अष्टाध्यायी हिन्दी व्याख्या सहितम्/अष्टमः अध्यायः

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[८|१|१] सर्वस्य द्वे - अव से लेकर `पदस्यऄ सूत्र तक `सर्वस्य द्वे ` (सब के स्थान में द्वित्व) का अधिकार। | पचति पचति ग्रामो ग्रामो रमणीयः।

[८|१|२] तस्य परमाम्रेडितम् द्वित्व होने के कारण उसका पीछे वाला रूप आम्रेडित कहलाता है। | कान् + कान्

[८|१|३] अनुदात्तं च - जिसकी आम्रेडित संज्ञा हो वह अनुदात्त भी हो जाता है। | भु॒ङ्क्ते भु॑ङ्क्ते। प॒शून् प॑शून्।

[८|१|४] नित्यवीप्सयोः - नित्यार्थ तथा वीप्सा में वर्तमान शब्दोब` का द्वित्व हो जाता है। | नित्ये - पचति पचति। जल्पति जल्पति। भुक्त्वा भुक्त्वा व्रजति।` भोजं व्रजति। लुनीहि लुनीहि इत्येवमयं लुनाति। वीप्सायाम् - ग्रामो ग्रामो रमणीयः। जनपदो जनपदो रमणीयः। पुरुषः पुरुषो निधनमुपैति।

[८|१|५] परेर्वर्जने - वर्जन (त्याग) अर्थ में प्रयुक्त परि शब्द का द्वित्व हो जाता है। | परि परि त्रिगर्तेभ्यो वृष्टो देवः। परि परि सौवीरेभ्यः। परि परि परि सर्वसेनेभ्यः।

[८|१|६] प्रसमुपोदःपादपूरणे - प्र, सम्, उप तथा उत् शब्दों का द्वित्व हो जाता है यदि छन्दःपाद की पूत्ति होती हो तो। | प्रप्रा॒यम॒ग्निर्भ॑र॒तस्य॑ शृण्वे॒। संस॒मिद्यु॑वसे। उपो॑प मे॒ परा॑मृश॒। किं नोदु॑दु हर्ष॒से दात॒वा उ॑।

[८|१|७] उपर्यध्यधसःसामीप्ये - समीप्य के विवक्षित होने पर उपरि, अधि तथा अधस् शब्दों का द्वित्व हो जाता है। | उपर्युपरि दुःखम्। उपर्युपरि ग्रामम्। अध्यधि ग्रामम्। अधोऽधो नगरम्।

[८|१|८] वाक्यादेरामन्त्रितस्यासूयाऽसंमति-कोपकुत्सनभर्त्सनेषु - यदि वाक्य का पर्यवसान असूया, संमति, कोप, कुत्सन अथवा भर्त्सन अर्थों में अन्यतम में हो, तो वाक्य के आदि में आए आमन्त्रित का द्वित्व हो जाता है। | असूया - माणवक॑३माणवक अभिरूपक॑३अभिरूपक शोभनः खल्वसि। कोपे - माणवक॑३माणवक अविनीतिक॑३अविनीतिक इदानीं ज्ञास्यसि जाल्म। कुत्सने - शक्तिके॑३शक्तिके यष्टिके॑३यष्टिके रिक्ता ते शक्तिः। भर्त्सने - चौर चौर३वृषल वृष॒ल३घातयिष्यामि त्वा बन्धयिष्यामि त्वा।

[८|१|९] एकं बहुव्रीहिवत् - ` एकम् ` इस शब्दस्वरूप आ द्वित्व हो जाता है तथा वह बहुव्रीहिवत् भी हो जाता है। | एकैकमक्षरं पठति। एकैकयाऽहुत्या जुहोति।

[८|१|१०] आबाधे च - पीड़ा अर्थ में वर्तमान शब्दों का द्वित्व तथा बहुव्रीहिवद्भाव हो जाता है। | गतगतः, नष्टनष्टः, पतितपतितः। गतगता, नष्टनष्टा, पतितपतिता।

[८|१|११] कर्मधारयवदुत्तरेषु - अब से जो द्वित्व कार्य होने वाला है वह कर्मधारय की तरह कार्य प्राप्त करता है। | सुब्लोपः - पटुपटुः, मृदुमृदुः, पण्डितपण्डितः। पुंवद्भावः - पटुपट्वी, मृदुमृद्वी कालककालिका। अन्तोदात्तत्वम् - प॒टु॒प॒टुः, प॒टु॒प॒ट्वी।

[८|१|१२] प्रकारे गुणवचनस्य - सादृश्यात्मक प्रकार अर्थ में वर्तमान गुणवचन शब्दस्वरूप का द्वित्व हो जाता है। | प॒टु॒प॒टुः, मृ॒दु॒मृ॒दुः, प॒ण्डि॒त॒प॒ण्डि॒तः।

[८|१|१३] अकृच्छ्रे प्रियसुखयोरन्यतरस्याम् - दुःखाभाव द्योत्य होने पर प्रिय तथा सुख शब्दों का विकल्प से द्विर्वचन हो जाता है। | प्रियप्रियेण ददाति, सुखसुखेन ददाति। पक्षे - प्रियेण ददाति, सुखेन ददाति।

[८|१|१४] यथास्वे यथायथम् - ` अपने - अपने ` इस अर्थ को अभिव्यक्ति के लिए यथा शब्द के द्वित्व तथा नपुंसकत्व का निपातन। | ज्ञाताः सर्वे पदार्था य॒था॒य॒थम्। सर्वेषां तु य॒था॒य॒थम्।

[८|१|१५] द्वन्द्वं रहस्यमर्यादावचनव्युत्क्रमण यज्ञपात्रप्रयोगाभिव्यक्तिषु - दो व्यक्तियों द्वारा सम्पद्यमान रहस्य, शब्दोपात मर्यादा, पृथक्-पृथक् हो जाने यज्ञप्राय के प्रयोग तथा सहचर्यमूलक अभिव्यक्ति अर्थों में द्विशब्द के द्वित्व, पूर्वपद के अभ् आदेश तथा उत्तरपद के अत्व का निपातन। | रहस्ये - द्वन्द्वं मन्त्रयन्ते। मर्यादावचने - आचतुरं हीमे पशवो द्वन्द्वं मिथुनायन्ते। माता पुत्रेण पौत्रेण प्रपौतेर्ण च मिथुनं गच्छति। व्युत्क्रमणे - द्वन्द्वं व्युत्क्रान्ताः। यज्ञपात्रप्रयोगे - द्वन्द्वं न्यञ्चि यज्ञपात्रणि प्रयुनक्ति धीरः। अभिव्यक्तौ - द्वन्द्वं नारदपर्वतौ, द्वन्द्वं संकर्षणवासुदेवौ।

[८|१|१६] पदस्य - `पदान्तत्यऄ के अधिकार से पूर्व तक पदस्य का अधिकार है, अर्थात सब कार्य पद के स्थान में होंगे। | वक्ष्यति - (८_२_२३) पचन्, यजन्।

[८|१|१७] पदात् - `कुत्सने चु सुप्यगोत्रादॏ से पूर्व तक पदात् का अधिकार है, अर्थात सब कार्य पद से परे होंगे। | वक्ष्यति - (८_१_१९) पचसि दे॒व॒द॒त्त॒।

[८|१|१८] अनुदात्तं सर्वमपादादौ - यहाँ से आगे ` अनुदात्तम् ` `सर्वम् ` तथा ` अपादादौ ` का अधिकार। | वक्ष्यति - (८_१_१९) इति - पचसि दे॒व॒द॒त्त॒

[८|१|१९] आमन्त्रितस्य च - पद से पहले आमन्त्रित-संज्ञक पद यदि पाद के आदि में न हो तो उसका सर्वानुदात्त हो जाता है। | पचसि दे॒व॒द॒त्त॒। पचसि य॒ज्ञ॒दत्त।

[८|१|२०] युष्मदस्मदोः षष्ठीचतुर्थी-द्वितीयास्थयोर्वा अनावौ - पद से परे षष्ठी, चतुर्थी तथा द्वितिया विभक्ति में वर्तमान युष्मद् और अस्मद् शब्दों के स्थान पर वाम् और नौ आदेश। | षष्ठी - ग्रामो वां स्वम्। जनपदो नौ॒ स्वम्। चतुर्थी - ग्रामो वां दीयते। जनपदौ नौ॒ दीयते। द्वितीया - ग्रामो वां पश्यति। ग्रामो नौ॒ पश्यति।

[८|१|२१] बहुवचनस्य वस्-नसौ पद से परे षष्ठी, चतुर्थी और द्वितीया विभक्ति में वर्तमान में बहुवचनान्त युष्मद् और अस्मद् शब्दों के स्थान पर क्रमशः वस् और नस् आदेश। | षष्ठी - ग्रामो वः॒ स्वम्। जनपदो नः॒ स्वम्। चतुर्थी - ग्रामो वो॒ दीयते। जनपदो नो॒ दीयते। द्वितीया - ग्रामो वः॒ पश्यति। जनपदो नः॒ पश्यति।

[८|१|२२] तेमयावेकवचनस्य - पद से परे षष्ठी चतुर्थी और द्वितीया विभक्ति में स्थित एकवचनान्त युष्मद् और अस्मद् शब्दों के स्थान पर क्रमशः ते और मे आदेश । | षष्ठी - ग्रामस्ते स्वम्। ग्रामो मे॒ स्वम्। चतुर्थी - ग्रामस्ते दीयते। ग्रामो मे॒ दीयते। द्वितीयान्त - स्यादेशान्तरविधानात् नोदाह्रियते।

[८|१|२३] त्वामौ द्वितीयायाः - पद से परे द्वितीया के एकवचनान्त युष्मद् तथा अस्मद् शब्दों के स्थान पर क्रमशः त्वा और मा आदेश। | ग्रामस्त्वा॒ पश्यति। ग्रामो मा॒ पश्यति।

[८|१|२४] न चवाहाहैवयुक्ते - च, वा, ह, अह और एव से युक्र युष्मत् तथा अस्मत् शब्दों के स्थान में भी एवम् नौ आदि आदेश नहीं होते। | ग्रामस्तव च स्वम्, ग्रामो मम च स्वम्, ग्रामोऽस्माकं च स्वम्, ग्राम आवयोश्च स्वम्। ग्रामो युष्माकं च स्वम्। ग्रामो युवाभ्याम् च दीयते, ग्राम आवाभ्यां च दीयते। ग्रामो युष्मभ्यं च दीयते, ग्रामोऽस्मथ्यं च दीयते।

[८|१|२५] पश्यार्थेश्चानालोचने - चाक्षुष्ज्ञानभिन्न दर्शनार्थक शब्दों से युक्त युष्मत् तथा अस्मत् के स्थान में भी वाम् एवम् नौ आदि आदेश नहीं होते। | ग्रामस्तव स्वं समीक्ष्यागतः, ग्रामो मम स्वं समीक्ष्यागतः। एवं सर्वत्र द्विवचने बहुवचनेऽपि उदाहार्यम्। ग्रामस्तुभ्यं दीयमानं समीक्ष्यागतः, ग्रामो मह्मं दीयमानं समीक्ष्यागतः। ग्रामस्त्वां समीक्ष्यागतः, ग्रामो मां समीक्ष्यागतः।

[८|१|२६] सपूर्वायाः प्रथमाया-विभाषा - जिसके पहले कुछ शब्द विद्यमान हो वैसे प्रथमान्त पद से परे युष्मत् तथा अस्मत् शब्दों के स्थान में विकल्प से वाम् नौ आदि आदेश नहीं होते। | ग्रामे कम्बलस्ते स्वम्। पक्षे - ग्रामे कम्बलस्तव स्वम्। ग्रामे कम्बलो मे स्वम्। ग्रामे कम्बलो मम स्वम्। एवं सर्वत्र द्विवचनबहुवचनेऽपि पूर्ववदुदाहर्यम्। ग्रामे कम्बलस्ते दीयते, ग्रामे कम्बलस्तुभ्यं दीयते। ग्रामे कम्बलो मे दीयते, ग्रामे कम्बलो मह्मं दीयते। ग्रामे छात्रास्त्वा पश्यन्ति, ग्रामे छात्रास्त्वां पश्यन्ति। ग्रामे छात्राः मा पश्यन्ति, ग्रामे छात्राः मां पश्यन्ति।

[८|१|२७] तिङो गोत्रादीनि कुत्सनाभीक्ष्ण्ययोः तिङन्त पद से पहले गोत्र आदि शब्द यदि निन्दा अथवा अभीक्ष्ण्य अर्थ में वर्तमान हो तो अनुदात्त हो जाते हैं। | कुत्सने - पचति गो॒त्र॒म्, जल्पति गोत्रम्। पचति ब्रुवम्, जल्पति ब्रुवम्। आभीक्ष्ण्ये - पचति - पचति गो॒त्रम्, जल्पति जल्पति गो॒त्र॒म्।

[८|१|२८] तिङ् ङतिङः - अतिङ्न्त पद से पहले तिङन्त पद अनुदात्त हो जाता है। | देवदत्तः प॒च॒ति। यज्ञदत्तः प॒च॒ति।

[८|१|२९] न लुट् - अतिङन्त पद से परे होने पर भी लुट् लकारस्थ तिङन्त पद का अनुदात्त नहीं होता। | श्वः क॒र्त्ता, श्वः क॒र्त्तारौ॑, मासेन क॒र्त्तारः॑।

[८|१|३०] निपातैर्यद्यदिहन्तकुविन्नेच्चेच्चण्क-च्चिद्यत्रयुक्तम् - यत्, यदि, हन्त, कुवित, नेत, चेत, चण्, कच्चित तथा सत्र पदों से पहले तिङन्त पद का अनुदात्त नहीं होता। | यत् - यत् क॒रोति॑, यत् पच॑ति। यद॑ग्ने स्याम॒हं त्वम्। यदि - यदि क॒रोति॑, यदि पच॑ति। युवा॒ यदी॑ कृ॒थः। हन्त - हन्त क॒रोति॑ हन्त पच॑ति।

[८|१|३१] नह प्रत्यारम्भे - पुनरारम्मवृत्ति नह शब्द से पहले तिङन्त पद का अनुदात्त नहीं होता। | नह भो॒क्ष्यसे॑, नहाध्ये॒ष्यसे॑।

[८|१|३२] सत्यं प्रश्ने - प्रश्न के गम्यमान होने पर सत्य शब्द से पहले तिङन्त पद का अनुदात्त नहीं होता। | सत्यं भो॒क्ष्यसे॑, सत्यमध्ये॒ष्यसे॑।

[८|१|३३] अङ्गात्प्रातिलोम्ये - प्रतिलोभ्याभाव गम्यमान होने पर अङ्ग शब्द से परे तिङन्त पद का अनुदात्त नहीं होता। | अङ्ग, कु॒रु, अङ्ग पच॑, अङ्ग पठ॑।

[८|१|३४] हि च - प्रतिलोभ्याभाव गम्यमान होने पर हि शब्द से युक्त तिङन्त पद का अनुदात्त नहीं होता। | त्वं हि कु॒रु, त्वं हि पठ॑।

[८|१|३५] छ्न्दस्यनेकमपि साकाङ्क्षम् - छन्दोविषय प्रयोग होने पर हि से परे अनेक तिङन्त पद भी साकाक्ष्ङ होने पर अनुदात्त नहीं होते। | अनेकं तावत् - अनृतं हि मत्तो वद॑ति पाप्मा एनं वि॒पु॒नाति॑। एकमपि - अग्निर्हि अग्रे उ॒दज॑यत्, तमि॒न्द्रोऽनूद॑जयत्। अ॒जा ह्म॑ग्नेरज॑निष्ट गर्भात्, सा वा अ॑पश्यज्जनितार॑मग्ने॑।

[८|१|३६] यावद्यथाभ्याम् - पूजा ( आदर) के गम्यमान होने पर यावत तथा यथा शब्दों से पहले तिङन्त पद का अनुदात्त नहीं होता। | या॒वद् भु॒ङ्क्ते। यथा॑ भु॒ङ्क्ते। या॒वद॒धी॒ते। यथा॑ऽधी॒ते। देवदत्तः पच६ति यावत्, देवदत्तः पच॑ति यथा।

[८|१|३७] पूजायां नानन्तरम् - पूजा के गम्यमान होने पर भी यदि तिङन्त पद याधत् अथवा यथा शब्द से अव्यवहित पर में आता हो तो उसका अनुदात्तत्व प्रतिषेध नहीं होता। | यावत् प॒च॒ति॒ शोभनम्, यावत् क॒रो॒ति॒ चारु। यथा प॒च॒ति॒ शोभनम्, यथा क॒रो॒ति॒ चारु।

[८|१|३८] उपसर्गव्यपेतं च - पूजा के गम्यमान होने पर यावत अथवा यथा शब्द से पहले तिङन्त पद यदि उपसर्ग में व्यवहित भी हो तब भी अनुदात्तत्व प्रतिषेध नहीं होता। | यावत् प्रप॒च॒ति शोभनम्, यावत् प्रक॒रो॒ति॒ चारु। यथा प्रप॒च॒ति॒ शोभनम्, यथा प्रक॒रो॒ति॒ चारु।

[८|१|३९] तुपश्यपश्यताहैः पूजायाम् - पूजा के गम्यमान होने पर तु, पश्य, पश्यत्, अह शब्दों से पहले तिङन्त पद का अनुदात्त नहीं होता। | तु - माणकवस्तु भु॒ङ्क्ते शोभनम्। पश्य - पश्य आणवको भु॒ङ्क्ते शोभनम्। पश्यत् - पश्यत् माणवको भु॒ङ्क्ते शोभनम्। अह - अह माणवको भु॒ङ्क्ते शोभनम्।

[८|१|४०] अहो च - पूजा के गम्यमान होने पर अहो शब्द से पहले तिङन्त पद का अनुदात्त नहीं होता। | अहो देवदत्तः पच॑ति शोभनम्। अहो विष्णुमित्रः क॒रोति॑ चारु।

[८|१|४१] शेषे विभाषा - पूजा के अतिरिक्त अर्थ में अहो शब्द से पहले तिङन्त पद का विकल्प से अनुदात्त नहीं होता। | कटमहो क॒रि॒ष्यसि॑, मम गेहमे॒ष्यसि॑। पक्षेऽनुदात्तमेव - कटमहो क॒रि॒ष्य॒सि, मम गेहमे॒ष्य॒सि॒।

[८|१|४२] पुरा च परीप्सायाम् - शीघ्राता अर्थ में पुरा शब्द से पहले तिङन्त पद विकल्प से अनुदात्त नहीं होता। | अधीष्व माणवक पुरा वि॒द्योत॑ते विद्युत्, पुरा स्त॒नय॑ति स्तनयित्निः। पुरा विद्यो॒त॒ते॒ विद्युत्, पुरा स्त॒न॒य॒ति॒ स्तनयित्नु।

[८|१|४३] नन्वित्यनुज्ञैषणायाम् - अनुज्ञा की प्रार्थना के गम्यमान होने पर ननु शब्द से परे तिङन्त पद का अनुदात्त नहीं होता। | ननु क॒रोमि॑ भोः।

[८|१|४४] किं क्रियाप्रश्नेऽनुपसर्गमप्रतिषिद्धम् - क्रिया के विषय में प्रश्न के लिए यदि `किम् ` शब्द का प्रयोग हो तो उससे अन्वित उपसर्ग रहित तथा निषेध का विषय न होने वाला तिङन्त पद का अनुदात्त नहीं होता। | किं देवदत्तः पच॑ति आहोस्विद् भु॒ङ्क्ते ? किं देवदत्तः शेते॑ आहोस्विद॑धी॒ते।

[८|१|४५] लोपे विभाषाः - क्रियाप्रश्नवृत्ति किम् शब्द का यदि लोप हो गया हो तो उपर्युक्त अनुदात्तत्व प्रतिषेध विकल्प से होता है। | देवदत्तः पच॑ति आहोस्वित् पठ॑ति ? पक्षे - देवदत्तः प॒च॒ति॒ आहोस्वित् प॒ठ॒ति॒ ?।

