उणादिकोशः/पञ्चमपादः-५
← चतुर्थपादः-४ | उणादिकोशः पञ्चमपादः-५ [[लेखकः :|]] |
अथ पञ्चमपादारम्भः
---------------
1.अदिभुवो डुतच्।।1।।
अद्भुतम्।।1।।
1.त्र्प्रदित्यव्ययं कदाचिदर्थे। त्र्प्रद् भवतीति त्र्प्रद्भुतम् त्र्प्राश्चर्यम्। त्र्प्रद्भुतमधीते। त्र्प्रद्भुताध्यापकः।।
2.गुधेरूमः।।2।।
गोधूमः।।2।।
2.गुध्यति वेष्टयतीति गोधूमः अन्नविशेषो वा। गोधूमस्य विकारो `गोधूममयः'।।
3.मसेरूरन्।।3।।
मसूरः।।3।।
3.मस्यति परिणमतेऽसौ मसूरः व्रीहिभेदो वेश्या वा।।
4.स्थः किच्च।।4।।
स्थूरः।।4।।
4.तिष्ठतीति स्थूरः मनुष्यो वा। तस्यापत्यं `स्थौर्य्यः'
5.पातेरतिः।।5।।
पातिः।।5।।
5.पाति रक्षतीति पातिः स्वामी। `सम्पातिः' पक्षिराजो वा।।
6.वातेर्नित्।।6।।
वातिः।।6।।
6.वातिर गच्छतीति वातिः सूर्यश्चन्द्रो वा।।
7.अर्त्तेश्च।।7।।
त्र्प्ररतिः।।7।।
7.अर्यते गम्यते सा त्र्प्ररतिः उद्वेगो वा।।
8.तृहेः क्नो हलोपश्च।।8।।
तृणम्।।8।।
8.तृह्यते हन्यते तत् तृणम् प्रसिद्धमेव।।
9.वृञ्लुठितनिताडिभ्य उलच् तण्डश्च।।9।।
तण्डुलाः।।9।।
9.व्रियन्ते लुठ्यन्ते तन्यन्ते ताड्यन्ते वा ते तण्डुलाः प्रसिद्धा वा। वृञादीनां स्थाने तण्डादेशः।।
10.दंसेष्टटनौ न आ च।।10।।
दासः।।10।।
10.दंसयति दशति पश्यति वा स दासः सेवकः शूद्रो वा। टित्वान् ङीप्-`दासी'। नकारस्याकारः। नित्करणं पक्षत्र्प्राद्युदात्तार्थम्।।
11.दंशेश्च।।11।।
दाशः।।11।।
11.टटनौ नकारस्य चात्वम्। दशति मत्स्यादिकमिति दाशः धीवरः। स्त्रियां---`दाशी' धीवरी।।
12.उदि चेर्डैसिः।।12।।
उच्चैः।।12।।
12.उञ्चीयते वर्ध्यतेऽसौ उच्चैः महान् वा। स्वरादित्वाद्रव्ययम्।।
13.नौ दीर्घश्च।।13।।
नीचैः।।13।।
13.चेरित्येव। निचीयत इति नीचैः अधोऽधमो वा। त्र्प्रस्यापि स्वरादित्वादेवाव्ययत्वम्।।
14.सो रमेः क्तो दमे पूर्वपदस्य च दीर्घः।।14।।
सूरतः।।14।।
14.सुष्ठु रमत इति सूरतः उपशान्तः कृपालुर्वां। दमार्थादन्यत्र---`सुरतः' क्रीडायुक्तः।।
15.पूञो यण् णुग्घ्रस्वश्च।।15।।
पुण्यम्।।15।।
15.पवते पवित्रो भवति येन तत् पुण्यम् सुकृतो धर्मो वा।।
16.स्रंसेः शिः कुट् किच्चै।।16।।
शिक्यम्।।16।।
16.स्रं सते गच्छतीति शिक्यम् काजः`छींका' इति प्रसिद्धः। तत्र घृतं वस्तु `शैक्यम्'।।
