अथर्ववेदभाष्यम् भागः १

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अथर्ववेदभाष्यम् भागः १
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All rights rescrved, 糕 ਏ सर्वस्धु पश्यंत उत शूद्र उतायें ॥ १ ॥ 畿 མ་ཡཇིག༠ ༣་རྩྭ་༩ ནིའུ་ 遂 प्रिय मोहि करौ देय, तया राज समाज में 1.: प्रिय सारे दृष्टि वाले, श्री श्रद्र और अर्थ मैं । अथर्ववेदभाष्यम् प्रथमं काण्डम्॥. आर्यभाषायासनुवाद-भावार्थादि सहितं संस्छले व्धाकरण-निरुक्कादि प्रमाण समन्त्रित ध। uDuDuuDuuDuuLu uluuDDDDDuDu uDuuDuDBDuDDD DDD सयाजीरावगायकवाडाधिष्ठित घडेंद्रेपुरीगत:श्रावरामास6. दट्रिणापरीक्षायाम ऋकसामायर्थवेदभाष्येषु . लक्ष्भ्रदक्षिणेन 路 · श्री.परिडत खेमकरणादाखविवेदिना 鉴 签 निर्मितम्, श्क्राशितश्च । Makc mc bcloyed among the Gods, 姿 b.cloved among the Princes, Jake 洽 Meda to tveryone who sces, to Sudra and to Aryan 1man. |& ' * Griffith's Tiarr. Aithnrw 10:08 : i अर्थ प्रन्थ: परिद्धत काशीनाथ वाजपेयिप्रबन्धन प्रयागनगरे अंकार यन्चालये मुद्रितः । खर्थाधिकारी ग्रन्थकारेण खार्धोन एधं रक्षितः । .િ प्रथमग्छुक्तै, खंधनू. १६६६ विंo: मूख्यम १g ?თიo S शूसन् १$१.२ ई० ।। කුංෆුෂ්ඨි पता-f, क्षेमकरन्दाख त्रिवेंदी, ५२लकरगंज, भयाग ( Allahabar I ________________

शुक्ष रुळाचार ॥ नि:सन्देद श्रय पद समय है कि लय स्त्री पुरुष घर घर में वेर्दी का थर्थ जा DuuD DDD DD DDDL D DDDDD DDuD BD DDuD uu Y GuS DD BB DDuu DBu BDuDDBD uDBDBD D DD DDuD DuDBu uDu GGGGG S चिचार है कि वेर्दी का थथाशक्ति सरल, स्पष्ट ग्रामगिक, और वायु, DD DDD D DuS uiD DuD D DD DBDD DuDD D BDB DDlmu ug DDDD DDD uDuuDS DDuuDu DDD DDD D DDD D Du uu Du S uDuDDSDD DuDDD DDBuD DuDu DDD S uuuu u uDuDu SS आपर्वचेंद भाध्य । १- जिस भाष्य की इसमें दिनों से प्रत्रीक्षा हरणी थी, मिस चौथे प्रत वेद के स्वाध्याय फरने के लिये श्राप को अट्री तालसा लगी हुयी थी, ४ : निस के लिये घहुत से मश्र्यों के नाम से ग्राएक पत्री पूरित हैं, उस येद्र प DBBD D DD DuDuDuD DuDDDBD D DuD DBD Du DDD DDS DDD DDDS DDDS DDuDuDS Du DuDS DDD uBLuLS Lt uTTuJS DDBS DuD DDD DD DD D DD DuDD S LDu D uDL अथर्ववेद मूमिका भी है जिस में सायण भाष्य और अथर्ययेद पिस्तार श्nt उपयोगी विपर्यों का वर्णन हैं। घड़िया रम्यल अटपेजो पृष्ट ६०६ भूल्य १y : २-अथर्ववेद भाष्य, यnएड २-४सी प्रकार घहुत शीघ्र छग्धः! प्रकाशित होगा । मूख्य प्रथम धाग्झ् फै,लगभग टोगः । ३-अथर्ववेंद सम्पूर्ण-अथर्ववेद में ६० काण्ड हैं, कोई है कोई घड़ा। भाष्य भूरे एक एक काण्ड या छपसा है जिम्5 से उस फायथ का पूरा चिपय जान पड़े 1 प्रत्येक फायड फा मूल्य उसके विस्नार फें श्रद्धr होया। जो महाशय सनातन वेदविया के ममी अपने नाम पूरे भाष्य के लिये अन्ध छुपने से पूर्व श्राहकस्ची में लिस्तावेंगे, उनकी नियत मूल्य में से २श्रृं सैकड़ा छूट देकर पुस्तक छपने पर पी० पी० धारा,मेजी जाया फरेंगी। क्षेमकरणदास त्रिवेदी ।

  • '#२ एभरग्ञः, भग्राग {A1uLAl{AjAp. ________________

Aश्र्म् a ܢܐܡܐSܢ জ্ঞতাইগ্রিস্তুস্ৰাংফর্মুলিঙ্কা। यो भूतं चु भव्र्य चु सर्वे यश्चधितिष्ठति । स्त्र १र्यस्य चुकेवल तस्मैं'ज्येष्ठाय ब्रहर्क्षणे नर्भः॥१॥ अधर्चा • ६० १० स्४, ८ म० १ ॥ { यः } जो परमेश्वर ( भूतम्) प्रतीति क्राश (च) और ( भाव्यम्) भविष्यत् काल फ्रा, { च } श्रीरः (यः) द्रॊनॊ ( सर्व्वम्) स च संसार का (श्च) अवश्य SSDuDDDDu S uuuuDu u SDSS uuD SDSSYD SSDDDSS uDuD DS ( केचलम) केघ्रल स्मरुप हैं, (तस्मै ) उस (जेण्टाय) सब से बड़े ( ब्रह्मले) वक्ष्यः, जगदीश्वर की ( नमः) नमस्फार ईं ॥ हे परमपिता , परमान्मन् ! आप, भूत, मविष्यत्, घर्तमान और सब जगत् के स्वामी हैं, आप केवल आनन्द स्क्रूप और अनन्त सामथ्र्य वाले हैं । है प्रभु! आप हमारे दृदय में सदा धिराजिये, आप को इमारा बारम्वार नमस्फार हें ॥ यामृर्ययो भूतछते से थां मेंधाविने विदुः । तया मामदा लेधयाग्नें मेधाविन छधु ॥ १ ॥ अथर्घ० का० ६ सू० १oम भ० ४ ॥ (अग्ने) हे सर्वथापक, प्रकाश स्वरूप परमेश्वर !(याम) जिस (मेश्राम) धारणवती बुद्धि का ( भूनकृत: ) यथार्थ काम करने हारे , (मेधायिनः) दृढ़ ________________

R अय्यर्वचैदभाष्यभूमिका । - पुद्धि वाले , (ऋपय: ) वेद का तस्य जानने थाने ऋषि , (पिद्धः) tान रमते zS gguS DDD S DDDD SS DD DDD DDD S DDDSSS DDD DDD S DBH S DDD (मेधाविन्म) ग्रचन्द्र युद्ध वाला ( कृष्णु) कर ! S DDDBBD DDBD S DBD D BDD DuD D BDu DDD बुरिर DD DD D DD DD DuD uDuuD SDDDS GtDDuL LDG DDS त्माश्री की होती है, जिस से हमें वेदों का थथार्थ शान हो और म लसर भर में असफा प्रकाश करें। स्खस्ति भुङ्क्ष्ाघ्र उत पुिन्ने नेर्गं अस्तु स्वस्ति गोभ्यूंी R- • ! R l يج: | pre- w جی بیٹ जगंते पुर्सपेभ्यः । विश्र्वं सुभूतं सुद्विष्ट्र्र्त्र नो अर्तु ज्योगे व्र छुशेस सूर्वेम् ॥ ३ ॥ श्रंथर्य० फ० १०३६ ग:०४॥ (न:) इमारी (मात्रे) माता के लिये (उत) और (पित्रे) पिता के लिये (स्वस्ति) आनन्द (अस्तु) इंग्वे और (गोभ्यः) गौद्यों के लिये, (पुग्ग्रेभ्यः) धुप के लिये और (जयते) जगत् के लिये (स्वस्ति) अनन्द हवे' (व्यग्र ? संपूर्णं (ह्युभूतम्.) उच्चम ऎश्वर्यं श्रीर (खुचिदत्रम् ) उरुम एतानि वा युन्नः (नः) हमारे लिये (श्रस्तु) हो (ज्योक) बहुत काल तफ (सयम) सूर्य को (एच) हौ { दृशेम ) इमा देगाते रहें ॥ है परम रक्षक परमात्मन् ! हमें येद विमान दीजिये जिस से हम अपने फर्तव्य को समर्म और करें, अपने हितकारी माता पिता आदि सध परियर, सव मनुष्यों , सय गी आदि पशुओं , और सब संसार की सेया कर और सच के आनन्द में अपना आनन्द जरमें, और जैसे सूर्य के प्रकाश में रसश्च कामों को सुख से करते हैं, वैसे ही, हे भकाशमय, शान स्वरूप, सपन्तिम प्रभु! आप के ध्यान में मग्न होकर हम सदा पसन्न चित रहें ॥ २-वेद ॥ तस्माद्ध युञ्ज्ञात् संर्व हुतु ऋचुः सार्मानि जज्ञेिरे ॥ Apr. 'श्छन्दंसि जज्ञिरे तस्म्ाद् यजुस्तस्माँदजायत ॥ t - ****tě, "g" Rť tvo, trať spr. tsis, ________________

