बालकाण्ड ३
दिखावट
१०० ॥ जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई । महामुनिन्ह सो सब करवाई ॥ गहि गिरीस कुस कन्या पानी । भवहि समरपीं जानि भवानी ॥ पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा । हिंयँ हरषे तब सकल सुरेसा ॥ बेद मंत्र मुनिबर उच्चरहीं । जय जय जय संकर सुर करहीं ॥ बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना । सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना ॥ हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू । सकल भुवन भरि रहा उछाहू ॥ दासीं दास तुरग रथ नागा । धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा ॥ अन्न कनकभाजन भरि जाना । दाइज दीन्ह न जाइ बखाना ॥ छं॰ दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो । का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो ॥ सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो । पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो ॥ दो॰ नाथ उमा मन प्रान सम गृहकिंकरी करेहु । छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु ॥ १०१ ॥ बहु बिधि संभु सास समुझाई । गवनी भवन चरन सिरु नाई ॥ जननीं उमा बोलि तब लीन्ही । लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही ॥ करेहु सदा संकर पद पूजा । नारिधरमु पति देउ न दूजा ॥ बचन कहत भरे लोचन बारी । बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी ॥ कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं । पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं ॥ भै अति प्रेम बिकल महतारी । धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी ॥ पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना । परम प्रेम कछु जाइ न बरना ॥ सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी । जाइ जननि उर पुनि लपटानी ॥ छं॰ जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं । फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गई ॥ जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले । सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले ॥ दो॰ चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु । बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु ॥ १०२ ॥ तुरत भवन आए गिरिराई । सकल सैल सर लिए बोलाई ॥ आदर दान बिनय बहुमाना । सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना ॥ जबहिं संभु कैलासहिं आए । सुर सब निज निज लोक सिधाए ॥ जगत मातु पितु संभु भवानी । तेही सिंगारु न कहउँ बखानी ॥ करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा । गनन्ह समेत बसहिं कैलासा ॥ हर गिरिजा बिहार नित नयऊ । एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ ॥ तब जनमेउ षटबदन कुमारा । तारकु असुर समर जेहिं मारा ॥ आगम निगम प्रसिद्ध पुराना । षन्मुख जन्मु सकल जग जाना ॥ छं॰ जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा । तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा ॥ यह उमा संगु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं । कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं ॥ दो॰ चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु । बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु ॥ १०३ ॥ संभु चरित सुनि सरस सुहावा । भरद्वाज मुनि अति सुख पावा ॥ बहु लालसा कथा पर बाढ़ी । नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी ॥ प्रेम बिबस मुख आव न बानी । दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी ॥ अहो धन्य तव जन्मु मुनीसा । तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा ॥ सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं । रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं ॥ बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू । राम भगत कर लच्छन एहू ॥ सिव सम को रघुपति ब्रतधारी । बिनु अघ तजी सती असि नारी ॥ पनु करि रघुपति भगति देखाई । को सिव सम रामहि प्रिय भाई ॥ दो॰ प्रथमहिं मै कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार । सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार ॥ १०४ ॥ मैं जाना तुम्हार गुन सीला । कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला ॥ सुनु मुनि आजु समागम तोरें । कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें ॥ राम चरित अति अमित मुनिसा । कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा ॥ तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी । सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी ॥ सारद दारुनारि सम स्वामी । रामु सूत्रधर अंतरजामी ॥ जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी । कबि उर अजिर नचावहिं बानी ॥ प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा । बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा ॥ परम रम्य गिरिबरु कैलासू । सदा जहाँ सिव उमा निवासू ॥ दो॰ सिद्ध तपोधन जोगिजन सूर किंनर मुनिबृंद । बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिब सुखकंद ॥ १०५ ॥ हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं । ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं ॥ तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला । नित नूतन सुंदर सब काला ॥ त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया । सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया ॥ एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ । तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ ॥ निज कर डासि नागरिपु छाला । बैठै सहजहिं संभु कृपाला ॥ कुंद इंदु दर गौर सरीरा । भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा ॥ तरुन अरुन अंबुज सम चरना । नख दुति भगत हृदय तम हरना ॥ भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी । आननु सरद चंद छबि हारी ॥ दो॰ जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल । नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल ॥ १०६ ॥ बैठे सोह कामरिपु कैसें । धरें सरीरु सांतरसु जैसें ॥ पारबती भल अवसरु जानी । गई संभु पहिं मातु भवानी ॥ जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा । बाम भाग आसनु हर दीन्हा ॥ बैठीं सिव समीप हरषाई । पूरुब जन्म कथा चित आई ॥ पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी । बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी ॥ कथा जो सकल लोक हितकारी । सोइ पूछन चह सैलकुमारी ॥ बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी । त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी ॥ चर अरु अचर नाग नर देवा । सकल करहिं पद पंकज सेवा ॥ दो॰ प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम ॥ जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम ॥ १०७ ॥ जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी । जानिअ सत्य मोहि निज दासी ॥ तौं प्रभु हरहु मोर अग्याना । कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना ॥ जासु भवनु सुरतरु तर होई । सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई ॥ ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी । हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी ॥ प्रभु जे मुनि परमारथबादी । कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी ॥ सेस सारदा बेद पुराना । सकल करहिं रघुपति गुन गाना ॥ तुम्ह पुनि राम राम दिन राती । सादर जपहु अनँग आराती ॥ रामु सो अवध नृपति सुत सोई । की अज अगुन अलखगति कोई ॥ दो॰ जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि । देख चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि ॥ १०८ ॥ जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ । कबहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ ॥ अग्य जानि रिस उर जनि धरहू । जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू ॥ मै बन दीखि राम प्रभुताई । अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई ॥ तदपि मलिन मन बोधु न आवा । सो फलु भली भाँति हम पावा ॥ अजहूँ कछु संसउ मन मोरे । करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें ॥ प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा । नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा ॥ तब कर अस बिमोह अब नाहीं । रामकथा पर रुचि मन माहीं ॥ कहहु पुनीत राम गुन गाथा । भुजगराज भूषन सुरनाथा ॥ दो॰ बंदउ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि । बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि ॥ १०९ ॥ जदपि जोषिता नहिं अधिकारी । दासी मन क्रम बचन तुम्हारी ॥ गूढ़उ तत्व न साधु दुरावहिं । आरत अधिकारी जहँ पावहिं ॥ अति आरति पूछउँ सुरराया । रघुपति कथा कहहु करि दाया ॥ प्रथम सो कारन कहहु बिचारी । निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी ॥ पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा । बालचरित पुनि कहहु उदारा ॥ कहहु जथा जानकी बिबाहीं । राज तजा सो दूषन काहीं ॥ बन बसि कीन्हे चरित अपारा । कहहु नाथ जिमि रावन मारा ॥ राज बैठि कीन्हीं बहु लीला । सकल कहहु संकर सुखलीला ॥ दो॰ बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम । प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम ॥