प्रकरणं १ श्ला० ५४
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वियोग कृत अंतर दाहसे, अविवेक से, इन्द्रियों के क्षीण होजाने
से, तथा कफादिक अनेक विध के रोगों से महान् दुःख होता है।
और (अन्ते: ) मरण कालमें भी (अति दुःखम्) सर्व ओर से
प्राणों के निकलने के समय सर्व अंगों के पीड़न होने से अत्यंत
दुःख होता है ॥५३॥
इत्थं यः कर्मबद्धो भ्रमति परवश: प्राण भृज्जन्म
संधेदु:खस्यान्तं न वेति स्मरति न च जनि
विधिना स्वात्मराज्येऽभिषेत्तुं तात्पर्येण प्रवृत्ताः
श्रुति शिखर गिरः सूत्र भाष्यादयश्च i॥५४॥
इस प्रकार अज्ञान के योग से जो जीव कर्म बंधन में
परवश होकर जन्म समुदाय में भ्रमण करता है, वह दुःख
के अंत को नहीं जानता और अनेक व्यतीत जन्मों का
स्मरण नहीं करता । उसको अपने श्रात्म साम्राज्य में
अभिषेक करने के लिये और सब अनथों की निवृत्ति कै
लिये वेदान्तवाक्य और सूत्र भाष्यादि की प्रवृत्ति है।॥५४॥
(यः प्राण भृत्) जो प्राणधारी जीव है सो यह जीव
( श्रज्ञान योगात्) केवल साक्षात् ज्ञान ही से निवृत्त होने वाले
मिथ्या अज्ञानके संबंधसे (कर्म बद्धः) कर्म बंधन से युक्त होकर
तथा (परवश:) शरीराधीन होकर (इत्थम्) इस उक्त प्रकार
स ( जन्म सघ: ) जन्म क समूहों में अनेक जन्म धारण करके
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