17.अर्त्तेः क्युरुच्च।।17।।
उरणः।।17।।
17.ऋच्छति गच्छतीति उरणःमेषो वा।।
18.हिसेरीरन्नीरचौ।।18।।
हिंसीरः।।18।।
18.हिनस्तीति हिंसीरः व्याघ्रो दुष्टो वा। प्रत्ययद्वयं स्वरभेदार्थम्।।
19.उदि दृणातेरलचौ पूर्वपदान्त्यलोपश्च।।19।।
उदरम्।।19।।
19.उद् दृणाति येनान्नमिति उदरम् कुक्षिस्थानम्। प्रत्ययभेदोऽत्रापि स्वरभेदार्थः।।
20.डित्खनेर्मुट् चोदात्तः।।20।।
मुखम्।।20।।
20.खनेरलचौ। तयोर्डित्त्वं धातोर्मुडागमश्च। तस्योदात्तत्वम्।र खनत्यन्नादिकमनेनेति मुखम् त्र्प्रास्यम्। मुखे भवो `मुख्यः' रोगः। शरीरावयवाद्यत्[5। 1। 6] मुखमिवोत्तमं मुख्यम्। शाखादित्वादिवार्थे यः।।
21.अमेः सन्।।21।।
त्र्प्रंसः।।21।।
21.त्र्प्रमति गच्छति प्राप्नोति येन स त्र्प्रंसः स्कन्धो विभागो वा। अंसोऽस्यास्तीति `अंसलः'।।
22.मुहेः खो मूर्च।।22।।
मूर्खः।।22।।
22.मुह्यति विक्षिप्ति इव इव भवतीति मूर्खः। मूर्खस्य भावो `मौर्ख्यः;मूर्खिमा वा। बाहुलकात् खस्येनादेशाभावः।।
23.नहेर्हलोपश्च।।23।।
नखः।।23।।
23.नह्यति बध्नाति रुधिरादिकमिति नखः प्राण्यङ्गं वा।।
24.शीङो ह्रस्वश्च।।24।।
शिखा।।24।।
24.खः। शेतेऽसौ सिखा चूडाकेसभेदो ज्वाला वा। ह्रस्वविधानसामर्थ्याद् गुणाऽभावः।।
25.माङ् ऊखो मय च।।25।।
मयूखः।।25।।
25.मिमीते मान्यहेतुर्भवतीति मयूखः किरणः कान्तिः करो ज्वाला वा।।
26.कलिगलिभ्यां फगस्योच्च।।26।।
कुल्फः। गुल्फः।।26।।
26.कलति संख्यातीति कुल्फः शीरावयवो रोगो वा। गलति भक्षयतीति गुल्फः पादग्रन्थिर्वा।
27.स्पृशेः श्वण्शुनौ पृ च।।27।।
पार्श्वः। पर्शुः।।27।।
27.स्पृशति येन स पार्श्वः कक्षयोरधोभागो वा। पर्शुः त्र्प्रायुधं वा।।
28.श्मनि श्रयतेर्डुन्।।28।।
श्मश्रु।।28।।
28.श्मनि मुखे श्रयतीति श्मश्रु; श्मश्रुणी; श्मश्रूणि पुरुषमुखोरोमाणि वा।।
29.अश्व्रादयश्च।।29।।
अश्रुः।।29।।
29.त्र्प्रश्नुते व्याप्नोतीति त्र्प्रश्रु नेत्रजलं वा। डुन् प्रत्ययो रुडागमश्च एवमन्येऽपि यथायोग्यं द्रष्टव्याः।।
30.जनेष्टन् नलोपश्च।।30।।
जटा।।30।।
30. जायतेऽसौ जटा दीर्घाः केशा वा। जटा त्र्प्रस्य सन्तीति `जटालः'--- सिध्मादित्वाल्लवच्। `जटिल'----पिच्छादित्वालिलच्।।
31.अच् तस्य जङ्घ च।।31।।
जङ्घा।।31।।