अथर्ववेदमाष्यभूमिका । s (तस्मा) उस ( यज्ञात) पूजनीय और (सर्चहुतः) लय के प्रदश करने योग्य परमेश्वर से (ऋचः ) ऋग्वेन : पदाथों की गुणप्रकाशक विद्या ] के मन्त्र और (सामानि) साम वेद [ मोक्ष धिग्रा ] के मन्त्र { जझिऐ) उत्पत्र छुये। (तस्मात्) उस से । छन्दांखि ) अथर्ववेद [ आनन्ददायक विद्या] के मन्त्र (ज्ञश्रेि) उत्पन्न दुर्ये, श्रीर (तस्मात्) असि से एी (यजुः) यच्छुर्धैद [सत्कर्मो का क्षान ] (अजा।थत ) उत्पन्न छुआ है। यस्म्छ्रुचे' अपर्त्क्षु न् यजुर्यस्मtष्टुपार्काषन् । सामtनि यस्यु लोमान्यथर्वाङ्गरी मुर्खम्। स्कभ्र्भ -- كما तं ॠह्निं कतुमः स्र्व्विदेव सः ॥ २ ॥ अधर्ध० का० १u। सू० ७ । म० ६० ॥ (यस्मान) जिस परमेश्वर से प्रास करके (ऋच:ी पदार्थों के शुणप्रकाश भन्मों को (अप-अतक्षन) उन्होंने [ ऋपियों ने I सूक्ष्म किया [ भले प्रकार विचारा 1 (यभात) जिस ईश्वर से प्राप्त करके (यज़: ) सन्कर्मों के शान की ( अप-अकपन) उन्होंने कस, अर्धात कसौटी पर रक्स्ना, (सामानि) मोक्ष पिद्यार्य (यन्य) जिस के (शोभानि ) रोम के समान व्यापक हैं, और ( अथर्धश्राङ्गिरसः ) श्रयार्घ श्रर्थात् निश्चला जो परन्रह्म है उसके शान के मन्त्र ( मुक्त्रम्) मुम्व के समान मुख्य हैं. (स:) यह (५य ) निश्धय करके (कतमासित) कौन सा है। [ इसका उत्तर J (तम) उसको ( स्कम्भम) स्वंभ के समान ब्रह्मांड का सहारा देने वाला ईश्वर (श्रृंहि) दू कह ॥ DD D uDu zuD DDuDuDS uDuDuuDS DDDD Du BDDDD DDD हैं,और चारों वेद सामान्यता से सार्वलौकिक सिद्धान्तों से परिपूर्ण होने के कारण ममुष्य भाव और सच संसार के लिये कश्याणकारक हैं | उस परम गिता जगदीश्वर का अति धन्यवाद है कि उसने संसार फी भलाई के लिये यष्टि के आदि में अपने अटल नियम को इन धारी वेदी के द्वारा प्रकाशित किया। यह पवारों वेद एक तो सांसाररिक व्यवहारी की शिक्षा से परमात्मा फे शान फा, श्रीर दूसरे परमात्मार्फे छान से सांसारिक व्यवहारी का उपदेश करते हैं। संसार में यही दो मुच्य पदार्थ हैं जिन की यथार्थ प्राप्ति और अभ्यास पर भक्षुष्य मात्र की उन्नति का निर्भर है। इन चारों घेर्दो की ही प्रयी ________________

炒 श्रयवंव T b चिया [तीन विद्याओं का भण्डार] फटते हैं। जिस का अर्थ परमेश्वर के कर्म उपासना और झान से संसार के साथ जपकार करना है। वेदों में सार्वभौम चिझान का उपदेश है। s * ܗ ܐ ܥܕझुह्युचर्येशु तर्पसुा राजांशष्ट्र व् िरंक्षति । झुाचुार्ये ब्रह्मचर्येष्म ब्रह्मश्रुा९िशमिच्छते ॥ १ ॥ अथर्ववैव-क्रा० ११, स्यू०५, म० १७ ॥ (श्रह्मचर्योग ) वेदविचार और जितेन्द्रियता रूपी (तपसा) तप से (राजा) ५ाजा ( राष्ट्रम) राज्य की (वि) अनेक प्रकार से (रक्षति) रक्षा करता है। (आधार्थ: }अंगों और उपाङ्गी सहित वेदों का अध्यापक, आचार्य (ब्रह्मचर्यश) DD D Du DDD D DDDLDD DDDDBD D DuDD DD DS न्द्रिय पुरुष से (श्च्छते) प्रेम करता है, अर्थात वेदी के यथावत झान, अभ्यास, और इन्दिर्यी के दमन से मनुष्य सांसारिक और पारमार्थिक उन्नति की परा सीमा तक पहुँच जाता है। भगवान कणावमुनि कहते हैं-वैशेपिक दर्शन अध्याथ दै,झाढुनिक १,सृ१॥ - t 58ܩ ܕܡ जुढ़ेिपूल वाक्यकृतिवेंदे । १ ।। घेद में वाक्य रचना बुद्धि पूर्वक है! अर्थात् वेद में सब वार्तें सुद्धि के अउ० कूल हैं1॥ पण्डित अक्षम्भइ संकलग्रह पुस्तक के शब्दखण्ड में लिखते हैं। वाक्यं द्विविध वैदिक लौकिक च। वैदिकमीश्वरोचकत्वात् सर्वमेव प्रमाणम्। लौकिकं त्वाप्नोत्ततं प्रमाणम्। Wh वाक्य दो प्रकार का है. वैदिक और लौकिक । वैदिक वाक्य ईश्वरोक्त होने से सच ही प्रमाण है । लौफिक चाक्य केवल सत्यवता पुष्प का वचनग्रमाणाद्वै॥ मधु महाराज मनुस्मृति में लिखते हैं । वेदमेत्र सदाभ्यसेद्र तपस्तप्यन् द्विजोत्तमः वेदाभ्यासो हि विप्रस्य तपः परमिहोच्यते ॥१॥२॥१६६॥ पृष्ठम्:अथर्ववेदभाष्यम् भागः १.pdf/९ पृष्ठम्:अथर्ववेदभाष्यम् भागः १.pdf/१० ________________

ra अथर्ववेदमाष्यभूमिका । अथर्ववेद संदिता भट्ट प्रार० रोथ साहिव श्रीर डविल्यू डी० छिन्नी Ffür Prosessors R. Roth and W. D. Whitney. Erff six K aftar Trir iš TSR ay & Eift åt Fitri est (Sed Page 10, Oritical Notes on Athar Ye Samhitn, with the Coinmuentary of Sayana charya, (overnment. Contral Book Depot, 13orabay; and page XIII, Griffith’s English Translation of the Atharva L0S DBDuDDD DDD D Duu Du D DD DD DBDDDD याप्य केवल गवर्नमेन्ट सेन्टल घुक २िपी घई की ओर से छपा है, वह भी अलंधर्श [लगभग आधे वेद का भाष्य] और केवल संस्छत में है और उसके DD DB Diu D BkT TDD DDD D DDD uguBD D uD फी देछ सकते हैं, सागान्य पुरुर्षों को उसका मिसन और समझना कठिन है। ४-अथर्व्वत्रेद विस्तार ॥ हमारे पास तीन अधच संहिता पुस्तक हैं, १-सायराभाष्य सहिद वंबई गवर्नमेन्ट मुद्रापित, १-पं० सेयकलाल कृष्णदास मुद्रापित, और ३-अलमेर पैदिक यन्मास्य मुद्रित । हम ने तीनी संदिताश्री की मिठाकर अध्ययन किया है। घिस्तार का विवरण अजमेर पुस्तक के अनुसार भन्भ पुस्तकों से मिक्षान करके आगे लिस्त्रा है ! अधर्ववट्ट (ये चिपुमाः परियन्ति’ ) इस मन्त्र से लेकर (पनाग्रुप तदश्विना फूत वर्ष’] इस भम्घ तक है। इख में २०वीस काएड, ७३६ सात सी इकतीसैं सक्त, और ५.९७७ पाँच सदक्ष नौ ली लतदत्तर मन्त्र, ई। यह गणना चामे भूमिका के अन्त में धर्मों में घर्शित है। उन्त तीन पुस्तकी वो मिलाने से मन्त्र संक्या में यह भेद (अ) पं० सेवकलाल के पुलक से मिलान । उत्त पुस्तक में मन्द अन्य दो पुस्तयों में मग्न भेद কাজে = 1 यत्ता १५। पर्याय १ । मन्त्र & 92- s = 8. “一弓 n 3! मय Eă 3= R 33 بہتح ኣ1 He as 2-2 --!ܕ · ሃ ! o २६ से २8=न्td Z R.-- ---Rية योग s مـمــــــE38 ________________

w अथर्ववेदभाष्यभूमिका " - - - कॅiगुंड & ! - अष्व ६ । पर्याय ४1 भ० ४० से ४४ey = ზო لعدد ታ፡ 』, 벨 ག་༧ ཡ༧ ཚེ ༧ང་མ་ལ་ - . -- S Հգ –~፰፻ काग्रेड १8। দুষ্মন্ত্র ইঃ [ म• १ से २ व्या २ -- ー* , मo : से १० - १० · = & +愛 » ሄዛ ! "°°፡3 = ° - = ፤ (።• g) +፣ --, II ۹ به R d s == ق = ६ * 。 's म? १ से ६ = १ = 방 + k काय्द्धं १० ॥ V. स्वक 8६। मा) १-१३+२३ = ३४ - सृष्कं १३६ } ཆ༠ ༣-ཅའི་འa- ༠ +B . - ཝ༔ ད་ महा पॅौग १०: * {ყ: -" (সা)-নীলিঙ্ক খাদাই र्फे पुस्तक का संrयगभाष्य सति चंघई स्तक से मिलान । ________________

अथर्ववेदभाष्यभूमिका । पर्याय २ में मन्त्र १ से १८ तक, और अन्य पुस्तकों के भाएड ११ सुप्त १ पर्याप २ में भन्त्र ३२ से ४६ तक आधुके हैं,अर्थात् इन १८मन्त्र के४६ मन्ध होकर धायण DD BDBDuDDm DBDBJDDDDBDBu DDB iBuBDDBDS DD g DuuDu DDDD DDD EBBD DD DD LED DD LuzS DD काएद ११ में ही आया है,यही पाठ हमने इक्ता है। यह पुनर्लेख सायरा पुस्तक में उस समय की पाठ प्रणाली के अनुसार वस्त्रता है। इस बात को छोढ़कर शेप मम्भ संख्या अजमेर पुस्तक के दुश्य है। ♛-सूतं भेद ॥ सायण भाष्य में ७५६ [सात सौ उनसठ] और अजमेर वैदिक यन्त्रालध पी पुस्तक में ७३१ धक हैं। यह २८ सूकी की अधिकता का विधरण नीचे दिग्गाथा ज्ञातर है। मन्हें का घर्णन ऊपर हो चुका है। फाह्यऽ निनमें सादg :मस्य वैश्फि थन्त्राशय सायणामाप्य में $ો રે में सूक की पुस्तक मैं खुल; कि 设 {、遂 荻。 Wt. *R የሄ 3o» 맹, S ፲፪ 8a ६९ ჯo 划 १३ ኳ፤ 线 १३ -حسگ- --سم2 سگ ६ फांद्ध ՀeՎ ጀ$$ Հe ६-अनुवाक श्रीर मन्थॆ कॆ अतिरिन्, फ़्एर्से का धिभाग अनुवाक और सूकों में है परन्द्धकाण्ढों में सूचों की गशन लगातार ssäpä d. LR Í ES'* भी गणना फी यdनहीं दिखाया, पुस्तक के भीतर अपने स्पान पर दिखाया है। a-सायण भTपथ घ्रसंपूर्ण 舍皆 ________________

