बालकाण्ड २
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दो॰ प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस संग । दारु बिचारु कि करइ कोउ बंदिअ मलय प्रसंग ॥ १०(क) ॥ स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान । गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान ॥ १०(ख) ॥ मनि मानिक मुकुता छबि जैसी । अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी ॥ नृप किरीट तरुनी तनु पाई । लहहिं सकल सोभा अधिकाई ॥ तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं । उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं ॥ भगति हेतु बिधि भवन बिहाई । सुमिरत सारद आवति धाई ॥ राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ । सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ ॥ कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी । गावहिं हरि जस कलि मल हारी ॥ कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना । सिर धुनि गिरा लगत पछिताना ॥ हृदय सिंधु मति सीप समाना । स्वाति सारदा कहहिं सुजाना ॥ जौं बरषइ बर बारि बिचारू । होहिं कबित मुकुतामनि चारू ॥ दो॰ जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग । पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग ॥ ११ ॥ जे जनमे कलिकाल कराला । करतब बायस बेष मराला ॥ चलत कुपंथ बेद मग छाँड़े । कपट कलेवर कलि मल भाँड़ें ॥ बंचक भगत कहाइ राम के । किंकर कंचन कोह काम के ॥ तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी । धींग धरमध्वज धंधक धोरी ॥ जौं अपने अवगुन सब कहऊँ । बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ ॥ ताते मैं अति अलप बखाने । थोरे महुँ जानिहहिं सयाने ॥ समुझि बिबिधि बिधि बिनती मोरी । कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी ॥ एतेहु पर करिहहिं जे असंका । मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका ॥ कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ । मति अनुरूप राम गुन गावउँ ॥ कहँ रघुपति के चरित अपारा । कहँ मति मोरि निरत संसारा ॥ जेहिं मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं । कहहु तूल केहि लेखे माहीं ॥ समुझत अमित राम प्रभुताई । करत कथा मन अति कदराई ॥ दो॰ सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान । नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान ॥ १२ ॥ सब जानत प्रभु प्रभुता सोई । तदपि कहें बिनु रहा न कोई ॥ तहाँ बेद अस कारन राखा । भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा ॥ एक अनीह अरूप अनामा । अज सच्चिदानंद पर धामा ॥ ब्यापक बिस्वरूप भगवाना । तेहिं धरि देह चरित कृत नाना ॥ सो केवल भगतन हित लागी । परम कृपाल प्रनत अनुरागी ॥ जेहि जन पर ममता अति छोहू । जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू ॥ गई बहोर गरीब नेवाजू । सरल सबल साहिब रघुराजू ॥ बुध बरनहिं हरि जस अस जानी । करहि पुनीत सुफल निज बानी ॥ तेहिं बल मैं रघुपति गुन गाथा । कहिहउँ नाइ राम पद माथा ॥ मुनिन्ह प्रथम हरि कीरति गाई । तेहिं मग चलत सुगम मोहि भाई ॥ दो॰ अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं । चढि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं ॥ १३ ॥ एहि प्रकार बल मनहि देखाई । करिहउँ रघुपति कथा सुहाई ॥ ब्यास आदि कबि पुंगव नाना । जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना ॥ चरन कमल बंदउँ तिन्ह केरे । पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे ॥ कलि के कबिन्ह करउँ परनामा । जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा ॥ जे प्राकृत कबि परम सयाने । भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने ॥ भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें । प्रनवउँ सबहिं कपट सब त्यागें ॥ होहु प्रसन्न देहु बरदानू । साधु समाज भनिति सनमानू ॥ जो प्रबंध बुध नहिं आदरहीं । सो श्रम बादि बाल कबि करहीं ॥ कीरति भनिति भूति भलि सोई । सुरसरि सम सब कहँ हित होई ॥ राम सुकीरति भनिति भदेसा । असमंजस अस मोहि अँदेसा ॥ तुम्हरी कृपा सुलभ सोउ मोरे । सिअनि सुहावनि टाट पटोरे ॥ दो॰ सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान । सहज बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं बखान ॥ १४(क) ॥ सो न होइ बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर । करहु कृपा हरि जस कहउँ पुनि पुनि करउँ निहोर ॥ १४(ख) ॥ कबि कोबिद रघुबर चरित मानस मंजु मराल । बाल बिनय सुनि सुरुचि लखि मोपर होहु कृपाल ॥ १४(ग) ॥ सो॰ बंदउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ । सखर सुकोमल मंजु दोष रहित दूषन सहित ॥ १४(घ) ॥ बंदउँ चारिउ बेद भव बारिधि बोहित सरिस । जिन्हहि न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर बिसद जसु ॥ १४(ङ) ॥ बंदउँ बिधि पद रेनु भव सागर जेहि कीन्ह जहँ । संत सुधा ससि धेनु प्रगटे खल बिष बारुनी ॥ १४(च) ॥ दो॰ बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन बंदि कहउँ कर जोरि । होइ प्रसन्न पुरवहु सकल मंजु मनोरथ मोरि ॥ १४(छ) ॥ पुनि बंदउँ सारद सुरसरिता । जुगल पुनीत मनोहर चरिता ॥ मज्जन पान पाप हर एका । कहत सुनत एक हर अबिबेका ॥ गुर पितु मातु महेस भवानी । प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी ॥ सेवक स्वामि सखा सिय पी के । हित निरुपधि सब बिधि तुलसीके ॥ कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा । साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरिजा ॥ अनमिल आखर अरथ न जापू । प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू ॥ सो उमेस मोहि पर अनुकूला । करिहिं कथा मुद मंगल मूला ॥ सुमिरि सिवा सिव पाइ पसाऊ । बरनउँ रामचरित चित चाऊ ॥ भनिति मोरि सिव कृपाँ बिभाती । ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती ॥ जे एहि कथहि सनेह समेता । कहिहहिं सुनिहहिं समुझि सचेता ॥ होइहहिं राम चरन अनुरागी । कलि मल रहित सुमंगल भागी ॥ दो॰ सपनेहुँ साचेहुँ मोहि पर जौं हर गौरि पसाउ । तौ फुर होउ जो कहेउँ सब भाषा भनिति प्रभाउ ॥ १५ ॥ बंदउँ अवध पुरी अति पावनि । सरजू सरि कलि कलुष नसावनि ॥ प्रनवउँ पुर नर नारि बहोरी । ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी ॥ सिय निंदक अघ ओघ नसाए । लोक बिसोक बनाइ बसाए ॥ बंदउँ कौसल्या दिसि प्राची । कीरति जासु सकल जग माची ॥ प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू । बिस्व सुखद खल कमल तुसारू ॥ दसरथ राउ सहित सब रानी । सुकृत सुमंगल मूरति मानी ॥ करउँ प्रनाम करम मन बानी । करहु कृपा सुत सेवक जानी ॥ जिन्हहि बिरचि बड़ भयउ बिधाता । महिमा अवधि राम पितु माता ॥ सो॰ बंदउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद । बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ ॥ १६ ॥ प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू । जाहि राम पद गूढ़ सनेहू ॥ जोग भोग महँ राखेउ गोई । राम बिलोकत प्रगटेउ सोई ॥ प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना । जासु नेम ब्रत जाइ न बरना ॥ राम चरन पंकज मन जासू । लुबुध मधुप इव तजइ न पासू ॥ बंदउँ लछिमन पद जलजाता । सीतल सुभग भगत सुख दाता ॥ रघुपति कीरति बिमल पताका । दंड समान भयउ जस जाका ॥ सेष सहस्त्रसीस जग कारन । जो अवतरेउ भूमि भय टारन ॥ सदा सो सानुकूल रह मो पर । कृपासिंधु सौमित्रि गुनाकर ॥ रिपुसूदन पद कमल नमामी । सूर सुसील भरत अनुगामी ॥ महावीर बिनवउँ हनुमाना । राम जासु जस आप बखाना ॥ सो॰ प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानधन । जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर ॥ १७ ॥ कपिपति रीछ निसाचर राजा । अंगदादि जे कीस समाजा ॥ बंदउँ सब के चरन सुहाए । अधम सरीर राम जिन्ह पाए ॥ रघुपति चरन उपासक जेते । खग मृग सुर नर असुर समेते ॥ बंदउँ पद सरोज सब केरे । जे बिनु काम राम के चेरे ॥ सुक सनकादि भगत मुनि नारद । जे मुनिबर बिग्यान बिसारद ॥ प्रनवउँ सबहिं धरनि धरि सीसा । करहु कृपा जन जानि मुनीसा ॥ जनकसुता जग जननि जानकी । अतिसय प्रिय करुना निधान की ॥ ताके जुग पद कमल मनावउँ । जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ ॥ पुनि मन बचन कर्म रघुनायक । चरन कमल बंदउँ सब लायक ॥ राजिवनयन धरें धनु सायक । भगत बिपति भंजन सुख दायक ॥ दो॰ गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न । बदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न ॥ १८ ॥ बंदउँ नाम राम रघुवर को । हेतु कृसानु भानु हिमकर को ॥ बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो । अगुन अनूपम गुन निधान सो ॥ महामंत्र जोइ जपत महेसू । कासीं मुकुति हेतु उपदेसू ॥ महिमा जासु जान गनराउ । प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ ॥ जान आदिकबि नाम प्रतापू । भयउ सुद्ध करि उलटा जापू ॥ सहस नाम सम सुनि सिव बानी । जपि जेई पिय संग भवानी ॥ हरषे हेतु हेरि हर ही को । किय भूषन तिय भूषन ती को ॥ नाम प्रभाउ जान सिव नीको । कालकूट फलु दीन्ह अमी को ॥ दो॰ बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास । राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास ॥ १९ ॥ आखर मधुर मनोहर दोऊ । बरन बिलोचन जन जिय जोऊ ॥ सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू । लोक लाहु परलोक निबाहू ॥ कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके । राम लखन सम प्रिय तुलसी के ॥ बरनत बरन प्रीति बिलगाती । ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती ॥ नर नारायन सरिस सुभ्राता । जग पालक बिसेषि जन त्राता ॥ भगति सुतिय कल करन बिभूषन । जग हित हेतु बिमल बिधु पूषन . स्वाद तोष सम सुगति सुधा के । कमठ सेष सम धर बसुधा के ॥ जन मन मंजु कंज मधुकर से । जीह जसोमति हरि हलधर से ॥