31.तस्य जनेः। जायतेऽसौ जङ्घा जानोरधोभागो वा।।
32.हन्तेः शरीरावयवे द्वे च।।32।।
जघनम्।।32।।
32.हन्ति येन् यद् वा हन्यते तत्जघनम् जानोरुपरिभागो वा। इवार्थे शाखादित्वाद्यः। जघनमिव `जघन्यं' नीचम्।।
33.क्लिशेरन् लो लोपश्च।।33।।
केशः।।33।।
33.क्लिश्यति येन स केशः शिरलोमानि वा। केशा त्र्प्रस्य सन्तीति---`केशवः; केशिकः; केशी'।।
34.फलेरितजादेश्च पः।।34।।
पलितम्।।34।।
34.फलति निष्पन्नं पक्वमिव भक्तीति पलितम् केशश्चैत्यं वा। फस्य पः।।
35.कृञादिभ्यः संज्ञायां वुन्।।35।।
करकः। कटकः। नरकम्। कोरकः।।35।।
35.करोतीति करकः; करका वृष्टिपाषाणो वा --करको दाडिमः कमण्डलुर्वा। कटति वर्षत्यावृणोति वा स कटकः बाहुभूषणं शिखरो वा। नृणाति नयतीति नरकम् पापभागो वा। सरति गच्छतीति सरकम् गमनं वा। अलति भूषितो भवतीति त्र्प्रलकम् शीतादिकं वा। अलति वारयति येभ्यस्ते त्र्प्रलकाः कुटिलाः केशा वा। [कुरति शब्दयतीति] कोरकः कलिका `कली' इति प्रसिद्धा।।
36.चीकयतेराद्यन्तविपर्ययश्च।।36।।
कीचकः।।36।।
36.चीकयते सहतेऽसौ कीचकः वंशभेदो वा।।
37.पचिमच्योरिच्चोपधायाः।।37।।
पेचकः। मेचकः।।37।।
37.पचतीति पेचकः उलूकपक्षी वा। मचते शब्दयतीति मेचकः कृष्णवर्णो मयूरपक्षचिह्नं वा।।
38.जरेंररष्ठ च।।38।।
जठरम्।।38।।
38.जायतेऽस्मादिति जठरम् उदरं कठिन वा।।
39.वचिमनिभ्यां चिच्च।।39।।
वठरः। मठरः।।39।।
39.अन्त्यस्य ठः। वक्तीति वठऱः मूर्खो वा। मन्यतेऽसौ मठरःमुनिभेदो मत्तो वा। तस्यापत्यं `माठरः; मार्ठ्यः'।।
40.ऊर्जि दृणातेरलचौ।।40।।
ऊर्दरः।।40।।
40.ऊर्क् पराक्रमं रसं वा दृणातीति ऊर्दरः शूरो दुष्टो वा। स्वरभेदार्थं प्रत्ययद्वयम्।।
41.कृदरादयश्च।।41।।
कृदरः। मृदर। सृदरः।।41।।
41.कृत्स्नं पराक्रमं रसां वा दृणातीति ऊर्दरः शूरो दुष्टो वा। मुदं दृणातीति मृरः व्याधिर्विलं वा। सृष्टिं दृणातीति सृदरः सर्पः।।
42.हन्तेर्युन्नाद्यन्तयोर्घत्वतत्वे।।42।।
घातनः।।42।।
42.हन्तीति घातनः मारको वा।।
43.क्रमिगमिक्षमिभ्यस्तुन् वृद्धिश्च।।43।।
क्रान्तुः। गान्तुः। क्षान्तुः।।43।।
43.क्रामति पादान् विक्षपतीति क्रान्तुः पक्षी वा। गच्छतीति गान्तुः पथिको वा। । `आगान्तुः' त्र्प्रभ्यागतः। क्षमतेऽसौ क्षान्तुः सहनशीलो वा।।