६५ अयर्यवेंदभाष्यभूमिका । DD DDD DDD SDDD DD D DD DD DBDBD D BDB uD DDD DDD इस प्रकार है-काण्ड १, २, ३, ४, ६, ७. मtख्त ६ तफ] ११, १७, १५, १६, २0 DBDB ED BBBuS DBD DuDBD DuuDuuDuuDuuDuD SSLD cSgAY SS0SS DS DSS १३,१४, १g, १६, २0 (सूक्ष् ३-१४३)1॥ r. ८-अथर्ववेद पुस्तकें और अपना भाष्य। qJSiDiDDD DDD Du DDu uuD GGLiu uDuuDuuDSDDDDu iiiS डिपों, घंवई.चार वेटन। चेष्टन १ तथा २ सन् १८६५, पैटन ३ तथा ४ सन् १८5श् ईसवी ! qYBgDDuDD DDD DDSDuDuD DuDuD D uBuBODDDD DDDDSLSDDSS सन् ६म६३{पत्थर कर छ्पा] ! SSYgDDDD DDDDDDSDDuB BDSDDDBuS uuuB LLLSDuDDD सन १९०१ ईस्वी। ४-अथर्चबेद संहिता, ग्रंग्रज्ञीं अनुवाद, भट्ट ग्रिफ्फ़थ साहिय कृत दी चेष्टच्चधेएन १ रहन् १८६५ वेष्टन २ सन् ६८s६ छै० ! इस भाष्य के घनाने में यह सच पुस्तकें और श्री सायणाचार्य छत ध्रुग्वेद और सामवेद भाष्य, श्री भ्रष्ट्रीधर फ्रव युक्र यठ्ठपेंद्र भाष्य, श्री मइयामन्द्र खरस्वत्री छत ऋग्वेद और यजुर्वेद भाष्य, पण्डित तुलसी श्रम छत सामवेद भाष्य,गास्क मुनि छत निघण्ठ्ठभीर निवती,और पाणिनेि मुनि कृत श्रष्टाध्यार्थी व्याकरण, सर राजा राधाकान्त देव वहादुर कृत शब्द कल्प दुम कोभ, और अन्य अन्य मुझे यहुत उपपेागी हुये हैं, इस लिये उन ग्रन्थ कर्ता महाशवों को मेरा दईिफ धन्यवाद है। ________________

प्रयर्ववेदभाष्धभूमिका। የነ ६-भावश्थफ टिप्पणी, संहिता पाठान्तर, अनुरूप धिपय और अन्य पेदों में मन्त्र'फr पता ४tदि पियरक्ष । eeSiBDD DuDDuBuDuDD DDSDBDS DDDS DDBS DDD S सहज पसे के लिये कारग्द्ध या एड के धिपथ आदि , और अथर्ववेद के अन्य पेय में भन्यों की सूची भी दिया है। - ९-ऋपि, देवता, लन्द। ऋयि वह महामा फएलाते हैं जिनी ने वेर्दो के सदम अर्थों को प्रकाशित uDBDB EYDBDSSLLL DDD 0L DELS DDDD DDD D uD DDD DD DDD DuDuD uDD DDD DL B LLLS SS DD DDD D DBDD S uDu DBD DDS DDD DB DDDD D DDBD DBD DDLD uDS देवता और छन्य लिझे हैं, उस प्रकार अथर्ववेद संविताओं में नहीं हैं। इस ने इस भाष्य में स्कों के शीर्षक पर देवता , छन्द और प्रकरण दिये हैं। ऋषियी 8 फा निश्चय भादों से सफा। १०-निवेदन ।। DDDSDuDuD uBD DS DBDD DDDD DDD DuuDu DDD BLL LODD DuD DuDu KK DDDS और धर्मछ धोकर पुनपार्थी पर्ने। भारतीय और अन्य देशीय धिद्वान भी वेदी क्षा अर्थ स्तोजने और प्रकाशित धरने में यद्धा परिश्रम उठा रहे हैं। मेरी भी संकल्प है कि अथर्षपेद का यथाशक्ति सरल, स्पष्ट, प्रामाणिक, और अल्पDD DB BD BD BDD D Di DDu BD DD DD DuDS DDD DDD BDD लाभ्पाय[वेद के अर्थ समझने और विचारने] में लाभ उठावे । और यदि Du uD D D DuDD DBD DB DBug DuDuD D DDDD DDD ती मैं अपना परिश्रम सफल समभूगा। धृ२ ग्रेंज, नयागा क्षेमकर (श्रद्धाष्ट्रयाड) जन्म,फार्तिक थका७ संघव१gu५ धिक्रमीय, भाद्र छाष्ण जन्माष्टमी १९६६ थिa {ता० ३ नवम्वर १८४म् ईस्वी.) f ጻ£ጿኛ ! जन्मएथाण, आम शाहपुर मद्धराक, सिा अर्शिीगढ़ I कारण्ड ७ || १५ || १६ | | || २१ | कारणद्ध ४ || ४ || | काण्ड १ २8 | || |१० | १३ || ५ || ७ || ३५. || ६ || २0 ५. | ७ ३० || ४ || २१ || ५ || ११ || ८ || ६ || ८ || ३६ | १० ३१ || ४ || २२ | ५ || १२ || ९ || ७ || ७ || ३७ | १२ ३२ | ४ || २३ || ५ || १३ || ७ || ८ || ७ || ३८ || ७ ३३ | ४ || २४ || ८ || | १४ || ६ | 8 | १० | ३8 | १० ३४ | ५ || २५ || ५ . || १५ || ८ || १० || ७ || ४० | = ३५ . | ४ || २६ | ५. || १६ | ७ | ११ || १२ | - - २७ || ७ | १७ || ९ || १२ || ७ || ४० ||३२४ ७ || ३५ || १५३ २८ ५ || १८ ६ | १३ कारड २ २8 ७ || १8 ३० ५. | २० | १ १५. ३१ || ५ || २१ || ५० | १६ | ९ || ३ | 8 ३२ | ६ || | २२ || ६ | १७ || ८ || ३ || ११ १३ ३३ | ७ || २३ || ६ | | १८ || ८ || ४ | १० १४ ३४ || ५ || २४ || ७ | १8 | ८ | ५ | 8 ३५. | ५ || २५ || ६ | २० १४ ३६ | ८ || २६ || ६ || २१ः || ७ | ७ | १० १७ || ४ || २७ ८ || ५|| ३६ |२०७ १८ || ४ | २३ 8 || ५ २४ १0 ४ || १० काण्ड ३ || २8 २० ३० २५] ११ ४ || ११ ३१ || ११ || २६ || ७ | १२ | ११ ४ || १२ २२ | ४ || १३ || ५ || ३ || ६ || ३१ |२३० | | २८ २३ | ४ || १४ ७ || १४ | १३ २8 ४ || १५. ७ | १५ . || ११ २५ ४ || १६ .. "|- | २० || ८ || १६ | ११ ७ || ३१ १७ ४ || १७ ७ | ७ || २ | ८ || ३२ | २७ | ७ | १४ || १८ || ५ || १५॥ १८ ८ || ६ || ३ | ७ || ३३ १४ || १8 १५ & | ६ || ४ || ८ || | ३४ २0 अयर्ववेद सूक्त मन्त्र चक्र । कारएड ||| || ११ | ६ || २ || ५ || | १२ || ४ || ३ || ६ || | | ४ || ४ | ६ || २८ || | ६ || ५ || ७ | ५ |- |- || ५ || १ | | ८ || २ | ५ || | | | ५ || ६ | ८ | २६ || || ७ || | कारएड || | || ६ ६ || ६ - - पाण्ड | ७ || . फागुड': ७ | | ७ || ११ ७ | १३ || ११ ३१ ||३७६

कार १३

२१ || '१२ || १६ | ४ || ४६ | ३ | ७६ | ४ || १०६ || ३ || १३६ ३ २२ । १४ | १९७ | ४ ||४७ || ३ | ७७ || ३ || १०७ || ४ || १३७ ३ २३ || १३ || १८ || ३ | ४८ः | ३ || ७८ || ३ | १०८ | ५ || १३८ ५ः २४ || १७ | १ || ३| ४ || ३ || ७8 | ३| | १०8 | ३ |१३६ ५ २५ | १३ | २० | ३ || ५0 | ३ 1 ८0 | ३ । ११0 || ३ ||१४0 ३ १४१ २६ | १२ | २१ | ३ | ५१ || ३ || | ८१ || ३ } १११ || ४ ३ १४२ ३ २७ १२ | २ || ३ | ५.२ | ३ || ८२ || ३ || ११२ || ३ १४२ | ४५४ २८ |। १४ | २३ | ३ | ३ || ३'] =३ || ५४ | ११३ || ३ काएउ ७ २8 | १५ || ३४ ३ | -२४ ४ || ११४ ३० | १७ || २५ || ३ || ५५ || ३ || ८५ || ३ || ११५. || ३ || १ || २ ३१ || १२ | २६ | ३ ||५६ | ३ | ८६ | ३ || ११६ | ३ | २ | १


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२७ ३ } |५७ || ३ || ८७ || ३ | ११७ || ३ || ३ || १ २८ ३ ] ५८ ३ | ध्म् | ३ || ११८ ३ || ११8 ३ || ५8 पाण्ड ६| २8 | | ३| ८६ | | ३ || ५ ५ || | ६० || ३|| ६०| ३० ३ 1 ३ ||१२० | ३ | ६ || ४ १ || ३ |३१|| ३ |६१ | ३ | ६१| | ३ || १२१ ४ || ७ | १ २ | ३ || ३२ | | ३ || ६२ ३ | 8२ | | ३ ||१२२ | ५ | ८ || १ ४ | 8३ ३ } ६३ || १२३ || ५ | 8 ||