[८|१|४६] एहिमन्ये प्रहासे ऌट् - यदि प्रहास ( उपहास) गम्यमान हो तो ` एहि मन्ये ` पदसमुदाय से युक्त ऌङन्त तिङन्त पद का अनुदात्त नहीं होता। | एहि मन्ये ओदनं भो॒क्ष्यसे॑ नहि भो॒क्ष्यसे॑, भुक्तः सोऽतिथिभिः। एहि मन्ये रथेन या॒स्यसि॑ नहि या॒स्यसि॑ यातस्तेन पिता।

[८|१|४७] जात्वपूर्वम् - जिसके पूर्व कोई अन्य शब्द न हो (वाक्य में) ऐसे जातु (कदाचित्) शब्द से अन्वित् तिङन्त पद का अनुदात्त नहीं होता। | जातु भो॒क्ष्यसे॑, जातु क॒रि॒ष्यामि॑।

[८|१|४८] किंवृत्तं च चिदुत्तरम् - प्राग्दीव्यतीय ( अपत्य, देवता, भव, जाति आदि) अर्थों में अश्वपति आदि से अण् ( अ) प्रत्यय होता है। | अश्वपतेरपत्यम् (अश्वपति की संतान) - इस विग्रह में अपत्य अर्थ में अश्वपतेः से अण् प्रत्यय हो अश्वपतेः अ या अश्वपति ङस् अ रूप बनता है। तब प्रातिपादिक संज्ञा होने पर सुप्- ङस् का लोप हो अश्वपति अ रूप बनने पर आदि अच् की वृद्धि और इकार-लोप आदि होकर आश्वपतम् रूप सिद्ध होता है।

[८|१|४९] आहो उताहो चानन्तरम् - वाक्य में जिसके पूर्व कोई पद न हो ऐसे आहो तथा उताहो शब्दों से युक्त तथा इनसे अव्यवहितोत्तरवर्त्ती तिङन्त पद का अनुदात्त नहीं होता। | आहो भु॒ङ्क्ते। उताहो भु॒ङ्क्ते। आहो पठ॑ति। उताहो पठ॑ति।

[८|१|५०] शेषे विभाषा - अन्य परिस्थितियों में अर्थात आहो तथा उताहो शब्दों और इनसे युक्त तिङन्त पद के बीच यदि शब्दान्तर - व्यवधान हो तो अनुदात्तत्व प्रतिषेध विकल्प से होता है। | आहो देवदत्तः पच॑ति। पक्षे - आहो देवदत्तः प॒च॒ति॒। उताहो देवदत्तः पठ॑ति।पक्षे - उताहो देवदत्तः प॒ठ॒ति॒।

[८|१|५१] गत्यर्थलोटा ऌण्न चेत्कारकं सर्वान्यत् - जिस कर्ता अथवा कर्मकारक को गत्यर्थक धातु से विहित लोट् लकार प्रतिपादिक करता हो उसी कर्ता अथवा कर्म का प्रतिपादिक ऌङन्त तिङन्त पद का अनुदात्त नहीं होता। | आगच्छ देवदत्त ग्रामं द्र॒क्ष्यस्ये॑नम्। आगच्छ देवदत्त ग्राममोदनं भो॒क्ष्यसे॑। कर्मणि - उह्मन्तां देवदत्तेन शालयस्तेनैव भोक्ष्यन्ते॑। उह्मन्तां यज्ञ दत्तेन शालयो देवदत्तेन भो॒क्ष्यन्ते॑।

[८|१|५२] लोट् च - उक्त परिस्थिति में लोङन्त तिङन्त पद का अनुदात्त नहीं होता। | आगच्छ देवदत्त ग्रामं पश्य॑। आव्रज विष्णुमित्र ग्रामं शा॒धि। आगम्यतां देवदत्तेन ग्रामो दृश्यतां॑ यज्ञदत्तेन।

[८|१|५३] विभाषितं सोपसर्गमनुत्तमम् - किन्तु उक्त परिस्थिति में उपसर्गविशिष्ट तथा उत्तमपुरुष भिन्न लोट् लकारान्त तिङन्त पद का विकल्प से अनुदात्त नहीं होता। | आगच्छ देवदत्त ग्रामं प्र॒वि॒श। पक्षे - आगच्छ देवदत्त ग्रामं प्रवि॑श। आगच्छ देवदत्त ग्रामं प्र॒शा॒धि। पक्षे - आगच्छ देवदत्त ग्रामं प्रशा॑धि।

[८|१|५४] हन्त च - जिस कर्ता अथवा कर्मकारक को धातुमात्र विहित लोट् लकार अभिव्यक्त करता हो उसी कर्ता एवम् कर्मकारक का प्रतिपादक सोपसर्ग, उत्तमपुरुषभिन्न तथा `हन्तऄ शब्दयुक्त लोट् लकारान्त तिङन्त पद का विकल्प से अनुदात्त नहीं होता है। | हन्त प्र॒वि॒श। पक्षे - हन्त प्रवि॑श। हन्त प्र॒शा॒धि। पक्षे - हन्त प्रशा॑धि।

[८|१|५५] आम एकान्तरमामन्त्रितमनन्तिके - आम् शब्द से परे एक पद में व्यवहित अत एव दूरवर्त्ती आमन्त्रितसंज्ञकान्त पद का अनुदात्त नही होता। | आम् पचसि देव॑द॒त्त३। आम् भो॒ देव॑द॒त्त३। अनन्तिके इत्यनेन सामीप्यार्थस्य प्रतिषेधः क्रियते सूत्रलाघवाय "दूरे" इत्यस्यानुक्तत्वात् यन्न समीपं यच्च न दूरं तादृश अर्थो गृह्मते। तेनात्रैक श्रुतेः प्राप्त्यभावे प्राप्तमनुदात्तत्वमेव प्रतिषिध्यते।

[८|१|५६] यद्धितुपरं छ्न्दसि - `यत् `, `हि ` अथवा तु शब्द जिसके उत्तर में हो वह तिङन्त पद छन्दोविषय प्रयोग होने पर अनुदात्त नहीं होता है। | यत्परम् - गवां॑ गो॒त्रमु॒दसृ॑जो॒ यद॑ङ्गिर। हिपरम् - इन्द॑वो वामु॑शन्ति॒ हि । तुपरम् - आ॒ख्या॒स्यामि॑ तु ते।

[८|१|५७] चनचिदिवगोत्रादितद्धिता-म्रेडितेष्वगतेः - `चन् `, `चित् `, ` इवऄ गोधादिगणपठित शब्द, तद्धित प्रत्यय तथा आम्रेडितसंज्ञक पद के परे गतिसंज्ञक शब्द से उत्तर न आनेवाला तिङन्त पद अनुदात्त नहीं होता है। | देवदत्तः पच॑ति चन । चित् - देवदत्तः पच॑ति चित्। इव - देवदत्तः पच॑ति चित् इव। गोत्रादि - देवदत्तः पच॑ति गोत्रम्, देवदत्तः पच॑ति चित् ब्रुवम्। देवदत्तः पच॑ति चित् प्रवचनम्। यद्धित - देवदत्तः पच॑तिकल्पम् । आम्रेडित - देवदत्तः पच॑ति पचति।

[८|१|५८] चादिषु च - च, वा, ह, अह तथा एव शब्दों से परे गतिसंज्ञक शब्द से उत्तर न आनेवाला तिङन्त पद का अनुदात्त नहीं होता। | चशब्दे - देवदत्तः पच॑ति च खाद॑ति च। वा - देवदत्तः पच॑ति वा खाद॑ति वा। ह - देवदत्तः पच॑ति ह खाद॑ति ह। अह - देवदत्तः पच॑त्यह खाद॑त्यह। एव - देवदत्तः पच॑त्येव खाद॑त्येव। एव - देवदत्तः पच॑त्येव खाद॑त्येव।

[८|१|५९] चवायोगे प्रथमा - च तथा वा से युक्त पहली तिङविभक्ति (से युक्त पद) अनुदात्त नहीं होता। | गर्दभाँश्च का॒लय॑ति वीणां च वा॒द॒य॒ति॒। गर्दभान् वा का॒लय॑ति वीणां वा वा॒द॒य॒ति॒।

[८|१|६०] हेति क्षियायाम् - यदि वाक्य से धर्म का उलंघन प्रतीत हो तो `हऄ से युक्त पहली तिङविभक्ति अनुदत्त नहीं होती। | स्वयं ह रथेन याति॑३, उपाध्यायं पदादतिं ग॒म॒य॒ति॒।वयं हौदनं भुङ्क्ते॑३, उपाध्यायं सक्तून् पा॒य॒य॒ति॒।

[८|१|६१] अहेति विनियोगे च - अनेक प्रयोजन में होने वाली प्रेरणा अथवा धर्मोल्लंघन के गम्यमान होने पर ` अहऄ शब्द से युक्त प्रथम तिङविभक्ति अनुदत्त नहीं होती। | विनियोगे - त्वमह ग्रामं गच्छ॑३त्वमहारण्यं। ग॒च्छ॒। क्षियायाम् - स्वयमह रथेन याति॑३उपाध्यायं पदातिं ग॒म॒य॒ति॒। स्वयमहौदनं भु॒ङ्क्ते॑३उपाध्यायं सक्तून् पा॒य॒य॒ति॒।

[८|१|६२] चाहलोप एवेत्यवधारणम् - `चऄ अथवा ` अहऄ का यदि लोप हो गया हो तथा ` एवऄ शब्द के द्वारा अवधारण किया गया हो तो प्रथम तिङ् विभक्ति अनुदात्त नहीं होती। | चलोपे - देवदर्र एव ग्रामं गच्छ॑तु, देवदत्त एवारण्यं ग॒च्छ॒तु॒। अहलोपे - देवदत्त एव ग्रामं गच्छ॑तु, यज्ञदत्त एवारण्यं ग॒च्छ॒तु।

[८|१|६३] चादिलोपे विभाषा - च, वा, ह, अह तथा एव शब्द का लोप यदि हुआ हो तो प्रथम तिङ् विभक्ति का विकल्प से अनुदात्त नहीं होती। | चलोपे - शुक्ला व्रीहयो भव॑न्ति (पक्षे - भ॒व॒न्ति॒) श्वेता गा आज्याय दुहन्ति। वालोपे-व्रीहिभिर्यजे॑त (पक्षे - य॒जे॒त॒) यवैर्यजेत। एवं शेषेष्वपि यथाप्राप्तमुदाहर्त्तव्यम्।

[८|१|६४] वैवावेति च च्छन्दसि - छन्दिविषय प्रयोग में `वै ` तथा `वावऄ शब्दों से युक्त प्रथम तिङ् विभक्ति भी विकल्प से अनुदात्त नहीं होती है। | अहर्वै देवानामासी॑त् रात्रिरसुराणामा॒सी॒त्। पक्षे - अहर्वै देवानामा॒सी॒त् रात्रिरसुराणामा॒सी॒त्। बृहस्पतिर्वै देवानां पुरोहित आसी॑त् (पक्षे - आ॒सी॒त्) शण्डामर्कावसुराणाम्। वाव - अयं वाव ह आसी॑त् नेतर आ॒सी॒त्। पक्षे - अयं वाव ह आ॒सी॒त्, नेतर आ॒सी॒त्।

[८|१|६५] एकान्याभ्यां समर्थाभ्याम् - समानार्थक ` एकऄ शब्द तथा ` अन्यऄ शब्द से युक्त प्रथम तिङविभक्ति भी छन्दोविषय प्रयोग में विकल्प से अनुदत्त नहीं होती। | प्रजामेका जिन्व॑ति ऊर्जमेका र॒क्ष॒ति। पक्षे - प्रजामेका जि॒न्वति ऊर्जमेका र॒क्ष॒ति॒। अन्य - तयो॒॑र॒न्यः पिप्प॑लं स्वा॒द्वत्ति॑ (पक्षे - स्वा॒द्वि॒ति) अन॑श्नन्न॒न्यो अ॒भिचा॑कशीति।

[८|१|६६] यद्-वृत्तान्नित्यम् - यत् शब्द निष्पन्न पद से परे तिङन्त पद अनुदात्त कभी नहीं होता। | यो भु॒ङ्क्ते, यं भो॒जय॑ति, येन भु॒ङ्क्ते, यस्मै ददा॑ति, यत्का॑मास्ते जुहु॒मः।

[८|१|६७] पूजना-त्पूजितमनुदात्तं काष्ठादिभ्यः - पूजनार्थक काष्ठादिशब्दों के उत्तरावयव के रूप में आया हुआ पूज्यार्थक शब्द अनुदात्त हो जाता है। | काष्ठाध्या॒प॒कः॒, काष्ठाभि॒रू॒प॒कः॒। दारुणाध्या॒प॒कः॒, दारुणाभि॒रू॒प॒कः॒।

[८|१|६८] सगतिरपि तिङ् - गतिसंज्ञक उपसर्गयुक्त अथवा उससे रहित पूजनार्थक तिङन्त पद भी पूजनार्थक काष्ठादि शब्द से परे यदि हो तो अनुदात्त हो जाता है। | अहतिः - यत्काष्ठं प॒च॒ति॒, यद्दारुणं प॒च॒ति॒। सगतिः - यत्काष्ठं प्र॒प॒च॒तिओ॒। यद्दारुणं प्र॒प॒च॒ति॒। सगतिग्रहणात् गतिरपि निहन्यते।

[८|१|६९] कुत्सने च सुप्यगोत्रादौ - निन्दार्थक गोत्रादिवर्जित सुबन्त के परे भी गतिसंज्ञक उपसर्ग विशिष्ट अथवा तद्रहित तिङन्त पद का अनुदात्त हो जाता है। | प॒च॒ति॒ पूति, प्र॒प॒च॒ति पूति, प॒च॒ति॒ मिथ्या, प्र॒प॒च॒ति॒ मिथ्या।

[८|१|७०] गतिर्गतौ - गतिसंज्ञक के परे गतिसंज्ञक शब्द अनुदात्त हो जाता है। | अ॒भ्युद्ध॑रति, स॒मु॒दान॑यति, अ॒भि॒स॒म्प॒र्याह॑रति।

[८|१|७१] तिङि चोदात्तवति - उदात्तत्व विशिष्ट तिङन्त पद के परे भी गतिसंज्ञक शब्द भी उदात्त हो जाता है। | यत् प्र॒पच॑ति, यत् प्र॒क॒रोति॑।

[८|१|७२] आमन्त्रितं पूर्वमविद्यमानवत् - पूर्ववर्त्ती आमन्त्रितसंज्ञक अविद्यमानवत् हो जाता है अर्थात् पद के पूर्व रहने पर जो कार्य विहित है वे आमन्त्रित पद के पूर्ववर्ती होने पर नहीं होते हैं। | देव॑दत्त॒ यज्ञ॑दत्त। देव॑दत्त॒ पच॑सि। देवदत्त तव ग्रामः स्वम्। देवदत्त मम ग्रामः स्वम्। यावद् देवदत्त प॒च॒सि॒। देवदत्त जातु पच॑सि। आहो देवदत्त पच॑सि। उताहो देवदत्त पच॑सि। आम् भोः पचसि देव॑दत्त।

[८|१|७३] नामन्त्रिते समानाधिकरणे सामान्यवचनम् - समानाधिकरण आमन्त्रितान्त के परे पूर्व अमन्त्रितात सामान्यवाची शब्द अविद्यमान् नहीं होता है। | अग्ने॑ गृ॒ह॒प॒ति॒। माण॑वक ज॒टि॒ल॒का॒ध्या॒पक॒।

[८|१|७४] विभाषितं विशेषवचने बहुवचनम् - विशेषवाचक - समानाधिकरण आमन्त्रितान्त शब्द के परे पूर्ववर्त्ती बहुवचनान्त आमन्त्रितान्त शब्द विकल्प से अविद्यमानवत् हो जाता है। | देवाः॑ शर॑ण्याः। पक्षे - देवाः॑ श॒र॒ण्याः॒। ब्राह्म॑णा वैया॑करणाः। पक्षे - ब्राह्म॑णा वै॒या॒क॒र॒णाः॒

[८|२|१] पूर्वत्रासिद्धम् इस सूत्र से लेकर अष्टाध्यायी के अन्त तक जितने सूत्र हैं वे सभी सूत्र अपने पूर्ववती सूत्रों के प्रति असिद्ध हैं और उन सूत्रों से भी पर्ववर्ती सूत्र के प्रति परवर्ती सूत्र असिद्ध होता है। | (अबान्ध् + शिच् + ताम्) इसमें८_२_२३सूत्र से सलोप तथा८_२_४२सूत्र से भष्भाव दोनों प्राप्त है। अतः इनमें पूर्वसूत्र का कार्य सलोप होगा और परसूत्र का कार्य भश्भाव असिद्ध हो जायेगा, तो "अबान्धाम्" प्रयोग बनेगा।

[८|२|२] नलोपः सुप्स्वरसंज्ञातुग्विधिषु कृति सुप् सम्बन्धी विधान, स्वरविधान्, संज्ञाविधान तथा कृत् प्रत्यय परे होने पर तुग्विधान करने में नकार का लोप। | सुब्विधौ - राजभिः, तक्षभिः। राजभ्याम्, तक्षभ्याम्। राजसु, तक्षसु। स्वरविधौ - राजवती। पञ्चार्मम्, दशार्मम्। पञ्चबीजि। संज्ञाविधौ - पञ्च ब्राह्मण्यः, दश ब्राह्मण्यः। तुग्विधौवृत्रहभ्याम्, वृत्रहभिः।

[८|२|३] नमुने - ना के विषय में अथवा ना परे होने पर सु ( मकार और उकार) आदेश असिद्ध नही होता। | अमु + टा में आङो में मकार और उकार आदेश असिद्ध होने के कारण टा को ना प्राप्त नही था, किन्तु प्रकृतसूत्र द्वारा जब ना भाव करने में सु (मकार और उकार) आदेश असिद्ध न हुआ तो घिसंज्ञा होकर टा को ना होकर अमुना रूप सिद्ध हुआ।

[८|२|४] उदात्तस्वरितयोर्यणः स्वरितोऽनुदात्तस्य - उदात्तस्थानीय तथा स्वरितस्थानीय यण् से पहले अनुदात्त के स्थान में स्वरित आदेश। | उदात्तयणः - कु॒मा॒यौ॑, कु॒मा॒र्यः। स्वरितयणः - स॒कृ॒ल्ल्व्या॑शा, खलप्व्या॑शा।

[८|२|५] एकादेश उदात्तेनोदात्तः - उदात्त के साथ अनुदात्त का एकादेश उदात्त हो जाता है। | अ॒ग्नी, वा॒यू। वृक्षैः, प्ल॒क्षैः।

[८|२|६] स्वरितो वाऽनुदात्ते पदादौ - पद के आदि में आए अनुदात्त का उदात्त के साथ एकादेश विकल्प से स्वरित अथवा उदात्त हो जाता है। | सु + उत्थितः == सूत्थितः। वि + ईक्षते == वीक्षते। वसुकः + असि == वसुकोऽसि।

[८|२|७] नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य प्रतिपादक संज्ञक पद् के अन्त्य (पदान्त) नकार "न्" का लोप होता है। | राजन् ==> राज्, सखान् ==> सखा, आत्मन् ==> आत्म । अन्य उदाहरण - राजन् + ता == राजता, राजन् + त्वम् == राजत्वम्, राजन् + तरप् == राजतरः, राजन् + तमप् == राजतमः।

[८|२|८] न ङिसंबुद्धयोः ङि अथवा सम्बुद्धि परे होने पर नकार का लोप नही होता। | ङौ - आर्द्रे चर्मन्, रोहिते चर्मन्। सम्बुद्धौ - हे राजन्, हे तक्षन्।

