४|१|८१] दैवयज्ञि-शौचिवृक्षि-सात्यमुग्रि-काण्डेविद्धिभ्यो-ऽन्यतरस्याम् - दैवयज्ञि, शैचिवृक्षि, सात्यमुग्रि तथा काण्ठेविद्धि शब्दों से स्त्रीत्वविवक्षा में ष्यङ् प्रत्यय होता है। | दैवयज्ञि == दैवयज्ञ्या
[४|१|८२] समर्थानांप्रथमाद्वा - यहा से लेकर अहंशुभमोर्युस् (५_२_१४०) तक जिन प्रत्ययों का विधान किया गया है, वे समर्थ पदो में से प्रथम पद से होते हैं। | दशरथस्य अपत्यम् - ये दो सम्बन्धी पद हैं। इसमें दशरथस्य पद प्रथ प्रकृति है क्योंकि पिता प्रकृति से ही पुत्र से पहिले उत्पन्न होता है। अतः उसी से इञ् प्रत्यय हो दाशरथिः रूप बनता है।
[४|१|८३] प्राग्दीव्यतोऽण् - यहाँ से उत्तर `दीव्यत् ` शब्द से पूर्व अण् प्रत्यय होता है। | औपगवः, कापटवः।
[४|१|८४] अश्वपत्यादिभ्यश्च - अश्वपति (शतपति, धनपति, गणपति, राष्ट्रपति, कुलपति, ग्रहपति, धान्यपति, पशुपति, धर्मपति, सभापति, प्राणपति, क्षेत्रपति आदि) आदि शब्दों से प्राग्दीव्यतीय अर्थों में अण् प्रत्यय। | आश्वपतम् (अश्वपति का अपत्य (संतान), शातपतम्।
[४|१|८५] दित्यदित्यादित्यपत्युत्तरपदाण्ण्यः - प्रादीव्यतीय ( अपत्य आदि) अर्थों में दिति, अदिति आदित्य और पति-उत्तरपद (पति शब्द जिसका उत्तरपद हो) से ण्य (य) प्रत्यय होता है। | दितेरपत्यम् (दिति की सन्तान) - इस विग्रह में अपत्य अर्थ में दितेः से ण्य प्रत्यय हो दिति य रूप बनता है। तब आदि अच् की वृद्धि और अन्त्य इकार का लोप हो दैत्यः रूप बनता है। इसी प्रकार अदिति से ण्य प्रत्यय हो आदित्यः रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - सेनापति + ण्य == सैनापत्यम्, प्रजापति + ण्य == प्राजापत्यम्।
[४|१|८६] उत्सादिभ्योऽञ् प्राग्दीव्यतीय ( अपत्यादि) अर्थों में उत्स आदि शब्दों से अञ् ( अ) प्रत्यय होता है | उत्सस्य अपत्यम् (उत्स की सन्तान) - इस विग्रह में अपत्य अर्थ में उत्सस्य पद से अञ् प्रत्यय हो उत्स अ रूप बनता है।तब अजादि वृद्धि और अन्त्य अकार का लोप आदि होकर औत्सः रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - उदपान + अञ् == औदपानः।
[४|१|८७] स्त्रीपुंसाभ्यांनञ्स्नञौभवनात् - स्त्री तथा पुंस् शब्दों से `धान्यानां भवने ` से पूर्व निर्दिष्ट अर्थों में क्रमशः नञ् तथा स्नञ् प्रत्यय होते हैं। | स्त्रीषु भवं स्त्रैणम्। एवं पौंस्नम्। स्त्रीभ्यो हितं स्त्रैणम्, पौंस्नम्।
[४|१|८८] द्विगोर्लुगनपत्ये - अपत्य प्रत्यय से भिन्न द्विगु निमित्तक तद्धित प्रत्यय का लोप। | पञ्चकपाल + अण् == पंचकपालः।
[४|१|८९] गोत्रेऽलुगचि - `यस्कादिभ्यो गोत्रे ` (२_४_६३) सूत्र में जिन गोत्रप्रत्ययों का लोप विहित है उन प्रत्ययों का अजादि प्राग्दीव्यतीय प्रत्यय के विधान में बुद्धिरथ होने पर लोप नहीं होता। | गार्ग्य + छ == गार्गीयाः, वात्स्य + छ == वात्सीयाः, आत्रेय + छ == आत्रेयीयाः।
[४|१|९०] यूनिलुक् - प्राग्दीव्यतीयार्थक अजादि प्रत्यय के विधान के बुद्धिरथ होने पर युव प्रत्यय का लोप्। | फाण्टाहृति + अण् == फाण्टाहृतः, ग्लुचुकायनि + अण् == ग्लौचुकायनाः
[४|१|९१] फक्फिञो-रन्यतरस्याम् - प्राग्दीव्यतीयार्थक अजादि प्रत्यय के विधान के बुद्धिरथ होने पर फक् तथा फिञ् इन दोनों युवप्रत्ययों का विकल्प से लोप। | फक् - गार्गीयाः, गार्ग्यायणीयाः। वात्सीयाः, वात्स्यायनीयाः । फिञ् - यास्कीयाः, यास्कायनीयाः।
[४|१|९२] तस्यापत्यम् - प्रथम षष्ठयन्त समर्थ पद से अपत्य अर्थवाचक प्रत्यय विकल्प से ओते हैं। | उपगोरपत्यम् - इस विग्रह में अपत्य अर्थ में प्राग्दीव्यतोऽण् (४_१_८३) से अण् ( अ) प्रत्यय प्राप्त होता है। प्रक्रित सूत्र की सहायता से यह प्रत्यय प्रथम षष्ठयन्त समर्थ पद उपगोः से ही होता है और उप गोः अ रूप बनता है। तब प्रातिपादिक संज्ञा हो सुप्- ङस् का लोप हो उपगु अ रूप बनता है।
[४|१|९३] एकोगोत्रे - गोत्र अर्थ में अपत्य- अर्थवाचक एक ही प्रत्यय होता है। | औपगवः का अर्थ है उपगु संतान। यहाँ उपगु से अपत्य- अर्थवाचक णल् प्रत्यय हुआ है। अतः औपगव की संतान - इस प्रकार पौत्र को बतलाने के लिए पुनः अपत्य - अर्थवाचक प्रत्यय की आवश्यक्ता नहीं होती। औपगवः से उपगु का पुत्र , उपगु का पौत्र, उपगु के पौत्र का पुत्र आदि सभी अर्थों का बोध होता है।
[४|१|९४] गोत्राद्यून्यस्त्रियाम् - स्त्रीलिङ्ग को छोड़कर (क्योंकि स्त्रीलिङ्ग में युवा संज्ञा नही होती) युवा अर्थ में गोत्र (गोत्र-प्रत्यान्त) से अपत्यवाचक प्रत्यय होता है। | गार्ग्यस्यापत्यं युवा = गार्ग्यायणः। दाक्षेरपत्यं युवा = दाक्षायणः।
[४|१|९५] अत इञ् - अकारान्त प्रातिपादिक के षष्ठयन्त समर्थ से अपत्य अर्थ में इञ् (इ) प्रत्यय होता है। | दक्षस्यापत्यम् (दक्ष का अपत्य) इस विग्रह में अकारान्त प्रातिपादिक दक्ष के षष्ठयन्त समर्थ दक्षस्य से इञ् प्रत्यय हो दक्षस्य इ रूप बनता है। तब सुप लोप हो दक्ष इ रूप बनने पर अजादि-वृद्धि और अन्त्य अकार का लोप हो प्रथमा के एकवचन में दाक्षिः रूप सिद्ध होता है।
[४|१|९६] बाह्वादिभ्यश्च बाहु आदि के षष्ठयन्त समर्थ से भी अपत्य अर्थ में इञ् (इ) प्रत्यय होता है। | बाहोरपत्यम् (बाहु-ऋषिविशेष का अपत्य) - इस अर्थ में बाहु के षष्ठयन्त समर्थ बाहोः से इञ् प्रत्यय हो बाहोः इ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो बाहु इ रूप बनने पर उकार को गुणादेश और पुनः उसे अव् आदेश होकर प्रथमा के एकवचन में बाहविः रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - उपबाहु + इञ् == औपबाहविः, उडुलोमन् + इञ् == औडुलामिः, शरलोमन् + इञ् == शारलोमिः।
[४|१|९७] सुधातुरकङ्च - सुधातु शब्द से अपत्यार्थ में इञ् प्रत्यय होता है और उसके सन्नियोग में अकङ् आदेश। | सुधातृ + इञ् == सौधातकिः।
[४|१|९८] गोत्रे कुञ्जादिभ्यश्च्फञ् गोत्र अर्थ में कुञ्ज आदि शब्दों से चफञ् प्रत्यय हो जाता है। | कुञ्ज + च्फञ् + ञ्य == कौञ्जायन्यः, ब्रध्न + च्फञ् + ञ्य == ब्राध्नायन्यः, शङ्ख + च्फञ् + ञ्य == शङ्खायन्यः।
[४|१|९९] नडादिभ्यःफक् नड् आदि शब्दों से फक् प्रत्यय। | नडस्य गोत्रापत्यं नाडायनः, चारायणः।
[४|१|१००] हरितादिभ्योऽ ञः - अञ् प्रत्ययान्त हरित् आदि शब्दों से अपत्यार्थ में फञ् प्रत्यय। | हरित् + अञ् == हारितः ; हारित + फक् == हारितायनः, किन्दास + अञ् == कैन्दासः ; कैन्दास + फक् == कैन्दासायनः।
[४|१|१०१] यञिञोश्च - गोत्र अर्थ में वर्तमान यञ्-प्रत्यान्त और इञ्-प्रत्यान्त से फक् प्रत्यय होता है। | गार्ग्य में गोत्र अर्थ में यञ् प्रत्यय हुआ है, अतः प्रकृत सूत्र से गर्गस्य योवापत्नम् (गर्ग का युवापत्य) - इस अर्थ में यञ् प्रत्यान्त गार्ग्य से फक् प्रत्यय हो गार्ग्य फ रूप बनता है। अन्य उदाहरण - वात्स्य + फक् == वात्स्यायनः, दाक्षि + फक् == दाक्षायणः, प्लाक्षि + फक् == प्लाक्षायणः।
[४|१|१०२] शरद्वच्छुनकदर्भाद् भृगुवत्साग्रायणेषु - भृगु, वत्स तथा आग्रायण इन शब्दों में क्रमशः वर्तमाने शरद्वत्, शुनक तथा दर्भ शब्दों से गोत्रापत्य में फक् प्रत्यय होता है। | शारद्वतायनो भवति भार्गवगोत्रे याच्ये, अन्यत्र शारद्वत एव। शौनकायनो भवति वात्स्यगोत्रे वाच्ये, अन्यत्र शौनक एव दर्भायणो भवति आग्रायणगोत्रे वाच्ये, अन्यत्र दार्भिरेव।
[४|१|१०३] द्रोणपर्वतजीवन्तादन्यतरस्याम् - द्रोण, पूर्व तथा जीवन्त शब्दों से गोत्रापत्य में विकल्प से फक् प्रत्यय होता है। | द्रोण + फक् == द्रौणायनः ; द्रौण + इञ् == द्रौणिः इसी प्रकार पर्वतायनः ; पार्वतिः, जैवन्तायनः ; जैवन्तिः।
[४|१|१०४] अनृष्यानन्तर्येबिदादिभ्योऽञ् - बिदादिगण में ऋषिवाचक शब्दों से गोत्र अर्थ में और अनृषिवाचक (ऋषि-वाचक शब्दों से भिन्न) शब्दों से अपत्य अर्थ में अञ् ( अ) प्रत्यय होता है। | बिद शब्द ऋषिवाचक है, अतः उससे गोत्र अर्थ में अञ् प्रत्यय हो बिद् अ रूप बनता है। आदिवृद्धि और अन्त्य अकार का लोप हो प्रथमा के एकवचन में बैदः रूप सिद्ध होता है।
[४|१|१०५] गर्गादिभ्योयञ् गर्ग आदि से गोत्र अर्थ में यञ् (य) प्रत्यय होता है। | गर्गस्य गोत्रापत्यम् (गर्ग का गोत्रापत्य) - इस विग्रह में गोत्र अर्थ में षष्ठयन्त गर्ग से यञ् प्रत्यय हो गर्ग य रूप बनता है। तब अजादि वृद्धि और अन्त्य अकार का लोप् हो प्रथमा के एकवचन में गार्ग्यः रूप सिद्ध होता है।
[४|१|१०६] मधुबभ्रूवोर्ब्राह्मणकौशिकयोः - ब्राह्मण कौशिक अर्थ में क्रमशःमधु एवम् बभ्रु शब्दों से यञ् प्रत्यय होता है। | माधव्यो भवति ब्राह्मणे गोत्रे वाच्ये, अन्यत्र माधव एव। बाभ्रव्यो भवति कौशिके गोत्रे वाच्ये, अन्यत्र बाभ्रव एव।
[४|१|१०७] कपिबोधादाङ्गिरसे - कपि तथा बोध शब्दों से अङ्गिरस् अर्थ में गोत्रापत्यार्थ यञ् प्रत्यय होता है। | कपि + यञ् == काप्यः, इसी प्रकार बौध्यः
[४|१|१०८] वतण्डाच्च - अङ्गिरस् अर्थ में बतण्ड शब्द से गोत्रापत्यार्थ यञ् प्रत्यय होता है। | वतण्ड + यञ् == वातण्ड्यः।
[४|१|१०९] लुक्स्त्रियाम् - वतण्ड शब्द से विहित यञ् प्रत्यय का स्त्रीलिङ्ग में लोप। | वतण्ड + यञ् + ङीन् == वतण्डी == वतण्ड + अण् + ङीप् == वातण्डी।
[४|१|११०] अश्वादिभ्यःफञ् अश्व आदि शब्दों से गोत्रापत्य मे फञ् प्रत्यय होता है। | अश्व + फञ् == अश्वायनः, अश्मन् + फञ् == आश्मायनः।
[४|१|१११] भर्गात्त्रैगर्ते - भर्ग शब्द से गोत्रापत्य-विदेश त्रैगर्त अर्थ में फञ् प्रत्यय होता है। | भर्ग + फञ् == भर्गस्य ; भर्ग + इञ् == भर्गिः।
[४|१|११२] शिवादिभ्योऽण् - शष्ठयन्त शिव आदि से अपत्य अर्थ में अण् ( अ) प्रत्यय होता है। | शिवस्यापत्यम् (शिवा का अपत्य) - इस अर्थ में अत इञ् (४_१_९५) षष्ठयन्त शिव से इञ् प्रत्यय होता था, किन्तु प्रकृत सूत्र से उसका बाध हो अण् प्रत्यय होकर शिव अ रूप बनता है तब अजादि-वृद्धि और अन्त्य अकार का लोप हो प्रथमा के एकवचन में शैवः रूप सिद्ध होता है।
[४|१|११३] अवृद्धाभ्योनदीमानुषीभ्यस्तन्नामिकाभ्यः - व्रिद्धसंज्ञक भिन्न नदीनाम तथा मनुष्यनाम से वाचक शब्दों से अपत्यार्थ में अञ् प्रत्यय होता है। | नादीवाचिभ्यः - यमुनायाः अपत्यं == यामुनः, इरावत्याः अपत्यम् = ऐरावतः, वैतस्तः, नार्मदः। मानुषीभ्यः - शिक्षितायाः अपत्यं = शैक्षितः, संस्कृतायाः अपत्यं सांस्कृतः, चैन्तितः।
[४|१|११४] ऋष्यन्धकवृष्णिकुरुभ्यश्च - ऋषि-वाचक तथा अन्धक वृष्णि और कुरु कुल-बोधक प्रातिपादक के षष्ठयन्त समर्थ से अपत्य अर्थ में अण् ( अ) प्रत्यय होता है। | वसिष्ठ शब्द ऋषि-वाचक है अतः प्रकृत सूत्र से अपत्य अर्थ में उसके षष्ठयन्त समर्थ से अण् प्रत्यय हो वशिष्ठस्य अ रूप बनता है। तब सुप्-लोप और अजादि वृद्धि आदि होकर प्रथमा के एकवचन में वासिष्ठ रूप सिद्ध होता है। जिसका अर्थ है - वसिष्ठ का अपत्य।
[४|१|११५] मातुरुत्संख्यासंभद्रपूर्वायाः - संख्या (संख्यावाचक शब्द), सम् और भद्र पर्व में होने पर मातृ के षष्ठयन्त समर्थ से अपत्य अर्थ में अण् ( अ) प्रत्यय होता है। | द्वयोमात्रोरपत्यम् (दो माताओं का पुत्र) - इस अर्थ में संख्यावाचक- द्वि-पूर्वक द्विमातृ के षष्ठयन्त द्वयोर्मात्रोः से अण् प्रत्यय हो द्वयोमात्रोः अ रूप बनता है। तब दोनों ही स्थलों पर सुप्-लोप हो द्वि-मातृ अ रूप बनने पर पुनः प्रकृत सूत्र से मातृ के ऋकार के स्थान पर उर् हो।
[४|१|११६] कन्यायाःकनीनच - कन्या शब्द के षष्ठयन्त समर्थ से अपत्य अर्थ में अण् प्रत्यय होता हैऔर कन्या के स्थान पर कनीन आदेश होता है। | कन्याया अपत्यम् (कन्या का अपत्य) - इस अर्थ में षष्ठयन्त पद कन्यायाः से अण् प्रत्यय हो कन्यायाः अ रूप बनता है। तब सुप् लोप हो कन्या अ रूप बनने पर पुनः प्रकृत सूत्र से कन्या के स्थान पर कनीन अ रूप बनेगा। यहाँ अजादि-वृद्धि और अन्त्य अकार का लोप हो प्रथमा के एकवचन में कनीनः रूप सिद्ध होता है।
[४|१|११७] विकर्ण-शुङ्गच्छगलाद्-वत्स-भरद्वाजात्रिषु - विकर्ण, शङ्गु तथा शकल शब्दों से यथासंज्ञा वत्स, भरद्वाज तथा अत्रि-इन तीन अपत्य विशेष अर्थों में अण् प्रत्यय होता है। | विकर्णस्यापत्यं = वैकर्णः (वत्स कुलोत्पन्न विकर्ण नामक पुरुष की सन्तान)। शौङ्ग (भरद्वाजकुलोत्पन्न शुङ्ग नामक पुरुष की सन्तान)। छागलः (अत्रि कुलोत्पन्न छगल की सन्तान)।
[४|१|११८] पीलायावा - पीला शब्द से अपत्यार्थ में विकल्प से अण् प्रत्यय होता है। | पीलाया अपत्यं - पैलः, पैलेयः।
[४|१|११९] ढक्चमण्डूकात् - मण्डूक शब्द से अपत्यार्थ में पाक्षिक ढक् प्रत्यय हो जाता है। | ढक् - मण्डूकस्यापत्यं = मण्डूकेयः (मण्डूक नामक पुरुष का अपत्य)। चकारादण् च - माण्डूकः। पक्षे इञ् - माण्डूकिः।
[४|१|१२०] स्त्रीभ्योढक् - स्त्री प्रत्ययान्त शब्दों (जिनके अन्त में टाप् आदि कोई स्त्री-प्रत्यय हो) के षष्ठयन्त समर्थ से अपत्य अर्थ में ढक् प्रत्यय होता है। | विनताया अपत्यम् (विनता का अपत्य)- इस अर्थ में स्त्री-प्रत्यान्त विनता शब्द के षष्ठयन्त समर्थ विनतायाः से प्रकृत सूत्र से ढक् प्रत्यय हो विनतायाः ढक` रूप बनता है। यहाँ सुप्-लोप और ढक् (ढ्) के आदि ढकार को एय् हो विनता एय् अ रूप बनेगा। तब अजादि-वृद्धि और अन्त्य आकार का लोप हो प्रथमा के एक्वचन में वैनतेयः रूप सिद्ध होता है।
[४|१|१२१] द्वयचः - द्वयच् स्त्रीप्रत्ययान्त शब्द से अपत्यार्थ में ढक् प्रत्यय होता है। | गंगाया अपत्यं गाङ्गेयः, दत्ताया अपत्यं दात्तेय, गौपेयः, सैतेयः।
[४|१|१२२] इतश्चानिञः - इञ् प्रत्ययान्तभिन्न इकारान्त प्रातिपादिक से अपत्यार्थ में ढक् प्रत्यय हो जाता है। | अत्रेरपत्यं = आत्रेयः, निधेरपत्यं = नैधेयः।
[४|१|१२३] शुभ्रादिभ्यश्च शुभ्र आदि शब्दों से अपत्यार्थ में टक् प्रत्यय हो जाता है। | शुभ्रस्यापत्यं = शौभ्रेयः, वैष्टपुरेयः।
[४|१|१२४] विकर्णकुषीतकात् काश्यपे - काश्यपात्मक अपत्यविशेषार्थ में विकर्ण तथा कुशीतक शब्दों से ढक् प्रत्यय हो जाता है। | वैकर्णेयः, कौषीतकेयः। काश्यपादन्यत्र वैकर्णिः, कौषीतकिः।
[४|१|१२५] भ्रुवोवुक्च - `भ्रु ` शब्द से अपत्यार्थ में ढक् प्रत्यय और वुँक् का आगम होता है। | भ्रू + ढक् == भ्रौ + एय == भ्रौ + वुक् + एय == भ्रौव् + एय == भ्रौवेयः।
[४|१|१२६] कल्याण्यादीनामिनङ्च कल्याणी आदि शब्दों से अपत्यार्थ में ढक् प्रत्यय तथा इनङ् अन्तादेश। | कल्याणी + ढक् == कल्याणिन् + एय == कल्याणिनेय == कल्याणिनेयः, सुभगा + ढक् == सौभागिन् + एय == सौभागिनेय == सौभागिनेयः।
[४|१|१२७] कुलटायावा - कुलटा शब्द से अपत्यार्थ में ढक् प्रत्यय तथा विकल्प से इनङ् अन्तादेश। | कुलटाया अपत्यं = कौलटिनेयः, कौलटेयः।
[४|१|१२८] चटकायाऐरक् - चटका शब्द से अपत्यार्थ में एरक् प्रत्यय हो जाता है। | चटकाया अपत्यं पुमान् = चाटकैरः (चिड़िया का नर अपत्य, अथवा चटका नामक स्त्री का लड़का)।
[४|१|१२९] गोधायाढ्रक् - गोधा शब्द से अपत्यार्थ में ढृक् प्रत्यय हो जाता है। | गोधाया अपत्यं = गौधेरः।
[४|१|१३०] आरगुदीचाम् - गोधा शब्द से अपत्यार्थ में उदीश्य आचार्यों के अनुसार आरक् प्रत्यय भी होता है। | गौधारः
[४|१|१३१] क्षुद्राभ्योवा - क्षुद्रा शब्द से अपत्यार्थ में विकल्प से ढक् प्रत्यय होता है। | काणेरः, काणेयः। दासेरः, दासेयः ढकि प्राप्ते आरम्भः, इति पक्षे सोऽपि भवति।
[४|१|१३२] पितृष्वसुश्छण् - पितृष्वसृ शब्द से अपत्यार्थ से छण् प्रत्यय होता है। | पितृष्वसुरपत्यं = पैतृष्वस्त्रीयः।
[४|१|१३३] ढकिलोपः - पितृष्वसृ शब्द से विहित छण् प्रत्यय का ढक् प्रत्यय के परे उसका लोप। | पितृष्वसृ + ढक् == पैतृष्वस् + एय == पैतृष्वसेय == पैतृष्वसेयः।
[४|१|१३४] मातृष्वसुश्च - मातृष्वसृ शब्द से भी अपत्यार्थ में छण् प्रत्यय तथा ढक् प्रत्यय के परे उसका लोप। | मातृष्वसृ + ढक् == मातृष्वस् + एय == मातृष्वसेय == मातृष्वसेयः।
[४|१|१३५] चतुष्पाद्भयोढञ् - चतुष्पाद्वाची शब्दों से अपत्यार्थ में ढञ् प्रत्यय होता है। | शुन्तिबाहु + ढक् == शौन्तिबाहेयः, जम्बू + ढक् == जाम्बेयः।
[४|१|१३६] गृष्टयादिभ्यश्च गृष्टि आदि शब्दों से अपत्यार्थ से ढञ् प्रत्यय होता है। | गृष्टेरपत्यं = गार्ष्टेयः, हार्ष्टेयः।
[४|१|१३७] राजश्वशुराद्यत् - श्वशुर शब्द से अपत्य अर्थ में और राजन् शब्द से जाति अर्थ में यत् (य) प्रत्यय होता है। | श्वशुरस्यापत्यम् (श्वशुर का अपत्य साला) - इस अर्थ में षष्ठयन्त श्वशुर य रूप बनने पर अन्त्य अकार का लोप हो प्रथमा के एकवचन में श्वशुर्यः रूप सिद्ध होता है।
[४|१|१३८] क्षत्राद् घः - क्षत्त्र शब्द से (घः) घ प्रत्यय होता है। | क्षत्त्र से घ प्रत्यय हो क्षत्त्र घ रूप बनने पर घकार को इय हो क्षत्त्र इय् अ रूप बनता है। तब अन्त्य अकार का लोप हो प्रथमा के एकवचन में क्षत्त्रियः रूप सिद्ध होता है।
[४|१|१३९] कुलात् खः - कुल शब्द तथा कुलशब्दान्त प्रातिपादिक से अपत्यार्थ में ख प्रत्यय होता है। | कुलस्यापत्यं, आढ्यकुलीनः, क्षेत्रियकुलीनः।
[४|१|१४०] अपूर्वपदादन्यतरस्यांयड्-ढकञौ - पूर्वपद रहित कुल शब्द से विकल्प से यत् तथा ढकञ् प्रत्यय होते हैं। | कुल् + यत् == कुल्यः ; कुल + ढकञ् == कौलेयकः, कुल + ख == कुलीनः।
[४|१|१४१] महाकुलादञ्खञौ - महाकुल शब्द से विकल्प से अपत्यार्थ में अञ् तथा खञ् प्रत्यय होते हैं। | महाकुल + अञ् == माहाकुलः, महाकुल + खञ् == माहाकुलीनः (कुलात्खः) सूत्र केद्वारा "ख" प्रत्यय होकर महाकुल + ख == महाकुलीनः
[४|१|१४२] दुष्कुलाड्ढक् - दुष्कुल शब्द से अपत्यार्थ में विकल्प से ढक् तथा ख प्रत्यय होते हैं। | दुष्कुल + ढक् == दौष्कुलेयः, दुष्कुल + ख == दुष्कुलीनः।
[४|१|१४३] स्वसुश्छः - स्वसृशब्द से अपत्यार्थ में छ प्रत्यय होता है। | स्वसृ + छ == स्वसृ + ईय =(यणादेश होकर)= स्वस्त्रीय। स्वसुरपत्यम् = स्वस्तृयः (बहिन का अपत्य)।
[४|१|१४४] भ्रातुर्व्यच्च - अपत्यार्थ में भ्रातृ शब्द से व्यत् तथा छ प्रत्यय होते हैं। | भ्रातुरपत्यं = भ्रातृव्यः (भाई का लड़का), भ्रात्रीयः।
[४|१|१४५] व्यन्सपत्ने - भ्रातृ शब्द से व्यन् प्रत्यय होता है यदि प्रत्ययान्त से सपत्न का अभिधान होता है। | भ्रातृव्यः कण्टकः।
[४|१|१४६] रेवत्यादिभ्यष्ठक् षष्ठयन्त रेवती आदि शब्दों से अपत्य अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | रेवत्याः अपत्यम् (रेवती का अपत्य) - इस अर्थ में षष्ठयन्त रेवत्याः से ठक् हो रेवत्याः ठ रूप बनने पर सुप्-लोप होकर रेवती ठ रूप बनता है। अन्य उदाहरण - कर्तृ + अण् कार्त्रः; कार्त्र + फिञ् == कार्त्रायणिः इसी प्रकार हार्त्रायणिः
[४|१|१४७] गोत्रस्त्रियाः कुत्सने ण च - स्त्रीत्वविशिष्ट गोत्र्वाचक शब्द से कुत्सन् (निन्दा) अर्थ में विकल्प से ण तथा ठच् प्रत्यय होता है। | गार्ग्या अपत्यं = गार्गो जाल्मः, गार्गिकः। ग्लुचुकायन्या अपत्यं = ग्लौचुकायनः, ग्लौचुकायनिकः।
[४|१|१४८] वृद्धाट्-ठक् सौवीरेषु बहुलम् - सौवीरगोत्राभिधायी वृद्धसंज्ञक प्रातिपादिक से अपत्यार्थ में कुत्सनार्थ के गम्यमान होने पर बहुल करके ठक् प्रत्यय होता है। | भागवित्तेरपत्यं = भागवित्तिको जाल्मः।