  • | ४

२ | ३३ || १२४ ४ || १0 ३ || | १ ३ | ३४ ३ |३५ || || ३ | ५ || ३ || ५ | ६४ | ३|| ६४ | ३ || || | १२५ . || &| ३ || ११ । ५ || १ ३ || ६५ ६|| ३ } ३६ | ३ |६ | ३ | ६ | ३ ७ | ३ | ३७| ||| || | ३ || ६७ ३ || ६७ ३ | १२७ १२८ १४ १२६ || ३ || | १५ १ 8 | ३ | ३६ | ३ ३ } ६8 || ३ | 8 | १३० | ४ || १६ | १ १0 ३ || ४0 | ३ | ७० १३१ | ३ || १७ || ४ ४१ | | ३ |१०१| ३ ३ | ७१ १३२ || ५ || १८ || २ १२ | ३ | ४२ || ३ ॥ |७२ | ३ ||१o२| ३ १३३ || ५ || १६ | १ - १३ || ३ || || ३ | ७३ | ३ |१०३| ४३ ३ || १३४ २४ || ३ || ४ | ३ |७४ || ३.१०४| २0 | १५. ३ || ७५ || ३ || १३५. ! ३ ||१०५ || ३ || २१ || ४५ २२ | २ | ५२ | २ || ८२ | ६ | ११६| २ || (२) | १३ || ६ || ३३ १ || ५३ ४ || ११७ (३) | ६ || ७ || २७ १ | ५४ ११८ () | १ २५ || २ | ५५ १|१८||२८६| () | ? ३४ ५६ (६) | १४ धार = २७ १ || ५७ || २ || ८७ २६ १० २८ १ || २१ ५० || ३१३ ५६ | १ | ८६ | ४ || २ | २८ || ९ } २२ ३० | १ | ६० | ७ || ६) | ३ || ३ ; २६ | १० - ३८ - ३१ || वार १ || ६१ | १२ २ | 8१ | १ | ४ ! २५ | १० ! ३१३ |" .. ३२ १ | ६२ । १ | ६:२ ६३ ३३ १ || ६३ || १ | ६३ | १ | ६ ! २६ | का १० || २ | ५५ ३४ ६४ २ | 8४ १६0 ३५ ३ | 8५ ५३ ३३ १ । 8 8 २६ ७३ ३७ ६७ १ | 8७ ३८ ३ || 8 १ || (२), १० ६8 १ | 88 १ || (३) (४) १६ ४१ ७ } ५४ || १ | ६० ७१ १०२| १ ८ | ४४ || २ | ४६ ७२ ३ ||१७३; १ } (६) ४ ४३ ७३ || ११ | १०४| १ १0 १४४ १०५| १ ३४ ७४ ४५. || २ ७५. २ । १0७ ! १८ः ४६ ७६ ६ | १ ४७ १०९| ७ | १ | २४ | फाण्ड ११ ७७ ४८ ३७ ७८ ३ | ३१ १६४ || ३१ ७8 ७५ ५० ५१६ ५१ ११४ | ५ || ३८ । ४ 1 २६ || ६ ! ११५ || ४ |६(१) | १७ - ५--३६ | | ३६ | १ | ६ | | ३६ | १ | | ७० | ८0 १ || एड || |२६३|| १० !-| ४ ४ || १०६| |५६ १ || |। १ | कारएड १४ || ३ |१०| || २ || २|११| ३ | २ | २५ || १ | १ । | || १ २ | ; । ४ |११२| २ ११३| २ २ ||

  • । ८१ || २ | १३86

५ ; ५० | काण्ड १३ काण्ड | काण्ड | काण्ड | काण्ड मत्र | || काण्ड १५ | काण्ड १७| १६ | ११ || ४8 | १० | ३ || ३ || ३३ | ३ १ | ३० |२०|| ४ | ५0 || ७ | ४ || ३ || ३४ || १८ २१ || १ || ५१ | २ || ५. | ७ ||| ३५ || १६ २ || २८ १ | ३0


| २ २२ || २१ । ५२ || ५ || ६ || ९ || ३६ | ११

३ | ११ | काण्ड | २३ | ३० | १०| ७ || १८ः |५३ || ४ || ३७ | ११ ४ | १८ २४ | ८ || ५४ || ५.| = | ३ || ३८ || ६ ५ •| १६ १ | ६१ २५ | १ | | ५ . || ६ | 8 || ४ || ३8 || ५ ६ || २६ २ || ६0 २६ | ४ || ५६ |' ६ | १० || २ | ४० || ३ ३ || ७३ २७ | १५ || ५७ || | ११ | || ३ ५. | ११ ४१ ५८ २८ || १0 ६ | १२ ४२ ४ |२८३ २६| ९ |५९ || ३ || १३ | ४ || | ३ ४३ १० | ११ | काण्ड १६ ३0 || ५ | ६० || || . २ || १४ ४४ ४ || ११ || ११ १ | ३ | ३१ | १४ || ६१ .| १ || १५. || ६ || ४५. || ३ १२ || ११ २ | ५ || ३२ || १० || ६२ || | १२ || || ३ १ | १६ ४६ | १३ || १४ ४७ ३ | ४ |३३| | | १२ || |२१ | ५ || ६३ १ || १७ १४ || २४ ४ | ४ || ३४ || १० | ६४ || ४ | १८ ६ | ४८ १५. ४8 ५ || १ || ३५ | ५. || ६५. || १ | १8 १६ ६ | १६ | ३६ | | | ६ || ६६ १ 1 २0 ७ || ५० || २ १७ | १ ७ || ५ . |३७ || ४ || | ६७ | | = | || ११ || ५१ | ४ २१ १८ ७ || ३८ ३ || ६८ १६ | ५२ १ || २२ १८ |२२० | & | |१४ || ३8 .| १० || ६8 | ३ ४ || | २३ .| ९ || ५३ || काण्ड १६| १० | १० || ४० || ४ । ७0 | | | १| २४ | 8..|.५४ || ३ ७' + ५५ . | ३ १ | १३ || ११ | ६|| ४१ || १ | ७१ || १ | २५ | ६ . || ५६ | ६ |. ||| ६ | १२ || ४ || ७२ २ | १ | ४२ | १ || २६ ६ || ५७ | १६ ६ | १३ || ११ || ४३ |||| ८ २७ ५८ १ | ४ || १ २८ ५. | १0 ६ | ११ || १५. || || ५ ६|| ४५. | १० | काण्ड २० || २8 ७ | १३ || १६ ६0 २ || ४६ ८ ! ३३ ४ || १७ | १ ८० | १४७ ३१ || ६ | २ | ४ | | 3 | १० | ६२ ३२ ६ | १०३| १८ | १० |४८ | || | काएड | || १५ || ३ || ७२ |४५३ || १४ || || ५8 | ४ || ९ | १ || ३ & ! अयर्ववेद सूक्त सन्य चत्रकः । काण्ड | काण्ड • | काण्ड | काण्ड क रञ्ज स् कार्ड 7 ६३ || १ | ७ | = | १ | १२ १०५ || ५ || १२३ | २ || १४१ | १०६| ३ | १२४ ६ | १४२ ६ || ७८ ३ । 8२ | २१ १0७| १५ || १२५ || ७ | १४३ } ६५ || ३ || ७8 | २ | 8३ || ८ || १०८ | ३ || १२६ | | २३ ६६ | ३ || ८0 || २ | 8४ || ११ || १०8| ३ || १२७ | १४ ६७ || ७ | म८१ || || २ | 8५. ४ ||१ ३ || १२८ || १६ ०|| १११| ३ | १२६ । २० ६८ || १२ | ८२ | २ | ६६ | | २४ ||११३.| ३ || १३० | २० ६8 | १२ || ८३ | २ | &७ || ३ ||११३| २ || १३१ | २० ११४ २ || १३२ || १६ ११५.|| ३ || १३३ || ६ ७१ || १६ | ८५ || ४ | 88 || २ |१६| २ || १३४ || ६ ७२ | ३ || ८६ | १ ||१०0 | ३ ||११७|| ३ || १३५ || १३ ७३ ६ || ८७ ७ १०१ | ३ ४ || १३६ || १६ ११8 || २ |.१३७ | १४ ७४ | | ७ | =८ | ६ |१०२1 ३ ||१२० | २ || १३ || ३ ७५ || ३ | | ८ ||११||१०३| ३ |१२१| २३ || १३९ || ५ |— |- १४३ । ७६ || ८ |80 | ३ || १०४ || ४ १२ ३ | १४७ || ५ प त्र ५ & 8५८ १ || ३५ || १५३ || ६ | १४२| ४५४ |, ११.| १० | ३१३ | १६ | ९ | १०३ २ || ३६ || २0७ | ७ ||११८| २८६ | १२ || ५ || ३०४ || १७ | १ || ३0 ३ || ३१ || २३०1 = | १०| २8३ || १३ ! ४-| १८८ ' } १८ || ४ || २८३ ४ | ४० || ३२४ - 8 || १०|| ३१३ || १४ | २ || १३8 || १8 | ७२ || ४५३ ५ || ३१ | ३७६.I १० ।। १0 | ३५0 | १५ | १८ || २२o । २० १४३ - | 8५८ ५. || १७३| १२80 | ५ . |२६०|१६६६|| ५ | ३8 |११६४ || ५ |२९|१८२७ |. महायेग, काण्ड २०, सूक्त ७३१ मन्त्र ५,६७७॥ ________________

१-सूक्त विवरण कराड ९ ॥ ૧૭ ঋদ্ধ | सूक के प्रथम पद ठेवता उपछेश. छन्द १ |ये मिषप्ता परियन्ति | वाचस्पति | घुदि चुद्धि | छादृछुप्र २ | विषा शरस्य पितरं: 1इन्द्र । नथा अनुछुप.मिष्टप. . ३ 1विया शरस्य पितर |पर्जन्य आदि |शान्ति करण | पङक्ति-अझुथुप, ४ ||अम्ययो यन्त्यध्वभिर् | श्रप्रापः परापकार ! गायत्री, पद्धति । ५ |आपोहिष्ठा मयोभुधस्र] तथा वल याति | गायत्री। ६ iशं नो दॆचीं र्भीष्टय श्रारं।ाईयता | गायत्री, पद्धकि। s |स्तुवानमग्न आ घह | इन्द्रारनी सेनापति | श्रद्धपुर, त्रिएए। म् |इवं हवियईनुधानान | अग्निसीम | तथा ነ} & |अस्मिन् वसु वंसंबो विश्वे देवा | सर्वसम्मन्ति | त्रिष्टुप् १० || श्रप्रयं देवानाभसुरो মৃত্যু वरुण घणन । त्रि छुप, अनुधुप्र। E SD DD DSDS SDD SuDD DDD SSDDDSS DBuDu १२ ||जरायुञ्जः प्रथम उत्रियघृषा ईश्वर आदि Iत्रिष्ट्रप.अनुप्प। १३|नमस्ते श्रस्तु धिद्युते प्रजापति आत्मरक्षा · | श्रग्झुइप जगती १४|भगमस्या घर्च ग्रादिप्य|घधूवर विवाह अनुध्रुप । १u jसं संस्वन्नु सिन्धवः | प्रज्ञापति ऐश्वर्यप्राति | अठvए, आदि EDSDDDDDD DDD S S S DDDBDD SDDD S DDDYS १७ 1*अमूर्धा यन्ति योधितो द्विप्र ' नाड़ी छेदन | अछुपुप, गायत्रीं १८ Itनर्लचम्य लालाम्यं सविता ਤਜ਼ अनुष्टुए, जगती। १६ |मा नो विदन् विव्याधि|इन्द्र " जय और न्याय|अलघुए, पङ्क। iD DD DD D SDDDS DDSDBDBDiDDDD DuDS DBDD S DESuDD uD DuB SDD S S SuDuu S DOBDDDS २२ |अल अर्थमुदयतां सूर्य रोग का नाश् l ” १३|नत जातास्पष्पधे 1श्रीपधि रोभा नाश sy २४|छपर्शी जातः प्रथमस् | तथा तथा अनुग्रुप, पडिकि। २l |यदमिरापो अदहत् |अनि रोगशान्ति | त्रिप्टुप । २६ ||अरे ऽसावस्मंस्तु | इन्द्र युद्ध प्रकरण | पाचश्री १ २० असू पारे पृदाक्रधल, प्रक्षापतेि. s মজুলি, মন্ত্রদুয়৷ २८ उप यागाह यो अग्नी | अग्नि y 3rga २8 |अभी चलेन मणिना | ग्राह्मणास्पति | राजतिलक 39 |विश्त्रे देधी घसची धिश्वे दैवt | ” विष्णुए। SiAS S DDDDSELuD DDDD SSiuiDDu S S uDDDYS uBDBDL ३२ । इदं ज़मासो विदथ ! ब्रह्म ਜਬ ਭg """صص۔--سسٹم سستیبـــــــــــــــــــــــسسسسعــــــــــــــــــــــــــــــــــشسبسسسســــــــــــــــــــــــــــــــــــــــ--Shivaram ac (सम्भाषणम्) ०५:४८, ५ सितम्बर २०१६ (UTC)۔ ________________