[८|२|९] मादुपधायाश्च मतोर्वोऽयवादिभ्यः - यवादिगण में पठित शब्दों को छोड़कर अन्य मकारान्त और अवर्णान्त या मकारोपध (जिसकी उपधा मकार हो) और अवर्णोपध (जिसकी उपधा अवर्ण हो) शब्दों के पश्चात् मतु (मतुप्) के स्थान पर वकार आदेश होता है। | वेतस् मत् में अङ्ग वेतस् अवर्णोपध है, अतः प्रकृत सूत्र से उसके पश्चात् मत् (मतु) के मकार के स्थान पर वकार हो वेतस् वत् रूप बनता है। तब विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में वेतस्वान् रूप सिद्ध होता है।

[८|२|१०] झयः - क्षय् के पश्चात् मतु के मकार को वकार आदेश। | कुमुद् मत् में क्षय्-दकार के पश्चात् मतु (मत्) के मकार को वकार हो कुमुद् + वत् ==> कुमुद्वत् रूप बनता है। तन विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में कुमुद्वान् रूप सिद्ध होता है।

[८|२|११] संज्ञायाम् - संज्ञाविषय में मतुप् के मकार को वकारादेश। | अहि + मतुप् == अहीवती, कपि + मतुप् == कपीवती, ऋषि + मतुप् == ऋषिवती।

[८|२|१२] आसन्दीवदष्ठीवच्चक्रीवत्कक्षीव-द्रुमण्वच्चर्मण्वती - संज्ञा शब्दों के रूप में आसन्दीवत्, अष्ठीवत्, चक्रीवत् आदि शब्दों का निपातन। | अस्थि + मतुप् == अष्ठीवान्, चक्र + मतुप् == चक्रीवान्, चर्मन् + मतुप् == चर्मण्वती।

[८|२|१३] उदन्वानुदधौ च - उदधि अर्थ में तथा संज्ञाविषय में उदकशब्द के स्थान में मतुप् प्रत्यय के परे उदन् आदेश। | संज्ञायाम् - उदन्वान् नाम ऋषिः। उदधौ-उदन्वान्।

[८|२|१४] राजन्वान्सौराज्ये - सौराज्य अर्थ में राजन्वान् शब्द निपातित है। | शोभनो राजा यस्मिन् स राजन्वान् देशः। राजन्वन्ती पृथिवी। "राजवान्" अन्यत्र भवति।

[८|२|१५] छन्दसीरः - छन्दोविषय प्रयोग में इवर्णान्त तथा रेफान्त शब्दों से पहले मतुप् के मकार के स्थान में नकारादेश। | इवर्णान्तात् - त्रिवती याज्यानिवाक्या भवति हरिवो मोदिनं त्वा। अधिपतिवतीर्जुहोति। चरूरग्निवाँ इव। आरेवानेतु मा विशत्। सरस्वतीवान् भारतीवान्। दधिवांश्चरुः। रेफान्तात् - गीर्वान्, धूर्वान्, आशीर्वान्।

[८|२|१६] अनो नुट् - छन्दोविषय प्रयोग में अन् शब्दान्त शब्द से पहले मतुप् के मकार के स्थान में नकारादेश। | अ॒क्ष॒ण्वन्तः कर्ण॑वन्तः सखा॑यः। अ॒स्थ॒न्वन्तं॒ यद॑न॒स्था बिभ॑र्ति। अक्षण्वता लाङ्गलेन। शीर्षण्वती। मूर्द्धन्वती।

[८|२|१७] नाद्-घस्य - छन्दोविषय प्रयोग में नकारान्त शब्द से परे `घऄ संज्ञक (तरप् तथा तमप्) प्रत्ययों को नुट् का आगम। | सुपथिन्तरः। दस्युहन्तमम्।

[८|२|१८] कृपो रो लः - "कृप्" धातु के रेफ के स्थान में लकारादेश। | कृप् + शप् == कॢप् + शप् =(गुण)= कल्प् + अ + (ते) == कल्पते।

[८|२|१९] उपसर्गस्यायतौ - अय् धातु से परे होने पर उपसर्ग के रकार के स्थान पर लकार आदेश। | लट् लकार के प्रथमपुरुष एकवचन में प्रपूर्वक अय् धातु का प्रायते रूप बनता है। यहाँ प्र उपसर्ग है और अत् धातु है, अतः प्र के रकार को लकार होकर प्लायते रूप सिद्ध होता है।

[८|२|२०] ग्रो यङि - यङ् प्रत्यय के परे `गऄ धातु के रेफ के स्थान में लकारादेश। | गॄ + यङ्, (७_१_१००सूत्र से "इर्" होकर) == गिर् + य (८_२_२०सूत्र से "र्" को "ल्" होकर) == गिल् + यङ् (६_१_९सूत्र से द्वित्व करके) == गिल् गिल् यङ्।

[८|२|२१] अचि विभाषा - अच् (स्वर-वर्ण) परे होने पर गॄ९निगलना) धातु के रकार के स्थान पर विकल्प से लकार होता है। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में गॄ धातु से तिप्, श और इर् होकर गिर् अ ति रूप बनता है। यहाँ अच्-अकार परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से गॄ (गुर्) के रकार के स्थान पर लकार होकर गि ल् अ ति = गिलति रूप सिद्ध होता है। लकार के अभावपक्ष में गिरति रूप बनता है।

[८|२|२२] परेश्च घाङ्कयोः - `घऄ शब्द अथवा अङ्क शब्द के परे `परि ` के रेफ के स्थान में विकल्प से लकारादेश। | घशब्दे - परिघः पलिघः। अङ्कशब्दे - परिगतोऽङ्कः == पर्यङ्कः, पल्यङ्कः। अङ्कशब्दस्य साहचर्यात् घशब्दो गृह्मते, न तरप्तमपोः संज्ञा।

[८|२|२३] संयोगान्तस्य लोपः पदान्त (प्रथम पद) का लोप हो संयोग की अवस्था में | सुद्ध्य् + उपास्यः =(पदान्त"य" क लोप) =>सुद्ध् + उपास्यः

[८|२|२४] रात्सस्य रेफ से परे संयोगावत सकार का ही लोप हो अन्य का नही। | नू + त्नप् == नू + त्न == नूत्न ==नूत्नम्, नू + तनप् == नू + तन == नूतन == नूतनम्। इसी प्रकार अमात्यः, इहत्यः, नित्यम्, क्वत्यः।

[८|२|२५] धि च - धकारादि (जिसके आदि में धकार हो) प्रत्यय परे होने पर सकार का लोप। | लट् लकार के मध्यमपुरुष बहुवचन में एध् धातु से ध्वम् आदि होकर एधितास् ध्वम् रूप बनने पर धकारादि ध्वम् प्रत्यय परे होने से एधितास् के सकार का लोप होकर एधिताध्वम् रूप बनेगा। इस स्थिति में टि अम् के स्थान पर ए होकर एधिताध्वे रूप बनेगा।

[८|२|२६] झलो झलि - झल् परे होने पर झल् के पश्चात् सकार का लोप। | लङ् लकार के प्रथम-पुरुष-द्विवचन में गुप् धातु से तस्, अट् आदि होकर अगौप स् ताम् रूप बनता है। यहाँ झल्-तकार परे होने के कारण झल्-पकार के परवर्ती सकार का लोप होकर अगौप्ताम रूप सिद्ध हुआ।

[८|२|२७] ह्रस्वादङ्गात् - झल् परे रहने पर ह्रस्वान्त अङ्ग से परे सकार का लोप। | भृ धातु से लुङ् लकार में प्रथमपुरुष-एकवचन की विविक्षा में त और पुनः च्लि-सिच् आदि होकर अ भृ स् त रूप बनता है। इस अवस्था में झल्-तकार परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से ह्रस्वान्त अङ्ग अभृ से परे सकार का लोप हो जाता है और रूप अभृत बनता है।

[८|२|२८] इट ईटि - ईट् परे होने पर इट् से पर सकार का लोप होता है। | आत् इ स् ई त् में इट् से परे सकर है और उससे परे ईट् भी है। अतः प्रकृत सूत्र से सकार का लोप होकर आत् इ ई त् रूप बनता है।

[८|२|२९] स्कोः संयोगाद्योरन्ते च - झल् (सभी वर्गों के प्रथम्, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ वर्ण तथा श् प् स् ह्) परे होने पर या पद के अन्त में जो संयोग हो, उसके आदि सकार और ककार का लोप। | सकारस्य - लह्नः, लग्नवान्, साधुलक्। ककारस्य - तक्षेः - तष्टः, तष्टवान्, काष्ठतट्।

[८|२|३०] चोः कुः चवर्ग परे झल् (सभी वर्गों के प्रथम, द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ वर्ण और श्, ष्, स्, ह्) होने पर कुत्व। पदान्त में चवर्ग होने पर कवर्ग (कुत्व) आदेश। | पच् - ता ==> पक्ता, मोच् - ता ==> मोक्ता। पदान्त में ==> वाच् ==> वाक्, वारिमुच् ==> वारिमुक्

[८|२|३१] हो ढः पदान्त में और् "झल्" परे होने पर हकार को ढ़कार होता है। | लिह् ==> लिढ् {पदान्त हकार्}

[८|२|३२] दादेर्धातोअर्घः दकारादि धातु के हकार को झल् परे होने पर या पदान्त में घकार आदेश। | दुह् (दुहने वाला) ==> दुध्

[८|२|३३] वा द्रुहमुहष्णुहष्णिहाम् झल् परे रहते अथवा पदान्त में हकार के स्थान पर विकल्प से धकार आदेश। | द्रुह् + स् ==>द्रुघ् ==> द्रुढ्

[८|२|३४] नहो धः - झल् (सभी वर्ग के प्रथम्, द्वितीय तथा तृतीय तथा चतुर्थ वर्ण और श्, ष्, स्, ह्) परे होने पर और पद के अन्त में नह् धातु के स्थान पर धकार आदेश होता है।१_१_५२द्वारा यह आदेश नह् के अन्त्य वर्ण-हकार के ही स्थान पर ही होगा। झल् परे रहते और पदान्त में कहने से सु भ्याम्, भिस्, भ्यस् और सुप् इन झलादि प्रत्ययों के परे होने पर नह् धातु के हकार के स्थान पर धकार होता है। | उपनाह् + भ्याम् में पदान्त में होने के कारण हकार को धकार होकर उपनाध् + भ्याम् रूप बनता है।

[८|२|३५] आहस्थः - झल् (सभी वर्गों के प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ वर्ण तथा श, ष, स, ह) परे होने पर आह् के स्थान पर थकार आदेश। | लट् लकार के मध्यमपुरुष-एकवचन में ब्रू के स्थान पर आह् होकर आह् थ रूप बनता है। इस स्थिति में झल्-थकार परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से आह् के हकार के स्थान पर थकार होकर आथ् थल् रूप बनेगा। पुनः चर्त्व और लकार-लोप होने पर आत्थ रूप सिद्ध होता है।

[८|२|३६] व्रश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राज च्छ्शां षः व्रश्च् (काटना), भ्रस्ज् (भूनना), सृज्(सृजन करना), मृज् (शुद्ध करना) यज्(यज्ञ करना), राज् (राजा), भ्राज् (दीप्तिमान्) इन सात धातुओं, छकार "छ्" व षकार "ष्" को "झल्" परे रहते या पदान्त में अन्तादेश हो। | राज् + सु ==> राज् + स् = अपृक्त संज्ञक का लोप=> राज् ="ज्"->"ष्"=> राष् =८/२/३९=> राड् । राड् = वैकल्पिक "चर्" => राट् । राडाभ्याम्, राड्भि, राट्सु (विकल्प से मध्य में "धुट्" आगम होने से राट्त्सु) ।भृस्ज् (भड`भूंजा) -->भृड्/ भृट्, भृड्भ्याम्, भृड्भिः, भृड्भ्यः, भृट्सु/भृट्त्सु

[८|२|३७] एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः सकार ध्व परे होने पर अथवा पदान्त में धातु के अवयव झषन्त एकाच् के ब्, ग्, ड् और द् के स्थान पर भ्, घ्, ढ्, और ध् आदेश। | दुध् ==> धुध्

[८|२|३८] दधस्तथोश्च - तकार सकार, थकार या ध्व परे होने पर कृतद्वित्व (जिसका द्वित्व किया गया हो) झषन्त (जिसके अन्त में झ, भ, घ, ढ या ध) धा धातु के बश् (ब, ग, ड या द) के स्थान पर भष् (ब, ग, ड, या ध) होता है। | दध् + तः == धध् + तः / "खरि च" सूत्र से "ध्" को चर्त्व करके धत्तः। इसी प्रकार दध् + थः == धध् + हः == धत्थः / दध् + थ = धध् + थ == धत्थ।

[८|२|३९] झलां जशोऽन्ते झल् के स्थान पर जश् आदेश | वाक् + ईशः ==> वाग् ईशः ==> वागीशः, भवत् + छस् == भवत् + ईय =("त्" को जशत्व करके)= भवद् + ईय == भवदीयः। अन्य उदाहरण - सुप् + अन्तः == सुबन्तः, चित् + आनन्दः == चिदानन्दः, षट् + आननः == षडाननः।

[८|२|४०] झषस्तथोर्धोऽधः - धा धातु को छोड़कर किसी वर्ग के चतुर्थ वर्ण के बाद यदि तकार या थकार आता है, तो उसके स्थान पर धकार आदेश हो जाता है। | दोघ् + ति == दोघ् + धि == दुघ् + थः == दुघ् + धः आदि।

[८|२|४१] षढोःकःसि - सकार परे होने पर षकार और ढकार के स्थान पर ककार आदेश। | यज् धातु से ऌट् लकार में प्रथमपुरुष-एकवचन की विविक्षा में तिप् प्रत्यय और पुनः स्वागम् तथा जकार का षकार होकर यष् स्य ति रूप बनता है। यहाँ सकार परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से यष् के षकार के स्थान पर ककार होकर यक् स्य ति रूप बनेगा।

[८|२|४२] रदाभ्यां निष्ठातो नः पूर्वस्य च दः रकार और दकार के पश्चात क्त तथा क्तवतु के तकार के स्थान पर नकार होता है। तथा पूर्व दकार के स्थान पर नकार होता है। | शॄ (मारना) धातु से कर्म में क्त (त) प्रत्यय होकर शॄ त रूप बनता है। तव ॠत इद् धातौः (७_१_१००) से ऋकार को इर् (इ) इकार को दीर्घ होकर शीर् त रूप बनने पर रकार के बाद क्त (त) प्रत्यय होने के कारण प्रकृत सूत्र द्वारा त के तकार को नकार होकर शीर् न् अ = शीर्न रूप बनेगा। यहाँ णत्व होकर शीर्ण रूप बनने पर प्रतिपादिक संज्ञा होकर प्रथमा के एकवचन में शीर्णः रूप सिद्ध होता है।

[८|२|४३] संयोगादेरातो धातोर्यण्वतः - संयोगादि, अकारान्त और यण्वान् (जिसमें य्, व्, र् या ल् हो) धातु के पश्चात क्त और क्तवतु के तकार के स्थान पर नकार आदेश होता है। | द्रा (शरमाना, दौड़ना) धातु से कर्म में क्त प्रत्यय होकर द्रा त रूप बनता है। यहाँ द्रा धातु संयोगादि है, आकारान्त भी है और रकार होने से यण्वान् भी। अतः प्रकृत सूत्र से त के तकार को नकार होकर द्रा न रूप बनने पर णत्व होकर प्रतिपादिक संज्ञा होने पर प्रथमा के पुल्लिङ्ग-एकवचन में द्राणः रूप सिद्ध होता है।

[८|२|४४] ल्वादिभ्यः - लू (काटना) आदि इक्कीस धातुओं के पश्चात क्त और क्तवतु के तकार के स्थान पर नकार आदेश होता है। | लू धातु से क्त प्रत्यय होकर लू त रूप बनने पर प्रकृत सूत्र से त के तकार के स्थान पर नकार होकर लू न् अ = लून रूप बनेगा। तब प्रतिपादिक संज्ञा होकर प्रथमा के पुल्लिङ्ग्-एकवचन में लूनः रूप सिद्ध होता है।

[८|२|४५] ओदितश्च - ओदित् धातु (जिसका ओकार इत्संज्ञक हो) के पश्चात क्त और क्तवतु के तकार के स्थान पर नकार होता है। | भुजो (तोड़ना) धातु का ओकार इत्संज्ञक है, अतः क्त प्रत्यय होकर भुज् न् अ = भुज् न रूप बनेगा। यहाँ जकार को गकार होकर भुग् न रूप बनने पर प्रतिपादिक संज्ञा होकर प्रथमा के एकवचन में भुग्नः रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार श्वि (टुओश्वि-जाना, बढ़ना) धातु के ओदित् होने के कारण नत्व आदि होकर उद् उपसर्गपूर्वक उच्छूनः रूप बनता है।

[८|२|४६] क्षियो दीर्घात् - `क्षि ` धातु के दीर्घ अवयव (ईकार) से पहले निष्ठा-तकार के स्थान में नकारादेश। | क्षीणाः क्लेशाः, क्षीणो जाल्मः, क्षीणस्तपस्वी।

[८|२|४७] श्योऽस्पर्शे - स्पर्श अर्थ में पयुक्त `श्या` धातु से विहित निष्ठा-तकार के स्थान में नकारादेश। | शीनं धृतम्। शीनं मेदः। शीना वसा।

[८|२|४८] अञ्चोऽनपादाने - यदि अपादान न हो तो ` अञ्च् ` धातु से विहित निष्ठा-तकार के स्थान में नकारादेश। | समक्रौ शकुनेः पादौ। तस्मात् पशवो न्यक्राः।

[८|२|४९] दिवोऽविजिगीषायाम् - जीतने की इच्छा (धात्वर्थ के रूप में विवक्षित) न हो तो `दिव् ` धातु से परे निष्ठा तकार के स्थान में भी नकारादेश। | आद्यूनः, परिद्यूनः

[८|२|५०] निर्वाणोऽवाते - निस् + वा धातु से पहले निष्ठा तकार के स्थान में भी, यदि धात्वर्थ - व्यापा-राश्रय वात न हो तो नकारादेश हो जाता है। | निर्वाणोऽग्निः, निर्वाणः प्रदीपः, निर्वाणो भिक्षुः।

[८|२|५१] शुषःकः - शुष् (सूखना) धातु के पश्चात क्त और क्तवतु के तकार के स्थान पर ककार होता है। | शुष् धातु से क्त प्रत्यय होकर शुष् त रूप बनता है। इस स्थिति में प्रतिपादिक संज्ञा होकर प्रथमा के पुल्लिङ्ग-एकवचन में शुष्कः रूप सिद्ध होता है।

[८|२|५२] पचो वः - पच् धातु से परे क्त और क्तवतु के तकार के स्थान पर वकार आदेश होता है। | पच् धातु से क्त प्रत्यय होकर पच् त् रूप बनने पर प्रकृत सूत्र से त के तकार को वकार होकर पच् व् अ = पच् व रूप बनेगा। तब चकार को ककार होकर प्रतिपादिक संज्ञा होने पर पक्वः रूप सिद्ध होता है।

[८|२|५३] क्षायो मः - क्षै (कृश् होना) धातु के पश्चात् क्त और क्तवतु के तकार के स्थान पर मकार आदेश। | क्षै धातु से क्त प्रत्यय होकर क्षै त रूप बनने पर क्षै के ऐकार को आकार होकर क्षा त रूप बनता है। यहाँ प्रकृत सूत्र स् त के तकार को मकार होकर क्षा म् अ = क्षाम रूप बनने पर प्रतिपादिक संज्ञा आदि होकर प्रथमा के पुल्लिङ्ग्-एकवचन में क्षामः रूप सिद्ध होता है।

[८|२|५४] प्रस्त्योऽन्यतरस्याम् - `प्रऄ पूर्वक `स्त्यै` धातु से निष्ठा-तकार के स्थान में विकल्प से मकारादेश। | प्रस्तीमः, प्रस्तीमवान्। पक्षे - प्रस्तीतः, प्रस्तीतवान्।