44.हर्यतेः कन्यन् हिरच्।।44।।
हिरण्यम्।।44।।
44.हर्यते काम्यते तत् हिरण्यम् सुवर्णं वा।।
45.कृञः पासः।।45।।
कर्पासः।।45।।
45.क्रियत उत्पाद्यतेऽसौ कर्पासः सस्यभेदो वा। कर्पासस्य विकारः `कार्पासम्'वस्त्रम्। बिल्वादित्वादण्।।
46.जनेस्तुरश्च।।46।।
जर्त्तुः।।46।।
46.जायते यत इति जर्त्तुः उपस्थेन्दिरयं हस्ती वा।।
47.ऊर्णोतेर्डः।।47।।
ऊर्णा।।47।।
47.ऊर्णोत्याच्छादयति यया सा ऊर्णा अविमेषयो रोमाणि वा। ऊर्णां याति प्राप्नोतीति `ऊर्णायुः' मेषो मेषोर्णा कम्बलो वा। ऊर्णा इव नाभिरस्य स `ऊर्णनाभः'--समासान्तोच्। `ऊर्णनाभिऋ' इति वा। समासान्तस्य विधेरनित्यत्वात्। लूताहिर्वा।।
48.दधातेर्यन्नुट् च।।48।।
धान्यम्।।48।।
48.तधाति पुष्णाति लोकानिति धान्यम् व्रीहिर्वा। धाने पोषणें साधु `धान्यम्' इत्यपि।।
49.जीर्यतेः क्रिन् रश्च वः।।49।।
जिव्रिः।।49।।
49.यो जीर्यति येन वा स जिव्रिः कालः पक्षी वा। हलि च[8। 2। 77] इति बाहुलकाद्दीर्घाभावः।।
50.मव्यतेर्यलोपो मश्चापतुट्चालः।।50।।
ममापतालः।।50।।
50.मव्यति वघ्नातीति ममापतालः बन्धनहेतुर्विषयो वा।।
51.ऋजः कीकच्।।51।।
ऋजीकः।।51।।
51.त्र्प्रर्जति गच्छतीति ऋजीकः सूर्यो धूमो वा।।
52.तनोतेर्डः सन्वच्च।।52।।
तितउः।।52।।
52.तनोति विस्तृणोति येन तत् तितउः`चालनी' पेषणशोधकपात्रम्।।
53.अर्भकपृथुकपाका वयसि।।53।।
53.ऋध्यति वर्धतेऽसौ त्र्प्रर्भकः। `ऋधु' धातोर्वुन् धस्य भः। प्रथते वर्धते स पृथुकः। कुकन् प्रत्ययः सम्प्रसारणं च । पिबतीति पाकः। कन् प्रत्ययः। त्र्प्रर्भकपृथुकपाका बालकपर्यायाः।।
54.अवद्यावमाधमार्वरेफाः कुत्सिते।।54।।
54.वदितुमयोग्यम् त्र्प्रवद्यम् नञ्पूर्वाद् `वद' धातोर्यत्। अवतीति त्र्प्रवमम्। त्र्प्रमः प्रत्ययः। तत्रैव वस्य धः---त्र्प्रधमम्। ऋच्छति गच्छतीति त्र्प्रर्वा त्र्प्रश्वो वा। वन्। रिफति निन्दतीति रेफः। कुत्सित पर्याया इमे।।
55.लीरीङोर्ह्रस्वः पुट् च तरौ श्लेषणकुत्सनयोः।।55।।
लिप्तम्। रिप्रम्।।55।।
55.लीयते श्लिष्यत इति लिप्तम् श्लिष्टम्। रीयते तत् रिप्रम् कुत्सितम्। तरौ प्रत्ययौ पुडागमः।।
56.क्लिशेरीच्चोपधायाः कन् लोपश्च लो नाम् च।।56।।
कीनाशः।।56।।
56.क्लिश्नातीति कीनाशः कृषीवलो न्यायाधीशो वा। धातोरुपधाया ईत्वं लकारलोपः कन् प्रत्ययो नामागमश्चान्त्यादचः परः।।