ጻጻ 남 뒷 "T-A-rum-. |ः शुचयः ! श्प्रापः V rw, इयं षीष्टश्मञ्जुजातां ! वीरुध्-लना | विद्मधाति .. || घ्ड़्ष्टुप् यदाअभंन्.दक्षिायणा | ईिरण्य लुवर्ण आदि | त्रिएप्। आपो हि छा मयों R a-i SIR &ro-ur यी घः शिवतमो ' . R ဖွံနွှဲခဲ့ { तथा FoSR तस्मा अरे भमाम वी | u। 3 | १०। 8 1 ३ 3%ዛኝ8—-ጳ8 ईशाना चार्याणां u go & s. - श निों देवांरभिष्टय ६l १ | १ २३॥ २०,२१| ३६ || १२ || पूo६३||१३ | अप्सुद्ध में सोमो १! * }|१०| & ! ४, ६| . i :|| श्रांतापः पृणीत भूषजं ६ I में | १० I & l७ - यो नः स्वो यो अरणः ||१& ।। ३.४ ६ ७५ १& 3gs ਸਲੁ ਹਜ਼ 한p1 || 《1 || शताब इत्या महां असि। २० । ४ | १o] १५२। १ वस्तिका विश्ॉ पति | २१।। १ | १०॥ १५२। २ वि - ६न्द स्वधी जदि |२१।२ १० ॥ १५२ ३ - ffà già afk I 3 Roug *OSՀՀks अपेन्द्र द्विषतो मनी ||२१ । ४ || १०| १५२५ ऌट्टकेषु दे इंग्रिमाणं २१ I ४! १ ! पू० ॥-१२ अभी यतेंन मणिना | २&। १ | १०॥ १७४। १ अभिश्चत्य, सपत्नानामि || २& ! २{ १० ।। १७४२ अभि दृष्ट्वा दॆवः सविता ||२& ।। ३||.१० || १७४ ।। उदसौसूर्यों अगादुदिई 1२९।५। १०' १५६।१ रुपक्क्षयणी चुषा ኛS ! % | &p ! &st፧ [q 1. यूक्ष्यभद वाक्षायणा |३५। १ Հe ! Վ* : ཀི་ཊར་ཨffས་གཡི་ཚ་བག|མ་ལ་ ३६ I भू६ ________________

श्री३म् । N �N अयववदः॥ -مـحrwwلوناچاپه عيس-- प्रथमे काण्डम् ॥ 〜ややら今リ念やつ・やや प्रथमोऽनुवाकः ॥ ܚܚܚܚܚܚܚܫܚܗ सूक्तम् ९ ॥ मन्त्राः १-४ 1 वाचस्पतिर्देवता । श्रानुष्टुप्छन्दः, 8×४ अक्षराणि॥ शुद्धिवृद्धष्णुपदेश:-झुद्धि की वृद्धि के लिये श्रुपदेश । -o-c- ये त्रिपुप्ता: परियन्तुि विश्व रूपाणुि विर्भतः । yr. - er ሳ 4. वाचस्पतिर्वला तेर्पा तुन्वें अद्य वैधातु मे ॥ १ ॥ यै । द्वि-युप्लाः । परि-यन्तैि । विश्र्व । कुपाौिं । विभंसः । धूाचः ॥ `पर्तिंः । वर्त्तं । तेषाम् । तुन्निर्वैः ॥ श्रुत्र्रद्य । दुधुतु ॥ स्रु ॥ १॥ सान्वय भाष्ट्रार्य- (ये) जो पदार्थ (त्रि-सक्षा) १-खद्य के संतारक, - रक्षक परमेश्यर के सम्बन्ध में, थद्धा, २- रक्षणीय जगत् [यढ़ा, तीनसे सम्बन्धी ३-तीनों काल. भून, घर्तमान, और भविष्यत्। ४-सीनों लोक, DS DuS DD DuDuD SLS SDDDD DDS DDDS DBD DD D gi eiBiBB SS --शध्दर्यव्यक्रादिग्धक्रिया-ये । पवर्भाः । च्वि-क्षमाः । तरतेः ॥ ४०५ ।। ६९ । इति दृ तरणे---ङ्घ्रि ! चरति तारपरौि शार्यते च त्रिः " ________________

( R ) प्रमघर्दयेदभाध्ये झू१ १ और मछति। यद्ध, तीन और सात - वस। ७-चार दिशा, चार विदिशा, एक ऊपर की और एक नीचे की दिशा । ८-पाँच शान इन्द्रिय, अर्थात कान, DS DDDD S DSDDD SDuDBD D DD DuDDS SYuDuDD S DDS BDB S DDD S DDSDD uDuuDDS DDD DDD DDuLSLSuDuD SSYSS मद्दाभूत ५+प्राणि ॥ +शान इन्द्रिय ५+कर्म इन्द्रिय ♛ +ध्यन्तः करण १ इञ्च्यादि] के सम्बन्ध में [घच्तमान] होकर, (धिश्वा-विश्वानि) सत्र (रूपाणि) घस्तुश्री की (बिन्नत:)धारण करते हुये (परि) सब ओर (यन्ति) व्याप्त हैं। (वाचस्पति:) वेदरुप चाणी का स्वामी परमेश्वर (तेपाम) उन के (तन्ध:) शरीरके (यला=धलानि घलोंके (अद्य) आज (में) मेंदें लिये (दधातु) दान करे ।१। भावार्थ-आशय यह है कि घृणा से लेकर परमेश्घर पर्यन्त जो पदार्थ संसार की स्थिति के कारण हैं, उन सच का तत्वशान (वाचस्पति) छेद घाणी के स्वामी सर्वगुरु जगदीश्वर की छुपा से सब मनुष्य वेद द्वारा प्राप्त करें और उस अन्तपरमेश्वरो जगठ्ठा । खंख्यावाचीघा । सप्यट्रस्यांमुश्च । उ०१ 1 १५७ I इति पप समवाये-कनिन्. नुद् च । लपति समयेतीति खप्तन् संख्यामेदो चा । यद्धा, षप समवाये-क। त्रिशा तारकेण परमेश्वरेश तारणीयेण अमता वा सह सम्बद्धाः पदार्थाः । यद्ध ! त्रयश्च सप्त चेति त्रिपप्ता दश देचराः ! यद्वा । त्रिगु” णिताः सस एकत्रिंशतिसंख्याफाः एदार्थाः । डच्प्रकरणे संख्यायास्तपुष्पस्योपसंख्यान कर्तव्यम। वार्तिकम्, पा०g। ४ । ७३1 इति समासे उच्च विशेष्यव्याख्या भाषायाँ क्रियते । परि-यन्ति । इण् गर्ली-लट् । परितः सर्वतो गच्छन्ति व्यामुवन्ति। चिश्वा। अश्शुपिलटेिकणिरत्रटिविशिष्यः कन। उ० १। DDE BD D DDSDD DuD DDD DLDD DSS DgD S0 DuuD gS DD S DDD S DuDDSS OuOBDOD BDu D DD DDuDDDL उ० ३। २८ 1 इांत रू ध्वनी-प प्रत्ययो दीर्घश्च। रूयने की त्र्यते तद्भु रूपम। यहा, रूप रूपषरणे-अच. : सौंदर्याण, चेतनाचेतनात्मकानि चस्तनि । बिभक्तः । हु भृञ् धारणपोषणयोः—लटः श्रुतृि I जुहोत्यादिस्वात् शपः श्लुः । HDuDDDD S DDLD SL LDLL DDD DDD DuDDD DDD DDDD वाचः। किय वचिभच्छिधि० । उ० २।। ५७ । इति यच् बाचि-फिए। दीर्घश्च । वाण्या।। 1 येदात्मिकाथाः । पतिः ॥ qातेर्द्धतिः।। ऊ० ४ ।। ५७ । इति ॥ पा रक्षणे-डति । रक्षकः । सर्वगुरुः परमेश्वरः । वाचस्पतिः--पप्ठवाः । पतिपुव० । पा०८ ॥ ३५६। इति विसर्गस्थ सम्वम्। बला । यल हिंसे जीधने ________________

ལྟa ༣ ། भंथर्मकाण्डस् ( . ) पूर्ण विश्वख करके पराक्रमी औरु परोपकारी होकर सदा आनन्द በኟበ সলজু লৱণুজনী कहर है-पेगवर्णन, पाद १ सूत्र २६।। स यूर्वेषामपि शुरुः कालेनान्नवच्छंदालू ॥ वह ईश्वरसवपूर्वजों का भी सुरु हैचर्योंकिचह काल से विभक नहीं होता । - Aधुनुरेहैिं वाचस्पते देवेनु मनसा सुह। वसेiष्पते. निरंमय मथ्रवास्तु मयिं श्रुम् ॥ २ ॥ पुर्न; । आ । दुद्दि । वाचुः । पुले ई वेर्न । अर्नसा । बुइ । वडेt:।पुले । नि। इसयु। गर्षि। एव। श्रुसु। मयि बुक्रय ॥ २ ॥ भाषार्थ वाचस्पते) हे वाणी के स्वामी परमेश्वर ! {{पुन) वारंवार (एहि) श्रा ! (वस्रोः पते) हें श्रेष्४ गुणके रक्षक; (क्वेन) प्रकाशमय (मनसा सह) मन के साध (नि) निरन्तर (प्रमय) [मुझे रमण फरा, (मथि) मुझ में व समान {श्रुतम) वेदविझान (मयि) मुझ में (एच) ही (अरत) रहे ॥ २ ॥ भावार्य-मनुष्य प्रयत्न पूर्वक (वाचस्पति) परम शुरु परमेश्वर का ध्यान निरन्तर करता रहे और पूरे स्मरण के साथ घेद विंक्षान से अपने हृदय की शुद्ध करके सद्दा सुख भोगें ॥ स्व-पचाद्मच्! पूर्वषत् शेर्लोपः। यल्लानि । तेषाम् ॥ त्रिसप्तानां पद्दार्थानाम् तन्धः । भृसृशीङ् । उ० १ । ७ । इति तनु विस्तृतौ- ख मत्ययः ! सतः ज्ञियम्, ऊष्ठ्। उदात्तस्सरितयोर्यणः स्वरितोऽनुदात्तस्य । पा०ि ८ 1 २ । ४ ।। uu DuuDu uDuDSuBuDuuD DD DBDD DDDuugD DDuSBDBBBDBB S zuD S DBDm DDLDDS GBEE0DS gDS DB D DB , अश्मावा, अस प्रत्ययी दिनेsथे त्र निपायते 1 अस्मिन दिने, अध्ययनकाले। दधातु। बुधाब्धारणोंप्धो, दाने ‘ध-श्लोट् । झझेल्याक्षैिः । शापः श्लुः । थारयतु , स्थापयतुः, वदतु। से । मछम् मदर्थम। २-पुनः । पनाय्यने स्त्यस दृति । पन स्तुतौ-अर्, अकारस्य उत्वं gपोदरादित्वात्। अधधरणेभ 1 कारवारम। आ+इहि । आ+इए। प्राती लोद। भ्रागच्छ। वाचः+पते । मं० १ 1 है धारायाः स्वामिन दे बहान् । घाचस्पतिर्धात्रः पाता घा पात्तर्ष्णिता वा-नि० १० ।। १७ । देवेन । नन्यिश्रर्ष्टि ________________