[८|२|५५] अनुपसर्गात्फुल्लक्षीबकृशोल्लाघाः - उपसर्ग से पहले न होने पर `त्रिफला`, `क्षीवऄ, `कृशऄ तथा अत् + `लाघऄ धातुओं से निष्ठाप्रत्ययान्त फुल्ल, क्षीव, कृश तथा उल्लाघ शब्द निपातित होते हैं। | क्षीब् + इ + त् == क्षीब् + अ == क्षीब्।अ

[८|२|५६] नुदविदोन्दत्राघ्राह्रीभ्योऽन्यतरस्याम् - नुद्, विद, उन्दी, त्रा, घ्रा तथा ह्री धातुओं से विहित निष्ठा के तकार के स्थान में विकल्प से नकारादेश होता है। | नुद - नुन्नः, नुत्तः। विद - विन्नः, वित्तः। उन्दी - समुन्नः, समुत्तः। त्रा - त्राण, त्रातः। घ्रा - घ्राणः, घ्रातः। ह्री - ह्रीणः, ह्रीतः। क्तवतु - नुन्नवान्, नुत्तवान्, विन्नवान्, वित्तवान् आदि।

[८|२|५७] न ध्याख्यापॄमूर्च्छिमदाम् - ध्या, ख्या, पृ, मूच्छ तथा मद धातुओं से विहित निष्ठा के तकार के स्थान में नकारादेश नहीं होता। | ध्यातः, ध्यातवान्। ख्यातः, ख्यातवान्। पूर्त्तः, पूर्त्तवान्। मूर्त्तः, मूर्त्तवान्। मत्तः, मत्तवान्।

[८|२|५८] वित्तो भोगप्रत्यययोः - भोग तथा प्रत्यय (विश्वास-पात्रता) के अर्थ में प्रयुक्त (लाभार्थक) `विद् ` धातु से परे `क्तऄ प्रत्यय के तकार के स्थान में नकारादेश के अभाव का निपातन। | भोगे - वित्तमस्य बहु। प्रत्यये - वित्तोऽयं मनुष्यः।

[८|२|५९] भित्तं शकलम् " इण्" या क-वर्ग् से परे अपदान्त सकार अव्याये में "स" सकार के स्थान पर "ष्" मूर्धन्य षकार आदेश | भित्तं तिष्ठति, भित्तं प्रपतति।

[८|२|६०] ऋणमाधमर्ण्ये - अधमर्णता के विवक्षित होने पर ` ऋ ` धातु से विहित `क्तऄ प्रत्यय के तकार के स्थान में नकारादेश का निपातन। | ऋणं ददाति, ऋणं धारयति।

[८|२|६१] नसत्तनिषत्तानुत्तप्रतूर्त्तसूर्त्तगूर्तानिच्छन्दसि - छान्दस शब्दों के रूप में नसत्त, निषत्त, अनुत्त, प्रतूर्त्त, सूर्त्त तथा गूर्त्त शब्दों का निपातन। | नसत्तमञ्जसा। नसन्नमिति भाषायाम्। नि॒ष॒त्त॑मस्य॒ चर॑तः निषण्णमिति भाषायाम्। अनु॑त्त॒मा ते॑ मघव॑न्, अनुन्नमिति भाषायाम्। प्रतूर्त्तं वाजिन् प्रतूर्णमिति भाषायाम्। सूर्त्ता गावः। सृता गाव इति भाषायाम्। गूर्ता अमृतस्य। गूर्णमिति भाषायाम्।

[८|२|६२] क्विन्प्रत्ययस्य कुः - पदान्त में क्किन् प्रत्यय जिससे किया गया हो, उसके स्थान पर कवर्ग होता है। | घृतस्पृक्, हलस्पृक्, मन्त्रस्पृक्।

[८|२|६३] नशेर्वा - पद के अन्त में नश् के स्थान पर विकल्प से कवर्ग आदेश। | नश् + स् में पहले शकार को षकार तथा षकार को डकार होकर नड् रूप बनता है। इस अवस्था में प्रकृत सूत्र से अन्त्य वर्ण डकार के स्थान पर विकल्प से कवर्ग-गकार होकर नुग् रूप बनेगा। तब वैकल्पिक चर्त्व करने पर नक् अय्र नट् रूप बनते हैं।

[८|२|६४] मो नो धातोः धातु के मकार के स्थान पर नकार आदेश। | प्रशान्, प्रतान्, प्रदान्।

[८|२|६५] म्वोश्च - मकार और वकार परे होने पर मकारान्त धातु के स्थान पर नकार आदेश। | जगम् वस् में वकार परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से जगम् के मकार के स्थान पर नकार होकर जगन् वस् = जगन्वान् स् रूप बनने पर प्रतिपादिक संज्ञा हो प्रथमा के एकवचन में जगन्वान् रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - चक्षम् + वहे == चक्षन् + वहे == चक्षण्वहे।

[८|२|६६] ससजुषो रूः सकारान्त पद के या सजुष् शब्द के अंतिम वर्ग के स्थान पर रूँ आदेश (रूँ में "उ" की इत् संज्ञा होकर केवल "र्" शेष रहता है)। | अनयस् == अनयर् । रामस् == राम रु। अन्य उदाहरण - हरिस् + जयति == हरिरु + जयति == हरिर् + जयति == हरिर्जयति, भानुस् + उदेति == भानुरु + उदेति == भानुर् + उदेति == भानुरुदेति। इसी प्रकार हरिरवदत्, लक्ष्मीरियम्, पितुरिच्छा, गुरोर्भाषणम्।

[८|२|६७] अवयाः श्चेतवाः पुरोडाश्च - अवयाः, श्वेतवाः तथा पुरोडाः शब्दों का निपातन। | हे अवयाः, हे श्वेतवाः, हे पुरोडाः

[८|२|६८] अहन् पदान्त में अहन् शब्द के नकार को रु आदेश हलादि सुप् प्रत्यय परे होने पर। | अहन् + भ्याम् में प्रकृत् सूत्र से नकार को रु आदेश होकर अह रु + भ्याम् रूप बनेगा।

[८|२|६९] रोऽसुपि सुप् प्रत्यय परे न होने पर अहन् शब्द के स्थान पर रकार आदेश। | अहर्ददाति, अहर्भुङ्क्ते।

[८|२|७०] अम्नरुधरवरित्युभयथा छन्दसि - छन्दोविषय प्रयोग में अम्नस्, अधस्, अवस् शब्दों के स्थान में विकल्प से रु तथा रेफादेश होते हैं। | अग्नस् - अम्न एव, अम्नरेव। ऊधस् - ऊध एव , ऊधरेव। अवस् - अव एव , अवरेव।

[८|२|७१] भुवश्च महाव्याहृतेः - महाव्याहृत्यात्मक भुवस् शब्द के स्थान में भी विकल्प से `रु तथा रेफादेश हो जाते हैं। | भुव इत्यन्तरिक्षम्। भुवरित्यन्तरिक्षम्।

[८|२|७२] वसुस्त्रंसुध्वंस्वनडुहां दः शब्दों के अन्त में सकार के स्थान पर ढकार आदेश। | वसु विद्वद्भ्याम्, विद्वद्भिः, पपिवद्भ्याम्, पपिवद्भिः। स्त्रन्सु - उखास्त्रद्भ्याम्, उखास्त्रद्भिः। ध्वंसु - पर्णध्वद्भ्याम् पर्णध्वद्भिः। अनडुह - अण्डुद्भ्याम्, अनडुद्भिः।

[८|२|७३] तिप्यनस्तेः - अस् धातु से भिन्न धातु के निष्पन्न सकारान्त पद के स्थान में तिप् के परे दकारादेश। | असस् == असद्

[८|२|७४] सिपि धातो रुर्वा - सकारान्त पदसंज्ञक धातु के स्थान में सिप् के परे विकल्प से `रु` तथा दकारादेश। | अचकास् + स् / स् का लोप करके अचकास् == अचकाद्।

[८|२|७५] दश्च - सिप् परे होने पर दकारान्त धातु-पद के स्थान पर विकल्प से रु आदेश होता है। | विद् धातु से लङ् लकार में लङ् लकार में मध्यमपुरुष-एकवचन की विविक्षा में सिप्, शप्-लुक् और लट् आदि होकर अवेद् स् रूप बनता है।यहाँ सिप् के अप्रकृत सकार का लोप होकर अवेद् रूप बनेगा। इस स्थिति में सिप् परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से दकार के स्थान पर रु होकर अवे रु रूप बनता है।विकल्पावस्था में अवेद् के दकार के स्थान पर चर्त्व तकार होकर अवेत् रूप सिद्ध होता है।

[८|२|७६] र्वोरुपधाया दीर्घ इकः - पद के अन्त में रकारान्त और वकारान्त धातु की उपधा के इक् ( इ, उ, ऋ, ऌ) के स्थान पर दीर्घ आदेश। | पिपठिर रकारान्त धातु है, अतः पदान्त में होने के कारण प्रकृत सूत्र से उसके अपधाभूत इकार के स्थान पर दीर्घ ईकार होकर पिपठीर् रूप बनेगा।फिर अन्त्य रकार के स्थान पर विसर्ग करने से पिपठीः रूप सिद्ध होगा।

[८|२|७७] हलि च - यदि हल् (व्यञ्जन वर्ण) परे हो तो रकारान्त और वकारान्त धातु की उपधा के इक् (इ, उ, ऋ य ऌ) के स्थान पर दीर्घ आदेश होता है। | पिपुर् तस् में पिपुर् रकारान्त धातु है, अतः प्रकृत सूत्र से उसके अभावभूत उकार के स्थान पर दीर्घ ऊकार होकर पि पूर् तस् = पिपूर्तः रूप सिद्ध होता है।

[८|२|७८] उपधायां च धातु की उपधा में यदि रेफ या वकार हो और उनके परे कोई हल् वर्ण हो तो उनकी उपधा में इक् वर्ण को दीर्घादेश। | हुर्च्छा - हूर्छिता। मूर्छा - मूर्छिता। उर्वी - ऊर्विता। धुर्वी - धूर्विता।

[८|२|७९] नभकुर्छुराम् - रकारान्त और वकारान्त भ, कुर् तथा छुर् की उपधा के स्थान में दीर्घ नही होता। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-बहुवचन में में कृ धातु से झि, झकार के स्थान पर अन्ति, उ-प्रत्यय, धातु के अकार के स्थान पर उकार तथा यण् होकर कुर् व अन्ति रूप बनता है। यहाँ हलि च (८_२_७७) से कुर् की उपधा-उकार के स्थान पर दीर्घ ऊकार आदेश प्राप्त होता है, किन्तु प्रकृत-सूत्र से कुर् की उपधा में उसका निषेध हो जाता है। और कुर्वन्ति रूप सिद्ध होता है।

[८|२|८०] अदसोऽसेर्दादु दो मः - ( असेः) असान्त अर्थात् जिसके अन्त में सकार न हो ऐसे ( अदसः) अदस् शब्द के (दात्) दकार से परे वर्ण को (उ) उकार तथा ऊकार होता है। | अदौ रूप असान्त अदस् है अतः प्रकृत सूत्र से दकार से परे दीर्घ औकार के स्थान पर दीर्घ ऊकार तथा दकार को मकार होकर अमू रूप सिद्ध होता है।

[८|२|८१] एत ईद् बहुवचने - बहुत्व की विविक्षा में अदस् शब्द के दकार से परे एकार के स्थान पर ईकार आदेश तथा दकार के स्थान पर मकार आदेश। | बहुत्व में पठित अदे में प्रकृतसूत्र से एकार के स्थान पर ईकार तथा दकार के स्थान पर मकार होकर अमी रूप सिद्ध होता है।

[८|२|८२] वाक्यस्य टेः प्लुत उदात्तः - अव से इस पाद की समाप्ति तक `वाक्थरय टेः`( वाक्य के टि संज्ञक भाग के स्थान में) `प्लुतः` तथा ` उदात्तऄ का अधिकार। | वक्ष्यति - (८_२_८३) - अभिवादये देवदत्तोऽहं भोः आयुष्मानेधि दे॒व॒द॒त्त३।

[८|२|८३] प्रत्यभिवादेऽशूद्रे - शूद्र को छोड़कर द्विजाति के लिए प्रयुक्त प्रत्यभिवाद वाक्य के टि संज्ञक अंश के स्थान में प्लुत (त्रिमात्रिक) आदेश और वह उदात्त भी हो जाता है। | अभिवादये देवदत्तोऽहं भोः, आयुष्मानेधि दे॒व॒द॒त्त३।

[८|२|८४] दूराद्धूते च दूर से सम्बोधन में प्रयुक्त वाक्य की टि प्लुत् और उदात्तः होती है। | आगच्छ भो माणवक देवदत्त३आगच्छ भो माणवक यज्ञद॒त्त३। अन्त्यं वर्जयित्वा अन्यत्रैकश्रुतिर्भवति अनुदात्ततरं विहाय।

[८|२|८५] हैहेप्रयोगे हैहयोः - दूर से बुलाने वाले वाल्य के `है अथवा हे ` (सम्बोधनार्थक) शब्द से सम्पन्न होने पर `है ` तथा `हे ` शब्द के स्थान में ही प्लुतादेश तथा उसके स्थान में उदात्तादेश होता है। | है३देवदत्त, देवदत्त है३। हे३देवदत्त, देवदत्त हे३।

[८|२|८६] गुरोरनृतोनन्त्यस्याप्येकैकस्य प्राचाम् - प्राचीन आचार्यों के मत में सम्बोधनपदवर्त्ती ऋकाररहित अन्त्य तथा अनन्त्य गुरुसंज्ञक `टॎ के स्थान में क्रमशः (पर्यायेण कदाचित अन्त्य तथा कदाचित अनन्त्य के स्थान में, एक ही साथ दोनों `टॎ के स्थान में नहीं) प्लुत तथा उसे उदात्तादेश हो जाता है। | आयुष्मानेधि दे३वदत्त। देवद३त्त। देवदत्त३। य३ज्ञदत्त।यज्ञद३त्त।यज्ञदत्त३।

[८|२|८७] ओमभ्यादाने - प्रारम्भ में प्रयुक्त ओम् शब्द के `टॎ के स्थान में प्लुत आदेश तथा उसे उदात्तादेश हो जाता है। | ओ३म् अग्निमले पुरोहितम्।

[८|२|८८] ये यज्ञकर्मणि - यज्ञकर्मकप्रयुक्त `ये ` शब्द के स्थान में प्लुतत्व तथा उसके स्थान में उदात्तत्व हो जाता है। | ये३यजामहे समिधाग्निं दुवस्यत।

[८|२|८९] प्रणवष्टेः - यज्ञकर्म में प्रयुक्त मन्त्र के ( अन्त्य) `टॎ के स्थान में प्रणव ( ओम्) आदेश। | अपां रेतांसि जिन्वतो३म्, देवान् जिगाति सुम्नयो३म्।

[८|२|९०] याज्यान्तः - याज्याकाण्ड में पठित मन्त्रों के अन्तिम `टॎ के स्थान में प्लुतादेश। | स्तोमैर्विधेमाग्रया३इ। जिह्वामग्ने चकृषे हव्यवाहा३म्।

[८|२|९१] ब्रूहिप्रेष्यश्रौषड्वौषडावहानामादेः - यहकर्म में यदि से शब्द प्रयुक्त हों तो ब्रूहि, प्रेष्य, श्रौषट्, वौषट् तथा आवह शब्दों के आदि स्वर प्लुत हो जाते हैं। | ब्रूहि - अग्नयेऽनुब्रू३हि प्रेष्य - अग्नये गोमयान् प्रे३ष्य। श्रौषट् - अस्तु श्रौ३षट्। वौषट् - सोमस्याग्ने वीहि वै३षट्। आवह - अग्निमा३वह।

[८|२|९२] अग्नीत्प्रेषणे परस्य च - ` अग्निमन्धॆ ( अग्नि प्रज्वलित कर रहा है) ऐसा कहने वाले ऋत्विक का यदि प्रेषण नियोजन हो तो आदि तथा उससे पहले स्वरों के स्थान में भी प्लुतादेश। | आ३श्रा३वय। ओ२श्रा३वय।

[८|२|९३] विभाषा पृष्टप्रतिवचने हेः - प्रश्न के उत्तर में कहे वाक्य का अवयव `हॎ शब्द विकल्प से प्लुतत्व को प्राप्त करता है। | अकार्षीः कटं देवदत्त ? अकार्षं हि३। अकार्षं हि। अलावीः केदारं देवदत्त ? अलाविषं हि३। अलाविषं हि।

[८|२|९४] निगृह्रानुयोगे च - युक्तियों द्वारा दूसरे व्यक्ति के पक्ष का खण्डन कर उसे चुप कर देने के बाद पुनः उपहासादि के लिए उसी के पक्ष के प्रतिपादिक वाक्य का `टॎ उदात्त प्लुत हो जाता है। | अनित्यः शब्द इति केनचित् प्रतिज्ञातम्, तं वादिनमुपात्तिभिर्निगृह्म स्वमतात् प्रच्याव्य उपालिप्सुः सामर्षमनुयुंक्ते - अनित्यः शब्द इत्यात्थ३। अनित्यः शब्द इत्यात्थ। अद्यामावास्येत्यात्थ३। अद्यामावास्येत्यात्थ।

[८|२|९५] आम्रेडितं भर्त्सने - भर्त्सनार्थ में पर्याय से पूर्व तथा उत्तर भाग के उदात्त-प्लुतत्व की व्याख्या करनी चाहिए। | चौर चौर३, वृषल वृषल३, दस्यो दस्यो३घातयिष्यामि त्वा बन्धयिष्यामि त्वा।

[८|२|९६] अङ्गयुक्तंतिङाकाङ्क्षम् - भर्त्सन - वृत्ती वाक्य के अङ्ग शब्दान्वित साकांक्ष तिङन्त पद की `टॎ उदात्त-प्लुत हो जाता है। | अङ्ग कूज३। अङ्ग व्याहर३, इदानीं ज्ञास्यसि जाल्म।

[८|२|९७] विचार्यमाणानाम् - विचारात्मक वाक्यों का `टॎ उदात्त-प्लुत हो जाता है। | होतव्यं दीक्षितस्य गृहा३इ। तिष्ठेद्यूपा४इ। अनुप्रहरेद्यूपा३इ।

[८|२|९८] पूर्वं तु भाषायाम् - किन्तु `भाषा` में विचारात्मक वाक्यों में प्रथमपक्ष के उपस्थापक पूर्व पद की `टॎ ही प्लुत होता है। | अहिर्नु३रज्जुर्नु। लोष्टो नु३कपोतो नु।

[८|२|९९] प्रतिश्रवणे च प्रतिज्ञार्थक वाक्य का `टॎ भी प्लुत हो जाता है। | गां मे दहि भोः ! अहं ते ददामि३। देवदत्त भोः ! किमात्थ३।

[८|२|१००] अनुदात्तंप्रश्नान्ताभि-पूजितयोः - प्रश्नवाक्य के अन्त में प्रयुक्त और अभिपूजितार्थक वाक्य का `टॎ अनुदात्त-प्लुत हो जाता है। | अगम्॑३पूर्वा॑३न ग्रामा॑३न् अग्निभूता॒३इ। अगम॑३पूर्वा॑३न् ग्रामा॑३न पटा॒३उ। अभिपूजिते - शोभनः खल्वसि माणवक॒३।

[८|२|१०१] चिदिति चोपमार्थे प्रयुज्यमाने - उपमानार्थक `चित् ` शब्द से सम्पन्न वाक्य का `टॎ भी अनुदात्त-प्लुत हो जाता है। | अग्निचिद् भया॒३त्। राजचिद् भया॒३त्।

[८|२|१०२] उपरिस्विदासीदिती च - उपरिस्विदासीत इस वाक्य का `टॎ भी अनुदात्त-प्लुत हो जाता है। | अ॒धः स्वि॑दासी३त्, उ॒परिं स्वि॒दा॒सी॒३त्।