[४|१|१४९] फेश्छच - सौवीरगोत्राभिधीय फिञ् प्रत्ययान्त प्रातिपादिक के कुत्सा के गम्यमान होने पर अपत्यार्थ में छ प्रत्यय तथा पक्षिक ठक् प्रत्यय होता है। | यमुन्दस्यापत्यं यामुन्दायनिः यामुन्दायनेरपत्यं यामुन्दायनीयः, यामुन्दायनिकः।
[४|१|१५०] फाण्टाहृतिमिमताभ्यांण फिञौ - फाण्टाहृति तथा मिमत शब्दों से सौवीरगोत्राभिधानार्थ में ण तथा फिञ् प्रत्यय होते हैं। | फाण्टाहृतस्य सौवीरगोत्रस्यापत्यं फाण्टाहृतः। फिञ् - फाण्टाहृतायनिः। मैमतः, मैमतायनिः।
[४|१|१५१] कुर्वादिभ्योण्यः कुरु आदि शब्दों से अपत्यार्थ में ण्य प्रत्यय होता है। | कुरोरपत्यं कौरव्यः, गार्ग्यः।
[४|१|१५२] सेनान्तलक्षणकारिभ्यश्च - सेनान्तप्रातिपादिक, लक्षण शब्द तथा शिल्पिवाचक शब्दों से अपत्यार्थ में ण्य प्रत्यय होता है। | कारिषेणस्यापत्यं = कारिषेण्यः, हारिषेण्यः लाक्षण्यः। कारिवाचिभ्यः - कौम्भकार्यः (कुम्हार), तान्तुवाय्यः (जुलाहा), नापित्यः (नाई)।
[४|१|१५३] उदीचामिञ् - उदीच्य आचार्य के मत में सेनान्त प्रातिपादिक आदि से इञ् प्रत्यय होता है। | कारिषेणिः, हारिषेणिः लाक्षाणिः कौम्भकारिः, तान्तुवायिः।
[४|१|१५४] तिकादिभ्यःफिञ् तिक आदि शब्दों से अपत्यार्थ में फिञ् प्रत्यय होता है। | तिकस्यापत्यं तैकायनिः, कैतवायनिः।
[४|१|१५५] कौशल्यकार्मार्याभ्यांच - कौशल्य तथा कार्मार्य शब्दों से अपत्यार्थ में फिञ् प्रत्यय होता है। | कौसल्यस्यापत्यं कौसल्यायानिः। कार्मार्यायणिः।
[४|१|१५६] अणोद्वयचः - अण् प्रत्ययान्त द्वयच् प्रातिपादिक से अपत्यार्थ में फिञ् प्रत्यय होता है। | कार्त्रस्यापत्यं = कार्त्रायणिः, हार्त्रायणिः।
[४|१|१५७] उदीचांवृद्धादगोत्रात् - गोत्रावाचकभिन्न वृद्धसंज्ञक शब्द से अपत्यार्थ में फिञ् प्रत्यय होता है। | आम्रगुप्तस्यापत्यम् = आम्रगुप्तायनिः, ग्रामरक्षस्यापत्यं = ग्रामरक्षायणिः।
[४|१|१५८] वाकिनादीनांकुक्च वाकिन आदि शब्दों से अपत्यार्थ में फिञ् प्रत्यय तथा प्रकृति को कुँक् का आगम भी हो जाता है। | वाकिन + फिञ् == वाकिनक् + आयनि == वाकिनकायनि == वाकिनकायनिः, गारेध + फिञ् == गारेधक् + आयनि == गारेधकायनि == गारेधकायनिः। इसी प्रकार कार्यट्यकायनि, कार्यट्यकायनि ; काककायनि == काककायनिः
[४|१|१५९] पुत्रान्तादन्यतरस्याम् - पुत्रान्तप्रातिपादिक से विहित फिञ् प्रत्यय के परे रहते पुत्रान्त शब्द को विकल्प से कुँक् का आगम्। | गार्गीपुत्रकायणिः, गार्गीपुत्रायणिः, गार्गीपुत्रिः। वात्सीपुत्रकायणिः, वात्सीपुत्रायणिः, वात्सीपुत्रिः।
[४|१|१६०] प्राचामवृद्धात् फिन्बहुलम् - अवृद्ध शब्दों से अपत्यार्थ में प्राच्य आचार्यों के मत में बहुल करके फिन् प्रत्यय होता है। | ग्लुचुकस्यापत्यं ग्लुचुकायनिः, अहिचुम्बकायानिः पक्षे इञ् - ग्लौचुकिः, आहिचुम्बकिः।
[४|१|१६१] मनोर्जातावञ्यतौषुक्च - मनु शब्द से विकल्प से अञ् तथा यत् प्रत्यय एवम् कुँक् का आगम यदि प्रत्ययान्त शब्द से जाति की प्रतीति हो। | मनु + षुक् + अञ् == मानुषः, मनु + षुक् + अञ् == मानुषः।
[४|१|१६२] अपत्यं पौत्रप्रभृति गोत्रम् - यदि पौत्र इत्यादि तृतीय या चतुर्थी पीढ़ी को भी अपत्य रूप से विविक्षित पौत्र आदि की गोत्र संज्ञा होती है। | यदि उपगु के पौत्र को भी उपगु की संतान ही कहना अभीष्ट हो तो उसकी गोत्र संज्ञा होगी।
[४|१|१६३] जीवति तु वंश्ये युवा - यदि पिता आदि जीवित हों तो पौत्र आदि की संतान (प्रपौत्र आदि) की युवा संज्ञा होती है, गोत्र संज्ञा नहीं। | गार्ग्यस्य युवापत्यं = गार्ग्यायणः, वात्स्यायनः।
[४|१|१६४] भ्रातरिचज्यायसि - ज्येष्ठ भ्राता के जीवित रहने पर कनिष्ठ भ्राता की युवसंज्ञा होती है। | गार्ग्य (पौत्र) के दो पुत्र होने पर, उनके पित्रादिकों की मृत्यु हो चुकी हो, केवल दोनों भाई जीवित हों, तो उनमें से छोटा भाई होगा, उसकी युवा संज्ञा होगी, सो वह गार्ग्यायण कहा जाएगा। पर बड़े भाई की गोत्रसंज्ञा ही होगी, सो वह गार्ग्य कहा जाएगा।
[४|१|१६५] वान्यस्मिन्सपिण्डे-स्थविरतरे-जीवति - भ्रातृभिन्न वृद्धतर सपिण्ड के जीवित रहने पर पौत्रप्रभृति जीवित अपत्यों की विकल्प से युवसंज्ञा होती है। | गार्ग्यस्यापत्यं, गार्ग्यायणः, पक्षे गोत्रसंज्ञैव - गार्ग्यः। वात्सायनः, वात्स्यो वा।
[४|१|१६६] वृद्धस्यचपूजायाम्| - पूजा के गम्यमान होने पर विकल्प से वृद्ध की युवसंज्ञा होती है।
[४|१|१६७] यूनश्चकुत्सायाम्| - पूजा के गम्यमान होने पर योवक को विकल्प से युवसंज्ञा होती है।
[४|१|१६८] जनपदशब्दात्क्षत्रियादञ् - यदि जनपदवाची शब्द क्षत्रीयवाची भी हो तो अपत्य अर्थ में उससे अञ् ( अ) प्रत्यय होता है। | जनपदवाची शब्द पञ्चाल अ रूप बनता है। यहाँ अजादि-वृद्धि और अन्त्य-लोप हो प्रथमा के एकवचन में पञ्चालः रूप सिद्ध होता है।
[४|१|१६९] साल्वेयगान्धारिभ्यांच - साल्वेय तथा गान्धरि शब्दों से अपत्यार्थ में अञ् प्रत्यय होता है। | साल्वेयानामपत्यं साल्वेयः गान्धारः।
[४|१|१७०] द्वयञ्मगध-कलिङ्ग-सूरमसा-दण् - क्षत्त्रियाभिद्यायक जनपदार्थ प्रयुज्यमान द्वयच्, मगध, कलिंग तथा सूरमस शब्दों से अपत्यार्थ में अण् प्रत्यय होता है। | द्वयच् - अङ्गानामपत्यम् = आङ्गः, वाङ्ग, सौह्मः, पौण्डूः। मगधानामपत्यं = मागधः। कालिङ्गः, सौरमसः।
[४|१|१७१] वृद्धेत्कोसलाजादाञ्ञ्यङ् - वृद्ध प्रातिपादिक, इकारान्त शब्द, कोशल तथा अजाद शब्दों से अपत्यार्थ में ज्युङ् प्रत्यय होता है। | व्रिद्धसंज्ञकेभ्यः - आम्बष्ठानामपत्यम् = आम्बष्ठयः, सौवीर्यः। इकारान्तात् - आवन्त्यः, कौन्त्यः। कौसलेयः। आजाद्यः।
[४|१|१७२] कुरूनादिभ्योण्यः - कुरु और नकारादि क्षत्रियबोधक जनपदवाची शब्द से ण्य (य) प्रत्यय होता है। | कुरोरपत्यम् (कुरु का अपत्य) और कुरुणां राजा (कुरुओं का राजा) - इन दोनों ही अर्थों में षष्ठयन्त कुरु शब्द से ण्य प्रत्यय हो कुरु य रूप बनता है। तब आदिवृद्धि और उकार को गुणादेश आदि होकर प्रथमा के एकवचन में कौरव्यः रूप सिद्ध होता है। नादिभ्यः == नैषध्यः, नैपथ्यः।
[४|१|१७३] साल्वावयवप्रत्यग्रथकलकूटाश्मकादिञ् - साल्वावयव, प्रत्यग्र, कलकूट तथा अश्मक शब्दों में अपत्यार्थ में ज्युङ् प्रत्यय होता है। | साल्वावयवेभ्यः- औदुम्बरिः, तैलखलिः, माद्रकारिः, यौगन्धरिः, भौलिङ्गिः, शारदण्डिः, प्रात्यग्रथिः। कालकूटिः, आश्मकिः।
[४|१|१७४] तेतद्राजाः - अञादि प्रत्ययों की तद्राज संज्ञा होती है। | (पाञ्चालः, पाञ्चालौ) पञ्चालाः, आङ्गः, आङ्गौः), अङ्गाः
[४|१|१७५] कम्बोजाल्लुक् - कम्बोज शब्द के पश्चात् तद्राज प्रत्यय का लोप होता है। | कम्बोजस्यापत्यम् (कम्बोज की संतान) इस अर्थ में अञ् प्रत्यय हो अजादि-वृद्धि आदि होकर कम्बोज रूप बनता है।तब प्रकृत सूत्र से तद्राज प्रत्यय - अञ् का लोप हो जाता है। इस स्थिति में अञ्-नैमित्तिक अजादि-वृद्धि आदि की भी विवृत्ति हो पुनः कम्बोज रूप बनता है।
[४|१|१७६] स्त्रियामवन्तिकुन्तिकुरुभ्यश्च - अवन्ति, कुन्ति तथा कुरु शब्दों से विहित तद्राज-प्रत्ययों का स्त्रीत्व विवक्षा में लोप हो जाता है। | अवन्ति + व्यङ् + ङीष् == अवन्ती, कुन्ति + ण्य + ङीष् == कुन्ती, कुरु + ण्य + ऊङ् == कुरूः।
[४|१|१७७] अतश्च - तद्राज संज्ञक अकार प्रत्यय का स्त्रीत्वविवक्षा में लुक हो जाता है। | शूरसेनस्यापत्यं स्त्री = शूरसेनी, मद्री, दरद्।
[४|१|१७८] नप्राच्यभर्गादियौधेयादिभ्यः - प्राच्य क्षत्रियवाचक, भर्गादि तथा योधेयादि शब्दों से विहित तद्राज-प्रत्ययों का लोप नहीं होता। | प्राच्येभ्यः - पञ्चालस्यापत्यं स्त्री = पाञ्चाली, वैदेही, आङ्गी, वाङ्गी, मागधी। भार्गादिभ्यः = भार्गी, कारूषी, कैकेयी। यौधेयादिभ्यः - यौधेयी, शौभ्रेयी, शौकेयी।
[४|२|१] तेनरक्तंरागात् - रक्त (रँगा हुआ) अर्थ में तृतीयान्त राग (रङ्ग) वाचक पद से ही यथाविहित प्रत्यय होता है। | कषायेण रक्तं वस्त्रम् (कषाय रंग से रँगा हुआ कपड़ा) - इस विग्रह में रँगा हुआअर्थ में प्राग्दीव्यताऽण् (४_१_८३) से अण् ( अ) प्रत्यय होता है।प्रकृत सूत्र से यह प्रत्यय तृतीयान्त रङ्गवाची पद कषायेण से ही होता है और कषायेण अ रूप बनता है।यहा`` सुप्-लोप हो कषाय अ रूप बनने पर अजादि-वृद्धि और अन्त्य-लोप हो प्रथमा के एकवचन में काषायम् रूप सिद्ध होता है।
[४|२|२] लाक्षारोचनाशकलकर्दमाट्ठक् - रागवाचक तृतीया समर्थ लाक्षा, रोचना, शकल तथा कर्दम शब्दों से रक्त अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | शकल + अण् == शकलम्, कर्दम् + अण् == कर्दमम्, नील् + अन् == नीलम्, पीत् + कन् == पीतकम्, हरिद्रा + अञ् == हारिद्रम्, महारजन् + अञ् == माहारजनम्।
[४|२|३] नक्षत्रेणयुक्तःकालः - नक्षत्र से युक्त काल अर्थ में तृतीयान्त नक्षत्रवाचक शब्द से अण् ( अ) प्रत्यय होता है। | पुष्येण युक्तं दिनम् (पुष्य नामक नक्षत्र से युक्त दिन) - इस अर्थ में तृतीयान्त नक्षत्रवाचक पुष्येण से अण् प्रत्यय हो पुष्येण अण् रूप बनता है।तब सुप्-लोप, अजादि-वृद्धि और अन्त्य-लोप हो पौष्य अ रूप बनेगा। अन्य उदाहरण - मघा + अण् == माघमहः।
[४|२|४] लुबविशेषे - दिन या रात का बोध न होने पर नक्षत्र से युक्त काल अर्थ में विहित अण् प्रत्यय का लोप होता है। | अद्य् पुष्येण युक्तः कालः ( आज पुष्य नक्षत्र से युक्त काल है) - इस अथ में पूर्वसूत्र (४_२_३) से पुयेष्ण से अण् प्रत्यय तथा सुप् लोप हो पुष्प अ रूप बनता है। यहाँ अद्य ( आज) का प्रयोग होने से यह पता नही चलता कि यह दिन है या रात अतः प्रकृत सूत्र से अण् ( अ) का लोप हो पुष्य रूप सिद्ध होता है। तब विभक्ति कार्य हो प्रथमा के एकवचन में पुष्यः रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - कृतिका + अण् == कृतिका, रोहिणी + अण् == रोहिणी।
[४|२|५] संज्ञायांश्रवणाश्चत्थाभ्याम् - श्रवण शब्द तथा अश्वत्थ शब्दों से संज्ञा विषय में विहित प्रत्यय का लोप। | श्रवणा + अण् == श्रावणी, अश्वत्थ + अण् == आश्वत्थी।
[४|२|६] द्वन्द्वाच्छः - तृतीयासमर्थ नक्षत्रद्वन्द्व ये युक्त काल अर्थ में छ प्रत्यय होता है चाहे वह काल विशेष हो या कालसामान्य। | राधानुराधा + छ == राधानुराधीयम्।
[४|२|७] दृष्टंसाम - देखा गया साम अर्थ में तृतीयान्त समर्थ से ही यथाविहित प्रत्यय होता है। | वसिष्ठेन दृष्टं साम (वसिष्ठ से देखा गया साम) अर्थ में प्राग्दीव्यतोऽण (४_१_८३) से अण् प्रत्यय प्राप्त होता है। प्रकृत सूत्र से यह प्रत्यय तृतीयान्त वसिष्ठेन से हे होगा और इस प्रकार रूप बनेगा वसिष्ठेन अण्। यहाँ सुप्-लोप हो वसिष्ठ अ रूप बनने पर अजादि-वृद्धि और अन्त्य लोप आदि होकर वासिष्ठम् रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - वसिष्ठ + अण् == वसिष्ठम्, विश्वामित्र + अण् == विश्वामित्रम्।
[४|२|८] कलेर्ढक्| - तृतीयासमर्थ कलिशब्द से `दृष्टऄ अर्थ में ढक् प्रत्यय।
[४|२|९] वामदेवाड्-ड्यड्-ड्यौ - देखा गया साम अर्थ में तृतीयान्त वामदेव शब्द से डयत् और ड्य प्रत्यय होते हैं। | वामदेवेन दृष्टं साम (वामदेव से देखा गया साम) - इस विग्रह में देखा गया साम अर्थ में तृतीयान्त वामदेवेन से ड्यत् प्रत्यय हो वामदेवेन य रूप बनता है। तब सुप लोप आदि होकर वामदेव य रूप बनने पर डित् प्रत्यय परे होने से टि-लोप हो वामदेव् य् == वामदेव्य रूप बनेगा।
[४|२|१०] परिवृतोरथः - घिरा हुआ रथ अर्थ में तृतीयान्त समर्थ से अण् ( अ) प्रत्यय होता है। | वस्त्रेण परिवृतो रथः (वस्त्र से घिरा हुआ रथ) - इस अर्थ में तृतीयान्त वस्त्रेण से अण् प्रत्यय हो वस्त्रेण अ रूप बनता है। तब सुप्-लोप, अजादि-वृद्धि और अन्त्य-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन-पुँल्लिङ्ग में वास्त्रः रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण == वस्त्र + अण् == वस्त्रेण, कम्बल + अण् == कम्बलेन, वसन + अण् == वसनेन, चर्मन् + अण् == चर्मणा।
[४|२|११] पाण्डुकम्बलादिनिः - तृतीयासमर्थ पाण्डुकम्बल शब्द से `परिवतृत्ता रथः` अर्थ में इनि में प्रत्यय होता है। | पाण्डुकम्बलेन परिवृतो रथः = पाण्डुकम्बली, पाण्डुकम्बलिनौ, पाण्डुकम्बलिनः।
[४|२|१२] द्वैपवैयाघ्रादञ् - तृतीयासमर्थ द्वैप तथा वैयाघ्र शब्दों से `परिवृतो रथः ` अर्थ में अञ् प्रत्यय होता है। | द्वैप + अण् == द्वैपः, वैयाघ्र + अण् == वैयाघ्रः।
[४|२|१३] कौमारापूर्ववचने - अपूर्ववचन में कौमार शब्द का निपातन। | अपूर्वपतिं कुमारीं पतिरुपपन्नः = कौमारो भर्त्ता। अपूर्वपतिः कुमारी पतिमुपपन्ना कौमारी भार्या।
[४|२|१४] तत्रोद्-धृतममत्रेभ्यः - उद्धृत (निकाल कर रखा हुआ) अर्थ में सप्तभ्यन्त पात्र-वाचक शब्दों (जैसे-शराब आदि) से अण् ( अ) प्रत्यय होता है। | इस विग्रह में उद्धृत अर्थ में सप्तभ्यन्त पात्र-वाचक अण् प्रत्यय हो शरावे अ रूप बनता है। यहाँ सुप्-लोप , अजादि-वृद्धि और अन्त्य-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन-पुँल्लिंग में शारावः रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - मल्लिका + अण् == माल्लिकः, कर्पर + अण् == कार्परः।
[४|२|१५] स्थण्डिलाच्छयितरि-व्रते - सप्तमीसमर्थ स्थण्डिल शब्द से `शयितृ` अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होते है चाहे समुदाय से व्रत की प्रतीति होती हो। | स्थण्डिले शयितुं व्रतमस्य = स्थाण्डिलो यतिः (चबूतरे पर सोने का जिसका व्रत हो, ऐसा यति)
[४|२|१६] संस्कृतंभक्षाः - यदि संस्कार किया गया पदार्थ दांतो से चबाकर खाने योग्य हो, तो संस्कार किया गया अर्थ में सप्तभ्यन्त समर्थ अर्थ में अण् ( अ) प्रत्यय होता है। | भ्राष्ट्रेषु संस्कृताः यवाः (भाड़ में संस्कार किए गए जौ) इस अर्थ में सप्तभ्यन्त भ्राष्टेषु से अण् प्रत्यय हो भ्राष्टेषु अ रूप बनता है। इस स्थिति में सुप्-लोप और अन्त्य-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन में भ्राष्ट्रा रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - घृत + अण् == घार्तम्, इसी प्रकार ताक्रम्।
[४|२|१७] शूलोखाद्यत् - सप्तमीसमर्थ शूल शब्द तथा उखा शब्दों से `संस्कृत भक्षः` अर्थ में यत् प्रत्यय होता है। | शूल + यत् == शूल्यम्।
[४|२|१८] दध्नष्ठक् - सप्तमीसमर्थ दधि शब्द से `संस्कृत भक्षाः` अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | दधि + ठक् == दाधिकम्।
[४|२|१९] उदश्वितोऽन्यतरस्याम् - सप्तमीसमर्थ उदश्वित् शब्द से `संस्कृतऄ भक्षाः अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | उदश्वित् + अण् == औदश्वितम्
[४|२|२०] क्षीराड्ढञ् - सप्तमीसमर्थ क्षीर शब्द से `संस्कृत भक्षाः` अर्थ में ढञ् प्रत्यय होता है। | यवागू + ढञ् == यवागूः।
[४|२|२१] सास्मिन्पौर्णमासीति संज्ञायाम् - प्रथमा समर्थ शब्द से सप्तम्यर्थ में यथाविहित प्रत्यय होते हैं यदि वह सप्तम्यर्थ पौर्णमासीस्वरूप हो। | पुष्यनक्षत्रेण युक्ता पौर्णमासी = पौषी पौर्णमासी।
[४|२|२२] आग्रहायण्यश्वत्थाट्ठक् - प्रथमा समर्थ पौर्णमासी-प्रातिपादिक अग्रहायणी तथा अश्वत्थ शब्दों से सप्तम्यर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | आग्रहायणी पौर्णमास्यस्मिन् मास= आग्रहायणिको मासः, अर्द्धमासः। एवमाश्वत्थिकः, आश्विनमासः
[४|२|२३] विभाषा फाल्गुनी-श्रवणा-कार्तिकी-चैत्रीभ्यः - प्रथमा समर्थ पौर्णमासी वाचक फाल्गुनी, श्रवण, आर्तिकी तथा चैत्री शब्दों से विकल्प से ठक् प्रत्यय होता है। | फाल्गुनी + ठक् == फाल्गुनिको ; फाल्गुनी + अण् == फाल्गुनो । इसी प्रकार श्रावणिको ; श्रावणः। कार्तिकिको ; कार्तिको। चैत्रिको ; चैत्रो।
[४|२|२४] सास्य देवता - देवता है इसका इस अर्थ में प्रथमान्त प्रातिपादिक से अण् ( अ) प्रत्यय होता है। | इन्द्रो देवताऽस्य (इन्द्र है इसका देवता) यहाँ देवता है इसका अर्थ में प्रथमान्त इन्द्रः से अण् प्रत्यय हो इन्द्रः अ रूप बनता है। तब सुप्-लोप्, अजादि-वृद्धि और अन्त्य-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन में ऐन्द्रः रूप सिद्ध होता है।
[४|२|२५] कस्येत् प्रजापति-वाचक `कऄ शब्द के स्थान में देवतार्थक प्रत्यय के साथ-साथ, इकार आदेश। | को देवताऽस्य कायं हविः।
[४|२|२६] शुक्राद् घन् - इसका देवता है इस अर्थ में शुक्र शब्द से घन् (घ) प्रत्यय होता है। | शुको देवताऽस्य (शुक्र इसका देवता है) - इस अर्थ में प्रथमान्त शुकः से धन प्रत्यय हो शुक्रः घ रूप बनता है। यहाँ सुप्-लोप हो शुक्र घ रूप बनने पर आयनेयीनीयियः से घन् के घकार को इय् होकर शुक्र इय् अ = शुक्र इय रूप बनेगा। इस स्थिति में अन्त्य-लोप और विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में शुक्रियम् रूप सिद्ध होता है।
[४|२|२७] अपोनप्त्रपां नप्तृभ्यां घः - `सास्य देवता` अर्थ में अपोनप्तृ तथा अपान्नप्नृ शब्दों से घ प्रत्यय होता है। | अपोनपात् + घ == अपोनपाद्, अपांनपात् + घ == अपांनपाद्
[४|२|२८] छच - उपर्युक्त शब्दों से छ प्रत्यय भी होता है। | अपोनप्त्रीयं हविः। अपांनप्त्रीयं हविः।
[४|२|२९] महेन्द्राद्-घाणौच - महेन्द्र शब्द से `सास्य देवता ` अर्थ में विकल्प से घ तथा अण् प्रत्यय होते हैं। | महेन्द्र + घ == महेन्द्रो, महेन्द्र + अण् == माहेन्द्रम्, महेन्द्र + छ == महेन्द्रीयम् ।
[४|२|३०] सोमाट्ट्यण् - इसका देवता है इस अर्थ में सोम शब्द से ट्यण (य) प्रत्यय होता है। | सोमो देवताऽस्य (सोम इसका देवता है)- इस अर्थ में सोमः से ट्यण (य) प्रत्यय हो सोमः य रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो सोम य रूप बनने पर अजादि-वृद्धि और अन्त्य-लोप आदि हो प्रथमा के एकवचन में सौम्यम् रूप सिद्ध होता है।
[४|२|३१] वाय्वृतुपित्रुषसोयत् - इसका अर्थ है देवता इस अर्थ में वायु, ऋतु, पितृ और उषस् - इन चार शब्दों से यत् (य) प्रत्यय होता है। | वायुर्देवताऽस्य (वायु इसका देवता है) - इस अर्थ में प्रकृत सूत्र से प्रथमान्त वायुः से यत् प्रत्यय हो वायुः यत् रूप बनता है यहाँ सुप्-लोप हो वायु यत् = वायु य रूप बनने पर उकार को ओकार हो वायो य रूप बनेगा। इस स्थिति में ओकार के स्थान में अव् आदेश हो वाय् अव् य = वायव्य रूप बनने पर विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में वायव्यम् रूप सिद्ध होता है।
[४|२|३२] द्यावापृथिवी-शुनासीर-मरुत्वदग्नीषोम-वास्तोष्पति-गृहमेधाच्छ-च - द्यावापृथिवि, शुनासीर, मरुत्वत्, अग्नीषोम, वास्तोष्पति तथा गृहमेध शब्दों से `सास्य देवता` अर्थ में ढक् प्रत्यय होता है। | द्यावापृथिवी + छ == द्यावापृथिवीयम्, द्यावापृथिवी + यत् == द्यावापृथिव्यम्।
[४|२|३३] अग्नेर्ढक् - अग्नि शब्द में `सास्य देवता` अर्थ में ढक् प्रत्यय होता है। | अग्निर्देवताऽस्य= आग्नेयो मन्त्रः।
[४|२|३४] कालेभ्योभववत् - कालविशेष-वाचक शब्दों से भावार्थ में जिस प्रकार प्रत्ययों का विधान किया गया है उसी प्रकार देवतार्थ में भी। | मास + ठञ् == मासिकम्, आर्द्धमास् + ठञ् == आर्द्धमासिकम्, सांवत्सर् + ठञ् == सांवत्सरिकम्।