(g) अथवंवेदमार्य भू० १ ।। -verrn v rmw rmv vm * مـــــــــــــــــــــــــــــس مــــــــــــــعـہ۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔ـــــــــــــــــــــــــــــــــــــــم टिप्पर्श-भागवान् यास्कgनि ने (वाचस्पति) का श्रार्थ 'घोषःप्रता धा पालयिता घाखौँ-अर्थात्याणी की रक्षा करने वाला घा कराने भाला किया हैYSSSED DDDDtLDD DBDuD DDBB BB BD BDD DDD प्रकार है । पुन्रेहि वाचस्पते देवेन भनसा सुह ववेsपतें नितमय नयेव तन्र्च १. मर्भ ॥ १ ॥ धे घाणी के स्वामी त्यारग्यार अौं । ऐ धन पा अक्ष फे रक्षफ ! प्रकाशमय मन के साथ मुझ मेंही मेरे शरीर को नियम पूर्वक रमण करा ! मन को उखम शकियों के बढ़ाने के लिये (यज्गार्यती दूरभुदेविर्दयुय) इत्यादि यज़ुर्वेद अ० ३४ म० १-६भी gदयस्थ फरने चाहिये'। इहैवामि विर्तनूभे आर्नो इच्च ज्थया । ब्राचस्पतिर्निर्यच्छतु भय्येवाखु मयिं श्रुतम् ॥ ३ ॥ Dui DDDDuuDuDiDDuDuD uDuDuSuDuDu वाचः। पतिंः॥नि । युच्छे तु॥ ਕ ਲੁਰੂ ॥੩ भाषार्य-(इ४) इस के ऊपर (पब) भी (अभि} चारो और से (धितठ) पचादिभ्योल्युणिन्यचः। पाण् ५। १ । १३४। इति दिधु मीट्राधिविगौथा ध्पषएारद्युतिस्तुतिर्मोक्ष्मदस्वमकान्तिगतिपु - पचाद्यच्च । दिव्येन , यॊतकेन , BDBDBDD S DDDB DDDDDDuDJ D BsBLS D DB DDD DDDLS uDDS DDD DDD S BDBD DD DES0 LLLg DD DDD DDDDDSqu uD D DDuDDDD S LDLHS D LLLLLL BDB DDBDD BDBDBD DDBDBD DDD DD DDDD DDD पते ॥ मंo १ 1 पालयितः, स्वामिन्, वसेप्य्पते ॥ पञ्प्ष्ठ्याः पतिपुष्प्रo । पto DE EzugL uDuDuDDD DDD S DDBDBDD aLLSLEEaLL Dg थस्वय। नि। नियमेन, नितराम । रमय। घेतुमतिच। पा०३।१।२६। इति DD DBDDBDiSS DiDiSDDLL DDiD iuD D DBD LD E ggL DDD DS DDS S DDuDuS DDD DDS DDD DDD BD DBS DDDD DDD S DDiSDDS DBuBDBDS ३-इह । अत्र, अस्योपरि, अस्मिनु ग्रह्मचारिशि, ममोपरि । अभि । ________________

सू० १ मयमं काण्डम् - { YA ) द अच्छे प्रकारफेस, (६च) जैसे (वभे) क्षेनों (आना) धनुषकोटियें (ज्यया) जय के साधन, चिज्ञाके साथ तिन जाती हैं] (चाचप्पति:) वाणी का स्वामी DDDL D DBDBuSDl LDu D DuuDD SkDBkD DBD DB (मयि) भुझ में (एच) ही (अस्तु) रहे ॥३॥ भावार्य-जैसे संग्राम में शर वीर धनुए की दोनों कोटियों की डोरी में चढ़ा कर वाण से रक्षा करता है उसी प्रकार आदिगुरु परमेश्वर अपने कृपायुकदोनौं छार्थी फो [अर्थात् अशान की हानि और विहान की चुद्धि को] इस मुझ ग्रह्मचारी पर फैला कर रक्षा करे और नियम पालन में दृढ़ करके परमछधदायक ब्रह्मविद्या का दम्न करे और विशान का पूरा स्मरण मुझमें रहे ॥३॥ भगवान्थास्क के अनुसार-निष्किe । १७ (ज्य) शब्द का अर्थ जीतने चाली थद्वा आय घटाने वाली अथवा वार्षों को छोड़ने वाली यस्त है। उर्षहूती वाचस्पतिरुपुस्मान् बुाचस्पर्तिहृयताम् । सं श्रुतेन' गमेमहुि भा श्रुतेनुं विराँधिषि ॥ ४ ॥ उर्ध्म-हृतः । द्वाचः पर्त्तिः; उर्पं यस्मृष्ट्वाचः पतिँ ह्यु युद्ध्रास् सश् बुतेन। गुझे महैि। मा। श्रुतेर्न। fè t f n : A भाषार्य-(वाचस्पति) धाणीफा स्वामी, परमेश्वर (उपहुतः) समीप घुमाया गया है. (वाचस्पति) वाणी का स्वामी (अस्मान्) इम को उपहुय


س--س---س--------س--س----سس---------------س- व्यभितः सर्वश्वः । वितनु ! तष्ठ चित्तारे-लॊद् अकर्मकः । वित्तमुद्दि, धितन्यस्ल विस्तुतोमय। उभे । ईद्देदू द्विवचन प्रयुहम। पo १ । १} ११ ! इतेि प्रशू’ टाम।छये। आर्नो । आछ+ऋमती-किन्भकारोपसर्जनम्। पूर्वचदमग्नुझम आर्नो, धनुष्कोटी, श्रटन्यौ धनु प्रान्ते । आर्ती अर्तन्यौ बारण्यौ यारियएयौ धा मिश्० & ।। ३& ॥ ळथथा ॥ ज्ञा जयतेर्वा ञ्जिनातेर्धां प्रज्ञाचयतीनिति वा। निरु० 81 १७1थव्न्यादयश्व। उ० ४ ॥ ११२ । इति जि जये,वा, ज्या वयोहानी णिच-वा, ढ रहन्ति गती, खिच्-या। निपातनाए साधु । या । अन्मेस्वपि इश्यते। पा० ३ । ६ ।। १०१ ! इति ज्यु गत्याम यद्धा, ज्था चयोहानी,खिच्दै । टाप् । चतुर्गुणेन्, मौर्व्या । वाच्च+पत्तिः भ४१ || वारण्याः स्वामी' नि+ স্বাক্ষরান্ত । निष्थमन्यः, नियमे रक्षतु । अन्यत् सुगमं व्याख्यातं च । g一5°+罚 1 उप +हअआद्वाने-क । समीप छतावाहन, छीं ________________

( i ) अय्यार्यक्षेद भाष्यें मू० २ लाम् समीप ཐུག་ཐེ་ 1 (སྙཤེར) ཟེ་ལྟ་ विज्ञान से (संगमेमईि) हम मिलें रहे । (अतेन) वेद विज्ञान से (मा विराधिषि) मैं अलग न हो जाऊं ॥ ४ ॥ भावार्य-भ्रह्मचारीं लोंग परमेश्वर क्रा ग्रावाइन करवे निराचर श्राभ्यास्त्र और सरकार से वेदाध्ययन करें जिस से प्रीति छुर्घक अचार्य की पढ़ायी अह्मचिया उन के अवध में स्थिर होकर यथाचद उपयेरगी झोचे ॥ इस चत का यह भी तात्पर्य है कि बिछाछ प्रह्मचारी अपने शिछक आचायों का सदा आदर सत्कार करके यज्ञ पूर्वक विद्याभ्यास करें जिससे बह शास्त्र उन के हृदय में दृढ़भूमेि होवें ॥ ४ ॥ -er सूत्क्रम् २ ॥ v- a grg &SRt a , , 8 3rgs, tx y a त्रिपदा त्रिष्टुप् १९४३ अक्षराणि ॥ बुद्धिवृद्धगुपद्देशः-बुद्धि झी वृद्धिक्षे लिये उपदेश । विश्वना शुरस्र्थ पितई पुजैन्य भूरिधायसम्। वित्रो श्र्वस्य सुतर्दे पृथिवीं भूश्विर्पसम् ॥ १ ॥ द्धिम। शुरस्र्य। पितर्राम्। पुर्जन्य। भूरि-धायलम् । विद्मी । ਝ ਬੁਝਾਦ ਕੀਜ਼ ਜੁ-ਚ ll ኝ በ भाषार्थ-(शरस्य) शत्रु नाश्क [[वान्झधारी] शूर पुरुप के (पितरम्) रक्षक, पिता (पर्जन्यम्) सीचने वाले मेध रुप (भूरिधायसम्) वहुत प्रकार स्मरणः । वाचः+पतिः ॥ म० १ ॥ चाण्याः पालयिता, परमेश्रः । उप । समीपे । आदरेण । हृयतास् । इन्-तोद अद्वियतु स्मरतु। शुतेन । मं० २ । अधीतेन, शस्त्रविज्ञानेन। शस्+गामेमहि । खम पूर्वकात् गम्ल संगतौं-आशीर्शिब्दि। समी गम्युच्छिप्रच्छि० । पा० १ । ३ ।।२६। इति अत्मनेपदम DuDDDuD DDGG tL gg BD D DDDBD DDSS DDDDDS संगता भूयास्म। भा+वि+राधिधि । शध संसिद्ध 1 विराध वियोंगे लुलि, आरंभमेण्दमेकवचनम् हझगमश्च । माङि लुङ्। पा० ३।। ३ । १७५ ॥ इति लुङ्। न माङयोगे। पा० ६। ४ ।।७४। इति मtडि, अटोऽभाचः : अहं वियत्कोमा भूवम। −G .९•---निषद्म ॥ चिद्द शाने-ल६ः श्रदादित्वात्। शपो लुक्॥ द्वग्रञ्चोऽतस्तिङः ! ________________