[८|२|१०३] स्वरित माम्रेडितेऽसूयासंमति-कोपकुत्सनेषु - असूया, सम्मति, कोप तथा कुत्सन के प्रतिपादक वाक्य में आम्रेडितसंज्ञक पद के परे `टॎ स्वरिर प्लुत हो जाता है। | असूयायाम् - माणवक॑३माणवक, अभिरूपक॑३अभिरूपक ! रिक्तं त आभिरूप्यम्। सम्मतै - माणवक॑३मावणक, अभिरूपक॑३अभिरूपक ! शोभनः खल्वसि। कोपे - माणवक॑ माणवक, अविनीतक॑३अविनीतक ! इदानीं ज्ञास्यसि जाल्म। कुत्सने - शाक्तीक॑३शाक्तीक, याष्टीकं३याष्टीक ! रिक्ता ते शक्तिः।

[८|२|१०४] क्षियाशीः प्रैषेषु तिङाकाङ्क्षम् - क्षिया, आशी तथा प्रैष के गम्यमान होने पर साक्षांक्ष तिङन्त पद का `टॎ स्वरित प्लुत हो जाते है। | क्षियायाम् - स्वयं रथेन याति॑३उपाध्यायां पदातिं गमयति। स्वयं ह ओदनं भुङ्कते॑३उपाध्यायं सक्तून् पाययति। आशिषि - सुताँश्च लप्सीष्ठा॑३धनं च तात। छन्दोऽध्येषीष्ठाः॑३व्याकरणं च भद्र । प्रैषे - कटं कुरु॑३ग्रामं च गच्छ। यवान् लुनीहि॑३संक्तूश्च पिब।

[८|२|१०५] अनन्त्त्यस्यापि प्रश्राख्यानयोः - प्रश्न तथा आख्यान के प्रतिपादक वाक्य के अन्त्य तथा अनन्त्य `टॎ भी स्वरित प्लुत हो जाते हैं। | प्रश्ने - अगमः॑३पूर्वा॑३न् ग्रामा॑३न् अग्निभूता॑३इ पटा॑३उ। आख्याने - अगम॑३म् पूर्वा॑३न् ग्रामा॑३न् भोः॑३।

[८|२|१०६] प्लुतावैच इदुतौ - दूर से आह्वान आदि अर्थों में इहित प्लुत यदि वाक्य घटक पद घटक ऐच् के स्थान एं हो तो उस ऐच् के अव्यवभूत इत् तथा उत् प्लुत हो जाते हैं। | ऐ३तिकायन। औ३पगव।

[८|२|१०७] एचोऽप्रगृह्रास्यादूराद्धूते पूर्वस्यार्धस्यादुत्तरस्येदुतौ - दूर से आह्वान यदि न हो तो प्रगृह्मसांक भिन्न प्लुतविषय एच् के पूर्वार्ध के स्थान में प्लुत अकारादेश तथा उत्तरार्ध के स्थान में क्रमशः इकार तथा उकार आदेश। | अगमः३पूर्वा३न् ग्रामा३न् अग्निभूता३इ पटा३उ। भद्रं करोषि माणवक३अग्निभूता३इ, पटा३उ। होतव्यं दीक्षितस्य गृहा३इ आयुष्यमानेधि अग्निभूता३इ पटा३उ। उक्षान्नाय वशान्नाय सोमपृष्ठाय वेधसे, स्तोमैर्विधेमाग्नया३इ।

[८|२|१०८] तयोर्य्वावचि संहितायाम् - अच् के परे संहिताविषय में पूर्वसूत्र विहित आदेशभूत इकार तथा उकार के स्थान में यकार तथा वकार आदेश। | अग्ना३याशा, पटा३वाशा, अग्ना३यिन्द्रिम्, पटा३वुदकम्।

[८|३|१] मतुवसो रु संबुद्धौ छन्दसि - छन्दोविषयक संहिता में मत्वन्त तथा वस्वन्त पद के स्थान में सम्बुद्धि के परे रु आदेश। | मत्वन्तस्य - इन्द्रम॑ मतुत्व इ॒ह पा॑हि॒ सोम॒म्। हरिवो मेदिनं त्वा। वस्वन्तस्य - मीढ्वस्तोकाय तनयाय मृड।

[८|३|२] अत्रानुनासिकः पूर्वस्य तु वा रु आदेश होने पर रु से पूर्व वर्ण के स्थान पर विकल्प से अनुनासिक होता है। | वक्ष्यति (समः सुटि) - सँस्स्कर्त्ता, संस्स्कर्त्ता। सँस्स्कर्त्तुम्, संस्स्कर्त्तुम्। सँस्स्कर्त्तव्यम्, संस्स्कर्त्तव्यम्।

[८|३|३] आतोऽटि नित्यम् - अट् के परे रु से पहले आकार के स्थान में नित्य अनुनासिक आदेश। | महाँ असि। म॒हाँ इन्द्रो॒ य ओज॑सा। देवाँ अच्छा दीद्यत्।

[८|३|४] अनुनासिकात्परोऽनुस्वारः अनुनासिक वाले पक्ष को छोड़कर रु से पूर्व वर्ण के पश्चात् अनुस्वार होता है। | तारु + तान् == तांरु + तान्, चक्रिरु + त्रायस्व == चक्रिंरु + त्रायस्व

[८|३|५] समः सुटि सुट् परे होने पर सम् के स्थान पर रु आदेश। | सँस्स्कर्त्ता, संस्स्कर्त्तुम्, संस्स्कर्त्तव्यम्।

[८|३|६] पुमः ख्य्यम्परे अम् परक खय् परे होने पर पुम् के स्थान पर रु आदेश। | पुंसि कामोऽस्याः पुँस्कामा, पुँस्स्कामा, पुंस्कामा, पुंस्स्कामा। पुँस्पुत्रः, पुँस्स्पुत्रः, पुंस्पुत्रः, पुंस्स्पुत्रः। पुंसः चली पुँश्चली, पुँश्श्चली, पुंश्चली, पुंश्श्चली।

[८|३|७] नश्छव्यप्रशान् अम् परक "छव" (छ्, ठ्, थ्, च्, ट्, त) परे होने पर प्रशान् शब्द को छोड़कर अन्य नकारान्त पद के स्थान पर रु आदेश। | तात् + तान् == तारु + तान्, चक्रिन् + त्रायस्व == चकृरु + त्रायस्व

[८|३|८] उभयथर्क्षु - ऋग्वैदिक प्रयोग में अम् परक छव् के परे नकारान्त पद के स्थान में विकल्प से रु तथा नकार आदेश। | तस्मिस्त्वा दधाति। तस्मिँस्त्वा दधाति। तस्मिन्त्वा दधाति।

[८|३|९] दीर्घादटि समानपादे - निमित्त (नकार) तथा नैमित्तिक ( अट्) एक ही पाद में वर्तमान में हो तो दीर्घ स्वर से पहले पदान्त नकार के स्थान में अट् के परे रु आदेश। | परिधीँरति। देवाँ अच्छा दीद्यत्। महाँ इन्द्रो य ओजमा।

[८|३|१०] नॄन्पे पकार परे होने पर नॄन् के स्थान पर विकल्प से रु आदेश। | नॄः पाहि, नॄः पाहि। नॄः प्राणीहि, नॄः प्रीणीहि।

[८|३|११] स्वतवान्पायौ - पायु शब्द के परे स्वतवान् शब्द के नकार के स्थान में रु आदेश। | भुवस्तस्य स्वतवाँः पायुरग्ने।

[८|३|१२] कानाम्रेडिते आम्रेडित परे होने पर कान् शब्द के स्थान पर रु आदेश। | कान् + कान् ==> कार् + कान् ==> कांस्कान्, काँस्कान्

[८|३|१३] ढो ढे लोपः - ढकार परे होने पर ढकार का लोप हो जाता है। | उ व द् ढ् में ढकार परे होने के कारण पूर्वर्ती ढकार का लोप होकर उ व ढ रूप बनता है।

[८|३|१४] रोरि रकार परे होने पर रकार का लोप। | पुनर् + रमते ==> पुन रमते

[८|३|१५] खरवसानयोर्विसर्जनीयः पदान्त "खर्" प्रत्याहार वर्ण के परे (बाद में) होने पर अवसान संज्ञक रकार "र्" को विसर्ग ":" हो जाते हैं। | सं र् + स्कर्ता ==> संः + स्कर्ता । राम + र् ==> रामः । अनय + स् == अनयः ।

[८|३|१६] रोःसुपि सुप् प्रत्यय परे होने पर रु के स्थान पर विसर्जनीय आदेश। | पयस् - पयःसु। सर्पिस् - सर्प्पिःषु। यशस् - यशः सु।

[८|३|१७] भोभगो अघो अपूर्वस्य योऽशि रु के पूर्व भो, भगो, अधो, या अवर्ण हो, उस रु के स्थान पर अश् परे होने पर यकार आदेश। | देवास् + इह ==> देवार् इह ==> देवाय् इह ==> देवायिह।

[८|३|१८] व्योर्लघुप्रयत्नतरः शाकटा-यनस्य - भो, भगो, अघो तथा अवर्ण से पहले पदान्त यकार तथा वकार को अश् के परे रहते शाकटायन आचार्य के मतानुसार लघुप्रयत्नतर आदेश। | भोयत्र भगोयत्र, अघोयत्र। अवर्णपूर्वस्य - कयास्ते, क आस्ते। काक आस्ते, काकयास्ते। अस्मायुद्धर, अस्मा उद्धर। असावादित्यः, असा आदित्यः। द्वावत्र, द्वा अत्र। द्वावानय, द्वा आनय।

[८|३|१९] लोपः शाकल्यस्य अश् परे होने पर अवर्णपूर्वक पदान्त यकार और वकार का लोप होता है। | हरे + इह में अय् और अव् आदेश हो हर् अय् इह == हरय् इह == हर इह == हरय् + इह == हरयिह। अन्य उदाहरण - सस् + इच्छति == स रु + इच्छति == सय् + इच्छति == स इच्छति, यस् + आगतः == य रु + आगतः == यय् + आगतः == य आगतः।

[८|३|२०] ओतो गार्ग्यस्य - अश् के परे ओकार से उत्तरवर्त्ती यकार का गार्ग्याचार्य के मतानुसार लोप। | भो अत्र, भगो अत्र, भो इदम्, भगो इदम्। नित्यार्थोऽयमारम्भः, ओकारात् परस्य वकारस्यासंभवात् यकारस्य नित्यं लोप एव भवति, लघुप्रयत्नतरादेशस्तु भवत्येव।

[८|३|२१] उञि च पदे - पदसंज्ञक उञ् के परे पदान्त वकार तथा यकार का लोप। | स उ एकविंशतिः, स उ एकाग्निः।

[८|३|२२] हलि सर्वेषाम् पदान्त यकार के पूर्व भो, भगो, अधो, या अवर्ण हो, उस पदान्त यकार का व्यंजन-वर्ण परे होने पर लोप होता है। | भोस् + हसति == भो रु + हसति == भो य् + हसति == भो हसति, भगोस् + नमस्ते == भगो रु + नमस्ते == भगो य् + नमस्ते == भगो नमस्ते, अघोस् + याहि == अघो रु + याहि == अघो य् + याहि == अघो याहि, देवास् + गच्छन्ति == देवा रु + गच्छन्ति == देवा य् + गच्छन्ति == देवा गच्छन्ति।

[८|३|२३] मोऽनुस्वारः हल् परे होने पर मकारान्त पद के स्थान पर अनुस्वार आदेश। | आक्रम् + स्यते == आक्रंस्यते, मन् + स्यते == मंस्यते।

[८|३|२४] नश्चापदान्तस्य झलि वर्गों का प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ वर्ण तथा श्, ष्, स्, या ह् परे होने पर अपदान्त नकार और मकार के स्थान पर अनुस्वार आदेश। | हरिम् + वन्दे == हरिं वन्दे, गुरुम् + नमति == गुरुं नमति, कार्यम् + कुरु == कार्यं कुरु, ग्रामम् + गच्छति == ग्रामं गच्छति।

[८|३|२५] मो राजि समः क्वौ क्किप्-प्रत्यान्त राज् धातु परे हो तो सम् के मकार के स्थान पर मकार ही आदेश। | सम् + राट् ==> सम्राट्

[८|३|२६] हे मपरे वा मकारपरक हकार परे होने पर मकार के स्थान पर विकल्प से मकार ही होता है। | किम् + ह्मलयति ==> किम्ह्मलयति

[८|३|२७] नपरे नः नपरक या नकारपरक हकार परे होने पर मकार के स्थान पर विकल्प से नकार आदेश। | किन्ह्नुते, किंह्नुते। कथन्ह्नुते, कथंह्नुते।

[८|३|२८] ङ्णोः कुक्टुक्शरि शर् परे होने पर ङकार और णकार के अवयव विकल्प से कुक् और टुक् होते हैं। | ङकारस्य - प्राङ्क्शेते, प्राङ्शेते। प्राङ्कषष्ठः, प्राङ्षष्ठ। प्राङ्क्साये, प्राङ् साये। णकारस्य - वण्ट्शेते, वण् शेते।

[८|३|२९] डः सि धुट् डकार के पश्चात सकार आने पर सकार का अवयव विकल्प से धुट् होता है। | श्वलिट्त्साये, श्वलिट्साये। मधुलिट्त्साये, मधुलिट्साये।

[८|३|३०] नश्च नकार के पश्चात सकार का अवयव विकल्प से धुट् आदेश। | सन् + सः ==> सन् ध् सः ==> सन् त् सः ==> सन्त्सः

[८|३|३१] शि तुक् शकार परे होने पर नकारान्त पद का अवयव विकल्प से तुक् आदेश। | सन् + शम्भुः ==> सन् त् शम्भुः ==> सन् च् शम्भुः ==> सञ्च् छम्भुः ==> सञ् छम्भुः ==> सञ्छम्भुः

[८|३|३२] ङमो ह्रस्वादचि ङमुण्नित्यम् ह्रस्व से परे ङम्, तदन्त पद के पश्चात स्वर-वर्ण के अवयव नित्य ङुँट्, णुँट् और नुँट् होते हैं। | ङकारान्तात् ङुट् - प्रत्यङ्ङास्ते। णकारान्ताण्णुट् - वण्णास्ते, वण्णवोचत्। नकारान्तान्नुट् - कर्वन्नास्ते, कुर्वन्नवोचत्। कृषन्नास्ते, कृषन्नवोचत्।

[८|३|३३] मय उञो वो वा यदि स्वर-वर्ण परे होने पर मय् प्रत्याहार में आने वाले वर्ण के पश्चात उञ् के स्थान पर विकल्प से वकार आदेश। | शमु अस्तु वेदिः, शम्वस्तु वेदिः। तदु अस्य परेतः, तद्वस्य परेतः। किमु आवपनम्, किम्वावपनम्।

[८|३|३४] विसर्जनीयस्य सः खर् परे होने पर विसर्ग के स्थान पर सकार आदेश। | चक्रिँः + त्रायस्व ==> चक्रिँस् + त्रायस्व ==> चक्रिँस्त्रायस्व। तांः + तान् == तांस्तान्

[८|३|३५] शर्परे विसर्जनीयः - शर हो पर में जिसके ऐसे खर् के परे रहते विसर्जनीय के स्थान में विसर्जनीय आदेश। | शशः क्षुरम्, पुरुषः क्षुरम्। अद्भिः प्सातम्, वासः क्षौमम्। पुरुषः त्सरुः। घनाघनः क्षोभणश्चर्षणीनाम्

[८|३|३६] वा शरि शर् परे होने पर विसर्ग के स्थान पर विकल्प से विसर्ग ही होता है। | हरिः + शेते == हरिस् + शेते == हरिश्शेते / हरिः शेते, बालकः + श्यानः == बालकस् + शयानः == बालकश्शयानः / बालकः शयानः, रामः + षष्ठः == रामस् + षष्ठः == रामष्षष्ठः / रामः षष्ठः।

[८|३|३७] कुप्वोः कपौच कवर्ग और पवर्ग परे होने पर विसर्ग के स्थान पर जिह्णामूलीय और उपध्मानीय आदेश। | वृक्ष करोति, वृक्षः करोति। वृक्ष खनति, वृक्षः, खनति। वृक्ष पचति, वृक्षः पचति। वृक्ष फलति, वृक्षः फलति।

[८|३|३८] सोऽपदादौ - पद के अन्त में न आने वाले कवर्ग तथा पवर्ग के परे विसर्जनीय के स्थान में सकारादेश। | पयस्पाशम्, यशस्पाशम्। पयस्कल्पम्, यशस्कल्पम्। पयस्कम्, यशस्कम्। पयस्काम्यति, यशस्काम्यति।

[८|३|३९] इणः षः - अपदादि कवर्ग तथा पवर्ग के परे रहते इण् से पहले विसर्ग के स्थान में षकारादेश। | सर्पिष्पाशम्, यजुष्पाशम्। सर्पिष्कल्पम्, यजुष्कल्पम् । सर्पिष्कम्, यजुष्कम्। सर्पिष्काम्यति, यजुष्काम्यति।

[८|३|४०] नमस्पुरसोर्गत्योः - कवर्ग तथा पवर्ग के परे रहते गति संज्ञक नमस् तथा पुरस् शब्दों के सम्बन्धी ( अवयवभूत) विसर्ग के स्थान में सकारादेश। | नमस्कर्त्ता, नमस्कर्त्तुम्, नमस्कर्त्तव्यम्। पुरस्कर्त्ता, पुरस्कर्त्तुम्, पुरस्कर्त्तव्यम्।

[८|३|४१] इदुदुपधस्य चाप्रत्ययस्य - इकार अथवा उकार हो उपधा में जिसकी ऐसे प्रत्यय स्थानिकभिन्न विसर्ग के स्थान में षकारादेश। | निस् - निष्कृतम्, निष्पीतम्। दुस् - दुष्कृतम्, दुष्पीतम्। बहिस् - बहिष्कृतम्, बहिष्पीतम्। आविस् - आविष्कृतम्, आविष्पीतम्। चतुर् - चतुष्कृतम्, चतुष्कपालम्, चतुष्कण्टकम्, चतुष्कलम्। प्रादुस् - प्रादुष्कृतम्, प्रादुष्पीतम्।

[८|३|४२] तिरसोऽन्यतरस्याम् - कवर्ग तथा पवर्ग के परे रहते तिरस् शब्द के विसर्जनीय के स्थान में विकल्प से सकारादेश। | तिरस्कर्त्ता, तिरस्कर्त्तुम्, तिरस्कर्त्तव्यम्। तिरःकर्त्ता, तिरःकर्त्ता, तिरःकर्त्तुम्, तिरःकर्त्तव्यम्।

[८|३|४३] द्विस्त्रिश्चतुरिति कृत्वोऽर्थे - कवर्ग तथा पवर्ग के परे रहते कुत्वसुच् प्रत्यय के अर्थ (वार) का प्रातिपादन करने वाले द्विस, त्रिस् तथा चतुर् शब्दों के विसर्जनीय के स्थान में विकल्प से षकारादेश। | द्विष्करोति, द्विः करोति। त्रिष्करोति, त्रिः, करोति। चतुष्करोति, चतुः करोति। द्विष्पचति, द्विःपचति। त्रिष्पचति, त्रिःपचति। चतुष्पचति, चतुःपचति।

[८|३|४४] इसुसोः सामर्थ्ये - सामर्थ्य के गम्यमान होने पर कवर्ग तथा पवर्ग के परे रहते इस् तथा उस् शब्दों के विसर्ग के स्थान में विकल्प से षकारादेश। | सपिष्करोति, सर्पिः करोति। यजुष्करोति यजुः करोति।

[८|३|४५] नित्यं समासेऽनुत्तरपदस्थस्य - कवर्ग तथा पवर्ग के परे रहते समासविषय में इस् तथा उस् शब्दों के उत्तरपद में न रहने वाले, विसर्जनीय के स्थान में नित्य षत्व हो जाता है। | सर्पिषः कुण्डिका - सर्पिष्कुण्डिका, धनुष्कपालम्, सर्पिष्पानम्, धनुष्फलम्।