[४|२|३५] महाराज-प्रोष्ठपदाट्ठञ् - महाराज तथा प्रोष्ठपद शब्दों से `सास्य देवता` में अर्थ में ठञ् प्रत्यय। | महाराज + ठञ् == माहाराजिकम्, प्रोष्ठपद + ठञ् == प्रौष्ठपदिकम्।
[४|२|३६] पितृव्य-मातुल-मतामह-पितामहाः - भ्राता के अभिधान के लिए प्रयुक्त पितृ और मातृ शब्दों से क्रमशः व्यत् तथा डुलच् प्रत्यय होते हैं। | भ्राता अर्थ में पितृ शब्द से व्यन् (व्य) प्रत्यय हो पितृव्य रूप बनता है। पितृ + व्यन् == पितृव्य।
[४|२|३७] तस्य समूहः - समूह अर्थ में षष्ठयन्त समर्थ में अण् ( अ) प्रत्यय होता है। | काकानां समूहः (काकों का समूह) - इस अर्थ में षष्ठयन्त काकानाम से अण् प्रत्यय हो काकानाम अ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो काक अ रूप बनने पर अजादि-वृद्धि और अन्त्य-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन में काकम् रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - शुक + अण् == शौकम्, अश्वपति + अण् == आश्वपतम्, बक + अण् == बाकम्।
[४|२|३८] भिक्षादिभ्योऽण् षष्ठयन्त भिक्षा आदि शब्दों से समूह अर्थ में अण् ( अ) प्रत्यय होता है। | भिक्षाणां समूहः (भिक्षा का समूह) - इस स्थिति में सुप्-लोप, अजादि-वृद्धि और अन्त्य-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन में भैक्षम् रूप सिद्ध होता है।
[४|२|३९] गोत्रोक्षोष्ट्रो-रभ्र-राज-राजन्य-राजपुत्र-वत्स-मनुष्याजाद्-वुञ् - गोत्र आदि शब्दों से समूह अर्थ में वुञ् प्रत्यय। | औपगव + वुञ् == औपगवकम्, उक्षन् = वुञ् == औक्षकम्, उरभ्र + वुञ् == औरभ्रकम्, राजन् + वुञ् == राजकम्, राजन्य + वुञ् == राजन्यकम्, राजपुत्र + वुञ् == राजपुत्रकम्, वत्स + वुञ् == वात्सकम्, मनुष्य + वुञ् == मानुष्यकम्, अज + वुञ् == आजकम् ।
[४|२|४०] केदाराद्यञ्च - केदार शब्द से समूह अर्थ में विकल्प से यञ् तथा वुञ् प्रत्यय। | केदार + यञ् == कैदार्यम्, केदार + वुञ् == कैदारकम्।
[४|२|४१] ठञ् कवचिनश्च - कवचिन् तथा केदार शब्दों से समूह अर्थ में ठञ् प्रत्यय। | कवचिनां समूहः = कावचिकम्। कैदारिकम्।
[४|२|४२] ब्राह्मण-माणव-वाडवाद्यन् - ब्राह्मण, मानव तथा वाडव शब्दों से समूह अर्थ में यन् प्रत्यय। | ब्राह्मण + यत् == ब्राह्मण्यम्, माण + यत् == माणव्यम्, वाड + यत् == वाडव्यम्।
[४|२|४३] ग्रामजनबन्धुभ्यस्तल् - समूह अर्थ में ग्राम, जन और बन्धुः - इन तीन शब्दों से तल् (त) प्रत्यय होता है। | ग्रामाणां समूहः (ग्रामो का समूह)- इस अर्थ में षष्ठयन्त पद ग्रामाणाम से तल् प्रत्यय हो ग्रामाणाम् से तल् प्रत्यय हो ग्रामाणाम त रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो ग्राम त रूप बनने पर तलन्तं स्त्रियाम् से स्त्री-लिंग की विविक्षा में टाप् प्रत्यय हो ग्रामता रूप बनेगा। यहाँ विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में ग्रामता रूप सिद्ध होता है।
[४|२|४४] अनुदात्तादेरञ् - अनुदात्तादि शब्दों से समूहार्थ में अञ् प्रत्यय। | कपोतानां समूहः = कापो॑तम्, मायू॑रम्, तैत्ति॑रम्।
[४|२|४५] खण्डिकादिभ्यश्च खण्डिका आदि शब्दों से भी समूह अर्थ में अञ् प्रत्यय। | खण्डिकानां समूहः - खाण्डिकम्। वाडवम्।
[४|२|४६] चरणेभ्यो धर्मवत् - षष्ठी समर्थ चरणवाचक शब्दों से समूह अर्थ में धर्मार्थक प्रत्ययों की तरह प्रत्यय होते हैं। | यथा कठानां धर्मः काठकम्, तथैव कठानां समूहः काठकम्, कालापकम्, छान्दोग्यम्, औक्थिक्यम्।
[४|२|४७] अचित्तहस्तिधेनोष्ठक् - अचेतन-पदार्थवाचक, हस्ति और धेतु शब्दों से समूह अर्थ में ठक् (ठ) प्रत्यय होता है। | सक्तु शब्द अचेतन-वाची है, अतः प्रकृत सूत्र से सक्तूनां समूहः (सत्तुओं का समूह) - इस अर्थ में ठक् प्रत्यय हो सक्तु थ रूप बनता है। इस स्थिति में ठस्येकः से ठ के स्थान पर इक प्राप्त होता है।
[४|२|४८] केशाश्वाभ्यांयञ्छावन्यतरस्याम् - केश तथा अश्व शब्दों से समूहार्थ में क्रमशः यञ् तथा छ प्रत्यय होते हैं। | केश + यञ् == कैश्यम् ; केश + छ == कैशिकम् । अश्व + यञ् == अश्वीयम् ; अश्व + छ आश्वम्।
[४|२|४९] पाशादिभ्योयः पाश आदि शब्दों से समूहार्थ में य प्रत्यय होता है। | पाशानां समूहः = पश्या, तृण्या। स्त्रीलिङ्गत्व लोकाश्रयत्वाल्लिङ्गस्येति नियमेन भवति।
[४|२|५०] खलगोरथात् - खल, गो तथा रथ शब्दों से समूहार्थ में य प्रत्यय होता है। | खलानां समूहः खल्या, गव्या, रथ्या। स्त्रीत्वं पूर्ववत्।
[४|२|५१] इनित्रकट्यश्च - खल, गो तथा रथ शब्दों से समूहार्थ में क्रमशः इनि, त्र तथा कट्यच् प्रत्यय होते हैं। | खलानां समूहो खलिनी। गोत्रा। रथकट्या। अत्रापि स्त्रीत्वं पूर्ववत्।
[४|२|५२] विषयोदेशे - षष्ठीसमर्थ शब्दों से विषय अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होते हैं यदि वह विषय देशात्मक हो। | वृषल + अण् == वार्षलः, यवन + अण् == यावनः।
[४|२|५३] राजन्यादिभ्योवुञ् राजन्य आदि शब्दों से `विषयो देशः` अर्थ में वुञ् प्रत्यय होता है। | राजन्यानां विषयो देशः = राजन्यकः, दैवयानकः
[४|२|५४] भौरिक्याद्यैषु-कार्यादिभ्यो-विधल्-भक्तलौ भौरिक्य आदि शब्दों तथा ऐषुकारी आदि शब्दों से यथाक्रम विद्यल् तथा भक्तल् प्रत्यय होते `विषयो देशः` अर्थ में। | भौरिकीणां विषयो देशः = भौरिकिविधः, वैपेयविधः। ऐषुकार्यादिभ्यः - ऐषुकारीणां विषयो देश = ऐषुकारिभक्तः, सारस्यायनभक्तः
[४|२|५५] सोऽस्यादिरितिच्छन्दसःप्रगाथेषु - प्रथमासमर्थ आदिगतं छन्दोवाचक शब्द से प्रगाथात्मक षष्ठयर्थ की विवक्षा में यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | पङ्क्तिरादिरस्य = पाडक्तः प्रगाथः, आनुष्टुभः, बार्हतः।
[४|२|५६] संग्रामे प्रयोजन-योद्-धृभ्यः - प्रथमासमर्थ प्रयोजनवाचक तथा योद्धृवाचक शब्दों से संग्रामात्मक षष्ठयर्थ के वाच्य होने पर यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | भद्रा प्रयोजनमस्य सङ्ग्रामस्य भाद्रः सङ्ग्रामः, सौभद्रः, गौरिमित्रः। योद्धृभ्यः - अहिमाला योद्धारोऽस्य संग्रामस्य आहिमालः, स्यान्दनाश्वः
[४|२|५७] तदस्यांप्रहरणमितिक्रीडायांणः - प्रथमासमर्थ प्रहरणार्थक शब्दों से क्रीडात्मक सप्तम्यर्थ की वाच्यता की विवक्षा में ण प्रत्यय होता है। | दण्डः प्रहरणमस्यां क्रीडायां दाण्डा (दण्डा है आयुध जिस क्रीडा में, ऐसी क्रीडा), मौष्टा।
[४|२|५८] घञःसास्यां-क्रियेति-ञः - प्रथमासमर्थ घञ् प्रत्ययान्त क्रियावाचक शब्दों से स्त्रीलिङ्ग सप्तम्यर्थ की वाच्यता की विवक्षा में ञ प्रत्यय होता है। | श्येनपातोऽस्यां क्रियायां वर्त्तते श्यैनम्पाता = मृगया। तिलपातोऽस्यां क्रियायां वर्त्तते तैलम्पाता = स्वधा।
[४|२|५९] तदधीतेतद्वेद - द्वितियान्त प्रातिपादिक से पढ़ता है और जानता है- इन दोनों अर्थों में यथाविहित ( अण् आदि) प्रत्यय होते हैं। | व्याकरणम् धीते वेत्ति वा (व्याकरण को पढ़ता है या जानता है)- इस अर्थ में प्राग्दीव्यतोऽर्न् (४_१_८३) में अण् ( अ) प्रत्यय प्राप्त होता है। प्रकृत सूत्र से यह प्रत्यय द्वितीयान्त पद व्याकरणम् से ही होगा और व्याकरणम् अ रूप बनेगा।
[४|२|६०] क्रतूक्थादिसूत्रान्ताट्ठक् द्वितीयासमर्थ क्रतुविशेषवाचक, उक्थ आदि तथा सूत्रशब्दान्त शब्दों से ठक् प्रत्यय होता है। | क्रतुविशेषवाचिभ्यः - अश्वमेधमधीते वेद वा आश्वमेधिकः, अग्निष्टोमिकः, वाजपेयिकः
[४|२|६१] क्रमादिभ्योवुन् - जानता है या पढ़ता है- इस अर्थ में द्वितीयान्त क्रम आदि से वुन् (वु) प्रत्यय होता है। | क्रममधीते वेत्ति वा (क्रमपाठ को पढ़ता है या जानता है) - इस अर्थ में द्वितीयान्त क्रम से वुन (वु) प्रत्यय और सुप्-लोप हो क्रम् वु रूप बनता है। यहाँ युवोरनाकौ से वु के स्थान पर अक हो क्रम अक रूप बनेगा। तब अन्त्य-लोप और विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में क्रमकः रूप सिद्ध होता है।
[४|२|६२] अनुब्रह्मणादिनिः - अनुब्राह्मण शब्द से ` अधीते ` तथा `वेदऄ अर्थों में इन् प्रत्ययों का लोप। | अनुब्राह्मण + इनि == अनुब्राह्मणी
[४|२|६३] वसन्तादिभ्यष्ठक् वसन्त आदि शब्दों से ` अधीते ` तथा `वेदऄ अर्थों में ठक् प्रत्ययों का लोप। | वसन्तसहचारितोऽयं ग्रन्थः वसन्तः, तमधीते वेद वा वासन्तिकः, वार्षिकः।
[४|२|६४] प्रोक्ताल्लुक् - प्रओक्तार्थ प्रत्ययान्त शब्दों से विहित अध्येत्रथर्क तथा वेदित्रर्थक प्रत्यय का लोप। | आपिशलि + अण् == आपिशलम्
[४|२|६५] सूत्राच्च-कोपधात् - कारोपध सूत्रवाचक शब्द से विहित अध्येत्रर्थक तथा वेदित्रर्थक प्रत्यय का भी लोप | अष्टौ अध्यायाः परिमाणमस्य सूत्रस्य (५_१_५७) तद् अष्ट्कम् (पाणिनीयम्), तदधीते वेद वा अष्टकाः पाणिनीयाः। पञ्चकं गौतमसूत्रमधीते वेद वा पञ्चकाः गौतमाः, त्रिकाः काशकृत्स्नाः।
[४|२|६६] छन्दोब्राह्माणानि च तद्विषयाणि - प्रोक्त प्रत्ययान्त चन्दोवाचन तथा ब्राह्मण्वाचक शब्द अध्येत्रर्थक तथा वेदिनत्रर्थक प्रत्ययों को ही विषय बनाते हैं। | कठेन प्रोक्तमधीयते कठाः। तित्तिरिणा प्रोक्तं छन्दोऽधीयते तैत्तिरीयाः, वारतन्तवीयाः। ब्राह्मणानि - ताण्डिनः, भाल्लविनः, शाट्यायनिन्ः, ऐतेरेयिणः।
[४|२|६७] तदस्मिन्नस्तीति देशेतत्राम्नि - अस्त्युपादिक प्रथमान्त शब्द से सप्तभ्यर्थ में यथाविहित प्रत्यय होते हैं- यदि प्रत्ययान्त शब्द देश नाम हो। | शिरिष + अण् == शैरीषः, बर्बुर + अण् == बार्बुरः, खदिर + अण् == खादिरः, पलाश + अण् == पालाशः, पर्वत + अण् == पार्वतः, बल्वज + अण् == बाल्वजः।
[४|२|६८] तेननिर्वृत्तम् - यदि प्रत्ययान्त शब्द किसी देश का नाम हो तो निर्वृत (बसाया हुआ) अर्थ में तृतीयान्त समर्थ से अण् ( अ) प्रत्यय होता है। | कुशाम्बेन निर्वृत्ता नगरी (कुशाम्ब नामक राजा के द्वारा बसाई गई नगरी)- इस अर्थ में तृतीयान्त कुशाम्बेन से अण् प्रत्यय हो कुशाम्बेन अ रूप बनता है। तब पूर्ववत् सुप्-लोप, अजादि-वृद्धि और अन्त्य-लोप हो कौशाम्ब रूप बनेगा। यहाँ स्त्रीत्व की विविक्षा में ङीप् (ई) प्रत्यय हो कौशाम्बी रूप बनने पर विभक्ति कार्य हो प्रथमा के एकवचन में कौशाम्बी रूप सिद्ध होता है।
[४|२|६९] तस्यनिवासः - यदि प्रत्ययान्त शब्द किसी देश का नाम हो तो निवास (निवास-स्थान) अर्थ में षष्ठयन्त समर्थ में अण् ( अ) प्रत्यय होता है। | शिबीनां निवासो देशः (शिबि नामक क्षत्रियों का निवास देश) - इस अर्थ में षष्ठयन्त शिबीनाम् से अण् प्रत्यय शिबीनाम् अ रूप बनता है। यहाँ पूर्ववत सुप्-लोप, अजादि-वृद्धि और अन्त्य-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन में शैबः रूप सिद्ध होता है।
[४|२|७०] अदूरभवश्च - यदि प्रत्ययान्त शब्द किसी देश के नाम हो तो अदूरभव (दूर न होने वाला, नजदीक) अर्थ में षष्ठयन्त समर्थ से अण् ( अ) प्रत्यय होता है। | विदिशाया नद्या अदूरभवं नगरं = वैदिशम्। हिम- वतोऽदूरभवं नगरं = हैमवतम्।
[४|२|७१] ओरञ् - उवर्णान्त समर्थविभक्तियुक्त प्रातिपादिक के उपर्योक्त सप्तम्यर्थ आदि चार अर्थों में अञ् प्रत्यय होता है। | परशुना निर्वृत्तं = पारशवम्, परशूनां निवासो देशः पारशवः, रुखः (मृगविशेषाः) सन्त्यस्मिन् देशे रौखः। अरडु = आरडवम्। कक्षतु - काक्षतवम्। कर्कटेलु - कार्कटेलवम्।
[४|२|७२] मतोश्चबह्वजङ्गात् - अनेक स्वराङ्गक् मतुबन्त प्रातिपादिक से भी उक्त अर्थ-चतुष्टय में अञ् प्रत्यय होता है। | इषुकाः (सरकण्डे) सन्ति अस्यां नद्यामः = इषुकावती नदी, तस्या अदूरभवं नगरम् = ऐषुकावतम्। सिध्रकाः = वृक्षविशेषाः सन्ति यस्मिन् वने तत् सिध्रकावद् वनम्, तस्यादूरभवं नगरं = सैध्रकावतम्।
[४|२|७३] बह्वचःकूपेषु - अनेकाच् प्रातिपादिक से कूप के गम्यमान होने परचातुर्थिक अञ् प्रत्यय होता है। | दैर्घवरत्रः (दीर्घवरत्र नामक मनुष्य के द्वारा बनाया गया जि कुआं), कापिलवरित्रः (कपिलवरत्र मनुष्य के द्वारा बनाया हुआ कुआं)।
[४|२|७४] उदक्चविपाशः - विपाट् नदी के उत्तर तट पर वर्तमान कूपों के अभिधेय होने पर भी चातुर्थिक अञ् प्रत्यय होता है। | दत्तेन निर्वृत्तः कूपो = दात्तः॑, गौप्तः॑
[४|२|७५] संकलादिभ्यश्च सङ्कल आदि शब्दों से चातुर्थिक अञ् प्रत्यय होता है। | साङ्कलेन निर्वृत्तः = साङ्कलः (सङ्कल नामक व्यक्ति से बनाया हा कूप आदि)। पौष्कलः (पुष्कल नामक व्यक्ति से बनाया गया)।
[४|२|७६] स्त्रीषुसौवीरसाल्वप्राक्षु - स्त्रीलिंग सौवीर, साल्व तथा प्राचीन देशों के वाच्य होने पर चातुर्थिक अञ् प्रत्यय होता है। | सुवास्तोः अदूरभवं नगरं = सौवास्तवम्, वार्णवम्।
[४|२|७७] सुवास्त्वादिभ्योऽण् सुवास्तु आदि शब्दों से चातुर्थिक अण् प्रत्यय होता है। | रोण्या निर्वृत्तः रौणः, आजकरोणः, सैंहिकरोणः।
[४|२|७८] रोणी - रोणी शब्द से चातुर्थिक अण् प्रत्यय होता है। | रोणी + अण् == रौणः, अजकरोणी + अण् == अजकरोणः, सिंहिकरोणी + अण् == सैंहिकरोणः।
[४|२|७९] कोपधाच्च - ककारोपध शब्द से चातुर्थिक अण् प्रत्यय होता है। | कर्णवेष्टकेन निर्वृत्तः कूपः = कार्णवेष्टकः कूपः, कार्कवाकवः, त्रैशङ्कवः।
[४|२|८०] वुञ्-छण्-क-ठजिल-सेनि-र-ढञ्-ण्ययफक्-फिञिञ्-ञ्यकक्-ठकोऽरीहण-कृशाश्चर्श्य-कुमुद-काश-तृण-प्रेक्षाश्मसखि-संकाश-बलपक्षकर्ण-सुतंगम-प्रगदिन्वराह-कुमुदादिभ्यः - अरीहण आदि१८प्रातिपादिकों से क्रमशः वुञ् आदि१८प्रत्यय उक्त अर्थ-चतुष्टय में होते हैं। | अरीहणादिभ्यो वुञ् - आरीहणकम्, द्रौघणकम्।
[४|२|८१] जनपदेलुप् - यदि प्रत्ययान्त शब्द (जो कि केसी देश-विषेश का नाम होता है) जनपद-वाची हो तो चातुर्थिक प्रत्यय का लोप होता है। | पञ्चालानां निवासो जनपदः (पञ्चाल लोगों का निवास-जनपद) - यहाँ निवास अर्थ में तस्य निवासः से अण् प्रत्यय हो पञ्चालानाम् अ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो पञ्चाल अ रूप बनने पर जनपद वाच्य होने के कारण प्रकृत सूत्र से चातुर्थिक प्रत्यय अण् ( अ) का लोप हो कर रूप बनता है, पञ्चाल।
[४|२|८२] वरणादिभ्यश्च वरणा आदि के पश्चाद् चातुर्थिक प्रत्यय का लुप् (लोप) होता है। | वरणानामदूरभवं नगरम् (वरणा से दूर न होने वाला नगर) - इस अर्थ में अदूरभवश्च (४_२_७०) से अण् ( अ) प्रत्यय हो वरणानाम् अ रूप बनता है। यहाँ सुप्-लोप हो वरणा अ रूप बनने पर प्रकृत सूत्र से वरणा के पश्चात् अण् ( अ) प्रत्यय का लोप हो जाता है और वरणा रूप बनता है।
[४|२|८३] शर्करायावा - शर्करा शब्द से विहित चातुर्थिक प्रत्यय का विकल्प से लोप। | शर्करा प्रायेणास्मिन् देशे = शर्करा, शार्करः, शर्करिकः, शार्करकः।
[४|२|८४] ठक्छौ-च - शर्करा शब्द से चातुर्थिक ठक् तथा छ प्रत्यय होते हैं। | शर्करा + वा == शर्कराः, शर्करा + अण् == शार्करः, शर्करा + ठक् == शार्करिकः, शर्करा + ठच् == शर्करिक, शर्करा + कक् == शार्करकः, शर्करा + छ == शर्करीयः।
[४|२|८५] नद्यांमतुप् - नदी के वाच्य होने पर प्रातिपादिक से चातुर्थिक मतुप् प्रत्यय होता है। | उदुम्बरावती, मशकावती, वीरणावती।
[४|२|८६] मध्वादिभ्यश्च मधु आदि शब्दों से चातुर्थिक मतुप् प्रत्यय होता है। | मधु अस्ति अस्मिन् देशे = मधुमान् देशः, बिसवान्।
[४|२|८७] कुमुद-नड-वेतसेभ्यो-ड्मतुप् - यदि प्रत्ययान्त शब्द देशवाचक हो तो अस्मिन् (सप्तभ्यर्थ), निवास, निर्वृत्त और अदूरभव - इन चार अर्थों में कुमुद, नड और वेतस से ड्मतुप प्रत्यय होता है। | कुमुदाः सन्ति अस्मिन् देशे (कुमुद हैं इसमें, ऐसा देश) - यहाँ अस्मिन् (सप्तभ्यर्थ) में प्रकृत सूत्र से कुमुदाः से ड्मतुप् (मत्) प्रत्यय हो कुमुदाः मत् रूप बनता है। इस स्थिति में सुप्-लोप हो कुमुद मत् रूप बनने पर ड्मतुप (मत्) के डित् होने के कारण टि- आकार का लोप हो कुमुद् मत् रूप बनेगा।
[४|२|८८] नडशादाड्ड्वलच् - सप्तभ्यर्थ आदि चार अर्थों में (यदि प्रत्ययान्त किसी देश का नाम हो) नड और शाद (घास) में ड्वलच् (वल) प्रत्यय होता है। | नडाः सन्ति अस्मिन् देशे (नड हैं इसमें, ऐसा देश) - इस सप्तभ्यर्थ में प्रकृत सूत्र से नडाः से ड्वलच् (वल) प्रत्यय हो नडाः वल रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो नड वल रूप बनने पर टि-लोप और विभक्ति कार्य हो प्रथमा के एकवचन में नड्वलः रूप सिद्ध होता है।
[४|२|८९] शिखायावलच् - यदि प्रत्ययान्त शब्द किसी देश का नाम हो तो सप्तभ्यर्थ आदि चार अर्थों में शिखा शब्द से वलच् (वल) प्रत्यय होता है। | शिखाः सन्ति अस्मिन् देशे (शिखा हैं इसमे ऐसा देश)- इस अर्थ में शिखाः से प्रकृत सूत्र से क्लच् प्रत्यय हो शिखाः वल रूप बनता है। इस स्थिति में सुप्-लोप हो शिखावल रूप बनने पर विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में शिखावलः रूप सिद्ध होता है।
[४|२|९०] उत्करादिभ्यश्छः उत्कर आदि शब्दों से चातुर्थिक छ प्रत्यय होता है। | उत्करीयम् (धान जहाँ फैलाया जाय ऐसा देश), शफरीयम् (एक प्रकार का मछली जहाँ पाई जावे, ऐसा देश)।
[४|२|९१] नडादीनांकुक्च नड आदि शब्दों से चातुर्थिक छ प्रत्यय तथा प्रकृति भाग को कुक् का आगम। | नड + छ = नड + कुक् + ईय == नडकीय == नडकीयम्, प्लक्ष + छ == प्लक्ष + कुक् + ईय == प्लक्षकीय == प्लक्षकीयम्।
[४|२|९२] शेषे - यहाँ से लेकर तस्य विकारः (४_३_८३) से पूर्व तक जो प्रत्यय होते हैं वे शेष अर्थ ( अपत्यार्थ, रक्ताधर्थ और चतुरर्थ को छोड़कर अन्य अर्थ) में ही होते हैं। | चक्षुषा गृह्मते (चक्षु से जो ग्रहण किया जाता है, वह)- यहाँ शैक्षिक ग्रहण अर्थ में अण् प्रत्यय हो चक्षुषा अण् रूप बनता है। यहाँ सुप्-लोप हो चक्षुस् अ रूप बनने परअजादि-वृद्धि और विभक्ति-कार्य हो चाक्षुषम् रूप सिद्ध होता है।
[४|२|९३] राष्ट्रावारपाराद् घखौ - शेष अर्थों में राष्ट्र शब्द से घ और अवारपार ( आर-पार) से ख प्रत्यय होता है। | राष्ट्रे ज्ञातः भवो वा (राष्ट्र में पैदा हुआ या होने वाला)- इस शैक्षिक अर्थ में प्रकृत सूत्र से सप्तभ्यन्त राष्ट्र शब्द से घ प्रत्यय हो राष्ट्रे घ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो राष्ट्र घ रूप बनने पर आयनेयीनीयियः फ-ढ-ख-छ-घां प्रत्ययादीनाम् (७_१_२) से प्रत्यय के घकार को इय् होकर राष्ट्र + इय् + अ ==> राष्ट्र इय रूप बनेगा। यहाँ टि लोप् राष्ट्रियः रूप बनने पर विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में राष्ट्रियः रूप सिद्ध होता है।
[४|२|९४] ग्रामाद्य-खञौ - ग्राम शब्द से य तथा खञ् प्रत्यय होता है। | सप्तभ्यन्त ग्राम शब्द से खञ् (ख) प्रत्यय और सुप्-लोप हो ग्राम ख रूप बनेगा।
[४|२|९५] कत्त्र्यादिभ्यो ढकञ् कत्त्रि आदि शब्दों से ढकञ् प्रत्यय होता है। | कत्रि + ढकञ् == कात्रेयकः, उम्भि + ढकञ् == औम्भेयकः, नगर + धकञ् == नागरेयकः, महिष्मती + ढकञ् == माहिष्मतेयकः ।
[४|२|९६] कुलकुक्षिग्रीवाभ्यःश्वास्यलंकारेषु - कुल्या शब्द से ढकञ् प्रत्यय तथा प्रकृति के यकार का लोप। | कुले भवः = कौलेयकः (कुल में होनेवाला कुत्ता) श्वा। कक्षेयकोऽसिः (कुक्षि में रहनेवाली तलवार)। ग्रीवायां भवः = ग्रैवेयकोऽलङ्कारः।
[४|२|९७] नद्यादिभ्यो ढक् नदी आदि शब्दों से जात अर्थ में "ढक्" प्रत्यय होता है। | यहाँ आयनेयी०(७_१_२) से प्रत्यय के ढकार के स्थान पर एय् आदेश हो नदी एय् अ ==> नदी एय रूप बनेगा। यहाँ अन्त्य-लोप और अजादि-वृद्धि आदि होकर प्रथमा के एकवचन में नादेयम् रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - मही + ढक् == माहेयम्, वाराणसी + ढक् == वाराणसेयम्।