सू० २ - पयर्न काश्ख्म् ( 3 ) माननीया माना, (एथिवीम) विख्यात वा विस्तीर्ण पृथिवीरूप (भूरेिषर्पसम) ག་ས་ག་ཀུ་ཤོ་ཆེ་གྲུལ ft་མཐར་། བ (ཨ་ भली भांति (विधा उ) छम जानने शी [! & ዘ भावार्य-जैसे मेय, जल की घप करके और पृथ्वी, अस आदि उत्पन्न करके भाणियों का बड़ा उपकार करनी है, वैसे ही वह जगदीश्वर परम्रह्म सब मेच,पृथ्विी श्रादि लोक लोकान्तर्गे कर घरण और पोपश्धा नियम पूर्वक करता है। जितेन्द्रिय शूरवीर विद्वान पुरुप उस परम्रह्म को अपने पिता के समान रक्षक, और भाता के समान माननीय और मान कच्तईं जान कर (मूरिधाया:) . ਸ . श्बूद) ऋदोरप। पा०६1 १।५७ ! इति श्रु हिंसे-अए। शशुनाशकस्यवाणस्य। श्राथवा, शारो घाणः, तद्य्स्यास्ति । श्रर्श श्रादिभ्योऽच् । पा.०५ ।। २ । १२७) इति मत्यर्धे' अच्t घाणवत्तः शरपुरुपस्य । पित्तरम् । नमृनेरृत्वधृ ० { उ० २ ।। &५ । इति पा रक्षणे-वृन् था तुच्य् निपातनात साधु । रक्षकम । जनकम । पर्जन्यम् । पर्यति सिञ्चति सृष्टि' करोतीति पर्जन्यः। पर्जन्यः । उ० ३ 1 १०३ ।। इति पृथु सेचने-अन्य प्रत्यय, पस्य जकारन् । पर्जत्यस्तूपेराद्यन्तधिपरीतस्य " DDD BDDD DDuuDu DBD DuDD DuuD D DDDu uueBL LLLLLL सेचकम् । मेधम् ! मेघघद. उपर्कक्षरम् । भूरि-धायञ्चस् । चद्दिद्दाधाभ्यश्छृन्दस्ति 1 उ० ४ ।। २२१ । इति भूरि+द्बुधाश् धारणयोपगायोः दाने च-अरृतुम्, संच ख्रित । श्राती युक्र्. विशछतोः ! पर० ।।७॥ ३1 ३३1इति युक्॥घठ्ठपदार्थDDD DiD DD DuDDS DDD DDD DuuST S DDD जानीन एव ! खु । छछु । अस्य । शरस्थ । मातरम् 1 मान्यते पूज्यते सा माता । नन्तृनष्ट्रक्चन्दृ। उ० २ 1 &u । इति भानपूजायाम्-नॄन्वा द्रृच्.निपातः । माननीयम्. जननीम्.' पृथिवीम् ॥ १ । । ३० ।। ३ प्रथिम्नदिध्रस्ज्ञां सम्मः सारण सलोपश्च। उ० १ : २८ 1 इति प्रथ मख्याने-कु। वीतो गुएचचनात्। DBB 00SS gg DDBD LDSuDuB DD BuD DD TDD S DDS प्रथते विस्तीर्णां भवतीति पृथिवी । प्रर्थेः पिवन्पवन्वनः संप्रसारणं च । ggD S EEDS uu D DD DDgqSDDDS DuDBLBD DuD पिद्ौरादिभ्यश्च । पाe ४ ।१। ४१ । इति झीए। भूमिम। भूरिषइ छणचन्तम् । भूरि धर्पचम्। प्रियते स्वीक्रियते तन्। वर्षों रूपम-निघ०३।।७। कृश्य रूप ________________

( . ) प्रथर्ववन्दभाष्यै मृ’ २ अनेक प्रकार से पोषण करने वाला और (भूरियपाँ) अनेक पम्तुओं से युना होकर परोपकार में सदा प्रसन्न रहे ॥ * h ज्याँके परेिं णी नुमाश्मनि तन्वं कृधि। वीडुर्वरीयोऽर्तीर्पु द्वेष्यांस्या कृष्धि ॥ २ ॥ श्याँके परि। नु। नुम्। अश्यानम्। तन्र्पण । कुधि । पुँीडुः। वरीयः प्ररौतीः॥अर्पा द्वंर्षंश्चि॥ प्रा । फुधि ॥ २ ॥ भाष्ट्रार्थ- हे इन्द्र] (ज्याय) जय के लिये (म:) दम पी (परि) ग्लयथा (नम) त्सुका,(तन्वम्) [मारें]श्रीरक्रै (श्राश्मानम्}पत्थरता [ग्4टद्र; (ஜி) DD SiDLS LS Diu DDu uBDLl D DuDu uB uDDDSS uuD DDD (अप८ अपदत्य) हटाकर (वरीय:) पहुत दृर (प्राकृधि) thरदे ॥ २ में DDS SDD DD uDuD DDD DDD DD DD BDDLDD DD SDDDLL DDDDD और (नम) तू झुका। यह अर्थ प्रयुक यारो । भावार्य-परमेश्यर में पूर्ण पिश्यास करके भमुष्य मात्मयान और शरीर चल प्राप्त करें और सय विरोधी यी भिन्टावै । DDD DuDSiDu DBkL DL D Du uBS DDuDuSiBuBDS i S BDS मूर्राणि बद्धनि रूपाणि घस्तुनि यस्मिन्, स भूरियप । अनेफजस्नुयुक परमेश्वरम॥ २-ष्धाके । ज्या जयतेर्या जिनातेव प्रजाधयतीपूर्निति घा-नेिश्o & ! DD DDDSDS DLL LLS EEDS DgmuD D DDuSuBDDS DLDDD S सतम्यधिकरणे च। पाc ६ ॥ ३ ॥ ३६ । अन। निमित्तान् कर्मसंयोमें सप्तमी धतथ्या। पार्तिकम। इति निमिते सप्तमी । जयनिमितें==जयार्थम । थला १। १ 1 ३: ज्या-स्वाथेकिन, टाप च। जयसाधने [डभे पर्जन्यपृथिव्यौ}-नियाँ द्वितीयाग्विचनम्। परि परितः सर्चतः । नः १ श्रप्रस्मान् । नाम नमय, प्र.ि कुरु 1 अश्मानस्। अशि शकिम्यां छन्दसि। उ० ४ , १४.७ । इति अशो ध्याप्ती या श्रीश मोजने--मनिन्, श्रश्मा मेघनाम-निघ० १ 1 १० 1 पापाणिं, प्रस्तरंचद् छ्द्म् । तन्वम् ॥ १ । १ । १ छंदस्ति यण् । उदात्तस्यरत्योर्यणः स्याप्तॊऽनुदात्तल्य { पाro SLLLLLLLL DDu uDD DDSDuDB TD DBSDBiiSDD SBBBBBB वीडु ॥ शूलीञ्छु? । उ० १ । ७ । इति धील संस्तम्भे-उ, लस्य ष्रद्धः । यलुः ________________

भू० २ ।। प्रथमं काण्ठम् - ( & ) सायणाचार्य ने अर्थ किया है कि (ज्यादे) दे कुत्सित विज्ञा 1 (न) हम को (परि) छोड़ कर (मम) झुक । इमारी समझ में वह असंगत है. संपूर्ण सूक का देश्चन्ना इन्द्र हैं ॥ वृक्ष' यद्दगार्त्रः परिषस्वर्ज्ान्ा अंनुस्फुरंशुरमर्चन्त्यृभुम् ॥ शत्रुंसुस्मठ्ठ यांवय दुिर्मिन्द्र ॥ ३ ॥ . मुक्षू यद्’ गावः । གྲྭ་རྩེ་ལུ་བཟུ་གུ་ཀ་ མུ་གྱུར་དང་རྒྱུར་འདྲ་མུ་ར་ཝ ། DD DDiDDDDD D LDuL uDmm mLLm E भाषार्य-{यद) जय { वृक्षम्) धनुष्यः से (परे-सस्वजानाः} fलपटt हुयी (गाध) यित की डोरियां (अनुम्फुरम) फुरती करते हुये (ऋमुम) धिस्तीर्ण ज्योति घाले. अथवा सस्य से प्रकाशमान वा प्रतिभान, धड़े युद्धिमान (पारम) घाणधारी शरपुरुप की (अर्चन्ति) स्तुति करें।[तब] (इन्द्र) है बड़े ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर ! चिा. है वायु 1}(शरुम) घाण और (दिशुम) वजू को {श्रप्रस्मन्न्) इम से {यावश्य) अस्ाग् ग्त्र ॥ ३ ॥ DDD DDr SSS0SS DDDDD DDDD DDDD S DBr ५। १६। चौथी छढ़ा। वरीयः । प्रियस्थिरेत्याविना। पा०६।।४।। १५७ ! DDB Bu SDDDS DDBS S DD S DDD DDD SYuDuS Y uDuD DDD D DDD BDD BDS DuuDuuDu u DDDS DDDGBD 0tDS १७४। प्रति रा दाने-क्तिचनष्समास । सुपां सृलुफपूर्वस्वर्ण० । पro७।१। ३s । इति पूर्वसवर्ण: } अगातीन् शत्रुन्। यद्धा किन् न्ते, शशुभाचाम, धिरौधान्। अप। अपडत्य 1 द्वपंसि । द्विप अप्रीती भावे-अमुन्। मेपान, अा । ईपदधे । ३-वृक्षम् । स्युमश्न्यि कृत्त्यृिषिभ्यः कित् । उ० ३ ।। ६६ । इति श्रो ग्रश्चू छेदने-क्स प्रत्यय। घुत्ते वृक्षे धधुपि धनुपि घृक्ष ग्रश्चनान - नियn २ ॥ ६॥ धभुर्दण्डम् ॥ धनुः ! यत् । यदा ! गावः॥ गमेडी़:। उo २।६७ ॥ इति गम्लगतौ डॅरे ! ज्यार्षि गौग्याच्थते गच्या येत् नाद्धितमथचेन्न गव्या गमय्तीपूनिति-निरुo २। ५ । ज्याः, मौर्व्यः । परि-सस्वजानाः ॥ अम्रक्ष परिष्वप्रें, लिटः कानच्. नष्फारङ्गीपे द्विर्वचनम् । अश्लिष्य धनुप्फोर्टी श्रारोपिताः । अनु-रुशुरम् । 2 ________________