[८|३|४६] अतः कृकमिकंसकुम्भपात्रकु-शाकर्णीष्वनव्ययस्य - कृ धातु, कमि (कम् धातु), कंस, कुम्भ, पात्र, कुशा और कर्णी परे होने पर अकार के बाद समास में अनुत्तरपदस्थ विसर्जनीय यदि अव्यय का न हो तो उसके स्थान पर नित्य सकार होता है। | यशः कर में कृ धातु परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से अकारोत्तरवर्ती विसर्ग के स्थान पर सकार होकर यशस्कर रूप बनेगा। तब स्त्रिलिङ्ग में टिड्ढाणञ्द्वयसज्दघ्नञ्मात्रच्तयप्ठक्ठञ्क्वरपः (४_१_१५) से ङीप् (ई) होकर यशस्कर ई रूप बनने पर यचिभम् (१_४_१८) से यशस्कर के भ संज्ञा होने के कारण यस्येति च (६_४_१४८) से अन्त्य अकार का लोप होकर यशस्कर् ई = यशस्करी रूप बनता है।

[८|३|४७] अधः शिरसी पदे - समास विषय में पद के परे रहते उत्तरपद के अनवयव अधस् तथा शिरस् शब्दों के विसर्ग के स्थान में सकारादेश। | अधस्पदम्, शिरस्पदम्। अधस्पदी, शिरस्पदी।

[८|३|४८] कस्कादिषु च - कस्कादिगण के शब्दों में अपदादि कवर्ग और पवर्ग होने पर विसर्जनीय (विसर्ग) के स्थान पर सकार आदेश होता है। | व्यूढ़ोरः क कस्कादि गण में आता है। अतः कवर्ग परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से विसर्जनीय के स्थान पर सकार हो व्यूढ़ोरस्क रूप बनने पर विभक्ति-कार्य होकर व्यूढ़ोरस्कः रूप सिद्ध होता है।

[८|३|४९] छन्दसि वाऽप्राम्रेडितयोः - कवर्ग तथा पवर्ग के परे रहते छन्दोविषय प्रयोग में विसर्जनीय के स्थान में विकल्प से विकल्प से सकारादेश, किन्तु `प्रऄ शब्द अथवा आम्रेडितसंज्ञक शब्द के परे रहते यह आदेश नहीं होता। | अयः पात्रम्, अयस्पात्रम्। विश्वतःपात्रम्, विश्वतस्पात्रम्। उरुणः कारः, उरुणस्कारः।

[८|३|५०] कः करत्करतिकृधिकृतेष्वनदितेः - छन्दोविषय प्रयोग में अदिति शब्द से भिन्न शब्दों के विसर्जनीय के स्थान में कः करत्, करति, कृधि एवम् कृत शब्दों के परे रहते सकारादेश। | कः - विश्वतस्कः। करत् - विश्वतस्करत्। करति - पयस्यकरति। कृधि - उ॒रुण॑स्कृधि। कृत - सदस्कृतम्।

[८|३|५१] पञ्चम्याः परावध्यर्थे - अधि के अर्थ (ऊपर) में वर्त्तमान परि शब्द के परे छन्दोविषय में पञ्चमी के विसर्ग के स्थान में सकारादेश। | दिवस्परि॑ प्रथ॒मं ज॑ज्ञे। अग्निर्हिमवतस्परि। दिवस्परि, महस्परि।

[८|३|५२] पातौ च बहुलम् - `पा` धातु के परे भी छन्दोविषय में पञ्चमी के विसर्ग के स्थान में बाहुल्येन सकारादेश। | दिवस्पातु। राज्ञस्पातु। बहुलग्रहणात् न च भवति - परिषदः पातु।

[८|३|५३] षष्ठ्याः पतिपुत्रपृष्ठपारपद-पयस्पोषेषु - छन्दोविषय में पति, पुत्र, पृष्ट, पार, पद, पयस् और पोष शब्दों के परे रहते षष्ठी के विसर्जनीय के स्थान में सकारादेश। | पति - वा॒चस्पतिं॑ वि॒श्वक॑र्माणमू॒तये॑। पुत्र - दि॒वस्पु॒त्राय॒ सूर्या॑य। पृष्ठ - दि॒वस्पृ॒ष्ठे धाव॑मानं सुप॒र्णम्। पार - अग॑न्म॒ तम॑सस्पा॒रम्। पद - इडस्प॒दे समि६ध्यसे॒। पयस् - सूर्यं चक्षुदवस्पयः। पोष - रा॒यस्पोषं॒ यज॑मानेषु धत्तम्।

[८|३|५४] इडाया वा - इडा शब्द से विहित षष्ठी के विसर्जनीय के स्थान में पति आदि शब्दों के परे रहते भी छन्दोविषय में विकल्प से सकारादेश। | इडायास्पतिः, इडायाःपतिः। इडायास्पुत्रः, इडायाः पुत्रः। इडायास्पृष्ठम्, इडायाः पृष्ठम्। इडायास्पारम्, इडायाः पारम्। इडायास्पदम्, इडायाः पदम्। इडायास्पयः, इडायाः पयः। इडायास्पोषम्, इडायाः पोषम्।

[८|३|५५] अपदान्तस्य मूर्धन्यः - अब से ` अपदान्त को मूर्धन्य आदेश। इस विषय का अधिकार समझना चाहिए। | वक्ष्यति -(८_३_५९)-सिषेच, सुष्वाप्। अग्निषु, वायुषु।

[८|३|५६] सहेः साडः सः साड् रूप सह् धातु के सकार के स्थान पर मूर्धन्य आदेश। | जलाषाट्, तुराषाट्, पृतनाषाट्।

[८|३|५७] इण्कोः - अब से ` इण् तथा कवर्ग से पहले ` का अधिकार। | सिषेच, सुष्वाप, अग्निषु, वायुषु, कर्तृषु, गीर्षु, वाक्षु, त्वक्षु।

[८|३|५८] नुम्विसर्जनीयशर्व्यवायेऽपि - नुम् आगम्, विसर्ग अथवा श्, ष्, स् इनमें से किसी एक का व्यवधान होने पर भी अ, इ, उ, या कवर्ग से परे सकार के स्थान पर मूर्धन्य आदेश।सकार को मूर्धन्य षकार ही होगा। | पिपठी स् सु में सकार का व्यवधान और पिपठः सु में विसर्ग का व्यवधान होने पर भी इण्-ईकार से परे होने के कारण दोनो जगह सकार को मूर्धन्य षकार हो जाता है।

[८|३|५९] आदेशप्रत्ययोः " इण्" प्रत्याहार व क-वर्ग के बाद (परे) अपदान्त "स्" सकार (जो कि आदेश रूप हो या आदेश का अवयव हो) को "ष्" (मूर्धन्य) आदेश होता है। | रामे + सु ==> रामेषु {सुबन्त प्रत्यय अपदान्त "स्" के पहले " ए"} । पठि + स्यति ==> पठिष्यति {तिङ् प्रत्यय अपदान्त "स्" के पहले " इ"}

[८|३|६०] शासिवसिघसीनां च - कवर्ग, स्वर-वर्ण अथवा ह, य, व, र, ल के पश्चात् यदि शास्, वस् और घस् धातुएँ आती हैं तो उनका सकार मूर्धन्य षकार ही आदेश होता है। | अद् धातु से लिट् लकार में प्रथमपुरुष द्विवचन की विविक्षा में तस् प्रत्यय तथा पुनः उसके स्थान पर अतुस्, घसॢ्-आदेश और अभ्यास-कार्य आदि होकर ज, घ्, स् अतुस् रूप बनता है। इस स्थिति में कवर्ग-धकार से घस् परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से उसके सकार के स्थान पर षकार होकर ज् घ् ष् अतुस् रूप बनेगा। यहाँ धकार के स्थान पर चर्त्व-ककार और क् ष् के संयोग से क्षकार आदि होकर जक्षतुः रूप सिद्ध होता है।

[८|३|६१] स्तौतिण्योरेव षण्यभ्यासात् - कृतषत्व सन् प्रत्यय के परे `स्तु` तथा ण्यन्त धातुओं के अभ्यासभूत इण् से पहले सकार के स्थान में षकारादेश। | तुष्टूषति। ण्यन्तानाम् - सिषेचयिषति। सिषञ्जयिषति, सुष्वापयिषति।

[८|३|६२] सः स्विदिस्वदिसहीनां च - कृतषत्व सन् प्रत्यय के परे ण्यन्त `स्विदऄ, `स्वदऄ तथा `सहऄ धातुओं के अभ्यासोत्तवर्त्ती सकार को सकारादेश। | सिस्वेदयिषति। सिस्वादयिषति। सिसाहयिषति।

[८|३|६३] प्राक्सितादड्व्यवायेऽपि - सित्०शब्द से उल्लेख से पूर्व तक जितने मूर्धन्यादेश विहित होने वाले हैं वे अट् के व्यवधान होने अथवा न होने पर भी होते हैं। | वक्ष्यति - (८_३_६५) - इति षत्वं तत्राड्व्यवायेऽपि - अभिषुणोति, परिषुणोति, विषुणोति, निषुणोति।

[८|३|६४] स्थादिष्वभ्यासेन चाभ्यासस्य - सित०शब्द के उल्लेख से पूर्व तथा `स्था`, `सेनयऄ, `सेधऄ, `सिच् `, `सञ्जऄ तथा `स्वञ्जऄ धातुओं के सकार के स्थान में अभ्यास के व्यवधान होने पर भी तथा अभ्यास के सकार के स्थान में भी षकारादेश। | अभितष्ठौ, परितष्ठौ। अभिषिषेणयिषति, परिषिषेणयिषति। अभिषिषिक्षति, परिषिषिक्षति।

[८|३|६५] उपसर्गात् सुनोति-सुवति-स्यति-स्तौति-स्तोभति-स्था-सेनय-सेध-सिच-सञ्ज-स्वञ्जाम् - उपसर्गस्थ निमित्त ( इण् तथा कवर्ग) से पहले `सु` आदि धातुओं के सकार के स्थान में षकारादेश। | सुनोति - अभिषुणोति, परिषुणोति। अभ्यषुणोत्, पर्यषुणोत्। सुवति - अभिषुवति, परिषुवतिअभ्यषुवत्, पर्यषुवत्। स्यति - अभिष्यति, परिष्यति। अभ्यष्यत्, पर्यष्यत्। स्तौति - अभिष्टौति, परिष्टौति। अभ्यष्टौत्, पर्यष्टौत् आदि ।

[८|३|६६] सदिरप्रतेः - `प्रतॎ से भिन्न उपसर्ग में वर्तमान निमित्त से पहले `सद् ` धातु के सकार के स्थान में षकारादेश। | निषीदति, विषीदति। न्यषीदत्, व्यषीदत्। निषसाद, विषसाद।

[८|३|६७] स्तन्भेः - उपसर्ग के पश्चात् स्तम्भ धातु के अपदान्त सकार के स्थान पर मूर्धन्य आदेश होता है। | वि अ स्तन्भ् अ ति में उपसर्ग वि के बाद आने के कारण प्रकृत सूत्र से स्तन्भ के सकार के स्थान पर षकार होकर वि अ ष् तन्भ् अ ति रूप बनता है। इस स्थिति में नकार और इकार-लोप होकर वि अ ष् त भ् अ त् रूप बनता है। तब ष्टुत्व अ र यणादेश होकर व्यष्टभत् रूप सिद्ध होता है। अङ् के अभाव-पक्ष में सिच्, इट् ईट् और सिच्-लोप आदि होकर अस्तम्भीत रूप बनता है

[८|३|६८] अवाच्चालम्बनाविदूर्ययोः - धात्वर्थ आश्रयण ( आलम्बन) तथा निकटना (आदिदूर्य) होने पर ` अवऄ उपसर्ग से परे `स्तम्भु` धातु से सकार के स्थान में षकारादेश। | आलम्बने - अवष्टभ्यास्ते। अवष्टभ्य तिष्ठति। आविदूर्ये - अवष्टब्धा सेना, अवष्टब्धा शरत्।

[८|३|६९] वेश्च स्वनो भोजने - `वॎ तथा ` अवऄ उपसर्गों से परे भोजनार्थक `स्वनऄ धातु के सकार के स्थान में षकारादेश। | विष्वणति। व्यष्वणत्। विषष्वाण। अवात् - अवष्वणति। अवाष्वणत्। अवषष्वाण।

[८|३|७०] परिनिविभ्यः सेवसितसय-सिवुसहसुट्स्तुस्वञ्जाम् - `परि `, `नॎ तथा `वॎ उपसर्गों से परे `सेवऄ, `सित्, `सयऄ, `सिबु`, `सहऄ, `सुट् `, `स्तु` तथा `स्वञ्जऄ धातुओं के सकार के स्थान में षकारादेश। | सेव - परिषेवते, निषेवते, विषेवते। पर्यषेवत, न्यषेवत, व्यषेवत।परिषिषेविषते, निषिषेविषते, विषिषेविषते। सित - परिषितः, निषितः, विषितः। सय - परिषयः, निषयः, विषयः आदि।

[८|३|७१] सिवादीनां वाड्व्यवायेपि| - `सिवु` से `स्वञ्जऄ तक के धातुओं के उक्त उपसर्गों से पहले सकार के स्थान में अड्व्यवधान होने पर भी विकल्प से षकारादेश।

[८|३|७२] अनु-विपर्यभि-निभ्यः स्यन्दतेरप्राणिषु - ` अनु`, `वॎ, `परि `, ` अभि ` तथा `नॎ उपसर्गों से पहले अप्राणिवृत्ती `स्यन्दऄ धातु के सकार के स्थान में विकल्प से षकारादेश। | अनुष्यन्दते, विष्यन्दते, परिष्यन्दते, अभिष्यन्दते, निष्यन्दते। पक्षे अनुस्यन्दते, विस्यन्दते, परिस्यन्दते, अभिस्यन्दते, निस्यन्दते।

[८|३|७३] वेः स्कन्दे रनिष्ठायाम् - धातु निष्ठा प्रत्यय न हो तो `वॎ उपसर्ग से परे `स्कन्दऄ धातु के सकार के स्थान में विकल्प से मूर्धन्यादेश। | विष्कन्ता, विष्कन्तुम्, विष्कन्तव्यम्। पक्षे - विस्कन्ता, विस्कन्तुम्, विस्कन्तव्यम्।

[८|३|७४] परेश्च - `परि ` उपसर्ग से पहले `स्कन्दऄ धातु के सकार के स्थान में भी विकल्प से षकारादेश। | परिष्कन्ता, परिष्कन्तुम्, परिष्कन्तव्यम्। पक्षे - परिस्कन्ता, परिस्कन्तुम्, परिस्कन्तव्यम्। परिष्कण्णः, परिस्कन्नः।

[८|३|७५] परिस्कन्दः प्राच्यभरतेषु| - प्राच्यभरतदेशीय प्रयोग में `परि ` उपसर्ग से विशिष्ट `स्कन्दऄ धातु के सकार के स्थान में निष्ठा प्रत्यय के परे रहते षकारादेश नहीं होता।

[८|३|७६] स्फुरतिस्फुलत्योर्निर्निविभ्यः - निर्, नि और वि के बाद स्फुर और स्फुल् - इन दो धातुओं के अपदान्त सकार के स्थान पर विकल्प से मूर्धन्य आदेश। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन नि उपसर्गपूर्वक स्फुर् धातु से तिप् और श होकर नि स्फुर् अ ति रूप बनता है। यहाँ नि के बाद आने के कारण प्रकृत सूत्र से स्फुर के सकार के स्थान पर षकार होकर निष् फुर् अ ति ==> निष्फुरति रूप सिद्ध होता है। षकार के अभाव-पक्ष में निस्फुरति रूप बनता है

[८|३|७७] वेः स्कभ्नातेर्नित्यम् - `वॎ उपसर्ग से विशिष्ट `स्कम्भु` धातु के सकार के स्थान में नित्य मूर्धन्यादेश। | विष्कभ्नाति विष्कम्भिता, विष्कम्भितुम्, विष्कम्भितव्यम्।

[८|३|७८] इणः षीध्वंलुङ्-लिटां धोऽङ्गात् - इणन्त अङ्ग ( जिसके अन्त में इ, उ, ऋ, ऌ, ए, ओ, ऐ, औ, ह्, य, व, र या ल हो) से परे षीध्वं लुङ् और लिट् के धकार के स्थान पर मूर्धन्य होता है। | लिट् लकार के मध्यमपुरुष बहुवचन में एध् धातु से ध्वम् आदि होकर एधाञ्चकृध्वे रूप बनता है।यहाँ एधाञ्चकृ अङ्ग के अन्त में इण्- ऋकार है, और उससे परे लिट् ध्वम् का धकार है। अतः प्रकृत सूत्र से धकार के स्थान पर ढकार होकर एधाञ्चकृढवे रूप सिद्ध होता है।

[८|३|७९] विभाषेटः - इण् के पश्चात् इट् से परे होने पर षीध्वं, लुङ् और लिट् के धकार के स्थान पर विकल्प से मूर्धन्य (ढकार) आदेश। | लिट् लकार के मध्यमपुरुष बहुवचन में कमि धातु से ध्वम् आदि होकर कामयिषीध्वम् रूप बनता है। इस स्थिति में इण्-यकार से परे इट् (इकार) है, अतः उससे परे षीध्वम् के धकार को मूर्धन्य-ढकार होकर कामयिषीढ्वम् रूप सिद्ध होता है। अभावपक्ष में कामयिषीध्वम् ही रहेगा।

[८|३|८०] समासे ऽङ्गुलेः सङ्गः - समास में अङ्गुलि शब्द से परे `सङ्गऄ शब्द के सकार के स्थान में मूर्धन्यादेश। | अङ्गुलेः + सङ्गः == अङ्गुलिषङ्गः।अङ्गुलिषङ्गा यवागूः। अङ्गुलिषङ्गो गाः सादयति।

[८|३|८१] भीरोः स्थानम् - भीरु शब्द से परे स्थान शब्द के सकार को समास में मूर्धन्यादेश। | भीरोः + स्थानम् == भीरुष्ठानम्।

[८|३|८२] अग्नेः स्तुत्स्तोमसोमाः - समास में अग्नि शब्द से पहले स्तुत्, स्तोम एवं सोम शब्दों के सकार के स्थान में मूर्द्जन्यादेश। | अग्निष्टुत्, अग्निष्टोमः, अग्नीषोमौ।

[८|३|८३] ज्योतिरायुषः स्तोमः - समास में ज्योतिस् तथा आयुस् शब्दों से पहले स्तोम शब्द के सकार के स्थान में मूर्धन्यादेश। | ज्योतिषः + स्तोमः == ज्योतिष्टोमः, आयुष्ष्टोमः। ज्योतिःष्टोमः, आयुःष्टोम।

[८|३|८४] मातृपितृभ्यां स्वसा - समास में मातृ तथा पितृ शब्दों से पहले स्वसृ शब्द के सकार के स्थान में मूर्धन्यादेश। | मातृष्वसा, पितृष्वसा।

[८|३|८५] मातुः पितुर्भ्यामन्यतरस्याम् - समास में ही यदि स्वसृ शब्द मातुर् तथा पितुर् शब्दों से पहले हो तो उसके सकार को विकल्प से मूर्धन्यादेश। | मातुःष्वसा, मातुःस्वसा। पितुःष्वसा, पितुःस्वसा।

[८|३|८६] अभिनिसः स्तनः शब्दसंज्ञायाम् - यदि समुदाय शब्द के प्रकार विशेष का वाचक हो तो ` अभि ` अथवा `निस् ` उपसर्ग से परे `स्तनऄ धातु के सकार के स्थान में विकल्प से मूर्धन्यादेश। | अभिनिष्टानो वर्णः, अभिनिष्टानो विसर्जनीयः। पक्षे - अभिनिस्तानो वर्णः, अभिनिस्तानो विसर्जनीयः।