[४|२|९८] दक्षिणा-पश्चात्-पुरसस्त्यक् दक्षिणा, पश्चात् और पुरस् से (त्यक्) प्रत्यय होता है। | दक्षिणस्यां जातः भवो वा (दक्षिण में पैदा हुआ या हेने वाला) - इस अर्थ में सप्तभ्यन्त दक्षिणा से त्यक् प्रत्यय हो दक्षिणास्यां त्य रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो दक्षिणा त्य रूप बनने पर अजादि-वृद्धि और विभक्ति कार्य हो दक्षिणात्यः रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - पश्चात् + त्यक् == पाश्चात्यः, पुरस् + त्यक् == पौरत्स्यः।
[४|२|९९] कापिश्याःष्फक् - कापिशी शब्द से शौषिक ष्फक् प्रत्यय होता है। | कापिश्यां भवं कापिशायनं मधु, कापिशायनी द्राक्षा।
[४|२|१००] रङ्कोरमनुष्येऽण् च - रङ्कु शब्द से अमनुष्य अर्थ में शेषार्थक अण् तथा ष्फक् प्रत्यय होते हैं। | अण्- राङ्कवो गौः। ष्फक् - राङ्कवायणो गौः।
[४|२|१०१] द्युप्रागपागुदक्प्रतीचोयत् - दिव्, प्राच्, अपाच्, उदच् और प्रतीच् से (यत्) यत् प्रत्यय होता है। | दिवि भवं जातम् (स्वर्ग में होने वाला) - इस अर्थ में सप्तभ्यन्त दिव् से यत् प्रत्यय हो दिवि य रूप बनता है। इस स्थिति में सुप्-लोप हो दिव् + य ==> दिव्य रूप बनने पर विभक्ति कार्य हो प्रथमा के एकवचन में दिव्यम् रूप सिद्ध होता है। प्राच् + यत् == प्राच्यम्, अपाच् + यत् == अपाच्यम्, उदच् + यत् == उदच्यम्, प्रत्यच् + यत् == प्रतीच्यम्।
[४|२|१०२] कन्थायाष्ठक् - कन्था शब्द से शेषार्थक ठक् प्रत्यय होता है। | कान्थिकः
[४|२|१०३] वर्णौवुक् - वर्णु देश विषयक कन्था शब्द से वुक् प्रत्यय होता है। | वर्णौ या कन्था त॑त्र जाता यूका = कान्थिका।
[४|२|१०४] अव्ययात्त्यप् - शेष अर्थ (जातः आदि) में अव्यय से त्यप् (त्य) प्रत्यय होता है। | अमा सह भवः (साथ होनेवाला - इस अर्थ में अमा से त्यप् प्रत्यय हो अमा त्य = अमात्य रूप बनता है। यहाँ विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में अमात्यः रूप सिद्ध होता है।
[४|२|१०५] ऐषमो-ह्यः-श्र्वसोऽन्यतरस्याम् - ऐषमस्, ह्यस् तथा श्वस् शब्दों से विकल्प से शेषार्थक त्यप् प्रत्यय होता है। | ऐषमस् + त्यप् == ऐषमस्त्यम्, ऐषमस्तनम् ; ह्यस् + त्यप् == ह्यस्त्यम्, ह्यस्तनम् ; श्वस् + त्यप् == श्वस्त्यम्, श्वस्तनम्।
[४|२|१०६] तीररूप्योत्तरपदादञ्ञौ - तीरात्तपदक तथा रूप्योत्तरपदक प्रातिपादिक से क्रमशः शेषार्थक अञ् तथा ञ् प्रत्यय होते हैं। | काकतीर + अञ् == काकतीरम्, पल्वलतीर + अञ् == पाल्वलतीरम्। वार्करूप्य + ञ == वार्करूप्यम्, शिवरूप्य + ञ == शैवरूप्यम्।
[४|२|१०७] दिक्पूर्वपदादसंज्ञायांञः - संज्ञा भिन्न विषय में वर्तमान दिशापूर्वपद - प्रातिपादिक (जिसका पूर्वपद दिशावाचक हो) से शेष अर्थों (तद्धितार्थ आदि) में ञ प्रत्यय होता है। ञ का ञकार इत्संज्ञक है, केवल अ शेष रह जाता है। | पूर्वशाला में पूर्वपद पूर्व दिशावाचक है, अतः प्रकृत सूत्र से तद्धितार्थ में ञ प्रत्यय हो पूर्वशाला अ रूप बनता है।
[४|२|१०८] मद्रेभ्योऽञ् - दिक्पूर्वपदक मद्र शब्द से शेषार्थक अञ् प्रत्यय होता है। | पूर्वमद्र + अञ् == पौर्वमद्रः, अपरमद्र + अञ् == आपरमद्रः।
[४|२|१०९] उदीच्यग्रामाच्चबह्वचोऽन्तोदात्तात् - उदीच्यग्रामवाचक वह्णच् अन्तोदात्त प्रातिपादिक से शेषार्थ में अञ् प्रत्यय होता है। | शिवपुरे भवं = शैवपुरम्, माण्डवपुरम्।
[४|२|११०] प्रस्थोत्तरपदपलद्यादिकोपधादण् - प्रस्थोत्तरपदक, पलद्य आदि तथा ककारोपद्य प्रातिपादिकों से शेषार्थक अण् प्रत्यय होता है। | माद्रीप्रस्थे भवः = माद्रीप्रस्थः, माहकीप्रस्थः। पलद्यादिभ्यः - पालदः, पारिषदः। ककारोपधात्- निलीनके भवः= नैलीनकः, चैयातकः।
[४|२|१११] कण्वादिभ्योगोत्रे - गोत्रप्रत्ययान्त कण्व आदि शब्दों से शेषार्थक अण् प्रत्यय होता है। | काण्व्यस्य छात्राः = काण्वाः, गौकक्षाः।
[४|२|११२] इञश्व - गोत्रार्थक इञ् प्रत्ययान्त प्रातिपादिक से भी शेषार्थक अण् प्रत्यय होता है। | दाक्षाः, प्लाक्षाः, माहकाः।
[४|२|११३] नद्वयचःप्राच्यभरतेषु - प्राच्यभरत गोत्रार्थक इञ् प्रत्ययान्त द्वयच् प्रातिपादिक से शेषिक अण् प्रत्यय नहीं होता है। | चेदस्यापत्यं चैदिः तस्य चात्राः = चैदीयाः, पैष्कीयाः। काशीयाः, पाशीयाः।
[४|२|११४] वृद्धाच्छः - वृद्धसंज्ञक से छ प्रत्यय होता हैं। | शालायां भवो जातो वा (शाला में पैदा हुआ) - इस शैषिक अर्थ में प्रकृत सूत्र से वृद्ध-संज्ञक शाला (सप्तभ्यन्त से छ प्रत्यय हो शालायाम छ रूप बनता है। यहाँ सुप्-लोप हो शाला छ रूप बनने पर आयनेयी०(७_१_२) से प्रत्यय के छकार के स्थान पर ईय् आदेश होकर शाला ईय् अ + शाला ईय् रूप बनेगा। तब विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में शालीयः रूप सिद्ध होता है।
[४|२|११५] भवतष्ठक्छसौ - वृद्धसंज्ञक भवत् शब्द से शेषार्थ में ठक् तथा छस् प्रत्यय होते हैं। | भवतश्छात्रः = भावत्कः, भवदीयः।
[४|२|११६] काश्यादिभ्यष्ठ ञ्ञिठौ काशि आदि शब्दों से शेषार्थक ठञ् तथा ञिठ प्रत्यय होते हैं। | काशि + ठञ् == काशिकी ; काशि + ञिठ == काशिका । वेदि + ठञ् == वैदिकी ; वेदि + ञिठ == वैदिका।
[४|२|११७] वाहीकग्रामेभ्यश्च - वाहीकग्रामवाचक वृद्धसंज्ञक प्रातिपादिक से भी शेषार्थक ठञ् तथा ञिठ प्रत्यय होते हैं। | शाकलिकी, शाकलिका। मान्थविकी, मान्थविका।
[४|२|११८] विभाषोशीनरेषु - उशीनरवृत्ती वाहीग्रामवाचक प्रातिपादिक से विकल्प से ठञ् तथा ञिठ प्रत्यय होते हैं। | आह्वाजालिकी, आह्वजालिका, आह्वजालीया। सौदर्शनिकी, सौदर्शनिका, सौदर्शनीया।
[४|२|११९] ओर्देशेठञ् - देशवाचक उवर्णान्त प्रातिपादिक से शौषिक ठञ् प्रत्यय होता है। | निषादकर्षू + ठञ् == नैषादकर्षुकः, शबरजम्बू + ठञ् == शाबरजम्बुकः।
[४|२|१२०] वृद्धत् प्राचाम् - वृद्धसंज्ञक प्राग्देशार्थक उवर्णान्त प्रातिपादिक से शौषिक ठञ् प्रत्यय होता है। | नापितवास्तूर्नाम देशस्तस्माट् ठञ् - नापितवास्तुकः, शाकजम्बुकः।
[४|२|१२१] धन्व-योपधाद्-वुञ् - मरूदेशवाचक तथा वृद्धसंज्ञक यकारोपद्य देशवाचक प्रातिपादिकों से शेषार्थक वुञ् प्रत्यय होता है। | पारेधन्वकः, ऐरावतकः। योपधात् - सांकाश्यकः, काम्पिल्यकः।
[४|२|१२२] प्रस्थपुरवहान्ताच्च - प्रस्थशब्दान्त पुरशब्दान्त तथा बहशब्दान्त देशवाचक वृद्धसंज्ञक प्रातिपादिकों से भी शौषिक वुञ् प्रत्यय होता है। | प्रस्थान्तात् - मालाप्रस्थकः। पुरान्तात् - नान्दीपुरकः, कान्तीपुरकः। वहान्तात् - पैलुवहकः, फाल्गुनीवहकः।
[४|२|१२३] रोपधेतोःप्राचाम् - रकारोपद्य तथा ईकारान्त प्राग्देशवाचक वृद्धसंज्ञक प्रातिपादिकों से शौषिक वुञ् प्रत्यय होता है। | पाटलिपुत्र + वुञ् == पाटलिपुत्रकाः, एकचक्र + वुञ् == ऐकचक्रकाः । काकन्दी + वुञ् == काकन्दकः, माकन्दी + वुञ् == माकन्दकः ।
[४|२|१२४] जनपदतदवघ्योश्च - वृद्धसंज्ञक भिन्न जनपदवाचक तथा जनपदसीमावाचक प्रातिपादिकों से शौषिक वुञ् प्रत्यय होता है। | जनपदवाचिनः- आभिसारकः, आदर्शकः। जनपदावधिवाचिनः = औपुष्टकः, श्यामायनकः, त्रैगर्त्तकः।
[४|२|१२५] अवृद्धादपिबहुवचनविषयात् - वृद्धसंज्ञक भिन्न जनपदवाचक तथा जनपदसीमावाचक शब्दों से भी वुञ् प्रत्यय होता है यदि प्रकृति बहुवचनान्त हो। | अङ्ग + वुञ् == आङ्गकः, वङ्ग + वुञ् == वाङ्गकः, कलिङ्ग + वुञ् == कलिंगकः । अजमीढ + वुञ् == आजमीढकः, अजक्रन्द + वुञ् == आजक्रन्दकः।
[४|२|१२६] कच्छाग्निवक्त्रवर्तोत्तरपदात् - कच्छोत्तरपदक, अग्न्युत्तरपदक, वक्त्रोत्तरपदक तथा गत्तोत्तरपदक देशवाची प्रातिपादिकों से शौषिक वुञ् प्रत्यय होता है। | दारुकच्छ + वुञ् == दारुकच्छकः, पिप्पलीकच्छ + वुञ् == पैप्पलीकच्छकः । काण्डाग्नि + वुञ् == काण्डाग्नकः । इन्द्रवक्त्र + वुञ् == ऐन्द्रवक्त्रकः । बहुवर्त + वुञ् == बाहुवर्तकः।
[४|२|१२७] धूमादिभ्यश्व धूम आदि देशवाचक शब्दों से शौषिक वुञ् प्रत्यय होता है। | धौमकः, खाण्डकः।
[४|२|१२८] नगरात्कुत्सनप्रावीण्ययोः - कुत्सन तथा प्रवीणता के गम्यमान होने पर नगर शब्द से शौषिक वुञ् प्रत्यय होता है। | नागरकः कुत्सितः प्रवीणो वा।
[४|२|१२९] अरण्यान्मनुष्ये - मनुष्य के वाच्य होने पर अरण्यशब्द से शौषिक वुञ् प्रत्यय होता है। | आरण्यको मनुष्यः।
[४|२|१३०] विभाषाकुरुयुगन्धराभ्याम् - कुरु तथा युगन्धर शब्दों से शौषिक वुञ् प्रत्यय विकल्प से होता है। | कौरवकः, कौरवः। यौगन्धरकः, यौगन्धरः।
[४|२|१३१] मद्रवृज्योःकन् - मद्र तथा वृजि शब्दों से शौषिक वुञ् प्रत्यय विकल्प से होता है। | मद्र + कन् == मद्रकः, वृजि + कन् == वृजिकः ।
[४|२|१३२] कोपधादण् - ककारोपध शब्द से देश के गम्यमान होने पर शौषिक अण् प्रत्यय होता है। | ऋषिकेषु जातः = आर्षिकः, माहिषिकः, ऐक्ष्वाकः।
[४|२|१३३] कच्छादिभ्यश्च - देशवाचक कच्छ आदि शब्दों से शेषार्थक अण् प्रत्यय होता है। | काच्छः, सैन्धवः, वार्णवः
[४|२|१३४] मनुष्यतत्स्थयोर्वुञ् - मनुष्य तथा मनुष्यस्थ पदार्थ की उत्पत्ति आदि अर्थों में कच्छ आदि शब्दों से वुञ् प्रत्यय होता है। | काच्छको मनुष्यः। मनुष्यथे - काच्छकमस्य हसितम्, जल्पितम्।
[४|२|१३५] अपदातौसाल्वात् - मनुष्य तथा मनुष्यस्थ पदार्थ की उत्पत्ति आदि अर्थों में कच्छ आदि शब्दों से वुञ् प्रत्यय अपदादि अर्थ में होता है। | साल्वको मनुष्यः। मनुष्यथे - साल्वकमस्य, हसितम्, जल्पितम्।
[४|२|१३६] गो-यवाग्वोश्च - गो तथा यवागू की उत्पत्ति आदि अर्थों में साल्व शब्द से वुञ् प्रत्यय होता है। | साल्वको गौः। साल्विका यवागूः।
[४|२|१३७] गर्तोत्तरपदाच्छः - गर्त्तोत्तरपदक देशवाचक प्रातिपादिक से शौषिक छ प्रत्यय होता है। | वृकगर्त्तीयम्, शृगालगर्त्तीयम्, श्वाविद्गर्त्तीयम्।
[४|२|१३८] गहादिभ्यश्च - शेष अर्थ (जातः आदि) में गह (देश-विशेष) आदि शब्दों से छ प्रत्यय होता है। | गहे जातः (गह् में उत्पन्न हुआ) - इस अर्थ में प्रकृत सूत्र से सप्तभ्यन्त गह से छ प्रत्यय हो गाहे छः रूप बनता है। यहाँ पूर्ववत् सुप्-लोप, ईयादेश और अन्त्य-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन में गहीयः रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - मुखतस् + छ == मुखतीयम्, पार्श्वतस् + छ == पार्श्वतीयम्।
[४|२|१३९] प्राचांकटादेः - प्राग्देशवाचक कट आदि प्रातिपादिकों से शेषार्थ में छ प्रत्यय होता है। | कटनगरीयम्, कटघोषीयम्, कटपल्वलीयम्।
[४|२|१४०] राज्ञःकच - राजन् शब्द से छ प्रत्यय तथा उसे ककारान्तादेश भी हो जाता है। | राजन् + छ == राजकीयम्
[४|२|१४१] वृद्धादकेकान्तखोपधात् - वृद्धसंज्ञक देशार्थक अकारान्त, इकारान्त तथा खकारोपद्य प्रातिपादिकों से शेषार्थक छ प्रत्यय होता है। | अकान्तात् - अरीहणकीयम्, द्रौघणकीयम्। इकान्तात् - आश्वपथिकीयम्, शाल्मलिकीयम्। खोपघात् - कौटिशिखीयम्, आयुमुखीयम्।
[४|२|१४२] कन्था-पलद-नगर-ग्राम-ह्रदोत्तर-पदात् - देशार्थक वृद्धसंज्ञक कन्थोत्तरपदक, पलदोत्तरपदक, नगरोत्तरपदक, ग्रामोत्तरपदक तथा ह्णदोत्तरपदक प्रातिपादिकों से शेषार्थ में छ प्रत्यय होता है। | कन्थोत्तरपदात् - दाक्षिकन्थीयम्, माहिकिकन्थीयम्। पलदोत्तरपदात् - दाक्षिपलदीयम्, महिकिपलदीयम्। नगरोत्तरपदात् - दाक्षिनगरीयम्, माहिकिनगरीयम्।
[४|२|१४३] पर्वताच्च - पर्वत शब्द से भी शौषिक छ प्रत्यय होता है। | पर्वतीयो राजा
[४|२|१४४] विभाषाऽमनुष्ये - अमनुष्य के वाच्य होने पर पर्वत शब्द से विकल्प से छ प्रत्यय होता है। | पर्वतीयानि फलानि। पक्षे अण् - पार्वतानि फलानि।
[४|२|१४५] कृकणपर्णाद्भारद्वाजे - भारद्वाज देशवाचक कृकण तथा पर्ण शब्दों से शौषिक छ प्रत्यय होता है। | कृकणीयम्। पर्णीयम्।
[४|३|१] युष्मदस्मदोरन्यतरस्यांखञ् च - शेष् अर्थ (जातः आदि) में युष्मद् और अस्मद् से खञ् (ख), छ और अण् ( अ)- ये तीन प्रत्यय होते हैं। | योवयोर्युष्माकं वा अयम् (तुम दो का अथवा तुम लोगों का) - इस शैषिक अर्थ में प्रकृत सूत्र षष्ठयन्त युष्मद् से छ प्रत्यय हो युवयोः छ अथवा युष्माकम् छ रूप बनेगा। यहाँ सुप्-लोप हो युष्मद् छ रूप बनने पर पूर्ववत् ईयादेश और विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में युष्मदीय रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - युष्मद् + खञ् == यौष्माकीणः ; युष्मद् + छ == युष्मदीयः, युष्मद् + अण् == यौष्माकः। अस्मद् + खञ् == आस्माकीनः ; अस्मद् + छ == अस्मदीयः ; अस्मद् + अण् == आस्माकः ।
[४|३|२] तस्मिन्नणि-च-युष्माकास्माकौ - खञ् और अण् प्रत्यय परे होने पर युष्मद् के स्थान पर युष्माक और अस्मद् के स्थान पर अस्माक आदेश। | युष्मद् ख में खञ् (ख) प्रत्यय परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से युष्मद् के स्थान पर युष्माक हो युष्माक ख रूप बनता है। तब आयनेयी (७_१_२) से प्रत्यय के खकार के स्थान पर ईन्, अजादि-वृद्धि, अन्त्य-लोप और णत्व आदि होकर प्रथमा के एकवचन में यौष्माकीणः रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - युष्मद् + अण् == युष्माक + अ == यौष्माक् + अ == यौष्माकः।
[४|३|३] तवकममकावेकवचने - यदि खञ् और अण् प्रत्यय परे हों तो एकवचन में युष्मद के स्थान पर तवक और अस्मद् के स्थान पर ममक आदेश। | अयं (तेरा) इस अर्थ में युष्मदस्मदोः०(८_१_२०) से षष्ठयन्त युष्मद् से खञ् (ख) प्रत्यय हो तब ख रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो युष्मद् के स्थान पर तवक आदेश हो तवक ख रूप बनेगा। यहाँ प्रत्यय के खकार के स्थान पर ईन्, अजादि-वृद्धि और अन्त्य-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन में तावकीनः रूप सिद्ध होता है।
[४|३|४] अर्धाद्यत् "अर्ध" शब्द से यत् प्रत्यय होता है शौषिक अर्थों में।{यह "अण्" का अपवाद है।} | अर्ध + यत् == अर्ध्यम् ।
[४|३|५] परावराधमोत्तम-पूर्वाच्च पर्, अवर, अधम व उत्तम शब्दपूर्वक "अर्ध" शब्द से "यत्"(य) प्रत्यय होता है शौषिक अर्थों में। | परार्द्धयम्। अवरार्द्धयम्, अधमार्द्धयम्, उत्तमार्द्धयम्।
[४|३|६] दिक्पूर्वपदाट् ठञ्च दिक्पूर्वक(पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण), अर्धशब्दान्त प्रातिपादिक से शौषिक "यत्" प्रत्यय होता है। | ठञ् - पौर्वार्द्धिकः, दक्षिणार्द्धिकः। यत् - पूर्वार्द्धयः, दक्षिणार्द्धयः।
[४|३|७] ग्रामजनपदैकदेशादञ्ठञौ - दिक्पूर्वक(पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण) ग्रामैकदेशवाची तथा जनपदैकदेशवाची शब्दों से शेषार्थक अञ् तथा ठञ् प्रत्यय होते हैं। | इमे ग्रामस्य जनपदस्य वा पौर्वार्द्धाः, पौर्वार्द्धिकाः, दक्षिणार्द्धाः, दक्षिणार्धिकाः।
[४|३|८] मध्यान्मः मध्य शब्द से म प्रत्यय होता है।{यह अण अपवाद है} | मध्ये भवः (मध्य में होने वाला) - इस अर्थ में प्रकृत सूत्र से सप्तभ्यन्त मध्य में म प्रत्यय हो मध्ये म रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो मध्य + म ==> मध्यम् रूप बनने पर विभक्ति कार्य हो प्रथमा के एकवचन मे मध्यमः रूप सिद्ध होता है।
[४|३|९] अ साम्प्रतिके - साम्प्रतिक अर्थ में मध्य शब्द से अ प्रत्यय होता है। | नातिह्रस्वं नातिदीर्घं मध्यं काष्ठम्। नात्यवकृष्टो नात्युत्कृष्टो मध्यो वैयाकरणः। मध्या स्त्री।
[४|३|१०] द्वीपादनुसमुद्रंयञ् - समुद्र समीपस्थ द्वीपार्थक द्वीप शब्द से शेषार्थक यञ् प्रत्यय होता है। | द्वैपं मधु, द्वैप्या कन्या।
[४|३|११] कालाट्ठञ् - कालवाचक शब्दों से ष्ष अर्थ ( जातः, भवः आदि) में ठञ् (ठ) प्रत्यय होता है। | काले भवं जाते वा (समय पर होने वाला) - इस शैषिक अर्थ में कालवाचक काल (सप्तभ्यन्त) शब्द से प्रकृत सूत्र से ठञ् (ठ) प्रत्यय हो काले ठ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो काल ठ रूप बनने पर ठस्येकः (७_३_५०) से प्रत्यय के ठ को इक आदेश हो काल इक रूप बनेगा।
[४|३|१२] श्राद्धेशरदः - श्राद्धार्थक में शरत् शब्द से ठञ् प्रत्यय होता है। | शरदि भवं = शारदिकं श्राद्धं कर्म।
[४|३|१३] विभाषारोगातपयोः - रोग तथा अताप के अभिधेय होने पर शरत् शब्द से विकल्प से ठञ् प्रत्यय होता है। | शारदिको रोगः। शारदिक आतपः। शारदो रोगः। शारद आतपः।
[४|३|१४] निशा-प्रदोषाभ्यां च - निशा तथा प्रदोष शब्दों से शैषिक ठञ् प्रत्यय विकल्प से होता है। | नैशिकम्, नैशम्। प्रादोषिकम्, प्रदोषम्।
[४|३|१५] श्वसस्तुट् च - श्वस् शब्द से विकल्प से शौषिक ठञ् प्रत्यय तथा उसे तुँट् का आगम्। | शैवास्तिकः, श्वस्त्यः, श्वस्तनः।
[४|३|१६] सन्धिवेलाद्यृतुनक्षत्रेभ्योऽण् - कालविशेषवाचक सन्धि बेला आदि, ऋतुवाचक तथा नक्षत्रवाचक प्रातिपादिकों से शैषिक अण् प्रत्यय होता है। | सांधिवेलम्, सान्ध्यम्। ऋतुभ्यः - ग्रैष्मम्, शैशिरम्। नक्षत्रेभ्यः - तैषम्, पौषम्।
[४|३|१७] प्रावृषएण्यः - प्रावृष् से एण्य प्रत्यय होता है। | प्रावृषि भवः (वर्षा-ऋतु में होने वाला) - इस शैषिक अर्थ में प्रकृत सूत्र से सप्तभ्यन्त प्रावृष् शब्द से एण्य प्रत्यय हो प्रावृषि एण्य रूप बनता है। इस स्थिति में सुप्-लोप हो प्रावृष् + एण्य = प्रावृषेण्य रूप बनने पर विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में प्रावृषेण्यः रूप सिद्ध होता है।
[४|३|१८] वर्षाभ्यष्ठक् - वर्षा शब्द से शैषिक ठक् प्रत्यय होता है। | वार्षिकम् गोमयम्, वार्षिकमनुलेपनम्।
[४|३|१९] छन्दसिठञ् - वेद में वर्षा शब्द से ठञ् प्रत्यय होता है। | नभश्च नभस्यश्च वार्षिकावृतू
[४|३|२०] वसन्ताच्च - वसन्त शब्द से भी वेद में ठञ् प्रत्यय होता है। | मधुश्च माधवश्च वासन्तिकावृतू।
[४|३|२१] हेमन्ताच्च - हेमन्त शब्द से भी वेद में ठञ् प्रत्यय होता है। | सहश्च सहस्यश्च हैमन्तिकावृतू।
[४|३|२२] सर्वत्राण्च-तलोपश्च - हेमन्त शब्द से लोक तथा वेद में अण् प्रत्यय प्रकृति के तकार का लोप। | हेमन्त + अण् == हैमन् + अ == हैमन == हैमनः।
[४|३|२३] सायंचिरं-प्राह्णे-प्रगेऽव्ययेभ्यष्ट्यटयुलौ तुट् च - काल्वाचक सायम्, चिरम्, प्राह्वे (पूर्वाह्ण), प्रगे (प्रातः काल) और अवयव पदों से शेष अर्थ (जातः, भव्, आदि) में ट्यु और ट्युल् में केवल यु ही शेष रहता है | सायम् + टयु == सायम् + अन == सायम् + तुट् + अन == सायन्तनम्, इसी प्रकार दोषातनम्, चिरन्तनम्।
[४|३|२४] विभाषापूर्वाह्णापराह्णाभ्याम् - पूर्वाह्ण तथा अपरान्ह शब्दों से विकल्प से ट्यु तथा ट्युल् प्रत्यय होते हैं तथा प्रत्ययों को तुँट् का आगम् भी हो जाता है। | पूर्वाह्णेतनम्, पौर्वाह्णिकम्, अपराह्णेतनम्, अपराह्णिकम्।
[४|३|२५] तत्र जातः - उत्पन्न हुआ - अर्थ में सप्तभ्यन्त समर्थ से यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | स्त्रुध्न जातः (स्त्रुध्न देश में उत्पन्न हुआ) - इस अर्थ में प्राग्दीव्योतोऽण् (४_१_८३) से सप्तभ्यन्त स्त्रुध्न शब्द से समान्य अण् प्रत्यय हो स्त्रुध्ने अ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो स्त्रुध्व अ रूप बनने पर अजादि-वृद्धि और अन्त्य-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन में स्त्रौध्नः रूप सिद्ध होता है।
