बालकाण्ड ८
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१५० ॥ सुनु मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना । कृपासिंधु बोले मृदु बचना ॥ जो कछु रुचि तुम्हेर मन माहीं । मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं ॥ मातु बिबेक अलोकिक तोरें । कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें । बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी । अवर एक बिनति प्रभु मोरी ॥ सुत बिषइक तव पद रति होऊ । मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ ॥ मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना । मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना ॥ अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ । एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ ॥ अब तुम्ह मम अनुसासन मानी । बसहु जाइ सुरपति रजधानी ॥ सो॰ तहँ करि भोग बिसाल तात गउँ कछु काल पुनि । होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत ॥ १५१ ॥ इच्छामय नरबेष सँवारें । होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारे ॥ अंसन्ह सहित देह धरि ताता । करिहउँ चरित भगत सुखदाता ॥ जे सुनि सादर नर बड़भागी । भव तरिहहिं ममता मद त्यागी ॥ आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया । सोउ अवतरिहि मोरि यह माया ॥ पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा । सत्य सत्य पन सत्य हमारा ॥ पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना । अंतरधान भए भगवाना ॥ दंपति उर धरि भगत कृपाला । तेहिं आश्रम निवसे कछु काला ॥ समय पाइ तनु तजि अनयासा । जाइ कीन्ह अमरावति बासा ॥ दो॰ यह इतिहास पुनीत अति उमहि कही बृषकेतु । भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु ॥ १५२ ॥ मासपारायण,पाँचवाँ विश्राम सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी । जो गिरिजा प्रति संभु बखानी ॥ बिस्व बिदित एक कैकय देसू । सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू ॥ धरम धुरंधर नीति निधाना । तेज प्रताप सील बलवाना ॥ तेहि कें भए जुगल सुत बीरा । सब गुन धाम महा रनधीरा ॥ राज धनी जो जेठ सुत आही । नाम प्रतापभानु अस ताही ॥ अपर सुतहि अरिमर्दन नामा । भुजबल अतुल अचल संग्रामा ॥ भाइहि भाइहि परम समीती । सकल दोष छल बरजित प्रीती ॥ जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा । हरि हित आपु गवन बन कीन्हा ॥ दो॰ जब प्रतापरबि भयउ नृप फिरी दोहाई देस । प्रजा पाल अति बेदबिधि कतहुँ नहीं अघ लेस ॥ १५३ ॥ नृप हितकारक सचिव सयाना । नाम धरमरुचि सुक्र समाना ॥ सचिव सयान बंधु बलबीरा । आपु प्रतापपुंज रनधीरा ॥ सेन संग चतुरंग अपारा । अमित सुभट सब समर जुझारा ॥ सेन बिलोकि राउ हरषाना । अरु बाजे गहगहे निसाना ॥ बिजय हेतु कटकई बनाई । सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई ॥ जँह तहँ परीं अनेक लराईं । जीते सकल भूप बरिआई ॥ सप्त दीप भुजबल बस कीन्हे । लै लै दंड छाड़ि नृप दीन्हें ॥ सकल अवनि मंडल तेहि काला । एक प्रतापभानु महिपाला ॥ दो॰ स्वबस बिस्व करि बाहुबल निज पुर कीन्ह प्रबेसु । अरथ धरम कामादि सुख सेवइ समयँ नरेसु ॥ १५४ ॥ भूप प्रतापभानु बल पाई । कामधेनु भै भूमि सुहाई ॥ सब दुख बरजित प्रजा सुखारी । धरमसील सुंदर नर नारी ॥ सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती । नृप हित हेतु सिखव नित नीती ॥ गुर सुर संत पितर महिदेवा । करइ सदा नृप सब कै सेवा ॥ भूप धरम जे बेद बखाने । सकल करइ सादर सुख माने ॥ दिन प्रति देह बिबिध बिधि दाना । सुनहु सास्त्र बर बेद पुराना ॥ नाना बापीं कूप तड़ागा । सुमन बाटिका सुंदर बागा ॥ बिप्रभवन सुरभवन सुहाए । सब तीरथन्ह बिचित्र बनाए ॥ दो॰ जँह लगि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग । बार सहस्त्र सहस्त्र नृप किए सहित अनुराग ॥ १५५ ॥ हृदयँ न कछु फल अनुसंधाना । भूप बिबेकी परम सुजाना ॥ करइ जे धरम करम मन बानी । बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी ॥ चढ़ि बर बाजि बार एक राजा । मृगया कर सब साजि समाजा ॥ बिंध्याचल गभीर बन गयऊ । मृग पुनीत बहु मारत भयऊ ॥ फिरत बिपिन नृप दीख बराहू । जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू ॥ बड़ बिधु नहि समात मुख माहीं । मनहुँ क्रोधबस उगिलत नाहीं ॥ कोल कराल दसन छबि गाई । तनु बिसाल पीवर अधिकाई ॥ घुरुघुरात हय आरौ पाएँ । चकित बिलोकत कान उठाएँ ॥ दो॰ नील महीधर सिखर सम देखि बिसाल बराहु । चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु ॥ १५६ ॥ आवत देखि अधिक रव बाजी । चलेउ बराह मरुत गति भाजी ॥ तुरत कीन्ह नृप सर संधाना । महि मिलि गयउ बिलोकत बाना ॥ तकि तकि तीर महीस चलावा । करि छल सुअर सरीर बचावा ॥ प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा । रिस बस भूप चलेउ संग लागा ॥ गयउ दूरि घन गहन बराहू । जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू ॥ अति अकेल बन बिपुल कलेसू । तदपि न मृग मग तजइ नरेसू ॥ कोल बिलोकि भूप बड़ धीरा । भागि पैठ गिरिगुहाँ गभीरा ॥ अगम देखि नृप अति पछिताई । फिरेउ महाबन परेउ भुलाई ॥ दो॰ खेद खिन्न छुद्धित तृषित राजा बाजि समेत । खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयउ अचेत ॥ १५७ ॥ फिरत बिपिन आश्रम एक देखा । तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा ॥ जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई । समर सेन तजि गयउ पराई ॥ समय प्रतापभानु कर जानी । आपन अति असमय अनुमानी ॥ गयउ न गृह मन बहुत गलानी । मिला न राजहि नृप अभिमानी ॥ रिस उर मारि रंक जिमि राजा । बिपिन बसइ तापस कें साजा ॥ तासु समीप गवन नृप कीन्हा । यह प्रतापरबि तेहि तब चीन्हा ॥ राउ तृषित नहि सो पहिचाना । देखि सुबेष महामुनि जाना ॥ उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा । परम चतुर न कहेउ निज नामा ॥ दो० भूपति तृषित बिलोकि तेहिं सरबरु दीन्ह देखाइ । मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ ॥ १५८ ॥ गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ । निज आश्रम तापस लै गयऊ ॥ आसन दीन्ह अस्त रबि जानी । पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी ॥ को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें । सुंदर जुबा जीव परहेलें ॥ चक्रबर्ति के लच्छन तोरें । देखत दया लागि अति मोरें ॥ नाम प्रतापभानु अवनीसा । तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा ॥ फिरत अहेरें परेउँ भुलाई । बडे भाग देखउँ पद आई ॥ हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा । जानत हौं कछु भल होनिहारा ॥ कह मुनि तात भयउ अँधियारा । जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा ॥ दो॰ निसा घोर गम्भीर बन पंथ न सुनहु सुजान । बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान ॥ १५९(क) ॥ तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ । आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ ॥ १५९(ख) ॥ भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा । बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा ॥ नृप बहु भाति प्रसंसेउ ताही । चरन बंदि निज भाग्य सराही ॥ पुनि बोले मृदु गिरा सुहाई । जानि पिता प्रभु करउँ ढिठाई ॥ मोहि मुनिस सुत सेवक जानी । नाथ नाम निज कहहु बखानी ॥ तेहि न जान नृप नृपहि सो जाना । भूप सुह्रद सो कपट सयाना ॥ बैरी पुनि छत्री पुनि राजा । छल बल कीन्ह चहइ निज काजा ॥ समुझि राजसुख दुखित अराती । अवाँ अनल इव सुलगइ छाती ॥ सरल बचन नृप के सुनि काना । बयर सँभारि हृदयँ हरषाना ॥ दो॰ कपट बोरि बानी मृदुल बोलेउ जुगुति समेत । नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेति ॥