[८|३|८७] उपसर्गप्रादुर्भ्यामस्तिर्यच्परः - इणन्त उपसर्ग (जिसके अन्त में इ, उ, ऋ, ऌ, ए, ओ, ऐ, औ, ह, य, व, र या ल हो) और प्रादुस् (सान्त अव्यय) से परे यदि यकार और अचपरक् (जिसके बाद में यकार का कोई स्वर हो) अस् धातु हो, तो उसके सकार के स्थान पर षकार आदेश। | नि उपसर्ग से परे अस् धातु से विधिलिङ् के प्रथमपुरुष-एकवचन में तिबादि प्रत्यय होकर नि स्यात् रूप बनता है। यहाँ नि उपसर्ग इणन्त है और स्यात् में अस् धातु से परे यकार भी है। अतः प्रकृत सूत्र से सकार के स्थान पर षकार होकर नि + ष् + यात् ==> निष्यात् रूप सिद्ध होता है।

[८|३|८८] सुविनिर्दुर्भ्यः सुपिसूतिसमाः - `सु`, `वॎ, `निर् ` अथवा `दुर् ` उपसर्गों से पहले `स्वप् ` तथा `समऄ के सकार के स्थान में मूर्धन्यादेश। | सुषुप्तः, विषुप्तः, निःषुप्तः, दुःषुप्तः। सूति - सुषूतिः, विषूतिः, निःषूतिः, दुःषूतिः। सम - सुषमम्, विषमम्, निःषमम्, दुःषमम्।

[८|३|८९] निनदीभ्यां स्नातेः कौशले - समुदाय से कौशल की प्रतीति होने पर `नॎ अथवा नदी शब्द से परे `स्ना` धातु के सकार के स्थान में मूर्धन्यादेश। | निष्णातः, कटकरणे, निष्णातो रज्जुवर्त्तने। नद्यां स्नातीति नदीष्णः।

[८|३|९०] सूत्रं प्रतिष्णातम् - सूत्र (तन्तु) अर्थ में `प्रतॎ उपसर्ग से पहले `स्ना` धातु के सकार के स्थान में षत्व का निपातन। | प्रतिष्णातं सूत्रम्।

[८|३|९१] कपिष्ठलो गोत्रे - गोत्र अर्थ में कपि शब्दोत्तरवर्त्ती स्थल शब्द के सकार के स्थान में मूर्धन्यादेश का निपातन। | कपिष्ठलो नाम यस्य कापिष्ठलिः पुत्रः।

[८|३|९२] प्रष्ठोऽग्रगामिनि - अग्रगामी अर्थ में प्रष्ठ शब्द का ( अर्थात् `प्रऄ उपसर्ग से परवर्ती अधिकरणार्थक क प्रत्ययान्त `स्था` धातु के सकार के स्थान में मूर्धन्यादेश का) निपातन है। | प्रतिष्ठत इति प्रष्ठोऽश्वः।

[८|३|९३] वृक्षासनयोर्विष्टरः - वृक्ष तथा आसन अर्थों में विष्टर शब्द ( वि + स्तॄ + अच् = विस्तर, मूर्धन्यादेश = विष्टर) का निपातन है। | विष्टरो वृक्षः, विष्टरमासनम्।

[८|३|९४] छन्दोनाम्नि च - वृहती आदि छन्दो के नाम के रूप में विष्टार शब्द का भी निपातन। | विष्टारपङ्क्तिः छन्दः, विष्टारबृहती छन्दः।

[८|३|९५] गवियुधिभ्यां स्थिरः - गवि अथवा युधि शब्द से पहले `स्थिरऄ शब्द के सकार के स्थान में मूर्धन्यादेश। | गवि तिष्ठतीति गविष्ठिरः। युधिष्ठिरः।

[८|३|९६] विकुशमिपरिभ्यः स्थलम् - `वॎ, `कु`, `शमॎ तथा `परि ` शब्द से पहले स्थलशब्दावयव सकार के स्थान में मूर्धन्यादेश। | विष्ठलम्, कुष्ठलम्, शमीनां, स्थलम् = शमिष्ठलम्, परिष्ठलम्।

[८|३|९७] अम्बाम्ब-गो-भूमि-सव्याप-द्वित्रिकुशेकु-शङ्क्वङ्गु-मञ्जि-पुञ्जि-परमे-बर्हिर्दिव्यग्निभ्यः-स्थः - अम्ब से लेकर अग्नि शब्द के किसी भी सूत्रपरिगणित शब्द से पहले `स्थऄ शब्द के सकार के स्थान में मूर्धन्यादेश। | अम्बष्ठः, आम्बष्ठः, गोष्ठः, भूमिष्ठः, सव्येष्ठः, अपष्ठः, द्विष्ठः, त्रिष्ठः, कुष्ठः, शेकुष्ठः, शङ्कुष्ठः, अङ्गुष्ठः, मञ्जिष्ठः, पुञ्जिष्ठः, परमेष्ठः, बर्हिष्ठः, दिविष्ठः, अग्निष्ठः।

[८|३|९८] सुषामादिषु च सुषामा आदि शब्दों की सिद्धि के लिए सकार के स्थान में षकारादेश। | शोभनं साम यस्यासौ सुषामा ब्राह्मणाः, निष्षामा, दुष्षामा।

[८|३|९९] एति संज्ञायामगात् - यदि समुदाय संज्ञा शब्द हो तो गकार से पर न आनेवाले एकार हो पर में जिसके ऐसे सकार के स्थान में मूर्धन्यादेश हो जाता है। | हरयः सेना अस्य == हरिषेणः, वारिषेण, जानुषेणी।

[८|३|१००] नक्षत्राद्वा - उक्त परिस्थितियों में भी नक्षत्रवाचक से पहले सकार के स्थान में विकल्प से मूर्धन्यादेश। | रोहिणीषेणः, रोहिणीसेनः। भरणीषेणः, भरणीसेनः।

[८|३|१०१] ह्रस्वात्तादौ तद्धिते - तकारादि तद्धित प्रत्यय के परे रहते ह्रस्व से पहले सकार के स्थान में मूर्धन्यादेश। | तरप् - सर्पिष्टरम्, यजुष्टरम्। तमप् - सर्पिष्टमम्, यजुष्टमम्। तय - चतुष्टये ब्राह्मणानां निकेताः। तव सर्पिष्ट्वम्, यजुष्ट्वम्। तल् - सपिष्टा, यजुष्टा। तसि - सर्पिष्टः, यजुष्टः। त्यप् - आविष्टयो वर्द्धते।

[८|३|१०२] निसस्तपतावनासेवने - धात्वर्थ आसेवन न होने पर `तपतॎ शब्द के परे रहते `निस् ` के सकार के स्थान में मूर्धन्यादेश। | निष्टपति सुवर्णम्।

[८|३|१०३] युष्मत्तत्ततक्षुष्वन्तः पादम् - सकार पाद के अन्त में न आया हो तो युष्मद् शब्द के स्थान में हुए तकारादि आदेश (त्व, स्वा, ते तथा तव), तकारादि तत् और ततक्षुस् शब्दों के परे सकार के मूर्धन्यादेश हो जाता है। | युष्मद् - अग्निष्ट्वं नामासीत्। अग्निष्ट्वा वर्द्धयामसि। अग्निष्टे विश्वमानय। अप्स्वग्ने सधिष्टव। तत् - अ॒ग्निष्टद्विश्व॒मापृ६णाति। ततक्षुस् - द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः।

[८|३|१०४] यजुष्येकेषाम् - यजुर्वेद सम्बन्धी प्रयोग में युष्मत्, तत् और ततक्षुस् शब्दों के परे रहते कुछ ही आचार्यों के अनुसार सकार के स्थान में षकारादेश। | अर्चिभिष्ट्वम्, अर्चिभिस्त्वम्। अग्निष्टेऽग्रम्, अग्निस्तेऽग्रम्। अग्निष्टत्, अग्निस्तत्। अर्चिर्भिष्टतक्षुः अर्चिर्भिस्ततक्षुः।

[८|३|१०५] स्तुतस्तोमयोश्छन्दसि - वैदिक प्रयोग होने पर स्तुत तथा स्तोम शब्दों के परे भी सकार के स्थान में षकारादेश। | त्रिभिःष्टुतस्य, त्रिभिःस्तुतस्य। गोष्टोमं षोडधिनम्, गोस्तोमं षोडशिनम्।

[८|३|१०६] पूर्वपदात् - प्रयोग छन्दोविषयक होने पर पूर्वपदस्थ निमित्त ( इण तथा क्वर्ग) से पहले सकार के स्थान में षकारादेश। | द्विषन्धिः, त्रिषन्धिः, मधुष्ठानम्, द्विषाहस्त्रं चिन्वीत। पक्षे - द्विसन्धिः, त्रिसन्धिः, मधुस्थानम्, द्विसाहस्त्रं चिन्वीत।

[८|३|१०७] सुञः - पूर्वदस्थ निमित्त से पहले निपातसंज्ञक `सुञ् ` के सकार के स्थान में , प्रयोग के छान्दस होने पर षकारादेश। | अ॒भीषणुः॒ सखी॑नाम्। ऊर्ध्व ऊ षुणः।

[८|३|१०८] सनोतेरनः - अनकारान्त `सन् ` धातु के सकार के स्थान में षकारादेश। | गोषाः नृषाः।

[८|३|१०९] सहेः पृतनर्ताभ्यां च - पृतना तथा ऋत शब्दों से पहले `सहऄ धातु के सकार के स्थान में षकारादेश। | पृतानाषाहम्, ऋताषाहम्।

[८|३|११०] नरपरसृपिसृजिस्पृशिस्पृहिस-वनादीनाम् - रेफ हो पर में जिसके ऐसे सकार, `सृपॎ, `सृजॎ, `स्पृशॎ, `स्पृहॎ तथा सवन आदि शब्दों कें अवयव सकार के स्थान में षकारादेश। | रपरः - विस्त्रंसिकायाः काण्डं जुहोति। विस्त्रब्धः कथयति। सृपि - पुरा क्रूरस्य विसृपः। सृजि - वाचे विसर्जनात्। स्पृशि - दिविस्पृशम्। स्पृहि - निस्पृहं कथयति। सवनादीनाम् - सवने सवने सूते सूते, सोमे सोमे।

[८|३|१११] सात्पदाद्योः - `सात् ` प्रत्यय के सकार तथा पद के आदि (पदादि) सकार के स्थान पर मूर्धन्य षकार नहीं होता। | ` अग्नि सात् ` में `सात् ` प्रत्यय का सकार होने के कारण ` आदेशप्रत्यययोः ` (८_३_५९) से प्राप्त षत्व का प्रकृत सूत्र द्वारा निषेध हो जाता है। तब ` अग्निसात् ` रूप सिद्ध होता है। यह भवति के साथ युक्त होकर ` अग्निसाद्भवतॎ के रूप में प्रयुक्त होता है।

[८|३|११२] सिचो यङि - यङ् प्रत्यय के परे सिच् के सकार के स्थान में मूर्धन्यादेश नहीं होता। | सेसिच्यते अभिसेसिच्यते।

[८|३|११३] सेधतेर्गतौ - गत्यर्थक `सिध् ` धातु के सकार को षकारादेश नहीं होता। | अभिसेधयति गाः परिसेधयति गाः।

[८|३|११४] प्रतिस्तब्धनिस्तब्धौ च - `प्रतॎ तथा `नॎ उपसर्गों से पहले क्त प्रत्ययान्त `स्तम्भु` धातु के सकार को षकारादेश नहीं होता। | प्रतिस्तब्धः, निस्तब्धः।

[८|३|११५] सोढः - सोढ़ शब्द को प्राप्त `सहऄ धातु के सकार के स्थान में षकारादेश नहीं होता। | परिसोढः, परिसोढुम्, परिसोढव्यम्।

[८|३|११६] स्तम्भुसिवुसहां चङि - चङ् के परे रहते `स्तम्भु`, `सिवु` तथा `सहऄ धातुओं के सकार के स्थान में मूर्धन्यादेश नहीं होता। | स्तम्भु - पर्यत्स्तम्भत्, अभ्यतस्तम्भत्। सिवु - पर्यसीषिवत्, न्यसीषिवत्। सह - पर्यसीषहत्, न्यसीषहत्।

[८|३|११७] सुनोतेः स्यसनोः - स्य तथा सन् प्रत्ययों के परे `सु` धातु के सकार के स्थान में मूर्धन्यादेश नहीं होता। | अभिसोष्यति, परिसोष्यति, अभ्यसोष्यत् (ऌङ्), पर्यसोष्यत्। सनि अभिसुसूः।

[८|३|११८] सदेः परस्य लिटि - लिट् लकार के परे `सदॎ तथा स्वञ्जऄ धातुओं के पहले सकार के स्थान में षकारादेश नहीं होता। | अभिषसाद, परिषसाद, निषसाद, विषसाद

[८|३|११९] निव्यभिभ्योऽड्व्यवाये वा छन्दसि - छन्दोविषय प्रयोग में `नॎ, `वॎ तथा ` अभॎ उपसर्गों से परे सकार के स्थान में निमित्त तथा नैमित्तिक के बीच अट् के व्यवधान होने पर भी विकल्प से मूर्धन्यादेश नहीं होता। | न्यषीदत् पिता नः। व्यषीदत् पिता नः। व्यष्टौत्, अभ्यष्टौत्। पक्षे - न्यसीदत् व्यसीदत्, व्यस्तौत्, अभ्यस्तौत्।

[८|४|१] रषाभ्यां नो णः समानपदे रकार और षकार से परे नकार के स्थान पर णकार आदेश। | चतुर् + नाम् ==> चतुर्णाम्, जीर् + नः == जीर्णः।शीर् + नः == शीर्णः, तीर् + नः == तीर्णः।

[८|४|२] अट्कुप्वाङ्नुम्व्यवायेऽपि अट्, क-वर्ग, प-वर्ग, आङ् व नुम् ( अनुस्वार भी) का एक साथ या अलग-२एक बार या की बार व्यवधान होने पर भी रकार और षकार परे नकार को णकार आदेश यदि समान अर्थात् अखण्ड पद मेँ। | राम + टा ==&ग्त्; राम + इन ==&ग्त्; रामेन =(न्-&ग्त्;ण्)=&ग्त्; रामेण

[८|४|३] पूर्वपदात्संज्ञायामगः - यदि संज्ञा का विषय हो तो गकार-वर्जित पूर्वपदस्य रकार और षकार से पर नकार के स्थान पर णकार आदेश। | द्रुणसः, वर्ध्रीणसः, खरणसः, शूर्पणखा।

[८|४|४] वनं पुरगामिश्रकासिध्रकाशा-रिकाकोटराग्रेभ्यः - समुदाय संज्ञावाचक होने पर पुरगा, मिश्रका, सिध्रका, शारिका, कोटरा तथा अग्रे इन पूर्वपदों से परे वन शब्द के नकार के स्थान में णकारादेश। | पुरगावणम्, मिश्रकावणम्, सिध्रकावणम्। शारिकावणम्, कोटरावणम्, अग्रेवणम्।

[८|४|५] प्रनिरन्तःशरेक्षुप्लक्षाम्रकार्ष्य-खदिरपीयूक्षाभ्योऽसंज्ञायामपि - प्र, निर्, अन्तर, शर, इक्षि, प्लक्ष, आभ्र, कार्व्थ, खदिर तथा पीयूक्षा शब्दों से पहले वन शब्द के नकार के स्थान में संज्ञा तथा असंज्ञा दोनो विषयों में णकारादेश। | प्र - प्रवणे यष्टव्यम्। निर् - निर्वणे प्रतिधीयते। अन्तर् - अन्तर्वणे। शर - शरवणम्। इक्षु - इक्षुवणम्। प्लक्ष - प्लक्षवणम्। आम्र - आम्रवणम्। कार्ष्य - कार्ष्यवणम्। खदिर - खदिरवणम्। पीयूक्षा - पीयूक्षावणम्।

[८|४|६] विभाषौषधिवनस्पतिभ्यः - ओषधिवाची तथा वनस्पतिवाची शब्दों में वर्तमान निमित्त से पहले वन शब्द के नकार के स्थान में विकल्प से णकारादेश। | ओषधिवाचिभ्यः - दूर्वाणम्, दूर्वावनम्। मूर्वावनम्। वनस्पतिभ्यः - शिरीषवणम्, शिरीषवनम्। बदरीवणम्, बदरीवनम्।

[८|४|७] अह्नोऽदन्तात् - अदन्त पूर्वपद में वर्तमान निमित्त से परे अह्न शब्द के नकार के स्थान में विकल्प से णकारादेश। | पूर्वाह्णः, अपराह्णः।

[८|४|८] वाहनमाहितात् - वाहन पर लदे पदार्थ ( आहित) के वाचक पूर्वपद में वर्तमान निमित्त से पहले वाहन शब्द के नकार के स्थान में णकारादेश। | इक्षूणां + वाहनम् == इक्षुवाहणम्। इसी प्रकार शरवाहणम्, दर्भवाहणम्।

[८|४|९] पानं देशे - समुदाय के देशवाचक होने पर पूर्वपदस्थ निमित्त से पहले पान शब्द के नकार के स्थान में णकारादेश। | क्षीरं पानं येषां ते क्षीरपाणा उशीनराः। सुरापाणाः प्राच्याः। सौवीरपाणा बाह्लीकाः। कषायपाणा गान्धाराः। पीयते इति पानम् (३_३_११३) इति कर्मणि ल्युट्।

[८|४|१०] वा भारकरणयोः - पूर्वपदत्य निमित्त से पहले भाव व्युत्पन्न अथवा करण व्युत्पन्न पान शब्द के नकार के स्थान में विकल्प से णकारादेश। | भावे क्षीरपाणम् वर्त्तते, क्षीरपानम्। कषायपाणम्, कषायपानम्। सुरापाणम्, सुरापानम्। करणे - क्षीरपाणः कंसः, क्षीरपानः।

[८|४|११] प्रातिपदिकान्तनुम्विभक्तिषु च - प्रातिपदिकान्त, नुभ तथा विभक्ति के परे पूर्वपदस्थ निमित्त से परे नकार के स्थान में विकल्प से णकार हो जाता है। | प्रतिपदिकान्ते - माषवापिणौ, माषवापिनौ। नुमि - माषवापाणि, माषवापानि। व्रीहिवापाणि, व्रीहिवापानि। विभक्तौ - माषवापेण, माषवापेन। व्रीहिवापेण, व्रीहिवापेन।

[८|४|१२] एकाजुत्तरपदे णः - जिस समास में उत्तरपद एक अच् वाला हो उस समास के पूर्वपद वाले रकार तथा षकार से परे प्रतिपादिक के अन्त्य नकार, नुम् के नकार और विभक्ति में स्थित नकार के स्थान पर णकार आदेश। | वृत्रहणौ, वृत्रहणः। नुमि - क्षीरपाणि, सुरापाणि। विभक्तौ - क्षीरपेण, सुरापेण।

[८|४|१३] कुमति च - प्रातिपदिकान्त, नुम्, विभक्ति तथा कवर्गयुक्त उत्तरपद के परे भी पूर्वपदत्य निमित्त से पहले नकार के स्थान में णकारादेश। | वस्त्रयुगिणौ, वस्त्रयुगिणः। स्वर्गकामिणौ, वृषगामिणौ। नुमि - वस्त्रस्य + युगाणि == वस्त्रयुगाणि, इसी प्रकार खरयुगाणि। विभक्तौ वस्त्रयुगेण, खरयुगेण।

[८|४|१४] उपसर्गाद समासेऽपि णोपदेशस्य - उपसर्गस्थ षकार और रकार से परे णोपदेश धातु के नकार के स्थान पर णकार आदेश। | प्रन्दति में नद् धातु णोपदेश है। अतः प्रकृतसूत्र से उपसर्गस्थ रकार प्र से परे होने के कारण नद् के नकार को णकार होकर प्रणदति रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - प्र + नादः == प्रणादः, प्र + नामः == प्रणामः।

