प्रकरण २ श्लो० २ रचे हुए पदार्थ मिथ्या हैं, तथापि ये (कार्य दक्षाः) स्वस्व उचित वेदपाठ, युद्ध आदिक कार्यो. में समर्थ हैं (समधिगता:) सर्व मिथ्या पदार्थो का स्वस्वकार्य में समर्थ होना असुर आदिकों द्वारा रचे हुए जीव श्रादि पदार्थो में पुराण आदिकों में प्रसिद्ध है। इतने कहने से वेदांताचार्यो के सिद्धांत में मिथ्या भूत जगत् से यथोचित व्यवहार नहीं हो सकता ऋक्योंकि सीपी में भासने वाली चांदी के भूषणों से कोई भूषित हुआ नहीं देखा, इस शंका का भी निरास हुआ जान लेना चाहिये । भ्रम काल में शुक्ति रजत विषयक प्रवृत्ति रूप व्यवहार भी देखा गया है इसलिये वेदांताचायों के प्रति शुक्ति रजत के दृष्टांत से मिथ्या जगत् म व्यवहार का श्रभाव सपादन करना भी अनुभव स विरुद्ध है । भाव यह है कि विचित्र शक्ति वाले विचित्र पदार्थो की कल्पना इन्द्रजालिकों की माया रूप से प्रसिद्ध है, इसलिये बुद्धिमानों को तो वेदांत मत में किसी प्रकार की शंका ही नहीं होनी चाहिये (तस्मात्) इसलिये मायिक होने से (प्रपंच:) यह जगत् (ब्रह्म संवित् विवर्त: ) अन्य रूप से ब्रह्म चैतन्य का ही प्रतिभास है। वह प्रप'च कैसा है ? (मायूर पिच्छ च्छवि इव गहन:) जैसे मोर के पिच्छ (पुच्छ) अनेक प्रकार से प्रतीत होने से एक रूप से अचिंत्य है वैसे ही यह प्रपंच भी अनेक रूप प्रतीत होने से एकरूप से अचिंत्य है । । [ १०७ श्रब जगत् को ब्रह्मरूप कहकर लक्ष्यरूप ब्रह्म की रूपता स्पष्ट करते हैं अद्व त यस्मादु विश्वं सदुत्थं सदुपभृतमथो लीयते तत्र तस्मात्सन्मात्रं नान्यदस्मान्मृद इव घटि
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