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पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/२५६

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परिधिर्भवति, तत्र किन्चदधिकत्ररागं वर्गा दषभिर्गुरियेतस्तनम्मुलं: परिधिरेव भवितुमह्ंति,दशग्रहराद् दोषावहमेव व्यख्यरथते मन्नव्यनां व्यख्यनसेव समीचीनमिति सुयंसिद्रुन्तस्य सुधवर्षरीटिकयां म म पण्डित् सुधकरद्विवेदिन कथयन्ति।स्थलपरिधित: सधितं व्यसध् स्तुभवेत् मेवत्। वस्तुतो दश भक्तुस्य उथ्परिधिवर्गस्य मुलं सोक्क्मो व्यासे न भवति , सधितो व्यसह: स्थुल:ज्यदीनामानोपयुक्तो नहि कथथतीति॥२५॥

       चक्रकला वर्ग को दष से भाग देने से जो लध्व हो उस्का परिधि का व्यस होता हे। उस व्यसर्ध को ग्रह जुरा। कर चक्रकला से भाग देने  से ग्रह योजन कर्जा प्रमारए होग्ते हे।यह खदित् व्यसर्थ् योजना कर्गा प्रमयेए के लिये उपयुक्थ् हे।
  व्यसे भनन्दग्निनहिते विभक्तु खवरसुर्ये इत्यदि भस्करोत्पर्ध्यययन से व्रुत परिधि ३६७Xव्या/१२४० यहा इस्का विततरुप् कर्ने से मान २२/७ , ३५४३६१५/११३१२५० हे , व्यस  परिधि का सम्बन्ध =सं व्या X प=व्याX३६२७/१२५० = भस्करोत् सुक्ष्म परिधि , तथा २२X व्या/५ =स्थुलपरिधि , परन्तु ३५५Xव्या/११३ यह "व्यासेपन्चाग्नि क्षुणर्गो दहनेषभिते परिधि, जिस्को भस्काराचार्य ने नहि कहा हे।  इस्के समवन्द् मे" व्यसे पन्चरग्नि क्षुनग्नि दहनेशाभाजिते परिधी:। परिधि/व्यसा=स=स२ इस्का वगं=(३+१/७)=१० स्वलापान्तर से =स=षाधार दोनों पक्षों को दशा से भगा देने से प/१० = व्या,मुलासेनेसे व्या,पुरन्तु (३+ / ७) > १० क्षुत: ' तदर्गतोदशागुराप्त्यपद परिधि इस सुर्यसिद्धन्तानतु परिद्यान से नवेएन लोग "नतदग्ंनतोदशगुरातु पदं परिधि नहिं जो दश वह् क्षुदश ।