बालकाण्ड ७
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१४० ॥ अपर हेतु सुनु सैलकुमारी । कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी ॥ जेहि कारन अज अगुन अरूपा । ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा ॥ जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा । बंधु समेत धरें मुनिबेषा ॥ जासु चरित अवलोकि भवानी । सती सरीर रहिहु बौरानी ॥ अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी । तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी ॥ लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा । सो सब कहिहउँ मति अनुसारा ॥ भरद्वाज सुनि संकर बानी । सकुचि सप्रेम उमा मुसकानी ॥ लगे बहुरि बरने बृषकेतू । सो अवतार भयउ जेहि हेतू ॥ दो॰ सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाई ॥ राम कथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ ॥ १४१ ॥ स्वायंभू मनु अरु सतरूपा । जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा ॥ दंपति धरम आचरन नीका । अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका ॥ नृप उत्तानपाद सुत तासू । ध्रुव हरि भगत भयउ सुत जासू ॥ लघु सुत नाम प्रिय्रब्रत ताही । बेद पुरान प्रसंसहि जाही ॥ देवहूति पुनि तासु कुमारी । जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी ॥ आदिदेव प्रभु दीनदयाला । जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला ॥ सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना । तत्व बिचार निपुन भगवाना ॥ तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला । प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला ॥ सो॰ होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन । हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु ॥ १४२ ॥ बरबस राज सुतहि तब दीन्हा । नारि समेत गवन बन कीन्हा ॥ तीरथ बर नैमिष बिख्याता । अति पुनीत साधक सिधि दाता ॥ बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा । तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा ॥ पंथ जात सोहहिं मतिधीरा । ग्यान भगति जनु धरें सरीरा ॥ पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा । हरषि नहाने निरमल नीरा ॥ आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी । धरम धुरंधर नृपरिषि जानी ॥ जहँ जँह तीरथ रहे सुहाए । मुनिन्ह सकल सादर करवाए ॥ कृस सरीर मुनिपट परिधाना । सत समाज नित सुनहिं पुराना । दो॰ द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग । बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग ॥ १४३ ॥ करहिं अहार साक फल कंदा । सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा ॥ पुनि हरि हेतु करन तप लागे । बारि अधार मूल फल त्यागे ॥ उर अभिलाष निंरंतर होई । देखा नयन परम प्रभु सोई ॥ अगुन अखंड अनंत अनादी । जेहि चिंतहिं परमारथबादी ॥ नेति नेति जेहि बेद निरूपा । निजानंद निरुपाधि अनूपा ॥ संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना । उपजहिं जासु अंस तें नाना ॥ ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई । भगत हेतु लीलातनु गहई ॥ जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा । तौ हमार पूजहि अभिलाषा ॥ दो॰ एहि बिधि बीतें बरष षट सहस बारि आहार । संबत सप्त सहस्त्र पुनि रहे समीर अधार ॥ १४४ ॥ बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ । ठाढ़े रहे एक पद दोऊ ॥ बिधि हरि तप देखि अपारा । मनु समीप आए बहु बारा ॥ मागहु बर बहु भाँति लोभाए । परम धीर नहिं चलहिं चलाए ॥ अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा । तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा ॥ प्रभु सर्बग्य दास निज जानी । गति अनन्य तापस नृप रानी ॥ मागु मागु बरु भै नभ बानी । परम गभीर कृपामृत सानी ॥ मृतक जिआवनि गिरा सुहाई । श्रबन रंध्र होइ उर जब आई ॥ ह्रष्टपुष्ट तन भए सुहाए । मानहुँ अबहिं भवन ते आए ॥ दो॰ श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात । बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात ॥ १४५ ॥ सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनु । बिधि हरि हर बंदित पद रेनू ॥ सेवत सुलभ सकल सुख दायक । प्रनतपाल सचराचर नायक ॥ जौं अनाथ हित हम पर नेहू । तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू ॥ जो सरूप बस सिव मन माहीं । जेहि कारन मुनि जतन कराहीं ॥ जो भुसुंडि मन मानस हंसा । सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा ॥ देखहिं हम सो रूप भरि लोचन । कृपा करहु प्रनतारति मोचन ॥ दंपति बचन परम प्रिय लागे । मुदुल बिनीत प्रेम रस पागे ॥ भगत बछल प्रभु कृपानिधाना । बिस्वबास प्रगटे भगवाना ॥ दो॰ नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम । लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम ॥ १४६ ॥ सरद मयंक बदन छबि सींवा । चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा ॥ अधर अरुन रद सुंदर नासा । बिधु कर निकर बिनिंदक हासा ॥ नव अबुंज अंबक छबि नीकी । चितवनि ललित भावँती जी की ॥ भुकुटि मनोज चाप छबि हारी । तिलक ललाट पटल दुतिकारी ॥ कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा । कुटिल केस जनु मधुप समाजा ॥ उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला । पदिक हार भूषन मनिजाला ॥ केहरि कंधर चारु जनेउ । बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ ॥ करि कर सरि सुभग भुजदंडा । कटि निषंग कर सर कोदंडा ॥ दो॰ तडित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि ॥ नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भवँर छबि छीनि ॥ १४७ ॥ पद राजीव बरनि नहि जाहीं । मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं ॥ बाम भाग सोभति अनुकूला । आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला ॥ जासु अंस उपजहिं गुनखानी । अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी ॥ भृकुटि बिलास जासु जग होई । राम बाम दिसि सीता सोई ॥ छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी । एकटक रहे नयन पट रोकी ॥ चितवहिं सादर रूप अनूपा । तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा ॥ हरष बिबस तन दसा भुलानी । परे दंड इव गहि पद पानी ॥ सिर परसे प्रभु निज कर कंजा । तुरत उठाए करुनापुंजा ॥ दो॰ बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि । मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि ॥ १४८ ॥ सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी । धरि धीरजु बोली मृदु बानी ॥ नाथ देखि पद कमल तुम्हारे । अब पूरे सब काम हमारे ॥ एक लालसा बड़ि उर माही । सुगम अगम कहि जात सो नाहीं ॥ तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं । अगम लाग मोहि निज कृपनाईं ॥ जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई । बहु संपति मागत सकुचाई ॥ तासु प्रभा जान नहिं सोई । तथा हृदयँ मम संसय होई ॥ सो तुम्ह जानहु अंतरजामी । पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी ॥ सकुच बिहाइ मागु नृप मोहि । मोरें नहिं अदेय कछु तोही ॥ दो॰ दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ ॥ चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ ॥ १४९ ॥ देखि प्रीति सुनि बचन अमोले । एवमस्तु करुनानिधि बोले ॥ आपु सरिस खोजौं कहँ जाई । नृप तव तनय होब मैं आई ॥ सतरूपहि बिलोकि कर जोरें । देबि मागु बरु जो रुचि तोरे ॥ जो बरु नाथ चतुर नृप मागा । सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा ॥ प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई । जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई ॥ तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी । ब्रह्म सकल उर अंतरजामी ॥ अस समुझत मन संसय होई । कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई ॥ जे निज भगत नाथ तव अहहीं । जो सुख पावहिं जो गति लहहीं ॥ दो॰ सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु ॥ सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु ॥