57.अश्नोतेराशुकर्मणि वरट् च।।57।।
ईश्वरः।।57।।
57.अश्नुते त्र्प्राशु शीघ्रं करोति जगद्रचयति स ईश्वरः स्वामी वा। टित्वात् `ईश्वरी'। वरच् प्रत्यये `ईश्वरा'।।
58.चतेरुरन्।।58।।
चत्वारः।।58।।
58.चतते याचतेऽसौ चतुः संख्यावाची वा। चत्वारः। चतस्रः।
59.प्राततेररन्।।59।।
प्रातः।।59।।
59.प्रकृष्टमतति गच्छतीति प्रातः प्रभातकालो वा। स्वरादित्वादव्ययम्।।
60.त्र्प्रमेस्तुट् च।।60।।
त्र्प्रन्तः।।60।।
60.त्र्प्रमति गच्छति यत्रेति त्र्प्रन्तः मध्यं वा। पूर्ववदव्ययम्।।
61.दहेर्गोहलोपो दश्च नः।।61।।
नगः।।61।।
61.दहति दह्यते वा स नगः पर्वतो वृक्षो वा। बाहुलकान्नकारम्य नाकारः----नागः सर्पभेदो वा।।
62.सिचे संज्ञायां हनुमौ कश्च।।62।।
सिंहः।।62।।
62.सिञ्चतीति `सिंहः' इति पृषोदरादित्वादप्याद्यन्तविपर्ययः।।
63.व्याङि घ्रातेश्च जातौ।।63।।
व्याघ्रः।।63।।
63.विशेषेण समन्ताज् जिघ्रतीति व्याघ्रः हस्ती वा
64.हन्तेरच् घुर च।।64।।
घोरम्।।64।।
64.हन्तीति घोरम् भयानकं वा।।
65.क्षमेरुपधालोपश्च।।65।।
क्ष्मा।।65।।
65.क्षमते सहते सर्वमिति क्ष्मा पृथिवी वा।।
66.तरतेर्ड्रिः।।66।।
त्रयः।।66।।
66.तरतीति त्रिः संख्यावाची वा। त्रयः। त्रीन्। त्रिभ्यः।।
67.ग्रहेरनिः।।67।।
ग्रहणिः।।67।।
67.गृह्णातीति ग्रहणिः। कृदिकारादिति ङीष्---`ग्रहणी' संग्रहणी व्याधिभेदो वा।।
68.प्रथेरमच्।।68।।
प्रथमः।।68।।
68.प्रथते प्रख्यातो भवतीति प्रथमः आद्य उत्तमो नूतनो वा।।
69.चरेश्च।।69।।
चरमः।।69।।
69.चरति गच्छति भक्षयतीति वा स चरमः त्र्प्रन्त्यः पश्चिमो वा।।
70.मङ्गेरलच्।।70।।
मङ्गलम्।।70।।
इत्युणादिषु पञ्चमःच पादः समाप्तः।।
मन्थानं विशदं विधाय बहुलं व्युत्पन्नपक्षेन वा
ऽव्युत्पन्नेन दलेन येन विधिवद्वाग्वारिधिर्मन्थितः।
व्यक्ताव्यक्ततराणि यत्र वचसां रत्नान्यदीप्यन्त वै
भूयात् सोऽयमुणादिरुत्तमगणोऽध्येतुर्यशोवृद्धये।।
70.मङ्गति प्राप्नोति सुखं येन तत् मङ्गलम् प्रशस्तं मङ्गलो वारभेदो वा। मङ्गलस्य भावो `माङ्गल्यम्'।।
इति क्षीमत्स्वामिदयानन्दसारस्वतीकृतोणादिव्याख्यायां
वैदिकलौकिककोषे पञ्चमः पादः समाप्तः।।
समाप्तश्चायं ग्रन्थः।।
----------------------