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पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/२४४

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गोलाध्यायः १३३५

   ऽक्षांशाः = २२ | ३०=२२१/२=४५/२, अतः भूपरिधियोजन x ४५ / ३६० x २
   = भूपरिधियोजन x ४५ / ७२० हरभाज्या (४५) वनेन भक्तौ तदा भूपरिधियोजन/७२०/४५
   = भूपरिधियोजन/१६ = निरक्षदेशावन्त्योरन्तर योजनानि । चतुर्वेदाचार्येण 'पञ्चदशे भागे'इत्येव
   कथ्यते यथा ऽऽचार्येरा कथ्यते,कथं 'पञ्चदशे भागे'कथ्यते तत्र न कारणं किमपि प्रतिभाति।
   लङ्कातः सुमेरुः कुमेरुश्च नवत्यंशान्तरेऽस्ति'यतस्तत्राक्षांशाः = ९० सन्तीति ॥६॥
             अब भूगोल मे लङ्का और अवन्ती की संस्थिति कहते हैं ।

   हि.भा.-मेरु से और कुमेरु से भूपरिधि के चतुर्थाशा (६० अंश) न्तर पर दक्षिण दिशा
   मे लङ्का नामक नगरी है लङ्का से उत्तर दिशा में भूपरिधि के पञ्चदशां १५ शान्तर पर 
   अवन्ती उज्जयिनी है। भास्कराचार्य भपने गोलाध्याय में 'निरक्ष देशात् क्षितिषोड्शांशे'
   इत्यादि से भूपरिधि के षोडशांशान्तर पर गणित करके अवन्ती को कहते है। इसके लिये
   गणित इस तरह है। यदि भांश (३६०) में भूपरिधि योजन पाते हैं तो अवन्ती के अक्षांश
   में क्या इस् अनुपात से निरक्ष देश और अवन्ती के अन्तर योजन आते हैं उसका स्वरुप
   = भूपरिधियो x अवन्ती के अक्षांश / ३६० परन्तु अवन्ती के अक्षांश = २२१/२ = ४५/२अतः
   भूपरिधियो x ४५ / ३६० x २ = भूपरिधियो x ४५ / ७२० = निरक्षदेश और अवन्ती के
   अन्तर योजन,यहां हर भाज्य को (४५) से भाग देने से भूपरिधियो /७२०/४५ =
   भूपरिधियो /१६ = निरक्षदेश और अवन्ती के अन्तर योजन। इसको सोलह से गुण करने 
   से भूपरिधि योजन होता है। भूपरिधियोजन मान के लिये आचार्यों में मतभेद है। अपनी कथित
   भूपरिधि की समीचीनता की द्रढ्ता के लिये बहुत् जोर देकर् गोलाध्याय में कहते हैं           
   "शृङ्गोन्नतिग्रहयुतिग्रहणोदयास्तच्छायादिकं परिधिना धटतेऽमुना हि।नान्येन तेन जगुरुक्तमहीप्रमाण 
    प्रामाण्यमन्वययुजाव्यतिरेकेण" अर्थात् चन्द्र की शृङोन्नति,ग्रहयुति,ग्रहण(चन्द्रग्रहण और 
    सूयंग्रहण)ग्रहों का उदय समय और अस्त समय आदि हमारे ही भूपरिधि मान से ठीक
    समय पर होता है अन्यों के भूपरिधिमान से ठीक समय पर नहीं होता है इसलिये हमारा 
    हि कथित भूपरिधिमान ठीक है अन्याचार्यो का नहीं। आचार्य(ब्रह्मगुप्त) ने 'लङ्कोत्तरतोऽवन्ती
    भूपरिधेः परिधेः पञ्चदश भागे' से 'लङ्का से अवन्ती भूपरिधियोजन के पञ्चदशां १५ श पर
    है' जो कहा है इसमें कुछ युक्ति नहीं मिलती है। चतुर्वेदाचार्य ने आचार्योक्त पाठ ही का
    अनुमोदन किया है इति ॥ ६