[४|३|२६] प्रावृषष्ठप् - उत्पन्न हुआ अर्थ में सप्तभ्यन्त प्रावृष् शब्द से ठप् (ठ) प्रत्यय होता है। | प्रावृषि जातः (बरसात में उत्पन्न हुआ)- इस अर्थ में सप्तभ्यन्त प्रावृष् शब्द से तःप् प्रत्यय् हो प्रावृषि ठ रूप बनता है। यहाँ सुप्-लोप हो प्रावृष ठ रूप बनने पर ठस्येकः (७_३_५०) से प्रत्यय के ठ के स्थान पर इक हो प्रावृष् + इक +=> प्रावृषिक रूप बनता है।
[४|३|२७] संज्ञायांशरदोवुञ् - सप्तम्यन्त शरद् शब्द से संज्ञाविषय में जात अर्थ में वुञ् प्रत्यय होता है। | शरदि जाताः = शारदकाः दर्भाः, शारदाः मुद्गाः।
[४|३|२८] पूर्वाह्णापराह्णार्द्र-मूल-प्रदोषावस्कराद् वुन् - संज्ञा के गम्यमान होने पर सप्तम्यन्त पूर्वान्ह, अपरान्ह, आद्रामूल प्रदोष तथा अवस्कर शब्दों से जातार्थक वुन् प्रत्यय होता है। | पूर्वाह्णकः, अपराह्णकः, आद्रकः, मूलकः, प्रदोषकः, अवस्करकः।
[४|३|२९] पथःपन्थच - सप्तम्यन्त पथिन् शब्द से जात अर्थ में वुन् प्रत्यय होता है। | पथिन् + वुन् == पन्थ + अक == पन्थ् + अक == पन्थकः, काकोलूक + वुन् == काकोलूक् + अक == काकोलूकिका।
[४|३|३०] अमावास्यायावा - सप्तम्यन्त अमावस्या शब्द से जात अर्थ में विकल्प से वुन् प्रत्यय होता है। | अमावास्यकः। पक्षे अण् - आमावास्यः।
[४|३|३१] अच - अमावस्या शब्द से जात अर्थ में अ प्रत्यय होता है। | अमावस्या + अ == अमावस्यः ; अमावस्या + वुन् == अमावास्यकः ; अमावस्या + अण् == आमावस्यः।
[४|३|३२] सिन्ध्वपकराभ्यांकन् - सिन्धु तथा अपकार शब्दों से जात अर्थ में कन् प्रत्यय होता है। | सिन्धु + कन् == सिन्धुकः, अपकर + कन् == अपकरकः
[४|३|३३] अणञौच - सिन्धु तथा अपकार शब्दों से जात अर्थ में क्रमशः अण् तथा अञ् प्रत्यय होता है। | सिन्धु + अण् == सैन्धवः ; अपकर + अञ् == आपकरः।
[४|३|३४] श्रविष्ठा-फल्गुन्यनुराधा-स्वाति-तिष्य-पुनर्वसु-हस्त-विशाखाऽषाढाबहुलाल्लुक् - नक्षत्रार्थ श्रविष्ठा, फल्गुनी, अनुराधा, स्वाति, तिष्य, पुनर्वसु, हस्त, विशाख, आषाढ तथा बहुल शब्दों से विहित जातार्थक प्रत्यय का लोप। | श्रविष्ठा + अण् == श्रविष्ठः, फल्गुनी + अण् == फल्गुनः, अनुराधा + अण् == अनुराधः इसी प्रकार स्वातिः, तिष्यः, पुनर्वसुः, हस्तः, विशाखः, अषाढः, बहुलः।
[४|३|३५] स्थानान्त-गोशाल-खरशालाच्च - स्थानशब्दान्त, गोशाल तथा खरशाल शब्दों से भी जात अर्थ में विहित् प्रत्यय का लोप। | गोस्थाने जातः = गोस्थानः, अश्वस्थानः, गोशालः, खरशालः।
[४|३|३६] वत्सशालाभिजिदश्वयुक्-शतभिषजोवा - वत्साल आदि शब्दों से विहित जातार्थक प्रत्ययों का विकल्प से लोप। | वत्सशालायां जातः = वत्सशालः, वात्सशालः। अभिजित्, आभिजितः। अश्वयुक्, आश्वयुजः। शतभिषक्, शात्भिषजः।
[४|३|३७] नक्षत्रेभ्योबहुलम् - नक्षत्रवाचक शब्दों से विहित जातार्थक प्रत्यय का बहुल करके लोप हो जाता है। | भरण्यां जातः = भरणः, भारणः। रोहिणः, रौहिणः। मृगशिराः, मार्गशीर्षः।
[४|३|३८] कृतलब्धक्रीतकुशलाः - सप्तम्यनत प्रातिपादिक से कृत, लब्ध, क्रीत तथा कुशल अर्थों में यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | स्त्रुध्ने कृतः, लब्धः, क्रीतः, कुशलो वा = स्त्रौध्नः, माथुरः, एवं राष्ट्रियः।
[४|३|३९] प्रायभवः - प्रायः होने वाले सप्तभ्यन्त समर्थ से यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | स्त्रुध्ने प्रायेण बाहुल्येन भवति (स्त्रुध्न देश में अधिकता से होने वाला) - इस अर्थ में (४_१_८३) से सप्तभ्यन्त स्त्रुध्ने से सामान्य अण् ( अ) प्राप्त हो स्त्रुध्ने अ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो स्त्रुध्न अ रूप बनने पर अजादि-वृद्धि और अन्त्य-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन में स्त्रौध्नः रूप सिद्ध होता है।
[४|३|४०] उपजानूपकर्णोपनीवेष्ठक् - सप्तम्यन्त उपजानु, उपकर्ण तथा उपनीवि शब्दों से प्रायभव अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | औपजानुकः, औपकर्णिकः, औपनीविकः।
[४|३|४१] संभूते - संभूत (संभव) अर्थ में सप्तभ्यन्त समर्थ से यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | स्त्रुध्ने संभवति (स्त्रुध्न देश में जो संभव हो) - इस अर्थ में सप्तभ्यन्त स्त्रुध्न शब्द से सामान्य अण् प्रत्यय हो स्त्रुध्ने अ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो स्त्रुध्न अ रूप बनने पर अजादि-वृद्धि आदि होकर पूर्ववत स्त्रौध्नः रूप सिद्ध होता है।
[४|३|४२] कोशाड्ढञ् - संभूत अर्थ में सप्तभ्यन्त कोश से शब्द से ढञ् (ढ) प्रत्यय होता है। | कोशे संभवति (कोश में होने वाला) - स अर्थ में सप्तभ्यन्त कोश शब्द से ढञ् प्रत्यय हो कोषो ढ रूप बनता है। यहाँ सुप्-लोप हो कोष ढ रूप बनने पर (७_१_२) से प्रत्यय के ढकार को एय् होकर कोश् + एय् + अ ==> कूश एय रूप बनेगा। तब अजादि-वृद्धि और अन्त्य-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन में कौशेयम् रूप सिद्ध होता है।
[४|३|४३] कालात्साधुपुष्प्यत् पच्यमानेषु - सप्तमीसमर्थ कालविशेषवाचक शब्दों से साधु, पुष्प्यत् तथा पच्यमान अर्थों में यथाविहिता प्रत्यय होते हैं। | हेमन्ते साधुः = हैमन्तः प्राकारः, शैशिरमनुलेपनम्। वसन्ते पुष्यन्ति = वासन्त्यः कुन्दलताः, ग्रैष्म्यः पाटलाः। शरदि पच्यन्ते = शारदाः शालयः, ग्रैष्मै यवाः।
[४|३|४४] उप्तेच - सप्तमीसमर्थ कालविशेषवाचक प्रातिपादिकों से उस अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | हेमन्त उप्यन्ते = हैमन्ता यवाः, ग्रैष्मा व्रीहयः।
[४|३|४५] आश्वयुज्यावुञ् - आश्वयुजी शब्द से उप्त अर्थ में वुञ् प्रत्यय होता है। | आश्वयुज्यामुप्ताः = आश्वयुजका माषाः।
[४|३|४६] ग्रीष्मवसन्तादन्यतरस्याम् - ग्रीष्म तथा वसन्त शब्दों से उत्प अर्थ में विकल्प से वुञ् प्रत्यय होता है। | ग्रैष्कम् पक्षे अण् - ग्रैष्मम्। वासन्तकम्, वासन्तम्।
[४|३|४७] देयमृणे - सप्तमीसमर्थ कालवाचक शब्दों से देय ऋण अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | वैशाखे देयमृणं = वैशाखम्। मासे देयमृणं = मासिकम्, आर्द्धमासिकम् सांवत्सरिकम्।
[४|३|४८] कलाप्यश्वत्थयवबुसाद्-वुन् - कलापि, अश्वत्थ तथा यवबुस इन कालवाचक सप्तम्यन्त शब्दों से देय ऋण अर्थ में बुन् प्रत्यय होता है। | कलापकम्, अश्वत्थकम्, यवबुसकम्।
[४|३|४९] ग्रीष्मावरसमाद् वुञ् - सप्तम्यन्त ग्रीष्म तथा अवरसम शब्दों से देय ऋण अर्थ में वुञ् प्रत्यय होता है। | ग्रीष्म + वुञ् == ग्रैष्कम्, अवरसम + वुञ् == आवरसमकम्।
[४|३|५०] संवत्सराग्रहायणीभ्यांठञ्च - सप्तम्यन्त सम्बत्सर तथा आग्रहायणी शब्दों से देय ऋण अर्थ में ठञ् तथा बुञ् प्रत्यय होते हैं। | संवत्सर + ठञ् == सांवत्सरिकम् ; संवत्सर + वुञ् == सांवत्सरकम् । इसी प्रकार आग्रहायणिकम् ; आग्रहायणकम्
[४|३|५१] व्याहरतिमृगः - सप्तमीसमर्थ कालवाचक प्रातिपादिक में मृगव्याहरण अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | निशायां व्याहरति मृगः = नैशः, नैशिकः। प्रदोषः, प्रादोषिकः।
[४|३|५२] तदस्यसोढम् - प्रथमासमर्थ काल्वाचक शब्दों से ` इसका सह्म है` इस अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है। | निशासहचरितमध्ययनं निशा, तत्सोढमस्य छात्रस्य= नैशिकः छात्रः, नैशो वा।
[४|३|५३] तत्रभवः - होने वाला अर्थ में सप्तभ्यन्त समर्थ से ही यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | स्त्रुध्ने भवः (स्त्रुध्न देश में होने वाला)- इस अर्थ में प्राग्दीव्य्तोऽण् (४_१_८३) से सप्तभ्यन्त स्त्रुध्न शब्द से सामान्य अण् ( अ) प्रत्यय हो स्त्रुध्ने अ रूप बनता है। तब सुप-लोप, अहादि-वृद्धि और अन्त्य-लोप आदि होकर लौध्न रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - मथुरा + अण् == माथुरः, राष्ट्र + अण् == राष्ट्रीयः, शाला + छ == शालीयः।
[४|३|५४] दिगादिभ्योयत् - होने वाला अर्थ में सप्तभ्यन्त दिश् आदि स् यत् (य) प्रत्यय होता है। | दिशि भवम् (दिशा में होने वाला) - इस अर्थ में सप्तभ्यन्त दिश् से यत् प्रत्यय हो दिशि य रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो दिश् + य ==> दिश्य रूप बनने पर विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में दिश्यम् रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार वर्ग्यम्।
[४|३|५५] शरीरावयवाच्च - होने वाले अर्थ में शरीर के अवयव-वाचक सप्तभ्यन्त समर्थ से यत् (य) प्रत्यय होता है। | दन्तेषु भवम् (दांतों में होने वाला) - इस अर्थ में शरीरावयववाचक सप्तभ्यन्त दन्त से यत् प्रत्यय हो दन्तेषु य रूप बनता है। यहाँ सुप्-लोप हो दन्त य रूप बनने पर अन्त्य-लोप और विभक्ति-कार्य होकर प्रथमा के एकवचन में दन्त्यम् रूप सिद्ध होता है।
[४|३|५६] दृति-कुक्षि-कलशि-वस्त्यस्त्यहेर्ढञ् - दृति आदि प्रातिपादिकों से भय अर्थ में ढञ् प्रत्यय होता है। | दृति + ढञ् == दार्तेयम्, कुक्षि + ढञ् == कौक्षेयम्।
[४|३|५७] ग्रीवाभ्योऽण्च - भव अर्थ में ग्रीवाशब्द से अण् तथा ढञ् प्रत्यय होता है। | ग्रीवासु भवं = ग्रैवम्, ग्रैवेयम्।
[४|३|५८] गम्भीराञ्ञ्यः - होने वाला अर्थ में सप्तभ्यन्त दिश् आदि से यत् (य) प्रत्यय होता है। | दिशि भवम् (दिशा में होने वाला) - इस अर्थ में सप्तभ्यन्त दिश से यत् प्रत्यय हो दिशि य रूप बनता है। तब सुप्-लोप् हो दिश् + य ==> दिश्य रूप बनने पर विभक्ति कार्य हो प्रथमा के एकवचन में दिश्यम् रूप सिद्ध होता है। गम्भीर + ञ्य == गाम्भीर्यम्
[४|३|५९] अव्ययीभावाच्च - अव्ययीभावासंज्ञक शब्दों से भव अर्थ में ञ्य प्रत्यय होता है। | परिमुख + ञ्य == पारिमुख्यम्, परिहन + ञ्य == पारिहनव्यम्।
[४|३|६०] अन्तःपूर्वपदाट्ठञ् - अन्तःपूर्वपदक अव्ययीभाव से भावार्थ में ठञ् प्रत्यय होता है। | आन्तर्वेश्मिकम्, आन्तर्गेहिकम्।
[४|३|६१] ग्रामात्पर्यनुपूर्वात् परिपूर्वक तथा अनुपूर्वक ग्रामशब्दान्त अव्ययीभाव से भावार्थ में ठञ् प्रत्यय होता है। | परिग्राम + ठञ् == पारिग्रामिकः, अनुग्राम + ठञ् == अनुग्रामिकः।
[४|३|६२] जिह्वामूलाङ्गुलेश्छः - भव (होने वाला) अर्थ में सप्तभ्यन्त जिह्वामूल और अङ्गुलि से छ प्रत्यय होता है। | जुह्वामूले भवम् (जिह्वामूल में होने वाला) - इस अर्थ में सप्तभ्यन्त जिह्वामूल से छ प्रत्यय हो जिह्वामूले छ रूप बनता है। तब सुप्-लोप जिह्वामूल छ रूप बनने पर आयनेयी०(७_१_२) से प्रत्यय के छकार के स्थान पर ईय् आदेश हो जिह्वामूल + ईय् + अ ==> जिह्वामूल ईय रूप बनेगा। यहाँ अन्त्य-लोप और विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में जिह्वामूलीयम् रूप सिद्ध होता है।
[४|३|६३] वर्गान्ताच्च - होने वाले अर्थ में सप्तभ्यन्त वर्गान्त प्रातिपादिक (जिसके अन्त में वर्ग शब्द हो) से छ होता है। | कवर्गे भवम् (कवर्ग में होने वाला) - इस अर्थ में सप्तभ्यन्त वर्गान्त कवर्ग से छ प्रत्यय हो कवर्गे छ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो कवर्ग छ रूप बनने पर पूर्ववत ईय आदेश और अन्त्य-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन में कवर्गोयम् रूप सिद्ध होता है। चवर्गे + छ == चवर्गीयम् ।
[४|३|६४] अशब्दे यत्खा-वन्यतरस्याम् - वर्गान्त प्रातिपादिक से भावार्थक यत् तथा ख प्रत्यय विकल्प से होते हैं यदि प्रत्ययार्थ शब्दभिन्न हो। | अक्रूरवर्ग + यत् == अक्रूरवर्ग्यः ; अक्रूरवर्ग + ख == अक्रूरवर्गीणः ; अक्रूरवर्ग + छ == अक्रूरवर्गीयः इसी प्रकार युधिष्ठिरवर्ग्यः ; युधिष्ठिरवर्गीणः ; युधिष्ठिरवर्गीयः ।
[४|३|६५] कर्णललाटात्-कनलंकारे - कर्ण तथा ललाट शब्दों से भावार्थ में अलङ्काकर अभिधेय होने पर कन् प्रत्यय होता है। | कर्ण + कन् == कर्णिका, ललाट + कन् == ललाटिका।
[४|३|६६] तस्य व्याख्यान इति च व्याख्यातव्यनाम्नः - व्याख्यातव्यानामभूत षष्ठयन्त शब्द से भावार्थ तथा व्याख्यान के अभिधेय होने पर यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | सुपां व्याख्यानो ग्रन्थः = सौपः। कृतां व्याख्यानो ग्रन्थाः = कार्त्तः, तैडः। एवं स्य्प्सु भवं = सौपम्, कार्त्तम्, तैडम्
[४|३|६७] बह्वचोऽन्तोदात्ताट्ठञ् - व्याख्यातव्यानामभूत षष्ठयन्त अनेकाच् अन्तोदात्त प्रातिपादिक से भावार्थ में तथा व्याख्यान अर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है। | षत्वणत्वयोः (६.२) व्याख्यानं = षात्वणत्विकम्, षत्वणत्वयोः (७.२) भवम् = षात्वणत्विकम्, वार्त्तिकिकम्।
[४|३|६८] क्रतुयज्ञेभ्यश्च - व्याख्यातव्यानामभूत क्रतुवाचक तथा यज्ञवाचक षष्ठयन्त प्रातिपादिक से भावार्थ तथा व्याख्यानार्थ में ठञ् प्रत्यय होता है। | क्रतुभ्यः = अग्निष्टोमस्य व्याख्यानो ग्रन्थः अग्निष्टोमे भवो वा = आग्निष्टोमिकः, राजसूयिकः, वाजपेयिकः। यज्ञेभ्यः - पाकयाज्ञिकः, नावयाज्ञिकः।
[४|३|६९] अध्यायेष्वेवर्षेः - ग्रन्थपरक ऋषिवाचक शब्दों से भव तथा व्याख्या न अर्थों में ठञ् प्रत्यय होता है यदि प्रत्ययार्थ के विशेषण अध्याय हो। | वसिष्ठस्य ग्रन्थस्य व्याख्यानः, तत्र भवो वा वासिष्ठिकोऽध्यायः, वैश्वामित्रिकोऽध्यायः।
[४|३|७०] पौरोडाशपुरोडाशात्ष्ठन् - पौराडाशतथा पुरोडाश शब्दों से भव तथा व्याख्यान अर्थों में यत् और अण् प्रत्यय होते हैं। | पुरोडाश + ष्ठन् = पुरोडाशिकः पौरोडाश + ष्ठन् == पौरोडाशिकः ।
[४|३|७१] छन्दसोयदणौ - छन्दस् शब्दों से भव तथा व्याख्यान अर्थों में यत् और अण् प्रत्यय होते हैं। | छन्दस् + यत् == छन्दस्यः ; छन्दस् + अण् == छान्दसः ।
[४|३|७२] द्वद्यजृद् ब्राह्मणर्क् प्रथमाध्वर-पुरश्वरणनामाख्याताट्ठक् - द्वयच्, ऋकारान्त, ब्राह्मण, ऋक्, प्रथम, अध्वर, पुरश्चरण, नाम, आख्यात तथा नामाख्यात शब्दों से भव तथा व्याख्यान अर्थों में ठक् प्रत्यय होता है। | पशु + ठक् == पाशुकः, इष्ट + ठक् == ऐष्टिकः ।
[४|३|७३] अणृगयनादिभ्यः - ऋगयन आदि प्रातिपादिकों से भव तथा व्याख्यान अर्थों में अण् प्रत्यय होता है। | उपनिषद् + अण् == औपनिषदः , व्याकरण + अण् == वैयाकरणः ।
[४|३|७४] तत आगतः - आया हुआ अर्थ में पञ्चभ्यन्त समर्थ से ही यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | स्त्रुध्नादागतः (स्त्रुध्न देश से आया हुआ) - इस अर्थ में पञ्चभ्यन्त स्त्रुध्नात् से अण् प्रत्यय हो स्त्रुध्नात् अ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो स्त्रुध्न अ रूप बनने पर अजादि-वृद्धि और अन्त्य-लोप आदि होकर स्त्रौध्नः रूप सिद्ध होता है।
[४|३|७५] ठगायस्थानेभ्यः - आया हुआ अर्थ में पञ्चभ्यन्त आयस्थान (राजा की आम्दनी का स्थान, चुङ्गीघर) वाचक शब्द से ठक् (ठ) प्रत्यय होता है। | शुक्लशालाया आगतः (शुक्लशाला-चुङ्गीघर से आया हुआ)- इस अर्थ में आयस्थान-वाचक पञ्चभ्यन्त शुक्लशाला से ठक् प्रत्यय हो शुक्लशालायाः ठ रूप बनता है। यहाँ सुप्-लोप हो शुक्लशाला ठ रूप बनने पर ठस्येक (७_३_५०) से प्रत्यय के ठ के स्थान पर इक आदेश हो शुक्लशाला इक रूप बनेगा। तब अजादि-वृद्धि, अन्त्य-लोप और विभक्तिकार्य आदि होकर प्रथमा के एकवचन में शौल्कशालिकः रूप सिद्ध होता है।
[४|३|७६] शुण्डिकादिभ्योऽण् - पञ्चम्यन्त शुण्डिक आदि प्रातिपादिकों से आगत अर्थ में अण् प्रत्यय होता है। | शुण्डिकादागतः = शौण्डिकः, कार्कणः।
[४|३|७७] विद्यायोनिसम्बन्धेभ्योवुञ् - आया हुआ अर्थ में विद्या और योनि-सम्बन्ध-वाचक पञ्चभ्यन्त समर्थ से वुञ् (वु) प्रत्यय होता है। | उपाध्यायाद् आगतः ( उपाध्याय से आया हुआ) - इस अर्थ में विद्या-सम्बन्धवाची पञ्चभ्यन्त उपाध्याय से वुञ् प्रत्यय हो उपाध्यायाद् वु रूप बनता है। यहाँ सुप्-लोप हो उपाध्याय वु रूप बनने पर युवोरनाकौ (७_१_१) से प्रत्यय वु को अक आदेश होकर उपाध्याय अक रूप बनेगा। तब अजादि-वृद्धि और अन्त्य-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन में औपाध्यायकः रूप सिद्ध होता है।
[४|३|७८] ऋतष्ठञ् - विद्यायोनिसम्बन्ध-वाचक ऋकारान्त पञ्चमी-समर्थ प्रातिपादिक से आगत अर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है। | विद्यासम्बन्धवाचिभ्यः - होतुरागतं = हौतृकम्, पौतृकम्। योनिसम्बन्धवाचिभ्यः - भ्रातृकम्, स्वासृकम्, मातृकम्।
[४|३|७९] पितुर्यच्च - पितृ शब्द से आगत अर्थ में ठञ् तथा यत् प्रत्यय होते हैं। | पितुरागतम् = पित्र्यम्, पैतृकम्।
[४|३|८०] गोत्रादङ्कवत् - गोत्रप्रत्ययान्त शब्दों से अङ्कार्थक प्रत्ययों की तरह आगत अर्थ में भी प्रत्यय होते हैं। | औपगवा-नामङ्क औपगवकः, कापटवकः, नाडायनकः, चारायणकः। एवमौपगवेभ्य आगतम् = औपगवकम्, कापटवकम्, नाडायनकम्, चारायणकम्।
[४|३|८१] हेतुमनुष्येभ्योऽन्यतरस्यांरुप्यः - आया हुआ अर्थ में हेतु (कारण) और मनुष्य्-वाचक पञ्चभ्यन्त समर्थ से विकल्प से रूप्य प्रत्यय होता है। | समाद् आगतम् (सम से आया हुआ) - इस अर्थ में हेतुभूत पञ्चभ्यन्त सम से रूप्य प्रत्यय हो समाद् रूप्यः रूप बनता है। यब सुप्-लोप हो सम् + रूप्य ==> समरूप्य रूप बनने पर विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में समरूप्यम् रूप सिद्ध होता है।
[४|३|८२] मयट् च - आया हुआ अर्थ में हेतुवाचक और मनुष्यवाचक पञ्चभ्यन्त प्रातिपादिक से मयट् (मय) प्रत्यय भी होता है। | समाद् आगतः (सम से आया हुआ) - इस अर्थ में हेतुभूत पञ्चभ्यन्त सम से मयट् प्रत्यय हो समाद् मय रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो सम + मय ==> सममय रूप बनने पर विभक्ति-कार्य होकर प्रथमा के एकवचन में सममयम् रूप सिद्ध होता है।
[४|३|८३] प्रभवति - प्रव्हवति (प्रकट होता है या होती है अथवा निकलता या निकलती है) अर्थ में पञ्चभ्यन्त समर्थ में ही यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | हिमवतः प्रभवति (हिमवत्-हिमालय से निकलती है) - इस अर्थ में पञ्चभ्यन्त हिमवत् से सामान्य अण् प्रत्यय हो हुमवतः अ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो हिमवत् अ रूप बनने पर अजादि-व्रिद्धि हो हैमवत रूप बनेगा। यहाँ स्त्रीत्व-विविक्षा में ङीप् (ई) प्रत्यय, अन्त्य अकार का लोप और विभक्ति-कार्य होकर हैमवती रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - हिमालय + अण् + ङीप् == हैमालयी, दरद + अण् + ङीप् == दारदी, सुमेरु + अण् + ङीप् == सौमेरवी ।
[४|३|८४] विदूराञ्ञ्यः - पञ्चम्यन्त विदुर शब्द से प्रभवन अर्थ में ञ्य् प्रत्यय होता है। | विदूर + ञ्य == वैदूर्य्यो ।
[४|३|८५] तद्-गच्छतिपथिदूतयोः - पथ या दूत वाच्य होने पर गच्छति (जाता है) अर्थ में द्वितीयान्त प्रातिपादिक से ही यथाविहित प्रत्यय होता है। | पथ या दूत वाच्य होने पर स्त्रुध्नं गच्छति (स्त्रुध्न - देश विशेष हो जाता है) इस वाच्य में गच्छति अर्थ में द्वितीयान्त प्रातिपादिक स्त्रुध्नम् से अण् प्रत्यय हो स्त्रुध्नम् अ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो स्त्रुध्न अ रूप बनने पर अजादि-वृद्धि और विभक्ति-कार्य हो स्त्रौध्नः रूप सिद्ध होता है।