[८|४|१५] हिनुमीना - उपसर्ग में स्थित रकार और षकार के बाद हिनु (श्नु-प्रत्यान्त हि धातु) और मीना (श्ना-प्रत्यान्त मीञ् धातु) के नकार के स्थान पर णकार होता है। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में प्र पूर्वक भी (मीञ्) धातु से तिप् और श्ना-प्रत्यय होकर प्रमीना ति रूप बनता है। यहाँ उपसर्ग प्र में रकार होने के कारण प्रकृत सूत्र से उसके उत्तरवर्ती मीना के नकार के स्थान पर णकार होकर प्रमीणाति रूप सिद्ध होता है।

[८|४|१६] आनि लोट् - उपसर्गस्थनिमित्त रकार-षकार से परे लोट् सम्बन्धी आनि के नकार के स्थान पर णकार आदेश। | प्रभवानिएं णत्व का निमित्त रकार प्र उपसर्ग में विद्यमान है। अतः उससे परे लोट् सम्बन्धी आनि के नकार को णत्व होकर प्रभवाणि रूप बना।

[८|४|१७] नेर्गद-नद-पत-पद-घु-मा-स्यति-हन्ति-याति-वाति-द्राति-प्साति-वपति-वहति-शाम्यति-चिनोति-देग्धिषु च गद् आदि सत्रह धातुओं में से किसी के भी परे होने पर उपसर्गस्थ रकार और षकार के परवर्ती नि के नकार के स्थान पर णकार आदेश। | प्रनिगदति में प्र उपसर्ग में रकार स्थित है। उसके पश्चात नि है और उसके पश्चात् गद् धातु। अतः प्रकृत सूत्र से नि के नकार को णकार होकर प्रणिगदति रूप सिद्ध हुआ।

[८|४|१८] शेषे विभाषाऽकखादावषान्त उपदेशे - जो धातु उपदेशावस्था में ककारादि, खकारादि अथवा षकारान्त न हो उसके परे रहते उपसर्गस्थ निमित्त `नॎ (उपसर्ग) के नकार के स्थान में विकल्प से णकारादेश। | प्रणिपचति, प्रनिपचति। प्रणिभिनत्ति, प्रनिभिनत्ति।

[८|४|१९] अनितेः - उपसर्गस्थ निमित्त से परे ` अनऄ धातु के नकार के स्थान पर णकारादेश। | हे प्राण् हे पराण्।

[८|४|२०] अन्तः - उपसर्गस्थ निमित्त से परे ` अनऄ धातु के पदान्त नकार के स्थान पर णकारादेश। | अन् + इट् + ति == प्र + अन् + इट् + ति == प्राणिति

[८|४|२१] उभौ साभ्यासस्य - उपसर्गस्थ निमित्त से पहले ` अभ्यासऄ विशिष्ट ` अनऄ धातु के अभ्यासगत तथा उत्तरवर्त्ती नकारों के स्थान में णकारादेश। | प्राणिणिषति, प्राणिणत्। पराणिणिषति, पराणिणत्।

[८|४|२२] हन्तेरत्पूर्वस्य - उपसर्गस्थ निमित्त से पहले ह्रस्व अकारपूर्वक `हन् ` धातु के नकार के स्थान में णकार हो जाता है। | प्रहण्यते, परिहण्यते, प्रहणनम्, परिहणनम्।

[८|४|२३] वमोर्वा - वकार तथा मकार के परे भी उपसर्गस्थ निमित्त से पहले `हन् ` धातु के नकार को विकल्प से णकार। | प्रहणवः, परिहण्वः। पक्षे - प्रहन्वः। म - प्रहण्मः। म - प्रहण्मः, परिहण्मः। प्रहन्मः, परिहन्मः।

[८|४|२४] अन्तरदेशे - समुदाय देशवाचक शब्द न हो तो अन्तः शब्द से परे अकारपूर्वक `हन् ` धातु के नकार के स्थान में णकारादेश। | अन्तर्हण्यते, अन्तर्हणनं वर्त्तते।

[८|४|२५] अयनं च - समुदाय संज्ञाशब्द न हो तो अन्तर शब्द से परे अयन शब्द के नकार को भी णकारादेश। | अन्तरयणं वर्त्तते, अन्तरयणं शोभनम्।

[८|४|२६] छन्दस्यृ दवग्रहात् - छन्दोविषय में ऋदन्त अवग्रहात्मक पूर्वपद से पहले नकार के स्थान में णकारादेश। | नृमणाः। पितृयाणम्।

[८|४|२७] नश्च धातुस्थोरुषुभ्यः - छन्दोविषय में धातुस्य निमित्त, उरु शब्द तथा षु शब्द से परे `नस् ` शब्द के नकार के स्थान में णकारादेश। | धातुस्थात् - अग्ने॒ रक्षा॑ णः॒। शिक्षा॑ णो अ॒स्मिन्। उरुशब्दात् - उरु ण॒स्कृधि षुशब्दार् - अ॒भी षु णः सखी॑नाम्। ऊर्ध्व ऊ षु ण ऊतये।

[८|४|२८] उपसर्गाद् बहुलम् - उपसर्गस्थ निमित्त से पहले `नस् ` शब्द के नकार के स्थान में बहुलतया णकारादेश। | प्रणः शूद्रः, प्रणसः, प्रणो राजा।

[८|४|२९] कृत्यचः - उपसर्गस्थ निमित्त से पहले कृत्प्रत्ययावयव नकार के स्थान में यदि वह अच् (स्वर) से उत्तर आया हो तो णकारादेश होता है। | प्रयाणम्, परियाणम्, प्रमाणम्। परिमाणम्। प्रयायमाणम्, परियायमाणम्। प्रयाणीयम्, परियाणीयम्। अप्रयाणिः, अपरियाणिः। प्रयायिणौ, परियायिणौ। प्रहीणः, परिहीणः, प्रहीणवान्, परिहीणवान्।

[८|४|३०] णेर्विभाषा - उपसर्गस्थ निमित्त से परे णयन्तधातु विहित कृत्प्रत्यय के अवयवभूत नकार के स्थान में विकल्प से णकारादेश। | प्रयापणम्, प्रयापनम्। परियापणम्, परियापनम्। प्रयाप्यमाणम्। प्रयाप्यमानम्।प्रयापणीयम्, प्रयापनीयम्। अप्रयापणिः, अप्रयापनिः। प्रयापिणौ, प्रयापिनौ।

[८|४|३१] हल श्चेजुपधात् - हलादि इजुपध धातु से विहित कृत्प्रत्यय के अवयवभूत अनृत्तरवर्त्ती नकार के स्थान में निमित्त के उपसर्गस्थ होने पर णकारादेश। | प्रकोपणम्, परिकोपणम्। प्रकोपनम्, परिकोपनम्।

[८|४|३२] इजादेः सनुमः - नुमविशिष्ट इजादि हलन्त धातु से विहित कृत्प्रत्यय के अवयवभूत नकार के स्थान में निमित्त के उपसर्गस्थ होने पर णकारादेश। | प्रेङ्खणम्, परेङ्खणम्। प्रेङ्गणम्। परेङ्गणम्। प्रोम्भणम्, परोम्भणम्।

[८|४|३३] वा निंसनिक्षनिन्दाम् - उपसर्गस्थ निमित्त से पहले `निस् `, `निक्षऄ तथा `निन्द् ` धातुओं के कृत्प्रत्यय नकार के स्थान में विकल्प से णकारादेश। | प्रणिंसनम्, प्रनिंसनम्। प्रणिक्षणम्, प्रनिक्षणम्। प्रणिन्दनम्, प्रनिन्दनम्।

[८|४|३४] न भाभूपूकमिगमिप्यायीवेपाम् - उपसर्गस्थ निमित्त से पहले होने पर भी `भा`, `भृ`, `पू `, `कमॎ, `गमॎ, `प्यायी ` तथा `वेप् ` धातुओं से विहित कृत्प्रत्यय के नकार के स्थान में णकारादेश नहीं होता। | भा - प्रभानम्, परिभानम्। भू - प्रभवनम्, परिभवनम्। पूञ् - प्रपवनम्, परिपवनम्। कमि - प्रकमनम्, परिकमनम्। गमि - प्रगमनम्, परिगमनम्। उपायी - प्रप्यायनम्, परिप्यायनम्। वेप - प्रवेपनम्, परिवेपनम्।

[८|४|३५] षात्पदान्तात् - षकारान्त पद से परे कृत्प्रत्ययावयव नकार को भी णकार नहीं होता। | निष्पानम्। दुष्पानम्। सर्पिष्पानम्, यजुष्पानम्।

[८|४|३६] नशेः षान्तस्य - बकारान्त `नश् ` धातु के नकार को भी णकार नहीं होता। | प्रनष्टः, परिनष्टः।

[८|४|३७] पदान्तस्य पदान्त नकार "न्" को णकार "ण्" का निषेध | राम + शस् ==> रामास् =(स्->न्) => रामान् {पदान्त "न्" को "ण्" का निषेध}

[८|४|३८] पदव्यवायेऽपि - निमित्त तथा निमित्ती के बीच किसी पद के विद्यमान होने पर भी नकार को ण्कार नहीं होता। | माषकुम्भवापेन, चतुरङ्गयोगेन्, प्रावनद्धम्, पर्यवनद्धम्, प्रगान्नयामः, परिगान्नयामः।

[८|४|३९] क्षुभ्नादिषु च - क्षुभ्ना (क्षुभ् धातु का श्ना-परक रूप) आदि (क्षुभ्नादिगण में पठित) शब्दों के विषय में नकार के स्थान पर णकार नही होता। | पुनः पुनः या भृशार्थ में नित् (नाचना) धातु से यङ् होकर नृत् य रूप बनता है। इस स्थिति में लट् लकार प्रथमपुरुष-एकवचन में आत्मनेपद प्रत्यय त शप्, पर-रूप और एत्व होकर नरीनृत्यते रूप बनता है।

[८|४|४०] स्तोः श्चुना श्चुः शकार और चवर्ग के साथ सकार और तवर्ग का योग होने पर सकार और तवर्ग के स्थान पर शकार और चवर्ग आदेश। यहाँ परे न कह कर योग शब्द का प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ है कि स्तु पहले और बाद में श्चु या पहले श्चु और बाद में स्तु सम्भव है पर बदलेगा स्तू ही। | रामस् + शेते ==&ग्त्; रमश्शेते, सच् + चित् ==&ग्त्; सच्चित्

[८|४|४१] ष्टुना ष्टुः ष्, ट्, ठ्, ड्, ढ् या ण् के योग में स्, त्, थ्, द्, ध्, और न् के स्थान पर ष्, ट्, ठ्, ड्, ढ् और ण् आदेश। | रामस् + षष्ठः == रामष्षष्ठः, तत् + टीका == तट्टीका, कृष् + नः == कृष्णः, पेष् + ता == पेष्टा, उष् + त्रः == उष्ट्रः।

[८|४|४२] न पदान्ताट्टोरनाम् पदान्त टवर्ग के पश्चात् स्, त्, थ्, द्, ध्, और न् के स्थान पर ष्, ट्, ठ्, ड्, ढ् और ण् आदेश नही होने परन्तु टवर्ग के पश्चात नाम् शब्द के नकार को णकार होता है। | श्वलिट् साये मधुलिट् तरति।

[८|४|४३] तोः षि षकार परे होने पर तवर्ग के स्थान पर ष्टुत्व नही होता। | पेष् + ता ==> पेष् ट् आ ==> पेष्टा

[८|४|४४] शात् शकार के पश्चात तवर्ग के स्थान पर श्चुत्व नही होता। | प्रश्नः, विश्नः।

[८|४|४५] यरोऽनुनासिकेऽनुनासिको वा अनुनासिक परे होने पर पदान्त यर् के स्थान पर विकल्प से अनुनासिक आदेश। | वाक् + मयम् == वाङ्मयम्, दिक् + नागः == दिङ्नागः, तत् + न == तन्न, तत् + मयम् == तन्मयम्, षट् + मुखः == षण्मुखः।

[८|४|४६] अचो रहाभ्यां द्वे स्वर-वर्ण के पश्चात रकार और हकार से परे यर् का विकल्प से द्वित्व होगा। | गौरय् औ में यर् -यकार व यकार से पूर्व रकार है और उसके पूर्व स्वर-वर्ण औकार अतः यकार को द्वित्व हो गौर य् य् औ ==> गौय्यौ रूप बना।

[८|४|४७] अनचि च अच् परे न होने पर अच् के पश्चात् यर् के स्थान पर विकल्प से दो होते हैं। | दद्धयत्र दध्यत्र, मद्ध्वत्र, मध्वत्र।

[८|४|४८] नादिन्याक्रोशे पुत्रस्य - यदि वाक्य से आक्रोश अवगत होता हो तो आदिनी शब्द के परे रहते पुत्र शब्द के अवयव त् का द्वित्व नहीं होता। | पुत्रानत्तुं शीलमस्याः पुत्रादिनी त्वमसि पापे।

[८|४|४९] शरोऽचि अच् परे होने पर शर् के स्थान पर द्वित्व न होंगे। | कर्षति, वर्षति। आकर्षः, आदर्शः।

[८|४|५०] त्रिप्रभृतिषु शाकटायनस्य - शाकटायन आचार्य के मत में तीन से लेकर अधिक व्यञ्जनों के संयोग में किसी का द्वित्व नहीं होता। | इन्द्रः, चन्द्रः, उष्ट्रः, राष्ट्रम्, भ्राष्ट्रम्।

[८|४|५१] सर्वत्र शाकल्यस्य - शाकल्य आचार्य के मत में किसी भी संयोग में द्वित्व नहीं होता। | अर्कः, मर्कः, ब्रह्मा, अपह्नुते।

[८|४|५२] दीर्घादाचार्याणाम् - आचार्यों के मत में दीर्घ से परे संयोग का द्वित्व नहीं होता। | दात्रम्, पात्रम्, सूत्रम्, मूत्रम्।

[८|४|५३] झलां जश्झशि वर्गों के तृतीय और चतुर्थ वर्ण परे होने पर वर्गों के प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ वर्ण या श्, ष्, स्, ह् के स्थान पर वर्गों के तृतीय वर्ण ज्, ब्, ग्, ड्, द् आदेश। | रुणध् + धि == रुणद् + धि == रुणद्धि, व्यध् + धा == व्यद् + धा == व्यद्धा, बोध् + धा == बोद् + धा == बोद्धा।

[८|४|५४] अभ्यासे चर्च झलों के स्थान पर चर् और जश् हों। द्वितीय वर्ण ==> प्रथम वर्ण, चतुर्थ वर्ण ==> तृतीय वर्ण, प्रथम । तृतीय वर्ण, श, ष, ह में कोई बदलाव नहीं होगा। महाप्राण वर्ण==> अल्पप्राण वर्ण । "क" वर्ग ==> "च" वर्ग | क् ==> च्, छ् ==> च्, झ् ==> ज् फ् ==> प्, भ् ==> ब् आदि। भभू ==> बभू, (छिद्) "छि छिद्" ==> चिच्छेद् । (ढौकृ) "ढौ ढौकृ" ==> "डुढौके" {यहां "ढ्" का "ड्" के साथ-२"औ" का हृस्व "उ" भी हुआ है}।

[८|४|५५] खरि च खर् परे होने पर झल् को चर् आदेश। | अद् + ता == अत्ता, आप् + स्यति == आप्स्यति, सद् + कारः == सत्कारः, क्षोद् + ता == क्षोत्ता, रभ + स्यते == रप्स्यते।

[८|४|५६] वाऽवसाने - अवसान में आए झल् के स्थान में विकल्प से चर् आदेश। | अत् == अद्।

[८|४|५७] अणोऽप्रगृह्मस्यानुनासिकः - अवसान में वर्तमान प्रगृह्म संज्ञक भिन्न अण् विकल्प से अनुनासिक हो जाता है। | दधि, दधिँ। मधु, मधुँ। कुमारी, कुमारीँ।

[८|४|५८] अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः अपदान्त अनुस्वार के स्थान पर कवर्गस्थ वर्ण परे होने पर ङकार, च्वर्गस्थ वर्ण परे होने पर ञकार, टवर्गस्थ परे होने पर णकार, तवर्गस्थ वर्ण परे होने पर नकार, पवर्गस्थ वर्ण परे होने पर मकार, ल् परे होने पर लँ, व् परे होने पर वँ और य् परे होने पर यँ आदेश। | शाम् + तः ==> शां + तः ==> शान्तः

[८|४|५९] वा पदान्तस्य पय् परे होने पर पदान्त अनुस्वार के स्थान पर विकल्प से परसवर्ण आदेश। | त्वम् + करोषि ==> त्वं + करोषि ==> त्वङ्करोषि

[८|४|६०] तोर्लि लकार परे होने पर तवर्ग के स्थान पर सवर्ण होता है। | जगत् + लीयते == जगद् + लीयते == जगल्लीयते । अन्य उदाहरण - तद् + लयः == तल्लयः, तद् + लीनः == तल्लीनः, उद् + लेखः == उल्लेखः, पद् + लवः == पल्लवः।

[८|४|६१] उदः स्थास्तम्भोः पूर्वस्य उद् उपसर्ग से स्था और स्तम्भ के स्थान पर पूर्व का सवर्ण आदेश। | स्था - उत्थाता, य्त्थातुम्, उत्थातव्यम्। स्तम्भेः - उत्तम्भिता, उत्तम्भितुम्, उत्तम्भितव्यम्।

[८|४|६२] झयो होऽन्यतरस्याम् वर्गो के प्रथम, द्वितीय, तृतीय या चतुर्थ वर्ण के पश्चात् हकार के स्थान पर विकल्प से पूर्व वर्ण का सवर्ण (वर्गों का चतुर्थ वर्ण) होता है। | अज् + हीनम् ==> अज्झीनम्, अझीनम्, तद् + हानि ==> तद्धानिः

[८|४|६३] शश्छोऽटि अट् परे होने पर पदान्त क्षय् के पश्चात् शकार के स्थान पर विकल्प से छकार आदेश। | तत् + शिवः == तत् + छिवः == तच् + छिवः == तच्छिवः, तत् + शिला == तत् + छिला == तच् + छिला == तच्छिला । इसी प्रकार उच्छ्रायः, सच्छीलः।

[८|४|६४] हलो यमां यमि लोपः - हल (व्यञ्जन् वर्ण) के पश्चात यम् का यम् परे होने पर विकल्प से लोप होता है। | आदित्य य में हल्-तकार के पश्चात् यम्-यकार आया है और उसके परे भी यम्-यकार है। अतः प्रकृत सूत्र से यम्-प्रथम् यकार का लोप हो आदित् य रूप बनने पर विभक्ति-कार्य हो आदित्यः रूप सिद्ध होता है। लोपाभाव-पक्ष में आदित्यः रूप बनता है।

[८|४|६५] झरो झरि सवर्णे सवर्ण झर् परे होने पर हल् के पश्चात झर् का विकल्प से लोप होता है। | संत् + ति == सं + ति संति (८_४_५८) सूत्र से अनुसार को परसवर्ण करके == सन्ति बना। इसी प्रकार संस्त् + तः == सन्तः, संस्त् + थः == सन्थः, संस्त् + धि == संधि।

[८|४|६६] उदात्तादनुदात्तस्य स्वरितः - उदात्त से पहले अनुदात्त के स्थान में स्वरित आदेश। | गार्ग्यः॑, वात्स्यः॑, पच॑तिः, पठ॑ति।

[८|४|६७] नोदात्तस्वरितोदयमगार्ग्यकाश्यप गालवानाम् - गार्ग्य, काश्यप तथा गालव आचार्यों से भिन्न आचार्यों के मत में उदात्तोदय (उदात्तपरक) तथा स्वरितोदय (स्वरितपरक) अनुदात्त के स्थान में स्वरित नहीं होता। | उदात्तोदयः - गार्ग्य॒स्तत्र॑, वात्स्य॒स्तत्र॑। स्वरितोदयः - गार्ग्यः॒ क्व॑, वात्स्यः॒ क्वः॑।

[८|४|६८] अ अ - विवृत अकार के स्थान में सम्वृत अकार हो जाता है। | वृक्षः, प्लक्षः।