क्षपयति) नाश नहीं करता (यतः) उसी कारण से लोक में (तत्) वह मिथ्या भूत बस्तु (वित्ति घात्यम्) अधिष्ठान के यथार्थ ज्ञान से ही नष्ट होती है। (इत्थम्) इस प्रकार से (विभागे सिद्धे) वस्तु स्वभाव भेद के सिद्ध होने पर (श्रुति शिखरगिरा ) वेदान्त वाक्य प्रमाण से बंध (वित्तिघात्यः) ज्ञान से विनाश्य है। इस प्रकार (प्रतीत:) निश्चितरूप से जाना हुआ (बंधोमिथ्या) दु:खरूप संसार बंध मिथ्या है (इति) इस प्रकार (सिद्धे) सिद्ध होने पर (तत् अपहतये ) उस दु:खरूप संसार की निवृत्ति के लिये (कर्म जातम्) अग्निहोत्रादिक रूप पुण्यकर्मो का समूह (न समर्थम्) समर्थ नहीं है ॥६॥
शंका-वस्तु स्वभाव बल से आरोपित भावपदार्थ की की निवृत्ति ज्ञान से होती है ऐसा मानने पर भी जगत् बंध की निवृत्ति ज्ञान से नहीं हो सकती, क्योंकि अज्ञान का ही बिरोधी ज्ञान है जगत् का विरोधी नहीं । इस शंका का समाधान करते हुए प्राचार्य अधिकारी को ज्ञान के उपाय में प्रवृत्त करते हैं।
श्राविद्यो ह्यष बन्धो विरमति न विना वेदनं
कर्म जाले मलोद्भतोऽहिरस्तं व्रजति किमु नम
स्कारमंत्रौषधाः । एवं निश्चित्य नागस्त्वच
मिव विधिना कर्म बन्धं विधूय ज्ञानोपाये गुरु श्री
चरणमभिगतः सेवमानो ययेत ।।७।।
श्राविद्या का बंधन है इससे वह अधिष्ठात कं ज्ञानाबना
निवृत्त नहीं होता । माला में आरोपित सर्प, नमस्काम्