[४|३|८६] अभिनिष्क्रामतिद्वारम् - यदि निकलने वाला (निकलना क्रिया का कर्ता) द्वार हो तो अभिनिष्क्रामति (उस ओर निकलता है) अर्थ में द्वितीयान्त प्रातिपादिक से यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | स्त्रुध्न मभिनिष्कामति (स्त्रुध्न की ओर निकलता है)- यहाँ अभिनिष्क्रमति अर्थ में द्वितियान्त प्रातिपादिक स्त्रुध्नम् से अण् प्रत्यय हो स्त्रुध्नम् अ रूप बनता है।तब सुप्-लोप हो स्त्रुध्न अ रूप बनने पर अजादि-वृद्धि और वुभक्ति-कार्य हो प्रथमा के नपुंसकलिंग-एकवचन में स्त्रौध्नम् रूप सिद्ध होता है।
[४|३|८७] अधिकृत्यकृतेग्रन्थे - अधिकृत्य कृतो ग्रन्थः ( अधिकृत करके बनाया गया ग्रन्थ) अर्थ में द्वितीयान्त प्रातिपादिक से यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | शारीरकम् अधिकृत्य कृतो ग्रन्थः (शारीरिक- आत्मा को अधिकृत करके बनाया हुआ ग्रन्थ) - इस अर्थ में द्वितीयान्त प्रातिपादिक शारीरकम् से वृद्धाच्छः (४-२-११४) से छ प्रत्यय हो शारीरकम् छ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो छ रूप बनने पर आयनेयीनी (७_१_२) से प्रत्यय के छकार के स्थान पर ईय् होकर शारीरक + ईय् + अ ==> शारीरक् इय रूप बनेगा। यहाँ अन्त्य- अकार का लोप हो शारीरक् + ईय् ==> शारीरकीय रूप सिद्ध होता है।
[४|३|८८] शिशुक्रन्दयमसभद्वन्द्वेन्द्रजननादिभ्यश्छः - द्वितियासमर्थ शिशु आदि शब्दों से विषय में निर्मित ग्रन्थ अर्थ में छ प्रत्यय होता है। | शिशुक्रन्दमधिकृत्य कृतो ग्रन्थः = शिशुक्रन्दीयः। यमसभीयः। द्वन्द्वात्- अग्निश्च काश्यपश्च अग्नि - काश्यपौ, तौ अधिकृत्य कृतो ग्रन्थः = अग्निकाश्यपीयः, श्येनकपोतीयः, शब्दार्थसम्बन्धीयं प्रकरणम्, वाक्यपदीयम्। इन्द्रजननादिभ्यः - इन्द्रजन - नीयम्, प्रद्युम्नागमनीयम्।
[४|३|८९] सोऽस्यनिवासः - इसका निवास (रहने का देश) है इस अर्थ में प्रथमान्त प्रातिपादिक से यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | स्त्रुध्नो निवासोऽस्य (स्त्रुध्न इसका निवास है) - इस अर्थ में प्रथमान्त स्त्रुध्न से अण् प्रत्यय हो स्त्रुध्नः अ रूप बनता है। तब सुप्-लोप, अजादि-वृद्धि और विभक्ति-कार्य होकर प्रथमा के एकवचन पुँल्लिङ्ग में स्त्रौध्नः रूप सिद्ध होता है।
[४|३|९०] अभिजनश्च - प्रथमासमर्थ शाबदों से इसका अभिजन (पूर्वजनिवासस्थान) है इस अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | इन्द्रप्रस्थ + अण् == ऐन्द्रप्रस्थः, ग्राम + ख == ग्रामीणः, ग्राम + य == ग्राम्यः।
[४|३|९१] आयुधजीविभ्यश्छःपर्वते - पर्वतवाचक प्रथमासमर्थ शब्द से आयुधजीवी के अभिधान के निमित्त षष्ठयर्थ में छ प्रत्यय होता है। | हृद्गोलः पर्वतोऽभिजन एषां = हृद्गोलीयाः आयु - धजीविनः। अन्धकवर्तीयाः, रोहितगिरीयाः।
[४|३|९२] शण्डिकादिभ्योञ्यः शण्डिक आदि शब्दों से ` इसका अभिजन है` इस अर्थ में ञ्य् प्रत्यय होता है। | शण्डिकोऽभिजनोऽस्य शाण्डिक्यः, सार्वसेन्यः।
[४|३|९३] सिन्धुतक्षशिलादिभ्योऽणञौ सिन्धु आदि प्रातिपादिकों से ` इसका अभिजन है` इस अर्थ में क्रमशः अण् तथा अञ् प्रत्यय होते हैं। | सिन्धुरभिजनोऽस्य = सैन्धवः, वार्णवः। तक्षशिलादिभ्यः - ताक्षशिलः, वात्सोद्धरणः।
[४|३|९४] तूदी-शलातुर-वर्मती-कूचवारा-ड्ढक्छण्ढञ्यकः - तूदी, शलातुर, वर्मवती तथा कूचबार शब्दों से ` इसका अभिजन है` इस अर्थ में क्रमशः ढक्, छण्, ढञ् तथा यक् प्रत्यय होते हैं। | तूदी अभिजनोऽस्य = तौदेयः, शालातुरीयः, वार्मतेयः, कौचवार्यः
[४|३|९५] भक्तिः - प्रथमासमर्थ शब्द से ` इसकी भक्ति है` अर्थ में यथाविहित में प्रत्यय होते हैं। | स्त्रुध्नो भक्तिरस्य = स्त्रौध्नः, माथुरः, राष्ट्रियः।
[४|३|९६] अचित्ताददेशकालाट्ठक् - देशकालभिन्न अचित्तवाचक प्रातिपादिक से ` इसकी भक्ति है` अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | पायस् + ठक् == पायसिकः (जिसे खीर प्रिय हो)
[४|३|९७] महाराजट्ठञ् - महाराज शब्द से ` इसकी भक्ति है` अर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है। | महाराजो भक्तिरस्य = माहाराजिकः
[४|३|९८] वासुदेवार्जुनाभ्यां वुन् - वासुदेव तथा अर्जुन शब्दों से ` इसकी भक्ति है` अर्थ में वुन् प्रत्यय होता है। | वासुदेवो भक्तिरस्य = वासुदेवकः, अर्जुनकः।
[४|३|९९] गोत्रक्षत्रियाख्येभ्योबहुलंवुञ् - गोत्रवाचक तथा क्षत्रियवाचक शब्दों से ` इसकी भक्ति है` अर्थ में बहुल करके वुञ् प्रत्यय होता है। | गोत्राख्येभ्यः - ग्लुचुकायनिर्भक्तिरस्य = ग्लौचुकायनकः, औपगवकः, कापटवकः। क्षत्रियाख्येभ्यः - नाकुलकः, साहदेवकः, साम्बकः।
[४|३|१००] जनपदिनां जनपदवत्सर्वं जनपदेनसमानशब्दानां बहुवचने - जनपदस्वामिवाचक जो शब्द से बहुवचन में जनपदवाचक शब्द के साथ समानाश्रुति होते हैं उनसे ` इसकी भक्ति है` अर्थ में जनपदवाचक शब्दों से समान ही प्रकृति-प्रत्यय होते हैं। | यथा अङ्गेषु देशे भवमाङ्गकम्, वाङ्गकम्, एवम्, अङ्गा, क्षत्रिया भक्तिरस्य - आङ्गकः, वाङ्गकः, सौह्मकः, पौण्ड्रकः इत्यत्रापि वुञ् भवति।
[४|३|१०१] तेनप्रोक्तम् - प्रोक्तम् (प्रवचन किया हुआ) अर्थ में तृतीयान्त प्रातिपादिक से यथाविहित ( अण्, छ आदि) प्रत्यय होते हैं। | पाणिनिना प्रोक्तम् (पाणिनि के द्वारा प्रवचन किया हुआ) इस अर्थ में वृद्धाच्छः (४_२_११४) से तृतीयान्त प्रातिपादिक पाणिनिना से छ प्रत्यय हो पाणिनिना छ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो पाणिनि छ रूप बनने पर आयनेयीनी (७_१_२) से प्रत्यय के चकार के स्थान पर ईय् हो पाणिनि + ईय् + अ ==> पाणिनीय रूप बनने पर विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन नपुंसकलिङ्ग में पाणिनीयम् रूप सिद्ध होता है।
[४|३|१०२] तित्तिरिवरतन्तुखण्डिकोखाच्छण् - तृतीयासमर्थ तित्तिरि, वरतन्तु, खण्डिक तथा उख शब्दों से प्रोक्त अर्थ में छण् प्रत्यय होता है। | तित्तिरि + अण् == तैत्तिरियम् ।
[४|३|१०३] काश्यप-कौशिकाभ्यामृषिभ्यांणिनिः - तृतीयासमर्थ ऋषिवाचक काश्यप तथा कौशिक शब्दों से प्रोक्त अर्थ में णिनि प्रत्यय होता है। | कश्यप + णिनि == काश्यपिनः, कौशिक + णिनि == कौशिकिनः।
[४|३|१०४] कलापिवैशम्पायनान्तेवासिभ्यश्च - कलाप्यन्तेवासिवाचक तथा वैशम्पायानान्तेवासिवाचक तृतीयासमर्थ शब्दों से भी प्रोक्त अर्थ में णिनि प्रत्यय होता है। | कलाप्यन्तेवासिभ्यः - हरिद्रुणा प्रोक्तमधीते = हरिद्रविणः, तौम्बुरविणः, औलपिनः। वैशम्पायनान्ते - वासिभ्यः - आलम्बिनः, पालङ्गिनः, कामलिनः, आर्च्चाभिनः, आरुणिनः, ताण्डिनः, श्यामायनिनः।
[४|३|१०५] पुराणप्रोक्तेषु ब्राह्मणकल्पेषु - तृतीयासमर्थ शब्द से प्रोक्तार्थ में णिनि प्रत्यय होता है यदि प्रोक्त पदार्थ पुराणमुनिप्रोक्त ब्राह्मण अथवा कल्प हो। | भल्लवेन प्रोक्तं ब्राह्मणमधीयते = भाल्लविनः, शाट्यायनिनः, ऐतरेयिणः। कल्पेषु = पिङ्गेन प्रोक्तः = पङ्गी कल्पः, आरुणपराजी।
[४|३|१०६] शौनकादिभ्यश्छन्दसि शौनक आदि शब्दों से प्रक्तार्थ में णिनि प्रत्यय होता है यदि छन्दस् उसका अभिधेय हो। | शौनकेन प्रोक्तमधीयते शौनकिनः, वाजसनेयिनः।
[४|३|१०७] कठचरकाल्लुक् - कठ तथा चरक शब्दों से विहित प्रोक्तार्थ प्रत्यय का लोप। | कठेन प्रोक्तमधीयते = कठाः, चरकाः।
[४|३|१०८] कलापिनोऽण् - कलापिन् शब्द से प्रोक्त अर्थ में अण् प्रत्यय होता है। | कलापिना प्रोक्तमधीयते = कालापाः।
[४|३|१०९] छगलिनो ढिनुक् - छगलिन् शब्द से प्रोक्तार्थ में ढिनुक् प्रत्यय होता है। | छगलिना प्रोक्तमधीयते = छागलेयिनः।
[४|३|११०] पाराशर्यशिलालिभ्यांभिक्षुनटसूत्रयोः - पाराशर्य तथा शिलालि शब्दों से प्रोक्तार्थ में णिनि प्रत्यय होता है यदि क्रमशः भिक्षुसूत्र तथा नटसूत्र अभिधेय हो। | पाराशर्येण प्रोक्तमधीयते = पाराशरिणो भिक्षवः। शैलालिनो नटाः।
[४|३|१११] कर्मन्दक्रिशाश्वादिनिः - कर्मन्द तथा कृशाश्व शब्दों से क्रमशः भिक्षुसूत्र तथा नटसूत्र अभिधेय होने पर णिनि प्रत्यय होते हैं। | कर्मन्देन प्रोक्तमधीयते = कर्मन्दिनो भिक्षवः। कृशाश्वेन प्रोक्तमधीयते = कृशाश्विनो नटाः।
[४|३|११२] तेनैकदिक् - तृतीयासमर्थ से एकदिक् अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | इन्द्रप्रस्थेन एकदिग् = ऐन्द्रप्रस्थो ग्रामः। सुदामनी विद्युत्।
[४|३|११३] तसिश्व - तृतीयासमर्थ से एकदिक् अर्थ में तसि प्रत्यय होते हैं। | इन्द्रप्रस्थतः, वाराणसीतः, सुदामतः।
[४|३|११४] उरसोयच्च - तृतीयासमर्थ उस उरस् शब्द से एकदिक् अर्थ में यत् तथा तसि प्रत्यय होते हैं। | उरसा एकदिक् = उरस्यः, उरस्तः।
[४|३|११५] उपज्ञाते - तृतीयासमर्थ शब्द से उपज्ञात अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | पाणिनिना उपज्ञातं = पाणिनीयम् अकालकं व्याकरणम्। अपिशलं पुष्करणम्। काशकृत्स्नं गुरुलाघवम्।
[४|३|११६] कृतेग्रन्थे - तृतीयासमर्थ से कृत ग्रन्थ अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | वररुचिना कृताः = वाररुचाः श्लोकाः। हैकुपादो ग्रन्थः। भैकुराटो ग्रन्थः। जालूकः।
[४|३|११७] संज्ञायाम्| - तृतीयासमर्थ से कृत ग्रन्थ अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होते हैंयदि प्रत्ययान्त से संज्ञा की प्रतीति हो।
[४|३|११८] कुलालादिभ्यो वुञ् तृतीयासमर्थ कुलाल आदि शब्दों से संज्ञा के गम्यमान होने पर कृत अर्थ में घुञ् प्रत्यय होता है। | कुलालने कृतं - कैलालकम्। वारुडकम्।
[४|३|११९] क्षुद्रा-भ्रमरवटरपादपादञ् - तृतीयासमर्थ क्षुद्रा, भ्रमर तथा पादप शब्दों से संज्ञा में गम्यमान होने पर कृत अर्थ में अञ् प्रत्यय होता है। | क्षुद्राभिः कृतं = क्षौद्रम्, भ्रामरम्, वाटरम्, पादपम्।
[४|३|१२०] तस्येदम् - इदम् (यह है) अर्थ में षष्ठयन्त प्रातिपादिक से यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | उपगोरिदम् (उपगु का यह है) - इस अर्थ में षष्ठयन्त प्रातिपादिक उपगोः से अण् प्रत्यय हो उपगोः अ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो उपगु अ रूप बनने पर अजादि-वृद्धि, गुण, अवादेश और विभक्ति-कार्य आदि होकर प्रथमा के एकवचन नपुंसकलिङ्ग में औपगवम् रूप सिद्ध होता है।
[४|३|१२१] रथाद्यत् - षष्ठीसमर्थ रथ शब्द से ` इदमर्थऄ में यत् प्रत्यय होता हैं। | रथस्येदं = रथ्यम्
[४|३|१२२] पत्रपूर्वादञ् - वाहनवाचक शब्दपूर्वक रथ शब्द से अञ् प्रत्यय होता है। | अश्वरथस्येदम् = आश्वरथम्, औष्ट्ररथम्, गार्दभरथम्।
[४|३|१२३] पत्राध्वर्युपरिषदश्च - षष्ठीसमर्थ वाहनवाचक शब्द तथा अध्वर्यु एवम परिषत् शब्दों से इदमर्थ में अञ् प्रत्यय होता है। | गर्दभस्येदं = गार्दभम्, आश्वम्, औष्ट्रम्। अध्वर्योरिदम् = आश्वर्यवम्। परिषदम्।
[४|३|१२४] हलसीराट्ठक् - षष्ठीसमर्थ हल तथा सीर शब्दों से इदमर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | हलस्यएदं = हालिकम्। सैरिकम्।
[४|३|१२५] द्वन्द्वाद्-वुन्-वैरमैथुनिकयोः - द्वन्द्वसंज्ञक से इदमर्थ में वुन् प्रत्यय होता है वैर तथा मैथुनिक के प्रत्ययार्थ विशेषण होने पर। | वैरे - बाभ्रव्यश्च शालङ्कायनश्च बाभ्रव्यशालङ्कायनै, तयोरिदं वैरं = बाभ्राव्यशालङ्कायनिका। काकोलूकिका। मैथुनिकायाम् - अत्रिभरद्वाजिका, कुत्सकुशिकिका।
[४|३|१२६] गोत्रचरणाद् वुञ् - गोत्रवाचक तथा चरणवाचक शब्दों से इदमर्थ में वुञ् प्रत्यय होता है। | गोत्रात् - ग्लौचुकायङ्कम्, औपगवकम्। चरणवाचिभ्यः - काठकम्, कालापकम्, मौदकम्, पैप्पलादकम्।
[४|३|१२७] सङ्घाङ्कलक्षणेष्वञ्यञिञामण् - सङ्घ, अङ्क तथा लक्षण के प्रत्ययार्थ-विशेषण होने पर यञन्त तथा इञन्त प्रातिपादिक से इदमर्थ में अञ् प्रत्यय होता है। | अञन्तात् - गार्गः सङ्घः। गार्गोऽङ्कः। गार्गं लक्षणम्। इञन्तात् - दाक्षः सङ्घः। दाक्षोऽङ्कः, दाक्षं लक्षणम्।
[४|३|१२८] शाकलाद्वा - संघ आदि के प्रत्ययार्थ विशेषण होने पर शाकल शब्द से इदमर्थ में विकल्प से अण् प्रत्यय होता है। | शाकलस्यापत्यं बहवः शकलाः। तेषां संघः, अङ्कः, लक्षणं वा शाकलः, शाकलम्, शाकलकः, शाकलकम्।
[४|३|१२९] छन्दोगौक्थिकयाज्ञिकबह् वृचनटाञ्ञ्यः - र्छन्दोग्य आदि शब्दों से इद्मर्थ में ञय् प्रत्यय होता है। | छन्दोगानां धर्म आम्नायो वा = छान्दोग्यम्। औक्थिक्यम्। याज्ञिक्यम्। बाह्वृच्यम्। नाट्यम्।
[४|३|१३०] नदण्डमाणवान्तेवासिषु - दण्ड प्रधान माणव तथा शिष्यों के अभिधेय होने पर गोत्रप्रत्ययान्त से वुञ् प्रत्यय नहीं होता। | गौकक्ष्यस्य दण्डमाणवा अन्तेवासिनो वा = गौकक्षाः, दाक्षाः, माहकाः।
[४|३|१३१] रैवतिकादिभ्यश्छः रैवतिक आदि शब्दों से इदमर्थ में छ प्रत्यय होता है। | रैवतिक + छ == रैवतिकीयः, स्वापिशि + छ == स्वापिशीयः ।
[४|३|१३२] कौपिञ्ज`लहास्तिपदादण्| - कौपिज्जल तथा हस्तिपद शब्दों से इदमर्थ में अञ् प्रत्यय होता है।
[४|३|१३३] आथर्वणिकस्येकलोपश्च| - आथर्वणिक शब्द से इदमर्थ में अण् प्रत्यय तथा इक् का लोप।
[४|३|१३४] तस्यविकारः - विकारः (विकार) अर्थ में शष्ठयन्त प्रातिपादिक से यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | अश्मनो विकारः (पत्थर का विकार) - इस अर्थ में षष्ठयन्त प्रातिपादिक अश्मनः से अण् प्रत्यय हो अश्मनः अ रूप बनता है। तन सुप्-लोप हो अश्मन् अ रूप बनने पर नस्तद्धिते (६_४_१४४) से टि-लोप प्राप्त होता है किन्तु अन् से उसका निषेध हो जाता है। इस स्थिति में प्रकृत वार्तिक अश्मनो विकारे टिलोपी वक्तव्यः से टि-अन् का लोप हो अश्म् अ रूप बनने पर अजादि-वृद्धि और विभक्ति-कार्य आदि होकर प्रथमा के एकवचन-पुँल्लिङ्ग में आशमः रूप सिद्ध होता है।
[४|३|१३५] अवयवेचप्राण्योषधिवृक्षेभ्यः - प्राणिवाचक, ओषधिवाचक और वृक्षवाचक षष्ठयन्त प्रातिपादिकों से अवयव तथा विकार - दोनों ही अर्थों में यथाविहित प्रत्यय होते हैं। | प्राणिवाचिभ्यः- कपोतस्य विकारोऽऽवयवो वा = कपोतः, मायूरः, तैत्तिरम्। ओषधिभ्यः- मौर्वं काण्डम्, लावङ्गम्। वृक्षवाचिभ्यः - कारीरं काण्डम्, करीरं भस्म।
[४|३|१३६] बिल्वादिभ्योऽण् बिल्व आदि शब्दों से विकार तथा अवयव अर्थों में अण् प्रत्यय होता है। | बिल्वस्य विकारोऽवयवो वा = बैल्वः, व्रैहः।
[४|३|१३७] कोपधाच्च - ककारोपध शब्दों से भी विकार तथा अवयव अर्थों में अण् प्रत्यय होता है। | तित्तिडीकस्य विकारोऽवयवो वा तैत्तिडीकम्। तर्कोः विकारोऽवयवो वा तार्कवम्। माण्डूकम्, दार्दुरुकम्, माधूकम्।
[४|३|१३८] त्रपुजतुनोः षुक् - त्रपु तथा जतु शब्दों से विकारार्थ में अञ् प्रत्यय तथा उसे षुँक् का आगम। | त्रपुणो विकारः = त्रापुषम्। जातुषम्।
[४|३|१३९] ओरञ् - विकार तथा अवयव अर्थों में उवर्णान्तप्रातिपादिक से अञ् प्रत्यय होता है। | देवदारोर्विकारोऽवयवो वा दैवदारवम्, तारवम्, धैनवम्।
[४|३|१४०] अनुदात्तादेश्च - अनुदात्तादि प्रातिपादिक से भी विकार तथा अवयव अर्थों में अङ् प्रत्यय होता है। | दाधित्थम्, कापित्थम्, माहित्थम्।
[४|३|१४१] पलाशादिभ्यो वा - पलाश आदि प्रातिपादिकों से उक्त अर्थों में विकल्प से अञ् प्रत्यय होता है। | पलाशस्य विकारोऽवयवो वा = पालाशम्, खादिरम्
[४|३|१४२] शम्याः ष्लञ् - समी शब्द से उक्त दोनों अर्थों में टलञ् प्रत्यय होता है। | शम्याः विकारः = शामीलं भस्म, शामीली यष्टिका।
[४|३|१४३] मयड्वैतयोर्भाषायामभक्ष्याच्छादनयोः - भक्ष्य-भिन्न और आच्चादन-भिन्न विकार तथा अवयव अर्थ में लौकिक संस्कृत में षष्ठयन्त प्रातिपादिक विकल्प से मयट् प्रत्यय होता है। | अश्मनोऽवयवो विकारो वा ( अश्मन् का अवयव या विकार) - इस अर्थ में षष्ठयन्त अश्मन् से मयट् (मय) प्रत्यय हो अश्मनः मप् रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो अश्मन् मय रूप बनने पर नलोपः से न-लोप तथा विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन-नपुंसकलिङ्ग अश्ममयम् रूप सिद्ध होता है।
[४|३|१४४] नित्यंवृद्धशरादिभ्यः - यदि अवयव या विकार भक्ष्य अथवा आच्छादन न हो तो अवयव और विकार अर्थों में वृद्ध-संज्ञक और शरादिगण में पठित शर आदि शब्दों के शष्ठयन्त पदों से लौकिक संस्कृत में नित्य (सर्वदा) मयट् (मय) प्रत्यय होता है। | आम्रस्य अवयवो विकारों वा (आम्र-आम का अवयव या विकार) - इस अर्थ में वृद्ध-संज्ञक षष्ठयन्त पद आम्रस्य से मयट् प्रत्यय होकर आम्रस्य मय रूप बनता है। तब पूर्ववत् सुप्-लोप और विभक्ति-कार्य होकर प्रथमा के एकवचन-नपुंसकलिङ्ग में आम्रमयम् रूप सिद्ध होता है।
[४|३|१४५] गोश्चपुरीषे - पुरीष (गोबर) अर्थ में षष्ठयन्त गो शब्द से मयट् (मय) अप्रत्यय होता है। | गोः पुरीषम् (गाय का गोबर) - इस अर्थ में षष्ठयन्त गोः से मयट् प्रत्यय हो गोः मय रूप बनता है। तब सुप्-लोप और विभक्ति-कार्य हो गोमयम् रूप सिद्ध होता है।
[४|३|१४६] पिष्टाच्च - पिष्ठ शब्द से भी विकारार्थ में यमट् प्रत्यय होता है। | पिष्टस्य विकारः = पिष्टमयं भस्म।
[४|३|१४७] संज्ञायांकन् - संज्ञाविषय में पिष्ठ शब्द से कन् प्रत्यय होता है। | पिष्टकः
[४|३|१४८] व्रीहेः पुरोडाशे - ब्रीहि शब्द से पुरोडाशात्मक विकारार्थ में मयट् प्रत्यय होता है। | व्रीहिमयः पुरोडाशः।
[४|३|१४९] असंज्ञायांतिलयवाभ्याम् - असंज्ञाविषय में तिल यव शब्दों से विकार तथा अवयव अर्थों में मयट् प्रत्यय होता है। | तिलस्य विकारोऽवयवो वा = तिलमयम, यवमयम्।
[४|३|१५०] द्वयचश्छन्दसि - द्वयच् प्रातिपादिक से वेद में विकारावयव अर्थों में मयट् प्रत्यय होता है। | यस्य पर्णमयी जुहूर्भवति। दर्भमयं वासो भवति। शरमयं बर्हिर्भवति।
[४|३|१५१] नोत्वद्वर्ध्रबिल्वात् - उकारवान् प्रातिपादिक तथा वर्घ्र एवं बिल्व शब्दों से मयट् नहीं होता। | मौञ्जं शिक्यम्। गार्मुतं चक्रम्। वाद्र्ध्रम्, बैल्वम्।
[४|३|१५२] तालादिभ्योऽण् - ताल आदि शब्दों से विकार एवम् अवयव अर्थों में अण् प्रत्यय होता है। | तालं धनुः बार्हिणम्, ऐन्द्रालिशम्।
[४|३|१५३] जातरुपेभ्यःपरिमाणे - सुवर्णवाचक शब्द से परिमाणात्मक विकार अर्थ में अण् प्रत्यय होता है। | हाटको निष्कः। जातरूपं कर्षापणम्। सौवर्णो निष्कः, रैक्मः।
[४|३|१५४] प्राणिरजतादिभ्योऽञ् प्राणिवाचक तथा रजत आदि शब्दों से विकार तथा अवयव अर्थों में अञ् प्रत्यय होता है। | कपोतस्य विकारोऽवयवो वा = कपोतम्, मायूरम्, तैत्तिरम्। रजतादिभ्यः - राजतम्, सैसम्।
[४|३|१५५] ञितश्चतत्प्रत्ययात् - ञित् विकारावयवार्थक प्रत्ययान्त शब्द से विकारावयव अर्थों में ही पुनः अञ् प्रत्यय होता है। | शामीलस्य विकारोऽवयवो वा = शामीलम्। दैवदारवस्य विकारः = दैवदारवम्, दधित्थम्, कापित्थम्।
[४|३|१५६] क्रीतवत् परिमाणात् - परिमाणवाचक शब्दों से क्रीतार्थक प्रत्ययों की तरह विकारार्थक प्रत्यय भी होते हैं। | यथैव निष्केण क्रीतं = नैष्किकम्, शतेन क्रीतं = शत्यं शतिकं वा भवति, तथैव विकारावयवार्थेऽपि - निष्कस्य विकारो = नैष्किकः, शतस्य विकारः = शत्यः, शतिक इत्यपि भवति।
