निश्चय वाले, रागद्वेष रहित तथा प्राणीमात्र को अभयदान
देने वाले, मुमुक्षुओं क काना का सुखदाता, हृदय का प्रय
और हित करने वाला तत्त्वार्थ अब हम कथन करते हैं ॥४॥
वेदाध्ययन, यज्ञ, दान, ब्रत, जप, उपासना, इन्द्रियनिग्रह
श्रादिक साधनों से (विशुद्धस्वान्तानाम्) निर्मल अंत:करण
के जो अधिकारी हैं, अतएव (इदं जगत् श्रसारम्) यह प्रत्यक्ष
दीखने वाला जगत् स्वसत्ता से रहित है अर्थात् असत्य है इस
प्रकार (विमृशताम्) निश्चय वाले हैं, अतएव ( अरागद्वेषा
णाम्) भोगों की इच्छा से और अन्य पुरुषों के अनिष्ट चिंतन
रूप द्वेष से रहित हैं, अतएव (अभयचरितानाम्) प्राणीमात्र
को भय न देनेवाली चेष्टावाले हैं अर्थात् संन्यासी हैं, अतएव
(मुमुक्ष णाम्) मूलसहित अनर्थ की निवृत्ति और परमानन्द की
प्राप्तिरूप मोक्ष की इच्छा वाले हैं, ऐसे अधिकारी मुमुलुजनों के
(सुमधुरम्) कानों को अत्यंत सुख देनेवाले तथा ( दृटद्यम् )
मन को सुख देनेवाले तथा (हितम्) उपकार करने वाले (किम्
अपि इदम्) गोप्य तत्त्वार्थ वाले उपनिषदों के तात्पर्यरूप इस
वक्ष्यमाण अध्यारोप, अपवाद और श्रागम करणरूप तीन
प्रकरण रूप ग्रंथ को हम ( निगदामः) स्पष्टरूप से कथन
करते हैं ।॥४॥
अब सर्व वेदांतों की प्रवृत्ति के मूलभूत अध्यास में परंपरा
से श्रुति का प्रमाण दिया जाता है।
शालिनी छन्द ।
ज्ञात्वा देवं सर्व पाशापहानि नान्यः पन्थाश्चेति