( የo ) अथर्ववेदभाष्मैं ঘুও 'শ भावार्थ-मघ दोनों ओर ले (आध्यात्मिक घा आधिभौतिक) घोर संग्राम होता हो, युद्धिमान चतुर सेनापति देखा साइस करे कि सब योद्धा लोग उस ' की घड़ाई करें, और वह परमेश्वर का सहारा लेकर और अपने माण घायु फी साधकर शत्रुओं को निरुत्साद फरवे और जय प्रास करके आनन्द मोगे ॥३॥ निरुक्त अध्याय २, जड ६ और ५ के अनुसार (कृत) कर अर्थ [धलय] इस लिये है कि उस से शत्रु छेवा जाता है और (ग) कर नाम चिल्ला इसलिये है कि उस से वार्ण को चलाते हैं। r ~~ यथुट्टा दां चं पृथ्रिुर्वीं चुन्तस्तिष्ठंति तेर्जनम् ॥ पृश्ञा रोर्गं चाखुात्रं चुान्तस्तिष्ट्तु मुञ्ज् इत् ॥ ४ ॥ यथt । दद्यास् ।घु । पुख्रिवीम्॥ चुः। शुन्तुः तिष्ठति । सैंर्जानम् । DDuuuuDuTDDLmLkDuuDuDSuD D DBEL भाषार्थ-यधा) जैसे (तेजनम) प्रकाश (यां च) सूर्य लोक (ज) और स्फुर संचलने-चअर्थे कविधानम, १ प्रतिस्कुरणम, स्फूर्तियुक्तम्। झरम् । मo १। शत्रुछेदकम्। वाणधारक शुरम। अर्चन्ति । पूजयन्ति, स्तुचन्ति স্বাস্ত্ৰন্থ। ক্ষু মনী-দ্ধিম, ऋकार-उरु वाश्चतम्॥ ऋ +भा दीप्तौ वा भ्रू सत्तDDuiD DS DBBD DDBDBD D DBuL DDD S DDDD DDD भान्तीति धर्त्तेन भान्तीति धर्त्तेन भवन्तीति वा-निec ११ ।। १५ ।।ऋभुः-मेघावीनिष्ठo३।१५। उरूभासनम्, ऋतेन सल्येन भान्तं भवन्तं वा मेधाचिनम्...' शरुम् ॥ श्रृस्टुस्नि०िउo१। १०।इति श्रुर्द्दिसायाम्-उ प्रत्यथः। छेदर्कं वाणम् झस्मदे अस्मत्तः यवय ॥ यु मिश्रणामिश्रणयोः-ख्रिच-लोद् । पृथक्कुरु। दिद्युम् ॥ द्युतिगमिळुवीतां ङे च । वार्त्तिनुम्...। पाro ३ । २ । १७८ । इति द्युत। दौ-करें। द्योतते उज्श्वतत्चात् 1 अथवा वो अघखण्द्धने-फिप। द्यति खण्डयक्ति शब्यून्। पृषोदराविः । तत्पश्छान्दसः । विद्युत्, यच्छ्रः, निश्चेo २ 1 २० 1चज्रम। इन्द्र । DDJS DDDDDLL DD uD DBDDuu STiLLS uiDDDDL पा०६1 १। १९७। इस्ते निर्वाद प्रायुदात्तत्वे प्रान्ते आमन्वितत्वात्सर्वानुदाDSS DDuDDDuDDBBBuBDDDuDBDuuDDD qD पाo ५ । २ । &६ । वायुर्वेन्द्रो धान्तरिक्षस्थान-निय० । ७ ।। ५ । हे परमैश्वर्य। वस्. बायो, हे जीव। 8-2T । बेन प्रकारेण । द्यान् t गमैडः। उo २।। ६७ ॥ इति प्राइ ________________

सूप् ३ मयर्मकाण्डम् ( ፃፂ ) {gधिवीम) पृथिवी लोक के (अन्त:) वीच में (तिgति) रहता है1 (एच) वैसे Č (मुक्षः) श्रॊधने धाला परमेश्वर [षा औयध!(६६) भी (रोगं च)। शरीरं भंगः। (च) और (आश्नावम.) रुधिर के यहाव घा भाव के (अन्त:) वीच में (तिgत) स्थित हर्घे ॥ ४ ॥ भावार्थ-जो भयुष्य अपने याहिरी और भीतरी झेशी में (मुद्ध) दृदय संशोधक परमेश्वर का स्मरण रखते हैं वे दु:खों से पार होकर तेजस्वी होते हैं। अथवा जैसे सक्थ (मुझ) संशोधक औपधि से याहिरी और भीतरी रोग का प्रतीकार करता है. वैसे ही आचार्य विद्यम प्रकाश से प्रद्धचारी के अज्ञान का नाश करता हैं॥ ४॥ DD DDD D DDkukSiD DDD D DgDLLDD ED D अथत चांस अर्थ किया है वह असंगत है। सूतम ३ ॥ १-é h पर्जन्यादी देवताः ।.९-५ पंतिः ८x५, ६- अनुष्टु लन्दः, ८ x ४ अर्क्षरपि ॥ शान्तिकरणम्-शान्ति के लिये उपदेश। ਹੁ ਰੇਜ ਰੇ ਰੁਕੇ । ਕਦੀ ਯੁਧ । ਰੇਥੇ ਜੀ अहिर्ट अस्तु बालिर्ति ॥ १ ॥ w लकान्यत दीप्ती-डो प्रत्यय । स्वर्यलोकम। पृथिवीम् । मं० २ । मख्यार्ता विस्तीणं बाभूमिम् । प्रान्तः । श्रम गतौ-अरन्.क्षुडाग्गः । प्रन्तरान्तरेण युक्तॊ पा० २ ३ 1४ । इति छन्दसि मध्यशब्दस्य पर्यायवाचकत्चात् अन्तर इति शब्देन सह द्वितीया 1 क्योर्मध्ये। तिष्ठति । वर्तते। तेजनमू। नपुंसकम.। . तिल तीव्शीकरणे-प्युट्। तेवः प्रकाशः 1 एव । निपातस्य च। पा० ६।३। ६३६ । इति लृन् इस्सि दीर्घम् ! एवम्, तथा। रीगम्। पद रुजविशस्यशे बना। gGGSDSSS0SSSDD ED DuD DuD uD DuSTOD S DDB BDS iBuiiS प्रास्त्रावम् । श्याऽऽदूव्याघ्रालू० । पा० ३ ॥ १ ॥ १४५ । স্থনি স্থাৎ +যন্ত स्रमणे-एा प्रत्ययः। अचो ध्णिति। पा०७ (२।१९।।इति वृद्धि। श्रास्नुषम्।ेष्ठं रादिच्ञयणम् । ग्राधातम् । मुञ्जः ॥ मुञ्ज्ज्यते सृज्यते श्रनेन भुजि मार्जने श्मेधने-अच, परमेश्वर संशोधक पदार्थों घा। इह। एव। अपि। ________________

(१२ ) अथर्ववेदभाने - ६० १ at a TDTSLDLLDLDDuDuDuiLiuiuDDu DuSuiDDDuuD v - STRE गन्म I tarr ਧਕੁਬਿਧਾ ਦੇ नि-सेचनमः । युहिः ॥ त'1 श्वस्तु वास्त्र। इति ॥१ ॥ भाषार्ध-(शरस्य) शत्रु नाशक[घा चाण थारी] श्र के (पितरय) रक्षक, पिला, (पर्जन्यम्) साँचने घाले मेध रूप (शतबृप्ण्यम् मैकá सामथ्र्य पाले परमेश्वर] को (बिन) इम जानते हैं। (तेन) उस [शानJसे (ते)तेरे (तन्चे) शरीर के लिये (श्म) नीरोगता (करम) में कई और (gधिव्याम) एधियी पर (त) तेरा (निसेचनम) बहुत सेचन (दृद्धि] होये, और (3) तेरा (याल) बैरी (वहि:) याहिर (ग्रस्तु) होघे, (इति) वस ग्री ॥ १ ॥ भावार्थ-जैसे मेघ अष्न आदि अत्पन्न करता मैं मैंसे ही मेंध फैमी मेध अनन्त शक्तिवाले परमेश्वर को साक्षात् फरके जितेन्द्रिय पुझप (शनशूप्नाय) सैकड़ी सामथ्र्य धाला होकर अपने शशुओं का नाश करता और आन्मयत पढ़ा फर संसार में वृद्धि करता है। १ ॥ इस मन्त्र के पृवधि के लिये १ । २ ।। १ । देन्त्री। १-विदा, शरस्य, पितरमू, पर्जन्यम् । इति पदानि sपारयतिागि १ ।। २ । १ । श्रुत्वृष्ण्यम्, चर्यतीतिं वृष्पा । कनिन् युद्धृपितक्षीत्यादिनः । उc ६ DKDE uBDBD DuuD DDDS DuuDuS DDD DDD Gr CL0SSDD DD DqS DD uuD DDD Duu DDBD S DDDDD DuD DDD १ 1 १ । १ । तञ्चन् सिद्धिः स्वरितश्च । शरीराय 1शम्॥ अन्यॆभ्योऽपि दृश्यन्ते । पा० ३। २ । ७५ । इति शमु उपशमने-विच.।शान्तिम,स्वास्थ्यम। सुरक्षम-निघ० ३1६1 करम,। डुछझ करणे-लेद। अहं कुर्याम पृधिव्याम। १।२।२। प्रखयातायां यूमी । ते । तब । नि-सेचनम्। नि +पिच सेवने-भाधे एयुद्ध। आर्टीकरण, चर्धनम, वृद्धिः 1 वहि:। वह प्रापणे-इस्तुन्। याह्मम अहिर्देशे। चाल। बल पपे-किएथलति हिनस्तौति चाल बल,असुर दैत्य, चैरी। इति। इण्, गतौ-तिच्. पर्य्याप्तम् शलम् ( इति सर्वत्रम्) भo ६-& ॥ पृष्ठम्:अथर्ववेदभाष्यम् भागः १.pdf/३५ पृष्ठम्:अथर्ववेदभाष्यम् भागः १.pdf/३६ पृष्ठम्:अथर्ववेदभाष्यम् भागः १.pdf/३७ पृष्ठम्:अथर्ववेदभाष्यम् भागः १.pdf/३८ पृष्ठम्:अथर्ववेदभाष्यम् भागः १.pdf/३९ पृष्ठम्:अथर्ववेदभाष्यम् भागः १.pdf/४० पृष्ठम्:अथर्ववेदभाष्यम् भागः १.pdf/४१ पृष्ठम्:अथर्ववेदभाष्यम् भागः १.pdf/४२ पृष्ठम्:अथर्ववेदभाष्यम् भागः १.pdf/४३ पृष्ठम्:अथर्ववेदभाष्यम् भागः १.pdf/४४ पृष्ठम्:अथर्ववेदभाष्यम् भागः १.pdf/४५ पृष्ठम्:अथर्ववेदभाष्यम् भागः १.pdf/४६ पृष्ठम्:अथर्ववेदभाष्यम् भागः १.pdf/४७ 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