[४|३|१५७] उष्ट्राद् वुञ् - उष्ट्र शब्द से विकार तथा अवयव अर्थों में वुञ् प्रत्यय होता है। | उष्ट्रस्य विकारोऽवयवो वा = औष्ट्रकः।
[४|३|१५८] उमोर्णयोर्वा - उमा तथा ऊर्णा शब्दों से विकार और अवयव अर्थों में विकल्प से वुञ् प्रत्यय होता है। | उमायाः विकारोऽवयवो वा = औमकम्, औमम्। और्णकम्, और्णम्।
[४|३|१५९] एण्या ढञ् - एणी शब्द से विकार तथा अवयव अर्थों में ढञ् प्रत्यय होता है। | एण्या विकारोऽवयवो वा = ऐणेयं मांसम्।
[४|३|१६०] गोपयसोर्यत् - अवयव और विकार अर्थ में षष्ठयन्त गो और पयस् - इन दो शब्दों से यत् (य) प्रत्यय होता है। | गोरवयवो विकारो वा (गाय का अवयव या विकार) - इस अर्थ में षष्ठयन्त गोः से यत् प्रत्यय हो गोः यः रूप बनता है। तब सुप्-लोप और विभक्ति-कार्य हो गव्यम् रूप सिद्ध होता है।
[४|३|१६१] द्रोश्च - द्रु शब्द से भी विकार और अवयव अर्थों में यत् प्रत्यय होता है। | द्रोर्विकारोऽवयवो वा = देअव्यम्।
[४|३|१६२] मानेवयः - द्रु शब्द से भी मानात्मक विकारार्थ में वय् प्रत्यय होता है। | द्रु + वय == द्रव्यम् ।
[४|३|१६३] फलेलुक् - विकारार्थक तथा अवयवार्थक प्रत्ययों का फलात्मक विकार की विवक्षा में लोप। | आमलक्याः फलं विकारोऽवयवो वा = आमलकम्, कुवलम्, बदरम्।
[४|३|१६४] प्लक्षादिभ्योऽण् प्लक्ष आदि शब्दों से फलात्मक विकार और तदात्मक अवयव अर्थों में अण् प्रत्यय होता है। | प्लक्षस्य विकारोऽवयवो वा = प्लाक्षम्, नैयग्रोधम्
[४|३|१६५] जम्ब्वावा - जम्बू शब्द से फलात्मक अवयवादि अर्थों में विकल्प से अनु हो जाता है। | जम्बू + अण् == जम्ब्वाः
[४|३|१६६] लुप् च - जम्बू शब्द से विहित फलावयवार्थक प्रत्यय का विकल्प से लोप। | जम्ब्वाः फलं = जम्बूः फलं, जम्बु फलम् जाम्बवं फलम्।
[४|३|१६७] हरीतक्यादिभ्यश्व हरीतकी आदि शब्दों से विहित फलार्थक प्रत्यय का भी लोप। | हरीतक्याः फलम् अवयवः = हरीतकी फलम्। कोशातकी, नखरजनी।
[४|३|१६८] कंसीयपरशव्ययोर्यञञौलुक्च - कंसीय तथा परशव्य शब्दों से विकारार्थ में क्रमशः युञ् एवम् अञ् प्रत्यय तथा प्रकृति का अन्त्यलोप भी हो जाता है। | कंसीयस्य विकारः = कंस्यः। परशव्यस्य विकारः = पराशवः।
[४|४|१] प्राग्वहतेष्ठक् - तद्वहति रथयुगप्रासङ्गम् (४_४_७६) - इस सूत्र से पहले ठक् प्रत्यय होता है। | अक्षैर्दीव्यति आक्षिकः। एवमन्यत्रापि ज्ञेयम्।
[४|४|२] तेन दीव्यति खनति जयति जितम् - दीव्यति (खेलता है), खनति (खोदता है), जयति (जीतता है), और जितम् (जीता हुआ)- इन चार अर्थों में तृतीयान्त प्रातिपादिक से ठक् (ठ) प्रत्यय होता है। | अक्षैदीव्यति, जयति, खनति, जितं वा (अक्ष से, खेलता है, जीतता है, खनता है, या जीता हुआ) - इस अर्थ में तृतीयान्त अक्षैः से ठक् प्रत्यय हो अक्षै ठ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो अक्ष ठ रूप बनने पर ठस्येक से प्रत्यय के ठ के स्थान पर इक हो अक्ष इक रूप बनेगा। तब अजादि-वृद्धि, अन्त्य-लोप और विभक्ति-कार्य आदि होकर प्रथमा के एक्वचन पुँल्लिङ्ग में आक्षिकः रूप सिद्ध होता है।
[४|४|३] संस्कृतम् - संस्कृतम् (संस्कार किया हुआ) अर्थ में तृतीयान्त प्रातिपादिक से ठक् (ठ) प्रत्यय होता है। | दध्ना संस्कृतम् (दही-दवि से संस्कार किया हुआ) - इस अर्थ में तृतीयान्त दध्ना से ठक् प्रत्यय हो दध्ना ठ रूप बनता है। तब पूर्ववत सुप्-लोप, एकादेश, अजादि-वृद्धि और अन्त्य-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन-नपुँल्लिङ्ग में दाधिकम् रूप सिद्ध होता है।
[४|४|४] कुलत्थ-कोपधादण् - कुलत्थ तथा ककारोपद्य शब्द से संस्कृत अर्थ में अण् प्रत्यय होता है। | कुलत्थैः संस्कृतं = कौलत्थम्। ककारोपधात् - तित्तिडीकेन संस्कृतं तैत्तिडीकम्, दार्दभकम्।
[४|४|५] तरति - तरति अर्थ में तृतीयान्त प्रातिपादिक से ठक् प्रत्यय होता है। | उडुपेन तरति ( उडुप से तैरता या पार जाता है)- इस अर्थ में तृतीयान्त उडुपेन से ठक् (ठ) प्रत्यय हो उडुपेन ठ रूप बनता है। यहाँ सुप्-लोप हो उडुप ठ रूप बनने पर पूर्व्वत् इकादेश, अजादि-वृद्धि और अन्त्य-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन-पिँल्लिङ्ग में औडुपिकः रूप सिद्ध होता है।
[४|४|६] गोपुच्छाट्ठञ् - गोपुच्छ शब्द से `तरितऄ अर्थ में ठन् प्रत्यय होता है। | गोपुच्छेन तरति = गौपुच्छिकः।
[४|४|७] नौद्वयचष्ठ्न - नौ तथा द्वयच् प्रातिपादिक से `तरतॎ अर्थ में ठन् प्रत्यय होता है। | नावा तरति = नाविकः। द्वयचः - घटेन तरति = घटिकः, बाहुकः।
[४|४|८] चरति - चरति (चलता है और खाता है) अर्थ में तृतीयान्त प्रातिपादिक से ठक् प्रत्यय होता है। | हस्तिना चरति (हाथी द्वारा चलता है) - यहाँ चलता है अर्थ में तृतीयान्त हस्तिना से ठक् प्रत्यय हो हस्तिना ठ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो हस्तिन् उ रूप बनने पर इकादेश, टि-लोप और अजादि-वृद्धि आदि होकर प्रथमा के एकवचन-पुँल्लिङ्ग में हास्तिकः रूप सिद्ध होता है।
[४|४|९] आकर्षात्ष्ठल् - आकर्षक शब्द से `चरतॎ अर्थ में ष्ठल् प्रत्यय होता है। | आकर्षेण चरति = आकर्षिकः आकर्षिकी।
[४|४|१०] पर्पादिभ्यः ष्ठन् पर्प आदि शब्दों से `चरतॎ अर्थ में ष्ठन् प्रत्यय होता है। | पर्पेण चरति = पर्पिकः, पर्पिकी। अश्विकः, अश्विकी।
[४|४|११] श्वगणाट्ठञ्च - श्वगण शब्द से `चरतॎ अर्थ में ठञ् तथा ष्ठन् प्रत्यय होते हैं। | श्वगणेन चरति = श्वागणिकः, श्वागणिकी। ष्ठन् - श्वगणिकः, श्वगणिकी।
[४|४|१२] वेतनादिभ्यो जीवति तृतीयासमर्थ वेतन आदि शब्दों से `जीवतॎ (जीता है) अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | वेतन + ठक् == वैतनिकः, जाल + ठक् == जालिकः, वेश + ठक् == वैशिकः, वाहन + ठक् == वाहनिकः।
[४|४|१३] वस्नक्रयविक्रयाट्ठन् - तृतीयासमर्थ वस्न, क्रय, विक्रय तथा क्रयविक्रय शब्दों से जीवित अर्थ में ठन् प्रत्यय होता है। | (केवल "जीवति" (जीता है) अर्थ में) वस्न + ठन् == वस्निकः, क्रय + ठन् == क्रयिकः, विक्रय + ठन् == विक्रयिकः, क्रयविक्रय + ठन् == क्रयविक्रयिकः ।
[४|४|१४] आयुधाच्छ च - तृतीयासमर्थ आयुध शब्द से `जीवतॎ अर्थ में छ तथा ठन् प्रत्यय होते हैं। | (केवल "जीवति" (जीता है) अर्थ में) आयुध + छ == आयुधीयः ; आयुध + ठन् == आयुधिकः ।
[४|४|१५] हरत्युत्सङ्गादिभ्यः तृतीयासमर्थ उत्सङ्ग आदि शब्दों से `हरतॎ (हरण करता है या ले जाता है) अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | ("हरति" (स्थानान्तरित करता है) अर्थ में) उत्सङ्ग + ठक् == औत्सङ्गिक, उडुप + ठक् == औडुपिकः , इसी प्रकार उत्पुत उत्पन्न, उत्पुट, पिटक, पिटाक ।
[४|४|१६] भस्त्रादिभ्यः ष्ठन् भस्त्रा आदि शब्दों से `हरतॎ अर्थ में ष्ठन् प्रत्यय होता है। | ("हरति" (स्थानान्तरित करता है) अर्थ में) भस्त्रा + ष्ठन् == भस्त्रिकः, भरट + ष्ठन् == भरटिकः। षित् होने के कारण स्त्रीलिङ्ग में (४_१_४१) सूत्र से "ङीष्" होगा। भस्त्रिकः + ङीष् == भस्त्रिकी, भरटिकः + ष्ठन् == भरटिकः। इसी प्रकार मरण, शीर्षभार आदि।
[४|४|१७] विभाषा विवधात् - विवध तथा वीवध शब्दों से विकल्प से `हरतॎ अर्थ में ष्ठन् प्रत्यय होता है। | विवधिकः, विवधिकी। वैवधिकः, वैवधिकी।
[४|४|१८] अण्कुटिलिकायाः - तृतीयासमर्थ कुटिलिका शब्द से `हरतॎ अर्थ में अण् प्रत्यय होता है। | कुटिलिकया गत्या व्याधं हरति कौटिलिको मृगः, कुटिलिकया हरति अङ्गारान् कौटिलिकः कार्मारः।
[४|४|१९] निर्वृतेऽक्षद्यूतादिभ्यः - तृतीयासमर्थ अक्षद्यूत आदि शब्दों से निर्वत्त (सम्पन्न) अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | ("निर्वृत्त" (उत्पन्न किया गया) इस अर्थ में) जानुप्रहृत + ठक् == जानुप्रहृतिकम्, जङ्घाप्रहृत + ठक् == जङ्घाप्रहृतिकम्।
[४|४|२०] क्त्रेर्मम्नित्यम् - निर्वृत्त (सिद्ध) अर्थ में क्त्रि प्रत्यान्त सेमप् प्रत्यय नित्य ही होता है। नित्य ही कहने से स्वतन्त्र क्त्रि प्रत्यान्त शब्दों के प्रयोग का अभाव दिखाया गया है। मप् का रकार इत्संज्ञक है, अतः उसका लोप हो जाने से केवल म ही शेष रह जाता है। | पक्त्रि क्त्रि-प्रत्यान्त है, अतः उससे निर्वृत्त अर्थ में मप् होकर पक्त्रिम् रूप बनेगा। तब प्रातिपादिक संज्ञा होकर प्रथमा के पुल्लिंग-एकवचन में पक्त्रिमम् रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार डु इत् वाली वप् (डुवप् -बोना) धातु से उप्त्रिमम् रूप बनता है। अन्य उदाहरण - पच् + क्त्रि == पक्त्रि == पत्क्त्रि + मप् == पक्त्रिमम्, उप् + क्त्रि == उप्त्रि == उप्त्रि + मम् == उप्त्रिमम्।
[४|४|२१] अपमित्य-याचिताभ्यां-कक्कनौ - अपमिति तथा अयाचित शब्दों से यथाक्रम निर्वृत्त अर्थ में कक् तथा कन् प्रत्यय होते हैं। | आपमित्यकम् याचितकम्।
[४|४|२२] संसृष्टे - संसृष्ट (मिला हुआ) अर्थ में तृतीयान्त प्रातिपादिक से ठक् (ठ) प्रत्यय होता है। | दध्ना संसृष्टम् (दधि-दही से मिला हुआ)अर्थ में - इस अर्थ में तृतीयान्त दध्ना से ठक् प्रत्यय हो दध्ना ठ रूप बनता है। इस स्थिति में सुप्-लोप, अजादि-वृद्धि और अन्त्य-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन-नपुंसकलिङ्ग में दधिकम् रूप सिद्ध होता है।
[४|४|२३] चूर्णादिनिः - चूर्ण शब्द से संसृष्ट अर्थ में इनि प्रत्यय होता है। | ("संसृष्टम्" (मिला हुआ) अर्थ में) चूर्ण् + इनि == चूर्णिनो।
[४|४|२४] लवणाल्लुक् - लवणशब्द से उत्पन्न संसृष्टार्थक ठक् का लोप। | लवणेन संसृष्टः = लवणः सूपः , लवणं शाकम्, लवणा यवागूः।
[४|४|२५] मुद्गादण् - मुद्र शब्द से संसृष्ट अर्थ में अण् प्रत्यय होता है। | मुद्गेन संसृष्टः = मौद्ग ओदनः, मौद्गी यवागूः।
[४|४|२६] व्यञ्जनैरुपसिक्ते - तृतीयासमर्थ में व्यञ्जनवाचक प्रातिपादिक से ` उपसिक्तऄ अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | ("वर्तते" (व्यवहार करता है अर्थ में) दध्ना + ठक् == दाधिकः, सूपेन + ठक् == सौपिकः, तक्रेण + ठक् == ताक्रिकः।
[४|४|२७] ओजःसहोम्भसा वर्तते - तृतीयासमर्थ ओजस्, सहस् तथा अम्भस् शब्दों से वर्त्तन अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | ओजसा वर्त्तते = औजसिकः शूरः, साहसिकश्चौरः, अम्भसा वर्त्तते = आम्भसिको मत्स्यः।
[४|४|२८] तत्प्रत्यनुपूर्वमीपलोमकूलम् - प्रतिपूर्वक तथा अनुपूर्वक ईप, लोम तथा कुल शब्दों से वर्त्तन अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | ("वर्तते" अर्थ में) अन्वीपं + ठक् == आन्वीपिकः, प्रतिलोम + ठक् == प्रातिलोमिक, अनुलोम + ठक् == आनुलोमिकः, प्रतिकूलं + ठक् == प्रातिकूलिकः, अनुकूलं + ठक् == आनुकूलिकः।
[४|४|२९] परिमुखं च - द्वितीयासमर्थ परिमुख शब्द से वर्त्तन अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | ("वर्तते" अर्थ में) परिमुखं + ठक् == पारिमुखिकः ।
[४|४|३०] प्रयच्छति गर्ह्यम् - निन्द्यार्थ प्रतिपादक द्वितीयासमर्थ शब्दों से `प्रयच्छतॎ (देता है) अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | ("प्रयच्छति" (देता है) अर्थ में) द्विगुणं + ठक् == द्वैगुणिकः, त्रैगुणं + ठक् == त्रैगुणिकः।
[४|४|३१] कुसीद दशैकादशात्-ष्ठन्ष्ठचौ - निद्यार्थक कुसीद तथा दशैकध शब्दों से `प्रायच्छतॎ अर्थ में क्रमशः ष्ठन् तथा ष्ठच् प्रत्यय होते हैं। | कुसीदं प्रयच्छति कुसीदिकः, कुसीदिकी। अत्रापि तादर्थ्ये ताच्छब्दयं द्रष्टव्यम्। कुसीदार्थं धनं कुसीदम्। दशैकादशिकः, दशैकादशिकी।
[४|४|३२] उञ्छति - द्वितियासमर्थ शब्दों से उञ्छति (जमीन पर गिरे दोनो को चुनता है। | गोधूमानुञ्छति गौधूमिकः, कणानुञ्छति काणिकः, बादरिकः।
[४|४|३३] रक्षति - द्वितीयासमर्थ शब्दों से रक्षति (रक्षा करता है) अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | समाजं रक्षति = सामाजिकः। गोमण्डलं रक्षति = गौमाण्डलिकः, कौटुम्बिकः।
[४|४|३४] शब्ददर्दुरंकरोति - शब्दं करोति (शब्द करता है या बनता है) और दर्दुरं करोति (दर्दुर करता है या बनता है)- इन दो अर्थों में द्वितीयान्त प्रातिपादिक से ठक् प्रत्यय होता है। | शब्दं करोति = शाब्दिको वैयाकरणः। दार्दुरिकः कुम्भकारः।
[४|४|३५] पक्षिमत्स्यमृगान्हन्ति - द्वितीयासमर्थ परिपन्थ शब्द से `तिष्ठतॎ (ठहरता है) तथा `हन्तॎ अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | पक्षिणो हन्ति = पक्षिकः, शाकुनिकः, मायूरिकः, तैत्तिरिकः। मत्स्य - मात्स्यिकः, मैनिकः। मृग - मृगान् हन्ति = मार्गिकः, हारिणिकः।
[४|४|३६] परिपन्थंचतिष्ठति - द्वितीयासमर्थ परिपन्थ शब्द से `तिष्ठतॎ (ठहरता है) तथा `हन्तॎ अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | परिपन्थं तिष्ठति = पारिपन्थिकश्चौरः। परिपन्थं हन्ति = पारिपन्थिकः।
[४|४|३७] माथोत्तरपदपदव्यनुपदंधावति - माथशब्दोत्तरपदक प्रातिपादिकों से , पदवी तथा अनुपद शब्दों से `धावतॎ (दौड़ता है) अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | विद्यामाथं धावति = वैद्यामाथिकः, धार्ममाथिकः, दाण्डमाथिकः। पदवीं धावति = पादविकः, आनुपदिकः।
[४|४|३८] आक्रन्दाट्ठञ्च - द्वितीयासमर्थ आक्रन्द शब्द से `धावतॎ अर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है। | आक्रन्दं धावति आक्रन्दिकः, आक्रन्दिकी।
[४|४|३९] पदोत्तरपदं गृह्राति पदशब्दोत्तरपदक द्वितीयासमर्थ प्रातिपादिक से `गृह्णातॎ (ग्रहण करता है) अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | पूर्वपदं गृह्णाति = पौर्वपदिकः, औत्तरपदिकः।
[४|४|४०] प्रतिकण्ठार्थ-ललामं च - द्वितीयासमर्थ पतिपथ शब्द से ` एतॎ (आती है) अर्थ में ठन् तथा ठक् प्रत्यय होते हैं। | प्रतिकण्ठं गृह्णाति = प्रातिकण्ठिकः। आर्थिकः। लालामिकः।
[४|४|४१] धर्मं चरति - धर्म् चरति (धर्म का सदा आचरण करता है) - इस अर्थ में द्वितीयान्त प्रातिपादिक (धर्म) से ठक् प्रत्यय होता है। | धर्म चरति - इस अर्थ में द्वितीयान्त धर्मम् से ठक् (ठ) प्रत्यय हो धर्मम् ठ रूप बनता है तब सुप्-लोप, इक-आदेश और अजादि-वृद्धि आदि होकर प्रथमा के एकवचन-पुँल्लिङ्ग में धार्मिकः रूप सिद्ध होता है।
[४|४|४२] प्रतिपथमेतिठंश्च - द्वितीयासमर्थ प्रतिपथ शब्द से ` एतॎ (आता है) अर्थ में ठन् तथा ठक् प्रत्यय होते हैं। | ("एति" (जाता है) अर्थ में) प्रतिपथ + ठन् == प्रतिपथिकः, प्रतिपथ + ठक् == प्रातिपथिकः ।
[४|४|४३] समवायान्समवैति - द्वितीयासमर्थ समयवाचक शब्दों से समवैति (एकत्र होता है) अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | समवायान् समवैति = सामवायिकः, सामाजिकः, सामूहिकः, सान्निवेशिकः।
[४|४|४४] परिषदो ण्यः - द्वितीयासमर्थ परिषत् शब्द से `समवैतॎ अर्थ में ण्य प्रत्यय होता है। | परिषदं समवैति = पारिषद्यः।
[४|४|४५] सेनायावा - द्वितीयासमर्थ सेना शब्द से `समवैतॎ अर्थ में विकल्प से ण्य प्रत्यय होता है। | सेना + ण्य == सैन्यः, सेना + ठक् == सैनिकः ।
[४|४|४६] संज्ञायां ललाट-कुक्कुटयौ पश्यति - संज्ञाविषय में द्वितीयासमर्थ ललाट तथा कुक्कुटी शब्दों से ठक् प्रत्यय होता है। | (पश्यति = देखता अर्थ में) ललाट + ठक् == लालाटिक, कुक्कुट + ठक् == कुक्कुटिको।
[४|४|४७] तस्यधर्म्यम् - षष्ठीसमर्थ शब्द से `धर्म्यऄ (न्याय्य) अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | हाटकस्य धर्म्यम् = हाटकिकम्, शौल्कशालिकम्, आपणिकम्, आकरिकम्।
[४|४|४८] अण्महिष्यादिभ्यः - षष्ठीसमर्थ महिषी आदि शब्दों से धर्म्य अर्थ में अण् प्रत्यय होता है। | (धर्म्यम् = आचरण के योग्य व्यवहार अर्थ में) महिषी + अण् == माहिषिकम्, प्रजापति + अण् == प्राजापतम्, प्रजावती + अण् == प्राजावतम्।
[४|४|४९] ऋतोऽञ् - षष्ठीसमर्थ ऋकारान्त प्रातिपादिक से धर्म्य अर्थ में अञ् प्रत्यय होता है। | होतृ + अञ् == हौत्रम्, पोतृ + अञ् == पौत्रम्, उद्गातृ + अञ् == औद्गात्रम्, यातृ + अञ् == यात्रम्।
[४|४|५०] अवक्रयः - षष्ठीसमर्थ प्रातिपादिक से अवक्रय अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | शुल्कशालाया अवक्रयः = शैल्कशालिकः, आकरिकः, आपणिकः।
[४|४|५१] तदस्य पण्यम् - पण्यप्रतिपादक प्रथमासमर्थ शब्द से षष्ठयर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है। | अपूपाः पण्यमस्य = आपूपिकः, शाष्कुलिकः, मौदकिकः।
[४|४|५२] लवणाट्ठञ् - पाण्य-स्थानीय लवण शब्द से षष्ठयर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है। | लवणं पण्यमस्य = लावणिकः।
[४|४|५३] किसरादिभ्यःष्ठन् - पाण्य-स्थानीय किशर आदि शब्दों से षष्ठयर्थ में ष्ठन् प्रत्यय होता है। | किशराः पण्यमस्य = किशरिकः, किशरिकी, नरदिकः, नरदिकी
[४|४|५४] शलालुनोऽन्यतरस्याम् - पाण्य-स्थानीय शलालु शब्द से षष्ठयर्थ में विकल्प से ष्ठन् प्रत्यय होता है। | शलालु + ष्ठन् == शलालुकः, शलालु + ठक् == शालालुकः
[४|४|५५] शिल्पम् - यदि प्रथमान्त प्रातिपादिक शिल्प हो तो उससे अस्य (इसका) अर्थ में ठक् (ठ) प्रत्यय होता है। | मृदङ्ग शिल्प्मस्य (मृदङ्ग -वादन शिल्प है इसका)- इस अर्थ में शिल्प-वाचक प्रथमान्त मृदङ्गम् से ठक् प्रत्यय हो मृदङ्गम् उ रूप बनता है। इस स्थिति में सुप्-लोप मृदङ्ग ठ रूप बनने पर इक- आदेश , अजादि-वृद्धि और अन्त्य-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन-पुँल्लिङ्ग में मार्द्ङ्गिकः रूप सिद्ध होता है।
[४|४|५६] मड्डुक-झर्झरादणन्यतरस्याम् - शिल्पस्थानीय पदार्थवाचक मण्डुक तथा झर्झर शब्दों से विकल्प से षष्ठयर्थ में अण् प्रत्यय होता है। | माड्डुक + अण् == माड्डुकः ; माड्डुक + ठक् == माड्डुकिकः, झर्झर + अण् == झार्झरः ; झर्झर + ठक् == झार्झरिकः।
[४|४|५७] प्रहरणम् - अस्य (इसका) अर्थ में प्रहरण (आयुध)- वाचक प्रथमान्त प्रातिपादिक से ठक् (ठ) प्रत्यय होता है। | असि + ठक् == आसिकः, दण्ड + ठक् == दाण्डिकः ; चक्र + ठक् == चाक्रिकः, धनुष् + ठक् == धानुष्कः
[४|४|५८] परश्वधाट्ठञ्च - प्रहरणस्थानीय पदार्थवाचक परश्वध शब्द से ठञ् तथा ठक् प्रत्यय होता है। | परश्वधः + ठक् == पारश्वधिकः।
[४|४|५९] शक्तियष्ट्योरीकक् - प्रहरणस्थानीय पदार्थवाचक शक्ति तथा यष्टि शब्दों से षष्ठयर्थ में ईकक् प्रत्यय होता है। | शक्ति + ईकक् == शाक्तीकः, यष्टि + ईकक् == याष्तीकः
[४|४|६०] अस्तिनास्तिदिष्टंमतिः - प्रथमासमर्थ मतिप्रतिपादक अस्ति, नास्ति तथा दिष्ट शब्दों से षष्ठयर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | अस्ति मतिरस्य = आस्तिकः। नास्ति मतिरस्य = नास्तिकः। दैष्टिकः।
[४|४|६१] शीलम् - अस्य अर्थ में स्वभाव (शील)-वाचक प्रथमान्त प्रातिपादिक से ठक् (ठ) प्रत्यय होता है। | अपूपं शील्मस्य ( अपूप-माल-पूए खाना स्वभाव है इसका) - इस अर्थ में स्वभाव-वाचक प्रथमान्त अपूपम् से ठक् प्रत्यय हो अपूपम् ठ रूप बनता है। यहाँ पूर्ववत् सुप्-लोप, इक- आदेश, अजादि-वृद्धि और अन्त्य -लोप होकर प्रथमा के एकवचन में आपूपिकः रूप सिद्ध होता है।
[४|४|६२] छत्रादिभ्योणः शीलप्रतिपादक छत्र आदि शब्दों से षष्ठयर्थ में ण् प्रत्यय होता है। | छत्रं शीलमस्य = छात्रः, बौभुक्षः। गुरुणा शिष्यश्छत्रवत् छाद्यः, शिष्येण च गुरुश्छत्रवत् परिपाल्यः (महाभाश्य)
[४|४|६३] कर्माध्ययनेवृत्तम् - प्रथमासमर्थ शब्दों से ` अस्य अध्ययने कर्म वृत्तम् ` ( अध्ययन के विषय में इसका कार्य सम्पन्न हुआ) अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | एकमन्यदध्ययने कर्म वृत्तमस्य = ऐकान्यिकः, द्वैन्यिकः, त्रैयन्यिकः।
[४|४|६४] बह्वच्पूर्वपदाट्ठञ् - ` अनेकाच्-पूर्वपदक प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से ` अस्य अध्ययने कर्म वृत्तम् ` अर्थ में ठच् प्रत्यय होता है। | द्वादशान्यानि + ठञ् == द्वादशान्यिकः, त्रयोदशान्यानि + ठञ् == त्रयोदशान्यिकः
[४|४|६५] हितंभक्षाः - हितभक्षिणीय पदार्थ प्रतिपादक प्रथमासमर्थ शब्दों से षष्ठयर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | अपूपभक्षणं हितमस्मै = आपूपिकः, शाष्कुलिकः, मौदकिकः।
[४|४|६६] तदस्मै दीयते नियुक्तम् - नियतदीयमान पदार्थ प्रतिपादिक शब्दों से चतुर्थ्यर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | अपूपा + ठक् == अपूपिकः
[४|४|६७] श्राणा-मांसौदनाट्टिठन् - नियतदीयमान पदार्थ प्रतिपादिक श्राणा तथा मांसौदन शब्दों से चतुर्थ्यर्थ में ठिठन् प्रत्यय होता है। | श्राणा नियुक्तमस्मै दीयते श्राणिकः, श्राणिकी। मांसौदनिकः, मांसौदनिकी।
[४|४|६८] भक्तादणन्यतरस्याम् - नियतदीयमानार्थक भक्त शब्द से चतुर्थ्यर्थ में विकल्प से अण् प्रत्यय होता है। | भक्तं नियुक्तमस्मै दीयते = भाक्तः, भाक्तिकः।
[४|४|६९] तत्रनियुक्तः - सप्तमीसमर्थ शब्दों से नियुक्त अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | शुल्कशालायां नियुक्तः = शैल्कशालिकः, आकरिकः, आपणिकः, दैवारिकः।
[४|४|७०] अगारान्ताट्ठन् - सप्तमीसमर्थ अगारशब्दान्त प्रातिपादिक से नियुक्त अर्थ में ठन् प्रत्यय होता है। | (नियुक्त अर्थ में) देवागार + ठन् देवागारिकः, कोष्ठागार + ठन् == कोष्ठागारिकः, भाण्डागार + ठन् == भाण्डागारिकः।
[४|४|७१] अध्यायिन्यदेशकालात् - अध्ययनप्रतिषिद्ध सप्तमीसमर्थ देश तथा काल के अभिधायक शब्दों से अध्यायी (पढ़नेवाला) के अभिधेय होने पर ठक् प्रत्यय होता है। | शमशानेऽधीते = शमाशानिकः, चातुष्पथिकः अकालात् = चतुर्दश्यामधीते = चातुर्दशिकः, आमावास्यिकः, पौर्णमासिकः।
[४|४|७२] कठिनान्त-प्रस्तार-संस्थानेषु-व्यवहरति - सप्तमीसमर्थ कठिनशब्दान्त, प्रस्तार तथा संस्थान शब्दों से `व्यवहरतॎ (व्यवहार करता है) अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | वंशकठिने व्यवहरति = वांशकठिनिकः, वार्ध्रकठिनिकः। प्रास्तारिकः। सांस्थानिकः।
[४|४|७३] निकटेवसति - निकटे वसति (निकट में रहता है) अर्थ में सप्तम्यन्त प्रातिपादिक से ठक् (ठ) प्रत्यय होता है। | निकटे वसति (निकट् में रहता है) - इस अर्थ में सप्तम्यन्त निकटे से ठक् प्रत्यय हो `निकटे ठऄ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो `निकट ठऄ रूप बनने पर पूर्ववत इक्- आदेश, अजादि वृद्धि आदि होकर प्रथमा के एकवचन-पिँल्लिङ्ग में `नैकटिकः ` रूप सिद्ध होता है।
[४|४|७४] आवसथात्ष्ठल् - सप्तमीसमर्थ आवसथ शब्द से वसति अर्थ में ष्ठल् प्रत्यय होता है। | आवसथे वसति = आवसथिकः, आवसथिकी।
[४|४|७५] प्राग्घिताद्यत् - तस्मै हितम् (५_१_५) सूत्र से पहले यत् प्रत्यय होता है। | रथ्यः, युग्यः, प्रासङ्गयः।
[४|४|७६] तद्वहति रथ-युग-प्रासङ्गम् - `वहतॎ (वहन करता है) अर्थ में द्वितीयान्त प्रातिपादिक रथ, युग और प्रासङ्ग से तय् (य) प्रत्यय होता है। | `रथं वहतॎ (रथ को वहन करता है) - इस अर्थ में द्वितीयान्त रथम् से `यत् ` प्रत्यय हो `रथम् यऄ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो `रथ यऄ रूप बनने पर अन्त्य-लोप और विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन-पुँल्लिङ्ग में `रथ्यः` रूप सिद्ध होता है।
[४|४|७७] धुरो यड्-ढकौ - वहति (वहन करता है) अर्थ में द्वितीयान्त `धुरऄ से यत् (य) और ढक् (ढ) प्रत्यय होते हैं। | धुरं वहति (धुर को वहन करता है) - इस अर्थ में द्वितीयान्त धुरम् से ढक् प्रत्यय हो `धुरम् ढऄ रूप बनता है। यहाँ सुप्-लोप हो `धुर् ढऄ रूप बनने पर आयनेयीनीयियः (७_१_२) प्रत्यय से ढकार के स्थान पर ` एयऄ हो धुर + एय + अ ==> धुर् एय रूप बनेगा। तब अजादि-वृद्धि और विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन-पुँल्लिङ्ग में `धौरेयः` रूप सिद्ध होता है।
[४|४|७८] खःसर्वधुरात् - द्वितीयासमर्थ सर्वधुरा शब्द से वहति अर्थ में ख प्रत्यय होता है। | सर्वधुरम् + ख == सर्वधुरीणः
[४|४|७९] एकधुराल्लुक्च - द्वितीयासमर्थ एकधुरा शब्द से वहति अर्थ में ख प्रत्यय और उसका लोप भी होता है। | एकधुरं वहति = एकधुरीणः एकधुरः।
[४|४|८०] शकटादण् - द्वितीयासमर्थ शकट शब्द से वहति अर्थ में अण् प्रत्यय होता है। | शकटं वहति = शाकटो गौः।
[४|४|८१] हल-सीराट्ठक् - द्वितीयासमर्थ हल तथा सीर शब्दों से वहति अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | हलम् + ठक् == हालिकः, सीरम् + ठक् == सैरिकः।
[४|४|८२] संज्ञायां जन्याः - द्वितीयासमर्थ जनी शब्द से वहति अर्थ में यत् प्रत्यय होता है यदि समुदाय से संज्ञा की प्रतीति हो। | जनीं (=वधूं) वहति जन्या।
[४|४|८३] विध्यत्यधनुषा - द्वितीयासमर्थ शब्द से `विद्ध्यतॎ (वेधन करता है) अर्थ में यत् प्रत्यय होता है यदि धनुष् बेधन का करण न हो। | पादौ विध्यन्ति = पद्याः शर्कराः, ऊरव्याः कण्टकाः।
[४|४|८४] धनगणंलब्धा - द्वितीयासमर्थ धन तथा गण शब्दों से लाभ कर्त्ता अर्थ में यत् प्रत्यय होता है। | धनम् + यत् == धन्यः, गणम् + यत् == गण्यः।
[४|४|८५] अन्नाण्णः - द्वितीयासमर्थ अन्न शब्द से लाभकर्त्ता अर्थ में ण प्रत्यय होता है। | (लब्धा = प्राप्त करने वाला अर्थ में) अन्नं + ण == आन्नः।
[४|४|८६] वशंगतः - द्वितीयासमर्थ वश शब्द से गत (प्राप्त) अर्थ में यत् प्रत्यय होता है। | (गतः = प्राप्त हुआ अर्थ में) वशम् + यत् == वश्यः।
[४|४|८७] पदमस्मिन् दृश्यम् - दृश्यार्थोपाधिक प्रथमासमर्थ पद शब्द सम सप्तम्यर्थ में यत् प्रत्यय होता है। | पदम्स्मिन् दृश्यम् = पद्यः कर्दमः, पद्याः सिकताः
[४|४|८८] मूलमस्याबर्हि ` आबहि ` है उपाधि जिसकी ऐसे मूल के वाचक शब्द (उत्पाटनयोग्य मूलवाचक शब्द) से षष्ठयर्थ में यत् प्रत्यय होता है। | मूलमेषामाबर्हि= मूल्या माषाः मूल्या मुद्गाः।
[४|४|८९] संज्ञायांधेनुष्या - संज्ञाविषय में `धेनुष्या` यह निपातन है। | धेनु + यत् == धेनुय = धेनुष्या (षुँगागम)
[४|४|९०] गृहपतिनासंयुक्तेञ्यः - तृतीयासमर्थ गृहपति शब्द से संयुक्त अर्थ में ञ्य् प्रत्यय होता है। | गृहपतिना संयुक्तः= गार्हपत्योऽग्निः।
[४|४|९१] नौवयो-धर्म-विष-मूल-मूल-सीता-तुलाभ्यस्तार्य-तुल्य-प्राप्य-वध्या-नाम्य-सम-समित-संमितेषु - तार्य अर्थ में तृतीयान्त नौ (नौका) से तुल्य अर्थ में तृतीयान्त वयस् ( आयु) से, प्राप्य अर्थ में तृतीयान्त धर्म से, वध्य (वध करने योग्य) अर्थ में तृतीयान्त विष से, आनाभ्य अर्थ में तृतीयान्त मूल से, सम (बराबर) अर्थ में तृतीयान्त मूल से, समित, (समतल किया गया) अर्थ में तृतीयान्त सीता (हल) से और संमित (समान) अर्थ में तृतीयान्त तुला (तराजू) से यत् (य) प्रत्यय होता है | नावा तार्यम् (नाव से तरने योग्य) - इस अर्थ में तृतीयान्त नावा से यत् प्रत्यय हो नावा यत् रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो `नौ यऄ रूप बनने पर वान्तो यि प्रत्यये (६_१_७९) से औकार के स्थान पर ` आव् ` आदेश होकर न् + आव् + य ==> नाव्य रूप बनेगा। यहाँ विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन नपुंसकलिङ्ग में `नाव्यं रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - वयस् + यत् == वयस्यः, धर्म + यत् == धर्म्यम्, विष + यत् == विष्यः, मूल + यत् == मूल्यम्, सीता + यत् == सित्यं, तुला + यत् == तुल्यम्।
[४|४|९२] धर्मपथ्यर्थन्यायादनपेते - पञ्चमीसमर्थ धर्म, पथिन्, अर्थ तथा न्याय शब्दों से अनपेत अर्थ में यत् प्रत्यय होता है। | ("अनपेत" अर्थ में "यत्" प्रत्यय) धर्म + यत् == धर्म्यम्, पथिन् + यत् == पथ्यम्, अर्थ + यत् == अर्थ्यम्, न्याय + यत् == न्याय्यम्।
[४|४|९३] छन्दसो निर्मिते - तृतीयासमर्थ छन्दस् शब्द से निर्मित्त अर्थ में यत् प्रत्यय होता है। | छन्दस् + यत् == छान्दस्यः
[४|४|९४] उरसोऽण् च - तृतीयासमर्थ उरस् शब्द से निर्मित्त अर्थ में अण् तथा यत् प्रत्यय होता है। | उरस् + अण् == औरसः, उरस् + यत् == उरस्यः।
[४|४|९५] हृदयस्य प्रियः - षष्ठसमर्थ हृदय शब्द से प्रिय अर्थ में यत् प्रत्यय होता है। | हृदयस्य प्रयो = हृद्यो देशः, हृद्या कन्या।
[४|४|९६] बन्धनेचषौ - षष्ठसमर्थ हृदय शब्द से वशीकारक वेद अर्थ में यत् प्रत्यय होता है। | हृदस्य बन्धनम् ऋषिः = हृद्यः।
[४|४|९७] मतजनहलात् करणजल्पकर्षेषु - षष्ठसमर्थ मत, जन तथा हल शब्दों से क्रमशः, करण, जल्प तथा कर्ष (जोतना) अर्थों में यत् प्रत्यय होता है। | मतं ज्ञानं तस्य करणं = मत्यम्। जनस्य जल्पो = जन्यः। हलस्य कर्षो हल्यः।
[४|४|९८] तत्र साधुः - साधु (प्रावीण या योग्य) अर्थ में सप्तम्यन्त प्रातिपादिकसे यत् (य) प्रत्यय होता है। | ` अग्रे साधुः` ( आगे रहने में प्रवीण) - इस अर्थ में साधु अर्थ में सप्तम्यन्त अग्रे से यत् प्रत्यय हो ` अग्रे यऄ रूप बनता है। तब सुप्-लोप हो अग्र य रूप बनने पर अन्त्य-लोप और विभक्ति-कार्य होकर प्रथमा के एकवचन-पुँल्लिङ्ग में ` अग्रयः` रूप सिद्ध होता है।
[४|४|९९] प्रतिजनादिभ्यःखञ् - सप्तमीसमर्थ पतिजन आदिशब्दों से साधु अर्थ में खञ् प्रत्यय होता है। | प्रतिजन + खञ् == प्रतिजनीनः, इदंयुग + खञ् == ऐदंयुगीनः, संयुग + खञ् == सायुंयुगीनः। इसी प्रकार समयुग, परयुग, परस्यकुल, अमुष्यकुल, सर्वजन, विश्वजन, महाजन, पञ्चजन।
[४|४|१००] भक्ताण्णः - सप्तमीसमर्थ भक्त शब्द से साधु अर्थ में ण प्रत्यय होता है। | भक्ते साधुः = भाक्तः शालिः।
[४|४|१०१] परिषदोण्यः - सप्तमीसमर्थ परिषत् शब्द से साधु अर्थ में ण्य प्रत्यय होता है। | परिषदि साधुः = पारिषद्यः।
[४|४|१०२] कथादिभ्यष्ठक् सप्तमीसमर्थ कथा आदि शब्दों से साधु अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। | कथा + ठक् == काथिकः, विकथा + ठक् == वैकथिकः, विश्वकथा + ठक् == वैश्वकथिकः। इसी प्रकार संकथा, वितण्द्फ`ा, कुष्टविद्, जनवाद, जनेवाद, जनोवाद, वृत्ति, संग्रह, गुण, गण, आयुर्वेद।
[४|४|१०३] गुडादिभ्यष्ठञ् सप्तमीसमर्थ गुड़ आदि शब्दों से साधु अर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है। | गुड + ठञ् == गौडिकः, कुल्माष + ठञ् == कौलमाषिको। इसी प्रकार सक्तु, अपूप, मांसौदन, इक्षु, वेणु, सङ्घाम, संघात, संक्राम, संवाह, प्रवास, निवास, उपवास ।
[४|४|१०४] पथ्यतिथिवसतिस्वपतेर्ढञ् - सप्तमीसमर्थ पथिन्, अतिथि, वसति तथा स्वपति शब्दों से साधु अर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है। | पथि साधुः= पाथेयम्। अतिथेयम्। वासतेयम्। स्वापतेयम्।
[४|४|१०५] सभायायः - साधु (प्रावीण या योग्य) अर्थ में सप्तम्यन्त `सभा` शब्द से `यऄ प्रत्यय होता है। | `सभायां साधुः` (सभा में साधु या प्रवीण) - इस अर्थ में सप्तम्यन्त सभायाम से `यऄ प्रत्यय हो `सभायाम् यऄ रूप बनता है।तब सुप्-लोप हो `सभा यऄ रूप बनने पर अन्त्य-लोप और विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के पुँल्लिङ्ग में `सभ्यः` रूप सिद्ध होता है।
[४|४|१०६] ढश्छन्दसि - सप्तमीसमर्थ कथा आदि शब्दों से साभा शब्द से वेद में साधु अर्थ में ढ प्रत्यय होता है। | सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतम्।
[४|४|१०७] समानतीर्थेवासी - सप्तमीसमर्थ समानतीर्थ शब्द से वासी अर्थ में यत् प्रत्यय होता है। | समाने तीर्थे वासी = सतीर्थ्यः।
[४|४|१०८] समानोदरेशयितओचोदात्तः - सप्तमीसमर्थ समानोदर शब्द से शयति अर्थ में यत् प्रत्यय तथा प्रकृतिगत ओकार उदात्त हो जाता है। | समानोदरे शयितः = स॒मा॒नोद॑र्यः।
[४|४|१०९] सोदराद्यः - सप्तमीसमर्थ सोद शब्द से शयति अर्थ में य प्रत्यय होता है। | सोदर्य्यो भ्राता।
[४|४|११०] भवेछन्दसि - सप्तमीसमर्थ शब्दों से भावार्थ में भी य प्रत्यय होता है। | मेध्याय च विद्युत्याय च नमः।
[४|४|१११] पाथोनदीभ्यां ड्यण् - सप्तमीसमर्थ पाथस शब्द तथा नदी शब्दों से भव अर्थ में डयण् प्रत्यय होता है। | पाथसि भवः = पाथ्यः, नाद्यः।
[४|४|११२] वेशन्तहिमवद्भयामण् - सप्तमीसमर्थ वेशन्त तथा हिमवत् शब्दों से भव अर्थ में अण् प्रत्यय होता है। | वेशन्ते भवः = वैशन्तः। वैशन्तीभ्यः।
[४|४|११३] स्त्रोतसो विभाषा ड्यड्ड्यौ - सप्तमीसमर्थ श्रोतस् शब्द से भव अर्थ में विकल्प से डयत् तथा ड्य प्रत्यय होते है। | स्त्रोतस् + ड्यत् == स्त्रोत्यः, स्त्रोतस् + ड्य == स्त्रोतस्यः, स्त्रोतस् + यत् == स्त्रोतस्यः
[४|४|११४] सगर्भ-सयूथ-सनुताद्यन् - सप्तमीसमर्थ सगर्भ, सयूथ तथा सनुत शब्दों से भव अर्थ में यन् प्रत्यय होता है। | अनुभ्राता सगर्भ्यः। अनुसखा सयूथ्यः । यो नः सनुत्यः।
[४|४|११५] तुग्राद् घन् - सप्तमीसमर्थ तुग्र शब्द से भव अर्थ में घन् प्रत्यय होता है। | त्वमग्ने वृषभस्तुग्रियाणाम्।
[४|४|११६] अग्राद्यत् - सप्तमीसमर्थ अग्र शब्द से भव अर्थ में यत् प्रत्यय होता हैं। | अग्र + यत् == अग्रयः।
[४|४|११७] घच्छौच - सप्तमीसमर्थ अग्र शब्द से भव अर्थ में घ तथा छ प्रत्यय भी होते हैं। | अग्र + छ == अग्रीयः, अग्र + घ == अग्रियः
[४|४|११८] समुद्राभ्राद् घः - सप्तमीसमर्थ समुद्र तथा अभ्र शब्दों से भव अर्थ में घ प्रत्यय होता है। | समुद्रियाणां नदीनाम्। अभ्रियस्येव घोषः।
[४|४|११९] बर्हिषिदत्तम् - सप्तमीसमर्थ बहिंस् शब्द से दत्त अर्थ में यत् प्रत्यय होता है। | बर्हिषि दत्तम् = बर्हिष्यम्। बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु।
[४|४|१२०] दूतस्यभागकर्मणी - षष्ठीसमर्थ दूत शब्द से भाग तथा कर्म (क्रिया) अर्थों में यत् प्रत्यय होता है। | दूतस्य भागः कर्म वा = दूत्यम्। यत्तेऽग्रे दूत्यम्।
[४|४|१२१] रक्षो-यातूनां हननी - षष्ठीसमर्थ रक्षस् तथा यातु शब्दों से स्त्रीत्वविशिष्ट हनङकरण अर्थ में यत् प्रत्यय होता है। | रक्षसां हननी = रक्षस्या तनूः। यातूनां हननी यातव्या।
[४|४|१२२] रेवतीजगतीहविष्याभ्यःप्रशस्ये - षष्ठीसमर्थ रेवती, जगती तथा हविष्या शब्दों से प्रशस्य अर्थ में यत् प्रत्यय होता है। | यद्वो रेवती = रेवत्यम्। यद्वो जगती = जगत्यम्। यद्वो हविष्या = हविष्यम्।
[४|४|१२३] असुरस्य स्वम् - षष्ठीसमर्थ असुर शब्द से स्व ( आत्मीय) अर्थ में यत् प्रत्यय होता है। | असुर्यं वा एतत्पात्रं यच्चक्रधृतम्। असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसा वृताः।
[४|४|१२४] मायायामण् - षष्ठीसमर्थ असुर शब्द से मायात्मक स्व ( आत्मीय) अर्थ में अण् प्रत्यय होता है। | असुरस्येयम् = आसुरी माया स्वधया कृतासि।
[४|४|१२५] तद्वानासामुपधानो मन्त्र इतीष्टकासु लुक्च मतोः - मतुबन्ध प्रथमासमर्थ प्रातिपादिक से स्त्रीत्वविशिष्ट षष्ठयर्थ में यत् प्रत्यय होता है यदि प्रथमासमर्थ उपधान मन्त्रात्मक हो और षष्ठयर्थ इष्टकात्मक हो तो प्रकृतिभाग के मतुप् का लोप्। | वर्चः शब्दोऽस्मिन्नस्ति स वर्चस्वान् मन्त्रः। वर्चस्वान् मतुबन्ता प्रकृतिः। ततो वर्चस्वान् उपधानो मन्त्र आसामिष्टकानामिति विगृह्म यत् प्रत्ययः, मतोश्च लुक् = वर्चस्या इष्टकाः, सहस्याः, तेजस्याः।
[४|४|१२६] अश्विमानण् - अश्वमित् शब्द से उपर्युक्त परिस्थिति में अण् प्रत्यय होता है। | अश्व + इनि == अश्विन् == अश्विन् + अण् == आश्विन == आश्विन + ङीप् == आश्विनी।
[४|४|१२७] वयस्यासुमूर्ध्नोमतुप् - वयस्या के अभिधेय होने पर मूर्धन् शब्द से मतुप् प्रत्यय होता है। | मूर्धन्वान् + मतुप् / मूर्धन् + मतुप् == मूर्धन्वत्।
[४|४|१२८] मत्वर्थेमासतन्वोः - जिस अर्थ में मतुप् का विधान किया गया है उसी अर्थ में वैदिक-विषय में मास तथा तनु के अभिधेय होने पर यत् प्रत्यय होता है। | मासे नभांसि विद्यन्ते यस्मिन् मासे स नभस्यो मासः, सहस्यः, तपस्यः। तन्वाम् - ओजोऽस्यां विद्यते = ओजस्या तनूः तेजस्या तनूः।
[४|४|१२९] मधोर्ञच - मधु शब्द से मत्वर्थ में ञ तथा यत् प्रत्यय भी होते हैं और उपसंख्यान के कारण प्रत्ययों का लोप होता है। | मधु अस्मिन्नस्ति = माधवो मासः, मधव्यः। तन्वाम् - माधवा, मधव्या।
[४|४|१३०] ओजसोऽहनि यत्खौ - दिन के अभिधेय होने पर ओजस् शब्द से मतुबर्थ में यत् तथा ख प्रत्यय होते हैं। | ओजस्यमहः, ओजसीनमहः।
[४|४|१३१] वेशोयशआदेर्भगाद्यल् - वेशःपूर्वक तथा यशःपूर्वक भगशब्दान्त प्रातिपदिकों से मत्वर्थ में यल् प्रत्यय होते हैं। | वेशोभगो विद्यते यस्य स वेशोभग्यः यशोभग्यः।
[४|४|१३२] खच - वेशःपूर्वक तथा यशःपूर्वक भगशब्दान्त प्रातिपदिकों से ख प्रत्यय भी मत्वर्थ में होता ह्सि। | वेशोभगीनः। यशोभगीनः।
[४|४|१३३] पूर्वैः कृतमिनयौ च - तृतीयासमर्थ पूर्व शब्द से कृत अर्थ में इन् तथा य प्रत्यय होते हैं। | पूर्व + इन == पूर्विणैः ; पूर्व + य == पूर्व्यैः, पूर्व + ख == पूर्वीणैः।
[४|४|१३४] अद्भिः संस्कृतम् - तृतीयासमर्थ सहस्त्र शब्द से तुल्य अर्थ में घ प्रत्यय होता है। | अप्यं हविः।
[४|४|१३५] सहस्त्रेणसंमितौघः - तृतीयासमर्थ सहस्त्र शब्द से तुल्य अर्थ में घ प्रत्यय होता है। | सहस्त्रेण सम्मितः = सहस्त्रियोऽग्निः।
[४|४|१३६] मतौच मत्वर्थ में भी तृतीयासमर्थ सहस्त्र शब्द से घ प्रत्यय होता है। | सहस्त्रमस्य विद्यते = सहस्त्रियः।
[४|४|१३७] सोममर्हतियः - द्वितियासमर्थ सोम शब्द से ` अर्हतॎ (योग्य है) अर्थ में य प्रत्यय होता है। | सोममर्हन्ति= सोम्याः ब्राह्मणाः।
[४|४|१३८] मयेच - सोम शब्द से मयट् के अर्थ में भी य प्रत्यय होता है। | सोमस्य विकारोऽवयवो वा = सोम्यः सोमादागतम् = सोम्यम्। सोमः प्रकृतः = सोम्यः।
[४|४|१३९] मधोः - मधु शब्द से मयट् के अर्थ में यत् प्रत्यय होता है। | मधव्यान् स्तोकाम्
[४|४|१४०] वसोः समूहे च - वसु शब्द से समूह तथा मयडर्थ यत् प्रत्यय होता है। | वसोः समूहो विकारोऽवयवादिर्वा = वसव्यः।
[४|४|१४१] नक्षत्राद् घः - नक्षत्र शब्द से स्वार्थ में घ प्रत्यय होता है। | नक्षत्राण्येव नक्षत्रियाणि, नक्षत्रियेभ्यः स्वाहा।
[४|४|१४२] सर्वदेवात्तातिल् - सर्व तथा देव शब्दों से स्वार्थ में तातिल् प्रत्यय वेद में होता है। | सर्व + तातिल् == सर्वतातिः, देव + तातिल् == देवतातिः।
[४|४|१४३] शिवशमरिष्टस्य करे - षष्ठीसमर्थ, शिव, शम् तथा अरिष्ट शब्दों से करने के अर्थ में तातिल् प्रत्यय होता है। | शिवं करोति = शिवतातिः। शंतातिः। अरिष्टतातिः।
[४|४|१४४] भावे च - भाव अर्थ में भी शिव आदि शब्दों से वेद-विषय में तातिल् प्रत्यय होता है। | शिव + तातिल् == शिवतातिः, शम् + तातिल् == शमतातिः, अरिष्ट + तातिल् == अरिष्टतातिः।